Sunday, September 27, 2020

बॉलीवुड की बदनामी बीच आयुष्मान के सम्मान के सुखद पल!

हेमंत पाल

   इन दिनों बाॅलीवुड पर ड्रग्स का खुमार छाया है। अखबार और टीवी चैनल दिन-रात ड्रग्स के ड्रम पीटते नजर आ रहे हैं। बॅालीवुड की ऐसी छबि गढी जा रही है, मानो बॉलीवुड में ड्रग्स के सिवाए और कुछ नहीं है! इन कसैली खबरों के बीच यह खबर राहत देती है, कि 'टाइम' पत्रिका ने विश्व के सौ सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में अभिनेता आयुष्मान खुराना को शामिल किया है। आयुष्मान के साथ इस 'टाइम' सूची में केवल तीन वैश्विक अभिनेता को इस सूची में शामिल किया गया। इनमें संगीत संवेदनाएं सेलेना गोमेज और द वीकेंड हैं, जो पैरासिट बोंग जून हो, फेबे वॉलर-ब्रिज ऑफ फ्लेबाग से दुनियाभर में मशहूर हुए हैं। इनके साथ ब्रिटिश अभिनेत्री माइकेला जेल को भी इस सूची में जगह मिली है। 
  आयुष्मान के चयन की एक खासियत यह भी है कि वे सबसे कम उम्र के भारतीय हैं, जिन्हें इस साल 'टाइम' पत्रिका में जगह मिली। शक्ल-सूरत के लिहाज से आयुष्मान चमकते सितारों की खेप और सेलिब्रिटिज चेहरों से कमतर लगते हैं। लेकिन, फिल्मों में उनकी सफलता का ग्राफ चर्चित चेहरों से ऊपर रहा! उनकी यही खासियत उन्हें बाॅलीवुड के सितारों से अलग पहचान देती है। आयुष्मान ने रियलिटी शो में प्रतियोगी के तौर पर शुरुआत की थी! फिर उन्होंने टीवी शो का संचालन कर अपना करियर बनाया। फिल्मों के परदे पर वे 2012 में 'विकी डोनर' में पहली बार दिखाई दिए! इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। दम लगा के हईशा, बरेली की बर्फी, शुभ मंगल सावधान, बधाई हो और 'आर्टिकल 15' जैसी कॉमेडी और सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्मों से खुद को स्थापित किया।
   आयुष्मान उन सितारों की तरह नहीं हैं, जो बाॅलीवुड के ग्लैमर में खुद को डुबोकर सेलिब्रिटी की तरह व्यवहार करते हैं। निजी जिंदगी में अपनी कैंसर पीड़ित पत्नी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष कर रहे हैं। आयुष्मान का लक्ष्य रहा है, कि सिनेमा के माध्यम से समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाया जाए। यही कारण है कि सितारों की भीड के बीच उन्हें 'टाइम' ने सम्मान का हक़दार मानकर अपनी प्रतिष्ठित पत्रिका में वह स्थान दिया है जिसके लिए बडे बडे सितारे तरसते हैं। यह क्षण मेरी मान्यताओं और विचारों को पुष्ट करता है। उनका मानना है कि सिनेमा में इतनी शक्ति है कि इसके द्वारा समाज में लोगों के बीच सही मुद्दे उठाकर बदलाव लाया जा सके। आज बाॅलीवुड को ड्रग्स की खदान मानकर उसे कोसने वालों के सामने आयुष्मान एक उदाहरण हैं, जो इस बात को पुष्ट करते हैं, कि सारे कुएं भांग नहीं पड़ी है। पूरा बाॅलीवुड ही ड्रग्स के खुमार में नहीं डूबा। वहां आयुष्मान जैसे अभिनेता भी हैं, जो बॉलीवुड पर छाए धुएँ के छंटने की उम्मीद जगाते हैं।
   बॉलीवुड में चल रही नेपोटिज्म की अंतहीन बहस के बीच अभिनेता आयुष्मान खुराना का 'टाइम' की लिस्ट में शामिल होना किसी मिसाल से कम नहीं! कोई फ़िल्मी पृष्ठभूमि न होते हुए भी उन्होंने बॉलीवुड में अपनी जगह बनाई! प्रतिभाशाली और बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस अभिनेता की ये उपलब्धि अतुलनीय है। तय है कि इस सूची में उनका नाम देखकर कई लोग चौंके भी होंगे। समाज की रूढ़ीवादी सोच बदलने वाली फिल्मों में अभिनय करके पहचाने जाने वाले आयुष्मान का ये एक और कीर्तिमान है। अभिनेता के साथ वे गायक और लेखक भी हैं। उन्होंने अपनी कई फिल्मों में गाने भी गाए हैं। लेकिन, ये मुकाम पाना आसान नहीं था। आयुष्मान ने इसके लिए काफी संघर्ष किया। 
  फिल्मों के अलावा आयुष्मान सामाजिक कार्यों में भी बढ़ चढ़कर कर योगदान करते रहे हैं। यही कारण है कि 'यूनिसेफ़ इंडिया' ने बच्चों के हक एवं अधिकारों को प्रोत्साहन देने के लिए उन्हें सेलिब्रिटी एडवोकेट के रूप में अपनी इस मुहिम से जोड़ा है। इस मुहिम के तहत आयुष्मान खुराना बच्चों के खिलाफ हिंसा को खत्म करने की दिशा में यूनिसेफ़ के प्रयासों का समर्थन करेंगे। वे यूथ आइकन के रूप में इसके लिए काम करेंगे। इसके लिए उन्होंने मशहूर शख्सियत डेविड बेकहम के साथ हाथ मिलाया है, जो पूरी दुनिया में इस कैंपेन के लिए काम कर रहे हैं।
   इस बारे में भारत में यूनिसेफ़ के रिप्रेजेंटेटिव डॉ यास्मीन अली हक ने कहा कि आयुष्मान खुराना ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने अपने हर किरदार के जरिए एक मिसाल कायम की है। वे पूरी संवेदनशीलता और लगाव के साथ, हर बच्चे के लिए एक सशक्त आवाज बनने में कामयाब होंगे। बच्चों के खिलाफ हिंसा को खत्म करने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों में आयुष्मान हमारा साथ देंगे। उनके सहयोग से इस महत्वपूर्ण मुद्दे के बारे में जागरूकता बढ़ाने में हमें काफी मदद मिलेगी! क्योंकि, कोविड-19 के दौर में लंबे समय तक चलने वाले लॉक डाउन और इस महामारी के सामाजिक और आर्थिक प्रभाव की वजह से बच्चों के खिलाफ हिंसा और दुर्व्यवहार का खतरा काफी बढ़ गया है।
  इस दायित्व को निभाने के लिए उत्साहित आयुष्मान का मानना है कि बतौर सेलिब्रिटी एडवोकेट के रूप में 'यूनिसेफ़' के साथ काम करने का मौका उनके लिए  लिए बड़ी खुशी की बात है। उनका मानना कि कि  हर किसी को बेहतर बचपन पाने का पूरा हक है। वे कहते हैं कि जब मैं देखता हूं कि हमारे बच्चे अपने घर में पूरी तरह से सुरक्षित हैं! खेलकूद का पूरा आनंद लेते हैं, तब मुझे उन सभी बच्चों का ख्याल आता है जिनका बचपन सुरक्षित नहीं है। वे घर या घर के बाहर दुर्व्यवहार को झेलते हुए बड़े होते हैं। मैं यूनिसेफ़ के साथ मिलकर समाज के सबसे कमजोर तबके के बच्चों के अधिकारों का समर्थन करने के लिए तैयार हूं, ताकि वे हिंसा से मुक्त माहौल में खुश हाल, स्वस्थ और पढ़े-लिखे नागरिक के तौर पर विकसित हो सकें।
--------------------------------------------------------------------------------------

Monday, September 21, 2020

सिंधियों के लिए अलग राज्य मांगकर लालवानी ने क्या खोया, क्या पाया!

 - हेमंत पाल

इंदौर के सांसद शंकर लालवानी ने छह महीने पहले लोकसभा में अलग सिंधी राज्य की मांग उठाई थी! उन्होंने सिंधी में अपनी बात रखी थी! लेकिन, कोरोना के हल्ले में और लॉक डाउन काल होने से बात बाहर भी नहीं आ सकी! अब छह महीने बाद जब उनका ये वीडियो सामने आया तो हंगामा हो गया! उनकी इस मांग के पक्ष में न तो भाजपा खड़ी हुई और न सिंधी समाज! क्योंकि, उनकी इस मांग का कोई तार्किक आधार नहीं था। उनके संसदीय क्षेत्र के सिंधी समुदाय ने ही इसका विरोध किया! क्योंकि, आज तक किसी सिंधी नेता ने ऐसी कोई बात नहीं की! अब लालवानी लीपा-पोती करने की कोशिश कर रहे हैं! लेकिन, जो तीर कमान से निकल गया, वो वापस आने से तो रहा! लालवानी से एक दिन पहले लोकसभा में ओडिसा के मयूरभंज के सांसद बिशेश्वर तुडू ने भी शून्यकाल में यही बात की थी! वास्तव में तो लालवानी ने बिशेश्वर तुडू की मांग को आगे बढ़ाया है, नया कुछ नया जोड़ा!  
000    
     सांसद शंकर लालवानी ने लोकसभा में पहली सिंधी में बोलकर कोई कीर्तिमान बनाया या नहीं, ये अलग बात है! लेकिन, उन्होंने अलग सिंधी राज्य की मांग उठाकर देश में बसे सिंधी समुदाय को नाराज जरूर कर दिया। लालवानी ने लोकसभा में ये मांग किसकी सलाह पर देश के सामने रखी, ये वही जानें! पर, देश के किसी बड़े सिंधी नेता के उनकी बात का समर्थन नहीं किया! कोई सिंधी संगठन भी उनके समर्थन में सामने नहीं आया! भाजपा ने भी उनकी इस मांग पर कान नहीं धरे! पार्टी के इस ठंडे रुख से स्पष्ट है कि भाजपा भी अपने सांसद के इस बयान से सहमत नहीं है! ये भी कहा जा रहा, कि पार्टी ने उन्हें लोकसभा में ऐसी मांग उठाने के लिए लताड़ भी लगाई! 'संघ' से जुड़े सूत्रों के मुताबिक नागपुर ने भी नाराजी व्यक्त की और भविष्य के लिए हिदायत भी दी। 
     लोकसभा में छह महीने पहले रखी गई भाजपा सांसद की इस बात को किसी भी नजरिए से तार्किक नहीं कहा जा सकता! पहली बात तो ये कि ऐसी कोई भी मांग संविधान की मूल भावना के विपरीत है। देश में सामाजिक आधार पर किसी राज्य का गठन नहीं किया जा सकता! देश में कहीं कोई सिंधी भाषी बहुल क्षेत्र भी नहीं है, जिसे राज्य बनाया जाए! ये भी आधार नहीं बनाया जा सकता कि इस समुदाय के साथ अन्य समाज के लोग कोई विभेद करते हैं! बल्कि, सिंधी लोग अन्य समाज के लोगों से इतने ज्यादा घुले-मिले हैं, कि कहीं कोई फर्क नजर नहीं आता। लेकिन, शंकर लालवानी ने बिना किसी ठोस आधार के लोकसभा में ये मांग उठाकर खुद सिंधियों के बीच भी अपनी किरकिरी जरूर करवा ली! उनकी मांग का संसदीय क्षेत्र इंदौर के सिंधी समुदाय का भी समर्थन नहीं मिला और न देश के सिंधी नेताओं या सिंधी संगठनों ने उनकी पीठ थपथपाई! बल्कि, उनकी इस बात ने भाजपा को ही सवालों में घेर दिया! यही कारण है कि पार्टी शंकर लालवानी की बात पर सब खामोश है!   
   लोकसभा चुनाव में शंकर लालवानी साढ़े पांच लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीते थे। जबकि, इंदौर संसदीय क्षेत्र के 23.5 लाख मतदाताओं में सिंधी मतदाताओं की संख्या 83 हज़ार बताई जाती है। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इंदौर के मतदाताओं ने लालवानी को एक सिंधी सांसद के रूप में नहीं, भाजपा के प्रतिनिधि की तरह जितवाया! लेकिन, उन्होंने एक समाज विशेष की मांग उठाकर एक बड़े वर्ग को नाराज कर दिया। कुछ समाज के लोगों ने तो खुलकर उनकी बात का विरोध भी किया। कांग्रेस ने भी उनके अलगाववादी रवैये की आलोचना की! सिंधी समाज ने भी शंकर लालवानी के पक्ष में हाथ नहीं उठाया, बल्कि खुलकर अपनी नाराजी व्यक्त की! सोशल मीडिया पर भी सिंधी समाज के लोगों ने उनकी आलोचना की। सिंधी समाज ने सोशल मीडिया जिस तरह से अपनी बात रखी, वो ज्यादा तार्किक लगती है।
     इंदौर के एक सिंधी नेता का कहना है कि हम सांसद शंकर लालवानी की अलग सिंधी राज्य की स्थापना का समर्थन नहीं करते! विभाजन के बाद जब हमारे बुजुर्ग पाकिस्तान छोड़कर आए थे, तब यहाँ की सरकार या जनता ने कभी ये नहीं कहा था कि सिंधी समाज को मत आने दो या कोई अलग स्थान पर इन्हें बसाया जाए! किसी ने कभी यह आपत्ति नहीं ली, कि सिंधी समाज के लोग हमारे मोहल्ले, शहर या प्रदेश में नहीं रहेंगे! बल्कि, देश की जनता ने तो हमें अपने साथ रहने के लिए हर संभव मदद की और प्यार, सम्मान दिया। आज हम शहर हो, प्रदेश हो या फिर पूरा देश हो हमारे समाज के लोग हर जगह बसे हैं। हर जगह हमारे बिज़नेस हैं। सभी धर्मों के लोग हमसे व्यापार का व्यवहार करते हैं। हमारे हर सुख, दुःख में खड़े रहते हैं तो फिर सांसद ने अलग राज्य की मांग क्यों की! यह भी कहा गया कि यह मांग तब जायज थी, जब हमारे समाज पर अत्याचार होते या जनता हमसे नफरत करती! हिंदुस्तान आकर हमने प्यार और सम्मान पाया! आज कोई भी सिंधीजन न तो कोई शहर छोड़ेगा न कोई प्रदेश छोड़ेगा। शंकर लालवानी ने सिंधी प्रदेश की जो मांग की, वो राजनीति से प्रेरित है। सांसद ने शायद यह सोचा होगा कि अगर यह मांग लोकसभा में करूंगा, तो पूरी दुनिया मे मेरा नाम होगा और समाज के लोग प्रभावित होंगे! जबकि, लालकृष्ण आडवाणी, राम जेठमलानी, सुरेश केसवानी या अन्य किसी सिंधी नेता ने आजतक यह मांग नहीं की।
  पाकिस्तान से विभाजन के समय हिंदुस्तान आकर बसे सिंधी समुदाय के लोगों की खराब हालत का मुद्दा लोकसभा में इसी साल 19 मार्च को भी उठा था। इसमें भी अलग सिंधी प्रदेश का गठन किए जाने की मांग की गई। ओड़ीसा की मयूरभंज सीट से भाजपा सांसद बिशेश्वर तुडू ने लोकसभा में शून्यकाल के दौरान यह मामला उठाते हुए कहा था कि सिंधु घाटी की मोहन जोदाड़ो सभ्यता से ताल्लुक रखने वाले इस समुदाय के लोग आज बदहाली का जीवन जी रहे हैं। विभाजन के समय पाकिस्तान के सिंध से ये लोग शरणार्थियों के रूप में भारत आए थे। सिंधी समुदाय के संरक्षण के लिए अलग सिंध प्रदेश का गठन करने के साथ ही सिंधी कल्याण बोर्ड, राष्ट्रीय सिंधी अकादमी, सिंधी टीवी और रेडियो चैनल शुरू करने की मांग भी की गई थी। साथ ही 26 जनवरी की परेड में सिंधी समुदाय की झांकी को भी शामिल किए जाने की मांग की। उन्होंने भगवान झूलेलाल के जन्मदिन पर अवकाश घोषित किए जाने की भी मांग की। इनमें कुछ मांगे तो ठीक कही जा सकती है, पर ज्यादातर मांगे वैसे ही अलगाववाद की पोषक थीं, जैसी शंकर लालवानी ने की है।
   इंदौर में सिंधियों बीच ये बात पहली बार 2015 में 28 अगस्त को दुबई के बिजनेसमैन और इंटरनेशनल सिंधी फोरम के राम बख्शानी ने उठाई थी। उन्होंने शहर के सिंधी समाज के प्रतिनिधियों के बीच इस मांग को खत्म होती सिंधी संस्कृति और भाषा को बचाने के लिए इसे जरुरी बताया था। बख्शानी ने कहा था कि वे सरकार तक अपनी बात भेज चुके हैं। उनका तर्क था कि 2013 में गुजरात में हुए इंटरनेशनल सिंधी सम्मेलन में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमें इस बारे में आश्वासन भी दिया था। अब वे उनका और केंद्र का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। तब बख्शानी ने कहा था कि सिंधियों को राजस्थान के जैसलमेर और बाड़मेर के पास या गुजरात के कच्छ के पास जमीन दी जा सकती है। इन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा सिंधी भाषी है। इससे इन क्षेत्रों का विकास होगा। भाषा और संस्कृति संरक्षित हो सकेगी। बख्शानी ने यह भी कहा था कि सिंधी भाषियों को अब तक राजनीतिक तौर पर स्वीकार्यता नहीं मिली है। इस वजह से सिंधियों का राजनीतिक नेतृत्व नहीं पनपा। उन्होंने तब यह भी कहा था कि लालकृष्ण आडवाणी और आचार्य कृपलानी सिंधियों के नेता नहीं है, वे नेशनल लीडर हैं। किसी सिंधी नेता ने कुछ भी कहा हो, आज तो लोगों की नजर शंकर लालवानी हैं, जिन्होंने सिंधियों के लिए अलग राज्य माँगा है।  
-------------------------------------------------

Saturday, September 19, 2020

कभी चरखा चलाया, कभी चांद चुराया!

- हेमंत पाल

   गुलज़ार फिल्मों के ऐसे गीतकार जिनके गीतों की खनक कुछ अलहदा है। उनके गीतों के लफ्ज़ उनके श्वेत परिधान की तरह उजले और ठसकदार आवाज की तरह ठस्की से भरपूर होते हैं। गीतों में छायावाद या प्रयोगधर्मिता उनका शगल रहा है। शब्दों के बियाबान से वे दूसरी भाषाओं से ऐसे अनोखे शब्द चुनकर लाते हैं, कि सुनने वाला भी हैरान हो जाए! कानों को सुरीला लगने के बावजूद उनके गीतों को गुनगुनाना आसान नहीं होता! क्योंकि, दो चार बार सुनने के बाद भी उनके गीतों के कई शब्दों को समझना मुश्किल होता है। 'गुलामी' फिल्म के एक गीत में फ़ारसी के शब्दों 'ज़ेहाल-ए-मिस्कीन मकुन बारंजिश बाहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है' को आखिर कोई कैसे समझे! शब्दों के साथ चुहलबाजी गुलज़ार का पुराना शगल है। अपनी पहली ही फिल्म 'बंदिनी' के गीतों में उन्होंने 'मोरा गोरा ऱंग लइले, मोहे श्याम रंग दइदे' लिखकर चौंकाने की शुरुआत की थी, जो आज भी जारी है। लेखन में उर्दू समेत अन्य भाषाओं के शब्दों की बहुलता पर गुलजार का कहते हैं कि मेरे लिखने की भाषा हिन्दुस्तानी है। जिस भाषा का प्रयोग बोलने में करता हूं, उसी में लिखता हूँ।
     शब्दों की इस प्रयोगयात्रा में उन्होंने कभी 'चप्पा चप्पा चरखा' चलाया तो कभी चर्च के पीछे बैठकर चैन चुराने की बात की। 'घर' फिल्म के गीत 'तेरे बिना जिया जाए ना' में 'जीया' और 'जिया' का पारस्परिक संगम छायावाद का बेहतरीन उदाहरण है। 'परिचय' फिल्म के गीत 'सारे के सारे गामा को लेकर गाते चले' में उन्होंने सरगम का जो प्रयोग किया है, वो अद्भुत है। 'मेरे अपने' में उनका एक गीत 'रोज अकेली जाए रे चांद कटोरा लिए' गीत में उन्होंने रात को चांद का कटोरा थमाने की कोशिश बताया, जो ऐसी कल्पनाशीलता है, जो सहज नहीं कही जा सकती। 'किताब' फिल्म में बाल मनोविज्ञान को गीतों से समझाने के लिए उन्होंने 'धन्नो की आंख में रात का सुरमा' जैसे शब्द रचे! 'चल गुड्डी चल बाग में पक्के जामुन टपकेंगे' और 'जंगल-जंगल बात चली है' के अलावा 'मासूम' फिल्म के लिए उन्होंने 'लकड़ी की काठी ... काठी पे घोडा' जैसी रचनाएं लिखी, जो बच्चों के प्रति उनके मनोभावों को व्यक्त करती हैं। वे खुद कहते हैं कि बच्चों के लिए लिखना अच्‍छा लगता है! हर लिखने वाले को बच्चों के लिए लिखना चाहिए। बच्चे संवेदनशील होते हैं, उनसे बतियाना मेरा प्रिय शगल है। कभी तो लगता है कि मैं आज भी बच्चा ही हूं।
   गुलजार के गीतों में कुछ शब्दों का प्रयोग बहुत ज्यादा दिखाई देता रहा है। उनके गीतों में 'चाँद' नए-नए रूपों में मौजूद है। लाज, लिहाज, ताना और आत्मीयता लगभग हर एक प्रसंग के लिए गुलजार ने चाँद को याद किया। 'चाँद' यहां इच्छाओं का बिम्ब बन गया है। चाँद से यह नजदीकी गुलजार में इतनी गहरी है कि कभी वे चाँद चुराकर चर्च के पीछे बैठने की बात करते हैं, कभी कहते हैं 'शाम के गुलाबी से आँचल में दीया जला है चाँद का, मेरे बिन उसका कहां चाँद नाम होता!' उनके गीतों में एक भूखे इंसान को चाँद में भी रोटी नजर आती है 'आज की रात फुटपाथ से देखा मैंने रात भर रोटी नजर आया है वो चांद मुझे।' ये ऐसे कुछ चंद उदाहरण हैं जो गुलजार के एक शब्द के अलग-अलग प्रयोग बताते हैं।     
    उर्दू जुबान में फ़िल्मी गीत लिखने वालों में गुलजार के अलावा और भी शायर हैं! पर, गुलजार ने हिंदी के साथ उर्दू, अरबी,फ़ारसी और लोक भाषाओं का जो संगम बनाया वो बेजोड़ है। वे हिंदी और उर्दू को एक करने वाली हिंदुस्तानी जुबान के उस मोड़ पर खड़े दिखाई देते हैं, जहां कविता, कहानी और गीत आकर मिल जाते हैं। उन्होंने एक नई परंपरा की ये शुरुआत भी की, जिसमें हिंदी, उर्दू के साथ राजस्थानी, भोजपुरी, पंजाबी जैसी भाषाओं के शब्दों को भी अपनी रचनाओं में उपयोग किया! उन्होंने एक ही माला में अलग-अलग भाषाओं के शब्दों को पिरोने में परहेज नहीं किया। फिल्मों के संसार में गुलजार के कई रूप हैं! वे गीतकार के अलावा पटकथाकार, संवाद लेखक और निर्देशक भी हैं! लेकिन, गुलजार को ज्यादा प्रसिद्धि उनके गीतों के कारण मिली। उनके गीत ही उन्हें सिनेमा के शौकीनों से सीधा जोड़ते हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत ये है कि वे बदलते परिवेश और सिनेमा की मांग के अनुरूप अपने आपको ढालते रहे! 'बंदिनी' से गीतों का सफर शुरू करने वाले गुलजार ने अपने गीतों के जरिए कई विविधताओं के दर्शन कराए! उनका मन बच्चों और युवाओं से लगाकर हर वर्ग को समझता है। 
   'बंटी और बबली' तथा 'झूम बराबर झूम' जैसी कमर्शियल फिल्मों के गीतों की जबर्दस्त लोकप्रियता इस बात की मिसाल है कि वे हर सुर में शब्द पिरो सकते हैं। उन्हें बाजारू गीत लिखने से भी कभी परहेज नहीं किया। 'कजरारे कजरारे तेरे नैना कारे कारे नैना' का जादू दर्शकों के सिर चढ़कर बोला था। 'झूम बराबर झूम' के शीर्षक गीत पर तो युवा पीढ़ी झूम उठी! लेकिन, कौन सोच सकता है कि 'ओमकारा' के 'बीड़ी जलई ले जिगर से पिया' जैसा गीत ने भी गुलजार की कलम से जन्म लिया है। गैर पारंपरिक शब्दों के बावजूद हर रंग के गीत लेखन का नतीजा ये रहा कि गुलजार को 12 बार फिल्म फेयर पुरस्कार नवाजा गया! ये उनके गीतों की सामाजिक स्वीकार्यता भी दर्शाता है। वे अकेले गीतकार हैं जिनका नाम 'ऑस्कर' जीतने वालों की लिस्ट में भी है। 
-----------------------------------------------------------------------

Monday, September 14, 2020

कांग्रेस को भाजपा की हार में ही अपनी जीत नजर आ रही!

  मध्यप्रदेश की 27 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव की बिसात बिछने लगी है!  मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और ज्योतिरादित्य सिंधिया पूरी तरह एक्टिव हो गए। उन्होंने चुनावी बिगुल फूंक दिया! वहीं, कांग्रेस ने भी कुछ इलाकों में चुनावी सभाएं करके यह दिखाने की कोशिश की, कि वे भी दौड़ में हैं। कांग्रेस में 27 में से उपचुनाव के 15 उम्मीदवार घोषित कर दिए। भाजपा को तो सिर्फ जौरा और आगर-मालवा में ही उम्मीदवार तय करना है! 25 सीटों पर तो भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले पहले से तय हैं। कमलनाथ ने उपचुनाव वाली सीटों पर प्रभारी जरूर नियुक्त किए, पर भाजपा जैसी सक्रियता नहीं दिख रही। क्योंकि, कांग्रेस में अभी गहन मंथन का दौर जारी है। कमलनाथ के अलावा पार्टी के ज्यादातर नेता साइलेंट मोड में नजर आ रहे हैं! कांग्रेस की सत्ता के दौरान जो सक्रियता की बागड़ लांघते दिखाई देते थे, वो चुप हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस खुद मेहनत करके चुनाव जीतने के बजाए भाजपा की हार में अपनी जीत खोज रही है! 

- हेमंत पाल

    प्रदेश की 27 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव राजनीति की नई धारा निर्धारित करेंगे! ये उपचुनाव जितना भाजपा के लिए जरुरी हैं, उतना कांग्रेस के लिए भी! यही कारण है कि दोनों ही पार्टियां बिना कोई गलती किए फूंक-फूंककर कदम रख रही हैं। भाजपा को 9 सीट जीतकर अपनी सरकार बचाना है, तो कांग्रेस को सत्ता की दौड़ में बने रहने के लिए सभी 27 सीटें जीतना हैं! भाजपा सरकार में है और उसे गिनती की सीटें जीतना है, इसलिए उसके लिए चुनौती ज्यादा मुश्किल नहीं है! लेकिन, फिर भी वो कोई रिस्क लेना नहीं चाह रही, इसलिए चुनावी रणनीति बनाने में भी कसर नहीं छोड़ रही! जबकि, कांग्रेस में अपेक्षाकृत ठंडापन है! सत्ता खोने के बाद उसे वापस पाने की कोशिश में कमलनाथ ही सबसे ज्यादा सक्रिय दिख रहे हैं! ज्यादातर बड़े नेता नेपथ्य में हैं। लम्बे समय तक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव के अलावा अजय सिंह कहीं नजर नहीं आ रहे! सर्वे से लगाकर उम्मीदवारों के चयन तक कमलनाथ ही फैसले करते नजर आ रहे हैं!  
   कांग्रेस जानती है कि भाजपा हमेशा चुनावी मोड पर रहती है, इसलिए उससे चुनावी मुकाबला आसान नहीं है। फिर भी कांग्रेस उतनी गंभीर नहीं लग रही, जितना उसे होना चाहिए। लग रहा है कि 27 उपचुनाव अकेले कमलनाथ ही लड़ रहे हैं। उनके अलावा कोई और नेता न तो सक्रिय लग रहा है, और न किसी मंच या मीडिया में ही नजर आ रहा। ग्वालियर-चंबल इलाके में ही कांग्रेस जरूर मीडिया में मुखरता से नजर आ रही है! सोशल मीडिया में भी उसके हमले जारी हैं! पर मालवा-निमाड़ और बुंदेलखंड में कांग्रेस खेमों में बंटी है। मालवा-निमाड़ में सात सीटों पर उपचुनाव होना है, पर यहाँ ऐसा नहीं लग रहा कि कांग्रेस ने अपना माहौल बनाने की कोशिश की! कमलनाथ ने सांवेर में जरूर बड़ी सभा कर भाजपा की नींद हराम कर दी, पर बाकी सीटों पर सन्नाटा पसरा है। ऐसे में हर सीट पर स्थानीय कांग्रेसी नेताओं में जंग छिड़ी है।
   कांग्रेस भले ही इस बात को स्वीकार न करे, पर ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने के बाद ग्वालियर-चंबल इलाके में कांग्रेस का संगठनात्मक चरमराया है। उपचुनाव वाली कई सीटें ऐसी है, जहाँ कांग्रेस कार्यकर्ताओं तक का अकाल लग रहा! क्योंकि, जो  सिंधिया समर्थक कांग्रेसी विधायक पार्टी छोड़कर भाजपा में गए, वो अपनी फ़ौज को भी साथ ले गए। इससे ये सवाल उठता है कि इन कांग्रेस कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता पार्टी के साथ थी या किसी नेता के साथ! कांग्रेस को इस घटना से ये सबक भी लेना चाहिए, कि बगावत कांग्रेस विधायक ने की या उस इलाके की पूरी कांग्रेस ने! कांग्रेस के लिए अब सिंधिया के गढ़ में नए सिरे से पार्टी को खड़ा करना चुनौती है! इस इलाके की 16 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होना हैं! इसे देखते हुए शिवराज ने कैबिनेट में अच्छा खासा प्रतिनिधित्व भी दिया है। ये रणनीति कहीं कांग्रेस के लिए परेशानी का कारण न बने!   
   चुनाव के माहौल में एक और सवाल कसमसा रहा है, कि उपचुनाव के प्रभारी बनाए जाने में अल्पसंख्यकों को नज़रअंदाज़ किया किया गया! इस वर्ग के नेताओं को चुनावी बैठकों में भी नहीं बुलाया जा रहा! जबकि, उपचुनाव वाले इलाकों बदनावर, सांवेर, सुवासरा, हाट पीपल्या, सुरखी, मुंगावली, ग्वालियर-ईस्ट जैसी सीटों पर अल्पसंख्यक वोट 20 से 40 हजार तक हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर उपचुनाव में कांग्रेस की नैया कैसे पार होगी? बची हुई 12 सीटों पर कितने अल्पसंख्यकों को पार्टी उम्मीदवार बनाती है, इस पर सबकी नजर है। क्योंकि, अभी घोषित 15 सीटों के उम्मीदवारों में कोई अल्पसंख्यक नहीं है! यदि उम्मीदवार नहीं बनाया जाता, तो उन्हें उपचुनाव की को अहम ज़िम्मेदारी सौंपी जाना जरुरी है। 
   भाजपा के मुकाबले कांग्रेस संगठन हमेशा ही कमजोर लगता रहा है। इसकी तुलना कभी भाजपा से नहीं की जा सकती! मतभेद भाजपा में भी हैं, पर कभी सतह पर नहीं आते! जबकि, कांग्रेस में नेताओं की आपसी लड़ाई भी मीडिया के मंच पर लड़ी जाती है। सिंधिया के पार्टी से जाने के बाद भी ये दावा नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस में गुटबाज़ी खत्म हो गई! उपचुनाव वाली हर सीट पर कांग्रेस सेहत बहुत अच्छी नहीं है। स्थानीय स्तर पर कांग्रेस के नेताओं में ही इतने मतभेद हैं कि वे सुलझ नहीं पा रहे! कांग्रेस ने 27 में से 15 सीटों पर उम्मीदवार घोषित करके चैन की सांस ले ली हो! पर, सबसे ज्यादा झमेला तो बची हुई 12 सीटों पर ही है। यहाँ एक सीट पर 3 से 5 तक दावेदार हैं, जो किसी भी स्थिति में अपना दावा छोड़ना नहीं चाहते! लेकिन, कहीं कोई ऐसी टीम नजर नहीं आ रही, जो आपसी मतभेद खत्म करके पार्टी को एकजुट कर सके।    
   अभी तक हुए चुनावी सर्वे में भाजपा को कमजोर बताया जा रहा है। पर, इसका कारण कांग्रेस का ताकतवर होना कतई नहीं है! भाजपा के पिछड़ने के अनुमान इसलिए लगाए जा रहे हैं कि सिंधिया समर्थकों के प्रति जनभावना सकारात्मक नहीं है। प्रदेश में राजनीतिक हथकंडे से चलती सरकार को  गिराकर  अपनी सरकार बना लेने को लोग पचा नहीं पाए। मार्च में जब विद्रोह-प्रसंग छिड़ा, तब ये सब ज्यादा मुश्किल नहीं लग रहा था, पर आज का माहौल बदला सा है। इसी में कांग्रेस अपनी जीत का फार्मूला ढूंढ रही है। मध्यप्रदेश में दो दल ही चुनाव में प्रमुख भूमिका निभाते हैं, इसलिए वोट बंटने जैसी कोई आशंका भी नहीं है! ऐसे में साफ़ कहा जा सकता है कि 27 सीटों के उपचुनाव में भाजपा की कमजोरी ही कांग्रेस को फ़ायदा दिलाएगी! अन्यथा कांग्रेस एकजुटता से ऐसी कोई मेहनत नहीं कर रही जिससे जीत का रास्ता बने!              
-------------------------------------------------------------------------

Saturday, September 12, 2020

वेब मनोरंजन पर संगीत का माधुर्य!

हेमंत पाल

    वेब सीरीज के बारे में लोगों में आम धारणा है कि इनमें जमकर हिंसा, अश्लीलता और गाली-गलौच होती है। ये मनोरंजन का ऐसा प्लेटफॉर्म है, जिसमें सबकुछ जायज है। देखा जाए तो ये बात गलत भी नहीं है। 'ओटीटी' ने इसी के जरिए उन दर्शकों के बीच अपनी जगह बनाई, जो फिल्मों और टीवी सीरियलों से बोर हो गए थे। मनोरंजन के इस प्लेटफॉर्म ने हिंसा को इतना ज्यादा बढ़ावा दिया कि हॉलीवुड की एक्शन फ़िल्में भी उसके सामने फीकी पड़ गई! सेक्रेट गेम्स, अपहरण और 'पाताल लोक' जैसी सीरीज में जिस तरह गुंडागर्दी, गोलीबारी और पुलिसिया भाषा का इस्तेमाल किया गया, उसने मनोरंजन का नया ही आभामंडल रच दिया! फिल्मों और टीवी की दुनिया से आकर वेब सीरीज बनाने वाले किसी फिल्मकार ने सामाजिक या पारिवारिक कहानी कहने की हिम्मत तक नहीं की! क्योंकि, उन्हें डर था कि ये प्लेटफार्म शायद ऐसी कहानियों के लिए नहीं है! लेकिन, एमेजन प्राइम प्लेटफॉर्म पर भारतीय शास्त्रीय संगीत पर आधारित वेब सीरीज 'बंदिश बैंडिट' ने इस धारणा को खंडित कर दिया। ये सीरीज ठंडी हवा का वो झौंका है, जिसने ओटीटी पर नया दरवाजा खोल दिया। भारतीय शास्त्रीय गीत, संगीत पर आधारित ऐसी कहानी मनोरंजन दुनिया में लंबे समय बाद दिखाई दी। 'बंदिश बैंडिड' की असल धड़कन इसका संगीत पक्ष ही है। 
     'बंदिश बैंडिट' वो कहानी है, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत की कठिन साधना और इसके पीछे छुपी लगन को दर्शाती है! इस सीरीज का पहला सीजन संगीत की सनातन परंपरा और आज के कान फोडू संगीत के टकराव को सामने लाता है। ये राजस्थान की धरती पर रची गई शुद्ध भारतीय कहानी है, जो उन दर्शकों के लिए मनोरंजन की अच्छी खुराक है, जिन्हें हमेशा ये शिकायत रहती है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर अच्छी कहानियां नहीं दिखाई देती। इस वेब सीरीज का कथानक ओटीटी पर अभी तक आए कंटेंट से बिल्कुल अलग है। इसमें ‘म्यूजिशियन’ और ‘इलेक्ट्रिशियन’ के फर्क के साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत की बारीकियों को भी ईमानदारी से दिखाया गया है। संभवतः ये अपनी तरह की पहली ऐसी कहानी है, जो कभी फिल्मों में भी दिखाई नहीं दी! वास्तव में तो ये एक तरह का म्यूज़िकल ड्रामा है।  
    'बंदिश बैंडिट' की पटकथा रचने में जो मेहनत हुई है, वो नजर आती है। संगीत की दुनिया के दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े किरदारों के बीच प्रेम पनपने की कहानी और संगीत के एक विख्यात घराने को बचाने के संघर्ष को जिस तरह फिल्माया गया है, वो बेहद संतुलित और सधा हुआ है। कहा जाता है कि शब्द ब्रह्म है और सुरों की साधना ही वास्तव में परमेश्वर की साधना है! जबकि, बीते कुछ सालों में फिल्म संगीत शोर बनकर रह गया है। सालभर में इक्का-दुक्का ही कोई गीत ऐसा सुनाई देता है, जो गुनगुनाने का मन करता है! संगीत के शोर में बनने के इस दौर में 'बंदिश बैंडिड' की कहानी, कलाकारों का अभिनय और वेब सीरीज के गीत बेहद सुकून देते हैं।  
     इस वेब सीरीज का सबसे सशक्त पक्ष है, शंकर-एहसान-लॉय का सुमधुर संगीत जिसने इसकी कामयाबी में अहम भूमिका निभाई है। इसकी सफलता का बड़ा श्रेय ही इसका संगीत है। पक्के शास्त्रीय संगीत से पगे गीत देखने वाले को बाद में भी सुनने को मजबूर करते हैं। शास्त्रीय संगीत न समझने वालों को भी इसकी बंदिशें बांधकर रखती हैं। क्योंकि, इस संगीत में शोर नहीं, बल्कि दिल अंदर तक उतर जाने वाला सुकून हैं। कथानक के अनुरूप  संगीत के शास्त्रीय पक्ष को बेहद खूबसूरती से उभारा भी गया है! इस सीरीज की एक ठुमरी तो जहन में लम्बे समय तक गूंजती रहती है। इसके अलावा राजस्थान का लोकगीत 'पधारो म्हारा देस' और अंत का विरह गीत बेहद संजीदा है। 'बंदिश बैंडिड' कहानी तो दर्शकों को बांधती ही है, इसके संगीत का माधुर्य भी नई उम्मीद जगाता है कि जिस संगीत को खत्म कर दिया गया, मौका मिले तो वो फिर लहलहा सकता है। 
     नसीरुद्दीन शाह ने संगीत सम्राट पंडित राधेमोहन राठौड़ के किरदार को जीवंतता दी है। सख्त व्यक्तित्व और शास्त्रीय संगीत के प्रति कठोर अनुशासन को उन्होंने जिया है। कथानक में जिस संगीत सम्राट की कल्पना की गई होगी, नसीरुद्दीन शाह उस पर खरे उतरे हैं। संगीत के एक घराने को अपने ही नाजायज बेटे से बचाने के लिए वे अपने पोते को खड़ा करते हैं! इस सबके बीच रॉक म्यूजिक और शास्त्रीय संगीत के बीच खींचतान में फंसा उनका पोता मुकाबले के लिए कैसे तैयार होता है, वो बांधे रखता है! मराठी के जाने-माने कलाकार अतुल कुलकर्णी ने भी नाजायज बेटे की भूमिका में प्रतिद्वंदी गायक की भूमिका में जान डाली है! इस वेब सीरीज को देखना किसी संगीत की खूबसूरत दुनिया से गुजरने जैसा अनुभव है। यदि इस तरह की कहानियों को वेब सीरीज को जगह मिलती रही, तो नया संजीदा दर्शक वर्ग तैयार होना तय है!
------------------------------------------------------------------------------

Monday, September 7, 2020

दोनों पार्टियों के सर्वे में उपचुनाव के अनुमान एक जैसे!

    मध्यप्रदेश में अब तक की सबसे बड़ी राजनीतिक परीक्षा की घड़ी आ गई! चुनाव आयोग ने 27 सीटों पर उपचुनाव के अनुमानित समय का इशारा कर दिया! परीक्षा देने वाली दोनों पार्टियों ने भी कमर कसकर तैयारी कर ली! अब मतदाताओं के सामने चुनावी परीक्षा देकर नतीजे का इंतजार करना है। क्योंकि, ये सिर्फ उपचुनाव नहीं, सरकार के बचे रहने और गिरने का फैसला करने वाली परीक्षा है। लेकिन, उपचुनाव से पहले दोनों पार्टियों ने जो आंतरिक सर्वे करवाया है, वो दोनों पार्टियों की उम्मीद से अलग है! भाजपा को ज्योतिरादित्य सिंधिया में जो राजनीतिक एक्स-फैक्टर दिखाई दे रहा था, सर्वे में उसकी हवा निकल गई! उपचुनाव वाली अधिकांश सीटों पर सिंधिया समर्थकों की हालत खस्ता है। इसका फ़ायदा कांग्रेस की झोली में गिरना भी तय है। इस उपचुनाव में लोग कांग्रेस को नहीं जिताएंगे, बल्कि भाजपा के पक्ष में शायद वोट न दें! कमलनाथ-सरकार के दौरान कांग्रेस के मंत्रियों के व्यवहार से भी लोग खुश नहीं है। लेकिन, वे सिंधिया की राजनीतिक गद्दारी से कुछ ज्यादा ही नाराज हैं!        

- हेमंत पाल

    प्रदेश में उपचुनाव से पहले दोनों पार्टियों ने अपनी चुनावी तैयारी से पहले सर्वे के जरिए लोगों की मानसिकता को परखना और उसी के मुताबिक रणनीति बनाना जरुरी माना। दोनों पार्टियों ने अभी तक उपचुनाव वाली सीटों पर दो बार अलग-अलग सर्वे करवाए हैं। लेकिन, भाजपा को दोनों ही बार के सर्वे में निराशा हाथ लगी। ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों के कांग्रेस छोड़ने के समय जो उत्साह का माहौल बना था, वो सर्वे के अनुमानों से ठंडा पड़ गया। सर्वे के दोनों नतीजों ने बताया कि भाजपा को अनुमान से बहुत कम सीटें मिल रही है। मिलने वाली सीटों की संख्या इतनी भी नहीं है कि शिवराजसिंह की सरकार आसानी से सुरक्षित रहे! यदि भाजपा को अपनी सरकार बचाना है, तो उसे नई रणनीति पर विचार करना होगा। किसी चेहरे से चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती! भाजपा को ग्वालियर-चंबल इलाके की 16 सीटों से बहुत भरोसा था, पर सर्वे के मुताबिक ये भरोसा टूटता नजर आ रहा है। ऐसी स्थिति में कहीं ऐसा न हो कि पार्टी हार की आशंका वाली कुछ सीटों पर सिंधिया समर्थकों को टिकट न दे! ऐसी संभावनाओं से इंकार भी नहीं किया जा सकता! क्योंकि, भाजपा के लिए पहली प्राथमिकता सरकार बचाना है।          
   रिसकर बाहर आई ख़बरें बताती है कि 27 सीटों के उपचुनाव को लेकर भाजपा द्वारा कराए दूसरे आंतरिक सर्वे में पिछले सर्वे के मुकाबले पार्टी की एक सीट और कम हो गई। इस सर्वे के नतीजे बताते हैं कि भाजपा को 27 सीटों में से 20 सीटों पर हार का सामना करना पड़ सकता है। जबकि, पहले हुए आंतरिक सर्वे में पार्टी को 19 सीटों पर हार की आशंका बताई गई थी। उपचुनाव वाली 27 विधानसभा सीटों पर भाजपा ने दूसरा आंतरिक सर्वे 26 से 28 अगस्त के बीच कराया था। इस सर्वे की रिपोर्ट ने पार्टी को ज्यादा ही चिंता में डाल दिया। सामने आए अनुमान के मुताबिक पार्टी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने से ग्वालियर-चंबल संभाग में जिस चमत्कार की उम्मीद की थी, वो धूमिल हो गई! स्थानीय लोगों को उन पूर्व विधायकों के प्रति भारी असंतोष है, जो कांग्रेस से भाजपा में आए थे और जिनकी वजह से उपचुनाव के हालात बने! ऐसी स्थिति में एक सुझाव ये भी आया है कि जहाँ बहुत ज्यादा विरोध है और पार्टी को हार साफ़ नजर आ रही है, वहाँ सिंधिया समर्थकों के टिकट काटकर भाजपा अपने पारंपरिक नेताओं को उम्मीदवार बनाएं। 
    ग्वालियर में भाजपा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को तोड़कर भाजपा में शामिल करने का जो सदस्यता अभियान चलाया था, उसके बेअसर होने की भी खबर है। क्योंकि, इससे कांग्रेस को कोई फर्क इसलिए नहीं पड़ा कि ये कार्यकर्ता कभी कांग्रेस में थे ही नहीं! कांग्रेस के ग्वालियर-चंबल इलाके के उपचुनाव के मीडिया प्रभारी केके मिश्रा बताते हैं कि भाजपा ने फर्जी सदस्यता अभियान चलाया! जिसकी असलियत बहुत जल्दी सामने आ गई! इस इलाके में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए विधायकों वाली 16 सीटों पर भी विरोध लगातार बढ़ रहा है। सर्वे में 27 में से 23 सीटों पर स्थानीय भाजपा नेताओं के बीच अंतरकलह का भी ज़िक्र किया गया। रिपोर्ट में कहा गया कि किसान, मजदूर और शिक्षक सरकार से खुश नहीं हैं। जो घोषणाएं की गई, उस दिशा में कोई काम नहीं किया गया!  
   आंतरिक सर्वे की दूसरी रिपोर्ट के बाद भाजपा अपने एजेंडे में भी बदलाव करने का विचार कर रही है। कहा जा रहा है कि पार्टी ने संघ की सलाह पर फिर राम मंदिर को मुद्दा बनाकर मंदिर निर्माण रथयात्रा निकाले का विचार किया है। उपचुनाव से पहले संघ और हिंदू संगठनों को भी सक्रिय करने की कोशिश की जा सकती है। लेकिन, कहा नहीं जा सकता कि ऐसे धार्मिक पाखंडों से लोग प्रभावित होंगे! क्योंकि, अब 1992 जैसे हालात नहीं है, जब लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा से पूरे देश में राम मंदिर की लहर उठी थी! अब राम मंदिर का शिलान्यास भी हो गया और सभी को भरोसा है कि मंदिर भी बनेगा! इसलिए ऐसी रथयात्रा से मतदाता की मानसिकता बदलेगी, ऐसे आसार नहीं हैं। आज का आम मतदाता ऐसे मुद्दों से बहुत ज्यादा प्रभावित होगा, ऐसा नहीं लगता!
    उधर, कांग्रेस की दूसरी आंतरिक सर्वे रिपोर्ट भी बहुत कुछ यही निष्कर्ष दर्शा रही है। कांग्रेस की आंतरिक सर्वे रिपोर्ट के अनुमानों के मुताबिक उसकी स्थिति काफी बेहतर है। सर्वे के मुताबिक पार्टी कितनी सीटें जीत सकती है, इस बात का तो पता नहीं चला! लेकिन, कांग्रेस के नेताओं में जो ख़ुशी ही, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उसे उम्मीद से ज्यादा सीटें जीतने की उम्मीद है। कांग्रेस के नेता ये भी जानते हैं, कि उन्हें ये सफलता खुद के बूते पर नहीं मिलेगी! पार्टी की जीत के पीछे सबसे बड़ा हाथ भाजपा की हार का होगा! लोगों में सिंधिया समर्थकों के प्रति जो नाराजी है, वो हवा कांग्रेस के पक्ष में जाएगी! ग्वालियर-चंबल संभाग में सबसे ज्यादा 16 सीटों पर उपचुनाव होना है। भाजपा और खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया को यहाँ अच्छी सफलता का भरोसा था, पर सबसे ज्यादा नुकसान का अंदेशा यहीं नजर आ रहा है।    
  इसके बाद 7 सीटें मालवा-निमाड़ में हैं जहाँ उपचुनाव होना है! यहाँ से सर्वे के जो पूर्वानुमान मिले, वो भी कांग्रेस को उत्साहित करने वाले हैं। पार्टी खुश इसलिए है कि सर्वे में कांग्रेस को बढ़त मिलने का पूरा अनुमान दर्शाया गया है। मालवा-निमाड़ की 4 सीटों पर कांग्रेस सीधे जीतती दिखाई दे रही है। निश्चित रूप से ये वही सीटें हैं, जहाँ सिंधिया समर्थकों ने विद्रोह किया है। सर्वे में 2 सीटों पर मुकाबला बताया गया है, जो निमाड़ की नेपानगर और मांधाता हो सकती हैं। यहाँ के जिन विधायकों ने कांग्रेस छोड़ी, वे सिंधिया समर्थक नहीं हैं। जिस एक सीट पर कांग्रेस को अपनी साफ़ हार दिखाई दे रही है वो निश्चित रूप से आगर-मालवा की सीट होगी, जो भाजपा विधायक मनोहर ऊंटवाल के निधन से खाली हुई थी! लेकिन, कांग्रेस भी फूंक-फूंककर कदम रख रही और उम्मीदवारों के नाम फ़ाइनल करने की जल्दबाजी नहीं कर रही! अभी कांग्रेस के एक और सर्वे की बात सुनी जा रही है, उसके बाद ही शायद लिस्ट को अंतिम रूप दिया जाए! क्योंकि, ये अपनी तरह का सबसे बड़ा राजनीतिक संघर्ष है, जो मध्यप्रदेश में भविष्य की राजनीति की धारा तय करेगा!    
------------------------------------------------------------------------------

Saturday, September 5, 2020

हिंदी सिनेमा में बाबाओं की लीला!

हेमंत पाल

    बॉलीवुड में भी समय-समय पर ऐसी कई फिल्में बनी, जिनमें बाबाओं के अच्छे और बुरे पहलू उजागर किए गए! ये फिल्मों के लिए नया विषय तो नहीं है, पर इसके कलेवर बदलते रहे। कई फिल्मों के कथानक में धर्म के नाम पर ऐसे पाखंड रचने वालों के कारनामों को उजागर भी किया गया! 90 के दशक में आई अमिताभ बच्चन के नायकत्व वाली प्रकाश मेंहरा की फिल्म 'जादूगर' में अमरीश पुरी ने महाप्रभु जगतसागर चिंतामणि का किरदार निभाया था। ये महाप्रभु वास्तव में ठग होता है। इसके बाद तो कई फिल्मों में ऐसे किरदार नजर आए! अजय देवगन की फिल्म 'सिंघम रिटर्न्स' में भी अमोल गुप्ते की धर्मगुरु वाली भूमिका ने दर्शकों के रोंगटे खड़े कर दिए थे। इस धर्मगुरु का आतंक पूरे शहर में था। उससे पुलिस भी घबराती थी, जबकि वो समाज में गंदगी फैला रहा था। महेश भट्ट की नई फिल्म 'सड़क-2' भी एक धर्मगुरु पर केंद्रित है, जो अपने आपको भगवान समझता है। हाल ही में सैफ अली खान अभिनीत वेब सीरीज 'सेक्रेट गेम्स' के दूसरे सीजन में भी पंकज त्रिपाठी ने एक गुरु का ही रोल किया। इसके बाद प्रकाश झा ने तो बॉबी देओल को लेकर 'आश्रम' नाम से पूरी वेब सीरीज ही बना दी। 'आश्रम' की कहानी को यदि ध्यान से देखा जाए, तो ये पिछले कुछ सालों से चर्चा में रहे और अभी जेल की हवा खा रहे एक बाबा से मिलती जुलती है। 

   पिछले वर्षों में धर्म जैसे संवेदनशील विषय पर 'ओह माय गॉड' और 'पीके' जैसी फिल्में आई और कामयाब रहीं। 'धर्म संकट में' भी उसी मिजाज की फिल्म आई थी। पर फिल्म का विषय बहुत संवेदनशील होने से ये विवादों में फंसी रही। रिलीज से पहले इसे कई विवादों का सामना करना पड़ा था। पहले तो फिल्म के पोस्टर को लेकर विवाद हुआ! इसके बाद सेंसर बोर्ड ने सर्टिफिकेशन के लिए होने वाली स्क्रीनिंग के दौरान हिंदू व मुस्लिम धर्मगुरुओं को बकायदा आमंत्रित किया और उनकी सलाह पर फिल्म में कांट छांट की गई। सेंसर बोर्ड के किसी फिल्म को मंजूरी देने से पहले धर्मगुरुओं की सलाह लेने का यह पहला मामला था। फिल्म 'धर्म संकट में' 2010 में आई ब्रिटिश कॉमेडी फिल्म 'द इन्फिडेल' का ऑफीशियल हिन्दी वर्जन है। ये ब्रिटिश फिल्म एक ब्रिटिश मुस्लिम महमूद नासिर की कहानी थी, जिसे बाद में पता चलता है कि वह एक यहूदी परिवार में पैदा हुआ था! उसे दो सप्ताह की उम्र में मुस्लिम परिवार ने गोद ले लिया था। इस फिल्म को ईरान सहित कई मुस्लिम देशों में भी रिलीज किया गया, लेकिन इजरायल में इसे नहीं दिखाया जा सका। 
     फिल्मों में धर्म एक नया विषय बन गया है, जिसे समय-समय पर अलग-अलग तड़कों के साथ भुनाया जाता है। दरअसल, ये हमारे समाज का ही चेहरा है। जैसा समाज में होता है, वही फिल्मों के विषय बनते हैं। हाल के वर्षों में धर्म से जुड़े आडंबर, अंधभक्ति और धर्मगुरुओं के कारनामें सुर्खियों में रहे हैं, उसी से बॉलीवुड को ये नया विषय मिला है। धर्म पर विवाद हमेशा ही समाज और राजनीति के केंद्र रहे हैं। ऐसी स्थिति में सिनेमा इस बहस में पीछे रहना नहीं चाहता! लेकिन, इस संवेदनशील विषय को फिल्मकारों ने गंभीरता के बजाय व्यावसायिक ढंग से भुनाने की कोशिश की है। अभी तक ऐसी कोई फिल्म नहीं बनी, जिसने धर्मगुरुओं के चमत्कारों और उनकी कथित लीलाओं को लेकर कोई सार्थक फिल्म बनाने की कोशिश की हो! जेल में बंद कथित धर्मगुरु बाबा राम-रहीम ने तो खुद ही हीरो बनकर फ़िल्में बनाकर अपनी खिल्ली उड़वाई थी। मैसेंजर ऑफ गॉड, द मैसेंजर, द वारियर हार्ट, हिंद का नापाक को जवाब और 'जट्ट इंजीनियर' बनाकर उन्होंने खुद को दैवीय शक्ति वाले भगवान की तरह परदे पर पेश किया था।   
   इस जैसी सभी फिल्मों में आमिर खान की 'पीके' को सबसे अच्छा माना जा सकता है। फिल्म में सौरभ शुक्ला एक ऐसे धर्मगुरू की भूमिका निभाई थी, जिसके चमत्कारों को 'पीके' यानी फिल्म का नायक चुनौती देता है। इस वजह से शुरूआती दौर में इस फिल्म को देशभर में विरोध भी सहना पड़ा था! परेश रावल और अक्षय कुमार की फिल्म 'ओह माय गॉड' गुजराती नाटक 'कांजी विरुद्ध कांजी' का फिल्मी रीमेक थी। फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती, गोविंद नामदेव और पूनम झावर पाखंडी धर्मगुरुओं के किरदारों में थे जिन्होंने धर्म को व्यापार बना दिया था! 'चल गुरु हो जा शुरू' फिल्म में पाखंडी युवा साधुओं के जनता को बेवकूफ बनाने की कहानी बहुत अच्छे तरीके से दिखाई गई थी। इस फिल्म ने समाज में बढ़ते अंधविश्वास पर खासी चोट की थी। 'ग्लोबल बाबा' भी खुद को भगवान बताने वाले बाबाओं की फिल्म थी! इस फिल्म ने उन भक्तों की स्थिति दिखाती थी, जो आंखें मूंदकर ऐसे पाखंडियों पर भरोसा कर लेते हैं! 'दोजख : इन सर्च ऑफ हैवन' और 'देख तमाशा देख' भी अंधविश्वास और पाखंडी बाबाओं की असलियत बताने वाली फ़िल्में हैं। इसके बाद भी समाज में बाबाओं और गुरुओं का दखल कम नहीं हुआ और न कभी होगा! क्योंकि, धर्म का भय दिखाकर जो आडंबर रचते हैं, उसका असर जल्दी ख़त्म नहीं होता!  
--------------------------------------------------------------------