Monday, April 27, 2020

पाँच पांडव और सत्ता की खामोश महाभारत!

- हेमंत पाल

   सरकार के मुखिया के साथ ही उसके मंत्रिमंडल की भी शपथ होती है! लेकिन, कोरोना काल ने मध्यप्रदेश की शिवराजसिंह सरकार को आकार लेने में 29 दिन का वक़्त लगाया! वो भी बेहद लघु संस्करण में! इसे कोरोना संक्रमण से जूझती सरकार की मज़बूरी माना जाना चाहिए कि मुख्यमंत्री 30 मंत्री बना सकते हैं, लेकिन नंबर लगा सिर्फ पाँच का! इसमें भी दो ऐसे नेता हैं, जो सिंधिया के साथ कांग्रेस से बगावत करके भाजपा में आए थे। तीन चेहरे भाजपा से हैं। पर, इनमें एक भी ऐसा नहीं, जिसे मुख्यमंत्री का नजदीकी समझा जाए! इसे पार्टी की कोई छुपी रणनीति समझा जा सकता है या भविष्य की कोई चाल! अभी ये सिर्फ कयास हैं! लेकिन, दो दिन बाद इन पांच मंत्रियों को जिस तरह की जिम्मेदारी सौंपी गई, उसने जरूर नए समीकरण गढ़ दिए! बागी कांग्रेसियों को कमजोर विभाग देकर शिवराजसिंह ने ये जता दिया कि पार्टी में उनकी हैसियत क्या है! दरअसल, ये सत्ता की खामोश 'महाभारत' है जिसमें जंग का उद्घोष तो नहीं हो रहा, पर अंदर ही अंदर दांव-पेंच चले जा रहे हैं!   
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     शिवराजसिंह चौहान के शपथ लेने के बाद मंत्रिमंडल को लेकर लम्बे समय तक सन्नाटा रहा! मुख्यमंत्री अकेले ही व्यवस्था का किला लड़ाते रहे! इसके बाद 15 दिन तक कवायद चलती रही! कभी 12 सदस्यों के मंत्रिमंडल के शपथ लेने की खबर फैली तो कभी 7 या 8 का आंकड़ा सामने आया। लेकिन, जब शपथ की सेज सजी, तो सिर्फ 5 चेहरे दिखाई दिए! उनमें भी प्रतिबद्धताओं का बंटवारा रहा! बगावत के मुखिया  ज्योतिरादित्य सिंधिया को उनके समर्थकों के लिए जिस तरह का वादा किया गया था, वो भी टूट गया! एक बात यह भी स्पष्ट हो गई, कि भले भाजपा और सिंधिया गुट में राजनीतिक दोस्ती लम्बी चले, पर एक महीन लकीर दोनों के बीच हमेशा खिंची रहेगी और दो पाले भी बने रहेंगे! वादे के मुताबिक 22 बग़ावतियों में से 10 को मंत्री बनाना था, जिसमें एक का पद उपमुख्यमंत्री का होना था! पर, अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ! शायद कोरोना संकट ने भाजपा को वादा पूरा करने से रोका हो, पर विभागों की जिम्मेदारी में तुलसी सिलावट और गोविंद राजपूत दोनों की कमजोर कुर्सियां दी गई! सिलावट को जल संसाधन और राजपूत को नागरिक आपूर्ति विभाग दिए! जबकि, नरोत्तम मिश्रा इस बदलाव में ताकतवर बनकर उभरे हैं! महामारी के इस दौर में स्वास्थ्य और गृह ही दो दमदार विभाग हैं, जो उनको सौंपे गए! 
    जब मंत्रिमंडल बनाए जाने की हलचल शुरू हुई, तो सिंधिया ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह से मिलकर अपने उन सभी 6 नेताओं को मंत्री बनाने का दबाव डाला, जो कांग्रेस सरकार में भी मंत्री थे! लेकिन, कांग्रेस की तरह वे भाजपा में दबाव की राजनीति चलाने में सफल नहीं हुए! ये कभी होना भी नहीं है! भाजपा में कभी कोई नेता दबाव बनाकर अपना काम साधने में सफल नहीं हो सका, ऐसे में सिंधिया कभी भाजपा में दबाव की राजनीति चला सकेंगे, ऐसा नहीं लगता! फिर ये वक़्त की भी जरुरत है, कि फिलहाल राजनीतिक मंतव्य न साधकर छोटे मंत्रिमंडल से काम चलाया जाए! लेकिन, इस छोटे मंत्रिमंडल में भी सिंधिया गुट के दोनों मंत्रियों का कद छांट दिया गया! सिंधिया के दांया हाथ कहे जाने वाले तुलसी सिलावट को हल्का जल संसाधन दिया गया! उन्हें अनुसूचित जाति के कोटे से लिया गया है। जबकि, कांग्रेस सरकार में वे भारी-भरकम स्वास्थ्य मंत्री थे और शिवराज सरकार में उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाने की बात कही जा रही थी। सिंधिया के दूसरे ख़ास सहयोगी गोविंद राजपूत को अब सहकारिता, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग दिए गए। जबकि, कांग्रेस के समय वे राजस्व और परिवहन विभाग मंत्री थे। वे मंत्रिमंडल में राजपूतों का प्रतिनिधित्व करेंगे।   पदों में हुई कतरब्यौंत के पीछे की राजनीति को आसानी से समझा जा सकता है।
  अब आते हैं भाजपा के तीन मंत्रियों के छिद्रांवेषण पर! ये हैं ब्राह्मण कोटे से नरोत्तम मिश्र, अन्य पिछड़ी जाति कोटे से कमल पटेल और आदिवासी-महिला कोटे से मीना सिंह! इनमें नरोत्तम मिश्र ऐसा बड़ा नाम है, जो लम्बे अरसे तक प्रदेश में मंत्री रहे हैं और सिंधिया गुट की बगावत में उनकी खासी भूमिका रही! पार्टी के दिल्ली दरबार में भी उनकी ऊपर तक पहुँच है! उन्हें तो मंत्री बनना ही था और वे बन भी गए! लेकिन, उन्हें मुख्यमंत्री समर्थक नहीं कहा जा सकता! उनकी अपनी अलग हैसियत और दबदबा है! उन्हें स्वास्थ्य और गृह जैसे बड़े विभाग भी मिले! यदि पूरा मंत्रिमंडल बनता तो तय है वे उपमुख्यमंत्री बनते! लेकिन, मंत्रियों में हरदा के विधायक कमल पटेल की मौजूदगी ने सबसे ज्यादा चौंकाया! क्योंकि, शिवराजसिंह और उनके बीच वैमनस्यता के कई किस्से चर्चित हैं। कुछ साल पहले कमल पटेल के छोटे बेटे की एक आपराधिक वारदात को लेकर भी काफी विवाद हो चुका है। बताते हैं कि कमल पटेल को मंत्री बनाने के लिए शिवराज विरोधियों की बड़ी भूमिका रही! राजनीति के मैदान में उन्हें उमा भारती और विक्रम वर्मा के नजदीक समझा जाता है! उन्हें कृषि विभाग मिला, जो भाजपा सरकार के नजरिए से महत्वपूर्ण भी है। मीना सिंह को महिला और आदिवासी कोटे से मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। वे 5 बार से विधायक हैं! कोरोना संक्रमण को लेकर बनी पार्टी की टॉस्क फोर्स में भी वे हैं। उन्हें भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा की करीबी माना जाता हैं और इसी कोटे से उन्हें जगह मिली। लेकिन, वे भी शिवराज समर्थकों की गिनती में नहीं हैं! 
    इस मंत्रिमंडल में शिवराज के करीबी लोगों का अभाव है। 5 मंत्रियों में एक भी उनके गुट का नहीं है। रामपाल सिंह, भूपेंद्र सिंह और राजेंद्र शुक्ल में से किन्ही दो को शामिल करने के लिए मुख्यमंत्री ने पूरा जोर तो लगाया, पर पार्टी नहीं मानी! भूपेंद्र सिंह और राजेंद्र शुक्ल को भरोसा था कि उनकी जगह पक्की है, पर उनकी उम्मीदों को धराशायी होने में देर नहीं लगी! भूपेंद्र सिंह तो शपथ की तैयारी से भोपाल भी आ गए थे। जब उन्होंने देखा कि लिस्ट में उनका नाम नहीं है, तो सागर वापस चले गए। राजेंद्र शुक्ल भी कई दिन से भोपाल में थे, किंतु जब शपथ लेने का मौका नहीं मिला तो मायूस होकर रीवां लौट गए! कांग्रेस के बागी बिसाहूलाल सिंह का नाम भी शपथ लेने वालों में था, पर विंध्य को बैलेंस करने के लिए मीना सिंह को लेना ज्यादा सही समझा गया! सबसे ज्यादा आश्चर्य तो गोपाल भार्गव का पत्ता कटने से हुआ! पर, गोविंद राजपूत को सागर इलाके से मंत्रिमंडल में लेना राजनीतिक मज़बूरी थी, तो गोपाल भार्गव चूक गए! एक कारण जातीय समीकरण बिगड़ने का भी था! एक ब्राह्मण नरोत्तम मिश्र हैं, दूसरे गोपाल भार्गव हो जाते! यही स्थिति भूपेंद्र सिंह के मामले में होती! गोविंद राजपूत की तरह भूपेंद्र सिंह भी राजपूत हैं! वास्तव में ये राजनीति की सोशल इंजीनियरिंग है, जिसका पालन करना पड़ता है! फिर चाहे कोई नेता नाराज ही क्यों न हो जाए!
  शिवराज सिंह और भाजपा ने सारे समीकरण तो साध लिए, पर ग्वालियर-चम्बल संभाग से किसी बागी कांग्रेसी को नहीं लेना महंगा पड़ सकता है! क्योंकि, नए मंत्रियों को शामिल करने का काम अब उपचुनाव के बाद ही होना है। यहाँ कि 16 खाली सीटों पर विधानसभा उपचुनाव होना है और सरकार का भविष्य इन्हीं पर टिका है। 5 महीने बाद सबसे बड़ा चुनावी धमासान भी इसी इलाके में होना है! सिंधिया खेमे के जो 6 विधायक कांग्रेस राज में मंत्री थे, उनमें से ग्वालियर-चम्बल संभाग के चार अभी इंतजार कर रहे हैं! यदि वे चुनाव से पहले मंत्री बने, तो उनके लिए चुनाव आसान हो जाएगा! पर, यदि ऐसा नहीं हुआ तो पांसा उल्टा भी पड़ सकता है! लेकिन, अभी सब माहौल को परख रहे हैं! प्रदेश में फ़िलहाल सत्ता की खामोश 'महाभारत' चल रही है। इसमें कौन कौनसा दांव चलता है, अभी कहा नहीं जा सकता! क्योंकि, सबके तरकश में तीरों की कमी नहीं है! 
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Sunday, April 26, 2020

आगे-पीछे हमारी सरकार

- हेमंत पाल

   फिल्मों पर समाज और तत्कालीन राजनीति का प्रभाव हमेशा दिखाई दिया है! सौ साल से ज्यादा पहले जब फिल्म निर्माण शुरू हुआ था, तब से यही होता आया है। कभी फिल्मों पर महात्मा गाँधी का प्रभाव दिखा तो कभी नेहरु के सुधारवादी सोच को फिल्मों के कथानक में देखा गया। लेकिन, सरकार की सामाजिक नीतियों को कभी फिल्मों के विषय बनाया गया हो, ऐसा करीब पांच-छह सालों में ज्यादा देखा गया। सीधे शब्दों में कहें, तो मोदी राज का फिल्मों पर प्रभाव कुछ ज्यादा ही दिखने लगा है। सरकार की नीतियां के साथ आतंकवाद पर उसके एक्शन भी फिल्मों में जगह पाने लगे। पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा भी फिल्मों के बिकाऊ विषय बने! महिला सशक्तिकरण, भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ मुहिम भी फिल्मों में दिखाई दी।
    'टॉयलेटः एक प्रेमकथा' मोदी संदेश का सबसे सटीक उदाहरण है। इसमें घर में टॉयलेट होने की जरुरत के बहाने उनके स्वच्छ भारत अभियान का जबर्दस्त प्रचार किया गया। इसके बाद आई 'पैडमैन' जिसमें पीरियड के दौरान महिलाओं को होने वाली परेशानियों को फ़िल्मी चाशनी के साथ परोसा गया! शाहिद कपूर की 'बत्ती गुल मीटर चालू' भी आई, जो बिजली की समस्या पर बनी थी। पर, बात बनी नहीं! निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने 'मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर' की घोषणा की थी। इसमें मुंबई की झुग्गियों में रहने वाला बच्चा अपनी माँ के लिए टॉयलेट बनवाने की कोशिश में प्रधानमंत्री से मदद मांगता है। लेकिन, इस फिल्म की बाद में कोई खबर नहीं मिली! सुई धागा, यूनियन लीडर और 'लव सोनिया' भी ऐसी फ़िल्में आई जिनके विषय गंभीर थे। वरुण कपूर और अनुष्का शर्मा की 'सुई धागा' के जरिए देश में हथकरघा के बहाने कुटीर उद्योगों के महत्व और इनसे जुड़े लोगों और परिवारों की मुश्किलों को सामने लाने की कोशिश की गई! देश में चीन के बढ़ते बाजार के बीच इस फिल्म में स्वदेशी के इस्तेमाल और मेड इन का संदेश छुपा था। 
   अक्षय कुमार युवाओं के लिए नए देशप्रेमी रोल मॉडल के रूप में उभरे। 'हॉली डे' और 'बेबी' के बाद उनकी 'एयरलिफ्ट' और 'रुस्तम' से भी देश प्रेम का गुबार उठता दिखाई दिया। वे मोदी सरकार के समर्थक अभिनेता के रूप में उभरे और फिल्मों से सामाजिक संदेश भी देने लगे! अक्षय ने अपनी ऐसी राष्ट्रीय और सामाजिक छवि बनाई कि आमिर, सलमान और शाहरुख की तिकड़ी का साम्राज्य डोल गया। जबकि, इन तीनों खानों ने लम्बे समय तक परदे पर राज किया। 
   फिल्मों ने मोदी राज में सिर्फ सामाजिक बदलाव को ही अपना विषय नहीं बनाया, बल्कि कश्मीर मुद्दे और पाकिस्तान की हरकतों को भी लताड़ने में कसर नहीं छोड़ी! कश्मीर मुद्दे पर हॉली-डे, हैदर, बेबी, फैंटम, वजीर, सरबजीत, कॉफी विद डी, हिंद का नापाक को जवाबः एमएसजी लॉयनहार्ट-2, द गाजी अटैक, नाम शबाना, मुल्क, राजी, कमांडो और 'उरी' जैसी फ़िल्में बनी! एक तरफ जब फिल्मकार पाकिस्तान और कश्मीर के आतंकवाद को निशाना बना रहे थे, ऐसे में सलमान खान 'बजरंगी भाईजान' बनकर एक खोई बच्ची को छोड़ने पाकिस्तान चले गए! इस फिल्म में अलग ही मानवीय संदेश था। सलमान की ही 'एक था टाइगर' और 'टाइगर जिंदा है' आई, जिसमें कैटरीना कैफ सहृदय पाकिस्तानी एजेंट बनीं है, जो आतंक के खिलाफ लड़ने में सलमान की मदद करती हैं। रणदीप हुड्डा की 'सरबजीत' में दर्शकों ने पाकिस्तान की क्रूरता भी दिखाई दी।  
   परदे पर महिला सशक्तिकरण की भी धूम मची। 'मर्दानी' और 'मर्दानी-2' के साथ 'मैरी कॉम' ने औरत की ताकत दिखाई तो 'हिचकी' ने औरत के आत्मविश्वास की प्रबलता को बढ़ाया! पीकू, एनएच-10, एंग्री इंडियन गॉडेसेस, नील बटे सन्नाटा, पिंक और 'सुल्तान' से लगाकर आमिर खान की 'दंगल' तक में नयापन दिखा! नरेंद्र मोदी युवाओं के लिए नए रोल मॉडल ढूंढ़ने पर जोर देते देखे गए! इसी का नतीजा है कि सच्ची प्रेरक कहानियों पर कई बायोपिक भी बनी! फिल्मकारों का मिशन-मोदी अभी जारी है, क्योंकि सरकार भी यही चाहती है!
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Tuesday, April 21, 2020

पाँच में से कोई मंत्री मुख्यमंत्री खेमे का नहीं!


- हेमंत पाल

  मुख्यमंत्री बनने के करीब एक महीने बाद अब शिवराजसिंह चौहान के मंत्रिमंडल ने भी औपचारिक शपथ ली! ये कोरोना संक्रमण से जूझती सरकार की मज़बूरी है कि मुख्यमंत्री को 30 मंत्री बनाने थे, लेकिन बनाए गए सिर्फ पाँच! इन पाँच में दो वे नेता हैं, जो कांग्रेस से विद्रोह करके भाजपा के पाले में आए थे। लेकिन, बाकी के तीन भी ऐसे नहीं, जिन्हें शिवराजसिंह का समर्थक माना जाए!
  सरकार के गठन को लेकर करीब डेढ़-दो हफ्ते से कशमकश चल रही थी। पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भी बीच का रास्ता निकालने में लगा रहा। विद्रोही गुट के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बीच भी इसे लेकर बैठक हुई! उसके बाद ही ये रास्ता निकाला गया! सिंधिया का दबाव तो उन सभी 6 नेताओं को मंत्री बनाने का था, जो कमलनाथ सरकार में भी थे! लेकिन, भाजपा इसके लिए राजी नहीं हुई और न होना था! क्योंकि, ऐसी स्थिति में भाजपा के भी करीब 8-10 विधायकों को मंत्रिमंडल में शामिल करना पड़ता, जो वक़्त की जरुरत नहीं है। फिलहाल सिंधिया समर्थक तुलसी सिलावट और गोविंद राजपूत ही इस छोटे मंत्रिमंडल का हिस्सा हैं!
    जब भी मंत्रिमंडल बनता है, सबकी नजर ये ढूंढने की कोशिश में होती है, कि इसमें मुख्यमंत्री की पसंद के चेहरे कितने हैं! तय है कि सरकार का मुखिया अपने समर्थकों को तो रखता ही है! लेकिन, शिवराजसिंह के 5 मंत्रियों के आगे-पीछे का इतिहास देखा जाए, तो इनमें से एक को भी उनके विश्वस्थ साथियों में नहीं गिना जा सकता! बताते हैं कि उन्होंने गोपाल भार्गव, रामपाल सिंह, भूपेंद्र सिंह और राजेंद्र शुक्ल में से किन्ही दो को शामिल करने के लिए मुख्यमंत्री ने जोर भी लगाया, पर पार्टी ने इजाजत नहीं दी! शपथ लेने वालों में सबसे चौंकाने वाला नाम है हरदा के विधायक कमल पटेल का! वे कभी शिवराजसिंह समर्थक नहीं रहे! दोनों के बीच राजनीतिक वैमनस्यता के कई किस्से भी मशहूर हैं। कमल पटेल को मंत्री बनवाने के लिए शिवराज विरोधी खेमा पूरी तरह सक्रिय हो गया था। उधर, दिल्ली के नेताओं ने भी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री को कमल पटेल के बारे में अपनी मंशा बता दी थी! पहले उन्हें उन्हें उमा भारती और विक्रम वर्मा का नजदीकी माना जाता था। दो दिन पहले उन्होंने भाजपा के एक बड़े नेता से कहा भी था, कि वे पहली लिस्ट में बनेंगे और बने भी! मंत्री बनने के बाद भी वे मुख्यमंत्री के पक्ष में रहेंगे, इसमें शक है। क्योंकि, वे कई बार पार्टी मंच पर मुखरता से शिवराजसिंह को लेकर अपना विरोध दर्शा चुके हैं।
   तुलसी सिलावट और गोविंद राजपूत तो ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ सशर्त कांग्रेस से भाजपा में आए हैं, इसलिए उनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे कभी शिवराजसिंह के प्रति प्रतिबद्ध हो सकते हैं। जो नेता अपने आका के कहने पर पद और पार्टी दोनों को तिलांजलि दे दे, वे किसी और नेता को कभी अपना कैसे मानेंगे! तुलसी सिलावट कमलनाथ की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे और गोविंद राजपूत परिवहन मंत्री! इन 5 में नरोत्तम मिश्र ऐसा नाम है, जो अपने आपमें बड़े नेता हैं और सिंधिया विद्रोह में उनकी बड़ी भूमिका रही है! उन्हें तो मंत्री बनना ही था और वे बन गए! इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री समर्थक नहीं कहा जा सकता! पाँचवा नाम मीना सिंह का है, जिन्हें आदिवासी और महिला कोटे से शामिल किया गया। ये भी चौंकाने वाला नाम रहा! वे मानपुर से 5 बार विधायक रही हैं और कोरोना संक्रमण को लेकर बनी भाजपा की टॉस्क फोर्स में भी हैं। वे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा की नजदीकी हैं और इसी के चलते उन्हें जगह मिली।
    शिवराजसिंह के मंत्रिमंडल के गठन में इस बार पूरी तरह भाजपा के दिल्ली दरबार की चली। वहां से मुहर लगने के बाद ही ये पाँच नाम तय हुए! भाजपा के दो दिगज्जों गोपाल भार्गव और भूपेंद्र सिंह का नाम तो अंतिम समय में कटा! भूपेंद्र सिंह तो शपथ लेने की तैयारी से भोपाल भी आ गए थे। लेकिन, जब उन्होंने देखा कि उनका नाम लिस्ट में नहीं है, तो वापस सागर लौट गए। भाजपा ने मुख्यमंत्री की पसंद को तवज्जो देने के बजाए जातिगत समीकरणों का भी ज्यादा ध्यान रखा! शामिल 5 मंत्री अलग-अलग पांच समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। नरोत्तम मिश्र ब्राह्मण हैं, मीना सिंह आदिवासी होने के साथ महिला हैं। कमल पटेल कुर्मी हैं, गोविंद राजपूत ठाकुर और तुलसी सिलावट अनुसूचित जाति के हैं।
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Saturday, April 18, 2020

मनोरंजन का चेहरा भी बदलेगा कोरोना!

- हेमंत पाल

    दुनिया में कोरोना वायरस का आतंक है। हर व्यक्ति कोरोना से बचाव के लिए दूरियां बनाकर चलने को मजबूर है! लेकिन, जब इस वायरस का असर ख़त्म होगा और लोग सामान्य स्थिति में लौटेंगे, तब भी क्या लोगों में एक-दूसरे के प्रति घबराहट बरक़रार रहेगी? निश्चित रूप से इस सवाल का जवाब यही होगा कि लोग पहले की तरह सामान्य व्यवहार तो नहीं करेंगे! लोगों में अज्ञात भय बना रहेगा और इसका सीधा असर मनोरंजन की दुनिया पर भी पड़ेगा। सिनेमा और टीवी मनोरंजन पर इससे प्रभावित होना शुरू भी हो गया है। घर बैठे लोगों ने डिजिटल प्लेटफॉर्म को पसंद करना शुरू कर दिया और ये असर आगे भी बरक़रार रहना तय है।        
  अभी तो कहा नहीं जा सकता कि बॉलीवुड का बदला चेहरा कैसा होगा? क्योंकि, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। लेकिन, सिनेमा के दर्शकों का भरोसा जल्द नहीं लौटेगा! संक्रमण के भय से लोग सिनेमा हॉल में आने से बचेंगे। ऐसी स्थिति में फिल्मों की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी। बॉक्स ऑफिस के आंकड़े जो अभी तक करोड़ों में पहुँचते थे, वो नीचे आ जाएंगे। जो दर्शक पहले दिन-पहला शो देखने का मूड बनाकर घर से निकलते थे, वे सिनेमा घरों से दूर रहेंगे। फिल्मों की रिलीज के साथ उसके बिजनेस का अंदाजा लगाने के अनुमान भी बिगड़ेंगे! सौ और दो सौ करोड़ क्लब के बिजनेस का सपना देखने वालों को मायूसी ही हाथ लगेगी। कुछ बड़े सिनेमा घरों ने इस आशंका को भांपते हुए कुछ महीनों के लिए सिनेमा घरों की बैठक व्यवस्था में बदलाव करने की भी तैयारी कर ली! संभव है कि सिनेमा घरों में भी सोशल डिस्टेन्सिंग का ध्यान रखा जाए और दर्शकों में दूरी को तवज्जो दी जाए! 
    दरअसल, मनोरंजन की दुनिया का असल मुद्दा है, लॉक डाउन में दर्शकों का डिजिटल प्लेटफार्म की तरफ झुकाव! सिनेमा घरों के बंद होने और टीवी पर सीरियलों के थम जाने से सारे दर्शक डिजिटल प्लेटफार्म की तरफ मुड गए! जो दर्शक अभी तक इससे अंजान थे, वे भी मोबाइल फोन की छोटी स्क्रीन के आकर्षण में आ गए! वेब सीरीज के चक्कर में वे दर्शक भी उलझ गए, जो अब तक इससे परहेज करते आए थे। कहानियों में नयापन, फिल्मों जैसा निर्माण और मनोरंजन की इस नईदुनिया ने कई दर्शकों की मनःस्थिति को बदल दिया। ये ऐसी असामान्य परिस्थिति है, जिसने दर्शकों के सामने नएपन का बस यही विकल्प छोड़ा था! इसके अलावा यह तन्हाई का ऐसा मनोरंजन है, जो सुरक्षा की दृष्टि से भी बेहतर है। 
   कोरोना संक्रमण के कारण फिल्मों की निर्धारित रिलीज का रुकना और उनमें से कई फिल्मों का डिजिटल प्लेटफार्म पर आना भी बदलाव का इशारा है। कोरोना हादसे से ठीक पहले रिलीज हुई 'इंग्लिश मीडियम' के बारे में कहा जा रहा था कि इसे बाद में फिर रिलीज किया जाएगा! लेकिन, निर्माता का यह विचार बदलने में देर नहीं लगी और ये फिल्म 'नेटफ्लिक्स' पर रिलीज कर दी गई! परेश रावल के बेटे आदित्य रावल भी अनुराग कश्यप निर्देशित नई फिल्म ‘बमफाड़’ से एक्टिंग के मैदान में उतर रहे थे! ये फिल्म भी रिलीज होने की लाइन में थी, लेकिन अब ये भी 'जी-फाइव' पर दिखाई दे रही है। इससे पहले भी ऐसा हो चुका है! सुभाषचंद्र बोस के जीवन पर एकता कपूर ने बहुत खूबसूरत फिल्म बनाई थी, पर इसे उन्होंने अपने डिजिटल प्लेटफॉर्म 'अल्ट-बालाजी' पर दिखा दिया। 
  वास्तव में ये आने वाले कल का सच है। डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए फिल्में बनाना कल की सच्चाई होगी। नेटफ्लिक्स, अमेजॉन, हॉटस्टार, जी-फाइव, मैक्सप्लेयर जैसे प्लेटफॉर्म ने तो इसके लिए कमर कस ली है। डिजिटल प्लेटफॉर्मों की खासियत है कि वेब सीरीज के लिए कोई स्टार कलाकार की जरुरत नहीं होती! लेकिन, इनका कंटेंट दर्शक को प्रभावित करता है! जो भी वेब सीरीज सफल हुई हैं, उनकी खासियत है कि उनके कंटेंट में नयापन होता है। पहली सफल वेब सीरीज 'परमानेंट रूममेट' को आज भी इसे देखने वाले याद करते हैं! इसे 'टीवीएफ' ने रिलीज़ किया था। इसी डिजिटल प्लेटफार्म की 'ट्रिपलिंग' भी चर्चित रही! लेकिन, नेटफ्लिक्स की 'सेक्रेड गेम्स' की सफलता ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए!     
    अभी तक जो लोग भारत में सिनेमा घरों के भविष्य को लेकर चिंतित थे, उन्हें शायद लॉक डाउन के दौरान जवाब मिल गया होगा! ये सच है कि सिनेमा घरों में फिल्म देखना सिर्फ मनोरंजन नहीं होता! पर, अब ये दृष्टिकोण बदलेगा! बड़े कलाकारों की जो फिल्में रिलीज होंगी, वे डिजिटल प्लेटफार्म पर रिलीज की जाएंगी। डिजिटल प्लेटफॉर्म का एक सबसे बड़ा फ़ायदा ये होगा कि फिल्म के फ्लॉप होने की आशंका में उन्हें डिजिटल प्लेटफॉर्म पर रिलीज करना आसान होगा। 'कलंक' जैसी महँगी फिल्म से आहत करण जौहर ने कुछ दिनों पहले सुशांतसिंह राजपूत की फिल्म 'ड्राइव' को 'नेटफ्लिक्स' पर परोस दिया था। इसलिए कि यदि ये फिल्म सिनेमाघरों में लगती तो पानी भी नहीं मांगती!
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Monday, April 13, 2020

सबसे स्वच्छ शहर के दामन पर कोरोना के काले धब्बे!


    
इंदौर ने लगातार तीन बार देश में सबसे स्वच्छ शहर का खिताब जीता है! यहाँ के लोगों ने भी सफाई को लेकर अपनी आदतें बदली और उसे अपनी दिनचर्या में शामिल किया! सफाई इस शहर का गर्व है! लोग किसी को भी सड़क पर थूकते देखते, तो उसे टोकने में देर नहीं करते! लेकिन, अचानक हालात बदले और स्वच्छ शहरके दामन पर कोरोना का दाग लग गया! जो इंदौर देश में स्वच्छता के मामले में नंबर-वन था, वो कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या में भी अव्वल है। आज देश के 10 सबसे ज्यादा संक्रमित शहरों में इंदौर शामिल है। लोग इसे भी नियति मान लें, पर इस महामारी में प्रशासन की भूमिका पर भी उंगलियां उठ रही है। मनमाने आदेशों और वितरण व्यवस्था ने गरीबों और मजदूर वर्ग की हालत ख़राब कर दी! कर्फ्यू और लॉक डाउन की सख्ती से कामकाज तो सारे बंद है! पर, ऐसे में गरीबों को खाने के जो लाले पड़ रहे हैं, उसका जिम्मेदार किसे समझा जाए!        
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- हेमंत पाल

    इंदौर को उत्सवप्रिय शहरों में गिना जाता है! यहाँ छोटे त्यौहार को भी बड़े उत्सव की तरह मनाया जाता है! त्यौहार न भी हो, तो लोग उत्सव के बहाने ढूंढ ही लेते हैं। यही कारण है कि कोरोना संक्रमण के कारण घोषित 'जनता कर्फ्यू' और बाद में 5 अप्रैल को रोशनी के आह्वान को भी लोगों ने उत्सव की तरह मनाया! 'जनता कर्फ्यू' के दिन तो लोग कोरोना के खिलाफ जंग जीतने की तरह सड़कों पर उतर आए! यही स्थिति 5 अप्रैल के दिन की भी रही, जब घर की बिजली बंद करके चौखट पर दीये लगाने की जगह लोगों ने पटाखों से आसमान गुंजा दिया! दरअसल, ये इस शहर का स्वभाव है! आकार में बड़ा होकर भी इंदौर में आज भी शहरी मानसिकता का अभाव दिखता है! जाने-माने पत्रकार स्व प्रभाष जोशी का कहना सही लगता है कि इंदौर एक बड़ा गाँव है। यहाँ आज भी लोग किसी का पता, उसके मकान नंबर से नहीं, किसी दुकान के आगे-पीछे वाली गलियों से बताते हैं।    
      कोरोना संक्रमण भी इस शहर के लोगों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं रहा! इसे लोगों का स्वभाव समझा जाना चाहिए कि वे मुश्किल हालात में भी जीने के नए बहाने ढूंढ लेते हैं। वे अनुशासन में भी रहते हैं, पर थोड़ा अपने अंदाज में! फिलहाल शहर में कोरोना संक्रमितों की संख्या लगातार बढ़ती रही, लेकिन इस पर भी शहर के लोगों में घबराहट नहीं दिखी। कोरोना के कारण प्रशासनिक बंधन के जो हालात बने हैं, उसने इंदौर के लोगों को जरूर परेशान कर दिया, जो कि उनकी जीवन शैली का तरीका नहीं है। प्रशासन के मनमाने आदेशों ने उन्हें लॉक डाउन के उल्लंघन के लिए मजबूर कर दिया। पुलिस का रवैया भी डंडा फटकारने वाला ज्यादा नजर आ रहा है! स्थिति ये आ गई कि आईजी को अपने जवानों को समझाइश देना पड़ी कि हर किसी पर डंडा न चलाएं! लोग परेशान है, जो सड़क पर घूम रहे हैं, उनसे पूछताछ की जाए! यदि घर से निकलने का के कारण से संतुष्ट न हों तो भी उसे सामाजिक सजा दी जाए, न कि उस पर डंडा चलाया जाए! इस बात से इंकार नहीं कि ये महामारी से लोगों की जान बचाने की जंग है! हर व्यक्ति इसमें सहयोग भी दे रहा है, तो क्या कारण है कि प्रशासन अपनी ताकत दिखाने की कोशिश कर रहा है। सडकों पर लोगों को जबरन बेइज्जत किया जा रहा है! पत्रकारों को पीटा जा रहा है। आवश्यक सेवाओं में भी अड़चन डालने की ख़बरें हैं! वास्तव में ये व्यवस्था नहीं, प्रशासन की हठधर्मी ज्यादा लग रही है! शहर के कुछ इलाकों में लोगों ने लापरवाही की, पर क्या इसकी सजा 35 लाख लोगों को दी जाना सही है!    
     24 मार्च से घोषित लॉक डाउन के बाद से लोग ज्यादा परेशानी में आ गए! इसका कारण था, प्रशासनिक लापरवाही और लोगों को जरुरी सामान का न मिलना! एक दिन तो लोगों को दूध तक के लिए तरसना पड़ा, जबकि इसे रोके जाने का कोई कारण नहीं था! लॉक डाउन के पालन के लिए प्रशासन ने किराना और सब्जी की दुकानों को बंद करवा दिया, माना कि ये जरुरी भी था! अब प्रशासन ने इस सामग्री की सप्लाई खुद करने का बीड़ा उठाया, जिसमें वो पूरी तरह फेल हो गया। नगर निगम की कचरा गाड़ियों के जरिए 15 चुनिंदा सामान की लिस्ट लोगों तक पहुंचाई गई! लेकिन, जब दो दिन में ही 60 हज़ार लोगों ने जब प्रशासन को अपनी मांग भेज दी, तो सारी व्यवस्था गड़बड़ा गई! कई घरों में राशन नहीं बचा! लोग किफ़ायत से अपना काम चला रहे हैं! ऐसे में इस व्यवस्था में बहुत ज्यादा सुधार की गुंजाइश दिखाई नहीं दे रही! क्योंकि, जिस अधूरी योजना के साथ इसे बनाया गया था, वो दो दिन में ही दरक गई! ख़ास बात ये कि लोगों को दोयम दर्जे का सामान भेजा जा रहा है उसकी कीमत भी सामान्य से ज्यादा है! इसे क्या ये समझा जाए कि प्रशासन खुद कालाबाजारी करवा रहा है? शिकायत ये भी है कि प्रशासन ने ऐसे व्यापारियों को सप्लाई का काम सौंपा है, जो निर्धारित कीमत से डेढ़ गुना वसूल रहे है। बड़े शॉपिंग स्टोर से सिर्फ अधिकारियों, पुलिसवालों और रसूखदारों को सामान पहुंचाया जा रहा है।
   प्रशासन की अव्यवस्था का सबसे ज्यादा शिकार गरीब लोग हो रहे हैं। ये हमेशा ही अभाव में जीते हैं, लॉक डाउन और कर्फ्यू ने इन्हें भूखे मरने पर मजबूर कर दिया है। कई जगह लोगों के सड़क पर निकल आने की वजह ये भी है कि उनके पास खाने को कुछ नहीं बचा, पर वे अपनी व्यथा किससे कहें! सरकार ने आदेश दिए कि गरीबों को 4 किलो गेहूं, 1 किलो चांवल तीन माह तक निशुल्क देंगे। लेकिन, इस बात का जवाब कौन देगा कि जब आटा चक्कियां ही बंद हैं तो गेंहू पिसेंगे कैसे? ये सिर्फ सरकारी कारगुजारी का एक नमूना भर है! कलेक्टर का कहना है कि मैंने भी सब्जी खाना छोड़ दिया, आप भी प्याज, आलू से काम चलाओ! इनकी बात मान भी ली जाए तो मसाले, तेल, नमक और मिर्च के बिना आलू और प्याज भी कैसे खाए जा सकते हैं! क्योंकि, किराना दुकान तो बंद करवा दी गई। मॉल और ऑनलाइन स्टोर वालों के नंबर प्रशासन ने जारी किए, पर ज्यादातर न तो फ़ोन उठाते हैं और न सामान की  ऑनलाइन बुकिंग हो रही है। सब्जी की बड़ी दुकान से भी तभी सप्लाई होगा जब इलाके के कम से कम 15 या 20 लोगों के आर्डर उन्हें मिलेंगे।आशय यह कि गरीबों की हालत तो ख़राब है ही, जो खरीदने की ताकत रखते हैं, उन्हें भी राशन नहीं मिल रहा! लोगों की शिकायत ये भी है कि उन्होंने जितने सामान की मांग की थी, उसमे आधा ही सामान मिला। शक्कर, चायपत्ती जैसी जरुरी सामग्री भी नहीं मिल रही! इसका कारण ये है कि डिमांड और सप्लाई में सामंजस्य नहीं बन पा रहा! प्रशासन कितनी भी सफाई दे, ऊँगली तो उसी की तरफ उठेगी! क्योंकि, ये उसकी जिम्मेदारी का अहम हिस्सा है!
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Sunday, April 12, 2020

महिलाओं को शक्ति देने वाले टीवी शो!

- हेमंत पाल 

   न दिनों सरकारी टेलीविजन चैनल 'दूरदर्शन' दर्शकों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय हो रहा है। लॉक डाउन के कारण 25 से 30 साल पुराने वो सीरियल पुनर्प्रसारित किए जा रहे हैं, जिन्होंने कभी इतिहास रचा था। इनमें 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे धार्मिक ग्रंथों पर बने सीरियल तो हैं ही, कुछ और  भी ऐसे शो हैं जिनका कथानक मील का पत्थर साबित हुआ था! बच्चों के लिए बने शो जंगल बुक, मालगुडी डेज और शक्तिमान जैसे शो नई पीढ़ी के दर्शकों ने भी पसंद किए! लेकिन, सबसे ज्यादा लोकप्रिय शो में महिलाओं पर आधारित ऐसे चार शो थे, जिन्होंने महिला सशक्तिकरण का बेहतरीन काम किया था। ये वो टीवी शो थे, जो घरेलू विवादों और सास-बहू के झगड़ों से बिल्कुल अलग थे! ये ऐसे प्रभावशाली सामाजिक सीरियल थे, जिन्होंने बरसों की मानसिकता को बदलने के साथ नए सोच को जन्म दिया। 
    ऐसे चुनिंदा सीरियलों में 'उडान' सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला शो था, जो आईपीएस अफसर कंचन चौधरी भट्टाचार्य के जीवन की सच्ची कहानी पर आधारित था। महिला सशक्तिकरण को दर्शाने वाला 'उडान' 80 के दशक के अंत में प्रसारित हुआ था। इस शो का केंद्रीय पात्र कल्याणी सिंह थी, जिसे कविता चौधरी ने निभाया था। मध्यमवर्गीय परिवार से होने के बावजूद वो लैंगिक भेदभाव से लड़ते हुए आईपीएस अफसर बन जाती है। सीरियल में एक सबल महिला की मुख्य भूमिका के अलावा शेखर कपूर ने भी एक ऐसी भूमिका निभाई थी, जो महिला अफसर को समकक्ष मानता है। जब यह शो प्रसारित हुआ था, तब किसी महिलाओं को पुलिस वर्दी में बहुत कम देखा जाता था! इस शो ने इस पेशे में आने के सपने देखने वाली कई महिलाओं को ताकत दी थी। 
     उपभोक्ता आंदोलन का प्रतीक बने सीरियल 'रजनी' का प्रसारण 1994 में शुरू हुआ था। इसमें 'रजनी' का किरदार निभाने वाली प्रिया तेंदुलकर उस समय हर भारतीय गृहिणी का चेहरा बन गई थी! पहले पद्मिनी कोल्हापुरे को ये किरदार ऑफर किया गया था, पर उनके इंकार के बाद प्रिया तेंदुलकर ने ये किरदार निभाया, जो प्रतिकूल सिस्टम के खिलाफ अपने तरीके से लड़ती है। इसमें परिवार की छोटी-छोटी समस्याओं, उपभोक्ताओं की परेशानियों को निशाना बनाया गया था। इस शो का असर कुछ ऐसा हुआ था कि लोग हर जागरूक महिला को रजनी कहने लगे थे। शो की विशेषता थी, कि गंभीर विषयों को भी बेहद सहजता से उठाकर उसे निराकरण तक पहुँचाया जाता था। इसमें 'रजनी' ऐसी गृ‍हिणी होती है, जो सरकार में छाए ढीले रवैए के खिलाफ आवाज उठाती है। इसमें 80 के दशक में सरकारी दफ्तरों में होने वाली गड़बड़ियों को भी उठाया गया है।
   महिला संघर्ष की एक कहानी 'शांति' में भी दिखाई गई थी! मंदिरा बेदी ने शांति की भूमिका की थी। इसमें फ़िल्मी दुनिया के दो दिग्गज और धनी भाई एक लड़की के साथ बलात्कार करते हैं! इसके साथ ही शुरू होती है मां-बेटी की न्याय की लड़ाई! कमजोर होने के बावजूद कैसे कोई औरत न्याय की लड़ाई जीत सकती है, ये 'शांति' ने ही उस दौर की महिलाओं को सिखाया था। इसे पहली बार 1994 में दोपहर के शो में प्रसारित किया गया था। आज भी इसे लोकप्रिय टीवी शो के रूप में पहचाना जाता है।
    इसके अलावा 1986 में प्रसारित हुआ 'एयर होस्टेस' उन लड़कियों के पेशेगत संघर्ष पर आधारित था, जो एयर होस्टेस की नौकरी में आती हैं। इस शो में मुख्य भूमिका कृतिका देसाई और किट्टू गिडवानी ने निभाई थी! इस सीरियल का कथानक का मकसद ये दिखाना था कि नौकरीपेशा लड़कियों की जिंदगी आसान नहीं होती! 'मृगनयनी' भी दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले ऐसे ही सीरियल में था जिसकी कहानी एक लड़की की खूबसूरती और उससे उपजी परेशानियों पर थी। इसमें पल्लवी जोशी ने मुख्य किरदार निभाया था। ये एक प्रसिद्द उपन्यास पर बनाया गया सीरियल था।
  दूरदर्शन ने 'स्त्री शक्ति' नाम से एक ऐसा शो भी बनाया था, जिसमें मुश्किल हालातों में जीवन की जंग जीतने वाली महिलाओं की कहानी उन्हीं की ज़ुबानी दिखाई गई थी। ये महिलाएं बताती थीं कि मुश्किल हालातों का उन्होंने कैसे मुकाबला किया और हार नहीं मानी! 'मैं कुछ भी कर सकती हूँ' ये किसी टीवी शो का नाम नहीं लगता। 2014 में प्रसारित इस शो में युवा डॉ स्नेहा माथुर के जीवन के संघर्ष की कहानी दिखाई थी। वो मुंबई से अपना करियर छोड़कर अपने गांव प्रतापपुर में आकर काम करने का फैसला करती है। शुरूआती विरोध के बाद प्रतापपुर की महिलाएं अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती हैं और विजयी होती हैं। इस शो के तीन सीज़न पूरे हो चुके हैं।
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Monday, April 6, 2020

कोरोना संकट के दौर में उपचुनाव की चुनौती भी कम नहीं!

- हेमंत पाल  

   ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जब अपने राजनीतिक बागियों की फ़ौज के साथ कांग्रेस छोड़ी थी, तब और आज के राजनीतिक हालात में बहुत अंतर आ गया। इसे संयोग कहा जाए या दुर्भाग्य कि कांग्रेस के 22 विधायकों के इस्तीफे से कमलनाथ की सरकार तो गिरी, पर बाद में बनी सरकार भी आकार नहीं ले सकी! शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री तो बने, पर सरकार बनना अभी भी बाकी है। इस बीच कोरोना ने राजनीति को इस तरह जकड़ लिया कि परिस्थितियां बदल गई! चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे शिवराजसिंह को आते ही उस चुनौती से जूझना पड़ा, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं थी! अपनी सरकार को बनाए रखने के लिए उन्हें जो फैसले करना थे, वो सब अटक गए! उन्हें प्रदेश में फैलते  कोरोना संक्रमण से तो जूझना ही है, छह महीने में होने वाले 24 सीटों के उपचुनाव (दो सीटें जो पहले से खाली थीं) में भी जीत का परचम लहराना है! सवाल है कि बदले हालात में क्या भाजपा उन 22 विधायकों को उपचुनाव में जीत दिला सकेगी, जो कांग्रेस से भाजपा में आए हैं? क्योंकि, इन बागियों की जीत पहले भी आसान नहीं थी, अब और भी मुश्किल है!
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     मध्यप्रदेश में भाजपा की शिवराज सरकार की वापसी लगता है, सही मुहूर्त में नहीं हुई! जिस समय शिवराजसिंह चौहान राजभवन में शपथ ले रहे थे, कोरोना संक्रमण से बचाव का मास्क उनके गले में लटका था। शपथ लेने के बाद उन्होंने ख़ुशी नहीं मनाई, बल्कि वल्लभ भवन जाकर कोरोना से निपटने के लिए अफसरों के साथ बैठक की और निर्देश दिए। उसके बाद से अभी तक भी हालात सामान्य नहीं हुए कि वे अपना मंत्रिमंडल बना सकें! फिलहाल तो वे अकेले ही कोरोना संकट से जूझ रहे हैं। वो भी ऐसी स्थिति में जब कई अफसर भी कोरोना की चपेट में आ गए। यही कारण है कि कोरोना संक्रमण ने चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह की चुनौतियां चार गुना बढ़ा दी! क्योंकि, ये ऐसी अनजान मुसीबत है, जो दिखाई नहीं देती पर अपना लम्बा असर छोड़ रही है। लॉक डाउन हालात में शिवराजसिंह को कोरोना संक्रमित लोगों के इलाज का इंतजाम तो करना ही है! उन लोगों को भी बचाना है, जो जाने-अनजाने में इसकी चपेट में आ गए हैं। इस बात से इंकार नहीं कि शिवराज सिंह को विपरीत परिस्थितियों में सरकार चलाने और सटीक फैसले लेने का लम्बा अनुभव है! लेकिन, इस संकटकाल के उनके फैसले उनकी भविष्य की राजनीति पर क्या असर डालेंगे, इनका आंकलन भी जरुरी है! वे राजनीतिक हालात को बदलने का अच्छा माद्दा रखते हैं, इसे मानने वाले कम नहीं हैं! किन्तु, अभी के हालात ऐसे नहीं हैं कि वे एक फैसले से सबको खुश कर सकें।  
    शिवराज सिंह की राजनीतिक परिपक्वता के कई किस्से हैं। पहली बार सांसद से सीधे मुख्यमंत्री बनने को भी याद किया जाए, तो लगेगा कि उन्होंने शुरू से ही लोगों को चौंकाया है! किसी भी मंत्रिमंडल में मंत्री बने बिना वे सीधे मुख्यमंत्री बने थे और अब जनता के फैसले को उलटकर बागियों के कंधे पर सवार होकर चौथी बार सत्ता की सवारी कर ली। उनके कामकाज की शैली भी ऐसी है, कि वे नए राजनीतिक आइडिए उछालकर जनता को अपने पाले में ले आते हैं। लेकिन, अभी के जो हालात हैं, वो शायद उनके राजनीतिक जीवन का सबसे संकटकालीन समय है। मुख्यमंत्री बनने के साथ ही उनके सामने जो चुनौतियाँ आई, उन्हें कुशलता से उन्हें निपटाना ही होगा! वास्तव में ये उनकी अग्नि परीक्षा है, जिससे उन्हें अकेले ही जूझना है। कोरोना से निपटने के अलावा उन्हें उपचुनाव में जीत का भी माहौल बनाना है।   
     कांग्रेस के एक धड़े के मुखिया रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस से बगावत करने वाले 22 बागी विधायक प्रदेश के 14 जिलों से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। इनमें मुरैना से 4, ग्वालियर से 3, अशोक नगर, शिवपुरी और भिंड से 2-2 हैं। इनके अलावा दतिया, देवास, रायसेन, इंदौर, गुना, सागर, मंदसौर, अनूपपुर और धार जिले से 1-1 हैं। ये विधायक लोकसभा की 11 सीटों पर असर डालते हैं। इनमें करीब 15-16 विधायक ऐसे हैं, जो ज्योतिरादित्य सिंधिया के इलाके ग्वालियर-चंबल इलाके से जीतकर विधानसभा में पहुंचे थे! लेकिन, पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा विरोधी लहर के बावजूद इनमें से गिने-चुने विधायक ही ऐसे हैं, जो बड़े अंतर चुनाव जीते! पार्टी बदल के बाद अब वहाँ उपचुनाव में कोई बड़ा चमत्कार हो जाएगा, फिलहाल तो ऐसा दिखाई नहीं दे रहा! बल्कि, कोरोना संक्रमण से हुए लॉक डाउन और कुछ शहरों में कर्फ्यू लगने से हुई सख्ती से लोगों की सरकार और प्रशासन के प्रति नाराजी बढ़ी है! देखा गया है कि जब भी कहीं प्रशासन को कानून व्यवस्था के नजरिए से अपना रवैया सख्त करना पड़ता है, लोग इसके पीछे सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं! इस बार भी यही होगा और ये कहीं न कहीं उपचुनाव पर असर भी डालेगा!   
     ग्वालियर-चम्बल इलाके की जिन 15-16 सीटों पर कांग्रेस के विधायकों ने बगावत की है, वहां एक बड़ा राजनीतिक खतरा वो मजदूर वर्ग भी है, जो दिल्ली, नोयडा और गुरुग्राम से पैदल चलकर अपने घर लौटे हैं। इस इलाके के ज्यादातर मजदूर दिल्ली और उसके आसपास ही दिहाड़ी मजदूरी करने जाते हैं! कोरोना संक्रमण के कारण देशभर में हुए लॉक डाउन ने इन्हें बेरोजगार कर दिया और इन्हें रातों-रात अपने घर छोड़कर पैदल ही भागना पड़ा! ये लोग जिस मुसीबत से सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर घर आए हैं, वो सारी नाराजी अब सरकार को झेलना पड़ेगी! परिस्थितियां चाहे जो हों, लेकिन जनता की नाराजी का गुस्सा तो सरकार पर ही फूटता है! भाजपा के लिए मुसीबत ये भी है कि लॉक डाउन के कारण वे जनता को समझा भी नहीं सकते! अब इसे बदकिस्मती ही कहा जाना चाहिए कि जो गाज कमलनाथ सरकार पर गिरना थी, वो नई नवेली शिवराज सरकार पर गिरी। 
    कांग्रेस के 22 बागी विधायकों में से 10 पहली बार विधानसभा पहुंचे हैं। ये हैं रघुराजसिंह कंसाना, कमलेश जाटव, रक्षा सरोनिया, मनोज चौधरी, जजपाल सिंह जज्जी, सुरेश धाकड़, ओपीएस भदौरिया, गिरराज दंडौतिया, जसमंत जटावे और मुन्नालाल गोयल। जबकि, महेंद्र सिंह सिसौदिया, रनवीर जाटव, हरदीप सिंह डंग और ब्रजेंद्र सिंह यादव दूसरी बार विधायक बने थे। प्रद्युम्न सिंह तोमर, इमरती देवी, प्रभुराम चौधरी, गोविंद सिंह राजपूत और राजवर्धन सिंह को जनता ने तीसरी बार विधायक बनाया था। चौथी बार विधायक बनने वाले तुलसी सिलावट और एदल सिंह कंसाना ही थे। जबकि, बिसाहूलाल सिंह अकेले ऐसे विधायक हैं, जो पांचवी बार चुने गए थे। अब इनमें से कितने फिर उपचुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचेंगे, इस बात का दावा मुश्किल हो गया है।  
    सिंधिया समर्थक 22 बागी विधायक जिन विधानसभा सीटों से 2018 में चुनाव जीते थे, उनमें से 20 सीटें ऐसी हैं, जहाँ भाजपा उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे थे। इनमें से 11 सीटों पर हार-जीत का अंतर बहुत कम था। सरसरी तौर पर कहा जाए तो 22 बागी विधायकों ने औसतन मात्र 15% वोटों के अंतर से ही जीत दर्ज की थी। सबसे ज्यादा 57,446 वोटों से जीतने वाली डबरा सीट की विधायक इमरती देवी ही थीं। जबकि, सुवासरा के बागी विधायक हरदीपसिंह डंग तो मात्र 350 वोटों से विधानसभा चुनाव जीते थे। ऐसे में यदि भाजपा ने सभी कांग्रेसी बागियों को उपचुनाव में टिकट दिए, तो कई सीटों पर भाजपा में विद्रोह के हालात बन सकते हैं। ये भी संभव है, कि भाजपा के पूर्व उम्मीदवार मैदान में उतर जाएं। क्योंकि, यदि उन्होंने बागी कांग्रेसियों को चुनाव जिताने में मदद की, तो उनकी बरसों की राजनीति हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगी। भाजपा के जो नेता इस बार इन सीटों से उपचुनाव नहीं लड़ पाएंगे, तो वो कभी ऐसा नहीं चाहेंगे कि उनके वोट उस नेता को मिले, जो उनके खिलाफ पिछला चुनाव लड़कर जीता था। 
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Sunday, April 5, 2020

देश पर फिर छाया 'रामायण फीवर'

- हेमंत पाल

  देश में कोरोना संक्रमण के कारण लॉकडाउन के हालात हैं। हर शहर की गली में सन्नाटा पसरा है, लोग घरों में बंद हैं। ऐसे में टीवी ही उनके समय काटने का एकमात्र सहारा है। मनोरंजन इंडस्ट्री भी बंद हो गई! सीरियलों की शूटिंग नहीं होने से नए एपिसोड भी नहीं बन पा रहे! ऐसे में सरकारी टीवी चैनल 'दूरदर्शन' ने भारतीय टीवी इंडस्ट्री के सबसे सफल सीरियल 'रामायण' का पुनर्प्रसारण कर दर्शकों को मनोरंजन की नई खुराक दे दी। हर घर के बाहर लॉकडाउन के हालात हैं, पर घर में भक्ति की बयार बह रही है। करोड़ों लोग 'रामायण' देख रहे हैं। 33 साल पुराना 'रामायण' सीरियल आज उससे भी ज्यादा लोकप्रिय और प्रासंगिक दिखाई दे रहा है, जितना ये इसके पहले प्रसारण के समय था। 
  बीते 33 सालों में दुनिया बहुत ज्यादा बदल गई! लेकिन, आश्चर्य है कि बदलती हुई दुनिया में भी धार्मिक भावनाएं प्रभावित नहीं हुई! इस बीच भारत में दो पीढ़ियों ने जन्म ले लिया, पर धर्म के प्रति श्रद्धा में कम नहीं हुई। क्योंकि, 'रामायण' वो सीरियल है, जिसमें मानवीय भावनाओं का वेग और कर्तव्यों का बोध दोनों एक साथ दिखाई देता है। 25 जनवरी 1987 को पहली बार जब 'रामायण' का प्रसारण शुरू हुआ, उस समय भी देश के अधिकांश हिस्सों में लॉकडाउन जैसे ही हालात बनते थे। न कोई घर से निकलता था, न बाजार खुलते थे और न कोई काम होता था।
   'रामायण' का हर पात्र तभी से उस ज़माने में दर्शकों के दिलों आजतक छाया हुआ है। 31 जुलाई 1988 को पहली बार लगातार 78 रविवारों तक 'रामायण' का प्रसारण हुआ था। हर बार सड़कों और बाजार की हालत लॉक डाउन जैसी ही रही! इस सीरियल की लोकप्रियता इतनी ज्यादा थी कि बाद में जी-टीवी और एनडीटीवी इमेजिन जैसे चैनलों ने भी दोबारा इसे प्रसारित किया और लोगों ने उसे पसंद किया था। इस शो का ऐसा क्रेज था कि दर्शक 'रामायण' में राम का किरदार निभाने वाले अरुण गोविल और सीता बनी दीपिका चिखलिया को पूजने तक लगे थे। आज के दर्शकों की मनःस्थिति उस तरह की तो नहीं है, पर 'रामायण' के क्रेज ने उन्हें बांध रखा है!  
  इस धार्मिक सीरियल के पुनर्प्रसारण ने भी रिकॉर्ड बना दिया। शुरूआती चार शो को देखने वाले दर्शकों की संख्या ही 170 मिलियन रही, जो टीआरपी का नया रिकॉर्ड है। 2015 से टीवी के दर्शकों की पसंद को आंकने का काम 'बार्क' ने शुरू किया गया था! तब से अभी तक किसी भी हिंदी मनोरंजन शो को इतनी ज्‍यादा रेटिंग कभी नहीं मिली, जितनी रामायण के पुनर्प्रसारण को मिली है। रामायण की वजह से 'दूरदर्शन' को भी नया जीवन मिला! यह भी स्पष्ट हो गया कि 'रामायण' आज भी लोगों के दिलों में बसी है।
    'रामायण' जब पहली बार प्रसारित हुई, तब इसके अनुमानित दर्शकों की संख्या करीब 10 करोड़ आंकी गई थी। यह भी बताया जाता है कि शुरू के कुछ एपीसोड की लोकप्रियता बहुत ज्यादा नहीं थी! लेकिन, राम वनवास प्रसंग के भावुक दृश्यों के बाद इस सीरियल की लोकप्रियता चरम तक पहुँची। जब 'रामायण' के प्रसारण का समय आता तो पूरे देश में एक आभासी ठहराव जैसा आ जाता था। जबकि, उस दौर में टीवी हर व्यक्ति की पहुँच में नहीं था! पर, ऐसे में सामुदायिक टीवी दर्शन का दौर भी चला, जब लोग ऐसे घरों में डेरा जमा लेते थे, जहाँ टीवी होता था। लोग अपना कामकाज छो़ड़कर आधे घंटे तक रामभक्त हो जाते थे। यही देखते हुए 'इंडिया टुडे' ने इसे 'रामायण फ़ीवर' का नाम दिया था। क्योंकि, सारे धार्मिक और सामाजिक क्रियाकलाप इस सीरियल को देखने के लिए थम जाते थे। लम्बे समय तक 'रामायण' भारत और विश्व टेलीविज़न इतिहास का सबसे अधिक देखा जाने वाला कार्यक्रम भी बना रहा। 'लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स' में जून 2003 तक 'रामायण' दुनिया के सर्वाधिक देखे जाने वाले धार्मिक सीरियल के रूप में सूचीबद्ध था।
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