Monday, August 31, 2020

इंदौर में कोरोना के नए हमले के पीछे नेतागिरी और लापरवाही!

 इंदौर में कोरोना बेकाबू होता जा रहा है। अगस्त महीने में 10 बार कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या एक दिन में 200 के पार गई। अंतिम दिन तो आंकड़ा 272 रहा! इसका कारण लोगों की लापरवाही के अलावा सांवेर उपचुनाव को भी माना जा सकता है। नेतागिरी के कारण राजनीतिक गतिविधियां बढ़ी और इंदौर में संक्रमण बढ़ा। प्रशासन मज़बूरी है कि वो नेताओं पर अंकुश नहीं लगा पा रही! खुले आम भंडारे और जनसम्पर्क चल रहा है। हाल ही में मुख्यमंत्री की इंदौर यात्रा ने भी शहर में मरीज बढ़ाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की! आश्चर्य है कि जब ज्यादातर आयोजन वर्चुअल हो रहा है, तो मुख्यमंत्री के चार कार्यक्रम क्यों आयोजित किए गए। सभी में मंच के ऊपर और सामने अच्छी खासी भीड़ लगी। यहाँ तक कि सांवेर क्षेत्र में भंडारा भी हुआ, जिसमें हज़ारों लोगों ने बिना मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग के अपने आसपास कोरोना संक्रमण परोसा!             

- हेमंत पाल

   इंदौर में चार महीने तक कोरोना का इलाका सीमित था। लोग डरे हुए भी थे। घर से नहीं निकल रहे थे और नियमों को मान रहे थे! पर, पिछले एक-डेढ़ महीने से सारे नियमों की धज्जियाँ उड़ाई जाने लगी। रविवार को लॉक डाउन होने पर भी सड़कों पर भीड़ रहने लगी, प्रशासन भी सख्ती करने से पीछे हट गया। नेताओं की लापरवाही ने भी लोगों को उकसाया और वे भी उच्श्रृंखल होने लगे। अभी तक शहर के मध्य और पश्चिमी क्षेत्र में ही अधिकांश मरीज मिले थे। लेकिन, धीरे-धीरे कोरोना ने नए इलाकों में भी अपने पैर पसारना शुरू कर दिया! यहाँ तक कि अब कोरोना के इलाज के लिए तय अस्पतालों के डॉक्टर्स और स्टॉफ भी संक्रमित होने लगे हैं। नगर निगम के कर्मचारी और पुलिस जवान और थाना प्रभारी तक इसकी चपेट में आने लगे। आसपास के ग्रामीण इलाकों में भी कोरोना का फैलाव होने लगा। अगस्त महीने में 10 बार 200 से ज्यादा संक्रमित मरीज मिले हैं। अंतिम दिनों में ही 6 बार मरीजों का आंकड़ा 200 पार निकला। आखिरी दिन 272 मरीज मिले। शहर में अब तक 210428 संदिग्ध मरीजों के सैंपल की जांच चुकी है। इनमें से करीब 13000 मरीज पॉजेटिव मिले। करीब 9 हज़ार ठीक हुए और मरने वालों का आंकड़ा 400 करीब है।  

    कोरोना के मरीजों की संख्या बढ़ने पर प्रशासन ने सार्वजनिक जगहों पर मास्क न लगाने वालों पर जुर्माने की राशि सौ रुपए से बढाकर 200 रुपए कर दी। सार्वजनिक जगहों, दफ्तरों, कारखानों और संस्थानों में मास्क न पहनने वालों पर 200 रुपए प्रति व्यक्ति स्पॉट फाइन किया जाएगा। ठीक से मास्क न लगाने वालों और पास खड़े होकर बात करने वाले लोगों पर भी 200 रुपए का स्पॉट फाइन होगा। शहर में नगर निगम, नगरीय निकाय के अधिकारियों और ग्रामीण क्षेत्र में एसडीएम या उनके द्वारा प्राधिकृत अधिकारी को स्पॉट फाइन करने का अधिकार दिया गया है। लेकिन, देखा गया है कि शहर में नेताओं के अलावा नगर निगम और सरकारी कर्मचारी सबसे ज्यादा बिना मास्क घूमते हैं।  

  सांवेर में चुनावी हलचल के कारण कोरोना संक्रमण सबसे ज्यादा बढ़ा। इस कारण ग्रामीण भी बीमारी के चपेट में आए। उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवार और राज्य सरकार में मंत्री तुलसी सिलावट खुद परिवार समेत कोरोना संक्रमित हो चुके हैं। यहाँ से कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार प्रेमचंद गुड्डू को भी इस बीमारी ने नहीं छोड़ा! देखा जाए तो दोनों ही पार्टियों ने अपने-अपने तरीके से सांवेर में संक्रमण बढ़ाने में अपना योगदान दिया। कांग्रेस के नारे 'हर हर महादेव घर-घर महादेव' और भाजपा के नारे 'हर-हर मोदी घर-घर तुलसी' जैसे राजनीतिक नाटकों ने सांवेर में घर-घर कोरोना बाँट दिया। प्रशासन पूरे शहर के लोगों को डंडा फटकार कर नियम मानने के लिए मजबूर कर रहा है, पर सांवेर को लेकर वो मुंह मोड़कर बैठा है। इसे सीधे-सीधे प्रशासन की कमजोरी ही माना जाना चाहिए! 

  सांवेर उपचुनाव में धनबल, बाहुबल के अलावा सबसे ज्यादा उपयोग लापरवाही का भी होगा। सारे नियमों को ताक पर रखकर नेता मंडली प्रशासन की गाईड लाइन का उल्लंघन करती नजर रही है। सांवेर की जनता और कार्यकर्ताओं को चुनाव के नाम पर दोनों पार्टियों ने भगवान भरोसे छोड़ रखा है। चुनाव प्रचार अभियान को घर-घर पहुंचाने की कोशिश में कार्यकर्ताओं की सुरक्षा कहीं नजर नहीं आ रही! पर, इसका नतीजा कहीं सांवेर के लोगों पर कहर बनकर न टूटे! क्योंकि, सांवेर की जनता के मन में भी संक्रमण को लेकर डर का माहौल बन गया है! ऐसे में अब आगे क्या होगा कहा नहीं जा सकता! कांग्रेस ने अभी मोर्चा नहीं संभाला है, पर भाजपा के नेताओं ने तुलसी सिलावट के लिए प्रचार काफी पहले शुरू कर दिया। ऐसे में उन्हें भी संक्रमण का डर सताने लगा है। कांग्रेस नेता प्रेमचंद गुड्डू भी कोराना की चपेट में आ चुके हैं। सांवेर उपचुनाव को लेकर वे भी सक्रिय हुए थे, पर अब संयमित हो गए। 

  कोरोना संक्रमण की मार ने किसी को नहीं छोड़ा, लेकिन सबसे ज्यादा मध्यमवर्गीय आदमी ने कमर ही टूटी। गरीब को जो चाहिए, वह सरकार ने दे दिया और उच्च वर्ग जैसा पहले जीवन जी रहा था, वैसा ही आज भी जी रहा है। फर्क पड़ा, तो मध्यमवर्गीय को। किसी का व्यवसाय डूब गया, तो किसी की नौकरी चली गई। इन सबके बावजूद जो इस संक्रमण काल से बिल्कुल भी नहीं डरा या कह लें कि जिसे बिल्कुल भी फर्क नहीं पड़ा, वह वर्ग है नेताओं का! फिर, चाहे पक्ष हो या विपक्ष। वे लोग जो कोरोना से बचने का संदेश देते थे, खुद एक के बाद एक कोरोना वायरस की चपेट में आते गए और आते जा रहे हैं। कारण इनकी लापरवाही और प्रशासन की अनदेखी के अलावा और कुछ नहीं है। 

  सांवेर उपचुनाव के कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार प्रेमचंद गुड्डू हो, चाहे विधायक कुणाल चौधरी। प्रदेश के मुखिया शिवराजसिंह चौहान, राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया हों या सांवेर के भाजपा प्रत्याशी और मंत्री तुलसीराम सिलावट! कोई भी कोरोना से बच नहीं सका! लेकिन, यदि आम आदमी कोरोना संक्रमित हो जाए, तो कोई नेता उसे बचाने नहीं आएगा! उसे तो अपने घर-परिवार से अलग होकर इलाज के दौरान अपने आपको अकेला और असहाय महसूस करना होगा। इंदौर में कोरोना के रोज बढ़ते आंकड़े तनाव पैदा कर रहे हैं। लोगों में भय है कि कहीं वे इसकी चपेट में न आ जाएं। कहीं ऐसा न हो कि शहर को फिर लॉक डाउन का सामना करना पड़े! क्योंकि, नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता, उन्हें जो करना है वे सब करते हैं। उन्हें सिर्फ उपचुनाव जीतने की चिंता है।

   जब ज्यादातर लोग घरों में कैद हैं, नेता राजनीतिक आयोजन से बाज नहीं आ रहे! वे राजनीतिक रैलियां कर रहे हैं भीड़ इकट्ठा कर रहे और हजारों कार्यकर्ताओं की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं। महामारी की सारी गाइड लाइन जनता पर थोपी जा रही है। आखिर नेताओं पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही! मरीजों के आंकड़े बढ़ने पर जनता को दोषी ठहराया जाता है, मास्क न लगाने वालों पर जुर्माना दुगना कर दिया जाता है! कहा जाता है कि जनता घर से निकलकर लापरवाही कर रही है। जबकि, नेताओं को सरकार बनाने की और बचाने की पड़ी है। जब कोरोना चरम पर है, तो नेताओं को उपचुनाव की चिंता ज्यादा है! क्योंकि इससे इन नेताओं का भविष्य तय होना है। संक्रमण कितना भी बढे नेताओं को तो बस उपचुनाव जीतने की पड़ी है! 

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Sunday, August 30, 2020

स्टार किड्स के खिलाफ उभरी नफरत!

- हेमंत पाल
   न दिनों एक नया माहौल बन रहा है, जो बॉलीवुड के कलाकारों और दर्शकों के बीच खटास बढ़ा रहा है! अभी तक दोनों के बीच प्रशंसक और दर्शक का अनमोल रिश्ता रहा है। इस रिश्ते को मजबूत करते हुए दर्शक बड़े सितारों के बच्चों को भी बतौर कलाकार स्वीकार करते रहे हैं। ये परंपरा दशकों से चली आ रही है। पृथ्वीराज कपूर का करीब पूरा परिवार ही परदे पर दिखाई दिया! अशोक कुमार के दोनों भाइयों फिल्मों में काम किया! बाद में सुनील दत्त और धर्मेंद्र के बेटे भी हीरो बने! पर, कभी भाई-भतीजावाद जैसी बात कभी नहीं उठी! लेकिन, सुशांतसिंह राजपूत की आत्महत्या मामले ने सिनेमा की दुनिया में इस मुद्दे को गरमा दिया। अब तो आग इतनी भड़क गई कि दर्शकों का एक धड़ा स्टार किड्स के खिलाफ बाहें चढ़ाकर खड़ा हो गया! अब तो ये नफरत इतनी बढ़ गई है, कि दो फिल्मों में ट्रेलर तक को दर्शकों ने नकार दिया।  
      महेश भट्ट की फिल्म 'सड़क-2' का ट्रेलर 12 अगस्त को रिलीज हुआ था। संजय दत्त को कैंसर होने की खबर सामने आने के बाद उम्मीद की जा रही थी, कि यह ट्रेलर दर्शकों को आकर्षित करेगा! लेकिन, जो हुआ वो उम्मीद से उलट था। फिल्म का ट्रेलर ट्रेंड तो हुआ, लेकिन ट्रोल होने के बाद। दर्शकों के मन में स्टार किड्स को लेकर बढ़ती नफरत को इसका कारण माना जा रहा है। फिल्म में संजय दत्त के साथ आलिया भट्ट और आदित्य रॉय कपूर हैं। 'सड़क-2' को महेश भट्ट ने डायरेक्ट किया है, जो करीब 20 साल बाद निर्देशन में लौटे हैं। सिनेमाघर बंद होने से इस फिल्म को ओटीटी पर रिलीज किया गया। फिल्म समीक्षकों ने ट्रेलर देखकर फिल्म की अच्छी सफलता की संभावना बताई! पर, इस ट्रेलर को जिस नकारात्मक नजरिए से लिया गया, कहा नहीं जा सकता कि दर्शक इसे कितना पसंद करते हैं! एक दिन में 22 मिलियन व्यूज मिलना सामान्य बात नहीं है! फिल्म ओटीटी पर रिलीज हुई, इसलिए इसके बॉक्स ऑफिस पर हिट या फ्लॉप होने जैसा तो स्पष्ट खुलासा नहीं होगा, पर इससे स्टार किड्स का भविष्य जरूर खतरे में दिखाई देने लगा।     ये अपनी तरह का पहला विरोध है। पहली बार हुआ कि किसी बड़े स्टार वाली फिल्म के ट्रेलर को पसंद से ज्यादा नापसंद किया गया! 'सड़क-2' का विरोध इसका पहला पोस्टर सामने आने के साथ ही होने लगा था। इस विरोध को एक्टर सुशांत की आत्महत्या से जोड़कर देखा जा रहा है! आशंका जताई गई थी कि सुशांत को बॉलीवुड में पसरे भाई-भतीजावाद ने ही आत्महत्या के लिए मजबूर किया है! इसी वजह से फिल्म को इतनी नफरत की नजर से देखा गया। क्योंकि, महेश भट्ट ने अपनी बेटी आलिया को फिल्म में लिया है। आदित्य रॉय कपूर भी फिल्म परिवार से जुड़े हैं और संयोग से संजय दत्त भी स्टार किड्स ही हैं! समझा गया है कि लोग इस फिल्म के ट्रेलर को नापसंद करके लोगों ने अपने ही अंदाज में सुशांत को श्रद्धांजलि दी है। फिल्म के विरोध का एक कारण यह भी है कि महेश भट्ट और सुशांत की मौत की कथित वजह रिया चक्रवर्ती की नजदीकी भी सामने आई है!   
   इस ट्रेलर को लेकर सोशल मीडिया पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं भी सामने आई! एक ने सुशांत के लिए न्याय की मांग करते हुए लिखा 'ट्रेलर आउट हो गया है, इसे केवल एक डिस्लाइक न दें, बल्कि इसे सबसे ज्यादा नापसंद किया जाने वाला ट्रेलर बनाएं! जबकि, सुशांत के एक चाहने वाले ने लिखा 'सड़क-2’ का ट्रेलर आ गया! संजय दत्तजी हमें क्षमा करें. हम जानते हैं कि आप इस समय किस दर्द से गुजर रहे हैं, लेकिन कृपया समझें, हम महेश भट्ट और उनके परिवार के सदस्यों की फिल्में देखना पसंद नहीं कर सकते! सुशांत जैसे प्रतिभाशाली अभिनेता की हत्या में उनका हाथ है और हम भारतीय यह बर्दाश्त नहीं कर सकते! ये अपने आपमें बेहद गंभीर मामला है! क्योंकि, बात सिर्फ स्टार किड्स तक सीमित नहीं, महेश भट्ट के विरोध की भी है। 
     ये बात भी सोलह आने सच है कि एक कलाकार की मौत ने स्‍टार किड्स को लेकर नफरत का माहौल बना दिया, जो चरम पर है। दो और स्‍टार किड्स अनन्‍या पांडे और ईशान खट्टर की आने वाली फिल्म ‘खाली पीली’ के टीजर का भी विरोध हुआ! शाहिद कपूर के भाई ईशान खट्टर और चंकी पांडे की बेटी अनन्या पांडे लीड रोल में नज़र आ रहे हैं। यूट्यूब पर अपलोड होने के कुछ ही घंटों में इसे दो मिलियन से ज्यादा व्‍यूज मिले, जिनमें साढ़े 6 लाख से ज्यादा नापसंदगी वाले हैं। सुशांत मामले के बाद स्‍टार किड्स के प्रति लोगों में नफरत बहुत ज्यादा बढ़ी है। 'सड़क-2' के बाद 'खाली पीली' को भी जो नकारात्मक प्रतिक्रिया मिली, उससे ये दिखाई देने लगा है कि दर्शकों के दिल में ये लावा लम्बे समय से खदबदा रहा था, जो एक मौका मिलते ही फटकर बाहर आ गया। वजह सिर्फ यही है कि दोनों फिल्मों के सितारे स्‍टार किड्स हैं।
   फिल्म खाली-पीली के टीजर को लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ रही है। टीजर को लाइक्स से ज्यादा डिस्लाइक्स मिले हैं। अब इस फिल्म को सिनेमाघर खुलने तक स्थगित करने के बजाए सीधे 2 अक्टूबर को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज किया जाएगा ताकि खुले विरोध से बचा जा सके। वरूण धवन ने तो सोशल मीडिया पर सुशांत की मौत की सीबीआई जाँच की मांग कर दी, तो भी लोगों ने उनको ट्रोल किया। मुद्दा ये है कि फिलहाल स्टार किड्स जनता की बात के समर्थन में भी खड़े होंगे, तो लोग उन्हें गलत ही समझेंगे। 
    स्टार किड्स के खिलाफ उभर रही नफरत का एक असर ये हुआ इन कलाकारों को नई फ़िल्में मिलना मुश्किल होने लगा। जिन फिल्मों में इन्हें लिया गया था, उनसे भी बाहर किया जाने लगा। एसएस राजामौली की फिल्म 'ट्रिपल-आर' से आलिया भट्ट बाहर हो गई! राजामौली अपनी पिछली फिल्म 'बाहुबली' की तर्ज पर इसे कई भाषाओं में रिलीज करने वाले हैं। हिंदी भाषी दर्शकों को जोड़ने के लिए उन्होंने अभिनेत्री आलिया भट्ट को फ़िल्म में लेने का फैसला किया था! लेकिन, नेपोटिजम पर छिड़ी बहस के बाद उन्होंने आलिया को किनारे कर दिया। ये तो पहली खबर है, पर आगे ऐसी घटनाएं बढ़ना तय है। क्योंकि, कोई भी फिल्मकार बेवजह विवाद नहीं बनाना चाहता और न अपना नुकसान होने देना चाहता है! 
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Monday, August 24, 2020

उपचुनाव की तैयारी शुरू, पर चुनावी मुद्दे नदारद!

मध्यप्रदेश में होने वाले 27 विधानसभा उपचुनाव की दोनों पार्टियों ने अपने-अपने स्तर पर तैयारी शुरू कर दी। जहाँ तक चुनाव लड़ने की शैली की बात है, तो सबको पता है कि दोनों पार्टियों के अंदाज में अंतर है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि भाजपा किन मुद्दों को लेकर चुनाव मैदान में उतरेगी? कांग्रेस के पास तो सिंधिया-गुट की दगाबाजी सबसे बड़ा मुद्दा है! पर, भाजपा क्या करेगी! वो सिंधिया समर्थक और भाजपा उम्मीदवारों का बचाव करने से तो रही! अलबत्ता कमलनाथ के 15 महीने के कार्यकाल की खामियों को खोजेगी! लेकिन, बिजली बिल जैसे मुद्दों पर भाजपा खुद घिरेगी। क्योंकि, कांग्रेस की 15 महीने की सरकार को लोग बहुत कम समय मान रहे हैं! ऐसे में भी बिजली बिल में लोगों को जो रियायत मिली, वो भाजपा के गले की फाँस बन सकती है! 
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- हेमंत पाल

    ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 15 महीने पुरानी कमलनाथ सरकार गिराने के लिए जिस तरह के हथकंडे अपनाए, वो अब किसी से छुपे नहीं है। पूरा घटनाक्रम और राजनीतिक स्वार्थ सबके सामने है। ये अपने आपमें अनोखी राजनीतिक घटना है, जिसने गुजरात में बरसों पहले हुई प्रेशर पॉलिटिक्स की याद दिला दी। शंकरसिंह वाघेला के नेतृत्व में उस समय घटे घटनाक्रम में 42 विधायकों को अहमदाबाद से मध्यप्रदेश लाकर खजुराहो में छुपाया गया था। तब वहाँ तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के खिलाफ बगावत हुई थी, जबकि मध्यप्रदेश में कमलनाथ खिलाफ! लेकिन, उस समय गुजरात में सिर्फ मुख्यमंत्री बदलने के लिए दबाव बनाया गया था, पार्टी के खिलाफ बगावत नहीं हुई थी। ये संदर्भ उस बात को याद दिलाने के लिए लिखा गया कि भाजपा में ऐसे असंतोष सामान्य हैं, जिसे अब उन्होंने दूसरी पार्टियों की सरकार गिराने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।   
  अब कांग्रेस बग़ावतियों खिलाफ उपचुनाव में इसी राजनीतिक दगाबाजी को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश करेगी। स्वाभाविक भी है कि कांग्रेस यही  करेगी! लेकिन, भाजपा के पास फिलहाल इसकी काट कर सकने वाला ऐसा कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। ... और न ऐसा असरदार मुद्दा जो मतदाताओं को प्रभावित कर सके! सिंधिया समर्थकों लालच देकर बगावत के लिए मजबूर करने का कांग्रेस आरोप उपचुनाव में क्या रंग दिखाता है, ये तो वक़्त बताएगा। लेकिन, बताया जा रहा कि राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार फूलसिंह बरैयां की हार को भाजपा दलित उपेक्षा बताकर भुनाने की कोशिश कर सकती है! वो ये साबित करना चाहेगी कि हमने अनजान आदिवासी सुमेरसिंह सोलंकी को राज्यसभा भेजने का साहस किया, जबकि कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को फिर से राज्यसभा में भेजने के लिए फूलसिंह बरैयां को हरवा दिया। लेकिन, यदि कांग्रेस के रणनीति के तहत फूलसिंह बरैयां को उपचुनाव में किसी सीट से उम्मीदवार बना दिया, तो भाजपा के  की भी हवा निकल सकती है। 
     उपचुनाव को लेकर दोनों तरफ तैयारी जोरों पर है, तय है कि उपचुनाव रोचक होंगे! कुछ तैयारी सामने दिखाई दे रही है, कुछ परदे के पीछे है। पर, ये सभी को समझ आ रहा है कि भाजपा के पास किसी बड़े मुद्दे का अभाव है। इस नजरिए से चुनावी हमले करने में कांग्रेस भारी पड़ सकती है। शुरुआती दौर में एक तरफ दगाबाजी और दूसरी तरफ दलित उपेक्षा ही चुनावी मुद्दे नजर आ रहे हैं। चुनाव के नजदीक आने तक सियासी फिजां के साथ मुद्दे भी बदलते दिखाई दें तो आश्चर्य नहीं! कांग्रेस का कहना है कि प्रदेश के मतदाताओं ने पार्टी को 5 साल के लिए जनादेश दिया था! मगर, राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता लोलुपता के चलते कमलनाथ की सरकार को अल्पमत में लाकर गिरा दिया गया। उपचुनाव में भाजपा का झंडा लेकर खड़े ये वही लोग हैं, जिन्होंने जनादेश की अवहेलना की। प्रदेश में 27 विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होने वाले हैं, इनमें वे 26 सीटें वे हैं, जहां 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी! लेकिन, एक कांग्रेस विधायक के निधन और 25 की बगावत और इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होने के कारण कमलनाथ सरकार गिर गई थी। कांग्रेस की चुनावी रणनीति जगजाहिर है। क्योंकि, कांग्रेस ने जिन विधायकों की वजह से सरकार गँवाई है, वो उन्हें आसानी से जीतने का मौका नहीं देगी।
   भाजपा ने राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस पर दलित उपेक्षा का आरोप लगाया था। पार्टी का कहना है कि कांग्रेस लगातार अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लोगों की उपेक्षा करती रही है। राज्यसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ। दलित नेता फूलसिंह बरैयां को उम्मीदवार तो बनाया, मगर हराने के लिए! कांग्रेस का वास्तविक चरित्र भी यही है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि कांग्रेस ने जाने-अनजाने में भाजपा के हाथ में एक बड़ा मुद्दा दे दिया। कांग्रेस लगातार भाजपा पर हमले बोलने के लिए दल-बदल करने वाले नेताओं को बतौर हथियार उपयोग करती आ रही है। वहीं, भाजपा के हाथ में भी दलित उपेक्षा का मुद्दा लग गया है। जिन 27 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होना है, इनमें से 16 सीटें ग्वालियर चंबल इलाके से आती हैं। यह ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव वाला क्षेत्र है। यहां अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के मतदाताओं की संख्या भी अधिक है। कई विधानसभा सीटों के नतीजे तो इस वर्ग के मतदाता ही तय करते हैं। यही कारण है कि भाजपा इस मुद्दे को मांजने में लगी है। 
  उधर, कमलनाथ कांग्रेस के लिए सीटों का समीकरण बनाने की रणनीति बनाने में जुटे हैं। कमलनाथ के करीबियों का मानना है कि यह उपचुनाव कांग्रेस के सत्ता में वापसी का आखिरी विकल्प है और शिवराज से हिसाब बराबर करने का मौका भी। कमलनाथ हर सियासी चाल चल रहे हैं। अभी तक की स्थिति मुताबिक विधानसभा की 27 सीटों पर उपचुनाव होने के आसार हैं। लेकिन, संभावना बताती है कि ये संख्या बढ़कर 31 तक पहुँच सकती है। क्योंकि, सिंधिया पर निर्भरता कम करने के लिए भाजपा का तोड़फोड़ अभियान अभी जारी है। वो उपचुनाव की घोषणा से पहले 4-5 और कांग्रेसी विधायकों को भाजपा में शामिल करने की जुगत में है। विधानसभा की 230 सदस्य संख्या में स्पष्ट बहुमत के लिए जरूरी आंकड़ा 116 है। मौजूदा समय भाजपा के पास 107 विधायक हैं तो कांग्रेस के पास 92 की संख्या है। ऐसे में उपचुनाव ही फैसला करेंगे कि प्रदेश में बाकी साल किसकी सरकार होगी!   
   शिवराज सिंह चौहान सरकार को स्पष्ट बहुमत के लिए सिर्फ 9 सीटों की जरूरत है, तो कांग्रेस को सभी 27 सीटें जीतना होगी। कांग्रेस के लिए उपचुनाव में क्लीन स्वीप आसान नहीं है। उपचुनाव के भरोसे कमलनाथ सरकार की सत्ता में वापसी मुश्किल दिख रही है। सिंधिया के कारण इस्तीफा देने वाले कांग्रेस के विधायकों को ही फिर से चुनाव लड़ाकर भाजपा सीटें जीतने की जुगत में है, तो कांग्रेस सीटों को बचाने की कोशिश में है। कांग्रेस के नेताओं की और से विधायकों के विश्वासघात की दुहाई देकर जनता से उन्हें सबक सिखाने की अपील की जा रही है। यूं तो उपचुनाव में सत्ताधारी भाजपा की स्थिति मजबूत मानी जा रही है। लेकिन, कई सीटों पर भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा अपनों से चुनौती मिल रहीं हैं! इसमें देवास जिले की हाटपिपलिया, इंदौर जिले की सांवेर, ग्वालियर जिले की ग्वालियर, रायसेन की सांची और सागर जिले की सुरखी सीटें हैं। यहां भाजपा के कुछ स्थानीय नेताओं के बीच अंतर्कलह की स्थिति उभरकर सामने आ रही है! ऐसे में कांग्रेस भाजपा के अंदरखाने मचे संघर्ष का फायदा उठाने की कोशिश कर रही है! लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि असरदार मुद्दे क्या होंगे!  
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Sunday, August 23, 2020

असहमति का दूसरा नाम कंगना!

 - हेमंत पाल

   काफी साल पहले एक फिल्म आई थी 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है!' इस फिल्म में अल्बर्ट पिंटो का गुस्सा महज अभिनय था! लेकिन, अभिनेत्री कंगना रनौत को फ़िल्मी गुस्सा नहीं आता! ये बात अलग है कि उनके गुस्से का कारण कुछ भी हो सकता है। कंगना रनौत इन दिनों फिर गुस्सा हैं। वैसे भी वे सामान्य कम ही रहती हैं। जरूरी नहीं कि उनके गुस्से का कोई आधार हो! कंगना कब किस बात पर अपना आपा खो दें, कोई नहीं जानता! वास्तव में तो कंगना असहमति का दूसरा नाम है। हर मामले में अपनी सलाह और नज़रिया व्यक्त करना कंगना की आदत है! इन दिनों वे एक्टर सुशांतसिंह राजपूत की आत्महत्या वाले मामले में उखड़ी हुई हैं। साथ ही चीन की घुसपैठ पर भी नाराज हैं। राम मंदिर निर्माण के शिलान्यास वाले दिन अमिताभ बच्चन का कोई ट्वीट न करना भी कंगना के पेट दर्द की एक वजह है। बॉलीवुड में कम ही लोग होंगे, जो इस अभिनेत्री की कसौटी पर खरे उतरते हों! उन्हें हर व्यक्ति में खोट नजर आता है, सिवाय खुद के! कंगना की इस आदत को उनकी बहन रंगोली ने ज्यादा हवा दी है। सोशल मीडिया पर कंगना के नाम से जो भी आग उगली जाती है, वो इसी बहन के कारण है।    
     कंगना की नजर में पूरा बॉलीवुड ख़ामियों से भरा है और सभी उनकी उपलब्धियों से जलते हैं। दरअसल, ये इस अभिनेत्री की खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने की ग़लतफ़हमी है, और कुछ नहीं! उन्हें हर फ़िल्मकार से शिकायत है कि वे बड़े कलाकारों के बच्चों को लेकर ही फिल्म क्यों बनाते हैं! इससे कई प्रतिभाशाली कलाकार दबकर रह जाते हैं! सुशांत की आत्महत्या वाले मामले में कंगना ने किसी को भी कटघरे में खड़ा करने में देर नहीं की! नेपोटिजम (भाई-भतीजावाद) के नाम पर उन्होंने करण जौहर से लगाकर यशराज फिल्म्स, महेश भट्ट और संजय लीला भंसाली तक को नहीं छोड़ा! इन फिल्मकारों के अलावा टाइगर श्रॉफ और सोनाक्षी सिन्हा तक पर उंगली उठाई! कुछ लोगों ने कंगना को उसी अंदाज में जवाब भी दिया। 
   इससे इंकार नहीं कि कंगना रनौत अभिनय के मामले में प्रतिभाशाली हैं। क्वीन, तनु वेड्स मनु, तनु वेड्स मनु रिटर्न जैसी फिल्मों में उन्होंने अपनी अदाकारी का लोहा मनवाया है! लेकिन, परदे की यह अभिनेत्री अपने बगावती तेवरों के कारण आज सोशल मीडिया में खलनायिका बन गई! राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने, रितिक रोशन के साथ विवाद, पासपोर्ट में गलत उम्र का मामला, नेपोटिजम पर बवाल, जेएनयू मामले पर टिप्पणी और चीन विवाद जैसे कई मामले हैं, जिनपर कंगना बेवजह बोली! यही कारण है कि सोशल मीडिया पर 'कंगना' ब्रांड निगेटिव हो गया। खुद अपने प्रोडक्शन हाउस की फिल्म 'मणिकर्णिका' के समय भी उनके अपनी डायरेक्टर से कई विवाद हुए! सोशल मीडिया पर कंगना के पक्ष-विपक्ष में अकसर खेमेबाजी होती है। कंगना के खिलाफ ट्विटर पर नकारात्मक हैशटैग भी ट्रेंड करते रहते हैं। राम मंदिर मामले में अमिताभ पर उंगली उठाकर इस अभिनेत्री ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया। इसके अलावा कंगना ने तापसी पन्नू को भी सोशल मीडिया में घेरने की कोशिश की। पर, तापसी ने उसी अंदाज में जवाब भी दिया। 
   अपनी आदत और बगावती अंदाज़ के कारण कंगना बॉलीवुड में अकसर अकेली पड़ जाती है! कभी देखा नहीं गया कि कोई कंगना के समर्थन में ज्यादा देर खड़ा रहा हो! उनकी तुनकमिज़ाज, मुंहफट, दबी बातों को उजागर करने और बड़े कलाकारों के साथ फिल्मों के ऑफर ठुकराने के कारण बॉलीवुड में उनकी नकारात्मक छवि बन गई है। यही कारण है कि ज्यादातर फ़िल्मकार और कलाकार अब कंगना से कन्नी काटने लगे। क्योंकि, वे कब, किस बात पर किसको कटघरे में खड़ा कर दें, कहा नहीं जा सकता! अपनी इन आदतों के कारण मीडिया भी कंगना का साथ नहीं देती। भारतीय मनोरंजन पत्रकार गिल्ड ने एक पत्रकार के साथ बदतमीजी को लेकर कंगना रनौत के बहिष्कार तक का फैसला किया था। 
   बॉलीवुड में नेपोटिजम स्वाभाविक है! लेकिन, ये सिर्फ बॉलीवुड में ही नहीं, राजनीति और बिज़नेस वर्ल्ड में भी उतना ही है। ये आज की बात भी नहीं है। बॉलीवुड में राज कपूर परिवार और भट्ट कैम्प आज नहीं पनपे! लेकिन, परदे पर वही लम्बी रेस का घोड़ा बन पाता है, जिसमें क़ाबलियत होती है। राज कपूर का एक ही बेटा ऋषि कपूर चला, देव आनंद का बेटा अभिनय में नहीं चला, राकेश रोशन दूसरे दर्जे के नायक थे, पर उनका बेटा रितिक आज सफल हीरो है। शशि कपूर का बेटा नहीं चला, अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा और जीतेंद्र के बेटे भी आउट हो गए, क्योंकि उनमें क़ाबलियत नहीं थी। बड़े अभिनेताओं के बच्चों की असफलताओं की लिस्ट बहुत लम्बी है। लेकिन, औसत हीरो जैकी श्रॉफ़ का बेटा टाइगर आज स्टार है। शत्रुघ्न सिन्हा की बेटी सोनाक्षी भी औसत दर्जे की हीरोइन है, पर महेश भट्ट की बेटी आलिया का जलवा है। इसलिए नेपोटिजम जैसी बहस बॉलीवुड के लिए बेमतलब है। 
   कंगना को नेपोटिजम के बहाने अपनी व्यक्तिगत कुंठा निकालने का मौका जरूर मिल गया और वे वही कर रही हैं! क्या कंगना के पास इस बात का जवाब है कि यदि वास्तव में बॉलीवुड में नेपोटिजम इतना हावी होता तो खुद उन्हें कोई काम देता! क्योंकि, कंगना का तो कोई गॉड फादर नहीं है! फिर भी उनकी अभिनय क्षमता पहचाना गया और उन्हें काम मिला! कंगना को नजदीक से जानने वालों का ये निष्कर्ष काफी हद तक सही है कि ये कंगना का राजनीतिक एजेंडा है, जिसे वे नेपोटिजम की आड़ में स्थापित करना चाहती हैं! 
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Monday, August 17, 2020

मध्यप्रदेश के उपचुनाव में जो खोना है, भाजपा ही खोएगी!

   जब ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस के 22 विधायकों ने विद्रोह करके कमलनाथ की सरकार गिराई थी, तब और आज की स्थिति में बहुत अंतर आ गया। भाजपा और कांग्रेस दोनों में इस बदलाव को महसूस किया जा सकता है। मार्च में जब शिवराज सिंह ने सरकार बनाई थी, तब वे और पूरी भाजपा उत्साह से भरी थी! पर, आज वो हालात नहीं है। मंत्रिमंडल के गठन के दौरान जो कुछ घटा, उसने भाजपा को विचार-मंथन के लिए मजबूर कर दिया। यही वजह है कि भाजपा में सिंधिया के प्रति अविश्वास बढ़ा और पार्टी ने नए विकल्प पर विचार शुरू कर दिया। इसीलिए सरकार बचाने के लिए नए सिरे से कांग्रेस में तोड़फोड़ शुरू की गई! कोशिश है कि कांग्रेस के इतने विधायकों को तोड़ दिया जाए कि उपचुनाव में सिंधिया-गुट पर निर्भरता न रहे! क्योंकि, सिंधिया के साथ भाजपा में आए ज्यादातर नेताओं की जीत भी संदिग्ध है। इसलिए कहा जा सकता है, कि उपचुनाव में भाजपा के मुश्किल ज्यादा है! कांग्रेस के पास तो खोने के लिए कुछ नहीं बचा! 

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हेमंत पाल

   प्रदेश में विधानसभा उपचुनाव को लेकर भाजपा के सामने बड़ी चुनौती है, उन 22 नेताओं को फिर से चुनाव जिताना जो भाजपा में आए हैं। जब ये घटनाक्रम हुआ, तब लग रहा था कि भाजपा के लिए ये मुश्किल नहीं है। पार्टी हमेशा चुनावी मूड में रहती है, तो इन 22 सीटों को भी निकाल लेगी। लेकिन, जैसे-जैसे वक़्त निकलता गया, माहौल बदलता गया! शिवराज मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद तो परिस्थितियां बहुत बदली गई। सिंधिया-समर्थकों को मंत्री बनाने और फिर मनपसंद विभाग देने में काफी किच-किच हुई! इस चक्कर में भाजपा के कई वरिष्ठ विधायकों को मंत्री नहीं बनाया जा सका, तो उनका असंतोष भी सतह पर आ गया। लेकिन, अब वादे मुताबिक इन 22 सीटों पर भाजपा को उन्हें ही उम्मीदवार तो बनाना पड़ेगा! 2018 में हुए विधानसभा  चुनाव लड़कर इन नेताओं से हारे नेताओं की नाराजी तो पहले से ही थी। अब मंत्री न बन पाने से इन असंतुष्ट नेताओं का गुट अलग से बनने लगा है। उपचुनाव सबसे ज्यादा सीटें ग्वालियर-चंबल इलाके में हैं, इसलिए वहाँ तो असंतोष का पारा काफी उपर चढ़ा है! लेकिन, मालवा-निमाड़ में भी सबकुछ ठीक नहीं है। सिंधिया समर्थकों के टूटने के बाद भी भाजपा ने जिन 2 कांग्रेस विधायकों पर झपट्टा मारा है, वहाँ भी गुपचुप नए समीकरण बनने की ख़बरें हैं। 
    भाजपा के दिल्ली दरबार में ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थकों को ज्यादा महत्व मिलना भी पीड़ा का कारण है। भाजपा में इससे दो ध्रुव पनपने लगे हैं। जबकि, पार्टी ने इन असंतुष्टों को ये समझाने की कोशिश भी की गई कि यदि ये 22 विधायक कांग्रेस से विद्रोह नहीं करते, तो भाजपा की सरकार ही नहीं बन पाती। पर, यह बात भाजपा नेताओं को समझ नहीं आ रही। रीवां के राजेंद्र शुक्ल तो तर्क देते हैं कि विंध्य न होता, तो सिंधिया की मदद भी बेकार थी! आशय ये कि विंध्य से भाजपा को ज्यादा सीटें नहीं मिलती तो सिंधिया-गुट का विद्रोह भी बेअसर था। मंत्रिमंडल विस्तार में इस इलाके की अनदेखी उन्हें रास नहीं आई! यही स्थिति धार जिले के बदनावर से 2018 में चुनाव हार चुके भंवरसिंह शेखावत और हाटपीपल्या में दीपक जोशी की है।
    रायसेन जिले की साँची सीट भी गौरीशंकर शेजवार की बपौती बन गई थी। लेकिन, वहाँ से 2018 में उनके बेटे मुदित शेजवार चुनाव हार गए थे। अब उन्हें उपचुनाव में उसी प्रभुराम चौधरी का झंडा उठाना पड़ेगा, जिनसे वो चुनाव हारे हैं। मंत्रिमंडल विस्तार में रायसेन जिले की ही सिलवानी सीट से जीते रामपाल को मौका नहीं दिया जाना भी प्रभुराम चौधरी के लिए परेशानी का कारण बने, तो आश्चर्य नहीं! गौरीशंकर शेजवार तो कोप भवन में थे ही, अब रामपाल भी उसके साथ हो गए। जबकि, शेजवार और रामपाल के ग्रह कभी आपस में नहीं मिले! लेकिन, बदली परिस्थितियों में दोनों एक ही घर में आ गए। कहा जा सकता है कि नए प्रतिद्वंद्वी की मौजूदगी ने दो विपरीत ग्रहों को भी एक होने पर मजबूर कर दिया। 
   भाजपा नेताओं का दर्द आगर-मालवा और जौरा सीट को छोड़कर हर उस सीट पर हैं, जहाँ उपचुनाव होने वाले हैं। बालाघाट, ग्वालियर-चंबल, महाकौशल, मालवा-निमाड़ और मंदसौर में भी गुस्से का गुबार चरम पर है। भाजपा नेता भले ही सार्वजनिक रूप से असंतोष न दर्शा रहे हों, पर अंदरखाने ख़बरें बाहर आने से बच भी नहीं पा रही! कई क्षेत्रों में उपचुनाव न होने के बावजूद असंतोष गहरा रहा है। बालाघाट के विधायक गौरीशंकर बिसेन को भी मंत्री पद न मिलने का मलाल है। जबलपुर के पाटन क्षेत्र से कई बार चुनाव जीते विधायक अजय विश्नोई को तो मंत्री न बन पाने का दर्द अभी तक साल रहा है। सबसे पहले उन्होंने शिवराजसिंह को अपनी पीड़ा लिखकर जाहिर कर दी थी और कुछ बड़ा करने की उनकी चेतावनी भी दी। हाल ही में मरहूम राहत इंदौरी की एक ग़ज़ल की दो लाइन के उनके ट्वीट ने भी काफी बवाल मचाया। बाद में उन्होंने पार्टी के दबाव में ये ट्वीट डीलिट भी किया। उधर, मंदसौर में यशपालसिंह सिसौदिया ने भी अपने नेता को मंत्री पद न मिलने पर नाराजी जाहिर की। लेकिन, लगातार दो बार सबसे ज्यादा वोटों से जीतने वाले इंदौर के रमेश मेंदोला खामोश हैं! लेकिन, उनकी इस खामोशी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।     
   इसके अलावा भाजपा को ये भी रास नहीं आ रहा कि सिंधिया समर्थक उपचुनाव के लिए अपनी अलग टीम बना रहे हैं। चुनाव लड़ने की उनकी तैयारी भी अलग स्तर पर चल रही है। जबकि, ये सब भाजपा में अमूमन नहीं होता! स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं की ये नाराजी स्वाभाविक है। क्योंकि, भाजपा और कांग्रेस की चुनावी रणनीति और चुनाव लड़ने की शैली में अंतर है। ऐसे में उपचुनाव के समय दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं में तनातनी होना स्वाभाविक है। दिखाने के लिए भाजपा भले ही ऐसी संभावनाओं पर लीपापोती करे, पर सच्चाई यही है। ये उपचुनाव सिर्फ पार्टी के निशान को देखकर मुहर लगाने तक सीमित नहीं होंगे! इसमें कई अंतर्विरोध हैं, जो चुनाव के समय पनपेंगे! कुछ मसले तो ऐसे हैं, जिनका शायद भाजपा को भी अहसास नहीं है। ऐसी स्थिति में अनुमान है कि भाजपा 27 में से अधिकांश सीटें खो सकती है। कांग्रेस के पास खोने को कुछ बचा नहीं, इसलिए जो भाजपा के हाथ से फिसलेगा, वही कांग्रेस की झोली में गिरेगा!     
   भाजपा यदि इस ग़लतफ़हमी में है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया गुट के कांग्रेस से टूटने के बाद कांग्रेस ख़त्म हो गई, तो ये सोच उसकी गलती होगी। राजनीति में वैसे भी सारे सूत्र पार्टी के हाथ में नहीं होते! ऐसे मामलों में वोटर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस बार उपचुनाव के नतीजे वोटर का सोच बताने के साथ ये भी तय करेंगे कि उन्हें भाजपा का कमलनाथ सरकार को हाईजैक करना कितना रास आया! क्योंकि, सतह पर जो दिखाई दे रहा है, जरुरी नहीं कि वो वास्तव में वही सही हो! लेकिन, उमा भारती जैसे कुछ नेताओं का ये कहना कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस ख़त्म हो गई, सच्चाई से मुँह मोड़ने जैसी बात है। उमा भारती ने तो सभी सीटों पर भाजपा की जीत का दावा किया है! दरअसल, ये उनका बड़बोलापन है और कुछ नहीं! उनकी तरह जो भी भाजपा नेता क्लीन स्वीप जैसी बात कर रहे हैं, वे सिर्फ खुद को भरमा रहे हैं। उमा भारती ने तो प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा के एक पार्टी हो जाने जैसी बात भी की! तो क्या इस भाजपा नेता नजरिए से ये मान लिया जाए कि कांग्रेस खत्म हो गई! अनुभव दर्शाता है कि राजनीति में ऐसा दंभ मतदाताओं के गले नहीं उतरता। 
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Tuesday, August 11, 2020

हैफ़ 'राहत' कि तुझे कुछ तो नया लिखना था!

- हेमंत पाल

    देश के मशहूर शायर राहत इंदौरी का दिल का दौरा पड़ने से इंतकाल हो गया! खुद राहत इंदौरी ने मंगलवार सुबह अपने संक्रमित होने को लेकर ट्वीट किया था! लिखा था कि मेरी ख़ैरियत ट्विटर और फेसबुक पर आपको मिलती रहेगी! लेकिन, खैरियत की खबर नहीं आई! इंतकाल की खबर भी उनके बेटे सतलज ने दी। राहत इंदौरी ने खुद भी ट्विटर पर लिखा 'कोविड के शुरुआती लक्षण दिखाई देने पर मेरा कोरोना टेस्ट किया गया, जिसकी रिपोर्ट पॉजेटिव आई है। हॉस्पिटल में एडमिट हूं, दुआ कीजिए जल्द से जल्द इस बीमारी को हरा दूं! एक और इल्तेजा है, मुझे या घर के लोगों को फ़ोन न करें। मेरी ख़ैरियत ट्विटर और फेसबुक पर आपको मिलती रहेगी!'
     शायरी को पसंद करने वालों के बीच वे 'राहत साहब' के नाम से लोकप्रिय थे। उनका अचानक जाना उर्दू शायरी की दुनिया के लिए बड़ा नुकसान है। राहत इंदौरी मुशायरों की दुनिया के कामयाब और मक़बूल शायर थे। वे उन शायरों में शुमार थे, जिनकी शायरी मुशायरों तक सीमित नहीं थी। चाहने वालों को उनकी शायरी अपने दिल से निकलती महसूस होती थी। उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि उनकी शायरी मीर और ग़ालिब की तरह थी, लेकिन, उसकी जमीन अलग थी। वे मीर और ग़ालिब की तरह शायरी लिखने वाले थे, पर उनकी अपनी पहचान थी। 
फिर वही मीर से अब तक के सदाओं का तिलिस्म,
हैफ़ 'राहत' कि तुझे कुछ तो नया लिखना था! 
  राहत इंदौरी को वे लोग भी दिल से पसंद करते थे, जो उर्दू जुबान के जानकार नहीं थे! राहत साहब ने देश की हर छोटी-बड़ी घटनाओं पर शायरी लिखी। यहाँ तक कि बाबरी ढांचा ढहने पर भी उनका तो शेर था। 
मेरी ख़्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे,
मेरे भाई मेरे हिस्से की जमीं तू रख ले!  
  नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और भारतीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के विरोध में प्रदर्शकारियों के लिए उनका एक शेर बुलंद आवाज बन गया था। प्रदर्शन के दौरान राहत इंदौरी की इस शायरी ने खूब सुर्खियां बटोरी। विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों के हाथों में मशहूर राहत इंदौरी के इस शेर के पोस्टर भी देखे गए। 
सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में,
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है!
  

  राहत इंदौरी का जन्म 1 जनवरी 1950 को कपड़ा मिल कर्मचारी रफ्तुल्लाह कुरैशी और मकबूल उन निशा बेगम के यहाँ हुआ। वे चौथी संतान थे। उनकी शुरूआती शिक्षा इंदौर के नूतन स्कूल में हुई। फिर उन्होंने इस्लामिया करीमिया कॉलेज से 1973 में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की। 1975 में बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल से उर्दू साहित्य में एमए किया। 1985 में भोज मुक्त विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
अभी तो कोई तरक़्की नहीं कर सके हम लोग,
वही किराए का टूटा हुआ मकां है मिया!  

  शुरू में उर्दू साहित्य का अध्यापन कार्य शुरू किया और छात्रों के मुताबिक वे कॉलेज के अच्छे व्याख्याता थे। लेकिन, फिर वे मुशायरों में व्यस्त हो गए। पूरे देश-विदेश से उन्हें उन्हें मुशायरों के लिए बुलाया जाने लगा। उनकी क्षमता, लगन और उर्दू शब्दों की विशिष्ट शैली थी ,जिसने बहुत जल्दी व बहुत अच्छी तरह से जनता के बीच लोकप्रिय बना दिया। तीन, चार साल में उनकी शायरी ने उन्हें उर्दू साहित्य की दुनिया में एक प्रसिद्ध शायर बना दिया था। 19 साल की उम्र में उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों में पहली शायरी सुनाई थी।
हमसे पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे,
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते!

यह कहते-कहते राहत इंदौरी खुद ही इन दुनिया को छोड़कर दूसरी दुनिया के मुसाफिर हो गए।   
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Monday, August 10, 2020

कांग्रेस की राम भक्ति या राजनीतिक मज़बूरी!

- हेमंत पाल

   कांग्रेस पर हमेशा तुष्टिकरण का लांछन लगता रहा है। पार्टी ने इसे कभी छुपाने की कोशिश भी नहीं की! लेकिन, बदलते दौर में कांग्रेस के लिए सॉफ्ट हिंदुत्व अब मजबूरी बन चुका है। यही कारण है कि वो अपनी पुरानी छवि से बाहर निकलने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस साबित करना चाहती है, कि राम मंदिर को लेकर उसे कोई विरोध नहीं है। रामभक्ति में भाजपा को मात देने के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने प्रदेशभर में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को हनुमान चालीसा का पाठ करने का संदेश दिया। नतीजा ये हुआ कि प्रदेश में पार्टी ब्लॉक स्तर तक हनुमान चालीसा के पाठ में लग गई! खुद कमलनाथ भी सोशल मीडिया पर रामनामी ओढ़े नजर आए। किसी व्यक्ति की अपनी निजी आस्था हो सकती है, लेकिन आस्था और पार्टी लाइन में बड़ा बारीक फर्क होता है, जिसका ध्यान रखा जाना जरुरी है। कमलनाथ ने 27 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव से पहले जिस तरह राम मंदिर का समर्थन किया, उससे पार्टी का मुस्लिम पक्ष भी हैरान हैं। कांग्रेस नेताओं ने यह याद दिलाने की कोशिश भी की, कि विवादित स्थल पर ताला पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ही खुलवाया था। जवाब में भाजपा उन्हें अदालती अड़ंगों से लेकर मुहूर्त पर सवाल उठाने तक की याद दिला रही है। 
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   मध्यप्रदेश में इन दिनों रामभक्ति का जुनून सिर चढ़कर बोल रहा है। भाजपा की रामभक्ति तो जगजाहिर है! उससे किसी को एतराज भी नहीं! क्योंकि, भाजपा की पूरी राजनीति ही राम के इर्द-गिर्द घूमती है! पार्टी को बुनियादी ताकत भी राम जन्मभूमि के मंदिर आंदोलन से मिली, इसलिए उनके नेताओं का उत्साहित होना स्वाभाविक है। लेकिन, प्रदेश में कांग्रेस ने जिस तरह राम मंदिर निर्माण शिलान्यास अवसर पर धर्मध्वजा थामी, वो आश्चर्य करने वाली बात है। कांग्रेस ने प्रदेशभर में अपने नेताओं से रामायण और हनुमान चालीसा का पाठ करवाए और रामभक्त दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ा! दरअसल, ये चौंकाने वाली बात इसलिए है, कि अभी तक कांग्रेस नेताओं को कभी इस तरह सार्वजनिक रूप से भगवा धारण करते नहीं देखा गया! बल्कि, राम मंदिर की बातों पर कांग्रेस ने हमेशा भाजपा को घेरा और सांप्रदायिकता फैलाने का आरोप लगाने से भी नहीं चुके! लेकिन, न जाने कैसे कांग्रेस का हृदय परिवर्तन हुआ और वो धर्मनिरपेक्षता की राह छोड़कर धर्मदर्शन से प्रभावित हो गई!
     वास्तव में ये कांग्रेस की मज़बूरी है, कि उसे वक़्त की नजाकत देखते हुए, रामजी की सवारी का हिस्सा बनना पड़ रहा है। बदलाव का ये दौर ऊपर से नीचे तक दिखाई दिया! लेकिन, मध्यप्रदेश में कांग्रेस की रामभक्ति ने सारी सीमाएं तोड़ दी। चौंकाने वाली बात थी, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का भगवाकरण! सामान्यतः वे कम बोलते हैं और अपनी भावनाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से भी बचते हैं। लेकिन, अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण से पहले उन्होंने जिस तरह रामभक्त होने का दिखावा किया, वो किसी के गले नहीं उतर रहा! वीडियो जारी करके मंदिर निर्माण का समर्थन किया गया। उनके निवास पर हनुमान चालीसा और सुंदरकांड का पाठ हुआ। उन्होंने सोशल मीडिया पर भी रामभक्त होने का मौका नहीं छोड़ा।ट्विटर हैंडल पर अपनी भगवा भेष वाली प्रोफाइल फोटो डाल दी! जबकि, शिवराजसिंह चौहान इसमें उनसे कुछ घंटे पिछड़ गए! कई नेताओं ने भी उनकी देखा-देखी अपने घरों में यही कर्मकांड किए! कई जिलों में भी कांग्रेस कार्यालयों में रामायण बांची गई! कांग्रेस के प्रदेश कार्यालय में भी भगवान राम का बड़ा सा पोस्टर नजर आया और शाम को दिये जलाए गए! वहाँ मौजूद कार्यकर्ताओं ने 'जय श्रीराम' का उद्घोष भी किया। सब भाजपा के नेता करते तो कोई नई बात नहीं थी! पर, कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं का ये प्रदर्शन लोगों को सोचने पर मजबूर कर रहा है। इतना ही नहीं, प्रदेश कांग्रेस ने भूमिपूजन के लिए 11 चांदी की ईंटें भी भेजीं। अपने मुख्‍य मंत्रित्वकाल में कमलनाथ ने राम वनगमन पथ का काम करने के निर्देश भी दिए थे।
   प्रदेश में यदि सत्ता के लिए निर्णायक उपचुनाव नहीं होते, तो शायद कांग्रेस का हृदय परिवर्तन भी नहीं होता! कांग्रेस को पता था कि भाजपा अयोध्या आयोजन को राजनीतिक फायदे के लिए भुनाने की पूरी कोशिश करेगी और वही सब हुआ भी! यही कारण था कि कांग्रेस ने भी रामभक्ति दिखाकर ये साबित करने की कोशिश की, कि वे भी राम मंदिर के खिलाफ नहीं हैं! राम के प्रति उनकी आस्था भी भाजपा से कम नहीं है। लेकिन, अपनी रामभक्ति दिखाने में कांग्रेस कुछ ज्यादा ही आगे निकल गई और राजनीतिक मर्यादा तक लांघ ली। कांग्रेस को खतरा था कि उपचुनाव के प्रचार में भाजपा उसे राम विरोधी प्रचारित करके उसका नुकसान न कर दे! यही कारण है कि उन्होंने अपनी पार्टी लाइन से आगे निकलकर रामभक्ति का दिखावा किया! इंदौर में कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में गीता भवन स्थित राम मंदिर पर भगवान राम का विधिवत पूजन कर रामपथ यात्रा निकाली गई। कांग्रेस कार्यकर्ता अब बाइक से इंदौर में रखे भगवान राम का रजत शिलालेख और सात नदियों का जल लेकर अयोध्या जाएंगे। उपचुनाव में इस सबका कोई फ़ायदा हो या नहीं, पर भाजपा कम से कम उसे राम विरोधी साबित नहीं कर पाएगी!
      कमलनाथ के अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर दिए बयानों से मुस्लिम संगठन 'जामिया निजामिया' ने ऐतराज़ जताया। हैदराबाद से जारी बयान में कहा गया कि कौम कमलनाथ और कांग्रेस के भरोसे न रहे। अपने इलाके में साथ देने वाले उम्मीदवार को तौलकर अपना वोट दे। कुछ अरसे से कांग्रेस और कमलनाथ ने जिस तरह से मुसलमानों से मुंह मोड़ा है, उससे साफ है कि अब हमारा साथ देना उनकी सियासत के हक में नहीं है। कौम को कभी भी कमलनाथ पर यकीन नहीं था, फिर भी जिस तरह से उन्होंने कौम के नुमाइंदों के आगे हिंदुओं से निपट लेने की दलील दी, उस पर हमने भी खुलकर उनका साथ दिया था। अब हम उनकी बेखौफ हिंदूपरस्ती के नमूने देख रहे हैं। कभी हनुमानजी की पूजा, कभी राम मंदिर का इस्तकबाल। उनके बयानों में कौम की तकलीफ के लिए ज़रा भी हमदर्दी नहीं थी। उनकी बातों ने शक की हर बुनियाद को साफ कर दिया है कि मुसलमान सिर्फ उनके लिए सियासती प्यादे हैं। आने वाले समय में कौम का रुख साफ है। इस दौर में हमें अपने लिए सोच समझकर रहनुमा ढूंढ़ना होगा। 
   इस बीच कांग्रेस विधायक और दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह ने भी हमेशा की तरह अपना ज्ञानदर्शन बघारने मौका नहीं छोड़ा! उन्होंने अपनी ही पार्टी पर शब्दबाण चलाए। भाजपा के साथ उन्होंने कांग्रेस के नेताओं को भी भगवान राम के नाम पर राजनीति नहीं करने की नसीहत दी। लक्ष्मण सिंह ने कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए कहा कि रामभक्ति दिखाने और शुद्धीकरण से कुछ नहीं होने वाला! ऐसा करके हम अपना ही नुकसान कर रहे हैं। शुद्धीकरण और राम भक्ति दिखाकर एक तरह से हम बसपा को फायदा पहुंचा रहे हैं। हमें इन मुद्दों से दूर रहकर बुनियादी मुद्दों पर ही चुनाव लड़ना चाहिए। दरअसल, ये कमलनाथ के प्रति उनकी खुन्नस है, जिसे वे गाहे-बगाहे निकालते रहते हैं।  
  मध्यप्रदेश में श्रीराम को लेकर कांग्रेस और भाजपा दोनों मुकाबले में हैं। भाजपा इसे अपनी तीन दशक की तपस्या का सुफल मानती है, तो कांग्रेस भी राजीव गाँधी के जन्मभूमि के ताले खुलवाने प्रसंग के बहाने नरम हिंदुत्व कॉर्ड खेलने का मौका नहीं छोड़ रही। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं ने भी राम मंदिर के समर्थन में बयान देकर पार्टी के नजरिए को स्पष्ट कर दिया। लेकिन, भाजपा को कांग्रेस का ये बदला रुख अच्छा नहीं लग रहा। भाजपा नेता कांग्रेस की राम भक्ति पर उंगली उठा रहे हैं। लेकिन, दोनों पार्टियों में से जनमानस को किसका कदम सही लगा, ये उपचुनाव में ही पता चलेगा! नतीजे बताएंगे कि किसकी रामभक्ति पर जनता ने मुहर लगाई।   
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Sunday, August 9, 2020

राजनीति और जीवन से मनोरंजन तक में छाए 'राम!'

- हेमंत पाल

    ये संभवतः पहली बार है कि देश में चारों तरफ माहौल राम से सराबोर है। करीब 5 दशक पुराने विवाद के बाद अयोध्या में राम जन्मभूमि स्थल पर बनने वाले मंदिर का शिलान्यास हो गया। इसे रामजी का प्रताप ही माना जाना चाहिए कि सबकुछ सद्भाव के साथ पूरा हुआ। देश की एक राजनीतिक पार्टी के सत्ता तक पहुँचने का तो रास्ता ही उनकी रामभक्ति से होकर गया। तीस साल पहले उन्होंने राम जन्मभूमि मामले को अपने राजनीतिक एजेंडे में शामिल कर वहाँ मंदिर बनाने का जो मुद्दा हाथ में लिया था, उसका पटाक्षेप हो गया। इस बीच बहुत कुछ अच्छा-बुरा घटा, पर पार्टी अपनी रामभक्ति से नहीं डिगी! इसे भी श्रीराम की कृपा ही माना जाना चाहिए कि इस सबसे बड़े विवाद का सर्वमान्य हल भी उस समय निकला, जब वो पार्टी सत्ता में है।
     भगवान राम हिंदू धर्म में सर्वाधिक पूजे जाने वाले देवताओं में एक हैं। यहाँ तक कि हिंदुओं के बोल व्यवहार में भी 'जय श्रीराम' का संबोधन आम बात है! यही कारण है कि जीवन के बाद मनोरंजन की दुनिया में भी 'राम' को हमेशा पसंद किया जाता है! हिंदी फिल्म निर्माण की शुरूआत भी रामजी के पितृपुरूष राजा हरिश्चन्द्र पर आधारित फिल्म 'राजा हरिशचंद्र' से ही हुई थी। जबकि, टेलीविजन पर भी 'रामायण' ऐसा सीरियल है, जो भारत समेत दुनिया के कई देशों में श्रद्धा से देखा गया! सिनेमा के बड़े परदे पर तो राम कुछ सालों के अंतराल के बाद लगातार अवतरित होते रहे! आश्चर्य इस बात का कि राम के जीवन का कथानक सर्वविदित होते हुए भी दर्शकों के बीच हमेशा लोकप्रिय रहा। हिंदू धर्म परंपरा में श्रीराम ही ऐसे देवता हैं, जिनकी जीवनगाथा हर हिंदू जानता है।रामजी के जन्म से लगाकर पूरे जीवन में घटने वाली सभी घटनाओं में वो सबकुछ है, जो फ़िल्मी कथानक में होता है।            
  वी शांताराम ने पहली बार 1932 में 'अयोध्या चा राजा' बनाकर बाॅक्स ऑफिस पर सिक्के खनखनाए थे! उसके बाद तो राम का सिक्का हर दौर में खनकता रहा! सिनेमा में और कोई चले न चले, राम का नाम हमेशा ही दर्शकों की रूचि में शामिल रहे हैं। विजय भट्ट के निर्देशन में 1943 में बनी प्रेम अदीब और शोभना समर्थ की फिल्म 'राम राज्य' के बाद तो ऐसा जादू चला कि दर्शक सालों तक इन दोनों को पूजते रहे! उस दौर में इस फिल्म ने 60 लाख की कमाई की थी। ये पहली हिन्दी फिल्म थी, जिसका प्रीमियर अमेरिका में हुआ था। इस फिल्म से प्रेम अदीब को इतनी शोहरत मिली थी, कि उनका सार्वजनिक स्थानों पर जाना मुश्किल हो गया था। लोग उनकी पूजा करने लगे थे। उन्हें देखते ही पैर छूने वालों की कतार लग जाती। उनके चित्र कैलेंडर पर छपे और फ्रेम करवाकर घरों में लगाए गए। किसी कलाकार के जीवन में इससे पहले ऐसी लोकप्रियता नहीं कभी नहीं देखी गई। कहते हैं कि महात्मा गाँधी ने अपने जीवनकाल में जो एकमात्र फिल्म देखी, वो यही थी।  
    जितनी भी पौराणिक फिल्में बनी, उनमें भगवान राम के जीवन पर आधारित फिल्में सबसे ज्यादा बनी और पसंद की गई। इनमें लंका दहन (1917), राम पादुका पट्टाभिषेकम (1932), सीता कल्याणम (1934), सती अहिल्या (1937), सीता राम जनम (1944), रामायणी (1945), रामबाण (1948), रामजन्म (1951), रामायण (1954), सम्पूर्ण रामायण (1958, 1961, 1971), सीता राम कल्याणम (1961), लवकुश (1963 और 1997), हनुमान विजय (1974), बजरंग बली (1976), रावण (1984 और 2010), रामायणा : द लिजेंड ऑफ़ प्रिंस रामा (1992), हनुमान (2005), रिटर्न आफ हनुमान (2007), दशावतार (2008) और हनुमान चालीसा (2013) प्रमुख है। बाबूभाई मिस्त्री के निर्देशन में 1961 में बनी 'सम्पूर्ण रामायण' ने सिनेमाघरों को सियाराम की गूंज से गुंजा दिया था। फिल्म में रावण और हनुमान को ट्रिक फोटोग्राफी से उड़ते दिखाया था। तब लंका दहन और राम रावण युद्ध के दृश्यों को फिल्माना अजूबे से कम नहीं था। इस फिल्म में महिपाल और अनीता गुहा को राम-सीता की भूमिका में पहचाना गया। रावण की भूमिका निभाकर बीएम व्यास खलनायक के रूप में पहचाने गए। 
   फिल्मों की तरह गानों में भी राम का जगह जगह प्रयोग किया गया है। मसलन राम करे ऐसा हो जाए, ओ राम जी, रोम रोम में बसने वाले राम, रामचन्द्र कह गए सिया से, जय रघुनंदन जय सिया राम। राम के नाम ने हिन्दी फिल्मों के गीतों में भी उतना ही योगदान दिया। भक्ति संगीत की परम्परा को आगे बढाने वाले गीतों में रोम रोम में बसने वाले राम, रामचन्द्र कह गए सिया से, रामजी की निकली सवारी, सुख के सब साथी दुख में न कोय मेरे राम तेरा एक नाम सांचा दूजा न कोय' जैसे गाए तो राम करे ऐसा हो जाए, राम तेरी गंगा मैली हो गई, राम राम जपना पराया माल अपना जैसे गीतों को भी श्रोताओं ने लम्बे अरसे तक याद रखा। 
  फिल्मों पर ही रामजी का आशीर्वाद नहीं बरसा! जाने-माने निर्देशक रामानंद सागर ने जब टीवी की दुनिया में कदम रखा तो उनके सीरियल 'रामायण' ने अरूण गोविल, दीपिका चिखलिया और दारासिंह को दर्शकों के दिलों में राम-सीता और हनुमान के रूप में बसा दिया। अब कंगना रनौत ने घोषणा की है कि वे राम मंदिर मुद्दे पर फिल्म बनाएंगी जिसका नाम 'अपराजित अयोध्या' होगा। 'बाहुबली' सीरीज के निर्माता केवी विजयेंद्र प्रसाद फिल्म का निर्देशन करेंगे। ऐसी फिल्में भी है, जिनका रामजी से दूर का नाता नहीं है। लेकिन, उनके शीर्षक में भी राम का इस्तेमाल कर दर्शकों को आकर्षित करने की कोशिश की गई। इनमें राम तेरी गंगा मैली, रामावतार, राम-लखन, राम और श्याम, रामलीला, राम जाने और 'हे राम' जैसी फ़िल्में प्रमुख है।
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Saturday, August 1, 2020

कोरोना से बिगड़ा बॉलीवुड का अर्थतंत्र!

- हेमंत पाल

कोरोना संक्रमण के कारण देशभर में लगे लॉक डाउन के बाद अब जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगी है। जिंदगी की रफ़्तार पहले की तरह सामान्य तो नहीं है, पर गाड़ी चलना शुरू हो गई! तीन महीने पहले जो सबकुछ थम सा गया था, उसके पहिए घूमते नजर आने लगे! लेकिन, अभी भी जो थमा है, वो है बॉलीवुड! जो हालात पहले दिन थे, वही आज भी हैं। फिल्मों की शूटिंग नहीं हो पा रही, जो फ़िल्में बन गई वो रिलीज नहीं हो रही, क्योंकि सिनेमाघर बंद हैं। सिनेमाघर खुल भी गए, तो उम्मीद नहीं कि दर्शक आएंगे! क्योंकि, संक्रमण का ख़ौफ़ हर व्यक्ति के दिमाग में इतने अंदर तक घर कर गया है, कि वो कोई रिस्क लेने की स्थिति में नहीं है। इस आशंका में दम लग रहा है, कि फिल्मों की इस अनिश्चित दुनिया को महामारी के ख़ौफ़ से निकलने में कम से कम दो साल लगेंगे।
   फिल्में बनाना हमेशा ही एक जुआं माना जाता है। क्योंकि, दर्शकों की पसंद का कोई मापदंड नहीं है! अब, जबकि हालात बिल्कुल विपरीत हैं, कैसे कहा जाए कि दर्शक सिनेमाघर आकर अपने पसंदीदा कलाकारों फिल्म देखने का जोखिम मोल लेंगे! इसका सबसे सटीक उदाहरण चीन में देखा जा सकता है, जहाँ सरकार ने हिम्मत करके सिनेमाघर खोल दिए, पर जब दर्शक नहीं आए तो तीसरे दिन फिर बंद कर दिए गए! आश्चर्य नहीं कि दर्शकों की यही  प्रतिक्रिया यहाँ भी सामने आए! इसीलिए अनुमान लगाया जा रहा है कि फिल्मों के लिए ये बेहद मुश्किल भरा वक्त है। सिनेमाघरों के ताले खुलने के बाद भी लोग भीड़-भाड़ वाली जगहों से दूर ही रहना ही पसंद करेंगे। 
  एक हिट फिल्म के निर्माता को अपनी रिलीज होने पर सिनेमाघरों से करीब 60 फीसदी कमाई होती है। जब ये हिस्सा उसके हाथ नहीं आएगा, तो कोई फिल्म बनाने का रिस्क ही क्यों लेगा! संभव है कि कुछ बड़े फ़िल्मकार कुछ समय के लिए फिल्म बनाना ही बंद कर दें! क्योंकि, ज्यादा लागत वाली फिल्म बनाने का काम अब जोखिम भरा होगा। हो सकता है कि सिनेमाघरों के लिए कम बजट की फ़िल्में ज्यादा बने, जिनमें रिस्क भी कम होता है। इससे ये अनुमान भी लगेगा कि कितने दर्शकों ने फिल्म देखने की शुरुआत की! लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि देशभर के करीब 9500 सिनेमाघरों के ताले कब खुलेंगे! इसी अनिश्चितता की वजह से देश की दो सबसे बड़ी मल्टीप्लेक्स कंपनियों पीवीआर और आइनॉक्स के शेयर भी करीब 45 फीसदी नीचे आ गए। 
    फिल्म कारोबार की जानकारी रखने वालों का आकलन है कि लॉक डाउन में इस मनोरंजन कारोबार को 15 करोड़ डॉलर से ज्यादा की अनुमानित कमाई का नुकसान हो गया! लेकिन, इस अनुमान में सिनेमा से जुड़े उन लोगों की गिनती नहीं की गई, जिनका घर इसी से चलता है! बड़े कलाकार, निर्माता, निर्देशक और इस कारोबार से जुड़े नामचीन लोगों को शायद बॉलीवुड का ये संकट ज्यादा न सताए! लेकिन, फिल्म निर्माण और इस कारोबार से जुड़े मध्यम और छोटे लोगों की तो कमर टूट गई! सबसे ख़राब हालत फिल्म निर्माण से जुड़े दिहाड़ी पर काम करने वालों की है।  
  हमारे यहाँ हर साल करीब 1200 फिल्में बनती हैं। इनमें उंगली पर गिनी जाने वाली फ़िल्में ही अच्छा कारोबार कर पाती हैं। लॉक डाउन से पहले बनकर तैयार करीब दर्जनभर फ़िल्में अटक गई! गुलाबो-सिताबो, लक्ष्मी बम और 'शकुंतला देवी' जैसी कुछ फिल्मों के निर्माताओं ने हिम्मत करके फिल्मों को ओटीटी पर रिलीज करके अपने नुकसान की भरपाई कर ली! पर, सारे फिल्मकारों का सोच ऐसा नहीं है! लॉक डाउन से ठीक पहले रिलीज होने वाली रोहित शेट्टी की 'सूर्यवंशी' और सलमान खान प्रोडक्शन की 'राधे' इसीलिए रुकी है, कि वे सिनेमाघर में ही रिलीज करना चाहते हैं। लेकिन, वो दिन कब आएगा और दर्शकों की प्रतिक्रिया क्या होगी, फ़िलहाल इसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता! पर, ये तय है कि कई बड़े बजट की फिल्मों को अनिश्चित समय के लिए टाल दिया गया है।    
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