Wednesday, September 27, 2023

दूसरी सूची ने भाजपा की रणनीति का इशारा कर दिया!

- हेमंत पाल

      भाजपा ने अपने उम्मीदवारों की पहली सूची की घोषणा से जिस तरह चौंकाया था, उससे कहीं ज्यादा दूसरी लिस्ट से चौंकाया। इसलिए कि इस दूसरी लिस्ट में भाजपा ने 39 उम्मीदवारों में अपनी सारी ताकत झोंक दी। सात सांसदों को विधायक का चुनाव लड़ने के लिए उतार दिया, जिनमें तीन केंद्रीय मंत्री हैं। एक केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर तो भाजपा की चुनाव अभियान समिति के मुखिया हैं। जबकि, एक सांसद पहले पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। भाजपा ने 39 उम्मीदवारों के बहाने अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को यह संदेश भी दे दिया, कि वे चुनाव जीतने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। फिर उन्हें इसके लिए कुछ भी करना पड़े। सबसे दिलचस्प मुकाबला तो इंदौर विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-एक बन गया, जहां से पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को एक बार चुनाव जीते संजय शुक्ला के मुकाबले में उतार दिया गया। इस वजह से प्रदेश में यह सीट सबसे ज्यादा दिलचस्प हो गई।
      इसे संयोग माना जाना चाहिए या कोई चुनावी टोटका कि पिछली बार भी भाजपा ने फिर 39 उम्मीदवारों की ही लिस्ट जारी की। यह लिस्ट अप्रत्याशित कही जाएगी, क्योंकि अभी इस लिस्ट के आने की कोई हलचल नहीं थी। पार्टी ने विधानसभा की चुनाव अभियान समिति के मुखिया नरेंद्र तोमर को भी दिमनी से चुनाव लड़ाने का फैसला किया। इसके अलावा नरसिंहपुर से प्रहलाद सिंह पटेल, जबलपुर (पश्चिम) से राकेश सिंह, सीधी से रीति पाठक, सतना से गणेश सिंह, निवास सीट से फग्गन सिंह कुलस्ते और गाडरवारा से उदय प्रताप सिंह को उम्मीदवार बनाया गया। सात सांसदों और पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव के नाम इसी पर प्रसंग में देखे जा सकते हैं। यहां तक कि पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह भी जबलपुर (पश्चिम) से चुनाव लड़ेंगे। ये उन सीटों के उम्मीदवारों की लिस्ट है जहां से भाजपा 2018 में चुनाव हारी थी। वैसे 230 सीटों वाली विधानसभा में अभी तक 78 उम्मीदवारों की घोषणा भारतीय जनता पार्टी कर चुकी है। अभी भी 152 सीटों पर उम्मीदवार घोषित किए जाने हैं। इसलिए कयास लगाए जा रहे हैं, कि पार्टी कई और बड़े नामों को मैदान में उतार सकती है। इस सूची में इमरती देवी समेत ज्योतिरादित्य सिंधिया के पांच समर्थकों के नाम भी हैं। जबकि, 11 नए चेहरों को भी जगह मिली। 
   इस लिस्ट की दूसरी चौंकाने वाली बात है उम्मीदवारों की लिस्ट में कैलाश विजयवर्गीय का नाम होना। वे पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं और पार्टी के बड़े नेता हैं। उन्हें इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-एक से चुनाव मैदान में उम्मीदवार बनाया गया। वे कांग्रेस के संजय शुक्ला के सामने चुनाव लड़ेंगे। कैलाश विजयवर्गीय का मैदान में उतरना यह दर्शाता है कि पार्टी इस बार जीत का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती। फिर चाहे उसे किसी को भी चुनाव लडना पड़ेगा। 
      इस बात को याद किया जा सकता है, कि कैलाश विजयवर्गीय ने कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के सामने छिंदवाड़ा से चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की थी। उन्होंने कहा था कि यदि पार्टी कहेगी तो मैं छिंदवाड़ा जाकर चुनाव लड़ना चाहूंगा। लेकिन, उन्हें उन्हीं के शहर में कांग्रेस के एक ताकतवर उम्मीदवार के सामने उतार दिया गया। इस वजह से इंदौर के क्षेत्र-एक का चुनाव बेहद रोचक और रोमांचक हो गया। क्योंकि, दोनों ही उम्मीदवार किसी भी मामले में एक दूसरे से कम नहीं हैं।
     भाजपा की दूसरी सूची में सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इसमें पांच ऐसे वरिष्ठ नेताओं को टिकट दिया गया, जो मुख्यमंत्री पद के दावेदार माने जा सकते हैं। ये हैं नरेंद्र तोमर, प्रहलाद सिंह पटेल, फग्गन सिंह कुलस्ते, कैलाश विजयवर्गीय और राकेश सिंह। यदि प्रदेश में भाजपा की सरकार बनती है, तो यह माना जाना चाहिए कि इनमें से कोई न कोई मुख्यमंत्री बन सकता है। नरेंद्र तोमर को चुनाव की जंग में उतारने का सीधा आशय यही लगाया जा रहा। 230 सीटों में से अभी भाजपा ने 78 उम्मीदवार घोषित किए हैं। दूसरी लिस्ट में जिस तरह के उम्मीदवारों के नाम हैं, उससे साबित होता है कि होने वाला विधानसभा चुनाव बेहद रोमांचक होगा।
    दूसरी सूची में नाम हैं, उससे ये तो स्पष्ट हो गया कि भाजपा ने जिन बड़े नेताओं को मैदान में उतारा है, वे पार्टी की रणनीति भी दर्शाते हैं। भाजपा ने अपने करीब सभी भारी भरकम नेताओं को दांव पर लगाकर अपनी जीत जिद को तो दिखा दिया, पर किसी को मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बताया। यहां तक कि नरेंद्र तोमर भी लिस्ट में शामिल हो गए, जिन्हें भाजपा ने चुनाव अभियान की कमान सौंपी है। इन नेताओं के अनुभव और कार्यशैली से निश्चित रूप से शिवराज सिंह प्रभावित होंगे। यह भी साबित हो गया कि यदि भाजपा की सरकार भी बनी, तो भी शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री की कुर्सी का दावेदार नहीं बनाया जाएगा। शिवराज सिंह के विकल्प के रूप में नरेंद्र सिंह तोमर का नाम पहले भी सामने आ चुका है। 
    केंद्रीय मंत्रियों को विधानसभा चुनाव के मैदान में उतारने के पीछे भाजपा की मजबूरी कही जाए या रणनीति! पर, पार्टी का यह प्रयोग उसकी कमजोरी ज्यादा नजर आ रहा है। दूसरी लिस्ट से यह भी साफ हो गया कि पार्टी के आलाकमान शिवराज सिंह चौहान को लेकर बहुत ज्यादा गंभीर नहीं है। जब कैलाश विजयवर्गीय की उम्मीदवार दूसरी लिस्ट से सामने आई, तो उन्होंने भी आश्चर्य व्यक्त किया। उनका कहना था कि ये पार्टी का आदेश है। मुझसे कहा गया था कि मुझे कोई ज़िम्मेदारी दी जाएगी और मुझे ना नहीं करना है। जब सूची जारी की गई, तो मुझे भी आश्चर्य हुआ। मैं संगठन का सिपाही हूँ, जो कहा जाएगा, वही करूंगा। 
    अभी तक जो 78 टिकट घोषित किए गए, उनमें सबसे ज़्यादा 22 मालवा और निमाड़ अंचल के हैं। ये भाजपा और संघ का पुराना गढ़ रहा है। इसके बाद महाकौशल के 18 उम्मीदवारों की घोषणा की गई। जबकि, ग्वालियर-चंबल संभाग से 15 नामों की घोषणा हुई। इस सूची से एक बात और स्पष्ट हुई कि पार्टी को 'सत्ता विरोधी लहर' का अंदेशा है और उससे निपटने के लिए उसके पास यह आखिरी तीर था, जिसे चला दिया गया। अब कहीं ऐसा न हो कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी किसी विधानसभा सीट से उतार दिया जाए। 
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Saturday, September 23, 2023

फार्मूलों की मसालेदार भेल से बना 'जवान' का जलवा

- हेमंत पाल


     फिल्मों की एक सबसे बड़ी खामी यह होती है, कि यहां कलाकारों के लिए परदे पर अपनी पहचान बदलना मुश्किल होता है। दर्शक जिस कलाकार को एक बार जिस भूमिका में पसंद करने लगते हैं, वे उसे अलग किरदार में देखना नहीं चाहते। प्राण, विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे विलेन को अपनी नई पहचान बनाने में बरसों लग गए। लेकिन, ऐसा कोई हीरो नजर नहीं आता, जिसने अपनी पूरी इमेज ही बदल दी हो! बरसों तक जिसे रोमांस का किंग कहा जाता हो, वो अचानक एक्शन अवतार में परदे पर उतर आया! ये है शाहरुख़ खान, जिन्होंने अपने करियर में ज्यादातर फिल्मों में हीरोइन के साथ रोमांस किया, पर बढ़ती उम्र में अब वे मारधाड़ करते दिखाई दे रहे हैं। पहले 'पठान' और अब 'जवान' ने शाहरुख़ को उस मोड़ पर ला खड़ा किया, जहां से उनकी रोमांटिक इमेज की दुनिया का रास्ता बदल गया। 'जवान' से पहले आई 'पठान' की सफलता के साथ कई फैक्टर जुड़े थे। करीब चार साल बाद आई इस फिल्म के साथ यह जुमला भी जुड़ा था कि यदि शाहरुख़ इसमें फेल हुए तो उनके लिए अगली फिल्म के दरवाजे बंद हो जाएंगे। लेकिन, 'पठान' की आसमान फाड़ सफलता ने ऐसा नहीं होने दिया। इसके बाद अब आई 'जवान' ने पिछली फिल्म सफलता को आगे बढ़ाया है। जबकि, कथानक के स्तर पर दोनों ही फिल्मों की कहानियां बेहद कमजोर कही जा सकती है। ये भी कहा जा सकता है कि ये दोनों फ़िल्में और खासकर 'जवान' अपनी कहानी की वजह से नहीं चली, बल्कि शाहरुख के स्टार पवार की वजह से चली।                   
       फिल्म के 'जवान' नाम से भ्रम होता है, कि ये सेना से जुड़ी कहानी वाली कोई फिल्म होगी। लेकिन, यह फिल्म सेना से लगाकर किसान और राजनीति तक की भटकी कहानी नजर आती है। कहानी में इतने ज्यादा मोड़ हैं, कि ये भूल-भुलैया ज्यादा लगती है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो फिल्म का कथानक और संवाद दर्शकों की तालियों को ध्यान में रखकर ही लिखे गए हैं। दरअसल, इस फिल्म में सामाजिक मुद्दों पर चोट करने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया। जब, जहां मौका मिला व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया। वैसे भी दर्शक शाहरुख के ऐसे किरदारों पर ज्यादा तालियां पीटते हैं, जो व्यवस्था विरोधी होते हैं। फिल्म इतने फार्मूलों की भेल बना दी कि 'वन नेशन-वन इलेक्शन' भी निम्बू की तरह निचोड़ दिया गया। फिल्म का एक संवाद है 'बेटे को हाथ लगाने से पहले बाप से बात कर!' इसे शाहरुख़ के बेटे के कथित ड्रग मामले से जोड़कर देखा गया। शायद यही कारण रहा कि दर्शकों को यह मसालेदार भेल पसंद आई। रोमांस किंग की ये फिल्म एक फुल एंटरटेनिंग फिल्म है, जिसमें वे सारे तत्व हैं, जो किसी भी फिल्म को हिट करवाने के लिए आजमाए जाते हैं। फिल्म में रोमांस, मारा-मारी और देखने वालों को जोड़ने वाले डायलॉग से 'पठान' के बाद शाहरुख की जो अलग सी पहचान बनी है, वो कहीं न कहीं दर्शकों के दिल में उतर गई।
       किसी ने सोचा नहीं होगा कि 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' जैसी फिल्म में मोहब्बत का नया अंदाज दिखाने वाला नायक एक दिन हाथ में बंदूक लेकर फूल एक्शन दिखाई देगा। मोहब्बत करने वालों को नई सोच देने वाला ये नायक जिसने मोहब्बत के दुश्मनों को भी यह कहने पर मजबूर कर दिया था '...जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी!' ये सच है कि इस फिल्म को आए बरसों हो गए। उसके बाद समय बदला, माहौल बदला और जिस नायक की रोमांटिक पहचान थी, उसके करियर में भी कई उतार-चढाव आए। लेकिन, अब उसका नया अवतार सामने आ गया। शाहरुख 2018 में आखिरी बार 'जीरो' में नजर आए थे। लेकिन, यह फिल्म दर्शकों की उम्मीद पर खरी नहीं उतरी और इसके बाद चार साल तक शाहरुख़ खान दिखाई नहीं दिए! बेटे के ड्रग मामले में कथित रूप से फंसने पर जरूर उनकी चर्चा हुई, पर वो प्रसंग अलग था। इसके बाद जब 'पठान' की रिलीज हुई, तब भी माहौल में नेगेटिविटी ही थी। यहां तक कि फिल्म के बॉयकॉट तक की चर्चा चली, पर बाद में जो हुआ उसने नया इतिहास रच दिया। फिर 'जवान' ने उसी कहानी को आगे बढ़ाया।    
    'दीवाना' से अपना करियर शुरु करने वाले इस रोमांटिक नायक के दिल कहीं न कहीं एक्शन हीरो बनने की चाहत दिल में दबी थी। उनकी ये हसरत 'पठान' से पूरी हुई। अब 'जवान' ने उसी नायक को स्थापित कर दिया। बाजीगर, राजू बन गया जेंटलमैन, डर, कभी हां कभी ना और 'अंजाम' वे फ़िल्में थी जिनसे शाहरुख़ को रोमांस के हीरो की पहचान मिली। ऐसा भी समय था जब उन्हें सिर्फ रोमांटिक किरदारों के लायक ही समझा जाता रहा। ऐसे समय में शाहरुख खान अपनी चॉकलेटी इमेज को तोड़ने की कोशिश में लगे थे। लेकिन, किसी ने भी उन्हें एक्शन, थ्रिलर जैसी फिल्मों के लिए साइन करने की हिम्मत नहीं की। क्योंकि, दर्शकों के नकारे जाने का भय ज्यादा था। शाहरुख़ खुद स्वीकारते हैं कि मैं एक्शन फिल्म करना चाहता था, पर कोई मुझे ऐसी फिल्मों में ले नहीं रहा था।  पर, मैंने सोच लिया था कि कुछ सालों में मुझे एक्शन फिल्में ही करना हैं। वे तो 'मिशन इम्पॉसिबल' जैसी ओवर-द-टॉप फिल्में भी करना चाहते हैं। पहले 'पठान' और उसके बाद 'जवान' की सफलता ने शाहरुख़ की यह इच्छा तो पूरी कर ही दी।
       पहले 'पठान' और अब 'जवान' से शाहरुख खान के नाम का नगाड़ा बज रहा है। इस हीरो ने कमाई के मामले में खुद की ही फिल्म का रिकॉर्ड तोड़ दिया। 'जवान' ने अपनी ओपनिंग वाले दिन से ही बंपर कमाई की। जबकि, चार-पांच साल पहले शाहरुख एक हिट फिल्म को तरस रहे थे। साल 2016 में आई 'फैन' दर्शकों का दिल नहीं जीत पाई और फ्लॉप हो गई। 2018 में आई 'जीरो' को भी दर्शकों ने नकार दिया था। 200 करोड़ रुपये के बजट वाली ये फिल्म अपनी लागत भी नहीं निकाल सकी थी। दर्शकों की ये प्रतिक्रिया भी सामने आई थी कि अब रोमांस का ये किंग बूढ़ा हो गया। अब उसका हीरोइन के साथ मोहब्बत करना गले नहीं उतरना। 
        इसके बाद चार साल बाद शाहरुख ने अपना चोला बदल लिया और अंदर से जो नया शाहरुख निकला उसकी आंखों से खून टपक रहा है। इन दो फिल्मों को शाहरुख खान के करियर के सहारे के रूप में भी समझा जा सकता है। इमेज के मामले में भी और कमाई के नजरिए से भी। शाहरुख खान और विजय सेतुपति की इस फिल्म ने अभी तक 600 करोड़  कमाई कर ली। अभी कमाई का ये आंकड़ा थमा नहीं है। इस साल (2023) में आई पठान, जवान और इस जैसी कुछ फिल्मों को इसलिए भी याद किया जाएगा कि जिन्होंने कोरोनाकाल के बाद सिनेमाघरों में आई मायूसी को काफी हद तक छांट दिया। इसलिए कि कोरोना हमले के बाद लंबे अरसे तक दर्शकों ने सिनेमाघरों से मुंह मोड़ लिया था। इसका कारण ओटीटी के बढ़ते दायरे को भी माना गया, पर अब सामने आया कि ये भ्रम था। दर्शकों का फिल्मों से मोहभंग नहीं हुआ था। वे छूत की बीमारी से घबराने के साथ-साथ ऐसी फिल्मों का इंतजार कर रहे थे, जो उन्हें फुल इंटरटेनमेंट दे सके! अब लगता है, दर्शकों का वो इंतजार ख़त्म हो गया। इस साल को ऐसी फिल्मों के लिए  किया जाएगा, जिसे दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। अब पहले दिन से सिनेमाघरों की सीटें बुक होने लगी है, जो एक अच्छा संकेत है।            
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छत पर छलांग लगाती फिल्में और उछलकूद करते गाने!

हेमंत पाल

    इस दुनिया में कई चीजें ऐसी हैं, जिनका संबंध हमारे जीवन से जुड़ा होता है। चाहे वह घर हो, आंगन हो या घर की प्यारी सी छत ही क्यों न हो। छत पर जीवन की कई प्रिय और अप्रिय घटनाएं घटती हैं। सर्दियों में लोग छत पर धूप सेंकते दिखाई देते हैं, तो कभी तनहाई में तारे गिनते नजर आते हैं। यही छत है जिस पर रात-बेरात होने वाली हलचल सांसे बढा देती है। इसी छत पर बरसती चांदनी रात सुकून देती है। कहने का मतलब यह है कि छत हमारे जीवन हमारे और हमारे सुख-दुख का अभिन्न अंग है। जब हम छत से जुड़े रहते हैं, तो सिनेमा की नजर इस छत से अछूती कैसे रह सकती है। ऐसी दर्जनों फिल्में हैं जिनमें छत ने अहम भूमिका निभाई हैं। कई फिल्मों के गीतों में छत को कई तरह से जोड़ा गया। ऐसा नहीं कि छत का संबध केवल फिल्मों में अभिनेत्रियों तक ही सीमित है। यह छत कई बार फिल्मकारों के लिए अभिशाप भी बनकर आई। इसी छत से कूदकर मनमोहन देसाई ने आत्महत्या की थी, इसी छत ने दिव्या भारती जैसी अभिनेत्री को छिन लिया। 'तीसरी मंजिल' और 'बाजीगर' की कहानी ही लड़कियों को छत से धकेलने से शुरू हुई थी। 'दीवाना' में शाहरुख खान छत से टपक कर प्यार के लिए बलिदान करता है, तो 'तेजाब' का नायक इतना झकास है कि वो प्रेमिका को पटाने की खातिर छत से छलांग लगा देता है।
      वैसे तो छत केवल दो अक्षरों का शब्द हैं, लेकिन इन दोनों में अक्षरों में 14 से लेकर 24 रीलों की फिल्में समाई होती है। ऐसी कई फिल्में हैं, जिनमें छत का बहुत उपयोग किया गया। फिल्मों में कहीं तो छत प्रेमियों का मिलन स्थल होता है, तो कहीं बदमाशों के छिपने का ठिकाना। कई हिंदी फिल्मों की छतों पर कई एक से बढ़कर एक गीत फिल्माए गए। इन्हीं छतों छुप छुपकर प्रेम प्रसंग भी दिखाए। कई फिल्मों में नायक और खलनायक के बीच उठा पटक का नजारा भी दर्शकों ने यहीं देखा। इसी छत पर बरसात में नायक-नायिका मदमस्त होकर भीगते रहते हैं, तो छत पर खड़ी उदास नायिका अपना विरह गीत भी इसी छत पर गाती दिखाई देती है। हॉरर फिल्मों में भी छत पर सफेद कपड़ों में मोमबत्ती थामें रहस्यमी स्त्री दर्शकों के रोंगटे खड़े कर देते है। रामसे ब्रदर्स की कई फिल्मों में छत पर ऐसे डरावने दृश्य देखे गए। 
    जब से फ़िल्में बनना शुरू हुआ, घरों और महलों की छतें कथानक का प्रमुख हिस्सा रही। यदि सिनेमा के स्वर्णयुग की बात की जाए, तो इस दौर की तिकडी देव आनंद, दिलीप कुमार और राज कपूर ने भी कई फिल्मों में छत का दीदार किया है। इस तिकड़ी में देव आनंद ऐसे कलाकार थे, जिनका छत से कुछ ज्यादा ही नाता रहा है। उनकी फिल्मों के कई हिट गीत फिल्मों में फिल्माए गए, तो किसी फिल्म के क्लाइमेक्स में भी छत का इस्तेमाल किया गया। देव आनंद की फिल्मों में छत पर फिल्माए गीतों में 'असली नकली' का तेरा मेरा प्यार अमर, 'लव मैरिज' का कहां जा रहे थे कहां आ गए हम और धीरे धीरे चल चांद गगन में था। 'माया' का तस्वीर तेरी दिल में, 'बारिश' का कहते हैं प्यार किसको पंछी जरा बता दे काफी लोकप्रिय हुए हैं। विजय आनंद की फिल्म 'नौ दो ग्यारह' के क्लाइमेक्स में जब खलनायक सभी को बंदूक की नोक पर रखकर अल्टीमेटम देता है, तब देव आनंद के पास छत से नीचे कूदने के लिए एक मिनिट का समय रहता है। विजय आनंद ने इस एक मिनिट के दृश्य को घड़ी के कांटों के साथ इतनी खूबसूरती से फिल्माया था कि दर्शक सीट से चिपके रहते हैं।
      राज कपूर का भी छत से नजदीकी रिश्ता रहा। फिल्म ’छलिया’ में डम डम डिगा डिगा छत पर खड़े राज कपूर दर्शकों को गुदगुदाते हैं। इसी फिल्म के क्लाइमेक्स में राज कपूर और प्राण की धुआंधार लड़ाई भी छत पर ही होती है। इस तिकडी के तीसरे नायक दिलीप कुमार की फिल्म 'नया दौर' का ओपी नैयर के संगीत निर्देशन में 'तुझे चांद के बहाने देखूं, तू छत पर आजा गोरिए' पैरों को थिरकने को मजबूर कर देता है। राजेश खन्ना की फिल्म 'अजनबी' में दो गीत छत पर ही फिल्माए गए थे। पहले गीत 'एक अजनबी हसीना से मुलाकात हो गई' में प्रेम की शुरूआत थी, तो 'भीगी भीगी रातों में' दोनों को पानी में मस्त होकर भीगते हुए दिखाया था। 'करण अर्जुन' का आइटम सांग 'छत पर सोया था बहनोई में तुझे समझ के आ गई, मुझको लाला जी माफ करना गलती मारे से हो गई’ भी छत की महिमा मंडित करता है। 'निकाह' फिल्म का गीत 'दोपहर की धूप में वो तेरा छत पर नंगे पैर आना याद है' प्रेम के अतिरेक को शिद्दत के साथ प्रस्तुत करता है। इसी छत को जब अटारी कहा जाता है, तो गीतकार 'मोरी अटरिया पर कागा बोले' जैसे गीत लिख डालते हैं। तो कभी 'छत के ऊपर दो कबूतर' जैसे गीत प्रेम प्रसंग को परिभाषित करते दिखाई पड़ते हैं।
    अब गानों का ज़िक्र छिड़ा है, तो याद करें कि छत पर फिलमाए गानों का पिक्चराईज़ेशन भी कमाल का होता था। फिर चाहे वो 'छोटी सी आशा' हो या फिर 'छैंया-छैंया!' यह गाना अपने खूबसूरत ददृश्यों के कारण हमेशा याद किया जाता है। हरी-भरी वादियों में ट्रेन की छत पर मटक कर गाती मलाइका अरोड़ा की पहचान ही उस गाने की बदौलत ही इंडस्ट्री में बनी थी। विनोद संधू की फिल्म 'एजेंट विनोद' टेरर पर आधारित फिल्म थी, जिसमें एक मधुर गाना रचा गया था ’कुछ तो है तुझसे राब्ता’ गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य और संगीतकार प्रीतम द्वारा रचित इस गीत को निर्देशक श्रीराम राघवन ने अद्भुत तरीके से फिल्म में जगह दी थी।
      पारिवारिक फिल्मों में भी छत फिल्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रही है। राजश्री की फिल्मों में सारा परिवार छत पर बैठा कभी पकवानों का लुत्फ लेता है, तो कभी बैठकर अंताक्षरी या गाने बजाने की महफिल सजा लेता है। करण जौहर की फिल्मों में भी इसी छत पर करवा चौथ के दृश्यों को बहुत खूबसूरती से फिल्माया गया। इसके बाद तो कई फिल्मों में नायिकाएं छत पर छलनी में दीया रखकर अपने पति का चेहरा देखते दिखाई देती है या छलनी लिए इंतजार करती दिखाई देती हैं। जबकि, पति सौतन के साथ दूसरी छत पर मौजूद होता है। सलमान की फिल्म 'बीबी नंबर-वन' में ऐसा ही दृश्य था, तो 'घर वाली बाहर वाली' में भी छत पर ऐसा ही प्रसंग फिल्माया गया था।
     बहुत सी फिल्में ऐसी है, जिनमें छत से पतंग उड़ाई गई। सलमान खान 'सुल्तान' में छत पर पतंग लूटते दिखाई पडते है, तो 'हम दिल चुके सनम' में चुपके चुपके ऐश्वर्या से प्रेम करते दिखते हैं। 'एक था टाइगर' में भी सलमान ने एक छत से दूसरी छत पर छलांग लगाने के कारनामे दिखाए थे।  'दिल्ली-6' में भी छत पर कई पारिवारिक सीन फिल्माए गए थे। राजकुमार भी 'वक्त' और 'एक से बढकर एक' में छत पर ऐसे ही कारनामे दिखा चुके हैं। देश-विदेश में जितनी भी ऐसी फिल्म जिनमें म्यूजियम से बेशकीमती हीरो की चोरी दिखाई गई, उनमें हीरो अक्सर छत से ही आता है। फिल्मों में ऐसे कई सीन दर्शकों ने देखे होंगे, जिनमें छतों का अच्छा उपयोग किया गया। धर्मेंद्र की फिल्म 'जुगनू' में भी चोर बना नायक छत से लटककर ही कड़ी सुरक्षा में रखा हीरा उड़ा ले जाता है। 
      मकानों की छत, कभी ट्रेन में डकैती या लूटपाट करके भागते अपराधियों पर अनगिनत फिल्में बनी हैं। ’द ग्रेट ट्रेन रॉबरी’ थीम पर कई हिंदी फ़िल्में बनी। इन फिल्मों के सीन देखकर कई बार दर्शकों के रौंगटे खड़े हो जाते हैं। होमी वाडिया की फिल्म में वाडिया का घोड़ा चलाती हुई रेलगाड़ी की छत पर सरपट भागती है। उस दौर में ट्रिक फोटोग्राफी जैसा कुछ नहीं था, इसके बावजूद रेल की छत पर ऐसे दृश्य फिल्माए जाते रहे। 'शोले' का शुरूआती दृश्य भी ऐसा ही था, जिसमें संजीव कुमार के साथ अमिताभ और धर्मेंद्र ट्रेन पर हुए डाकुओं के हमले को ट्रेन की छत से ही नाकामयाब करते हैं। सलमान खान की ’टाइगर-3’ में भी वे छत पर एक्शन सीन करते नजर आएंगे। 'पठान' में जब सलमान खान टाइगर के कैरेक्टर में शाहरुख़ खान की मदद करने आते हैं, तो एक सीन ये आता है, जब ट्रेन नीचे खाई में गिरती है और दोनों छत की साइड पकड़कर लटके होते हैं। अभी कई फिल्मों में छत के ऐसे कई सीन और गाने आना बाकी है, जिनमें 'छत' छायी रहेगी।    
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Wednesday, September 20, 2023

हमेशा जोड़ियों से जगमगाती रही फिल्मों की दुनिया!

- हेमंत पाल

     फिल्मों में जोड़ियों का अपना इतिहास रहा है। दर्शकों को भी ये जोड़ियां इतनी पसंद आती है, कि वे इनकी फ़िल्में नहीं छोड़ते। फिल्म बनाने वाले भी दर्शकों की रूचि का ध्यान रखते हुए अपनी फिल्मों में बार-बार इन्हीं जोड़ियों को आजमाते रहे हैं। दिलीप कुमार-वैजंतीमाला और दिलीप कुमार-मधुबाला से लगाकर धर्मेंद्र-हेमा मालिनी, राजेश खन्ना-शर्मीला टैगोर और गोविंदा-करिश्मा कपूर तक की जोड़ी ने कई हिट फ़िल्में दी। परदे पर जैसे ही नायक-नायिकाओं की जोड़ी हिट होती है, दर्शक उन्हें हमेशा साथ देखना चाहता है। फिल्म के परदे पर अपना जादू बिखरने वाली ऐसी कई जोड़ियां ऐसी हैं, जिन्होंने अपने निजी जीवन में भी परदे के रोमांस को जारी रखा और पति-पत्नी की जोड़ी बन गए। दूसरी तरफ कई जोड़ियाँ ऐसी हैं जिनके बारे में लोग अनुमान ही लगाते रह गए, लेकिन जीवन में उन्होंने अपना अलग साथी चुन लिया। 
     अक्षय कुमार और रवीना टंडन की भी कई फ़िल्में हिट हुई। लेकिन, लंबे अरसे से दोनों की कोई फिल्म नहीं आई। अब 19 साल बाद फिल्म 'वेलकम-3' में ये जोड़ी फिर दिखाई देगी। एक समय था, जब ये जोड़ी फिल्म देखने वालों की आंख का तारा थी। 90 के दशक में तो इस जोड़ी को दर्शकों का बेहद पसंद किया गया। यहां तक कि असल जिंदगी में भी दोनों एक-दूसरे का काफी नजदीक आ गए थे। इनके प्रेम के चर्चों पर भी खूब गॉसिप बनते रहे। दोनों पहली बार 1994 में फिल्म 'मोहरा' में साथ आए थे। इस दौरान दोनों में नजदीकियां बढ़ी और इसके चर्चे हुए। यहां तक कहा जाता रहा कि दोनों ने सगाई कर ली। लेकिन, फिर कुछ ऐसा हुआ कि दोनों के रास्ते बदल गए। दोनों के रिश्तों में ऐसी कड़वाहट घुल गई कि फिर इन दोनों को दर्शकों ने किसी फिल्म में साथ नहीं देखा। अब इतने साल बाद शायद दोनों के गिले-शिकवे दूर हो गए और वे फिर साथ काम करने के लिए तैयार हैं।  
      जब भी फिल्मों की बेहतरीन जोड़ियों की बात आती है, तो पहला नाम आता है वह है राज कपूर और नर्गिस दत्त का। इन्होंने 16 फिल्में एक साथ की, जिनमें 6 फिल्में आरके बैनर ने ही बनाई थी। उस कालजयी दृश्य के बारे में तो सभी जानते हैं जिसमें 'बरसात' (1949) में नर्गिस राज कपूर की बाहों में आकर गिर जाती हैं। दृश्य के लिहाज से ये काफी सुंदर दृश्य उभरकर सामने आया, जिसकी खूब चर्चा हुई। इससे राज कपूर भी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसे अपने बैनर 'आरके फिल्म्स' का प्रतीक चिह्न बना दिया। इस जोड़ी की 'ऑन स्क्रीन कैमेस्ट्री' देखना है, तो 'आवारा' का गाना दम भर जो उधर मुंह फेरे या 'श्री 420' का गाना 'प्यार हुआ इकरार हुआ' देखा जाना चाहिए। इसमें उनके अभिनय की वो ऊंचाई दिखाई देती है, जो अभिनय नहीं, बल्कि सच में दोनों प्रेमी नजर आते हैं। 
    ऐसी ही एक जोड़ी वहीदा रहमान-गुरु दत्त की भी रही। ये हिंदी फिल्मों की दूसरी रूमानी जोड़ी थी। गुरु दत्त ने पहली बार 'प्यासा' में वहीदा रहमान के साथ काम किया। एक तरफ जहां राज कपूर और नर्गिस ने हमेशा अपने फिल्मी जीवन और वास्तविक जीवन के संबंधों को अलग अलग करके रखा, वहीं गुरु दत्त अपने रोमांस में पर्दे और वास्तविक जीवन का फर्क भुला बैठे। इस वजह से उनकी पत्नी गीता दत्त से उनका संबंध खराब हो गया और वहीदा रहमान ने भी उनसे ‘साहब बीबी और गुलाम’ (1962) के बाद खुद को अलग कर लिया। नतीजा यह हुआ कि गुरु दत्त ने एक रोज इतनी नींद की गोलियाँ खा ली कि 10 अक्तूबर 1964 को महज 39 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई। 'प्यासा' (1957) में दर्शकों ने पहली बार परदे पर गुरु दत्त और वहीदा रहमान की फिल्मी जोड़ी को देखा और ये हिट हो गई। इसके बाद उन्होंने कागज के फूल (1959), चौदहवीं का चाँद’ (1960) में भी इस जोड़ी ने यादगार भूमिकाएं निभाईं। 
     फिल्मों की सबसे हरदिल अजीज जोड़ी मधुबाला और दिलीप कुमार को समझा जाता है। परदे पर परदे से बाहर ये दोनों कलाकार हसीन रोमांटिक जोड़ी के रूप में उभरकर सामने आए। लेकिन, अफसोस की बात ये कि इनकी जोड़ी पांच साल ही टिक पाई, फिल्मों में भी और जिंदगी में भी। इस जोड़ी ने सिर्फ चार फिल्मों में नायक और नायिका के तौर पर साथ में काम किया। ये फ़िल्में थीं तराना (1951), संग दिल (1952), अमर (1954) और मुगले आजम (1960)। लेकिन, बीआर चोपड़ा की 'नया दौर' (1957) से मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच दूरियां बढ़ने लगीं। इस फिल्म में पहले बतौर नायिका मधुबाला को काम करना था। लेकिन, उन्होंने मध्य प्रदेश में होने वाली शूटिंग में भाग लेने से मना कर दिया। इस पर बीआर चोपड़ा ने उन पर केस कर दिया और मधुबाला केस हार गईं और यह खूबसूरत जोड़ी हकीकत में भी टूट गई। 
       सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली जोड़ियों में धर्मेंद्र-हेमा मालिनी भी हैं। इस जोड़ी को परदे के साथ निजी जिंदगी में भी दर्शकों ने चाहा! इन्होंने करीब 28 फिल्मों में साथ काम किया। जिनमें ज्यादातर बॉक्स ऑफिस पर हिट रहीं। इनमें शराफत, राजा जानी, सीता और गीता, पत्थर और पायल, शोले, आजाद, सम्राट, और रजिया सुल्तान जैसी फ़िल्में हैं। धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी ने परदे की दुनिया से बाहर आकर अपने रोमांस को शादी में तब्दील किया। फिल्म इंडस्ट्री की यह एक मात्र जोड़ी है जो इतनी लंबी चली और अभी तक चल रही है। सिनेमा के परदे के बाद निजी जीवन में ऋषि कपूर और नीतू सिंह की जोड़ी भी बेहद चर्चित रही। धर्मेन्द्र-हेमा मालिनी की कामयाब जोड़ी के बाद नीतू सिंह और ऋषि कपूर की ऐसी जोड़ी है जिसमें पर्दे पर भी सबका दिल जीता और असल जिंदगी में भी। इस जोड़ी ने 11 हिट फिल्में साथ में की, जिनमें रफू चक्कर, खेल खेल में, कभी कभी, अमर अकबर एंथोनी और 'दूसरा आदमी' प्रमुख हैं। इसके बाद ये दोनों 'दो दूनी चार' और 'जब तक है जान' (2012) में भी दिखाई दिए। लेकिन, ईश्वर ने ऋषि कपूर को असमय छीनकर इस जोड़ी को तोड़ दिया। 
    परदे की एक पसंदीदा जोड़ी राजेश खन्ना और शर्मीला टैगोर की भी रही। शक्ति सामंत ने पहली बार 1969 में 'आराधना' में इन्हें साथ लिया था। इस कामयाब जोड़ी ने एक के बाद लगातार कई हिट फिल्में दी। 1972 में 'अमर प्रेम' के अलावा इस जोड़ी ने सफर, छोटी बहू, राजा रानी, दाग और त्याग जैसी कई हिट फिल्में दीं। अपनी करिश्माई कैमेस्ट्री के लिए अमिताभ बच्चन और रेखा की जोड़ी को आज भी याद किया जाता है। 1981 में आई फिल्म 'सिलसिला' के बाद ये जोड़ी हमेशा के लिए टूट गई। इस जोड़ी की करीब सभी फिल्में हिट रहीं, जिनमें दो अंजाने, खून पसीना, मुकद्दर का सिकंदर, मिस्टर नटवर लाल और 'सुहाग' के नाम लिए जा सकते हैं।
     नए ज़माने के दौर में 90 के दशक में जिस जोड़ी ने दर्शकों को प्रभावित किया, उनमें सबसे अहम है माधुरी दीक्षित और अनिल कपूर की जोड़ी। ड्रामेबाजी वाली फिल्मों में यह जोड़ी सबसे ज्यादा कामयाब रही। इस जोड़ी ने तेजाब, पुकार, राम लखन, परिंदा, किशन कन्हैया, जीवन एक संघर्ष और 'बेटा' जैसी ब्लॉक बस्टर फिल्में दीं। इसी के साथ जो जोड़ी पसंद की गई वो रही काजोल और शाहरुख खान की केमिस्ट्री। इन दोनों की जोड़ी में गजब का तालमेल रहा। काजोल ने तो अपने पति अजय देवगन के साथ भी कई फिल्में की, लेकिन ऑन स्क्रीन जो जुड़ाव शाहरुख और काजोल की जोड़ी में रहा, वो किसी और जोड़ी में देखने को नहीं मिला। 1993 में आई 'बाजीगर' में पहली बार शाहरुख और काजोल की जोड़ी आई थी। इसके बाद 'दिलवाले' तक ये जोड़ी साथ दिखी है। इस जोड़ी की सभी फिल्में बॉक्स ऑफिस हिट रहीं। इनमें करण अर्जुन, दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे, कुछ कुछ होता है, कभी खशी कभी गम और 'माई नेम इज खान' शामिल हैं। फिल्म इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा गुदगुदाने वाली जोड़ी की जब भी बात होगी, तो करिश्मा कपूर और गोविंदा को ही याद किया जाएगा। इन दोनों की अदाकारी का बेहतरीन उपयोग निर्देशक डेविड धवन ने किया। यह जोड़ी सबसे पहले टी रामाराव की फिल्म 'मुकाबला' (1993) में दिखाई दी। लेकिन, उसके बाद राजा बाबू, कुली नं-1, साजन चले ससुराल, हीरो नं-1, हसीना मान जाएगी जैसी फिल्मों में इस जोड़ी ने जबरदस्त काम किया।  
     कलात्मक सिनेमा के दौर में सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली जोड़ियों में दीप्ति नवल और फारुख शेख रही। मध्यमवर्गीय कथानकों में इन दोनों का संगम हमेशा आकर्षण का केंद्र बना रहा। इसलिए कि दर्शकों को इनमें अपनी छवि दिखाई देती थी। एक सामान्य सी मोहल्ले वाली इस जोड़ी की अधिकांश फ़िल्में गुदगुदाने वाली रही। इस जोड़ी ने सभी हिट, ब्लॉक बस्टर हिट तो नहीं दी। लेकिन, हिट कही जा सकने वाली फिल्में जरूर दी। इनमें 1981 में आई 'चश्मे बद्दूर' तो कॉमेडी फिल्मों के लिए बेंच मार्क है। 2013 में इस फिल्म का रिमेक बनाने की जरूरत महसूस हुई। इसके अलावा साथ-साथ, कथा, किसी से न कहना, एक बार चले आओ और 'रंग बिरंगी' जैसी फिल्मों में ये जोड़ी दिखाई दी। इसके अलावा करीना कपूर और शाहिद कपूर की जोड़ी को भी दर्शकों ने पसंद किया। लेकिन, बहुत कम समय के लिए इस जोड़ी ने परदे पर जादू बिखेरा। 'जब वी मेट' इस जोड़ी की सबसे बेहतरीन फिल्म मानी जाती है। 2004 में ‘फिदा’ जैसी क्राईम थ्रिलर से इस जोड़ी ने अपनी शुरुआत की और फिर ये जोड़ी टूट गई। अब न तो जोड़ियों का दौर है और न उस तरह की फिल्मों का जिनमें इस तरह की जोड़ियों का जादू दिखाई दे। 
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मध्यप्रदेश समेत 5 राज्यों के चुनाव होंगे या टलेंगे?

- हेमंत पाल 

   ध्य प्रदेश समेत देश के पांच राज्यों में अगले 3 महीने बाद चुनाव होने की रूपरेखा बना रही है। राजनीतिक पार्टियां भी उसी के मुताबिक अपनी रणनीतियां बनाने में लगे हैं। सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे, इस बात में किसी को कोई शंका-कुशंका भी नहीं है। लेकिन, लाख टके का सवाल है कि यदि यह चुनाव आगे बढ़ गए तो क्या होगा! अभी किसी को इस बात का कयास तो नहीं है, पर यदि ऐसा हुआ तो? इसी 'तो' ने ही सवाल खड़े किए हैं।  क्या यह चुनाव समय पर होंगे, यह सवाल उठना इसलिए लाजिमी है कि केंद्र सरकार जिस तरह 'वन नेशन-वन इलेक्शन' की बात को आगे बढ़ा रही है, उसे देखकर इस बात की संभावना नहीं है कि चुनाव समय पर होंगे। संभावना तो इस बात की भी व्यक्त की जा रही कि पांचों राज्यों के चुनाव अगले 6 महीने के लिए टाल दिया जाए। निश्चित रूप से इस अवधि में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ेगा। 
    दरअसल, केंद्र की बीजेपी सरकार की मंशा भी यही है, कि जब राज्यों में राष्ट्रपति शासन होगी और सामने सरकार नहीं होगी, तो जो संभावित एंटी इनकंबेंसी का माहौल बन रहा है वह भी ठंड पड़ जाएगा। कम से कम मध्य प्रदेश के सारे सर्वे के नतीजे अभी तक यही बता रहे हैं कि भाजपा के लिए जीत आसान नहीं है। यदि 'वन नेशन-वन इलेक्शन' की स्थितियां बनती है, तो यह चुनाव अगले साल तक टल जाएंगे। ऐसी स्थिति में लोकसभा भंग करके पांच राज्यों के साथ चुनाव कराए जा सकते हैं।

     निश्चित रूप से इस सोच के पीछे बहुत बड़ा राजनीतिक फायदा साफ नजर आ रहा है। क्योंकि, जब मतदाता वोट डालने जाता है, तो वह दो मानसिकता से नहीं जाता। वह यह नहीं देखेगा कि मध्य प्रदेश की सरकार से हमारी नाराजी है, लेकिन केंद्र में हम मोदी की सरकार देखना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में वह केंद्र के समर्थन में मध्य प्रदेश में भी भाजपा को वोट दे सकता है। यह संभावना इसलिए प्रबल होती दिखाई दे रही है कि सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाया, पर जिसका कोई एजेंडा सामने नहीं आया। 
     इसलिए यह कयास लगाए जा रहे हैं, कि सरकार चुनाव को लेकर संसद के इस विशेष सत्र में कोई बड़ी घोषणा कर सकती है। जरूरी हुआ तो इस आशय का प्रस्ताव रखकर उसे पारित भी करवाया जा सकता है। यदि इस संदर्भ में कोई संविधान संशोधन की जरुरत है, तो उसकी रूपरेखा भी बनाई जा सकती है। यदि संवैधानिक प्रावधान के तहत 'वन नेशन-वन इलेक्शन' की भूमिका बन गई, तो विपक्ष के सुप्रीम कोर्ट जाने की संभावनाएं भी क्षीण हो जाएगी। यह सिर्फ मध्य प्रदेश के संदर्भ में नहीं है, बाकी के चार राज्यों में भी यही स्थिति बन सकती है। सरकार ने 'वन नेशन-वन इलेक्शन' के सुझाव के लिए पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित कर दी। यही वो इशारा है, जो बताता है कि केंद्र सरकार इसका मूड बना चुका है, बस उसके लिए ढांचा तैयार किया जा रहा है।  
     इस संबंध में विधि आयोग ने भी कहा है कि संविधान का मौजूदा ढांचा एक साथ चुनाव कराने के अनुकूल नहीं है। यदि 'वन नेशन-वन इलेक्शन' का अंतिम रूप से फैसला होता है, तो  इसके लिए जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के संविधान में विभिन्न संशोधनों और लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियमों में संशोधन की जरुरत होगी। लेकिन, विधि आयोग के मुताबिक, संवैधानिक संशोधनों की पुष्टि के लिए राज्य विधान सभाओं में भी 50 फीसदी वोटों की जरुरत होगी। विधि आयोग का सुझाव है कि संविधान में इस तरह से संशोधन करना होगा कि कोई भी ऐसी नई लोकसभा या विधानसभा जो बीच में बनी हो, वो सिर्फ बचे हुए शेष कार्यकाल के लिए गठित की जाएगी। 
      भारत में एक साथ चुनावों को लेकर और भी कई चुनौतियां हैं। विधानसभा ये चुनाव राज्य का विषय हैं, इसलिए इन्हें किसी भी स्थिति में राष्ट्रीय स्तर पर नियंत्रित नहीं किया जा सकता। फिलहाल इन चुनावों को राज्य का चुनाव आयोग नियंत्रित करता है। लेकिन, यदि लोकसभा के साथ विधानसभा के भी चुनाव होते हैं, तो इसके लिए एक और संवैधानिक संशोधन की जरुरत होगी। देश के लिए लोकसभा और राज्यों के लिए विधानसभा के एक साथ चुनाव को संभव करने के लिए, अनुच्छेद 83 (जो संसद के सदन की अवधि से संबंधित है), अनुच्छेद 85 (जो लोकसभा के विघटन से संबंधित है) और अनुच्छेद 172 (जो राज्य में विधानसभा की अवधि से संबंधित है) जैसे विभिन्न अनुच्छेदों में संवैधानिक बदलाव की जरुरत होगी। ये सब इतना आसान नहीं है कि चुटकी बजाते ही संभव हो! लेकिन, यदि केंद्र सरकार ने तय कर लिया तो मुश्किल भी नहीं!
     21वें विधि आयोग ने अपनी मसौदा रिपोर्ट में भी कहा कि देश में जिस तरह का वातावरण है, उसे देखते हुए एक साथ चुनाव की जरुरत है। विधि आयोग के मुताबिक, देश को लगातार इलेक्शन मोड में रहने से रोकने के लिए यही अच्छा उपाय है। सैद्धांतिक रूप में यह एक अच्छा सुधार भी है। इसलिए नीति आयोग ने संवैधानिक विशेषज्ञों, चुनाव विशेषज्ञों, प्रबोध वर्ग, सरकारी अधिकारियों के साथ राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को शामिल करते हुए एक केंद्रीय समूह के गठन का सुझाव दिया है। इस समूह के लिए उचित कार्यान्वयन विवरण तैयार करने की भी आवश्यकता होगी, जिसमें संवैधानिक और वैधानिक संशोधनों का मसौदा तैयार करना शामिल होगा। ऐसी सारी स्थितियों को देखकर ये आशंका गलत नहीं है कि पांच राज्यों के टाले जा सकते हैं। पर, यह कब और कैसे होगा, इसके लिए थोड़ा इंतजार करना होगा।
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Saturday, September 9, 2023

दुश्मन देश के खिलाफ दो दशक बाद भी जारी है 'ग़दर!'

■ हेमंत पाल
   
  कुछ फ़िल्में अप्रत्याशित रूप से सफल हो जाती है। उनसे जितनी उम्मीद नहीं होती वे उससे ज्यादा छलांग मार देती है। ऐसी फिल्म में शाहरुख़ खान की 'पठान' के बाद अब 'ग़दर-2' को रखा जा सकता है, जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर अपनी सफलता के झंडे गाड़ दिए। जबकि, कई बार बड़ी सफलता दावा करने वाली फ़िल्में कब फ्लॉप होकर गायब हो जाती है, पता भी नहीं चलता। सनी देओल अपनी नई फिल्म 'ग़दर-2' से एक बार फिर दर्शकों के दिलों पर छा गए। सनी के लिए ये दौर 22 साल बाद आया। इस फिल्म के पहले भाग ने पड़ौसी देश के प्रति दर्शकों में जो आक्रोश दिखाया था, वह फिर लौट आया। जबकि, दो दशक में एक नई पीढ़ी वयस्क होकर सिनेमाघरों तक पहुंच गई। इन सालों में दुनिया में भी बहुत कुछ बदला। सोच के साथ जीने का ढंग और राष्ट्र प्रेम की परिभाषा भी बदली। पर, जो नहीं बदला वो है पाकिस्तान लोगों की प्रति नफरत।
     जब 'ग़दर : एक प्रेमकथा' 2001 में परदे पर आई थी, तब फ़िल्म के कुछ सीन पर कुछ शहरों में हिंसा हुई थी। ये भी कहा गया था कि ये फ़िल्म राष्ट्रवाद, मजहब और पहचान के मुद्दों को लेकर भ्रम फैलाती है। लेकिन, बंटवारे के दर्द को सही ढंग से नहीं दिखाती। ये भी कहा गया कि ये इसे उकसाने वाली फिल्म कहा गया, जो मुसलमानों को परायों की तरह पेश करती है। वास्तव में ये सोच आज की है, जबकि बंटवारे के दौर को भोगने वाले आज भारत में भी हैं और पाकिस्तान में भी। उस समय नफरत की वजह लंबी चली हिंसा थी। ये हिंसा कहां से, क्यों और कैसे भड़की इसका खुलासा कभी नहीं हुआ। लेकिन, बंटवारे के दौर में जिन्होंने उस दर्द भोगा है, वो आज भी हैं और उनकी आंखों में वो सब तैरता है।      
       फ़िल्म को लेकर आज भी लोगों की राय बंटी हुई है। लेकिन, दो दशक पहले इस फिल्म ने कमाई के रिकॉर्ड तोड़े थे। अब, जब सीक्वल बना तो फिर इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस झंडे गाड़ दिए। जब पहली वाली 'ग़दर' रिलीज हुई थी, तब लोगों के दिमाग में कारगिल युद्ध की यादें ताजा थी। लेकिन, अभी ऐसा कोई माहौल नहीं है, फिर भी पड़ौसी देश के प्रति नफरत का गुबार नहीं थमा। दोनों देशों की सीमा पर भले शांति हो, पर लोगों के दिलों में नफरत की जो आग 75 साल से भड़क रही है, वो अभी ठंडी नहीं हुई और ऐसी फिल्मों से बुझे अंगारे फिर भड़क जाते हैं। 22 साल पहले 'ग़दर' के साथ आमिर खान की 'लगान' भी रिलीज हुई थी। दोनों की कहानी राष्ट्रप्रेम से लबरेज जरूर थी, पर दोनों का ट्रीटमेंट बिल्कुल अलग था। 'लगान' की राष्ट्रभक्ति में एकता और इमोशन का तड़का लगा था। उसमें क्रिकेट को देशप्रेम का हथियार बनाया गया। जबकि,इससे अलग 'ग़दर' की राष्ट्रभक्ति में आक्रामकता और प्रेम की तड़फती हुई कहानी भी पनप रही थी।
      इस सीक्वल फिल्म की सफलता से ये भी लगता है कि इतने सालों बाद भी दोनों देशों में नफ़रत रत्तीभर भी कम नहीं हुई। पहले वाली 'ग़दर' में जब सनी देओल चीखते हुए डायलॉग बोलते हैं कि 'हिंदुस्तान जिंदाबाद था, हिंदुस्तान जिंदाबाद है और हिंदुस्तान जिंदाबाद रहेगा' तो सिनेमा हॉल में बैठे दर्शकों की भुजाएं भी फड़कने लगती है और देशप्रेम कुंचाले भरने लगता है। लेकिन, जब सनी दुश्मनों से घिरने पर हेंडपम्प उखाड़ते हैं, तो जैसे दर्शकों का खून खौल जाता है। 'ग़दर-2' में भी दर्शक यही सब देखने गए थे और उन्हें देखने को भी मिला। यही कारण है कि दर्शकों ने फिल्म को सफल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक गौर करने वाली बात ये कि दोनों ही फ़िल्में सनी देओल के कंधे पर चढ़कर ही सफलता की पायदान चढ़ी। दर्शकों ने दोनों ही फिल्मों में हीरोइन अमीषा पटेल को तो थोड़ा बहुत नोटिस किया, पर 'ग़दर-2' की नई जोड़ी दर्शकों की नजर में नहीं चढ़ सकी। सनी देओल ने अपने बेटे करण देओल को लांच करने के लिए जरूर कोशिश की, पर उसे पहचाना भी नहीं गया। पहले वाली 'ग़दर' की तरह इस बार की दूसरी 'ग़दर' में भी जलवा सनी का ही चला।
       एक स्वाभाविक बात यह भी है कि जब पहले वाली फिल्म ने आसमान फाड़ सफलता पाई, तो फिर इसके सीक्वल के लिए इतना लंबा इंतजार क्यों किया गया। इस सवाल का जवाब खुद सनी देओल ने ही दिया। उनका जवाब हैरान करने वाला तो है, पर यही सच भी है। फिल्म के प्रमोशन के लिए इंदौर आए सनी देओल ने कहा कि 'गदर-2' को बनने में 22 साल इसलिए लग गए कि 'गदर' फिल्म बहुत प्यारी है। मैं इसे छेड़ना नहीं चाहता था। लेकिन, जनता चाहती थी कि 'गदर' का पार्ट-टू बने। कोरोनाकाल के दौरान समय मिला तो उसे सही दिशा में उपयोग किया और 'गदर-2' तैयार हो गई। सनी का कहना था कि कुछ लोगों ने भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ाने का काम किया है। पर, इससे जनता को फर्क नहीं पड़ता। मुझे लगता है कि दुनिया भी अब इस लड़ाई से थक गई होगी। कोई नहीं चाहता कि एक भी जवान शहीद हो। जब देश की बात आ जाती है, तो आदमी के अंदर जोश आ जाता है। तब, आदमी वही करेगा जो होना चाहिए, लेकिन हर आदमी चाहता है कि प्यार से जिएं। क्योंकि, जिंदगी जीने के लिए है लड़ने के लिए नहीं। सनी ने आगे कहा कि 22 साल पहले जब 'गदर' आई थी, तब मुझे लगता था कि यह जीरो जाएगी। लेकिन, लोगों का प्यार मिला और फिल्म दर्शकों के दिलों में बैठ गई। जनता ने ही उसे हिट किया और वही प्यार 22 साल बाद 'गदर-2' के लिए भी देखने को मिला।
     भारत-पाकिस्तान को लेकर बरसों से फ़िल्में बन रही है। जाने-माने फिल्मकार यश चोपड़ा ने भी दोनों पड़ौसी देशों को केंद्र में रखकर कई संवेदनशील फ़िल्में बनाई। 'धूल का फूल' और 'धर्मपुत्र' काफी पहले बनाई थी। 'धर्मपुत्र' ऐसे हिंदू युवक की कहानी थी, जो बंटवारे से पहले उन लोगों के साथ मिलकर काम करता है, जो चाहते हैं कि मुसलमान भारत छोड़कर चले जाएं। बाद में पता चलता है कि हिंदू परिवार में पले-बढ़े इस युवक के असली मां-बाप तो मुसलमान ही हैं। इसके बाद उन्होंने 'धर्मपुत्र' बनाई, जिसे लेकर सेंसर बोर्ड संशय में था कि इसे पास किया जाना चाहिए या सुधार की जरुरत है। तब, यश चोपड़ा अपने भाई बीआर चोपड़ा को लेकर पं जवाहरलाल नेहरू से मिले और उनसे फ़िल्म देखने का अनुरोध किया। उन्होंने फिल्म देखी और सुझाव दिया कि इसे हर कॉलेज में दिखाया जाना चाहिए। लेकिन, अब इस तरह का समरसता का दौर नहीं रहा, जब इतनी सहिष्णुता की उम्मीद की जाए। इसके बावजूद इस दौर में भी यश चोपड़ा ने भारत-पाकिस्तान के दो किरदारों को जोड़कर 'वीर जारा' जैसी प्रेम कहानी बनाई और उसे पसंद भी किया गया।    
     'ग़दर-2' की सफलता का एक सकारात्मक पक्ष ये भी है कि इसने सीक्वल फ़िल्में बनाने की हिम्मत करने वालों में नया जोश भर दिया। अभी तक सीक्वल फिल्मों को सफलता को परफेक्ट फार्मूला नहीं माना जाता है। ऐसी कई फिल्मों के नाम गिनवाए जा सकते हैं जिनका सीक्वल पसंद नहीं किया और फ़िल्में औंधे मुंह गिरी। लेकिन, 'ग़दर-2' के हिट होने से ये दरवाजे पूरे खुल गए। इसके अलावा 'ओएमजी-2' ने भी बॉक्स ऑफिस पर कमाल दिखा दिया। सलमान खान की टाइगर, ऋतिक रोशन की कृष और धूम सीरीज भी आने वाली है। इसलिए कहा जा सकता है कि फिल्म कारोबार के लिए ये एक अच्छा संकेत है। इसके साथ ही सनी देओल भी उन एक्टर की कतार में खड़े हो गए, जिनका जादू अभी चुका नहीं। साठ साल से ज्यादा की उम्र में भी उनका हथौड़ा असर दिखा रहा है।
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Friday, September 1, 2023

जो सही हकदार, उसे मिला इस बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार!

- हेमंत पाल 

    राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार एक तरह से कलाकार, फिल्मकार और फिल्म निर्माण से जुड़े तकनीशियनों की प्रतिभा का मापदंड तय करते हैं। जब भी किसी  फिल्म, कलाकार या किसी तकनीशियन को ये पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की जाती है, तो उसकी टोपी में एक चमकता हुआ नया पंख लग जाता है। उसके काम को अलग ढंग से आंकलित जाने लगता है। जबकि, फिल्म इंडस्ट्रीज में अवार्डों की कमी नहीं है। फिर भी राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार इसमें सबसे ऊपर की पायदान पर हैं, क्योंकि ये क़ाबलियत का राष्ट्रीय सम्मान है। दर्शकों को भी संतुष्टि होती है, कि ये पुरस्कार वास्तव में उन्हें दिए गए, जो इस काबिल हैं। इस बार के फिल्म पुरस्कारों की दर्शकों के साथ फिल्म की बारीकियां समझने वालों ने तारीफ की और कहा कि ये वास्तव में सही कलाकारों और फिल्मकारों को दिए गए। जबकि, हर बार ऐसा नहीं हुआ! किसी कलाकार या फिल्म को लेकर आलोचना का झंडा उठाने में देर नहीं जाती। इस बार भी झंडा तो उठा, पर ये उन प्रतिद्वंदियों के हाथ में था जो खुद के लिए उम्मीद लगाए बैठे थे।   
    अल्लू अर्जुन को इस बार 'पुष्पा' के लिए बेस्ट एक्टर का पुरस्कार देने की घोषणा की गई। इसका सबसे ज्यादा दर्द अनुपम खेर को हुआ और उनका क्रंदन सुनाई दिया। इसलिए कि उन्हें उम्मीद थी कि इस बार 'द कश्मीर फाइल्स' के लिए ये अवॉर्ड उन्हें ही मिलना है। उन्होंने एक लंबा-चौड़ा पोस्ट शेयर करके कमेंट भी किया, जिससे लगता है कि वे किस तरह की उम्मीद लगाकर बैठे थे। अनुपम ने टिप्पणी की, कि एक एक्टर ही नहीं बल्कि फिल्म के एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर के तौर पर भी मैं इस फिल्म को मिली मान्यता से खुश हूं। तब और खुशी होती, अगर मुझे मेरी एक्टिंग के लिए भी अवार्ड मिलता। पर, अगर सारी ख्वाहिशें पूरी हो जाएं तो आगे काम करने का मजा और उत्साह कैसे आएगा। चलिए अगली बार।
     कुछ ऐसी स्थिति अल्लू अर्जुन को बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिलने पर 'उधम सिंह' डायरेक्टर शूजित सरकार की भी नजर आई। उनकी बातों से लगा कि वे अल्लू अर्जुन को चुने जाने से खुश नहीं हुए। जबकि, उनकी फिल्म को पांच अवार्ड से नवाजा गया। बेस्ट हिंदी फिल्म के अवॉर्ड सहित कई कैटेगरी में अवार्ड मिले। शूजित सरकार को भरोसा था कि उनकी फिल्म के लिए विक्की कौशल को बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिलेगा, पर ऐसा नहीं हुआ। उनका कहना था कि इस बात में कोई दो राय नहीं कि विक्की कौशल बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड डिजर्व करता था। जिस तरह से उसने सरदार उधम के लिए अपने आपको बदला, वह काबिले तारीफ है। हमने जलियांवाला बाग सीक्वेंस से शुरुआत की थी। पहले शॉट वो था, जहां उधम डेड बॉडीज को उठा रहा है, उसके चेहरे को देखकर समझा जा सकता है कि वह उनका दर्द फील कर रहा था। उस सीन के बाद विक्की कई रातों तक सो नहीं सका था।
    इस बार के घोषित पुरस्कारों में गौर करने वाली बात ये रही कि जिन हिंदी फिल्मों और कलाकारों को पुरस्कृत किया गया, वे सभी फ़िल्में व्यावसायिक रूप से भी सफल रही। इस बार 28 भाषाओं की 280 फीचर फिल्मों के लिए आवेदन मिले थे। पुष्पा : द राइस, गंगूबाई काठियावाड़ी, द कश्मीर फाइल्स और 'रॉकेट्री: द नंबी इफेक्ट' की लोकप्रियता जगजाहिर रही। सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार अल्लू अर्जुन को 'पुष्पा : द राइस' के दिया गया। वे यह सम्मान पाने वाले तेलुगु फिल्मों के पहले अभिनेता हैं। फिल्म की सफलता के साथ अल्लू अर्जुन की अदाकारी को भी सराहा गया, जिस पर इस पुरस्कार ने मुहर लगा दी।
    'गंगूबाई काठियावाड़ी' की अभिनेत्री आलिया भट्ट के साथ संजय लीला भंसाली की फिल्मों को मिलने वाला यह 7वां राष्ट्रीय पुरस्कार है। इससे पहले उन्हें 2002 में 'देवदास' के लिए अवॉर्ड मिला था। फिर 2005 में 'ब्लैक' को हिंदी में बेस्ट फीचर फिल्म का अवॉर्ड मिला। 2014 में 'मैरी कॉम' के लिए भी उन्हें नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया। 2015 में भी उन्होंने एक राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था। भंसाली को पांचवा अवॉर्ड 2018 में 'बाजीराव मस्तानी' के लिए बतौर बेस्ट डायरेक्टर का मिला तो 'पद्मावत' के लिए बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का अवॉर्ड जीता। संजय लीला की 'गंगूबाई काठियावाड़ी' ने तो इस बार कमाई और दर्शकों की पसंद में सच में धूम मचा दी। ये कोरोना काल के बाद दर्शकों को सिनेमाघरों में खींचकर लाने वाली पहली फिल्म थी। ग्लैमरस हीरोइन के रूप में पहचानी जाने वाली आलिया भट्ट को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए चुना गया। इस श्रेणी के पुरस्कार को कृति सेनन के साथ साझा किया गया। उन्हें 'मिमी' के लिए इस सम्मान से नवाजा गया, जिन्होंने सरोगेट मदर के किरदार में जान डाल दी।      
     हिंदी फिल्म 'रॉकेट्री: द नंबी इफेक्ट' ने सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बहुत ज्यादा कामयाब नहीं रही, पर इस बायोपिक को पसंद करने वालों की संख्या कम नहीं रही। ये फिल्म 'इसरो' के पूर्व वैज्ञानिक और एयरोस्पेस इंजीनियर नंबी नारायणन के जीवन पर आधारित है। उन पर एक साजिश के तहत जासूसी के झूठे आरोप लगे थे। व्यावसायिक सफलता के झंडे गाड़ने वाली फिल्म विवेक अग्निहोत्री की 'द कश्मीर फाइल्स' को नरगिस दत्त अवॉर्ड के तहत राष्ट्रीय एकता की सर्वश्रेष्ठ फिल्म कैटेगरी में चुना गया। इस फिल्म की काफी आलोचना भी हुई, लेकिन कई मामलों में फिल्म की श्रेष्ठता को चुनौती नहीं दी जा सकती। पंकज त्रिपाठी को 'मिमी' के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार और पल्लवी जोशी को 'द कश्मीर फाइल्स' के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया।  
    मुंबई के कमाठीपुरा की ताकतवर वैश्या गंगूबाई के जीवन पर बनी फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' को पांच श्रेणियों में पुरस्कृत किया। आलिया भट्ट को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, उत्कर्षिनी वशिष्ठ को सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले लेखक और फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संपादन का पुरस्कार भी जीता। वशिष्ठ तथा प्रकाश कपाड़िया ने फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक और प्रीतिशील सिंह डिसूजा ने सर्वश्रेष्ठ मेकअप कलाकार का पुरस्कार भी जीता। 'आरआरआर' ने इस बार 6 पुरस्कार जीते। इस फिल्म के संगीत निर्देशक एमएम कीरावानी ने 'पुष्पा' के संगीत निर्देशक देवी प्रसाद के साथ सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का पुरस्कार साझा किया। दर्शकों का मनोरंजन करने वाली सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म 'काला भैरव' को श्रेष्ठ पुरुष पार्श्व गायक, सर्वश्रेष्ठ स्पेशल इफेक्ट्स, सर्वश्रेष्ठ एक्शन निर्देशन और सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी का पुरस्कार जीता। शूजीत सरकार की बायोपिक 'सरदार उधम सिंह' ने सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म के साथ ही सर्वश्रेष्ठ सिनेमैटोग्राफी, सर्वश्रेष्ठ प्रोडक्शन डिज़ाइन और कॉस्ट्यूम डिजाइन का पुरस्कार जीता।
    डायरेक्टर सृष्टि लखेरा की फिल्म 'एक था गांव' को बेस्ट नॉन फीचर फिल्म चुना गया। फिल्ममेकर नेमिल शाह की गुजराती फिल्म 'दाल भात' को बेस्ट शॉर्ट फिल्म (फिक्शन) चुना गया है। सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार मराठी फिल्म ‘गोदावरी’ के लिए निखिल महाजन को दिया गया। जबकि, श्रेया घोषाल को 'इराविन निझाल' के गीत 'मायावा छायावा' के लिए सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्व गायिका का पुरस्कार मिला। ओरिजिनल स्क्रीनप्ले का पुरस्कार मलयालम फिल्म 'नायट्टू' और उसके लेखक शाही कबीर को दिया। मलयालम फिल्म 'मेप्पदियां' के निर्देशक को सर्वश्रेष्ठ डेब्यू फिल्म के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार मिला। सामाजिक मुद्दों पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार असमी फिल्म 'अनुनाद-द रेजोनेंस' को दिया गया। सरसरी तौर पर देखा जाए कि तो इस बार के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार राजनीतिक दखल से भी परे ही कहे जाएंगे। क्योंकि, किसी ऐसे कलाकार या डायरेक्टर को पुरस्कार से नहीं नवाजा गया जो राजनीतिक चारण प्रवृत्ति के लिए जाने जाते हैं।        
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