Wednesday, May 1, 2024

अब बहुत बदल गई सिनेमा की नायिका

- हेमंत पाल

   फिल्मों के बारे में एक आम धारणा रही है कि इसमें एक नायक होता है और एक नायिका। फिल्म की कहानी पूरी तरह नायक पर केंद्रित होती है और नायिका उससे प्रेम करती है, प्रेम गीत गाती है और फिल्म के अंत में दोनों की शादी हो जाती है। आशय यह कि फिल्म की कहानी में नायिका का बहुत ज्यादा योगदान नहीं होता। यह आज की बात नहीं है, बरसों से यही होता आया है। लेकिन, बदलते समय ने नायिका की छवि को काफी हद तक खंडित कर दिया। अब नायिका सिर्फ प्रेमिका तक सीमित नहीं रही, उससे बहुत आगे निकल गई। याद कीजिए पुरानी फिल्म 'खानदान' में एक गीत था 'तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम ही देवता हो!' ये गीत सुनील दत्त और नूतन पर फिल्माया गया था। वास्तव में ये गीत पत्नी का पति के प्रति अगाध प्रेम का प्रतीक माना जा सकता है। लेकिन, आज किसी फिल्म में इस तरह का कोई गीत हो, तो क्या दर्शक उसे पसंद करेंगे?
      पत्नी का पति से प्रेम अपनी जगह है, पर क्या नायिका के समर्पण का ये पूजनीय अंदाज सही है! जब ये फिल्म बनी, तब सामाजिक दृष्टिकोण से इसे स्वीकार किया गया हो, पर आज के संदर्भ में सिर्फ पति को पूजनीय मान लेने से बात नहीं बनती! समाज में भी और फिल्मों में भी आज ऐसी पत्नी या नायिका को पसंद किया जाता है, जो प्रैक्टिकल हो! वास्तव में हिंदी फिल्मों में नायक के किरदार उतने नहीं बदले, जितने नायिकाओं के! आजादी के बाद जब समाज मनोरंजन के लिए थोड़ा अभ्यस्त हुआ, तो फिल्मों में नायिका को नायक की सहयोगी की तरह दिखाया जाने लगा। तब सामाजिक दृष्टिकोण से भी यह जरुरी था। लेकिन, वक़्त के बदलाव ने फिल्मों की नायिका के किरदार को भी बदल दिया। अब नायिका को एक जरुरी फैक्टर की तरह नहीं रखा जाता।
     सौ साल से ज्यादा पुरानी हिंदी फिल्मों की अधिकांश कहानियां नायक केंद्रित होती थी। इक्का-दुक्का फ़िल्में ही ऐसी नजर आती है, जिसका केंद्रीय पात्र नायिका हो! लेकिन, अब ऐसा नहीं है। याद कीजिए 'सुई-धागा' को, जिसकी नायिका परेशान पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उसकी मदद करती है। उसका आत्मविश्वास जगाकर उसे सहारा देती है। लेकिन, ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस कितने निर्माता कर पाते हैं? फिल्मकारों को लगता है कि नायक के सिक्स-पैक और मारधाड़ ही दर्शकों की डिमांड है! वे कहानी में नायिका की जगह तो रखते हैं, पर उसके कंधों पर इतना भरोसा नहीं करते कि वो फिल्म को बॉक्स ऑफिस की संकरी गली से निकाल सकेगी! जब 'दामिनी' आई थी, तो किसने सोचा था कि ये फिल्म के नायक सनी देओल के अदालत में चीख-चीखकर बोले गए संवाद से कहीं ज्यादा मीनाक्षी शेषाद्री के किरदार के कारण पसंद की जाएगी?  
      दरअसल, बॉक्स ऑफिस को लेकर फिल्मकारों का अज्ञात भय ही नायिका को परम्पराओं की देहरी पार नहीं करने देता तय! हर बार नायिका में सहनशील और परम्परावादी नारी की छवि दिखने की कोशिश की जाती। इस वजह से नायिकाओं ने लंबे अरसे तक अपनी महिमा मंडित छवि को बनाए रखने के लिए त्याग, ममता और आंसुओं से भीगी इमेज को बनाए रखा। लेकिन, अब जरुरत है सुई धागा, छपाक, कहानी, क्वीन और 'गंगूबाई काठियावाड़ी' जैसी फिल्मों की जिसकी नायिका फिल्म कथानक में बराबरी की हिस्सेदारी रखती है। 'अभिमान' वाली जया भादुड़ी जैसे किरदार अब बीती बात हो गई! जया का वो किरदार उस वक़्त की मांग थी, जो पति को आगे बढ़ने का मौका देने के लिए अपना कॅरियर त्याग देती है। आज दर्शकों को न तो ऐसी फिल्मों की जरूरत है और ऐसे किरदारों की!  बेआवाज फिल्मों से 'अछूत कन्या' और 'मदर इंडिया' के बाद से सुजाता, बंदिनी, दिल एक मंदिर और 'मैं चुप रहूंगी' तक नायिकाएं परदे पर सबकी प्रिय बनी रहीं। इन नायिकाओं ने मध्यवर्गीय पुरातन परिवार के दमघोंटू माहौल में अपनी किस्मत को कोसते हुए 'मैं चुप रहूंगी' जैसी फिल्मों का दौर भी देखा है। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगें’ से लेकर ‘हम दिल दे चुके सनम’ तक में करवा चौथ का माहौल भी देखा है। 
       हिंदी फिल्मों में बनने वाली ज्यादातर फिल्मों में हीरो ही कहानी का केंद्रीय बिंदु होता रहा है। फिल्मों का हिट या फ्लॉप होना उसी पर निर्भर करता है। ऐसे में यह माना जाता है कि यदि किसी फिल्म में दमदार हीरो है, तो बॉक्स ऑफिस पर वह हिट साबित होगी। लेकिन, हिंदी की माइल स्टोन फिल्म 'मदर इंडिया' (1957) महिला प्रधान फिल्म है। नरगिस दत्त की भूमिका वाली इस फिल्म की लोकप्रियता का अंदाज़ इससे लगा सकता है कि विदेश तक में चर्चित हुई। यह फिल्म महज एक वोट से ऑस्कर जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड से चूक गई थी। फिल्म में नरगिस ने ऐसी गरीब महिला ‘राधा’ का किरदार निभाया जो न्याय के लिए अपने बेटे तक को गोली मार देती है। 1987 में आई फिल्म 'मिर्च मसाला' में महिला सशक्तिकरण की गहरी छाप थी। मसाले कूटने वाली स्मिता पाटिल ने ‘सोन बाई’ का ऐसा किरदार निभाया, जो दबंग सूबेदार नसीरुद्दीन शाह तक की नहीं सुनती। कुख्यात डकैत फूलन देवी की कहानी पर आधारित फिल्म 'बैंडिट क्वीन' (1994) में सीमा विश्वास ने फूलन देवी के मासूम महिला से डकैत बनने तक के सफर और उनके बदले की कहानी को दिखाया था। विद्या बालन ने सस्पेंस और थ्रिल से भरपूर फिल्म 'कहानी' और उसके सीक्वल में गजब की भूमिका की। फिल्म ऐसी महिला की कहानी है, जो अपने पति की मौत का बदला लेने के लिए अंडर कवर एजेंट के तौर पर काम करती है और आतंकवाद का सफाया करती है।
    कंगना रनोट की फिल्म ‘क्वीन’ (2014) भी ऐसी लड़की की कहानी है, जिसका पति शादी से ठीक पहले उसे छोड़ देता है। ऐसे में कंगना पहले से बुक हनीमून टूर पर अकेले ही निकल जाती है। उसकी यह यात्रा पूरी लाइफ बदल देती है। 'गंगूबाई काठियावाड़ी' भी इसी स्तर की फिल्म है जिसमें एक औरत का संघर्ष बताया गया। अब ऐसी फिल्मों का चलन बढ़ रहा है। विद्या बालन ने डर्टी पिक्चर्स, तुम्हारी सुलु, शेरनी और 'कहानी' जैसी फिल्मों में काम करके हीरोइन की परिभाषा बदल दी। इन फिल्मों में नायिका की खूबसूरती को नहीं उसकी ताकत को दिखाया गया था।
    आलिया भट्ट ने अपनी फिल्मों में कई ऐसे ही किरदार किए जो महिलाओं की कमसिन छवि को तोड़ता है। गंगूबाई काठियावाड़ी, हाईवे और 'राजी' ऐसी ही कुछ फिल्में हैं जो पूरी तरह नायिका केंद्रित रही। कृति सेनन वैसे तो नई अभिनेत्री है, पर फिल्म में उन्होंने सरोगेट मदर की भूमिका निभाई, जो अपने आप में अनोखा किरदार है। प्रियंका चोपड़ा ने भी कुछ इसी तरह की फिल्मों के काम किया। तापसी पन्नू ने पिंक, थप्पड़, हसीन दिलरूबा, रश्मि और 'रॉकेट' में महिलाओं के व्यक्तित्व के हर रंग को दिखाया है। लेकिन, सिनेमा का इतिहास बताता है कि हर दौर में ऐसी नायिकाएं भी सामने आईं हैं, जिन्होंने इस मिथक को तोड़ा है। समाज के लिए वे मुक्ति का आख्यान हैं, लेकिन अब इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही हो पाईं! पर, अब यंग इंडिया की सोच बदल रही है। इसलिए महिलाओं के प्रति भी सोच बदलने की जरूरत है। लड़की है, तो खाना बनाएगी और लड़का है तो काम करेगा। ये विचारधारा अब नहीं चलती! समाज और लोगों की सोच में बदलाव आया है, लेकिन अभी फिल्मों में बहुत कुछ बदलना बाकी है।
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परदे पर गढ़ी गई बीमारियों की दर्द भरी दास्तान

    फिल्मों को जीवन का आईना यूं ही नहीं कहा जाता। इनमें सुख भी होता है और दुःख भी। जीवन भी होता है और मृत्यु भी। बीमारियों से उबरने के किस्से भी होते हैं और उससे हारकर मौत के मुंह में जाने की सच्चाई भी। फिल्मों के कथानक में असाध्य रोग भी एक विषय हैं, जो दर्शकों को बीमारी के सच से वाकिफ कराते हैं। कभी ऐसी फिल्मों का अंत सुखद होता है, पर हमेशा नहीं! बरसों से ऐसी फ़िल्में बनती रही हैं और ये विषय अभी भी फिल्मों के हिट होने का फार्मूला है। लेकिन, ऐसी फ़िल्में तब भी पसंद की जाती है, जब उनके कथानक में दर्शकों बांधकर रखने की क्षमता होती है। 
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- हेमंत पाल 

    फिल्मों के कथानक का मकसद दर्शकों को बांधकर रखना होता है। क्योंकि, फिल्म में कथानक ही होता है, जो फिल्म की सफलता या असफलता की वजह बनता है। कई बार ये कोशिश सफल होती है, लेकिन, हमेशा नहीं। ऐसे कई प्रमाण हैं, जब बड़े बजट की फ़िल्में सिर्फ कथानक के रोचक न होने की वजह से फ्लॉप हुई। लेकिन, ऐसा भी हुआ कि कुछ कम बजट और अंजान कलाकारों की फिल्मों ने दर्शकों को इतना प्रभावित किया कि फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। फिल्मकारों का पूरा ध्यान भी ऐसे कथानक ढूंढना होता है, जिसमें नयापन हो। दूसरे विषयों की तरह बीमारियों से जुड़ी कहानियां भी ऐसा ही विषय है, जिसने हमेशा दर्शकों की संवेदनाओं को झकझोरा है। अब वो समय नहीं रहा जब दर्शक प्रेम कहानियों, पारिवारिक झगड़ों, बिगड़ैल लड़कों, संपत्ति के विवाद या गांव के जमींदार की ज्यादतियों पर बनी फिल्मों को पसंद करें। पीढ़ी के बदलाव के साथ दर्शकों की पसंद में भी बदलाव आया। ऐसे में फिल्मकारों के सामने नए विषय चुनना और ऐसे कथानक गढ़ना भी चुनौती है, जो दर्शकों को सिनेमाघर तक आने के लिए मजबूर करे। देखा गया है कि बीमारियों के बारे में जानना हर व्यक्ति की उत्सुकता होती है। जब ऐसे किसी विषय पर कोई फिल्म बनती है, तो दर्शक उससे बंधता है।         
      बीमार के प्रति सभी की सहानुभूति होती है। इस मनोविज्ञान को समझते हुए ही फिल्मों में कई ऐसे कथानक गढ़े गए, जिनमें नायक या नायिका को असाध्य रोगों से पीड़ित बताया गया। उनकी गंभीर तकलीफों को कहानी का मुद्दा बनाने के साथ उनके इलाज में परिवार को परेशान बताया गया। कैंसर, प्रोजेरिया, सिजोफ्रेनिया, आटिज्म, डिस्लेक्सिया और एड्स जैसी गंभीर बीमारियों वाले कथानकों का अंत हमेशा सुखद नहीं होता। क्योंकि, बीमारियों पर किसी का बस नहीं चलता। कई बार डॉक्टरों की कोशिश सफल होती है, पर हर बार नहीं। याद कीजिए फिल्म 'मिली' का अंत, जिसमें अमिताभ बच्चन फिल्म की नायिका जया भादुड़ी को कैंसर के इलाज के लिए विदेश ले जाते हैं। आसमान में जाते हवाई जहाज को पिता अशोक कुमार हाथ हिलाकर विदा करते हैं और फिल्म का अंत हो जाता है। कुछ ऐसा ही अंत 1971 में आई 'आनंद' का भी था। इसमें डॉक्टर किरदार निभाने वाले अमिताभ बच्चन सारी कोशिशों के बाद भी आंत और ब्लड कैंसर से पीड़ित राजेश खन्ना को बचा नहीं पाते। यही इस फिल्म की सफलता का कारण भी था। लेकिन, 'आनंद' के बाद कैंसर आधारित कथानकों वाली फ़िल्मों का दौर चल पड़ा था। सफ़र, अनुराग, मिली और अंखियों के झरोखे से फिल्में ऐसे ही कथानकों पर बनी थी। 
       बड़े बजट की फ़िल्में बनाने वाले डायरेक्टर संजय लीला भंसाली के खाते में भी 'ब्लैक' जैसी फिल्म भी दर्ज जो बीमारी पर केंद्रित है। 2005 में आई इस फिल्म में रानी मुखर्जी ने ऐसी लड़की का किरदार निभाया, जो देख, सुन और बोल नहीं सकती। जबकि, अमिताभ बच्चन उसके टीचर बने थे जो अल्जाइमर बीमारी से ग्रस्त थे। यह ऐसी मानसिक बीमारी होती है, जिसमें रोगी बीमारी के बढ़ने के साथ सब भूलने लगता है। अमिताभ भी फिल्म का अंत आते-आते रानी मुखर्जी को भूल जाते हैं। जब ऐसी फिल्मों की बात हो, तो अमिताभ बच्चन की 2009 में आई 'पा' को भुलाया नहीं जा सकता। इसमें विद्या बालन और अभिषेक बच्चन थे। फिल्म की खासियत यह थी कि इसमें अभिषेक ने अमिताभ के पिता का किरदार निभाया है। यह एक दुर्लभ जेनेटिक डिसऑर्डर 'प्रोजेरिया' से प्रभावित बच्चे की कहानी है। प्रोजेरिया ऐसा डिसऑर्डर है, जिसमें 10-12 साल के बच्चे बुजुर्ग दिखाई देने लगते हैं। संजय लीला भंसाली ने 'ब्लैक' के बाद 2010 में 'गुजारिश' बनाई, जिसमें रितिक रोशन ने क्वाड्रीप्लेजिक मरीज का किरदार निभाया था। बीमारी में मरीज गर्दन के निचले हिस्से से पैराडाइज था। इस फिल्म ने इच्छा मृत्यु पर एक बहस भी शुरू की थी। 
       शाहरुख खान की बेस्ट फिल्मों में एक 2003 में आई 'कल हो ना हो' को भी गिना जाता है। करण जौहर निर्देशित यह फिल्म ऐसी लव स्टोरी है, जिसमें नायक अपनी प्रेमिका प्रीति जिंटा की शादी किसी और से करवा देता है। क्योंकि, उसे कैंसर होता है। लव, इमोशन और गंभीर बीमारी के इस ताने-बाने ने दर्शकों को हिला दिया था। 'फिर मिलेंगे' (2004) में सलमान खान और शिल्पा शेट्टी ने एड्स के मरीज का किरदार निभाया था। एड्स पीड़ित होने के बाद नौकरी से निकाले जाने, फिर कानूनी लड़ाई लड़ते शिल्पा शेट्टी के किरदार को काफी सराहा गया था। 
       बीमारी पर बनी आमिर खान की फिल्म 'तारे जमीं पर' (2007) में डिस्लेक्स‍ि‍या से पीड़ित बच्चे की कहानी दिखाई थी। आमिर खान उसके ड्राइंग टीचर बनते हैं और उसकी परेशानी समझकर उसे ड्राइंग के जरिए हल करने की कोशिश करते हैं। ऐसी ही एक फिल्म 'गजनी' है, जो 2008 में आई थी। आमिर खान ने इसमें इन्टेरोगेट एम्नेसिया (शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस) से ग्रस्त के मरीज का किरदार निभाया था। यह फिल्म हॉलीवुड फिल्म 'मेमेंटो' का रीमेक थी। 2010 में आई फिल्म 'माई नेम इज खान' में शाहरुख खान ने एस्पर्जर सिंड्रोम के मरीज का किरदार निभाया था। जिसमें उन्होंने बीमारी से जूझते हुए धर्म के बारे में लोगों की गलतफहमी दूर करने वाले संजीदा व्यक्ति का किरदार निभाया था। अनुराग बासु की फिल्म 'बर्फी' में प्रियंका चोपड़ा ने दुर्लभ बीमारी ऑटिज्म से पीड़ित लड़की किरदार निभाया था। जबकि, रणबीर कपूर ने गूंगे-बहरे लड़के का किरदार निभाया था। 
   सोनाली बोस की 2012 में रिलीज हुई फिल्म 'मार्गरीटा विद ए स्ट्रा' में कल्कि कोचलिन ने इसमें सेलि‍ब्रल पाल्सी से ग्रस्त लडक़ी का किरदार निभाया था। कल्कि ने बीमार होने के बावजूद पढ़ने के लिए न्यूयार्क जाने वाली प्यार की तलाश करती युवा लड़की का किरदार निभाया था। फिल्म पीकू (2015) को अपने अनोखे कथानक के कारण दर्शकों ने खूब सराहा था। इस फिल्म एक बार फिर अमिताभ बच्चन ने कब्ज की बीमारी होती है। जिनकी मौत का कारण भी कब्जियत ही होता है।
      'ए दिल है मुश्किल' (2016) में रणबीर कपूर, ऐश्वर्या राय और अनुष्का शर्मा ने काम किया था। फिल्म में अनुष्का शर्मा ने टर्मिनल कैंसर से पीड़ित लड़की किरदार निभाया। इस कैंसर को लाइलाज रोग माना जाता है, जिसमें पीड़ित की मौत किसी भी समय हो सकती है। 'शुभ मंगल सावधान' (2017) भी अलग तरह की फिल्म है, जो पुरुषत्व के मुद्दे के कथानक पर बनी है। फिल्म में आयुष्मान खुराना ने पुरुषों की सेक्सुअल कमजोरी (इरेक्टाइल डिसफंक्शन) को सहजता से परदे पर पेश किया। 
   इसके अगले साल 2018 में आई फिल्म 'हिचकी' में रानी मुखर्जी मुख्य भूमिका में थी। रानी मुखर्जी खास तरह की बीमारी टुरेट सिंड्रोम से पीड़ित थी। इस बीमार से पीड़ित व्यक्ति शब्दों को दोहराने, हिचकी आने, खांसने, छींकने, चेहरा या सिर हिलाने और पलकों को झपकाना शुरू कर देता है। शाहरुख खान की एक और बीमारी से संबंधित फिल्म है 'जीरो' जो 2018 में आई थी। इसमें उन्होंने बौने का किरदार अदा किया था। बौना होने की वजह मेटाबोलिक और हार्मोन की कमी होता है। यह फिल्म शाहरुख़ की फ्लॉप फिल्मों में से एक थी। इसमें शाहरुख़ का किरदार बौआ सिंह का था जो 38 साल का बौना आदमी है, जिसे जीवनसाथी की तलाश रहती है। इसी साल 2018 में आई डायरेक्टर शुजीत सरकार की फिल्म 'अक्टूबर' में भी बीमारी का कथानक था। वरुण धवन और बनिता संधू की यह फिल्म एक संवेदनशील लव स्टोरी है। बनिता के साथ एक एक्सीडेंट के बाद वह कोमा में चली जाती हैं। वह धीरे-धीरे रिकवर होती हैं, लेकिन अंत में उनका निधन हो जाता है। इसमें कोई बीमारी नहीं बताई, पर कथानक अस्पताल के इर्द-गिर्द ही घूमता है। 
      अब थोड़ा पहले चलते हैं। बालू महेंदू की 1983 में आई फिल्म 'सदमा' तमिल फिल्म का रीमेक है। इसमें श्रीदेवी और कमल हासन की प्रमुख भूमिका है। फिल्म में श्रीदेवी को एक कार दुर्घटना में सिर में चोट लग जाती है और भूलने की बीमारी के कारण उसमें बचपन का दौर आ जाता है। वह परिवार से खो जाती है और वेश्यालय में फंस जाती है। फिर वो स्कूल टीचर सोमू (कमल हासन) द्वारा छुड़ाए जाने से पहले वेश्यालय में फँस जाती है, जिसे उससे प्यार हो जाता है। फिल्म का अंत बेहद संवेदनशील है, जब श्रीदेवी की याददाश्त लौट आती है और कमल हासन को ही भूल जाती है। असाध्य रोगों पर बनने वाली फ़िल्में तभी दर्शकों की संवेदनाओं को प्रभावित कर पाती हैं, जब उनके कथानक में कसावट होने के साथ बीमारी की गंभीरता को दिखाया जाता है। खास बात ये भी कि ऐसी सभी फिल्मों बड़े कलाकारों ने काम किया है।   
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भोजशाला के सर्वे की भंग होती गोपनीयता और दावे

     धार की विवादास्पद भोजशाला वास्तव में सरस्वती मंदिर है, जिसे राजा भोज ने बनाया था या कमाल मौला मस्जिद? यह विवाद बरसों से उलझा हुआ है। इसका हल खोजने के लिए हाई कोर्ट के आदेश पर साइंटिफिक पुरातात्विक सर्वेक्षण हो रहा है। सर्वे के निष्कर्ष की रिपोर्ट हाई कोर्ट में पेश होगी। लेकिन, इस सर्वे को लेकर टीम के साथ रोज परिसर में जाने वाले हिंदू और मुस्लिम पक्षों के बयानवीर भी पीछे नहीं हैं। इस बहाने वे सर्वे की गोपनीयता भी भंग कर रहे हैं।
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- हेमंत पाल

    धार शहर में स्थित भोजशाला की सच्चाई जानने के लिए ऑर्कलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (एएसआई) इन दिनों सर्वे कर रही है। यह सर्वे हाई कोर्ट के निर्देश पर किया जा रहा है। कोर्ट ने हिंदू और मुस्लिम पक्ष के प्रतिनिधियों को भी सर्वे टीम के साथ रहने की इजाजत दी है। लेकिन, दोनों पक्ष सर्वे को लेकर अपने-अपने पक्ष में तर्क कर रहे हैं। जबकि, एएसआई ने अभी तक सर्वे को लेकर कोई बयान नहीं दिया। दोनों धर्मों के प्रतिनिधियों की बयानबाजी सामाजिक सामंजस्य की हवा जरूर बिगाड़ रही है।     
    अयोध्या, ज्ञानवापी और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि की धार्मिक प्रमाणिकता के लिए कोर्ट के निर्देश पर ऑर्कलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (एएसआई) ने साइंटिफिक सर्वे किया था। कोर्ट को दी गई अपनी प्रामाणिक रिपोर्ट से एएसआई ने जो साबित किया, वो दुनिया के सामने है। हाई कोर्ट की इंदौर खंडपीठ के निर्देश पर इसी तरह का सर्वे धार की भोजशाला में किया जा रहा है। एएसआई को अपने सर्वे से साबित करना है कि भोजशाला वास्तव में राजा भोज द्वारा निर्मित सरस्वती मंदिर है या मौलाना कमालुद्दीन की बनाई मस्जिद! 
     दोनों पक्षों के बीच सौ सालों से ज्यादा समय से यह विवाद है। एएसआई को निर्धारित समय में कोर्ट को अपनी रिपोर्ट देना है। एक महीने से एएसआई भोजशाला में सर्वे कर रही है। ये सर्वे दो महीने और चलेगा। अभी तक ऐसे कोई प्रमाण सामने नहीं आए और न आधिकारिक रूप से बताया गया कि दोनों में से किसका दावा पुख्ता है। हाई कोर्ट ने एएसआई को सर्वे करके और अपनी रिपोर्ट जुलाई में सौंपने का निर्देश दिया है। पहले यह रिपोर्ट 29 अप्रैल को दी जाना थी, लेकिन, अब एएसआई ने इसके लिए 8 सप्ताह का अतिरिक्त समय मांगा। क्योंकि, निर्धारित अवधि में काम पूरा होना संभव नहीं है।    
   सर्वे के प्रमाणिकता को बनाए रखने के लिए कोर्ट के निर्देश पर हिंदू और मुस्लिम प्रतिनिधियों को भी सर्वे टीम के साथ अंदर जाने की इजाजत मिली है। पहले दिन मुस्लिम पक्ष ने सर्वे टीम के साथ परिसर में जाना टाला, उसके बाद से दोनों पक्षों के प्रतिनिधि सर्वे टीम के साथ सुबह से शाम तक मौजूद रहते हैं। इसमें सबसे गौर करने वाली बात यह है कि सर्वे टीम ने अभी तक अपनी तरफ से कोई बयान नहीं दिया। इस तरह के कोई संकेत भी नहीं दिए कि सर्वे के दौरान भोजशाला परिसर से किस तरह के प्रमाण मिल रहे हैं। उन्हें इस तरह का बयान देने की इजाजत भी नहीं है। क्योंकि, उन्हें अपनी रिपोर्ट हाई कोर्ट में जमा करना है। इसके बावजूद देखा गया कि रोज सुबह जब सर्वे टीम के साथ दोनों पक्षों के प्रतिनिधि अंदर जाते हैं, तो वे मीडिया के सामने कोई न कोई ऐसी बात जरूर करके जाते हैं जो इस सर्वे की गोपनीयता को भंग करने जैसी होती है। 
    मुस्लिम पक्ष के प्रतिनिधि तो सर्वे की जानकारी पर तो ज्यादा नहीं बोलते, लेकिन वे सर्वे में अब तक हुए काम को लेकर जिक्र जरूर करते हैं। वे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में उनके द्वारा लगाई गई आपत्तियों का जिक्र करने के साथ यह भी बताते हैं कि बीते सौ सालों से ज्यादा समय में भोजशाला विवाद में क्या कुछ हुआ! वे अपने तर्कों से यह भी बताने की कोशिश करते हैं कि भोजशाला वास्तव में मुस्लिम स्मारक है, जिस पर हिंदू बेवजह अपना दावा जता रहे है। वे उन तर्कों को भी नकारते हैं, जो हिंदू पक्ष के लोग सामने रखने की कोशिश करते हैं। 
    इसी तरह हिंदू पक्ष के दोनों प्रतिनिधि मुखरता से इस बात का जिक्र करते हैं कि सर्वे के दौरान अंदर मिलने वाले प्रमाण इस बार का संकेत दे रहे हैं, कि यह सरस्वती मंदिर रहा है। दरअसल, उनके इस तरह के बयान हाई कोर्ट के दिशा-निर्देशों की विपरीत है। क्योंकि, उनके इस तरह के बयानों का कोई मतलब नहीं। वास्तव में तो सीधे-सीधे इस बात की मार्केटिंग करने की भी कोशिश की जा रही है कि एएसआई का यह सर्वे हिंदू धर्मावलंबियों की याचिका पर ही किए जाने के निर्देश हुए हैं। इस तरह की गैर-प्रामाणिक बातें बार-बार करना, इस बात का भी संकेत है कि उनके तर्कों पर ही सर्वे किया जा रहा है। एएसआई की सर्वे रिपोर्ट के हाई कोर्ट में पेश किए जाने से पहले ऐसी बयानबाजी इसकी गोपनीयता को भंग करने जैसा कृत्य कहा जा सकता है। 
     सर्वे के दौरान जब भी मंगलवार या शुक्रवार आता है, तो हिंदू और मुस्लिम पक्ष के लोग भोजशाला परिसर में जाकर अपनी आराधना करते हैं। शुक्रवार को मुस्लिम नमाज़ अता करने और मंगलवार को हिंदू परिसर में हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं। कई साल पहले केंद्र सरकार ने दोनों पक्षों को यह व्यवस्था दी थी, तब से प्रशासन की देखरेख में इसका पालन किया जा रहा है। देखा गया कि सर्वे के दौरान हर मंगलवार को जब हिंदू पक्ष भोजशाला में पूजा-अर्चना के लिए जाते हैं, उस दिन हिंदू पक्ष की तरफ से भोजशाला आंदोलन से जुड़ा कोई बड़ा हिंदूवादी नेता मीडिया के सामने कोई न कोई ऐसी बात जरूर करता है, जो सुर्खी बनती है। वास्तव में तो उन्हें एएसआई सर्वे को लेकर कोई बयान देने की जरूरत है और न इजाजत। लेकिन, फिर भी दोनों पक्षों को जब भी मौका मिलता है, वे अपनी बात करने से नहीं चूकते। 
    हिंदू पक्ष के लोग बार-बार मथुरा, ज्ञानवापी और अयोध्या के एएसआई सर्वे के नतीजे को आधार बनाकर भोजशाला में भी उसी तरह के प्रमाण मिलने का दावा करते हैं। जबकि, मुस्लिम प्रतिनिधि का दावा रहता है कि 1902 और 1903 में भी इसी तरह का सर्वे हुआ था और उस समय यह मान लिया गया था कि यह मंदिर नहीं है। आज भी उनका दावा है कि 1300 ईस्वी में जब मौलाना कमालुद्दीन यहां आए थे और उन्होंने मस्जिद बनाई थी। उस समय कई तरह यहां कई तरह का रॉ-मटेरियल मस्जिद के निर्माण के लिए लाया गया था। संभवतः उस समय लाए गए रॉ-मैटेरियल में कुछ ऐसी सामग्री आ गई होगी, जो यहां हिंदू धर्म के प्रमाण दे रही है। लेकिन, वास्तव में यहां सरस्वती मंदिर जैसी कोई बात नहीं है। 
    भोजशाला में बनी एक अक्कल कुईया को लेकर भी दोनों पक्षों के पास ऐसे दावे हैं, जो सर्वे को प्रभावित कर सकते हैं। हिंदुओं का कहना है कि इस तरह की अक्कल कुईया आर्यावर्त में 7 जगह है जिसमें से तीन जगह भारत में है। एक इलाहाबाद में, एक तक्षशिला और तीसरी भोजशाला में। धार की भोजशाला की अक्कल कुईया के बारे में उनका कहना है कि यह सरस्वती नदी से जुड़ा हुआ जल स्रोत था। माना जाता है कि जहां भी शिक्षा के विकसित केंद्र रहे, वहां विद्यार्थियों को ज्ञान देने के लिए इस तरह की कुईया का निर्माण किया गया। 
     इसमें वे पत्थर पाए गए, जो विलुप्त हुई सरस्वती नदी में होते थे। इसके प्रमाण में हिंदू पक्ष विष्णु श्रीधर वाकणकर की किताब का हवाला देते हैं। जबकि, मुस्लिम पक्ष का कहना है कि वास्तव में यह अक्कल कुईया नहीं, बल्कि मस्जिदों के में पाई जाने वाला जल कुंड है, न कि अक्कल कुईया जैसा कोई प्रमाण। लेकिन, वास्तव में इसकी सच्चाई क्या है यह एएसआई के सर्वे से ही पता चलेगा। लेकिन दोनों पक्षों की बयानबाजी से एक अलग तरह की भावना जन्म ले रही है, जो निश्चित रूप से सामाजिक सामंजस्य के लिए उचित नहीं है। 
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