Tuesday, November 28, 2023

मंदिर में नहीं, 'लोक' में विराजेंगे भगवान

     देश में कुछ महीनों से पुराने मंदिरों और धार्मिक स्थलों को संवारने का काम शुरू हो गया। ये सिर्फ जीर्णोद्धार तक सीमित नहीं है, बल्कि इन्हें धार्मिक पर्यटन स्थल की तरह विकसित किया जा रहा है। देश के सात-आठ राज्यों में 21 धार्मिक कॉरिडोर और देवलोक बनाए जा रहे हैं। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, उज्जैन के महाकाल लोक, ओंकारेश्वर के अद्वैत धाम और सोमनाथ मंदिर कॉरिडोर का काम पूरा भी हो गया। इनमें सबसे बड़ा आयोजन अयोध्या में भगवान श्रीराम की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा का है जो जनवरी में होगा। ये सिर्फ धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे राजनीतिक प्रतिबद्धता भी नजर आती है। मामला धर्म से जुड़ा है, इसलिए राजनीतिक पार्टियां भी इन पर टिप्पणी करने से बचती हैं।
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- हेमंत पाल

      दो साल लगातार चुनाव वाले हैं। इस साल पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव के बाद अगले साल लोकसभा चुनाव होना है। ये चुनाव किसी भी मुद्दे पर लड़े जाएं, पर धर्म को आधार बनाकर भी मतदाताओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। इसलिए कि धर्म ऐसा मसला है, जिससे किसी मतदाता को इंकार नहीं होता! यही कारण है, कि असहमत होते हुए भी कोई भी राजनीतिक पार्टी धर्म से जुड़े मामलों का विरोध नहीं कर पाती। इसी का नतीजा है कि कई राज्यों में सरकारें धार्मिक कॉरिडोर और मंदिर परिसर में 'लोक' बनाने में जुटी हैं। इस चुनावी गणित को इस तरह समझा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव से पहले 35,000 करोड़ रुपए के लोक और कॉरिडोर बनकर तैयार  जाएंगे। देशभर में 21 धार्मिक कॉरिडोर बनाने की तैयारी है, इसमें 11 मध्यप्रदेश में, 3 राजस्थान में, 3 उत्तर प्रदेश और बाकी महाराष्ट्र और बिहार में बन रहे हैं। सभी धार्मिक कॉरिडोर को 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले पूरा करने का लक्ष्य यही सोचकर तय किया गया, कि इसके राजनीतिक फायदे लिए जाएं। लोकसभा चुनाव से पहले सबसे बड़े धार्मिक आयोजन के रूप में अयोध्या के श्रीराम मंदिर में भगवान की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा जनवरी में तो होना ही है।
     बीते दो-ढाई साल में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, उज्जैन का महाकाल लोक, ओंकारेश्वर में अद्वैत धाम और सोमनाथ मंदिर कॉरिडोर बन चुके। बिहार में उच्चैठ भगवती स्थान से महिषी तारास्थान को जोड़ने का काम शुरू हो गया। राजस्थान सरकार भी गोविंद देव मंदिर और तीर्थराज पुष्कर के विकास पर करोड़ों खर्च कर रही है। उत्तर प्रदेश में भी मथुरा-वृंदावन कॉरिडोर का काम शुरू हो गया। उधर, अयोध्या का राम मंदिर अगले साल के शुरू में बनकर तैयार हो जाएगा। असम के गुवाहाटी में कामाख्या मंदिर परिसर को भी विकसित किया जाने लगा। जबकि, मध्यप्रदेश सरकार तो पूरी तरह धार्मिक हो गई। मुख्यमंत्री ने चित्रकूट में वनवासी राम पथ, ओरछा में रामराजा लोक, दतिया में पीतांबरा पीठ कॉरिडोर, इंदौर में अहिल्याबाई लोक, महू के नजदीक जानापाव में परशुराम लोक बनाने की घोषणा कर दी। उधर, महाराष्ट्र के कोल्हापुर में महालक्ष्मी परिसर में कॉरिडोर और नासिक से त्र्यंबकेश्वर तक कॉरिडोर बनना भी शुरू हो गए।
    उत्तर भारत के कई राज्यों में तो राजनीति को भगवान के मंदिरों से साधने की कोशिश काफी पहले शुरू हो गई। जिन पुराने मंदिरों के आसपास जमीन खाली थी, वहां अब 'लोक' बनाए जाने लगे। इसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र काशी से हुई थी, जहां बाबा विश्वनाथ कॉरिडोर बना और चर्चित हुआ। इसके बाद उज्जैन में महाकाल लोक का निर्माण शुरू हुआ। ये दोनों प्रयोग जब धार्मिक आस्था और राजस्व की दृष्टि से सफल हुए, तो इस प्रयोग को आगे बढ़ाया गया। इससे इंकार नहीं कि जहां भी धार्मिक नव निर्माण हुआ शहर की अर्थव्यवस्था में काफी बदलाव आया। उज्जैन में पहले महाकाल के दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु एक दिन में वापस लौट जाते थे, पर अब वे दो या तीन दिन रुकते हैं। यही कारण है कि मध्यप्रदेश सरकार ने 11 लोक बनाने का ऐलान किया। इसे राजनीतिक दृष्टि से भी सफल मानते हुए इसे चुनाव में भी भुनाया गया।  
    सवाल उठता है कि आखिर इन धार्मिक लोक की जरुरत क्यों पड़ी! अभी तक इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा था कि आखिर इस तरह के धार्मिक 'लोक' की उम्मीद किसे और क्यों है! इसका जवाब भी सकारात्मक रूप में सामने आया। 'काशी विश्वनाथ कॉरिडोर' और 'महाकाल लोक' के लोकार्पण के बाद इन दोनों धार्मिक शहरों में जिस तरह श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ी और हर क्षेत्र में राजस्व बढ़ा, उससे 'लोक' की सार्थकता साबित हो गई! रोजगार के स्थानीय अवसर बढ़ने के साथ यहां होटल, खानपान समेत दूसरा कारोबार भी बढ़ा। राजस्व बढ़ने के साथ भविष्य के लिए भी नई संभावनाओं का जन्म हुआ। शुरू में इसे धार्मिक प्रोपोगंडा बताया गया, पर जनता ने जिस तरह स्वीकारोक्ति दी, उससे इस बात की सार्थकता नजर आने लगी। उज्जैन में महाकाल लोक बनने के बाद शहर में बहुत बदलाव आया। साफ-सफाई ज्यादा दिखाई देने लगी। नए शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बनने लगे, आस-पास के जिलों में भी रंगत बदलने लगी। इसका असर इंदौर और देवास तक नजर आया। उज्जैन आकर महाकाल लोक में रमने वाले देवास में चामुंडा माता, नलखेड़ा में बगलामुखी, इंदौर में खजराना गणेश और अन्नपूर्णा मंदिर के दर्शन के लिए भी आने लगे। 
'लोक' की राजनीति का असर
    मध्य प्रदेश में अब 'लोक' की राजनीति का असर भी अब दिखने लगा। अभी तक भाजपा पर मंदिरों की राजनीति के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन, अब कांग्रेस के नेता भी अपनी धार्मिक आस्था नहीं छुपाते! दिग्विजय सिंह ने तो 5 साल पहले नर्मदा परिक्रमा करके अपनी आस्था को साबित भी किया। जबकि, कमलनाथ ने अपने इलाके में 101 फीट की हनुमान प्रतिमा बनवाई। वे अपने आपको हनुमान भक्त बताने में भी नहीं झिझकते! यहां तक कि पार्टी के प्रदेश कार्यालय में उन्होंने हनुमान जयंती मनाने में भी संकोच नहीं किया। उन्होंने कथावाचक धीरेंद्र शास्त्री की कथा और पंडित प्रदीप मिश्रा का शिव पुराण करवाकर जता दिया कि धार्मिकता में वे किसी से कम नहीं है। कांग्रेस भी इन देव लोकों का विरोध नहीं कर रही। 
      मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने साल भर में 'महाकाल लोक' की तरह जिस तरह दूसरे देव लोक बनाने की घोषणा की। इन सभी देव लोकों के निर्माण पर 3,500 करोड़ से अधिक की लागत आएगी। 850 करोड़ में महाकाल लोक के पहले चरण के लोकार्पण के बाद इसके दूसरे और तीसरे चरण का काम शुरू हो गया। हाल ही में ओंकारेश्वर में सरकार ने 2,200 करोड़ की महत्वाकांक्षी परियोजना 'एकात्म धाम' को पूरा किया, जहां जगतगुरु शंकराचार्य की विशाल प्रतिमा निर्मित की गई। सागर में स्थित रविदास मंदिर धाम में 100 करोड़ खर्च किए जा रहे हैं। इसके शिलान्यास कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल हुए थे। वहीं दतिया के विश्व प्रसिद्ध तांत्रिक सिद्धपीठ पीताम्बरा पीठ में 'पीतांबरा माई लोक' बनाया जाएगा। इसके अलावा इंदौर में देवी अहिल्याबाई की स्मृति को जीवंत रखने के लिए 'अहिल्या लोक' की भी मुख्यमंत्री घोषणा कर चुके हैं। इंदौर के नजदीक जानापाव में 'परशुराम लोक' बनाया जाएगा, जिसे भगवान परशुराम की जन्मस्थली कहा जाता है। 
शनि धाम विकसित होगा  
    मुरैना जिले के ऐंती पर्वत पर विश्व प्रसिद्ध शनि धाम के भी विकास का खाका खींचा जाने लगा। यहां त्रेतायुगीन शनि मंदिर में प्रतिष्ठित शनिदेव की प्रतिमा के प्रति श्रद्धालुओं की विशेष आस्था है। मान्यता है, कि यह प्रतिमा आसमान से टूट कर गिरे एक उल्कापिंड से निर्मित हुई है। शिरडी के नजदीक शिंगणापुर की शनि शिला भी इसी शनि पर्वत से ले जाई गई। यहां शनि धाम की 6.5 किमी की परिक्रमा में चंबल अंचल के 30 महापुरुषों और संत-महात्माओं की प्रतिमाएं स्थापित करने के साथ ही शनि कुंड बनाया जाएगा। सैलानियों के ठहरने के लिए यहां धर्मशाला, मंदिर परिसर में सोलर लाइट, प्रशासनिक भवन, शनि परिक्रमा में शिव पर्वत का निर्माण जैसे कई काम होंगे। भिंड जिले के हनुमान मंदिर दंदरौआ धाम में भी हनुमान लोक बनाने की मंजूरी मुख्यमंत्री ने दी। इन हनुमान जी को डॉ हनुमानजी के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है, कि यहां दर्शन करने से असाध्य रोग ठीक हो जाते हैं। भिंड जिले के इस मंदिर में दूर-दूर से श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। छिंदवाड़ा के सौंसर के जामसांवली में हनुमान जी की लेटी प्रतिमा है, वहां भी हनुमान लोक बनाने की घोषणा की गई।  
      पन्ना को हीरे की खानों के लिए जाना जाता है। यहां मुख्यमंत्री ने 'जुगल किशोर सरकार लोक' बनाने की घोषणा की। इससे पहले मुख्यमंत्री ने ओरछा के विश्व प्रसिद्ध राम मंदिर में रामराजा लोक और चित्रकूट में वनवासी लोक की घोषणा की थी। इन लोकों के निर्माण में कितना खर्च आएगा इसे लेकर सरकारी स्तर पर आकलन किया जा रहा है। फिलहाल सलकनपुर स्थित विजयासन देवी धाम में 'देवी लोक' का निर्माण प्रारंभ हो गया। देवी लोक में देवी के नौ रूपों और 64 योगिनी को शास्त्रों में वर्णित कथाओं के साथ आकर्षक रूप में प्रदर्शित करने की योजना है। साथ ही यहां आने वाले श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए अनेक निर्माण एवं विकास के कार्य कराए जा रहे हैं। देवी लोक के निर्माण पर 200 करोड़ रुपए से अधिक की राशि के खर्च का अनुमान है। विकास एवं निर्माण कार्यों के भूमि पूजन के बाद करीब 40 करोड़ रुपए में प्रवेश द्वार, शिव मंदिर का पाथ-वे निर्माण, मेला ग्राउंड पर भव्य दीपस्तंभ एवं 102 दुकानें बन चुकी है।   
पांच धार्मिक स्थलों का कायाकल्प 
    अभी तक देश में 5 धर्मस्थलों का कायाकल्प हो चुका। इन पर 3347 करोड़ रुपए की लागत आई। उत्तर प्रदेश में काशी विश्वनाथ के 55 हजार वर्ग मीटर में बने कॉरिडोर पर 900 करोड़ खर्च किए गए। गुजरात में सोमनाथ मंदिर का कॉरिडोर बनकर तैयार हो गया। इस 1.48 किमी लंबे कॉरिडोर पर 47 करोड़ खर्च हुए हैं। उज्जैन के महाकाल लोक की 1100 करोड़ की परियोजना में महाकाल मंदिर परिसर को 2.82 हेक्टेयर से बढ़ाकर 47 हेक्टेयर किया गया है। पहले चरण के लोकार्पण के बाद यहां दूसरे चरण का काम चल रहा है। ओंकारेश्वर में नर्मदा के किनारे आदि शंकराचार्य के बाल स्वरुप की 100 फ़ीट की प्रतिमा का अनावरण किया गया, जिस पर 2200 करोड़ का खर्च आया। अब यहां अद्वैत धाम का काम चल रहा है। जबकि, तेलंगाना के ययाद्री मंदिर परिसर का 1300 करोड़ में विकास किया गया। भगवान नृसिंह के इस मंदिर के गर्भगृह में 125 किलो सोने का उपयोग किया गया। 
द्वारका में देवभूमि कॉरिडोर
    वाराणसी में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, उज्जैन में महाकाल लोक और मथुरा कॉरिडोर के बाद अब केंद्र सरकार गुजरात के द्वारका में देवभूमि कॉरिडोर बना रही है। यहां पश्चिम भारत का वृहद आध्यात्मिक केंद्र बनाने की तैयारी है। इस धार्मिक प्रोजेक्ट से न द्वारका की सूरत बदलेगी, बल्कि शिवराजपुर समुद्री इलाके का भी विकास  किया जाएगा। महाकाल की तर्ज पर द्वारका के मंदिर भी आपस में जुड़ेंगे। इसके लिए द्वारका-पोरबंदर-सोमनाथ लिंक प्रोजेक्ट भी शुरू करने की योजना है। पोरबंदर को सुदामा की जन्मस्थली माना जाता है और धारणा है कि सोमनाथ के नजदीक श्रीकृष्ण ने देह त्यागी थी। द्वारका से 13 किमी दूर शिवराजपुर बीच व 23 किमी दूर ओखा के समुद्र किनारे की सूरत बदलने की योजना है। महाकाल लोक की ही तरह द्वारका में द्वारकाधीश मंदिर से लेकर बेट द्वारका और ज्योतिर्लिंग नागेश्वर तक सभी मंदिरों को आपस में जोड़ा जाएगा। इनमें द्वारकाधीश मंदिर, रुक्मिणी-बलराम मंदिर, सांवलियाजी मंदिर, गोवर्धननाथ मंदिर, महाप्रभु बैठक, वासुदेव, हनुमान मंदिर से लेकर नारायण मंदिर तक शामिल हैं। लेकिन, ये योजना काफी बड़ी है और इसके पूरा होने में भी समय लगेगा। 
कांग्रेस भी हिंदू हार्डकोर की राह पर 
    विधानसभा चुनाव की वजह से मध्य प्रदेश में मंदिर राजनीति दोनों तरफ है। भाजपा की हार्ड कोर हिंदुत्व वाली छवि नई नहीं है। अब पार्टी मंदिरों के लोक के जरिए अपना वोट बैंक मजबूत करने में लगी है। जबकि, प्रतिद्वंदी कांग्रेस ने भी हिंदुत्व का झंडा उठा लिया। वैसे ये संकेत कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के साथ ही सामने आने लगे थे। सियासी हलचल की बात करें, तो विधानसभा चुनाव से पहले ही शिवराज सरकार के मंत्री और विधायक अपने इलाकों में धार्मिक कथाएं करवाते रहे। अपनी हिंदुत्व वाली छवि बनाने के लिए उन्होंने लाखों रुपए खर्च किए। सिर्फ भाजपा ही नहीं कांग्रेस के नेता भी कथा, पुराण और रुद्राभिषेक में पीछे नहीं हैं। पिछले 6 महीने में मध्य प्रदेश में 600 से ज्यादा धार्मिक कथाएं हो चुकी। कुछ बाबाओं का मध्य प्रदेश की कई सीटों पर खासा प्रभाव है। बताया जा रहा कि बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री, कुबेरेश्वर धाम के प्रदीप मिश्रा और पंडोखर सरकार का प्रदेश की 89 विधानसभा क्षेत्रों पर खासा प्रभाव है। इसके अलावा दोनों पार्टियों के नेता प्रदेश के बाबाओं के जरिए हिंदू वोट बैंक को मजबूत कर रहे हैं। 
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Monday, November 20, 2023

'टाइगर' मरा नहीं, हारा भी नहीं!


- हेमंत पाल

    लमान खान की ये फिल्म उसके चाहने वालों के लिए कुछ खास है। इसमें 6 साल बाद कैटरीना कैफ के साथ उनकी जोड़ी दिखाई दी और उनकी इस फिल्म से 6 साल बाद बॉक्स ऑफिस पर सिक्कों की खनखनाहट सुनाई दी। इसमें टाइगर और जोया ने फिर धमाका किया। पर, सलमान की पिछली कई फिल्मों ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। रेस-3, अंतिम : द फाइनल ट्रुथ, दबंग-3, भारत, और राधे में से कोई भी हिट नहीं हुई। यही कारण है कि 'टाइगर-3' पर सलमान का करियर टिका था। लेकिन, दिवाली के दिन इस फिल्म रिलीज करने के फैसले को सही नहीं कहा जा रहा। पर, फिर भी सलमान को एक बार फिर टाइगर के किरदार में देखना दिलचस्प तो है।   
  टाइगर सीरीज की इस तीसरी फिल्म को जिस तरह पसंद किया गया, उससे लगता है कि सलमान खान सिर्फ इसी फिल्म के दम पर इंडस्ट्री में जिंदा है। इस सीरीज की एक्शन वाली तीनों फिल्मों ने जिस तरह का कारोबार किया, उससे तो यही संकेत मिलता है। पहले आई एक था टाइगर, फिर 'टाइगर जिंदा है' और अब 'टाइगर-3' जिसका एक डायलॉग इशारा करता है कि 'जब तक टाइगर मरा नहीं, तब तक टाइगर हारा नहीं।' इस फिल्म की एक खासियत यह भी है, कि इसमें कैटरीना (जोया) ने भी सलमान के साथ जमकर एक्शन किया है। दरअसल, 'टाइगर-3' टोटल फॉर्मूला फिल्म कही जा सकती है जिसमें दर्शकों के लिए हर वो मसाला है, जो वे देखना चाहते हैं। जोरदार एक्शन सीन, दो बड़े सितारों का कैमियो, देशभक्ति का भरपूर कथानक और कैटरीना कैफ के टॉवल वाले सीन भी इसी फार्मूले का हिस्सा है। इस टॉवल वाले एक्शन सीन ने तो थियेटर में दर्शकों को सीटी मारने पर तक मजबूर कर दिया। वास्तव में सीन को फिल्माया भी रोचक तरीके से है। कैटरीना ने अपने एक्शन से यह भी साबित किया कि उन्हें भले प्लास्टिक ब्यूटी कहा जाता हो, पर एक्शन में तो वे सब पर भारी है। 
     यह साल दो खानों के साथ ही सनी देओल के नाम भी रहा। शाहरुख़ खान की 'पठान' और 'जवान' ने कोरोना काल से सुने पड़े बॉक्स ऑफिस को फिर जिंदा कर दिया, जिसका साथ सनी देओल की 'ग़दर-2' ने दिया। साल के बीतते-बीतते सलमान खान की 'टाइगर-3' ने टिकट खिड़की की रंगत को कम नहीं होने दिया। इसका इशारा एडवांस बुकिंग से ही मिलने लगा था। दिवाली के दिन परदे पर आई इस फिल्म ने भारत में 44.50 करोड़ का नेट कलेक्शन किया। देखा जाए तो पठान, जवान और 'ग़दर-2' को देखते हुए यह आंकड़ा कम है, पर दिवाली पर अब तक रिलीज हुई फिल्मों में ये कलेक्शन एक रिकॉर्ड है। सामान्यतः दिवाली पर बड़ी फ़िल्में रिलीज करने की प्रथा नहीं है। इसलिए कि बॉक्स ऑफिस के लिए इस दिन को फायदेमंद नहीं माना जाता। फिर भी 'टाइगर-3' ने जो किया वो आश्चर्यजनक तो माना जाएगा। हिंदी सिनेमा के इतिहास में दिवाली के दिन ये सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म जरूर बन गई। अभी तक इस दिन रिलीज हुई फिल्मों का रिकॉर्ड 20 करोड़ से कम ही रहा। खास बात यह भी कि सलमान की यह फिल्म हिंदी के अलावा तमिल और तेलुगु में भी रिलीज हुई। इस नजरिए से ये आंकड़ा सलमान के कद से बहुत कम ही कहा जाएगा। 
     दिवाली के दिन जब रविवार था, इस फिल्म को रिलीज करने का फैसला किसी भी नजरिए से सही नहीं कहा जाएगा। बेहतर होता कि इसे वीकेंड पर शुक्रवार को रिलीज किया जाता, तो कमाई का आंकड़ा कहीं ज्यादा ऊंचाई छूता। यही वजह है कि यशराज फिल्म्स की ये पांचवीं 'स्पाई यूनिवर्स फिल्म' है जो इस साल कमाई करने वाली चार फिल्मों में सबसे नीचे है। टाइगर-3 ने शुरुआती चार दिनों में 169.15 करोड़ का कारोबार किया, जबकि 'जवान' ने बॉक्स ऑफिस पर 286.16 करोड़ रुपए कमाए थे। शाहरुख की ही 'पठान' ने 220 करोड़ रुपए की कमाई की थी। इन दोनों फिल्मों के अलावा सनी देओल की 'गदर 2' ने भी पहले चार दिनों में 173.58 करोड़ रुपए कमाए।  
  इस आंकड़ेबाजी से कहा जा सकता है कि फिल्म को सबसे बड़ा नुकसान इसे वीकेंड पर रिलीज न करने से ही हुआ। 'टाइगर 3' की कमाई का आंकड़ा सिर्फ हिंदी का भी नहीं है, इसे तीन भाषाओं में रिलीज किया गया जो हिंदी, तमिल और तेलुगू हैं। वर्ल्डवाइड कलेक्शन मुताबिक, इस फिल्म ने तीन दिन में 236.00 करोड़ टच किया, वहीं चार दिनों में 270.55 करोड़ का आंकड़ा छू लिया। चार दिनों में 'टाइगर 3' ने विदेश में 68.00 करोड़ कमाए। 
     यह फिल्म सलमान के लिए बेहद स्पेशल कही जाएगी, क्योंकि लगातार फ्लॉप हो रही फिल्मों के बाद 'टाइगर-3' ने उनकी पारी को संभाला है। सलमान की पिछली पांच फिल्मों के बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड बहुत अच्छे नहीं रहे। 'टाइगर-3' से पहले सलमान की जो पिछली फिल्में रिलीज हुई, उसमें कोई सुपरहिट नहीं हुई। कोई सामान्य रही, तो कोई हिट से थोड़ा पीछे, तो कोई फ्लॉप हुई। 2019 में आई फिल्म 'रेस-3' ने 166.40 करोड़ की कमाई की जो सामान्य कही जाएगी। इसी साल (2019) आई 'भारत' की कमाई भी 211.07 करोड़ रही जिसे फिल्म कारोबार की भाषा में सेमी-हिट कहा जाता है। 2019 में रिलीज हुई तीसरी फिल्म 'दबंग-3' ने 146.11 करोड़ की कमाई की। 2021 में आई 'अंतिम' ने तो मात्र 39.06 करोड़ कमाए। 2021 में सलमान की फिल्म 'राधे' भी सीमित कमाई वाली फिल्म थी। इस साल (2023) 'किसी का भाई किसी की जान' ने भी 110.53 कमाए जो एवरेज ही माने जाएंगे। 2017 में आई 'टाइगर जिंदा है' के बाद सलमान की 'टाइगर-3' ने ही उसके करियर को सहारा दिया।     
      सलमान की टाइगर सीरीज की तीसरी फिल्म 'टाइगर-3' ने दर्शकों में लगातार अपनी रोचकता बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। टाइगर सीरीज की पहली और दूसरी फिल्म के बाद आई तीसरी फिल्म में भी वही सीक्वेंस है, जिसका सिलसिला 6 साल पहले शुरू हुआ था। 'टाइगर-3' का कथानक तीन किरदारों पर केंद्रित है। एक है देशभक्त टाइगर यानी अविनाश सिंह राठौड़ (सलमान खान), दूसरा किरदार है अपने देश के लिए वफादार पाकिस्तान की पूर्व आईएसआई एजेंट जोया (कैटरीना कैफ) और तीसरा और सबसे दिलचस्प किरदार है गद्दार आर्मी ऑफिसर आतिश रहमान (इमरान हाशमी) जो देश को उस मिसाइल कोड पाने के लिए धोखा देता है, जो चीन ने पाकिस्तान को दिया है। इसे पाने के लिए वो जोया की मदद मांगता है। जोया पाकिस्तानी है, लेकिन टाइगर से शादी के बाद वो अपने ससुराल हिंदुस्तान में रहती है। ऐसे में जोया पति के साथ देश के प्रति पूरी वफादारी निभाती है। 
    फिल्म की कथानक से ज्यादा रोचकता इसके एक्शन सीक्वेंस हैं। एक स्थिति ऐसी भी आती है, जब टाइगर पर गद्दारी के आरोप लगते हैं। सलमान फिल्म का नायक है, तो निश्चित रूप से उसे गद्दारी से तो बचना ही है। लेकिन, इस कोशिश में फिल्म कई देशों में घूमती है। जहां तक अपने किरदार को दमदारी से निभाने की बात है, तो सलमान, कैटरीना के बाद इमरान हाशमी ने भी विलेन का किरदार बखूबी से निभाया। उन्होंने अपनी भूमिका में निश्चित रूप से जान डाल दी। जिस कलाकार को दर्शक सीरियल किसर के नाम से जानते हैं, उन्हें विलेन के अंदाज में देखना नया अनुभव है। उनका रोल भी चैलेंजिंग है। साथ ही उनकी डायलॉग डिलीवरी से नकारात्मकता झलकती है। फिल्म एक्शन के मामले में तो अव्वल ही कही जाएगी! इसमें दर्जनभर एक्शन सीक्वेंस है। फिल्म के गाने भी पसंद किए जा रहे हैं, करीब 10 साल के मनमुटाव के बाद सलमान और अरिजीत सिंह ने एक साथ है।
       इसके अलावा आजकल की बड़े बजट वाली फिल्मों में नामी कलाकारों का कैमियो भी दर्शकों पर अपना असर दिखाता है। सलमान की इस फिल्म में शाहरुख खान का करीब 25 मिनट लम्बा कैमियो मजेदार है। जब टाइगर पाकिस्तान में फंस जाता है, तो उसे बचाने पठान (शाहरुख़ खान) आता है। सिर्फ इतना ही नहीं, कैमियो में ऋतिक रोशन भी नजर आए। शाहरुख का कैमियो और टाइगर का साथ और उसका अंदाज दर्शकों को भाता है। एक्शन सीन में भी इन दोनों ने दर्शकों को जमकर गुदगुदाया। फिल्म में सलमान खान को बचाने के लिए शाहरुख की धांसू एंट्री दर्शकों को उछलने पर मजबूर करती है। वे जेल में सेंध लगाकर अविनाश सिंह राठौड़ को बाहर निकालेंगे। पर, ये जेल इंडिया की नहीं, पाकिस्तान की होगी।
    फिल्म में शाहरुख और सलमान 'शोले' के जय और वीरू की तरह भी नजर आए। फिल्म के एक सीन में शाहरुख ने बाइक चलाई है और कार में सलमान खान दिखे। शाहरुख खान का कैमियो 25 मिनट लम्बा है, जिसने मनोरंजन और एक्शन का तड़का लगाया। शाहरुख का लुक भी याद रखने लायक है। ऐसा ही कैमियो सलमान ने शाहरुख़ की 'पठान' में किया था। लेकिन, ये कहा जा सकता है कि 'टाइगर-3' को सिर्फ मनोरंजक फिल्म की ही तरह देखा जाए, थियेटर से बाहर आकर दिमाग नहीं लगाया जाए! क्योंकि, इसमें सोचने लायक कुछ नहीं है।    
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सिनेमा के परदे पर दुबकी सी दिवाली!


- हेमंत पाल

     त्यौहारों का सिनेमा से लम्बा जुड़ाव रहा है। फिल्म के कथानकों में हर धर्म के त्योहारों को मौके-बेमौके फिल्माया गया। हिंदू धर्म के ज्यादातर त्योहारों को पूरे उत्साह से मनाते दर्शकों ने देखा है। इनमें सबसे ज्यादा होली, रक्षाबंधन और करवा चौथ को फिल्माया गया। लेकिन, सबसे बड़े त्यौहार दिवाली को फिल्मों में अपेक्षाकृत बहुत कम दिखाया। मूक फिल्मों के ज़माने में जब त्यौहारों पर केंद्रित फ़िल्में ज्यादा बनती थी, उस समय जरूर दिवाली पर कुछ फ़िल्में बनी। लेकिन, धीरे-धीरे इस त्यौहार को फिल्माने का चलन घटता गया। आज भी दिवाली के प्रसंगों को पहले की तरह नहीं दर्शाया जाता। साल दो साल में कभी कोई फिल्म आ जाती है, जिसमें दिवाली के कुछ दृश्य या कोई किसी प्रसंगवश गीत दिखाई दे जाता है। लेकिन, कुछ सालों से दिवाली तो परदे से बिल्कुल ही गायब हो गई है। दिवाली के दृश्यों और गानों से फिल्मकार लगभग किनारा कर चुके हैं। विषयवस्तु में भी अब काफी बदलाव आ गया। पटकथा की मांग में अब अन्य त्यौहारों के साथ दिवाली भी हाशिए पर चली गई। एक समय था, जब दिवाली वाली फिल्मों की सफलता सुनिश्चित रहती थी। किंतु, हाल के सालों में बड़े परदे पर इस त्यौहार को लगभग भुला दिया गया। होली और रक्षाबंधन के मुकाबले सिनेमा के परदे पर दिवाली की आतिशबाजी कम ही दिखाई देने लगी।  
     हिंदू समाज में दिवाली भले ही देश का सबसे बड़ा त्यौहार माना और कहा जाता हो, पर इस रंग-बिरंगे त्यौहार को परदे पर उसकी भव्यता और मान्यता के मुताबिक कभी फिल्माया ही नहीं गया। जिस तरह होली, गणेश चतुर्थी और रक्षा बंधन की फ़िल्मी कथानकों में धूम रही, वो अहमियत दिवाली को कभी नहीं मिली। फिल्मों के इतिहास पर नजर डाली जाए तो समझ आता है कि फिल्मों के कथानक में दिवाली का दखल करीब नहीं के बराबर है। कुछ फिल्मों में यह त्यौहार खुशियों के प्रतीक की तरह दर्शाया गया, लेकिन वो भी एक गीत या किसी प्रसंग तक सीमित रहा। ये कभी कथानक का अहम हिस्सा नहीं रहा। हाल के सालों में करण जौहर ने 'कभी खुशी कभी गम' में जरूर दिवाली को भव्य रूप में पेश किया था। फिल्म 'मुझे कुछ कहना है' में तो दिवाली को अलग ही अंदाज में फिल्माया गया। फिल्म का निकम्मा नायक तुषार कपूर दिवाली की रात सड़क पर भटक रहा होता है, तभी करीना कपूर को देखकर उसके जीवन में आशा उमड़ती है। दरअसल, ये ऐसा दृश्य था जिसका दिवाली से कोई वास्ता नहीं था। 
    1940 में आई जयंत देसाई की फिल्म 'दिवाली' इस त्योहार से जुड़कर बनी पहली फिल्म कही जाती थी। इसके बाद 1955 में गजानन जागीरदार की फिल्म 'घर घर में दिवाली' आई। सालभर बाद 1956 में दीपक आशा की 'दिवाली की रात' में भी दिवाली को कथानक बनाया गया था। 1961 में ब्लैक एंड व्हाइट दौर में आई राज कपूर और वैजयंती माला की फिल्म 'नजराना' भी उन फिल्मों में थी, जिनका कथानक में दिवाली के आसपास था। फिल्म का गीत 'मेले है चिरागों के रंगीन दिवाली है' आज भी सुनाई दे जाता है। 1962 में आई 'हरियाली और रास्ता' में दिवाली के दृश्य नायक और नायिका के विरह को दर्शाते हैं। दिलीप कुमार और वैजयंती माला की फिल्म 'पैगाम' और 'लीडर' में भी दिवाली के माध्यम से फिल्म के किरदारों को जोड़ने का प्रयास किया था। 1972 की फिल्म 'अनुराग' में परिवार के कैंसर पीड़ित बच्चों की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए पूरा मोहल्ला दिवाली मनाता है।
     इसके बाद बनने वाली फिल्मों में दिवाली के प्रसंग को कहानी में मोड़ लाने के लिए जोड़ा तो गया, लेकिन फिल्म का कथानक दिवाली पर केंद्रित नहीं रहा। 'यादों की बारात' और 'जंजीर' भी उन फिल्मों में है, जिनकी शुरुआत दिवाली के दिन परिवार पर विलेन के हमले से होती है। आतिशबाजी की आवाजों के बीच गोलियां चलने और पूरे परिवार के खत्म हो जाने वाले दृश्य को अमिताभ बच्चन को सितारा बनाने वाली फिल्म 'जंजीर' में बेहद प्रभावशाली ढंग से फिल्माया गया था। जबकि, 'यादों की बारात' में तीन भाई इस हमले के बाद बिछुड़ जाते हैं। लेकिन, बाद में फिल्म में इसे आगे नहीं बढ़ाया गया। कमल हासन की 1998 में आई फिल्म 'चाची 420' में कमल हासन की बेटी को पटाखों से घायल होते दिखाया गया था। आदित्य चोपड़ा की फिल्म 'मोहब्बतें' (2000) में भी दिवाली का प्रभावी दृश्य था। 'तारे जमीन पर' 2007 में आई थी। इसमें आमिर खान के अलावा बाल कलाकार दर्शील सफारी ने जबरदस्त अभिनय किया था। इसमें दिखाया था कि दर्शील को बोर्डिंग स्कूल में परिवार की याद आती है। जबकि, उसके आसपास के लोग अपनी खुशी के लिए दिवाली मनाते हैं। 2001 में अमिताभ बच्चन की फिल्म निर्माण कंपनी 'एबीसीएल' ने आमिर खान और रानी मुखर्जी के साथ 'हैप्पी दिवाली' बनाने का एलान तो किया, पर यह फिल्म न तो बनी और न परदे तक पहुंच सकी। 
      फिल्म 'वास्तव' (1999) में भी दिवाली का यादगार सीन है। इसमें गैंगस्टर संजय दत्त दिवाली पर घर आता है। गले में सोने की मोटी चेन, हाथ में पिस्टल और दूसरे में नोटों की गड्डी मां के सामने बोलता हैं 'इसे 50 तोला बोलते हैं।' चेतन आनंद की फिल्म 'हकीकत' (1965) में भी दिवाली का उल्लेख है। भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध के एक दृश्य में दिवाली के दिन अभिनेता जयंत देश के जवानों को एक बेहद मार्मिक संदेश भेजते हैं। 1973 की फिल्म 'जुगनू' में दिवाली पर एक गीत है, जिसके बोल थे 'दीप दिवाली के झूठे, रात जले सुबह टूटे, छोटे-छोटे नन्हे-मुन्ने, प्यारे-प्यारे रे, अच्छे बच्चे जग उजियारे रे!' यह गीत धर्मेंद्र पर फिल्माया था। 2005 में आई फिल्म 'होम डिलेवरी' का गीत 'मेरे तुम्हारे सबके लिए हैप्पी दिवाली' था। 
    दिवाली के कथानक और दृश्य ही नहीं इस पृष्ठभूमि पर रचे गए कुछ गानों को भी जबरदस्त लोकप्रियता मिली। फिल्म 'रतन’(1944) के गीत 'आई दिवाली दीपक संग नाचे पतंगा' की पृष्ठभूमि में नौशाद ने विरह-भाव की रचना की थी। मास्टर गुलाम हैदर ने फिल्म 'खजांची’(1941) के गीत 'दिवाली फिर आ गई सजनी’ में पंजाबी टप्पे का आकर्षक प्रयोग किया था। 'महाराणा प्रताप' (1946) में 'आई दीवाली दीपों वाली’ की पारंपरिक धुन सुनने को मिली थी। 'आई दीवाली दीप जला जा' (पगड़ी) गीत में आग्रह का पुट था। 'शीश महल’(1950) के गीत 'आई है दीवाली सखी आई रे’को वसंत देसाई ने पारंपरिक ढंग से स्वरबद्ध किया था। 1961 की फिल्म 'नजराना' के गीत को लता मंगेशकर ने आवाज दी थी, जो दिवाली की रौनक को दर्शाता है। 'शिर्डी के साईं बाबा' का गीत 'दीपावली मनाई सुहानी' आज भी पसंद किया जाने वाला गीत है।
      गोविंदा अभिनीत फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया' का गाना 'आई है दिवाली, सुनो जी घरवाली' को भी दिवाली को केंद्र में रखकर रचा गया था। 1951 की फिल्म 'स्टेज' का गाना जगमगाती दिवाली की रात आ गई, अपने दौर में काफी हिट हुआ था, जिसे आशा भोंसले ने आवाज दी थी। 1957 की फिल्म 'पैसा' का गीत दीप जलेंगे दिवाली आई गीता दत्त की आवाज में था। 1959 में आई ‘पैग़ाम’ में मोहम्‍मद रफ़ी का गाया और जॉनी वॉकर पर फिल्माया दिवाली गीत दरअसल कॉमेडी गाना था। 'नमक हराम' का राजेश खन्ना और अमिताभ पर फिल्माया गया गीत 'दीये जलते हैं फूल खिलते हैं' अपने फिल्मांकन के लिए दर्शकों को आज भी याद है। हम आपके है कौन, एक रिश्ता : द बॉन्ड ऑफ लव और 'ख्वाहिश' आदि में भी दिवाली के दृश्य तो दिखाए गए, लेकिन वे कहीं से भी कहानी का हिस्सा नहीं लगते! 'हम आपके है कौन' में सलमान खान की भाभी बनी रेणुका शहाणे दिवाली के मौके पर बेटे को जन्म देती हैं। 2000 की फिल्म 'मोहब्बतें' में अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, ऐश्वर्या राय मुख्य भूमिका में थे। इसमें दिवाली के अवसर पर पूरा गाना 'पैरों में बंधन हैं' फिल्माया गया। इससे फिल्म की कहानी को नया मोड़ मिलता है। फिल्मों में भले ही दिवाली गीतों की भरमार रही हो, पर आज भी ऐसी किसी फिल्म का इंतजार है जिसके कथानक में दिवाली हो।   
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Wednesday, November 8, 2023

मध्यप्रदेश में बागियों के हाथ में होगा नतीजों का गणित

■ हेमंत पाल

      इस बार मध्यप्रदेश का विधानसभा चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। भाजपा को अपनी साढ़े 18 साल पुरानी राजनीतिक विरासत बचाना है, तो कांग्रेस को भाजपा से वो हिसाब बराबर करना है, जब भाजपा ने कांग्रेस में बगावत करवाकर उसकी 15 महीने की सरकार पलट दी थी। यही वजह है, कि दोनों ने ख़म ठोंककर चुनाव जीतने को चुनौती समझ लिया। दोनों के लिए ये मुकाबला आसान नहीं है। एक कारण यह भी है कि दोनों पार्टियों के लिए ही बागियों ने बड़ा संकट खड़ा कर दिया। ऐसे में समझ नहीं आ रहा कि हवा का रुख किस तरफ है। यह भी कहा जा सकता है, कि नतीजों का दारोमदार बागियों की ताकत पर टिका है। क्योंकि, बागी भले जीते न सकें, पर दूसरों का खेल बिगाड़ने में माहिर साबित होंगे। पार्टी से बगावत करने में कांग्रेस के नेताओं की संख्या भाजपा से ज्यादा है। ऐसे में दोनों पार्टियों ने कोशिश भी की, कि नाराज नेताओं को किसी तरह मना लिया जाए, पर उम्मीद के मुताबिक कोशिशें कामयाब नहीं हुई।        
     मध्यप्रदेश की राजनीति साढ़े 18 साल से एक तरह से ठहर सी गई थी। 2003 में जब दिग्विजय सिंह को हराकर उमा भारती ने प्रदेश में भाजपा का झंडा गाड़ा, उसके बाद से तो कांग्रेस हाशिये से भी नीचे चली गई। 2018 से पहले तक भाजपा का एकछत्र राज रहा। लेकिन, पिछले (2018) विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा को चंद सीटों का बहुमत पाकर सत्ता से धकेल दिया था। कमलनाथ ने 15 महीने सरकार चलाई ही थी, कि अचानक राजनीतिक भूचाल आ गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने 22 राजनीतिक सैनिकों को लेकर कांग्रेस में बगावत कर दी। इस प्रसंग ने गुजरात में 1975 में हुई केशुभाई पटेल की सरकार के खिलाफ हुई बगावत की याद दिला दी, जब शंकरसिंह वाघेला ने अपने समर्थक विधायकों को लेकर खजुराहो में डेरा डाल दिया था। लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया उससे आगे बढ़कर सीधे भाजपा में शामिल हो गए और प्रदेश में फिर भाजपा की सरकार बन गई। मध्य प्रदेश विधानसभा में फ़िलहाल भाजपा के 127 विधायक और कांग्रेस के 96 विधायकों के अलावा 4 निर्दलीय, दो बसपा के और एक समाजवदी पार्टी का विधायक है। 230 विधानसभा सीटों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 116 विधायकों का जादुई आंकड़ा होना जरूरी है।
      प्रदेश में सिंधिया की बगावत के बाद जो हुआ, वो एक लम्बी राजनीतिक गाथा है! क्योंकि, जिस भी इलाके में सिंधिया समर्थकों ने भाजपा में घुसपैठ की, वहां भाजपा के पुराने नेताओं में असंतोष पनपा। भाजपा में सबसे ज्यादा नाराजगी ग्वालियर-चंबल इलाके में दिखाई दी। इसके अलावा मालवा इलाके की कुछ सीटें भी इस वजह से भाजपा नेताओं की नाराजगी का शिकार बनी। यही कारण है, कि इस बार का विधानसभा चुनाव उस बगावत से मुक्त नहीं है। प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां इस चुनाव में अपने बागियों से परेशान है। देखा जाए तो बगावत का झंडा चुनाव से काफी पहले से भाजपा में उठता दिखाई देने लगा था। पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के विधायक बेटे दीपक जोशी और इंदौर और बदनावर के विधायक भंवरसिंह शेखावत ने सबसे पहले पार्टी को निशाने पर लिया। अंततः दोनों पार्टी छोड़कर कांग्रेस के पाले में चले गए और अब ये दोनों नेता कांग्रेस के उम्मीदवार हैं। लेकिन, यहां से शुरू हुआ बगावत का सिलसिला आंधी बनकर चुनावी चुनौती बन गया।
      इस बार मध्य प्रदेश के ज्यादातर इलाकों में राजनीति के पुराने खिलाड़ी ही अपनों के लिए चुनौती बने हैं। वे अपनी परंपरागत पार्टी से बगावत करके उन्हें चुनौती देने के लिए चुनाव में खड़े हो गए। इस तरह से उन्होंने अपनी दशकों पुरानी पारिवारिक विरासत को तोड़ दिया। जबकि, मध्य प्रदेश के राजनीतिक संस्कार ऐसे रहे हैं, कि कई नेताओं की दो-तीन पीढ़ियां एक ही पार्टी में रही। अभी भी कुछ नेताओं की नई पीढ़ियां चुनाव मैदान में हैं। लेकिन, 2023 का चुनाव माहौल बदला सा है। दोनों ही पार्टियों के लिए बागी बड़ी मुसीबत बनकर अड़ गए। भाजपा और कांग्रेस को 40 से ज्यादा सीटों पर इन बागियों से ही चुनौती मिल रही है। कुछ को तो मना लिया, पर कई ने पार्टी उम्मीदवारों की नींद उड़ा दी। भाजपा की कोशिशों के बाद भी करीब 14 सीटों पर बागी खतरा बने हैं। लेकिन, कांग्रेस के 23 बगावतियों ने पीछे हटने से मना कर दिया। अब पार्टियां कुछ भी दावे करें, पर तय है कि कांटाजोड़ चुनावी मुकाबले में ये बागी ही नतीजों में पलीता लगाएंगे।
    इन बागियों ने जब नामांकन पत्र दाखिल किए, तब पता चला कि दोनों पार्टियों में इनकी संख्या करीब 80-90 के करीब है। इनमें करीब 40-45 ऐसे थे, जो खेल बिगाड़ सकते हैं। दोनों पार्टियों के लिए इन्हें मनाना टेढ़ी खीर इसलिए था कि इन नाराज नेताओं में बड़ी संख्या उनकी है, जिनकी उम्र ज्यादा है। अगले विधानसभा चुनाव में ये मैदान में उतरने के काबिल नहीं होंगे, इसलिए वे हर हालत में जोर-आजमाईश में लगे रहे। इस चुनाव का एक महत्वपूर्ण फैक्टर यह भी रहा, कि बगावत करने वालों को साधने के लिए तीसरा मोर्चा तैयार दिखा। जिस भी नेता ने अपनी पार्टी से बगावत की बांग लगाई समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी ने उन्हें थामने में देर नहीं की। इस वजह से बागियों ने निर्दलीय चुनाव लड़ने के बजाए इन पार्टियों के झंडे थाम लिए। ऐसा नहीं कि ये बागी चुनाव जीतने में सक्षम हैं! ज्यादातर बागी खुद भले जीत न सकें, पर अपनी पार्टियों के समीकरण जरूर बिगाड़ देंगे। इसलिए कि मध्यप्रदेश में चंद सीटें ही ऐसी हैं, जहां जीत का अंतर ज्यादा होता है। अधिकांश सीटों पर कम अंतर से हार-जीत तय होती रही।  
    मध्यप्रदेश में राजनीतिक विरासत को समझने के लिए गुना जिले की राघौगढ़ विधानसभा सीट सबसे अच्छा उदाहरण है, जो कांग्रेस के बड़े नेता दिग्विजय सिंह परिवार की घरेलू सीट है। अब तक हुए 14 चुनावों और उपचुनाव में यहां से इसी राज परिवार की तीन पीढ़ियों ने 9 बार चुनाव जीता। दिग्विजय सिंह के पिता बलभद्र सिंह ने पहली बार 1952 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के उम्मीदवार के रूप में यहां से चुनाव जीता था। चार बार दिग्विजय सिंह, दो बार उनके छोटे भाई लक्ष्मण सिंह और दो बार उनके बेटे जयवर्धन सिंह ने यहां से जीत का झंडा गाड़ा। इस बार यहां जयवर्धन सिंह के सामने भाजपा ने हिरेंद्र सिंह 'बंटी बना' को मैदान में उतारा है। वे दो बार कांग्रेस विधायक (1985 और 2008) रहे मूल सिंह के बेटे हैं। एक समय था, जब हिरेंद्र के पिता को दिग्विजय सिंह परिवार से जुड़ा माना जाता रहा। लेकिन, हिरेंद्र सिंह ने अपनी राजनीतिक विचारधारा बदली और ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। इस बार वे एक तरह से परंपरागत संबंधों को हाशिये पर रखकर प्रतिद्वंदी बनकर राधौगढ़ के राज परिवार के सामने खड़े हैं।
     इस विधानसभा चुनाव को किसी भी दृष्टि से एक तरफ़ा नहीं कहा जा सकता। हर सीट पर कांटे की टक्कर साफ़ दिखाई दे रही है। ये स्थिति बहुत कुछ पिछले चुनाव (2018) जैसी ही है, जब मुकाबला बेहद नजदीकी था। इस चुनाव में भाजपा को अंदाजा नहीं था, कि उनके खेमे में बगावत का झंडा बुलंद करने वालों की संख्या इतनी बढ़ेगी। लेकिन, सच्चाई सामने आई तो पार्टी को पूरा दमखम लगाना पड़ा। जब प्रदेश के बड़े नेताओं के आश्वासन काम नहीं आए, तो भाजपा की दिल्ली ब्रिगेड ने बागियों को समझाने की कोशिश की। अमित शाह ने खुद प्रदेश के दस संभागों में घूमकर बागियों से सीधे बात की। लेकिन, नतीजा बहुत सकारात्मक दिखाई नहीं दिया। कुछ उनकी बात मानकर बैठ गए, पर सभी नहीं।  
    यही सब कांग्रेस में भी हुआ। प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने बागियों को बुला-बुलाकर समझाया, कुछ को फोन करके आगे ध्यान रखने का भरोसा दिलाया। घोषित 230 उम्मीदवारों में से 7 के नाम बदल भी दिए। इससे कुछ जगह समीकरण बदले, पर अब नतीजे बताएंगे कि समझाइश कितनी असरदार रही। उनके साथ पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी मोर्चा संभाला। घूम-घूमकर नाराज नेताओं को अपने प्रभाव और आश्वासन से मनाने की कोशिश की। दिग्विजय सिंह ने तो चुनाव से 6 महीने पहले ही एक मोर्चा संभाला था। उन्होंने उन 66 सीटों को चुना, जो कांग्रेस ऐसी ही बगावत की वजह से पिछले तीन से पांच चुनाव नहीं जीत सकी। उन्होंने एक-एक इलाके में जाकर वहां दावेदारों को कसम खिलाई कि उम्मीदवार कोई भी हो, कोई बगावत नहीं करेगा। इसका असर भी हुआ, पर पूरी तरह नहीं। अब भाजपा और कांग्रेस में बागियों से बचकर किसने अपना पलड़ा भारी रखा, ये तो नतीजे ही बताएंगे।      
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फ्लॉप के बीच हिट फिल्मों का लंबा इतिहास!

- हेमंत पाल

    फिल्म इंडस्ट्री का पूरा दारोमदार हिट और फ्लॉप पर टिका है। समझा जाता है कि जो फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई करती है, उसे हिट समझा जाता और जिसकी कमाई सिमटती है, वो फ्लॉप की गिनती में दर्ज होती है। सौ सालों से ज्यादा पुराने फिल्म इतिहास में सैकड़ों फ़िल्में हिट हुई, पर फ्लॉप की संख्या उससे कई गुना ज्यादा है। एक दौर था, जब फिल्मों के हिट होने में उसका कथानक और उसके अदाकारी मायने रखती थी। लेकिन, अब ऐसा नहीं है। कई फ़िल्में सिर्फ इसलिए नहीं चलती कि उसके कलाकारों की दर्शकों के दिमाग में इमेज अच्छी नहीं होती। पिछले कुछ सालों में अक्षय कुमार और कंगना रनौत की फ़िल्में लगातार फ्लॉप हुई। यहां तक कि हिट फिल्मों का कलाकार कहे जाने वाले आमिर खान और सलमान खान भी नहीं चले। दरअसल, इन कलाकारों की कुछ फ़िल्में ठीक थी, पर दर्शकों ने उन्हें नकार दिया। जबकि, शाहरुख़ खान की लगातार दो फिल्म 'पठान' और 'जवान' ने रिकॉर्ड तोड़ कमाई की। दर्शकों की पसंद-नापसंद किसी भी फिल्म की सफलता का आधार होती है और हिट फिल्म का सबसे बड़ा फार्मूला भी यही है। लेकिन, सिर्फ बॉक्स ऑफिस की कमाई ही हिट का मापदंड नहीं होता! कई बार कम कमाई करने वाली फिल्मों को भी उनके अनोखे कथानक के कारण सफल माना जाता है।       
      फिल्म इतिहास की पहली सुपरहिट फिल्म अशोक कुमार की 'किस्मत' को माना जाता है। 1943 में आई इस फिल्म में उन्होंने अपने किरदार से इतिहास रच दिया था। उस दौर में हीरो निगेटिव रोल से परहेज करते थे, इसके बावजूद अशोक कुमार ने ये किरदार निभाकर सबको हैरान किया था। उस दौर में हीरो की छवि साफ सुथरी होती थी, तब उन्होंने निगेटिव हीरो का किरदार निभाकर हीरो की इमेज को बदला था। ये फिल्म न सिर्फ उनके करियर बल्कि फिल्म इंडस्ट्री के लिए भी मील का पत्थर साबित हुई थी। फिल्म ने ऐसा रिकॉर्ड बनाया था जो 32 साल तक कोई तोड़ नहीं पाया! ये रिकॉर्ड 1975 में आई 'शोले' ने तोड़ा था। अशोक कुमार की 'किस्मत' ने ऐसा कमाल किया था कि 3 साल तक यह सिनेमाघरों से हटी नहीं! कोलकाता के एक सिनेमाघर में तो ये 187 हफ्ते तक लगी रही। सुपरहिट फिल्मों की गिनती में इसके बाद कई फिल्मों के नाम जुड़ते गए। 1949 में आई अशोक कुमार की ही फिल्म 'महल' ने भी कामयाबी के झंडे गाड़े थे। उनके साथ इस फिल्म में मधुबाला ने भी अभिनय किया था। इसे पहली हॉरर फिल्म भी कहा जाता है। 
      दिलीप कुमार को हिट फिल्मों का बेताज बादशाह माना जाता था। 1949 की फिल्म 'अंदाज' में दिलीप कुमार के साथ नरगिस ने काम किया था। ये एक ऐसी बिगड़ैल अमीर लड़की कहानी है, जिसकी दोस्ती सीधे-साधे लड़के दिलीप कुमार से हो जाती है। वे इसे प्यार समझते हैं। लेकिन, उन्हें तब धक्का लगता है, जब उनकी शादी राजकपूर से हो जाती है। 'दाग' (1952) में दिलीप कुमार ने शंकर नाम के युवक का रोल किया है जो विधवा मां के साथ खिलौने बेचकर जीवन यापन करता है। बाद में उसे शराब की लत पड़ जाती है। इस फिल्म के लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अवार्ड जीता। 1955 में आई फिल्म 'आजाद' में दिलीप कुमार और मीना कुमारी ने अभिनय किया था। इस फिल्म की कहानी आजाद नाम के डाकू और शोभा की है। शोभा आजाद से शादी करना चाहती है, पर उसे बाद में पता चलता है कि आजाद डाकू हैं।
     इसी साल (1955) में आई 'देवदास' के किरदार में दिलीप कुमार ने अभिनय में जान डाल दी थी। यह किरदार अपनी प्रेमिका पारो की याद में तड़पते हुए शराबी बन जाता है और फिर चन्द्रमुखी के कोठे तक पहुंच जाता है। 1957 की 'नया दौर' में उनके साथ वैजयंती माला ने काम किया था। इसमें दिलीप कुमार तांगे वाला बने हैं, जो अपनी रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करते हैं। 1958 की सुपरहिट फिल्म 'मधुमती' में दिलीप कुमार के साथ वैजयंती माला लीड रोल में थी। पुनर्जन्म पर आधारित है इस फिल्म में वैजयंती माला की आत्मा भटकती है और वो अपनी मौत की वजह बताने के लिए पुकारती है। 1960 में आई 'मुग़ल-ए-आजम' अकबर और सलीम के ड्रामे पर बनी थी। इस फिल्म को के आसिफ ने डायरेक्ट किया था, जिसे बनाने में ही दस साल लगे थे। दिलीप कुमार ने सलीम और मधुबाला ने अनारकली की भूमिका निभाई थी। 'गंगा जमुना' (1961) में उनके साथ वैजयंती माला ने काम किया था। फिल्म में विधवा मां के दो बेटे गंगा और जमुना होते हैं। गंगा जमीदार के यहां काम करता है, जमुना शहर जाकर पढ़ाई करता है और बाद में पुलिस अफसर बन जाता है। 1967 में आई 'राम और श्याम' में दिलीप कुमार डबल रोल में थे। ये दो भाइयों की कहानी है, जो जन्म लेते ही अलग हो जाते हैं। एक सीधा युवक होता है, वहीं श्याम की भूमिका में दिलीप कुमार तेज-तर्रार दिखाए गए थे। दिलीप कुमार की सुपरहिट फिल्मों का दौर 1991 में आई 'सौदागर' तक चला। ये फिल्म दो दोस्त राजू और वीरू (दिलीप कुमार और राजकुमार) की दोस्ती और दुश्मनी पर आधारित थी। 
     सुपरहिट फिल्मों में भारत भूषण और मीना कुमारी अभिनीत 'बैजू बावरा' भी है, जो अपने समय काल में बहुत पसंद की गई। इस फिल्म का गाने ओ दुनिया के रखवाले, तू गंगा की मौज मैं बहुत ज्यादा पसंद किए गए थे। आज भी पुराने हिट सांग में इनकी लोकप्रियता बरक़रार है। हिट फिल्मों वाले अभिनेताओं में देव आनंद की अपनी अलग ही पहचान थी। उनकी फिल्म 'सीआईडी' ने देव आनंद को सितारा बना दिया था। इस फिल्म के गीत कभी आर कभी पार, ये है बॉम्बे मेरी जान, आंखों ही आंखों में इशारा, लेके पहला पहला प्यार बेहद पसंद किए गए थे। उनकी फिल्म 'ज्वेल थीफ' रोमांचक कहानी, हैंडसम हीरो, चालाक विलेन और खूबसूरत हीरोइन की सनसनीखेज कहानी थी। इसने सिनेमाघरों में रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। इस फिल्म ने देव आनन्द की लोकप्रियता दुगनी कर दी थी। फिल्म में पहनी उनकी चेक की टोपी कोपेनहेगन से लाई गई थी। देव आनंद और वहीदा रहमान की 'गाइड' अपनी अनोखी कहानी और गानों के कारण हिट हुई थी। 
    हिंदी फिल्म अभिनेताओं में राज कपूर का अपना अलग ही जलवा था। 'आवारा' राज कपूर को सुपरहिट बनाने वाली फिल्म थी। इसने देश के साथ विदेशों में भी धूम मचाई थी। इसके गाने भी काफी पसंद किए गए थे। इसी तरह 'श्री 420' में राज कपूर के साथ नर्गिस ने काम किया था जिसका गाना 'प्यार हुआ इकरार हुआ' काफी हिट हुआ था। इसी गाने के जरिए छोटे से ऋषि कपूर पहली बार स्क्रीन पर दिखाई दिए थे। प्रेम त्रिकोण पर आधारित फिल्म 'संगम' विदेशी धरती पर फिल्माई जाने वाली पहली भारतीय फिल्म थी। ये उस वक्त की सबसे लंबी फिल्म भी थी। इसकी लंबाई करीब चार घंटे थी। फिल्मों में एंग्री यंग मैन कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन को हिट फिल्मों की मशीन कहा जाता रहा है।
      'जंजीर' से शुरू हुआ अमिताभ का हिट फिल्मों का दौर काफी लम्बा चला जिसमें दीवार, नटवरलाल, अमर अकबर एंथोनी, शोले, कभी-कभी से लगाकर आजतक ये जारी है। जब भी फिल्मों में हिट फिल्मों का जिक्र होगा अमिताभ की फिल्मों की लंबी लिस्ट दर्ज होगी। 'मदर इंडिया' भी हिट और लोकप्रिय फिल्मों में गिनी जाती है। ये वो फिल्म है, जिसकी कभी कॉपी नहीं की जा सकती। सशक्त मां के किरदार में नरगिस ने इस रोल को अमर किया है। गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' ऐसी ट्रैजिक प्रेम कहानी थी, जो यथार्थवादी सिनेमा के लिए मील का पत्थर बन गई। इस फिल्म वर्ल्ड क्लास सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों में गिना जाता है। मनोज कुमार की 1967 में आई 'उपकार' भी सुपरहिट फिल्मों में शामिल है। इस फिल्म ने 6 फिल्मफेयर और तीन नेशनल अवार्ड जीते थे। हिट फिल्मों वाले कलाकारों में राजेश खन्ना भी शुमार हैं। उन्हें 'कटी पतंग' ने सुपर स्टार बनाया था। इस फिल्म में विधवा का रोल निभाने के लिए कई टॉप एक्ट्रेस ने इनकार कर दिया था, तब आशा पारेख ने इसे स्वीकार किया था। उन्हें उस साल फिल्मफेयर का बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड भी मिला था। 1969 में आई हिट फिल्म 'आराधना' ने राजेश खन्ना को बुलंदियों पर पहुंचा दिया था। ये पहली हिंदी फिल्म थी, जिसने 100 दिन लगातार थिएटरों में चलने का रिकॉर्ड बनाया था। इसके बाद तो दाग, अजनबी और 'आनंद' जैसी कई हिट फ़िल्में आई। 'आनंद' को राजेश खन्ना की सबसे संजीदगी वाली यादगार फिल्मों में गिना जाता है। 
      ऋषि कपूर को तो उनकी फिल्म 'बॉबी' ने स्टार बना दिया था। इसके बाद ऋषि कपूर ने समाज की कुरीतियों पर प्रहार करने वाली 'प्रेम रोग' जैसी कई हिट फिल्मों में काम किया। कभी-कभी, रफूचक्कर और 'दूसरा आदमी' भी उनकी हिट फिल्मों में रही। आज के दौर में सलमान खान को हिट कलाकार माना जाता है, जिनके नाम से फ़िल्में चलती है। 'मैने प्यार किया' से शुरू हुआ उनका दौर मारधाड़ की फिल्मों तक पहुंच गया। लेकिन, 'हम आपके हैं कौन' सलमान और माधुरी दीक्षित की सौ करोड़ कमाने वाली देश की पहली फिल्म थी। इसके अलावा भी सलमान की कई फ़िल्में फिट हुई और 'टाइगर' सीरीज की उनकी लगातार दो फ़िल्में पसंद की गई। जबकि, शाहरुख़ खान को फिल्मों में रोमांस का बादशाह कहा जाता है। 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे' सिनेमा को नया सुपरस्टार और रोमांटिक हीरो देने वाली फिल्म थी। ये फिल्म देश के साथ साथ विदेशों में भी काफी पसंद की गई। शाहरुख़ की हिट फिल्मों की लिस्ट लंबी जरूर है, पर उनकी दो फ़िल्में 'पठान' और 'जवान' ने उनकी इमेज को बदलकर रख दिया।      
       कॉमेडी फिल्मों के इतिहास में 'गोलमाल' सबसे ऊपर है। अमोल पालेकर और उत्पल दत्त की कॉमेडी के चलते ये फिल्म कालजयी बन गई। 70 के दशक में जब एंग्री यंग मैन की तूती बोल रही थी, ये कॉमन मैन सबके दिलों में घर कर चुका था। 'जाने भी दो यारो' को पहली डार्क कॉमेडी का तमगा दिया जाता है। देश की सबसे बड़ी सुपरहिट फिल्मों का जब भी नाम आएगा, बात 'शोले' पर जाकर ही ख़त्म होगी। इस फिल्म के हर एक कलाकार को फिल्म ने कालजयी बना दिया। अमिताभ और धर्मेंद्र की जोड़ी ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया था। गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान अमर हो गए। अनिल कपूर की सुपरहिट फिल्मों में से एक 'तेजाब' ने तो कमाल किया था। अनिल कपूर की ही 'मिस्टर इंडिया' हिट फिल्मों में एक है। श्रीदेवी की फिल्म 'नगीना' फिक्शन फिल्म थी। लेकिन, इसे बहुत पसंद किया गया। आमिर खान की 'लगान' भी कमाल करने वाली फिल्मों में है। 'लगान' को ऑस्कर के लिए भी नामित किया गया था। आमिर की ही 'थ्री इडियट' ने न सिर्फ सफलता के नए कीर्तिमान रचे बल्कि भारतीय पेरेंट्स को एक नई दिशा में सोचने के लिए प्रेरित किया। ये पहली बॉलीवुड फिल्म थी, जिसने 200 करोड़ का कारोबार किया था। 'बाहुबली' नए दौर की सुपरहिट फिल्म कही जा सकती है। 
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Wednesday, November 1, 2023

परदे पर जमकर लगे चौके, छक्के और खूब गिरे विकेट!

- हेमंत पाल

      फिल्म इतिहास को खंगाला जाए तो अन्य विषयों के साथ ही खेलों पर भी कई फ़िल्में बनी। इनमें सबसे ज्यादा संख्या क्रिकेट पर बनी फिल्मों की है। ऐसी फिल्मों में ज्यादातर क्रिकेट के महारथी रहे खिलाड़ियों की बायोपिक हैं। इसके अलावा क्रिकेट के काल्पनिक कथानक गढ़कर भी फ़िल्में बनाई गई। क्रिकेट थीम पर बनी सुपरहिट फिल्म 'लगान' का कथानक भी पूरी तरह काल्पनिक था। जब भी खेलों पर बनी फिल्मों का जिक्र आता है, सबसे ज्यादा चर्चा क्रिकेट पर बनी फिल्मों की होती है। क्योंकि, इस खेल की लोकप्रियता का भारतीय दर्शकों में अलग ही आलम है। जबकि, हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है, फिर भी क्रिकेट को लेकर लोगों में हर स्तर पर जो दीवानापन है, उससे कई बार फिल्म कलाकार भी फीके पड़ जाते हैं। सिनेमा और क्रिकेट का रिश्ता दशकों पुराना है। 
      कई फिल्मों का कथानक क्रिकेट पर केंद्रित रहा। 60 के दशक से ही ऐसी फिल्मों का सिलसिला चल रहा है और पिछले दो दशकों में तो करीब 20 फिल्मों की कहानी इसी खेल के आसपास घूमती रही। लेकिन, ये फ़िल्में हमेशा सफल होती है, इस बात की गारंटी नहीं होती। कुछ सालों में क्रिकेट आधारित ज्यादातर फिल्में सफल नहीं हुई। इनमें ऐसी भी फ़िल्में रही जिनमें बड़े कलाकारों ने भूमिका निभाई थी।  हमारे यहां क्रिकेट को पसंद करने और देखने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। इस खेल का जुनून इतना है, कि वे अपनी टीम का सपोर्ट करने विदेश तक पहुंच जाते हैं। इसलिए कि क्रिकेट का कोई धर्म नहीं होता। ये ऐसा खेल है, जो प्रेम बढ़ाने का काम ही ज्यादा करता है। इस खेल में हर जाति और धर्म के साथ खिलाड़ी क्रिकेट खेलते और देखते हैं। यही कारण है कि खेलों पर बनने वाली फिल्मों में क्रिकेट सबसे आगे है। ये दर्शकों की पसंद पर भी खरी उतरती रही हैं। ऐसी फिल्मों के लिए नए-नए काल्पनिक कथानक चुने जाते रहे। क्रिकेट पर न जाने कितनी फिल्में बन चुकी और बन भी रही हैं।
       1959 से अब तक क्रिकेट के कथानक वाली करीब तीन दर्जन फिल्में आई। इनमें लगान, जन्नत और धोनी की बायोपिक सुपरहिट रही। जबकि काई पो चे, सचिन, फरारी की सवारी और '83' को भी पसंद किया गया। इनमें आधा दर्जन फ़िल्में मुश्किल से अपनी लागत निकाल सकी और बाकी फिल्मों को दर्शकों ने नकार दिया। परदे पर क्रिकेट का जुनून फिर भी ठंडा नहीं पड़ा। करीब आधा दर्जन फ़िल्में लाइन में हैं, जो जल्दी ही परदे पर उतरेंगी। सिर्फ पुरुष क्रिकेट खिलाड़ियों पर ही बायोपिक नहीं बनी, भारतीय क्रिकेटर मिताली राज की जिंदगी पर भी बनी फिल्म 'शाबास मिट्ठू' में तापसी पन्नू ने भूमिका निभाई थी। इसमें तापसी पन्नू के अभिनय की तो तारीफ हुई, लेकिन फिल्म नहीं चली। 
        माना जाता है कि 1959 में इस कथानक पर पहली फिल्म 'लव मैरिज' बनी थी। इसमें देव आनंद और माला सिन्हा ने काम किया था। इसमें देव आनंद क्रिकेटर की भूमिका में थे और क्रिकेट के कारण ही माला सिन्हा का उस पर दिल आ जाता है। इसके बाद तो दर्जनों फ़िल्में बनी और बनती रही। पर, क्रिकेट आधारित सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली फिल्मों में 2001 में आई आमिर खान की फिल्म 'लगान' रही। यह फिल्म विक्टोरिया काल पर केंद्रित थी जिसमें क्रिकेट को राष्ट्रवाद से जोड़ा गया था। मदर इंडिया और सलाम बॉम्बे के बाद लगान ऑस्कर के लिए नामांकित होने वाली तीसरी भारतीय फिल्म बनी! 2016 में आई फिल्म 'एमएस धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी' पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की बायोपिक है। इसे क्रिकेट पर बनी दूसरी सबसे सफल फिल्म माना जाता है। इसे 62 देशों में एक साथ रिलीज किया था, जो अपने आप में रिकॉर्ड है। नीरज पांडे की निर्देशित इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छा कारोबार किया।  
      क्रिकेट की लोकप्रिय में सबसे बड़ा योगदान उन खिलाड़ियों का है, जिन्होंने कई बार अपनी टीम को जिताने के लिए अपना सबकुछ लगा दिया। यही कारण है कि इन महान खिलाड़ियों के जीवन पर फिल्में बनी। इनमें सिर्फ उनका खेल ही नहीं फिल्माया, बल्कि जिंदगी का वो संघर्ष भी दिखाया गया जिससे उबरकर वे खेल की ऊंचाई तक पहुंचे। महेंद्र सिंह धोनी पर बनी फिल्म की सफलता का सबसे बड़ा कारण यही रहा। परदे पर धोनी के संघर्ष और निजी जीवन को बहुत अच्छी तरह दिखाया गया था। 2021 में आई कपिल देव की बायोपिक '83' भी उनकी जिंदगी पर आधारित है। फिल्म में इस खिलाड़ी की कप्तान वाली रणनीति और 1983 में वर्ल्ड कप की जीत दिखाई थी।
      लेकिन, मोहम्मद अजहरुद्दीन पर आई फिल्म 'अजहर' (2016) को दर्शकों ने नकार दिया। ये फिल्म अज़हरुद्दीन के जीवन पर आधारित थी, जिन पर मैच फिक्सिंग कर टीम इंडिया को हारने का आरोप लगा था। बायोपिक तो क्रिकेट के महान बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर पर भी बनी, जिसका नाम था 'सचिनः द बिलियन ड्रीम' किंतु ये फिल्म चली नहीं! क्योंकि, वास्तव में ये फीचर फिल्म न होकर डॉक्यूमेंट्री फिल्म थी। जल्द ही क्रिकेटर लाला अमरनाथ पर भी बायोपिक बनने जा रही है। इसके अलावा सौरभ गांगुली भी ऐसे खिलाड़ी हैं, जिनकी बायोपिक पर काम चल रहा है। सौरव गांगुली ने तो यह भी कहा कि उन पर यदि बायोपिक बनती है, तो उसमें मेरा किरदार रितिक रोशन को करना चाहिए।  
       सिर्फ बायोपिक ही नहीं, क्रिकेट के काल्पनिक कथानक भी इस तरह रचे गए, कि उन्हें दर्शकों ने बेहद पसंद किया। 1984 में आई 'ऑलराउंडर' की कहानी अजय नाम के किरदार पर आधारित थी, जिसे बड़े भाई की वजह से भारतीय टेस्ट टीम में चुन लिया जाता है। फिल्म की कहानी काल्पनिक जरूर है, लेकिन इसे देश की पहली पूरी क्रिकेट आधारित फिल्म का दर्जा हासिल है। भारतीय टीम ने 1983 में वर्ल्ड कप जीता था, इसके बाद 1984 में 'ऑल राउंडर' रिलीज हुई। शाहिद कपूर और मृणाल ठाकुर की फिल्म 'जर्सी' साउथ की रीमेक थी। इसमें वे क्रिकेटर की भूमिका में नजर आए थे। इसका निर्देशन गौतम तिन्ननुरी ने किया। शाहिद कपूर की इस फिल्म को रिव्यू तो अच्छे मिले, पर फिल्म बुरी तरह फ्लॉप साबित हुई। 2005 में आई फिल्म 'इक़बाल' गांव के एक मूक-बधिर लड़के की कहानी है, जिसका लक्ष्य तेज गेंदबाज बनना और क्रिकेट टीम के लिए खेलना है। फिल्म में नसीरुद्दीन शाह ने कोच की भूमिका निभाई हैं, जो इकबाल (श्रेयस तलपड़े) को उसकी क्रिकेट यात्रा में मदद करते हैं। इस स्पोर्ट्स फिल्म को सामाजिक मुद्दों पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था। 
     2011 में रिलीज हुई 'पटियाला हाउस' क्रिकेट ड्रामा फिल्म थी, जिसमें शॉन टैट, एंड्रयू साइमंड्स, हर्शल गिब्स, कीरोन पोलार्ड, नासिर हुसैन और संजय मांजरेकर जैसे कई इंटरनेशनल खिलाड़ियों ने काम किया था। इस फिल्म की कहानी में अक्षय कुमार ने ब्रिटिश भारतीय का किरदार निभाया जिसका क्रिकेट के प्रति जुनून उसके पिता के सपने के साथ टकरा जाता है।  'काय पो चे' वो फिल्म थी जिसमें दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने पहली बार काम किया। इसमें तीन दोस्तों की कहानी दिखाई गई थी। 'फरारी की सवारी' (2012) भी क्रिकेट के क्रेज पर बनी थी, जिसमें शरमन जोशी मुख्य भूमिका में थे। शरमन ने क्लर्क का रोल किया जिसका बेटा बड़ा होकर क्रिकेटर बनना चाहता है। ऐसे में शरमन अपने बेटे के सपने को पूरा करने के लिए सचिन तेंदुलकर की फरारी कार को चोरी कर लेते हैं। फिल्मों के अलावा अब तो ओटीटी पर भी क्रिकेट की कहानियों को भुनाया जाने लगा है। अप्रैल 2022 को 'कौन प्रवीण तांबे' ऐसी ही एक फिल्म है। श्रेयस तलपड़े की इस फिल्म में क्रिकेटर प्रवीण तांबे की जिंदगी को बारीकी से दिखाया गया। लेकिन, फिल्म कोई कमाल नहीं कर पाई। 
     अब जरा एक नजर क्रिकेट पर अब तक बनी फिल्मों पर। 1959 में आई 'लव मैरिज' में देव आनंद, माला सिन्हा थे। 1984 'ऑल राउंडर' में कुमार गौरव और रति अग्निहोत्री ने काम किया था। 1990 की फिल्म 'अव्वल नंबर' के कलाकार थे देव आनंद, आमिर खान, आदित्य पंचोली। जबकि, 2001 की बहुचर्चित फिल्म 'लगान' को आमिर खान के नाम से ही जाना जाता है। 2003 में आई 'स्टंप्ड' में एली खान, रवीना टंडन थे। 2005 की 'इकबाल' में श्रेयस तलपड़े मुख्य भूमिका में थे। 2007 की 'सलाम इंडिया कहो' में संजय सूरी, मिलिंद सोमन और संध्या मृदुल ने किरदार निभाए थे। 2007 की फिल्म 'हैट्रिक' में रिमी सेन और कुणाल कपूर ने काम किया था। 2007 में ही रिलीज हुई 'चैन कुली की मैन कुली' के कलाकार राहुल बोस और ज़ैन खान थे। 2008 की फिल्म 'मीराबाई नॉट आउट' में मंदिरा बेदी और महेश मांजरेकर ने काम किया था।
      2008 में आई 'जन्नत' इमरान हाशमी, सोनल चौहान की फिल्म थी। जबकि, 2009 की 'विक्ट्री' में हरमन बावेजा और अमृता राव की भूमिकाएं रही। 2009 की फिल्म 'दिल बोले हड़िप्पा' में रानी मुखर्जी और शाहिद कपूर ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थी। जबकि, 2011 की 'वर्ल्ड कप' में रवि कपूर, मनेशा चटर्जी थे। 2011 में आई 'पटियाला हाउस' में अक्षय कुमार, ऋषि कपूर, डिंपल कपाड़िया और अनुष्का शर्मा थे। 2012 की फिल्म 'फरारी की सवारी' में शरमन जोशी और बोमन ईरानी ने काम किया था। 2016 फिल्म 'अज़हर' में मुख्य किरदार इमरान हाशमी ने निभाया था। 2016 में आई 'एमएस धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी' सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म थी। 2019 की फिल्म 'द ज़ोया फैक्टर' में दुलकर सलमान और सोनम आहूजा थे। 2021 में आई '83' में रणवीर सिंह ने काम किया था और 2022 की फिल्म 'जर्सी' शाहिद कपूर की फिल्म थी।    
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