Sunday, June 30, 2019

सराहा क्यों जाता है, परदे का ये खुरदुरा किरदार!

- हेमंत पाल

  फिल्मों की दुनिया का अपना अलग ही नजरिया है। यहाँ सिर्फ फिल्मों का हिट और फ्लॉप होना ही, उनके अच्छे और ख़राब होने का मूल्यांकन नहीं है! यहाँ ऐसा भी होता है कि फिल्म के हिट होने और अच्छी कमाई के बाद भी उसे लेकर नकारात्मक टिप्पणियां की जाती है! जब किसी फिल्म को दर्शकों सराहा, बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने अच्छा खासा कलेक्शन किया, फिर क्या कारण है कि फिल्म में खामियाँ ढूंढी जाती है! ऐसा ही कुछ शाहिद कपूर की फिल्म 'कबीर सिंह' को लेकर हुआ! फिल्म ने अच्छा कारोबार किया! दर्शकों ने शाहिद की एक्टिंग को सराहा, किंतु फिल्म में नायक के पुरुषवादी सोच की आलोचना की गई! स्पष्ट तौर पर कहा जाए, तो फिल्म की महिला पात्र के प्रति नायक का सोच सकारात्मक और बराबरी का नहीं लगा! वैसे 'कबीर सिंह' पहली फिल्म नहीं है, जिसमें फिल्म के नायक का किरदार इतना खुरदुरा है! नकारात्मक नायक वाले ऐसे प्रयोग पहले भी चुके हैं! आश्चर्य की बात ये कि 'कबीर सिंह' की तरह सभी फ़िल्में सफल भी रही! 
   सालों की मेहनत के बाद बॉलीवुड के इस चॉकलेटी हीरो शाहिद कपूर को आखिर कमाऊ हीरो मान लिया गया! उनकी साऊथ की रीमेक फिल्म ‘कबीर सिंह’ ने अच्छा कारोबार किया। शाहिद की ये पहली सोलो फिल्म है, जिसमें उन्होंने अपनी रोमांटिक नायक वाली इमेज से अलग खुरदुरा सा सनकी किरदार निभाया है। ये ऐसा नायक है, जो पेशे से डॉक्टर है, पर हद दर्जे का नशेबाज, गुस्सैल और सनकी! इसे किसी व्यक्ति का अजब पागलपन भी कहा जा सकता है। ये फिल्म तेलुगू में बनी ‘अर्जुन रेड्डी’ का रीमेक है! ये एक ऐसे प्रेमी की कहानी है, जिसकी प्रेमिका का परिवार उनके रिश्ते के खिलाफ है। जब प्रेमिका की शादी किसी और से हो जाती है, तो वो जंगलीपन की सीमा लांघ जाता है! ये वो किरदार है, जो औरत को अपनी जागीर समझता है। उसे ये भी नहीं पता कि अगले पल वो नशे में क्या कर दे! फिल्म का ये किरदार सामाजिक नजरिए से नकारात्मक चरित्र वाला है! इसे समाज के लिए खतरे की तरह देखा जा सकता है! यही कारण है कि दर्शकों का इससे गलत संदेश लेने का खतरा महसूस किया जा रहा है! अमूमन ऐसी फिल्मों में महिला किरदार की कोई पहचान नहीं होती, 'कबीर सिंह' में भी नहीं है।  
  नायक के नकारात्मक कथानक पर बनी ये पहली फिल्म नहीं है! सनकी और परपीड़क नायकों पर केंद्रित फ़िल्में पहले भी बन चुकी है! आमिर खान, शाहरुख़ खान और नाना पाटेकर जैसे कलाकारों ने भी ऐसी फिल्मों में काम किया। 2008 में आई आमिर खान की फिल्म 'गजनी' तमिल फिल्म 'मुरुगाडोस' का रीमेक थी। हॉलीवुड में इसी कथानक पर क्रिस्टोफ़र नोलन ने 'मेमेंटो' बनाई थी। ये फिल्म पूर्व स्मृति लोप (एंटीरोग्रेड एम्नेसिया) से ग्रस्त एक बिजनसमैन की जिंदगी की कहानी थी। नायक को ये रोग अपनी प्रेमिका की एक मुठभेड़ में हुई हत्या के कारण हो जाता है। वह पोलोरॉयड कैमरे के फोटो और टैटूज के जरिए हत्या का बदला लेने की कोशिश करता है। 
    इससे पहले 1993 में ही आई शाहरुख़ की फिल्म 'बाजीगर' का नायक भी हिंसक और बदले भावना से भरा हुआ था। वो अपने पिता की मौत का बदला उस व्यक्ति से लेना चाहता है, जिसने उसके पिता को धोखा देकर सारी जायदाद हड़प ली थी। इस कारण उसकी बहन मर गई थी! पिता भी चल बसे और माँ पागल हो गई थी। नायक शाहरुख़ खान इसका बदला उस धोखेबाज की दो बेटियों शिल्पा शेट्टी और काजोल से लेने की चाल चलता है। ख़ास बात ये कि इस नकारात्मक किरदार के लिए शाहरुख़ को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का 'फिल्म फेयर' अवॉर्ड मिला था। इसी साल (1993) आई यश चोपड़ा की फिल्म 'डर' में भी शाहरुख़ खान ने एक पागल प्रेमी की भूमिका निभाई थी। फिल्म का ये किरदार ऐसा प्रेमी था, जो अपने एकतरफ़ा प्रेम से नायिका जूही चावला को जीतना चाहता है! लेकिन, जब जुही की शादी सनी देओल से हो जाती है, तो वो उसे रास्ते से हटाने के लिए पागलों जैसी हरकत करता है! शाहरुख़ ने सनकी प्रेमी के किरदार को अपनी बेहतरीन अदाकारी से जीवंत भी किया था। इसके बाद 1994 में आई शाहरुख़ और माधुरी दीक्षित की फिल्म 'अंजाम' का कथानक भी कुछ इसी तरह का था। फिल्म में शाहरुख खान ने बिगड़ैल रईस का किरदार निभाया था, जो अपने एकतरफा प्यार को पाने के लिए एयर होस्टेस माधुरी का पीछा करता रहता है! शाहरुख़ ने जिस तरह का नकारात्मक किरदार निभाया था, उसके लिए उन्हें उस साल का 'फिल्म फेयर' अवॉर्ड मिला था।  
  ये वो दौर था, जब लगातार ऐसी फ़िल्में आई जिनमें नायक का खल चरित्र सामने आया और उसे सनकीपन की हद पार करते दिखाया गया! 1996 में आई पार्थो घोष की फिल्म 'अग्निसाक्षी' जूलिया राबर्ट्स अभिनीत 'स्लीपिंग विद द एनिमी' पर आधारित थी। इसमें जैकी श्रॉफ, नाना पाटेकर और मनीषा कोइराला ने काम किया था। फिल्म के लिए नाना पाटेकर को 1997 का सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था। ये फिल्म ऐसे पति की कहानी थी, जो अपनी पत्नी के प्रति बहुत ज्यादा आसक्त रहता है। किसी का उसकी पत्नी की तरफ देखना भी उसे गवारा नहीं था। उसके एक पूर्ब प्रेमी जानकारी मिलने के बाद उसमें पत्नी के प्रति जो असुरक्षाबोध उभरता है, उसे फिल्म में नाना पाटेकर ने पूरी शिद्दत से निभाया था।  
  प्यार पाने की ज़िद और न मिलने की पागलपन की हद तक हिंसक होना बॉलीवुड के ऐसे कथानक हैं, जो ऐसे सनकी किरदारों को जायज़ ठहराते हैं। फिल्म के कथानक में घटनाओं को इस तरह पिरोया जाता है कि  दर्शक की नज़र में वो मजबूरी में की गईं ग़लतियां भी नहीं लगती है। फिर वो 'कबीर सिंह' का बेकाबू ग़ुस्सा हो, बदजुबानी हो या फिर प्रेमिका के साथ की गई बदसलूकी! फिल्मों में दशकों से औरत को काबू में रखने वाले मर्दाना किरदारों को पसंद किया जाता रहा है। ऐसी फ़िल्में करोड़ों का कारोबार करती हैं और नए सोच से परे दकियानूसी विचारों को सही ठहराती है। फ़िल्म की काल्पनिक दुनिया में ऐसा व्यक्ति नायक हो सकता है, पर वास्तविक जीवन में ये कदापि संभव नहीं है। शाहिद की एक्टिंग के नजरिए से 'कबीर सिंह' मनोरंजक है! पर, इसका कथानक समाज को गलत दिशा में ले जाता है, जिसे शायद स्वीकार नहीं किया जा सकता! लेकिन, फिर भी इस खुरदुरे और नकारात्मक पात्र ने बॉक्स ऑफिस की झोली तो भर ही दी!
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Tuesday, June 18, 2019

राज्यपाल बनने की अफवाह और असंतुष्टों से मेलजोल के मंतव्य!



  इंदौर की पूर्व सांसद सुमित्रा महाजन 'ताई' के राज्यपाल बनने की एक अफवाह ने पिछले दिनों माहौल को गरमा दिया था! दिनभर बधाइयाँ चलती रही! 'ताई' के समर्थकों ने खुशियाँ मानना शुरू कर दिया था! लेकिन, बाद में पता चला कि अभी उन्हें ऐसी कोई ये जिम्मेदारी नहीं दी गई! लेकिन, इस अफवाह ने ये सवाल खड़ा जरूर कर दिया कि क्या वास्तव में सुमित्रा महाजन राज्यपाल बनेंगी? फिलहाल इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है! इसके बाद 'ताई' ने दिल्ली में जिस तरह भाजपा के असंतुष्ट नेताओं के यहाँ मेलजोल का चक्र चलाया, उसने नया शिगूफा छेड़ दिया कि आखिर 'ताई' को असंतुष्टों के घर जाने जरुरत क्यों महसूस हुई! क्या वे पार्टी पर इसके जरिए कोई दबाव बनाना चाहती है?    
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- हेमंत पाल

  भारतीय जनता पार्टी की पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन अपने राजनीतिक पुनर्वास का इंतजार कर रही है! उन्हें भरोसा है कि पार्टी ने उनका लोकसभा चुनाव का टिकट 75 साल के फॉर्मूले के तहत काटा था, अब उसकी भरपाई किसी और पद पर नवाज सकती है! ये पद राज्यपाल भी हो सकता है! जो भाजपा अकसर करती रही है! सुमित्रा महाजन अकेली महिला नेता नहीं है, जिन्हें पुनर्वास का इंतजार हो! सुषमा स्वराज और उमा भारती भी ऐसे ही किसी पद की बाट जोह रही है! हाल ही में देशभर में सुमित्रा महाजन के राज्यपाल बनने की अफवाह के बाद उनके समर्थकों को ये विश्वास हो चला है, कि पार्टी जल्द ही ऐसा कोई फैसला कर सकती है! लेकिन, ऐसा होगा ही, इसका दावा नहीं किया जा सकता! क्योंकि, राजनीति में जब तक नतीजा सामने नहीं आ जाए, किसी अनुमान के आधार पर धारणा नहीं बनाई जा सकती! 
  सुमित्रा महाजन 1989 से 2014 तक लगातार 8 बार इंदौर से सांसद चुनी गई। वे अटलबिहारी वाजपेई सरकार में मंत्री भी रहीं। नरेंद्र मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में वे लोकसभा अध्यक्ष थीं! लेकिन, अब वे सभी दायित्वों से मुक्त हैं! उन्हें राज्यपाल बनाया ही जाएगा, अभी ये सिर्फ कयास ही है! इससे हटकर दिल्ली में उनका भाजपा के असंतुष्ट नेताओं से जाकर मिलना ज्यादा बड़ा मसला बन गया! वे लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू समेत कई ऐसे नेताओं से उनके घर जाकर मिलीं, जो अभी राजनीति की मुख्यधारा में नहीं हैं! लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज दोनों लोकसभा चुनाव नहीं लड़े और अभी आराम की स्थिति में हैं! जबकि, वेंकैया नायडू उपराष्ट्रपति जरूर बना दिए गए, पर बताते हैं कि वे खुश नहीं हैं! 'ताई' ने पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से भी मुलाकात की! 'ताई' की कोशिश तो राजनाथ सिंह से भी मिलने की थी, पर उन्होंने मिलने का समय नहीं दिया! पार्टी में अब सुगबुगाहट इस बात को लेकर है कि 'ताई' का इन नेताओं से मिलने के पीछे असल मंतव्य क्या है? लोकसभा अध्यक्ष के पूरे कार्यकाल के दौरान उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी से मिलने का कभी समय नहीं निकाला! अब ऐसी क्या जरुरत पड़ गई कि सुमित्रा महाजन उनके घर पहुंची और ट्विटर पर इस बात का जिक्र भी किया? 
  इन मुलाकातों के बाद उन्होंने सोशल मीडिया पर मैसेज भी डाले! लालकृष्ण आडवाणी से मिलने के बाद उनका ट्वीट था 'आज सुबह माननीय आडवाणीजी के घर जाने का अवसर मिला। मेरे संसदीय जीवन 1989 से 2019 तक एक जूनियर सांसद से स्पीकर के पद की यात्रा में मुझे आपका अनुशासन, दिशादर्शन और अनुभव का लाभ सदैव मिला। आपको ईश्वर स्वस्थ रखते हुए दीर्घायु प्रदान करें।' ऐसा ही संदेश सुषमा स्वराज  आने के बाद भी सोशल मीडिया पर घूमा! उन्होंने लिखा 'आज ही पूर्व विदेश मंत्री माननीय सुषमा स्वराजजी से भी उनके निवास पर मुलाकात की! मेरा सुषमाजी के साथ संसद, सरकार और परिवार सब जगह का रिश्ता है! मैं उनके भाषणों की प्रशंसक हूँ! ईश्वर से सुषमाजी को स्वस्थ्य और दीर्घायु जीवन प्रदान करें! पूर्व राष्ट्रपति से मिलने के बाद उनका संदेश था 'पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जीजी से भेंट की। उन जैसे अनुभवी गुणी व्यक्तित्व से सदैव मार्गदर्शन मिला। हृदयपूर्वक धन्यवाद।  उन्हें मेरी देवी अहिल्या पर लिखी पुस्तक 'मातोश्री' भेंट की। ईश्वर से प्रणवदा के स्वस्थ्य दीर्घायु जीवन की प्रार्थना! फिर मिलने आऊंगी!' 'ताई' की इस मिलन सक्रियता को पार्टी के नेता अलग ही नजरिए से देखा जा रहा है!       
  भाजपा नेताओं को लग रहा है कि जब पार्टी ने उनके राजनीतिक पुनर्वास को लेकर अभी कोई विचार नहीं किया है! सुमित्रा महाजन शायद इसे लेकर ही पार्टी पर दबाव की राजनीति बना रही है! क्योंकि, 'ताई' को टिकट से वंचित करने का कारण सिर्फ 75 साल वाला फार्मूला नहीं था! इसके अलावा भी कई ऐसे कारण रहे हैं, जो पार्टी ने उनको टिकट नहीं दिया! एक कारण उनके बेटे मंदार महाजन है, जिसे टिकट दिलाने के लिए उन्होंने हरसंभव कोशिश की! 'ताई' ने अपनी तरफ से पार्टी को जो पैनल दिया था उसमें मंदार महाजन के अलावा सब बेहद कमजोर नाम थे! खुद के टिकट पाने की कोशिश में जब 'ताई' की दाल नहीं गली तो उन्होंने बेटे को आगे किया, लेकिन भाजपा के जानकारों ने पार्टी के दिल्ली दरबार को हर सच्चाई से अवगत रखा! इसके बाद अम्बेडकर जयंती पर जब सुमित्रा महाजन लोकसभा परिसर में हुए कार्यक्रम में शामिल होने दिल्ली गईं थी, तब ये समझा जा रहा था कि शायद टिकट को लेकर अटका हुआ मसला सुलझ जाएगा और 'ताई' फिर इंदौर का नेतृत्व करने में सफल रहेंगी! लेकिन, बताते हैं कि नरेंद्र मोदी ने वहाँ भी उनको कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी थी!
   अब, सुमित्रा महाजन के समर्थक उनके महाराष्ट्र के राज्यपाल बनने को लेकर कुछ ज्यादा ही आशांवित हैं! क्योंकि, महाराष्ट्रीयन होने से उनका मध्यप्रदेश राजनीति के मराठी समुदाय में ज्यादा प्रभाव रहा है! लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद उनकी महाराष्ट्र में सक्रियता भी ज्यादा रही है। उनका जन्म स्थान भी महाराष्ट्र है। लेकिन, यदि पार्टी ऐसा कोई फैसला करती है, तो उनके छत्तीसगढ़ की राज्यपाल बनने की संभावना ज्यादा है। इसलिए कि छत्तीसगढ़ में पूर्णकालिक राज्यपाल का पद अगस्त 2018 से खाली है।  लोकसभा अध्यक्ष होने के कारण उनके पास संसदीय कार्य का अनुभव तो है! अभी प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल ही अतिरिक्त प्रभार के रूप में यह जिम्मेदारी संभाल रही हैं।
  सुमित्रा महाजन को महाराष्ट्र की राज्यपाल नियुक्त किए जाने संबंधी मैसेज जब सोशल मीडिया पर चले! भाजपा पदाधिकारियों तक ने 'ताई' को बधाई देने में देर नहीं की! बाद में पता चला कि ऐसा कोई आदेश ही नहीं हुआ! ऐसे में सोशल मीडिया पर नेताओं की ये बधाई चर्चा का विषय बन गई! उज्जैन से सांसद रहे चिंतामण मालवीय ने अपने ट्वीटर हैंडलर पर लिखा 'महाराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त किए जाने पर 'ताई' सुमित्रा महाजन को बहुत बहुत शुभकामनाएं। भाजयुमो अध्यक्ष अभिलाष पांडे ने लिखा 'आदरणीय ‘ताई’ सुमित्रा महाजन जी को महाराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त किए जाने पर बधाई और शुभकामनाएं।' एक केंद्रीय मंत्री ने भी बधाई देने  नहीं की! इन नेताओं ने सोशल मीडिया पर चल रही अफवाहों को सही मानते हुए, बधाई देना शुरू कर दिया था। जबकी, पार्टी की तरफ से इस बात की कोई पुष्टि नहीं की गई। अभी भी कहा नहीं जा सकता कि ऐसा कुछ होगा! लेकिन, उनकी असंतुष्टों से मेल मुलाकात की घटना ज्यादा बड़ा मसला बन गया है! इसे उनकी भविष्य की राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है!
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Saturday, June 15, 2019

भक्ति संगीत, जीवन और जलोटा


- हेमंत पाल
  संगीत की दुनिया में भक्ति संगीत एक अनोखी विधा है! फ़िल्मी गीतों, गजलों, कव्वाली, पॉप और रेप की तरह भक्ति संगीत की भी अपनी अलग दुनिया है। इस संगीत को आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का एक जरिया माना जाता है! मान्यता है कि जब पूरी तरह डूबकर कोई भजन गाया जाता है, तो भक्ति का भाव सीधे ईश्वर तक पहुँचता है। हिंदी फिल्मों में हमेशा से ही भक्ति संगीत रहा है। करीब सवा सौ साल की फ़िल्मी दुनिया में ईश्वर आराधना के लिए भक्ति संगीत को कब जगह मिली, इसका तो कोई प्रमाण नहीं मिलता! लेकिन, जब भी फिल्म के किरदारों को परेशानी में देखा गया, वे भगवान के सामने या मंदिर में भजन गाते दिखाई देते रहे हैं! लेकिन, हिंदी का भक्ति संगीत अनूप जलोटा के जिक्र के बिना अधूरा है! आज जब भी इस विधा के संगीत की बात होती है, अनूप जलोटा सबसे पहले याद आते हैं। क्योंकि, ये वो गायक है, जो भजन ही नहीं गाते, आवाज इनकी रूह से निकलती हैं! वे सिर्फ गाते नहीं, बल्कि भजनों को जीते भी हैं! वे भक्ति संगीत में ईश्वर को महसूस करते हैं!  
    कहा जाता है कि व्यक्ति का कर्म उसके चेहरे और चरित्र में झलकता हैं! इस नजरिए से देखा जाए, तो अनूप जलोटा के जीवन और विचारों की सकारात्मकता उनके भजनों से उपजती लगती है। भक्ति गायन से उनका सोच सकारात्मक हो गया या उनके अंतर्मन की सकारात्मकता उन्हें भक्ति संगीत की तरफ ले आई, ये कहना मुश्किल है! उनके विचारों का प्रवाह भजनों की तरह बहता सा लगता है! उनका कहना  मैंने अपने जीवन का मकसद 'देना' बना लिया है! 'पाना' तो सब चाहते हैं, असल बात है 'देना' जो कोई नहीं चाहता! मेरी कोशिश है कि जहाँ तक संभव हो, कुछ देते रहना चाहिए फिर वो आपकी कला ही क्यों न हो! यही कारण है कि वे अपने शिष्यों को नियमित रूप से भक्ति गायन की शिक्षा देते हैं! वे इससे कोई अर्थ उपार्जन  भी नहीं करते! 
   गुरू और शिष्य के रिश्तों को लेकर भी अनूप जलोटा का एक अलग ही नजरिया है। उनका कहना है कि दोनों में समर्पण का भाव होना जरुरी है, तभी इस रिश्ते की सार्थकता नजर आती है! गुरू को अपने हुनर का गुरुर नहीं होना चाहिए और शिष्य का समर्पण अपने गुरू के लिए शीश कटाने तक होना चाहिए! उनका ये भी मानना है कि संगीत ही वो मुकाम है, जिसमें गुरू और शिष्य के बीच ज्यादा दूरी नहीं होती! शिष्य और गुरू साथ में गाते हैं और यदि शिष्य काबिल हो, तो उसकी लोकप्रियता गुरू से ज्यादा भी सकती है! 
  अनूप जलोटा को कभी क्रोध नहीं आता! ये बात असंभव जरूर लगती है, लेकिन सही है। वे इसे मनुष्य की कमजोरी मानते हैं! उनका सोच है कि व्यक्ति को क्रोध हमेशा दूसरे की गलती पर ही आता है, खुद की गलती तो वो कभी स्वीकारता नहीं! अनूप जलोटा का विचार है कि दूसरे की गलती पर हमारा क्रोधित होना कहाँ तक ठीक है? हमारे सामने यदि कोई गलती करता है, तो हम गुस्सा होते हैं! ऐसा क्यों किया जाए? बेहतर हो कि हम अपनी गलतियों को खोजें और उनपर पश्चाताप करें, न कि क्रोध! वे नहीं मानते कि उनके भजन गाने से उनके क्रोध पर काबू हुआ है! वे इसे सहज संस्कार से जोड़ते हैं। 
  वे अपने जीवन की उपलब्धियों से संतुष्ट हैं! लेकिन, उन्हें अफ़सोस है कि वे अपने पिता पद्मश्री पुरुषोत्तमदास जलोटा से संगीत की ज्यादा शिक्षा नहीं ले सके! वे भी शास्त्रीय और भक्ति संगीत के गायक थे। पाँच भाई-बहनों में उन्हें ही पिता की तरह संगीत से लगाव था! जब उनके पिता रियाज करते थे, तो वे अकेले ही उनके साथ बैठकर संगीत सीखते थे! लेकिन, 'ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन' भजन के लोकप्रिय होने के बाद वे बहुत व्यस्त हो गए और पिता से ज्यादा सीख नहीं सके! संगीत शिक्षा के बारे में अनूप जलोटा का मानना है कि देश के स्कूलों में संगीत की प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य की जाना चाहिए! कम से कम बच्चों को संगीत की 'सरगम' तो सिखाई ही जाए! संगीत के सही आनंद  भी संगीत  प्राथमिक ज्ञान होना जरुरी है। जरुरी इसलिए भी कि नई पीढ़ी बहुत जल्दबाजी में लगती है! उन्हें हर सफलता तुरंत चाहिए! जबकि, संगीत ठहराव मांगता है! जीवन में संगीत की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि संगीत वो विधा है जो विचारों को सकारात्मकता देकर लय में बांधता है। यही कारण है कि मेरे लिए संगीत ही जीवन है।               
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Tuesday, June 11, 2019

प्रदेश की राजनीति का मिजाज तय करेगा झाबुआ!

- हेमंत पाल

  झाबुआ एक बार फिर राजनीति का मिजाज जानने के लिए प्रयोगशाला बन गया है! पिछली बार भाजपा सांसद दिलीपसिंह भूरिया के निधन के कारण झाबुआ सीट पर लोकसभा का उपचुनाव हुआ था! इस बार यहाँ भाजपा विधायक गुमानसिंह डामोर के इस्तीफे से खाली हुई सीट पर विधानसभा का उपचुनाव होगा! ये उपचुनाव प्रदेश का राजनीतिक मिजाज करेगा! साथ में ये भी दर्शाएगा कि मतदाताओं का मूड क्या वास्तव में देश और प्रदेश के राजनीतिक नेतृत्व के लिए अलग-अलग होता है! ऐसे में यदि भाजपा फिर झाबुआ विधानसभा सीट जीतती है, तो इससे कमलनाथ सरकार के अस्थिर होने संकेत माना जाएगा! पर, यदि यहाँ से कांग्रेस जीती है, तो भाजपा प्रदेश सरकार को छेड़ने की गलती शायद न करे! दोनों ही पार्टियों के लिए ये प्रतिष्ठा की बात है कि वे इस मौके को हाथ से न जाने दें!
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   देश की राजनीति में झाबुआ हमेशा ही केंद्र बिंदू रहा है! जो भी पार्टी सत्ता में रही, उसने आदिवासी उत्थान के नाम पर झाबुआ को ही प्रयोगशाला बनाया और योजनाएं चलाई! आजादी के बाद से कांग्रेस ने इस आदिवासी इलाके को अपने हिसाब से पाला-पोसा! लेकिन, करीब एक दशक में झाबुआ की राजनीति की धारा में काफी बदलाव आया! भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने काफी मेहनत से जमीन तैयार की है। नतीजा ये रहा कि जहाँ के आदिवासी मतदाता सिर्फ 'पंजे' को ही राजनीति का निशान समझते थे, उन्होंने 'कमल' को भी पहचानना शुरू कर दिया! लेकिन, इसके लिए भाजपा को कांग्रेस में ही सेंध लगाना पड़ी! दिलीपसिंह भूरिया ने ही भाजपा को लोकसभा में पहली जीत दिलाई थी! लेकिन, धीरे-धीरे राजनीतिक हालात बदले और कांग्रेस को भी अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा! 2013 का विधानसभा और 2014 का लोकसभा चुनाव इस नजरिए से महत्वपूर्ण माना जाएगा, जब भाजपा को अच्छी सफलता मिली! लेकिन, इस बार फिर आदिवासी मतदाता का मानस बदला दिखाई दिया! 
   ये उपचुनाव सिर्फ उम्मीदवार और पार्टी की हार-जीत ही तय नहीं करेगा, बल्कि इससे प्रदेश की राजनीति और मतदाताओं का मिजाज भी स्पष्ट होगा! सिर्फ पाँच महीने में जिस तरह मध्यप्रदेश में राजनीति की धारा बदली है, वो क्या दिशा थी! इस बात का अंदाजा भी इस उपचुनाव से हो जाएगा! विधानसभा में भाजपा का पिछड़ना और कांग्रेस का जीतना क्या महज संयोग था या आंकड़ों की उलझन से कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका मिल गया? लेकिन, कुछ ही महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने फिर बाजी मार ली! ये वो बदलाव है, जिसने राजनीतिक के जानकारों को भी हतप्रभ कर दिया! वे समझ नहीं सके कि क्या देश का मतदाता प्रदेश और देश की राजनीति को इतनी गंभीरता से समझने लगा है कि एक पार्टी के हाथ में सारे सूत्र देकर उसे बेलगाम होने देना नहीं चाहता! झाबुआ का उपचुनाव ऐसी बहुत सी गफलत का जवाब देगा! यदि यहाँ से कांग्रेस जीती तो ये उसके लिए संजीवनी बूटी होगी! लेकिन, यदि बाजी फिर भाजपा के हाथ लगी, तो उसे कमलनाथ सरकार को अस्थिर करने का नया मौका मिल जाएगा! साथ ही ये संदेश भी जाएगा कि मतदाता भाजपा से नाराज नहीं थे, पर शिवराज सरकार की वापसी उन्हें मंजूर नहीं थी! सवाल तो कई हैं, पर जवाब एक ही कि झाबुआ से कौन जीतेगा? हो भी जीतेगा, वो चुनाव के साथ-साथ मतदाता और राजनीति का मिजाज भी बताएगा!
   झाबुआ में आने वाले 6 महीने कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए मुश्किल वाले होंगे! क्योंकि, झाबुआ विधानसभा सीट के लिए होने वाला उपचुनाव दोनों पार्टियों के लिए एक तरह लिटमस टेस्ट होगा! इस चुनाव का नतीजा जिसके पक्ष में रहेगा, उसके अपने अलग मंतव्य होंगे! यही कारण है कि दोनों पार्टियां चुनाव तक झाबुआ में पूरे दमखम से अपनी ताकत दिखाएंगी। कांग्रेस के लिए ये उपचुनाव प्रदेश की सरकार बनाए रखने और अपनी जमीनी पकड़ साबित करने का मौका होगा! अभी तक ये सीट भाजपा के पास थी, इसलिए इस पार्टी की पूरी कोशिश होगी कि इसे बरक़रार रखा जाए! भाजपा 2018 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के बागी जेवियर मेढ़ा के कारण जीती थी, इसमें शक नहीं! कांग्रेस उम्मीदवार विक्रांत भूरिया के सामने जेवियर के निर्दलीय खड़े होने से कांग्रेस हार गई थी! अब भाजपा को इस धारणा को बदलना होगा कि वो ये चुनाव बगावत को बढ़ावा देने की तिकड़म से नहीं, बल्कि जनसमर्थन से जीते थे। यहाँ से भाजपा ने गुमानसिंह डामोर पहले विधानसभा और फिर लोकसभा का चुनाव लड़वाया और वे दोनों ही चुनाव जीत गए! ऐसे में यहाँ एक उपचुनाव होना तय ही था! 
   भाजपा संगठन ने 12 दिन के असमंजस के बाद अंततः तय कर लिया कि गुमानसिंह डामोर को विधानसभा से इस्तीफ़ा दिलाकर लोकसभा में रहने दिया जाए! उन्हें इस्तीफ़ा दिलवा भी दिया गया है। किसी व्यक्ति के दो सदनों में चुने जाने पर एक सदन को छोड़ना स्वाभाविक परंपरा है। यदि कोई दो सदनों के लिए चुना जाता है, तो उसे 14 दिन में किसी एक पद को छोड़ना पड़ता है। इससे भाजपा को ये नुकसान हुआ कि विधानसभा में आंकड़ों की खींचतान में वो कदम पीछे आ गई! अब उसके सदस्यों की संख्या 108 रह गई! अगर सदन में विश्वास मत हांसिल करने का मौका आया, तो मुकाबला 229 विधायकों के बीच होगा। ऐसे में कांग्रेस अपने 115 विधायकों के साथ ही विश्वास साबित कर सकती है। इस स्थिति को देखते हुए लग रहा है कि अब झाबुआ उपचुनाव का नतीजा आने के बाद ही कमलनाथ सरकार के रहने या गिरने पर बात चलेगी! यदि झाबुआ उपचुनाव कांग्रेस जीतती है, तो इससे सरकार की ताकत बढ़ जाएगी। लेकिन, यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस को सदन में विश्वास जीतने के लिए ज्यादा जोर लगाना पड़ेगा। 
  झाबुआ को कांग्रेस का परंपरागत इलाका माना जाता है। यहाँ से विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनाव में कांग्रेस का डंका बजता रहा! लेकिन, 2013 के विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनाव में यहाँ पांसा पलट गया था। लोकसभा चुनाव में भाजपा के दिलीपसिंह भूरिया ने कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया को पटखनी दे दी थी। लेकिन, सालभर में ही दिलीपसिंह का निधन होने से ये सीट खाली हो गई और यहाँ उपचुनाव हुए जिसमें कांतिलाल भूरिया फिर सांसद बन गए! जबकि, उस उपचुनाव में प्रदेश की पूर्व भाजपा सरकार ने अपना पूरा दम लगा दिया था। अभी भी झाबुआ सीट पर होने वाला विधानसभा जीतना भाजपा के लिए बहुत आसान नहीं कहा जा सकता! क्योंकि, प्रदेश में कांग्रेस सरकार होने का भी कांग्रेस उम्मीदवार को फ़ायदा मिलेगा! उससे बड़ी बात ये कि भाजपा इस सीट  बहुत ज्यादा विकल्प नहीं हैं। लेकिन, पार्टी यहाँ तोड़फोड़ करने की जुगत में है! संभव है कि चुनाव से पहले कुछ कांग्रेसियों का दिल बदल जाए! 
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Sunday, June 9, 2019

दोबारा नहीं बनती ऐसी कालजयी फ़िल्में!

- हेमंत पाल

   मुगले आजम, शोले, दीवार और जंजीर को हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्मों में गिना जाता है! ये अलग-अलग दर्शक वर्ग की वे पसंदीदा फ़िल्में हैं, जिन्हें लोग आज भी देखना चाहते हैं! लेकिन, इन फिल्मों के रीमेक नहीं बनाए जा सकते! क्योंकि, जिस समय-काल में ये फ़िल्में बनी थी, वो आज नहीं है! न तो 'मुगले आजम' की तरह शहंशाहों की सल्तनत है और न 'शोले' की कहानी की तरह कहीं डाकुओं का आतंक है! 'दीवार' और 'जंजीर' कथानक की तरह के एंग्रीमैन किरदार को भी आज के दर्शक पसंद नहीं करेंगे! आशय यह कि फिल्मों की कहानियों का समय-काल के साथ गहरा रिश्ता होता है! दर्शक परदे पर उसी परिवेश की कहानियां देखना पसंद करते हैं, जिसमें वे रहते हैं! समाज में जो चरित्र नहीं है, उसे फिल्मों में उतारा जाना संभव नहीं है। समझा जाता है कि हर चार-पांच साल में फिल्मों कथानक बदल जाते हैं। आज का दौर ऐसी फिल्मों का है, जो सीधे जीवन से जुड़ी होती हैं।
    इस वक़्त समाज की चिंताओं वाली ऐसी फ़िल्में बन रही है, जिससे लोग रोजाना रूबरू होते हैं! अब किसी भी फिल्म में सामाजिक क्रांति लाने की बात नहीं होती! लेकिन, फिल्म का अंत दर्शकों के मन को झकझोरकर एक सवाल छोड़ जाता है! आज नए विषयों वाली जो फ़िल्में दर्शकों के दिल में उतरी हैं उनका कथानक रोचक होने के साथ ही जीवन से भी जुड़ा होता है! टॉयलेट : एक प्रेम कथा, हिंदी मीडियम, विकी डोनर, पीकू, बधाई हो बधाई, न्यूटन, बरेली की बर्फी, शुभ मंगल सावधान, दम लगा के हइशा और लिपिस्टिक अंडर माइ बुर्का जैसी फिल्में हैं। कुछ साल पहले क्या कोई सोच सकता था कि कब्ज पर भी फिल्म बनाई जा सकती है? वो भी अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण और इरफ़ान जैसे कलाकारों को लेकर। लेकिन, फिल्म 'पीकू' बनी और हिट भी हुई! 80 और 90 के दशक में कमर्शियल सिनेमा में जमीन से जुड़े बुनियादी मसलों के लिए इतनी जगह कहाँ थी? जबकि, आज ऑस्कर के लिए विदेशी फिल्म श्रेणी में नामित भारत की तरफ से भेजी गई फिल्म 'न्यूटन' में राजकुमार राव संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करते हुए बिगड़ी सामाजिक और कानूनी व्यवस्था के खिलाफ खड़े होते हैं।
   कोई सोच सकता है कि फ़िल्मकार को 'टॉयलेट : एक प्रेमकथा' बनाने का आईडिया बैतूल की एक सच्ची घटना से आया था! अखबार में छपी एक खबर के बारे में खंगालने के बाद लगा कि समाज में खुले में शौच बेहद गंभीर मुद्दा है। यदि इस मुद्दे को समाधान के साथ दर्शकों के सामने रखा जाए, तभी बात बनेगी! कुछ ऐसा ही मसला फिल्म 'पेडमैन' का है! समाज के इस अतिवर्जित विषय को मुख्यधारा की फिल्म का विषय बनाना आसान नहीं था! लेकिन,  हल्के-फुल्के तरह से 'पेडमैन' में जो संदेश दिया गया, वो दर्शकों के गले उतर गया! ऐसे विषय पर फिल्म बनाने को दुस्साहस ही कहा जाएगा! लेकिन, फिल्मकार ने ये रिस्क ली और सफलता भी पाई! क्योंकि, विषय की गंभीरता के साथ उसकी मनोरंजन वैल्यू कम नहीं होना चाहिए। इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है, कि बात इस तरह से कही जाए कि वो लोगों के दिल में उतरे!
   'बधाई हो बधाई' को भी वर्जित विषय वाली फिल्म कहा जा सकता है! लेकिन, इसे भी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया! दो जवान बेटों की माँ के फिर माँ बनने की तैयारी आखिर किसके गले उतरेगी? ऐसी स्थिति में परिवार की जिस तरह की सामाजिक उलाहना होती है, वही इस फिल्म का क्लाइमेक्स था! दरअसल, आजकल ऐसे विषय ही पसंद किए जा रहे हैं, जो हमारे आसपास की कहानियां लगे! फिल्म देखकर महसूस हो, कि ऐसा होना असंभव नहीं है। लेकिन, दर्शकों की रूचि बड़ी अजीब होती है! हिंदी में वे जीवन से जुडी फ़िल्में देखना पसंद करते हैं, तो उन्हें हॉलीवुड की ऐसी फ़िल्में अच्छी लगती है, जिसमें एक्शन कूट-कूटकर भरा हो! वे हिंदी फिल्मों में दर्द को मनोरंजन की देखना चाहते हैं! लेकिन, हॉलीवुड की फिल्मों में उन्हें फंतासी पसंद है! यदि ऐसा नहीं होता तो इनफिनिटी वार, ब्लैक पेंथर, एवेंजर्स : एंडगेम और मिशन इम्पॉसिबल जैसी फ़िल्में करोड़ों रुपए का कारोबार नहीं करती! लेकिन, दर्शक जुगाड़ने के लिए हिंदी फिल्मों को हॉलीवुड से मुकाबला करने की जरुरत नहीं! क्योंकि, हिंदी फिल्मों की फंतासी दुनिया कभी हॉलीवुड के स्तर की नहीं हो सकती और हिंदी फिल्मों की संवेदना सीधे दर्शक के दिल तक जाती है!
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Wednesday, June 5, 2019

बंगाली सत्ता में सेंध मारने में अव्वल रहे इंदौर के 'भाई'

   इस बात को करीब तीन दशक हो गए जब लोग इंदौर की एलआईजी कॉलोनी के चौराहे पर केशरिया दुपट्टा डाले एक नेता को अकसर देखते थे! तब वे स्कूटर के पीछे बैठे नजर आते थे! ये थे कैलाश विजयवर्गीय! आज भी उनकी सहजता में फर्क नहीं आया! लेकिन, आज उनका राजनीतिक कद आसमान छूने लगा! इंदौर के बाद प्रदेश की भाजपा राजनीति में अपना दम दिखाने वाले कैलाश विजयवर्गीय ने मध्यप्रदेश के बाहर भी कारनामे किए हैं! हरियाणा में भाजपा की सरकार बनाने की जुगत लगाने के बाद उन्होंने पश्चिम बंगाल के ममता राज की जड़ें हिला दी! लोकसभा चुनाव में वहाँ की 42 में से 18 सीटों पर 'कमल' खिलाकर उन्होंने पार्टी के लिए नई संभावनाएं भी जगाई! मुद्दे की बात की बात ये कि इस नेता ने उस राज्य में भाजपा की जड़ें मजबूत की, वे जहाँ की भाषा भी नहीं जानते! लेकिन, कहा जाता है कि विश्वास और उम्मीद की कोई भाषा नहीं होती! बंगाली राज्य के लोगों को ये भरोसा हो गया कि उन्हें कोई ममता बैनर्जी के अराजक राज से मुक्त करवा सकता है तो वो है भाजपा और कैलाश विजयवर्गीय! इसी विश्वास ने तो वहाँ कमाल किया है!   
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- हेमंत पाल

   भाजपा को जब लोकसभा चुनाव ने दो सीटें मिली थी, तब अटलबिहारी बाजपेई ने दावा किया था कि एक दिन भाजपा देश पर राज करेगी! उस समय लोगों को ये बात कुछ असहज लगी थी! क्योंकि, सामने कांग्रेस जैसी पार्टी थी! लेकिन, अंततः अटलजी की बात सही निकली! आज लोकसभा में भाजपा की 303 सीटें हैं। कुछ ऐसी ही कहानी पश्चिम बंगाल की है! इस राज्य में भी पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को मात्र 2 सीटें मिली थी! इस बार यहाँ भी कमाल हुआ और भाजपा ने 42 में से 18 सीटों पर कब्ज़ा जमाया! लेकिन, ये सब कर पाना आसान नहीं था! पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी ने जिस तरह से अपनी पार्टी की सरकार चलाई, वहाँ किसी और पार्टी के लिए जगह बनाना मुश्किल था! हिंसा, अराजकता और हत्या जैसी घटनाएं यहाँ सामान्य बात थी। हिंदू-मुस्लिम को बाँटकर ममता बैनर्जी ने जिस तरह वोट के लिए तुष्टिकरण की राजनीति चलाई, उसमें सेंध लगाने की कोई सोच भी नहीं सकता था! लेकिन, सेंध भी लगी और चमत्कार भी हुआ! उसके पीछे एक ही व्यक्ति की मेहनत और रणनीति कारगर रही! ये हैं इंदौर के 'भाई' उर्फ़ कैलाश विजयवर्गीय! उन्होंने जिस रणनीतिक कौशल से पश्चिम बंगाल में 'कमल' खिलाया वो राजनीति के जानकारों के लिए चिंतन का विषय हो सकता है! सिर्फ पाँच महीने में उन्होंने पार्टी का आधार मजबूत किया है, जिसका नतीजा सामने है! 
   भारतीय जनता पार्टी ने बहुत सोच-समझकर ममता बैनर्जी के अभेद्य किले में सेंध लगाने के अभियान की कमान पार्टी ने कैलाश विजयवर्गीय को सौंपी थी! उन्हें पश्चिम बंगाल फतह के लिए प्रभारी बनाकर मोर्चे पर लगाया गया! वहाँ की गुंडा राजनीति को काबू करके जिस तरह भाजपा के लिए जमीन तैयार की गई, उसे वही समझ सकता है, जिसे वहाँ के राजनीति का अंदाजा हो! सोच समझकर बनाई गई, पार्टी की ये रणनीति सफल रही! देशभर में पार्टी ने लोकसभा चुनाव में जिन नए राज्यों में बढ़त बनाई, उनमें सबसे महत्वपूर्ण है पश्चिम बंगाल! कैलाश विजयवर्गीय ने जो कुछ किया, उसी का नतीजा रहा कि पश्चिम बंगाल में 'तृणमूल' के खिलाफ लोगों की आवाज निकली! पाँच महीने पहले जब कैलाश विजयवर्गीय को वहाँ का प्रभार सौंपा गया था, तब किसी ने ये उम्मीद नहीं की थी! क्योंकि, पश्चिम बंगाल में 'तृणमूल' के विरोध का मतलब सिर्फ मौत है! ऐसे अराजक और अलोकतांत्रिक माहौल में कैलाश विजयवर्गीय ने अपना काम शुरू किया। पूरे चुनाव में 53 भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या हुई! खुद कैलाश विजयवर्गीय को भी धमकियाँ मिली! लेकिन, तब भी उन्होंने सुरक्षा नहीं ली! बाद में पार्टी अध्यक्ष के दबाव में कुछ दिन सुरक्षा जरूर ली, पर जल्दी वापस भी कर दी!   
   पश्चिम बंगाल का पुराना राजनीतिक इतिहास हिंसा से भरा रहा है! लेकिन, 'तृणमूल' के दो कार्यकाल में हिंसा की राजनीति कुछ ज्यादा ही पनपी! राजनीतिक विरोध का जवाब मारपीट से दिया जाने लगा! असहमति के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है! ममता राज में लोग कितने परेशान है, इस बात का पता भी कैलाश विजयवर्गीय को वहाँ जाकर लगा! इसी वजह से उन्हें लोगों का साथ भी मिला! जहाँ लोग 'तृणमूल' के झंडे और बैनर के अलावा कुछ सोच भी नहीं सकते थे! लेकिन, वहाँ विरोध और दबाव के बावजूद भाजपा के झंडे लगे! रैलियों में भीड़ बढ़ी! घरों, दुकानों पर भाजपा का चुनाव चिन्ह दिखाई देने लगा! लोग भी भाजपा को वोट देने की अपील करने लगे! जहाँ 'जय श्रीराम' बोलना अपराध था, वहां इसका उद्घोष होने लगा! इसे कैलाश विजयवर्गीय की उपलब्धि माना जाना चाहिए कि उन्होंने पश्चिम बंगाल के लोगों में ये विश्वास प्रबल किया कि भाजपा का साथ देने से उन्हें नुकसान नहीं होगा! वास्तव में ये विश्वास जीतना बेहद मुश्किल काम था। क्योंकि, वहां के लोग ये भ्रम भी पाल सकते थे, कि चुनाव का नतीजा कुछ भी हो, कैलाश विजयवर्गीय तो वापस लौट जाएंगे! ऐसे में उन्हें ममता सरकार का कोप भाजन बनना पड़ सकता है! लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और लोग कैलाश विजयवर्गीय के साथ सड़क पर निकल आए! इसी भरोसे ने पश्चिम बंगाल में सेंधमारी का मौका दिया। पश्चिम बंगाल की 42 में से भाजपा को मिली 18 सीटें जीतने का आंकड़ा बड़ा नहीं लगे! पर, वास्तव में अप्रजातांत्रिक सत्ता के सामने पार्टी की जड़ें ज़माने के लिए ये बहुत जरुरी था। 
   इंदौर के मिल क्षेत्र के इस हरफनमौला भाजपा नेता को ऐसी चुनौतियाँ स्वीकारने की आदत रही है! इंदौर के जिस मिल क्षेत्र (विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2) का उन्होंने बरसों तक प्रतिनिधित्व किया है! एक समय था, जब वहाँ भाजपा का कोई नामलेवा नहीं था! मिल मजदूरों के कारण 'इंटक' के प्रभाव वाले इस इलाके से उन्होंने पहली बार भाजपा को जीत का स्वाद चखाया! वे इंदौर के क्षेत्र-4 से भी चुनाव जीत चुके हैं और इंदौर  विधानसभा के महू से भी! यानी इंदौर के तीन विधानसभा से वे चुनाव जीते हैं और उनके बेटे आकाश ने इन तीनों के अलावा चौथे विधानसभा (क्षेत्र-3) से चुनाव जीतकर उनके सही उत्तराधिकारी होने का ख़म ठोंक दिया!
  कैलाश विजयवर्गीय ने भाजपा को पहली बार इंदौर के महापौर पर कुर्सी पर भी काबिज करवाया! इस नेता की खासियत ही ये है कि पार्टी इन्हें जो लक्ष्य देती है, वहाँ ये 'कमल' खिला देते हैं! इन्हें पार्टी ने पहली बार इंदौर से बाहर हरियाणा में आजमाया था! 2014 के हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए कैलाश विजयवर्गीय को चुनाव प्रभारी बनाया गया! इसमें भी नतीजा भाजपा के पक्ष में रहा और वहाँ पार्टी बहुमत से चुनाव जीती! इसके बाद उन्हें पार्टी ने राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया। हरियाणा में उनके प्रदर्शन से प्रभावित होकर ही पार्टी ने उन्हें पश्चिम बंगाल कमान सौंपी थी! वे यहाँ भी रणनीति बनाने और उसे क्रियान्वित करने में सफल रहे! ये सफलता भले भाजपा की रही हो, पर इसके पीछे रणनीतिकार तो इंदौरी 'भाई' थी रहा! 
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Sunday, June 2, 2019

संघर्ष की अंतहीन दास्तान!

- हेमंत पाल   

  सिनेमा का परदा ऐसी जगह है, जहाँ सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं होती! हो सकता है कोई अनजान कलाकार रातों-रात सितारा बनकर चमकने लगे! ये भी संभव है कि कोई चमकता सितारा एक फ्लॉप फिल्म से गर्त में चला जाए! फ़िल्मी दुनिया ऐसे इतिहास से भरी पड़ी है! आज जो भी परदे पर चमक रहा है, उसके पीछे संघर्ष की एक लम्बी दास्तान लिखी होती है! अमिताभ बच्चन से लगाकर सलमान खान तक जो कि आज बॉलीवुड के ब्रांड हैं, कड़े संघर्ष से ही निखरकर निकले हैं! जो कलाकार किसी हीरो, हीरोइन या डायरेक्टर के बेटे या बेटी हैं, वो हिट हो जाएं, इसकी कोई गारंटी नहीं! देवानंद और राजेंद्र कुमार जैसे बड़े कलाकारों के बेटे भी नहीं चल सके!      
  बॉलीवुड में आज सलमान खान को हिट फार्मूला माना जाता है! लेकिन, उनकी फ़िल्में भी जब चलती है, जब दर्शकों पसंद आए! वे भी अपने पहले स्क्रीन टेस्ट में फेल कर दिए गए थे! 'मैंने प्यार किया' के लिए राजश्री प्रोडक्शन को नया चेहरा चाहिए था! ताराचंद बड़जात्या को किसी ने सलमान का नाम सुझाया।उस समय उनके पिता सलीम खान बड़े स्क्रिप्ट राइटर थे! सलमान का स्क्रीन टेस्ट हुआ, लेकिन उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया! इसके बाद जिनका भी स्क्रीन टेस्ट हुआ, उनमें भी उस रोल के लिए कोई फिट नहीं हुआ! निर्माता सुरेश भगत ने फिर ताराचंद बड़जात्या के सामने सलमान की बात छेड़ी! अबकी बार सूरज बड़जात्या ने सलमान का स्क्रीन टेस्ट लिया। सूरज को सलमान ठीक लगे! अपने समय के रोमांटिक हीरो राजेश खन्ना ने तो एक्टिंग का टेलेंट-हंट जीता था! लेकिन, उन्हें भी लम्बे समय तक अपनी पहली फिल्म का इंतजार करना पड़ा! 
   एक टीवी शो में नसीरुद्दीन और ओमपुरी दोनों से पूछा था कि क्या उन्हें अपनी शक्ल को लेकर कभी जिल्लत उठाना पड़ी? इस पर नसीरुद्दीन ने बताया था कि शबाना आजमी ने हमारी एनएसडी की पुरानी तस्वीर देखकर कहा था कि ये दो बदसूरत इंसान, कैसे एक्टर बनने की जुर्रत कर सकते हैं? इन दोनों  मुश्किलों का सामना करना पड़ा! शत्रुघ्न सिन्हा को भी शुरूआती दौर में रिजेक्ट कर दिया गया था! उन्हें कटे-पिटे बदसूरत चेहरे वाला तक कहा गया था! बॉलीवुड के बड़े विलेन अमरीश पूरी को भी पहले स्क्रीन टेस्ट में रिजेक्ट कर दिया गया था। वे सत्यदेव दुबे के नाटकों पर पृथ्वी थिएटर में काम कर रहे थे। इन नाटकों की कुछ प्रस्तुतियों ने बाद में उनकी बॉलीवुड में एंट्री दिलाई। अमिताभ बच्चन के संघर्ष की दास्तान भी दर्दभरी है! उन्हें कद लेकर कई बार बातें सुनना पड़ी थी! यहाँ तक कहा गया कि तुम्हें हीरो बनाएंगे तो इतनी लम्बी हीरोइन कहाँ लाएंगे? उन्हें रेडियो पर न्यूज़ रीडर के इंटरव्यू में भी उनकी भारी आवाज की वजह से रिजेक्ट कर दिया गया था।  
 देव आनंद जब संघर्ष कर रहे थे, तब उन्हें पहली बार एक नाटक 'जुबैदा' में काम करने का मौका मिला! देव आनंद को 10 लाइन का डायलॉग दिया गया। उन्होंने उसे रातभर रटा! लेकिन, रिहर्सल में ठीक से बोल नहीं सके! डायरेक्टर ने उन्हें झिड़कते हुए कहा था कि तुम कभी हीरो नहीं बन सकते! बाद में उन्होंने यदि डायलॉग सुनाकर 'हम एक हैं' का स्क्रीन टेस्ट पास किया था! ऐसी ही कहानी रेखा की है, जो अपनी शुरुआती फिल्मों में सांवली और मोटी थीं। उन्हें बदसूरत बत्तख तक कहा गया था! लेकिन, बाद में इसी रेखा ने बॉलीवुड की खूबसूरत हीरोइनों में अपनी जगह बनाई! जरीना वहाब के बारे में भी फिल्मकारों की अच्छी राय थी! उनके सांवलेपन और घरेलु लुक को लेकर अकसर उन्हें बातें सुनाई गई! राज कपूर ने भी जरीना को देखते ही कह दिया था कि ये लड़की कभी हीरोइन नहीं बन सकती! 
  नवाजुद्दीन सिद्दीकी आज बड़े कलाकार हैं, पर उन्होंने भी 12 साल संघर्ष किया, तब मुकाम पाया! साधारण लुक के कारण उनका कई जगह मजाक भी उड़ाया गया! लारा दत्ता को जब पहली बार स्क्रीन टेस्ट का बुलावा आया, तो वे काफी खुश थीं। मेहनत से स्क्रीन टेस्ट देने के बाद जब लारा ने निर्देशक से पूछा कि कब संपर्क करूं, तो उन्होंने जवाब दिया कि आप मत कीजिए! जरुरी समझेंगे तो हम खुद आपसे संपर्क कर लेंगे। लेकिन, बाद में कभी कोई फोन नहीं आया! 
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