Monday, August 9, 2010

ये 'दोस्ती" और लांछन के छींटे!

राजनीति में दोस्ती के मायने कुछ अलग होते हैं। यह 'शोले" के वीरू और जय की तरह नहीं होती कि छोडेंगे दम मगर तेरा साथ ना छोड़ेंगे। राजनीति की दोस्ती स्वार्थ के पेंच के साथ कसी रहती है। जब भी स्वार्थ की डोर ढीली पड़ती है तो दोस्ती के पेंच ढीले हो जाते हैं और एक दिन गांठ भी खुल जाती है। याद कीजिए मुलायम सिंह और अमर सिंह की दोस्ती! इनकी कसमें खाई जाती थी। दोनों की तरफ से यह दावा किया जाता था कि हमारी दोस्ती किसी स्वार्थ की मोहताज नहीं है। अमर सिंह कहते थे कि मैं लक्ष्मण हूँ और मुलायम सिंह राम हैं। कई बार ऐसे प्रसंग आए जब लोगों ने दोस्ती की राह में काली बिल्ली को दौड़ाकर रास्ता काटने की कोशिश की, पर बात नहीं बनी। लेकिन, यह दांत काटी दोस्ती पल भर में दरक गई और ऐसी दरकी कि दोनों दो किनारों की तरह अलग हो गए। धीरे-धीरे हालात यह बन गए कि दोनों एक-दूसरे का मरना मनाने लगे। अब हालात यह है कि अमर सिंह खम ठोंककर मुलायम सिंह के सामने खड़े हो गए।
ऐसी ही दोस्ती मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी में कद्दावर नेता और मंत्री कैलाश विजयवर्गीय और विधायक रमेश मैंदौला के बीच भी मानी जाती है। इंदौर के विधानसभा क्षेत्र नंबर 2 के एकछत्र नेता रहे कैलाश के राजनीतिक कद के पीछे रमेश की मेहनत मानी जाती है। नजदीक से जानने वाले इस बात को सही भी मानते हैं कि कैलाश की सफलता के पीछे रमेश ही है, और कोई नहीं! बात सही भी होगी और इस पर शक भी नहीं किया जा सकता। लेकिन, दोस्ती का पैमाना सिर्फ सफलता को माना जाए, ऐसा नहीं है। असफलता और रास्ते में आई अड़चनों का कारण भी कई बार यही दोस्ती बनती है। आज कैलाश विजयवर्गीय पर आए नए संकट का कारण भी रमेश मैंदोला को माना जा रहा है। लोग मानते हैं कि एक कॉलेज की लीज की जमीन को किसी कंपनी को उसके व्यावसायिक हित के लिए लीज पर देने के फैसले के पीछे यदि कैलाश पर संदेह की सुई घूमी है तो इसका कारण उनका दोस्त रमेश के अलावा और कोई नहीं है!
यह फैसला उस दौर का है जब कैलाश विजयवर्गीय मंत्री होने के साथ-साथ इंदौर के मैयर भी हुआ करते थे और रमेश महज पार्षद थे। पार्षद होने के नाते 'मैयर इन काउंसिल" में शामिल किए गए थे। रमेश के फैसले को कैलाश ने शह दी और बात सरकार के पाले तक पहुँची और फिर राजनीतिक विरोधियों ने इसका भंडाफोड़ करके उसे हवा दे दी! इसके बाद अखबारों के पन्नो रंगे गए और कई तरह के लांछन लगे। सबका सुर ही था कि कैलाश को भ्रमित करके रमेश ने यह व्यावसायिक लेनदेन किया है। लेकिन, कैलाश ने हमेशा ही इस बात को गलत बताया और दोस्ती निभाई। यही दोस्ती वे आज भी निभा रहें। यह शक जताने वाले भी कम नहीं है कि आखिर इस दोस्ती का आधार क्या है? क्या महज राजनीतिक फायदे-नुकसान की खातिर ही यह साथ पनपा है या कहानी कुछ और है! कारण चाहे जो भी हो अब इस दोस्ती की परते उघड़ने लगी है।
कभी विद्युत मंडल की नौकरी करने वाले रमेश मैंदोला ने 80 के दशक में नौकरी छोड़कर राजनीति की राह पर उतरने का फैसला किया था। पहले पार्षद और पहली बार विधायक बने रमेश को उम्मीद नहीं थी कि राजनीति की पहली सीढ़ी पर ही उनका पैर फिसल जाएगा। अगले विधानसभा चुनाव में यदि उन्होंने पार्टी के सामने टिकट का दावा किया तो तय है कि उन्हें शक के दायरे में देखा जाएगा!
अभी तक देखा गया है कि जब भी कैलाश विजयवर्गीय पर उनके किसी राजनीतिक विरोधी ने हमला किया है तो पहला निशाना रमेश मैंदोला को बनाया गया। क्योंकि, माना जाता है कि कैलाश के हर फैसले में रमेश का हाथ होता है, रमेश वही करते हैं जो कैलाश चाहते हैं। दरअसल, यह दोस्ती का मामला कम राजनीतिक फायदे और नुकसान का ज्यादा समझा जाता है। कैलाश विजयवर्गीय पर जब गरीबों की पेंशन में घोटाला करने का लांछन लगा तो तो उसमें रमेश को सहयोगी माना गया। अब कॉलेज की जमीन की कथित अफरातफरी का विवाद सामने आया तो कहा जा रहा है कि बगैर मंत्री की मर्जी के उनका प्यादा इतना बड़ा खेल कर दे, यह कैसे संभव है? बात सही भी है और इसमें दम भी है। आखिर दोस्ती जब इतनी पक्की है तो कैसे मान लें, कि बाँय हाथ की कारगुजारी की खबर दाँय हाथ को नहीं थी। यदि वास्तव में ऐसा हुआ है तो इसे दोस्ती नहीं माना जा सकता, यह एक समझौता है जिसमें राजनीति के हंसिये से चांदी काटकर माल का बंटवारा करने का धंधा चलाया जा रहा है। कम से कम लोग जिन्हे राजनीतिक नजरिए से वोटर कहा जाता है, वे तो यही मान रहे हैं!