Monday, May 29, 2017

लोकरंग से कभी मुक्त नहीं हुए फ़िल्मी गीत


- हेमंत पाल 

  फ़िल्मी गीतों में सिर्फ शब्दों का ताना-बाना नहीं बुना जाता, इसके अलावा भी बहुत कुछ होता है। फिल्म के कथानक और पृष्ठभूमि के अनुरूप गीतों की रचना की जाती है। जब से फ़िल्में बनना शुरू हुई, तब से अभी तक के दौर पर सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो कई कालखंड ऐसे नजर आते हैं जब गीतकारों ने हिंदी, उर्दू और पंजाबी के अलावा कई और भाषाओं और बोलियों के शब्दों को भी अपने गीतों में जगह दी! 1981 में आई 'लावारिस' में अमिताभ बच्चन के कवि पिता हरिवंशराय बच्चन लिखे अवधी लोकगीत से प्रेरणा लेकर 'मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है' गीत रचा गया। ये गीत अपने दिलचस्प अंदाज के कारण बेहद लोकप्रिय भी हुआ। 
    यश चोपड़ा की फिल्म 'सिलसिला' के गीत आज भी याद किए जाते हैं। खासकर होली का वो लोकगीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' में पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकगीतों का रंग हैं। मनोज कुमार की फिल्म 'क्रांति' के गीत 'चना ज़ोर गरम बाबू' पर भी लोकरंग का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया था। राजश्री की फिल्म 'नदिया के पार' में पूर्वांचल के एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार का कथानक था तो वही प्रभाव गीतों में भी नजर आया। फिल्म के सभी गीत अवधी और भोजपुरी के लोकगीतों से प्रभावित थे। इस फिल्म के गीत कहीं न कहीं पूर्वाचल के लोकगीत साँस लेते सुनाई देते हैं।
   'बहारों के सपने' फिल्म के गीतों आजा पिया तोहे प्यार दूँ, चुनरी सँभाल गोरी उड़ी चली जाए में ब्रज के लोकगीतों का प्रभाव महसूस किया जा सकता है। 'मिलन' के गीत सावन का महीना पवन करे सोर में भी गाँव के जीवन की निष्छलता दिखाई देती है। किशोर कुमार की 'पड़ोसन' के गीत इक चतुर नार तथा मेरे भोले बलम गीतों में लोकांचल को कौन महसूस नहीं करता! 'सरस्वती चंद्र' के मैं तो भूल चली बाबुल का देस और 'अनोखी रात' के गीत ओह रे ताल मिले नदी के जल में भी लोक जीवन की झलक है। राज कपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गाने अंग लग जा बलमा, ए भाई ज़रा देख के चलो, तीतर के दा आगे तीतर और 'सावन भादों' का कान में झुमका चाल में ठुमका में तो गाँव महकता है। 'हीर राँझा' फिल्म के गाने तेरे कूचे में तेरा दीवाना, डोली चढ़के, नाचे अंग वे गीतों में तो साफ़ पंजाब झलकता है। नितिन बोस की फिल्म 'गंगा जमना' के गीतों पर उत्तर प्रदेश और बिहार की बोलियों विशेषकर अवधी, भोजपुरी तथा ब्रज की छाप थी। नैना लड़ि जइहैं तो भइया, ना मानूँ ना मानूँ ना मानूँ रे, ढूँढो ढूँढो रे साजना, दो हंसों का जोड़ा, तोरा मन बड़ा पापी जैसे गीत से लोक जीवन से जुड़े थे। 
  जेपी दत्ता तो 'गुलामी' में इससे भी आगे निकल गए। इस फिल्म के गीत ज़िहाल-ए-मिस्किन मुकन बरंजिश बेहाल ए हिजरा बेचारा दिल है' में फारसी के शब्दों को गुलज़ार ने खूबसूरत अंदाज़ में मिश्रित किया है। इस गीत में जिहाल का अर्थ है ध्यान देना, मिस्किन का अर्थ है गरीब, मुकन बरंजिश का अर्थ है से दुश्मनी न करना, बेहाल-ए-हिजरा का अर्थ है ताजा अलगाव। इसका हिन्दी में अर्थ है ये दिल जुदाई के गमों से अभी भी ताज़ा है, इसकी बेचारगी को निष्पक्षता से महसूस करो। गीत का पहला मुखड़ा हिन्दवी के पहले कवि अमीर खुसरो की मुकरी से लिया गया है। अमीर खुसरो ने फारसी में लिखा था- ज़िहाल-ए-मिस्किन मुकन तगाफुल दुराए नैना बताए बतियाँ किताब-ए-हिजरा नदारूमे जाँ, न लेहो काहे लगाए छतियाँ। आशय यह कि सुनने में जो अच्छा लगे, वही गीत अच्छा होता है, फिर वो किसी भी भाषा और बोली का क्यों न हो!
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Friday, May 26, 2017

नाइट्रावेट में छुपा है पुलिस पर बढ़ते हमलों का राज!

 - हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश को शांति का टापू कहने वाले मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के लिए इंदौर में बढ़ रहे अपराध एक धब्बा हैं। सरेआम लूटपाट, गुंडागर्दी, हफ्ता वसूली, पुलिस पर हमले, जमीन पर कब्जे से लगाकर ब्याज पर पैसा देकर जबरन वसूली के किस्से रोज हो रहे हैं। लेकिन, इसमें सबसे जघन्य वारदातें हैं नशा करके अपराध करना। बिना किसी विवाद के राह चलते लोगों को चाकू मार देना, पैसे लूट लेना और अपनी गुंडागर्दी का असर दिखाना! पिछले करीब पांच सालों में शहर में ऐसी कई वारदातें हो चुकी हैं। नाइट्रावेट, कोरेक्स, फेंसिड्रिल जैसी दवाइयां खाकर सड़क पर अपराध करना आम होता जा रहा है। सबसे संगीन मामले ये हैं कि अब अपराधी पुलिस वालों की भी पिटाई करने में देर नहीं करते! पिछले दिनों पुलिस वालों पर हमले की घटनाएं बढ़ी है। इसके जवाब में गुंडों के खिलाफ रातों रात अभियान भी चला, लेकिन फिर ठंडा हो गया! 

  इंदौर में इन दिनों पुलिस पिट रही है। गुंडों के हौंसले इतने बुलंद हो चुके हैं कि वर्दी का खौफ उन पर कहीं नजर नहीं आता। पंद्रह दिनों में दो बार पुलिस की बुरी तरह पिटाई के बाद एक बार फिर अधिकारी जागे और गुंडा विरोधी अभियान शुरू किया। पुलिस के ऐसे अभियान नए नहीं हैं, यदि कुछ नया है तो वह है पुलिस की पिटाई। करीब पंद्रह दिन पहले किसी शिकायत पर देर रात विवाह समारोह में शोर मचाते डीजे को बंद कराने पहुंचे पुलिसकर्मी को गुंडों ने इतना पीटा था कि उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। इसके बाद परदेशीपुरा में सड़क पर चाकू लेकर घूम रहे दो गुंडों को पकड़ने पहुंचे दो आरक्षकों को दोनों गुंडों ने जमकर पीटा। एक आरक्षक का सिर फोड़ दिया। उसे गंभीर चोटें आई हैं। इसके बाद अधिकारी जागे और देर रात गुंडा विरोधी अभियान शुरू किया गया। लिस्टेड गुंडों के घरों पर दबिश दी गई और उन्हें बाहर निकालकर पीटा गया। इसके बाद उन्हें थाने पहुंचाया।
   सामान्यतः गुंडे कभी पुलिस पर हमला नहीं करते, भले ही कोई कितना भी बड़ा गैंगस्टर हो! क्योंकि, उन्हें पता है कि यदि पुलिस से पंगा लिया तो बहुत भारी पड़ेगा। इंदौर में अधिकारियों और पुलिसकर्मियों की बहुत बड़ी फौज है। कई नवआरक्षकों के चेहरे सड़कों पर दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर पुलिस क्यों पिट रही है? ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब अधिकारी नहीं दे पा रहे हैं, लेकिन जनता जानती है और उसके पास जवाब भी मौजूद है। आम लोगों का कहना है कि पुलिस अब जनता से दूर हो चुकी है। थाना प्रभारी हो या उसके ऊपर के स्तर के अधिकारी लोग किसी को नाम या चेहरे से नहीं जानते। इसका खामियाजा जनता को भी भुगतना पड़ता है। जब कोई परेशानी हो, तो किसके पास जाएं! थाने जाओ तो वहां मौजूद स्टाफ आवेदन लेकर चलता कर देता है। इसी बात का खामियाजा पुलिस को भी भुगतना पड़ रहा है। जनता से जो जरूरी सूचनाएं पुलिस तक पहुंचना चाहिए वे नहीं पहुंच पा रही हैं। मुखबिर तंत्र भी कमजोर होता जा रहा है।
  पुलिस विभाग में ही यह चर्चा आम है कि इंदौर में पोस्टिंग 'यूं हीं' नहीं मिलती है। दरअसल इस 'यूं हीं' ने ही मामला बिगाड़ रखा है। कुछ पुलिस वाले बरसों से थाने बदल बदलकर इंदौर में जमे हैं। यही कारण है कि यहाँ असामाजिक तत्वों को मदद मिलती रहती है। अपराधियों और पुलिस के बीच के गठजोड़ में राजनीति की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन इसका हल भी पुलिस के पास ही है। यही कारण है कि इंदौर में पुलिस की फ़ौज इतनी बड़ी फ़ौज है, पर उनकी मौजूदगी का अपराधों पर असर नजर नहीं आता। आश्चर्य है कि पुलिस फौज होने के बावजूद लोग गली-कूचे के मामूूली गुंडों से खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं और अब तो पुलिस भी पिट रही है।
   इंदौर में बढ़ते अपराध और पुलिस की पिटाई से जुड़ा मुद्दा है नाइट्रावेट का नशा! शराब में दवाई मिलाकर नशाखोरी करने वाले बदमाश सुरूर में सब भूल जाते हैं कि जिसपर वो हमला कर रहे हैं, वो कौन है! सामान्यतः शराबी भी पुलिस की वर्दी पहचानता है। सड़क झूमते हुए उसे जब किसी शराबी को खाकी वर्दी वाला दिख जाता है तो उसकी चाल ही बदल जाती है। लेकिन, जब शराब में नाइट्रावेट की गोली मिला दी जाती है तो दिमाग शून्य हो जाता है। पिछले करीब पाँच सालों में इंदौर में नाइट्रावेट का नशा करने वालों की संख्या बढ़ने से अपराध भी उसी गति से बढे हैं। हर साल कम से कम दो बड़ी घटनाएं नाइट्रावेट के नशेबाज करते हैं। अभी कुछ दिन पहले भी चार बदमाशों ने नाइट्रावेट का नशा करने के बाद दोपहर 2.20 से शाम 4.45 बजे तक करीब सवा तीन घंटे तक इंदौर के छोटा बांगड़दा से लसूड़िया तक जमकर आतंक मचाया। एक व्यवसायी की हत्या कर दी, तीन को चाकू मारे। देर रात को पुलिस ने घेराबंदी करके इनमें से दो बदमाशों को पकड़ा।
     पूर्वी शहर के द्वारकापुरी समेत कुछ इलाकों में नाइट्रावेट के नशाखोरों ने कई बार रात में कारों के कांच फोड़ने की भी वारदातें की है। एक बार तो एक गली में रात में सड़क किनारे खड़े आठ चार पहिया वाहनों के कांच फोड़ दिए थे। इन बदमाशों ने वहां खड़ी दो एंबुलेंस के भी कांच फोड़ दिए। रहवासियों ने बताया कि बदमाशों ने सिर्फ तोडफ़ोड़ की। गाडिय़ों में से कोई सामान चोरी नहीं हुआ है, लोगों का मानना है कि नशेडिय़ों ने ये हरकत की है। लोगों का कहना हैं कि ये सब पुलिस की निष्क्रियता के कारण ही होता है। नाइट्रावेट का नशा करने वाले बदमाश सरेआम घूमकर चोरी और मारपीट की वारदातें करते रहते हैं। रात होते ही ये नशेड़ी मंडराने लगते हैं, उन पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती। पुलिस ने एक बार होटल लूटने की साजिश रचते हुए चार बदमाशों को पकड़ा था। ये सभी नाइट्रावेट और शराब के नशे में 12 महिलाओं से चेन लूट चुके थे।
   नाइट्रावेट और अपराध का रिश्ता कितना गहरा गया है, इसका सबूत ये है कि इंदौर के पुलिस रिकॉर्ड में तो एक बदमाश का नाम ही मनोज नाइट्रा दर्ज है। जो लम्बे अरसे से जेल में था। जब छूटा तो फिर अपराध करने लगा और पिछले साल ही उसने नशे में पीथमपुर में एक हत्या करके पुलिस को अपनी सक्रियता का इशारा दिया था। उसके खिलाफ दो दर्जन से ज्यादा अपराध इंदौर के थानों में दर्ज है तथा एक थाने के अपराध रिकॉर्ड में तो फरार है, जिस पर 5 हजार का इनाम घोषित है। इसका नाम मनोज नाइट्रा पड़ने के का कारण है कि वो नाइट्रावेट गोली का नशा करता है, और उसी नशे में राह चलते लोगों को चाकू मारकर अपना शिकार बनाता है।
   डिप्रेशन, तनाव दूर करने, खांसी ठीक करने दवा और नींद की गोलियों को शराब के साथ मिलाकर नशा करने की बढ़ती प्रवृत्ति खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है। इस नशे के बाद बदमाश राह चलते लोगों पर अंधाधुंध वार करते हैं, जब तक उनका नशा उतरता है तब तक लोग या तो जान गंवा चुके होते हैं या गंभीर हालत में होते हैं। इंदौर में प्रशासन ने बगैर डॉक्टर की पर्ची के इन दवाओं की बिक्री पर रोक लगा रखी है, लेकिन चोरी-छुपे ये आसानी से बिक रही हैं। नाइट्रावेट अवसाद के मरीजों की दवा है। इसका इस्तेमाल मरीजों की घबराहट दूर करने में होता है, लेकिन अपराधियों के हाथ लगने के बाद इससे लोगों की घबराहट बढ़ाने लगी है।
   यह मूलतः नींद की गोली है। इसे लेने के बाद मरीज को खुशनुमा अहसास होने लगता है। क्योंकि, अवसाद के मरीज को अज्ञात भय सताता है कि सबकुछ खत्म हो गया! छोटी सी घटना से भी उसे घबराहट होने लगती है, लेकिन इस गोली के इस्तेमाल के बाद मरीज का डर दूर हो जाता है। लेकिन, नाइट्रावेट की गोली को शराब में मिलाकर इस्तेमाल करने से इसका असर तेजी से बढ़ता है। ऐसे नशाखोरों का डर खत्म हो जाता है और उसकी प्रवृत्ति हिंसक हो जाती है। उसे लगता है कि वह जो भी कर रहा है सही है। ऐसी स्थिति में वह बगैर सोचे हमले शुरू कर देता है। अब ये सरकार, प्रशासन और पुलिस के हाथ में है कि नशाखोरों को नाइट्रावेट से दूर रखे या फिर अपनी और जनता की सुरक्षा पुख्ता इंतजाम करे।
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Tuesday, May 23, 2017

फिल्मों को इस नजरिए से तो मत देखिए!

- हेमंत पाल
   बॉलीवुड कभी सम्प्रदायों में बंट सकता है, ये शायद किसी ने कभी नहीं सोचा होगा। लेकिन, धीरे-धीरे ऐसा बदलाव आ भी गया! बड़े परदे के तीन खानों की सल्तनत को जब 'बाहुबली' से शह मिली तो उसे हिंदूवादी नजरिए देखा गया। 'बाहुबली' श्रृंखला की दूसरी फिल्म की जबरदस्त सफलता को उसके प्रोडक्शन, एक्टिंग और कल्पनातीत दृश्यों के अदभुत फिल्मांकन के बजाए उसे हिंदू माइथोलॉजी से जोड़कर देखा गया। श्रृंखला की पहली फिल्म में हीरो प्रभाष के शिवलिंग उठाने के दृश्य को लेकर जो चर्चा चली थी, उसे फिल्म के सीक्वेल की सफलता ने और हवा दे दी।
  हिंदू कट्टरपंथी लंबे समय से बॉलीवुड में तीन खानों के राज से खुश नहीं थे। लगता है उनको फिल्मी दुनिया की धर्मनिरपेक्षता रास नहीं आ रही! यही कारण है कि 'बाहुबली-2' की सफलता ने उन्हें हिंदू जश्न मनाने का मौका दे दिया। फ़िल्मी दुनिया में कभी किसी एक्टर या एक्ट्रेस के धर्म को मुद्दा बनाकर उसकी फिल्मों का मूल्यांकन किया गया हो, ऐसा नहीं हुआ। दिलीप कुमार और मीना कुमारी जैसे नामी एक्टर और एक्ट्रेस मुस्लिम रहे, पर कभी इस बात को मुद्दा बनाकर उनकी फ़िल्में नहीं देखी गई! नब्बे के दशक तक न तो ऐसा सोच भी नहीं था, शायद इसलिए कि तब ये हिंदू कट्टरपंथी कम थे और इन्हें समाज की मुख्यधारा का हिस्सा भी नहीं माना जाता था। याद किया जाना चाहिए कि जब ऋतिक रोशन की फिल्म 'कहो न प्यार है' ने कामयाबी के झंडे गाड़े, तब संघ परिवार ने एक हिंदू सितारे के उदय का जश्न मनाया था।
  वो समय आडवाणी की रथयात्रा, बाबरी मस्जिद के ढहने और मुंबई के दंगों और बम धमाकों के बाद का दौर था। देश सामाजिक उथल-पुथल से गुजर रहा था। लेकिन, तब भी हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने फिल्मों और एक्टरों को हिंदू-मुस्लिम के खांचे में बांटकर देखने की शुरुआत नहीं की थी। 2006 में जब आमिर खान ने नर्मदा बचाओ आंदोलन को लेकर अपनी राय रखी, तब से वे संघ परिवार के निशाने पर आ गए। गुजरात में उनके पुतले जलाए गए और उनकी 'फना' फिल्म का प्रदर्शन रोका गया। 2010 में आईपीएल से पाकिस्तानी खिलाड़ियों को अलग रखने का विरोध करके शाहरुख खान, शिवसेना का निशाना बन गए!
  सोशल मीडिया पर उस वक्त तूफान सा आ गया जब आमिर खान और शाहरुख खान ने देश में बढ़ती असहिष्णुता पर चिंता जताई थी। सोशल मीडिया के हिंदूवादी पैरोकार इन सितारों खिलाफ खड़े हो गए थे। इनकी नीयत पर बहस छेड़ दी गई थी। इसके बाद फिल्मों को धर्म के चश्मे से देखना भी शुरू किया जाने लगा। 'ओह माय गॉड' और 'पीके' को हिंदू विरोधी कहा गया। वे कथित हिंदूवादी जो फिल्मीं कथानक को एक्टर से जोड़कर देखते हैं, उन्हीं ने हाल ही में शाहरुख खान की 'रईस' और ऋतिक रोशन की 'काबिल' में इसलिए मुकाबला करवा दिया था कि एक फिल्म का एक्टर मुस्लिम था, दूसरी का हिंदू! संघ लॉबी ने सोशल मीडिया पर तो मुहिम ही छेड़ दी थी। लेकिन, सही दर्शक तब भी नहीं बंटे और दोनों फ़िल्में हिट हुई। इन कट्टरपंथियों के पसंदीदा हीरो हैं ऋतिक रोशन, अजय देवगन और अक्षय कुमार! हालांकि, सलमान खान कभी हिंदूवादियों के नफरत भरे अभियान का शिकार नहीं हुए। इसका कारण उनका पारिवारिक बैकग्राउंड भी माना जा सकता है।
  फिल्मों में हिंदूवाद की बात को तब ज्यादा हवा मिली, जब पाकिस्तानी दर्शकों ने 'बाहुबली-2' को इसलिए नकार दिया। वहां फिल्म कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई! जबकि, पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों का अच्छा खासा बाजार है। फिल्म के पाकिस्तान में अच्छा बिजनेस न कर पाने के पीछे फिल्म के साथ हिंदू-टैग को जिम्मेदार माना जा रहा है। पाकिस्तान के फिल्म जानकार फिल्म की तारीफ तो कर रहे हैं, लेकिन वे फिल्म के हिंदू माइथोलॉजी से प्रभावित होने और हिंदू कल्चर को बढ़ावा देने से खुश नहीं लगते! देखा जाए तो मनोरंजन के नजरिए से ये दौर बहुत खतरनाक सुरंग है, जहाँ से जल्दी निकलना ही होगा।
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Friday, May 19, 2017

लोगों को नाकारा बना देगी, 5 रुपए की सरकारी थाली!

- हेमंत पाल 


   तमिलनाडु में पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता द्वारा चलाई गई 'अम्मा कैंटीन' की तर्ज पर मध्यप्रदेश सरकार ने भी 'दीनदयाल रसोई योजना' की शुरुआत 7 अप्रैल से कर दी गई। इसके तहत गरीबों को 5 रुपए में एक थाली भोजन मिल रहा है। यह योजना प्रदेश के सभी जिला मुख्यालय में चल रही है। ये तो हुई गरीबों के प्रति सरकार की संवेदना वाली बात! लेकिन, असल सवाल कुछ और ही हैं! क्या वास्तव में इस योजना का लाभ उन गरीबों को मिल रहा है, जिनके लिए ये शुरू की गई है! इस योजना का नकारात्मक पक्ष ये भी है कि आसानी से इतना सस्ता भोजन मिल जाने से क्या लोग नाकारा नहीं हो जाएंगे? जब गरीबों को खाने का पैसा बचने लगेगा तो क्या वे व्यसन के आदी नहीं हो जाएंगे? इससे भी बड़ा सवाल ये कि नियोजित धनराशि के अभाव में ये योजना कब तक चल सकेगी? क्या सिर्फ राजनीतिक वाह-वाही लूटने के लिए किसी सरकार को ऐसी योजनाएं संचालित करना चाहिए? जाने-माने रंगकर्मी और नुक्कड़ नाटककार सफ़दर हाशमी के एक नाटक का संवाद था 'पेट भरने के बाद जो रोटियां बच जाती हैं, वो शराब का काम करती हैं।' वास्तव में 5 रुपए की सरकारी थाली गरीबों के लिए कुछ ऐसा ही न करे!   
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   मध्यप्रदेश में 'दीनदयाल अंत्योदय रसोई' योजना के अंतर्गत 5 रुपए में एक थाली भोजन दिया जा रहा है। देश में इस तरह की योजना सबसे पहले तमिलनाडु में पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता ने ‘अम्मा कैंटीन’ के नाम से शुरू की थी, जिसे काफी सराहा भी गया था। इसी तर्ज पर मध्यप्रदेश सरकार ने लोकलुभावन ‘दीनदयाल रसोई योजना’ की शुरुआत की! अब तो उत्तरप्रदेश और पंजाब में भी ऐसे ही सरकारी भंडारे शुरू हो गए! मध्यप्रदेश सरकार का इस तरह की रसोई खोलने का मकसद शहरों में गांवों और दूसरे राज्यों से आए मजदूरों और गरीबों को सस्ते में एक वक़्त का खाना उपलब्ध कराना है। शुरू में यह योजना 51 में से 49 जिलों में शुरू की गई थी। भिंड और उमरिया जिले में विधानसभा उपचुनाव के कारण इसे बाद में शुरु किया गया। कहा गया कि इसके माध्यम से न सिर्फ कम कीमत पर पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध है, बल्कि इससे समाज को अपना दायित्व निभाने का अवसर भी मिलेगा। यानी योजना में चंदा देकर लोग पुण्य कमा सकते हैं। ये राशि सीधे बैंक खाते में जाएगी।
  इस योजना की व्यवस्था की निगरानी जिला स्तरीय समन्वय समिति को सौंपी गई है। समिति में अधिकारियों के अलावा अनाज व्यापारी संघ तथा सब्जी मंडी एसोसिएशन के अध्यक्ष भी सदस्य होंगे। इन रसोई केन्द्रों को गेहूं और चावल एक रुपए प्रति किलो की दर से उचित मूल्य की दुकान से मुहैया करवाया जाएगा। पानी तथा बिजली की व्यवस्था नगर निगम नि:शुल्क करेगी। केन्द्रों की स्थापना मुख्यमंत्री शहरी अधोसंरचना योजना से की गई है। ये तो वो ख्याली पुलाव हैं जो सरकार ने पकाए हैं! पर, लगता नहीं कि ये योजना अपने शुरुवाती स्वरुप में ज्यादा दिन चल सकेगी। सरकार का ये कदम महज अपना मानवीय चेहरा सामने रखने से ज्यादा कुछ नहीं है। ये कोशिश भी इसलिए कि उसे दूसरे राज्यों से अलग समझा जाए। प्रदेश के वित्तमंत्री जयंत मलैया ने जब वर्ष 2017-18 के लिए बजट पेश किया था, तभी शहरी गरीबों के लिए बजट में 5 रुपए में भोजन, विधवा महिलाओं के लिए पेंशन जैसे कई लोकलुभावन वादे शामिल किए थे। ‘दीनदयाल रसोई योजना’ के तहत शहरी गरीबों को पांच रुपए में भोजन की थाली के अधोसंरचना निर्माण के लिए बजट में 10 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। 
  आज स्थिति यह है कि मध्यप्रदेश खैराती प्रदेश बनकर रह गया। मुक्त हस्त से कई तरह की पेंशनें बांटी जा रही है। गरीबों को एक रुपए में गेहूँ, चांवल मिल रहा है। किसानों को मुआवजे बांटने में देर नहीं की जाती। महिलाओं और कन्याओं के नाम पर तो खजाने खुले हैं। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों को भी मुफ्तखोरी करने का पूरा मौका दिया जा रहा है। मजदूरी करने वालों की मजदूरी भी लगातार बढ़ रही है। अब इसी श्रृंखला में 5 रुपए में भोजन दिए जाने की योजना ने गरीबों की अकर्मण्यता को और ज्यादा बढ़ा दिया। जब उनकी कमाई बढ़ेगी, पर खर्च कम होगा तो उनमें व्यसन की आदत बढ़ेगी। पैसा जेब में होगा तो वे शराब आदी होने लगेंगे या फिर कोई और नशा करेंगे। सरकार दिव्यांगों, वृद्धों, असहायों और विधवाओं को पेंशन दे और उनके उद्धार के लिए योजनाएं बनाए तो सरकार की कोशिशें सही दिशा में उठाया कदम लगती है। असहायों की सहायता सरकार का कर्तव्य भी है और ये किया भी जाना चाहिए। लेकिन, गरीबों की मदद के नाम पर उन्हें नाकारा बना देना, ये सही फैसला कैसे हो गया?  
  सरकार हाथ खोलकर खैरात तो बाँट रही है, पर उसके उत्तरोत्तर नतीजों को नहीं देख रही। युवाओं को रोजगार के बजाए बेरोजगारी पेंशन देने तक का वादा किया गया था। ऐसा करके लोगों को नाकारा बना देना स्वावलंबन तो कतई नहीं है। राजनीतिक स्वार्थ के लिए लोगों को नाकारा बनाने की शुरुवात 2013 से ही हो गई थी, जब प्रदेश सरकार ने गरीब परिवारों को एक रुपए प्रति किलो के भाव से गेहूं दिए जाने की घोषणा की थी। ये योजना भी दक्षिणी राज्यों से आयातीत थी। तब मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को निर्देश दिए थे कि गरीब परिवारों को जून 2013 से दो रुपए किलो चावल, एक रुपए किलो गेहूं और एक रुपए किलो आयोडीनयुक्त नमक उपलब्ध कराने की सभी जरूरी तैयारियां पूरी की जाएं। यदि संभव हो तो जरूरतमंद परिवारों की सहूलियत के लिए एक साथ सौ किलो गेहूं, चावल देकर के भंडारण के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। इसके बाद अब 5 रुपए में खाना देकर सरकार क्या करना चाहती है, ये समझ से परे है। सरकार  संवेदनशील होना अच्छा है, पर लोकलुभावन फैसलों के नतीजों का अनुमान लगाया जाना भी बहुत जरुरी है। 
   2013 में केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने संसद में 'फूड सिक्यॉरिटी बिल' पारित करवा दिया था। इस बिल के पारित होने के बाद देश की दो तिहाई आबादी को हर महीने सस्ते अनाज पाने का हक मिल गया! इस फूड बिल से देश की 82 करोड़ आबादी को सस्ते आनाज का फायदा मिल गया। कहा गया था कि दुनियाभर में भूख के खिलाफ लड़ाई में भारत का यह सबसे सही प्रोग्राम है। यदि वास्तव में ऐसा था तो आज 4 साल बाद देश में भुखमरी जैसी समस्या ही नहीं होना थी! लेकिन, फ़ूड बिल के बाद भी लोग भूख से मर ही रहे हैं। मुद्दे की बात तो ये है कि क्या फ़ूड बिल, एक रुपए किलो में गेहूँ, चांवल और 5 रुपए में भोजन की थाली परोसकर देने से क्या गरीबी दूर हो जाएगी? क्या हर गरीब की भूख मिट जाएगी और क्या ये किसी समस्या का स्थाई हल हो सकता है? 
  अब जरा ये भी जान लिया जाए कि 'दीनदयाल रसोई' में वास्तव में गरीब ही भोजन कर रहे हैं या यहाँ मुफ्तखोरी करने वालों का भी जमघट लगने लगा है। भिंड के एक बिजली लाइनमेन ने तो घर से लाए टिफिन का खाना ही जब छोड़ दिया तो पत्नी ने सच्चाई पता लगाई! उसे आश्चर्य हुआ कि उसका पति 'दीनदयाल रसोई' में 5 रुपए में खाना खा रहा है। घर से पत्नी जो खाने का टिफिन देती वो भरा हुआ लौटता! बाद में पत्नी ने इस पर रोक लगाई। ख़बरें बताती है कि इस रसोई में 5 रुपए देकर खाने वालों में संपन्न और सरकारी नौकरी में पदस्थ लोग भी पहुंचते हैं। कई लोग शराब, गांजा, स्मैक का नशा करके भी यहाँ खाने पहुँचने लगे हैं। ये लोग विवाद भी करते हैं, जिससे कई जगह व्यवस्था बिगड़ने की भी ख़बरें आने लगीं!  
 पांच रूपए में गरीबों के लिए चलाई गई इस भोजन योजना का फ़ायदा गरीबों के अलावा सम्पन्न तबका और स्कूल ,कॉलेज के छात्र भी उठाने लगे हैं। एक कस्बे में सामाजिक सम्मेलन के दौरान करीब साढ़े सात सौ लोगों ने इस रसोई सेंटर में पांच रूपए की थाली से अपना पेट भरा। वास्तव में जिस मकसद से सरकार ने इस योजना को शुरू किया है, उसका लाभ गरीब कम और सम्पन्न लोग ज्यादा उठाते नजर आ रहे हैं। जिसके चलते भोजन व्यवस्था का जिम्मा संभालने वाली संस्थाओं को परेशानी आएगी। क्योंकि, इस सरकारी रसोई में किसी के खाने पर कोई पाबंदी तो है नहीं! गरीब सस्ता खाकर अकर्मण्य तो बनेंगे ही, सम्पन्नों की भी आदत बिगड़ जाएगी!
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Saturday, May 13, 2017

गीतों से जागी अलख ने इंदौर को बनाया देश का सबसे साफ़ शहर!

- हेमंत पाल 
  जब भी गीत, संगीत और फिल्मों के अवार्ड्स का मौसम आता है तो अकसर बातचीत में जिक्र होता है कि इस साल कौनसा गीत सबसे ज्यादा सुना गया या कौनसी फिल्म सबसे ज्यादा पसंद की गई! इस साल इंदौर में सोशल मीडिया पर ये जोक्स खूब चला कि इंदौर में सबसे ज्यादा सुना जाने वाला गीत वो है जो कचरा इकट्ठा करने वाली गाड़ियों में अलसुबह से देर रात तक बजता सुनाई देता है। बात सही भी है। इस गीत को सुन-सुनकर लोग भले ही बोर हो चुके हों, पर कैलाश खेर और शान के गाये इन दो गीतों ने इंदौर में सफाई के प्रति लोगों को जागरूक तो किया! सफाई के मामले में आज इंदौर देश में नंबर-वन जरूर है, पर ये सब आसान नहीं था। ‘स्वच्छ सर्वेक्षण 2017’ के तहत 434 शहरों की स्वच्छता रैंकिंग में पहली पायदान पर इंदौर का पहुँचना कड़ी मेहनत का नतीजा है। इसे सिर्फ सरकारी डंडे का भी कमाल नहीं कहा जा सकता! सफाई इंतजामों में लगे कर्मचारियों के अलावा इसका श्रेय हर इंदौरी के खाते में भी जाता है। लेकिन, स्वच्छ इंदौर का श्रेय लेने में भी राजनीतिक किस्सों की कमी नहीं है। कुछ नेता खुद ही इसका मैडल गले में डालने का मौका नहीं छोड़ रहे। 
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    इंदौर कभी इतना साफ़ हो सकता है कि उसे देश में सबसे ज्यादा साफ़ शहर का तमगा मिल जाए, ये बात कुछ साल पहले तक ये बात गले नहीं उतरती थी। सड़कों के किनारे लगे कचरे के ढेर, सड़क पर उड़ती पॉलीथिन, धूल और पेड़ों से गिरे सूखे पत्तों से भरी सड़कें शहर की पहचान बन गई थीं। इसके अलावा जो गंदगी होती है, उसके तो क्या कहने! लेकिन, सफाई का काम तब भी होता था, पर सिर्फ दिखावे के लिए! इसके बाद एक दौर ऐसा भी आया जब किसी बाहरी एजेंसी को साफ़-सफाई का जिम्मा सौंपा गया! नगर निगम के फैसले का बहुत हो-हल्ला हुआ! नई-नई गाड़ियों शहर में दिखाई देने लगी। लेकिन, कुछ दिनों बाद ये सब भी ढोंग निकला। शहर का कचरा उठा नहीं और एजेंसी का बिल बढ़ता गया। कुछ इलाकों में सफाई की पुरातन जागीरदारी प्रथा तब भी चलती रही। लेकिन, इसके बाद का परिदृश्य एकदम बदला! खुद नगर निगम ने ही सफाई की जिम्मेदारी अपने हाथ में ली! निगम आयुक्त ने इसे मुहिम तरह लिया और सिलसिला चल पड़ा! एक वार्ड में घर-घर से कचरा इकट्ठा करने का जो प्रयोग शुरू किया, कुछ महीनों में वो पूरे शहर में फ़ैल गया।
    किसी शहर की सफाई व्यवस्था का गीत-संगीत से क्या सीधा संबंध हो सकता है! इस सवाल का जवाब देने में किसी को शायद वक़्त लगे, किंतु इंदौर के लोग जानते हैं कि ये जागरूकता फैलाने का सबसे बड़ा माध्यम बना! शहर के हर घर के दरवाजे से कचरा इकट्ठा करने के लिए सुबह से देर रात तक चलने वाली साढ़े तीन सौ से ज्यादा गाड़ियों पर बजते दो खास गीतों ने इंदौर को देश का सबसे साफ शहर बनाने में अहम भूमिका निभाई है। कुछ महीनों से तो सुबह लोगों की आँख इन्हीं गीतों को सुनकर खुलती है। शहर को स्वच्छ रखने के लिए ये गाड़ियां गली-मोहल्लों और सड़कों के फेरे लगाती रहती हैं। धीमी गति से गली-गली में घूमती और घर के सामने रूकती इन गाड़ियों में बजता कैलाश खेर का गाया ‘स्वच्छ भारत का इरादा कर लिया हमने’ और शान की आवाज में ‘हल्ला-हो हल्ला ... इंदौर को स्वच्छ बनाना है, अब हमने ये ठाना है’ बजता रहता है। बच्चों से लेकर बड़ों तक को इन दोनों गीतों के बोल रट गए हैं।
  इन ‘सुरीले’ सफाई वाहनों के चलाए जाने के पीछे एक व्यावहारिक कारण है, जिससे देश के कई छोटे-बड़े शहर जूझ रहे हैं। समस्या ये थी कि लोग अपने घरों से रोज निकला कचरा कहाँ फेंके? क्या सड़कों किनारे लगी कचरा पेटियों डालें या किसी खाली पड़ी किसी जमीन पर? अभी तक यही हो भी रहा था! इसी का हल इन गाड़ियों से निकला, जिनसे घरों का कचरा जमा करके सीधे शहर बाहर ट्रेंचिंग ग्राउंड में फेंका गया! लोगों को गाड़ियों के आने की सूचना मिल जाएं, इसके लिए उनमें गाने बजाये जाने लगे! जब सड़कों के किनारे रखी कचरा पेटियां हटा दी गईं, तो लोगों के लिए कचरा गाड़ियों में डालना मज़बूरी हो गया! लेकिन, परंपरागत मेहतर व्यवस्था ने इसमें भी रुकावटें डालीं, पर प्रशासन अडिग रहा तो धीरे-धीरे सब ठीक होता चला गया। देशभर में इंदौर के सबसे स्वच्छ शहर होने कहानी इसलिए भी मायने रखती है कि पिछले साल देश के स्वच्छता सर्वेक्षण में इंदौर 25वें नंबर पर था। साल 2011-12 में सफाई के मामले में शहर 61वें स्थान पर था। करीब सवा दो साल बाद अब इंदौर ने स्वच्छता के मामले में जो मिसाल पेश की है, उसे उल्लेखनीय माना जा सकता है।
    कचरे की समस्या से निपटने के अलावा खुले में शौच की लोगों की आदत से शहर को मुक्त कराना भी आसान नहीं था। नगर निगम ने इसके लिए दो साल पहले अभियान छेड़कर लोगों में सफाई के प्रति जागरूकता फैलाई। साढ़े 12 हज़ार सिंगल शौचालय बनाए गए। 174 सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालयों की हालत सुधारी गई दुरस्त की गई और 17 चलित शौचालयों का इंतजाम किया गया। दो साल में सुलभ इंटरनेशनल संस्था की मदद से 61 नए सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालयों बनाए गए। इसी सब का नतीजा था कि केंद्र सरकार ने जनवरी में इंदौर के शहरी क्षेत्र को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया। नगर निगम ने सैकड़ों कर्मचारियों और मशीनों से सफाई व्यवस्था को सुचारू बनाने में बड़ा योगदान दिया है। सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट पर भी इंदौर में काम हुआ। शहर और जिला दोनों ही खुले में शौच मुक्त हो चुके हैं। शहरी व ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित किया गया।
  इंदौर में साफ़-सफाई की ये बड़ी उपलब्धि भी राजनीति से मुक्त नहीं रह सकी। शहर के पूर्व महापौर कृष्णमुरारी मोघे ने इसका श्रेय सफाई कर्मचारियों को देते हुए इसे अपने कार्यकाल से जोड़ने में भी संकोच नहीं किया। फिलहाल वे मप्र गृह निर्माण मंडल के अध्यक्ष हैं।इंदौर को मिली राष्ट्रीय स्तर की उपलब्धि पर उनका कहना था कि जब मैं महापौर बना था, तब साफ़-सफाई के मामले में इंदौर का नंबर देश में 271वां था। मैंने सफाई व्यवस्था में सुधार किया। जिसका नतीजा यह रहा कि इंदौर देश में 25वें स्थान पर पहुंच गया। वे यहीं नहीं रुके और कहा कि शहर को देश में पहले स्थान तक पहुंचाने में सफाईकर्मियों का बड़ा योगदान है। उनका नागरिक अभिनंदन किया जाना चाहिए।
   यहाँ तक तो ठीक है पर मोघे जो बोल रहे है उसमें कितनी सच्चाई है, ये भी परखा जाना चाहिए। कृष्णमुरारी मोघे का महापौर पद का कार्यकाल 10 जनवरी 2015 को समाप्त हुआ था। 2014 मे इंदौर 149वें स्थान पर था। वर्तमान महापौर मालिनी गौड़ ने फरवरी 2015 में शपथ ली। इसके बाद सर्वे के जो नतीजे आए उसमें इंदौर को 61वां स्थान मिला। 2016 में इंदौर 25वें स्थान पर तथा 2017 में देश में पहले स्थान पर आया! दरअसल, सफाई एक निरंतर प्रक्रिया है, जिसमें सुधार किए जाते रहना चाहिए। लंबे समय से किए जा रहे प्रयासों का ही नतीजा है कि आज साफ़-सफाई में इंदौर शिखर पर पहुँच गया। लेकिन, अब कैलाश खेर और शान के उन गानों को बदला जाना जरुरी हो गया! क्योंकि, अब 'इंदौर स्वच्छ बनाना है ... अब हमने ये ठाना है!' ये बात अब मौजूं नहीं है। इंदौर तो अब स्वच्छ हो गया अब तो इसे 'ग्रीन शहर' बनाना है।
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Saturday, May 6, 2017

सिक्कों की खनक से करोड़ों के कारोबार की दुनिया

हेमंत पाल 

  फिल्म बनाना कभी एक बड़ा कारोबार बन सकता है, ये शायद तब नहीं सोचा गया होगा जब फ़िल्में बनना शुरू हुई थी। आजादी से पहले ये लोगों में क्रांति की अलख जगाने, धार्मिक कहानियाँ बताने और समाज सुधार के लिए किया जाने वाला प्रयास भर था। आजादी के बाद लम्बा वक़्त ऐसी फ़िल्में बनाने में बीता जिसमें आजादी के आंदोलन से जुड़ी कहानियां थीं। इसी दौर में समाज सुधार की बातें भी फिल्मों में दिखाई देने लगीं। लेकिन, तब भी ये पूरी तरह कारोबार नहीं बन सका। फ़िल्मकार की लागत निकल जाती तो उसे लगता सब मिल गया! लेकिन, इस दौर में भी दादा साहेब फालके की धार्मिक फिल्म 'लंका दहन' ने कमाई का डंका बजाया था। दर्शकों के टिकट से मिले सिक्कों को बैलगाड़ियों में लादकर तक लाना पड़े थे। लेकिन, धीरे-धीरे सिनेमा को सपनों की दुनिया में बदलते देर नहीं लगी। सत्तर के दशक से सिल्वर और गोल्डन जुबली का सिलसिला चल पड़ा। 25 हफ्ते यानी 6 महीने फिल्म चली तो सिल्वर जुबली और 50 हफ्ते चली तो गोल्डन जुबली। अब तो वो सब भी पुरानी बात हो गई! अब फ़िल्मी कारोबार को हफ़्तों में नहीं करोड़ों की कमाई में गिना जाता है। जो फिल्म 100 करोड़ का कारोबार कर ले, वही सफलता की सीढ़ी पर चढ़ी फिल्म मानी जाती है। 
  ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से बात शुरू करें तो 1943 में आई बॉम्बे टॉकीज़ की 'किस्मत' को उम्मीद से ज्यादा कमाई वाली फिल्मों में गिना जाता है। कोलकाता के एक ही सिनेमाहाल में ये बोल्ड फिल्म लगातार तीन साल चली। इसे हिंदी फिल्म इतिहास की पहली ब्लाक बस्टर भी कहा जाता है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता कि तब फिल्म ने एक करोड़ रुपये का बिजनेस किया था, जो आज के 65 करोड़ के बराबर है। 1949 में राज कपूर के निर्देशन में बनी 'बरसात' की सफलता ने आरके स्टूडियो की स्थापना की नींव डाली थी। फिल्म ने एक करोड़ 10 लाख का कारोबार करके छह साल पहले बनी 'किस्मत' का रिकार्ड तोड़ दिया था। राजकपूर की ही 1951 में बनी 'आवारा' ने भी कमाई का रिकॉर्ड बनाया था। अमेरिकी 'टाइम' मैगजीन की 'ऑल टाइम ग्रेट 100 फिल्म्स' की लिस्ट में यह 22वें नंबर पर है। इस फिल्म ने एक करोड़ 25 लाख का कारोबार करके अपने बैनर की ही पिछली फिल्म 'बरसात' का रिकार्ड ध्वस्त किया था। दिलीप कुमार के कॅरियर की सफल फिल्मों में 1952 में बनी 'आन' को गिना जाता है। इस फिल्म ने तब डेढ़ करोड़ की कमाई की थी।  
  1955 में बनी 'श्री 420' से राज कपूर और नरगिस की जोड़ी परवान चढ़ी। इस फिल्म के जरिए आरके फिल्म्स ने एक बार फिर अपनी सफलता का परचम लहराया। अपने समयकाल में 'श्री 420' ने दो करोड़ रुपए कमाए थे। लेकिन, 1960 में बनी 'मुगले आज़म' उस दौर की सबसे महंगी फिल्म थी और इसने कमाई भी अच्छी की! इस फिल्म ने पाँच करोड़ रुपए कमाए थे जिसका रिकॉर्ड टूटने में 15 साल लगे। लेकिन, 1974 में आई 'शोले' ने सफलता की इतनी लम्बी लकीर खींच दी थी, उससे आगे निकलने में फिल्मकारों को बरसों लग गए। न्यूयार्क टाइम्स जैसे नामचीन अखबार में इस फिल्म को हिन्दी फिल्म मेकिंग में क्रांतिकारी और पटकथा को लेखन में पेशेवर शुरुआत के तौर पर देखा। 65 करोड़ का कारोबार करने वाली ये फिल्म आज भी मील का पत्थर है। 
  इसके बार 1994 में आई राजश्री की 'हम आपके हैं कौन' की अपार सफलता ने 100 करोड़ रुपए के बिजनेस का ऐसा मापदंड स्थापित कर दिया कि आज हर फिल्म की सफलता को इसी पैमाने से आंका जाता है। इसके बाद तो धूम, ग़दर, गजनी ने बॉक्स ऑफिस पर कमाई का रिकॉर्ड ही बना डाला। लेकिन, 2009 में आई 'थ्री इडियट्स' ने 200 करोड़ कमाकर दिखा दिए। अब वक़्त था रिकॉर्ड टूटने का। 'पीके' ने इंडिया और ओवरसीज मिलाकर 792 करोड़ का बिजनेस किया। 'बाहुबली' सीरीज पहली फिल्म ने 540 करोड़ कमाकर दिखा दिए। लेकिन, हाल ही में रिलीज हुई 'बाहुबली-2' ने तो वो इतिहास रच दिया, जिसका कोई तोड़ नजर नहीं आता। इस फिल्म ने रिलीज के पहले दिन ही 120 करोड़ का कारोबार किया और हफ्ता बीतने से पहले ही देश और दुनिया में 810 करोड़ रुपए का टोटल कारोबार का आंकड़ा छू लिया। फिल्म ट्रेड के जानकार कहते हैं कि ये फिल्म एक हज़ार करोड़ से ज्यादा का बिजनेस कर सकती है। यानी अब 100 करोड़ क्लब के सदस्य भी इस फिल्म के आगे बौने दिखने लगे!
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Friday, May 5, 2017

कांग्रेस में अब बड़े बदलाव की जरुरत

- हेमंत पाल 
   तीन साल बाद कांग्रेस में फिर कायाकल्प की बात चल पड़ी। मध्यप्रदेश में लगातार तीन विधानसभा चुनाव हारने के बाद चौथे चुनाव में भी पार्टी हालत बहुत ज्यादा बेहतर नहीं लग रही! कांग्रेस यदि चौथा चुनाव हारना नहीं चाहती, तो उसे कुछ नया सोचना होगा। प्रदेश में दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की प्रतिभा का उपयोग जितना होना था, वो हो चुका! प्रदेश में कांग्रेस दो दशकों से जिन तीन-चार हाथों में कठपुतली बनी है, उनका वक़्त पूरा चुका! पार्टी के चिंतकों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि प्रदेश में पार्टी की सेकंड लाइन को आगे आने का मौका मिले! दिग्विजय सिंह के पास अब पार्टी को पुनर्जीवित करने का कोई नया फार्मूला होगा, ऐसा नहीं लगता! कमलनाथ से भी बहुत ज्यादा उम्मीद लगाना बेमानी होगी। क्योंकि, अभी तक उनकी राजनीति छिंदवाड़ा के दायरे से बाहर नहीं निकली। ज्योतिरादित्य सिंधिया की प्रतिभा को पिछले विधानसभा चुनाव में प्रचार प्रमुख बनाकर परखा जा चुका है। 

 सार्वजनिक रूप से भी स्वीकारा जाने लगा है कि प्रदेश में कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है। पार्टी में हालत में सुधार की सारी कोशिशें अब तक असफल रही है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बाद हुए उपचुनावों में भी भाजपा के हाथों कांग्रेस मात खा रही है। पहले झाबुआ लोकसभा उपचुनाव और हाल ही में अटेर विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस की जीत को मतदाताओं  में बदलाव नहीं माना जा सकता! क्योंकि, ये उम्मीदवार की अपनी व्यक्तिगत जीत रही, न कि कांग्रेस की। रणनीति बनाने में भी पार्टी पिछड़ने लगी है। कांग्रेस जो भी करना चाहती है, वो कहीं  प्रतिद्वंदी भाजपा के लिए फायदे की बात हो जाती है। लब्बोलुआब यही है कि कांग्रेस हाईकमान को मध्यप्रदेश के संदर्भ में वही तीन-चार पत्ते फैंटने की आदत छोड़ना होगी। यदि वास्तव में पार्टी को प्रतिद्वंदी के सामने मुकाबले में खड़ा करने की स्थिति में लाना है तो नए प्रयोग करना होंगे! थके और चुके नेताओं को जब तक घर नहीं भेजा जाएगा, किसी चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी होगा! 

   प्रदेश में कांग्रेस पूरी तरह तीन-चार नेताओं के इर्द-गिर्द सीमित हो गई! इस कारण सेकंड लाइन के नेताओं को आगे आने का मौका नहीं मिल रहा। जब भी पार्टी कोई बड़ा फैसला करती है, उसके सामने दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा कोई और सशक्त नाम नहीं होता! यही दावेदार होते हैं और यही पार्टी हाईकमान के सलाहकार भी बन जाते हैं! लम्बे समय से पार्टी ने इन नेताओं से हटकर कोई बड़ा फैसला किया हो, ऐसा नहीं लगा! जहाँ ये तीनों नेता सामने दिखाई नहीं देते, वहाँ परदे के पीछे इनकी राजनीति होती हैं। प्रदेश के सभी कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता भी मज़बूरी में इन तीनों के खेमों में बंटकर रह गए! जो इसके गुट से बाहर हैं, वो इसलिए खामोश है कि उसे बागी न मान लिया जाए! पूर्व मंत्री और सांसद सज्जन वर्मा ने सोनिया गाँधी को हाल ही में एक चिट्ठी लिखकर उन्हें अपनी व्यथा बताई है। उन्होंने इस चिट्ठी में अपनी बात कही हो, पर ये हर कांग्रेसी की पीड़ा है। इसके बाद भी पार्टी हाईकमान का मन बदलेगा, इस बात के आसार कम हैं! अब वो हालत आ गई, जब कांग्रेस हाईकमान को नए चेहरों पर दांव लगाना होगा। 
   यहाँ मुद्दा किसी नेता की राजनीतिक योग्यता की कसौटी का नहीं है। सारा मसला पार्टी में पसरी उस गुटबाजी का है, जो प्रदेश में कांग्रेस को एक नहीं होने दे रही! इसका फ़ायदा भाजपा उठाती है और पार्टी में सेंध लगाने में सफल हो जाती है। पूरे देश में कांग्रेस के लगातार कमजोर होने से पार्टी हाईकमान के लिए इस तिकड़ी की बात मानना मज़बूरी बन जाता है। मामला पार्टी में बनते-बिगड़ते समीकरणों तक ही सीमित नहीं है। प्रदेश में आज की स्थिति में ये भी आकलन करना होगा कि आज मध्यप्रदेश में कांग्रेस जिस मुकाम पर है, क्या वो भाजपा और शिवराजसिंह के लिए चुनौती बन सकती हैं?
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कांग्रेसियों को कैसे हजम होगी, महेश जोशी की कड़वी दवा?

हेमंत पाल 
  मध्यप्रदेश में कांग्रेस के पुराने नेताओं को फिर सक्रिय राजनीति में लाने की कोशिशें हो रही है। कम से कम पार्टी के पुराने चांवल कहे जाने वाले इंदौर के महेश जोशी में अचानक आए उभार से तो यही लगता है। करीब-करीब राजनीतिक अज्ञातवास में चले गए जोशी फिर मैदान में दिखाई दिए! आते ही उन्होंने अपने परिचित अंदाज में जो कहा वो उनकी सक्रियता के साथ उनकी प्रतिबद्धता में बदलाव का भी इशारा है। वे दिग्विजय सिंह के खिलाफ खुलकर बोले! कमलनाथ को लेकर भी वे बहुत ज्यादा आशांवित नहीं लगे! पर, ज्योतिरादित्य सिंधिया में उन्हें संभावनाएं नजर आई! प्रदेश में पार्टी को नए सिरे से फिर खड़ा करने का जिन्हें दायित्व सौंपा गया है, उनमें एक वे भी हैं। उन्हें प्रदेश में इंदिरा गांधी जन्मशताब्दी समारोह के नाम पर कांग्रेसियों को इकट्ठा करना है। इस बहाने वे पार्टी को ताकत देने की जुगत लगा रहे हैं। मुद्दे की बात यह है कि इंदौर में महेश जोशी की सक्रियता से कई नेताओं का राजनीतिक वजूद खतरे में आ सकता है। क्योंकि, उनकी दवा बहुत कड़वी होती है, जिसे आजकल के नए कांग्रेसी शायद हजम न कर सकें! 
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   प्रदेश में 'मिशन-2018'  के लिए कांग्रेस को एकजुट करने के लिए कभी कद्दावर नेता रहे महेश जोशी को एक बार फिर संगठन ने जिम्मेदारी सौंपी है। कई सालों से वे खामोश थे। पिछले कुछ समय से वे राजधानी के संगठन कार्यालय में दिखाई दे रहे थे। पर, कोई समझ नहीं पा रहा था कि उनकी भूमिका क्या है? कुशलगढ़ से भोपाल उन्हें क्यों बुलाया गया? 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही उन्होंने खुद को सक्रिय राजनीति से मुक्त कर लिया और अपने पैतृक गांव कुशलगढ़ जा बसे थे। सालों बाद पहली बार उन्हें झाबुआ-रतलाम लोकसभा उपचुनाव के दौरान देखा गया था। लेकिन, अब ये स्पष्ट हो गया कि पार्टी ने उनका लक्ष्य तय कर दिया। वे प्रदेश स्तर पर पुराने कार्यकर्ताओं को एकजुट करने का काम शुरू कर रहे हैं। 'मिशन 2018' को देखते हुए कांग्रेस जो बदलाव कर रही है, उस रणनीति में पुराने नेताओं को फिर सक्रिय करने का काम शुरू किया गया है। महेश जोशी पार्टी कि इस रणनीति में एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। बताया जा रहा है कि वे युवा नेताओं से समन्वय बनाकर पुराने नेताओं को भी जोड़ने की जिम्मेदारी निभाएंगे।  
   मध्यप्रदेश की राजनीति में लंबे समय से ख़म ठोंककर राजनीति करने वाले महेश जोशी की संगठन क्षमता बेजोड़ रही है। उनकी इस कार्यशैली से सभी बड़े नेता उनके कायल भी रहे। पिछले चुनाव के बाद कुछ मामलों में सैद्धांतिक विरोध के बाद वे खामोश हो गए थे और इंदौर से बाहर ही रह रहे थे। उन्होंने सभी प्रकार के राजनीतिक हस्तक्षेप भी बंद कर दिए थे। इंदौर में भी वे नजदीकी साथियों के यहाँ  कभी-कभार आते-जाते दिख जाते! लेकिन, कांग्रेस के बड़े नेताओं ने महसूस किया कि महेश जोशी को संगठन के काम में फिर लगाया जाना जरुरी है! उनके अनुभव का लाभ लेकर उन्हें 'मिशन 2018' के लिए सक्रिय किया जाए। इसलिए कि इंदौर में पार्टी जिस स्थिति में है, उससे उबारना आसान नहीं है।
  नए सिरे निर्धारित की गई महेश जोशी की सक्रियता के बाद इंदौर शहर कांग्रेस में क्या बदलाव होगा, ये देखने वाली बात होगी! उन्होंने आते ही मीडिया के सामने खुद जिस तरह प्रोजेक्ट किया और सीधे मुख्यमंत्री पर हमले किए, वो उनकी राजनीतिक तैयारी का संकेत है। सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, भाजपा को कहाँ और कैसे घेरना है, ये भी वे अच्छी तरह जानते हैं। अभी भाजपा की नई पीढ़ी के नेता शायद नहीं जानते कि महेश जोशी की राजनीतिक शैली क्या है? महेश जोशी जितना अंदर से अपनी पार्टी के नेताओं को जानते हैं, उतनी ही जानकारी उन्हें भाजपा के बड़े नेताओं की भी होती है। वे हर नेता की गहराई से वाकिफ हैं। यही कारण है कि कांग्रेस के उथले नेता तो महेश जोशी के फिर जागने से तो परेशान हैं ही, भाजपा के नेताओं की भी नींद में खलल पड़ा है। 
   उनकी सक्रियता और मुखरता का इशारा तब दिखा, जब उन्होंने पत्रकारों के सामने दिग्विजय सरकार के दूसरे कार्यकाल की खुलकर आलोचना की! उन्होंने कहा कि दूसरे कार्यकाल में दिग्विजय सिंह का व्यवहार ही नहीं, नीतियां भी खराब हो गई थीं। यही कारण था कि कांग्रेस मध्यप्रदेश की सत्ता से बाहर हो गई। चुनाव से करीब सालभर पहले उन्होंने शासकीय कर्मचारियों से पंगा लिया। ऐसे काम वही कर सकता है, जिसे प्रदेश में फिर से सरकार नहीं बनाना हो। महेश जोशी ने जिस तरह दिग्विजय सिंह की आलोचना की, वो पार्टी की किसी रणनीति का ही हिस्सा हो सकता है। जबकि, दिग्विजय सरकार में महेश जोशी पार्टी की धुरी थे। उन्हें 'किंग मेकर' कहा जाता है। मानने वाले यहाँ तक कहते हैं कि उनकी वजह से ही दिग्विजय सिंह दूसरी बार सरकार बना सके थे। 
   महेश जोशी के मुताबिक प्रदेश में पार्टी को फिर खड़ा करना है तो सभी बड़े नेताओं को सारे मतभेद छोड़कर एक साथ मैदान उतरना होगा। तभी निष्क्रिय हो चुके कार्यकर्ताओं में उत्साह जागेगा। प्रदेश में अध्यक्ष बदले जाने के मुद्दे पर भी उनके विचार स्पष्ट हैं। उनका कहना है कि किसी को भी कमान सौंपो चौथे दिन उसे बदलने की मुहिम शुरू हो जाती है। 
  लोगों को याद है कि इंदौर में महेश जोशी की तूती किस तरह बोलती थी! अपनी बेबाकी और बात करने की शैली के कारण वे लोगों और कांग्रेसियों के बीच हमेशा धुरी बने रहे। शहर में तैनात होने वाले हर अफसर को उनके दरबार में सबसे पहले हाजिरी लगाना पड़ती थी। प्रदेश और शहर कांग्रेस से हटने के बाद भी लम्बे समय तक उनका रुतबा कायम रहा। वे सही मायने में इंदौर शहर की राजनीति की धुरी रहे। सारे छोटे-बड़े ग्रह उनके आसपास ही चक्कर लगाते थे। वे सही वक़्त पर सही सलाह के लिए भी जाने जाते रहे है। अब वे इंदिरा गांधी के बहाने पार्टी को फिर जिन्दा करने की कोशिश कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह के बाद महेश जोशी संभवतः अकेले ऐसे नेता है, जो प्रदेश के बड़े इलाके के कार्यकर्ताओं को उनके नाम से जानते हैं। उनके भोपाल निवास पर कार्यकर्ताओं का सरकार न रहने के बाद भी आने का क्रम नहीं टूटा था! भाजपा सरकार बनने के बाद भी वे इस बात का ध्यान रखते थे, कि कार्यकर्ताओं के कोई काम न रुकें! 
  महेश जोशी की खासियत है कि वे राजनीति की शतरंज में हर मोहरे की अहमियत को समझते हैं। वे चाल चलना और दूसरे को उसी के घर में घेरकर पटखनी देना भी अच्छी तरह जानते है। उनके बारे में प्रचलित है कि वे राजनीति की हर चाल भांप लेते हैं और उसका तोड़ निकालने में देर नहीं करते! आज भी माना जाता है प्रदेश में दिग्विजय सिंह को स्थापित करने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। दिग्विजय सिंह ने भी बतौर सलाहकार उनको पूरी तवज्जो दी! लेकिन, पार्टी की फिलहाल जो हालत है, उस पर लगाम लगाने का काम सिर्फ महेश जोशी ही कर सकते हैं। पार्टी के हर नेता की  खूबियों और खामियों का उन्हें बखूबी से अंदाजा है। इसकी वे जानकारी रखते हैं ताकि उसका सही जगह पर सही उपयोग किया जाए। 
  यदि वे फिर अपने पुराने अंदाज में आ गए, तो शहर कांग्रेस की कई कमजोरियों का निपटारा हो जाएगा। इंदौर में कांग्रेस जिस तरह खेमों में बंटी है, उससे पार पाना किसी नए नेता के लिए आसान नहीं था। सभी खेमों के क्षत्रपों को एक जाजम पर लाना और उन्हें पार्टी के लिए सक्रिय करने का जिम्मा अब महेश जोशी के हवाले है। उनके होने से सबसे बड़ा बदलाव तो पार्टी के बूथ मैनेजमेंट में आएगा। इसलिए कि महेश जोशी का चुनाव संचालन बेजोड़ है। उनकी निगरानी में कांग्रेस सही टीम के साथ मैदान में मोर्चा संभालती है तो पार्टी को वे नई ताकत देने में पूरी तरह सक्षम हैं। देखा जाए तो ये पार्टी का सही समय पर सही फैसला है। पर, रणनीति बनाना और उसपर अमल होना, दो अलग-अलग मुद्दे हैं। नई पीढ़ी के खबरबाज नेता महेश जोशी की कड़वी दवा को हजम कर पाते हैं या नहीं, सारा दारोमदार इस बात पर टिका है।   
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