Friday, February 25, 2022

जन्म जन्मांतर के रिश्ते और फ़िल्मी फार्मूला

- हेमंत पाल

     सिनेमा की कहानियों में कुछ सदाबहार विषय ऐसे हैं, जो कई बार दोहराए गए और दर्शकों ने उन्हें पसंद भी किया! प्रेम कहानियों में भी पुनर्जन्म का तड़का लगा। ये कथानक का ऐसा फार्मूला है, जो बरसों पहले अपनाया गया था और आज भी इसी फार्मूले का उपयोग किया जा रहा है। ये ऐसा तड़का है, जिसे परिवेश के मुताबिक ढाला गया! यही कारण है कि फिल्म इंडस्ट्री में पुनर्जन्म काफी हिट कांसेप्ट है। एक जन्म से दूसरे जन्म तक फैली पुनर्जन्म की कहानियों में प्रेम को सबसे ज्यादा प्रधानता दी गई। इस विषय पर प्रेम से लगाकर बदला लेने वाली फ़िल्में भी बनाई गई। इनमें ज्यादातर कहानियां ऐसी थी, जिनमें एक जन्म में अधूरे रहे प्रेम के कसमें-वादों को पूरा करने के लिए प्रेमियों ने दूसरा जन्म लिया। जबकि, पुनर्जन्म की कुछ कहानियों में बदले की झुलसती आग थी। खलनायक एक जन्म में नायक को मार देता है, उसका बदला लेने के लिए वो दूसरा जन्म लेकर खलनायक को सजा देता है और उसे बताता भी है, कि वो कौन है! कई बार दोनों जन्मों के नायक बदल भी दिए गए, तो ऐसी भी फ़िल्में बनी जिनमें एक ही कलाकार ने दोनों भूमिकाएं अदा की। जितना संभव हो सका, फिल्मकारों ने हर उस मसाले का इस्तेमाल किया। 
     दरअसल, पुनर्जन्म का मतलब मनुष्य की आत्मा का अपने सारे विकारों के साथ फिर जन्म लेना ही नहीं होता! बल्कि, ये जीवन के आदर्श मूल्य जैसे मानवीय करुणा का बार-बार लौटना भी होता है। वास्तव में पुनर्जन्म की अवधारणा वैदिक अवतारवाद का ही एक रूप है। इसे तथ्यात्मक रूप से सही भी साबित किया गया। ऐसे कई उदाहरण है, जिनमें बच्चे को अपने पिछले जन्म की बातें, पुराना घर, रिश्तेदार सभी याद आए। लेकिन, व्यस्क होने पर पूर्व जन्म की बातें याद आना फिल्मों में ही दिखाई दिया। इस विषय पर गहन अध्ययन करने वाले विष्णु के अगले अवतार को 'कल्कि' कहते हैं। यह भी धारणा है कि वर्तमान समय वही है, जिसमें विष्णु के इस अवतार का जन्म होना है। जाने-माने गीतकार शैलेंद्र ने पुनर्जन्म पर अपनी दार्शनिकता कुछ इन शब्दों में व्यक्त की 'मरकर भी याद आएंगे किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे, जीना इसी का नाम है कि ले सके तो किसी का दर्द ले सके तो ले उधार!' मान्यता यह भी है कि जीवन नदी का एक किनारा है और दूसरा किनारा मृत्यु है। आनंद तो बस तैरते रहना है।
    पुनर्जन्म की अवधारणा से प्रेरित पहली फिल्म 1949 में आई कमाल अमरोही की 'महल' को माना जाता है। अशोक कुमार और मधुबाला की ये फ़िल्म ऐसी लड़की की कहानी थी, जिसके गरीब पिता उसे राजकुमारी की तरह पालते हैं। अभाव की प्रतिक्रिया में जन्मा प्रेम साजिश का शिकार हो जाता है। अशोक कुमार उस लड़की (मधुबाला) को अतृप्त आत्मा मान लेता है। उसकी खूबसूरती का शिकार होकर उससे मिलने की चाह में अपने जीवन को ख़त्म करने को भी तैयार हो जाता है। फिल्म के गाने ‘आएगा आने वाला, आएगा आने वाला' आज भी सुना जाता है। इसके बाद 1958 में बिमल रॉय ने ‘मधुमति’ बनाई। बताया जाता है कि ‘परख’ फिल्म के फ्लॉप होने के कारण दुखी बिमल रॉय वापस बंगाल लौटने का सोच रहे थे। ऐसे में ऋत्विक घटक ने चंद घंटों में ‘मधुमति’ की कहानी का प्लॉट लिखकर उन्हें दिया था। इसी कहानी पर उन्होंने 'मधुमति' बनाई, जिसकी सफलता ने बिमल रॉय को भी ‘नया जन्म’ दिया। पुनर्जन्म वाली फिल्मों में एक सुनील दत्त और नूतन की ‘मिलन’ भी है। 1968 में आई मनोज कुमार, वहीदा रहमान और राजकुमार की फिल्म ‘नीलकमल’ भी एक जन्म से दूसरे जन्म तक की कहानी है। इसमें राजकुमार को आत्मा की तरह प्रस्तुत किया गया था, जो अपनी बिछुड़ चुकी प्रेमिका को गाना गाकर पुकारता है, और प्रेमिका (वहीदा रहमान) उसकी तरफ खिंची चली आती है। सुभाष घई ने हॉलीवुड की ‘रीइनकारनेशन ऑफ पीटर प्राउड’ से प्रेरित होकर ऋषि कपूर और टीना अंबानी को लेकर ‘कर्ज’ बनाई थी। बाद में इसे दोबारा भी बनाया गया, पर बात नहीं बनी।  
     चेतन आनंद ने राजेश खन्ना और हेमा मालिनी को लेकर ‘कुदरत’ बनाई, जो इस विषय पर बेमिसाल फिल्म थी। हेमा मालिनी और राजेश खन्ना को लेकर मुशीर रियाज ने भी 'मेहबूबा' नाम से एक जन्म जन्मांतर से जुड़ी फिल्म बनाई थी। ख़ास बात ये कि पुनर्जन्म पर बनी करीब सभी फिल्मों के गीत-संगीत बेहद सफल रहे। दर्शकों ने फिल्म भले पसंद नहीं की हो, पर गाने खूब चले। इसके बाद लम्बे समय तक इस फॉर्मूले को दोहराया नहीं गया। 1992 में आई सलमान खान की फिल्म 'सूर्यवंशी' भी दो जन्मों से जुड़ी थी। राकेश रोशन की 1995 में आई फिल्म 'करण अर्जुन' भी बदले के कथानक पर दो जन्मों तक फैली थी। शाहरुख़ खान और सलमान खान के अभिनय वाली ये अपने समयकाल की सुपरहिट फिल्म थी। ये दो भाइयों की मौत और बदले के लिए उनके पुनर्जन्म की कहानी थी। संजय कपूर और तब्बू की फिल्म 'प्रेम' में भी दो जन्मों का बंधन था। 'अब के बरस' (2002) भी इस विषय पर बनी बड़ी हिट थी। इसमें आर्या बब्बर और अमृता राव मुख्य भूमिका में थेl 2007 में आई दीपिका पादुकोण की पहली फिल्म 'ओम शांति ओम' की कहानी भी दो जन्मों तक फैली थी। इसमें शाहरुख़ खान मुख्य भूमिका में थेl विक्रम भट्ट के निर्देशन में बनी करिश्मा कपूर की 2012 में आई फिल्म 'डेंजरस इश्क़' में भी दो जन्मों का जुड़ाव था। 2015 में आई फ़िल्म 'एक पहेली लीला' भी पिछले जन्म पर आधारित थी। दिनेश विजान ने पुनर्जन्म और कभी न मिटने वाले प्यार की कहानी पर कुछ साल पहले 'राब्ता' बनाई थी। इसमें सुशांत सिंह राजपूत और कृति सेनन ने अभिनय किया था। लेकिन, फिल्म दर्शकों के गले नहीं उतरी। 
     शाहरुख खान की सफल फिल्मों में गिनी जाने वाली 'ओम शांति ओम' भी पुनर्जन्म के आसपास ही घूमी थी। इसमें शाहरुख खान की एक कार एक्सीडेंट में मौत हो जाती है और उसकी आत्मा कार में बैठी महिला के गर्भ में प्रवेश कर जाती है। इस बीच दीपिका मर जाती है, लेकिन वह अवतार नहीं लेती, बल्कि, एक भटकती आत्मा बन जाती है। ऐसे कथानकों पर एक दिलचस्प फिल्म 'मक्खी' भी बनी, पर वो तेलुगु में बनी और हिंदी में डब की गई थी। इसकी कहानी सामान्य से अलग थी। निर्धारित मान्यताओं से अलग इस फिल्म में मनुष्य अगले जन्म में मक्खी के रूप में बदला लेने के लिए जन्म लेता है और अपनी प्रेमिका के साथ हुए धोखे का बदला लेता है। डबिंग वाली ही फिल्म 'मगधीरा' भी थी, जो हिंदी में पसंद की गई। फिल्म के मुख्य किरदार रामचरण तेजा और काजल अग्रवाल थे। इस फिल्म का कथानक पुराने ज़माने वाली राजा-महाराजाओं पर केंद्रित था।
   1995 में आई तब्बू और संजय कपूर की फिल्म 'प्रेम' को भी दर्शकों ने पसंद किया था। इसका पुनर्जन्म वाला कथानक सामान्य ही था। संजय कपूर छोटे कस्बे की यात्रा पर जाता है, जहां उसकी मुलाकात तब्बू से होती है, जिसे वह अपने सपने में लाछी के रूप में देखता आया है। लाछी को देखकर उसे इस बात का यकीन हो जाता है कि वह पिछले जन्म के प्रेमी हैं। 'लव स्टोरी 2050' भी ऐसी ही फिल्म थी जिसमे प्रियंका चोपड़ा एक कार दुर्घटना में खुद को मार डालती हैं। क्योंकि, उसकी शादी हरमन बावेजा से होने वाली होती है। फिर हरमन बोमन टाइम मशीन की मदद से भविष्य में जाते हैं और प्रियंका पुनर्जन्म रूप लेकर भविष्य में वापस आ जाती है। शाहिद कपूर और प्रियंका चोपड़ा की 'तेरी मेरी कहानी' की कहानी तो बेहद उलझी हुई थी। पूरी फिल्म के दौरान पता ही नहीं चलता है कि उनका पुनर्जन्म हुआ है। फिल्म की कहानी उनके 3 जन्मों पर आधारित है। लेकिन, पटकथा बेहद कमजोर होने से ये फ्लॉप फिल्मों की सूची में दर्ज है। अभी भी ये विषय पुराना नहीं पड़ा है। जब किसी फ़िल्मकार के सामने ऐसी कोई कहानी आई, दो जन्मों की प्रेम कहानी फिर आकार ले लेगी।  
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Sunday, February 20, 2022

परदे पर रंग ज़माने लगे छोटे शहर और कस्बे

हेमंत पाल

      दर्शकों ने शायद इस बात पर गौर किया होगा कि इन दिनों मनोरंजन की दुनिया में देसीपन ज्यादा आने लगा है। फिल्मों और टीवी सीरियलों के कथानक का केंद्र बिंदु महानगरों से निकलकर छोटे, मझौले शहरों के अलावा क़स्बों की तरफ मुड़ गया। अब कहानियों में लखनऊ, बरेली, पटना, इंदौर और भोपाल के अलावा महेश्वर, अलीगढ़ ज्यादा नजर आने लगा! ये बदलाव सिर्फ सिनेमा में ही नहीं, छोटे परदे के सीरियलों में भी नजर आया। दरअसल, ये मेकर्स में आया कोई बदलाव नहीं, बल्कि मज़बूरी है। उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि यदि दर्शकों को बांधकर रखना है, तो उनके आसपास का परिवेश तो दिखाना होगा। अब विदेशी लोकेशन, मुंबई के मैरीन ड्राइव और दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर घूमते नायक-नायिका से दर्शकों को ज्यादादिन भरमा पाना संभव नहीं है। यदि बायोपिक को फिल्माना है, तो उसी शहर में जाना होगा कि जहाँ कि वो शख्सियत है। मुंबई की फिल्मसिटी में सेट लगाकर नकली दुनिया ज्यादा नहीं दिखाई जा सकती। ये सब इसलिए भी हुआ कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी ज्यादातर कहानियों में महानगर नदारद ही हैं। उनमें भी भदेस कहानियों और देसीपन की भरमार है। फिल्मों और सीरियलों के देसीकरण का सबसे बड़ा कारण यह है कि इन्ही क्षेत्रों के दर्शक ही सच्चे दर्शक हैं। महानगरीय दर्शक तो रोजी-रोटी में व्यस्त रहता है। दूसरी बात यह कि टू-टियर और थ्री-टीयर शहरों के दर्शकों को न तो महानगरीय पटकथा पसंद है और न परिवेश। उन्हें खालिस देसीपन और पारिवारिक पृष्ठभूमि ही ज्यादा रास आती है। ऐसे में यदि फिल्मकारों और टीवी निर्माताओं को अपना माल बेचना है, तो खरीददारों का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा।
     एक वो समय था जब टीवी सीरियलों में अधिकांश गुजराती परिवारों या बड़े शहरों की कहानियां ही दिखाई देती थीं। क्योंकि, मेकर्स को सबसे ज्यादा टीआरपी भी वहीं से मिलने की उम्मीद थी। लेकिन, अब वक्त बदल गया। सीरियलों में छोटे शहरों की कहानियां दिखाई देने लगी। इससे पहले कोई ये प्रयोग करने का साहस नहीं कर पाता था। पर, अब ऐसा नहीं है। आजकल सीरियलों की कहानियां मुंबई, पंजाब और गुजरात से निकलकर मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बंगाल और बिहार तक पहुंच गई। इसका कारण यही कि अब छोटे शहरों के दर्शक उस सीरियल में जुड़ाव महसूस कर दिलचस्पी लेने लगे। अब यदि किसी सीरियल में इंदौर की छप्पन दुकान, सराफा या भोपाल का न्यू मार्केट और ताल का किनारा दिखाया जाएगा तो कौन उसे देखने से बचेगा! सोनी-टीवी पर तो लम्बे समय से मध्यप्रदेश ही है। इंदौर की अहिल्याबाई से शुरू होकर इंदौर भोपाल पर आधारित कामना से गुजरते हुए बरास्ता इंदौर के 'मोसे छल किए जाए से होते हुए रतलाम पर आधारित 'शुभ लाभ' तक पहुंच जाता है। कई सीरियलों की कहानी छोटे और मझोले शहरों में सिमटी है। इनमें इन शहरों के नाम और स्टॉक शॉट ही नहीं दिखाए जाते, बल्कि वहां की बोली, पहनावा, खान-पान और लोगों का मिजाज भी झलकता है। फिल्मों और सीरियलों में इस बदलाव को आने में, बरसों लग गए! जबकि, पहले कभी किसी शहर का जिक्र भी होता तो किसी एक डायलॉग या शॉट में! लेकिन, अब हालात बदल गए! टीवी सीरियल बनाने वालों को भी लगा कि यदि वे मुंबई और दिल्ली से बाहर नहीं निकले, तो दर्शक उन्हें अपने दिमाग से निकाल देंगे। बीते कुछ वर्षों में दर्शकों के सोचने-समझने की दिशा भी तेजी से बदली है। अब दर्शक अपने शहर और कस्बे का नाम और दृश्य देखकर गर्व अनुभव करते हैं।
     यही बदलाव फ़िल्म देखने वाले दर्शकों की रुचि में भी नजर आ रहा है। इसीलिए अब देश की मिट्टी में सनी कहानियां फिल्मों और वेब सीरीज ज्यादा सफल होने लगी। अब कथानक ही वहां पर केंद्रित नहीं है, फिल्मों के नाम और शूटिंग भी उन्हीं शहरों और कस्बों में होने लगी। बरेली की बर्फी, लुका-छुपी, लुका छुपी-2, बद्री की दुल्हनिया, स्त्री, निल बटे सन्नाटा, अनारकली ऑफ आरा, रिवॉल्वर रानी, दम लगा के हईशा, पटाखा, मसान, अलीगढ़, पैडमेन और आर्टिकल-15 वे फ़िल्में हैं, जिनकी कहानियां मुंबई, दिल्ली या कोलकाता जैसे किसी महानगर की नहीं थी। आने वाली कई फिल्मों में भी यही सब दिखाई देगा। 80 और 90 के दशक में ऐसा भी दौर आया जब फिल्मों में विदेशी लोकेशन छाई रहती थीं। फिल्मों के किरदार भी अप्रवासी भारतीय हुआ करते थे। लेकिन, छोटे शहरों में मल्टीप्लेक्स बढ़े, यहाँ से फिल्मों को होने वाली आय बढ़ी तो ये शहर भी कहानी के केंद्र में आ गए। वास्तव में ये बाजार की मांग थी, जिसने फिल्म और सीरियल के निर्माताओं को महानगरों और फिल्म स्टूडियो से बाहर निकलने को मजबूर कर दिया। अब छोटे और बड़े दोनों परदों पर देसी कहानियों को जगह मिलने लगी। देसी कहानियों से आशय गांव की कहानियां से नहीं, बल्कि उन छोटे और मझोले शहरों से है, जो इन्हीं गली-मोहल्लों में पनपी है।  
     फिल्मों में काल्पनिक पात्रों के कथानक की जगह रियल लाइफ कहानियां यानी बायोपिक भी एक कारण है, कि छोटे शहरों और कस्बों की पूछ-परख बढ़ी। यदि महिला बॉक्सर 'मैरी कॉम' पर फिल्म बनेगी, तो उसके लिए उत्तर-पूर्व में उसके गांव को ही तो फिल्माना ही पड़ेगा। महेंद्र सिंह धोनी की फिल्म के लिए भी रांची जाए बिना काम नहीं चलेगा! लेकिन, क्या छोटे शहरों में पले-बढ़े फिल्मकार ही अपने शहरों की कहानियां कह रहे हैं, ऐसा नहीं है! बल्कि बड़े शहरों के फिल्मकारों ने भी छोटे शहरों का रुख कर लिया। इसकी दो वजह है, एक तो इन इलाकों की कहानियां बहुत कम फिल्माई गई! दूसरा इन इलाकों की बढ़ी क्रय शक्ति ने बाजार को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे इन्हें किसी तरह अपने साथ जोड़े। छोटे शहरों पर केंद्रित फिल्मों की सफलता ने इस धारणा को भी खंडित कर दिया दिया कि हिंदी फिल्म तभी कमाई कर सकती है, जब उनमें नामी कलाकारों के साथ महानगरों या विदेशों की लोकेशन हो। आज के हिंदी सिनेमा में दर्शकों को जो देखने को मिल रहा है, वो यशराज फिल्म्स और करण जौहर जैसे बड़े निर्माताओं की फिल्मों से कोसों दूर है। अभी तक ये छोटे और मझोले शहर सिनेमा के परदे से लगभग गायब रहते थे। 60 और 70 के दशक के सिनेमा ने गांव का रुख किया था। लेकिन, वह आज की तरह छोटे शहरों और कस्बों तक पहले कभी नहीं गया। कई बार तो गांव भी वास्तविक नहीं होते थे, बकायदा सेट लगाकर उन्हें गढ़ा जाता। लेकिन, अब स्थिति बदल गई। 'लुका छुपी' में मथुरा और ग्वालियर की कहानी की थी, तो उसे वहीं फिल्माया गया। जबकि, 'लुका छुपी-2' की पूरी शूटिंग इंदौर, उज्जैन, महेश्वर और मांडू में की गई।    
    ये सच है कि धीरे-धीरे फिल्म इंडस्ट्री से मुंबई का एकाधिकार टूट रहा है। इसे तोड़ रहे हैं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे शहरों की लोकेशन। फिल्मों के निर्माता, निर्देशक भी अपना कम्फर्ट झोन छोड़कर हकीकत की जमीन पर फिल्में बनाने के लिए नए ठिकाने तलाशने लगे। वे नई लोकेशन और नए चेहरों के जरिए कहानी कहने के लिए छोटे शहरों और कस्बों की तरफ निकल पड़े। निर्माता को इसका ये फ़ायदा मिलता है, कि उसे नकली सेट नहीं खड़े करवाना पड़ते! निर्देशक को ताजगी भरे और अनूठे दृश्य सहज मिल जाते हैं। ऐसे दृश्य जो फिल्म स्टूडियो की सारी खासियतों को नकार देते हैं। इन शहरों की अनदेखी लोकेशन भी कहानी के अनुरूप डांस करने के लिए घाट और पुराने महल ज्यादा अच्छा असर डालते हैं। ये सब स्टूडियो के सेट्स से कहीं ज्यादा बेहतर होता है। कुछ सालों में उत्तर प्रदेश में तनु वेड्स मनु, शादी में जरूर आना, दावत-ए-इश्क, जाली एलएलबी-2, रांझणा, प्रेम रतन धन पायो, अलीगढ़, डेढ़ इश्किया और ‘रेड’ जैसी फिल्मों की शूटिंग हुई। जबकि, मध्य प्रदेश में शेरनी, धाकड़, टायलेट, स्त्री, पीपली लाइव और 'लुका-छुपी-2'  सहित कई फिल्मों की शूटिंग हुई।
     छोटे शहरों में बिखरे जीवन के रंग फिल्मों के किरदारों में भी अब नजर आते हैं। इनसे फिल्मों की भाषा का ढंग भी बदला। चंदेरी के भुतहा हवेलीनुमा महलों में ‘स्त्री’ की शूटिंग हुई, तो उसका प्रभाव भी दिखाई दिया। क्या ये प्रभाव मुंबई में सेट लगाकर संभव था! उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि में बनाई गई अजय देवगन की फिल्म ‘रेड’ में जो राजनीतिक दादागिरी का प्रभाव दिखाया गया, क्या वैसा मुंबई में दिखाया जाना संभव था! फिल्म ‘राजनीति’ की शूटिंग के लिए भोपाल से अच्छी जगह शायद कोई नहीं हो सकती थी। आर्टिकल-15 का तो परिवेश ही उत्तर प्रदेश का गांव था। यह सब इसलिए कि ऐसे मझोले शहरों के माहौल में जो देसीपन होता है, वो फिल्मों में दिखाई भी देता है। देश के एक बड़े दर्शक वर्ग को मुंबई, दिल्ली से ये मझोले शहर ज्यादा अपने से लगते हैं। क्योंकि, इन शहरों की गलियों और सड़कों पर जो माहौल होता है, उससे दर्शक अपने आपको जुड़ा हुआ भी पाता है।
    लंबे समय तक फिल्मों के कॉमेडियन या तो दक्षिण भारतीय शैली में बात करते थे या भोजपुरी मिली हिंदी बोला करते थे। लेकिन दंगल, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स में बोली जाने वाली हरियाणवी, अनारकली ऑफ आरा की भोजपुरी ने इस मिथक को तोड़ दिया। यहां भाषा भी फिल्म के किरदार की तरह सामने आती है। ये फिल्में मूल कथ्य के साथ इन शहरों और कस्बों की चुनौतियों को भी सामने लाती हैं। इन फिल्मों में ये मझोले शहर वैसे ही नजर आते हैं, जैसे वे हैं। छोटे शहर फिल्मों में सेट के जरिए नजर नहीं आ रहे, बल्कि इन शहरों में फिल्मों की शूटिंग भी बढ़ी है। भोपाल, इंदौर, लखनऊ और बनारस जैसे शहरों में लगातार फिल्मों की शूटिंग होना शुरू हो गई। सिर्फ पीढ़ी और उसका सोच ही नहीं बदल रहा, मनोरंजन के चक्र का नजरिया भी उसी गति से अपनी धुरी बदलने लगा है।
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Friday, February 18, 2022

दिल्ली का रास्ता तय करेंगे, ये पांच राज्यों के चुनाव

    उत्तर प्रदेश समेत देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। एक तरफ कोरोना की तीसरी लहर का हमला, दूसरी तरफ राजनीति की गहमागहमी के बीच होने वाले ये चुनाव निर्वाचन आयोग और राजनीतिक पार्टियों के लिए बड़ी चुनौती साबित होंगे। चुनाव वाले पांच राज्यों में से चार में भाजपा की सरकार है, जिसे पार्टी को हर हालत में बचाना है। लेकिन, वर्तमान राजनीतिक हालातों के बीच जनता को अपने पक्ष में करना मुश्किल लग रहा। जहां तक विपक्ष की बात है तो 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में जो विपक्ष सामने आया था, उसके पास खोने को कुछ नहीं है! इसलिए ये चुनाव भाजपा के लिए सबसे बड़ी परीक्षा है। चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश, गोवा और उत्तराखंड में जिस तरह भाजपा में भगदड़ मची है, इस चुनाव के नतीजों का पूर्वानुमान आसान नहीं। पांचों राज्यों की चुनावी तस्वीर देखें, तो स्पष्ट रूप से किसी एक पार्टी की जीत के बारे में दावा नहीं किया जा रहा। दरअसल, ये चुनाव अयोध्या में राम मंदिर, किसान आंदोलन और कोरोना महामारी से बुरी तरह प्रभावित व्यवस्था के बीच हो रहे हैं और ये चुनाव नतीजों को प्रभावित भी कर सकते हैं। 
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- हेमंत पाल

    पांच राज्यों में राजनीतिक पार्टियां एक बार फिर मतदाताओं के सामने याचक की मुद्रा में खड़ी हो गई! क्योंकि, अगले पांच सालों के लिए मतदाताओं का फैसला ही इन पार्टियों का भविष्य तय करेगा। संकट है कि चुनाव वाले पांच में से तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में लंबे समय तक चला किसान आंदोलन अपना असर दिखाएगा। इस आंदोलन के लम्बे समय बाद भाजपा को अहसास हो गया था कि किसान आंदोलन उनके वोट बैंक में सेंध लगाएगा, इसलिए केंद्र सरकार ने कृषि कानून वापस लेकर दांव खेला है! लेकिन, इससे किसान कितने संतुष्ट हैं, इसका अनुमान नहीं लगा। उत्तर प्रदेश और पंजाब में में सालभर चला ये आंदोलन असर दिखाएगा, इससे इंकार नहीं किया। यहाँ सात चरणों में होने वाले मतदान की शुरुआत किसान आंदोलन के गढ़ यानी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से होगी, जबकि चुनाव का अंत पूर्वांचल से होगा। इन विधानसभा चुनावों में भाजपा के सेनापति नरेंद्र मोदी ही होंगे। क्योंकि, पार्टी उनकी छवि को हर चुनावी राज्य में भुनाने की कोशिश करती रही है और यहाँ भी करेगी। उनके साथ उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के अलावा पार्टी के कई नेता मोर्चा संभालेंगे। 
     उत्तर प्रदेश का चुनाव भाजपा के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। पिछली बार प्रचंड बहुमत से विधानसभा चुनाव जीतने वाली भाजपा इस बार अपना वही प्रदर्शन दोहरा पाएगी, इसमें शक है। क्योंकि, इस बात उसके लिए मैदान साफ़ नहीं है। 2017 का चुनाव एकतरफा जीत साबित हुआ था, अबकी बार यह समाजवादी पार्टी से सीधे मुकाबले का चुनाव हो गया है। भाजपा के वोट बंटने के कई कारण दिखाई दे रहे हैं। लेकिन, सबसे बड़ी बात यह कि भाजपा से विद्रोह करने वाले नेता समाजवादी पार्टी में ही खिसक रहे हैं। भाजपा के लिए मुश्किल ये है कि दिल्ली की सरकार का रास्ता लखनऊ से ही होकर जाता है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश को लेकर खींचतान ज्यादा ही मची है। एक कारण यह भी कि उत्तर प्रदेश की विधानसभा सीटों संख्या भी बाकी चारों राज्यों की कुल सीटों से कहीं ज्यादा है। 
   भाजपा ने पिछली बार आसमान फाड़ बहुमत जीता था। उसे करीब तीन-चौथाई सीटें हासिल हुई थीं। लेकिन, इस बार मुकाबला बिखरा हुआ सा है। समाजवादी पार्टी की ताकत तो बढ़ी ही है, कांग्रेस भी भाजपा का खेल बिगाड़ सकती है। असदुद्दीन ओवैसी ने भी यहाँ अपने उम्मीदवार उतारने का एलान करके मामले को पैचीदा बना दिया। ऐसे में 'आम आदमी पार्टी' (आप) भी सेंध मारने की कोशिश में है। भाजपा के लिए चुनावी जंग को फतह करना इस बार आसान इसलिए नहीं है कि ठाकुर और ब्राह्मणों का एक बड़ा खेमा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से छिटका हुआ है। ऐसे में किसान आंदोलन, कोरोना से उपजी अव्यवस्था और हिंदुत्व जैसे कारक भाजपा के वोट बैंक को प्रभावित करेंगे। 
   पांच में से चार राज्य पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर ऐसे हैं जहां कांग्रेस वापसी के लिए संघर्ष कर रही है। पांच में से पंजाब में उसकी सरकार है। यदि वह बाकी चार में से किसी राज्य में वापसी नहीं कर सकी, तो उसके लिए आगे का रास्ता आसान नहीं होगा। यहाँ तक कि पंजाब में भी अब उसकी स्थिति आसान नहीं है। पंजाब के साथ गोवा में भी 'आम आदमी पार्टी' घुसपैठ कर रही है। उसने उत्तराखंड में अपना संगठन मजबूत किया, पर पंजाब में ग्राउंड लेवल पर 'आप' बेहतर स्थिति में है। यदि वो पंजाब में जीतती है, तो पहली क्षेत्रीय पार्टी होगी, जिसने दूसरे राज्य में भी सरकार बनाई। 
   उत्तराखंड में भी भाजपा मुश्किल में है। यहाँ कांग्रेस ज्यादा बेहतर हालात में नजर आ रही है। उत्तराखंड में पिछले कार्यकाल में भाजपा ने तीन बार मुख्यमंत्री बदले, फिर भी उसका मुकाबला मुश्किल ही है। उधर, पंजाब में इस बार भाजपा के साथ अकाली दल नहीं है। कांग्रेस से टूटे कैप्टन अमरिंदर उसके नए दोस्त बने हैं, पर उनसे बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। यही कारण है कि पंजाब में मुकाबला कांग्रेस और 'आप' में होने के आसार ज्यादा हैं। पंजाब में एक दलित को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने दांव तो खेला है, पर ये कितना कामयाब होता है, इस बारे में अभी कोई दावा नहीं कर रहा। 
   बार गोवा में भी मामला उलझा हुआ लग रहा है। यहाँ 'आप' और 'तृणमूल कांग्रेस' ने भाजपा और कांग्रेस के परंपरागत मुकाबले को चतुष्कोणीय बना दिया है। यहाँ सीटों की संख्या बहुत कम होने से एक-एक सीट का महत्व समझा जाता है। अभी की स्थिति में कहा नहीं जा सकता कि नतीजों का ऊंट किस करवट बैठेगा! लेकिन, भाजपा को जनता की नाराजी भारी पड़ सकती है। उधर, पांचवें राज्य मणिपुर में भाजपा के नेतृत्व की 'एनडीए' सरकार है। पर, यहां उसे कांग्रेस चुनौती दे रही। भाजपा ने पूर्वोत्तर पर विशेष रूप से ध्यान दिया है। इसलिए मणिपुर में उसे अपनी मौजूदा स्थिति को बचाए रखना जरूरी है।
        ये विधानसभा चुनाव कोरोना संक्रमण की छाया में कराए जा रहे हैं। बिहार के चुनाव भी कोरोना की पहली लहर के उतार के दौर में हुए थे। जबकि, पश्चिम बंगाल, असम और तमिलनाडु के चुनाव कोरोना की दूसरी लहर के दौर में हुए। आज देशभर में कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतों और इलाज की अफरा तफरी से लोग परेशान हैं। पांच राज्यों के चुनाव कोरोना की तीसरी लहर के उस शुरुआती दौर में शुरू हुए। आशंका है कि अगर जरूरी कदम न उठाए गए, तो इन चुनाव वाले राज्यों में तीसरी लहर सबसे भयावह हो सकती है। इसलिए इस बार पहले से सबक लेकर चुनाव आयोग ने कोरोना प्रतिबंधों के सख्ती से पालन करने का संदेश और निर्देश राजनीतिक दलों और लोगों को दिया है। अपनी तरफ से चुनाव आयोग ने कोरोना संक्रमण से बचते हुए चुनाव कराने के सारे इंतजाम कर दिए हैं और ज्यादा से ज्यादा चुनाव प्रचार डिजिटल और मीडिया के जरिए करने को कहा। 
      भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश के बाद सबसे महत्वपूर्ण राज्य पंजाब है। उसे अपने चार राज्य बचाने के साथ पंजाब में बिना अकाली दल की मदद के उतरकर अपनी हैसियत बढ़ाना है। लेकिन, उसके लिए अपने बलबूते पर कमल खिलाना आसान नहीं लग रहा। क्योंकि, कैप्टन अमरिंदर सिंह कमजोर मोहरा हैं और उनकी उम्र भी ऐसी नहीं रही कि पंजाब की जनता उन पर पांच साल के लिए भरोसा करें! उधर, कांग्रेस को पंजाब में अपनी सरकार बचाने के साथ उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में अपनी साख को साबित करना है। जबकि, कांग्रेस के सामने उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के चमत्कारिक नेतृत्व के प्रदर्शन का भी अहम लक्ष्य है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी अपने सहयोगी दलों के साथ भाजपा और उसके गठबंधन दलों को रोकने और अपनी सरकार बनाने के मंसूबे के साथ मैदान में है, तो बसपा की कोशिश इतने विधायक लाने की भी है कि बिना उसके कोई सरकार न बना सके। इस पार्टी का हमेशा से यही लक्ष्य भी रहा है। 
    कांग्रेस में पंजाब की जीत का पूरा दारोमदार मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ जैसे नेताओं पर है, तो उत्तराखंड में कांग्रेस की कमान पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के हाथ में है। आम आदमी पार्टी को पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और गोवा में अरविंद केजरीवाल के चमत्कारिक चेहरे पर सबसे ज्यादा भरोसा है। जबकि, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अकेले ही मोदी और योगी की चुनौतियों को टक्कर दे रहे हैं। भाजपा से समाजवादी पार्टी में कुछ प्रमुख नेताओं के आ जाने से उनकी ताकत इजाफा ही हुआ है। जबकि, बसपा को मायावती पर भरोसा है। पार्टी महासचिव सतीश मिश्रा ब्राह्मण को जोड़ने के लिए प्रदेशभर में मेहनत कर रहे हैं, पर फ़िलहाल जो हालात हैं, उन्हें देखकर लग नहीं रहा कि बसपा निर्णायक स्थिति में रहेगी। इन सारे हालात को देखते हुए पांचों राज्यों के चुनाव नतीजों को लेकर कोई पूर्वानुमान लगा पाना मुश्किल है। इसलिए भी कि चुनाव से पहले समीकरण रोज बदल रहे हैं। 
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Saturday, February 12, 2022

दक्षिण के जादू से कुम्हलाने लगी हिंदी फ़िल्में

हेमंत पाल 

   क समय था, जब हिंदी सिनेमा को जन भावनाओं का नजरिया माना जाता था। करीब सवा सौ साल के फिल्म इतिहास में बरसों से यही धारणा बनी हुई है। लेकिन, लगता है अब सब कुछ बदलने वाला है। क्योंकि, समय के साथ प्राथमिकताएं बदली और क्षेत्रीय सिनेमा भी फल-फूल गया। हिंदी सिनेमा की लोकप्रियता भी उतार पर आने लगी। हमेशा मुंबई फिल्म नगरी के पीछे चलने वाला क्षेत्रीय सिनेमा अब बॉलीवुड को टक्कर देने लगा। एक तरह से हिंदी सिनेमा का एकाधिकार खंडित होने लगा है। एसएस राजामौली की फिल्म 'बाहुबली' ने हिंदी के दर्शकों पर जो जादू दिखाया, वो लगातार अपना दायरा बढ़ा रहा है। तमिल समेत सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्मों को अब पसंद किया जाने लगा। 'बाहुबली' से लगाकर 'पुष्पा' तक आते-आते दक्षिण की फिल्मों ने दर्शकों पर अजब असर दिखाया। शुरू में ये तात्कालिक प्रभाव लगा, पर अब वो जादू सर चढ़कर बोलने लगा। कहा जा सकता है कि दक्षिण की फ़िल्में अब मुंबई सिनेमा पर भारी पड़ने लगी हैं। दक्षिण की डब फिल्मों ने हिंदी के दर्शकों को ऐसा बांध लिया कि अब हिंदी की ओरिजनल फ़िल्में भी उसके सामने फीकी पड़ गई। 'पुष्पा' ने फिर साबित कर दिया कि, यदि कहानी में दम है, तो फिर कोई भी और कहीं का भी चेहरा हो, दर्शकों पर अपना असर दिखाता है। दक्षिण और अन्य क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों का कंटेंट इसलिए भी दर्शकों को आकर्षित कर रहा, क्योंकि वो भारतीय संस्कृति से बहुत गहरे से जुड़ा है। वहां की फिल्मों में संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज और वहां की समस्याओं को गंभीरता से उठाने के साथ उसका हल भी दिखाया जाता है। जबकि, मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में बनने वाली फिल्मों में ये सब नदारद सा रहता है। 
   आखिर हिंदी फिल्मों का जादू दर्शकों के दिलों से क्यों उतरा, इसके पीछे कई कारण गिनाए जा सकते हैं। सबसे बड़ा कारण कि मुंबई सिनेमा प्रयोग करने से बहुत डरता है। दर्शकों की पीढ़ियां बदल गई, पर हिंदी फिल्मों ने अपना फार्मूला नहीं बदला। आज भी नायक, नायिका और खलनायक की कहानियों को हिंदी सिनेमा छोड़ नहीं पाया! जबकि, दक्षिण समेत सभी क्षेत्रीय सिनेमा नए प्रयोग की कोशिश में लगे रहते हैं। वे सिर्फ कहानियों में ही प्रयोग नहीं करते, फिल्म मेकिंग में भी भव्यता दिखाने की कोशिश करते हैं! 'बाहुबली' और उसके सीक्वल में जिस तरह की भव्यता दिखाई गई, वैसी हिंदी की किसी फिल्म में कल्पना भी नहीं की जा सकती। अब उन दर्शकों की पीढ़ी भी नहीं बची, जिन्हें प्रेम कहानियां और क्रूर खलनायक की उसमें दख़लंदाजी पसंद थी। लेकिन, हिंदी के फिल्मकार आज भी ऐसी कहानियों से मुक्त नहीं हुए। जबकि, क्षेत्रीय सिनेमा में कई तरह के नए प्रयोग होते हैं। इस कारण हिंदी सिनेमा अपनी ओरीजनलटी खो रहा है। हिंदी के फिल्मकारों को अभी भी लगता है कि रीमेक, सीक्वल या किसी के भी जीवन पर फिल्म बनाकर वे दर्शकों को भरमा लेंगे, तो ये उनकी ग़लतफ़हमी है। ये फिल्मकार आज भी हॉलीवुड या कोरियन सिनेमा की कॉपी करने में लगे हैं। इसके विपरीत दक्षिण और क्षेत्रीय सिनेमा में ऑरीजनल आइडिया पर काम होने लगा। 
   एक समय था, जब हिंदी की कालजयी फ़िल्में उसकी पहचान हुआ करती थी। मुगले आजम, मदर इंडिया, शोले से लगाकर 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' तक हिंदी सिनेमा बेजोड़ था। लेकिन, एक ही फ़िल्मी मसाले को ज्यादा दिन तक दर्शकों के सामने नहीं परोसा जा सकता। जब दर्शक के उबने का वक़्त आया, तभी कोरोना काल आ गया और दर्शक ओटीटी की तरफ मुड़ गए। वहां उन्हें लगा कि यदि कंटेंट अच्छा हो, तो ये बात मायने नहीं रखती कि उसके कलाकार कौन हैं। 
    ओटीटी अपने कंटेंट से दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छा गया और अब दक्षिण की फिल्मों को पसंद करने का कारण भी वही है। दर्शक अब फिल्मों में जो नयापन देखना चाहता है, वो उसे क्षेत्रीय सिनेमा में ज्यादा बेहतर मिल रहा है, तो वो क्यों अक्षय कुमार, सलमान खान की बेसिरपैर की फ़िल्में देखकर अपना वक़्त गंवाएं! बरसों तक हिंदी के दर्शक दक्षिण के हीरो के नाम पर सिर्फ रजनीकांत, कमल हासन या फिर चिरंजीवी को ही पहचानते थे। लेकिन, अब प्रभास, राणा दग्गुबती, महेश बाबू, अल्लू अर्जुन, थालापथी विजय, राम चरण और जूनियर एनटीआर को पहचाना और पसंद किया जाने लगा है। राजामौली की 'ब्रह्मास्त्र' के बाद तो दक्षिण के दबदबे की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।  
   सलमान खान, शाहरुख खान, रितिक रोशन और आमिर खान फैन फॉलोइंग बड़ी हैं। लेकिन, दक्षिण की फिल्म इंडस्ट्री के सितारे अभी अपने दम पर दर्शक नहीं जुटा पाते। रजनीकांत और अमिताभ बच्चन ही ऐसे कलाकार हैं, जिनकी देश और बाहर भी अपनी पहचान है। दक्षिण के सितारों का आज उतना क्रेज नहीं रहा। मगर, अब महेश बाबू और प्रभाष जैसे दक्षिण के सितारों को भी हिंदी बेल्ट में लोकप्रियता मिलने लगी। दर्शक टीवी पर भी डब की दक्षिण की फ़िल्में भी बहुत देखते हैं। यही कारण है कि इन सितारों की फैन फॉलोइंग बढ़ गई। पहले दक्षिण की बहुत कम फिल्में हिंदी में डब होती थी। लेकिन, इन दिनों दक्षिण की लगभग सभी फिल्मों को हिंदी में रिलीज किया जाने लगा। इससे थिएटर भी कमाई करने लगे। इन डबिंग वाली फिल्मों का स्टार कास्ट से कोई वास्ता नहीं। लेकिन, ये अपने भव्य प्रोडक्शन, नए कथानक और आइडिया की वजह से पसंद की जाने लगी। बाहुबली के दोनों पार्ट, काबली, रोबोट, केजीएफ, जय भीम और 'पुष्पा : द राइज' जैसी फिल्मों ने तो हिंदी क्षेत्रों में जमकर चांदी काटी। 'पुष्पा' की सफलता ने इसके सीक्वल का भी रास्ता खोल दिया। अगली फिल्म का नाम होगा 'पुष्पा 2 : द रूल' होगा और यह फिल्म दिसंबर 2022 में रिलीज होगी। मणिरत्नम की नई फिल्म 'पोंनियिन सेलवन' भी एक ऐतिहासिक उपन्यास पर आधारित फिल्म है। इसमें अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय के साथ दक्षिण के अभिनेता करथी भी हैं।
    हिंदी बेल्ट के दर्शक अब दक्षिण की डब फिल्मों को हिंदी में देखना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। हाल में रिलीज फिल्मों की लोकप्रियता इस बात की गवाही है। तेलुगू सुपरस्टार अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा, धनुष की अतरंगी रे के हिंदी वर्जन ने आसमान फाड़ कामयाबी हासिल की। कई सिनेमाघरों से बड़े बजट की फिल्म '83' को उतारकर फिर 'पुष्पा' को लगा दिया गया। सवाल उठता है कि दक्षिण की फिल्मों में ऐसा क्या है, जो हिंदीभाषी दर्शक इतना ज्यादा पसंद कर रहे हैं! जबकि, दक्षिण की संस्कृति, भाषा, पहनावा सभी कुछ उत्तर से बहुत ज्यादा अलग है। इसका एक ही जवाब है कि प्रयोगवादी नजरिया जो हिंदी में नदारद है। दक्षिण की कई फिल्मों की हिंदी में डबिंग की तैयारी की जा रही है, जो अभी तक सिर्फ टीवी पर ही दिखाई दी। इन दिनों जिन फिल्मों की डबिंग की जा रही हैं उनमें राम चरण की रंगस्थलम (2018), थलपति विजय की मर्सल (2017) और मास्टर (2021) और श्री की मनगरम (2017) जैसी फ़िल्में हैं। ये सभी फ़िल्में सिनेमाघरों में रिलीज़ होकर अपने समय जमकर कमाई कर चुकी हैं। इससे सबसे ज्यादा असर पड़ेगा हिंदी की फिल्मों पर! 
     आज दक्षिण की फिल्मों का क्या दबदबा है, ये अल्लू अर्जुन की 'पुष्पा' ने दिखा दिया। देशभर में दक्षिण की फिल्मों की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है। इस साल दक्षिण फिल्म इंडस्ट्री ने कई हिट फिल्में देकर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का सिंहासन लगभग हिला दिया। इसके साथ ही ये इंडस्ट्री देश की टॉप इंडस्ट्री बन गई। तमिल, तेलुगु और मलयालम की इस इंडस्ट्री ने लगभग 1300 करोड़ रुपए की कमाई की। जबकि, मुंबई की बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री ने 700 करोड़ कमाए और मनोरंजन का ये कारोबार तीसरे नंबर पर आ गया। बॉलीवुड को झटका देने का काम केवल दक्षिण के सिनेमा ने ही नहीं किया, कन्नड़ फिल्म उद्योग ने भी कमाल दिखाया है। 2018 में 'केजीएफ' ने शाहरुख ख़ान की ‘जीरो’ को जोरदार झटका दिया था। इस साल हिंदी बेल्ट को टक्कर देने के लिए 'केजीएफ' का चैप्टर-2  भी तैयार है। आगे भी यही हालत रहे, तो दक्षिण की फिल्मों के साथ वहां के सितारों का दबदबा भी बढ़ेगा। इससे बॉलीवुड का रीमेक फ़ॉर्मूला पूरी तरह से ख़त्म होना तय है। अब ये आने वाले समय बताएगा कि दक्षिण का सिनेमा मुंबई पर कितना भारी पड़ेगा! 
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Monday, February 7, 2022

स्मृति शेष : लता जी इस बार भी कह दो कि गलत है ये खबर!

- हेमंत पाल 

  काश ... पहले की तरह इस बार भी लता मंगेशकर के निधन की बात अफवाह निकलती! कई बार स्वर कोकिला लता मंगेशकर के गंभीर रूप से बीमार होने और फिर निधन की अफवाह तेजी से उड़ी थी। लेकिन, लता जी ने खुद ही इस बात पर लगाम लगा दिया था। 2014 में उन्होंने ट्वीट किया था 'नमस्कार, मेरी तबीयत के बारे में अफवाह फैल रहीं है, पर आप सबका प्यार और दुआएं हैं कि मेरी तबीयत बिलकुल ठीक है।' हाल ही में भी ऐसा ही हुआ! लेकिन, अब ऐसा कुछ नहीं हुआ! न तो लता जी की तरफ से कोई ट्वीट आया और किसी ने इस खबर को गलत बताया! सच यही है कि किवदंती लता मंगेशकर अब हमारे बीच नहीं है!
  लता मंगेशकर देश की सबसे सम्मानीय और लोकप्रिय गायिका थी, जिन्होंने अपने छ: दशक से ज्यादा लम्बे कार्यकाल में उपलब्धियों का शिखर छू लिया! इस दौरान संगीत की दुनिया को सुरों से नवाज़ा! लता ने 20 भाषाओं में 30 हज़ार से ज्यादा गाने गाए। उनकी आवाज़ सुनकर कभी किसी की आँखों में आँसू आए, कभी सीमा पर खड़े जवानों को सहारा मिला। लता जी ने अपना पूरा जीवन संगीत को समर्पित किया। उनकी पहचान सिनेमा में एक प्रतिष्ठित पार्श्वगायक के रूप में रही! कहते हैं, सफलता की राह कभी आसान नहीं होती! यही कारण है कि उनको अपनी जगह बनाने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। 50 के दशक के कई संगीतकारों ने तो शुरू में लता जी को उनकी पतली आवाज़ के कारण गाना देने से मना कर दिया था। ये वो समय था, जब पार्श्व गायिका नूरजहाँ का दौर था और लता जी की तुलना उनसे की जाती थी। लेकिन, वक़्त बदला और धीरे-धीरे प्रतिभा के बल पर उनको काम मिलने लगा। वक़्त, हालात और प्रतिभा ने लता मंगेशकर को कामयाबी दिलाई। 
     लता जी की प्रतिभा को सही पहचान मिली 1947 में, जब उन्हें फिल्म 'आपकी सेवा में' एक गीत गाने का मौका मिला। इससे उन्हें पहचान मिली और काम भी! इसे उनका पहला शाहकार गीत कहा जाता है, जो 1949 में उन्होंने गाया था। 'आएगा आने वाला' के बाद उनके चाहने वालों की संख्या बढ़ने लगी। उस समय के सभी प्रसिद्ध संगीतकारों के साथ लता जी ने काम किया। अनिल बिस्वास, सलिल चौधरी, शंकर जयकिशन, एसडी बर्मन, आरडी बर्मन, नौशाद, मदन मोहन, सी रामचंद्र इत्यादि सभी संगीतकारों ने उनकी प्रतिभा का लोहा माना। उन्होंने दो आँखें बारह हाथ, दो बीघा ज़मीन, मदर इंडिया, मुग़ल ए आज़म आदि महान फ़िल्मों में गाने गाए। महल, बरसात, एक थी लड़की, बड़ी बहन फ़िल्मों में भी अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा। उनके कुछ प्रसिद्ध गीत थे ओ सजना बरखा बहार आई (परख-1960), आजा रे परदेसी (मधुमती-1958), इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा (छाया- 1961), अल्ला तेरो नाम (हम दोनों-1961), अहसान तेरा होगा मुझ पर (जंगली-1961), ये समां (जब जब फूल खिले-1965) आदि। 
     इंदौर की धरती को वो सौभाग्य प्राप्त है कि इस स्वर कोकिला का जन्म यहीं पर 28 सितम्बर 1929 को हुआ था। उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर एक कुशल गायक थे। लता जी ने जब संगीत सीखना शुरू किया, तब वे 5 साल की थी। लता 'अमान अली ख़ान साहिब' और बाद में 'अमानत खान' के साथ भी पढ़ीं। लता मंगेशकर को सुरीली आवाज़, जानदार अभिव्यक्ति और बात को बहुत जल्द समझने वाली अविश्वसनीय क्षमता का उदाहरण माना जाता रहा! इस कारण उनकी इस प्रतिभा को बहुत जल्द पहचान मिली। लेकिन, 5 साल की छोटी उम्र में उन्हें पहली बार एक नाटक में अभिनय करने का मौका मिला था। लेकिन, उनकी दिलचस्पी तो संगीत में थी। 1942 में इनके पिता दीनानाथ मंगेशकर की मौत हो गई, तब वे 13 साल की थीं। नवयुग चित्रपट फिल्‍म कंपनी के मालिक और इनके पिता के दोस्‍त मास्‍टर विनायक (विनायक दामोदर कर्नाटकी) ने तब इस परिवार को संभाला और लता जी को एक गायिका और अभिनेत्री बनाने में सहयोग दिया। लेकिन, जिंदगी के इस मधुर चित्रपट की अंतिम रील का अंतिम सीन भी आ गया। उनकी जिंदगी का 'द एंड' जरूर हो गया, पर वे गीत-संगीत की दुनिया में हमेशा जिंदा रहेगी! क्योंकि, कुछ लोग जो कभी मरते नहीं, उनमें एक  मंगेशकर भी हैं।  

लता जी से जुड़ी कुछ अनोखी बातें

- 1974 में दुनिया में सबसे अधिक गीत गाने का 'गिनीज बुक रिकॉर्ड' उनके नाम पर दर्ज है।
- गाने की रिकॉर्डिंग के लिए जाने से पहले लता मंगेशकर कमरे के बाहर अपनी चप्पल उतारती थीं। उन्होंने हमेशा नंगे पाँव गाने गाए।
- लता मंगेशकर सिर्फ एक दिन के लिए स्कूल गई! जब वे पहले दिन आशा भोंसले को स्कूल लेकर गई, तो टीचर ने आशा को यह कहकर स्कूल से निकाल दिया कि उन्हें भी स्कूल की फीस देनी होगी। इस घटना के बाद लता जी ने तय किया कि वे कभी स्कूल नहीं जाएंगी। जबकि, बाद में उन्हें न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी सहित छ: यूनिवर्सिटी ने उन्हें मानक उपाधि से नवाजा! 
- वे फिल्म इंडस्ट्री की पहली महिला थीं, जिन्हें 1974 में लंदन के सुप्रसिद्ध रॉयल अल्बर्ट हॉल में गाने का अवसर मिला।
- लता की सबसे पसंदीदा फिल्म 'द किंग एंड आई' थी। हिंदी फिल्मों में उन्हें त्रिशूल, शोले, सीता और गीता, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे और मधुमती पसंद थी। 1943 में प्रदर्शित फिल्म 'किस्मत' उन्हें इतनी पसंद थी कि उन्होंने यह फिल्म करीब 50 बार देखी। 
- लता जी ने मोहम्मद रफी के साथ सैकड़ों गीत गाए! एक वक्त ऐसा भी आया, जब उन्होंने रफी से बातचीत करना बंद कर दी थी। लता गानों पर रॉयल्टी की पक्षधर थीं, जबकि मोहम्मद रफी ने कभी भी रॉयल्टी की मांग नहीं की। दोनों का विवाद इतना बढ़ा कि मोहम्मद रफी और लता के बीच बातचीत भी बंद हो गई और दोनों ने एक साथ गीत गाने से इंकार कर दिया था। हालांकि चार वर्ष के बाद अभिनेत्री नरगिस के प्रयास से दोनों ने एक साथ एक कार्यक्रम में ‘दिल पुकारे’ गीत गाया।
- लता जी को संगीत के अलावा खाना पकाने और फोटो खींचने का बहुत शौक़ है।
- 1962 में लता 32 साल की थी, तब उन्हें स्लो प्वॉइजन दिया गया था। लता की बेहद करीबी पदमा सचदेव ने इसका जिक्र अपनी किताब ‘ऐसा कहाँ से लेउँ' में किया है। हालांकि उन्हें मारने की कोशिश किसने की, इस बात का खुलासा आज तक नहीं हुआ।

पुरस्कार और सम्मान

- फिल्मफेयर पुरस्कार (1958, 1962, 1965, 1969, 1993 और 1994)
- राष्ट्रीय पुरस्कार (1972, 1975 और 1990)
- महाराष्ट्र सरकार पुरस्कार (1966 और 1967)
- सन 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
- सन 1989 में उन्हें फ़िल्म जगत का सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहेब फाल्के पुरस्कार’ दिया गया।
- सन 1993 में फिल्मफेयर के 'लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।
- सन 1996 में स्क्रीन के 'लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।
- सन 1997 में 'राजीव गांधी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।
- सन 1999 में पद्म विभूषण, एनटीआर और ज़ी सिने के 'लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।
- सन 2000 मेंआईफा के 'लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।
- सन 2001 में स्टारडस्ट के 'लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार', नूरजहाँ पुरस्कार, महाराष्ट्र भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- सन 2001 में भारत सरकार ने आपकी उपलब्धियों को सम्मान देते हुए देश के सर्वोच्च पुरस्कार 'भारत रत्न' से आपको विभूषित किया।
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Friday, February 4, 2022

विवाह के बाद बने रिश्ते और परदे पर अंतर्द्वंद

- हेमंत पाल 

   फिल्मों का काम सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं है। समाज की अच्छी-बुरी परंपराओं से भी उसका बहुत बराबरी का सरोकार होता है। ऐसा ही एक सामाजिक मसला है विवाहेत्तर रिश्ते! स्पष्ट है कि पुरुष और महिला के बीच के ये ऐसे रिश्ते होते हैं, जो शादी के बाद कई कारणों से बनते हैं और इन्हें हर स्थिति में छुपाया जाता है। इन रिश्तों की अपनी अलग-अलग कहानी होती है और फिल्मों में इन्हीं कथानकों को फ़िल्मकार परोसते रहे हैं। ऐसी कहानियों से लगता है, कि ये फिल्में समाज की मूल समस्याओं, रूढ़िवादी परम्पराओं को दूर करने या उन्हें सामने लाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ती। सामान्यतः फिल्मों में पति ही बेवफाई करता है और राज खुलने पर पत्नी उसे माफ़ करके जिंदगी की राह पर चलने लगती है। लेकिन, एक फिल्म 'रुस्तम' ऐसी भी आई जिसमें पत्नी के विवाहेत्तर रिश्तों को गुंथा गया था। ये सच्ची घटना पर बनी फिल्म थी।  
      विवाहेत्तर रिश्तों की सच्ची कहानियों पर बनी 'रुस्तम' को भी सफल फिल्म माना जाता है। ये फिल्म दो बार बनी थी। पहली बार ये 1963 में ’ये रास्ते हैं प्यार के’ नाम से बनी जिसमें सुनील दत्त-लीला नायडू थे। इस फिल्म की कहानी की खासियत थी, एक महिला के विवाहेत्तर रिश्ते। अपराध की पृष्ठभूमि पर बनी रहस्य एवं रोमांच से भरी यह फिल्म नौसेना अधिकारी केएम नानावटी की असल जिंदगी पर आधारित थी। फिल्म में नौसेना अधिकारी अपनी पत्नी के प्रेमी की हत्या की कोशिश करता हैं। सामान्यतः फिल्मों में पुरुष के विवाहेत्तर रिश्तों को दिखाया जाता है और अंत में पत्नी माफ करके पति को अपना लेती है। लेकिन, शायद ये अकेली ऐसी फिल्म थी, जिसमें महिला विवाहेत्तर रिश्तों में हो और वह पति से माफी मांगे। फिर पति फैसला करता कि उसे माफ करना है या नहीं! दूसरी बार बनी इस फिल्म में अक्षय कुमार और इलियाना डिक्रूज मुख्य भूमिकाओं में थे। दूसरी बार बनी इस फिल्म के लिए अक्षय कुमार को नेशनल अवॉर्ड मिला था।
     ऐसे रिश्तों पर यश चोपड़ा की सबसे चर्चित फिल्म 'सिलसिला' (1981) को कहा जा सकता है। फिल्म की विवादास्पद कास्ट ने इस फिल्म की रोचकता को बढ़ा दिया था। अमिताभ बच्चन, रेखा और जया बच्चन अभिनीत इस फिल्म को अमिताभ की निजी जिंदगी से भी जोड़कर देखा जाता है। यश चोपड़ा को ऐसे फिल्मकारों में गिना गया, जो प्रेम की नब्ज जानते थे। 'सिलसिला' को कई कारणों से बड़ी फिल्म माना गया। उस दौर में विवाहेत्तर रिश्तों के कारण फिल्म की कहानी को आधुनिक समझा गया। ये भी चर्चा चली कि फिल्म की कहानी अमिताभ, जया और रेखा के रियल लाइफ लव स्टोरी पर आधारित थी। यश चोपड़ा को उम्मीद थी कि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कमाल करेगी। लेकिन, यश चोपड़ा की उम्मीदें धराशाई हो गई। फिल्म के गीत-संगीत को पसंद किया गया, पर फिल्म नहीं चली।
     ऐसा नहीं है कि यश चोपड़ा के लिए विवाहोत्तर संबंध पर फिल्म बनाने का यह पहला अवसर था। इस परम्परा की नींव उनके बड़े भाई और निर्माता-निर्देशक बीआर चोपड़ा अपनी चर्चित और संगीतमय फिल्म 'गुमराह' से पहले ही डाल चुके थे। फिल्म का आरंभ रामायण के उस प्रसंग से होता है, जिसमें मायावी हिरण का पीछा करते समय सीता को बाहर निकलने के लिए मजबूर किया जाता है। इसके साथ ही एक उद्घोष होता है कि विवाहित नारी के जीवन में भी ऐसी ही लक्ष्मण रेखा होती है, जिसे पार करने पर वैवाहिक जीवन नष्ट हो जाता है। फिल्म की नायिका माला सिन्हा का प्रेम सुनील दत्त से होता है और शादी अशोक कुमार से होता है। कुछ सालों बाद अचानक उसके जीवन में उसके प्रेमी का आगमन होता है और उसके कदम लड़खड़ाने लगते हैं। प्रेमी उसे समझाने का प्रयास करता है 'चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों!' लेकिन, विवाहोत्तर रिश्ते के प्रति आकृष्ट नायिका कहती है 'रुक न पाऊं मैं खिंचती चली आऊं मैं।' विवाहोत्तर रिश्तों पर यह समय से पहले बनी ऐसी फिल्म थी, जिसे गीतों और चुस्त पटकथा के कारण सराहा गया था। अशोक कुमार ,मीना कुमारी और प्रदीप कुमार अभिनीत फिल्म 'भीगी रात' भी कुछ ऐसी ही फिल्म थी। इसमें भी विवाह के बाद पत्नी के जीवन में पुराने प्रेमी का आगमन होता है।
    1977 में आई यश चोपड़ा की रमेश तलवार निर्देशित फिल्म 'दूसरा आदमी’ का कथानक भी कुछ हद तक विवाहेत्तर रिश्तों के नजदीक से निकलता दिखाई देता है। फिल्म में ऋषि कपूर, नीतू सिंह, राखी, शशि कपूर, देवेन वर्मा और परीक्षित साहनी की मुख्य भूमिका थी। इस फिल्म में राखी को ऐसी मनःस्थिति में बताया गया था, जिसे ऋषि कपूर में अपना खोया हुआ प्यार (शशि कपूर) नजर आता है। वो बार-बार ऋषि कपूर में अपना खोया हुआ प्यार देखती है! वैसे यश चोपड़ा की 'दाग' और 'जोशीला' में भी विवाहेत्तर रिश्तों का कथानक था। जबकि, बीआर चोपड़ा ने इसी तरह की कहानी पर पहले 'अफसाना' बनाई फिर उसकी रीमेक 'दास्तान' बनाई! बीआर चोपड़ा की 'निकाह' में भी विवाहेत्तर रिश्ते का पेंच था। 
    1986 में आई ‘एक पल’ भी लव ट्रायंगल वाली ही फिल्म थी। इसमें शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह और फारुख शेख ने अभिनय किया था। यह फिल्म कामकाज में डूबे पति, एक उदास बीवी और उसके एक्स ब्वॉय फ्रेंड के बीच पनपती कहानी थी। ये फिल्म मशहूर बांग्ला लेखिका मैत्रेयी देवी की कहानी पर आधारित थी। सामान्यतः लड़की अपनी गलती मान बैठती है, पर यहां औरत का एक अलग ही रूप सामने आया था। इमरान हाशमी और मल्लिका शेरावत की विवाहेत्तर रिश्तों पर बनी फिल्म 'मर्डर' 2004 में रिलीज हुई थी। इसका निर्देशन अनुराग बसु ने किया था। 2006 में आई फिल्म 'कभी अलविदा ना कहना' में रानी मुखर्जी, शाहरुख खान, अभिषेक बच्चन और प्रीति जिंटा जैसे कलाकार थे। इस फिल्म में रानी मुखर्जी और शाहरुख खान के बीच विवाहेत्तर रिश्ते दिखाए थे। फिल्म में रानी और अभिषेक से और शाहरुख, प्रीति से शादी कर चुके होते हैं। लेकिन, वे कोई भी अपने रिश्तों से खुश नहीं रहता। जब रानी और शाहरुख की मुलाकात होती है, तो दोनों प्रेम करने लगते हैं। 'कभी अलविदा ना कहना' भी ऐसी ही एक फिल्म थी, जिसमें विवाहेत्तर रिश्तों की कहानी थी। करण जौहर की इस फिल्म को समय से आगे की कहकर उसका विरोध भी हुआ था। 2016 की 'अजहर' में इमरान हाशमी, नरगिस फाखरी और प्राची देसाई ने अभिनय किया था। यह फिल्म भी विवाहेत्तर रिश्तों पर आधारित और पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद अजहरुद्दीन की जिंदगी से प्रेरित थी।
   अलग से विषयों पर फिल्म बनाने वाले विनोद पांडे ने अपनी फिल्म 'एक बार फिर' (1980) में दीप्ति नवल और सुरेश ओबेराय के विवाहेत्तर रिश्ते दिखाए थे। इसे बहुत पसंद किया था। इससे प्रेरित होकर विनोद पांडे ने शबाना आजमी, परवीन बाबी और मार्क जुबेर को लेकर 1982 में 'ये नजदीकियां' का निर्माण किया। विवाहेत्तर प्रेम संबंधों पर आधारित यह फिल्म भी बेहद सफल हुई थी। इसके साथ ही एक ही भूल, रिहाई, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, पंचवटी, अस्तित्व और ’मनमर्जियां’ भी ऐसी ही फ़िल्में है, जो विवाहेत्तर रिश्तों की कहानियों पर बनाई गई थी। अनुराग बसु के निर्देशन में बनी फिल्म 'लाइफ इन ए मेट्रो' (2007) भी विवाहेत्तर रिश्तों के साथ एक महिला के अकेलेपन की कहानी थी। इससे पहले फिल्म महेश भट्ट ने 'अर्थ' (1982) में अपनी निजी जिंदगी के पन्ने पलटे थे। परवीन बॉबी के साथ उनके विवाहेत्तर रिश्तों के अलावा पहली पत्नी से अलग होने की घटना भी फिल्म का हिस्सा थी। फिल्म की मूल कहानी महेश भट्ट से जुड़ी जरूर थी, पर सब कुछ फिक्शन में दिखाया गया था। 
     2021 में आई 'हसीन दिलरुबा' भी कुछ ऐसी ही फिल्म थी, जिसमे तापसी पन्नू, विक्रांत मेसी और यशवर्धन थे। फिल्म में तापसी का किरदार बहुत पावरफुल था और इसमें उनका यशवर्धन के साथ अफेयर दिखाया गया। अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी 'मनमर्जियां' में भी तापसी पन्नू, विक्की कौशल और अभिषेक बच्चन मुख्य भूमिकाओं में नजर आए थे। फिल्म में तापसी का शादी के बाद भी अपने एक्स बॉयफ्रेंड से अलग न हो पाने का कथानक था। लेकिन, ये दोनों फ़िल्में परदे के बजाए ओटीटी पर आई थी। जे ओमप्रकाश ने भी राजेश खन्ना, टीना मुनीम और स्मिता पाटिल को लेकर 'आखिर क्यों' बनाई थी।     
    शमिता बहल की फिल्म 'पुड़िया' में भी विवाहेत्तर रिश्तों के जरिए एक पत्नी की दुविधा को रोमांचक ढंग से पेश किया था। इस फिल्म को आधिकारिक तौर पर शॉर्ट फिल्म के लिए नामित किया गया और इसे 8वें इंडियन सिने फ़िल्म फेस्टिवल के लिए भी आधिकारिक तौर पर चुना गया। वास्तव में यह फिल्म महज़ विवाहेत्तर रिश्तों पर बनी फिल्म नहीं थी। यह एक महिला द्वारा अपने परिवार को बचाए रखने के उसके जज़्बे पर आधारित थी। शकुन बत्रा के निर्देशन में बनी फिल्म 'गहराइयां' में भी विवाहेत्तर रिश्तों को कुछ ज्यादा ही खुले रूप में बताया गया। विवाहेत्तर रिश्तों को केंद्र में रखकर बनी इस फिल्म में दीपिका और अनन्या दोनों बहनों के बीच के जटिल संबंधों को दर्शाया गया है। 'गहराइयां' रिश्तों में बेवफाई के कोण की गंभीरता से पड़ताल करती है। ये सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने के लिए भी कहती है।
   हिंदी फिल्मों के अभिनेता जॉन अब्राहम ने एक मराठी फिल्म प्रोड्यूस की, जिसका नाम 'सविता दामोदर परांजपे' है! ये प्यार में धोखा खाए एक प्रेमी की सच्ची कहानी पर आधारित है। यह फिल्म सविता दामोदर परांजपे के इसी नाम पर बने मशहूर नाटक पर आधारित है, जो एक साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म थी। इसमें एक प्रोफ़ेसर की पत्नी में अचानक बदलाव आना शुरू हो जाते हैं। तीव्र कामवासना के चलते वो विवाहेत्तर संबंध बनाना चाहती है। फिल्म 'बीए पास' (2012) तो विवाहेत्तर रिश्तों पर ही केंद्रित है और इस सीरीज की तीन फ़िल्में बन गई। इन तीनों फिल्मों में विवाहेत्तर रिश्तों को हमेशा नए अंदाज में कहा गया है। 
     श्रृंखला की तीसरी फिल्म 'बीए पास 3' की स्टोरी पल्लवी की जिंदगी से शुरू होती है, जिसकी पति अतुल से नहीं बनती, इस वजह से वो फ्रस्ट्रेशन का शिकार बनती है। ऐसे में उसकी जिंदगी में अंशुल की एंट्री होती है। दोनों के बीच संबंध बन जाते हैं। फिर कहानी में ऐसा मोड़ आता है, जिससे इन चारों के रिश्ते बुरी तरह उलझ जाते हैं। इन रिश्तों के चक्कर में सभी को कुछ न कुछ खोना पड़ता है। विवाहेत्तर संबंध एक सनसनी की तरह होता है जिसके बारे में जानने और अंदर तक झांकने की सभी की जिज्ञासा होती है। यही जिज्ञासा दर्शकों को इस तरह की फिल्मों की तरफ आकर्षित करती है। समाज में जब तक यह आकर्षण बना रहेगा, फिल्मकारों हॉट केक की तरह विवाहेत्तर रिश्तों पर फिल्म बनाने का मौका मिलता रहेगा वे दर्शकों को गुदगुदाकर अपनी झोली भरते रहेंगे।
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