Saturday, March 31, 2018

शिवराज मिलते नहीं, नंदकुमार समझते नहीं, सुहास की चलती नहीं!

- हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश में लगातार तीन चुनाव से सरकार चला रही भाजपा इस बार परेशान है! लेकिन, उसके सामने ऐसी क्या राजनीतिक मज़बूरी है कि चुनाव से पहले अध्यक्ष बदलने का फैसला लेना पड़ा? जबकि, भाजपा कैडर बेस पार्टी है, जिसमें नीचे से ऊपर तक जिम्मेदारियों का बंटवारा निर्धारित होता है। पार्टी और उसके कार्यकर्ता चुनाव के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। ऐसी भाजपा में चुनाव जीतने की घबराहट नजर आ रही है। इसका कारण है कि पार्टी के कार्यकर्ताओं को उससे शिकायत है। उनका कहना है कि 'शिवराज किसी से मिलते नहीं, नंदकुमार किसी की बात समझते नहीं और सुहास की चलती नहीं!' ये बात काफी हद तक सही भी है। किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता की यही इच्छा होती है कि उसकी बात को तवज्जो मिले! लेकिन, भाजपा संगठन ने कार्यकर्ता को पूरी तरह हाशिए पर रख दिया है। न तो उनकी किसी बात को सुना जा रहा था, न उनके कहने पर फैसले लिए जा रहे थे, और न किसी के पास उनसे मिलने का समय था! ऐसे में यही रास्ता बचा था कि प्रदेश का संगठन ऐसे व्यक्ति को सौंपा जाए, जो पार्टी के कार्यकर्ताओं का नेतृत्व करे! करीब सालभर की तलाश के बाद आखिर नरेंद्र तोमर को ही ये जिम्मेदारी देने का फैसला किया गया! क्योंकि, पार्टी को ऐसा कोई नेता नहीं मिला जो आरएसएस, अमित शाह और शिवराज सिंह चौहान तीनों की पसंद हो और कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चले। 
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   भारतीय जनता पार्टी ने मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले अपने संगठन को संवारने का काम शुरू कर दिया है। इसका पहला संकेत है कि पार्टी ने हर तरफ से फेल हो चुके अध्यक्ष नंदकुमार चौहान को हटाने का फैसला कर लिया। किसी सत्ताधारी पार्टी के चुने हुए प्रदेश अध्यक्ष को उसकी अक्षमता के कारण हटाना वास्तव में चिंता की बात है। अब ये लगभग तय है कि ये जिम्मेदारी नरेंद्र तोमर संभालेंगे, जो पहले भी दो बार पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष कुर्सी पर विराजकर प्रदेश में भाजपा सरकार बनाने का रास्ता बना चुके हैं। क्योंकि, इस बार का चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं समझा जा रहा! मुसीबत के इस वक़्त में पार्टी किसी नए नेता को ये जिम्मेदारी सौंपकर जोखिम मोल नहीं लेना चाहती है। इस काम के लिए पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, जबलपुर के सांसद राकेश सिंह, मंत्री नरोत्तम मिश्रा के नाम भी सामने आए थे। लेकिन, पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व न तो आपसी खींचतान में उलझना चाहता है न कोई ऐसा जोखिम लेना चाहता है जो बाद में अफ़सोस का कारण बने! 
  नरेंद्र तोमर को तीसरी बार चुनाव करवाने की जिम्मेदारी देने के पीछे कारण खोजे जाएं, तो समझ आ जाएगा कि उनके नाम पर सहमति क्यों बनी! इसलिए कि वे कार्यकर्ताओं के नेता हैं। जबकि, प्रदेश में लम्बे समय से पार्टी संगठन पूरी तरह से 'नेताओं के द्वारा और नेताओं के लिए' ही संचालित हो रहा है, जहाँ कार्यकर्ताओं के लिए जगह नहीं है। जबकि, ये सर्वमान्य सत्य है कि लोकतंत्र में जब भी चुनावी हार-जीत का मुद्दा उठता है कार्यकर्ताओं की भूमिका को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाता है। गुजरात में किनारे की जीत के बाद राजस्थान और उत्तरप्रदेश में हुए लोकसभा उपचुनाव में भाजपा की हार का कारण कार्यकर्ताओं की उपेक्षा ही था। मध्यप्रदेश में कोलारस और मुंगावली के विधानसभा उपचुनाव में सारी ताकत झोंकने के बाद भी भाजपा की हार, ये सबक दे गई कि बंद कमरों में रणनीति बनाकर चुनाव नहीं जीते जाते! जीत के लिए कार्यकर्ताओं की ऊर्जा की जरुरत होती है।  
  मध्यप्रदेश में चुनावी माहौल भाजपा के खिलाफ पनप रहा है, ये बात सिर्फ कही नहीं जा रही भाजपा भी इसे अच्छी तरह समझ रही है। इसकी बड़ी वजह लोगों में भाजपा के प्रति पनपता असंतोष और झूठे चुनावी वादे ही नहीं हैं। उससे ज्यादा गंभीर मामला है, भाजपा कार्यकर्ताओं में पनपती हताशा और संभावित हार का भय! लोगों में सरकार और पार्टी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखने में कार्यकर्ता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! लेकिन, सरकार को ये भ्रम हो गया है कि लोगों के बीच सरकार की छवि बनाए रखने में कार्यकर्ता से ज्यादा अफसरों की भूमिका जरुरी है। मसला महज लोगों की तकलीफों को सुनने या उन्हें हल करने का आश्वासन देने का नहीं है। लोग जिस भरोसे से अपनी सरकार चुनते हैं, उन्हें लगता है कि सरकार के फैसले उनके दर्द का इलाज होंगे! लेकिन, यहाँ सबसे बड़ी परेशानी है, स्वयं को 'सबकुछ' मान लेने का भ्रम!
   पिछले कुछ सालों से संगठन और सरकार के फैसलों में पार्टी कार्यकर्ताओं और जनभावनाओं की अनदेखी हो रही है। जनता तो अपना फैसला सुनाने के लिए आजाद है, लेकिन संगठन ने कार्यकर्ताओं को जिस तरह हाशिए पर रख दिया है, मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर नजर आने लगा। पार्टी ने संगठन के जिम्मेदार पदों पर कई ऐसे नेताओं को जगह दे दी, जो उस पद के आसपास भी फिट नहीं बैठते! पार्टी के कई जिला अध्यक्ष ऐसे नेताओं को बना दिया जिनके प्रति कार्यकर्ताओं में रोष था। ये सिर्फ जिला अध्यक्षों के मामले में ही नहीं हुआ, हर स्तर पर बड़े नेताओं ने दोयम दर्जे के पदाधिकारियों को स्थानीय कार्यकर्ताओं की मर्जी जाने बिना जबरन बैठाया। प्रदेश संगठन के नए मुखिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि ऐसे लोगों की छंटनी करे और जिम्मेदार लोगों को ही सही जिम्मेदारी सौंपे! क्योंकि, पार्टी में सबसे बड़ा आक्रोश ही इस बात को लेकर है कि सत्ता में आने के बाद नेताओं ने कार्यकर्ताओं को भुला दिया!
   नंदकुमार सिंह चौहान को हटाने की हलचल काफी पहले से चल रही थी। उनके रहते पार्टी में आपसी खींचतान और अंतर्कलह बहुत ज्यादा बढ़ गई! इससे संगठन लगातार कमजोर हुआ है। वहीं उपचुनावों में हार से भी मनोबल टूटा है। उधर, प्रदेश के संगठन महामंत्री सुहास भगत से भी पार्टी कार्यकर्ताओं ने बहुत ज्यादा अपेक्षाएं की थी! लेकिन, उन्हें निराशा ही हाथ लगी! सुहास भगत की ख़ामोशी और कथित निष्क्रियता से पार्टी कार्यकर्ता निराश भी हुआ और  नाउम्मीद भी! कार्यकर्ताओं से उनकी दूरी बनी है। सतह पर जो दिख रहा है उसका निष्कर्ष यही निकाला जा रहा है कि भगत कार्यकर्ताओं की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे! जबकि, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक कार्यकर्ताओं की पहुँच नहीं है। ऐसी स्थिति में विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के लिए संगठन को मजबूत करना जरूरी था। यही कारण है कि नए प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सबसे आगे नरेंद्र तोमर का नाम सामने आया! तोमर को संगठनात्मक क्षमता के साथ ही प्रशासन पर मजबूत पकड़ और कुशल रणनीतिकार के रूप में जाना जाता है। उनकी छवि हवाबाजी करने वाले नेता के बजाए काम को तवज्जो देने वाले जमीनी नेता की है। वे पहले भी दो बार प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। वे 008 और 2013 में पार्टी के लिए संकट मोचक की भूमिका में थे और प्रदेश में भाजपा सरकार बनाने में अहम जिम्मेदारी निभाई! उनके कार्यकाल में संगठन को मजबूत माना जाता था।  
   गुजरात विधानसभा के चुनाव में भी नरेन्द्र तोमर अहम भूमिका निभा चुके हैं। लोकतांत्रिक समर के कुशल रणनीतिकार के रूप में उभरे केंद्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को गुजरात विधानसभा चुनाव का सह-प्रभारी बनाए जाने के पीछे उनकी इसी काबलियत को परखा गया था। मध्य प्रदेश सहित कई प्रदेशों में हुए चुनावों में वे अपनी कुशल रणनीति का कई बार परिचय दे चुके हैं। गुजरात विधानसभा का समर किसी भी सियासी पार्टी या ‘क्षत्रप’ के लिए किसी ‘वाटरलू’ से कम नहीं था। पार्टी आलाकमान की नजर में नरेन्द्र तोमर की छवि कुशल संगठक और परिश्रमी तथा चतुर चुनावी रणनीतिकार की है। शिवराज सिंह भी तोमर को अपने विजयरथ का सारथी मानते हैं। 
  भाजपा को इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिए कि प्रदेश में उसका कोई विकल्प नहीं है या जमीनी तौर पर कांग्रेस उनके मुकाबले में कहीं नहीं ठहरती! हर वोटर राजनीतिक नजरिए से नहीं सोचता! उसे लगता कि उसकी परेशानी का कारण सरकार है। बढ़ती महंगाई उसकी जेब पर भारी पड़ है। अफसरशाही उसके काम के आड़े आ रही है। जायज काम के लिए भी उसे रिश्वत देना पड़ रही है। अहम् भरी नेतागिरी में उसकी सुनवाई नहीं हो रही है, तो वो सत्ता पर काबिज पार्टी को छोड़कर किसी को भी वोट देने में देर नहीं करता! भारत का वोटर जब किसी के पक्ष में वोट देता है, तो उसका कारण दूसरी पार्टी से उसकी नाराजी होती है! फिर वो ये नहीं देखता कि आने वाली सरकार उसके हित में होगी या नहीं! उसकी नाराजगी यदि किसी के समर्थन का कारण बने, तो इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता! इसलिए बेहतर हो कि भाजपा को वोटर को भरमाने के भ्रम में न रहे!  
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परदे पर कहीं खो गई किसान की पीड़ा!

हेमंत पाल
  सिनेमा के बारे में कहा जाता है कि वह अपने सौ साल से ज्यादा लम्बे जीवनकाल में हर दर्द की आवाज बनता रहा है। जब भी समाज के किसी अंग में दर्द होता, सिनेमा उस कराह को मनोरंजन की शक्ल में लोगों के सामने पेश करता! फिर ये दर्द वहाँ तक महसूस कराया जाता है, जहाँ इसका इलाज होता है! अभी तक तो यही होता आया था, पर अब शायद ये एक मिथक बनकर रह गया। अब सिनेमा के परदे से किसी दर्द की कराह नहीं उभरती! न तो अब सिनेमा की कहानियों में मजदूर बचे, न किसान और न समाज का वो कमजोर हिस्सा जहाँ कभी सिनेमा की कहानियाँ पहुंचा करती थीं! अब सिनेमा खालिस मनोरंजन बन गया जिसमें अधनंगे जिस्म की नुमाइश और बेसिरपैर की कहानियाँ बची हैं। 
   किसानों की बात की जाए तो 1953 में बनी फिल्म 'दो बीघा जमीन' देश के किसानों की पीड़ा को परदे पर पर उकेरने वाली संभवतः पहली फिल्म थी। फिल्म में जिस संवेदनशील और परिष्कृत ढंग से कर्ज जंजाल में फंसे किसान को जमीन से बेदखल किए जाने की कहानी को गूंथा गया था, उसने देखने वाले को अंदर तक झकझोर दिया था। यह फ़िल्म किसानों की दुनिया का सबसे मानवीय चित्रण था। फ़िल्म में न सिर्फ उपेक्षितों की, बल्कि शोषितों की भी पीड़ा उकेरी गई थी। फिल्म की खासियत थी कि ये एक मजबूर किसान के दर्द को गहराई तक प्रस्तुत कर पाई थी। किसान के लिए उसकी जमीन से कीमती और कुछ नहीं होता! उसके लिए ज़मीन महज भूमि का एक टुकड़ा नहीं, बल्कि सबकुछ होता है! जब उससे ये छीन ली जाए और उसे दाने-दाने को तरसाया जाए, तब की पीड़ा का आर्तनाद कान फोड़ने वाला ही होगा। फिल्म का मूल भाव इसी पीड़ा के आस-पास था।
  मेहबूब खान की 1957 में आई फिल्म 'मदर इंडिया' भी एक किसान के ही दर्द से कराहती फिल्म थी। लेकिन, फिल्म में किसान एक महिला थी, इसलिए पीड़ा कुछ ज्यादा ही उभरकर सामने आई। यह गरीबी से संघर्ष करती औरत राधा की कहानी है जो कई मुश्किलों का सामना करते हुए अपने बच्चों को पालने और खुद को जागीरदार से नजरों से बचाने की कोशिश में लगी रहती है। यह फ़िल्म बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फ़िल्मों में गिनी जाती है। इसे 1957 में तीसरी सर्वश्रेष्ठ फीचर फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाज़ा गया था। 
  1967 में आई मनोज कुमार की फिल्म 'उपकार' की कहानी राधा और उसके दो बेटों भारत और पूरन की थी। राधा की इच्छा अपने बेटों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने की थी। लेकिन, मजबूरी होती है कि अपने बेटों की पढ़ाई का खर्च वहन नहीं कर पाती है। भारत खुद की पढाई का त्याग करके पूरन को पढ़ाता है, पर पूरन रास्ते से भटक जाता है। ये अच्छाई और बुराई के संघर्ष की कहानी थी, जिसके अंत में अच्छाई जीतती है। लेकिन, एक मजबूर और की जिजीविषा भी इसमें झलकती है।     
  आमिर खान की 2001 में आई फिल्म 'लगान' भी किसानों और ब्रिटिश अफसरों की लगान वसूली पर टिकी थी। कहानी के मुताबिक जब सूखा पीड़ित  किसान लगान कम करने की मांग करते हैं, तो छावनी के ब्रिटिश फौजी अफसर क्रिकेट में उनको हराने की शर्त रख देते हैं। गाँव वाले ये शर्त स्वीकार कर लेते हैं और अंत में एक युवक भुवन की लगन से जीत भी जाते हैं। ये फिल्म भी किसानों की पीड़ा और उनके संघर्ष की दास्तान ही थी। 
  आमिर खान का ही 2010  निर्माण था 'पीपली लाइव' जो किसान के लिए बनी योजनाओं पर व्यवस्था की लापरवाही पर तमाचा थी। उस व्यवस्था पर जिसके पास मरे हुए किसान के लिए तो योजना है, लेकिन उसके लिए नहीं जो जीना चाहता है। ये उन पत्रकारों पर तमाचा थी, जिनकी लाइव आत्महत्या में तो रुचि होती है, पर रोज़ मरने वाले किसानों में नहीं! ये कहानी है उस भारत की है, जहां इंडिया की चमक फीकी ही नहीं पड़ती, बल्कि ख़त्म हो गई है। अब वो वक़्त गुजर गया जब फिल्मों में असली भारत के दर्शन हुआ करते थे। तब किसानों, मजदूरों और समाज के दबे-कुचले वर्ग की समस्याओं को कहानी में पिरोकर इस तरह दिखाया जाता था कि व्यवस्था को चलाने वाले तक सिहर जाते थे। अब तो 'सौ करोड़ क्लब' में शामिल होने की चाह ने फिल्मकारों के वो सारे दायित्व भुला दिए।     
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राज्यपाल आनंदीबेन पटेल की सक्रियता के राजनीतिक मायने!

- हेमंत पाल


   राज्यपाल ऐसा पद है, जिसके प्रदेश में होने या न होने से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि, राज्यपाल का दायित्व और दायरा उसे संवैधानिक मर्यादा लांगने की इजाजत नहीं देता! यदि कभी ऐसा होता है, तो वो सामने नजर भी आने लगता है, जैसा इन दिनों हो रहा है। मध्यप्रदेश में करीब सवा साल से प्रभारी राज्यपाल थे, पर इससे सरकार के किसी काम में शायद ही कोई खलल आया हो! अब, प्रदेश में पिछले दो महीने से पूर्णकालिक राज्यपाल आनंदीबेन पटेल हैं, तो उनकी अति-सक्रियता राजनीतिकों, अफसरों  और लोगों की नजर में खटक रही हैं! अभी ये समझ से परे है कि इसका असल मकसद क्या है! पर, जो भी होगा उसके पीछे छुपे राजनीतिक कारणों से इंकार नहीं किया जा सकता! इसलिए कि इससे सत्ता के समीकरणों का घालमेल होने लगता है और सत्ता केंद्र के विकेन्द्रित होने की आशंका नजर आती है। अभी इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा कि आनंदीबेन पटेल किस एजेंडे के तहत सक्रिय हैं! लेकिन, यदि कोई एजेंडा है, तो वो उसके निशाने पर कोई तो होगा!
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   मध्यप्रदेश की नई राज्यपाल और गुजरात की मुख्यमंत्री रही आनंदी बेन पटेल की सक्रियता से इन दिनों सियासी गलियारों में मौसम से कहीं ज्यादा गर्मी है! राज्यपाल पद की शपथ लेते ही उन्होंने जिस तरह से काम करना शुरू किया है, उससे लगा कि वे राजभवन की चारदीवारी तक सीमित नहीं रहेंगी! उन्होंने राज्यपाल पद के निर्धारित दायरे तोड़कर लोगों और राजनीतिकों से सम्पर्क करना शुरू कर दिया है। उनसे मुलाकात करने वाले लगातार बढ़ रहे हैं। वे सबकी बातें सुन और समझ रही हैं। उनकी इसी समझ से अंदाजा लगाया जाने लगा है कि उनकी ये सक्रियता औपचारिक या रस्मी नहीं है। उनके पास कोई एजेंडा है, जिस पर उन्होंने आते ही काम शुरू कर दिया है। इससे ये भी स्पष्ट हो गया कि राज्यपाल पद की पहचान के मुताबिक वे रबर स्टैम्प बनकर नहीं रहेंगी। वे हर चीज को जांचेंगी और परखेंगी, उसके बाद कोई फैसला लेंगी। खुद भाजपा के नेता भी उनके कामकाज के तरीके को देखकर मानते हैं कि आनंदीबेन अपने पूर्ववर्ती राज्यपालों की तरह औपचारिक काम नहीं करेंगी।
    राज्यपाल पद के बारे में आम धारणा है कि ये संवैधानिक पद एक शोभायमान कुर्सी है। इस पर बैठा व्यक्ति औपचारिकताओं से बंधा होता है। उसकी सक्रियता का कोई रास्ता राजभवन से बाहर नहीं जाता! उसके कामकाज में साल में एक, दो बार विधानसभा में सत्र को सम्बोधित करना, राष्ट्रीय त्यौहारों पर झंडा फहराना, नई सरकार को शपथ दिलाना और सरकारी दस्तावेजों पर दस्तखत करना भर है। लेकिन, आनंदीबेन पटेल ने अपनी आमद, शपथ के बाद सक्रियता और जिस तरह के तेवर दिखाए हैं उसके कई तरह के राजनीतिक मतलब निकाले जा  रहे हैं। कई ऐसे सवाल भी उठ रहे हैं, जिनका इशारा सरकार के कामकाज को घेरे में ले रहा है। वे जिस तरह अफसरों से मिल रही हैं, सरकार के कामकाज पर नजर रख रही हैं ये कहा जाने लगा है कि कहीं नरेंद्र मोदी ने उन्हें सरकार पर नजर रखने के लिए तो नहीं भेजा है। उनके तेवर और भाव-भंगिमाओं की अनदेखी नहीं की जा सकती! जो हो रहा है वो सामान्य भी नहीं है। इस सबके पीछे किसी बड़े राजनीतिक मंतव्य की अनदेखी नहीं की जा सकती! राजभवन के अधबने ऑडिटोरियम को देखते हुए आनंदीबेन ने जिस तरह से लोक निर्माण विभाग के अफसरों को डाँटा, वो किसी नई कहानी की शुरुआत सी लगती है। राजनीतिक कयास लगाए जा रहे हैं कि आनंदीबेन पटेल को विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले मध्यप्रदेश भेजने के पीछे नरेंद्र मोदी की कोई राजनीति मंशा तो नहीं है?
   राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने पदभार संभालते ही जो सक्रियता दिखाई थी, वो लगातार बढ़ रही है। शपथ लेने के बाद वे राजभवन में नहीं रुकीं! उन्होंने अपनी सक्रियता का नजारा दिखा दिया। वे राजभवन के नजदीक एक आंगनबाड़ी गईं। वहां छोटे बच्चों से मिलीं, उनसे बातें की और मिठाई खिलाई। आंगनबाड़ी के निरीक्षण के साथ उन्होंने सरकारी योजनाओं की जानकारी भी ली। इसके बाद वे नादरा बस स्टैंड के पास स्थित बाल निकेतन ट्रस्ट पहुंची और यहां भी बच्चों के साथ समय बिताया। इससे पहले आनंदीबेन राज्यपाल पद की शपथ लेने के लिए चार्टर्ड बस से झाबुआ से उज्जैन तक पहुंचीं थीं। सामान्यः ऐसा होता नहीं है! राज्यपाल का संवैधानिक पद जिस गरिमा से जुड़ा है, वहाँ ऐसे दिखावे वाले कदम नहीं उठाए जाते!  आनंदीबेन जिस तरह से मध्य प्रदेश आई, इस तरह से पहले कोई राज्यपाल नहीं आया। शपथ के बाद पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी से उनके मिलने जाने को भी सहज नहीं कहा जा सकता! 
  सवाल उठता है कि उनकी इस सक्रियता को किस नजरिए से देखा जाए? उनकी ये सक्रियता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए मददगार होगी या उनके लिए मुसीबत बनेगी? कहा ये भी जा रहा है कि मध्यप्रदेश के राज्यपाल के रूप में आनंदीबेन पटेल को बहुत सोच-समझकर किसी ख़ास रणनीति के तहत चुना गया है। ये भी अंदाजा लगाया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आनंदीबेन को किसी ख़ास मकसद से भोपाल की राह दिखाई है। वे शुरू से ही मोदी की भरोसेमंद साथी रहीं हैं। उनकी निकटता इससे भी जाहिर होती है कि मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने गुजरात के मुख्यमंत्री का आनंदीबेन पटेल को ही सौंपा था। मध्यप्रदेश में इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होना है। समय, हालात और परिस्थितियों को परखा जाए तो मध्यप्रदेश में फिलहाल भाजपा की हालत बहुत सुखद नहीं कही जा सकती! शायद ये भी एक कारण है कि आनंदीबेन पटेल को राज्यपाल बनाकर भेजा गया है। 
  सरकार के कामकाज को लेकर भी उनका नजरिया सहज नहीं कहा जा सकता! बतौर राज्यपाल जब आनंदी बेन पटेल के सामने पहली फाइल रखी गई, तो उनका सवाल था कि क्या प्रदेश में कम्प्यूटराइज्ड काम नहीं हो रहा है? बताते हैं कि उन्होंने चेतावनी दी कि आज तो मैंने इस फाइल पर दस्तखत कर दिए! आगे से सारे काम कम्प्यूटराइज्ड होना चाहिए! आनंदीबेन पटेल ने अपने अधीन प्रदेश के 48 (22 सरकारी और 26 निजी) विश्वविद्यालयों के कामकाज के बारे में भी जानकारी ली। उन्होंने विश्वविद्यालयों का शैक्षिक कैलेंडर भी अफसरों से माँगा! उन्होंने पूछा कि सत्र कब से शुरू होगा, परीक्षाएं कब शुरू होकर कब खत्म होंगी! नतीजे कब तक आएंगे। शिक्षकों को कितने घंटे पढ़ाने का समय कितने घंटे निर्धारित है! आनंदीबेन खुद शिक्षक रही हैं, इसलिए ऐसे मामलों में उनकी रूचि समझी जा सकती है। 
  राजभवन के गलियारे तक की खबर रखने वालों का कहना है कि वे कुछ परख रही हैं, कुछ जान रही हैं और कुछ जानने की कोशिश करने में लगी हैं। माजरा जो भी हो, पर अभी तक राजभवन में इतनी हलचल कभी नहीं देखी गई, जो आनंदी बेन पटेल के आने के बाद नजर आने लगी है। राज्यपाल से राजनीतिक मुलाकातियों की संख्या भी बढ़ने लगी है। आनंदीबेन पटेल का मध्यप्रदेश और गुजरात सांसदों की दिल्ली में बैठक बुलाना भी राजनीतिक चर्चा का कारण बना! संभवतः ये पहली बार हुआ कि किसी राज्यपाल ने अपने गृह प्रदेश और अपने पदस्थ वाले प्रदेश के सांसदों को चाय पर बुलाकर बातचीत की हो! आनंदीबेन पटेल ने प्रमुख सचिव और अपर मुख्यसचिव से सौजन्य मुलाकात करने का भी प्लान किया। उनकी मंशा सरकारी योजनाओं की जानकारी और उनके कामकाज का ब्यौरा लेना है। जबकि, सामान्यतः राज्यपाल विभाग प्रमुखों को न बुलाकर मुख्य सचिव या मुख्यमंत्री से ही सरकार के कामकाज की जानकारी लेते हैं। अफसरों से सीधे बात करना राज्यपाल की सामान्य प्रक्रिया नहीं होती!
  राज्यपाल आनंदीबेन की सक्रियता के मायने और उनसे उभरता संकेत यह भी हैं कि यदि प्रदेश को लेकर कोई बड़ा फैसला करना पड़े, तो आनंदीबेन की सलाह से काम किया जा सकता है। उनका समाज के सभी वर्गों से मिलना, प्रदेश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मसलों की लगातार जानकारी लेना, भ्रमण-निरीक्षण के बहाने सरकार की निगरानी करना, किसी को भी सहज नहीं लग रहा!  
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Saturday, March 17, 2018

क्या कोई फिल्मकार साहित्य को टटोलेगा?

- हेमंत पाल 

   हिंदी फिल्मों के दर्शकों का नजरिया धीरे-धीरे बदलता दिखाई दे रहा है। अब एक्शन. रोमांस और बदले की भावना वाली कहानियों पर फ़िल्में नहीं बन रही! यदि कोई हिम्मत कर भी रहा है तो ऐसी फ़िल्में पसंद नहीं की जा रही! प्रेम कहानियों पर बनी फ़िल्में भी प्रेक्टिकल होती जा रही हैं, जैसे 'बरेली की बरफी!' आशय यह कि फिल्मों का परिदृश्य पिछले दो-तीन सालों में तेजी से बदला है। विषयों में जितनी विविधता दिखाई दे रही है, इतनी पहले कभी नहीं दिखी। हल्की-फुल्की और छोटे बजट की फिल्मों का बाजार पनप रहा है। लग रहा है कि साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने वाले युवा हिंदी भाषी फिल्मकारों की जमात भी तैयार हो रही है। जिस तरह बायोपिक और चर्चित घटनाओं पर फ़िल्में बन रही है, लगता है अगला कदम किसी भी भाषा साहित्यिक कृतियों पर फ़िल्में बनाने का ही होगा। 
    दरअसल, साहित्य और सिनेमा दोनों ही अलग-अलग विधा हैं। लेकिन, जब से फिल्मों में कहानियों को जगह मिलने लगी, इसका आधार साहित्यिक कृतियों ही थी। हिंदी की पहली फिल्म 'हरिश्चंद्र' भी भारतेंदु हरिशचंद्र के नाटक 'हरिशचंद्र' पर ही आधारित थी। इसके बाद प्रेमचंद की कई कालजई कृतियों पर फ़िल्में बनाई गई! कुछ चली तो कुछ को दर्शकों ने नकार दिया। मुंबईया फिल्मकार ने हिंदी की कृतियों पर फिल्म बनाने से हमेशा ही परहेज किया है। सालों में बमुश्किल कोई एक फिल्म आती है, जो किसी साहित्यिक कृति को आधार मानकर बनाई जाती है। 
  इसका कारण यह भी है कि साहित्यिक कृतियों पर फिल्म की बिकाऊ स्क्रिप्ट लिखना आसान नहीं होता। फिल्म के निर्माता और निर्देशन का उस साहित्यिक कृति के मूल भाव को समझना पहली शर्त है। इसके बाद स्क्रिप्ट भी उसी भाव को प्रदर्शित करे, तभी कोई फिल्म जन्म लेती है। क्योंकि, कथाकार की भावना को समझना, उसमें मनोरंजन का पक्ष ढूँढना और सबसे बड़ी बात ये पता लगाना कि जब ये परदे पर आएगी तो इसे दर्शक स्वीकारेंगे या नहीं! क्योंकि, हर फिल्म के पीछे व्यावसायिक दबाव भी काम करता है। ये दबाव भी होता है कि मनोरंजन के बीच साहित्यकार की सोच के साथ भी पूरा इंसाफ हो! इसलिए कि साहित्यकार अपनी कल्पना शक्ति से पाठकों को जिस कहानी से रूबरू करवाता है, फिल्मकार उसे उतनी ईमानदारी से परदे पर उतार भी पाता है या नहीं, ये भी ध्यान रखने वाली बात है। एक ही कहानी को अलग-अलग पाठक अपने मानस में अलग प्रभाव के साथ लेते हैं। जबकि, फिल्मकार को उसे हर दर्शक के नजरिए से सजाना पड़ता है। अब आज गुलजार जैसे फिल्मकार तो हैं नहीं, जो कमलेश्वर की कृति 'आँधी' और 'मौसम' के साथ न्याय करें।    
   किशोर साहू ने शेक्सपियर के नाटक 'हेमलेट' पर इसी नाम से एक फिल्म बनाई थी। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास 'चित्रलेखा' पर केदार शर्मा ने फिल्म बनाई, जो सफल भी रही। चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की कहानी 'उसने कहा था' पर भी फिल्म बनी। आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास पर 'धर्मपुत्र' पर बीआर चोपड़ा ने फिल्म बनाई। फणीश्वरनाथ रेणु की 'कहानी मारे गए गुलफाम' पर 'तीसरी कसम' बनी और तीनों फिल्में बुरी तरह फ्लाप रहीं। कहानीकार राजेंद्र सिंह बेदी की कृति 'एक चादर मैली सी' पर भी जब फिल्म बनी, पर वह भी नहीं चली। इसका एक ही कारण था कि वे लेखक के मर्म को पकड़कर उसे परदे पर नहीं उतार सकीं! 
  इसे हिंदी फिल्मों का दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि फिल्मों में पैसा लगाने वालों का साहित्य से कोई सरोकार नहीं रहा! जबकि, बांग्ला और मराठी फ़िल्में लम्बे समय तक साहित्यिक कृतियों से जुडी रहीं। इसके विपरीत हिंदी सिनेमा पर पंजाबी, उर्दू और दक्षिण भारत के फिल्मकार हावी रहे हैं। 70 के दशक में जरूर हिंदी साहित्य पर फ़िल्में बनी, पर ये भी बांग्ला भाषी बासु चटर्जी ने बनाई। उन्होंने राजेंद्र यादव के उपन्यास 'सारा आकाश' मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच' पर 'रजनीगंधा' बनाई। इससे पहले शरदचंद्र के उपन्यासों पर फिल्म बनाने के कई प्रयोग हुए हैं। लेकिन, अब जिस तरह की फ़िल्में पसंद की जा रही है, उम्मीद है कि शायद फिल्मकारों की नजर अच्छी कहानियों पर पड़े और वे उन्हें परदे पर उतारने का जोखिम ले सकें। 
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Thursday, March 15, 2018

कांग्रेस की ओबीसी राजनीति और राजमणि पर लगा दांव!


   मध्यप्रदेश की एकमात्र राज्यसभा सीट के लिए कांग्रेस ने पुराने नेता राजमणि पटेल को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। उनका नाम चौंकाने वाला है।क्योंकि, राजमणि पटेल ऐसा नाम है, जिन्हें आज कि सक्रिय राजनीति के लोग भुला चुके हैं। 2003 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद से ही राजनीति की मुख्य धारा से बाहर हैं। लेकिन, अब पार्टी ने एक बार फिर उन पर दांव लगाकर अपना विश्वास व्यक्त किया है। दरअसल, राजमणि पटेल को इसलिए चुना, क्योंकि कांग्रेस का मानना है कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के ओबीसी होने के कारण भाजपा की जड़ें मजबूत हुई है। वे किरार जाति से हैं, जबकि राजमणि कुर्मी हैं। काँग्रेस का यह फैसला प्रदेश के कुर्मी वोटरों को साधने के लिहाज से लिया गया है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, मध्यप्रदेश में जातीय राजनीति की हलचल बढ़ने लगी है। विधानसभा के बजट सत्र में भी विधायकों द्वारा पूछे जाने वाले सवालों में जातियों से जुड़े सवाल बढ़े हैं। 
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हेमंत पाल

    मध्यप्रदेश अभी तक जातीय राजनीति से मुक्त माना जाता था। लेकिन, धीरे-धीरे यहाँ की राजनीति की नसों में भी जातीय राजनीति का जहर भरने लगा। उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह अब मध्यप्रदेश में भी राजनीति की धारा उसी दिशा में बढ़ती नजर आ रही है, जो उत्तर प्रदेश और बिहार में बहती है। जैसे-जैसे विधानसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों का सोच और समीकरण भी उसी नजरिए से गढ़े जा रहे हैं। इस बार प्रदेश के दोनों राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस का लक्ष्य 'अन्य पिछड़ा वर्ग' (ओबीसी) के वोटर्स को अपने पाले में लेकर राजनीति की चौंसर खेलना है। कांग्रेस का राजमणि पटेल को राज्यसभा में भेजने के पीछे का कारण भी वही बताया जा रहा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक मध्यप्रदेश में 'अन्य पिछड़ा वर्ग' (ओबीसी) की आबादी 3 करोड़ 70 लाख है, जो प्रदेश की कुल जनसंख्या का 51.02 प्रतिशत है। प्रदेश की कुल आबादी 7 करोड़ 26 लाख 26 हजार 809 है, जो देश की आबादी का 6% है। प्रदेश की आबादी का 15.51% अनुसूचित-जाति और 21.1% अनुसूचित जन-जाति है। 
   राजमणि पटेल को राज्यसभा में भेजने का फैसला करने के पीछे का कारण कांग्रेस का अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में पैठ बनाना बताया जा रहा है। लेकिन, इसके पीछे कोई तार्किक आधार नजर नहीं आ रहा! कांग्रेस के पास इस बात का शायद कोई जवाब नहीं होगा कि राज्यसभा में एक ओबीसी नेता को भेजने से पूरे प्रदेश में इस वर्ग को कैसे साधा जा सकता है? वास्तव में तो असल राजनीतिक समीकरण कुछ और होंगे! लेकिन, इस बहाने ओबीसी को साधने की कोशिश जरूर कर ली गई! न तो राजमणि पटेल प्रदेश में अकेले बड़े ओबीसी नेता हैं और न उनको राज्यसभा में भेजने से इस वर्ग के वोटर्स कांग्रेस की तरफ मुड़ जाएंगे। कांग्रेस ने सिर्फ राजमणि पटेल का ही दांव नहीं खेला, गुजरात के कांग्रेस विधायक एवं ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर ने भी मध्यप्रदेश में इसी समीकरण पर काम शुरू कर दिया है। वे भी प्रदेश में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव की तर्ज पर ओबीसी को एकजुट करने की कोशिश में लग गए हैं। वे प्रदेश में ओबीसी के युवाओं का संगठन बनाने में जुट गए। अल्पेश के मुताबिक विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के घोषणा पत्र में ओबीसी, अनुसूचित जाति, जनजाति को लेकर विकास के बिंदु शामिल किए जाएंगे। कुल मिलाकर प्रदेश का राजनीतिक माहौल इन दिनों ओबीसी को साधने में लगा है। इसे संयोग नहीं माना जाना चाहिए कि पिछले दो-तीन विधानसभा सत्रों से मध्यप्रदेश विधानसभा में पूछे जाने वाले सवालों में जातीय सवाल ज्यादा होने लगे!
   मध्यप्रदेश में बड़ी आबादी होने के बाद भी दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह राजनीतिक सशक्तिकरण नहीं हुआ? यहाँ आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग की भी आबादी में बड़ी हिस्सेदारी है। यहाँ उनका सशक्तिकरण न होने के पीछे सबसे बड़ा कारण ये रहा कि ज़्यादातर हिस्सा सामंतों के चंगुल में रहा। इस वजह से ये लोग हमेशा दोहरी, तिहरी ग़ुलामी में रहे। गुलामी की वही मानसिकता आज भी इन लोगों में है। मध्य प्रदेश के गठन से पहले ज़्यादातर हिस्से राजे-रजवाड़ों के अधीन थे। विलय के बाद भी इन रजवाड़ों ने अपने इलाके में कभी पिछड़ों, दलितों और अनुसूचित जातियों में राजनीतिक चेतना को उभरने नहीं दिया। मध्यप्रदेश में आबादी के हिसाब से क्षेत्रफल का घनत्व ज्यादा है। इस कारण संसाधन हांसिल करने के लिए यहां उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह संघर्ष नहीं करना पड़ता! यहाँ आदिवासी, दलित, पिछड़े वर्ग, महिला या अल्पसंख्यक आंदोलनों की भी कमी रही है। यही कारण है कि इनके बीच से कोई नेतृत्व उभरकर सामने नहीं आया। 
 मध्य प्रदेश में आदिवासी बेल्ट भी बिखरा हुआ है। लेकिन, फिर भी यहाँ आदिवासियों के बीच से राजनीतिक नेतृत्व उभरा! कांग्रेस की तरफ से जमुना देवी, शिवभानु सिंह सोलंकी, उनके पुत्र सूरजभान सिंह सोलंकी, अरविंद नेताम, उर्मिला सिंह, दिलीप सिंह भूरिया, कांतिलाल भूरिया जैसे आदिवासी नेता सामने आये हैं। शिवभानु सिंह सोलंकी और जमुना देवी तो उप-मुख्यमंत्री तक रहे! कांतिलाल भूरिया प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे। लेकिन, आदिवासियों में अभी तक ऐसा कोई नेता नहीं हुआ जो अपने दम पर वजूद बना सका हो! जो भी नेता सामने आए हैं, उन्हें सवर्ण नेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए आगे बढ़ाया और राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया। लेकिन, एक बड़ी कमजोरी ये रही कि आदिवासियों से अगर कोई नेता बना तो वो उस वर्ग को भूल गया, जिसके दम पर चुनाव जीतकर आते हैं।  
  कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में आत्मनिर्भर आदिवासी राजनीतिक नेतृत्व को कभी उभरने नहीं दिया और अगर कुछ उभरे भी तो उन आदिवासी नेताओं को आत्मसात कर लिया। 80 और 90 के दशक में भारतीय जनता पार्टी से चुनौती मिलने के कारण कांग्रेस ने आदिवासियों और दलितों को पार्टी से जोड़ने के लिए कुछ कदम जरूर उठाए, पर बाद में उनका असर कम होता गया। इस दौरान देश के हिंदी भाषी इलाकों में पनप रहे दलित और पिछड़े वर्ग के आंदोलन के प्रभाव को कम करने के लिए मध्यप्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकारों ने आदिवासियों और दलितों के लिए विशेष पैकेजों की घोषणा भी की! दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में कई कदम उठाए गए। कांग्रेस की ये सारी पहल आदिवासियों और दलितों की आर्थिक स्थिति की बेहतरी के लिए थी। इससे उनको लाभ भी मिला भी। लेकिन, इस वर्ग को राजनीतिक स्तर पर सशक्त करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाए गए! इसी का नतीजा है कि प्रदेश में कांग्रेस को हमेशा दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग में से नेतृत्व तलाशना पड़ता है। राजमणि पटेल भी इसी तरह की एक कोशिश कही जा सकती है। आदिवासियों के अलावा मध्य प्रदेश में दलित आंदोलन भी उभर कर सामने नहीं आ सका। जबकि, उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन ने गहरी जड़ें पकड़ी 2007 में मायावती के नेतृत्व में 'बहुजन समाज पार्टी' ने अपने दम पर वहाँ सरकार बनाने लायक बहुमत हांसिल किया था। 
   मध्य प्रदेश में ये बात सिर्फ़ आदिवासी और दलित राजनीति तक ही सीमित नहीं है। पिछड़ी जातियों का भी यहाँ बड़ी आबादी है, लेकिन पिछड़े वर्गों ने भी तक अपने अधिकारों के लिए कोई सशक्त आंदोलन खड़ा नहीं किया। कांग्रेस के सुभाष यादव, अरुण यादव, भाजपा के शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती भी पिछड़े वर्ग से ही आते हैं। लेकिन, इनकी राजनीतिक सफलता को पिछड़े वर्गों का सशक्तिकरण नहीं कहा जा सकता। शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती हिंदुवादी आंदोलन से उभरे नेता हैं। जबकि, राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से प्रभावित और सामाजिक न्याय के नाम पर उभरे मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद जैसे नेताओं का राजनीतिक अस्तित्व आज भी बरक़रार है। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में दलित, आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग की बड़ी आबादी होने के बावजूद प्रदेश की राजनीति पर सवर्णों का ही राज है। राजमणि पटेल जैसे किसी नेता को चुना भी जाता है तो उसके पीछे भी सवर्ण राजनीति के समीकरण ही काम करते हैं। 
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Saturday, March 10, 2018

बीमारी से तो बॉलीवुड भी मुक्त नहीं!

- हेमंत पाल 

  बॉलीवुड में जब कोई कलाकार बीमार होता है तो उसकी बीमारी सिर्फ उसे ही दर्द नहीं देती, बल्कि उससे उसकी फिल्म से जुड़े कई लोग प्रभावित होते हैं। लेकिन, देखा गया है कि बीमारी से कोई भी कलाकार मुक्त नहीं है! ज्यादातर बड़े कलाकार किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हैं। उनकी ये बीमारी किसी फिल्म का हिस्सा न होकर वास्तविक होती है। इसलिए वे भी दर्द से कराहते हैं और दवाइयों खाते रहते हैं। फिलहाल बॉलीवुड में हरफनमौला कलाकार इरफ़ान (खान) की दुर्लभ-बीमारी की चर्चा है। इरफ़ान ने अभी तक सौ से अधिक फिल्मों में काम किया है। जिनमें पीकू, मक़बूल, हांसिल, लंच बॉक्स, पान सिंह तोमर और हिंदी मीडियम जैसी फिल्में शामिल हैं।
   बीमारी का शिकार होने वालों में इरफ़ान अकेले नहीं हैं। बॉलीवुड का इतिहास कलाकारों की बीमारियों से भरा पड़ा है। सलमान खान आज सबसे सफल हीरो हैं। लगातार हिट फिल्में दे रहे हैं। लेकिन, लंबे समय से वे एक बीमारी से परेशान हैं। सलमान को एक अजीब सी बीमारी है, मेडिकल की भाषा में इसे 'ट्रिगेमिनल न्यूराल्जिया' कहा जाता है। सामान्य बोलचाल में कहें तो, यह चेहरे और जबड़े से जुड़ी एक बीमारी है जिसमें मरीज को हमेशा झनझनाहट जैसा दर्द होता रहता है। इसे फेसियल डिसऑर्डर भी समझा जा सकता है। ये बीमारी भी हज़ारों में से किसी एक को होती है। शाहरुख खान भी अब तक आठ सर्जरी करा चुके हैं। घुटना, गर्दन, टखना, पसली और कंधे की! बताया जाता है कि इसका कारण फिल्मों में डांस और एक्शन सीन हैं। लेकिन, फिर भी शाहरुख ने ये काम छोड़ा नहीं है।
  फिल्म 'कृष' की शूटिंग के 2013 में रितिक रोशन ने कई एक्शन सीन किए थे। इसका असर उनके दिमाग पर भी पड़ा। दो महीने तक सिरदर्द की शिकायत रहने के बाद जब उनका सीटी स्कैन और एमआरआई किया गया तो पता चल कि उनके दिमाग में जगह-जगह खून जमा है। डॉक्टरों का कहना था कि सामान्यतः दिमाग की ऐसी स्थिति 65 साल की उम्र के बाद होती है। लेकिन, ऑपरेशन के बाद से रितिक ठीक हैं। 2007 में सैफ अली खान को छाती में दर्द की तकलीफ हुई थी। डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें दिल का हल्का दौरा पड़ा था। उसके बाद से सेहत को लेकर ज्यादा सचेत हो गए हैं।
  नेपाल के राज परिवार से जुडी और बॉलीवुड की सेंशेसन रही मनीषा कोइराला भी अंडाशय के कैंसर से जूझ चुकी है। 2012 में मनीषा के कैंसर की खबर सामने आई थी। उन्होंने ऑपरेशन करवाकर कैंसर से मुक्ति पाई। किसी जमाने में दर्शकों को अपनी खूबसूरती से लुभाने वाली राजेश खन्ना की कई हिट फिल्मों में उनकी जोड़ीदार रही मुमताज को भी 2002 में स्तन कैंसर से पीड़ित बताया  गया था। सर्वकालीन सुपरहिट कलाकार अमिताभ बच्चन भी 'स्प्लीनिक रप्चर' से त्रस्त हैं। 1982 में फिल्म 'कुली' की शूटिंग के दौरान अमिताभ गंभीर रूप से घायल हो गए थे। यहाँ तक कि डॉक्टरों ने उनके बचने की उम्मीद भी छोड़ दी थी। लेकिन, अमिताभ ने अपनी फिल्मों के हीरो की तरह परदे पर वापसी की। लेकिन, 1984 में वे एक बीमारी के कारण शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो गए और डिप्रेशन में भी चले गए थे। आज भी उन्हें पूरी तरह स्वस्थ नहीं बताया जाता।
  ऐसा नहीं कि आज के कलाकारों पर ही बीमारियां मेहरबान हो रही है। गुजरे जमाने के राज कपूर भी दमे का शिकार हुए थे। दिलीप कुमार तो अकसर अस्पताल आते-जाते रहते हैं। एक्ट्रेस साधना ऐसे रोग से बीमार हुई, जिसका इलाज आज 50 पैसे की गोली से हो जाता है। बचपन में चेचक का टीका न लगने से गीताबाली को जान गंवानी पड़ी थी। पृथ्वीराज कपूर कैंसर का शिकार होने वाले पहले फिल्म सितारा थे। उनके बेटे शम्मीकपूर ने अपने जीवन की सांझ डायलसिस करते गुजारी। जुबली फिल्मों के सितारे राजेंद्र कुमार भी बीमारी का ही शिकार हुए थे! 
    ये तो बॉलीवुड के वे खुशनसीब लोग हैं, जो दर्द से कराहकर और इलाज कराकर आज दर्शकों का मनोरंजन कर रहे हैं। लेकिन, ये किस्मत संजीव कुमार, विनोद मेहरा, अमजद खान, संगीतकार आदेश श्रीवास्तव, लक्ष्मीकांत बेर्डे, नरगिस, गुरुदत्त, मीना कुमारी, मधुबाला और गीता बाली जैसे लोगों की नहीं रही! ये सभी किसी न किसी बीमारी का असमय शिकार हुए थे। लेकिन, बीमारी किसी की लोकप्रियता से प्रभावित नहीं होती! जब बीमारी को आना होता है तो वो कोई पहचान नहीं देखती कि उसका शिकार होने वाला इरफ़ान खान है या कोई आम आदमी!
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मध्यप्रदेश कांग्रेस में नेतृत्व की भूमिका पर उठते सवाल!

- हेमंत पाल

  गुजरात विधानसभा चुनाव में सम्मानजनक हार और कोलारस, मुंगावली उपचुनाव में जीत के बाद कांग्रेस का पूरा ध्यान साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। लेकिन, कांग्रेस की चुनावी तैयारी उतनी स्पष्ट नजर नहीं आ रही, जितनी दिखाई देना चाहिए! चुनाव को चंद महीने रह गए हैं, पर कांग्रेस में अभी भी सर फुटव्वल का दौर जारी है। लाख टके का सवाल है कि विधानसभा चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा? अरुण यादव ही चुनाव तक अध्यक्ष बने रहेंगे या उनकी जगह कोई और लेगा? किसी नेता को मुख्यमंत्री के चेहरे के लिए प्रोजेक्ट किया जाएगा या नहीं? ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की इन चुनाव में क्या भूमिका होगी? इन सवालों के जवाब जिन्हें देना हैं, वे खामोश हैं। पहले अटेर और उसके बाद कोलारस, मुंगावली की जीत के बाद कांग्रेस को खुलकर सामने आना था, पर ऐसा नहीं हुआ! इस जीत का जितना श्रेय ज्योतिरादित्य सिंधिया को मिलना था, वह भी कहीं गुम हो गया। ऐसे में शंका उभरती है कि क्या पिछले तीन चुनाव की तरह कांग्रेस इस बार भी भाजपा को वॉकओवर देने के मूड में है? यदि नहीं तो चुनावी हलचल दिखाई क्यों नहीं दे रही? 
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    मध्यप्रदेश में बदहाल कांग्रेस को बाहर निकालने के लिए पार्टी के दो बड़े क्षत्रप बड़ी बेताबी से हाईकमान के इशारे का इंतजार कर रहे हैं। एक हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया और दूसरे हैं कमलनाथ। दोनों नेताओं को उम्मीद है कि वे कांग्रेस की नैया पार लगा देंगे। लेकिन, मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सियासत का मिजाज कहता है कि यहाँ अकेला चना कुछ नहीं कर सकता। प्रदेश में कांग्रेस सत्ता में तभी लौटेगी, जब कबीलों में बंटी कांग्रेस का मजबूत गठजोड़ बनेगा। पिछले तीन चुनाव से तो यहाँ आपस में ही एक-दूसरे को निपटाने का खेल चल रहा है। 2003 में जब दिग्विजय सिंह की करारी हार हुई थी, उसके बाद से ही यहाँ शह और मात का खेल चल रहा है। बाद में हुए दो चुनाव में तो कांग्रेस ने भाजपा के बजाए आपस में ही चुनाव ज्यादा लड़ा! 2008 में सुरेश पचौरी को निपटाने की चाल चली गई, तो 2013 में दिग्विजय सिंह के खेमे के कांतिलाल भूरिया को किनारे करने के लिए जुगत लगाई गई! इस बार प्रदेश में सत्ता विरोधी हालात हैं, पर कांग्रेस के नेताओं को उसे ज्यादा चिंता अपनी गोटी फिट करने की है।
   दो साल से मध्यप्रदेश की कांग्रेस कमेटी में नेतृत्व बदलाव का हल्ला है, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ! पार्टी ने न तो नेतृत्व बदलाव की बात को नकारा और न बदलाव ही किया। इसका असर ये पड़ा कि प्रदेश कांग्रेस में अस्थिरता बनी है। अरुण यादव बने रहेंगे या उनकी जगह कोई और लेगा, ये सवाल हमेशा हवा में बना रहा। आज भी ये सवाल ताजा है और जवाब का सभी को इंतजार है। राजनीतिक क्षेत्र में हलचल थी कि उपचुनाव के बाद कांग्रेस संगठन में बड़ा बदलाव होगा! लेकिन, ये होगा भी या नहीं, कोई नहीं जानता। अरुण यादव को राहुल गांधी ने राज्य में पार्टी का नेतृत्व करने के लिए चुना था। लेकिन, अब तक की स्थिति के मुताबिक तमाम कोशिशों के बाद भी वे कोई असरदार प्रभाव नहीं छोड़ पाए! उन्होंने कभी पदयात्रा की, कभी पोल खोल अभियान चलाया, लेकिन सारी कोशिशें बेअसर रही। क्योंकि, उनकी अपनी भी कुछ सीमाएं हैं, जिससे वे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। कांग्रेस के अंदरूनी बिखराव भी एक कारण रहा, जो उन्हें कामयाबी नहीं मिली। वे प्रदेश की जनता पर भी अपनी कोई छाप नहीं छोड़ सके।
  2008 में चुनाव से डेढ़ साल पहले जिस तरह उनके पिता सुभाष यादव को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया गया था। पार्टी में आज वही स्थिति अरुण यादव की है। वे चुनाव तक बने रहेंगे या जाएंगे, इस बारे में कोई कुछ नहीं कह रहा! अरुण यादव को भले ही राहुल गांधी का वरद हस्त प्राप्त हो, पर हालात उनके पक्ष में नजर नहीं आ रहे! उनके सामने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दिग्गज खड़े हैं। हाल में लगातार तीन उपचुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद सिंधिया का दावा बहुत मजबूत नजर आ रहा है। वे अरुण यादव की कुर्सी के दावेदार भले न हों, पर मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनने के उनके आसार ज्यादा हैं। ऐसे  कमलनाथ को अरुण यादव की जगह मौका दिया जाए तो आश्चर्य नहीं है। देखा जाए तो आज अकेले अजय सिंह ही हैं, जो अरुण यादव के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। विधानसभा में विपक्ष के नेता बने अजय सिंह का मिजाज कुछ बदला हुआ नजर आ रहा है। उनके मिजाज को इस बात से भांपा जा सकता है कि विधानसभा में अपना पदभार ग्रहण करने से पहले आयोजित स्वागत कार्यक्रम में उन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के साथ प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने का संकल्प लिया था। लेकिन, इस कार्यक्रम में वे मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनने की खुद की इच्छा भी दबा नहीं सके थे।
  अभी ये मसला भविष्य के गर्भ में है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस मुख्यमंत्री पद के लिए किसी नेता को प्रोजेक्ट करेगी भी या नहीं! क्योंकि, प्रदेश प्रभारी दीपक बावरिया तो इससे इंकार ही कर चुके हैं। लेकिन, नेताओं ने अभी ये उम्मीद नहीं छोड़ी है। खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया भी खुले तौर पर कह भी चुके हैं कि प्रदेश में कांग्रेस को मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट करना चाहिए। खुद के बारे में सवाल उठने पर उन्होंने कहा भी था कि पार्टी उन्हें जो भी जिम्मेदारी सौंपेगी, उसे वे निष्ठा के साथ निभाएंगे। वे अपने बयानों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंधिया पर लगातार हमले बोलते रहे हैं, जिससे उनकी दावेदारी को ज्यादा बल मिला है। अटेर के बाद कोलारस और मुंगावली उपचुनाव में कांग्रेस की जीत से उनके इस दावे को दम भी मिला है। प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे के निधन के बाद खाली हुई अटेर सीट के उपचुनाव में जिस तरह से उनके बेटे हेमंत कटारे की जीत हुई, उसमें भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कोलारस और मुंगावली की तरह अटेर विधानसभा उपचुनाव जीतने के लिए भी भाजपा ने सत्ता एवं संगठन के सारे संसाधन झोंक दिए थे, लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस जीती। सिंधिया ने पिछले तीनों उपचुनाव में सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की अपनी क्षमता का बेहतर प्रदर्शन किया है।
  अरुण यादव की ऐसी छवि ऐसी नहीं है कि वे शिवराज सिंह का मुकाबला कर सकें। यह हवा भी चली थी कि यादव, सिंधिया और पचौरी की तिकड़ी शिवराज सिंह के मुकाबले में खड़ी की जाए। लेकिन, अहंकार के चलते यह संभव नहीं हो पाया। अब तो यही तय होना बाकी है कि चुनाव में कमलनाथ और सिंधिया की भूमिका क्या होगी? भाजपा से जंग के लिए कांग्रेस यदि कमलनाथ की जरूरत है, तो जनता को लुभाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे तारो ताजा चेहरे की भी उतनी ही दरकार है। नर्मदा परिक्रमा से लौटकर दिग्विजय सिंह की भूमिका भी अभी तय होना है। वे क्षत्रियों को एकजुट करने के साथ ही चुनाव की रणनीति बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, ये भी तय लग रहा है! दिग्विजय सिंह की प्रदेश की राजनीति में लौटने की कोई ललक नहीं है, ये भी अभी कहा नहीं जा सकता! लेकिन, ये तय है कि वे अपने बेटे जयवर्धन सिंह के लिए जगह बनाना चाहते हैं। यही कारण है कि वे ज्योतिरादित्य सिंधिया और अरुण यादव की राह में रोड़ा बनते आए हैं। कमलनाथ की उम्र को देखते हुए, वे ज्यादा चिंतित नहीं हैं। आशय यही कि कोई किसी को नहीं सुहा रहा! पार्टी हाईकमान भी प्रदेश के इन क्षत्रपों की आपसी अदावत को समझ गया है। लेकिन, इस पूरी चुनावी पटकथा में अरुण यादव की भूमिका क्या होगी, ये कोई नहीं बता रहा!
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Monday, March 5, 2018

साउथ जैसा नहीं है बॉलीवुड सितारों का जलवा






- हेमंत पाल  

   हिंदी फिल्मों की खूबसूरत हीरोइन श्रीदेवी नहीं रही। उनकी मौत को लेकर चार दिन तक कयास लगाए जाते रहे! लेकिन, इस मौत को लेकर सवाल अभी भी खड़े हैं! इस हीरोइन की अंतिम यात्रा में लाखों लोग सड़क पर आ गए, ट्रैफिक जाम हो गया! अंतिम यात्रा से पहले ही श्रीदेवी के घर के बाहर उनके चाहने वालों की लंबी कतारें लग गई थीं। उनके अंतिम दर्शन के लिए चेन्नई और हैदराबाद से 40 बसों में सवार सैकड़ों लोग मुंबई पहुंचे थे। टीवी के परदे पर जब तक श्रीदेवी की अंतिम यात्रा के दृश्य दिखाए जाते रहे, लोग कैमरे के सामने आते रहे। लेकिन, किसी के चेहरे पर दुःख, दर्द के भाव नहीं थे! दरअसल, ये हुड़दंगी भीड़ थी, जो श्रीदेवी की अंतिम यात्रा में शामिल होने आए फ़िल्मी सितारों को नजदीक से देखने और मौका मिलने पर उनके साथ सेल्फी लेने आई थी। यही बड़ा फर्क है साउथ और बॉलीवुड के एक्टर्स के चाहने वालों में! 
  साउथ के फिल्मीं कलाकारों के प्रति उनके चाहने वालों की जो दीवानगी है, उसकी तुलना में मुंबई के फ़िल्मी कलाकार से नहीं कही जा सकती! साउथ में जो हैसियत एमजी रामचंद्रन, करुणानिधि, जयललिता, एनटी रामाराव, रजनीकांत और कमला हसन की है, ऐसी दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, देवानंद, राज कपूर, हेमा मालिनी, रेखा या अमिताभ बच्चन की कभी नहीं बन पाई। ये दीवानगी इस हद तक है कि लोग अतिरेक में आत्मदाह तक कर लेते हैं। तमिल फिल्मों की हीरोइन से नेता बनी जयललिता की बीमारी और उसके बाद निधन के सदमे से 77 लोगों ने अपनी जान दे दी थी! उनके चाहने वाले कुछ लोगों ने आत्महत्या कर ली, कुछ ने आत्मदाह और सदमा लगने से दिल का दौरा आने से भी लोग मरे। जयललिता जब अस्पताल में भर्ती थी, तब मदुराई में उनका एक प्रशंसकइरुलन्दी नुकीले कांटों पर लेटकर जयललिता की सेहत में सुधार के लिए प्रार्थना करता रहा। ये स्थिति शायद शायद कभी बॉलीवुड में नहीं आएगी।     बॉलीवुड में सिर्फ देव आनंद, राजेंद्र कुमार और राजेश खन्ना ऐसे कलाकार याद आते हैं, जिनको चाहने वालों में लड़कियां ज्यादा थीं। 1969 से 1974 तक राजेश की लोकप्रियता बहुत ज्यादा थी। शक्ति सामंत की ‘आराधना’ से उनका जो दौर शुरू हुआ तो  एक समय ऐसा भी आया जब उनकी लगातार 14 फिल्मों ने जुबली मनाई! लड़कियां उनकी कार तक चूमने से बाज नहीं आती थीं। राजेश खन्ना को मुंबई फिल्म इंडस्ट्री का पहला सुपर स्टार कहा गया। उस दौर में युवा लड़कियां राजेश खन्ना की इतनी दीवानी थीं कि उनकी एक झलक के लिए पागल हो जाती थीं। माता-पिता की नाराजगी से डरी कुछ लड़कियों ने अपनी जांघ पर उसका नाम गुदवा लिया था। राजेश खन्ना की शादी की खबर के बाद कई युवतियों ने दु:खी होकर जान देने की कोशिश की थी। देव आनंद को लेकर एक किस्सा अकसर कहा जाता है कि उनको काले लिबास में देखकर मुंबई की एक युवती ने घर से छलांग लगाकर जान दे दी थी। तब एक कोर्ट ने आनंद को हिदायत दी कि भविष्य में वह पूरा काला लिबास पहनकर जनता के बीच नहीं जाएं।
 ऐसा जुनून इस मानसिकता का अहसास कराता है कि किसी कलाकार को उसके द्वारा निभाए गए किरदार जैसा ही मान बैठता है। रील और रीयल लाइफ के बीच का फर्क लोगों को खुद ही समझना होगा। साउथ की फिल्मों में अपने हीरो को परदे पर विलेन से पिटते देख कई लोग सिनेमा हॉल में ही जार-जार रोने लगते हैं। रजनीकांत शायद साउथ का अकेला ऐसा एक्टर है, जिसके चाहने वाले कुछ भी करने से बाज नहीं आते! मजदूरी करने वाले तक रजनीकांत की फिल्मों के लिए दो सौ रुपए का टिकट खरीदने संकोच नहीं करते!
 ऐसा जुनून इस मानसिकता का अहसास कराता है कि किसी कलाकार को उसके द्वारा निभाए गए किरदार जैसा ही मान बैठता है। रील और रीयल लाइफ के बीच का फर्क लोगों को खुद ही समझना होगा। साउथ की फिल्मों में अपने हीरो को परदे पर विलेन से पिटते देख कई लोग सिनेमा हॉल में ही जार-जार रोने लगते हैं। रजनीकांत शायद साउथ का अकेला ऐसा एक्टर है, जिसके चाहने वाले कुछ भी करने से बाज नहीं आते! मजदूरी करने वाले तक रजनीकांत की फिल्मों के लिए दो सौ रुपए का टिकट खरीदने संकोच नहीं करते! बॉलीवुड और साउथ की फिल्मों और फैन्स के बीच बहुत अलग रिश्ता है। जहाँ बॉलीवुड फिल्म कलाकार महज स्टार होते हैं, वहीं साउथ में उन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है। सितारों के नाम पर मंदिर तक बनवाए गए हैं। साउथ के सितारों प्रति दीवानगी इतनी ज्यादा है कि इनके प्रशंसक सोशल मीडिया पर भी आपस में ही भिड़ते रहते हैं। इसके अलावा, एक फोरम भी बनी हुई है, जिसमें मेगाफैन्स अपनी दीवानगी जाहिर करते हैं। साउथ के फैन्स अपने चहेते सितारों के लिए मरने मारने तक को तैयार रहते हैं। लेकिन, ऐसी दीवानगी शायद कभी बॉलीवुड के सितारों को नसीब न हो!
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Thursday, March 1, 2018

अब मध्यप्रदेश की राजनीति का रंग बदलेगा!

मुंगावली / कोलारस उपचुनाव 

- हेमंत पाल
   मध्यप्रदेश की दो विधानसभा सीटों मुंगावली और कोलारस के नतीजे आ गए। ये नतीजे चौंकाने वाले कतई नहीं हैं। इन दोनों सीटों पर भाजपा की हार का अंदेशा हर किसी को था। यहाँ तक कि भाजपा के बड़े नेता भी 'ऑफ द रिकॉर्ड' कहते थे कि इन दोनों सीटों पर जीतना मुश्किल है। पार्टी और सरकार की सारी ताकत और प्रलोभन भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस इलाके को भेद नहीं सके। कांग्रेस ने ये दोनों सीटें जीतकर भाजपा को करारा झटका दिया है। यदि यहाँ से भाजपा जीतती तो आश्चर्य जरूर होता। क्योंकि, 2013 में मोदी की तेज आँधी में भी कोलारस और मुंगावली में कांग्रेस अपराजेय रही थी। साल के आखिर में राजस्थान और छत्तीसगढ़ के साथ मध्यप्रदेश में भी विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में  इस हार से भाजपा के साथ-साथ शिवराज खेमे में भारी बेचैनी है। माना जाता है कि उपचुनावों में सत्ताधारी पार्टी का पलड़ा हावी रहता है। मगर, मध्यप्रदेश में हुए उपचुनाव के नतीजों ने इस बात को गलत साबित कर दिया। 
 ये भाजपा की हार है, लेकिन इस जीत का श्रेय कांग्रेस के बजाए ज्योतिरादित्य सिंधिया की दिया जाना बेहतर होगा। इस जीत से कांग्रेस में सिंधिया का कद भी बढ़ गया। प्रदेश में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव की तासीर भांपने के लिहाज से ये नतीजे अहम् हैं। साथ ही ये नतीजे शिवराज-सरकार को बड़ा सबक देने वाले हैं। दोनों उपचुनाव कांग्रेस और शिवराज सरकार दोनों के लिए नाक का सवाल थे। यही कारण है कि इस जीत से कांग्रेस बहुत उत्साहित है और भाजपा उतनी ही निराश। हार के बाद भाजपा खेमे में मातमी माहौल है। ये महज दो विधानसभा सीटें नहीं थीं, बल्कि इसे कांग्रेस से छीनने के लिए भाजपा ने पूरा जोर लगा दिया था। पार्टी और सरकार ने वोटर्स को भरमाने के लिए प्रलोभनों का पहाड़ खड़ा दिया था। लेकिन, हुआ वही जो जनता चाहती है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गाँव-गाँव की ख़ाक छानी, रोड-शो किए,  पर नतीजा शून्य रहा। जबकि, कांग्रेस ने पूरा दारोमदार ज्योतिरादित्य सिंधिया पर छोड़ दिया था। भाजपा की कोशिश एक सीट जीतकर मुकाबला बराबरी पर लाने का भी था, लेकिन सिंधिया की रणनीति ने भाजपा को कहीं का नहीं छोड़ा! अब माना जा सकता है कि शिवराज के मुकाबले कांग्रेस का चेहरा बनने का फैसला जल्दी हो सकता है। 
  मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से मध्यप्रदेश में भाजपा के लिए यह चौथा झटका है। मध्य प्रदेश में भाजपा की हार की 24 नवंबर 2015 से शुरू हुई थी। प्रदेश में भाजपा को उपचुनाव में अपनी झाबुआ लोकसभा सीट गंवानी पड़ी थी। यह सीट भाजपा सांसद दिलीप सिंह भूरिया के निधन पर खाली हुई थी। पार्टी ने उनकी बेटी निर्मला भूरिया पर दांव लगाया था। झाबुआ-रतलाम की इस सीट पर हुई हार चौंकाने वाली थी, क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा की सरकार और साथ ही  सहानुभूति की लहर भी भाजपा उम्मीदवार के लिए जीत नहीं लिख सकी। इससे पहले अटेर और चित्रकूट में कांग्रेस ने अपनी जीत का परचम लहराया था। अब लाख टके का सवाल ये है कि इन नतीजों का प्रदेश की भाजपा राजनीति पर क्या असर होगा? लेकिन, जो भी होगा वो भाजपा की भविष्य की राजनीति के लिए बेहद अहम् है। आखिर, पब्लिक से कुछ छुपा नहीं रह सकता!  
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