Saturday, April 29, 2023

परदे के नायक कभी पागल, कभी जख्मी, कभी घायल!

- हेमंत पाल

     प्रेम में असफल प्रेमियों को लेकर अकसर कई किस्से सामने आते रहते हैं। ऐसे हालात में प्रेमिकाएं तो समझौता कर लेती हैं, पर कुछ प्रेमी अपनी असफलता को सहन नहीं कर पाते और बदले की भावना पर उतर आते हैं। उन्हें बेवफाई इतनी ज्यादा खलती है, कि उनकी भावना हिंसात्मक हो जाती है।समाज में ऐसे किस्सों की कमी नहीं, जब प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को ही मार दिया या फिर ये बदला उसके परिवार या उस व्यक्ति से लिया जो उसके प्रेम में आड़े आया! ये सब अनंतकाल से चलता आ रहा है। राजा-महाराजाओं के समयकाल से या संभव है उससे भी पहले से। इसलिए कि प्रेम वो उद्दात भावना है, जो अपने बीच किसी तीसरे की मौजूदगी सहन नहीं करती।
      समाज में घटने वाली इन घटनाओं में इतना फ़िल्मी मसाला होता है, कि इसे फिल्मकारों ने हाथों-हाथ लिया। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से ऐसी फ़िल्में बनती रही है। फर्क सिर्फ इतना आया कि तब नायक में त्याग की भावना इतनी ज्यादा जागृत हो जाती थी, कि वो अपने प्रेम को तीसरे के लिए छोड़ देता था। पर, अब ऐसा नहीं होता। आज की फिल्मों का नायक तो प्रेम की असफलता पर मनोविकार से ग्रस्त लगता है। वो बदला भी लेता है और पागलपन की सीमा तक लांघने से नहीं चूकता!           
    आज की फिल्मों में नायक को प्रेम के प्रति इतना गंभीर बताया जाता है, कि वो नायिका को अपनी जागीर समझता है! यदि वो उसे नहीं मिलती, तो उसे ख़त्म करने से भी नहीं हिचकिचाता! समाज में घट रही ऐसी घटनाएं प्रेम के प्रति हिंसाचार और व्यक्ति की असंवेदनहीनता पर मुहर लगाती हैं। आज के युवाओं को प्रेम की असफलता उसके अहंकार पर चोट जैसी लगती है। वह घर, परिवार, समाज की बनाई सारी सीमाएं तोड़ने में पीछे नहीं हटता! लेकिन, सवाल उठता है कि फ़िल्मी नायक को आखिर ये प्रेरणा आई कहाँ से, उसे समाज से तो नहीं मिली, तो क्या फिर फिल्मों ने ही फिल्मों को ऐसे कथानक रचने के लिए प्रेरित किया है! बदलते सामाजिक जीवन मूल्यों की बानगी पेश करके दर्शकों का नए आयामों से साक्षात्कार फ़िल्में ही तो कराती हैं। 
    सामान्यतः फिल्मों के नायक को मर्यादित आचरण वाला, सर्वगुण संपन्न और नकारात्मकता से बहुत दूर आदर्श पुरुष माना जाता है! अभी तक यही सब दिखाया भी जाता रहा है। लेकिन, कुछ फिल्मों में जब नायक अपने इस चरित्र से हटता है, तब भी वह नायक ही रहता है! फिर क्या कारण था कि प्रेम की उदात्त भावनाओं के प्रति आसक्त नायक कुछ फिल्मों में हिंसक एवं क्रूर प्रेमी बना? यह सवाल वस्तुतः एक समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय भी बन सकता है। क्योंकि, ऐसी फ़िल्में प्रेम के विकृत रूप का परिचय कराती है, जो प्रेम के संस्कारों में नहीं होता।
     हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में प्रेम के कोमल और मोहक अंदाज की फिल्मों के साथ ऐसी फ़िल्में भी बनी, जिसमें नायक मनोविकार से ग्रस्त दर्शाया गया। एक समय ऐसा भी था, जब शाहरूख खान ऐसी मनोविकारी प्रेम कहानियों वाली फिल्मों के महानायक बन गए थे। मनोविकार से ग्रस्त प्रेमी को नए ज़माने के नायकों में पहली बार परदे पर शाहरुख खान ने ही चरितार्थ किया। ‘बाजीगर’ से प्रेम में हिंसा का जो दौर शुरू हुआ था, उसे बाद में ‘डर’ और ‘अंजाम’ से विस्तार मिला! इसी मनोविकारी नायक वाली छवि ‘अग्निसाक्षी’ में नाना पाटेकर की दिखी! इसमें नाना पाटेकर ‘स्लीपिंग विद द एनमी’ के नायक जैसे पति साबित होते हैं।
      ‘नाना इस फिल्म में प्रेम के दुश्मन के रूप में नजर आए थे। ऐसा पति जिसे पत्नी की तरफ किसी देखना भी गवारा नहीं था! 'अग्निसाक्षी' के साथ ही फिल्म 'दरार' बनी थी, जिसमें अरबाज खान ने खतरनाक प्रेमी की भूमिका निभाई थी। जिद का असफल प्रेमी सनी देओल भी पागलपन की हद लांघकर मरने मारने पर उतारू हो जाता है। 'सदमा' का असफल प्रेमी कमल हासन भी फिल्म के आखिरी सीन में रेलवे स्टेशन पर बंदरों जैसी हरकत करने लगता है।
    'खिलौना' के असफल पागल प्रेमी संजीव कुमार ने भले ही परदे पर हिंसा नहीं की हो, लेकिन दुष्कर्म करने की खता तो वो कर ही बैठता है। फिल्मों में कुछ पागल प्रेमी मरने मारने पर तो उतारू नहीं होते, लेकिन पागलखाने जाकर ऊल-जलूल हरकतें जरूर करने लगता है। हेलेन के प्रेम में पागल शम्मी कपूर 'भैंस को डंडा' मारने पर उतारू हो जाता है। 90 के दशक की शाहरुख़ खान की इन फिल्मों ने प्रेम में नफरत के तड़के का रूप प्रदर्शित किया था। ये ऐसे नायक का चरित्र था, जो चुनौतियों से भागता है। 
     शाहरूख ने जो किरदार निभाए वो कुंठित नायक का प्रतिबिंब था, जो प्रेम को अधिकार की तरह समझता है। वह प्यार तो करता है, पर उसकी सच्चाई को स्वीकारने का साहस नहीं कर पाता। वो न तो मेहनत करना चाहता है न उसमें सही नायकत्व है। सबसे बड़ी बात ये कि वो इंतजार करना भी नहीं जानता! ये नायक जिस तरह की हरकतें करता है, उसमें प्रेमिका का उत्पीड़न भी है। उसके लिए खून बहाना बड़ी बात नहीं होती! 'डर' के नायक को याद कीजिए जो नायिका के एक तरफ़ा प्रेम में इतना पागल हो जाता है कि उसके पति को मारने की साजिश करने से भी बाज नहीं आता!
      असफल प्रेम और मानसिक रोग के विषय पर केंद्रित फिल्मों के बारे में पन्ने पलटे जाएं तो सबसे पहले असित सेन की 'खामोशी' (1967) को ही गिना जाएगा। इस फिल्म में वहीदा रहमान प्रेम में ठुकराए प्रेमियों को मानसिक पीड़ा से निकालने के लिए प्रेम का नाटक करने वाली नर्स के रुप में थी। पर, हर बार खुद प्रेम करने लगती है और रोगी के जाने के बाद पागल हो जाती है। इसमें असफल प्रेमी के रूप में थे राजेश खन्ना और धर्मेंद्र। ऐसी ही कहानी प्रियदर्शन की निर्देशित फ़िल्म 'क्योंकि' (2005) भी थी।
      'खामोशी' की अतिनाटकीयता, उसके मानसिक रोग के चिकित्सकों के केरिकेचर, उसके विदूषक जैसे मानसिक रोगी, सभी कमियां 'क्योंकि' में और भी कई गुणा बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत की गई थीं। लेकिन, इस फिल्म को कई दर्शक इसलिए पूरी नहीं देख सके। इसलिए कि फिल्म में चीख चिल्लाहट बहुत ज्यादा थी। 2003 में आई सलमान खान और भूमिका चावला की फिल्म 'तेरे नाम' (निर्देशक सतीश कौशिक) भी थी, जिसका विषय भी मानसिक रोग था। 
        हिंदी फिल्मों में मानसिक रोग के विषय को कई तरीकों से लिया गया। शहरीकरण, खंडित होते संयुक्त परिवार, तरक्की की अनथक भूख, पाने और कमाने की होड़ से अकेलापन, उदासी और तनाव जैसे मानसिक रोग तेज़ी से बढ़े हैं। यहीं मानसिक रोग फिल्मों को नाटकीय तनाव देने में खासी भूमिका निभाते हैं। यही कारण है कि फिल्मों के कथानक में मानसिक रोग को अकसर असफल प्रेम के नतीजे के रुप में प्रस्तुत किया। कथा के दुखांत से जोड़कर कई ट्रेजेडी फ़िल्में बनाई गई। इनमें मानसिक रोग फिल्म का मुख्य विषय कभी नहीं बना। बल्कि, प्रेम कथा को नया मोड़ देने का जरिया जरूर बनकर रह गया। मानसिक बीमारी में सीजोफ्रेनिया को कई बार प्रस्तुत किया गया। एक ही व्यक्ति को दो व्यक्तित्व में बांटकर दर्शाया गया। 
    स्टीवनसन के प्रसिद्ध उपन्यास 'डॉ जैकिल और मिस्टर हाइड' से प्रभावित हुआ कथानक भी कुछ भारतीय फिल्मों ने चुना। इनमें उल्लेखनीय रही सत्येन बोस की 1967 में आई फिल्म 'रात और दिन' जो नरगिस की सशक्त अभिनय की वजह से प्रभावशाली बन गई थी। इसी से मिलते-जुलते कथानक वाली एक फिल्म 2004 में 'मदहोश' आई थी। इसमें बिपाशा बसु ने सीजोफ्रेनिया के रोग को सतही और प्रभावशाली तरीके से दिखाया। इस तरह की फ़िल्में इस रोग की सही तस्वीर नहीं दिखातीं, बल्कि उसे केवल कहानी में अप्रत्याशित मोड़ लाने का बहाना बनाकर रह जाती हैं। 
   इस भोगवादी संस्कृति की अंधड़ में हमारा दार्शनिक आधार दरकने लगा है। यही कारण है कि फिल्मों में भी ऐसे नकारात्मक चरित्र गढ़े जाने लगे, जो नायक होते हुए, प्रेम के दुश्मन बन जाते हैं। वास्तव में ये सिर्फ फ़िल्मी किरदार नहीं! बल्कि, नवधनाढ्यों के उभार के बीच ऐसी कहानियां हैं जो समाज के सच की गवाही हैं। दुर्भाग्य से सिनेमा और टेलीविजन इसी नकारात्मक प्रवृत्ति को आधार देते हैं। ऐसी फ़िल्में देखकर ही गैर-शहरी नौजवान गलत प्रेरणा लेकर भटक जाते हैं। वे परदे पर दिखाई जाने वाली घटनाओं को जीवन में उतारने की कोशिश जो करने लगते हैं। हमारा सिनेमा पाश्चात्य प्रभाव और बाजारवाद से ग्रस्त रहा है। 
    पश्चिमी जीवन की स्वीकार्यता बढ़ने के साथ ही समाज में नई तरह का संकट बढ़ेगा। इसके साथ ही प्रेम के क्रूर चेहरे को भारतीय दर्शकों पर थोपने की कोशिश भी जारी हैं। इसे दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि ये सबकुछ प्रेम के नाम पर ही हो रहा है। वास्तव में ये हमारी फिल्मों के धीरोदात्त नायक की विदाई का दौर है। इसमें प्यार और सामाजिक रिश्तों को तिलांजलि दी जाने लगी है। अपने प्रेम को न पा सकने की स्थिति में वह उसे समाप्त कर देने पर आमादा हो जाता है, जो उसके मनोविकार का संकेत है। ऐसा नायकत्व समाज और मनोरंजन दोनों के लिए खतरनाक है! लेकिन, फिल्मकारों की कमाई का यही सबसे बड़ा जरिया भी है। 
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Friday, April 28, 2023

सोनू सूद इंदौर से लोकसभा चुनाव लड़े तो क्या होगा!

      कोरोना काल में गरीबों और जरूरतमंदों के मसीहा बनकर उभरे फिल्म अभिनेता सोनू सूद ने चुनावी राजनीति में उतरने की इच्छा जताकर नई राजनीतिक बहस छेड़ दी। अभी तक वे राजनीति में आने को लेकर इंकार करते रहे हैं। वे एक चैनल के रियलिटी शो के लिए इंदौर आए थे। यहां उन्होंने यह संभावना जताई कि मैं इच्छा तो नहीं रखता, लेकिन भविष्य का कुछ कह नहीं सकते। अगर मौका मिले तो इंदौर से चुनाव लड़ना पसंद करूंगा। इसलिए कि मैं इंदौर और यहां के लोगों को पहले से जानता हूं। 
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- हेमंत पाल
   
      फिल्म अभिनेता सोनू सूद ने इंदौर से चुनाव लड़ने के बारे में जो कहा वह सच हो या नहीं, वे यहां से चुनाव लड़े या नहीं, पर इससे राजनीतिक गर्माहट तो आ गई! मीडिया के एक सवाल के जवाब में उन्होंने जो कहा उससे शहर की राजनीति में खलबली है! क्योंकि, जिस अंदाज में सोनू सूद ने इंदौर के प्रति अपनी आत्मीयता दिखाई और राजनीति में आने के संकेत दिए वो कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए चिंता वाली बात है। सोनू सूद ने यह भी कहा कि इंदौर से मेरा एक खास रिश्ता है। मैं यहां से चुनाव भी लड़ सकता हूं। निश्चित रूप से चुनाव लड़ने से उनका आशय लोकसभा चुनाव लड़ना ही है। 
      सबसे बड़ा सवाल यह है कि सोनू सूद किस पार्टी से चुनाव लड़ने की इच्छा रखते हैं। लेकिन, यह तय है कि वे भाजपा या कांग्रेस से तो चुनाव नहीं लड़ेंगे। यदि वे उम्मीदवार बनते भी हैं, तो निश्चित रूप से आम आदमी पार्टी (आप) के ही उम्मीदवार होंगे। सोनू का 'आप' पार्टी के बैनर से चुनाव लड़ना किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं होगा। क्योंकि, मध्यप्रदेश में तीसरी राजनीतिक ताकत बनने के लिए 'आप' जिस तरह कोशिश भी कर रही है। उसके लिए सोनू सूद एक बड़ा राजनीतिक हथियार हो सकते हैं। लेकिन, सोनू ने इससे पहले कभी चुनाव लड़ने को लेकर मंशा जाहिर नहीं की। उनका झुकाव कभी राजनीति की तरफ दिखाई भी नहीं दिया। उन्हें न तो भाजपा ने प्रभावित किया, न कांग्रेस ने। यदि थोड़ा झुकाव कभी दिखा तो वो 'आप' की तरफ ही दिखाई दिया।     
       इस अभिनेता ने कोरोना के दौरान गरीबों के लिए जो किया, उससे उनकी इमेज फ़िल्मी हीरो से कहीं ज्यादा बड़ी हो गई। अब उनका सम्मान 'पब्लिक हीरो' की तरह किया जाता है। आज भी उनके घर के सामने मदद चाहने वालों की भीड़ लगती है। सोनू सूद ने कहा कि वैसे भी राजनीति की दुनिया बेहतर है। क्योंकि, राजनीति कमाल की दुनिया है। वहां भी लोग अच्छा काम करते हैं। मुझे लगता है कि जब भी कोई अच्छा काम करने लगता है, तो कहा जाता है कि राजनीति में आइए। मुझे लगता है कि उसके बिना भी अच्छा काम किया जा सकता है। पर, आने वाले समय में पता नहीं क्या लिखा है। मैं इच्छा तो नहीं रखता लेकिन, यह हो जाता है, तो आना तो चाहिए। सोनू सूद ने कहा कि मुझे जनता की सेवा करना बहुत पसंद है। सभी जानते हैं कि मैं कई तरह से लोगों की मदद कर रहा हूं। लोगों की मदद करने का एक अच्छा माध्यम राजनीति भी है। 
    सोनू सूद फिलहाल किसी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं है। लेकिन, उनके किसी न किसी पार्टी में जाने की अफवाह जरूर उड़ती रहती है। अलग-अलग नेताओं के साथ उनकी तस्वीरें भी दिखाई देती है। उनकी बहन मालविका सूद ने पंजाब विधानसभा का पिछला चुनाव मोगा विधानसभा सीट से जरूर लड़ा था, पर चुनाव हार गई। सोनू सूद ने इस सीट पर अपनी बहन के लिए चुनाव प्रचार तो किया, किंतु वे हर मंच से इस बात को स्पष्ट करते रहे कि वे कांग्रेस के प्रचार करने नहीं आए! बल्कि, अपनी बहन के प्रचार के लिए मैदान में हैं। सोनू सूद दिल्ली के मुख्यमंत्री और 'आप' नेता अरविंद केजरीवाल, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल से भी मिले थे। लेकिन, इसके पीछे कोई राजनीतिक कारण नहीं ढूंढे गए। 
    इस अभिनेता की इंदौर से चुनाव लड़ने की मंशा के बाद इंदौर के सांसद शंकर लालवानी ने प्रतिक्रिया दी, कि उनका स्वागत है। जबकि, सच्चाई यह भी है कि यदि वास्तव में सोनू इंदौर से चुनाव लड़ते हैं, तो क्या शंकर लालवानी उनके सामने बीजेपी के उम्मीदवार होंगे! अभी इस सवाल का जवाब भी हां में नहीं दिया जा सकता। क्योंकि, इस बार पिछले लोकसभा चुनाव जैसे हालात नहीं है। खास बात यह भी है कि शंकर लालवानी के खाते में उपलब्धियों का कोई ऐसा तमगा भी नहीं है कि भाजपा उन्हें फिर मौका दे।  
     ऐसे में यह संभावना व्यक्त रही है कि केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया भोपाल या इंदौर से लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। पार्टी में इसकी चर्चा भी हुई है। आज की स्थिति में सिंधिया के पास अपनी कोई परंपरागत सीट नहीं है। गुना-शिवपुरी सीट से वे 2019 का चुनाव कांग्रेस के टिकट पर केपी यादव से हार चुके हैं। अब इस सीट पर उन्हें मौका तभी मिल सकता है, जब केपी यादव उनके लिए सीट छोड़े, जिसके कोई आसार दिखाई नहीं देते। इसके अलावा ग्वालियर भले ही सिंधिया का घर हो, लेकिन राजनीतिक नजरिए से ग्वालियर सीट से चुनाव लड़ना सिंधिया के लिए सुरक्षित नहीं कहा जा रहा। यही कारण है कि वे ग्वालियर-चंबल इलाके से निकलना चाहते हैं और उनके लिए इंदौर से सुरक्षित सीट कोई नहीं लग रही। 
     देखा जाए तो इंदौर और भोपाल ही ऐसी सीटें हैं, जो पार्टी की ताकत के हिसाब से सबसे सुरक्षित है। भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर और इंदौर से शंकर लालवानी पहली बार के सांसद हैं। इनको पिछली बार टिकट देने के पीछे इनका राजनीतिक कद, लोकप्रियता या जनाधार नहीं कतई नहीं था। बल्कि तात्कालिक राजनीतिक कारणों से इन्हें टिकट दिया गया था। लेकिन, अभी तक इनका परफॉर्मेंस ऐसा नहीं रहा, कि पार्टी इनको फिर मौका दे। इसलिए यहां पर सिंधिया को उम्मीदवार बनाने को लेकर भाजपा को न तो कोई मुश्किल है न कोई विरोध है। लेकिन, फिर वही सवाल उठता है कि यदि सोनू सूद इंदौर से चुनाव मैदान में उतरे तो क्या पार्टी ज्योतिरादित्य सिंधिया को यहां से उम्मीदवार बनाएगी और वे इसके लिए राजी होंगे! ये ऐसा मसला है जिसके साथ कई किंतु, परंतु हैं! पर सोनू ने इंदौर की लोकसभा चुनाव की राजनीति के ठहरे हुए पानी में अपने बयान का पत्थर मारकर उसमे लहरें तो उठा ही दी!  
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Sunday, April 23, 2023

दूसरी दुनिया के अबूझ रहस्य और मसालेदार सिनेमा!

- हेमंत पाल

      हॉलीवुड के जाने-माने फिल्ममेकर स्टीवन स्पीलबर्ग ने एलियन और यूएफओ के बारे में नई चर्चा छेड़कर इस अनसुलझे विषय को फिर ताजा कर दिया।स्पीलबर्ग का कहना है कि अमेरिका की सरकार दूसरी दुनिया के बारे में जानकारी छुपा रही है। उनके इस बयान की चर्चा ने एलियन के अस्तित्व को लेकर फिर बहस छेड़ दी। इस अमेरिकी फिल्मकार को लगता है कि निश्चित रूप से ब्रह्मांड में हम अकेले नहीं है, हमारे अलावा और भी कोई है। सिर्फ धरती पर ही नहीं, कहीं और भी जीवन है। उन्होंने अमेरिका में एलियन और मनुष्य के बीच उन सैकड़ों मुठभेड़ों का भी जिक्र किया, जिसका रिकॉर्ड मौजूद है! कुछ समय पहले अमेरिका से एक जानकारी सामने आई थी, कि वहां के आसमान में रहस्यमयी चीज देखी गईं, जिन्हें यूएफओ और एलियन माना गया। लेकिन, इसका रहस्य आज तक नहीं खुला। 
      अमेरिका अंतरिक्ष एजेंसी 'नासा' के वैज्ञानिक बरसों से अंतरिक्ष में मौजूद उपग्रहों पर जीवन तलाश रहे हैं। लेकिन, उन्हें भी जीवन के लिए धरती जैसी अनुकूल जगह नहीं मिली। लेकिन, संभावना के दरवाजे अभी बंद नहीं हुए। जबकि, हमारे यहां एलियन जैसी परिकल्पना पौराणिक ग्रंथों का हिस्सा रही है। धरती के अलावा स्वर्ग लोक, नाग लोक, पाताल लोक की कथाएं हम सभी ने सुनी, जिसमें वहां रहने वाले प्राणियों का उल्लेख मिलता है। जहां हमारी परिकल्पना में दूसरी दुनिया के लोग हमारी तरह ही नहीं, बल्कि हमसे ज्यादा सुंदर दिखाई देते हैं। स्वर्ग की अप्सराएं नागलोक की नागकन्या, समुद्री सुंदरी या पाताल कन्याएं सभी सुंदरता में बेमिसाल थी। लेकिन, पश्चिमी देशों ने इन्हे ईटी (एक्स्ट्रा टेरिटोरियल) एलियन या पारलौकिक जगत की हस्तियां तो माना, लेकिन इनका स्वरूप धरती पर रहने वाले मानवों की तुलना में ज्यादा कुरूप बताया गया। चाहे वह ईटी के पात्र हों या एलियंस, अवतार या स्टार ट्रेक के पात्र ही क्यों न हो। वहां इन्हें अक्सर हरा नीला बताया गया है और इनकी आवाजें भी अजीबो-गरीब तरह की बताई जाती है।
    माना जाता है कि जब धरती पर जीवन है, तो किसी और ग्रह पर भी होगा! भले ही वास्तविकता में दूसरी दुनिया अभी एक राज हो, पर फिल्मकारों ने इस गुत्थी को कई बार सुलझा लिया। न सिर्फ हॉलीवुड की फिल्मों में इसे सुलझाया, बल्कि हिंदी फिल्मों में तो एलियन से दोस्ती के कथानक भी रच दिए गए। कई ऐसी फ़िल्में भी बनी, जिनमें एलियन को एक किरदार की तरह दिखाया गया, जिसे लोगों ने पसंद भी किया। अमेरिकी अंतरिक्ष यान के यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने 1969 में जब अपोलो-11 यान से उतरकर चांद पर पहला कदम रखा था, तो पूरी दुनिया रोमांचित हुई थी। 
    उनके चांद पर कदम रखने से पहले ही अंतरिक्ष विषय पर देश में पहली फिल्म 1963 में तमिल में 'कलाई आरासी' बन चुकी थी। कहा जाता है कि ये पहली ऐसी भारतीय फिल्म थी, जिसमें स्पेस ट्रैवलिंग और एलियंस को दिखाया गया था। फिल्म में हीरो अपनी गर्लफ्रेंड को बचाने के लिए एलियन के ग्रह तक पहुंच जाता है और उनसे लड़कर अपनी नायिका को छुड़ा लाता है। लेकिन, पहली हिंदी फिल्म 1967 में 'चांद पर चढ़ाई' बनी, जिसमें दारा सिंह ने चांद तक का सफर तय किया था। फिल्म में उनकी भूमिका साइंटिस्ट की थी। कुछ एलियन उनका अपहरण कर लेते हैं। ये अच्छे एलियन और इंसानों जैसे ही होते हैं। कुछ बुरे एलियन भी इस फिल्म में थे, जिन्हें वनमानुष की तरह दिखाया गया था। लेकिन, आज भी किसी को नहीं पता कि एलियन आखिर होते कैसे हैं। 
      रितिक रोशन की फिल्म 'कोई मिल गया' (2003) में एलियन को फिल्म का केंद्रीय पात्र बनाकर कथानक को रचा गया था। जिस तरह नाटकीय स्थितियों में सारे फ़िल्मी फार्मूलों का इस्तेमाल करके इस फिल्म को डायरेक्ट किया गया, उसे बेहद पसंद किया गया था। ये एलियन विषय पर बनी पहली फिल्म थी, जिसने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कारोबार किया और आज भी इसे रितिक की सुपरहिट फिल्म माना जाता है। इस फिल्म को हॉलीवुड फिल्म 'ईटी' की नक़ल बताया गया, जो 2002 में रिलीज हुई थी। लेकिन, इसे हिंदी में जिस तरह बनाया गया वो अनोखा प्रयोग था। दूसरी दुनिया से आया अनजान प्राणी अपने यूएफओ से बिछड़कर पृथ्वी पर ही रह जाता है। रितिक रोशन उसे वापस भेजने में मदद करते हैं। लेकिन, बदले में वो प्राणी रितिक की कई तरह से मदद करता है।
    दक्षिण में जयम रवि, आरोन अजीज और निवेथा पेथुराज स्टारर फिल्म ‘टिक टिक टिक’ साल 1998 में रिलीज हुई जो 'आर्मागेडन' से प्रभावित थी। अच्छे वीएफएक्स के कारण फिल्म को काफी पसंद किया गया था। लेकिन, इसकी कहानी दर्शकों को पसंद आई। ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट साबित हुई थी। इसके बाद दक्षिण में ही 2018 में 'अंतरिक्षम 9000 kmph' रिलीज हुई। इस फिल्म में अंतरिक्ष की दुनिया और एस्ट्रोनॉट्स की चुनौतियों को दिखाया गया था। फिल्म में लव एंगल के साथ-साथ स्पेस स्टेशन पर रह रहे एस्ट्रोनॉट्स के सामने आई मुश्किलों को भी दिखाया था। 
    2012 में रिलीज हुई 'जोकर' कॉमेडी साइंस फिक्शन फिल्म थी। इसका निर्देशन शिरीष कुंद्रा ने किया। फिल्म की कहानी एक गांव पागलपुर की होती है, जहां बिजली, पानी जैसी सुविधाएं तक मौजूद नहीं हैं। अक्षय कुमार एक वैज्ञानिक होते हैं, जो दुनिया में एलियंस की मौजूदगी की खोज करते है। वे भी इसी गांव के रहने वाले हैं। ये वैज्ञानिक एक दिन अपनी पत्नी सोनाक्षी सिन्हा के साथ गांव लौटता है। किस्मत उसका साथ देती है और वो अपने इस छोटे से गांव को ग्लोबल मैप में एक पहचान दिला देता है। साथ ही एलियंस की खोज भी जारी रखता है। इस गांव को पूरी दुनिया जानने लगती है, पर लोकप्रियता के साथ कई मुश्किलें भी आती हैं। लेकिन, दर्शकों को गंभीर विषय में कॉमेडी का तड़का रास नहीं आया। 
     2014 में आई आमिर खान की फिल्म 'पीके' ने कमाल कर दिया था। फिल्म में एक एलियन धरती पर आ जाता है। धरती पर वो धार्मिक पाखंड को समझ नहीं पाता और धीरे-धीरे उनकी पोल खोलता जाता है। इस फिल्म के निर्माता राजकुमार हिरानी के साथ-साथ विधु विनोद चोपड़ा और सिद्धार्थ रॉय कपूर थे। अपने अनोखे कथानक के कारण फिल्म ने 600 करोड़ से ज्यादा का कारोबार किया था। फिल्म का कथानक दूसरे ग्रह से आए एक किरदार के आसपास घूमता है। वो पृथ्वी पर आ तो जाता है, पर उसके यान को बुलाने वाला रिमोट चोर लेकर भाग जाता है। इसके बाद वह धरती पर ही घूमता रहता है। फिल्म के कई प्रसंग बेहद दिलचस्प थे और कुछ प्रसंगों पर विवाद भी उठे। लेकिन, फिल्म अपनी तरह की अकेली फिल्म थी, जिसमें आमिर खान ने दूसरे ग्रह वाले का किरदार निभाया था। वो धरती पर आकर ही कपड़े पहनना और खाना सीखता है। नाटकीय घटनाओं के बाद अंत में 'पीके' को उसका खोया हुआ रिमोट मिल जाता है और वो वापस अपने ग्रह लौट जाता है।    
      हिंदी में 2019 में आई फिल्म 'मिशन मंगल' इसरो (इंडियन रिसर्च स्पेस ऑर्गेनाइजेशन) के सबसे सफल अभियान 'मार्स ऑर्बिटर मिशन' पर बनी सफल फिल्म रही। अक्षय कुमार की इस फिल्म को दर्शकों ने पसंद भी किया। फिल्म में अंतरिक्ष का तो कोई सीन नहीं था। यह फिल्म पहले मंगल स्पेस रॉकेट की कहानी आधारित थी। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट साबित हुई थी। इस विषय पर आर माधवन की फिल्म 'रॉकेट्री' 2022 में आई थी। फिल्म को दर्शकों ने पसंद भी किया था। इस फिल्म में शाहरुख खान ने कैमियो रोल किया था। 
    हॉलीवुड में भी यूएफओ और एलियंस को लेकर कई प्रयोग हुए। 1996 में आई हॉलीवुड सुपरस्टार विल स्मिथ की फिल्म 'इंडिपेंडेंस डे' की कहानी एलियन अटैक की कहानी पर आधारित थी। इस फिल्म में ये दिखाया गया था कि अंतरिक्ष से धरती पर आकर एलियन ने किस तरह तबाही मचाई। दुनिया को इस तबाही से बचाने के लिए फिल्म का हीरो एलियन का डटकर सामना करता है। फिल्म ’अराइवल’ की कहानी भी एलियन के बारे में गहराई से जानने की तरफ इशारा करती है। हालांकि, एलियन की वजह से माहौल कैसे बिगड़ता है और भूचाल आता है, वो फिल्म 'अराइवल' में ही देखने को मिला। इस फिल्म में मशहूर हॉलीवुड एक्ट्रेस एमी एडम और एक्टर जेरेमी रेनर की मुख्य भूमिकाएं थी।
   1996  में रिलीज हुई हॉलीवुड की दिग्गज एक्ट्रेस मेग टिली और गैब्रियल एनवर की फिल्म ’बॉडी स्नेचर’ को सबसे बेहतरीन एलियन हॉरर थ्रिलर फिल्म कहा जाता है। इस फिल्म की कहानी दर्शकों को डराने में भी कामयाब रही थी। हॉलीवुड की फिल्म ’एलियंस एट द एटिक’ की कहानी काफी शानदार है। इस फिल्म में एक फैमिली अपने बच्चों के साथ छुट्टियां मना रही होती है तभी उनको एहसास होता है कि उनके घर में एलियंस घुस आए हैं। इनमें एक एलियन काफी अच्छा है, जो बच्चों के साथ घुल मिलकर रहता है।
      'मार्स अटैक्स' में मंगल ग्रह से एलियंस की सेना पृथ्वी का दौरा करती है और अमेरिका के राष्ट्रपति से मुलाकात करती है। लेकिन, उनके नापाक इरादों का पर्दाफाश तब होता है, जब वह धरती वासियों पर हमला कर देते हैं। वेब सीरीज ’कॉलोनी में  एलियंस को इंसानी दुनिया पर हावी होने की घटना का फिल्मांकन किया गया है। लोकप्रिय वेब सीरीज ’इनविशन’ एक साइंस फिक्शन सीरीज है, जिसमें एलियंस और इंसानों के बीच तनातनी की कहानी को दिखाया गया था। ये ऐसा विषय है जिस पर कई कल्पनाएं की जा सकती है, इसलिए एलियंस और यूएफओ पर अभी और फिल्मों का इंतजार कीजिए! 
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Friday, April 14, 2023

रियल से प्रभावित है, रील का एनकाउंटर!

हेमंत पाल

    न दिनों एनकाउंटर को लेकर खासी चर्चा है। फिल्में समाज का आईना होती है, जो मनोरंजन के साथ समाज की बुराइयां भी दिखाती है। सिनेमा में हर सामाजिक मुद्दे और घटना को फिल्म बनाकर जनता के सामने पेश किया जाता रहा है। अब उत्तर प्रदेश में गैंगस्टर अतीक अहमद के बेटे असद के एनकाउंटर के बाद से ही ये मुद्दा चर्चा में है। इस बाहुबली के हत्यारे फरार बेटे असद को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया। पुलिस इसे मुठभेड़ यानी एनकाउंटर कहती है, जबकि लोग जानते हैं कि ये पुलिस का अपराधियों को ठिकाने लगाने का पुलिस का आसान तरीका है। सालभर पहले भी उत्तरप्रदेश का एक नामी गुंडा विकास दुबे भागकर उज्जैन पहुंचा था। पुलिस को उसकी खबर मिली और उसे यहां आकर पकड़ लिया गया। पुलिस पेशी के लिए उसे कानपुर ले जा रही थी। लेकिन, रास्ते में पुलिस की गाड़ी पलट गई। कहानी के मुताबिक मौका देखकर विकास दुबे ने एक पुलिसवाले की बंदूक छीनी और भागने की कोशिश की। पुलिस ने उसे सरेंडर करने की चेतावनी दी। लेकिन, वह भागने लगा तो पुलिस ने उसे गोली मार दी। इस प्रकार से विकास दुबे भागते हुए पुलिस की गोली का शिकार हो गया। इस खबर ने फिल्मकारों का ध्यान खींचा और घटना पर फिल्म की योजना बनने लगी। दरअसल, ऐसी सच्ची अपराधिक कथाओं पर फिल्म बनाना आसान होता है। क्योंकि, अपराधी की वारदातों को कथानक का हिस्सा बना लिया जाता है। इसमें एक्शन भी होता है और ड्रामा भी। ऐसी फ़िल्में दर्शकों पसंद भी ज्यादा आती है।     
     अब आते हैं उन फिल्मों के जिक्र पर जो एनकाउंटर की ही कुछ सच्ची और कुछ गढ़ी गई कहानियों पर बनी। नाना पाटेकर की मुख्य भूमिका वाली फिल्म 'अब तक छप्पन' में एनकाउंटर ही मुख्य कथानक है। फिल्म में पुलिस अफसर बने नाना पाटेकर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट होते हैं, जो 56 अपराधियों का एनकाउंटर करते हैं। फिल्म में नाना पाटेकर ने एनकाउंटर स्पेशलिस्ट साधु अगाशे का किरदार निभाया था। कहा जाता है कि ये फिल्म मुंबई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक से प्रेरित किरदार था। ऐसी ही एक और फिल्म आई थी 'शागिर्द' और इसमें भी नाना पाटेकर मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म की कहानी भी एनकाउंटर के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म में नाना पाटेकर पुलिस वाले होते हैं और अपराध के खात्मे के लिए गुंडे मवालियों को मारते हैं। साल 2005 में रिलीज हुई क्राइम ड्रामा फिल्म 'सहर' आई थी। इसका निर्देशन कबीर कौशिक ने किया है। इसमें अरशद वारसी ने ऐसा ही किरदार निभाया था। इसमें वे तेज-तर्रार पुलिस वाले की भूमिका में होते है। इसकी कहानी गाजियाबाद और उत्तर प्रदेश के माफियाओं के एनकाउंटर के इर्द-गिर्द घूमती है। 
    फिल्म ‘शूटआउट एट वडाला’ से पहले फिल्म का पहला पार्ट ‘शूटआउट एट लोखंडवाला’ था, जो 2007 में रिलीज हुआ। अपूर्व लखिया के डायरेक्शन में बनी ये फिल्म 1991 के लोखंडवाला की सच्ची शूटआउट घटना पर बनाई गई है। इस फिल्म में गैंगस्टर माया डोलस की कहानी थी। फिल्म में माया का रोल विवेक ओबेरॉय ने किया था। वहीं पुलिस वाले के रोल में संजय दत्त नजर आए थे, जो बदमाशों का एनकाउंटर करते हैं। 2013 में आई फिल्म ‘शूटआउट एट वडाला’ का कथानक भी एनकाउंटर पर आधारित है। इसमें गैंगस्टर मान्या सुर्वे के किरदार को जॉन अब्राहम ने निभाया। कहा जाता है कि पुलिस ने पहली बार किसी गैंगस्टर का एनकाउंटर किया था।
      संजय दत्त की मुख्य भूमिका वाली 1999 में आई फिल्म 'वास्तव' का हीरो माफिया की भूमिका में होता है। पहले वो आम इंसान होता है, लेकिन धीरे-धीरे अपराध के दल-दल में धंसता चला जाता है। बाद में पुलिस उसका एनकाउंटर कर देती है। 'वास्तव' संजय दत्त की बेहतरीन फिल्मों में है। फिल्म की टैगलाइन 'द रिएलिटी' का अर्थ मुंबई के अंडरवर्ल्ड के जीवन की कड़वी सच्चाईयों से था। फिल्म की कहानी मुंबई के अंडरवर्ल्ड डॉन रहे छोटा राजन पर आधारित बताई गई है। फिल्म के साथ ही साथ फिल्म के डायलॉग भी हिट हुए थे।
    जॉन अब्राहम और रवि किशन की फिल्म 'बाटला हाउस' की कहानी दिल्ली के मशहूर बाटला हाउस एनकाउंटर पर आधारित थी। इसमें पुलिस के एनकाउंटर पर जमकर सवाल भी खड़े हुए, जांच भी लंबे समय तक चलती रही। यह एनकाउंटर 19 सितंबर 2008 को हुआ था। इस एनकाउंटर को फिल्म में भी बखूबी तरीके से पेश किया गया। फिल्म में जॉन अब्राहम के साथ अभिनेत्री मृणाल ठाकुर नजर आईं थीं। रियल लोकेशन पर शूटिंग की इजाजत नहीं मिली, तो देश-विदेश के कई शहरों में 'बाटला हाउस' बना दिए गए थे। ऐसी ही एक फिल्म में जिशान कादरी ने फिल्म 'मेरठिया गैंगस्टर' में अपने लेखन और डायरेक्शन का दिलचस्प नजारा पेश किया था। 'गैंग्स ऑफ वासेपुर 2' में उन्होंने डेफनिट के किरदार में अपनी एक्टिंग का नमूना पेश किया था। छोटे शहरों के बच्चे कैसे पैसे कमाने के चक्कर में अपराध की दुनिया से जुड़ जाते हैं और बाद में पुलिस का शिकार बनते हैं, इस कहानी को बखूबी से दिखाया गया। 
    एक एनकाउंटर से कैसे पूरे परिवार की जिंदगी बदल जाती है, ये फिल्म 'मुल्क' में दिखाया गया था। फिल्म में आतंकियों का साथ देने वाले एक शख्स का पुलिस एनकाउंटर करती है। इसके बाद उनके परिवार के लोगों के साथ होने वाली ज्यादती पर फिल्म बनाई गई है। इसमें प्रमुख भूमिका में तापसी पन्नू और ऋषि कपूर थे। 'एनकाउंटर: द किलिंग' नसीरुद्दीन शाह की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म दिखाया गया था कि कैसे माता-पिता के ध्यान नहीं दिए जाने पर बच्चे अपराध की दुनिया में चले जाते हैं और इसके बाद पुलिस के हत्थे चढ़ते हैं। 
      ऐसी ही एक फिल्म 2012 में आई थी फिल्म 'पान सिंह तोमर' जो राष्ट्रीय एथलीट और कुख्यात डकैत पर बनी एक सुपर एक्शन थ्रिलर बायोपिक थी। इस फिल्म में डकैत के रूप में और पान सिंह के लीड रोल में इरफान खान ने जबरदस्त अभिनय किया। फिल्म में भी एनकाउंटर सीक्वेंस काफी सटीक ढंग से फिल्माया गया। जबकि, अनुभव सिन्हा की फिल्म 'आर्टिकल 15' को दर्शकों के साथ क्रिटिक्स ने भी सराहा था। फिल्म में आयुष्मान खुराना, मनोज पाहवा, सयानी गुप्ता, कुमुद मिश्रा और जीशान अय्यूब मुख्य भूमिका थे। जातिवाद पर केंद्रित इस फिल्म में जीशान अहम किरदार में थे और फिल्म में पुलिस जीशान को मार गिराती है और उसे एनकाउंटर का नाम देती है।
   कानपुर के कुख्यात गैंगस्टर विकास दुबे पर फिल्म बनाने की चर्चा खूब हुई। लेकिन, फिल्म बनाने के अधिकार मिले नोएडा के प्रतिभा तन्मय तैलंग और हर्षवर्धन को। फिल्‍म निर्माता हंसल मेहता के निर्देशन में बनाई जा रही यह फिल्म दो घंटे की होगी। फिल्म का कथानक विकास दुबे पर केंद्रित होगा जिसने अपराध का साम्राज्य स्थापित कर, शासन प्रशासन और कानून से गठजोड़ बनाकर उत्तर प्रदेश के जांबाज पुलिस अधिकारियों और पुलिसकर्मियों की जघन्य हत्या करके पूरे देश को दहला दिया था। सभी को जिज्ञासा एक अपराधी किस प्रकार ग्रामीण क्षेत्र से निकलकर तीन दशक तक अपराध की दुनिया में फलता फूलता रहा। इसका परिणाम पुलिस के अधिकारियों और जवानों को अपनी जान की कीमत देकर चुकाना पड़ा। अंत में पुलिस की गिरफ्त से भागने के प्रयास में उस दुर्दांत अपराधी का अंत हुआ। इस फिल्म में  अपराध के हर पहलू को दिखाने की कोशिश करने की बात की जा रही है। लेकिन, क्या फिल्म विकास दुबे के अपराध को सही तरीके से फिल्मा पाती है, इसे देखना होगा। 
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Sunday, April 9, 2023

फिल्मों के 'राज' और राजनीति के 'बब्बर'

   जिनकी राशि 'तुला' होती  है, वे जीवनभर दो पलड़ों पर सवारी करते हैं और दोनों के बीच सामंजस्य भी बनाकर रखते हैं। राज बब्बर इसके अपवाद नहीं हैं। उन्होंने करियर और जीवन के हर क्षेत्र में दोनों पलड़ों पर अपना आधिपत्य बनाकर रखा! फिल्मों में वे नायक भी बने और खलनायक भी! जीवन में दो शादियां की और सामंजस्य बनाकर रखा। इसके बाद अभिनय के साथ राजनीति में भी उनका बैलेंस बना हुआ है। वे पहले ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने सिनेमा के साथ राजनीति में भी लम्बी पारी खेली! आखिर ये तुला राशि का ही तो कमाल है!       

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- हेमंत पाल

     कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो न केवल बनी बनाई धारणा को खंडित करते हैं, बल्कि अपनी नई इबारत गढ़ते हैं। ये ऐसे लोग हैं, जो इस धारणा को भी झूठलाते हैं जिसमें कहा गया है कि नाम में क्या रखा है! जबकि, राज बब्बर ने बता दिया कि जो कुछ है सब नाम में है। ऐसे लोगों में फिल्म और राजनीतिक की दुनिया का भी एक शख्स शुमार होता है, जिसने कुछ मिथक तो तोड़े ही, नए मिथक भी जोड़े हैं। नाम से पता चलता है, यह शख्स 'राज' करने के लिए ही पैदा हुआ है और 'बब्बर' उसका सरनेम हैं, जो उनकी शख्सियत को दर्शाता है। समाज से इतर जंगल की बात की जाए, तो वहां भी बब्बर का ही राज चलता है। 23 जून को जब आगरा के एक सामान्य परिवार में जन्मे बालक का नामकरण 'राज' किया गया होगा, तब किसी ने सोचा नहीं होगा कि यह परदे की दुनिया पर राज करेगा! इसके नाम 'राज' और 'राजनीति' में भी सामंजस्यता होगी। उन्होंने शेक्सपियर की इस कहावत को भी झूठलाने का प्रयास किया कि यदि उसका नाम 'राज बब्बर' है, तो उसके पीछे भी बहुत कुछ है।
    देखा जाए तो कुछ नाम अपने लिए विशेषण साबित होते हैं। 'राज' नाम भी ऐसा ही है, जिसने उसे 'राज' करने की काबिलियत दी। चाहे वह राज कपूर हो, राजकुमार हो, युवराज हो या फिर अपने राज बब्बर। ज्योतिषीय दृष्टि से भी राज बब्बर का नाम अपनी राशि की सार्थकता को साबित करता दिखाई देता है। राज नाम तुला राशि में आता है। तुला में दो पलड़े होते हैं और इन पलड़ों में सामंजस्य करने के कारण ही यह राशि 'तुला' कहलाती है। राज बब्बर के जीवन की तुला में भी दो पलड़े रहे और दोनों के बीच अब तक जबरदस्त सामंजस्य दिखाई दिया। संयोग की बात यह भी है कि जिस फिल्म से राज बब्बर ने अपने सफल करियर की शुरूआत कर फिल्मी दुनिया में अपना ख़म ठोंका, उसका नाम भी 'इंसाफ का तराजू' है। इसके निर्माता-निर्देशक बलदेवराज चोपड़ा के नाम के साथ भी 'बल' के साथ 'राज' जुड़ा है।
      सन 1975 में उन्होंने 'नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा' से अभिनय का पाठ तो पूरा कर लिया, पर उनका करियर कोई आकार नहीं ले सका। तब भी उनका अभिनय स्टेज और फिल्मों के दो पलड़ों के बीच सामंजस्य बनाता रहा। दोनों ही क्षेत्रों में उन्होंने अपने अभिनय की धाक जमाई। लंबे संघर्ष के बाद उन्हें 1977 में फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' से अपना अभिनय करियर शुरू करने का मौका मिला। लेकिन, फिल्म कमाल नहीं दिखा सकी। इसके बाद 'इंसाफ का तराजू' में बलराज चोपड़ा ने दो नए अभिनेताओं को पर्दे पर उतारा। एक नायक दीपक पाराशर थे और दूसरे थे खलनायक जैसे नायक राज बब्बर। लेकिन, जब फिल्म प्रदर्शित हुई, तो पलड़ा राज बब्बर का भारी रहा! देखते ही देखते फिल्मी दुनिया पर उनका राज चलने लगा। 
   इसके बाद फिर उनका करियर दो पलड़ों के बीच झूलता रहा। ये पलड़े थे नायक और खलनायक की भूमिकाओं वाले! पहली ही फिल्म में बेदर्द खलनायक बनने के बाद उनके पास ऐसी फिल्मों के ऑफर आने लगे। खलनायक से नायक बनने की कल्पना को पहले विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा साकार कर चुके थे। किंतु, 'इंसाफ का तराजू' में जिस तरह का किरदार राज बब्बर ने निभाया, वे महिला दर्शकों की नजरों से उतर चुके थे। उसे देखते हुए उनका नायक बनना संभव नहीं था। लेकिन, बलराज चोपड़ा ने इस असंभव को 'निकाह' में संभव कर दिखाया और राज बब्बर खलनायक के पलड़े से उतरकर नायक के पलड़े पर चढ़ गए। आगे जाकर राज बब्बर ने निकाह, आज की आवाज, आप तो ऐसे न थे, कलयुग, हम पांच, दाग, जिद्दी सहित कई फिल्मों में काम किया। राज ने फिल्मों में निगेटिव और पॉजिटिव दोनों तरह के किरदार निभाए। जिद्दी, दलाल, दाग: द फायर जैसी फिल्मों में उन्होंने विलेन का रोल बखूबी से निभाया। 
      उन्होंने लगभग 200 फिल्मों में अभिनय किया। 'इंसाफ का तराजू' में राज बब्‍बर अभिनय इतना जीवंत था कि फिल्म की स्क्रीनिंग के समय शामिल उनकी मां घबरा सी गई थी। जब वे फ‍िल्‍म देखकर लौट रहे थे, तो उनकी मां कार में रोने लगी और बोली 'बेटा हम कम खा लेंगे, पर तू ऐसा काम मत कर।' कहा जाता है कि इस किरदार के लिए कोई अभिनेता तैयार नहीं था, तब बीआर चोपड़ा ने उन्हें यह रोल ऑफर किया। राज बब्बर के लिए तो यह रोल जैकपॉट जैसा साबित हुआ।   
    राज बब्बर फिल्मों आने से पहले ही शादीशुदा थे। उन्होंने थिएटर की जानी-मानी अभिनेत्री और निर्देशक नादिरा बब्बर को जीवन साथी बनाया। लेकिन, यहां भी तुला राशि के दो पलड़ों ने उनके जीवन में हस्तक्षेप कर उनके वैवाहिक जीवन के दो पलड़ों में दो नारियों को बैठा दिया। इसमें एक पलड़े पर नादिरा बब्बर पहले से थी, दूसरे पलड़े पर उस दौर की सबसे समर्थ और सशक्त अभिनेत्री स्मिता पाटिल ने अपनी जगह बनाकर तुला राशि के इस शख्स की राशि के लिए नई इबारत रच दी। दूसरी शादी के बाद भी राज बब्बर ने दोनों पत्नियों के बीच सामंजस्य बनाए रखा, वरना पहली पत्नी से तलाक लिए बिना दूसरा विवाह संभव नहीं था।
      राज बब्बर की जिंदगी में आने से पहले स्मिता ने काफी फिल्मों में काम कर लिया था। वे 'भूमिका' और 'चक्र' जैसी फिल्मों के लिए राष्ट्रीय और फिल्म फेयर पुरस्कार पा चुकी थी। सिर्फ कला फिल्मों ही नहीं नमक हलाल, बाजार और अर्थ जैसी फिल्मों से भी अभिनय के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान भी बना चुकी थी। 1982 में आई फिल्म ‘भीगी रातें’ की सेट पर राज बब्बर की पहली बार स्मिता पाटिल से मुलाकात हुई। इस मुलाकात के बारे में राज बब्बर ने एक साक्षात्कार में बताया था कि ओडिशा के राउरकेला में फिल्म की शूटिंग के दौरान स्मिता से वे मिले थे। पहली मुलाकात के वक्त ही दोनों के बीच मजाक-मजाक में थोड़ी तकरार भी हुई थी! राज बब्बर ने कहा था कि उस वक्त स्मिता पाटिल की जुबान से निकले शब्द 'जाओ' से मैं काफी प्रभावित हुआ। राज बब्बर इस अभिनेत्री को दिल दे बैठे और फिर दोनों ने शादी करने का फैसला लिया। जबकि, नादिरा बब्बर की रंगमंच की दुनिया में अपनी अलग ही पहचान थी। 1989 में वीपी सिंह के चुनाव अभियान के दौरान उनका नाटक 'राजा की रसोई' बेहद लोकप्रिय भी हुआ था। 
   बॉलीवुड में 'लिव-इन रिलेशनशिप' का जो माहौल है, उसके प्रणेता राज बब्बर ही हैं। यह बात अलग है कि उनके जमाने में इस तरह के रिलेशनशिप में रहना किसी बड़ी घटना से कम नहीं था। राज बब्बर उन शख्सियतों में हैं, जिन्होंने अपनी युवावस्था में समाज के बंधनों को दरकिनार कर स्मिता पाटिल के साथ लिव-इन में रहने का साहस दिखाया। तब इस बात के लिए राज की दबी जुबान में आलोचना भी हुई, लेकिन उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की। इसकी परिणति विवाह में हुई, पर यह साथ ज्यादा दिन कायम नहीं रह पाया। यह स्मिता और नादिरा के साथ राज बब्बर का सामंजस्य ही था, कि स्मिता की मौत के बाद नादिरा ने न केवल राज बब्बर को फिर अपने जीवन में जगह दी, बल्कि स्मिता के बेटे प्रतीक बब्बर को भी बेटे के समान स्नेह दिया।
      राज बब्बर की राशि की तुला ने उनके लिए अभिनय के अलावा एक नए पलड़े का इंतजाम कर दिया! वे अभिनय के साथ राजनीति के पलड़े पर भी सवार हो गए। यहां भी उन्होंने एक तरह से अपने नाम को सार्थक करते हुए मतदाताओं के दिलों पर राज किया। राजनीति में राज बब्बर की सफलता का सबसे बड़ा कारण यह भी है, कि नायक के पलड़े से उतरने के बाद जब उन्होंने चरित्र अभिनेता के पलड़े को थामा तो उन्हें अधिकांश भूमिकाएं भी राजनेता और सरकारी अधिकारियों की ही मिली। दर्शक परदे पर उन्हें एक राजनेता के रूप में  स्वीकार कर चुके थे। जब उन्होंने यही रूप राजनीति में अपनाया तो यहाँ भी जनता ने उन्हें हाथों हाथ लिया।
   देखा जाए तो आज राज बब्बर आज राजनीति और फिल्म दोनों में ही सक्रिय हैं। राजनीति में आने के बाद वे कॉरपोरेट, बॉडीगार्ड, कर्ज, फैशन, साहब बीवी और गैंगस्टर-2, बुलेट राजा और 'तेवर' जैसी फिल्मों में उन्होंने उतनी ही शिद्दत से अभिनय किया। जितना कि वे अपनी शुरुआती दौर की फिल्मों में अभिनय करते दिखाई देते थे। राजनीति के अलावा सामाजिक सरोकारों से भी उनका गहरा नाता रहा। इंदौर के कैंसर केयर ट्रस्ट के ब्रांड एम्बेस्डर के रूप में उन्होंने हजारों लोगों को जोड़ा और सिगरेट, तम्बाकू छोड़ने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए वे एक अनोखा तरीका अपनाते थे। भाषण के दौरान वे अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट निकालकर उसे मसलकर फेंक देते! कहते कि आज से मैं भी सिगरेट छोड़ रहा हूं। उनके इस दमदार अभिनय से प्रेरित होकर कई लोगों ने उसी दिन सिगरेट से तौबा कर ली। पूछने पर उन्होंने बताया कि वे खुद भी सिगरेट पीते हैं, इसलिए वे जानते हैं कि सिगरेट छोड़ना कितना मुश्किल होता है। वे यह भी जानते थे, कि लोग फिल्मी कलाकारों की सलाह को गंभीरता से लेते है। ऐसे में यदि उनके इस अंदाज से प्रेरित होकर कुछ लोग धुम्रपान छोड़ते हैं, तो इसमे क्या बुरा है! 
   अभी उनका अभिनय और राजनीति का सफर जारी है। परदे पर चरित्र अभिनेता के रूप में उनका कोई सानी नहीं! उधर, राजनीति में भी वे उत्तर प्रदेश में अपना जलवा दिखा ही रहे हैं। उनसे पहले भी कई अभिनेता राजनीति के मैदान में उतरे, पर सिवाय सुनील दत्त के कोई लम्बी पारी नहीं खेला। राज बब्बर ने अभी न तो फिल्मों से नाता तोड़ा है और न राजनीति पर अपनी पकड़ ढीली की। दोनों ही क्षेत्रों में उनका अश्वमेघ तेजी से कुंचाले भर रहा है। अभिनय में तो उन्होंने अपने आपको चरित्र भूमिकाओं तक सीमित कर लिया, पर राजनीति में अभी उन्हें अपनी काबिलियत के अनुरूप ऊंचाई नहीं मिली। इसलिए कहा जा सकता है कि अभी राजनीति में राज के दिन आना बाकी है।      
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Sunday, April 2, 2023

नकली एक्शन सीन के ये असली हादसे!

हेमंत पाल

      भी इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते, जब अमिताभ बच्चन हैदराबाद में एक अनाम फिल्म की शूटिंग के दौरान घायल हो गए थे। एक एक्शन सीन के दौरान उन्हें चोट लगी और उनकी पसली की कार्टिलेज टूट गई। दाईं पसली की मांसपेशी में भी चोट आ गई थी। शूटिंग रद्द कर दी गई और डॉक्टर से सलाह पर ली और वापस घर लौट आए। ये पहली घटना नहीं है, कई बार ऐसी घटनाएं हो चुकी है। दरअसल, परदे पर दिखाए जाने वाले ये सीन पूरी तरह नकली नहीं होते! इन्हें फिल्माते समय अकसर हीरो-हीरोइन घायल हो जाते हैं। ऐसे खतरनाक सीन्स की शूटिंग के समय एक्‍टर्स को पूरी तरह सुरक्षा देने के हर संभव प्रयास होते हैं! इसके बाद भी कभी-कभी ऐसे हादसों को टालना मुश्किल होता है। फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे कई कलाकार हैं, जो शूटिंग के दौरान घायल हुए। फिल्मों की दुनिया में सिर्फ रोमांस ही नहीं होता, एक्शन भी होती है। इस वजह से कई बार दो-ढाई घंटे की फिल्म बनाने में तो लम्बा समय लग जाता है। 
     किसी भी फिल्म के पूरा होने के पीछे कलाकारों से लगाकर डायरेक्टर और क्रू-मेंबर्स तक की मेहनत होती है। सबसे मुश्किल होते है एक्शन सीन को फिल्माना, जिसके लिए कई दिनों तक तैयारी की जाती है। कई सावधानियां के बावजूद सेट पर अनचाहे हादसे हो ही जाते हैं। 1951 में फिल्मांकन के दौरान घोड़े से गिरने के बाद एक्टर श्याम की सेट पर मृत्यु हो गई थी। उनके बाकी सीन को एक बॉडी-डबल के साथ पूरा किया गया बिना चेहरा दिखाए पीछे से फिल्माया गया था। मार्शल आर्ट के सितारे ब्रूस ली के बेटे ब्रैंडन ली की फिल्म 'ब्रैंडन ली द क्रो' की शूटिंग के दौरान जो हादसा हुआ वो भुलाया जा सकने वाला नहीं है। सीन के हिसाब से उन पर नकली गोलियां चलाई गई, लेकिन टेक्निक की गलती की वजह से गोली उनके पेट में घुस गई और अंदरूनी अंगों में जा लगी। घटना के समय ही उनकी मौत भी हो गई। ऐसे हादसों के इतिहास में 'रोर' फिल्म की घटना भी दर्ज है। इस फिल्म में कलाकारों के साथ कई खतरनाक शेर भी शामिल थे। शेरों की वजह से शूटिंग कई साल तक चलती रही और क्रू के 70 मेंबर्स बुरी तरह से घायल भी हुए थे। फिल्म 'बगावत' की शूटिंग के दौरान भी कुछ ऐसा हुआ था जब प्रशिक्षित शेर ने धर्मेंद्र पर हमला कर दिया था और वे घायल हो गए थे।
    कई साल पहले 'कुली' फिल्म के सेट पर हुआ हादसा सबसे ख़राब अनुभवों में एक था जिसमें अमिताभ बच्चन बुरी तरह घायल हो गए थे। फिल्म के इस सीन में खलनायक पुनीत इस्सर को अमिताभ बच्चन के ऊपर टेबल से कूदकर घूंसा मारना था। पुनीत इस्सर कूदे और अमिताभ को घूंसा भी मारा। लेकिन, यह चोट नकली नहीं थी। अमिताभ को चोट इतनी गहरी लगी थी, कि अमिताभ को कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। अमिताभ महीनों बाद इस चोट से उबरे थे। कन्‍नड़ फिल्‍म 'लव यू राचू' के सेट पर तो स्‍टंटमैन विवेक की तो ऐसे ही एक सीन में मौके पर ही मौत हो गई थी। फिल्‍मों के सेट पर ऐसे कई बार हुए। शाहरुख खान, रितिक रोशन से लगाकर जैकलीन फर्नांडिस, ऐश्वर्या राय तक की जान जोखिम में आई। 'राउरी राठौर' में अक्षय कुमार को कंधे पर चोट लगी थी। इस कारण कुछ दिन के लिए शूटिंग तक रोकना पड़ी थी।
    एक्शन हीरो रितिक रोशन फिल्म ‘कृष’ की शूटिंग के दौरान घायल हो गए थे। शूटिंग के समय रितिक का पैर फिसला और वे 50 फीट की खाई में नीचे गिर गए थे। इसके अलावा वे ‘बैंग बैंग’ की शूटिंग के समय भी दुर्घटना का शिकार हुए थे। उनके सिर पर चोट आई और ब्लड क्लॉट हो गया था, इस घटना उनकी सर्जरी तक करना पड़ी थी। विक्की कौशल भी 'भूत' फिल्म की शूटिंग करते समय घायल हो चुके हैं। शूटिंग के दौरान एक दरवाजा उनके ऊपर गिर गया था। इस दुर्घटना में विक्की कौशल को 13 टांके लगे और जबड़े में गंभीर चोट आई थी। 'दो लफ्जों की कहानी' की शूटिंग रणदीप हुड्डा कुआलालंपुर में एक हादसे का शिकार हुए थे। उनके बाएं पैर की चार उंगलियां टूट गई। कमल हासन की फिल्म 'इंडियन-2' की शूटिंग दौरान हुए हादसे में भी तीन लोग मारे गए थे।   
     'रेस-3' फिल्म में जैकलीन फर्नांडिस को शूटिंग के दौरान दाहिनी आंख में चोट लग गई थी। उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। राजश्री फिल्मों की हीरोइन रामेश्वरी की आंख में भी 'सुनयना' की शूटिंग के समय चोट लग गई थी। चोट इतनी गहरी थी कि उनका फिल्म करियर ही ख़त्म हो गया। 1942 में ललिता पंवार फिल्म 'जंग ए आज़ादी' की शूटिंग कर रही थी। तब ललिता की उम्र महज 26 साल थी। फिल्म की शूटिंग के दौरान एक सीन में एक्टर भगवान दादा को ललिता पवार के गाल पर थप्पड़ मारना था। भगवान दादा काफी जज्बातों से भरे थे, उन्होंने जब ललिता पवार के गाल पर थप्पड़ मारा तो वह इस एक्ट्रेस को काफी महंगा पड़ गया। थप्पड़ इतनी तेज मारा गया कि ललिता की आंख की नसों को नुकसान हुआ। थप्पड़ की वजह से ललिता को फेशियल पैरालिसिस हो गया था। चेहरे पर पड़े एक थप्पड़ ने उनकी ज़िंदगी और करियर दोनों को बदल दिया। उनकी आंख में ऐसी चोट लगी कि वे नायिका से खलनायिका बन गई। 
    फिल्म 'मदर इंडिया' के सेट पर ऐसा हादसा हुआ, जिसने दो कलाकारों की जिंदगी बदल दी थी। फिल्म सेट पर अनाज के ढेर के बीच आग लगने के सीन की शूटिंग होना थी। अचानक आग की लपटें इतनी तेज हो गईं, कि नरगिस उसमें फंस गई। ऐसे सुनील दत्त ने आग में असली एक्शन हीरो की तरह कूदकर नरगिस की जान बचाई थी। इस घटना में दोनों बुरी तरह झुलस गए थे। यहीं से दोनों के बीच प्‍यार हुआ और इसके बाद दोनों ने शादी भी कर ली। एक घटना फिल्म 'शूटआउट एट वडाला' की भी है। इसमें अनिल कपूर को एक नकली गोली 15 फ़ीट की दूरी से जॉन अब्राहम पर चलाना थी। लेकिन, गलती से गोली 4.9 फीट की दूरी से ही गोली चल गई, जो जॉन अब्राहम के गले को छूते हुए निकल गई। यह इतना खतरनाक था कि जॉन की जान भी जा सकती थी। अक्षय कुमार अपने स्टंट सीन खुद ही करते हैं। लेकिन, 'सिंह इज ब्लिंग' के एक सीन में अक्षय को एक आग लगे छल्ले में से कूदना था। उसी समय अक्षय का संतुलन बिगड़ गया और उनके पैरों में आग लग गई। आनन-फानन में आग को बुझाया गया। पर, इस हादसे में उनके पैर जल गए थे। 
     'दिलवाले' की शूटिंग के दौरान आइसलैंड में एक झरने के पास 'गेरुआ' गाना फिल्माया जा रहा था। तभी अचानक शाहरुख खान का पैर फिसल गया और वह नीचे गिरने लगे। मौका देखते ही काजोल ने उनका हाथ पकड़ लिया, वरना शाहरुख झरने के साथ नीचे बह जाते। 'डर' के एक सीन में सोफे पर बैठे अनुपम खेर के पास शाहरुख खान को उछल कर बैठना था। शाहरुख कूदकर बैठे भी, लेकिन वह दर्द से चीख पड़े। दरअसल, अनुपम खेर ने इस दौरान अपना पैर उठा दि‍या। नतीजा यह हुआ कि शाहरुख की तीन पसलियां टूट गईं। 'खाकी' फिल्‍म की शूटिंग के दौरान एक सीन में जीप को ऐश्‍वर्या राय के सामने आकर रुकना था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और ड्राइवर ने अपना कंट्रोल खो दिया। इस दुर्घटना में ऐश्‍वर्या का बायां पैर फ्रैक्चर हो गया। वह महीने तक बेड रेस्ट पर थीं।
     'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' के एक सीन में पहाड़ी ढलान वाली सड़क के किनारे रितिक को कार रोकना थी। कार में फरहान अख्तर और अभय देओल भी थे। लेकिन, रितिक कार का हैंडब्रेक लगाना भूल गए। सामने खाई थी और कार सरकती हुई खाई की ओर बढ़ने लगी। आनन-फानन में सभी एक्टर्स कार से कूदे थे।अच्‍छी बात रही कि किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा। रणवीर सिंह भी दो बार शूटिंग के समय घायल हुए। 'गुंडे' की शूटिंग के दौरान रणवीर एक ऊंचाई वाली जगह पर खड़े थे, तभी अचानक वह प्‍लेटफॉर्म खिसक गया और वे मुंह के बल नीचे गिर पड़े। उन्हें कई टांके लगे थे। जबकि 'बाजीराव मस्तानी' की शूटिंग के दौरान भी वह घोड़े से गिर गए थे। इस कारण उन्हें सर्जरी करवानी पड़ी। सुशांत सिंह राजपूत भी फिल्म 'एमएस धोनी: द अनटोल्‍ड स्‍टोरी' की शूटिंग के दौरान की घायल हो गए थे। उनकी पसलियां टूट गई थीं। ये तब हुआ जब वे सिग्नेचर हेलीकॉप्टर शॉट लगा रहे थे, तभी बॉल पसली पर आ लगी थी। सुशांत की सर्जरी करनी पड़ी और वे तीन सप्ताह बाद शूटिंग पर लौटे थे। फिल्म तो ठीक टीवी सीरियल में भी ऐसे हादसे हुए हैं। अपने जमाने के नायक संजय खान ने जब टीवी के लिए 'टीपू सुल्तान बना रहे थे, तो उसके सेट पर भयंकर आग लग गई थी। इसमें वे बुरी तरह झुलस गए, उन्हे बचाने और प्लास्टिक सर्जरी के लिए उनके 65 ऑपरेशन करने पड़े थे। इसलिए जब तक एक्शन है, तब तक ऐसे हादसों को रोकना मुश्किल है। फिर वो एक्शन सीन नकली ही क्यों न हो!
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