Sunday, May 31, 2020

महामारी जो बन गया फ़िल्मी मसाला!

- हेमंत पाल

   फिल्मों के लिए नए विषय तलाशना हमेशा ही मुश्किल काम रहा है। यही कारण रहा है, कि जब भी कोई फिल्म चल निकलती है, उस विषय पर फिल्म बनने लगती है! इसलिए कि फिल्म की सफलता को दर्शकों की पसंद का मापदंड मान लिया जाता है। फिर वो 80 के दशक में आई राजेश खन्ना की फिल्मों की प्रेम कहानियाँ हों या अमिताभ बच्चन की फिल्मों का वो मार-धाड़ वाला दौर जब व्यवस्था से नाराज युवा हर बात मुक्के से करता है। एक समय ऐसा भी आया था, जब डाकुओं पर कई फ़िल्में बनी और पसंद की गईं! याद किया जाए तो समय के साथ दर्शकों के मनोरंजन का जायका भी बदलता रहा है। लेकिन, कई बार कुछ ऐसी बड़ी घटनाएं भी होती हैं, जो फिल्म का विषय बनाकर भुनाई जाती है। पर, ये तभी कारगर होती हैं, जब इसे तुरंत और जनता के नजरिए से भुनाया जाए! उत्तराखंड में कुछ साल पहले आई त्रासदी पर सालभर पहले आई फिल्म 'अमरनाथ' इसलिए नहीं चली कि वो घटना दर्शकों के दिमाग से निकल चुकी थी! फिल्मवालों के लिए अब कोरोना वायरस फिल्म बनाने का नया विषय है। संभव है कि कुछ महीनों बाद ऐसी फिल्मों की बाढ़ आ जाए।  
   इस विषय पर फिल्म बनाने कोशिशें भी शुरू हो गई। इंडस्ट्री में कोरोना से जुड़े कई टाइटल रजिस्टर हो चुके हैं। इरॉस इंटरनेशनल 'कोरोना प्यार है' नाम से फिल्म बना सकता है। लेकिन, ये फिल्म कोरोना पर नहीं, बल्कि प्रेम कहानी होगी। 'डैडली कोरोना' टाइटल भी रजिस्टर करवाया गया है। नए विषय का मौका न छोड़ने वाले रामगोपाल वर्मा ने तो अपनी नई तेलुगु फिल्म 'कोरोना वायरस' का ट्रेलर भी रिलीज कर दिया। इस फिल्म की स्टोरी वायरस से संक्रमित एक लड़की के आसपास घूमती है। ये एक परिवार की कहानी है, जिसमें लड़की को अचानक खांसी आने लगती है। पूरा परिवार परेशान हो जाता है कि इसका कोरोना टेस्ट करवाया जाइए या नहीं। फिर परिवार अपने आपको समझाता भी है, कि ये महज खाँसी है कोरोना नहीं! यहीं से फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है। लेकिन, परिवार भी धीरे-धीरे उस लड़की से दूरी बनाने लगता है!
  प्रत्यूष उपाध्याय ने भी कोरोना वायरस महामारी पर अपनी अगली फिल्म की घोषणा की है। लेकिन, उनका फोकस इस खतरनाक बीमारी के पीछे के रहस्यों को उजागर करना है। प्रत्युष का कहना है कि महामारी के बारे में कुछ रहस्य हैं, जिन्हें जनता से छुपाया गया, यही उनकी फिल्म का विषय होगा। ये फीचर फिल्म होगी, जिसमें निकिता रावल मुख्य भूमिका निभाएंगी! अभी फिल्म का नाम नहीं रखा। केनैडियन डायरेक्टर मुस्तफा केशवारी की भी वायरस पर फिल्म बनकर तैयार है। इस फिल्म का नाम 'कोरोना : फीयर इन अ वायरस' है। ये फिल्म सात उन लोगों पर बनी है, जो एक साथ लिफ्ट में फंस जाते हैं। लिफ्ट में अफरा-तफरी तब मच जाती है, जब उनमें से एक महिला जोर-जोर से खाँसने  लगती है। सब डर जाते हैं। सबको शंका होने लगती है कि वह कोरोना वायरस से संक्रमित है। दावा किया जा रहा है कि कोरोना पर बनी यह पहली फिल्म है। डायरेक्टर का कहना है कि जनवरी में चीन के वुहान में वायरस फैलने के ही उनके दिमाग में यह आइडिया आया था। 
    डायरेक्टर निर्देशक चार्ल्स बैंड ने भी 'कोरोना जॉम्बीज' नाम से फिल्म बनाई है। उन्होंने 10 अप्रैल को फिल्म डिजिटल प्लेटफॉर्म पर रिलीज भी कर दी। फिल्म की कहानी के मुताबिक लोग कोरोना से मरने के बाद जॉम्बी बन जाते हैं। डायरेक्टर ने इस तरह फिल्म को कोरोना के बहाने हॉरर बनाने की कोशिश की है। जॉम्बी से लड़ने के लिए एक स्कॉड का गठन किया जाता है। वो स्कॉड कोरोना वायरस की जड़ को ढूंढता है, साथ ही जॉम्बीज से भी लड़ता है। जॉम्बीज को फिल्म में कोरोना के नए रूप में दिखाया गया है। ये असलियत नहीं है, पर दर्शकों के लिए नया फ़िल्मी फार्मूला जरूर है। 
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Tuesday, May 26, 2020

वे गलतियां जिन्होंने इंदौर में कोरोना फैलने का मौका दिया!    

    कोरोना प्रभावित इंदौर के हालात उतने अच्छे नहीं हैं, जितने बताए जा रहे हैं या अच्छे होने का दावा किया जा रहा है। दो महीने से पूरे शहर में लॉक डाउन और कर्फ्यू है। करीब आधा शहर कभी न कभी कोरेंटाइन की गिरफ्त में रहा, फिर भी मरीजों की बढ़ती संख्या पर अंकुश नहीं लगा! ऐसा क्यों, इसका प्रशासन के पास कोई सटीक या तथ्यात्मक जवाब नहीं है। टेस्ट और रिपोर्ट की संख्या को लेकर भी हमेशा भ्रम बना रहा। शहर के लोग प्रशासन की हर बात मान रहे हैं, फिर भी उन्हें धमकाने की भाषा में हिदायतें ही मिल रही है। प्रशासन को ये भ्रम हो गया है कि लॉक डाउन से लोग खुश हैं। जरुरी किराना और सब्जी-फ्रूट उनके घर तक पहुँच रहा है, जो उनके संतुष्ट होने के लिए काफी है! इससे ज्यादा उन्हें और क्या चाहिए! एक बात ये भी है, कि देश के स्वच्छता अभियान में नंबर-1 बनाने में इंदौर की जनता का बड़ा हाथ रहा! लेकिन, कोरोना संक्रमण फैलाने के असल ज़िम्मेदार भी इंदौर के ही लोग हैं। उधर, इंदौर प्रशासन ने यदि पहले से सख्ती और सजगता दिखाई होती, तो आंकड़ा इतना ज्यादा नहीं बढ़ता! गलतियाँ नासमझ जनता से भी हुई और प्रशासन से भी, जिसका खामियाजा पूरा शहर भुगत रहा है!    
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- हेमंत पाल

    देश का सबसे साफ शहर इंदौर कोरोना वायरस के हॉटस्पॉट के रूप में उभरा है, ये सबसे बड़ी विडंबना है। केंद्र सरकार के स्वच्छता सर्वेक्षण में लगातार तीन बार यह शहर देश का सबसे स्वच्छ शहर घोषित हुआ और इस बार भी 'फाइव स्टार' लेकर चौथी बार दौड़ में है। इन चार सालों में नगर निगम ने कचरा डंपिंग को खत्म कर दिया और शत-प्रतिशत घरेलू-कचरा पृथक्करण सुनिश्चित किया है। लेकिन, ये भी सच्चाई है कि इदौर कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों में भी देश में जगह बना चुका है। एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रशासन ने शुरू में विदेश से लौटने वालों और महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात के रास्ते इंदौर आने वालों की स्क्रीनिंग पर ध्यान नहीं दिया। यह एक बड़ी गलती थी! क्योंकि, इंदौर ऐसा शहर है जहाँ रोज हजारों लोग सड़क और रेल से आते-जाते हैं। इन लोगों की स्क्रीनिंग नहीं की गई। इसके अलावा इंदौर जैसे घनी आबादी वाले शहर में लॉक डाउन की घोषणा मार्च के शुरू से की जाना चाहिए थी।
    इंदौर में कोरोना संक्रमण ज्यादा क्यों हुआ! इसका निष्कर्ष यही है कि कुछ नासमझ लोगों ने इस बीमारी की गंभीरता को नहीं समझा और प्रशासन ने भी कई गलतियां की। अब ये सारी खामियाँ शहर के लोगों पर भारी पड़ रही है। शुरू में प्रशासन ने इसे एक समुदाय विशेष तक फैली बीमारी समझा और तब्लीगी जमात पर सारा दोष मढ़कर बाकी शहर पर से नजर हटा ली! एक कारण यह भी था कि टाटपट्टी बाखल में पुलिस और स्वास्थ्यकर्मियों पर पथराव हुआ तो ये मान लिया गया कि कोरोना इसी कोने में छुपा है। सारा ध्यान वहीं केंद्रित हो गया और सख्ती भी दिखाई दी! लेकिन, ऐसे में कोरोना दूसरे इलाकों में पसरता रहा! जिस टाटपट्टी बाखल को खलनायक समझा गया था, वहाँ ये महामारी लगातार कम होती गई! साथ ही एक समुदाय विशेष पर उठे कोरोना संक्रमण फैलाने के आरोप भी ठंडे पड़ गए। प्रशासन की खामी रही कि वो संक्रमण फैलने का सही रास्ता नहीं खोज सका और ऐसे काम में उलझा रहा जो उसका काम नहीं है। प्रशासन पर पर्याप्त टेस्ट न कराने और समय पर रिपोर्ट न देने के भी आरोप लगे। एक समय ऐसा भी आया जब 9 हज़ार सैम्पल इकठ्ठा हो गए, जिनकी जाँच दिल्ली में कराई गई।  
   कोरोना पॉजेटिव मरीजों की संख्या तीन हज़ार के पार होने के साथ ही अब इंदौर संक्रमितों के मामले में देश का 7वां शहर हो गया। संक्रमण किस तेजी से बढ़ रहा है, इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले 12 दिन में एक हजार से ज्यादा नए मरीज सामने आए हैं। जबकि, शुरु मेंं मरीजों की संख्या एक हजार तक आने में 30 दिन लग गए थे। एक से दो हजार का आंकड़ा पहुँचने में 18 दिन लगे। लेकिन, दो से तीन हज़ार होने में समय और कम हो गया! ऐसे में सारे सरकारी दावे ख़ारिज हो जाते हैं कि इंदौर में स्थिति लगातार सुधर रही है। अभी इंदौर न तो सामान्य है और न ऐसे कोई आसार नजर आ रहे हैं। इंदौर में कोरोना संक्रमित पहला मरीज 24 मार्च को मिला था। उसके बाद से आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। पिछले 12 दिन का औसत देखा जाए तो शहर में रोज 83 से 85 मरीज मिल रहे हैं। 
  यहाँ बने क्‍वारंटाइन सेंटरों से अभी तक 2700 से ज्यादा लोगों को डिस्चार्ज किया जा चुका है। लेकिन, मरने वालों के आंकड़े का भी शतक हो गया। कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या को देखते हुए इंदौर देश का सातवां शहर बन गया है, जहाँ सबसे ज्यादा मरीज सामने आ रहे हैं। अब तक करीब 30 हज़ार लोगों की सैम्पलिंग की गई, जिसमें करीब 8% की दर से पॉजेटिव मरीज मिले हैं। 60 दिन में 3000 मरीज मिलने का सीधा आशय है कि रोज के 50 पॉजेटिव मरीज! शुरुआत में सैंपलिंग बहुत कम हो रही थी, इसलिए पॉजेटिव मरीजों की दर भी 21% से अधिक था! अब ज्यादा सैंपलिंग होने से ये दर घटकर 8% के आसपास आ गई। 
   इंदौर में कोरोना संक्रमण क्या फैला, कहाँ से फैला और इसे काबू में क्यों नहीं किया जा सका! इसे लेकर कई तरह के तर्क-कुतर्क किए जा सकते हैं! पर,  वास्तव में जनता और प्रशासन दोनों तरफ से कई ऐसी गलतियां हुई हैं, जिन्हें समय रहते रोका जा सकता था। इसमें सबसे बड़ी खामी 22 मार्च को जनता कर्फ्यू का खुला मखौल उड़ना था। शाम पांच बजे जब जनता कर्फ्यू ख़त्म हुआ तो राजवाड़े पर ऐसा जश्न मना जैसे कोरोना भाग गया हो। सोशल डिस्टेंसिंग की भी जमकर धज्जियां उड़ाई गई! फिर एक दिन ऐसा भी आया जब प्रशासन ने शहर में तीन दिन के लिए दूध बंद कर दिया। शहर में त्राहि-त्राहि मच गई। अंत में दबाव में आकर उसी दिन शाम 5 बजे दूध की सप्लाय शुरू की गई! तब भी सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ी। देखने और सुनने में बात भले छोटी लगे, पर उस दिन पूरा शहर दूध के लिए जिस तरह उमड़ा, वो भी संक्रमण फैलने का एक कारण है। 
   बाहर से शहर में आने वाले लोग भी शहर को बीमार करने के दोषी हैं। 25 मार्च को अचानक शहर में 5 नए मरीज मिले। ये सभी बाहर से आए थे। इनमें दो ने वैष्णोदेवी और हिमाचल की यात्रा की थी। जब ये इंदौर आए तो उन्हें हल्का बुखार आया। 23 मार्च को उन्हें बॉम्बे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। जांच में दोनों में कोरोना के लक्षण मिले। बाद में दोनों स्वस्थ भी हो गए। 26 मार्च को मरीजों की संख्या 10 हो गई। 27 मार्च आंकड़ा 14 पहुंचा और 5 दिन में इंदौर 44 मरीजों के साथ इंदौर देश के सबसे संक्रमित शहरों की सूची में आठवें नंबर पर पहुंच गया! बाद के तीन दिनों में ये आंकड़ा 80 के ऊपर निकल गया और इंदौर टॉप-थ्री शहरों में आ गया। जागरुकता का अभाव भी एक बड़ा कारण है। 28 मार्च को एक संक्रमित मरीज एमआर टीबी अस्पताल से चोरी-छुपे भाग गया। अस्पताल से वो अपने घर गया, जहाँ उसने अपने 3 बच्चों के अलावा अन्य 12 लोगों को संक्रमित किया। 
  इंदौर जिले के हॉट स्पॉट बनने की बात को दिल्ली से हफ्तेभर के लिए इंदौर आई केंद्र सरकार की टीम ने भी स्वीकारी। केंद्रीय टीम ने कहा कि इंदौर में मामले बढ़ने का कारण है कि यहां के लोगों ने लॉक डाउन के नियमों का सही ढंग से पालन नहीं किया। प्रशासन की तरफ से भी कहीं न कहीं चूक हुई है। इंदौर देश का सबसे स्वच्छ शहर है, तो यहां के लोग यह मानकर संतुष्ट हो गए कि यहां बीमारी नहीं फैलेगी। जबकि, जांच में सामने आया कि लॉक डाउन के बावजूद यहां लोग सड़कों पर थे, जिनके कारण वायरस का संक्रमण बड़े स्तर पर तेजी से फैला। प्रशासन ने भी इस बात को स्वीकारा है कि कोरोना के खिलाफ तैयारी काफी पहले से ही शुरू कर देनी चाहिए थी, जो नहीं की गई। जब मार्च में महामारी शुरू हुई, तब कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिरने की कगार पर थी। ऐसे में राजनीतिक अनिश्चितता का तीन हफ्ते का लम्बा दौर चला और इसी में वायरस के प्रकोप से निपटने की पर्याप्त तैयारी नहीं की गई। 
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Monday, May 25, 2020

इंदौर में 'पतंजलि' के कोरोना मरीजों पर 'ड्रग ट्रायल' की अंतर्कथा!

- हेमंत पाल    
  
  युर्वेदिक दवाइयों के क्षेत्र में देश में 'पतंजलि' एक बड़ा नाम है। आचार्य बालकृष्ण और बाबा रामदेव की ये कंपनी कई आयुर्वेदिक दवाइयां और अन्य उत्पाद बनाती है। कोरोना के इस दौर में जब सारी दुनिया की दवा कंपनियां इस संक्रमण की दवा खोजने में लगी है, 'पतंजलि' ने भी एक आयुर्वेदिक काढ़ा बनाया। वो इस काढ़े का इंदौर के कोरोना संक्रमित मरीजों पर 'ट्रायल' करना चाहता था! शुरूआती कोशिश में उन्हें इंदौर कलेक्टर ने अनुमति भी दे दी! लेकिन, जब इस अनुमति के खिलाफ आवाज उठी तो उसे अनुमति निरस्त कर दिया गया! बताते हैं कि वास्तव में ये 'ड्रग ट्रायल' ही था। आयुर्वेद में काढ़ा  दवा ही है! कलेक्टर को ऐसी कोई अनुमति देने का अधिकार भी नहीं है। इसके लिए एक निर्धारित प्रक्रिया है और इसके नियम-कायदे काफी कड़े हैं। 'ड्रग ट्रायल' मामले में इंदौर वैसे भी बदनाम हो चुका है। ऐसे में यदि 'पतंजलि' का काढ़ा उल्टा असर कर जाता तो मामला विवादस्पद बन सकता था।      
   कोरोना संक्रमण दवा को लेकर दुनियाभर में अनुसंधान चल रहे हैं। ज्यादातर कोशिश एलोपैथी के क्षेत्र में वैक्सीन बनाने को लेकर हो रही है। लेकिन,  आयुष मंत्रालय के आयुर्वेदिक काढ़े के उपयोग की एडवायजरी जारी होने के बाद आचार्य बालकृष्ण और बाबा रामदेव भी कोरोना की आयुर्वेदिक दवा बनाने में जुट गए! बताते हैं कि उन्होंने काढ़ा बना भी लिया है। लेकिन, ये कितना कारगर है, इसका प्रयोग मानव पर करने के लिए उन्होंने इंदौर को चुना, जहाँ कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या सर्वाधिक है। 'पतंजलि' ने दावा किया है कि उनकी बनाए आयुर्वेदिक काढ़े का प्रभाव तत्काल नजर आता है। बताते हैं कि आचार्य बालकृष्ण ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह से बारे में बात करके इंदौर में इस काढ़े के ट्रायल प्रस्ताव रखा था। मुख्यमंत्री से क्या आश्वासन मिला, यह तो पता नहीं चला, पर गुरुवार को 'पतंजलि' के मुखिया आचार्य बालकृष्ण ने इंदौर कलेक्टर मनीष सिंह और इंदौर विकास प्राधिकरण (आईडीए) के सीईओ विवेक श्रोत्रिय से इस बारे में बात की और काढ़े के ट्रायल का प्रस्ताव रखा! 
  प्रशासन को भेजे प्रस्ताव में दस्तावेजी प्रमाण के साथ कई दावे किए जाने की जानकारी मिली है। ये भी बताया गया कि इस आयुर्वेदिक काढ़े की टेस्ट रिपोर्ट जयपुर में भी हो चुकी है। सवाल उठता है कि जयपुर में राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत काम करता है, तो फिर इंदौर को ड्रग ट्रायल के लिए क्यों चुना गया! जयपुर का संस्थान देश में अपनी तरह का पहला राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का आयुर्वेद संस्थान है, जिसका लक्ष्य एवं उद्देश्य ही आयुर्वेद दवाइयों के विभिन्न पहलुओं के अनुसंधान करवाना है। इंदौर कलेक्टर को भेजे प्रस्ताव में तीन कैटेगरी में कोरोना संक्रमित मरीजों का चुनाव कर आयुर्वेदिक काढ़े का उनपर प्रयोग किया जाना था। बताते हैं कि ये काढ़ा अश्वगंधा और गिलोय से बना है। उन्होंने इस काढ़े से मरीजों के ठीक होने का भी दावा किया। 
  जब ये जानकारी बाहर आई कि 'पतंजलि' को उसकी दवा का इंदौर के कोरोना मरीजों पर प्रयोग की अनुमति मिली है, तो इसका विरोध शुरू हो गया। कई संगठनों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। क्योंकि, ड्रग ट्रायल में मामले में इंदौर पहले ही दुनियाभर में बदनाम हो चुका है। यहाँ के कई नामी डॉक्टर्स इस मामले में फंस गए थे। ऐसे में कलेक्टर ने 'पतंजलि' को किस आधार पर अनुमति दी, इस बारे में कोई खुलासा नहीं हुआ! नियम के मुताबिक  किसी भी तरह दवा की दवा के ट्रायल की अनुमति का एक निर्धारित प्रोटोकॉल है। उसके तहत एक प्रक्रिया का पालन करना पड़ता है। उस प्रक्रिया में कलेक्टर को इसकी अनुमति देने का अधिकार नहीं होता। किसी भी दवा के क्लिनिकल ट्रायल की अनुमति इंडियन कॉउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) देती है। उसके आधार पर ही संबंधित राज्य की सरकार क्लिनिकल ट्रायल का फैसला करती है। 
   ग्वालियर दक्षिण के कांग्रेस विधायक प्रवीण पाठक ने भी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को 'पतंजलि' के इस ड्रग ट्रायल के खिलाफ पत्र लिखा था। मुख्यमंत्री निर्देश पर कलेक्टर ने ये अनुमति दी, तो फिर इसे निरस्त करने का कोई कारण समझ नहीं आया! क्या मरीजों को काढ़ा पिलाने के प्रस्ताव से अलग जाकर 'पतंजलि' कोई ऐसा प्रयोग करना चाह रही थी, जिसकी जानकारी प्रस्ताव में नहीं थी!      
   इस मामले पर इंदौर कलेक्टर मनीष सिंह का कहना है कि मेडिकल कॉलेज से प्राप्त प्रस्ताव में आयुर्वेदिक दवा मरीजों को काढ़े की तरह देने की बात कही गई थी। अनुमति भी दवा बांटने के लिए दी थी, ट्रायल की नहीं। उनका ये भी कहना है कि आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक दवाइयों के क्लीनिक ट्रायल नहीं होते। इन सभी तथ्यों को देखते हुए आवेदन पर अनुमति देने के बाद निरस्त कर दी गई। जबकि, मेडिकल कॉलेज की डीन डॉ ज्योति बिंदल का कहना है कि प्राप्त आवेदन में आयुर्वेदिक ड्रग कोरोना संक्रमित मरीज को देने और परिणाम को टेस्ट करने की बात लिखी थी, इसलिए आवेदन प्रमुख सचिव को भेजा था। इन दोनों की बात में समानता नहीं होने से लगता है कि कुछ तो ऐसा है, जो छुपाया जा रहा है। 
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Saturday, May 23, 2020

बिना 'राधे' के मनेगी, इस बार ईद

- हेमंत पाल

   फिल्मों के पास हिट होने का कोई सटीक फार्मूला नहीं होता! कई बार बड़े सितारों की फ़िल्में अच्छी कहानी और दर्शकों को बांध न पाने के कारण बॉक्स ऑफिस पर धराशाई हो जाती हैं! ऐसे में निर्माता, निर्देशकों के सामने दर्शक बटोरने का सबसे सही मौका होता है, त्यौहारों के बहाने दर्शकों को सिनेमाघरों तक लाना। लेकिन, इसमें भी एक पेंच यह है। हिन्दू त्यौहारों पर सामान्यतः लोग फ़िल्में देखने का समय नहीं निकाल पाते! लेकिन, ईद और क्रिसमस पर जो फिल्म रिलीज होती है, वो शुरूआती दिनों में अच्छा कारोबार कर जाती है। फिर बाद में भले उनकी लुटिया डूब जाए! यही कारण है कि ईद पर फिल्म रिलीज करने की हमेशा होड़ लगती है! पर, इस बार कोरोना संक्रमण ने फिल्मकारों से ये मौका भी छीन लिया। 
  इस साल ईद पर तीन बड़ी फिल्में तैयार थीं, पर कोरोना उनके रास्ते में अड़ंगा बन गया। सलमान खान आमतौर पर ईद पर अपनी कोई न कोई फिल्म जरूर परदे पर उतारते हैं। इस बार वे 'राधे : योर मोस्ट वांटेड भाई' लेकर आने वाले थे। उनकी फिल्म का अक्षय कुमार की 'लक्ष्मी बॉम्ब' और हॉलीवुड अभिनेता विन डीजल की 'फास्ट एंड फ्यूरियस 9: द फास्ट सागा' में मुकाबला होना था! लेकिन, सारी तैयारी धरी रह गई! देखा जाए तो इस बार फिल्मकारों के नजरिए से भी ईद फीकी है। इन फिल्मों की सफलता का अंदाजा लगाते हुए, बॉक्स ऑफिस के जिन आंकड़ों का अनुमान लगाया गया था, सब ध्वस्त हो गया। सलमान खान ने तो अगले साल यानी ईद 2021 की भी तैयारी कर ली थी। वे साउथ की फिल्म 'वीरम' को वे 'कभी ईद-कभी दिवाली' नाम से बनाकर रिलीज करने वाले थे।
   बॉक्स ऑफिस के लिए ईद हमेशा से ही धमाकेदार रही है। 2009 में सलमान की 'वाटेंड' के बाद से ही उनकी एक फिल्म हर साल ईद पर रिलीज होती रही। अब तो दर्शकों को ईद पर सलमान की फिल्म का इंतजार रहता है। ऐसे ही क्रिसमस को आमिर खान की फिल्मों के लिए तय माना जाने लगा। बीच-बीच में कुछ और एक्टर्स की फ़िल्में भी ईद मनाने परदे पर उतरी! कुछ को तो दर्शकों ने सराहा और कुछ को नकार दिया। 2009 में जब 'वांटेड' आई तो उसने 61 करोड़ का कलेक्शन किया था। प्रभुदेवा के निर्देशन में बनी सलमान खान की यह फिल्म सुपरहिट रही। 2010 में सलमान ने होम प्रोडक्शन फिल्म 'दबंग' रिलीज की, जिसने 140 करोड़ की कमाई की थी। सलमान खान की यह फिल्म ब्लॉकबस्टर रही। 2011 में सलमान ने 'बॉडीगॉड को परदे पर उतारा था। इस फिल्म ने 148 करोड़ की कमाई की और सुपरहिट रही। 
  इसके बाद तो ये तय हो गया कि दर्शकों को ईद पर सलमान खान की ही फिल्म देखना है। 2012 में 'एक था टाईगर' आई। सलमान खान और कैटरीना कैफ की इस फिल्म ने 198 करोड़ की कमाई की और सुपरहिट रही। जबकि, 2013 में सलमान की जगह शाहरुख़ खान 'चेन्नई एक्सप्रेस' लेकर आए और बाजी मार गए। रोहित शेट्टी की इस फिल्म ने 277 करोड़ का धमाकेदार कारोबार किया। इसमें शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण की जोड़ी थी। लेकिन, अगला साल फिर सलमान के नाम रहा। 2014 ने ऐसी 'किक' मारी कि 232 करोड़ की कमाई कर ली। ये वो फिल्म थी, जिससे सलमान खान ने बॉक्स ऑफिस पर 200 करोड़ क्लब में कदम रखा था।
  सलमान ने ईद पर अपना डंका बजाना जारी रखा और 2015 में 'बजरंगी भाईजान' से सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। ये सलमान की अब तक सबसे ज्यादा कमाने वाली फिल्म रही। इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 321 करोड़ की कमाई की। 2016 की ईद भी सलमान के नाम रही। इस साल आई 'सुल्तान' को दर्शकों ने 301 करोड़ की ईदी दी। लेकिन, 2017 की ईद सलमान के लिए कमाई के हिसाब से अनुकूल नहीं रही। इस साल आई 'ट्यूबलाइट' बॉक्स ऑफिस  पर सबसे कमजोर फिल्म रही। फिल्म ने 111 करोड़ का ही कलेक्शन किया, जिसमें बड़ा हिस्सा शुरूआती दिनों का था। देखा जाए तो 2018 में 'रेस-3' ने भी बॉक्स ऑफिस पर वैसा कमाल नहीं किया, जैसी उम्मीद की जाती है। रेमो डिसूजा के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने बमुश्किल 150 करोड़ की कमाई की, जिसे एवरेज कहा जा सकता है। 
   पिछले साल (2019) सलमान खान 'भारत' लेकर आए, जिसने 205 करोड़ का कारोबार किया। सलमान के साथ कैटरीना की पुरानी जोड़ी वाली इस फिल्म का कथानक कमजोर था। लेकिन, फिर भी फिल्म ने ठीकठाक कारोबार किया। इस साल सलमान राधे बनकर दर्शकों को रिझाने आने वाले थे, पर फिल्म कोरोना संक्रमण की भेंट चढ़ गई! अक्षय कुमार की इसी दिन रिलीज होने वाली 'लक्ष्मी बॉम्ब' तो अमेजन प्लेटफार्म पर उतरने को राजी हो गई, पर सलमान खान ने ऐसा कोई एलान किया!


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Tuesday, May 19, 2020

भाजपा में अब संगठन के फैसलों के मुखर विरोध की हिम्मत होने लगी!

  इसे संयोग कहें या वक़्त का फेर, जो भी माना जाए! पर, इन दिनों प्रदेश का भाजपा संगठन अजीब मुसीबत में फंसा है! वो जो भी फैसला करता है, उस पर उंगलियां उठने लगती है। मामला चाहे 22 सिंधिया समर्थकों को उपचुनाव में टिकट देने का हो या 24 नए जिला अध्यक्ष बनाने का! दोनों फैसलों में विरोध के सुर सामने आए! फ़िलहाल उभरे विरोध को भले दबा दिया गया हो, पर इसे हमेशा के लिए ख़त्म नहीं माना जा सकता। नए जिला अध्यक्षों की घोषणा के बाद पुराने नेता जिस तरह उखड़ पड़े, उससे संगठन की कड़ियों के कमजोर होने का अहसास होने लगा! इंदौर और ग्वालियर में तो विरोध मुखर होकर सामने भी आ गया। ऐसे ही सभी सिंधिया समर्थकों को उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवार बनाने को लेकर भी पार्टी में अंदर जो असंतोष उभरा है, वो भी गंभीर मामला है। ये ऐसा असंतोष है, जो पार्टी के दिशा-निर्देशों की अनदेखी करके खदबदाकर बाहर निकल आए तो आश्चर्य नहीं!
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- हेमंत पाल

  भाजपा संगठन के काम करने की अपनी शैली है। राष्ट्रीय स्तर से प्रदेश स्तर तक संगठन का पार्टी के नेताओं पर भारी दबदबा है। इस सर्वशक्तिमान संगठन के फैसलों पर न तो कोई टिप्पणी करने की हिम्मत करता है और न किसी दबाव में कभी फैसलों को बदला जाता है। अब तक यही होता आया है, इसलिए समझा जाता है कि संगठन जो कहे, वो हमेशा सही होता है! लेकिन, लगता है अब अनुशासन की ये दीवार दरकने लगी और विरोध और असंतोष के सुर अंदर तक गूंजने लगे। पार्टी के नेता अब अनुशासन की मुंडेर लांघकर संगठन के आँगन में भी अपनी बात कहने में संकोच नहीं करते! उनकी बात सुनी जाए या नहीं, पर उनके सुर अब इतने मुखर तो होने लगे कि उसे विरोध कहा जाने लगा है! हाल ही में दो ऐसे मामले सामने आए जिनमें नेताओं ने संगठन को उसकी हैसियत का अंदाजा करवा दिया।           
  पहला मामला 24 नए जिला अध्यक्षों की नियुक्ति को लेकर था, जिसे लेकर खुला विरोध किया गया। दो बड़े शहरों इंदौर और ग्वालियर में तो विरोध की स्थिति ये रही कि बड़े नेताओं ने खुलकर बयानबाजी की। इंदौर में गौरव रणदिवे के नगर अध्यक्ष बनने के बाद अलग-अलग कोनों से विरोध का सिलसिला चला। उधर, ग्वालियर में नव नियुक्त अध्यक्ष कमल माखीजानी को लेकर पार्टी के कई बड़े नेताओं ने विरोध के झंडे उठा लिए। सांसद विवेक शेजवलकर के करीबी कमल माखीजानी को ग्वालियर का भाजपा जिला अध्यक्ष बनाए जाने पर पार्टी का एक गुट खुलकर सामने आ गया। ये बात अलग है कि बाद में ग्वालियर के इन नेताओं और कार्यकताओं को अनुशासन के नाम पर डरा-धमकाकर माफीनामा लिखवा लिया गया! पर, सभी जानते हैं कि ये विरोध को झाड़कर जाजम के नीचे करने की फौरी कार्रवाई है। उनके दिलों में विरोध का उबाल तो आज भी है, जो अब वक़्त आने पर बाहर भी निकलेगा।   
    इस विरोध की इंदौर में शुरुआत हुई नगर अध्यक्ष की दौड़ में सबसे आगे रहे पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता उमेश शर्मा के दुख जाहिर करने से। वे लम्बे समय से नगर अध्यक्ष की दौड़ में थे और उम्मीद लगाए थे कि पार्टी भी उनके दावे को नजरअंदाज नहीं करेगी! लेकिन, गौरव रणदिवे ने उनको पछाड़ दिया। इसके बाद भाजपा के बड़े नेता और पहले नगर अध्यक्ष रहे भंवरसिंह शेखावत ने गौरव रणदिवे को लेकर मोर्चा खोला। शेखावत ने रणदिवे को नौसिखिया नेता तक कहा! उनका कहना सही भी था, कि उनके पास पर्याप्त राजनीतिक अनुभव नहीं है! शेखावत ने शहर के कई नेताओं के इस विरोध में साथ होने की बात भी कही। उनकी इस बात में दम है कि रणदिवे भाजपा में कभी किसी पद पर नहीं रहे। वे सिर्फ एनएसयूआई कार्यकर्ता थे। बाद में पूर्व विधायक  सत्यनारायण सत्तन ने भी शेखावत का साथ देते हुए रणदिवे की नियुक्ति पर टिप्पणी की! पर, हमेशा की तरह बाद में वे पलटी मार गए कि मेरी बात को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। सत्तन ये पहले भी कई बार कर चुके हैं। 
   गौरण रणदिवे भले अपने राजनीतिक गणित से इंदौर के नगर अध्यक्ष बनने में कामयाब हो गए हों, पर इसके लिए उन्हें बहुत से पापड़ बेलने पड़े। पार्टी के प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत पहले रणदिवे को युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनवाने की कोशिश में थे। किंतु, जब वे इस कोशिश में सफल नहीं हुए, तो नगर भाजपा अध्यक्ष बनवा दिया। क्योंकि, युवा मोर्चा के अध्यक्ष के मामले में प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा सहमत नहीं थे। पार्टी में यह भी चर्चा में है कि प्रदेश अध्यक्ष और गौरव रणदीवे की पटरी नहीं बैठती! दोनों पहले विद्यार्थी परिषद् में साथ काम कर चुके हैं। उसी समय दोनों के बीच किसी मुद्दे पर ठन गई थी। इसके बाद से ही दोनों में संबंध मधुर नहीं हैं। जानकारों का ये भी कहना है कि सुहास भगत से भी रणदिवे के रिश्ते बहुत पुराने नहीं है। दो-तीन साल में गौरव ने सुहास भगत से नजदीकी बनाई है। इसका एक बड़ा कारण दोनों का मराठी होना भी समझा जा रहा है।  
    उधर, ग्वालियर का किस्सा भी इससे अलग नहीं है। वहां के जो नेता सांसद गुट से अलग हैं, उन्होंने कमल माखीजानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। ग्वालियर में पार्टी के 37 बड़े नेताओं ने बकायदा बैठक करके जिला अध्यक्ष बनाए गए कमल माखीजानी का न केवल विरोध किया बल्कि राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिखकर सुहास भगत पर गंभीर आरोप भी लगाए। उनका कहना जिला अध्यक्ष के तौर पर माखीजानी किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं हैं। बाद में संभागीय संगठन मंत्री आशुतोष तिवारी ने इन लोगों से बात कर समझाने कि कोशिश भी की। भाजपा नेता जयसिंह कुशवाह का कहना सही है कि विरोध कमल माखीजानी की नियुक्ति के तरीके का है। इस पद पर नियुक्ति सहमति से होनी चाहिए, किसी को थोपा जाना गलत है। लेकिन, बाद में विरोध करने वालों को डराकर चुप करा दिया गया। सुहास भगत पर आरोप लगाने वालों को पार्टी से निकालने की धमकी दी तो 37 में से 5 नेताओं ने पत्र लिखकर सुहास भगत पर लगाए गए आरोपों पर खेद व्यक्त कर दिया। 
  इंदौर और ग्वालियर में उठा विरोध तो सतह पर आ गया, पर कई जिलों में विरोध का लावा खदबदा रहा है। धार में जिस राजू यादव को जिला अध्यक्ष बनाया गया, उसे भी बड़े नेता पचा नहीं पा रहे हैं। जिले में पार्टी के बड़े नेताओं की कमी नहीं है, पर संगठन ने एक ऐसे नेता को कमान सौंप दी, जिसकी अपनी कोई छवि नहीं है। राजू यादव के विरोध का एक संकेत ये भी है कि पार्टी के नेताओं ने उसे औपचारिक बधाई तक नहीं दी। इसके अलावा कुछ और जिलों में भी युवा चेहरे के नाम पर थोपे गए अध्यक्षों का मूक विरोध शुरू हो गया। संगठन ने इस बात को महसूस भी किया कि 24 नवनियुक्त जिला अध्यक्षों को लेकर पार्टी में असंतोष है। इन नियुक्तियों को लेकर शिकायतों के दौर चल रहे हैं। अधिकांश में जिलों प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत को लेकर नाराजी है। प्रदेश के प्रभारी उपाध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे ने इन जिला अध्यक्षों की नियुक्तियों की समीक्षा के लिए एक टीम बनाई और बाद में इससे इंकार भी कर दिया। 
  भाजपा संगठन के खिलाफ विरोध का झंडा उठाने का दूसरा मामला हाटपिपल्या के पूर्व विधायक दीपक जोशी के बयान का है। उन्होंने कांग्रेस के बागी  और अब उपचुनाव में भाजपा के टिकट के दावेदार मनोज चौधरी को लेकर पिछले दिनों खुला विरोध किया। उन्होंने पार्टी को एक तरह से चेतावनी दी कि 'उनके पास सारे विकल्प खुले हुए हैं।' दीपक जोशी की बात जब संगठन तक पहुंची, तो आनन-फानन में उन्हें तलब कर माफ़ी मंगवाई गई! मज़बूरी में उन्होंने भले अपने कदम पीछे खींचे हों, पर उनके दिल में जो मलाल है, पार्टी उसे कैसे दूर करेगी! ये स्थिति सिर्फ दीपक जोशी की नहीं, उन 22 विधानसभा क्षेत्रों में पिछला विधानसभा चुनाव हारे उन सभी भाजपा उम्मीदवारों की है, जहाँ से अब कांग्रेस के बागी भाजपा के निशान पर उपचुनाव लड़ेंगे! दीपक जोशी को सिर्फ उस विरोध का प्रतीक माना जा सकता है! संभव है कि उपचुनाव में 'दूसरे विकल्प' का रास्ता 22 में से कई भाजपा नेता अपनाएं! अभी इंतजार कीजिए आने वाले 3 महीनों में बहुत कुछ ऐसा होगा, जो भाजपा संगठन ने सोचा भी नहीं होगा!


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Sunday, May 17, 2020

परदे पर 'रोटी' का लम्बा दौर

- हेमंत पाल

   फिल्मों में 'रोटी' को विषय बनाकर फिल्मकारों ने कई बार प्रयोग किए। इनमें जीवन में 'रोटी' को अहमियत दर्शाने की कोशिश की गई और कई बार उसे गीतों में भी ढाला गया। फिल्मों में 'रोटी' से करुणा निर्मित की गई, तो हास्य भी रचा गया। इसके चलते यह तथ्य नकारा नहीं जा सकता कि फिल्मों से लाखों लोगों की थालियों में रोटी नसीब होती है। यह भी विचारणीय है कि कोरोना संकट के चलते फिल्मोद्योग के लाखों लोगों के सामने रोटी का खतरा पैदा हो गया है। चार्ली चैप्लिन को 'मार्डन टाइम' फिल्म में मंदी के दौर में जूते के सोल को उबालकर प्लेट में डालकर रोटी की तरह छुरी कॉंटे से खाते दिखाया गया था। कई बार डायनिंग टेबल के नीचे छुपे नायक या नायिका को चुपके से रोटी खिलाने के दृश्य भी फिल्मों में दिखाई दिए। राजेन्द्रनाथ जैसे कामेडियन को रोटियों की थप्पियां उड़ाते दिखाकर हास्य प्रसंग भी रचे गए।
   रोटी को लेकर 'आवारा' के उस सीन को याद कीजिए जब राज कपूर को जेल हो जाती है। वह लाइन में लगकर रोटी लेता है, फिर उंगलियों पर रोटी को नचाते हुए कहता है 'तू पहले बाहर ही मिल जाती तो मैं अंदर क्यों आता? 'दीवार' में पुलिस इंस्पेक्टर बना शशि कपूर एके हंगल के बेटे को चोरी करके भागते हुए गोली मार देता है। लेकिन, जब पास आकर देखता है, तो उसके हाथों में 'रोटी' होती है। 'समाज को बदल डालो' में शारदा भूख से तड़फते बच्चों को रोटी में जहर मिला कर खिला देती है। मनोज कुमार की फिल्म 'क्रांति' में रोटी और कमल वाला कंसेप्ट दिखाया गया था। अमिताभ की फिल्म 'कालिया' में भी जेल में एक फाइट सीन रोटी को लेकर ही था। यहाँ तक तो ठीक है, गायक और संगीतकार हिमेश रेशमिया तो टीवी के हर रिएलिटी शो में दावा करते दिखाई देता है कि 'तेरे घर में रोटी मैं दूंगा।' 
  'रोटी' को लेकर गीत भी कम नहीं हैं। 1959 में आई फिल्म 'काली टोपी लाल रुमाल' का मोहम्मद रफ़ी का गाया गीत 'दीवाना आदमी को बनाती है रोटियां' भी उस दौर में खासा पसंद किया गया था। 1973 की फिल्म 'ज्वार भाटा' में धर्मेंद्र पर फिल्माए गीत 'दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ' फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत था। इसका संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने दिया था और इस गाने को गायक किशोर कुमार और लता मंगेशकर ने गाया था। ये फिल्म तेलुगू फिल्म 'दागडू मोथालु' का रीमेक थी। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर औसत प्रदर्शन किया, लेकिन फिल्म अपने गानों के चलते चर्चा में रही थी। मनोज कुमार की फिल्म 'शोर' में टोपी में रोटी लाए हैं, भूख लगे तो खा लेना।  
   फिल्मों में अक्सर दिखाया जाता है कि बड़े घर की बेटी जब गरीब हीरो के घर शादी करके आती है, तो आड़ी-तिरछी रोटियां बेलती है। 'आन' में बागी बना  दिलीप कुमार राजकुमारी नादिरा को उठा लाता है और उससे रोटियां  बिलवाता है। फिल्मों में ललिता पवार ने भी क्रूर सास बनकर कई फ़िल्मी बहुओं की थाली से रोटियां छिनी हैं। 2013 में आई फिल्म 'द लंच बाक्स' में रोटियों के बीच ही प्रेम प्रसंग रचा गया था। मुंबई जिंदगी पर बनी इस फिल्म में डिब्बे वाले गलती से पति नकुल वैद्य को भेजा डिब्बा साजन फर्नांडिस (इरफ़ान खान) के पास पहुँच जाता है। पहली बार टिफिन के बदलने के बाद डिब्बेवाले को अपनी इस गलती का कभी पता ही नहीं चलता और दोनों के टिफिन रोज बदलते रहते हैं। इसी डिब्बे की रोटियों से प्रेम पनपता है। 
  सबसे पहले फिल्म के परदे पर 'रोटी' को मेहबूब ने अपनी पटकथा का आधार बनाया था। 1942 में प्रदर्शित हुई 'रोटी' हिंदी सिनेमा की एक अनूठी फिल्म है। यह एक काल्पनिक देश की कहानी थी, जहाँ आदिम समुदाय निवास करता है। वहाँ संपत्ति की अवधारणा नहीं होती और वस्तुओं के विनियम से लोगों का काम चलता है। वहाँ आधुनिक सभ्यता का एक जोड़ा अपना हवाई जहाज क्रेश होने से पहुँच जाता है। इस तरह आधुनिक सभ्यता और मानवीय गरिमा के द्वंद्व का चित्रण किया गया था। फिल्म के अंत में नायक रेगिस्तान में भूखा-प्यासा दम तोड़ता है, जबकि उसकी मोटर में सोने की ईंटें भरी होती हैं। फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत सितारा देवी के स्वर में 'सजना सांझ भई, आन मिलो-आन मिलो सजना सांझ भई' था। 
   चर्चित कथाकार मोहन राकेश की रचना 'उसकी रोटी' पर 1969 में मणिकौल ने फिल्म बनाई थी। इसे नए सिनेमा की शुरुआत भी माना जाता है। इसे 1970 के फिल्म फेयर अवॉर्ड में बेस्ट फिल्म का क्रिटिक अवॉर्ड मिला था। ये फिल्म एक ट्रक ड्राइवर और उसकी पत्नी के जीवन पर बनी थी। इसके बाद 1974 में राजेश खन्ना और मुमताज की 'रोटी' आई। इस फिल्म के साथ ही मनोज कुमार की 'रोटी कपड़ा और मकान' भी रिलीज हुई थी। इसमें 'रोटी' का सीधे कोई संदर्भ नहीं था, पर अपराधी मंगल सिंह (राजेश खन्ना) को रोटी की अहमियत समझते जरूर बताया गया था। 1990 में मिथुन चक्रवर्ती की भी एक फिल्म 'रोटी की कीमत' नाम से आई थी! लेकिन, इसमें 'रोटी' की बात कम मारधाड़ ज्यादा थी।  
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Sunday, May 10, 2020

अनिश्चित भविष्य को ताकता बॉलीवुड

- हेमंत पाल

   कोरोना संक्रमण के इस दौर में चारों तरफ दुनिया बदलती दिखाई दे रही है। हर व्यक्ति खुद को संक्रमण से बचाने की कोशिश में लगा है। ऐसे में सपनों की दुनिया बॉलीवुड भी इससे अछूती नहीं रही। इस संकट के समय सिर्फ फिल्मों की रिलीज ही नहीं रुकी, बहुत कुछ हुआ या आगे होगा जिसके बारे में कल्पना नहीं की गई। कोरोना की वजह से देशभर में लागू लॉक डाउन ने कई फिल्मों रिलीज को रोक दिया। सिनेमाघर बंद हो गए और शूटिंग भी नहीं हो रही। फिल्मों को लेकर ये तात्कालिक फैसले थे! लेकिन, आगे बहुत कुछ ऐसा होगा, जो अनसोचा होगा। सबसे बड़ा संकट को ये है कि क्या दर्शक सिनेमाघरों में आएंगे!  
   एक्शन के जाने-माने डायरेक्टर रोहित शेट्टी की 24 मार्च को रिलीज़ होने वाली फिल्म 'सूर्यवंशी' को रोक दिया गया। प्रोमो के प्रति दर्शकों की उत्सुकता को देखते हुए इसके प्रोड्यूसर्स को इसकी धमाकेदार ओपनिंग की उम्मीद थी। लेकिन, महामारी के कारण हालात इतनी तेजी से बदले कि सब कुछ थम गया। इस वजह से 'सूर्यवंशी' की रिलीज़ नहीं हुई। ये हादसा सिर्फ़ 'सूर्यवंशी' के साथ ही नहीं हुआ, बहुत सी फिल्मों का भविष्य अंधकारमय हो गया। 1983 के क्रिकेट विश्व कप में भारत की ऐतिहासिक जीत पर कपिल देव को केंद्र में रखकर बनी कबीर ख़ान की फिल्म '83' भी अटक गई! इसमें रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण हैं। ये फिल्म 10 अप्रैल को परदे पर आने वाली थी।
   20 मार्च को रिलीज होने वाली यशराज फिल्म्स की 'संदीप और पिंकी फरार' भी 24 मार्च को दर्शकों के सामने आने वाली थी! अप्रैल में आने वाली अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना की 'गुलाबो सिताबो', अभिषेक बच्चन की 'लूडो' और जाहन्वी कपूर की 'गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल' का प्रदर्शन भी खटाई में पड़ गया। ईद पर 22 मई को तय सलमान खान की 'राधे' की विदेश में शूटिंग टलने से ये संभावना भी क्षीण है। अब ये फिल्म इस बार की ईद पर तो रिलीज होने से रही। हॉलीवुड की जेम्स बॉन्ड सीरीज की बड़ी फिल्म 'नो टाइम टू डाई' का अप्रैल में होने वाला विश्वव्यापी प्रदर्शन भी नवंबर तक टल गया। बड़ी फिल्मों की रिलीज आगे बढ़ने से आने वाली फिल्मों की व्यवस्था भी बुरी तरह प्रभावित हो जाती है। क्योंकि, फिल्मों की तारीख पहले से ही तय होती है, ऐसे में दो-चार फ़िल्में एक साथ रिलीज होगी तो उनका बिजनेस बंट जाएगा। 
  लॉक डाउन के समय कंगना रनौत तमिलनाडु में 'थलाइवी' की शूटिंग कर रही थीं। 45 दिन की शूटिंग तय थी, लेकिन शूटिंग के लिए भीड़ जुटाने की इजाजत नहीं मिली, तो शूटिंग रोकना पड़ी। करण जौहर अपनी मल्टीस्टारर पीरियड फ़िल्म 'तख़्त' की शूटिंग अप्रैल में करने वाले थे। योरप में फिल्म का सेट भी बन गया था। लेकिन, अनिश्चितता को देखते हुए सेट को तोड़े जाने की खबर है। करण जौहर अब इस फिल्म के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। उन्होंने  इटली और स्पेन में शूटिंग की, दो साल से इस फिल्म के लिए मेहनत की! लेकिन, सबकुछ रुक गया। फ़िलहाल करण जौहर की दो फ़िल्में रिलीज़ के लिए तैयार हैं। सात फ़िल्मों का निर्माण चल रहा है! पर, अभी जो हालात हैं कोई कहने की स्थिति में नहीं है कि आगे क्या होगा! 
  इस माहौल में फिल्म प्रोडक्शन कंपनियों का बहुत बुरा हाल है। कंपनियों में काम बंद है, स्टूडियो सूने पड़े हैं, वे सारे कलाकार जिनके पास वक़्त नहीं होता था, फ़िलहाल फालतू बैठे हैं। किसी को पता नहीं कि स्थिति कब नॉर्मल होंगी। दर्शक कब सिनेमाघरों में लौट सकेंगे। जानकारों का कहना है कि जिन फ़िल्मों की रिलीज़ रुकी है, वे जब भी रिलीज़ होंगी, उन्हें घाटा उठाना पड़ सकता है। जो दो फ़िल्में लॉक डाउन के ठीक पहले रिलीज हुई, वे भी कोरोना का शिकार हो गईं! 'अँग्रेजी मीडियम' शुरू के तीन दिन में 10 करोड़ रुपए का बिजनेस ही कर पाई थी कि थियेटर बंद कर दिए गए। जबकि, इस फिल्म का बजट ही 40 करोड़ रुपए है। टाइगर श्राफ और श्रद्दा कपूर की 'बागी-3' थोड़ा पहले परदे पर उतर आई तो 97 करोड़ तक पहुँच गई। यह फिल्म लॉक डाउन कुछ पहले 6 मार्च को रिलीज हो गई थी। अब लॉकडाउन के बढ़ने पर संभावित आशंकाओं को देखते हुए फ़िल्मकारों ने भी बदलाव के संकेत देने शुरू कर दिए! लेकिन, कोई भी बदलाव वो दिन वापस नहीं ला सकता, जो गए हैं। 
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Tuesday, May 5, 2020

सबको खुश कर दे, शिवराज के लिए ऐसा विस्तार आसान नहीं!   

  शिवराजसिंह चौहान के सामने मंत्रिमंडल का विस्तार गले में फँसी हड्डी की तरह है! कांग्रेस से बगावत करके भाजपा सरकार बनवाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया से किए वादे निभाना उनकी मज़बूरी है। ऐसे में सबसे बड़ा संकट मंत्रिमंडल में क्षेत्रीय और जातीय संतुलन बनाने के साथ उन बड़े नेताओं को समझाना भी है, जिन्हें विस्तार में दूर रखा जाएगा। इस बात का भी ध्यान रखना है कि वे मंत्री न बनाए जाने से भी नाराज न हों और उपचुनाव में ईमानदारी से काम करें! लेकिन, ये सारी चुनौतियां आसान नहीं है। संभव है कि मंत्रिमंडल में शामिल न किए जाने वाले नेता अभी कोई प्रतिक्रिया न दें, पर उपचुनाव में खुन्नस निकालें! ये संकट ऐसे हैं, जिनसे आसानी से पार नहीं पाया जा सकता। मंत्री न बन पाने से चूके विधायक रूठकर जो संकट खड़ा करेंगे, उसका इलाज कोरोना से कहीं ज्यादा मुश्किल है! यही कारण है कि इस बार मंत्रिमंडल विस्तार आसान नहीं है! 
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- हेमंत पाल

    मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के मंत्रिमंडल विस्तार की सेज सज चुकी है। पहली बार में 28 मंत्रियों के कोटे में 5 मंत्री बना दिए, अब जो 23 जगह बची है, उसमें 8 जगह ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थकों के लिए रिज़र्व है! इसमें काटछांट की कोई गुंजाइश नहीं! जो 15 जगह बचती है, उसके लिए भाजपा के तीन दर्जन दावेदार हैं और सब ख़म ठोंककर बैठे हैं। सपा और बसपा के तीन विधायक अलग उम्मीद लगाए हैं। इसके अलावा 4 निर्दलीय विधायकों में से भी किसी को लेना पड़ सकता है! इस खेमेबंदी में मुख्यमंत्री के लिए संतुलन बनाना आसान नहीं लग रहा! शिवराजसिंह के सामने सिंधिया के 8 लोगों को मंत्री बनाना एक तरह से राजनीतिक बाध्यता है! ये संख्या किसी भी स्थिति में कम होने के कोई आसार नहीं है! क्योंकि, प्रदेश में भाजपा के सरकार में आने का आधार यही सिंधिया समर्थक हैं। यदि 23 मंत्री (जिसकी संभावना नहीं) शपथ लेते हैं, तो भाजपा को उसमें 15 जगह ही मिलेगी। लेकिन, इन 15 में किसे शामिल किया जाएगा, ये ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब आसान नहीं है। भाजपा सरकार के सामने ये ऐसा पेंच है, जो परेशानी का कारण बन सकता है। कई बड़े नेता ऐसे हैं, जिन्हें किनारे करना पार्टी के लिए आसान नहीं होगा! कहा जा रहा है कि भाजपा अपने कुछ बड़े चेहरों को एडजस्ट करने के लिए सिंधिया समर्थकों की संख्या में कुछ काटछांट करने की कोशिश में है! किंतु, ये ज्योतिरादित्य सिंधिया को मंजूर नहीं है!
    इस बात से इंकार नहीं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया राजनीति के बड़े खिलाड़ी हैं। वे भाजपा की राजनीति को भी बहुत अच्छी तरह जानते हैं। बदली परिस्थितियों में कब, कौनसी चाल चलना है, उन्हें ये पता है। निश्चित रूप से भाजपा का दामन थामने से पहले उन्होंने ऐसी सारी संभावनाओं को टटोल भी लिया होगा। फिलहाल सिंधिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने 22 लोगों को उपचुनाव में जितवाना है। क्योंकि, उनकी जीत पर ही शिवराज सरकार और खुद उनका राजनीतिक भविष्य टिका है। इस बार के मंत्रिमंडल विस्तार में जब सिंधिया समर्थकों को जगह मिलेगी, तभी उनके लिए चुनाव जीतना आसान होगा! इस बात को जितना सिंधिया समझते हैं, उतना भाजपा संगठन भी! ऐसे में सारा त्याग भाजपा के उन नामचीन विधायकों को करना होगा, जो कुर्सी की आस लगाए बैठे थे।
    सिंधिया समर्थक तुलसी सिलावट अनुसूचित जाति वर्ग से हैं और कमलनाथ सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रह चुके हैं। जबकि, इसी खेमे के डॉ प्रभुराम चौधरी भी अनुसूचित जाति से हैं। लेकिन, सिंधिया ने पहले तुलसी सिलावट को मंत्री बनवाया। बुंदेलखंड से गोविंदसिंह राजपूत को पहले मंत्री बनने का मौका मिला! वे ठाकुर समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं! अब एक और ठाकुर प्रद्युमन सिंह तोमर को मौका मिलेगा! संभव है कि राजवर्धनसिंह दत्तीगाँव भी मंत्री बनें, वे भी ठाकुर हैं। गोविंदसिंह राजपूत के कारण शिवराजसिंह के ख़ास भूपेंद्र सिंह का नाम कट गया था! उन्हें दूसरी खेप में भी मंत्री बनने को मिलता है या नहीं, ये देखना है। यदि इस बार भी उनका नंबर नहीं लगा, तो उनका गुस्सा गोविंद राजपूत पर भारी पड़ेगा। पहली बार में सिंधिया ग्वालियर-चम्बल इलाके से कोई मंत्री नहीं बनवा सके! इसलिए वहाँ से अब ज्यादा से ज्यादा को मंत्री बनवाना उनकी मज़बूरी है। क्योंकि, उपचुनाव में सबसे ज्यादा राजनीतिक उठापटक ग्वालियर-चंबल में ही देखने को मिलेगी।
  इस बार के मंत्रिमंडल विस्तार में जो चार सिंधिया समर्थक मंत्री बनने वाले हैं, उनके नाम तो तय हैं। ये चारों ग्वालियर-चंबल के ही हैं। इसके अलावा अन्य चार नामों में एदलसिंह कंसाना, रघुराजसिंह कंसाना और बिसाहूलाल सिंह को सिंधिया समर्थक तो नहीं कहा जा सकता, पर इन्होने सिर्फ मंत्री बनने के लिए कांग्रेस से बगावत की है। बाकी का एक नाम राजवर्धनसिंह दत्तीगाँव है! ऐसी स्थिति में क्षेत्र और जाति संतुलन बैठाने के लिए कुछ भाजपा विधायकों को किनारे करना पार्टी की मज़बूरी होगी। ऐसे में उनकी अगली रणनीति क्या होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। कहा ये भी जा रहा है कि ग्वालियर के कई भाजपा नेता सिंधिया समर्थकों को भाजपा में ज्यादा भाव मिलने से खफा हैं! लेकिन, पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध होने की वजह से चुप हैं! लेकिन, उनकी ये चुप्पी उपचुनाव में भारी पड़ सकती है।
  मई के अंत या जून के पहले हफ्ते में राज्यसभा चुनाव के लिए मतदान होना है। इसलिए भी मंत्रिमंडल विस्तार जरूरी है। मुख्यमंत्री की कोशिश है कि  कोरोना संक्रमण की स्थिति में नए मंत्रियों को शपथ दिलाकर उन्हें जिलों का दायित्व सौंप दिया जाए! ऐसा करने से मुख्यमंत्री का काम थोड़ा बंट सकेगा और नए मंत्री भी अपनी इमेज बना सकेंगे! सबसे ज्यादा फ़ायदा सिंधिया समर्थकों को होगा, जिन्हें 4 महीने बाद चुनाव लड़ना है। सिंधिया के 17 समर्थक ग्वालियर-चम्बल संभाग से हैं। तीन मालवा से एक बुंदेलखंड से और एक विंध्य से है। अभी मालवा (सांवेर) से तुलसी सिलावट और बुंदेलखंड (सुरखी) से गोविंद राजपूत मंत्री बने हैं। अब इमरती देवी, महेंद्र सिंह सिसौदिया, प्रद्युमन सिंह तोमर और प्रभुराम चौधरी का मंत्री बनना पक्का है। जबकि, अन्य चार में हरदीपसिंह डंग, एदलसिंह कंसाना और बिसाहूलाल सिंह को मंत्री बनाए जाने की संभावना है। लेकिन, अभी बहुत कुछ होना बाकी है।
  मंत्रियों के नाम के मामले में सिंधिया समर्थकों में ज्यादा पेंच नहीं है! मुश्किल तो भाजपा में है, जहाँ पार्टी सबको साधकर रखने की कोशिश कर रही है। क्योंकि, ऐसे में जरा सी चूक उपचुनाव में भारी पड़ सकती है, जो भाजपा नहीं चाहती! भाजपा को अपने नेताओं को संतुष्ट करने के साथ उन्हें उपचुनाव में मदद के लिए भी तैयार करना है! जैसे कि गोविंद राजपूत सुरखी से चुनाव तभी जीत सकते हैं, जब गोपाल भार्गव और भूपेंद्र सिंह कमर कस लें। मंत्री बनाने के लिए अभी भाजपा के जिन नेताओं के नाम चर्चा में आए हैं, वे भूपेंद्र सिंह, गोपाल भार्गव, रामपाल सिंह, यशोधरा राजे सिंधिया, अजय विश्नोई, गौरीशंकर बिसेन, संजय पाठक, विश्वास सारंग, अरविंद भदौरिया, विजय शाह, ओमप्रकाश सकलेचा, जगदीश देवड़ा, यशपाल सिंह सिसोदिया, हरिशंकर खटीक, प्रदीप लारिया, पारस जैन, रमेश मेंदोला, गोपीलाल जाटव और मोहन यादव हैं। नाम तो सुरेंद्र पटवा का भी सुना जा रहा है, पर वे चैक बाउंस के मामले में फंसे हैं। इनमें गोपाल भार्गव को विधानसभा अध्यक्ष बनाने की बात सुनी जा रही है। राज्यपाल को दी जाने वाली अंतिम सूची के बाद जो राजनीतिक उथल-पुथल मचेगी, उसका अंदाजा लगाना अभी मुश्किल है। भाजपा और शिवराज सिंह बिना विरोध के इस संकट से कैसे उबरते हैं, ये पार्टी की रणनीतिक सफलता होगी। 
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Sunday, May 3, 2020

बॉलीवुड पर जानलेवा बीमारियों का साया

- हेमंत पाल

    सितारों की दुनिया इन दिनों बीमारियों के संक्रमणकाल से गुजर रही है। इरफ़ान खान और ऋषि कपूर जैसे दो बड़े कलाकारों की लगातार दो दिनों में कैंसर से हुई मौत ने सिनेमा जगत के साथ फिल्मों के शौकीनों को भी हिला दिया। बॉलीवुड में जब कोई बीमार होता है तो उस पीड़ा से फिल्म से जुड़े कई लोग प्रभावित होते हैं। ऋषि कपूर और इरफ़ान खान की मौत ने भी कई को अंदर से तोड़ दिया। लेकिन, ये तय है कि बीमारी से कोई भी मुक्त नहीं है, फिर वो कितना भी बड़ा कलाकार ही क्यों न हो! बॉलीवुड में इन दिनों कई नामचीन लोग किसी न किसी बीमारी की गिरफ्त में हैं। कुछ की बीमारी जगजाहिर है, कुछ ने छुपा रखी है। लेकिन, बीमारी वो बला है जो कभी छुपी नहीं रहती! बॉलीवुड का इतिहास फिल्मों से जुड़े लोगों की बीमारियों से भरा पड़ा है। कई बड़े कलाकार और डायरेक्टर जानलेवा बीमारियों का शिकार हुए हैं! लेकिन, सबसे ज्यादा कहर बरपाया कैंसर ने! 
    आज सलमान खान सबसे सफल हीरो हैं। लेकिन, वे भी लंबे समय से एक अजीब सी बीमारी से परेशान हैं। मेडिकल की भाषा में इसे 'ट्रिगेमिनल न्यूराल्जिया' (प्रोसोपल्जिया) कहा जाता है। यह चेहरे और जबड़े से जुड़ी ऐसी बीमारी है, जिसमें मरीज को हमेशा झनझनाहट जैसा दर्द होता रहता है। इसे फेसियल डिसऑर्डर भी समझा जा सकता है। ये बीमारी हज़ारों में एक को होती है। शाहरुख खान भी अब तक शरीर के अलग-अलग हिस्सों की आठ सर्जरी करा चुके हैं। बताया जाता है कि इसका कारण फिल्मों में डांस और एक्शन सीन हैं। 
   फिल्म 'कृष' की शूटिंग के 2013 में रितिक रोशन ने कई एक्शन सीन किए थे। इसका असर उनके दिमाग पर भी पड़ा। दो महीने तक सिरदर्द की शिकायत रहने के बाद जब उनका सीटी स्कैन और एमआरआई किया गया तो पता चला कि उनके दिमाग में क्लॉट है, इसे क्रोनिक सबड्यूरल हीमाटोमा कहा जाता है। समझने के लिए इतना है कि उनके दिमाग में खून के थक्के जमा हैं। डॉक्टरों के मुताबिक सामान्यतः दिमाग की ऐसी स्थिति 65 साल की उम्र के बाद होती है। लेकिन, ऑपरेशन के बाद से रितिक ठीक हैं।
   ऋषि कपूर, इरफ़ान खान से पहले मुमताज, फिरोज खान, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, टॉम आल्टर और उससे पहले नरगिस और पृथ्वीराज कपूर तो कैंसर के सामने हार गए! पर, सोनाली बेंद्रे, लीज़ा रे, मनीषा कोइराला, ताहिरा कश्यप (आयुष्मान खुराना की पत्नी), अनुराग बासु ऐसे कुछ नाम हैं, जिन्होंने कैंसर को हरा दिया। राकेश रोशन को भी गले का कैंसर बताया गया है। 2007 में सैफ अली खान को छाती में दर्द की तकलीफ हुई थी। डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें दिल का हल्का दौरा पड़ा था। उसके बाद से सेहत को लेकर ज्यादा सचेत हो गए हैं।
    नेपाल के राज परिवार से जुड़ी और एक समय बॉलीवुड की सेंशेसन रही मनीषा कोइराला भी ओवरी के कैंसर से जूझ चुकी है। 2012 में मनीषा के कैंसर की खबर सामने आई थी। उन्होंने ऑपरेशन करवाकर कैंसर से मुक्ति पाई। किसी जमाने में दर्शकों को अपनी खूबसूरती से लुभाने वाली राजेश खन्ना की कई हिट फिल्मों में उनकी जोड़ीदार रही, मुमताज को भी 2002 में स्तन कैंसर से पीड़ित बताया गया था। सर्वकालीन सुपरहिट कलाकार अमिताभ बच्चन भी 'स्प्लीनिक रप्चर' से त्रस्त हैं। 1982 में फिल्म 'कुली' की शूटिंग के दौरान अमिताभ गंभीर रूप से घायल हो गए थे। यहाँ तक कि डॉक्टरों ने उनके बचने की उम्मीद भी छोड़ दी थी। लेकिन, अमिताभ ने अपनी फिल्मों के हीरो की तरह परदे पर वापसी की। लेकिन, 1984 में वे एक बीमारी मीस्थेनिया ग्रेविस के कारण शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो गए। इसमें मांसपेशियां कमजोर हो जाती है और व्यक्ति जल्द थकान महसूस करने लगता है। इसके अलावा उन्हें लीवर सिरोसिस भी है जो कुली के सेट पर घायल होने दौरान ब्लड ट्रांस्फ्यूशन से हुआ। ऐश्वर्या राय की हमश्क्ल से जानी जाने वाली एक्ट्रेस स्नेहा उल्लाल भी गंभीर बीमारी से पीड़ित रह चुकी हैं। वे ऑटोइम्यून डिसऑर्डर से पीड़ित रह चुकी हैं। यह बीमारी खून से जुड़ी है।
    ऐसा नहीं कि आज के कलाकारों पर ही बीमारियां मेहरबान हो रही है। गुजरे जमाने के राज कपूर भी दमे का शिकार हुए थे। दिलीप कुमार तो अकसर अस्पताल आते-जाते रहते हैं। एक्ट्रेस साधना ऐसे रोग से बीमार हुई, जिसका इलाज आज 50 पैसे की गोली से हो जाता है। बचपन में चेचक का टीका न लगने से गीताबाली को जान गंवानी पड़ी थी। पृथ्वीराज कपूर कैंसर का शिकार होने वाले पहले फिल्म सितारा थे। उनके बेटे शम्मीकपूर ने अपने जीवन की सांझ डायलसिस करते गुजारी। जुबली फिल्मों के सितारे राजेंद्र कुमार भी बीमारी का ही शिकार हुए थे!
   ये तो बॉलीवुड के वे खुशनसीब लोग हैं, जो दर्द से कराहकर और इलाज कराकर आज दर्शकों का मनोरंजन कर रहे हैं। लेकिन, ये किस्मत संजीव कुमार, विनोद मेहरा, अमजद खान, संगीतकार आदेश श्रीवास्तव, लक्ष्मीकांत बेर्डे, नरगिस, गुरुदत्त, मीना कुमारी, मधुबाला और गीता बाली जैसे लोगों की नहीं रही! ये सभी किसी न किसी बीमारी का असमय शिकार हुए थे। लेकिन, बीमारी किसी की लोकप्रियता से प्रभावित नहीं होती! जब बीमारी को आना होता है तो वो कोई पहचान नहीं देखती कि उसका शिकार होने वाला इरफ़ान खान है ऋषि कपूर है या कोई आम आदमी!
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