Tuesday, August 29, 2023

इन फिल्मों की कहानियां याददाश्त खोने पर टिकी

हेमंत पाल

      याददाश्त जाना किसी हादसे का प्रभाव होता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी पुरानी यादें भुला देता है और उसके सामने वही सब कुछ सच्चाई होती है, जो वह सामने देखता है। उसके दिमाग से पुराने दिन, पुरानी बातें, पुराने रिश्ते सब धूमिल हो जाते हैं। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक, कई बार याददाश्त  स्थाई होती है, यानी व्यक्ति कभी अपनी पुरानी जिंदगी में नहीं लौटता। लेकिन, कई बार पुरानी बातों, पुराने स्थानों या किसी व्यक्ति को देखकर प्रभावित व्यक्ति की याददाश्त लौट भी आती है। लेकिन, फिल्मों में याददाश्त का जाना एक अलग ही फार्मूला है। हीरो या हीरोइन याददाश्त जाती ही वापस आने के लिए है। अभी तक ऐसी कोई फिल्म नहीं बनी, जिसमें याददाश्त वापस न आई हो। फिल्म का एंड होने से पहले खोई याददाश्त वाले को पहले की तरह सब याद आ जाता है। फिल्मों में याददाश्त खोने वाला फंडा हमेशा पसंद किया गया। ऐसी बहुत सी फ़िल्में जिनमें हीरो या हीरोइन की याददाश्त गई, वे फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट हुई!
      जब भी कथाकार को कहानी आगे बढ़ानी हो या क्लाइमेक्स से दर्शकों को चौंकाना हो, ये फार्मूला सबसे ज्यादा सफल रहा। क्योंकि, ये शानदार, मज़ेदार और असरदार तरीका बनकर सामने आता है। इस फार्मूले का तड़का कितना पुराना है, इसका तो कोई प्रमाण नहीं, पर ये दर्शकों की पसंद में अव्वल रहा। क्योंकि, इसमें उत्सुकता कूट कूटकर भरी होती है। कुछ फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में सदमे और खासकर प्यार में असफल होने, हीरोइन के दूसरे विवाह से लगी दिल पर चोट का असर दिमाग पर होना बताया। जबकि, दिल और दिमाग दो अलग चीजें है। लेकिन, फिल्मकार इतने चतुर हैं कि वे पागलपन के दृश्यों में भी याददाश्त जाने का प्रसंग जोड़ने का मौका नहीं छोड़ते। सिनेमा ऐसा माध्यम है, जिसे इंसानी स्वभाव और इस तरह के हादसों पर फिल्म को आगे बढ़ाने का फार्मूला मिला। इसके चलते फिल्मों में याददाश्त आने-जाने की लुका-छुपी चलती रहती है। दिलीप कुमार ने भले ही परदे पर याददाश्त खोने का ड्रामा न किया हो, पर असल जिंदगी में वे अपने जीवन के संध्याकाल में अपनी याददाश्त धुंधला चुके थे। 
      फिल्म इतिहास में किस फिल्मकार ने याददाश्त जाने के कथानक को पहली बार परदे पर उतारा, इसका पता तो नहीं चला। लेकिन, पांचवें दशक से पहले महबूब खान के निर्देशन में 1948 में बनी फिल्म 'अनोखी अदा' में इसे संभवतः पहली बार आजमाया गया था। इस रोमांटिक फिल्म की कहानी में एक लव ट्राएंगल था। इसमें एक महिला एक ट्रेन हादसे में अपनी याददाश्त खो देती है। बाद में नाटकीय परिस्थितियों में उसकी यादें वापस लौटती है। फिल्म में मुख्य भूमिका नसीम बसु, सुरेंद्र और प्रेम अदीब की थी। उसके बाद छठे दशक से कथानकों में यह फार्मूला जमकर आजमाया जाने लगा। फिल्म में याददाश्त जाने का प्रयोग शिवाजी प्रोडक्शन की तमिल में बनी फिल्म 'अमरदीपम' में भी आजमाया गया। बाद में इसी कथानक पर 1958 में बनी हिन्दी 'अमरदीप' में देव आनंद पर यह फार्मूला आजमाया गया था। जब तक नायक की याद बनी रहती है, वो नायिका वैजयंती माला के साथ 'देख हमें आवाज़ न देना' की धुन पर इश्क़ लड़ाते है। लेकिन, खलनायक प्राण के गुंडों से लगी सिर पर चोट से वह अपनी याददाश्त खो बैठता है। तब, उसे पद्मिनी और रागिनी का प्यार मिलता है। जब यह प्यार परवान चढ़ने वाला होता है, तभी एक बार फिर सिर पर लगी चोट से उसकी याददाश्त लौट आती है और पद्मिनी के बलिदान के बाद उसे फिर वैजयंती माला का प्यार नसीब होता है।
      फिल्मालय की फिल्म 'एक मुसाफिर एक हसीना' का नायक भी कुछ ऐसा ही था। वह फौजी होता है, जो कश्मीर में कबाइलियों के हमले में घायल होकर अपनी याददाश्त खो बैठता है। तब उसके जीवन में नायिका साधना आती है और यह भूला बिसरा गायक जो सब कुछ भूल चूका है। 'बहुत शुक्रिया बड़ी मेहरबानी' गाते हुए साधना से प्यार करने लगता है। लेकिन, याददाश्त लौटने पर वह साधना को पहचानता तक नहीं। फिल्म  नाटकीय पक्ष था ओपी नैयर की धुन में गीत गाकर नायिका का याददाश्त लौटा देना। गाने के बहाने याददाश्त लौटाने का खेल 'प्यार का मौसम' में 'तुम बिन जाऊं कहां' और 'मेरी जंग' में 'जिंदगी एक नई जंग है' के जरिए भी दिखाई दिया। याददाश्त खोए नायक वाली फिल्मों में राज कपूर की 'हिना' भी उल्लेखनीय है। इसमें नायक ऋषि कपूर दुर्घटना के बाद पहाड़ी से लुढ़ककर बहते हुए पाकिस्तान की सीमा में पहुंच जाता है। हादसे में वो अपनी याददाश्त खो बैठता है। जब याददाश्त लौटती है, तो हीरोइन भी लौट आती है। 
    अपने समय की संजीव कुमार की हिट फिल्म 'खिलौना' में नायक अपनी प्रेमिका की शादी के दिन की गई आत्महत्या से पागल होकर याददाश्त खो देता है और 'खिलौना जानकर' नायिका मुमताज की इज्जत पर हाथ डाल देता है। याददाश्त लौटने पर सब कुछ भूल जाता है। लेकिन, अंत में किसी तरह उसे अपनाकर दर्शकों को फिल्म का सुखांत देता है। 'पगला कहीं का' फिल्म का नायक शम्मी कपूर अपनी प्रेमिका हेलन की बेवफाई से पागल होकर याददाश्त खो बैठता है। 'तेरे नाम' फिल्म का नायक सलमान खान यानी राधे भी इसी तरह पागल होकर याददाश्त खोता है। अधिकांश फिल्मों में जब नायक या नायिका की याददाश्त जाती है, तो अस्पताल के बिस्तर से उसकी पहली प्रतिक्रिया यही होती है मैं कौन हूं, मैं कहां हूं! 
    याददाश्त जाने को केमिकल लोचा बताने की एक कोशिश आमिर खान की सुपरहिट फिल्म 'गजनी' में की गई। एम्नेसिया से पीड़ित यह नायक इतना शातिर है, कि वह याददाश्त भूलने की आशंका में अपने पूरे शरीर को टेलीफोन डायरेक्टरी बना देता है। जबकि, सिर पर चोट की वजह से वो शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस का मरीज रहता है। फिल्म में चीज़ों को भूलने वाला आमिर (संजय) का अपनी गलफ्रेंड की मौत का बदला लेना वास्तव में दिलचस्प था। इस तरह की यादों को झिलमिलाने वाली फिल्मों में शशि कपूर, राखी और रेखा की बसेरा, रणवीर शोरी की मिथ्या, अजय देवगन और काजोल की यू मी और हम, सलमान खान और नीलिमा की एक लड़का एक लड़की, अमिताभ की याराना, सलमान और करिश्मा की क्योंकि, अमिताभ रानी मुखर्जी की ब्लैक, विवेक ओबेराय की प्रिंस, प्रियंका चोपड़ा की 'यकीन' भी शामिल है। 
       ऐसा नहीं कि सारी फिल्मों में याददाश्त आने और जाने को एक उपकथा के रूप में ही इस्तेमाल किया गया हो। 'खामोशी' और 'सदमा' जैसी कुछ सार्थक फिल्में ऐसी हैं, जिनमें इस विषय को गंभीरता से सेल्यूलाइड पर उतारकर दर्शकों की आंखें भी नम कर दी गई। इस विषय पर बनी फिल्मों में 'सदमा' सबसे अच्छी थी। इस फिल्म में सड़क हादसे में शहर की रहने वाली नेहालता (श्री देवी) अपनी याददाश्त खोकर बच्चों जैसा व्यवहार करने लगती है। यह देखकर एक टीचर सोमू  (कमल हासन) लड़की की मदद करने के लिए उसे अपने साथ ले जाता है। दोनों के बीच एक खास रिश्ता बनने के कुछ समय बाद लड़की की याददाश्त लौट आती है और वह अपने घर जाने लगती है। पर जब सोमू उसे रोकने की कोशिश करता है, तो उसे कुछ भी याद नहीं रहता। यह फिल्म टीचर सोमू को मिले सदमे के साथ खत्म हो जाती है। 
      अमिताभ बच्चन की फिल्म 'याराना' में किशन और बिशन बचपन के दोस्त हैं। किशन अनाथ है, जबकि बिशन अमीर घराने से। बिशन के मां प्रॉपर्टी के लिए उस पर खूब अत्याचार करता है और बिशन इस अत्याचार से याददाश्त खो बैठता है। पर, जैसे ही किशन-बिशन से मिलता है उसकी याददाश्त लौट आती है। अमिताभ की ही सुपरहिट फिल्म 'कुली' में वहीदा रहमान को कुछ भी याद नहीं होता। पर, जैसे ही उनके परिवार का फोटो सामने आता है, उसकी आंखों के सामने सबकुछ तैरने लगता है। 'सैलाब' में एक डॉक्टर को मारने निकला दुश्मन रास्ते में अपनी याददाश्त खो देता है और उसका मरीज़ बन जाता है। जब दोनों एक-दूसरे के प्यार में पड़कर शादी कर लेते हैं, तो एक दिन उसकी याददाश्त लौट आती है और वह फिर डॉक्टर को मारने की कोशिश में जुट जाता है।

      'अंदाज़ अपना-अपना' में रवीना पैसे वाली लड़की होती है। शादी करने के लिए आमिर खान अपनी याददाश्त खोने का नाटक करता है और उसके घर और दिल दोनों में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो जाता है। 'एक लड़का एक लड़की' भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें अमीर घराने की अमेरिका से आई रेणु (नीलम) अपने चाचा की साजिश की वजह से नदी में बहकर याददाश्त खो बैठती है। वह राजा और तीन बच्चों को मिलती है, होश में आने पर राजा उसे ये विश्वास दिलाने में कामयाब हो जाता है ये बच्चे उसके हैं और उसे ये घर संभालना है। इसके बाद की कॉमेडी भी मज़ेदार है, पर अपने चाचा को देखते ही नीलम की याददाश्त वापस आ जाती है और सलमान खान का झूठ पकड़ा जाता है। 'सलाम-ए-इश्क़' में बताया गया कि पति-पत्नी के रिश्ते में वैसे तो बहुत पेशेंस की ज़रूरत होती है। उसमें भी अगर पत्नी को कुछ याद न रहे, तो ये कितना मुश्किल होगा सोचकर ही डर सा नहीं लगता। जॉन ने इस डर पर काबू पाया है और यह जता दिया है वो एक परफ्केट हस्बैंड मटेरियल हैं, ऐसे इश्क़ को वाकई में सलाम! 'जब तक है जान' में शाहरुख़ खान है, जो 40 की उम्र में याददाश्त खोकर खुद को 28 का मानने लगता है। ये ऐसा सौ टंच हिट फ़िल्मी फार्मूला है, जिसे कई तरह से इस्तेमाल किया गया और किया जाता रहेगा।  
------------------------------------------------------------------------------------------------

Saturday, August 26, 2023

व्यावसायिक रूप सफल फ़िल्में ही श्रेष्ठता में अव्वल!

69 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार

- हेमंत पाल 

    फिल्मकारों और कलाकारों को उनकी कला और रचनात्मकता के लिए कितने भी पुरस्कार और सम्मान क्यों न मिलें, पर उनकी प्रतिभा को असल पहचान राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से ही मिलती है। दर्शकों को भी संतुष्टि होती है कि ये पुरस्कार वास्तव में उन्हें ही दिए गए जो इस काबिल हैं। इस नजरिए से इस बार के फिल्म पुरस्कारों की तारीफ की जाना चाहिए कि वे दर्शकों की पसंद पर खरे उतरे! किसी भी सम्मानित फिल्म या कलाकारों के नाम पर कोई विवाद जैसी स्थिति नहीं बनी। जबकि, पहले कई बार पुरस्कारों की घोषणा के बाद उनकी आलोचना हुई। फिल्म निर्माता केतन मेहता ने राष्ट्रीय पुरस्कार, 2021 के लिए 11 सदस्यीय ज्यूरी की अध्यक्षता की। इस बार के घोषित पुरस्कारों में गौर करने वाली बात ये रही कि जिन हिंदी फिल्मों और कलाकारों को पुरस्कृत किया गया, उन सभी फिल्मों को व्यावसायिक सफलता भी जमकर मिली।   
     पुष्पा, गंगूबाई काठियावाड़ी और द कश्मीर फाइल्स और 'रॉकेट्री: द नंबी इफेक्ट' की लोकप्रियता जगजाहिर रही और यही कारण है कि किसी भी पुरस्कृत कलाकार या फिल्म को लोगों ने निशाने पर नहीं लिया। सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार अल्लू अर्जुन को 'पुष्पा : द राइस' के दिया गया। वे यह सम्मान पाने वाले तेलुगु फिल्मों के पहले अभिनेता हैं। फिल्म की व्यावसायिक सफलता और अल्लू अर्जुन की अदाकारी को जबरदस्त सराहना मिली थी, जिस पर राष्ट्रीय पुरस्कार ने मुहर लगा दी। यही संजय लीला भंसाली की बायोपिक फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' के बारे में भी कहा जा सकता है। भंसाली की फिल्मों को मिलने वाला यह सातवां राष्ट्रीय पुरस्कार है। इससे पहले उन्हें मैरी कॉम, ब्लैक, बाजीराव मस्तानी, पद्मावत, देवदास और 'ब्लैक' के लिए भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। ग्लैमरस हीरोइन के रूप में पहचानी जाने वाली आलिया भट्ट को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए चुना गया। इस फिल्म में आलिया ने अड्डा चलाने वाली वैश्या की जो एक्टिंग की, वो अद्भुत है। इस श्रेणी के पुरस्कार को कृति सेनन के साथ साझा किया गया। उन्हें 'मिमी' के लिए इस सम्मान से नवाजा गया, जिन्होंने सेरोगेट मदर के किरदार में जान डाल दी।       
     हिंदी फिल्म 'रॉकेट्री: द नंबी इफेक्ट' ने सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। ये फिल्म भले ही बॉक्स ऑफिस पर बहुत ज्यादा कामयाब नहीं रही, पर इस बायोपिक को पसंद करने वालों की संख्या कम नहीं रही। यह फिल्म भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व वैज्ञानिक और एयरोस्पेस इंजीनियर नंबी नारायणन के जीवन पर आधारित है। उन पर एक साजिश के तहत जासूसी के झूठे आरोप लगे थे। व्यावसायिक सफलता के झंडे गाड़ने वाली फिल्म विवेक अग्निहोत्री की 'द कश्मीर फाइल्स' को नरगिस दत्त अवॉर्ड के तहत राष्ट्रीय एकता की सर्वश्रेष्ठ फिल्म कैटेगरी में श्रेष्ठ फिल्म के रूप में चुना गया है। इस फिल्म की काफी आलोचना भी हुई, लेकिन कई मामलों में फिल्म की श्रेष्ठता को चुनौती नहीं दी जा सकती। घोषणा के बाद विवेक अग्निहोत्री ने कहा कि वे यह पुरस्कार आतंकवाद के पीड़ितों खासतौर से कश्मीरी हिंदुओं को समर्पित करते हैं। पंकज त्रिपाठी को 'मिमी' के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार और पल्लवी जोशी को 'द कश्मीर फाइल्स' के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया।  
      मुंबई के कमाठीपुरा की ताकतवर वैश्या गंगूबाई के जीवन पर बनी फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' को पांच श्रेणियों में पुरस्कृत किया गया। आलिया भट्ट को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, उत्कर्षिनी वशिष्ठ को सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले लेखक और फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संपादन का पुरस्कार भी जीता। वशिष्ठ तथा प्रकाश कपाड़िया ने फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक और प्रीतिशील सिंह डिसूजा ने सर्वश्रेष्ठ मेकअप कलाकार का पुरस्कार भी जीता। 'आरआरआर' ने इस बार 6 पुरस्कार जीते। इस फिल्म के संगीत निर्देशक एमएम कीरावानी ने 'पुष्पा' के संगीत निर्देशक देवी प्रसाद के साथ सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन का पुरस्कार साझा किया। दर्शकों का मनोरंजन करने वाली सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म 'काला भैरव' को श्रेष्ठ पुरुष पार्श्व गायक, सर्वश्रेष्ठ स्पेशल इफेक्ट्स, सर्वश्रेष्ठ एक्शन निर्देशन और सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी का पुरस्कार जीता। शूजीत सरकार की बायोपिक 'सरदार उधम सिंह' ने सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म के साथ ही सर्वश्रेष्ठ सिनेमैटोग्राफी (री-रिकॉर्डिंग फाइनल मिक्सिंग), सर्वश्रेष्ठ प्रोडक्शन डिज़ाइन और कॉस्ट्यूम डिजाइन का पुरस्कार जीता। सरदार उधम जैसे क्रांतिकारी पर बनी इस फिल्म, जिसमें भगत सिंह और जलियांवाला बाग घटना भी शामिल है, इस तरह पहचान तथा सम्मान मिला। 
    डायरेक्टर सृष्टि लखेरा की फिल्म 'एक था गांव' को बेस्ट नॉन फीचर फिल्म चुना गया। फिल्ममेकर नेमिल शाह की गुजराती फिल्म 'दाल भात' को बेस्ट शॉर्ट फिल्म (फिक्शन) चुना गया है। सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मराठी फिल्म ‘गोदावरी’ के लिए निखिल महाजन को दिया गया। जबकि, श्रेया घोषाल को 'इराविन निझाल' के गीत 'मायावा छायावा' के लिए सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्व गायिका का पुरस्कार मिला। रिजिनल स्क्रीनप्ले का पुरस्कार मलयालम फिल्म 'नायट्टू' और उसके लेखक शाही कबीर को दिया। मलयालम फिल्म 'मेप्पदियां' के निर्देशक को सर्वश्रेष्ठ डेब्यू फिल्म के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार मिला। सामाजिक मुद्दों पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार असमी फिल्म 'अनुनाद-द रेजोनेंस' को दिया गया। इस बार ज्यूरी को 28 भाषाओं की 280 फीचर फिल्मों के लिए आवेदन मिले थे। 
-----------------------------------------------------------

राष्ट्रीय सम्मान से पुरस्कृत

- सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म - 'रॉकेट्री: द नंबी इफेक्ट' 
- संपूर्ण मनोरंजन प्रदान करने वाली सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म - आरआरआर
- सर्वश्रेष्ठ निर्देशक - निखिल महाजन (गोदावरी)
- सर्वश्रेष्ठ अभिनेता - अल्लू अर्जुन (पुष्पा)
- सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री - आलिया भट्ट (गंगूबाई काठियावाड़ी), कृति सेनन (मिमी)
- सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता: पंकज त्रिपाठी (मिमी)
- सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री: पल्लवी जोशी (द कश्मीर फाइल्स)
- सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार: भाविन रबारी (छेल्लो शो)
- विशेष जूरी पुरस्कार: शेरशाह
- सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म: सरदार उधम
- सर्वश्रेष्ठ कन्नड़ फिल्म: 777 चार्ली
- सर्वश्रेष्ठ मलयालम फिल्म: होम
- सर्वश्रेष्ठ तमिल फिल्म: कदैसी विवासयी
- सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फिल्म: उप्पेना बेस्ट
- मराठी फिल्म: एकदा काय जाला
- सर्वश्रेष्ठ गुजराती फिल्म: छैलो शो
- सर्वश्रेष्ठ बंगाली फिल्म: कल्कोक्खो
- सर्वश्रेष्ठ असमिया फिल्म: अनुर
- सर्वश्रेष्ठ उड़िया फिल्म: प्रतीक्षया
- सर्वश्रेष्ठ मिशिंग फिल्म: बुम्बा राइड
- सर्वश्रेष्ठ मेइतिलोन फिल्म: इखोइगी यम
- बेस्ट डेब्यू डायरेक्टर इंदिरा गांधी पुरस्कार: मेप्पडियन (मलयालम, निदेशक: विष्णु मोहन)
- सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए नरगिस दत्त पुरस्कार: द कश्मीर फाइल्स
- सामाजिक मुद्दों पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म: अनुनाद-द रेजोनेंस (असमिया)
- पर्यावरण संरक्षण/संरक्षण पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म: आवाज व्यूहम (मलयालम)
- सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म: गांधी एंड कंपनी (गुजराती)
- विशेष उल्लेख: 1. कदैसी विवासयी (स्वर्गीय श्री नल्लंदी) 2। झिल्ली (अरण्या गुप्ता और बिथन बिस्वास) 3. होम (इंद्रंस) 4. अनुर (जहाँआरा बेगम)
- सर्वश्रेष्ठ पुरुष पार्श्वगायक: काला भैरव (कोमुराम भीमुडो / आरआरआर)
- सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्व गायिका: श्रेया घोषाल (मायावा छायवा / इराविन निजल)
- सर्वश्रेष्ठ पटकथा - मूल: शाही कबीर (नयट्टु) 
- सर्वश्रेष्ठ पटकथा - अडॉप्टेड: संजय लीला भंसाली और उत्कर्षिनी वशिष्ठ (गंगूबाई काठियावाड़ी) -
- सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक: उत्कर्षिनी वशिष्ठ और प्रकाश कपाड़िया (गंगूबाई काठियावाड़ी) सर्वश्रेष्ठ संपादन: संजय लीला भंसाली (गंगूबाई काठियावाड़ी)
- सर्वश्रेष्ठ छायांकन: अविक मुखोपाध्याय (सरदार उधम)
- सर्वश्रेष्ठ ऑडियोग्राफी: सर्वश्रेष्ठ प्रोडक्शन साउंड रिकॉर्डिस्ट (लोकेशन/सिंक साउंड): चविट्टू (मलयालम), झिल्ली (डिस्कार्ड्स)
- सर्वश्रेष्ठ साउंड डिजाइनर: अनीश बसु (सरदार उधम)
- सर्वश्रेष्ठ री-रिकॉर्डिंग (फाइनल मिक्सिंग): सिनॉय जोसेफ (सरदार उधम)
- सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक (गीत): देवी श्री प्रसाद (पुष्पा)
- सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक (बीजीएम): एम.एम. कीरावनी (आरआरआर)
- सर्वश्रेष्ठ गीत: चंद्र बोस (धाम धाम धाम/कोंडा पोलम)
- सर्वश्रेष्ठ प्रोडक्शन डिजाइन: दिमित्री मलिक और मानसी ध्रुव मेहता (सरदार उधम)
- सर्वश्रेष्ठ कॉस्ट्यूम डिजाइनर: वीरा कपूर ई (सरदार उधम)
- सर्वश्रेष्ठ मेकअप आर्टिस्ट: प्रीतिशील सिंह डिसूजा (गंगूबाई काठियावाड़ी)
- सर्वश्रेष्ठ विशेष प्रभाव: वी श्रीनिवास मोहन (आरआरआर)
- सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी: प्रेम रक्षित (आरआरआर)
- सर्वश्रेष्ठ एक्शन डायरेक्शन पुरस्कार (स्टंट कोरियोग्राफी): किंग सोलोमन (आरआरआर)

गैर फीचर फिल्में

- सर्वश्रेष्ठ गैर-फीचर फिल्म: एक था गांव
- बेस्ट डेब्यू डायरेक्टर नॉन फीचर फिल्म: पांचिका (अंकित कोठारी)
- बेस्ट एंथ्रोपोलॉजिकल फिल्म: फायर ऑन एज
- सर्वश्रेष्ठ आर्ट फिल्म: टी.एन. कृष्णन- बो स्ट्रिंग्स टू डिवाइन
- सर्वश्रेष्ठ एजुकेशनल फिल्म: सिरपिगलिन सिरपंगल
- सर्वश्रेष्ठ जीवनी फिल्म/ऐतिहासिक पुनर्निर्माण संकलन फिल्म: 1. रुखु मतिर दुखु माझी 2. बियॉन्ड ब्लास्ट
- सर्वश्रेष्ठ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी फिल्म: एथोस ऑफ डार्कनेस
- कृषि सहित सर्वश्रेष्ठ पर्यावरण फिल्म: मुन्नम वलावु
- सर्वश्रेष्ठ इंवेस्टिगेटिव फिल्म: लुकिंग फॉर चालान
- सर्वश्रेष्ठ प्रमोशनल फिल्म (पर्यटन, निर्यात, शिल्प, उद्योग आदि को कवर करने के लिए): इन डेंजर हैरिटेज: 'वर्ली आर्ट'
- सामाजिक मुद्दों पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म: 1. मिट्ठू दी 2. थ्री टू वन
- सर्वश्रेष्ठ अन्वेषण/ एडवेंचर फिल्म (खेलों को शामिल करने के लिए): आयुष्मान
- सर्वश्रेष्ठ एनीमेशन फिल्म: कंदित्तुंडु
- विशेष जूरी पुरस्कार: रेखा
- सर्वश्रेष्ठ लघु फिक्शन फिल्म: दाल भट्ट
- पारिवारिक मूल्यों पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म: चंद सांसें
- सर्वोत्तम दिशा: बकुल मटियानी (स्माइल प्लीज)
- सर्वश्रेष्ठ सिनेमैटोग्राफी: बिट्टू रावत (पाताल - टी)
- सर्वश्रेष्ठ संपादन: अभरो बनर्जी (इफ मेमोरी सर्व्स मी राइट)
- सर्वश्रेष्ठ ऑडियोग्राफी (अंतिम मिश्रित ट्रैक के री-रिकॉर्डिस्ट): उन्नी कृष्णन (एक था गांव)
- सर्वश्रेष्ठ प्रोडक्शन साउंड रिकॉर्डिस्ट (लोकेशन/सिंक साउंड): सुरुचि शर्मा (मीन राग)
- सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन: ईशान दिवेचा (सरल)
- सर्वश्रेष्ठ कथन/वॉइस ओवर: कुलदा कुमार भट्टाचार्जी (हाथी बोंधु)
- स्पेशल ज्यूरी अवार्ड- शेरशाह
- सर्वश्रेष्ठ एक्शन डायरेक्शन अवॉर्ड- आरआरआर(स्टंट कोरियोग्राफर- किंग सोलोमन)
- सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी- आरआरआर(कोरियोग्राफर- प्रेम रक्षित)
- सर्वश्रेष्ठ स्पेशल इफेक्ट्स- आरआरआर (स्पेशल इफेक्ट क्रिएटर- वी श्रीनिवास मोहन)
------------------------------------------------------------------------------------------------------------


Monday, August 21, 2023

हिंदी फिल्मों का नया जमाना, धुन नई और गाना पुराना!

- हेमंत पाल

    हिंदी फिल्मकारों पर हमेशा नक़ल के आरोप लगते रहे हैं। इसमें सबसे ज्यादा आरोप लगता है हॉलीवुड फिल्मों की कॉपी करने का। ये बात गलत भी नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब हॉलीवुड की फिल्मों को जस का तस बना दिया गया। इसके अलावा साऊथ की फिल्मों की नक़ल भी की जाती रही। पर, अब तो बकायदा उसे रीमेक नाम देकर बनाया जाने लगा। इसी के साथ कई बार संगीत चोरी का भी मुद्दा उठता रहा। साथ में फ़िल्मी गानों की कॉपी को लेकर बातें की गई। लेकिन, अब गानों का अधिकृत तरीके से इस्तेमाल होने लगा। पुराने हिट गानों के राइट्स खरीदकर उन्हें नए कलेवर में ढालकर फिल्मों में उनका उपयोग किया जा रहा है। आशय यह नहीं कि नए गाने लिखे नहीं जा रहे या गीतकारों का टोटा पड़ गया। 
    दरअसल, ये भी फिल्मकारों का एक तरह का शिगूफा है। वे अपनी फिल्मों में कुछ नया करना चाहते हैं, तो पुराने गानों के बोलों को नए ज़माने के संगीत में ढालकर परोस देते हैं। जबकि, सुनने में आज भी पुराने गाने ही अच्छे लगते हैं। इसके बावजूद याद नहीं आता कि ऐसा कोई गाना लोगों की जुबान पर चढ़ा हो, जिसका संगीत बदलकर उसे किसी फिल्म में डाला गया। पुरानी कहावत 'ओल्ड इज गोल्ड' का आशय यह तो नहीं था। पर, शायद पुराने गानों को नई धुन में पिरोकर फिल्माने का इसीलिए बढ़ा। इस चलन के पीछे असल मंशा क्या है ये तो कभी पता भी नहीं चलेगा। लेकिन, बीते ज़माने की धुनों की लोकप्रियता को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही।    
     रीमेक वाले इस ट्रेंड को दर्शक और फिल्म संगीत के जानकार घटिया प्रयोग बताते हैं। अब तो यह सवाल भी किया जाने लगा कि क्या फिल्मों में अब नए गानों का चलन बंद हो गया! वास्तव में ये फिल्म को लोकप्रिय बनाने का महज़ ट्रेंड है। जब भी कोई एक प्रयोग फिल्मों में सफल होता है, तो उसे बार-बार उपयोग किया जाता है। फिर वो फिल्म की कहानी हो, गाना हो या कोई और फार्मूला। कई संगीतकार तो ऐसे प्रयोगों के नाम से ही जाने जाते हैं, जो पुराने गानों को तोड़-मरोड़कर उन्हें आज की पीढ़ी की पसंद वाली डीजे शैली में ढाल देते हैं। पुराने गानों को नए रैप वर्जन में ढालकर उसके मूल स्वरूप को लगातार बदला जा रहा है। देखा जाए तो हर दूसरी या तीसरी फिल्म में को न कोई ऐसा गाना सुनाई देगा, जो 60-70 या उससे भी पहले के दशक की किसी फिल्म का होता है। ऐसा नहीं कि आम दर्शक या श्रोता इसे पसंद करता है! ये नए ज़माने के रैप पर झूमने वालों की तात्कालिक पसंद होता है। लेकिन, ऐसे गाने कालजयी नहीं होते। कुछ दिन बाद ऐसे रीमिक्स वाले गाने सुने नहीं जाते। लोकप्रियता मिलती भी है, तो वो तात्कालिक होती है।     

      रीमिक्स वाले गानों की चर्चा के बीच ये मसला इसलिए उठा कि करण जौहर की नई फिल्म 'रॉकी और रानी की प्रेम कहानी' में फिर ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में’ गाने को रीमिक्स करके नया गाना ‘व्हाट झुमका’ बनाया गया। जाने-माने संगीतकार प्रीतम ने इस गाने को नया रंग दिया है। ये गाना आलिया भट्ट और रणवीर सिंह पर फिल्माया गया। ओरीजनल में यह गाना 1966 में आई 'मेरा साया'का है और 'झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में' आज भी लोगों की जुबान पर चढ़ा है। इस गाने के बोल राजा मेहंदी अली खान ने लिखे थे और संगीत मदन मोहन ने दिया। इस गाने के कई रीमिक्स बनाए गए। लेकिन, आज तक इसके ओरीजनल वर्जन का कोई मुकाबला नहीं कर सका। 1995 में आई ब्लॉकबस्टर फिल्म 'बॉम्बे' का गाना 'हम्मा-हम्मा' भी दर्शकों को बहुत अच्छे से याद होगा। एआर रहमान का कम्पोज किया गया ये गाना लोगों के दिल के बेहद करीब रहा है। वहीं बाद में आई फिल्म 'ओके जानू' में इस गाने का रैप वर्जन दिखाई दिया। इस गाने में श्रद्धा कपूर और आदित्य राय कपूर ने धमाल मचाया था। 
    1990 में रिलीज हुई फिल्म 'थानेदार' का जबरदस्त गाना 'तम्मा-तम्मा' तो कोई भुला नहीं होगा। माधुरी दीक्षित और संजय दत्त पर फिल्माया गया ये गाना बहुत पसंद किया गया था। बाद में फिल्म 'बद्रीनाथ की दुल्हनिया' में इस गाने को रैप वर्जन पर आलिया भट्ट और वरुण धवन फिल्माया गया। 1981 की फिल्म 'याराना' में 'सारा जमाना हसीनों का दीवाना' गाने में अमिताभ बच्चन के फुट स्टेप सबको याद होंगे। ये गाना फिल्म 'काबिल' में नए कलेवर में नजर आया। 1980 की फिल्म 'कुर्बानी' का सबसे चर्चित गाना 'लैला ओ लैला' विनोद खन्ना, फिरोज खान और जीनत अमान पर फिल्माया गया था। लेकिन, शाहरुख़ खान की फिल्म 'रईस' में इसका रैप मिक्स आइटम नंबर दिखा।
       ये गाना फिल्म में सनी लियोनी पर फिल्माया गया था। 1990 की सुपरहिट फिल्म 'आशिकी' का गाना 'धीरे-धीरे से मेरी जिंदगी में आना' दर्शकों को याद होगा। फिल्म के सभी गाने सदाबहार रहे थे। इस फिल्म का यही एक गाना रैप मिक्स वर्जन में आया। 2014 में हनी सिंह इस गाने का रैप वर्जन लेकर आए जिसे रितिक रोशन और सोनम कपूर पर फिल्माया गया। 2015 की फिल्म 'हेट स्टोरी 3' में 'तुम्हे अपना बनाने की कसम खाई है' गाना दर्शकों को बहुत पसंद आया। जबकि, ये गाना 1991 में संजय दत्त और पूजा भट्ट की फिल्म 'सड़क' का है।
    1968 की फिल्म 'किस्मत' का गाना 'कजरा मोहब्बत वाला' 2012 में आई 'तनु वेड्स मनु' में एक नए अंदाज में नजर आया। इस गाने ने तो जैसे फिल्म में अलग से जान डाल दी। लता मंगेशकर ने 'मेरा दिल ये पुकारे गाना' 1954 में आई 'नागिन' के लिए गाया था। इसे वैजयंती माला पर फिल्माया था। इस गाने का रीमिक्स वर्जन पाकिस्तानी गायिका आयशा ने गाया और डांस भी किया। इसके चलते यह गाना एक बार फिर चर्चा में आ गया। इस गाने पर पाकिस्तानी आयशा ने झूम कर डांस किया, जबकि ओरिजिनल गाना इमोशनल है। इस गाने के रीमिक्स पर कटरीना कैफ ने भी सोशल मीडिया पर रील बनाकर शेयर किया था। 
     1980 में आई फिल्म 'कुर्बानी' का गाना 'लैला में लैला' जिसे जीनत अमान पर फिल्माया गया था। शाहरुख खान की फिल्म 'रईस' में इसे सनी लियोन पर फिल्माया गया। अंतर इतना था कि 'रईस' के गाने की धुन में थोड़ा फेर-बदल कर इसे पेश किया गया।  ऋतिक रोशन की फिल्म 'काबिल' में भी 'सारा जमाना हसीनों का दीवाना' गाने को फिल्माया था, जिस पर उर्वशी रौतेला थिरकी थी। जबकि, यही ओरिजनल गाना अमिताभ बच्चन पर दर्शकों ने देखा था। 2014 में आई फिल्म 'हेट स्टोरी 2' का चर्चित गाना 'आज फिर तुमपे प्यार आया है' फिल्म विनोद खन्ना और माधुरी दीक्षित की 'दयावान' से लिया गया। 
    कंगना रनौत की चर्चित फिल्म 'क्वीन' में 70 के दशक के एक गाने को नया ट्रीटमेंट दिया गया था। ये गाना था 'हंगामा हो गया'। 70 के दशक की फिल्म 'अनहोनी' में ये गाना बिंदु पर फिल्माया था। जबकि, 'क्वीन' में कंगना ने इस पर ठुमके लगाए। जिन गानों का जिक्र किया गया, बात सिर्फ उन तक सीमित नहीं है। ज्यादातर पुराने फ़िल्मी गानों को इसी तरह तेज संगीत की धुन में रिकॉर्ड करके उनकी आत्मा को मार दिया गया। जरुरी नहीं कि इनका फिल्मों में ही उपयोग किया गया हो, प्राइवेट एल्बमों में भी फ़िल्मी कलाकारों पर इन रीमिक्स गानों को फिल्माया गया है। लेकिन, आज भी जमाना उन्हीं कालजयी गीतों का है, जो ओरीजनल हैं।      
------------------------------------------------------------------------------------------------------------

Friday, August 18, 2023

ये भाजपा की चुनावी घबराहट या तैयारी का इशारा!

   भाजपा ने आज जो किया वह अप्रत्याशित ही कहा जाएगा। इसलिए कि जिस तरह की चुनावी तैयारियां भाजपा कर रही है, उसे देखते हुए यह सोचा नहीं गया था कि भाजपा इतनी जल्दी अपनी पहली लिस्ट जारी कर देगी। 39 उम्मीदवारों की पहली लिस्ट इसलिए जारी की गई, ताकि घोषित उम्मीदवार अपने क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाकर जीत का माहौल बना सकें। लेकिन, इस लिस्ट में कई तरह की विसंगतियां हैं। इसलिए इस लिस्ट को देखकर लगता है कि कहीं न कहीं इसमें भाजपा की घबराहट भी छुपी है। 
000 

- हेमंत पाल

    ध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर गुरुवार को चौंकाने वाली खबर सामने आई। भले ही प्रदेश के विधानसभा चुनाव की अभी घोषणा नहीं हुई, पर भाजपा ने 230 में से 39 नाम का एलान करके सियासी माहौल गरमा दिया। घोषित किए 39 उम्मीदवारों में 11 एसटी, 11 ओबीसी एवं 9 सीटें सामान्य वर्ग की घोषित की गई। इस पहली सूची में 2018 में चुनाव हारे 14 चेहरों को फिर मौका दिया गया। इनमें चार पूर्व मंत्री ललिता यादव, लालसिंह आर्य, ओम प्रकाश धुर्वे और नाना भाऊ मोहोड़ भी शामिल है। इस लिस्ट में कई नाम ऐसे हैं, जो पिछला चुनाव हारे थे, फिर भी पार्टी ने उन पर भरोसा जताया। विधानसभा की ये वे सीटें हैं, जहां से पिछला चुनाव या लगातार दो चुनाव पार्टी हारी है। भाजपा की मंशा है कि ऐसे में इन उम्मीदवारों को प्रचार के लिए ज्यादा समय मिल सकेगा। 39 के बाद कुछ और सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा की बात सामने आई है। 
     भाजपा संगठन लम्बे समय से विधानसभा चुनाव को लेकर आचार संहिता बना रहा था। जिसमें पिछला चुनाव हारे नेताओं को टिकट न देने, 65 से ज्यादा उम्र वाले नेताओं को भी चुनाव से बाहर रखने और बेटों, बेटियों, रिश्तेदारों को टिकट न देने की बात कही गई थी। लेकिन, घोषित की गई लिस्ट में वे सभी नियम-कायदे खंडित हो गए। ज्यादातर हारे नेताओं पर ही भरोसा किया गया। कई उम्रदराज नेता फिर चुनाव मैदान में उतारे गए और बेटे, बेटी और बहू तक को उम्मीदवार बनाया। भाजपा से अनुशासनहीनता के लिए निष्कासित और फिर से पार्टी में लिए गए उमा भारती समर्थक प्रीतम सिंह लोधी को पिछोर से उम्मीदवार बनाया है।
सिंधिया समर्थक का पत्ता कटा 
    ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए रणवीर जाटव को पार्टी ने टिकट नहीं दिया। उनकी गोहद सीट से लालसिंह आर्य को उम्मीदवार बनाया गया है। रणवीर जाटव को उपचुनाव में करारी हार मिली थी, इस कारण उनका टिकट काट दिया। जबकि, सिंधिया के साथ भाजपा में आए एदल सिंह कंसाना को सुमावली उपचुनाव हारने के बावजूद फिर उम्मीदवार बनाया है। 
मालवा-निमाड़ की 11 सीटें घोषित 
    घोषित सूची में मालवा-निमाड़ इलाके की 11 सीटों के नाम घोषित हुए हैं। इस बार मालवा-निमाड़ पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही अपना ध्यान केंद्रित कर रखा है। कारण है कि भाजपा ने 39 में से 11 उम्मीदवार मालवा-निमाड़ के घोषित किए। ये हैं सोनकच्छ, महेश्वर, कसरावद, अलीराजपुर, झाबुआ, पेटलावद, कुक्षी, धरमपुरी, राऊ, तराना और घट्टिया विधानसभा सीट। 
कुछ नाम गले उतरने वाले नहीं 
     भाजपा ने घोषणा की थी की सोनकच्छ से कांग्रेस के सज्जन सिंह वर्मा के सामने इस बार कोई ताकतवर उम्मीदवार उतारा जाएगा। लेकिन, उनके सामने राजेश सोनकर को टिकट दिया गया। वे 2018 का चुनाव इंदौर की सांवेर सीट से तुलसी सिलावट से हारे थे। बाद में सिलावट के भाजपा में आने से वे इस सीट से वंचित हो गए। लेकिन, पार्टी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का इनाम देते हुए उन्हें सोनकच्छ से मैदान में उतारा गया है। अब सोनकच्छ में दोनों प्रमुख उम्मीदवार इंदौरी होंगे। इसी तरह झाबुआ से कांतिलाल भूरिया के सामने चुनाव हारे भानु भूरिया को एक बार फिर से उम्मीदवार बनाया गया जो अपेक्षाकृत कमजोर उम्मीदवार है। वे पिछला उपचुनाव कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया से हारे थे। पिछले चुनाव में पार्टी से बाहर किए गए राजकुमार मेव को इस बार भाजपा ने अधिकृत उम्मीदवार बनाया है। उन्हें महेश्वर से मैदान में उतारा है। जबकि, पिछली बार बाहरी होने से स्थानीय स्तर पर उनका विरोध हुआ था।
बेटे और बहू को टिकट दिया 
      जबलपुर की पाटन सीट से पूर्व विधायक प्रतिभा सिंह के बेटे नीरज सिंह ठाकुर को उम्मीदवार बनाया। छतरपुर की महाराजपुर सीट से में पूर्व विधायक मानवेंद्र सिंह भंवर के बेटे कामाख्या प्रताप सिंह को टिकट मिला है। सबलगढ़ विधानसभा सीट के पूर्व विधायक स्व मेहरबान सिंह रावत की बहू सरला रावत को पार्टी ने टिकट दिया। 
जिन पर भरोसा नहीं, वे लिस्ट में 
   उज्जैन की घट्टिया विधानसभा सीट से 2013 में सतीश मालवीय जीते थे। उन्हें 2018 में टिकट नहीं दिया तो वहां से भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। इस बार फिर पार्टी ने सतीश मालवीय पर दांव लगाया है। मुलताई से चंद्रशेखर देशमुख को टिकट दिया गया है। उन्होंने 2013 में कांग्रेस के कद्दावर नेता सुखदेव पांसे को हराया, लेकिन 2018 के चुनाव में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया था और यहां कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। लेकिन इस बार फिर पार्टी ने चंद्रशेखर देशमुख पर भरोसा जताया है।
कई नाम चौंकाने वाले  
   चाचौड़ा सीट से दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह विधायक उनके सामने प्रियंका मीणा को टिकट दिया गया। वे अभी कुछ दिन पहले ही भाजपा में शामिल हुई है। उनके पति राजस्व सेवा में अफसर हैं और अभी दिल्ली में कार्यरत हैं। बालाघाट की लांजी सीट से भाजपा ने राजकुमार कराये को टिकट दिया। राजकुमार ने हाल ही में 'आप' पार्टी से इस्तीफा दिया था। भाजपा की जारी लिस्ट में उनका भी नाम है। 'आप' से पहले भाजपा में थे। दो बार से टिकट की मांग कर रहे थे। अनूपपुर की पुष्पराजगढ़ विधानसभा सीट से भाजपा के जिला महामंत्री हीरासिंह श्याम का नाम घोषित किया गया। वे जनपद पंचायत के अध्यक्ष भी रहे हैं। जबकि, यहां से सांसद हिमाद्री सिंह को चुनाव लड़ाए जाने की चर्चा थी। 
-------------------------------------------------------------------------------------------------

Tuesday, August 15, 2023

सिनेमा में आजादी के रंग और बंटवारे की त्रासद सच्चाई!

- हेमंत पाल

    फिल्मों में फार्मूलों की कमी नहीं है। जब भी कोई फिल्म दर्शकों की पसंद पर खरी उतरती है, तो उसी विषय पर केंद्रित फ़िल्में बनाने की होड़ सी लग जाती है। फिल्मकारों को लगता है कि दर्शकों को यदि एक फिल्म पसंद आई, तो वे दूसरी को भी उसी कसौटी पर कसेंगे। मोहब्बत, बदला, परिवार, डाकू और कॉमेडी के अलावा देशभक्ति भी ऐसा ही फार्मूला है, जो फिल्मकारों की पसंद में हमेशा खरा उतरा। लेकिन, फिल्मों में देशभक्ति को अलग-अलग तरीकों से भुनाया गया। आमिर खान की लगान, शाहरुख़ खान की चक दे इंडिया और सनी देओल की 'ग़दर : एक प्रेम कथा' में भी देशभक्ति का तड़का लगा। युद्धकाल की एक घटना को आधार बनाकर बनी 'बॉर्डर' जैसी फिल्मों में भी देश प्रेम दर्शाया था। फिल्मों ने देश के विभाजन के उन दृश्यों को भी परदे पर उतारा, जो उस दौर को देखने वालों ने किताबों में दर्ज किए थे। 
    बंटवारे की त्रासदी पर कई फिल्में बनाई गई, ताकि आजादी के बाद में जन्मे लोग उस दौर की विभीषिका और सच को जान सकें। इस दर्द को सबसे पहले 1949 में आई फिल्म 'लाहौर' में दिखाया गया। फिल्म में देश के विभाजन के समय एक युवती का अपहरण कर उसे पाकिस्तान में रख लिया जाता है। जबकि, उसका प्रेमी भारत आ जाता है। बाद में वह अपनी प्रेमिका को खोजने पाकिस्तान जाता है। सनी देओल की फिल्म 'ग़दर' भी कुछ इसी तरह की कहानी पर बनी। इसके बाद 1961 में आई फिल्म 'धर्मपुत्र' बंटवारे और धर्म आधारित दंगों पर बनाई गई। इस फिल्म का गाना ‘तू हिंदू न बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा’ दोनों धर्मों की एकता को दर्शाता है।
    लम्बे अरसे बाद 1973 में फिल्म 'गरम हवा' को बंटवारे पर बनी अब तक की बेहतरीन फिल्मों में गिना जाता है। इसमें एक मुस्लिम परिवार की कहानी थी, जो इस सोच में उलझ जाते हैं, कि बंटवारे के बाद किस देश में रहा जाए। यह फिल्म इस्मत चुगताई की उर्दू लघु कहानी पर आधारित थी। बंटवारे पर 1988 में भीष्म साहनी ने 'तमस' बनाई, जो उन्हीं के उपन्यास पर आधारित थी। यह फिल्म रावलपिंडी में हुए दंगों की सच्ची घटनाओं की आंखों-देखी थी। इससे पहले 1986 में गोविंद निहलानी इसी नाम (तमस) से सीरियल भी बना चुके थे। इसके बाद 1998 में खुशवंत सिंह के उपन्यास पर 'ट्रेन टू पाकिस्तान' बनी। यह पाकिस्तानी शहर मनो माजरा के पास एक रेलवे लाइन के किनारे बसे गांव की कहानी थी। यह गांव पहले सिख बहुल था और मुस्लिमों की आबादी कम थी। लोग वहां मिलकर रहते थे। पर, बंटवारे के बाद उस शहर की स्थिति और जगहों की तरह ही बदल जाती है और दंगे होते हैं।
     दो देशों के बंटवारे को रिचर्ड एटिनबरा की 1982 में आई 'गांधी' में भी दिखाया गया था। 'गांधी' के करीब 18 साल बाद 2000 में आई कमल हासन के निर्देशन में बनी 'हे राम' भी विभाजन की त्रासदी पर बनी। इसमें भी देश विभाजन के दर्द को महसूस कराया गया। 1999 में आई सनी देओल और अमीषा पटेल की फिल्म 'गदर : एक प्रेम कथा' बंटवारे के समय की प्रेम कहानी थी। इस फिल्म का सीक्वल हाल ही में रिलीज हुआ। 1999 की दीपा मेहता की फिल्म '1947 अर्थ' का कथानक भी कुछ इसी तरह का था। इसमें आजादी के समय में देश के विभाजन से पहले और उस दौर में लाहौर की स्थिति को परदे पर दिखाया था। गुरिंदर चड्ढा की फिल्म 'पार्टीशन' (2017) भी आजादी और विभाजन की दास्तां पर आधारित है। इस फिल्म में विभाजन से पहले 1945 की सच्ची घटनाओं का जिक्र है। 'फ्रीडम एट मिडनाइट' किताब पर बनी फिल्‍म को अंग्रेजी में 'द वायसराय हाउस' नाम से बनाया गया।
   डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन में 2003 में बनी फिल्म 'पिंजर' भी महिलाओं के कसक की कहानी थी। यह पंजाबी की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम के उपन्यास पर बनी थी। इसमें बंटवारे के वक्त एक युवती अपने परिवार से बिछड़ जाती है। उसे किसी धर्म का युवक अपने पास रखता है और उससे शादी करता है। इस पूरी फिल्म में बंटवारे की विभीषिका झेल रही महिलाओं के अंतर्द्वंद की कहानी थी। 2003 में भारत-पाकिस्तान के रिश्तों पर आधारित फिल्म 'खामोश पानी' दोनों देशों में एक साथ रिलीज हुई थी। लेकिन, अब इस मुद्दे पर गंभीर फ़िल्में बनना लगभग बंद हो गया! बनती भी हैं, तो फार्मूला फ़िल्में जिनमें नायक पाकिस्तान जाकर हेंडपम्प उखाड़ देता है! आजादी के बाद करीब दो दशक तक बनी फिल्मों में देशभक्ति के किस्सों को कई तरह से दोहराया जाता रहा। इन फिल्मों में दिलीप कुमार की 'शहीद' प्रमुख थी। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद एक ऐसा दौर जरूर ऐसा आया, जब चेतन आनंद ने इस विषय पर 'हकीकत' जैसी सार्थक फिल्म बनाई। लेकिन, उसके बाद देशभक्ति के नाम पर जो कुछ परोसा गया, उसमें ऐसी भक्ति की भावना करीब-करीब नदारद ही रही। 
    भगतसिंह के चरित्र पर बनी 'शहीद' की सफलता ने मनोज कुमार को फिल्में हिट करने का एक फार्मूला जरूर दे दिया। इस दौर के बाद देशभक्ति के नाम से जितनी फ़िल्में बनी, उनमें फिल्मकारों ने इस बात का ध्यान रखा कि यदि दर्शकों की भावनाएं यदि किसी विषय पर भड़कती है, तो वो है पाकिस्तान विरोध! जेपी दत्ता ने भारत और पाकिस्तान युद्ध पर आधारित फिल्म 'बॉर्डर' बनाई! कथित देशभक्ति के नाम पर इन दिनों बनाई जाने वाली फिल्मों का एक ही लक्ष्य होता है, जितना हो सके पाकिस्तान की फजीहत दिखाई जाए! क्योंकि, देशभक्ति का यही सबसे हिट फार्मूला भी है।  निर्माता निर्देशक अनिल शर्मा ने 'गदर : एक प्रेम कथा' में 'हिंदुस्तान जिंदाबाद था, हिंदुस्तान जिंदाबाद है और हिंदुस्तान जिंदाबाद रहेगा' जैसे डायलॉग लिखकर खूब तालियां पिटवाई। उसके बाद आमिर खान की 'सरफरोश' में भी देशभक्ति का वही पुराना तड़का था। 
--------------------------------------------------------------

आज भी कायम है आजादी के तरानों का जोश

- हेमंत पाल

      फ़िल्मी गीतों की अपनी तासीर होती है। जिस मूड का गीत रचा जाता है, सुनने वालों पर भी वो उसी तरह अपना असर छोड़ता है। प्रेम गीत सुनकर जिस तरह अलग अहसास होता है। उसी तरह आजादी के तराने सुनकर जोश आ जाता है। आज भले ही फिल्मों के हर तरह के गीत पसंद किए जाते हैं, पर आजादी की जंग के कथानक वाली फिल्मों के गीतों का जलवा आज भी कायम है। जंग से जुड़ी नई फ़िल्में ही नहीं, पुरानी फिल्मों के गीत आज भी सुनने वालों को उस दौर की याद दिलाते हैं। हर दौर में ऐसी फिल्मों ने देशप्रेम के जज़्बे को बख़ूबी से अभिव्यक्त किया। आजादी के समय में रचे गए देशभक्ति के कई ऐसे फ़िल्मी गीत हैं, जो कभी पुराने नहीं हुए। 75 साल बाद आज भी इनकी लोकप्रियता बरक़रार है। हमारे यहां हर पर्व और त्यौहार एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। जिस तरह हर त्यौहार की रंगत फ़िल्मी गीतों के बिना अधूरी रहती हैं, वही स्थिति आजादी के तरानों की भी है।  
      इन कालजयी फ़िल्मी गीतों में कुछ ऐसे गीत भी हैं, जो हर भारतीय को वतन के प्रति अपनी मोहब्बत का इज़हार करने के लिए अल्फ़ाज़ देते हैं। ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी, अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं और 'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की' ऐसे ही गीत हैं जो कभी पुराने नहीं लगते। देश को आजादी मिले 75 साल से ज्यादा हो गए। जब देश आजादी की जंग से जूझ रहा था, तब गीतकार जोश भरने के लिए अपनी शब्द रचना में जुड़े थे। देश का पहला देशभक्ति गीत 'जन गण मन अधिनायक जय हे' 1911-12 में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने रचा था। इस गीत में भारत की भौगोलिक स्थिति के ज़रिए देशप्रेम की भावना व्यक्त की गई। बंकिमचंद्र चटर्जी की ओजस्वी रचना 'वंदे-मातरम' को फ़िल्म 'आनंद मठ' (1952) में लिया गया था।। 1950 में 'वंदे मातरम' को राष्ट्रगीत और 'जन गण मन' राष्ट्रगान के रूप में मान्यता दी गई। 1943 में आई फ़िल्म 'किस्मत' के लिए 'दूर हटो ऐ दुनिया वालों' लिखा गया, जिसका संगीत अनिल बिस्वास ने दिया था। 
       राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देने वाले गीत 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल' भी स्वतंत्रता की अलख जगाने वाला ही गीत था। इसे 1954 में आई फिल्म 'जागृति' में उपयोग किया गया। इसे हेमंत कुमार ने संगीतबद्ध किया और उन्होंने ही आशा भोंसले के साथ गाया भी था। इसके गीतकार कवि प्रदीप थे। फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाने वाले बाल कलाकार मास्टर रतन फिल्म की रिलीज के एक साल बाद ही पाकिस्तान में बस गए थे। वहां भी उन्होंने 'जागृति' जैसी ही फ़िल्म बनाई जो मोहम्मद अली जिन्ना पर आधारित थी। इसी गीत की ही धुन पर दूसरा गीत रचा था। देखा गया है कि देश प्रेम के ज्यादातर जोशीले गीत आजादी के बाद ही रचे गए। उन्माद और जोश से भरा गीत 'ये देश है वीर जवानों का' भी 1957 में आई बीआर चोपड़ा की फ़िल्म 'नया दौर' का था। इसे ओपी नैयर के संगीत में मोहम्मद रफी ने गाया और परदे पर भी इसे उतनी ही खूबसूरती से पेश भी किया गया। आज ये गीत राष्ट्रीय पर्वों का हिस्सा बन चुका है।
    डॉ अलामा इक़बाल की लिखी कविता 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' गीत को 'भाई-बहन' (1959) और 'धर्मपुत्र' (1961) जैसी फ़िल्मों में भी रखा गया था। देश प्रेम के गीतों वाली फिल्मों में 1961 की फ़िल्म 'काबुलीवाला' भी है। इस फिल्म के गीत 'ऐ मेरे प्यारे वतन' को मन्ना डे ने बेहद खूबसूरती से गाया था। देशभक्ति के गीतों की बात 'ऐ मेरे वतन के लोगों के बिना पूरी नहीं होती। इस गैर फ़िल्मी गीत को कवि प्रदीप ने 1962 में भारत-चीन युद्ध में मारे गए भारतीय सैनियों को श्रद्धांजलि देने के लिए रचा था। लता मंगेशकर ने इस गीत को कुछ ऐसे गाया था कि सुनने वालों की आंखें आज भी नम हो जाती है। 1964 की फिल्म 'हकीकत' के गीत 'अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों' भी देशभक्ति ओतप्रोत था। कैफ़ी आज़मी के लिखे इस गीत को मदन मोहन ने संगीत दिया और मोहम्मद रफी ने गाया था। 1965 में आई फिल्म 'शहीद' का जोशीला गीत 'ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम' देश के स्वतंत्रता संघर्ष के अहम किरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत पर आधारित था। ये गीत हर राष्ट्रीय पर्व का हिस्सा बन गया है। 1967 में आई फिल्म 'उपकार' के गीत 'मेरे देश की धरती सोना उगले' भले ही आजादी के कई साल बाद जन्मा, पर इस गीत के बोलों में भविष्य के भारत का ताना-बाना मिलता है। 
     समय के साथ बहुत कुछ बदला, पर देशभक्ति वाले जोशीले गीत अभी भी रचे और पसंद किए जा रहे हैं। 1986 की फिल्म 'कर्मा' के गीत दिल दिया है जान भी देंगे, 'स्लमडॉग मिलियनेयर' (2008) के गाने 'जय हो' आज भी लोकप्रिय गीतों में शामिल है। जाने-माने संगीतकार और एआर रहमान ने दशकों पुराने गीत 'वंदे मातरम' को अपनी आवाज़ फिर से गाकर जोश भर दिया है। फिल्म 'राजी' (2018) का देशभक्ति गीत 'ऐ वतन ऐ वतन' के बोल दिल को छू लेने वाले हैं। इस गाने को सुनिधि चौहान ने अपनी आवाज़ दी है। वहीं शंकर एहसान लोय ने गाने में म्यूजिक दिया है। इसके बाद 2019 की फिल्म 'केसरी' के गीत 'तेरी मिट्टी' ने सबकी आंखे नम कर दीं। इस गीत के बोल सुनने वाले के दिल में देशभक्ति जगाता है।
------------------------------------------------------------

Sunday, August 13, 2023

परदे पर देशभक्ति भी मसालेदार फार्मूला!

- हेमंत पाल

    फिल्में फार्मूले से चलती है और फिल्मकारों को इस बात का अंदाजा है कि वो कौन सा फार्मूला है, जो दर्शकों को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। क्योंकि, फार्मूले ही दर्शकों को खींचकर बॉक्स ऑफिस की खिड़की तक लाते हैं। एक हिट फार्मूला है देशभक्ति। इस फार्मूले को भी फिल्मकारों ने अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल किया। कुछ फिल्मकारों ने आजादी के दौर की कहानियों को अपने कथानक का हिस्सा बनाया। कुछ ने आजादी के उन हीरो पर फ़िल्में बनाई, जो उस दौर के प्रमुख किरदार रहे। कुछ फिल्मकारों ने भारत के पड़ौसी देशों से युद्ध की किसी एक घटना को आधार बनाकर उसे फिल्म का रूप दिया। ऐसी भी फ़िल्में बनी, जब फिल्मकारों ने दर्शकों के सामने पड़ौसी देशों को किसी मुद्दे पर हारते दिखाकर अपनी झोली भरी। 
     इसके अलावा देशभक्ति वाली फिल्मों का फार्मूला जासूसी फ़िल्में भी रही। ऐसी कई फिल्में हैं, जो जासूसी के धरातल पर गढ़ी गई और दर्शकों को पसंद भी आई। इनमें भारतीय जासूसों को पड़ौसी मुल्कों की धरती पर अपना काम मुस्तैदी से करते दिखाया गया। उनके इस काम की सफलता को देशभक्ति के पैमाने पर नापा गया। इसके अलावा कुछ ऐसी भी अनोखी फ़िल्में बनाई गई, जिनमें देशभक्ति को प्रेम कहानियों में भी पिरोया गया। इस तरह की देशभक्ति दिखाई जाने के ताजा उदाहरण है 'ग़दर' जैसी फिल्मों के दोनों भाग। इस फिल्म में देशभक्ति को प्रेम के कथानक से जोड़कर कहानी रची गई। इसी तरह एक मेघना गुलजार की फिल्म 'राजी' में भी जासूसी को प्रेम से जोड़कर फिल्म का कथानक तैयार किया गया और ऐसी सभी फिल्में हिट भी हुई। 
     अब ये सौ टंच हिट फार्मूला सिर्फ फिल्मों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इन्हें ओटीटी प्लेटफॉर्म पर वेब सीरीज में भी आजमाया जाने लगा है। यहां थ्रिलर, सेंसेशन, इरोटिक जैसे कंटेंट की कमी नहीं, पर अब देशभक्ति बेस्ड फिल्मों और वेब सीरीज भी यहां पसंद की जाने लगी। 'सरदार उधम सिंह' बड़े परदे के बजाए ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज की गई। यह फिल्म सरदार उधम सिंह की जिंदगी की कहानी बताती है। देश की आजादी की जंग के कई शहीदों को अभी न्याय और सम्मान मिलना बाकी है। इस लिहाज से सरदार उधम की कहानी के लिए निर्देशक शुजित सरकार के काम को सराहा गया। उन्होंने इसे सिर्फ फिल्म न रखते हुए किसी दस्तावेज की तरह पर्दे पर उतारा है। जाने-माने निर्देशक कबीर खान के निर्देशन में बनी 'द फॉरगॉटन आर्मी' एक बेहतरीन और देशभक्ति वाली वेब सीरीज है। इस फिल्म में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज की कल्पना की तस्वीर खींची गई। इसमें वतन पर मिटने जाने के जज्बे को इस तरह दिखाया गया कि दर्शकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 'बोस डेड/अलाइव' वेब सीरीज भी सुभाष चंद्र बोस पर ही आधारित है। इसमें अंग्रेजों के खिलाफ नेताजी की जंग से लेकर मौत तक के अनसुलझे रहस्यों तक को वेब सीरीज में दिखाया गया है। इसमें राजकुमार राव के अभिनय को काफी पसंद किया गया। 
    'स्पेशल ऑप्स' वेब सीरीज की स्टोरी लाइन भी कमाल की है, जो संसद पर हुए हमले की याद दिलाती है। उस हमले के सूत्रधार को रॉ एजेंट बने केके मेनन ढूंढ निकालते हैं और अपने मिशन को मुकाम तक पहुंचाते हैं। अभिनेता केके मेनन ने इसमें कमाल का काम किया है। इसी तरह की दूसरी सीरीज है 'द फैमिली मैन 1-2' जो एक सीक्रेट एजेंट की कहानी है। वो अपने परिवार से लगाकर देश तक की चिंता करते हुए देश की सुरक्षा पर आंच नहीं आने देता। इस सीरीज के दोनों सीजन में इंटेलिजेंस एजेंसी के एजेंट बने मनोज बाजपेयी ने अद्भुत काम किया है। जेनिफर विंगेट की वेब सीरीज 'कोड एम' में वे आर्मी ऑफिसर की भूमिका में हैं। वे एक केस लड़ती हैं और आर्मी की छवि को अलग ढंग से निखारती है। 
     निमरत कौर के अभिनय वाली वेब सीरीज 'द टेस्ट केस' भी देशभक्ति वाले कथानक पर गढ़ी गई है। ऑल्ट बालाजी की इस सीरीज में देशभक्ति का जज्बा तो है ही, यह ऐसी लेडी आर्मी ऑफिसर की कहानी भी है जो पुरुषों की दुनिया में खुद को साबित की कोशिश करती है और सफल भी होती है। 'पीओडब्ल्यू बंदी युद्ध के' वेब सीरीज दो जवानों की रियल लाइफ पर बेस्ड है। वे करीब 17 साल तक युद्ध बंदी रहने के बाद परिवार से मिले हैं। सीरीज देशभक्ति तो जगाने के साथ एक पॉलिटिकल थ्रिलर भी है। इसे बेस्ट एशियन शो का भी खिताब मिला है। '21 सरफरोश: सारागढ़ी 1897' की कहानी विख्यात सारागढ़ी युद्ध पर आधारित है। इसमें 21 वीर सिखों ने देश पर प्राण त्याग दिए थे, पर दुश्मन को जीतने नहीं दिया। इसी कहानी पर बाद में अक्षय कुमार की फिल्म 'केसरी' बनी।
        'द फाइनल कॉल' वेब सीरीज नॉवल 'आई विल गो विद यू, द फ्लाइट ऑफ अ लाइफटाइम' पर आधारित है। देशप्रेम की इस कहानी में न फौज है न सिपाही। एक सिरफिरा पायलट है जिसके मंसूबों में देशवासियों को बचाने की कोशिश है। 'जीत की जिद' मेजर दीप सिंह सेंगर की जिंदगी से प्रेरित है। कारगिल में दिखाए शौर्य के लिए उन्हें राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया। वेब सीरीज तमाम सिनेमाई छूट लेते हुए उनकी कहानी दिखाती है। इसमें उनकी बहादुरी के साथ व्हीलचेयर पर आने के बाद अपनी इच्छा शक्ति के बल पर फिर पैरों पर खड़े होते दिखाया गया है। 
     फिल्मकारों के लिए कारगिल युद्ध ऐसी फिल्मों के लिए नया पड़ाव रहा। इस युद्ध का कई फिल्मों में जिक्र भी आया! एलओसी, लक्ष्य, स्टंप, धूप, टैंगो चार्ली और 'मौसम' से लेकर 'गुंजन सक्सेना' जैसी कई फिल्में बनाई गई। इन्हीं में से एक 'शेरशाह' भी है, जो इन सबसे से अलग है। यह एक शहीद की बहादुरी की सच्ची पर आधारित है। इस फिल्म में दिखाया है कि सेना के जांबाज कैसे 18 हजार फीट ऊंची बर्फीली चोटियों पर चढ़कर दुश्मन को परास्त करते हैं। ये फिल्म कैप्टन विक्रम बत्रा और उनके जैसे बहादुर की कहानी है जिनकी बदौलत देश ने भारतीय सीमा में घुसी पाकिस्तानी सेना को ठिकाने लगाया था। 'लाहौर कॉन्फिडेंशियल' भी बेहद कसी हुई सवा घंटे की फिल्म है। यह फिल्म शुरू से अंत तक रोमांच को बरकरार रखती है। कुणाल कोहली ने निर्देशन में बनी इस फिल्म में देश प्रेम का अलग ही अंदाज है। चाहे एक-दूसरे के यहां सेंध मारने की कोशिश हो या मोहब्बत का ड्रामा। इस लिहाज से 'लाहौर कॉन्फिडेंशियल' अब तक भारत-पाक पर आधारित फिल्मों में अलग है। ऐसी ही एक फिल्म है 'मुंबई डायरीज 26/11' जिसका कथानक सच्ची घटना पर तो गढ़ा गया, पर है पूरी तरह फ़िल्मी है। 
      मेघना गुलजार की फिल्म 'राजी' में भी अलग तरह की देशभक्ति दिखाई दी। निर्देशक इस बात को लेकर साफ़ थी कि वे फिल्म के लिए पाकिस्तान को निशाना बनाने वाले हथकंडों या पाकिस्तान विरोधी नारों का सहारा लेना नहीं चाहती। हरिंदर सिक्का के उपन्यास 'कॉलिंग सहमत' पर बनी 'राजी' एक ऐसी भारतीय लड़की की कहानी है, जिसकी शादी 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान जासूसी करने के मकसद से पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी से होती है और वो लड़की अपने मकसद में सफल भी होती है। इस फिल्म में देशभक्ति दिखाने के लिए किसी हंगामे या नारेबाजी की जरूरत नहीं दिखाई दी। जबकि, फिल्मकारों का शिगूफा है कि वे देश भक्ति दिखाने के लिए पड़ौसी देश को निशाना बनाने का कोई मौका नहीं चूकते! यहां तक कि 'ग़दर' कैसी फार्मूला फिल्म का हीरो तो पाकिस्तान जाकर हैंडपंप तक उखाड़ देता है।  
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

Friday, August 11, 2023

'जब हर समाज से मुख्यमंत्री बना तो आदिवासी भी बने!'

 साक्षात्कार : उमंग सिंघार
    कांग्रेस विधायक उमंग सिंघार हमेशा अपने बयानों के कारण चर्चा में रहते हैं। इस बार उन्होंने आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग उठाकर कांग्रेस और भाजपा दोनों की राजनीति को गरमा दिया। वे अपनी बात को सही भी मानते हैं। क्योंकि, जब प्रदेश में हर वर्ग से मुख्यमंत्री बन चुके तो फिर आदिवासियों को हाशिए पर क्यों छोड़ दिया गया! उनका कहना है कि मौका मिला तो वे अपनी इस बात को पार्टी के बड़े नेताओं के सामने रखने से भी चूकेंगे नहीं!     

- हेमंत पाल

     इन दिनों आदिवासी विधायक उमंग सिंघार अपने मुखर बयान की वजह से सियासी गलियारों में खासी चर्चाओं में हैं। उन्होंने प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री के मुद्दे को हवा देकर बरसों पुरानी मांग को फिर उठा दिया। धार जिले की गंधवानी विधानसभा सीट से लगातार तीन बार जीते उमंग का कहना है कि जब प्रदेश में सरकार बनाने में आदिवासियों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाता है, तो फिर आदिवासी मुख्यमंत्री की दावेदारी करने में क्या बुराई ! ये सही है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा, यह पार्टी हाईकमान और जीते हुए विधायक तय करते हैं। लेकिन, दावेदारी करने में क्या बुराई! जब हर समाज के नेताओं को मौका मिला तो आदिवासी समाज को भी प्रतिनिधित्व का मौका तो मिलना ही चाहिए।  
     'सुबह सवेरे' से चर्चा करते हुए वे न तो अपनी बात से पलटते हैं और न बचते नजर आते हैं। उनका स्पष्ट कहना है कि यदि कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए आदिवासी महत्वपूर्ण है, तो फिर उन्हें मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया जाता। उनकी दावेदारी को गलत या बगावत क्यों समझा जाता है। आज का आदिवासी युवा योग्य है, समर्थ है, पढ़ा-लिखा है और उसमें नेतृत्व करने की योग्यता है, तो फिर उसे मौका देने में बुराई क्या है! जब ब्राह्मण, वैश्य, राजपूत और ओबीसी सभी वर्ग के नेता मुख्यमंत्री बन चुके तो आदिवासी क्यों नहीं!   
    मध्यप्रदेश की फायरब्रांड कांग्रेस नेता स्व जमुना देवी  भतीजे और उनकी राजनीतिक विरासत को संभालने के साथ उसे अपने ढंग से आगे बढ़ाने वाले उमंग सिंघार का कहना है कि मैंने अपने समाज की भावना रखी है। मैं अपने लिए व्यक्तिगत रूप से मुख्यमंत्री पद की दावेदारी भी नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ आदिवासी मुख्यमंत्री की बात कर रहा हूं। मैंने जो कहा वह आदिवासियों की भावना थी और मैं अपने बयानों से भी पीछे भी नहीं हट रहा। ये मेरी आदत भी नहीं है कि मैं बोलकर अपनी बात से पलट जाऊं या नए मतलब समझाने लगूं। मैंने जो कहा साफ़ कहा और मैं अपनी बात पर कायम हूं और रहूंगा।  
    जब उनसे पूछा गया कि आप किस आदिवासी नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी के योग्य पाते हैं? तो उनका कहना था कि ये चुनना मेरा अधिकार क्षेत्र नहीं है। ये तो पार्टी हाईकमान को तय करना है कि पार्टी में योग्य आदिवासी नेता कौन है! लेकिन, उनका तार्किक रूप से कहना था कि जब राजनीतिक पार्टियां ये मानती हैं कि आदिवासियों के वोटों के बिना कोई पार्टी प्रदेश में सरकार नहीं बना सकती, तो फिर उनकी ताकत को नजरअंदाज क्यों किया जाता है। प्रदेश में 20 फीसदी से ज्यादा आदिवासी वोटर हैं, जो भी पार्टी की सरकार तय करते हैं, तो मेरी मांग को जायज समझा जाना चाहिए।   
    उनसे कहा गया कि कांग्रेस में आपकी मांग का समर्थन करने वाला कोई सामने नहीं आया, पर भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा और गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने आपकी बात को सही कहा! इस पर कांग्रेस विधायक का जवाब था कि उन्होंने मेरी बात का समर्थन के बहाने शिवराज सिंह पर तीर चलाया है। यदि उन्हें मेरी बात इतनी यही सही लगती है, तो फिर उन्हें भाजपा में भी इस बात को उठाना चाहिए! शिवराज सिंह जब आदिवासियों से इतनी आत्मीयता दिखा रहे हैं, तो उनके राजनीतिक भविष्य की भी चिंता करें। 
    उमंग सिंघार ने कहा कि यदि जरूरत पड़ी तो मैं पार्टी के मंच पर भी अपनी बात रखने से नहीं हिचकूंगा, क्योंकि जब हर समाज अपनी बात रख सकता है, तो मैं आदिवासी समाज की बात को भी अपनी पार्टी के सामने रखूंगा। अब यह पार्टी हाईकमान को तय करना है कि किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिले। आज की तारीख में आदिवासी युवा जागरूक हो चुका है। वह अपना राजनीतिक अधिकार भी मांग सकता है। ऐसी स्थिति में जब दोनों ही पार्टियां आदिवासियों की ताकत को समझ रही है, तो फिर इस मांग को अनुचित क्यों माना जा रहा। मैंने आदिवासी मुख्यमंत्री को लेकर अपनी बात कही है किसी व्यक्ति का नाम नहीं लिया और न अपने आपके लिए ऐसी कोई दावेदारी की। ये समाज की भावना थी, जिसे मैंने सामाजिक मंच से उठाया है। 
   उन्होंने आदिवासियों को वनवासी बताए जाने की भाजपा की कोशिश पर भी आपत्ति ली। उमंग सिंघार का कहना था कि पूरे देश में बरसों से आदिवासी समाज कहा जा रहा है, तो भाजपा को नया नाम देने का अधिकार किसने दिया। दरअसल, इसके पीछे भाजपा और संघ की सोची-समझी चाल है। वे आदिवासियों को हिंदू साबित करके हमें आरक्षित वर्ग के तहत मिलने वाली सुविधाओं से वंचित करना चाहते हैं। संघ के अनुषांगिक संगठनों ने इसके लिए बहुत कोशिश कर ली, पर वे सफल नहीं हुए। 
   कांग्रेस विधायक ने यह भी कहा कि आदिवासी पूरी तरह कांग्रेस के साथ थे और आगे भी रहेंगे। वे भाजपा के भरमाने से बदलने वाले नहीं हैं। वे जानते हैं कि हमारा असल हितैषी कांग्रेस है न कि भाजपा। विश्व आदिवासी दिवस पर छुट्टी घोषित न करने पर भी कांग्रेस विधायक आक्रोशित नजर आए! उनका कहना था कि अब हमारी सरकार बनेगी तो छुट्टी फिर शुरू होगी। जब मुख्यमंत्री हर समाज को उनके त्यौहार पर छुट्टी दे सकते हैं, तो आदिवासियों के साथ ये भेदभाव क्यों किया गया! इसका जवाब आदिवासी अगले चुनाव में जरूर देंगे।    
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------

Friday, August 4, 2023

अमित शाह के ने नेताओं को उत्साहित कम किया, डराया ज्यादा!

 


- हेमंत पाल

   इस बार का विधानसभा चुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए कांटा-जोड़ होने के साथ प्रतिष्ठा की लड़ाई भी है। भाजपा के सामने बड़ी चुनौती अपने आदिवासी वोट बैंक को बचाकर खोई सीटें फिर पाने की है। जबकि, कांग्रेस को अपना जनाधार बरक़रार रखना है, ताकि पार्टी सरकार बनाने लायक बहुमत पा सके। इंदौर आकर अमित शाह ने बूथ कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने के बहाने भाजपा को डरा जरूर दिया! गृह मंत्री के इंदौर के आयोजन को भले ही मालवा-निमाड़ कहा जा रहा हो, पर ये मालवा के 9 जिलों तक सीमित था। निमाड़ पर अभी ध्यान नहीं दिया गया।
     शायद इसी की तात्कालिक प्रतिक्रिया ये हुई कि कांग्रेस ने चुनाव अभियान की जिम्मेदारी ही आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया को सौंप दी। पर, भाजपा अभी तक ऐसा कोई साहसिक प्रयोग नहीं कर सकी। शायद इसलिए कि भाजपा के पास ऐसे चमत्कारिक आदिवासी नेता की कमी है, जिसका जादू चलता हो! कांतिलाल भूरिया को कमान सौंपने से कोई आसमान फाड़ बहुमत तो नहीं बरसेगा, पर इससे आदिवासी मतदाताओं में भरोसा बनेगा।  
     प्रदेश में तीसरा बड़ा वोट बैंक आदिवासियों का ही हैं। अमित शाह ने इसी गणित को समझकर बूथ कार्यकर्ताओं को जीत का फार्मूला देने की कोशिश की। लेकिन, भाजपा की इस फौरी कवायद से बाजी पलट जाएगी, ऐसा नहीं लगता। पार्टी को आदिवासियों के दिल में उतरना होगा, तभी कुछ हो सकेगा।अमित शाह के इंदौर दौरे से भले भाजपा खुद ही उत्साहित हो रही हो, पर अमित शाह की बात जनता को समझ नहीं आई! बल्कि, उनकी जो बातें रिसकर बाहर आई उससे अब यह साफ़ हो गया कि प्रदेश के नेताओं की क्षमता पर भाजपा के बड़े नेताओं को अब उतना भरोसा नहीं है, जितना पहले था।
      पिछले चुनाव की हार की कसक अभी भाजपा के बड़े नेता भूले नहीं हैं। यही कारण है कि वे जीत के फार्मूले भी खुद गढ़कर लाए और ये भी कहा कि मैं सीधे बात करूंगा। पिछले 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मालवा-निमाड़ में तगड़ा झटका लगा था। भाजपा उस चुनाव में इंदौर संभाग की 37 में से 21 सीटों पर हार गई थी। भाजपा संभाग की 16 सीट ही जीत सकी थी। इसके बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आदिवासी इलाके को फोकस जरूर किया, पर बदले में आदिवासियों का मूड बदला हो, ऐसा अहसास नहीं हुआ! इसका बड़ा कारण इंदौर संभाग के चार जिलों धार, झाबुआ, बड़वानी और आलीराजपुर के आदिवासी नेताओं की कमजोरी है, जो अपने राजनीतिक फायदे के लिए पार्टी का उपयोग करते हैं।  
सर्वे कंपनी करेगी दावेदारों का फैसला
     चुनाव के दावेदारों का रोजनामचा अमित शाह जरूर अपने साथ ले गए हों, पर इससे लगता नहीं कि कोई निष्कर्ष निकलेगा। इसलिए कि जो फैसला होगा, वो उस सर्वे रिपोर्ट से होना है जो गुजरात की एक कंपनी को सौंपा गया है। उस कंपनी के सर्वे करने वाले पिछले दिनों इंदौर में अपने पहले राउंड का सर्वे करके भी गए हैं। इस दौरे में अमित शाह का फोकस पूरी तरह बूथ कार्यकर्ता और इंदौर संभाग की 37 सीटों पर था। उन्होंने बैठक में जिलेवार सभी 9 जिलों की समीक्षा की। साथ ही 2018 के चुनाव की हार-जीत की समीक्षा रिपोर्ट और 37 सीटों की संभावित प्रत्याशियों की लिस्ट और अन्य जानकारी दिल्ली लेकर गए हैं। उनका कहना था कि इन 37 सीटों पर पार्टी जिसे भी टिकट दे, उनका चेहरा देखकर नहीं, बल्कि कमल का फूल देखकर काम करने के लिए कहा जाए। शाह का यह भी संदेश था कि कोई भी कार्यकर्ता नकारात्मक बात न सोचे न बात करें। सबके मन में मेरी सरकार सबसे अच्छी सरकार की बात होनी चाहिए।
37 में से ज्यादातर सीटें जीतना लक्ष्य बने
     चुनाव के रणनीतिकारों की बैठक में अमित शाह का रुख काफी कड़क था। उन्होंने बेहद सख्त लहजे में कहा भी कि इस बार के चुनाव में किसी भी स्थिति में 2018 जैसी स्थिति नहीं बनना चाहिए। हमें 37 में से ज्यादातर सीटें जीतना ये लक्ष्य सामने हो! इस चुनाव में संगठन की भूमिका पर भी उन्होंने अपना नजरिया बताया। बताते हैं कि उन्होंने पार्टी के नेताओं को कड़े शब्दों में कहा कि आप बड़े नेताओं के सामने शक्ति प्रदर्शन करने के बजाय बूथ पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं पर ध्यान दें। इससे यह भी लगता है कि वे बड़े नेताओं के अहम से खासे नाराज हैं। अभी अमित शाह ने मालवा को परखा है। निमाड़ की सीटों की समीक्षा होना बाकी है।  
------------------------------------------------------------------------------------------------------

जो आदिवासियों के दिल में उतरेगा, बाजी उसके हाथ!

    इस बार का विधानसभा चुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए कांटा-जोड़ है। भाजपा के सामने बड़ी चुनौती अपने आदिवासी वोट बैंक को बचाने की है। जबकि, कांग्रेस को अपना खोया हुआ जनाधार फिर से पाना है। भाजपा ने इंदौर में अमित शाह के जरिए बूथ कार्यकर्ताओं को उत्साहित किया, तो कांग्रेस ने चुनाव अभियान की जिम्मेदारी ही आदिवासी नया कांतिलाल भूरिया को सौंप दी। भाजपा अभी तक ऐसा कोई साहसिक प्रयोग नहीं कर सकी। जबकि, प्रदेश में तीसरा बड़ा वोट बैंक आदिवासियों का ही हैं। अमित शाह ने इसी गणित को समझकर कार्यकर्ताओं को जीत का फार्मूला दिया। लेकिन, भाजपा की ये फौरी कवायद से बाजी नहीं पलटेगी। उसे आदिवासियों के दिल में उतरना होगा, तभी कुछ हो सकेगा। 
000   

 - हेमंत पाल
 
    भाजपा ने मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव की रणनीति, तैयारी और प्रबंधन को पूरी तरह से अपनी टीम के हाथों सौंप दिया। उन्होंने समझ लिया कि प्रदेश संगठन इतना सक्षम नहीं है कि उसके भरोसे इस बार का मध्यप्रदेश का चुनाव छोड़ा जाए! भाजपा के लिए यह प्रदेश इसलिए महत्वपूर्ण है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा बहुमत पाने से वंचित रही और कांग्रेस ने सरकार बना ली थी। इस बार भाजपा कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। यही कारण है कि इस बार सारी कमान अमित और उनकी विश्वस्त टीम ने अपने हाथ में आ गई। मुद्दे की बात यह कि भाजपा की पिछली हार में शाह मालवा-निमाड़ की 66 सीटों की बड़ी भूमिका रही थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जिन 22 विधायकों ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा उनमें से 7 विधायक मालवा-निमाड़ क्षेत्र के ही थे।       
      2018 के चुनाव नतीजों से साफ़ हो गया था कि मालवा-निमाड़ में भाजपा को 20 साल में इतना बड़ा नुकसान कभी नहीं हुआ। 66 सीटों में से भाजपा को 28 सीटें मिली थी। जबकि, 2013 के चुनाव में 57 सीटें जीती। भाजपा को यहां सीधे 29 सीटों का नुकसान हुआ। इसमें इंदौर संभाग में 5 साल में ही भाजपा की 18 सीट तो उज्जैन संभाग में 11 सीटें कम हो गई। इंदौर संभाग में जो सीटें भाजपा के खाते में गई, उसमें ज्यादातर शहरी क्षेत्रों की हैं। इंदौर की चार सीटें शहरी विधानसभा की हैं, तो धार शहर की सीट नीना वर्मा बचा पाईं। झाबुआ में कांग्रेस के प्रत्याशी विक्रांत भूरिया अपने ही बागी जेवियर मेढ़ा के कारण हारे। खंडवा शहर और बड़वानी शहर की सीट भाजपा के खाते में गई, तो ग्रामीण में पंधाना, हरसूद और महू की सीट ही भाजपा जीत पाई।
    2003 के विधानसभा चुनाव के बाद से आदिवासी इलाकों में कांग्रेस की स्थिति लगातार कमजोर हुई! इसकी वजह रही आदिवासी वोटों का विभाजन। प्रदेश में भील-भिलाला आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा है। आदिवासियों का यह समूह निमाड़-मालवा में बसता है। पिछले दो दशक में मालवा-निमाड़ के आदिवासी अंचल में भाजपा अपनी स्थिति मजबूत करती रही है। मालवा-निमाड़ आदिवासी बहुत इलाका है और यहां भील, भिलाला, पाटलिया, बारेला जाति के वोटर हैं। यहां की 22 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है। लेकिन, 6 सामान्य सीटों पर भी आदिवासी वोटरों की संख्या 25 हजार से ज्यादा है। इसका आशय यह कि वे हार-जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 
   भाजपा के सामने इस बार सबसे बड़ी चुनौती अपने आदिवासी वोट बैंक को बचाने की है और इसके लिए वो हर संभव उपाय भी कर रहे हैं। प्रदेश में तीसरा बड़ा वोट बैंक आदिवासियों का ही है। 21% आदिवासी आबादी के लिए प्रदेश में 47 सीटें आरक्षित हैं। मालवा-निमाड़ की 22 आदिवासी सीटों का फैसला 80% आदिवासी वोटरों और 15% ओबीसी के हवाले हैं। इलाके में सबसे ज्यादा 40% भिलाला, 35% भील और 5% पाटलिया और बारेला वोटर हैं। इन सीटों पर सवर्ण वोटरों की संख्या मात्र 5% हैं। अमित शाह ने इसी गणित को समझकर इंदौर में भाजपा के बूथ कार्यकर्ताओं की बैठक ली और जीत का फार्मूला दिया। लेकिन, ये सारी कवायद इतनी आसान नहीं है, जो दिखाई दे रही है।  
     भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए मालवा-निमाड़ की जमीन राजनीतिक रूप उर्वरा रही। यहां जिस भी पार्टी की वोटों की फसल लहलहाई, उसे प्रदेश में सत्ता की चाभी मिली। ठीक उसी तरह जैसे उत्तर प्रदेश की जीत को दिल्ली के लिए दरवाजे का खुलना माना जाता है। मालवा-निमाड़ को भाजपा का गढ़ जरूर कहा जाता रहा, लेकिन, कांग्रेस ने 2018 में यहां बेहतरीन प्रदर्शन करके भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया था। भाजपा को प्रदेश के अन्य हिस्सों में अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद सिर्फ मालवा-निमाड़ ने झटका दिया। यही कारण रहा कि भाजपा को सत्ता नहीं मिल सकी। बाद में बदली हुई परिस्थितियों में कांग्रेस सत्ता से भले बेदखल हो गई, पर इस इलाके के मतदाताओं के मूड को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा के हाथ प्रदेश की कमान फिर लग गई, पर चुनौतियां कम नहीं हुई। यही कारण है कि 2018 के चुनाव नतीजों को ध्यान में रखते हुए भाजपा यहां कुछ ज्यादा ही सक्रिय दिखाई दे रही है। क्योंकि, राजधानी में सरकार जरूर बदली, मतदाताओं के दिल नहीं!
     इस क्षेत्र के दो संभाग (इंदौर और उज्जैन) में विधानसभा की 66 सीटें आती हैं। प्रदेश की राजनीति में इसका बड़ा महत्व है। 2020 में सत्ता बदलाव के बाद से यहां चेहरे बदले हुए हैं। जो कभी विरोध में थे, वे अब सत्ताधारी पार्टी के पोस्टरों पर छाए हैं। कुछ पुराने चेहरे इस परिदृश्य से बिल्कुल गायब हो गए। माना जा रहा कि बदली हुई परिस्थितियों में दोनों दलों को काफी मशक्कत करनी होगी। मालवा-निमाड़ में खोई जमीन को तलाशने के लिए भाजपा लगातार कोशिश में है। उसके बड़े नेता लगातार यहां सक्रिय है। खुद मुख्यमंत्री यहां की आदिवासी सीटों पर लगातार अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं। इस इलाके को लेकर भाजपा क्या सोचती है, इसका अंदाजा भाजपा की सक्रियता से पता चलता है। मुख्यमंत्री कई योजनाओं की घोषणा कर चुके हैं। उधर, कांग्रेस भी सदस्यता अभियान के जरिए अच्छा खासा ग्राउंड वर्क कर चुकी है। कांग्रेस के सामने अगले विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती 2018 के नतीजों की पुनरावृत्ति करना है। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह भी यहां खासी सक्रियता दिखा रहे हैं।
    इंदौर और उज्जैन इन दो संभागों में बंटे मालवा-निमाड़ की कुल 66 सीटें हैं। इनमें 15 जिले इंदौर संभाग  हैं। इंदौर के साथ ये जिले है धार, खरगोन, खंडवा, बुरहानपुर, बड़वानी, झाबुआ, अलीराजपुर, उज्जैन, रतलाम, मंदसौर, शाजापुर, देवास, नीमच और आगर-मालवा आते हैं। भाजपा के पास यहां 57 सीटें थी, जबकि कांग्रेस सिर्फ 9 सीटों पर सिमट गई थी। 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 27, कांग्रेस 36 कांग्रेस और 3 सीटें निर्दलीय के पास गई थी। भाजपा में इस इलाके में आदिवासी समुदाय को हिन्दुत्व की धारा से जोड़ने का काफी प्रयास किए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठन कई दशकों से कर रहे हैं। आदिवासियों को वनवासी नाम का संबोधन उन्हें भगवान श्री राम से जोड़ने के मकसद से ही दिया गया। धार-झाबुआ के घने आदिवासी इलाकों में हनुमान चालीसा बांटने और पाठ करने के कई कार्यक्रम चले। जनगणना में भी संघ की पूरी कोशिश रही कि आदिवासी अपने धर्म के कॉलम में हिंदू अंकित कराएं। लेकिन,आदिवासी आरक्षण खत्म होने के डर से अपने आपको हिंदू नहीं कहते!
   मध्य प्रदेश में विधानसभा के चुनाव में अभी 6 महीने बाकी हैं। लेकिन, पिछले चुनाव में आदिवासी क्षेत्रों में हुए नुकसान का खामियाजा भाजपा को अपनी डेढ़ दशक पुरानी सरकार गंवाकर चुकाना पड़ा था। भाजपा इस बार के विधानसभा चुनाव में सत्ता गंवाने का खतरा उठाने की स्थिति में नहीं है। प्रदेश के विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर 2023 में हैं। भाजपा मानकर चल रही है कि 'जयस' आदिवासी संगठन की कांग्रेस से दूरी बनने से ही इलाके में उसकी पकड़ मजबूत होगी। संगठन के पांच लाख से अधिक युवा सदस्य हैं और इनका असर पड़ोसी राज्य राजस्थान में भी है।
------------------------------------------------------------------------------------------------------

Wednesday, August 2, 2023

लोक को भरमाने के लिए तंत्र का भ्रमजाल

- हेमंत पाल

    मारे यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव को उत्सव की तरह मनाया जाता है। इस उत्सव में राजा बनने के लिए प्रजा को अपने पक्ष में करना पड़ता है। इसके लिए कई तरह के प्रपंच रचे जाते हैं। क्योंकि, फैसला भी इसी बात पर होना है कि किसके पाले में ज्यादा लोग हैं! जिसके पक्ष में ज्यादा हाथ खड़े होंगे, उसे पांच साल राज करने का मौका मिलेगा! इसमें कुछ गलत भी नहीं, इसलिए कि ज्यादा अच्छा प्रलोभन ही जनता को आकर्षित करता है! लेकिन, क्या जरूरी है कि प्रलोभन के रूप में किए गए सभी वादे पूरे हों! ये न तो संभव है और न वादों पर भरोसा ही किया जाता है। अमूमन चुनाव से पहले दो तरह के वादे किए जाते हैं। चुनाव से पहले तो मंच से वादे करके वाहवाही लूटी जाती है। लेकिन, चुनाव की घोषणा के बाद राजनीतिक पार्टियां घोषणा-पत्र में कसम खाकर वादे करती है, कि उन्हें मौका दिया गया तो वे कागज पर लिखे वादे पूरे करेंगे! जबकि, जनता भी इस सच को जानती है कि किए गए और लिखे गए सभी वादे कभी पूरे नहीं होते! दोनों तरह के वादे भ्रमजाल हैं जिन्हें बरसों से जनता पर फेंक कर उन्हें भरमाया जाता रहा है। कुछ राज्यों में वही माहौल फिर सज गया।         
      देश के तीन हिंदी भाषी राज्यों में राजनीतिक पार्टियों की चुनावी तैयारियां पूरे जोर पर है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उत्साह से लबरेज पार्टियां रोज जनता से कोई न कोई वादा करने से नहीं चूक रही। साढ़े चार साल तक मतदाताओं पर रौब गांठने वाली पार्टियां याचक बनकर खड़ी हो गई। चुनाव की आखिरी छमाही पार्टियों के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है, कि उनकी उनकी पांच साल कि पढ़ाई की अब परीक्षा जो होने वाली है। वे यह भी जानते हैं कि चुनाव से पहले मतदाताओं को जितना भरमा लिया, वही उनके लिए चुनाव में फायदेमंद होगा। जो पार्टियां सत्ता में हैं, उसके नेता घोषणाएं करते नहीं अघा रहे! जो विपक्ष में हैं, वे सत्ता पाने की कोशिश में भविष्य में पूरे किए जाने वाले वादों से काम चला रहे हैं। लेकिन, जनता का रुख तटस्थ है। ऐसे समय में यह पता नहीं चलता कि जनता के मन में क्या है और वे किस पार्टी की बातों से ज्यादा आकर्षित हो रही। वास्तव में लोकतंत्र का खरा सच भी तो यही है, जिसमें राजा को हर पांच साल में जनता के सामने वादों की गठरी के साथ हाथ जोड़कर खड़े होना पड़ता है।          
     लोकतंत्र में वादे करना नई बात नहीं है। सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए यही वादे तो सीढ़ियां बनते हैं। लेकिन, ये वादे क्या कभी पूरे होंगे, इस तरफ कोई ध्यान नहीं देता। आजकल इसी तरह की राजनीतिक कसमों और वादों का दौर है। कम से कम तीन हिंदी भाषी राज्यों में तो सत्ता और विपक्ष दोनों तरफ से जनता पर वादों के गोले दागने का काम जोर-शोर से चल रहा है। इस बार चुनावी वादों के केंद्र में महिला, किसान और गैस सिलेंडर ज्यादा दिखाई दे रहे। ख़ास बात यह कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों में जंग सीधे मुकाबले की होना है। यहां कोई तीसरी पार्टी चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं है, इसलिए वादों की जंग दो ही पार्टियों के बीच लड़ी जा रही। इस बात से इंकार भी नहीं कि बढ़ती महंगाई सबकी आंखों में है, इसलिए वादे भी ऐसे किए जा रहे जो मध्यम वर्ग को राहत देने वाले हों।
    सभी पार्टियों के निशाने पर महिलाएं ही ज्यादा है। उन्हीं को केंद्र में रखकर योजनाओं का सारा खाका तैयार किया जा रहा। चुनाव वाले सभी राज्यों में कमजोर वर्ग की महिलाओं को आर्थिक मदद देने की होड़ सी लग गई। इसलिए कि राजनीतिक चिंतकों ने अब ये अच्छी तरह समझ लिया कि घर की महिलाओं को टारगेट करके यदि वादों की थाली परोसी जाए, तो उससे पूरा परिवार प्रभावित होगा। ऐसे में इसका लाभ भी वोट के रूप में सामने आएगा! ये सोच कितनी सही है, ये तो चुनाव के बाद ही सामने आएगा, पर मतदाताओं को भरमाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही। ये पहली बार नहीं हो रहा, हर बार यही होता है। जिस भी राज्य में चुनाव का माहौल बनता है, राजनीतिक पार्टियां अपने वादों का भ्रमजाल फैलाना शुरू कर देती हैं। जिसके जाल में आकर्षक दाने होंगे, वो जंग जीत ले जाएगा!
      हमारे देश में चुनावी वादों पर न तो कोई बंदिश है, न कोई सीमा रेखा और न कोई कानूनी बाध्यता कि जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा। फिर वे चुनाव से पहले किए गए वादे हों या चुनावी घोषणा-पत्र में लिखी गई बातें। चुनाव के नतीजे आते ही राजनीतिक पार्टियों की प्राथमिकता बदलते देर नहीं लगती। याचक की मुद्रा में खड़े नेता भी आंखे फेरकर खड़े हो जाते हैं। इसलिए कि उन्हें पता है कि अब पांच साल वे वादों के बंधन से मुक्त हैं। यदि वादों पर सवाल भी किए जाते हैं, तो उनके पास जवाब होता है कि वादों को पूरा करने के लिए अभी पांच साल का वक़्त है। ये सही भी है, क्योंकि राजनीतिक पार्टियां अलादीन का चिराग घिसकर तो वादों को पूरा करने का दावा भी नहीं करती! अब फिर कुछ राज्यों में चुनावी घटाएं छाने के साथ वादों की बौछार शुरू हो गई। ऐसे में भीगने वाली जनता को फैसला करना है कि उन्हें क्या करना है। क्योंकि, पांच साल के लिए हो रही परीक्षा की उत्तर पुस्तिका तो उन्हें ही बांचना है!
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------

Tuesday, August 1, 2023

चुलबुली सी अभिनेत्री जया इतनी गुस्सैल क्यों हो गई!

- हेमंत पाल

       जया भादुड़ी को जिन लोगों ने शुरूआती दौर में देखा है, उन्हें पता है कि वे बेहद मासूम, हंसमुख और सौम्य नायिका रही हैं। पहली फिल्म 'गुड्डी' में वे स्कूल जाने वाली स्टूडेंट बनी थीं। इस फिल्म में उन्हें देखकर लगा था कि वे अपने करियर में काफी आगे जाएंगी। ये सोच सही भी निकला। उसके बाद 'मिली' जैसी संवेदनशील फिल्म में उन्हें बच्चों के साथ खेलते-कूदते और 'मैंने कहा फूलों से हंसो तो वो खिलखिला के हंस दिए' जैसा मस्ती भरा गीत गाते देखा। लेकिन, आज की जया बच्चन और उस समय की जया में बहुत फर्क आ गया। अब वे अपने गुस्सैल स्वभाव को लेकर हमेशा सुर्ख़ियों में रहती है। संसद से सड़क तक उनके गुस्से के किस्से मीडिया में छाए रहते हैं। वे बरसों से राज्यसभा की सदस्य हैं, पर जब भी उनकी चर्चा होती है तो उनके गुस्से और गुस्सैल बयानों का प्रसंग ही ज्यादा आता है। वे पुरानी फिल्म अभिनेत्री जरूर हैं, पर फिल्मों में कम ही नजर आती हैं।      
          ये भी कहा जाता है कि जया बच्चन ने जानबूझकर सुर्खियां बटोरने के तरीके ढूंढती हैं। मीडिया के साथ उनके झगड़े ने उन्हें काफी प्रसिद्धि दिलाई। किसी आयोजन या एयरपोर्ट पर मीडिया से उनकी झड़प ख़बरों में रहती है। इस वजह से लोग उन्हें असभ्य और गुस्सैल भी मानते हैं। पिछले कुछ सालों से वे इन्हीं वजहों से याद भी की जाती रही हैं। लेकिन, उन्होंने खुद स्पष्ट भी किया कि उनकी ये गुस्सैल आदत असभ्यता नहीं है। करण जौहर के शो 'कॉफी विद करण' में जया बच्चन ने अपने सार्वजनिक जीवन से जुड़े इस मुद्दे का खुलासा किया था। उनका कहना था कि उन्हें पसंद नहीं कि कोई उनकी इच्छा के बगैर उसकी तस्वीरें लें। जया ने यह भी कहा था कि जब उनके आसपास भीड़ जमा हो जाती है, तो उन्हें क्लॉस्ट्रोफोबिया हो जाता है। दरअसल, ये तरह की बीमारी है और ऐसे लोग भीड़ में अपने आपको संभाल नहीं पाते! वे खुद को चिढ़चिढ़ी, नकचढ़ी, प्रतिक्रियावादी या असभ्य नहीं मानती। वे भले ही अपने आपको ये सब नहीं मानती हों, पर आज जया बच्चन की पहचान इसी तरह की बन गई। 
    जया बच्चन अपने जमाने की एक सशक्त और नैसर्गिक अभिनेत्री रही। उन्होंने संवेदनशील अभिनय की नई इबारत रची है। अभिनय के अलावा जया बच्चन ने प्रेम के मामले में भी सबको पीछे छोड़ा। करियर में अपने से जूनियर अमिताभ बच्चन से उन्होंने न केवल प्रेम किया, बल्कि उनकी लगातार असफलता के बावजूद हमेशा उनके साथ खड़ी रही। अमिताभ को पहली बार जिस फिल्म से पहचान मिली, उस 'आनंद' में डॉक्टर का रोल दिलवाने में भी जया बच्चन की बड़ी भूमिका रही थी। अपने पसंदीदा निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी से जिद करके जया ने अमिताभ को डॉक्टर भास्कर की भूमिका दिलाई। लेकिन, अमिताभ से शादी के बाद जया बच्चन ने बच्चों की देखभाल के लिए फिल्मों से किनारा कर लिया। 
    बीच में अभिनेता संजीव कुमार के अनुरोध पर 'नौकर' फिल्म में जरूर काम किया। इसी तरह यश चोपड़ा के कहने पर रेखा और अमिताभ के साथ अपने जीवन से मिलती-जुलती फिल्म 'सिलसिला' करने का साहस भी दिखाया। फिर एक लम्बे अंतराल के बाद उन्होंने अमिताभ और शाहरुख और रितिक रोशन की फिल्म 'कभी खुशी कभी गम' में काम किया। अब वे लंबे अरसे बाद करण जौहर की फिल्म 'रॉकी और रानी की प्रेम कहानी' में धर्मेंद्र, शबाना आज़मी और रणवीर सिंह, आलिया भट्ट के साथ दिखाई देंगी।
      अपनी पहचान के विपरीत जया के विचारों में भी बदलाव महसूस किया गया। पिछले दिनों वे अपनी नातिन नव्या नवेली के साथ पॉडकास्ट पर बेबाक बातें करती नजर आयी थी। हद तो तब हो गई जब जया ने शिष्टता की सारी सीमाएं लांघकर ऐसा बयान दे बैठी, जिससे उनकी नकारात्मक छवि बनी। उन्होंने जो कहा उसे सुनने के बाद लोगों का कहना था कि वे अपनी ही नातिन को ये कैसे संस्कार सिखा रही है। बल्कि, लगता है जया खुद ही बोल्ड हो गईं। जया ने युवा पीढ़ी को सलाह देते हुए कहा था कि उन्हें लगता है कि लोगों को अपने सबसे अच्छे दोस्त से शादी करनी चाहिए। अगर नव्या शादी किए बिना बच्चा पैदा करना चाहती है, तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। उनका यह बयान काफी ज्यादा चर्चा में आया। जया बच्चन ने पॉडकास्ट में रिश्ते में शारीरिक आकर्षण के महत्व पर भी खुलकर बात की थी। उनका कहना था कि अगर किसी रिश्ते में शारीरिक संबंध नहीं है, तो वो लंबे समय तक नहीं चल सकेगा! उन्हें लगता है कि आप प्यार, ताजी हवा और एडजस्टमेंट पर टिके नहीं रह सकते। प्रेमी और प्रेमिका के बीच शारीरिक आकर्षण और विवाह से पूर्व शारीरिक संबंध बहुत जरूरी है। 
      अच्छी अभिनेत्री और सफल गृहणी और मां की भूमिका के साथ जया बच्चन ने समाजवादी पार्टी के जरिए राजनीति के दांव पेच भी आजमाए। लेकिन, माना जाता है कि रिश्ते निभाने में जया बच्चन सफल नहीं रही! भले ही वे अमिताभ की पहली पसंद रही हो, लेकिन उनके ससुर हरिवंश राय ने जया को ही नहीं उसके परिवार को भी कभी पसंद नहीं किया। अपनी आत्मकथा में हरिवंश राय बच्चन ने बडी साफगोई से लिखा भी था कि उन्हें जया को अपनी बहू बनाना पसंद नहीं था। 
       यही कारण था कि उन्होंने अनमने मन से इस शादी के लिए हामी भरी थी। उन्होंने शादी के प्रसंग के बारे में यह भी लिखा था कि शादी के समय जो मिलनी की जो रस्म होती है, उसमें भी जया के पिता ने लड़की के पिता होने के बावजूद जो एटीट्यूड दिखाया उससे उन्हें ख़ुशी नहीं हुई। उन्होंने अनमने मन से उनसे गले मिलते हुए कह दिया था कि वैसे तो मुझे आप पसंद नहीं हैं, लेकिन अपने बेटे की खातिर मैं आपसे गले मिल रहा हूं। इसके बाद जया से उनकी अकसर खटपट होती रही। अपने जीवन के अंतिम समय में वह इतने नाराज थे, कि उन्होंने आत्मकथा में यहां तक लिखा कि उन्होंने अपनी पत्नी से यह कहते हुए दिल्ली वापस लौटने को कहा था कि बच्चे बड़े हो गए हैं, अब हमें लौट जाना चाहिए। देवर अजिताभ और उनके परिवार से भी जया की कभी नहीं पटी। यही कारण है कि अमिताभ को फिल्म उद्योग में लाने वाले अजिताभ अपने परिवार के साथ विदेश में बसे हुए हैं।
      ये भी कहा जाता है कि जया भादुड़ी के कारण ही अभिषेक और करिश्मा कपूर से शादी नहीं हो सकी। इस रिश्ते को लेकर रणधीर कपूर तो तैयार थे, लेकिन बबीता ने यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि मैं जया के घर अपनी बेटी को नहीं ब्याह सकती। यह भी कहने वाले कम नहीं हैं कि जया की अपनी बहू ऐश्वर्या बच्चन से भी ज्यादा नहीं पटती। कई बार ऐश्वर्या और अभिषेक बच्चन के घर छोड़कर जाने की बातें भी सुनाई देती है। अमिताभ को लेकर भी जया ने कई बार ऐसे बयान दिए, जिससे लगा कि वे अपने पति को अपमानित करने की मुद्रा में हैं। पति के जन्मदिन के दिन भी वे अमिताभ को अकेला छोड़कर अपने राजनीतिक आका मुलायम सिंह यादव की अंत्येष्टि में हिस्सा लेने चली गई थी। 
    जया बच्चन अपनी समकालीन अभिनेत्रियों की तरह सुंदर तो नहीं रही। लेकिन, अपने अभिनय से वे उस दौर की अभिनेत्रियों से हमेशा आगे रही। बाद में जब वे अभिनेत्री से राजनेत्री बनी तो उनकी सीरत के साथ सूरत भी बदल गई। आमतौर पर फिल्म उद्योग से जुड़ी हस्तियां अपने रूप रंग को लेकर सजग रहती हैं। लेकिन, जया बच्चन ने इसे हमेशा नजर अंदाज कर सफेद बालों और चिढ-चिढे चेहरे के जरिए तरह-तरह की फब्तियां ही ज्यादा सुनी। रील लाइफ में जया बच्चन ने बेटी से लेकर मां और प्रेयसी से लगाकर पत्नी तक के रिश्ते बखूबी निभाए, लेकिन रियल लाइफ में पता नहीं क्यों सब कुछ होते हुए भी वे न तो अपने रिश्ते ईमानदारी से निभा पाई और न अपने चिढ़चिढ़े स्वभाव से निजात पा सकीं।    
--------------------------------------------------------------------------------------------