Friday, August 23, 2013

छोटे राज्यों की मांग से उठे बड़े सवाल!

- हेमंत पाल --------------------------------------------------------------- आंध्र प्रदेश को विभाजित कर पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण का फैसला आते ही देश के अन्य भागों में छोटे राज्यों के लिए दशकों से चलते आ रहे आंदोलनों में नई जान आ गई। गोरखालैंड, विदर्भ, कार्बी आंगलांग, बोडोलैंड, पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध प्रदेश, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड आदि अनेक राज्यों की मांग के समर्थन में आंदोलनों का दौर शुरू हो गया है। इस घटनाक्रम को देखते हुए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अब केंद्र सरकार को दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करना चाहिए? जो कि नए राज्यों के पुनर्गठन की समस्या का राजनीतिक, भाषाई, सांस्कृतिक और भौगोलिक सभी पहलुओं का गहराई से अध्ययन करे , ताकि, इस आधार पर सरकार भविष्य में नए और छोटे राज्यों के निर्माण के बारे में सुविचारित मानक नीति तैयार करके उस पर अमल हो सके । तेलंगाना के गठन के केंद्र सरकार के फैसले ने देश के दूसरे हिस्सों में अलग राज्यों की मांग में चल रहे आंदोलनों को भड़का दिया है। इस्तीफों का दौर भी चला और सड़क पर विरोध भी हुआ! कोई खुश हुआ तो कोई दुखी! इस बात की आशंका भी थी, क्योंकि, ऐसे राजनीतिक फैसले सभी को खुश नहीं कर सकते! ऐसे में सवाल उठता है कि देश की आजादी के बाद से हमेशा ही अलग राज्यों की मांगें क्यों उठती रही है? इस तरह की मांगों के पीछे वोट की राजनीति है या फिर कोई और कारण? इन आंदोलनों के लिए क्या सिर्फ राज्यों की सांस्कृतिक और भौगोलिक भिन्नता ही जिम्मेदार है या फिर इसके पीछे कोई और कारण भी है? समाजशास्त्रियों के तर्क हैं कि समाज के अगड़े-पिछड़े के बीच तनाव, शोषण, भाषा और संस्कृति पर मंडराते खतरे, मुख्यधारा से कट जाने का खतरा और आजादी में खलल जैसे कारण ही अलग राज्य की मांगों को हवा दे रही है। लेकिन, इस तरह की मांगों के साथ जब भी राजनीति जुड़ती है तो आंदोलन की यह चिंगारी आग की शक्ल में सबकुछ जला डालती है। लंबे समय से देश के विभिन्न अंचलों से भाषाई, भौगोलिक और जातिगत आधार पर अलग राज्यों की मांग उठती रही है। कुछ मांगें तो आजादी से पहले की हैं और कुछ आजादी के बाद की! पश्चिम बंगाल के पर्वतीय क्षेत्र दार्जिलिंग में सबसे पहले 1907 में गोरखा समुदाय के लिए अलग राज्य की मांग उठी थी! अलग गोरखालैंड की मांग कर रहे 'गोरखा जनमुक्ति मोर्चा' के प्रमुख विमल गुरुंग कहते हैं, कि दार्जिलिंग तो कभी बंगाल का हिस्सा रहा ही नहीं! इतिहास भी इस बात का गवाह है। गोरखाओं की खत्म होती पहचान बनाए रखने के लिए गोरखालैंड जरूरी है। लेकिन, केंद्र सरकार ने कभी भी इन आंदोलनों को गंभीरता से नहीं लिया! कभी आंदोलनों को बल प्रयोग से दबाया गया तो कभी समझौतों के जरिए। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार ने समस्या की तह तक जाने की कोशिश नहीं की! असम के 'बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल' के सदस्य हाग्रामा मोहिलारी का कहना है कि असम में रहकर बोडो जनजाति की पहचान ख़त्म होने वाली है। सरकार ने अलग काउंसिल का लालच भले दिया हो, पर अलग राज्य के बिना बोडो जनजाति की पहचान को बनाए रखना संभव नहीं! देश की आजादी के बाद राज्यों के पुनर्गठन की सबसे बड़ी कवायद 1953 में 'राज्य पुनर्गठन आयोग' बनाकर की गई थी! इसके तहत राज्यों की सीमाएं भाषाई आधार पर तय की जानी थी। भाषाई आधार का नतीजा ये हुआ कि भौगोलिक बसावट, क्षेत्रफल, आबादी और भाषा के अलावा दूसरी सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति जैसे मसलों को आयोग ने महत्व नहीं दिया! यही कारण था कि कुछ सालों बाद ही असंतोष पनपने लगा! चार साल बाद ही बंबई से अलग करके गुजरात को अलग राज्य का दर्जा दिया गया। इसके छह साल बाद पंजाब को तीन हिस्सों में बांटकर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बनाना पड़ा। देश में छोटे राज्यों के लिए नए सिरे से उठने वाली मांगों के लिए तीन बातें ख़ास तौर पर जिम्मेदार हैं। पहली वजह जाति और धर्म के आधार पर देश के सामाजिक ताने-बाने का राजनीतिकरण होना है। पिछले कुछ सालों में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ा है, जो लोगों की भावनाओं को भड़काकर मांग को आंदोलन का स्वरूप देने लगे हैं। चुनावी राजनीति में बड़े दल भी अपने क्षेत्रीय एजेंडे के तहत अलगाववाद की भावना को बढ़ावा देने में पीछे नहीं हैं! दूसरा कारण है देश में एकसमान विकास का अभाव! ऐसी स्थिति में यह भावना प्रबल हो जाती है कि अलग राज्य होने की स्थिति में क्षेत्र और वहां के लोगों के विकास की गति तेज होगी! क्योंकि, ये आम धारणा है कि विकसित इलाकों में निजी निवेश होता है, जिससे इलाके का विकास होता है। पिछड़े इलाके विकास की दौड़ में इसीलिए और पिछड़ते रहते हैं! अपने लिए अलग राज्य की मांग का समर्थन करने वालों के पास अपनी दलीलें हैं। मांग का समर्थन करने वाले कहते हैं कि छोटे राज्यों से सुशासन सुनिश्चित करने के अलावा विकास की गति भी तेज हो सकती है। गोरखा आंदोलन से जुड़े नेताओं का कहना है कि राजधानी से दूर होने की वजह से सरकार और प्रशासन का ध्यान इलाके की समस्याओं और विकास की ओर नहीं जाता। इन आंदोलनकारियों का ये भी कहना है कि छोटे राज्यों की विकास दर दूसरे राज्यों से बेहतर है। अपनी बात के समर्थन में वे छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का हवाला देते हैं जिनकी औसतन सालाना वृद्धि दर दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान अपने मूल राज्यों (जिनसे अलग होकर उनका गठन हुआ था) के मुकाबले बेहतर रही। ऐसी मांगों का विरोध करने वाले इसे देश की एकता व अखंडता पर खतरा मानते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है कि दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र बंगाल का अभिन्न हिस्सा रहा है। कुछ इलाके को मिलाकर यदि गोरखालैंड बना भी दिया गया, तो संसाधान कहां से आएंगे? छोटे राज्यों के गठन से राजनीतिक व सामाजिक अस्थिरता भी बढ़ेगी! झारखंड इसका ताजा उदाहरण है जहां हर साल सरकार गिर या बदल जाती है। लेकिन, सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता को आधार बनाकर छोटे राज्यों के पक्ष को नाकारा नहीं जा सकता!