Saturday, March 25, 2023

सुमन कल्याणपुर को पद्म सम्मान जैसे किसी गलती का सुधर जाना!

- हेमंत पाल 

     सुमन कल्याणपुर का जब भी जिक्र आता है, लोगों को ये नाम अनजाना नहीं लगता। इसलिए कि इस सुमधुर गायिका ने कई गानों को अपनी सुरीली आवाज से सजाया है। इनमें ना तुम जानो न हम, दिल गम से जल रहा है, मेरे संग गा, मेरे महबूब न जा, जो हम पे गुजरती है और 'बहना ने भाई की कलाई में' आदि गाने शामिल हैं। इस गायिका के पिछड़ने का कारण ये रहा कि उनकी आवाज लता मंगेशकर से बहुत ज्यादा मिलती है। इतनी कि सुनने वाले को दोनों की आवाज में फर्क करना मुश्किल होता था। सुमन कल्याणपुर  इस वजह से कई बार नाइंसाफी भी हुई। लता मंगेशकर की आवाज से सजा गाना 'ए मेरे वतन के लोगों' पहले सुमन कल्याणपुर ही गाने वाली थीं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने हाल ही में नागरिक अलंकरण समारोह में वर्ष 2023 के लिए पार्श्व गायिका सुमन कल्याणपुर को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया है।  
      फ़िल्मी दुनिया की रिवाज अजीब है। यहां एक बड़ी प्रतिभा के पीछे कई दूसरी प्रतिभाएं दब जाती है। ऐसे ही जब मंगेशकर बहनों का डंका बजता था, तब कई मधुर पार्श्व गायिकाओं को आगे बढ़ने का मौका नहीं मिला। ऐसी ही एक गायिका हैं, सुमन कल्याणपुर। उन्होंने अपने दौर के करीब सभी बड़े संगीतकारों के लिए गीत गाए। उनकी आवाज और गायकी का अंदाज काफी हद तक लता मंगेशकर से मिलता था। यही कारण रहा कि जब भी लता की किसी संगीतकारों या गायकों से अनबन हुई, तो उसका लाभ सुमन कल्याणपुर को मिला। लेकिन, उनके जीवन में एक घटना ऐसी घटी जो उन्हें आज भी कचोटती है। महाराष्ट्र के नांदेड़ में आयोजित 'आषाढी महोत्सव' के दौरान सुमन कल्याणपुर ने उस बात का खुलासा भी किया था। उन्होंने बताया था कि सन 1946 में पंडित नेहरू के सामने मुझे 'ए मेरे वतन के लोगों' गीत गाने का मौका मिला था। ये जानकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। लेकिन, जब कार्यक्रम के दौरान गाना गाने के लिए मंच के पास पहुंची तो मुझे रोका गया और कहा गया कि वे इस गाने के बजाए आप दूसरा गाना गाएं। कल्याणपुर ने बताया था कि 'ए मेरे वतन लोगों' मुझसे छीन लिया गया। यह मेरे लिए बड़ा सदमा था। उन्हें यह बात आज भी चुभती है।
    एक समय जब किसी मामले में मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर में अनबन हुई तो इसका लाभ सुमन कल्याणपुर को मिला। रफ़ी के साथ गाए उनके अधिकांश गीत कामयाब हुए। दिल एक मंदिर है, तुझे प्यार करते हैं करते रहेंगे, अगर तेरी जलवानुमाई न होती, मुझे ये फूल न दे, बाद मुद्दत के ये घड़ी आई, ऐ जाने तमन्ना जाने बहारां, तुमने पुकारा और हम चले आए, अजहूं न आए बालमा, ठहरिए होश में आ लूं तो चले जाईएगा, पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है, ना ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे, रहें ना रहें हम महका करेंगे, इतना है तुमसे प्यार मुझे मेरे राजदार और 'दिले बेताब को सीने से लगाना होगा' जैसे गीत उसी दौर में बने थे।
     अपनी गुमनाम जिंदगी के बावजूद सुमन कल्याणपुर का लता मंगेशकर से हमेशा अपनत्व बना रहा। उन्हें आज भी लता जी के गाने पसंद हैं। उनका कहना है कि लता दीदी की आवाज बहुत कोमल और मधुर थी। उनकी आवाज मतलब एक ऐसा स्वर जो हम सभी के लिए आदर्श था। आज वह स्वर नहीं रहा, इसलिए कुछ खोया-खोया सा लगता है। लेकिन, उनके गाने हमारे बीच आज भी हैं और हमेशा रहेंगे। मैं उनसे चार या पांच बार ही मिली, लेकिन जब भी मिली तो मुझे अपनापन महसूस होता था। शायद यही अपनापन वे भी महसूस करती थीं। हम एक-दूसरे का हाथ पकड़ बातें किया करते थे। लगता था जैसे लम्बे अरसे बाद दो सहेलियां मिल रही हों। हमारा एक ही डुएट गाना 'चांद के लिए' भी रिकॉर्ड हुआ था।'
    सुमन कल्याणपुर का जन्म 28 जनवरी 1937 को ढाका में (उस वक्त भारत का हिस्सा था) सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के बड़े बाबू शंकरराव हेमाड़ी के यहां उनकी पहली संतान के रूप में हुआ। शंकर बाबू और उनकी पत्नी सीता ने अपनी बेटी का नाम सुमन रखा। सुमन के अलावा शंकर बाबू के यहां पांच संतानें और हुईं। बच्चों की बेहतर पढ़ाई-लिखाई का सपना संजोकर शंकर बाबू परिवार के साथ 1943 में मुंबई चले आए। उनके घर में कला और संगीत की तरफ सभी का झुकाव था। लेकिन, इतनी इजाजत नहीं थी कि सार्वजनिक तौर पर गाया जाए। पहली बार उन्हें 1952 में 'ऑल इंडिया रेडियो' पर गाने का मौका मिला। ये सुमन कल्याणपुर का पहला सार्वजनिक कार्यक्रम था!
    इसके बाद 1954 में उन्हें मराठी फिल्म 'शुक्राची चांदनी' में गाने का मौका मिला। उन्हीं दिनों शेख मुख्तार फिल्म 'मंगू' बना रहे थे जिसके संगीतकार मोहम्मद शफी थे। मराठी गीतों  प्रभावित होकर ही उन्हें 'मंगू' में तीन गीत रिकॉर्ड करवाए थे। किन्तु, न जाने क्या हुआ और 'मंगू' संगीतकार को बदल दिया गया। मोहम्मद शफी की जगह ओपी नैयर आ गए। उन्होंने सुमन कल्याणपुर के तीन में से दो गीत हटा दिए और सिर्फ एक लोरी 'कोई पुकारे धीरे से तुझे' ही रखी। 'मंगू' के फौरन बाद उन्हें इस्मत चुगताई और शाहिद लतीफ की फिल्म 'दरवाजा' में नौशाद के साथ पाँच गीत गाने का मौका मिला। 1954 में उन्हें ओपी नैयर के निर्देशन में बनी फिल्म 'आरपार' के हिट गीत 'मोहब्बत कर लो, जी कर कर लो, अजी किसने रोका है' में रफी और गीता का साथ देने का मौका मिला था। सुमन के मुताबिक इस गीत में उनकी गाई एकाध पंक्ति को छोड़ दिया जाए तो उनकी हैसियत महज कोरस गायिका की सी रह गई थी।
    आज भी उनका नाम उन सुरीली गायिकाओं में होता है, जिन्होंने लता मंगेशकर के एकाधिकार के दौर में अपनी पहचान बनाई। इसके बावजूद उन्हें वो जगह कभी नहीं मिली, जिसकी वो हकदार थीं। शास्त्रीय गायन की समझ, मधुर आवाज़ और लम्बी रेंज जैसी सभी खासियतों के होते हुए भी सुमन कल्याणपुर को कभी लता मंगेशकर की परछाईं से मुक्त नहीं होने दिया गया। अपने करीब तीन दशक के अपने करियर में उन्होंने कई भाषाओं में तीन हजार से ज्यादा फिल्मी-गैर फिल्मी गीत-ग़ज़ल गाए। बचपन से सुमन कल्याणपुर की पेंटिंग और संगीत में सुमन की हमेशा से दिलचस्पी थी। अपने पारिवारिक मित्र और पुणे की प्रभात फिल्म्स के संगीतकार पंडित 'केशवराव भोले' से गायन उन्होंने संगीत सीखा। उन्होंने गायन को महज़ शौकिया तौर पर सीखना शुरू किया था। लेकिन, धीरे-धीरे इस तरफ उनकी गंभीरता बढ़ने लगी तो वो विधिवत रूप से 'उस्ताद खान अब्दुल रहमान खान' और 'गुरूजी मास्टर नवरंग' से संगीत की शिक्षा लेने लगीं।
     सत्तर के दशक में नए संगीत निर्देशकों और गायिकाओं के आने के साथ ही सुमन कल्याणपुर की व्यस्तताएं कम हो गई। 1981 में बनी फिल्म 'नसीब' का 'रंग जमा के जाएंगे' उनका आखिरी रिलीज गीत साबित हुआ। सुमन के मुताबिक, फिल्म 'नसीब' के बाद मुझे गायन के मौके अगर मिले भी तो वो गीत या तो रिलीज ही नहीं हो पाए और अगर हुए भी तो उनमें से मेरी आवाज नदारद थी। गोविंदा की फिल्म 'लव 86' में मैंने एक सोलो और मोहम्मद अजीज के साथ एक युगल गीत गाया था। लेकिन, जब वो फिल्म और उसके रेकॉर्ड रिलीज हुए तो मेरी जगह कविता कृष्णमूर्ति ले चुकी थीं। 
     कुछ ऐसा ही केतन देसाई की फिल्म 'अल्लारखा' में भी हुआ, जिसके संगीतकार अनु मलिक थे। सुमन कल्याणपुर को रसरंग (नासिक) का 'फाल्के पुरस्कार' (1961), सुर सिंगार संसद का 'मियां तानसेन पुरस्कार' (1965 और 1970), 'महाराष्ट्र राज्य फिल्म पुरस्कार' (1965 और 1966), 'गुजरात राज्य फिल्म पुरस्कार' (1970 से 1973 तक लगातार) जैसे करीब एक दर्जन पुरस्कार मिल चुके हैं। उन्हें मध्यप्रदेश सरकार ने भी वर्ष 2017 के लिए राष्ट्रीय लता मंगेशकर सम्मान देने की घोषणा की, जो उन्हें 6 फ़रवरी 2020 को लता मंगेशकर की जन्मस्थली इंदौर में दिया गया। बरसों की गुमनामी के बाद अब उन्हें पद्मभूषण दिया जाना एक गलती को सुधारने जैसी बात है।  
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Friday, March 24, 2023

हिंदी पत्रकारिता की सकारात्मक ऊर्जा का अवसान!

 - हेमंत पाल
 
    इंदौर को हिंदी पत्रकारिता की काशी कहा जाता रहा है और इस मामले में निश्चित रूप से 'नईदुनिया' कभी किसी तीर्थ से कम नहीं था। आजादी के बाद से ही 'नईदुनिया' की स्वच्छ और पाठकों प्रति समर्पित पत्रकारिता थी, जो करीब 6 दशकों से ज्यादा तक बनी रही। इस साख को बनाए रखने और इसे शिखर तक पहुंचाने में जिन लोगों का हाथ था, उनमें से प्रमुख रहे अभय छजलानी, जो अब उस यात्रा पर रवाना हो गए, जहां से कभी कोई लौटकर नहीं आता! लेकिन, उसके सद्कर्म, कर्म के प्रति उनका समर्पण और यदि पत्रकारिता की बात की जाए तो पाठकों का उनके प्रति दायित्व भाव कभी भुलाया भी नहीं जा सकता। 'नईदुनिया' की मिल्कियत उन्हें पैतृक मिली थी, पर उसमें सकारात्मक ऊर्जा अभय छजलानी ने ही भरी। हिंदी पत्रकारिता में दमदार अखबार की 'नईदुनिया' की जो भी पहचान बनी, वो इसी एक व्यक्ति की योजना, समझ और भविष्य को परखने की वजह से बनी थी।     
      अभय छजलानी (नजदीकी लोगों बीच अब्बू जी) वो शख्सियत थे, जिनसे एक बार मिलने के बाद भी कोई उन्हें भुला नहीं सकता था। सलीके का पहनावा, मोहक सी मुस्कान और बातों में अपनत्व का भाव ऐसा था कि वो अपनी छाप जरूर छोड़ता था। कहने को वे 'नईदुनिया' के मालिकों में थे, पर उन्हें जानने वालों को पता है कि अभय जी ने कभी मालिक होने दंभ नहीं बताया। वास्तव में वे पहले पत्रकार ही थे, मालिक तो वे कभी रहे भी नहीं! वे खुद भी लिखते तो वो कभी सीधे छपने के लिए नहीं होता था। सम्पादकीय में जो भी सामने होता, उसे पढ़ने के लिए देते! वो भी इस हिदायत के साथ कि कोई गलती हो, तो सुधार देना। वे वास्तव में तो मालिक कभी नहीं लगे, जब भी देखा उन्हें सम्पादकीय के वरिष्ठ साथी के रूप में ही पाया। ये बात मैं इसलिए कह सकता हूं कि मैंने अपने पत्रकारिता जीवन का दो दशक से ज्यादा का समय उनके सानिध्य में बिताया। यही कारण भी रहा कि उनके साथ मेरी कई खट्टी-मीठी यादों के संस्मरण जुड़े हैं। लेकिन, खट्टी यादों में कहीं और कभी कड़वाहट का भाव नहीं था!
   मैं नईदुनिया की 1986 की दूसरी बैच में चयनित होने वाला प्रशिक्षु पत्रकार था। लिखित परीक्षा पास करने के बाद इंटरव्यू का दृश्य आज भी याद है। राहुल बारपुते, रणवीर सक्सेना के साथ अभय जी भी उस इंटरव्यू में थे। मेरे छपे आलेखों की फाइल पलटते हुए उनकी नजर मुंबई में हुए कांग्रेस के शताब्दी समारोह की कतरन पर पड़ी, जो मैंने 'नवभारत' के सभी संस्करणों के लिए कवर किया था। इसके अलावा मालवा के सूखे पर 'जनसत्ता' में छपी ग्राउंड रिपोर्ट के अलावा 'रविवार' और 'दिनमान' की कतरने भी उन्होंने देखी। इसके बाद कहा कि इतना काम करने के बाद भी तुम प्रशिक्षु पत्रकार क्यों बनना चाहते हो? मेरा जवाब था 'पत्रकार तो हमेशा ही प्रशिक्षु होता है! इसलिए कि इस काम में रोज ही तो नया सीखना पड़ता है!' मेरा इतना कहना था कि राहुल बारपुते जी बोल पड़े 'फिर तो तुम आ रहे हो, हमें ऐसा जवाब देने वालों की ही जरुरत है!' इसके बाद मैंने 'नईदुनिया' ज्वाइन किया।   
     अभय जी के साथ 'नईदुनिया' में काम करने वालों को जितनी वैचारिक और लिखने की आजादी थी, आज तो उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्होंने हमेशा अच्छा और कुछ नया लिखने वालों को कभी दबाया नहीं और न उस पर अपनी मर्जी थोपी! कई बार मैंने कुछ ऐसा भी लिखा, जो उनकी सोच से अलग था, पर उन्होंने कभी उस पर कलम नहीं चलाई! उनमें व्यक्ति की क्षमताओं को जानने और उसका उपयोग करने की जबरदस्त परख थी। कौन क्या काम अच्छा कर सकता है, ये वे पहचान जाते थे और जब भी कोई ऐसी चुनौती आई, उन्होंने उस व्यक्ति को हमेशा मौका दिया। जब भी फिल्म और राजनीति पर कहीं जाने या लिखने का प्रसंग होता, वे मुझसे कह देते कि जो काम कर रहे हो, वो अभी छोड़ दो और पहले ये करो।   
   ढाई साल 'नईदुनिया' करने के बाद जब मैंने 1989 में 'जनसत्ता' जाने का फैसला किया और इस्तीफ़ा दे दिया तो उन्होंने मुझे बुलाकर समझाया कि सोच लो, तुम्हारा क्या फैसला सही है? मैंने जब अपने फैसले पर अड़े रहने का नजरिया दिखाया तो उन्होंने मुझे कांटेक्ट की शर्ते याद दिलाते हुए हिदायत दी! लेकिन, मैं शुरू से ही कुछ ज्यादा ही मुखर और अड़ियल सा रहा। अपनी बात पर अड़ा रहा और 'नईदुनिया' छोड़ दी। ये वो दौर था जब 'नईदुनिया' अख़बारों की दुनिया में शिखर पर था। मुझे लगा कि इस घटना के बाद अभय छजलानी और 'नईदुनिया' से कोई संबंध नहीं रहेंगे, पर मेरा भ्रम गलत निकला! नईदुनिया को परिवार सिर्फ कहने को नहीं कहा जाता था। वो अहसास भी कराया जाता था कि आप उसी का हिस्सा हो! 
     तीन महीने बाद अभय जी किसी काम से मुंबई आए तो मुझे मिलने का फोन आया। मिलने पर जरा भी नहीं लगा कि उनके दिल में मेरे प्रति कोई कटुता का भाव है। बल्कि, उन्होंने मुझसे 'नईदुनिया' में फिल्मों पर लिखते रहने को कहा! ' नईदुनिया' हर साल एक फिल्म की किताब निकालता था। जब मैं मुंबई में था तब 'परदे की परियां' शीर्षक से किताब निकली थी, जिसके लिए कई अभिनेत्रियों के इंटरव्यू मैंने किए थे। बाद में जब मैंने 'जनसत्ता' छोड़ा, तो इंदौर में एक कार्यक्रम में मिलने पर अभय जी ने नाराजी व्यक्त की, कि मैं आकर उनसे क्यों नहीं मिला! अगले ही दिन मेरे पास महेंद्र सेठिया का फोन आया, उन्होंने मुझसे कहा कि अभय जी ने कहा है कि नईदुनिया ज्वाइन करो। मेरे जैसा व्यक्ति जो गुस्से में संस्थान छोड़कर गया हो, उससे वहां के मालिक इतनी आत्मीयता दिखाएं, ऐसा कम ही होता है! आज की पत्रकारिता की प्रोफेशनल लाइफ में तो ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।      
  
     मैंने अपने कार्यकाल के दौरान कई सालों तक चुनाव के दौरान 'नईदुनिया' की चुनाव डेस्क के प्रभारी के रूप में भी काम किया। यह अखबार की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों में से एक होती थी। इस डेस्क के जिम्मे चुनाव की आचार संहिता लगने से लगाकर चुनाव के नतीजों तक का पूरा काम होता था। सभी संस्करणों के रिपोर्टर अपनी रिपोर्ट सीधे इसी डेस्क को भेजते थे, जो अखबार में उपयोग होती थी। जब पहली बार मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी गई, तो मैंने सहजता से अभय जी से पूछ लिया कि मुझे किस तरह काम करना है? मेरा आशय था कि राजनीति में जो पहचान और सम्मान था, राजनेताओं से जो संबंध थे, क्या उनका ध्यान रखा जाए! 
     मुझे लगा था कि शायद वे मुझे कोई सीमा रेखा बताएंगे! लेकिन, मेरा अनुमान गलत साबित हुआ। उन्होंने मुझसे साफ़ कहा कि तुम राजनीति को समझते हो, प्रदेश को भी समझते हो, यह जिम्मेदारी तुम्हें बहुत सोच समझकर दी है, इसलिए तुम्हारी राजनीतिक समझ को मैं जानता हूं। इसलिए तुमको अखबार के हित में जो ठीक लगे उस तरह काम करो। यह जरूरी नहीं कि जो रिपोर्टर खबरें भेजें उनको वैसे ही छाप दी जाए। उनको देखो, संपादित करो, उपयोग करने लायक हो तो करो अन्यथा मत करो। बस यह ध्यान रखना 'नईदुनिया' में कोई ऐसी रिपोर्ट न छपे जो बाद में गलत साबित हो। उनका यह कहना मेरे लिए बहुत था। 
     उसके बाद मैंने लंबे अरसे तक पंचायत चुनाव से लगाकर लोकसभा चुनाव तक की डेस्क पर काम किया। बल्कि, मैंने अपने कार्यकाल में 'नईदुनिया' का हर नया किया। फिर वो चुनाव डेस्क हो, दिवाली विशेषांक हो, नईदुनिया प्लस का संपादन हो, राज्य की नईदुनिया  निकाली गई लोकसभा क्षेत्रों की किताब हो, सहस्त्राब्दी विशेषांक हो या फिर 'नईदुनिया' के साठ साल होने पर लगातार तीन दिन तक 60 पेजों का विशेषांक निकालने की जिम्मेदारी हो! इसलिए कि अभय जी जानते थे कि दफ्तर कौन, क्या करने में समर्थ है। आज उनके न रहने पर वो सारे दृश्य आंखों के सामने से गुजर रहे हैं! क्योंकि, अखबार की ताकत क्या होती है, ये अहसास हिंदी पत्रकारिता को अभय छजलानी जैसे ही कुछ लोगों ने करवाया है।       
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Saturday, March 18, 2023

बहनों को हजार रुपए देने के पीछे भी चुनावी रणनीति!

- हेमंत पाल

     सरकार ने प्रदेश में महिलाओं के लिए 'लाड़ली बहना योजना' लांच की। इसके लिए प्रदेश के बजट में भी राशि का प्रावधान किया गया। मुख्यमंत्री ने बेहद मार्मिक शब्दों में इस योजना और बहनों के प्रति अपनी भावनाओं का बखान किया। 5 मार्च को जब योजना की शुरुआत की गई, तो भाजपा ने इसे मिशन की तरह लिया और प्रदेशभर से महिलाओं को राजधानी लाया गया। मुख्यमंत्री ने घुटनों पर बैठकर 'बहनों' का स्वागत किया। लेकिन, वास्तव में यह जैसा दिखाई दे रहा है, वैसा नहीं है। देखने और सुनने में सरकार की यह योजना महिलाओं के प्रति सरकार की सहृदयता दिखाती है, पर असलियत में ये भाजपा की चुनावी रणनीति है!
      विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा समाज के हर वर्ग को प्रभावित करने की कोशिश में है और ये योजना भी उससे अलग नहीं है! मध्यप्रदेश में विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं। इनमें विधानसभा की 52 सीटें ऐसी हैं, जहां महिला वोटर पुरुषों से ज्यादा या करीब-करीब बराबरी पर है। आशय यह कि इन सीटों पर महिलाएं चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। इनमे से भी एक दर्जन सीटें ऐसी हैं, जहां महिला वोटरों की संख्या पुरुष वोटरों से ज्यादा है। ख़ास बात ये कि इनमें से अधिकांश सीटें आदिवासी बहुल इलाकों की है, जहां पिछले विधानसभा चुनाव (2018) में भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ था। प्रदेश में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 विधानसभा सीटों में से 2018 में भाजपा ने सिर्फ 16 सीट जीती थीं। जबकि, 2013 में उसके खाते में 31 सीटें आई थीं। भाजपा इसी अंतर को पाटना चाहती है और इसीलिए बहनों को 'लाडली' बनाया गया।   
      आंकड़े बताते हैं कि भाजपा महिला प्रभाव वाले जिलों में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए विशेष रणनीति के तहत काम कर रही है। उसे लगता है, कि मुख्यमंत्री की 'लाडली बहना योजना' महिला वोटरों के प्रभाव वाले क्षेत्रों में चुनाव की तस्वीर बदल सकती है। सत्ता के साथ भाजपा संगठन का भी मानना है, कि प्रदेश में महिलाओं को प्रभावित करने के साथ आदिवासियों को साधने में भी यह योजना असरदार साबित हो सकती है। भाजपा संगठन भी पिछले चुनाव की गलतियों को सुधारने में लगा है, जिस वजह से उसने किनारे पर आकर सत्ता खोई थी। बाद में सिंधिया के विद्रोह ने भाजपा को फिर सत्ता में ला दिया हो, पर इस बार भी पुराने हालात जीवित हैं। जानकारियों के मुताबिक संघ और पार्टी के चुनाव पूर्व सर्वे के नतीजे भाजपा के लिए विधानसभा चुनाव में अच्छी स्थिति नहीं बता रहे।  
     पिछले चुनाव में भाजपा सत्ता पाने के लिए जरूरी संख्या नहीं जुटा पाई थी। उसके पीछे सबसे बड़ी कमी आदिवासी सीटों पर भाजपा की हार को माना गया। इन आदिवासी सीटों में वो इलाके भी हैं, जहां महिला वोटरों की संख्या ज्यादा है। अलीराजपुर, झाबुआ, मंडला, बालाघाट और डिंडोरी ऐसे ही जिले हैं, जहां वोटरों ने भाजपा को नकार दिया था। पार्टी ने अपनी समीक्षा में इसका कारण सही उम्मीदवारों को टिकट न दिया जाना पाया था। लेकिन, यह भी निष्कर्ष निकाला कि महिला और आदिवासी वोटर उसके खाते से खिसक गए थे। यही वजह है कि अब महिला वोटर्स को अपने पाले में लाने के लिए भाजपा 'लाड़ली बहना योजना' लाई, ताकि महिला वोटरों को साधा जा सके।   
महिलाएं साबित हुईं निर्णायक
   प्रदेश की जिन 52 सीटों पर महिला वोटर निर्णायक हैं, पिछले चुनाव में उनमें 29 सीटें कांग्रेस ने जीत ली थी। इनमें ज्यादातर सीटें आदिवासी इलाके की है। इसलिए समझा जा रहा है कि हजार रुपए महीना देने की 'लाडली बहना योजना' भाजपा को दोतरफा फ़ायदा देगी। महिला वोटर भी सधेंगी और आदिवासी सीटों पर भी भाजपा का प्रभुत्व बढ़ेगा। इसका सीधा फ़ायदा भाजपा को मिलेगा। बड़वानी, अलीराजपुर, जोबट, झाबुआ, पेटलावद, सरदारपुर, कुक्षी, थांदला, सैलाना, मनावर, बड़वारा, शाहपुर, बिछिया, निवास, बैहर, बरघाट, डिंडोरी और जुन्नारदेव सीटों पर महिला वोटरों संख्या ज्यादा है। ये सभी आदिवासी इलाकों की सीट हैं। 2018 के विधानसभा के नतीजे बताते हैं कि यहां महिला वोटर्स ने कांग्रेस के पंजे को चुना था। चुनाव आयोग के अनुसार प्रदेश में कुल मतदाताओं की संख्या 5 करोड़ 39 लाख 87 हजार है। इनमें महिला मतदाताओं की संख्या 2 करोड़ 60 लाख 23 हजार बताई गई। लेकिन, कई जिले ऐसे हैं जहां महिला वोटरों का दबदबा है। 
बहुत कम अंतर वाली सीटें
   बड़े छोटे शहरी क्षेत्रों में इंदौर, छतरपुर, दमोह, छिंदवाड़ा, सागर, जबलपुर-उत्तर, नरसिंहपुर, नरसिंहगढ़, वारासिवनी, सिंगरौली, सिहोरा, मंडला, लखनादौन, चाचौड़ा और गुना ऐसी विधानसभा सीटें हैं, जहां महिला और पुरुष वोटरों की संख्या में बहुत कम अंतर है। कुछ सीटों पर तो महिला वोटर पुरुषों की बराबरी पर है। लेकिन, इनमें भाजपा के पाले में आने वाली सीटें कम है, जिसके लिए भाजपा हर संभव कोशिश में है।
     इस योजना को चुनाव से पहले लांच करने, बजट में इसका प्रावधान करने और इसे इतना ज्यादा प्रचारित करने का कारण यही है कि भाजपा इसका पूरा लाभ लेना चाहती है। 'लाडली बहना योजना' को महिलाओं की जिंदगी बदलने के पुण्य कर्म की तरह पेश किया जा रहा है। पर, वास्तव में ये भाजपा को फिर सत्ता में लाने की रणनीति की एक कोशिश है। 
भाजपा के पास 'जयस' की काट नहीं  
    इसके बावजूद भाजपा के पास 'जयस' की काट नहीं है। इस आदिवासी संगठन ने प्रदेश की आदिवासी प्रभाव वाली सीटों के अलावा ऐसी सीटों पर भी चुनाव लड़ने का एलान किया जहां आदिवासी वोट निर्णायक साबित हो सकते हैं। प्रदेश की 230 में 80 सीटें ऐसी ही हैं, जो 'जयस' की नजर में हैं। यदि  आदिवासी संगठन कांग्रेस के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ता है, तो भाजपा को सीधा नुकसान होगा! पर, यदि खुद के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ता है, तो उसे फ़ायदा कम, भाजपा को नुकसान ज्यादा हो सकता है। ऐसे में 'लाडली बहना योजना' कितनी कारगर साबित हो सकेगी, फ़िलहाल इसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता!    

Tuesday, March 14, 2023

इंदौर की रंगपंचमी 'गेर' का इतिहास और रंग परंपरा!

-  हेमंत पाल 

    होली के पांचवे दिन रंगपंचमी का त्योहार इंदौर में कुछ अलग ही अंदाज में मनाया जाता है। इसमें परिवार, मोहल्ला या समाज ही नहीं, पूरा शहर, प्रशासन, पुलिस और नगर निगम भी शामिल होता है। इंदौर के लिए रंगपंचमी का मतलब है विशाल 'गेर' यानी उत्सव मनाने वालों का हुजूम! इसमें सार्वजनिक रूप से रंग-गुलाल खेला जाता है। हर साल इस 'गेर' में लाखों लोग शामिल होते हैं, इस साल भी अनुमान के मुताबिक करीब 5 लाख लोग इसमें शामिल हुए। शहर की इस ऐतिहासिक गेर में कई लोग अपने परिवार के साथ पहुंचे। 3 किलोमीटर से लंबी 'गेर' निकलने का सिलसिला सुबह से दोपहर 3 बजे के बाद तक चलता रहा। कॉलोनियों और गली-मोहल्लों में भी लोगों ने एक-दूसरे को रंग लगाया। वहीं सराफा बाजार और गोपाल मंदिर के आसपास भी लोग रंग खेलते नजर आए। 
    इंदौर में 'गेर' की परंपरा होलकर वंश के समय से ही चली आ रही है। इस दिन होलकर राजवंश के लोग आम जनता के साथ होली खेलने के लिए महलों से बाहर निकलकर पूरे शहर का भ्रमण करते थे। होलकर राजघराने के लोग होली के पांचवे दिन रंगपंचमी पर बैलगाड़ियों में ढेरों फूल और रंग-गुलाल लेकर सड़क पर निकलते थे। रास्ते में उन्हें जो भी मिलता, उन्हें रंग लगा देते। इस परंपरा का उद्देश्य समाज के सभी वर्गों को साथ मिलकर त्योहार मनाना था। यह परंपरा साल दर साल आगे बढ़ती रही। इस तरह की 'गेर' का उद्देश्य समाज में ऊंच-नीच की भावना मिटाकर आपस में मिलजुलकर इस पर्व को मनाना और आपस में भाईचारा बढ़ाना था। राजवंश खत्म होने के बाद भी ये परंपरा कायम रखी गई। अब शहर में यहां के नेता, समितियां और तमाम समाजसेवी और धार्मिक संस्थाएं मिलकर परंपरागत 'गेर' निकालती हैं। कोरोना के कारण 2020 और 2021 में आयोजन पर रोक लग गई थी। 2022 में ये नियमों में हुई, पर इस साल फिर फिर उसी जोश और उत्साह से पंचमी मनाई गई।   
     दो साल पहले इंदौर की इस रंगपंचमी 'गेर' को 'यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज' की लिस्ट में जगह दिलाने की कोशिश हुई थी। ये कोशिश इस साल फिर हुई है। इस कारण भी इसे लेकर खासा उत्साह देखा जा रहा है। यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज सूची में शामिल होने के लिए तीन शर्तें पूरी करना जरूरी है। पहली, इस तरह की परंपरा कई पीढ़ियों से चली आ रही हो! दूसरा, उसका संबंध विश्वस्तरीय हो और तीसरा यह कि विश्व प्रसिद्ध परंपरा (गेर) की शुरुआत कैसे हुई और क्या महत्व क्या है! रंगपंचमी की 'गेर' की लोकप्रियता का कारण यह है कि ये परंपरा 300 सालों से चली आ रही है। 100 साल पहले इसे सार्वजनिक और सामाजिक रूप से मनाने की शुरुआत हुई। करीब 3 से 5 लाख लोग इसमें शामिल होते हैं। इंदौर की रंगपंचमी 'गेर' विश्वभर में प्रसिद्ध उत्सवी विरासत है जिसमें सभी जाति-धर्म के लोग शामिल होते हैं और देश के कोने-कोने से पर्यटक यहां आते हैं। 
     शहर की रंगपंचमी 'गेर' से जुड़े कई किस्से सुनने में आते रहे हैं। एक किवदंती यह भी है कि शहर के पश्चिम क्षेत्र में 'गेर' 1955-56 से निकलना शुरू हुई थी। इससे पहले शहर के मल्हारगंज क्षेत्र में कुछ लोग खड़े हनुमान के मंदिर में फगुआ गाते और एक-दूसरे को रंग और गुलाल लगाते थे। 1955 में इसी क्षेत्र में रहने वाले रंगू पहलवान एक बड़े से लोटे में केसरिया रंग घोलकर आने-जाने वाले लोगों पर रंग डालते थे।  यहां से रंगपंचमी पर 'गेर' खेलने का चलन शुरू हुआ। रंगू पहलवान अपनी दुकान के ओटले पर बैठे कर ये सब करते थे। इसके बाद इलाके के टोरी कार्नर वाले चौराहे पर रंग घोलकर एक दूसरे पर डालना शुरू हुआ और कहा जाता है कि वहां से इसने भव्य रूप ले लिया। 
रंग-गुलाल से सराबोर इलाका   
   दो साल के दुखद कोरोना काल के बाद इस बार पूरा शहर रंगों से सराबोर हो गया। सिर्फ राजबाड़ा की गेर में ही रंग नहीं उड़ा, पूरा शहर रंगों की मस्ती में छाया रहा। आज सुबह से ही लोगों का आकर्षण राजबाड़ा और आसपास का इलाका रहा। पूरे शहर से हजारों लोगों की भीड़ राजबाड़ा पहुंची और जमकर मस्ती की। गोराकुंड, सराफा, बड़े गणपति से लगाकर राजबाड़ा का पूरा आसमान रंग-गुलाल से भर गया। जमीन से लगाकर आसमान तक रंग-गुलाल नजर आए। गेर में बोरिंग मशीन से 100 फीट ऊपर तक गुलाल उड़ाया गया। चमकीले रंगों की बौछार की जा रही थी। पानी के टैंकरों से 100 फीट तक रंगों की बौछार से गेर में लोगों का स्वागत किया गया। गेर में ढोल, बैंड, ट्रेक्टर, ट्राली, बैनर, 2 डीजे की गाड़ियां, तीन टैंकर भी शामिल हुए।  
    आने वाले लोगों का उत्साह भी चरम पर था। जैसे-जैसे गेर आगे बढ़ रही है, लोगों का हुजूम बढ़ता जा रहा था। शहर में जगह-जगह पुलिस चेकिंग की जा रही है। खजराना मंदिर रोड पर कुछ संवेदनशील स्पॉट्स पर रैपिड एक्शन फोर्स तैनात की गई। फाग यात्रा में शामिल महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक दस्ता भी तैनात रहा। यात्रा में सबसे आगे भगवा ध्वज वाहिनी भी रहा। फाग यात्रा में अबीर, गुलाल व टेसू के फूलों का ही प्रयोग किया गया। यात्रा में भजन मंडलियां राधा कृष्ण के भजन व फाग गीत गाते हुए चलती रही। 
2 घंटे में रंगपंचमी का रंग धो दिया
      रंगपंचमी से सराबोर हुआ राजबाड़ा का 4 किलोमीटर का इलाका नगर निगम के 550 कर्मचारियों ने दो घंटे में साफ कर दिया। 2 बजे के बाद जब रंग खेलने वाले लौटे तो नगर निगम के सफाईकर्मी सड़क पर उतर आए। 4 बजे तक पूरा इलाका साफ हो गया। नगर निगम ने संदेश दिया कि लगातार 6 बार स्वच्छता में नंबर वन रहने वाले इंदौर के राजबाड़ा इलाके को रंगपंचमी के मौके पर भी कुछ घंटों में कैसे स्वच्छ किया जा सकता है। सफाई के लिए नगर निगम और मेयर पुष्यमित्र भार्गव ने पहले ही प्लान बनाया था। एक घंटे में ही राजवाड़ा की सड़क और गार्डन की बाउंड्री साफ कर दी। इसे देखकर ऐसा लगा मानो कुछ हुआ ही न हो।
      गेर के बाद निगम के करीब 550 कर्मचारियों की टीम सफाई की मशीनों के साथ मैदान में उतरी। गेर के कारण सड़कों पर फैले रंग-गुलाल, थैलियां, चप्पल-जूते, कपड़ों के टुकड़ों को साफ करने में सभी लग गए। कर्मचारियों ने अलग-अलग कोनों से मैदान संभाला और डेढ़ घंटे में सड़कें चकाचक कर दी।
इतना अमला और मशीनें लगी
    साफ-सफाई में 550 कर्मचारियों का अमला, 15 स्वीपिंग मशीन, 5 हाईप्रेशन जेट्स जुटे। 10 कचरा कलेक्शन वाहन, 10 से ज्यादा ट्रेक्टर भरकर जूते-चप्पल व अन्य कचरा भरकर ले जाया जा चुका हैं। पिछले साल से तीन से चार गुना कचरा ज्यादा है। केवल राजवाड़ा पर 8 से 10 टन कचरा हुआ है। वहीं नगर निगम के एडिशनल कमिश्नर सिद्धार्थ जैन ने बताया कि राजवाड़ा और उसे जोड़ने वाले सभी रास्तों की सफाई की गई। हमने एक से डेढ़ घंटे में ही राजवाड़ा को साफ कर दिया है।
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Sunday, March 12, 2023

सफलता का ये कैसा ग्राफ, कभी हिट कभी फ्लॉप!

- हेमंत पाल

     शाहरुख़ की फिल्म 'पठान' हिट क्या हुई, उसके साथ कई कहानियां भी जुड़ गई। इस फिल्म की सफलता का अलग-अलग तरीके से मूल्यांकन किया जाने लगा! चार साल बाद शाहरुख फिर हीरो बनकर आए और एक फिल्म से धमाल कर दिया। ये बात भी है, कि फिल्म के साथ एक विवाद भी जुड़ा, पर उन सबको नकारते हुए फिल्म ने एक इतिहास रच दिया। लेकिन, ये पहली बार नहीं हुआ। पहले भी कई हीरो सफलता के शिखर से फिसलकर नीचे गिरे और फिर संभलने की कोशिश में कई बार फ्लॉप हुए! लेकिन, फिर कुछ ऐसा चमत्कार हुआ कि वे फिर सफलता की सीढ़ियां चढ़ गए। यही कहानी शाहरुख़ ने अपनी पिछली फिल्म 'फैंस' और 'जीरो' से लिखी थी। ये दोनों फ़िल्में बुरी तरह नकारी गई थी। इसके बाद लंबे इंतजार के बाद 'पठान' आई और उसने शाहरुख़ को फिर उसी ऊंचाई पर पहुंच गए। हिट और फ्लॉप का यह सिलसिला बरसों पुराना है। सफल कलाकार भी असफलता के दौर से गुजरे हैं। गुरुदत्त ने 'बाज' के बाद 'मिस्टर एंड मिसेज 55' फिल्म दी। 'कागज के फूल' के बाद 'चौदहवीं का चांद' दी। राज कपूर ने 'मेरा नाम जोकर की घोर असफलता के बाद 'बॉबी' से सफलता का इतिहास रचा। देव आनंद तो कहलाते ही लीप हीरो थे। उनकी तीन फिल्में फ्लॉप होने के बाद चौथी फिल्म सुपर हिट होती थी।
        रणबीर कपूर का करियर भी उतार-चढाव वाला रहा। कभी उनकी फिल्मों ने आसमान छुआ तो कभी धड़ाम से गिर पड़ी। उनकी पहली फिल्म 'सांवरिया' भी खास नहीं चली, पर बाद में 'रॉक स्टार' से उन्हें पहचान मिली। इसके बाद 2018 में आई 'संजू' ब्लॉकबस्टर साबित हुई। फिर एक लंबा अंतराल आ गया। 'शमशेरा' से वापसी की, पर इस फिल्म ने कोई कमाल नहीं किया। लेकिन, इसके बाद की फिल्म 'ब्रह्मास्त्र' ने उन्हें फिर ऊंचाई पर पहुंचा दिया। इसके बाद आई 'तू झूठी मैं मक्कार' में भी उनकी अदाकारी को सराहा गया। हिंदी फिल्मों के सबसे कामयाब नायक अमिताभ बच्चन ने भी कामयाबी और नाकामयाबी का लम्बा दौर देखा है। लगातार सफल फिल्मों के बाद उनकी कई फ़िल्में नहीं चली। 1999 में अमिताभ की चार फिल्में कोहराम, लाल बादशाह, सूर्यवंशम और 'हिंदोस्तान की कसम' फ्लॉप हुई। उन पर फ्लॉप एक्टर का ठप्पा लग गया। लेकिन, इसके बाद 'मोहब्बतें' ने उन्हें फिर पुरानी जगह दे दी। अमिताभ ने कैरेक्टर रोल से अपनी दूसरी पारी शुरू की, जो आज तक जारी है।
     कमबैक की सफल कोशिश करने वालों में विनोद खन्ना भी थे। उन्होंने 1983 में 'दौलत का दुश्मन' के बाद फिल्में छोड़ दी थी। चार साल बाद उन्होंने फिल्म 'इंसाफ' से वापसी की थी। ये फिल्म जबरदस्त हिट हुई। फिर विनोद खन्ना की सत्यमेव जयते, जमीन जैसी हिट फिल्में आई। कमबैक के एक साल बाद विनोद की फिल्म 'दयावान' आई, ये भी बड़ी हिट रही। 2013 की होम प्रोडक्शन की फिल्म 'यमला पगला दीवाना-2' के बाद बॉबी देओल को भी फिल्में मिलना बंद हो गई थीं। 2017 में 'पोस्टर बॉयज' में काम जरूर मिला, लेकिन ये फिल्म फ्लॉप रही। इसके बाद सलमान के साथ बॉबी को 'रेस-3' मिली। लेकिन, उन्हें सबसे ज्यादा फ़ायदा प्रकाश झा की वेब सीरीज 'आश्रम' से हुआ। इसके तीन सीजन से बॉबी देओल की नई पहचान बनी।  
         ऐसे ही ऐश्वर्या राय का करियर कौन नहीं जानता! 2010 में 'गुजारिश' जैसी फ्लॉप फिल्म के बाद ऐश्वर्या करीब 5 साल फिल्मों से दूर रहीं। 2015 में 'जज्बा' से ऐश्वर्या ने वापसी की कोशिश की, पर फिल्म फ्लॉप रही। 2018 में फिर 'फन्ने खां' ने उनका साथ नहीं दिया। ऐश्वर्या चार साल इंडस्ट्री से दूर रहीं। लेकिन, 'पोन्नियिन सेल्वन-1' से उन्होंने कमबैक किया। इस फिल्म ने देश में ही 266.54 करोड़ रुपए कमाए और फिल्म हिट रही। ऐसे ही काजोल ने 2001 आई 'कभी खुशी कभी गम' के बाद पांच साल फिल्मों से परहेज किया। 2006 में आमिर के साथ 'फना' से वापसी की। फिर 2010 में 'टूनपुर का सुपरहीरो' से वापसी की कोशिश की, जो कामयाब नहीं हुई। वे लगभग पांच साल गायब रहीं। 2015 में 'दिलवाले' से वापसी की, जिसने अच्छा कारोबार किया। श्री देवी ने भी आठ साल बाद 2012 में 'इंग्लिश विंग्लिश' से कमबैक किया था। ये फिल्म हिट साबित हुई। लेकिन, इसके 5 साल बाद श्रीदेवी 'मॉम' में नजर आई, ये फिल्म भी जबरदस्त हिट रही थी।
      संजय दत्त भी ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने करियर और जिंदगी दोनों में बहुत संघर्ष किया। उनकी पहली फिल्म 'रॉकी' थी। फिल्म की रिलीज के पांच दिन पहले संजय की मां नरगिस का निधन हो गया। बीमारी के बावजूद नरगिस बेटे की फिल्म के प्रीमियर पर आना चाहती थीं। सुनील दत्त भी नरगिस को 'रॉकी' के प्रीमियर तक लाना चाहते थे। लेकिन, उससे पहले ही नरगिस दुनिया से चल बसीं। संजय दत्त की पहली फिल्म हिट रही। लेकिन, 'रॉकी' की सफलता बरकरार नहीं रह पाई। उनकी फिल्में लगातार फ्लॉप होती रही। संजय दत्त पूरी तरह से ड्रग्स की गिरफ्त में आ चुके थे। सभी मान चुके थे कि उनका करियर खत्म हो गया। इसके बाद हिट और फ्लॉप का दौर चलता रहा। नाम (1986), साजन (1991), खलनायक (1993), वास्तव (1999), मुन्नाभाई एमबीबीएस (2003) और 'लगे रहो मुन्नाभाई' (2006) वे फ़िल्में थीं, जिन्होंने संजय दत्त के कैरियर को संवारा! मुन्ना भाई सीरीज की फिल्मों से न केवल संजय के करियर को फायदा हुआ, बल्कि मुंबई बम कांड की वजह से खराब हुई उनकी छवि भी सुधर गई।
    गोविंदा भी उन एक्टर में हैं, जो लगातार हिट और फ्लॉप होते रहे। उनकी पहली फिल्म ‘इल्जाम’ बड़ी हिट थी। पहली हिट देने के बाद उन्होंने तन बदन, ड्यूटी और 'जख्मों का हिसाब' जैसी फ्लॉप फिल्में दीं। 1994 में आई ‘इक्का राजा रानी’ भी नहीं चली। 90 के दशक में उनका सुनहरा दौर शुरू हुआ। उन्होंने खुद को एक कॉमेडी हीरो स्थापित किया और आंखें, राजा बाबू, कुली नं 1 जैसी कई हिट कॉमेडी फिल्में दीं। लेकिन, फ्लॉप फिल्मों ने गोविंदा का साथ नहीं छोड़ा और बनारसी बाबू, अग्निचक्र, दो आंखें बारह हाथ, छोटे सरकार, जोरदार, माहिर, गैंबलर और ‘किस्मत’ जैसी फ्लॉप फिल्में दीं। इसके बाद एक ऐसी फिल्म आई जिसने गोविंदा को फिर चमका दिया। ये फिल्म थी 2006 में सलमान खान के साथ आई 'पार्टनर!' कमबैक के इस दौर में उन्होंने फिर सफलता का स्वाद चखा। लेकिन, उसके बाद फिर लगातार फ़िल्में फ्लॉप हुई। 2011 में आईं नॉटी एट 40, लूट, दीवाना मैं दीवाना, किल दिल और ‘हैप्पी एंडिंग’ भी नहीं चली। उनकी आखिरी फ्लॉप फिल्म थी 'आ गया हीरो’ पर कॉमिक हीरो की कभी वापसी नहीं हुई।
     कामयाबी में वापसी करने की कोशिश में आमिर खान भी रहे, पर उनकी कोशिश सकारात्मक नहीं रही। 2022 में वे भी चार साल बाद 'लाल सिंह चड्ढा' में हीरो बनकर आए, पर दूसरी पारी में वे पहले जैसा जादू चला पाने में सफल नहीं हुए। फिल्म की रिलीज से पहले इसका सोशल मीडिया पर खूब बॉयकॉट हुआ। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरफ फ्लॉप हुई। इससे पहले 2018 में उनकी अमिताभ बच्चन के साथ आई फिल्म 'ठग्स ऑफ हिंदोस्तान' आई थी, वह फिल्म भी फ्लॉप रही थी। ऐसी ही स्थिति शिल्पा शेट्टी की भी रही। ये अभिनेत्री 2007 में रिलीज हुई अपने' में नजर आई थीं। यह फिल्म औसत रही। इसके बाद वे 14 साल तक गायब रहीं। 2021 में रिलीज हुई 'हंगामा 2' से वापस लौटीं, जो ओटीटी पर रिलीज हुई थी। दर्शकों से इसे अच्छी रिएक्शन मिली। लेकिन, बड़े परदे पर 2022 में आई फिल्म 'निकम्मा' से वापसी की कोशिश की, जो सफल नहीं हुई।
     माधुरी दीक्षित ने 'देवदास' (2002) के बाद फिल्मों से ब्रेक लिया था। पांच साल बाद जब माधुरी ने 'आजा नच ले' से कमबैक किया, पर बात नहीं बनी। इस फिल्म के बाद माधुरी ने फिल्मों से ब्रेक ले लिया। 'बॉम्बे टॉकीज' और 'ये जवानी है दीवानी' के गानों में कैमियो करने के बाद माधुरी ने फिर 2014 में 'डेढ़ इश्किया' से फिर कमबैक कोशिश की। पर,ये फ़िल्में भी कोई खास कमाल नहीं दिखा सकी। यही स्थिति करिश्मा कपूर की रही। 2006 में 'मेरे जीवन साथी' के बाद से ही करिश्मा कपूर ने फिल्मों से दूरी बना ली थी। शादी के सालों बाद करिश्मा ने 2012 में 'डेंजरस इश्क' से कमबैक किया, पर ये फिल्म भी नहीं चली। कांग्रेस के सांसद बनने के बाद 1991 में राजेश खन्ना ने फिल्मों से दूरी बना ली थी। कई फिल्में ऑफर हुईं, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया। चार साल तक राजनीति में फोकस करने के बाद राजेश खन्ना ने 1994 में 'खुदाई' से कमबैक किया, पर फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हो गई थी। श्रीदेवी ने 2004 में 'मेरी बीवी का जवाब नहीं' के फ्लॉप होने के बाद फिल्मों से दूरी बना ली थी। दरअसल, हिट और फ्लॉप फिल्म के कलाकारों के जीवन का हिस्सा बन गया है! अब सबकी किस्मत दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन जैसी तो नहीं होती जो 'हिट और फ्लॉप' के चक्कर से बहुत दूर रहे!    
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Saturday, March 11, 2023

आलू के पराठे और दिल्ली में बसता था उनका दिल!

स्मृति शेष : सतीश कौशिक

● हेमंत पाल

     सतीश कौशिक अब हमारे बीच नहीं हैं। ये बात विश्वास करने वाली तो नहीं, पर सच यही है। इस सच पर विश्वास तो करना पड़ेगा, क्योंकि ईश्वर के विधि-विधान के सामने कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। कल तक लोगों ने जिस सतीश कौशिक को शबाना आजमी और जावेद अख्तर की होली पार्टी में रंग खेलते और मस्ती में देखा था, आज वही सतीश इस दुनिया से विदा हो गए। वे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के पूर्व छात्र थे। उन्होंने थिएटर में अपना करियर शुरू किया था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे एक्टर थे, डायरेक्टर थे, कॉमेडियन थे और राइटर भी थे। लेकिन, यहां तक पहुंचने में उन्होंने लंबा संघर्ष किया। उनको सफलता आसानी से नहीं मिली।
    मैंने उनके संघर्ष को सफलता की हर सीढ़ी पर देखा है। मेरी उनसे पहली मुलाकात 1989 में राजा बुंदेला की जरिए हुई थी। दोनों उस समय मुंबई के यारी रोड पर एक फ्लैट में साथ रहते थे। वही मेरी उनसे मुलाकात हुई थी। बेहद मोटा शरीर जो कहीं से एक्टर की कद काठी तो नहीं लगता था। लेकिन, बात करने का अंदाज बेहद दिलचस्प। मैंने उन्हें घर से बाहर निकलते समय दरवाजे के पीछे लगे गणेश जी के फोटो के सामने शरणागत होकर प्रणाम करते देखा, तो आश्चर्य हुआ। वे गणेश जी के भक्त हैं या नहीं यह तो नहीं पता, पर बाद में राजा बुंदेला ने बताया कि वे जब भी घर से निकलते हैं, गणेश जी को ऐसे ही प्रणाम करते हैं। उसके बाद सतीश कौशिक से कई बार मुलाकात हुई और हर बार उनको सफलता की नई सीढ़ी चढ़ते देखा। एक डायरेक्टर के रूप में उन्हें सबसे ज्यादा उत्साहित 'तेरे नाम' की सफलता पर देखा था।
    सतीश कौशिश ने क़रीब 35 साल के एक्टिंग करियर में कई हिट फिल्मों में काम किया। इनमें जाने भी दो यारों, जमाई राजा, साजन चले ससुराल, चल मेरे भाई, हमारा दिल आपके पास है, मिस्टर इंडिया, मिस्टर एंड मिसेज़ खिलाड़ी, ब्रिक लेन और उड़ता पंजाब जैसी कई फिल्में हैं। उन्होंने कई यादगार किरदार जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। 1987 में आई फिल्म 'मिस्टर इंडिया' में उन्होंने कॉमेडी किरदार 'कैलेंडर' निभाया था। यह उनका पहला ऐसा रोल था, जिसने उन्हें लोकप्रियता दी। गोविंदा, अनिल कपूर और जूही चावला की फिल्म 'दीवाना मस्ताना' में सतीश का 'पप्पू पेजर' किरदार था। इसमें उनके डायलॉग इतने ज़्यादा अनोखे थे कि आज भी याद हैं। गोविंदा के साथ 'साजन चले ससुराल' में गोविंदा के साथ सतीश की जोड़ी जबरदस्त थी। वे इसमें उनके म्यूज़िकल साथी 'मुत्थू स्वामी' बने थे। गोविंदा के साथ उन्होंने फिल्म में खूब कॉमेडी की थी। अमिताभ और गोविंदा के साथ आई फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ में शराफत अली का उनका किरदार इन दो बड़े कलाकारों की टक्कर का था। उनका डायलॉग 'कसम उड़ान छल्ले की …' कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।
      सतीश कौशिक धार्मिक थे, ये कई बार दिखाई दिया। उनके दफ़्तर में भी वैष्णो देवी की तस्वीर रखी थी। उसके पीछे 'तेरे नाम' का एक पोस्टर था और 'जाने भी दो यारों' के लिए जीती गई एक ट्रॉफी भी। एक बार उन्होंने बताया था कि 'जाने भी दो यारो' के लिए जब मैंने डायलॉग लिखे, तब पता नहीं था कि इस फिल्म को इतना क्लासिक दर्जा मिलेगा। दरअसल, हमने वही किया जो जो एनएसडी या एफ़टीआईआई में सीखा था। सतीश कौशिक भले ही कामयाब डायरेक्टर बन गए थे, पर उनका दिल कॉमेडी में ही बसता था। उनका कहना भी था कि मैं तो फिल्मों में कॉमेडियन बनने ही आया था। मुझे महमूद और जॉनी वॉकर बेहद पसंद थे। मुझे अपने आप पर भरोसा भी था कि इनकी तरह मैं भी लोगों को हँसा सकता हूँ। डायरेक्टर तो बाद में बना, पर मेरा पहला प्यार तो कॉमेडी ही है।
      सतीश कौशिक खाने-पीने के बेहद शौकीन थे। उनको दिल्ली का खान-पान बहुत अच्छा लगता था। खासकर आलू के पराठे। राजा बुंदेला ने भी एक बार बताया था कि सतीश रात को 2 बजे भी आलू के पराठे खाने से परहेज नहीं करते! ऐसे ही खाने की वजह से उनका वजन भी बढ़ता गया। वे अकसर सुनाते थे, कि जब मैं दिल्ली के एनएसडी में था, तो पुरानी दिल्ली या पहाड़गंज के होटलों का खाना ही ज्यादा खाते थे। क्योंकि, इन होटलों में ऊपर से देसी घी डालकर दिया करते थे। अभी भी वे यहां का खाना नहीं छोड़ते थे। दिल्ली के खाने के साथ उन्हें दिल्ली भी बहुत पसंद थी। शायद दिल्ली से उनकी मोहब्बत ही थी, जो आखिरी वक़्त में उन्हें दिल्ली खींच लाई और उन्होंने आख़िरी साँस भी यहीं ली।
    कोई शायद उनका ये दुःख कभी समझ नहीं पाया कि वे अपने दो साल के बेटे की मौत से बेहद दुखी थे। शादी के 9 साल बाद 56 साल की उम्र में पिता बनना भी एक चमत्कार ही था। बेटे के जन्म ने उन्हें बहुत ऊर्जा दी थी, पर उनकी ये ख़ुशी दो साल ही रही। इसके बाद बेटी वंशिका आकर उनका दुःख थोड़ा कम तो किया, पर बेटे जानू के दुःख से वे कभी उबर नहीं सके थे। अब उनके परिवार में पत्नी शशि और वंशिका ही हैं।
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Sunday, March 5, 2023

रंगों का रंगमहल है सिनेमा की होली!

हेमंत पाल

      होली हो और फिल्मों की बात न हो, ऐसा संभव नहीं है। होली के रंग अकसर रूपहले परदे पर बिखरे दिखाई देते हैं। बॉलीवुड के कई निर्देशकों ने अपनी फ़िल्मी कहानियों को होली के रंग से रंगीन किया है। फिल्मों में बरसों से कभी बदला लेने तो कभी विरह के रंग दिखाने के लिए होली का उपयोग किया जाता रहा है। लेकिन, यह प्रेम का रंग सबसे गहरा है, जिसने कई बार होली के जरिए परदे पर प्रेम के रंग पेशकश दर्शकों के दिल धड़काएं हैं। फिल्म के कथानक के साथ होली गीतों को भी फिल्मों में फिलर के रूप में  इस्तेमाल किया जाता रहा। कई फिल्मों में होली के गीत इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी होली के दिन दिनभर सुनाई देते हैं। जहां तक फिल्मों में होली के दृश्यों की बात है तो यह इतिहास काफी पुराना है। दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ में पहली बार होली दृश्य नजर आए। फिल्म के निर्देशक अमिय चक्रवर्ती ने 1944 में होली का दृश्य शूट करके एक इतिहास रचा था। उसके बाद दिलीप कुमार की फिल्म आन, कोहिनूर और 'सौदागर' में भी होली के रंग देखने को मिले।
      होली के जिस गाने का सबसे पहले जिक्र आता है, वह है 1940 में आई फिल्म 'औरत' का गाना। निर्देशक महबूब खान की इस फिल्म में अनिल बिस्वास के संगीतबद्ध गाने 'आज होली खेलेंगे साजन के संग' और 'जमुना तट श्याम खेले होरी' हिंदी सिनेमा के पहले होली गीत माने जाते हैं। बाद में महबूब खान ने इस फिल्म की कहानी को 'मदर इंडिया' नाम से बनाया। इसमें भी होली का सदाबहार गाना 'होली आई रे कन्हाई रंग छलके, बजा दे जरा बांसुरी' था। उसके बाद गीता दत्त के गाए 'जोगन' के गीत 'डारो रे रंग डारो रे रसिया' सुपरहिट होली गीत बना। श्वेत श्याम फिल्मों के दौर में भी होली के गाने दर्शकों को भाते थे। भले परदे पर रंग नजर न आते हो, लेकिन इन गीतों का जादू ऐसा होता था कि लोगों को परदे पर रंग बिरंगी होली का ही एहसास होता था। देश में बनी पहली टेक्नीकलर फिल्म 'आन' में दिलीप कुमार की अदाकारी के अलावा इस फिल्म के गाने 'खेलो रंग हमारे संग' ने लोगों पर खूब जादू किया।
     परदे पर रंगों की बौछार की बातें हों, तो फिल्मों में होली का रंग दिखाने में फिल्मकार यश चोपड़ा ने सभी निर्देशकों को पीछे छोड़ दिया। यश चोपड़ा ने ‘सिलसिला’ में 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' के रूप में बॉलीवुड को होली का लोकप्रिय गाना दिया। इसके बाद 'मशाल' में 'होली आई, होली आई, देखो होली आई रे, 'डर' में 'अंग से अंग लगाना' और बाद में ‘मोहब्बतें’ (निर्देशक आदित्य चोपड़ा) में 'सोनी-सोनी अंखियों वाली, दिल दे जा या दे जा तू गाली' से चोपड़ा ने बड़े पर्दे पर होली के भरपूर रंग बिखेरे। फिल्मों में होली का रंग बिखेरने वाले अभिनेताओं में अमिताभ बच्चन का नाम सबसे आगे है। रेखा के साथ 'सिलसिला’' में रंग बरसाने के लंबे समय बाद अमिताभ ने हेमा मालिनी के साथ 'बागबान' में 'होली खेले रघुवीरा' के जरिए एक बार फिर पर्दे को रंगीन कर दिया। अमिताभ, विपुल शाह की 'वक्त' में अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा के साथ 'डू मी ए फेवर, लेट्स प्ले होली' गाते हुए भी खासे जंचे।
      फिल्मों की एक और जोड़ी धर्मेंद्र और हेमा मालिनी ने भी होली को फिल्मों में खूब रंग बिखेरे। इस जोड़ी पर फिल्माया फिल्म 'शोले' का गीत 'होली के दिन दिल खिल जाते हैं' आज भी होली की मस्ती में चार चांद लगा देता है। इसके बाद इस जोड़ी ने फिल्म 'राजपूत' में 'भागी रे भागी रे भागी ब्रजबाला, कान्हा ने पकड़ा रंग डाला' गाकर भरपूर होली खेली। फिल्मों में होली के आयोजन का कारण रहे भक्त प्रहलाद को भी फिल्मों में कई बार दिखाया। भक्त प्रहलाद पर पहली बार 1942 में एक तेलुगु फिल्म 'भक्त प्रहलाद' के नाम से बनी, जिसे चित्रपू नारायण मूर्ति ने निर्देशित किया था। इसके बाद भक्त प्रहलाद पर 1967 में इसी नाम से एक हिंदी फिल्म भी बनी। बॉलीवुड में 'होली' नाम से दो फ़िल्में बनी, 'होली आई रे' नाम से एक और 'फागुन' नाम से दो फिल्मों का निर्माण हुआ। 
     होली से जुड़ा एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि कुछ फिल्मकारों ने इसे कहानी आगे बढ़ाने के लिए उपयोग किया, तो कुछ ने टर्निंग प्वाइंट लाने के लिए। कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने इसे सिर्फ मौज-मस्ती और गाने फिट करने के लिए फिल्म में डाला। फिल्मकार राजकुमार संतोषी ने 'दामिनी' में होली के दृश्य का उपयोग फिल्म में टर्निंग प्वाइंट लाने के लिए किया, जबकि 'आखिर क्यों' के गाने 'सात रंग में खेल रही है दिल वालों की होली रे' और 'कामचोर' के 'मल दे गुलाल मोहे' में निर्देशक ने इनके जरिए फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया। कथानक को जटिल स्थिति से निकालने या ट्रैक बदलने के लिए होली दृश्यों का इतने बार इस्तेमाल किया गया, जिसकी गिनती नहीं है। यश चोपड़ा ने अपनी फिल्मों में बार-बार होली दृश्यों का उपयोग किया। 1981 में आई ‘सिलसिला’ के गीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' गीत को भी जटिल हालात को व्यक्त करने के लिए रखा गया था। होली ने अमिताभ और रेखा की घुटन से बाहर आने का मौका दिया। फिल्म के पात्र प्रेम, दाम्पत्य और अविश्वास की जिस गफलत में फंसे थे, इस होली गीत ने उन्हें उस भूल-भुलैया से निकलने का रास्ता भी दिया था।
    1984 में 'मशाल' में 'होली आई होली आई देखो होली आई रे' में अनिल कपूर और रति अग्निहोत्री के प्रेम के रंग को निखारा गया। साथ ही दिलीप कुमार और वहीदा रहमान के बीच मौन संवाद पेश किया। ऐसा ही एक दृश्य यश चोपड़ा की ही फिल्म 'डर' में भी था। इसमें शाहरुख खान जूही चावला के प्रेम में जुनूनी खलनायक की भूमिका में रहते हैं। हैं। वे किसी भी कीमत पर उसे पाना चाहते हैं। तनाव के बीच होली प्रसंग शाहरुख को जूही चावला को स्पर्श करने का मौका देता है। साथ ही कहानी को अंजाम तक पहुंचाने का भी अवसर मिलता है। 'मोहब्बतें' में यश चोपड़ा ने 'सोहनी सोहनी अंखियों वाली' से जोड़ियों के बीच होली सीक्वंस फ़िल्माया। 
   कई फिल्मों में होली के दृश्य और गाने फिल्म की मस्ती को बढ़ाने के लिए भी डाले गए। ऐसी फिल्मों में पहला नाम 'मदर इंडिया' का आता है, जिसका गाना 'होली आई रे कन्हाई' आज भी याद किया जाता है। इसके अलावा 'नवरंग' का जा रे हट नटखट, 'फागुन' का गीत 'पिया संग होली खेलूं' और 'लम्हे' का 'मोहे छेड़ो न नंद के लाला' गाने ने भी होली का फिल्मों में प्रतिनिधित्व किया। होली पर कुछ नायक रंगों के त्योहार होली के माध्यम से नायिकाओं के जीवन में रंग भरने की कोशिश करते भी दिखे। फिल्म 'धनवान' में राजेश खन्ना ने रीना रॉय के लिए 'मारो भर-भरकर पिचकारी' गाया, तो 'फूल और पत्थर' में धर्मेंद्र, मीना कुमारी के लिए 'लाई है हजारों रंग होली' गाते दिखे। इसी तरह फिल्म 'कटी पतंग' में राजेश खन्ना पर फिल्माए गाने 'आज न छोड़ेंगे बस हमजोली' ने आशा पारेख को अपने अतीत की याद दिला दी। 
       कुछ फिल्में ऐसी भी रहीं, जिनमें होली के सिर्फ कुछ दृश्य दिखाए गए। केतन मेहता की फिल्म 'मंगल पांडे' में आमिर खान होली खेलते दिखे, तो वहीं विजय आनंद ने 'गाइड' में 'पिया तोसे नैना लागे रे' गाने में 'आई होली आई' अंतरा डाला। फिल्म 'जख्मी' में सुनील दत्त 'जख्मी दिलों का बदला चुकाने' गाते नजर आते हैं। आजकल जिस तरह की फिल्में बन रही हैं, उनमें दिलों को जोड़ने वाले पर्वों को दिखाने की गुंजाइश बहुत है। लेकिन, ऐसा बहुत कम हो रहा है। फिल्मों का शौक रखने वाले युवा वर्ग की रूचि भी बदल रही है। शायद यही वजह है कि फिल्मों से होली कहीं दूर जाती नजर आ रही है। बीते बरस की फिल्मों में 'जॉली एलएलबी 2' में अक्षय कुमार और हुमा कुरैशी पर फिल्माया एक होली गाना ही दिखाई दिया था। उसके बाद से किसी फिल्म में ऐसे कोई कोई गाने दिखाई या सुनाई नहीं दिए! 
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