Monday, May 30, 2022

कविता की तान में भाजपा के बड़े नाम ओझल!

- हेमंत पाल 

  भारतीय जनता पार्टी ने राज्यसभा की दो खाली हो रही सीटों में से एक नाम की घोषणा कर दी। इस सीट से पिछड़ा वर्ग की नेता कविता पाटीदार का नाम फ़ाइनल कर दिया। उनका नाम संभावितों की लिस्ट में तो था, पर काफी नीचे। इसलिए इस नाम पर मुहर लगना चौंकाने वाली बात है। भाजपा ने इस बहाने दो निशाने लगाए! पार्टी ने ओबीसी के साथ महिलाओं के प्रति भी अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर दी। इंदौर के बड़े नेताओं की भीड़ में वे पहचाना हुआ नाम नहीं था, पर भाजपा के बड़े नेता भेरूलाल पाटीदार की बेटी होने के नाते उनको पार्टी में तवज्जो मिलती रही है। वे जिला पंचायत अध्यक्ष भी रहीं, पार्टी की प्रदेश महामंत्री हैं और हाल ही में घोषित चुनाव समिति में भी उन्हें शामिल किया गया।    
      मध्यप्रदेश में राज्यसभा की कुल 11 सीटें हैं। इनमें 8 सीटें भाजपा और 3 सीटें कांग्रेस के पास है। इन्हीं में से तीन सीट 29 जून को खाली होंगी, जहां से अभी तक भाजपा के एमजे अकबर और संपतिया उइके और कांग्रेस से विवेक तन्खा थे। प्रदेश विधानसभा में विधायकों की संख्या बल के मुताबिक दो सीटें भाजपा और एक सीट कांग्रेस को मिलेगी। प्रदेश में खाली होने वाली दोनों सीटों पर दिग्गजों के नामों को लेकर कयास लगाए जा रहे थे। ये भी समझा जा रहा था कि भाजपा की जो दो सीटें रिक्त हो रही है वे संपतिया उइके और एमजे अकबर की है। एक अनुमान यह भी था कि शायद दोनों को फिर से राज्यसभा में भेज दिया जाए, लेकिन पार्टी किसी को भी दोबारा भेजने के पक्ष में शायद नहीं थी।
    इन दोनों सीटों पर कई बड़े चेहरों की चर्चा थी। पर, पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने कविता पाटीदार के नाम की घोषणा कर सभी को सकते में ला दिया। कविता पाटीदार का नाम सामने आते ही नए सिरे से राजनीति तेज हो गई। प्रदेश में पंचायत और नगरीय निकाय के चुनाव होने हैं, उससे पहले भाजपा ने ओबीसी वर्ग का पत्ता चलकर एक महिला उम्मीदवार को राज्यसभा भेजकर बड़ा दांव चल दिया। खाली होने वाली दो सीटों से इसके अलावा पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती और राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का नाम भी लिया जा रहा था। किंतु, कविता की तान में सब ओझल हो गए!
     भाजपा की तरफ से बाहरी दावेदारों की बात करें, तो केंद्रीय मंत्री पीय़ूष गोयल का नाम भी सुर्खियों में था, पर उन्हें महाराष्ट्र से भजने के आसार हैं। जबकि, दूसरे चेहरे के लिए पार्टी में जातिगत समीकरण की कोशिश हो रही थी, जो कविता पाटीदार के नाम पर ख़त्म हुई! ओबीसी के अलावा पार्टी में अनुसूचित जाति (एससी) के नाम पर भी विचार हुआ था। अनुसूचित जाति मोर्चे के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालसिंह आर्य का नाम सामने भी आया। लेकिन, पार्टी को लगा कि राजनीतिक संभावनाओं को देखते हुए एससी के बजाए ओबीसी को साधना ज्यादा जरूरी था। संपतिया उइके महिला जरूर हैं, पर वे आदिवासी वर्ग से आती हैं। भाजपा पिछली बार आदिवासी वर्ग से सुमेर सिंह सोलंकी को राज्यसभा में भेज चुकी है, इसलिए इस बार उइके की जगह कविता पाटीदार को भेजना जरूरी समझा गया।  
    भाजपा ने कविता पाटीदार को महामंत्री बनाकर अपने इरादों को पहले ही जाहिर कर दिया था। पहली बार किसी महिला नेता को महामंत्री बनाया गया। उन्हें मालवा क्षेत्र में ओबीसी वर्ग का बड़ा चेहरा माना जा सकता हैं। भाजपा ने ओबीसी उम्मीदवार का नाम आगे बढाकर एक तरह से कांग्रेस को भी चिढ़ा दिया! लम्बे समय से कांग्रेस से अरुण यादव का नाम चर्चा में था! लेकिन, विवेक तन्खा को फिर से राज्यसभा का टिकट देकर कांग्रेस ने सबके लिए रास्ते बंद कर दिए। ऐसे में भाजपा ने ओबीसी नाम को आगे बढाकर इस वर्ग को लुभाने की भी कोशिश पूरी कर ली। बीजेपी ने ट्वीट करके कांग्रेस के जले पर नमक भी छिड़क दिया। भाजपा ने ट्वीट किया 'फर्क साफ है ... उनके अरुण यादव ताकते ही रहे। हमारी कविता पाटीदार दीदी राज्यसभा जा रही है।
   कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और ओबीसी नेता अरुण यादव की इच्छा राज्यसभा में जाने की थी। कहा गया था कि उन्हें खंडवा लोकसभा के उपचुनाव के समय भी यही कहकर मैदान से हटने के लिए मनाया गया था! लेकिन, विवेक तन्खा को फिर से राज्यसभा में भेजकर कांग्रेस ने कश्मीरी पंडितों को लुभाने की कोशिश जरूर की, पर इस जमीनी चुनाव से पहले ओबीसी को नाराज कर दिया। इसलिए कि कांग्रेस बहुत दिनों से प्रदेश में ओबीसी को लेकर राजनीति कर रही है। ऐसे में भाजपा को अच्छा मौका मिला गया और उन्होंने इसे छोड़ा भी नहीं!
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Thursday, May 26, 2022

फ्लॉप फिल्मों के इतिहास में कई 'धाकड़' दर्ज!

- हेमंत पाल

    फिल्मों का इतिहास सौ साल से भी पुराना है। इस दौरान बहुत कुछ अच्छा भी हुआ और बुरा भी। फ़िल्में हिट भी हुई और फ्लॉप भी! फ्लॉप इसलिए कि हिट फिल्मों का कोई तयशुदा फार्मूला नहीं है! जो फिल्म दर्शकों के दिल को छू जाए वो हिट और जो दिल से उतर जाए, वो फ्लॉप! फिल्म बनाने वाला निर्माता अपनी तरफ से कभी कोई कसर नहीं छोड़ता, पर दर्शकों के मूड का कोई भरोसा नहीं! 'शोले' जैसी कालजयी फिल्म के बारे में एक सच यह भी है कि 'जय संतोषी मां' के कारण ये फिल्म शुरू में नहीं चली! निर्माता ने भी समझ लिया था कि सारी मेहनत बेकार चली गई! पर, दो सप्ताह बाद इस फिल्म ने ऐसी गति पकड़ी कि इतिहास बन गया! ताजा घटना रंगना रनौत की फिल्म 'धाकड़' को लेकर है। इस फिल्म ने रिलीज होते ही, दम तोड़ दिया। जबकि, शुरूआती सप्ताह में सभी फ़िल्में चल जाती है, पर ये फिल्म चार दिन में सिमट गई! सौ करोड़ में बनी इस फिल्म की दुर्गति इतनी बुरी होगी ये सोचा नहीं गया था। फिल्म के फ्लॉप होने के पीछे कई कारण जिम्मेदार माने जाते हैं। फिल्म की लचर कास्ट, बेदम कहानी, निष्प्रभावी निर्देशन या फिर कुछ और! लेकिन 'धाकड़' के फ्लॉप होने के पीछे कंगना इमेज को भी जोड़कर देखा जा रहा है! यदि ये सच है, तो किसी फिल्म के फ्लॉप होने का एक नया कारण है। इसे अब तक की ऐतिहासिक फ्लॉप फिल्मों में एक माना जा रहा है। इससे पहले अब्बास मस्तान की फिल्म 'मशीन' (2017) को बॉलीवुड के इतिहास की सुपर फ्लॉप फिल्म माना गया था। 'मशीन' के बारे में यह अनुमान इसलिए लगाया गया था, कि मुंबई के एक थियेटर में सिर्फ एक शख्स इस फिल्म को देखने पहुंचा था। इसके बाद फिल्म के सारे शो कैंसिल कर दिए गए। जबकि 'धाकड़' को देखने औसतन 5 दर्शक टॉकिज में आए!
     ये पहली घटना नहीं है, जब बहुत उम्मीद जगाने के बाद कोई फिल्म दर्शकों को पसंद नहीं आई हो! फ्लॉप फिल्मों के पन्ने पलटे जाएं तो ऐसी सैकड़ों फ़िल्में हैं, जो सारे फार्मूलों के आजमाए जाने के बाद भी नहीं चली। 2015 में आई 'बॉम्बे वेलवेट' 120 करोड़ के बजट में बनी फिल्म थी। लेकिन, इसकी असफलता ने पूरी इंडस्ट्री को हिला दिया था। फिल्म ने दुनियाभर में सिर्फ 34 करोड़ का बिजनेस किया। अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी इस फिल्म में रणबीर कपूर, अनुष्का शर्मा और करण जौहर मुख्य भूमिका में थे। 130 करोड़ में बनी शाहरुख़ खान की 'रा-वन' (2011) में वीएफएक्स के प्रयोग की कोशिश, जो सफल नहीं हुई! करीना कपूर के अलावा एकॉन के संगीत सहित कई फार्मूलों के बावजूद फिल्म फ्लॉप रही। 200 करोड़ की लागत से बनी शाहरुख खान की 'जीरो' ने भी बॉक्स ऑफिस पर पानी नहीं मांगा था। फिल्म में शाहरुख बौना किरदार निभाया था। उनके साथ कैटरीना कैफ और अनुष्का शर्मा भी थे। पर कलेक्शन हुआ था 178 करोड़ का! फिल्म ने 97 करोड़ का बिजनेस किया था। सलमान खान की 'ट्यूबलाइट' भी 135 करोड़ में बनी, पर दर्शकों ने ईद पर रिलीज होने के बाद भी इसे नकार दिया था।
     शाहिद कपूर और आलिया भट्ट की 2015 में आई 'शानदार' की लागत 69 करोड़ थी, पर ये बॉक्स ऑफिस पर शानदार कमाल नहीं कर सकी। बड़े कलाकार, भव्य सेट, सुपरहिट गाने भी फिल्म को बचा नहीं सके। फिल्म ने 40 करोड़ की कमाई की जिसमें लागत भी नहीं निकली। ऐसी ही हालत राकेश रोशन की फिल्म 'काइट्स' की भी हुई थी। अनुराग बसु के निर्देशन में 50 करोड़ में बनी और ऋतिक रोशन और कंगना रनौत जैसी कास्ट भी फिल्म को बचा नहीं पाई। संजय लीला भंसाली जैसे बड़े निर्देशक की 40 करोड़ की फिल्म 'सांवरिया' की भी दुर्गति हुई थी। इस फिल्म से रणबीर कपूर और सोनम कपूर ने बॉलीवुड डेब्यू किया था। दर्शकों ने उनकी एक्टिंग भी अच्छी लगी, पर कहानी बेदम थी। फिल्म साढ़े 18 करोड़ का ही बिजनेस कर सकी थी।
      सलमान खान की 'युवराज' (2008) भी बड़ी फ्लॉप की गिनती में दर्ज है। 50 करोड़ के बजट वाली इस फिल्म ने कटरीना कैफ, अनिल कपूर और मिथुन चक्रवर्ती  हुए 16 करोड़ कमाए थे। सलमान की फ्लॉप फिल्मों की लिस्ट में 'रेस-3' (2018) भी है जो 180 करोड़ में बनी, पर कमाई के मामले में 166 करोड़ पर टिक गई। सलमान खान के अलावा फिल्म में अनिल कपूर, बॉबी देओल, डेजी शाह, जैकलीन फर्नांडिस मुख्य भूमिका में थे। जबकि, 'रेस-1' और 'रेस-2' ने फिल्म बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा दिया था। हरमन बवेजा जब फिल्मों में आए थे तब प्रियंका चोपड़ा के साथ उनकी 'लव स्टोरी ऑफ 2050' फिल्म आई थी। 60 करोड़ में बनी ये फिल्म कमाई के मामले में 18 करोड़ में सिमट गई थी।
    कोई भी फिल्मकार निर्माण में कभी कोई समझौता नहीं करता! उसकी कोशिश होती है कि दर्शक उसके प्रयोग को पसंद करें। फिल्म के प्रचार के लिए भी सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं। लेकिन, पहले शो के बाद रिजल्ट सामने आ जाता है। सबसे ज्यादा असर करती है फिल्म की माउथ पब्लिसिटी। टॉकीज  से बाहर निकले दर्शक की पहली प्रतिक्रिया सबसे ज्यादा मायने रखती है। उसके लिए ये बात मायने नहीं रखती कि फिल्म का बजट क्या था और इसके पीछे कितनी मेहनत की गई! उसके लिए ये बात ज्यादा मायने रखती है कि फिल्म ने उसका मनोरंजन किया या नहीं! ऐसा नहीं कि हर महंगी फिल्म हिट ही हो! बल्कि, ऐसी फिल्मों के फ्लॉप होने का हल्ला ज्यादा होता है। अब तक ऐसी कई महंगी फिल्में बन चुकी है, जो बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी। इस लिस्ट में कोई बड़ा अभिनेता-अभिनेत्री नहीं बची। फिर वो अमिताभ बच्चन हो, शाहरुख़ खान हो, आमिर खान या फिर सलमान खान!
      अमिताभ बच्चन की फिल्म 'अजूबा' 1991 में रिलीज हुई थी। 8 करोड़ के बजट से बनी तब इस फिल्म ने 4.5 करोड़ ही कमाए थे। ये उस समय की सबसे बड़ी फ्लॉप फिल्मों में से एक थी। जबकि, इसमें शशि कपूर, ऋषि कपूर जैसे कलाकारों ने भूमिका निभाई थी और फिल्म का कथानक सुपरहीरो पर आधारित था। लेकिन, इसे दर्शकों ने नकार दिया। 1993 में आई बोनी कपूर की बड़े बजट वाली फिल्म 'रूप की रानी चोरों का राजा' उस समय फ्लॉप हुई थी, जब अनिल कपूर और श्रीदेवी अपने स्टारडम के चरम पर थे। इस फिल्म का बजट 9 करोड़ था और फिल्म ने 6 करोड़ का ही बिजनेस किया था। 2010 में आई 'गुजारिश' एक रोमांस ड्रामा फिल्म थी, जिसका बजट 50 करोड़ था। ऋतिक रोशन और ऐश्वर्या राय जैसे सुपरस्टार्स इसमें लीड रोल में थे। लेकिन, ये फिल्म अपनी लागत भी नहीं निकाल पाई थी। इस फिल्म ने सिर्फ 29 करोड़ का बिजनेस किया था। इसी साल आई 'खेलें हम जी जान से' में दीपिका पादुकोण और अभिषेक बच्चन लीड रोल में थे। 40 करोड़ में बनी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर सिर्फ 5 करोड़ कमाए थे।
    2000 में आई 'राजू चाचा' में ऋषि कपूर, अजय देवगन और काजोल मुख्य भूमिका में थे। फिल्म का बजट 30 करोड़ रुपए था। जबकि फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 15 करोड़ रुपए की कमाई की थी। 2001 में आई शाहरुख़ खान और करीना कपूर की 'अशोका' ऐतिहासिक कथानक पर बनी थी। लेकिन, ये फिल्म अपना बजट भी नहीं निकाल पाई। इस फिल्म का बजट 12.5 करोड़ रुपए था, जबकि बॉक्स ऑफिस कलेक्शन था 8.25 करोड़। 2005 में आई आमिर खान की 'मंगल पांडे' को आमिर के करियर की सबसे बड़ी फ्लॉप फिल्म माना जाता है। 37 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म का कलेक्शन था 28 करोड़ रुपए। 21 करोड़ रुपए के बजट से बनी 'रामगोपाल वर्मा की आग' (2007) मल्टीस्टारर फिल्म थी पर इसने 16 करोड़ ही कमाए। 2009 में आई 'ब्लू' भी मल्टीस्टारर फिल्म थी। ये फिल्म 129 करोड़ की लागत से बनाई गई थी, पर इसने बिजनेस किया था 70 करोड़ का। अभिषेक और प्रियंका के मुख्य किरदार वाली 'द्रोणा' 2008 में रिलीज हुई थी। इस सुपरहीरो फिल्म का बजट 60 करोड़ रुपए था। जबकि, इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर महज 9 करोड़ का बिजनेस किया था।
      अक्षय कुमार की 'चांदनी चौक टू चाइना' 2009 में आई और भारी प्रचार के बाद भी धड़ाम से गिर गई थी। इसे बनाने में 80 करोड़ खर्च हुए थे, लेकिन ये फिल्म 55 करोड़ की ही कमाई कर पाई। 2013 की फिल्म 'बेशरम' भी बॉलीवुड की बड़ी फ्लॉप फिल्मों में से एक है। इसमें रणबीर कपूर और पल्लवी शारदा मुख्य किरदार में नजर आए थे। फिल्म का बजट 85 करोड़ था। लेकिन, यह फिल्म महज 35 करोड़ का ही कारोबार का पाई थी। 2013 में आई 'जंजीर' में दक्षिण के सुपरस्टार रामचरण, संजय दत्त और प्रियंका चोपड़ा ने काम किया था। रामचरण तेजा साउथ में जितने लोकप्रिय हैं, वो बॉलीवुड में उतने ही फ्लॉप रहें। फिल्म को बनाने में करीब 60 करोड़ का खर्च आया। लेकिन, फिल्म सिर्फ 15 करोड़ रुपए कमा पाई। अमिताभ बच्चन और आमिर खान की बड़े बजट की फिल्म 'ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान' (2018) को बॉलीवुड की बड़ी फ्लॉप फिल्म कहा जाता है। इस फिल्म का बजट 300 करोड़ था। लेकिन, फिल्म 145 करोड़ का ही कारोबार करने में सफल रही।
     लगातार 15 हिट फिल्म देने वाले राजेश खन्ना की आखिरी 7 फिल्में बुरी तरह फ्लॉप हुई थी। इसकी शुरुआत हुई 1976 से जब उनकी लगातार तीन फ़िल्में फ्लॉप हुई। फिल्म 'महाचोर' ने बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ा। इसके बाद 'बंडलबाज' भी औंधे मुंह गिर पड़ी। शक्ति सामंत के साथ कई हिट फ़िल्में देने के बावजूद उनकी फिल्म 'महबूबा' (1976) ने भी उम्मीदें धराशाई कर दी। इसके बाद तो उनकी फ्लॉप फिल्मों का सिलसिला चलता ही गया। कुछ ऐसा ही सुभाष घई के साथ भी हुआ। उन्होंने अपने करियर में कई बड़ी हिट फ़िल्में दी। लेकिन 'सौदागर' और 'ताल' जैसी फ़िल्में बनाने वाले इस फिल्मकार की पांच फिल्मों ने उनका करियर ख़त्म कर दिया। ऋतिक रोशन, करीना कपूर और जैकी श्रॉफ की 'यादें' (2001), विवेक ओबेरॉय और ईशा शरवानी की 2005 में आई फिल्म किसना, 2008 की 'ब्लैक एंड व्हाइट' जिसमें अनिल कपूर, शैफाली छाया और अदिति शर्मा ने काम किया था बुरी तरह फ्लॉप हुई थी। 2008 में ही आई सलमान खान और कैटरीना की 'युवराज' को भी सुभाष घई की फ्लॉप फिल्मों में गिना जाता है। 2014 की 'कांची' में मिष्टी और कार्तिक आर्यन को लेकर उन्होंने एक प्रयोग किया था, जो नहीं चला। हिट और फ्लॉप का ये सिलसिला तो हमेशा चलता रहेगा, क्योंकि टिकट खरीदने वाले दर्शक को सिर्फ मनोरंजन चाहिए! यदि नहीं मिलेगा तो फिल्म का डूबना तय है।    
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Friday, May 20, 2022

फिल्मों का अचूक नुस्खा रहा कसमे और वादे!

- हेमंत पाल 

    चुनाव के दौरान चारों तरफ वादों की फसल लहलहाने लगती है। वोट के लिए कसमें खा खाकर वोटर्स से वादे किए जाते हैं। लेकिन, बाद में सब भुला दिया जाता है। इसके विपरीत सिनेमा में कसमों-वादों को बहुत गंभीरता से लिया जाता है। जो कुछ कहा जाता है, उसे निभाया भी जाता है! परदे पर नायक, नायिका और चरित्र अभिनेता जो वादा करते हैं, उसे जान देकर या जान की बाजी लगाकर भी निभाने की कोशिश होती है। फिर चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी खोना पड़े या रिश्तों-नातों को ही क्यों न तोड़ना पड़े। समाज में भी एक ऐसा दौर था, जब अपना वादा निभाने के लिए लोग प्राण भी दे देते थे। जुबान की इतनी कीमत थी कि व्यक्ति को उसकी साख पर महाजन कर्ज दे देता था। 80 और 90 के दशक में ऐसी कई फ़िल्में आईं जब शुरुआत में ही आगे की कहानी का अंदाजा हो जाता था। कपड़े सीकर बेटे को पालने वाली मां आखिरी सांस लेते समय बेटे से वादा लेती थी, कि वो खोए हुए पिता का पता लगाएगा। कभी कोई दोस्त अपने दूसरे दोस्त से अपनी बेटी या बेटे का वादा लेकर लुढ़क जाता था। कभी ऐसा भी होता था कि मां खुद के सौतेली होने का राज आखिरी सांस के साथ बताती थी। इन सारे सीन में ख़ास बात यह होती थी, कि जो वादा लिया जाता नायक या नायिका उसे पूरी शिद्दत से निभाते भी थे। फिर चाहे कोई भी मुसीबत क्यों न आए! फ़िल्मी कथानकों में बरसों से कसमे और वादे एक अचूक नुस्खा रहा है, जिसके दम पर दर्शकों को तीन घंटे बांधा जा सकता है।
     सिनेमा में कसमों और वादों का ये सिलसिला शुरू की दो-तीन रील में ही ज्यादा होता था। कभी कोई वादा टूटने का घटनाक्रम बनता भी था, तो उसके पीछे कोई नाटकीय हालात होते थे। वादा करने वाले की या तो याददाश्त खो जाती थी, या उसे खलनायक के गुंडे कहीं बांध देते हैं। कुछ फ़िल्में तो ऐसी भी बनी, जब नायक ने इस जन्म का वादा अगले जन्म में आकर पूरा किया। याद कीजिए करण-अर्जुन कुछ ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें सलमान खान और शाहरुख़ खान दूसरे जन्म में खलनायक अमरीश पुरी से बदला लेते हैं! फिल्म में उनकी मां का किरदार निभाने वाली राखी विक्षिप्त अवस्था में यही बोलती नजर आती है ’मेरे करण अर्जुन आएंगे!’ इसके विपरीत फिल्मों में खलनायक का काम वादा करना और उसे तोड़ना ही होता रहा है। ये किरदार हमेशा वादा तोड़ने के लिए ही गढ़ा जाता है और जब भी उसे मौका मिलता है, वो इसका फायदा जरूर उठाता है।
    वादे निभाने और कसमों को पूरा करने में सिनेमा का नायक सबसे अटल व्यक्ति रहा है। वादा चाहे उसने किया हो या उसकी मां या बाप ने, उसके लिए वो पत्थर की लकीर होता है। गांव का नायक जब शहर आता है, तो घर से कुछ वादे करके आता है। उन्हें निभाने में उसका लम्बा वक़्त बीत जाता है, पर वो सारी मुसीबत उठाते हुए भी उनसे पीछे नहीं हटता। शहर में वो नायिका के मोह में पड़ जाता है, तो गांव जाने से पहले लौटने का वादा करना नहीं भूलता। लेकिन, वहां ऐसे हालात बन जाते हैं कि वो लौट नहीं पाता! कभी घर वालों के दबाव में या कभी याददाश्त खो जाने पर वह अपना वादा समय पर नहीं निभा पाता, पर नायिका उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती! ये हालात कभी शहर में बनते हैं, तो नायिका अपने प्रेमी की खोज में गांव पहुंच जाती है! पर, यदि नायक गांव से वादा करके शहर आता है तो नायिका उसके पीछे-पीछे चली आती है। आशय यह कि नायिका किसी भी स्थिति में उसकी ईमानदारी पर शक नहीं करती और तब तक कुंवारी बैठी रहती है, जब तक नायक अपना वादा पूरा न कर दे! फिल्म का अंत होने से पहले सब ठीक भी हो जाता है।  
    धर्मेंद्र और मिथुन चक्रवर्ती जैसे कुछ लड़ाका नायक ऐसे होते थे, जिनकी हर फिल्म में एक डायलॉग होता था 'मॉं कसम बदला लूंगा' या 'चुन चुन कर मारूंगा।' इस तरह के नायक अकसर दूध का कर्ज चुकाने के लिए बदला लेते थे या बचपन में पूरे परिवार की हत्या होते देख बदला लेने की कसम खाते खाते बड़े हो जाते। तब तक खलनायक कहीं गुम हो जाता था। लेकिन, क्लाइमेक्स में उसके ब्रेसलेट, पैर के जूते नायक को उसकी कसम याद दिलाते और नायक खुद को दिया वादा पूरा कर लेता था।
   अमिताभ बच्चन और श्रीदेवी की फिल्म ’खुदा गवाह’ की तो कहानी ही वादा निभाने पर ही लिखी गई थी। फिल्म में काबुल का एक पठान को उस अपराध में सजा मिलती है, जो उसने नहीं किया था। लेकिन, फिर भी वह उस सजा को भोगता है। जेलर भी उस मेहनती कैदी के आचरण से प्रभावित होता है। दोनों में एक दोस्ती जैसा रिश्ता बन जाता है। मुकुल आनंद की इस फिल्म में वह पठान जेलर से अपील करता है, कि उसे पैरोल पर कुछ दिनों के लिए काबुल जाने की इजाजत दे दे। क्योंकि, उसने किसी से शादी का वादा किया है और उसकी होने वाली दुल्हन उसके इंतजार में है। जेलर को पठान की ईमानदारी पर शक भी नहीं होता। वह उसके वापस लौटने के वादे पर ऐतबार करता है और उसे जाने देता है। पठान भी शादी करके अपने लौटने का वादा निभाता है और शादी के अगले दिन लौट आता है। लेकिन, उसके जाने और वापस आने के बीच पूरी फिल्म बन जाती है।
   चंद्रधर शर्मा गुलेरी की चर्चित कहानी ’उसने कहा था’ की बुनियाद भी कसमें-वादे करने और उसे पूरा करने पर ही टिकी है। लहना सिंह नाम के सैनिक को बचपन में अपने गांव की एक लड़की से लगाव हो जाता है। उनकी बातचीत हमेशा इस वाक्य से शुरू होता है ’तेरी कुड़माई हो गई!’ समय बीतने के बाद लड़की का विवाह हो जाता है, और उसका बेटा सेना में भर्ती होता है। इसी दौरान उस लड़की से लहना सिंह की फिर मुलाकात होती है। वह उससे वादा लेती है, कि संकट के समय वह उसके सैनिक पुत्र की मदद करेगा। कालांतर में युद्ध के समय लहना सिंह अपने वादे के अनुसार अपने बचपन की दोस्त के बेटे को बचाते हुए अपनी जान दे देता है। मरने के पहले वह यह जरूर कहता है कि यह साहस का काम उसने इसलिए किया कि बचपन में उसने अपनी पड़ोसन से वादा किया था। इस कहानी पर विमल रॉय ने ’उसने कहा था’ नाम से ही फिल्म बनाई थी।
      फिल्मों में कोरे वादे नहीं किए जाते। इन वादों के साथ कोई ऐसी कसम भी खाई जाती है, जो उनके इरादों को डिगने नहीं देती। प्राण जाए पर वचन न जाए, कसम ,कसमे-वादे, कसम तेरी कसम, मॉं कसम बदला लूगा, आपकी कसम, चंबल की कसम, सनम तेरी कसम, कसम पैदा करने वाले की, राम कसम, हिन्दुस्तान की कसम, कसम खुदा की, मेरा वचन गीता की कसम, वादा, ये वादा रहा और 'वचन' जैसे शीर्षकों वाली कई फ़िल्में बनी। गानों में भी खूब कसमें खाई गई या वादे किए गए। कई ऐसे गाने भी रचे गए जो कसमों-वादों की मिसाल बन गए। कसमें वादे निभाएंगे हम, ली मैने कसम ली, कसम खुदा की यकीन कर लो, राम कसम बुरा न मानूंगी, देख कसम से, सनम तेरी कसम, वादा तेरा वादा, जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा, वादा कर ले साजना, क्या हुआ तैरा वादा, वादे की शाम है वादा निभाना, ये वादा करो चांद के सामने, वादा करो नहीं छोड़ोगी तुम मेरा साथ, कसमें वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या, वादा न तोड़, वादा करो जानम, तुम अगर साथ देने का वादा करो और वादा रहा सनम जैसे गीतों ने हमेशा ही वादे की महिमा का गुणगान किया है।
   कसमों वादों पर चाहे जितने गाने बने हों, पर 1967 में आई मनोज कुमार की फिल्म ’उपकार’ के गीत ’कसमें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या’ ने जो लोकप्रियता पाई थी, वो कभी किसी गीत को नहीं मिली। मन्ना डे का गाया यह गीत ही इस फिल्म के कथानक का निष्कर्ष था। इसके बोल इंदीवर ने लिखे, जबकि कल्याणजी-आनंदजी ने इसका संगीत बनाया था। इसलिए कि इसमें जीवन की यथार्थता थी और जीवन के सच को पूरी तन्मयता से व्यक्त किया था। इस गीत के बोल नश्वर जीवन का यथार्थ बताते हैं। स्वार्थ, पैसा, शोहरत, एकांत जीवन, निस्वार्थ भाव, अहं सभी पहलुओं को इस गीत में समाहित किया गया है। ’उपकार’ की सफलता में इस गीत का बड़ा योगदान था। आज की फिल्मों में भी वादों और कसमों को निभाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। नायक-नायिका आज भी दूसरे की बाँहों में बाहें डाले कसमे-वादे के गीत गाते दिखाई दे जाते है। क्योंकि, यह तीन शब्दों की कसमें और दो अक्षरों के वादें ही होते हैं, जो फिल्म को बीस रील तक खींचकर ले जाते हैं और कसमों की दुहाई दे देकर दर्शकों को हंसाते रुलाते रहते हैं।
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सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी कई सवाल उलझेंगे!

ओबीसी आरक्षण

- हेमंत पाल

   ई महीनों की जद्दोजहद के बाद अब तय हो गया कि मध्यप्रदेश में पंचायत चुनाव और नगरीय निकाय चुनाव में ओबीसी को आरक्षण मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपनी मुहर लगा दी। देश में मध्य प्रदेश पहला राज्य है, जहां ओबीसी को 35% आरक्षण की इजाजत दी गई है। लेकिन, इसके पीछे लम्बी अदालती लड़ाई और राजनीति हुई! कई दांव-पेंच चले गए। कांग्रेस और भाजपा दोनों वही चाहते थे जो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया, पर श्रेय की राजनीति से कोई पीछे हटना नहीं चाहता था। एक बार तो कांग्रेस ने शिवराज सरकार को पटखनी दे ही दी थी! पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की तारीफ की जाना चाहिए कि उन्होंने हार नहीं मानी और अंततः फैसले का श्रेय उनके खाते में गया। राज्य सरकार ने नगरीय निकाय चुनावों में ओबीसी को 0 से 35% आरक्षण दिए जाने के लिए निकायवार रिपोर्ट बनाई है। इसमें 50% से ज्यादा आरक्षण न दिए जाने की बात भी कही गई। अब तीन साल की देरी के बाद प्रदेश में पंचायत और नगर निकाय चुनाव कराए जाने का रास्ता खुल गया। 
     सुप्रीम कोर्ट ने सात दिन में आरक्षण के आधार पर राज्य निर्वाचन आयोग को अधिसूचना जारी करने के निर्देश दिए। साथ में यह निर्देश भी दिए गए कि किसी भी स्थिति में प्रदेश में कुल आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो! सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई को 'ट्रिपल टेस्ट' की अधूरी रिपोर्ट के आधार पर बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव कराने को कहा था। इसके बाद तो जमकर राजनीतिक उठापटक हुई। मुख्यमंत्री ने अपनी प्रस्तावित विदेश यात्रा टालकर इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर संशोधन याचिका (एप्लिकेशन फॉर मॉडिफिकेशन) दाखिल कर दी। खास बात यह रही कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग की रिपोर्ट को आधार बनाकर आरक्षण करने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने 2022 के परिसीमन के आधार पर चुनाव कराने की बात भी स्वीकार कर ली। ओबीसी आरक्षण की मांग भी मान ली। कोर्ट ने कहा कि एक सप्ताह में ओबीसी आरक्षण किया जाए। 
    10 मई के कोर्ट के आदेश के बाद मुख्यमंत्री ने विदेश यात्रा टालते हुए संशोधन याचिका दाखिल करने के लिए सारा जोर लगा दिया था। उन्होंने खुद दिल्ली जाकर बड़े वकीलों से रात को 2 बजे तक विचार-विमर्श किया था। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से संशोधन याचिका पर कुछ और जानकारियां मांगी, जिसके आधार पर सरकार ने मध्य प्रदेश में ओबीसी की आबादी की निकायवार जानकारी कोर्ट के सामने रखी। बताते हैं कि विशेष विमान से ये जानकारियां दिल्ली भिजवाई गई! आशय यह कि सरकार ने सारे संसाधन इस मामले में लगा दिए थे! वो नहीं चाहती थी कि कांग्रेस चुनाव में इस बात को मुद्दा बनाए और भाजपा के पास कोई जवाब न हो! लेकिन, ऐसा हुआ नहीं और जो हुआ वो सरकार की सफलता के रूप में सामने आ गया।   
गुत्थी अभी भी उलझी 
    अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि किसी भी स्थिति में आरक्षण 50% से ज़्यादा नहीं हो। आरक्षण पर नजर दौड़ाई जाए, तो मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति (SC) वर्ग को 16% तथा अनुसूचित जनजाति (ST) को 20% आरक्षण मिल रहा है। इससे आशय है कि फिलहाल 36% आरक्षण का लाभ तो इन दो वर्गों को मिल ही रहा है। आदेश के अनुसार 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं होगा। इसका साफ़ मतलब है कि ओबीसी को आरक्षण का लाभ 14% से ज्यादा नहीं मिलेगा। लेकिन, जिन क्षेत्रों में इन दो वर्गों की संख्या कम है, वहां ओबीसी को ज्यादा लाभ मिल सकता है। सीधा सा आशय है कि अभी गुत्थी उलझी हुई ही है। 
    अब जनपद पंचायतों के अनुसार आरक्षण तय होगा। यदि किसी जनपद पंचायत में अनुसूचित जनजाति वर्ग की जनंसख्या 30% और अनुसूचित जाति वर्ग की जनसंख्या 25% है, तो ओबीसी को आरक्षण मिलना संभव नहीं है। किसी जनपद पंचायत में अनुसूचित जनजाति वर्ग की आबादी 30% और अनुसूचित जाति वर्ग की जनसंख्या 15% है, तो ओबीसी को 5% आरक्षण मिलेगा। लेकिन, यदि जनपद पंचायत में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति की जनसंख्या 5-5% है। अर्थात ओबीसी की आबादी 40% है, तो भी ओबीसी वर्ग को 35% से ज्यादा आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
    जब सुप्रीम कोर्ट ने बिना आरक्षण के चुनाव का फैसला दिया था तो कांग्रेस और भाजपा दोनों ने एक-दूसरे पर ओबीसी आरक्षण खत्म करने का आरोप लगाना शुरू कर दिया था। बिना आरक्षण के चुनाव होने की स्थिति में ओबीसी वर्ग को साधने के लिए 27% टिकट ओबीसी को देने की घोषणा की भी होड़ लग गई थी। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले के बाद चुनाव की हलचल बढ़ गई। 
कहां फंसा था पेंच, जब कोर्ट ने अलग फैसला दिया 
    सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई को बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव कराने को इसलिए कहा था कि 2019 में तत्कालीन राज्य सरकार ने रोटेशन और परिसीमन की कार्रवाई की थी। जानकारी बताती है कि 1994 से पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण लागू है। 2014 का आखिरी पंचायत चुनाव भी ओबीसी आरक्षण से ही हुआ था। व्यवस्था के मुताबिक 2014 तक प्रदेश की पंचायतों में अनुसूचित जाति की 16% सीटें, अनुसूचित जनजाति (ST) की 20% और ओबीसी के लिए 14% सीटें आरक्षित थी। मामला तब पेचीदगी में फंस गया, जब 2019 में तत्कालीन कमलनाथ सरकार ने रोटेशन और परिसीमन की कार्रवाई की। इसे ख़त्म करने के लिए सरकार में आते ही भाजपा रोटेशन-परिसीमन कार्रवाई को समाप्त करने के लिए एक अध्यादेश लाई थी। 
   कांग्रेस ने इस अध्यादेश के खिलाफ जबलपुर हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी। हाईकोर्ट से राहत नहीं मिली, तो कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली। सुप्रीम कोर्ट ने जबलपुर हाईकोर्ट को सुनवाई के लिए कहा। कांग्रेस नेता विवेक तन्खा ने सुप्रीम कोर्ट से दोबारा सुनवाई के लिए अनुरोध किया। सुप्रीम कोर्ट ने फिर सुनवाई करते हुए मध्यप्रदेश में ट्रिपल टेस्ट से ओबीसी आरक्षण लागू करने का आदेश दिया। सैय्यद जाफर और जया ठाकुर ने चुनाव समय पर कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में नई याचिका दायर की। इस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पंचायत और निकाय चुनाव बिना ओबीसी आरक्षण कराने का आदेश दिया था। लेकिन, इसके बाद शिवराज सरकार सक्रिय हुई और पांसा पलट गया। 
सबने लेना चाहा इसका श्रेय 
    मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कहा कि अंतत: सत्य की जीत हुई। चुनाव तो पहले भी ओबीसी आरक्षण के साथ हो रहे थे। कांग्रेस के लोग ही सुप्रीम कोर्ट गए थे। इस वजह से यह फैसला हुआ था कि ओबीसी आरक्षण के बिना ही चुनाव होंगे। हमने ओबीसी को आरक्षण दिलाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। जबकि, पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने कहा कि हमारी सरकार द्वारा 14% से बढ़ाकर 27% किए गए ओबीसी आरक्षण का पूरा लाभ इस वर्ग को अभी भी नहीं मिलेगा। क्योंकि, सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय में यह कहा कि कुल आरक्षण 50% से अधिक नहीं होना चाहिए। 
     राज्यसभा सदस्य, कांग्रेस नेता और जाने-माने वकील विवेक तन्खा का कहना है कि ओबीसी को जो पुराने 50% आरक्षण में 14% मिलता था, वही बहाल किया है। आधी-अधूरी सरकार के काम करने के तरीके से आज ओबीसी ठगा सा महसूस कर रहा है। कमलनाथ सरकार ने 27% आरक्षण का प्रावधान किया था। ढाई साल में ये सरकार उस दिशा में कुछ नहीं कर पाई।
   भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा का कहना था कि ट्रिपल टेस्ट के अंदर 50% की लिमिट की बात कही है। लेकिन, ओबीसी को कहीं-कहीं 27% से भी ज्यादा आरक्षण मिलेगा। इसमें कई टेक्निकल बातें हैं, जो जल्द सामने आएंगी। सामाजिक और राजनीतिक सहभागिता के आधार पर आरक्षण तय होगा। कहीं आरक्षण 25% भी होगा। सबसे महत्वपूर्व फैसला यही है कि ओबीसी आरक्षण के साथ चुनाव होंगे। नगरीय विकास एवं आवास मंत्री भूपेंद्र सिंह ने कहा कि यह प्रदेश की जीत है। ओबीसी वर्ग की ऐतिहासिक जीत है। ओबीसी को आरक्षण देने वाला मध्यप्रदेश पहला राज्य बन गया। 
    उधर, राज्य सरकार के प्रवक्ता और गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने बयान दिया कि सत्य की जीत हुई। अदालत कांग्रेस भी गई थी। भाजपा भी अदालत गई। हम चुनाव कराने गए थे। कांग्रेस चुनाव रुकवाने के लिए गई। मुख्यमंत्री पहले दिन से बोल रहे थे, कि हम आरक्षण के साथ ही चुनाव कराएंगे। वे खुद दिल्ली गए और उनके साथ हम भी गए। पूरे प्रयास कर ट्रिपल टेस्ट का पक्ष सुप्रीम कोर्ट में रखा। न्यायालय का आभार कि उन्होंने हमारे पक्ष को सुना।
   कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता और इस मामले के याचिकाकर्ता सय्यद जफर का कहना है कि संविधान में ओबीसी को आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन, सरकार की प्रशासनिक चूक की वजह से ओबीसी वर्ग आरक्षण से वंचित हो रहा था। कोर्ट का निर्णय संविधान की जीत और मध्य प्रदेश सरकार की प्रशासनिक चूक पर जोरदार तमाचा है। ओबीसी आरक्षण के साथ हमारी जल्द चुनाव कराने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रदेश सरकार को पंचायत एवं नगर निकाय चुनाव जल्द घोषित करने के सख्त निर्देश दिए।
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Wednesday, May 18, 2022

विधायक की शादी के जश्न में छुपे राजनीतिक मंतव्य

- हेमंत पाल

  मध्य प्रदेश की राजनीति आजकल आदिवासी केंद्रित बन गई। राज्य से लगाकर केंद्र तक की भाजपा सरकार आदिवासियों को लुभाने का कोई मौका नहीं छोड़ रही। इसलिए कि 2018 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी सीटों ने भाजपा को जोर झटका दिया था। इसका असर ये हुआ कि पहली बार में राज्य में भाजपा की सरकार नहीं बनी! बाद में कैसे बनी और किसने बनवाई, वो एक अलग मामला है। लेकिन, पिछले सालभर से भाजपा पूरी तरह से आदिवासियों को अपने पाले में खींचने में लगी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या डॉ हीरालाल अलावा की शादी में भाजपा नेताओं का जमावड़ा भी क्या किसी रणनीति का हिस्सा है! 
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     धार के जिले के मनावर के कांग्रेस के विधायक डाॅ.हीरालाल अलावा 2 मई की रात विवाह बंधंन में बंध गए। उन्होंने अग्नि को साक्षी मानकर आदिवासी समाज के रीति रिवाज से सिविल जज की तैयारी कर रहीं जागृति ध्रुर्वे के साथ शादी की। विधायक व जागृति ने एकदूसरे को वरमाला पहनाकर फेरे लिए। विधायक हाथ में तलवार लेकर घोड़ी पर सवार होकर निकले। ये शादी अपने पैतृक गांव में ही करने के पीछे भी यही कारण है कि डॉ अलावा इसके जरिए इलाके को अपनी ताकत और नेताओं को अपनी पकड़ दिखाना चाहते थे और इसमें वे सफल भी रहे। भैंसलाई में धूमधाम से आतिशबाजी के साथ उनकी बारात निकाली गई। लेकिन, यह शादी अपने पीछे कुछ ऐसे सवाल छोड़ गई, जिसके जवाब आने वाला समय देगा!  
    कांग्रेस विधायक डॉ हीरालाल अलावा की शादी के प्रसंग ने सामाजिक और सामंजस्य का नया रूप दे दिया। इस शादी में कांग्रेस के साथ प्रदेश के कई भाजपा नेता जुटे! खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी विशेष रूप से वहां पहुंचे। उनके साथ मंत्री, विधायक और संगठन के पदाधिकारी भी थे। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय सबसे पहले पहुँचने वाले विशिष्ट मेहमानों में थे। मनावर की पूर्व भाजपा विधायक रंजना बघेल भी शादी में मुस्कुराकर फोटो खिंचवाती दिखाई दीं, जिनसे डॉ अलावा की हमेशा नोकझोंक चलती रहती है! कांग्रेसी विधायक की शादी में तीर-कमान लेकर मुख्यमंत्री का नृत्य भी एक इशारा है। दरअसल, प्रदेश में आदिवासी सीटों की ताकत और उसके राजनीतिक गणित को देखते हुए दोनों ही पार्टियां इस वोट बैंक पर नजरें लगाए हैं। इसलिए कांग्रेस विधायक की शादी में मुख्यमंत्री न केवल पहुंचे, बल्कि उनके साथ झूमे भी। मुख्यमंत्री ने विधायक की शादी के फोटो अपने ऑफिशियल ट्विटर हैंडल से पोस्ट भी किए। 
    डॉ हीरालाल अलावा कांग्रेस के विधायक हैं, इसलिए कांग्रेस के नेताओं को तो आना ही था! पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और दिग्विजय सिंह भी शुभकामना देने पहुंचे। कमलनाथ के साथ कांग्रेस के आदिवासी वर्ग का बड़ा चेहरा और विधायक कांतिलाल भूरिया भी थे। धार जिले के कई विधायकों के अलावा निमाड़-मालवा के कांग्रेस विधायक भी शादी में शरीक हुए। तीन कांग्रेस के तीन विधायकों के नाम तो निमंत्रण पत्र में ही थे। डॉ अलावा ने गांधी परिवार को भी न्यौता था और प्रियंका वाड्रा को व्यक्तिगत रूप से आमंत्रित भी किया! लेकिन, कांग्रेस के दिल्ली दरबार से कोई शादी में नहीं आया! बताया तो यहां तक जा रहा कि गांधी परिवार से उन्हें शुभकामना संदेश भी नहीं भेजा गया। जबकि, प्रचारित किया गया था कि प्रियंका ने आने का वादा किया है।   
   वास्तव में ये शादी से ज्यादा एक राजनीतिक जमावड़ा दिखाई दिया। क्योंकि, डॉ हीरालाल अलावा की पहचान सिर्फ कांग्रेस के विधायक तक सीमित नहीं है। वे पेशे से डॉक्टर हैं। मनावर से चुनाव लड़ने से पहले डॉ अलावा 'एम्स' दिल्ली में डॉक्टर और सहायक प्रोफेसर भी रह चुके हैं। उन्होंने एम्स से ही डॉक्टरी की पढ़ाई की। 2012 से 2015 तक सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर रहे। 2016 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और आदिवासियों की आवाज उठाने वाला संगठन 'जयस' खड़ा किया था। वे इस सक्रिय संगठन के संरक्षक हैं और आदिवासियों के बीच अपनी अच्छी पैठ रखते हैं। उन्होंने अपनी शादी में जिस तरह से दोनों पार्टियों के राजनीतिकों की भीड़ जुटाई और अपने चुनाव क्षेत्र के गाँव के गाँव को आमंत्रित करके भव्य भोज किया, वो उनकी भविष्य की राजनीतिक रणनीति का संकेत है। इस पूरी शादी के कार्यक्रम और इसे मिली पब्लिसिटी को राजनीतिक नजरिए से देखा जाए, तो उसके कई मतलब निकाले जा सकते हैं। 
   2018 के विधानसभा चुनाव में जब डॉ हीरालाल अलावा के चुनाव में खड़े होने की हवा चली, तो वे अपने आदिवासी संगठन 'जयस' से ही मैदान में उतरने वाले थे। उनकी तरफ से सारी तैयारी और एलान भी हो चुका था। लेकिन, बताते हैं कि दिग्विजय सिंह ने उन्हें कांग्रेस के चिन्ह पर चुनाव लड़ने के लिए मना लिया। कांग्रेस की ये रणनीति कामयाब भी रही और डॉ अलावा ने चुनावी गठबंधन के तहत अपना आदिवासी वोट बैंक को कांग्रेस के पक्ष में मोड़ दिया। इससे 15 साल से बना भाजपा का गढ़ टूट गया। उन्होंने पूर्व कैबिनेट मंत्री रंजना बघेल को करीब 40 हज़ार वोटों से मात दी थी। लेकिन, वे कांग्रेस को लेकर बहुत ज्यादा गंभीर कभी दिखाई नहीं दिए! वे एक राजनीतिक समझौते के तहत कांग्रेस के झंडे के तले जरूर आ गए, पर अभी भी पूरी तरह कांग्रेसी नहीं बन पाए।  
      राजनीतिक संकेत बताते है कि 2023 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी संगठन 'जयस' की बड़ी भूमिका को समझा जा सकता है। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्षी नेताओं तक को अपनी शादी का न्यौतने की एक वजह यह भी समझी जा रही है कि 'जयस' 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता था, जिसमें वो सफल रहा। लेकिन, सालभर बाद होने वाले चुनाव में वो क्या फैसला करेगा और किस पार्टी की तरफ झुकेगा ये जानना बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि, 'जयस' मध्य प्रदेश से गुजरात और राजस्थान तक अपनी पैठ बना रहा है। ऐसे में इस संगठन पर कांग्रेस के साथ भाजपा की भी नजरें टिकी हैं।  
    कांग्रेस विधायक की शादी में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, कैलाश विजयवर्गीय समेत कई भाजपा नेताओं के आने को सहज स्वाभाविक सद्भावना नहीं माना जाना चाहिए! संभवतः ये भाजपा की भविष्य की रणनीति का कोई हिस्सा हो! क्योंकि, डॉ अलावा भले ही पिछले चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर जीत गए हों, पर उनका दिल अभी भी 'जयस' के लिए ही ज्यादा रमता है। भाजपा की चुनावी रणनीति में इस बार आदिवासी पहले नंबर पर हैं, इसलिए कयास लगाए जा रहे हैं कि भाजपा डॉ हीरालाल अलावा को अपने पाले में लाने की कोशिश कर सकती है! लेकिन, ये सवाल अभी अनुत्तरित है कि वे भाजपा उम्मीदवार बनेंगे या 'जयस' की राजनीतिक पहचान बनाने के लिए उसके बैनर पर चुनाव लड़ेंगे! यदि ऐसा कुछ होता है तो शायद 'जयस' मनावर तक सीमित न रहे! उसका दायरा मालवा-निमाड़ की कुछ और विधानसभा सीटों तक फ़ैल सकता है।        
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Sunday, May 15, 2022

फिल्मों की विनाशकारी प्रयोगशाला में विध्वंस के फार्मूले!

-  हेमंत पाल  

      फ़िल्मी दुनिया में नए फार्मूले की हमेशा डिमांड बनी रहती है। हर फिल्मकार चाहता है कि वो कुछ ऐसा नया करें जो अभी तक किसी ने नहीं किया हो! ऐसी कोशिश में कई बार फार्मूले चल निकलते, तो ऐसा भी होता है कि पहली बार में फार्मूला फेल हो जाता है। कथानकों की फ़िल्मी लैब में देशद्रोही विलेन का बम, मिसाइल या कोई ऐसी चीज बनाने का प्रयोग कई बार हुआ, जिससे भारी विध्वंस होने की आशंका होती है। ब्लैक एंड व्हाइट से आजतक की कई फिल्मों में इस तरह की कहानियां दोहराई गई, जब विलेन को इतना ताकतवर बताया गया कि वो देश के खिलाफ षड़यंत्र की व्यूह रचना कर लेता है। उसकी एक विनाशकारी लैब होती है जिसमें बकायदा वैज्ञानिक काम करते हैं। इसमें एक देशभक्त वैज्ञानिक भी होता है, जिसका अपहरण करके लाया जाता है और जो ऐसा कोई बम, मिसाइल या संक्रामक दवा बनाना जानता है जो देश को ख़त्म कर दे। लेकिन, हिंदी फिल्मों का सर्वशक्तिमान नायक फिल्म का अंत आते-आते इस विनाशकारी लैब को ध्वस्त कर देता है।             
      अब ऐसी फ़िल्में बनाने वालों को कोरोना के वायरस के रूप में नया फार्मूला मिला है। चर्चा तो यह भी चली थी कि इस वायरस को चीन की जैविक प्रयोगशाला में बनाया, पर इसमें कितनी सच्चाई थी, यह तो समय बताएगा। लेकिन, हिंदी सिनेमा में कुछ ऐसी फिल्में जरूर बनी, जिनमें प्रयोगशालाओं में विनाशकारी फार्मूले बनते दिखाई देते रहे। ऐसे कथानकों पर बनी अधिकांश फिल्मों की ज्यादातर रील इसी फॉर्मूले को हासिल करने या इसे नष्ट करने में खप जाती हैं। जबकि, कुछ फिल्मों में इसे उपकथा के रूप में जोड़कर फिल्मों की रील बढाने का खेल भी जारी रखा। फिल्मी लैब में विनाशकारी फार्मूले बनने, बनाने और मिटाने का सिलसिला कब से शुरू हुआ यह अपने आप में खोज का विषय हो सकता है। लेकिन, फिल्मी पंडितों का अनुमान है कि यह भेड़चाल विदेशी फिल्मों से और खासकर जेम्स बांड की फिल्मों से शुरू हुई। बाद में इसी की भोंडी नकल करके कुछ फिल्मकारों ने मुख्यधारा से हटकर ऐसी फ़िल्में बनाने की शुरुआत की। इनमें कुछ सफल रही, तो कुछ को दर्शकों ने नकार दिया।  
       दरअसल, फिल्मी लैब में फार्मूले गढ़ने की शुरुआत तो बरसों पहले ही शुरू हो गई थी, जो रंगीन से लेकर वाइड स्क्रीन और स्टीरियोफोनिक स्पेशल इफेक्ट वाले युग में भी बरकरार है। साठ के दशक में एक फिल्मकार थे एनए अंसारी, जिन्होंने अपनी फिल्मों की अधिकांश कहानियां फिल्मी लैब के इर्द गिर्द रची। फेल्ट हेट लगाए मुंह में पाइप दबाए एनए अंसारी ने मुल्जिम, मिस्टर मर्डर, वहां के लोग, टावर हाउस, वांटेड, जरा बच के, ब्लैक केट, मिस्टर लम्बू और 'मंगू' जैसी फिल्मों में दर्शकों को फिल्मी लैब और वहां के फॉर्मूलों के दर्शन कराए थे। जेम्स बॉन्ड की सफलता से प्रेरित होकर हमारे यहां रामानंद सागर ने 'आंखे' बनाई, जिसमें चीनी लैब में देसी वैज्ञानिक का अपहरण कर लिया जाता है और दुनिया को मिटाने का फार्मूला हासिल करने की कवायद में पूरी फिल्म देश विदेश की सैर कर लेती है। इसी श्रेणी में दक्षिण के रवि नगाइच ने अजीबो-गरीब खलनायक और वैज्ञानिक लैब की पृष्ठभूमि को लेकर 'फर्ज' का निर्माण किया, जिसमें जितेंद्र को एजेंट-113 बताया था। इस फिल्म की सफलता के बाद सुरक्षा, जी-9 ,एजेंट विनोद जैसी फ़िल्में बनी। विजय आनंद जैसे विख्यात निर्देशक भी इस फार्मूले से बच नहीं सके! उन्होंने अपनी फिल्म 'ब्लैक मेल' में फिल्मी लैब के फार्मूले को देश प्रेम की चाशनी, धर्मेन्द्र ,राखी और शत्रुघ्न सिन्हा के प्रेम त्रिकोण और' पल पल दिल के पास' जैसे गीतों के बल पर आशातीत सफलता दिलाई।
     फिल्मी लैब में जब इंसानों के अदृश्य होने के फार्मूले रचे जाते हैं, तो मिस्टर एक्स, मिस्टर एक्स इन बाम्बे और 'मिस्टर इंडिया' जैसी फिल्मों का निर्माण होता है। ख़ास बात यह कि नायक के अदृश्य होने वाली तमाम फिल्मों के शीर्षक 'मिस्टर' शब्द से शुरू होते रहे। अधिकांश फिल्मी लैब में ऐसे फार्मूले बनाए जाते हैं, जिसमें कोई रासायनिक हथियार होता है, जो दुनिया को विनाश के कगार पर लाने के लिए बनाया जाता या कोई ऐसी मिसाइल होती जिसे दुनिया के खात्मे के लिए छोडा जाता। फिल्म के क्लाइमेक्स में हरा या लाल वायर काटने की दुविधा में परेशान नायक सही वायर काटकर दर्शकों की अटकी सांसों को राहत देकर हीरोइन के गले में हाथ डालकर रोमांस करने निकल पड़ता है। 
    अधिकांश फिल्मी लैब का मुखिया या डाॅन कोई अजीबो-गरीब शक्ल वाला ज्यादातर चीनी किरदार होता है। ऐसी भूमिकाओं के लिए बकायदा ऐसे अभिनेता भी मौजूद हैं या थे, जिनमें मदन पुरी ने सबसे ज्यादा चीनी खलनायक की भूमिका निभाई। उसके बाद जीवन, एनए अंसारी, कुलभूषण खरबंदा, अमरीश पुरी, कमल कपूर और अनुपम खेर ने इस परम्परा को आगे बढाया। लैब में प्रयोग करने वाले देशभक्त वैज्ञानिक जिनका अपहरण कर फिल्मी रीलों को आगे खिसकाया जाता रहा, उनकी भूमिका करने वाले कलाकारों में सज्जन, मनमोहन कृष्ण और नजीर हुसैन शामिल हैं।
     जब फिल्मों में तकनीक मजबूत हुई तो इस फार्मूले में थोड़ा बदलाव आया। राकेश रोशन ने रितिक रोशन के लिए 'कृष' सीरीज में इसे जमकर अपनाया। रजनीकांत की फिल्म 'रोबोट' के बाद शाहरूख खान ने 'रा-वन' में इस फार्मूले को रोबोट से जोड़कर एक अलग रूप दिया। लेकिन, ऐसी सभी फिल्मों का मकसद था दुनिया का विनाश करना। फिल्मों में यह तयशुदा फार्मूला है। यदि वैज्ञानिक हीरोइन का बाप है, तो वह देश के हित का फार्मूला बनाएगा जिसे हासिल करने के लिए दूसरे देश का खलनायक उसका अपहरण करेगा और आखिर में हीरो के हाथों फार्मूला और वैज्ञानिक ससुर को बचा लिया जाता है। यदि वैज्ञानिक दूसरे देश का है, जो इस देश के विनाश का फार्मूला तैयार कर रहा है, तो हीरो उसकी लैब तक पहुंचकर जो अक्सर किसी टापू या पहाड़ी पर होती है, उसे नष्ट कर देता है। 'शान'  ही फिल्म थी जिसमें टापू पर शाकाल के अड्डे को नष्ट करना ही फिल्म के तीन हीरो का मकसद होता है और वे इसमें कामयाब भी होते हैं। लेकिन, जिस तरह उस अड्डे को नष्ट कर विलेन को मारकर हीरो और हीरोइनें वहां से सुरक्षित निकल आते हैं, वो दृश्य बेहद नाटकीय था।   
     अब, जबकि कोरोना ने फिल्मी लैब का मसाला फिल्मकारों को परोस दिया, तो संभव है इसे भी फिल्मकारों द्वारा आजमाया जाए। लेकिन, विडम्बना यह है कि वुहान लैब के इस फार्मूले ने सिनेमा की रील पर उतरने से पहले ही दुनिया के साथ साथ फिल्मी दुनिया को तबाही के कगार पर ला खड़ा कर दिया, जिससे सिने जगत घीरे घीरे उबर रहा है। देखना है फिल्मी वैज्ञानिक अपनी फिल्म निर्माण प्रयोगशालाओं में इस फार्मूले को किस तरह आजमाते हैं! क्योंकि, जब फिल्मकार फार्मूले गढ़कर उन पर फ़िल्में बना सकते हैं, कोरोना वायरस तो कड़वी सच्चाई है, निश्चित रूप से इस पर तो फिल्म बनेगी ही और उस अड्डे को फिल्म के परदे पर नष्ट होते भी दिखाया जाएगा।   
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Thursday, May 12, 2022

भाजपा के दो राज्यों में एक डीजीपी को हटाया, दूसरा खुद हटा!

- हेमंत पाल 

  देश में हाल ही में दो ऐसी घटनाएं हुई, जिस पर लोगों का ध्यान कम ही गया होगा। ये घटनाएं थीं, दो भाजपा शासित राज्यों में पुलिस प्रमुखों का अपने पदों से हटना। उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक मुकुल गोयल को कथित प्रशासनिक अकर्मण्यता के कारण हटाया गया और कर्नाटक के पुलिस महानिदेशक ने सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर पद से इस्तीफ़ा दे दिया। दोनों घटनाओं का मूल चरित्र अलग-अलग है, पर उसके गर्भ में दोनों राज्यों की सरकारें ही हैं, जिन्होंने ये स्थितियां निर्मित की! मुद्दे की बात यह कि दोनों राज्यों मेंएक ही पार्टी की सरकारें हैं, जिन्होंने निश्चित रूप से इन पुलिस प्रमुखों पर इतना ज्यादा दबाव डाला होगा कि वे मजबूर हो गए। कर्नाटक के पुलिस महानिदेशक पी रवीन्द्रनाथ ने तो अपने इस्तीफे में सरकार पर भ्रष्टाचार के साफ़ आरोप लगाए। जबकि, उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक जिस तरफ के आरोप लगाकर हटाया गया, वो किसी के गले नहीं उतर रहा।
   हर सरकार के मुखिया की कोशिश होती है कि ब्यूरोक्रेट की नकेल उसके हाथ में रहे! ज्यादातर अधिकारी सरकार के दबाव में आ जाते हैं, तो चंद ऐसे भी होते हैं, जो अपना जमीर बेचने को तैयार नहीं होते! ऐसी कई घटनाएं हैं, जब किसी अधिकारी ने सरकार के अवांछित कामकाज से इंकार किया और सरकार भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकी! लेकिन, ऐसे अधिकारियों की भी कमी नहीं है, जो सरकार की उंगलियों की कठपुतली बन जाते हैं। कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशकों के साथ जो सुलूक हुआ वो ब्यूरोक्रेसी और पॉलिटिक्स में बढ़ती कटुता और कुछ अधिकारियों का सरकार से बेजा काम के लिए सामंजस्य न बैठा पाने की घटनाएं है।                  
   कर्नाटक में पुलिस महानिदेशक पी रवीन्द्रनाथ ने सरकार को एक लेटर लिखा था कि जाली जाति प्रमाण पत्र मामले में शामिल कुछ लोग उन पर दबाव बना रहे हैं। उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाए। लेकिन, इस लेटर के बाद उनका तबादला पुलिस महानिदेशक (प्रशिक्षण) के पद पर कर दिया गया। इसके बाद पुलिस महानिदेशक ने इस्तीफा दे दिया। रवींद्रनाथ ने एक दिन पहले कहा था कि वे मुख्य सचिव पी रवि कुमार से मुलाकात के बाद इस्तीफा दे देंगे। कर्नाटक के इस सीनियर आईपीएस अधिकारी ने राज्य सरकार पर आरोप लगाते हुए अपना इस्तीफा दिया है। उनका कहना है कि उनका मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा था। 1989 बैच के इस अधिकारी को इस्तीफा देने और उसे वापस लेने के लिए भी जाना जाता रहा है। उन्होंने 2008, 2014 और 2020 में भी अपने पद से इस्तीफा दिया, फिर वापस ले लिया था। लेकिन, इस बार उनका रुख क्या होता है, ये देखना होगा!
   इस घटना के बाद कर्नाटक में राजनीति शुरू हो गई। कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने आरोप लगाया कि सरकार में भ्रष्टाचार के कारण आईपीएस अधिकारी पी रवींद्रनाथ ने इस्तीफा दिया है। फिलहाल अब इस मुद्दे पर नए सिरे से राजनीति गर्माने लगी हैं। सरकार का बचाव करते हुए कर्नाटक के मंत्री शिवराम हेब्बार ने कहा कि इस तरह के इस्तीफे हर सरकार के कार्यकाल के दौरान होते हैं। ऐसा नहीं कि सिर्फ भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान ऐसा देखने को मिल रहा है। पी रवींद्रनाथ का कहना है कि वे दबाव में ऐसा कर रहे हैं। लेकिन, कभी-कभी कुछ अलग आंतरिक मामले होते हैं। मुझे नहीं पता कि उन्होंने इस्तीफा क्यों दिया। वरिष्ठ अधिकारी अपना फैसला खुद लेते हैं, उसमें सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता। कोई काम करने वाला हमेशा किसी न किसी तरह के दबाव में रहेगा। मैं एक मंत्री हूं, और मैं बहुत दबाव में हूं! लेकिन, इस्तीफा इसका समाधान नहीं है। 
    बताते हैं कि भाजपा सरकार के पूर्व मंत्री और सांसद रेणुकाचार्य ने अपनी बेटी के लिए 'बेडा जंगम' जाति का जाली प्रमाण पत्र बनवा लिया था। जबकि, वे इस जाति का प्रमाण पत्र हासिल करने के पात्र नहीं हैं। ये मामला इतना चर्चित हुआ था कि विधानसभा में भी उठा। पुलिस को मामले जांच करना था, पर पुलिस महानिदेशक पी रवींद्रनाथ पर इतना दबाव डाला गया कि उन्होंने पद से ही इस्तीफ़ा दे दिया। अब इस मामले पर कांग्रेस राजनीति शुरू कर दी, जो उनके लिए राजनीतिक फायदे का मुद्दा है। कांग्रेस नेता सिद्धरमैया का आरोप है कि पुलिस महानिदेशक को उन लोगों की जांच करने और उनके खिलाफ कार्रवाई करने की जिम्मेदारी दी गई थी, जिन्होंने जाली प्रमाण पत्र बनवाए थे। पुलिस मुखिया के मुताबिक, उन्होंने कुछ प्रभावी नेताओं की जांच की और इसलिए सरकार ने उनका तबादला कर दिया जो सही नहीं है।
   दूसरा मामला उत्तर प्रदेश का है, जहां पुलिस महानिदेशक मुकुल गोयल को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) के पद से हटा दिया। उन्हें हटाए जाने का जो कारण बताए गए वो शासकीय कार्यों की अवहेलना करने, विभागीय कार्यों में रुचि न लेने और काम में लापरवाही बरतने का है। मुकुल गोयल को अब महानिदेशक नागरिक सुरक्षा के पद पर भेजा गया है। जो कारण बताकर मुकुल गोयल को हटाया गया, वो सरकारी कामकाज को समझने वाले किसी व्यक्ति को शायद ही उचित लगें। क्योंकि, राज्य के पुलिस मुखिया के पद पर जब नियुक्ति की जाती है, तो सरकार उसका पिछला रिकॉर्ड देखती है! पैनल जैसी कई शासकीय औपचारिकताओं के अलावा उस अधिकारी की कार्यकुशलता, फैसले लेने का तरीका और विपरीत परिस्थितियों में काम करने की महारथ को भी परखा जाता है! जब मुकुल गोयल को ये पद सौंपा गया था, तब भी यही सब हुआ ही होगा! उन्हें इस पद पर  हुए करीब एक साल हो गया! अचानक सरकार को उनमें ऐसी क्या खामी नजर आई कि उन्हें नाकारा बताते हुए हटा दिया गया! 
    पिछले साल 2 जुलाई को ही मुकुल गोयल ने पुलिस महानिदेशक का पद संभाला था। वे 1987 बैच के आईपीएस अफसर हैं। इससे पहले वह केंद्र में बीएसएफ में अपर पुलिस महानिदेशक (ऑपरेशंस) के पद पर थे। उनके कार्यकाल में ही राज्य में विधानसभा चुनाव हुए और लगा नहीं कि कहीं कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी हो! निश्चित रूप से उन्हें हटाए जाने के पीछे कोई बड़ा राजनीतिक कारण या दबाव रहा होगा! क्योंकि, इस तरह के बड़े पदों पर अधिकारी राजनीतिक फायदे-नुकसान देखकर ही पदस्थ किए जाते हैं और यदि उन्हें बीच कार्यकाल में हटाया जाता है, तो उसका कारण भी राजनीतिक ही होता है! उत्तर प्रदेश में ऐसे क्या हालात बने कि पुलिस महानिदेशक मुकुल गोयल को हटाया गया, ये राज शायद ही खुले! क्योंकि, हटने वाला अधिकारी सर्विस प्रोटोकॉल के कारण बताएगा नहीं और सरकार के जवाबदेह असल बात से कन्नी काटेंगे! लेकिन, कोई न कोई ऐसा कारण जरूर होगा जो मुकुल गोयल को हटाने की गर्भ में हैं।     
     ऐसा भी नहीं कि मुकुल गोयल दूध के धुले या बेहद ईमानदार अधिकारी हों! वे पहले भी कई बार विवादों में घिर चुके। उनके कार्यकाल में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जब उनकी कार्यप्रणाली पर उंगलिया उठी थी। 2000 में मुकुल गोयल को  भाजपा के पूर्व विधायक निर्भय पाल की हत्या के मामले में सहारनपुर के एसएसपी पद से सस्पेंड कर दिया गया था। आरोप लगा था कि निर्भय पाल ने जान-माल पर खतरे का अंदेशा बताते हुए पुलिस से मदद मांगी थी। लेकिन, समय पर पुलिस नहीं पहुंची। 2005-06 में कथित पुलिस भर्ती घोटाले में 25 आईपीएस अधिकारियों के नाम सामने आए थे, उनमें एक मुकुल गोयल भी थे। यदि ये मामले सही हैं तो फिर मुकुल गोयल को पुलिस मुखिया बनाया ही क्यों गया!   
    अब जबकि उन्हें महानिदेशक पद से हटा दिया गया, तो इसके पीछे छोटे-छोटे कारण खोजे जा रहे हैं। कहा गया कि लखनऊ में एक पुलिस इंस्पेक्टर को हटाने को मुकुल गोयल ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। फिर भी वे उस इंस्पेक्टर हटवा नहीं पाए थे। यह मामला मुख्यमंत्री तक भी पहुंचा। मुख्यमंत्री ने नाराजगी व्यक्त करते हुए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग तक में कहा था कि जिलों में थानेदारों की तैनाती के लिए मुख्यालय स्तर से दबाव न बनाया जाए। बताते हैं कि इस घटना के बाद मुख्यमंत्री ने कई महत्वपूर्ण बैठकों में डीजीपी गोयल को नहीं बुलाया। इसके अलावा ललितपुर के एक थाने में दुष्कर्म पीड़िता के साथ थानेदार द्वारा दुष्कर्म, चंदौली में पुलिस की दबिश में कथित पिटाई से युवती की मौत, प्रयागराज में अपराध की घटनाएं और पश्चिमी यूपी में लूट की घटनाएं मुकुल गोयल को हटाए जाने की प्रमुख वजह हैं। लेकिन, क्या इस स्तर के अधिकारी क्या ऐसे छोटे मामलों में अकर्मण्यता का आरोप लगाकर हटाए जाते हैं, ये बात कुछ हजम होने वाली नहीं है!
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Monday, May 9, 2022

फिल्मों के लिए नए विषय की छटपटाहट!

- हेमंत पाल 
     ब से सिनेमा का सफर शुरू हुआ नए विषयों का हमेशा अभाव देखा गया। शुरुआत में धार्मिक कथाओं पर फ़िल्में बनाकर दर्शकों को जोड़ा गया। फिर राजा-महाराजाओं की कहानियों, राजमहलों के षड्यंत्रों पर खूब फ़िल्में बनी। इसके बाद जब आजादी के संघर्ष की हवा चली तो उस पर भी कुछ फ़िल्में बनी! लेकिन, आजादी के बाद तो लम्बे समय तक ऐसी फिल्मों का दौर चला जिसमें संघर्ष की गाथाओं को अलग-अलग तरीके से दर्शाया गया था। जब ये दौर ख़त्म हुआ तो बाद की फ़िल्में प्रेम, बदला, राजनीति, धर्म, कॉमेडी और पारिवारिक विवादों तक सीमित हो गई। इस दायरे से बाहर भी फ़िल्में बनी, पर उनकी संख्या सीमित थी। 
   फिल्म इतिहास के मुताबिक 40 के दशक में गंभीर और सामाजिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखकर फिल्मों के निर्माण किया गया। 50 के दशक की फिल्मों का दौर आदर्शवादी रहा। जबकि, 60 का समय काफी कुछ अलग था। जो रोमांटिक फिल्मों का ट्रेंड राज कपूर ने शुरू किया था, वह इस दशक में छाया रहा था। लेकिन, 70 का दशक की फिल्मों ने व्यवस्था के प्रति असंतोष और विद्रोह को ज्यादा दर्शाया। 80 के दशक में फिल्मकारों को यथार्थवाद दिखाने का जुनून चढ़ा, जबकि 90 का समय आर्थिक उदारीकरण दर्शाने वाली फिल्मों का रहा। दरअसल, सिनेमा समाज की स्थिति दर्शाने का सबसे सशक्त माध्यम रहा है। फिल्मों से ही आजादी के आंदोलन की कहानी, राष्ट्रीय एकता का संघर्ष, वैश्विक समाज की सच्चाई और देश के ताजा हालात की कथाओं को फिल्माया गया। इस सिनेमा से ही बदलते भारत की झलक भी मिली है। 
     बदलाव वाले विषय को ढूंढते हुए एक समय ऐसा भी आया जब कला फिल्मों का दौर चला और अंकुर, मंथन, निशांत जैसे प्रयोग हुए। जमींदार के खूंटे से बंधी दलित राजनीति के प्रपंच को श्याम बेनेगल ने ‘निशांत’ और ‘मंथन’ से दिखाया। लेकिन, उन हलकों में प्रतिशोध की ताकत पैदा की प्रकाश झा के नए सिनेमा ने! ‘दामुल’ यदि उसका बेहतरीन उदाहरण है, तो ‘अपहरण’ उसी मानसिकता वाले औजारों से अलग तेजी से बदती राजनीति के हिंसक प्रतिरूपों की पहचान बना। बाद में इसे प्रकाश झा ने 'राजनीति' में और पैना किया। लेकिन, दर्शकों को हमेशा कुछ नया चाहिए, इसीलिए फिल्मकारों ने बरेली की बरफी, हिंदी मीडियम, टॉयलेट : एक प्रेम कथा, तनु वेड्स मनु : रिर्टन्स, द गाज़ी अटैक, शुभमंगल सावधान, फिल्लौरी, लिपस्टिक अंडर माय बुरका और 'नाम शबाना' जैसे प्रयोग किए।  
     इस बीच राजनीतिक फ़िल्में भी बनी और दर्शकों ने इसमें रूचि भी दिखाई। 'कलयुग' इस श्रेणी में मिसाल थी, जिसने दर्शकों को आकर्षित किया। फिर 'सत्ता' जैसी फिल्मों ने राजनीति के समीकरण में स्त्री-विमर्श के हस्तक्षेप से नया मोर्चा संभाला। बाद में मणिरत्नम, मृणाल सेन, गुलजार की तरह विशाल भारद्वाज और प्रकाश झा ने ठेठ राजनीतिक फिल्मों में छौंक लगाई। राजनीति और पारिवारिक रिश्तों को जोड़कर गुलजार ने 'आंधी’ जैसी सफल फिल्म बनाकर फिर राजनीतिक साजिशों की कॉमिक सिचुएशन पर ‘हु तू तू’ और विशाल भारद्वाज के साथ मिलकर आतंकवाद के रिश्तों को पनपाती ‘माचिस’ का निर्माण किया। लेकिन, हिंदी सिनेमा में राजनीति की बिसात पर आज रंग दे बसंती, पार्टी, युवा या ए वेडनेसडे और ‘ब्लैक फ्राई डे’ जैसी फिल्मों की जरुरत ज्यादा है। 'ट्रेन टू पाकिस्तान' या 'अर्थ 1947' से ज्यादा आज की राजनीति का नया आकलन करने वाली ‘परजानिया’ जैसी फिल्मों को ज्यादा पसंद किया गया। क्योंकि, यदि ऐसा नहीं हुआ, तो राजनीतिक सिनेमा के नए विषयों वाले तेवर सामने कैसे आएंगे! 
     ‘राजनीति’ से पहले राजनीति के नए आयाम ‘गुलाल’ ने दिखाए। युवा पीढ़ी के प्रतिबिंबों को झलकाती एक से एक बेहतर तस्वीरें रंग दे बसंती, लगे रहो मुन्नाभाई, दिल्ली-6 तक में दिखाई और आजमाई भी गई। राजनीतिक विषयों पर जब भी कोई फिल्म आती है, परदे पर उतरने से पहले ही वह चर्चित हो जाती है। लोगों में उत्सुकता जगा जाती है। लेकिन, प्रकाश झा की फिल्म का नाम ‘राजनीति’ होते हुए भी इस फिल्म को लेकर कोई कॉन्ट्रोवर्सी नहीं हुई! जबकि, गांधी परिवार को लेकर राजनीति पर बनी फिल्में रिलीज के पहले ही खूब पब्लिसिटी बटोरती हैं।
   बरसों पहले आई गुलजार की ‘आंधी’ को भी जमकर कॉन्ट्रोवर्सी हुई थी। क्योंकि, उसमें सुचित्रा सेन को इंदिरा गांधी से मिलते जुलते किरदार और गेटअप में प्रस्तुत किया गया था। मधुर भंडारकर की फिल्म 'इंदू सरकार' को लेकर भी यही सब हुआ। इसमें नील नितिन मुकेश का लुक संजय गाँधी से मिलता जुलता था। पर, जितना विवाद हुआ, उतनी फिल्म चली नहीं! ये नितांत सत्य है कि सौ साल बाद भी भारतीय सिनेमा दायरे अपने से बाहर नहीं आ पाया! कुछ नया करने की उसकी छटपटाहट तो दिखती है, पर कोई कोशिश करना नहीं चाहता! सब प्रेम कहानियाँ, एक्शन या कॉमेडी बनाकर सौ करोड़ के क्लब शामिल होने के सपनों की गिरफ्त से ही बाहर नहीं निकल पा रहे!
     सिनेमा को कमर्शियल नजरिए से देखने वाला तबका इसे आसान बनाकर 'फना' जैसी फिल्म बनाता है। दूसरा बौद्धिक खेमा सिनेमा की अवधारणा में अचानक कैद होकर-शैक्सपीयर ड्रामे के रूपांतरण का मजा लेता है! उसे ‘मकबूल’ या ‘ओंकारा’ के अपराध जगत में भी प्रेम और राजनीति की गठजोड़ के छद्म रूपक की नई लीला रचकर संतुष्टी होती है। जबकि, हिंदी सिनेमा को शेक्सपियर के नाटकों से कहीं ज्यादा हिंदी उपन्यासों के कथानक की दरकार होनी चाहिए। सवाल खड़ा होता है कि क्या उन उपन्यासों में नई पटकथाओं की गुंजाइश नहीं है, जो नया सिनेरियो प्रस्तुत कर सकें। दर्शकों सामने मनोरंजन का नया मसाला पेश करने की कोशिश में कई तरह के प्रयोग हुए और हो भी रहे हैं।   
     फिल्मकारों ने कारोबार जैसे गरिष्ठ विषय को भी फिल्म बनाने के लिए चुना और इसमें सफल भी हुए। जबकि, वास्तव में ऐसे विषयों पर फिल्म बनाना आसान नहीं होता। इस बीच कुछ ऐसे फिल्में भी बनाई गई जो कारोबार शुरू करने के लिए प्रेरित करती हैं। 2010 में आई 'बैंड बाजा बारात' वैसे तो एक रोमांटिक फिल्म थी। इसमें अनुष्का शर्मा और रणवीर सिंह ने अच्छी एक्टिंग भी की। इस फिल्म में वेडिंग प्लानर के काम में आने वाली चुनौतियों के बारे में बताया गया था। इस काम में आने वाले उतार-चढ़ाव को बारीकी से मनरंजक ढंग से फिल्माया। ऐसी ही फिल्म 'गुरु' थी, जो वास्तव में धीरूभाई अंबानी की रियल स्टोरी पर आधारित थी। ये भी एक नया विषय था, जिसमें गुजरात के एक छोटे से गांव से निकले ऐसे नौजवान की कहानी थी, जो अभाव को पछाड़ते हुए एक दिन सबसे अमीर लोगों में शामिल होता है। परिस्थितियों से हार न मानने वाले जुझारू व्यक्ति की ये कहानी प्रेरणा देने वाली थी। इसमें अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय बच्चन ने मुख्य भूमिका निभाई थी।
      'रॉकेट सिंह' भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें एक कॉलेज स्टूडेंट्स को ठोकरे खाकर खुद की मालिक बनते दिखाया गया। इसमें रणवीर कपूर की मुख्य भूमिका थी। इस फिल्म में रणवीर सेल्समैन रहता है, जिसके कामकाज की कद्र नहीं होती। तंग आकर वो अपना खुद का काम शुरू करता है, जो आगे चलकर एक बड़ी कंपनी का रूप ले लेता है। 'कॉरपोरेट' भी ऐसी ही फिल्म थी। ये फिल्म कुछ खास तो नहीं कर पाई, पर फिल्म ने कॉरपोरेट जगत की कई कड़वी सच्चाइयों से रूबरू जरूर करवाया।
     'बदमाश कंपनी' भी इसी ट्रेंड की फिल्म थी, जिसमें शाहिद कपूर और अनुष्का शर्मा के बहाने कई बिजनेस आइडिया सामने लाने की कोशिश की गई थी। यह फिल्म मिडिल क्लास के कुछ दोस्तों पर केंद्रित है, जो बड़ा आदमी बनने की कोशिश में रहते है। इसके लिए कई रास्ते तलाशते रहते हैं। फिल्म में कारोबार के कई गलत तरीकों को दिखाया गया, पर फिल्म के विषय में नयापन था। अभी फिल्मकारों की नए विषय खोजने की छटपटाहट ख़त्म नहीं हुई! सौ साल से ये चल रही है और अनवरत चलती भी रहेगी! क्योंकि, हर विषय में कहीं न कहीं मनोरंजन छुपा होता है!  
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