Tuesday, July 31, 2018

कांग्रेस का अति-आत्मविश्वास कहीं आत्मघात साबित न हो!


- हेमंत पाल

  मध्यप्रदेश में कांग्रेस इन दिनों अति-आत्मविश्वास से चूर नजर आ रही है। कांग्रेस के नेताओं की भाव-भंगिमाएं, बोल व्यवहार से लगाकर चेहरे के हाव-भाव दर्शा रहे हैं कि सत्ता के दरवाजे उनके लिए खुल गए! चुनाव तो बस उस दरवाजे में प्रवेश करने का एक बहाना है! कांग्रेस को लग रहा है कि मध्यप्रदेश की सत्ता उससे हाथभर दूर है। पार्टी के हर नेता के तेवर ऐसे हैं, जैसे वोटर ने उनके कान में कह दिया हो, कि उसका वोट तो इस बार कांग्रेस को ही मिलेगा! बिना किसी कोशिश के वोटर उन्हें पाँच साल सरकार चलाने का पट्टा देने वाला है। पार्टी की बयानबाजी और गुरुर वाली भाषा से नहीं लग रहा कि ये पार्टी 15 साल से विपक्ष में छटपटा रही है। उसे लग रहा है कि भाजपा का दौर अब खत्म हो गया! सरकार चलाने नंबर अब उनका है। जबकि, सत्ता में होते हुए भी भाजपा की तैयारी कम नहीं लग रही! हर स्तर पर भाजपा मेहनत का पसीना बहाती दिख दे रही है। हमेशा चुनाव के मोड में रहने वाली भाजपा आसानी से कांग्रेस को सत्ता में आने मौका देगी, ऐसा नहीं लग रहा! जिस तरह से भाजपा ने चौथी बार सरकार बनाने के लिए कमर कसी है, लगता नहीं कि वो ये मौका भी हाथ से जाने देगी! लेकिन, यदि कांग्रेस वास्तव में भाजपा को सत्ता से हटाना चाहती है तो उसे धरातल पर आना पड़ेगा! वोटर की मनःस्थिति को समझना होगा! आत्मविश्वास तो रखना होगा, पर 'अति' रूप में नहीं!  
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   विधानसभा चुनाव को अब चार महीने भी नहीं बचे! धीरे-धीरे चुनाव का माहौल बन रहा है। वादों और आश्वासनों का राजनीतिक बाजार गरमाने लगा है। चुनाव में उतरने की तैयारी करने वालों ने कमर कास ली है! लेकिन, पंद्रह साल से सत्ता से बाहर रहने पर भी कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा कि वो भाजपा को किस कोने से उखाड़ने की तैयारी करे! क्योंकि, डेढ़ दशक में भाजपा ने अपनी जड़ें बहुत गहरे तक उतार दी! बूथ लेबल से लगाकर प्रचार तक में भाजपा ने पूरी ताकत झौंक दी। जबकि, मुकाबले में खड़ी कांग्रेस अभी तक चुनाव संघर्ष के लिए अपनी सेना ही खड़ी नहीं कर पाई! जिस सेना को युद्ध में सेनापति के लिए लड़ना है, उस सेना के ओहदेदार ही तय नहीं हो पा रहे! प्रदेश में पार्टी आपस की लड़ाई में ही उलझी नजर आ रही है।
    समझा जा रहा था कि कमलनाथ को पार्टी की कमान सौंपने के बाद सारे धड़े संतुलित हो जाएंगे, पर ऐसा नहीं हुआ! सत्ता मिलने से पहले ही सत्ता संघर्ष छिड़ गया! अंदर से जिस तरह की ख़बरें रिसकर बाहर आ रही हैं, वो अच्छा संकेत नहीं दे रही! पार्टी के सभी बड़े नेताओं की आपसी खींचतान बाहर तक दिखाई दे रही है। प्रदेश में विधानसभा की 230 सीटें हैं। इनमें अनुसूचित जाति की 35 और जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 47 है, जहाँ कांग्रेस को पूरी ताकत से लगना चाहिए, पर अभी तक कांग्रेस के नेताओं ने पहला राउंड ही पूरा नहीं किया! दिग्विजय सिंह अकेले नेता हैं जो भोपाल से बाहर निकलकर कांग्रेस के लिए किला लड़ा रहे हैं। 
   कांग्रेस आलाकमान ने मध्यप्रदेश के लिए मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया, इसलिए कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच जिस तरह का शीत युद्ध छिड़ा है, वो छुप नहीं रहा! अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव और प्रदेश के प्रभारी दीपक बावरिया ने अपने बयानों से इस युद्ध को और भड़का दिया! अपने आपको सर्वशक्तिमान दिखाने के फेर में वे कभी मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करते हैं, तो कभी उपमुख्यमंत्री घोषित कर देते हैं। उनके इस तरह के बयानों से वोटर्स में गलत संदेश जा रहा है। वैसे वोटर्स का झुकाव सिंधिया की तरफ ज्यादा दिखाई देता है। उन्होंने मालवा इलाके में उज्जैन, इंदौर एवं धार में सभाएं भी की है, लेकिन वे 'अपना आदमीवाद' का मोह नहीं त्याग सके! सिंधिया कांग्रेस के अकेले ऐसे नेता हैं, जिन्हें सुनने के लिए भीड़ आती है। इस वजह से सिंधिया की सक्रियता से भाजपा की चिंता बढ़ती है। जबकि, कमलनाथ ने अभी तक प्रदेश में कोई दौरा नहीं किया। उनका ज्यादातर समय दिल्ली, भोपाल की परिक्रमा में ही गुजर रहा है। अध्यक्ष होने के नाते वे खुद को मुख्यमंत्री पद का सबसे मजबूत दावेदार मानते हैं। लेकिन, यदि उन्हें भाजपा को मुकाबले के लिए मजबूर करना है, तो पूरे लाव-लश्कर के साथ जंग में उतरना होगा!
  जबकि, तीन चुनाव में पहली बार भाजपा सरकार के खिलाफ लोगों की नाराजी देखने को मिल रही है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अपनी घोषणाओं से हर वर्ग को साधने की कोशिश में लगे हैं। उनकी 'जन आशीर्वाद यात्रा' में भी भीड़ तो जमा हो रही है, पर कार्यकर्ताओं और आम लोगों की नाराजी छुप नहीं रही! इस सच को भाजपा भी समझ रही है, इसलिए भाजपा ने अपने नाराज कार्यकर्ताओं को मनाने के लिए बड़े नेताओं को जिलेवार जिम्मेदारी सौंप दी। भाजपा के संगठन महामंत्री रामलाल भी प्रदेशभर का दौरा करके कार्यकर्ताओं को चुनाव के लिए तैयार कर रहे हैं। सत्ता में होते हुए भी पार्टी विधानसभा चुनाव के साथ ही अगले साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की जमीन भी बना रही है। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को उनके प्रभाव क्षेत्र में ही घेरने की रणनीति पर भी काम हो रहा है। लेकिन, चुनाव को लेकर क्या ऐसी तैयारी कांग्रेस की नहीं होना चाहिए? जबकि, कांग्रेस अपने आप में ही उलझी है। मतभेद भाजपा में भी कम नहीं है। जहाँ सत्ता की चाशनी होती है, वहाँ तो मतभेद ज्यादा होना स्वाभाविक भी है, पर वे सतह पर नहीं आ रहे! पार्टी के नाम पर भाजपा में सबका एक हो जाना, उनका सबसे सशक्त पक्ष है! 
  कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया से अलग दिग्विजय सिंह ने अलग ही मोर्चा संभाल रखा है। उन्होंने अपने आपको चुनावी राजनीति और मुख्यमंत्री पद की दौड़ से भी अलग रखा। उन्होंने स्पष्ट कहा कि मैं न तो चुनाव लड़ना चाहता हूँ और न मुख्यमंत्री बनना! कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी परेशानी ये है, कि प्रदेश में उसके बड़े नेताओं में ही मतभेद नहीं हैं, कार्यकर्ता भी उसी अनुपात में बंटे हैं। मतभेदों की फाड़ ऊपर से नीचे तक साफ़ दिखाई दे रही है। जिलों से लगाकर छोटे-छोटे गाँव तक यही स्थिति है! पार्टी भी ये जानती है, इसलिए उसने बकायदा दिग्विजय सिंह को समन्वय का प्रभारी बनाया है। पार्टी ने उन्हें अलग-अलग गुटों के नेताओं के बीच समन्वय बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है, वे ये काम कर भी रहे हैं। प्रदेश की अपनी 'एकता यात्रा' के दौरान वे सभी कांग्रेसियों को एक करने के लिए उन्हें अन्न-जल की कसम भी खिला रहे हैं। दिग्विजय सिंह अपनी इस मुहिम के तहत आधे से ज्यादा प्रदेश का दौरा कर चुके हैं। लेकिन, लग नहीं रहा कि समन्वय का संदेश कार्यकर्ताओं के दिल में उतर भी रहा है! ये कसम खिलाकर आगे बढ़ते हैं, पीछे फिर कार्यकर्ता पीठ फेरकर खड़े हो जाते हैं। 
  पार्टी हाईकमान भी इस सच से वाकिफ है कि प्रदेश में पार्टी की गुटबाजी को काबू में करना आसान नहीं है। कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिग्विजय सिंह, सुरेश पचौरी, अरुण यादव और अजय सिंह तक ने अपने गुट बना रखे हैं। इसीलिए हर बड़े नेता को अलग जिम्मेदारी सौंपकर सामंजस्य लाने की कोशिश पार्टी ने की है! लेकिन, यह कोशिश सफल होगी, इसमें संदेह है। फिलहाल तो प्रदेश में पार्टी की पूरी राजनीति कमलनाथ और सिंधिया के आसपास ही सिमट गई! कमलनाथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती जिलों के बाद गाँव में संगठन खड़ा करने की है। इतने साल तक सत्ता से बाहर रहने के कारण कई  इलाकों में कांग्रेस के पास ऐसे चेहरे,भी नहीं बचे, जो भाजपा को सामने खड़े होकर चुनौती दे सकें! कई विधानसभा क्षेत्रों में तो कांग्रेस के पास चुनाव लड़ाने लायक चेहरे तक नहीं हैं! पार्टी अपनी कितनी भी ताकत दिखाने का दावा करे, पर जमीनी स्तर पर कांग्रेस की संगठनात्मक कमजोरी साफ़ समझ में आ रही है। बेहतर होगा कि कांग्रेस अति-आत्मविश्वास का दिखावा करने के बजाए, अपने सारे तुरुप के पत्ते समेटकर कोई सधी हुई चाल चले! यदि कांग्रेस के सारे बड़े खिलाड़ी एक-दूसरे के पत्ते उजागर करके भाजपा को हराने की कोशिश करेंगे, तो हो सकता है कि इस बार भी उन्हें विधानसभा में वही विपक्ष वाली कुर्सी नसीब होगी!
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देश में 'अनसेफ' क्यों हैं सैफ?


- हेमंत पाल

   सैफ अली खान बॉलीवुड के ऐसे एक्टर हैं, जिनके करियर में उतार-चढाव आते रहे हैं। उनकी कई फ़िल्में हिट भी हुई, लेकिन उनका ऐसा दौर नहीं रहा, जो लम्बा चला हो! उनकी सोलो फ़िल्में ज्यादा दम नहीं भर सकी! ओमकारा, दिल चाहता है, रेस, रेस-2, कॉकटेल और हम तुम जैसी कई फिल्मों से उन्हें याद किया जाता है! पर, उनकी पिछली रिलीज करीब आठ फिल्में लगातार फ्लॉप हुई! 2013 में आई 'रेस-2' उनकी आखिरी हिट फिल्म थी! किंतु, अभी सैफ अली 'नेटफ्लिक्स' पर अपनी वेब सिरीज 'सेक्रेड गेम्स' के कारण चर्चा में हैं। अपने किरदार और इस सिरीज से जुड़े विवाद दोनों के कारण! इसमें वे सिख पुलिस इंस्पेक्टर सरताज सिंह नाम के रोल में हैं, जो मुंबई अंडर वर्ल्ड का पर्दाफाश करता है। ये वेब सिरीज एक गैंगस्टर गणेश गायतोंडे और उसके गुर्गों की दिलचस्प कहानी है, जो विक्रम चंद्र के उपन्यास पर बनी है।  
    सैफ के सिख पुलिस वाले के किरदार को पसंद किया जा रहा है। इस पुलिस इंस्पेक्टर की जिंदगी को बेहद उलझनभरी बताया गया। वो दिनभर नींद की गोलियां खाता नजर आता है और अपने मृत पिता के प्रभाव में रहता है, जो खुद पुलिस में दरोगा थे। सरताज सिंह को एक मामले में फंसाकर सस्पेंड कर दिया जाता है। पर, तभी उसे 16 साल से गायब कुख्यात गैंगस्टर गणेश गायतोंडे के ठिकाने के बारे में एक टिप मिलती है! इसके बाद घटनाओं की ऐसी श्रृंखला शुरू होती है, जिसके जरिए सरताज सिंह अंडरवर्ल्ड की गहराई से समाता जाता है। पुलिस के अफसर ईमानदारी के कारण उस पर भरोसा नहीं करते, पर सरताज सिंह फिर भी अपने काम में लगा रहता है!   
  समझा जा रहा है कि 'सैक्रेड गेम्स' की लोकप्रियता से सैफ अली के डगमगाते करियर को दिशा मिल सकती है। लेकिन, इस वेब सिरीज को लेकर उठे विवाद और सैफ अली के बयान ने उन्हें लोगों के निशाने पर ला दिया। 'सैक्रेड गेम्स' में इंदिरा गाँधी द्वारा लगाए गए आपातकाल, राजीव गाँधी साथ जुड़े बोफोर्स कांड, बाबरी मस्जिद, शाहबानो मामले, रामजन्म भूमि रथयात्रा जैसे विवादस्पद मुद्दों पर कमेंट किया है। कांग्रेस ने तो ‘सेक्रेड गेम्स’ में राजीव गांधी से जुड़े संवादों को हटाने के बारे में अदालत में याचिका दायर कर दी। इस याचिका में कहा गया है कि इस वेब सिरीज में राजीव गांधी का अपमान किया गया है।
  बतौर एक्टर सैफ अली का इन सारे विवादों से कोई सीधा सरोकार नहीं था! पर, एक इंटरव्यू में सैल अली ने कुछ ऐसा बोल दिया, कि वे भी निशाने पर आ गए! उन्होंने लंदन में कहा कि भारत में अगर आप सरकार की आलोचना करेंगे, तो हो सकता है आपकी हत्या हो जाए! अगर आप किसी दूसरी जाति की महिला के साथ डेट पर जाएंगे, तो भी आप मारे जा सकते हैं। सैफ अली का आशय भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगने जैसा था। सैफ ने कहा कि लोग लंदन में डॉनल्ड ट्रंप के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। इस पर वहां के मेयर ने उनसे सिर्फ इतना कहा कि वे जो करें, शांति से करें। 'अभिव्यक्ति की आजादी' अच्छी बात है, पर इसलिए किसी शो को बंद करने की बातें गलत है। सरकार की गाइडलाइन्स को फॉलो करके कोई फिल्म नहीं बनाई जा सकती! 
   इस शो को लेकर उठे विरोध पर सैफ ने कहा कि कुछ लोग हर चीज में माइलेज लेने की कोशिश करते हैं। वे इंतजार में रहते हैं कि कोई कुछ ऐसा बोले जिसका राजनीतिक इस्तेमाल किया जा सके। एक्टर होने के नाते मेरे लिए जरूरी है कि इन बातों की परवाह किए बिना मैं काम का हिस्सा बना रहूं! अगर किसी एंटरटेनिंग कंटेंट के पीछे नियत अच्छी है, तो किसी को नाराज करने की बात दोयम दर्जे जाती है। लेकिन, अगर उसने सच में किसी को ठेस पहुंचाई तो मामला अलग हो जाता है। पर, कोई अगर उससे फायदा लेने की कोशिश कर रहा है तो हमें इसके बारे में सोचना होगा। लोग हमेशा अटेंशन पाने की कोशिश करते हैं और इसका सबसे आसान तरीका है फिल्म या उसके कलाकारों पर हमले करना। दरअसल, इस बहाने सैफ अली ने अपनी सारी खुन्नस निकाल दी, जो उनके दिल में दबी थी! इस वेब सिरीज में वे एक्टर हैं और जरुरी नहीं था कि वे सिरीज कंटेंट लेकर उठे विवाद पर अपना पक्ष रखें! पर, ऐसा करके सैफ अली ने उन लोगों की नाराजी मोल ले ली, जिन्होंने उनकी एक्टिंग को पसंद करके उनके करियर को फिर से पटरी लाने की कोशिश की थी!    
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Tuesday, July 24, 2018

दिग्विजय सिंह की 'पंगत' से सियासत में उठती हिलोर!


- हेमंत पाल


  कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ऐसे नेता हैं जो कब, क्या कर दें, कोई समझ नहीं सकता! पहले उन्होंने 'नर्मदा परिक्रमा' करके सियासत को चौंकाया, अब वे प्रदेशभर में एकता यात्रा निकालकर 'पंगत में संगत' के जरिए सुप्त पड़ी पार्टी को जागृत करने में लगे हैं। इन दिनों वे प्रदेशभर में बिखरे कांग्रेसियों को एक कर रहे हैं। वे पंगत की कसम खिलाकर वादा ले रहे हैं, कि पार्टी जिसे भी उम्मीदवार बनाए, सब मिलकर काम करेंगे और पार्टी को जिताएंगे! इसे भले ही राजनीतिक पाखंड माना जाए, पर इस एक कोशिश ने पार्टी में जागरूकता जरूर फैलाई है! दिग्विजय सिंह के निशाने पर भाजपा की वे 165 सीटें हैं, जहाँ इस पंगत के बहाने कांग्रेस के सही उम्मीदवार को खोजा जाना है। यदि इस पंगत के नमक में दम हुआ तो कोई विद्रोह नहीं कर पाएगा, वरना कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है! पार्टी जो भी पाएगी, उसे इसी पंगत का असर ही माना जाएगा!                 
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    कांग्रेस की सियासत में अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले दिग्विजय सिंह के बारे में कहा जाता है कि वे कभी हाशिए पर नहीं होते! राजनीति के इस धुरंधर खिलाड़ी की 'पंगत में संगत' से मध्यप्रदेश की राजनीतिक की दशा व दिशा में बड़ा बदलाव आता दिखाई देने लगा है। उन्हें राजनीति का चाणक्य वैसे ही नहीं कहा जाता! इतिहास गवाह है कि उन्होंने कई बार हारी हुई बाजी को पलटा है। नर्मदा परिक्रमा पूरी करने के बाद राजनीतिक सक्रियता की पहली सीढ़ी चढ़ते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा था कि उनका लक्ष्य कांग्रेस को एकजुट और मजबूत करना है। इसके लिए वे एकता यात्रा निकालकर 'पंगत में संगत' का फार्मूला आजमाएंगे! जिसमें सभी कांग्रेसी नेता एक जगह मिलकर भोजन करेंगे! इस कार्यक्रम के माध्यम से सभी कांग्रेसियों को जोड़ेंगे। कांग्रेस में आपसी मनमुटाव समाप्त करने के लिए हम सभी ने चर्चा की है, कांग्रेस की जीत के लिए सभी नेताओं को साथ आना होगा। 
  दरअसल, 'पंगत में संगत' का फार्मूला मूलतः दिग्विजय सिंह का नहीं है। ये सिखों के महान गुरुओं की शिक्षा का हिस्सा है। उन्होंने ही बताया था कि इंसानियत के सिद्धांतों के मुताबिक संगत से ही बिना किसी धर्म, जाति, लिंग, नस्ल या रंग के एकता आती है। जब लोग इकट्ठे बैठकर पंगत अथवा एक पंक्ति में बैठकर लंगर छकते हैं, तो दिल में सामंजस्य का भाव पनपता है। 'संगत' और 'पंगत' की यह विचारधारा सिख धर्म की धुरी है और 15वीं सदी से इंसानियत का मार्गदर्शन करती आ रही है। सबसे पहले गुरु नानकदेव जी ने लंगर प्रथा शुरू की और यह प्रथा एक विचारधारा का रूप धारण करती हुई सारी मानवता को सद्भावना और समानता की नैतिक मूल्यों के लिए प्रेरित करती आ रही है। अब इसे दिग्विजय सिंह ने इसका राजनीतिक उपयोग पार्टी को एकजुट करने के लिए किया है, जो एक सही प्रयास है। 
   दिग्विजय सिंह की एकता यात्रा अभी तक प्रदेश के करीब आधे जिलों में पहुँच चुकी है। 'पंगत में संगत' का आयोजन भी हुआ! लेकिन, कहा नहीं जा सकता कि ये प्रयास पूरी तरह सफल रहा है। इसकी सफलता का आकलन तो उम्मीदवारी की घोषणा के बाद ही होगा! तभी सच्चाई सामने आएगी कि 'पंगत में संगत' कितनी असरकारक रही! अभी किसी पंगत में विवाद जैसे हालात नहीं बने हैं कि रायता ढुला हो! इसका कारण दिग्विजय सिंह का दबदबा भी माना जा सकता है। उनके सामने कोई खुलकर विरोध कर सके, ऐसा संभव नहीं है। लेकिन, पंगत ने भाजपा को परेशान तो कर दिया! क्योंकि, कांग्रेस का बिखराव और आपसी फूट का फ़ायदा भाजपा को मिलता रहा है। फूलछाप कांग्रेसी छुपकर भाजपा की मदद करते रहे हैं। इस बात को दिग्विजय सिंह ने भी महसूस किया और उन्होंने ट्वीट करके शिवराज सरकार और भाजपा पर हमला भी बोला! उन्होंने लिखा कि कांग्रेस की इस एकता यात्रा में आयोजित हो रही 'पंगत में संगत' में आ रही भीड़ देखकर भाजपा रायता फैलाने की कोशिश  कर रही है। उन्होंने कार्यकर्ताओं को नसीहत देते हुए कहा है कि भाजपा के षडयंत्र में फंसकर ऐसा व्यवहार न करें, जिससे कांग्रेस को नुकसान हो। उन्होंने लिखा कि भाजपा में घबराहट होना स्वाभाविक है। क्योंकि, जनता में भाजपा के विरुद्ध आक्रोश है। अमित शाह भी निर्देश दे गए हैं कि दिग्विजय को घेरो!      
  दस साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बाद दिग्विजय सिंह अपनी इच्छा से सक्रिय राजनीति से दूर रहे! लेकिन, अब जबकि वे सक्रिय हुए हैं, राजनीतिक गलियारों में उनकी धमक को महसूस किया जाने लगा है! इस बीच अल्पसंख्यकों को लेकर उनके कई बयान विवाद भी बने! फिर भी कांग्रेस में कोई भी उनके कद को कोई कम नहीं कर सका। ऐसे भी मौके आए, जब उनके बयान पार्टी की फजीहत का कारण बने! फिर भी कांग्रेस में उनका वजन बना रहा। मुस्लिमों के पक्ष में आवाज बुलंद करने वाले दिग्विजय सिंह के बारे में बहुत कम लोगों को पता होगा कि वे बेहद कर्मकांडी हैं और हिंदू परम्पराओं का कड़ाई से पालन करते हैं। स्वरूपानंद स्वामी के शिष्यों में एक दिग्विजय सिंह स्नान, ध्यान व पूजा पाठ करने के बाद ही दिन की शुरुआत करते हैं। उन्होंने अपनी नर्मदा परिक्रमा को आध्यात्मिक और धार्मिक अवश्य घोषित किया, परंतु उनका राजनीतिक चोला उनसे विलग नहीं हुआ! दिग्विजय इस यात्रा के जरिए प्रदेश की राजनीति की नब्ज समझ चुके हैं और अब वे उसी के मुताबिक अपना दांव खेल रहे हैं।
  याद कीजिए, दिग्विजय सिंह की छह महीने से ज्यादा लंबी नर्मदा परिक्रमा को पहले भाजपा ने गंभीरता से नहीं लिया था। ये तक कहा गया था कि दिग्विजय सिंह की राजनीतिक पारी अब पूरी हो गई, इसलिए वे वैराग्य की दिशा शुरू करने के लिए नर्मदा की परिक्रमा के लिए निकल पड़े हैं। लेकिन, भाजपा की इस नासमझी का सही जवाब उन्हें जल्दी ही मिल गया, जब उनकी नर्मदा परिक्रमा के साथ भीड़ जुटने लगी! इस यात्रा को कांग्रेस का भी समर्थन मिलने लगा! नर्मदा किनारे के गाँवों में दिग्विजय सिंह का माहौल बनता दिखाई दिया! लेकिन, 9 अप्रैल को परिक्रमा कि समाप्ति के बाद दिग्विजय सिंह ने जिस तरह सियासत की बिसात पर 'पंगत में संगत' के मोहरे चले, भाजपा की सियासत को कंपन महसूस होने लगा!  
  कांग्रेस को एक बड़ा फ़ायदा दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा ये हुआ कि उसका सॉफ्ट हिंदुत्व वाला बदलाव सटीक बैठ गया! अपने गुरु शंकराचार्य के आशीर्वाद से उन्होंने यह परिक्रमा की! इस परिक्रमा का सीधा सा मतलब था कि वे उस हिंदुत्व की तरफ झुके, जिससे अभी तक कांग्रेस बचती आई है। उन्होंने अपनी इस परिक्रमा को पूरी तरह धार्मिक और आध्यात्मिक कहा था। लेकिन, दिग्विजय सिंह कितनी भी सैक्यूलर पॉलिटिक्स करें, व्यक्तिगत तौर पर वे बेहद धार्मिक और आस्थावान हैं। कहने वालों का तो ये भी इशारा है कि कांग्रेस उत्तराखंड, गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनाव से जिस सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ बढ़ी है, दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा उसी कड़ी को आगे बढ़ाने के लिए थी! आमतौर पर उन्हें मुस्लिम हित रक्षक नेता माना जाता है। लेकिन, नर्मदा परिक्रमा के दौरान रास्ते के आने वाले हर मंदिर में माथा टेकना कांग्रेस की बदलती भविष्य की रणनीति का ही संकेत था। गुजरात में राहुल गाँधी का मंदिरों में जाना और दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा के अलावा भी कई ऐसी घटनाएं हैं, जो कांग्रेस की आत्मा में हिंदुत्व के प्रवेश का संकेत देती हैं। चित्रकूट उपचुनाव में कांग्रेस की जीत से उत्साहित कांग्रेसियों ने जिस तरह 'जय श्रीराम' के नारे लगाए थे, वो इस बदलाव का संकेत ही था!  
 अब देखना है कि 'पंगत' की ये 'संगत' कितना असर करेगी? पर, राजनीति में हमेशा ही पंगत का अंत भोज लुटने से होता रहा है! संगत को युद्ध करते हुए पंगत का भोजन हांसिल करना होता है! ऐसे में वही भोजन कर पाता है, जो ताकतवर होता है! कांग्रेस में पंगत लूटने की परंपरा बहुत पुरानी है! लेकिन, दिग्विजय सिंह की 'पंगत' में अभी तक तो ऐसा क़ुछ नहीं हुआ! कुछ जगह पंगत में पंगा जरूर हुआ, पर इतना नहीं कि उसे बाजीराव भोज कहा जाए! दरअसल, ये शिविरों की सांकेतिक भाषा है, जिसमें छीनकर भोज किया जाता है। अभी ये हालात तो नहीं आए हैं कि पंगत लुटे या पंगा हो! लेकिन, सारा दारोमदार इस बात पर है कि टिकट बंटने के बाद भी ये भावना बनी रहती है या नहीं? कांग्रेस में एकता के समंदर का पानी घटने से गुटबाजी के जो टापू उभर आए थे, वे इस 'पंगत से संगत' से फिर एकता के समंदर में समा गए तो दिग्विजय सिंह के प्रयास को सफल माना जाएगा! यदि ये प्रयोग असफल होता है तो शायद ये कांग्रेस के लिए आत्मघाती कदम होगा!     
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Saturday, July 21, 2018

किसानों को नहीं दलालों को मिला, समर्थन मूल्य बढ़ने का फ़ायदा!


चने में गड़बड़झाला


- हेमंत पाल 

 ध्यप्रदेश में चने की पैदावार सबसे ज्यादा होती है। लेकिन, सरकार की हठधर्मी से इसी चने के कारोबार पर घना साया है। चने से जुड़े व्यापार, दाल मिल और आढ़तियों से लगाकर मंडी व्यापार से जुड़े छोटे-छोटे कारोबारी और हम्माल तक सड़क पर आ गए। जो चना 3300 से 3500 रुपए क्विंटल बिकना था, सरकार ने उसका समर्थन मूल्य 4400 रुपए घोषित किया और ऊपर से 100 रुपए क्विंटल बोनस जोड़ दिया। इस सरकारी मनमर्जी का असर कहाँ, कैसा पड़ा इसकी सरकार को कोई खबर नहीं है! पहली नजर में ये फैसला किसानों के हित में दिखाई देता है, जबकि ये सारा खेल अफसरशाही के दिमाग की उपज है और सबसे ज्यादा माल भी उनकी जेब में गया, न कि किसान झोली में! 
   मध्यप्रदेश में रबी की फसल चने की अनुमानित पैदावार करीब 40 लाख क्विंटल है। सरकार ने इस साल 26 फ़रवरी को चने का समर्थन मूल्य 4400 रुपए घोषित किया। इसका सीधा सा मतलब है कि किसानों को जो चना मंडी में लाकर 3300 से 3500 रुपए में बेचना था, उसे सरकार ने एक हज़ार रुपए ज्यादा में खरीदने की बात कह दी। सरकार की घोषणा से लगता है कि सरकार ने किसानों के दर्द को समझा और महंगा चना खरीदकर उन्हें फ़ायदा दिया है। लेकिन, असलियत कुछ और ही है। जो लाभ किसानों की जेब में जाना था, वो चाँदी अफसरों की जेब में गई! सरकार की इस घोषणा के साथ ही अफसरों के दलाल पूरे प्रदेश में सक्रिय हो गए! जानकारी के मुताबिक इन दलालों ने पंजीकृत किसानों से संपर्क करके 3800 से 4000 रुपए में किसानों से सीधे चना खरीद लिया और सरकारी खरीदी सेंटर तक पहुंचा दिया। किसानों को घोषणा के मुताबिक प्रति क्विंटल हज़ार रुपए ज्यादा मिलना थे। लेकिन, उसमें बंदरबांट हो गई और उन्हें मिले 300 से 500 रुपए! इन दलालों ने ट्रांसपोर्टेशन से लगाकर तुलाई तक का पूरी जिम्मेदारी ली, इस कारण किसान इन परेशानी से मुक्त रहा!
  सरकार का दावा है कि प्रदेश में चने की सर्वाधिक खरीदी की गई और किसानों को मालामाल कर दिया! जबकि, परदे के पीछे की कहानी कुछ और है। जिस प्रदेश में 40 लाख क्विंटल चना उपजा और सारा चना सरकारी गोदामों में पहुँच गया! इसका मतलब है कि अब न तो किसानों के पास चना बचा, न मंडी में आया, न दाल मिलों को मिला और न पैकिंग करने वालों के पास तक पहुंचा! लेकिन, सच्चाई ये है कि चने की जो फसल 4400 रुपए क्विंटल पर सरकारी सेंटरों तक पहुंची है, वो सिर्फ मध्यप्रदेश के खेतों में उपजी हो, ये जरुरी नहीं! किसानों ने बताया कि सीमावर्ती राज्यों से भी चना लाकर समर्थन मूल्य पर बेच दिया गया। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से सस्ता और घटिया चना लाकर किसानों के नाम पर बेचा गया है। ऐसे कुछ प्रकरण सामने भी आए। इस बंदरबांट में दलालों की पूरी चैन बन गई थी, इसलिए उसे न तो  देखा गया और न परखा गया। किसान इसलिए संतुष्ट हो गए कि उनका चना घर बैठे 400 से 500 रुपए क्विंटल ज्यादा में बिक गया!   
  अब जरा ये भी समझ लिया जाए कि प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों से आए चने को कैसे एडजस्ट किया गया। इस बंदरबांट में ऊपर से नीचे तक के छोटे से लेकर बड़े अफसर तक शामिल थे, इसलिए कहीं कोई पेंच नहीं छोड़ा गया। जिन किसानों ने लहसुन, प्याज या चने के अलावा और भी कोई फसल लगाई थी, उनके खातों में चना दर्ज किया गया! गंभीरता से पड़ताल की जाए तो समझा जा सकता है कि प्रदेश में चने की बोवनी से कहीं ज्यादा चने की पैदावार हुई?
दरअसल, बाहर से खरीदे गए चने को ऐसे ही एडजस्ट किया गया! बताते हैं कि घटत और तौल में भी बड़ी गड़बड़ियां की गई! जानकारी के लिए बता दें कि प्रदेश में 2016 में चने का रकबा 10 हजार 300 हेक्टेयर था। उसे 2017 में बढ़ाकर 13 हजार हेक्टेयर किया गया। इस तरह चने के रकबे में 26 प्रतिशत की बढ़ोतरी का लक्ष्य था। अफसरों ने सरकार को इस तरह तो चूना लगाया ही, चने की पूरी फसल के मंडी तक न पहुँचने से भी एक बड़ा तबका प्रभावित हुआ है।
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मोशन फिल्मों का 'नो-कांफिडेंस मोशन'


- हेमंत पाल

  फिल्म और राजनीति में एक जाना-अनजाना सा रिश्ता है। दोनों ही सामाजिक सरोकार से जुड़े होने का दावा करते हैं। ये बात अलग है कि आजकल फिल्म और राजनीति दोनों का ही समाज से कोई सरोकार नहीं होता। दोनों ही अपनी स्वार्थ सिद्धि का माध्यम बनकर रह गई हैं। फिल्मों और राजनीति का यह घालमेल बहुत पुराना है। कभी राजनीति पर फिल्में बनती है, तो कभी राजनीति में फिल्मी ड्रामेबाजी देखने को मिलती है। कभी नेता सेल्युलॉइड पर अपनी चमक बिखेरते हैं, तो कभी फिल्मकार राजनीति पार्टियों का झंडा थामे दिखाई देते हैं। दक्षिण भारत में यह सिलसिला कुछ ज्यादा ही देखने को मिला है।
    हाल ही में संसद में फुल फिल्मी ड्रामा देखने को मिला! सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने ही बेहतरीन फिल्मी मेलोड्रामा प्रस्तुत करने का कमाल दिखाया। राहुल गांधी ने जहां प्रधानमंत्री के गले लगकर (या पड़कर) तमाशा किया, तो प्रधानमंत्री ने भी फिल्मी अंदाज में अपना जवाब पेशकर तालियां बटोरने का कमाल किया। अवसर था सरकार के खिलाफ 'नो-कांफिडेंस मोशन' का! नो-कांफिडेंस का ये सिलसिला सिर्फ राजनीति तक ही सीमित नहीं है! फिल्मों के प्रदर्शन के बाद दर्शक भी उन फिल्मों के प्रति नो-कांफिडेंस प्रदर्शित किया जाता रहा है। अक्सर दर्शक फिल्मों के प्रति अपना 'नो-कांफिडेंस मोशन' साबित करने में सफल रहते हैं! कभी-कभी इस 'नो-कांफिडेंस मोशन' के बाद भी फिल्में उसी तरह से सफल हो जाती है, जैसे मौजूदा सरकार इसे धकेलकर अपनी साख बचाने में सफल रही है।
   हमारे यहां मोशन फिल्मों के प्रति दर्शकोें के अविश्वास का सिलसिला भी काफी पुराना है। बॉलीवुड में ग्रेटेस्ट शो-मैन के नाम से विख्यात राज कपूर को आरके फिल्म्स के बैनर तले 1948 में निर्मित पहली फिल्म 'आग' में ही दर्शकों का नो कांफिडेंस झेलना पड़ा था। यह अपने समय की सुपर फ्लॉप फिल्म थी। उसके 5 साल बाद 'बरसात' जैसी फिल्मों की सफलता के कांफिडेंस से भरपूर राजकपूर ने 1953 में 'आह' बनाई! लेकिन, दर्शकों ने उसके प्रति भी अपना नो-कांफिडेंस ही व्यक्त किया। इसके बाद लम्बे अरसे तक राज कपूर सफलता में झूमते रहे! लेकिन, 1970 में उन्होंने अपनी सबसे बड़ी और महंगी फिल्म 'मेरा नाम जोकर' बनाई, पर दर्शकों ने एक बार फिर इसके प्रति अपना 'नो-कांफिडेंस मोशन' पारित कर दिया।
  बाॅलीवुड की त्रिमूर्ति देव आनंद, दिलीप कुमार और राज कपूर में केवल राज कपूर की फिल्मों के प्रति ही दशकों ने नो-कांफिडेंस प्रकट किया हो, ऐसी बात नहीं है। देव आनंद के निर्देशन में बनी पहली फिल्म 'प्रेम पुजारी' के प्रति भी दर्शकों का प्रेम नहीं बरसा, बल्कि नो-कांफिडेंस ही ज्यादा दिखाई दिया! उनकी तीन फिल्में फ्लॉप होती, तो चौथी इतनी हिट हो जाती कि उन्हें फिर तीन फिल्में मिल जाती! इसीलिए कभी-कभी देव आनंद को लीप-हीरो भी कहा गया! यह बात काबिले तारीफ है कि 1977 में प्रदर्शित 'देस परदेस' के बाद उनकी कोई फिल्म हिट नहीं हुई! लेकिन, फिर भी वे अगले 35 साल तक फिल्में बनाते हुए बाॅलीवुड में लोकप्रिय बने रहे! दिलीप कुमार ने 'लीडर' और 'दिल दिया दर्द लिया' के निर्माण में सहयोग दिया, लेकिन दर्शकों से उन्हें नो-कांफिडेंस ही मिला।
  बडे बजट बनने वाली फिल्मों में शान, शानदार, बाम्बे वैलेट, रूप की रानी चोरों का राजा, काइटस, अशोका, लव स्टोरी-2050, रावण, मंगल पांडे, सांवरिया, राजू चाचा, ब्ल्यू, द्रोणा, अजूबा, बेशरम, राम गोपाल वर्मा की आग जैसी फिल्में शामिल हैं! ऐसी बात नहीं कि आज बाक्स ऑफिस पर पैसा बनाने की मशीन माने जाने वाले सलमान खान या शाहरूख खान की फिल्मों के प्रति दर्शकों ने नो-कांफिडेंस प्रकट नहीं किया। पिछले साल ही इन दोनों की फ़िल्में 'ट्यूब लाईट' और 'जब हेरी मेट सेजल' के प्रति दर्शक अपना नो-कांफिडेंस प्रकट कर चुके हैं। 
  कभी-कभी ऐसा भी होता है कि शुरूआत में फिल्मों के प्रति दर्शक अपना नो-कांफिडेंस दिखाते हैं, बाद में फिल्में मौजूदा सरकार की तरह अपने आपको बचा ले जाती है। इतिहास बनाने वाली 'शोले' का पहला सप्ताह ऐसा ही ठंडा गुजरा था। बाद में दर्शकों ने उसके प्रति अपना कांफिडेंस जताया! 'पाकीजा' और 'गाइड' की कहानी भी ऐसी ही है। दशकों पहले 'कागज के फूल' और 'मेरा नाम जोकर' के प्रति दर्शक अपना नो-कांफिडेंस जता चुके थे! लेकिन, यह दोनों फिल्म आज हिन्दी सिनेमा की सबसे बेहतरीन फिल्मों में मानी जाती है। इससे यही लगता है कि समय के साथ 'नो कांफिडेंस मोशन' के मायने भी उसी तरह से बदलते रहे हैं, जैसे राजनीति में समय-समय पर इसके अर्थ बदलते रहे हैं।
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Tuesday, July 17, 2018

30 लाख नए मतदाता बदलेंगे मध्यप्रदेश के सियासी समीकरण?


- हेमंत पाल 


   देश में इस समय बड़ी संख्या ऐसे मतदाताओं की हैं, जो उम्र के नजरिए से युवा हैं। युवा मतदाताओं के पीछे मान्यता यह कि इन्होंने राजनीति में उनकी भूमिका को नया विस्तार दिया है। ये भेड़चाल नहीं चलते और न नारों और वादों से प्रभावित होते हैं। इन मतदाताओं का अपना एक नजरिया, राजनीतिक सोच, प्रतिबद्धता और दृष्टिकोण होता है। उनकी इसी मान्यता के चलते युवा मतदाताओं में राजनीति की दिशा बदलने का आभास मिलता है। आज का युवा न तो परंपरा का गुलाम है, न पश्चिमी आधुनिकता का! हमारे यहाँ वर्ग, जाति, क्षेत्र और लिंग की तुलना में उम्र का पहलू चुनाव नतीजों पर ज्यादा असर डालता है! इस मामले में हमारा देश यूरोपीय देशों से अलग दिखाई देता है। पश्चिमी देशों में राजनीति जातियों के बजाए पीढ़ियों के संघर्ष के इर्द-गिर्द खड़ी होती है। दुनिया में भारत ही अकेला देश है, जिसका मतदाता इतना युवा है। अब देखना ये है कि मध्यप्रदेश में 30 लाख से ज्यादा नए मतदाता क्या रुख बताते हैं। क्योंकि, ये मतदाता जिधर झुकेंगे, नतीजों पलड़ा भी उधर ही झुकेगा!  
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   ध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के दांव-पेंच चले जाने लगे हैं। राजनीतिक पार्टियों का सबसे ज्यादा ध्यान उन युवा मतदाताओं पर है, जिनकी उम्र 18 से 40 के बीच है। इन युवा मतदाताओं का झुकाव ही तय करेगा कि भाजपा की चौथी बार वापसी होगी या कांग्रेस को फिर सत्ता संभालने का मौका मिलेगा! इस सबमें युवाओं की बड़ी भूमिका होगी। इनका जिस पार्टी की तरफ झुकाव होगा, प्रदेश में सरकार उसी पार्टी की बनेगी। क्योंकि, प्रदेश के पांच करोड़ मतदाताओं में से आधी आबादी ऐसे मतदाताओं की है जिनकी उम्र 35 साल से कम है। 30 लाख युवा तो ऐसे हैं, जो इस बार पहली बार वोट डालेंगे। अभी ये भविष्य के गर्भ में है कि इन युवा मतदाताओं का रुख क्या रहेगा! ये किस पार्टी, किस नेता से प्रभावित होंगे, ये सब असमंजस में है! भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के नेता युवा मतदाताओं की ताकत को समझ रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि इन्हें भरमाने या रिझाने का प्रयास नहीं किया जा सकता! इस पीढ़ी की सोच परिष्कृत है। लेकिन, फिर भी भाजपा ने इन्हें रिझाने के लिए कोशिशें शुरू कर दी! आने वाले वक़्त में सरकारी नौकरियों में एक लाख नई नियुक्तियों की बात की जा रही है। जबकि, कांग्रेस ने भी इन्हें अपने पाले में लेने के लिए नए वादे किए हैं। 
  नए और युवा मतदाताओं में हर जाति, वर्ग और मजहब के शामिल हैं। इसलिए राजनीतिक पार्टियां चुनाव घोषणा पत्र में घिसे-पिटे वादों को किनारे करके युवा हित वाले ठोस और सार्थक वादों पर विचार कर रहे हैं। भाजपा और कांग्रेस सहित प्रदेश में लगभग सभी प्रमुख दल घोषणा पत्र का स्वरूप बदलना, युवा जरूरतों के मुताबिक नीति बनाने और उन पर अमल करने की स्पष्ट घोषणा जैसी योजना पर काम कर रहे हैं, ताकि आने वाले विधानसभा चुनाव में वे युवाओं को रिझा सकें। 
  आँकड़ों के नजरिए से देखा जाए तो प्रदेश में मतदाताओं की संख्या 5 करोड़ 7 लाख से ज्यादा है। इनमें 2 करोड़ 24 लाख मतदाता 35 साल से कम उम्र के हैं। ये मतदाताओं की कुल संख्या का 44.10% है। स्वाभाविक है कि ये युवा मतदाता चुनावी वादों और घोषणाओं से प्रभावित नहीं होते! इनकी अपनी सोच और नजरिया है। सोशल मीडिया पर इनकी सशक्त मौजूदगी इन्हें सोच के मामले में इनकी मनःस्थिति को समृद्ध बनाती है। ये अपना सोच सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं करते, इसलिए इन्हें समझ पाना भी आसान नहीं है। ये सच और झूठ का फर्क जानते हैं और इन्हें पता है कि देश किस दिशा में जा रहा है। नोटबंदी से देश को क्या मिला और जीएसटी से बाजार की हालत में क्या बदलाव आया! ये वर्ग विकास दिखाने वाले आंकड़ों से प्रभावित नहीं होता, बल्कि उनका आंकलन करने की क्षमता रखता है। इनके पास तर्कशक्ति है और अपना पक्ष रखने का नजरिया भी! 
  प्रदेश में 18 साल की उम्र वाले मतदाताओं की संख्या 30 लाख 45 हज़ार है जो पहली बार वोट डालेंगे। ये 6.50% मतदाता चुनाव नतीजों को बदलने का माद्दा रखते हैं। ये खेल बिगाड़ने और बनाने की सामर्थ्य रखते हैं। समझा जा रहा है कि जब से इन मतदाताओं ने होश संभाला भाजपा को राज करते देखा है। ऐसी स्थिति में भाजपा को एन्टीइन्कम्बेंसी का खतरा ज्यादा है। क्योंकि, भाजपा नेताओं का अहं, बढ़ता भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और थोथी भाषणबाजी से ये वर्ग परेशान है! ये कांग्रेस को ज्यादा नहीं जानते! दिग्विजय सिंह के कथित कुशासन को इन्होने देखा नहीं, सिर्फ सुना है! ऐसे में इन 30 लाख से ज्यादा मतदाताओं का रुख काफी मायने रखता है। कांग्रेस के सामने बड़ा संकट इन मतदाताओं के सामने अपनी पहचान का है। इसमें शक नहीं कि ये ज्योतिरादित्य सिंधिया को ज्यादा जानते हैं और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित भी हैं। कमलनाथ को ये बिलकुल नहीं जानते और न उनसे प्रभावित हैं। इनकी नजर में दिग्विजय सिंह की पहचान वही है, जो भाजपा ने बनाई है। लेकिन, नर्मदा परिक्रमा से इस पहचान में अंतर भी आया! उन्हें नहीं लगता कि दिग्विजय सिंह हिन्दू विरोधी, कुशासक और गलत बयानबाजी करने वाले नेता हैं। कई युवाओं ने सोशल मीडिया पर उन्होंने 6 महीने तक नर्मदा यात्रा को फॉलो भी किया है।
   प्रदेश में इस बार 18 से 40 साल तक के मतदाता ही चुनाव नतीजों को निर्णायक ढंग से प्रभावित करने की स्थिति में हैं। मतदाताओं की ये बड़ी संख्या ही वह भीड़ है, जो शिक्षा की भूख, बेहतर नौकरी की चाहत, महंगाई और सरकारी कर्मचारियों के रिटायरमेंट की उम्र दो साल बढ़ाए जाने से प्रदेश का भाजपा सरकार से नाराज है। मतदान केंद्र पर वोट डालने के लिए लगने वाली लाइन में हर छठा वोटर 18 से 40 साल के बीच का होगा। इन नए वोटरों को रिझाने के लिए राजनीतिक पार्टियों ने भी अपने एजेंडे में बदलाव किए हैं। मध्यप्रदेश में ही एक साल में 13 लाख से ज्यादा मतदाताओं की संख्या बढ़ी है। 8.10 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में 4.99 करोड़ आबादी मतदाता के रूप में दर्ज हैं। इसमें 13.15 लाख नए मतदाता हैं। ख़ास बात ये कि 45 जिलों में दर्ज होने वाले नए मतदाताओं में महिलाओं की संख्या ज्यादा है।
  प्रदेश की भाजपा सरकार ने चुनावी साल में युवा मतदाताओं को भरमाने के लिए फिर एक नया दांव चला है। घोषणा की गई कि आने वाले दिनों में सरकार एक लाख नई भर्तियां करेगी! प्रदेश में नए पदों के सृजन पर कोई रोक नहीं लगाई जाएगी। चौथी बार सरकार बनाने के लिए भाजपा युवाओं को साधने के लिए हर स्तर पर जतन कर रही है। वहीं कांग्रेस पार्टी ने भी इस बार सत्ता पाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी, लेकिन वो युवाओं को रिझाने के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे लेकर खड़ा करने में चूक गई! ये कांग्रेस की राजनीतिक मज़बूरी हो सकती है, लेकिन इससे कांग्रेस को फ़ायदा होना तय था। जबकि, भाजपा को भी शायद समझ नहीं आ रहा कि वो ऐसा क्या करे कि युवा मतदाता उसके पाले में खड़े नजर आएं! 15 साल सरकार चलाने के दौरान ऐसे कई अवसर आए जब भाजपा नए मतदाताओं के लिए काम कर सकती थी! लेकिन, ऐसा नहीं हुआ! रिटायरमेंट की उम्र दो साल बढ़ाने का फैसला युवाओं को रास नहीं आ रहा! ये भाजपा को चुनाव में नुकसान दे सकता है। 
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Sunday, July 15, 2018

ये है मनोरंजन की नईदुनिया


- हेमंत पाल

   भारतीय दर्शकों के लिए अभी तक मनोरंजन के चंद विकल्प ही मौजूद थे। सिनेमा और टीवी के अलावा तीसरा विकल्प था, रेडियो! करीब सात दशक तक दर्शकों ने सिनेमा को ही मनोरंजन माना! इसके बाद पिछले तीन दशक से सिनेमा के साथ लोगों ने टीवी से भी दिल बहलाया! लेकिन, अब 'वेब सीरीज' मनोरंजन का नया विकल्प बनकर सामने आया है। अपने मोबाइल फोन में भी मनोरंजन की दुनिया समा सकती है, ये वेब सीरीज बताया! बहुत कम समय में इस माध्यम ने पूरी पीढ़ी को अपने दायरे में ले लिया। आज के युवाओं की तो पहली पसंद ही वेब सीरीज है। अभी इसे चार साल भी पूरे नहीं हुए, जब भारत में 'वेब सीरीज' जैसा पहला प्रयोग किया गया था। 2014 में आई वेब सीरीज ‘परमानेंट रूममेट’ को काफी पंसद किया गया! इसे देखने वालों की संख्या 50 मिलियन पार कर गई है। इसके बाद तो वेब सीरीज की लाइन लग गई। बेक्ड, ट्रिपलिंग, परमानेंट रूममेट सीजन-2, पिचर, बैंग बाजा बारात, ट्विस्टेड, ट्विस्टेड-2, गर्ल इन द सिटी, अलीशा और सीक्रेट गेम्स जैसी तमाम सीरीज आ गई!  
   वास्तव में भारतीय दर्शकों का भविष्य का मनोरंजन ही वेब सीरीज है। सिनेमा के बाद टीवी ने दर्शकों को आकर्षित किया था! 80-90 के दशक में रामायण, महाभारत, मुंगेरीलाल के हसीन सपने, देख भाई देख, और हम लोग जैसे सीरियल ने लोगों को सिनेमाघर की सीढ़ियां चढ़ना ही भुला दिया था। इसके बाद टेलीविजन पर सास-बहू, प्यार-मोहब्बत और वैम्प वाले सीरियलों ने दर्शकों के दिल में जगह बनाई! निर्माताओं के संस्कारी बहू-बेटियों वाले इन सीरियलों के सेट, एक्टर, मेकअप और गहनों पर तो ध्यान देते आए हैं, लेकिन इनकी स्क्रिप्ट वैसी ही रही है। दो दशक तक दर्शक मनोरंजन के नाम पर यही टीवी सीरियल और प्रेम और बदले की कहानियां झेलते रहे! लेकिन, अब वेब सीरीज ने मनोरंजन की इस धारणा को तोड़कर नया विकल्प दिया है।      
  भारत में मनोरंजन का असल बदलाव यूट्यूब, ऑल्ट-बालाजी, हॉट स्टार, अमेजन, वीबी ऑन द वेब और नेटफ्लिक्स जैसे एप्स से आया! वेब सीरीज बनाने वाली अमेरिकी कंपनी नेटफ्लिक्स ने भारत में भी अपने दर्शक खोज लिए हैं। उसकी हिंदी सीरीज 'सीक्रेट गेम्स' तो पहले ही तहलका मचा चुकी है। लोगों को यहाँ कुछ नया कंटेंट देखने को मिला। एकता कपूर जैसी सीरियल की महारानी ने तो वेब सीरीज के लिए प्रोडक्शन हाउस ऑल्ट-बालाजी ही खोल लिया। ये बेहतरीन बदलाव था, जहां वेब सीरीज ने अलग तरह का कंटेंट देने की कोशिश की है। उसने नई वैरायटी के साथ ही घिसे-पिटे दायरे को भी तोड़ा है। भारतीय दर्शकों के लिए यह बेहतरीन ऑप्शन है! वेब सीरीज का सबसे अच्छा फायदा ये है, कि इसके कंटेंट में सेंसर का कोई दखल नहीं होता! सेंसर के चक्कर में टीवी या फिल्मों को ऐसा बनाने की कोशिश की जाती है, जिसे सांस्कृतिक पैमाने से नापा जा सके! जबकि, वेब सीरीज का कंटेंट बहुत कुछ अलग करने को मौका देता है। नेटफ्लिक्स की 'सीक्रेड गेम्स' भी बोल्ड सीरीज है। इसमें धर्म, सेक्स, हत्या, न्यूडिटी, ट्रांसजेंडर समेत हर वो मसाला है, जो सेंसर कभी मंजूर नहीं करता! टीवी पर ये इसलिए दिखाने लायक नहीं है, कि हमारी संस्कृति इसकी इजाजत नहीं देती!  
 वेब सीरीज आम सीरियल से हर मामले में आगे है! इसमें जबरदस्त रचनात्मकता है, जिसे दिखाने के बारे में टीवी और फिल्मकार कभी सोच भी नहीं सकते! एक वेब सीरीज में तो साफ़-साफ़ गे-रिलेशनशिप को दिखाया गया! दर्शकों के लिए ये कुछ नया है। भारत में ट्रांसजेंडर और होमोसेक्शुअलिटी को अछूत की तरह देखा जाता है। ऐसे में वेब सीरीज सोच बदलने का काम कर सकती है। नेटफ्लिक्स, अमेजन और हॉटस्टार जैसे एप्स पूरी दुनिया का कंटेंट दिखाते हैं। भारतीय वेब सीरीज का कॉम्पटीशन भारत के ही दूसरे सीरियल से नहीं, बल्कि दूसरे देशों के हाई-क्लास कंटेंट से होता है। अब घड़ी देखकर टीवी के सामने बैठने की जरूरत नहीं है। जब भी और जहाँ भी समय मिले मोबाइल में ढेर सारा मनोरंजन मौजूद है। ऐसे में वेब सीरीज की स्टोरी और और प्रोडक्शन की क्रिएटिविटी को सराहना भी जरूरी है। यकीनन वेब सीरीज देखना सिनेमा और टीवी से बेहतर विकल्प साबित हो सकता है। आने वाला वक़्त भी इसी का है।  
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Saturday, July 7, 2018

शैतान को साधु बनाने की सूत्रधार है 'संजू'


- हेमंत पाल

   इन दिनों बाॅक्स ऑफिस पर कमाई के रिकॉर्ड बना रही फिल्म 'संजू' को लेकर अजब सा माहौल खड़ा किया जा रहा है। ये साबित करने की कोशिश  है, जैसे यह फिल्म संजय दत्त के लिए पाप मोक्षनी गंगा है! जिसमें डुबकी लगाकर संजय दत्त उस पाप से मुक्त हो गए, जो उन्होंने किए या जिसे करने का उन पर आरोप लगे थे। फिल्म के निर्माता निर्देशक राजू हीरानी से लेकर संजय दत्त का गुणगान करने वाले तमाम लोग फिल्म को आधार बनाकर संजय के सीने पर ईमानदारी का तमगा टांगने की कोशिशों में जुट गए! इस मसले पर संजय के मित्र और पत्रकार प्रीतिश नंदी ने अपनी कलम को स्याही के बजाए सोने के पानी में डूबोकर एक लेख लिखा है। इसका शीर्षक है 'संजय दत्त जैसी शख्सियत होना आसान नहीं' इसका उप शीर्षक और ज्यादा चौंकाता है 'घोर विपत्तियों में भी अविचलित रहकर बर्दाश्त करने वाले बहादुर और अत्यंत ईमानदार इंसान!'
   सारा माजरा देख और सुनकर लगता है मानों हर कोई किसी शैतान को साधु बनाने की कोशिश कर रहा है। हर कोई अपना योगदान देने की कोशिश उसी तरह से कर रहा है, जैसे वह किसी पावन यज्ञ में अपनी पूर्णाहुति दे रहे हों! कभी-कभी तो ऐसा लगने लगा, जैसे फिल्मकार का मकसद फिल्म बनाना नहीं, बल्कि अपने प्रिय नायक के तमाम दोषों पर मखमली आवरण चढ़ाकर इस तरह से पेश करना है, जैसे कानून ने उसे अपराधी मानकर बड़ी भूल की है! फिल्म में संजय दत्त को अपराधी करार देने का सारा दोष मीडिया के माथे मढ़कर मुंबई बम धमाके में मारे गए 257 लोगों की जान का इतना सस्ता मोल लगाया गया।
   सारा देश उस असली 'संजू' की हकीकत जानता है, जिसे इस फ़िल्मी 'संजू' के जरिए उलटने का प्रयास किया गया है। अब यदि सीमा पार से आई हथियारों की खेप को अजंता आर्टस स्टूडियो में रखना और आतंकवादियों से गलबाहियां करते हुए एके-47 जैसे घातक हथियार रखने को बहादुरी और 308 लड़कियों के साथ हम-बिस्तर होने का इकरार किए जाने को ही ईमानदारी कहा जाए तो तमाम शब्दकोषों में बहादुरी और ईमानदारी के नए मतलब गढ़ना होंगे। पूरी फिल्म में यह कहने की भी कोशिश की गई है, कि यदि संजय दत्त ने नशाखोरी की तो इसके लिए वह नहीं बल्कि वह परिस्थिति जिम्मेदार हैं! वो दोस्त जिम्मेदार हैं, जिसने उसे नशे की लत लगाई।
  अपराधियों और आतंकवादियों से उनकी दोस्ती को उसका भोलापन बताया गया! 308 यौन शोषित लड़कियों की संख्या याद करने को ऐसा चित्रित किया गया, जैसे वह अपने हाथों में माला लेकर 108 मनकों को घुमाते हुए इष्ट देवता का जाप कर रहा हो! यह भी संयोग है कि पिछले दिनों यौन शोषण के जितने भी मामले सामने आए, उनमें किसी न किसी 'बाबा' का नाम सामने आया है। फिर संजय दत्त को प्यार से ही सही 'बाबा' तो पुकारा ही जाता है। अब यदि कल उन पर 308 लड़कियों में से किसी के यौन शोषण का कोई मामला उठता है तो इसके लिए भी शायद यह दलील दी जाएगी कि यह उनका नहीं उनके नाम में 'बाबा' होने का नतीजा है!
  किसी व्यक्ति के जीवन के पन्नों को खोलकर उसे दर्शकों के सामने रखना गलत बात नहीं है। लेकिन, इसे आधी हकीकत आधा फसाना का नाम देकर तथ्यों को गलत तरीके से पेश करना भी अच्छी बात नहीं है। यदि दूसरी बायोपिक की तरह 'संजू' बाॅक्स ऑफिस पर घुटने टेक देती, तो शायद इतनी चर्चा भी नहीं होती! किंतु, फिल्म की कामयाबी ने संजय दत्त को एक बार फिर जनता की अदालत में बेगुनाह साबित करने का काम किया है।  सवाल  होता है कि उसे बेगुनाह साबित करने के लिए क्या मीडिया को कटघरे में खड़ा करने की जरूरत थी?
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सुलगे मंदसौर से उठी आँच कहीं भाजपा को झुलसा न दे!


- हेमंत पाल

  मंदसौर मध्यप्रदेश के पश्चिमी हिस्से का राजस्थान की सीमा से लगने वाला जिला है। राजनीतिक रूप से बेहद जागरूक इस इलाके में कांग्रेस और भाजपा दोनों की जड़ें काफी मजबूत रही हैं। भाजपा को इस इलाके ने दो मुख्यमंत्री और कांग्रेस को कई मंत्री दिए! 2013 के विधानसभा चुनाव में भी यहाँ भाजपा का दबदबा रहा था। लेकिन, पिछले साल किसान आंदोलन के दौरान हुए गोलीकांड ने भाजपा को परेशानी में डाल दिया। इस साल कांग्रेस ने उसी आंदोलन को नए सिरे से हवा देकर सरकार को शह देने में कोई कसर नहीं छोड़ी! अभी किसान आंदोलन की बरसी की गरमाहट ठंडी भी नहीं पड़ी थी, कि एक मासूम बच्ची के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म ने राजनीति को फिर हवा दे दी। कांग्रेस ने शिवराज सरकार को बिगड़ी कानून व्यवस्था और महिला सुरक्षा के बहाने कटघरे में खड़ा कर दिया! आशय ये कि प्रदेश के किनारे पर बसा शांतिपूर्ण इलाका सरकार पर भारी पड़ गया। लोगों में भी इस घटना को लेकर जरबदस्त रोष है। यही कारण है कि इस नए मामले ने सियासत को गरमा दिया। आश्चर्य नहीं कि मंदसौर की वजह से पश्चिमी मध्यप्रदेश की 66 सीटों पर भाजपा की फिजां बिगड़ जाए!
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   श्चिमी मध्यप्रदेश में दो संभाग लगते हैं इंदौर और उज्जैन। इन दोनों संभागों की 66 विधानसभा सीटों में से 56 सीटें भाजपा के पास हैं। उज्जैन संभाग की 29 सीटों में से 28 सीटें पिछले चुनाव में भाजपा ने जीती थीं। सिर्फ मंदसौर जिले की एक सीट कांग्रेस के पास गई थी। किसान आंदोलन वाले रतलाम, मंदसौर और नीमच जिले उज्जैन संभाग में ही हैं। इंदौर संभाग की भी 37 सीटों में से 28 सीटें भाजपा के खाते में हैं। यहाँ की 9 सीटों पर कांग्रेस और एक पर निर्दलीय उम्मीदवार ने चुनाव जीता था। भाजपा प्रदेश में विकास के कितने भी दावे करे, पर इस बार एंटी-इंकम्बेंसी और मंदसौर कांड से उभरे खतरों से इन दोनों संभागों की जीती हुई 56 सीटों को बचाने में भाजपा को पसीना आना तय है। किसान आंदोलन के बाद अब मंदसौर दुष्कर्म कांड भी पश्चिम मध्यप्रदेश में असर डाल रहा है।  
  मंदसौर में आठ साल की एक मासूम बच्‍ची के साथ दुष्‍कर्म की वारदात के बाद यहाँ आग सुलग गई! कॉंग्रेस ने मंदसौर दुष्कर्म मामले को राष्ट्रीय स्तर पर हवा दे दी। घटना की निंदा करते हुए कांग्रेस ने आरोप लगाया कि भाजपा शासित प्रदेशों में यह राज्य महिला विरोधी अपराधों का गढ़ बन गया है। पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि मंदसौर की घटना की हैवानियत व बर्बरता दिल दहला देने वाली है। मध्यप्रदेश महिलाओं के खिलाफ हो रहे जघन्य अपराधों का गढ़ बन गया है। ऐसे में लोगों का गुस्सा जायज़ है। पीड़ित परिवार के प्रति भाजपा के एक विधायक नेता द्वारा कथित तौर पर संवेदनहीनता दिखाने से जुड़ी खबरों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि पीड़ित परिवार के लोगों को सांत्वना देने की बजाए भाजपा सांसद उनसे 'धन्यवाद' मांग रहें है। यह बेहद शर्मनाक है।
  इस घटना ने दिल्ली में हुए निर्भया कांड की यादें ताजें कर दी, जिससें छह लोगों ने एक छात्रा का रेप करके उसे सड़क किनारे फेंक दिया था। मंदसौर में ये घटना भी उससे अलग नहीं है। इसे लेकर राजनीति भी तेज हो गई! विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों के नेता इंदौर में भर्ती बच्ची के प्रति सहानुभूति प्रकट करने के लिए अस्पताल के दौरे कर रहे हैं। कैंडल मार्च निकालकर विरोध व्यक्त किया जा रहा है। राजनीतिक मौका देखकर कांग्रेस ने मुख्यमंत्री की अपने निशाने पर ले लिया। महिला सुरक्षा के नाम पर सरकार को कटघरे में खड़ा करने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। इसलिए भी कि प्रदेश सरकार महिलाओं और बच्चियों के लिए कई योजनाएं चला रही है, पर वो सारे प्रयास लोगों तक नहीं पहुँच रहे! दुष्कर्म और महिला सुरक्षा के मामले में भी सरकार कोई प्रभावी काम नहीं कर सकी!  
  कांग्रेस के बड़े नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का आरोप है कि शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री बने रहने का अधिकार खो चुके हैं। प्रदेश में महिलाएं और बच्चे सुरक्षित नहीं है। प्रदेश में मासूम बच्चियों से दुष्कर्म की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। कांग्रेस नेता ने आरोप लगाया कि भाजपा के राज में मध्यप्रदेश 'बलात्कार की राष्ट्रीय राजधानी' बन गया! यहाँ हर साल 5 हज़ार महिलाओं से दुष्कर्म हो रहा है। दरअसल, इस एक घटना ने विपक्ष को हमले करने, जनता को उकसाने और नाराज होने का बहाना दे दिया। प्रदेशभर में मंदसौर की इस घटना को लेकर लोगों में रोष है। खतरा है कि कहीं ये नाराजी भाजपा सरकार पर नजला बनकर न फूटे?
  कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इस मासूम बच्ची के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म की घटना पर दुख जताते हुए ट्वीट किया। उन्होंने ट्विटर पर लिखा 'मध्य प्रदेश के मंदसौर में आठ साल की एक लड़की के साथ गैंगरेप हुआ है, जो जिंदगी और मौत से जूझ रही है। इस बर्बर घटना ने मुझे व्यथित कर दिया। अपने बच्चों की सुरक्षा और गुनाहगारों को त्वरित न्याय की जद में लाने के लिए हमें एक राष्ट्र के तौर पर एकसाथ आना होगा।' कांग्रेस महासचिव और राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी घटना की निंदा करते हुए कहा कि ऐसा जघन्य अपराध मानवता के लिए शर्म की बात है। हम सभी पीड़िता और उसके परिवार के साथ हैं। 
  पहले किसान आंदोलन और फिर ये दुष्कर्म कांड से उभरी लोगों की नाराजी से भाजपा भी अनभिज्ञ नहीं है। भाजपा हाईकमान और संघ की जमीनी सर्वे रिपोर्ट में भी स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आया है कि पश्चिमी मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ में भाजपा को परेशानी आएगी! शायद इसी संकट को दूर करने के लिए संघ के प्रचारक मालवा-निमाड़ के जिलों में निकलेंगे और भाजपा की जड़ों को मजबूत करने का काम करेंगे। बताते है कि इसे लेकर पार्टी हाईकमान और संघ के बीच लम्बी मंत्रणा भी हुई! चुनाव के मद्देनजर संघ इन क्षेत्रों में कई कार्यक्रम शुरू करेगा। संघ के अनुषांगिक संघठन भारतीय किसान संघ और भारतीय मजदूर संघ भी इसमें साथ देंगे। भाजपा ने ये तैयारी भी की है कि मंदसौर में जहां राहुल गांधी की सभा हुई थी, वहीं नरेंद्र मोदी की भी सभा करवाई जाए। लेकिन, इस तरह की सोच भाजपा की घबराहट दर्शाती है।
   पिछले दिनों भेड़ाघाट में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के साथ हुई पार्टी के नीति नियंताओं की बैठक में प्रदेश के राजनीतिक हालात और चुनाव में विपक्ष द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दों पर बातचीत हुई की गई। पार्टी अध्यक्ष ने विधानसभा चुनाव में उन मुद्दों पर मंत्रणा की, जो भाजपा पर विपरीत असर डाल सकते हैं!  उन्होंने कहा भी कि मतदाताओं में विश्वास बनाने के लिए सभी को एकजुट हो जाना चाहिए। उन्होंने जीत का जो फॉर्मूला बताया उसमें किसानों, व्यापारियों और आदिवासियों को खुश करना ख़ास है। इसी बैठक में तय किया गया था कि मंदसौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा कराई जाए। ये बात अमित शाह की समझ से भी परे थी कि किसानों के लिए प्रदेश सरकार के इतना करने के बाद भी किसान नाराज क्यों हैं? कांग्रेस किसान आंदोलन के मुद्दे को भुना रही है, इसका सीधा सा मतलब है कि भाजपा जमीनी स्तर पर इस बात को समझने में नाकाम रही। प्रदेश में किसानों के मुद्दों पर भाजपा को कहाँ, क्या और कितना नुकसान हो सकता है, इसे भाजपा भी ठीक से समझ रही है। व्यापारियों को खुश करने और आदिवासी वोटों को सेंध लगने से बचाने के लिए क्या किया जा सकता है, इस पर भी चर्चा हुई! 
   सरकार ने किसान आंदोलनों को दबाने की कोशिश तो पूरी की, पर उसे इसमें कामयाबी नहीं मिली! क्योंकि, गोलीकांड में सात किसानों की मौत ने मामले को अलग ही रंग दे दिया था। यही कारण था कि हमेशा सरकार की झोली में रहने वाला किसान अचानक उसकी झोली से खिसक गया! सरकार ने गरीबों, किसानों और मजदूरों पर अपनी योजनाओं को फोकस करना शुरू किया! लेकिन, पहले मंदसौर गोलीकांड और अब दुष्कर्म कांड के बाद से किसानों के साथ आम लोग भी बिगड़ती कानून-व्यवस्था के खिलाफ आक्रोशित हो रहे हैं। यदि सियासत की नब्ज को टटोला जाए तो विधानसभा चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान मालवा-निमाड़ में ही होने की आशंका है। अब भाजपा को देखना है कि इस आँच को ठंडा करने के लिए क्या उपाय किए जाएं!
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सिनेमा यानी दर्शक का नायकत्व!


- हेमंत पाल 

   क सहज सवाल है कि लोग फ़िल्में क्यों देखते है? क्या सिर्फ मनोरंजन के लिए, अपनी पीड़ा को भुलाने के लिए या फिर एक कहानी को सामने घटित होते देखकर कुछ सीख लेने के लिए? इसके अलावा भी कुछ कारण ढूंढे जा सकते हैं। यदि बात सिर्फ हिंदी सिनेमा की ही की जाए, जिसे सौ साल से ज्यादा समय हो गया तब भी ऐसा जवाब शायद नहीं मिले, जो संतोषजनक हो! दरअसल, फिल्मों का मूल मकसद लार्जर देन लाइफ होता है। सिनेमा की कहानियाँ व्यक्ति के सपनों को हवा देने का काम सबसे ज्यादा करती है। सिनेमा के पात्र लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जिस संघर्ष से गुजरते हैं उस तक पहुँचने की उनकी यात्रा संघर्षपूर्ण, नाटकीय, भावुक और घटनापूर्ण होती है। उस यात्रा से दर्शक के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पात्रों का अभिनय, उनकी नाटकीयता और संघर्ष उसके लिए आदर्श रचते हैं और वह उसे अपने जीवन से जोड़ लेता है। उसे लगता है कि जब यह पात्र ऐसा कार्य कर सकता है, तो वो क्यों नहीं?
   इस तरह सिनेमा का काम समाज के लिए एक आदर्श की रचना करना भी है, जहाँ वह लक्ष्य की प्राप्ति, सपने, संघर्ष और बदले के जरिए बेहतर मनुष्य के निर्माण में सहयोग देता है। सिनेमा में दिखाए गए सपने मनुष्य के अपने होते हैं, जिन्हें वह पूरा नहीं कर पाता है और उन्हें पूरा करने के लिए प्रयासरत रहता है। सिनेमा के पात्र, नायक, नायिका उसके लिए आदर्श बन जाते हैं और उसके लिए मार्गदर्शक का कार्य करते हैं। आम जीवन में जो नहीं होता, फ़िल्में वह दिखाती हैं और लोगों की उम्मीदों, इच्छाओं, सपनों और सफलताओं को मुखर बनाती हैं। आदमी जो काम अपने जीवन में नहीं कर सकता, उसे सिनेमा में होता देखकर खुश हो जाता है।
  आदमी जब दर्शक के रूप में फिल्म देखता है, वह समय, समाज, यथार्थ और परिस्थितियों से भी कट जाता है। वह ऐसे संसार में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसकी संपूर्ण चेतना सिनेमा के नायक पर केन्द्रित हो जाती है! उसे लगता है कि वही वो नायक है जो शत्रुओं का संहार कर रहा है। दर्शक जब सिनेमा हॉल से बाहर निकलता है, तब उसका मन जोश, साहस, वीरता, प्रेम, दयालुता, करुणा, दोस्ती जैसे मानवीय गुणों से परिपूर्ण होता है। उसे लगता है कि वही 'मुग़ले आज़म' का नायक दिलीप कुमार है, वही 'एक था टाइगर' का हीरो सलमान ख़ान है, वही 'बाजीगर' का शाहरुख ख़ान है। दर्शक चाहे समाज के किसी भी वर्ग का हो वह वो नायक बन जाता है, जो उसे अपने असल जीवन में नसीब नहीं होता! नायकत्व का यही सोच दर्शक को सबसे ज्यादा भाता है। 
  हर फ़िल्म किसी न किसी मनुष्य के जीवन का प्रतिनिधित्व करती है। किसी का कुछ कम तो किसी का ज्यादा! ऐसा कोई समाज, धर्म, कार्य या ज्ञान नहीं है जिसे फ़िल्मों में दिखाया न गया हो! इसे दिखाने के लिए एक अदना सा चरित्रवान मनुष्य चुना जाता है जो उसका प्रतिनिधित्व कर सके! उसका नायक बन सके और समाज के सामने एक उदाहरण बन सके। वास्तव में सिनेमा जन को नायकत्व प्रदान करने का माध्यम बन गया है। इसीलिए समाज के हर वर्ग में सिनेमा की लोकप्रियता असीमित है। इसके अलावा सिनेमा ही वह माध्यम है जो किसी आम आदमी को नायक बना देता है। इतिहास गवाह है कि सौ सालों से ज्यादा के सिनेमा ने न जाने कितने जन को नायक बना दिया! जबकि, सामान्यतः ऐसा होता नहीं है। इसीलिए कहा जाता है कि जीवन में ऐसा नहीं होता जो फ़िल्मों में हो सकता है।
 ये भी नितांत सच है कि जीवन को संपूर्णता में देखना, हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं है! परंतु, सिनेमा उसे जीवन की संपूर्णता के साथ दर्शाता है। 'चक दे इंडिया' हो या 'भाग मिल्खा भाग' जीवन की संपूर्णता का आख्यान इन फ़िल्मों में सफलता से उभरा है। 'मदर इंडिया' में नरगिस का अपने बेटे को गोली मारना जीवन का कड़वा सच हो सकता है, लेकिन उसे छोड़ देने से वह कहानी अधूरी ही रह जाती! लगता कि जैसे कुछ बाकी रह गया, जिसका इंतजार दर्शक करता रहता है। सिनेमा का अपना अलग ही जीवन दर्शन होता है, जिसे सिनेमा ने हर स्तर पर भुनाने की कोशिश की है। इस कोशिश में कभी व्यक्ति के संघर्ष को दिखाया गया, तो कभी परिस्थितियों, कुरीतियों, मर्यादाओं और समस्याओं से नायक का संघर्ष दर्शाया गया है, जो मनुष्य की सफलता में बाधक बनती हैं। अपने जीवन में मनुष्य चाहे संघर्ष करता हुए जीत न पाए, किंतु सिनेमा में उसे जीतना ही होता है। क्योंकि, यही तो नायकत्व है जिसे दर्शक देखना चाहता है!
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