Thursday, October 31, 2019

झाबुआ उपचुनाव में हार से भाजपा ने क्या सबक सीखा!

- हेमंत पाल 

भारतीय जनता पार्टी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि उसे चुनावी हार बर्दाश्त नहीं होती! पार्टी के नेताओं में इतना ज्यादा आत्मविश्वास घर कर गया है, कि उन्हें चुनाव की रणनीति बनाते समय इस बात का अहसास ही नहीं होता कि पांसा पलट भी सकता है! इसे अतिआत्मविश्वास के बजाए घमंड कहना ज्यादा ठीक होगा! क्योंकि, पार्टी के नेता कभी रणनीति को मतदाताओं के नजरिए से देखने की कोशिश नहीं करते! बल्कि, मतदाताओं को अपनी रणनीति के मुताबिक ढालने की कोशिश में रहते हैं! झाबुआ विधानसभा क्षेत्र का उपचुनाव इसका सबसे सटीक उदाहरण है! अब, जबकि नतीजा उल्टा पड़ा तो पार्टी बिफर गई! चारों तरफ हार के गुनहगारों की खोज होने लगी और उंगली उठने लगी! जबकि, ये महज  भाजपा उम्मीदवार की नहीं, पार्टी की नीतिगत हार है! पार्टी को पूरे प्रदेश के चुनाव और उपचुनाव के फर्क को भाजपा समझना होगा! ऐसे बहुत से कारण हैं, जिन पर पार्टी को नए सिरे से सोचना होगा!        
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   झाबुआ उपचुनाव में भाजपा को मिली करारी हार के बाद पार्टी में इन दिनों घमासान मचा है! भाजपा ने जिस तरह ये उपचुनाव लड़ा, वो रणनीति ही गलत थी! मुद्दे की बात ये कि भाजपा ने स्थानीयता को पूरी तरह भुला दिया! झाबुआ वो इलाका है, जहाँ कि आबादी का 80% हिस्सा आदिवासी है! लेकिन, भाजपा के नेता कश्मीर, पाकिस्तान, सर्जिकल स्ट्राइक जैसी भारी भरकम बात करते दिखाई दिए! इसके अलावा उन्होंने कमलनाथ सरकार पर किसानों की कर्ज माफ़ी के लिए कोसने में कमी नहीं की! ये पूरी रणनीति भाजपा पर भारी पड़ गई! क्योंकि, कांग्रेस ने भाजपा उम्मीदवार भानु भूरिया के परिजनों की कर्ज माफ़ी के दस्तावेज सार्वजनिक कर दिए! भाजपा नेताओं की बयानबाजी भी उनके गले पड़ गई! विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता गोपाल भार्गव के उस बयान की खासी प्रतिक्रिया हुई जब उन्होंने कहा था कि यदि कांग्रेस जीती तो पाकिस्तान के प्रतिनिधि की जीत मानी जाएगी! नतीजे आने के बाद उनके पास अब क्या जवाब होगा? इस हार के लिए अब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, संभागीय संगठन मंत्री जयपाल सिंह चावड़ा के साथ चुनाव संचालक कृष्णमुरारी मोघे को जिम्मेदार माना जा रहा है! देखा जाए तो इसमें कुछ गलत नहीं है! कहीं न कहीं ये सभी इस हार के लिए जिम्मेदार तो हैं!       
   भाजपा की हार के बाद वरिष्ठ नेता रघुनंदन शर्मा ने कहा कि पार्टी में आतंरिक संवाद की कमी है। संगठन को इस हार के लिए आत्मनिरीक्षण करना चाहिए! सरकार से हटने के बाद के हालत को अभी पार्टी आत्मसात नहीं कर पाई है। सीधी से भाजपा के विधायक केदारनाथ शुक्ल ने भी झाबुआ के नतीजे आने के बाद इसे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह की असफलता बताते हुए उन्हें हटाने की मांग की! रघुनंदन शर्मा ने कहा कि प्रदेश भाजपा में संवाद की कमी है। झाबुआ उपचुनाव के बारे में वरिष्ठ नेताओं से सलाह-मशविरा नहीं किया गया। संवाद के अंतर को कम किया जाना चाहिए। संवाद में कमी, संगठन की सबसे बड़ी कमजोरी है। विधायक केदारनाथ शुक्ल ने कहा कि मुझे लगता है पार्टी के प्रबंधन में भी कमी आई है। खराब चुनाव परिणाम पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह की विफलता और खराब प्रदर्शन है। केद्रीय नेतृत्व को उन्हें तुरंत पद से हटा देना चाहिए। अब पार्टी शुक्ल से उनके बयान पर पूछताछ करेगी, पर जो मूल समस्या है, उस पर शायद कान न धरे! 
   दरअसल, पार्टी के नेताओं के अतिआत्मविश्वास का इलाज सिर्फ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष को बदलने से नहीं होगा! इलाज तो उन सारे नेताओं का किया जाना चाहिए, जिनके दिमाग से अभी डेढ़ दशक की सत्ता की खुमारी नहीं गई है! उन्हें बदमिजाजी, उटपटांग बयानबाजी और मतदाताओं को कमअक्ल समझने की गलती से उबरना होगा! इस पूरे उपचुनाव में भाजपा के प्रचार अभियान और रणनीति का आकलन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि पार्टी ने कब, कहाँ और क्या गलतियां की है! झाबुआ आदिवासी क्षेत्र जरूर है, पर राजनीतिक जागरूकता के मामले में इसे किसी बड़े शहर के क्षेत्र से कमतर नहीं आँका जा सकता! भाजपा को अपनी हार के आकलन में सिर्फ रणनीति की बात नहीं करना चाहिए, बल्कि नेताओं के भाषण और बाहर से गए नेताओं और  कार्यकर्ताओं की भूमिका को भी परखना चाहिए! इस बात का मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए कि क्या उपचुनाव में बाहरी नेताओं और कार्यकर्ताओं को उस क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में हाईजैक करने भेजा जाना चाहिए? क्योंकि, झाबुआ में दो बार हुए उपचुनाव में ये प्रयोग असफल हो चुका है!   
   इस उपचुनाव में हार के बाद भाजपा में बड़े नेताओं का विरोध कुछ ज्यादा ही दिखाई दिया! मुखरता से संगठन की संवादहीनता और सटीक प्रचार में कमी की बात कही जा रही है। राकेश सिंह के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान समेत कई नेताओं पर निशाना साधा जा रहा है। बताते हैं कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने भी इन बातों को गंभीरता से लिया है। ये स्वाभाविक भी है! करीब 28 हजार वोटों की हार कम नहीं होती। शिवराज सिंह के बारे में कहा जा रहा है कि वे अपने आपको 'मामा' कहते हैं। उनका खुद का ये मानना है कि झाबुआ में उनको ख़ास सम्मान की नजर से देखा जाता है। लेकिन, उनका जादू भी झाबुआ में नहीं चला। अब उन्हें भी अपनी अंतरात्मा में झांकने और समझने की जरूरत है कि उनका जादू अब उतर गया! उन्हें अपने भाषणों में अब भांजों, भांजियों की बात नहीं करना चाहिए! उन्हें समझना होगा कि अब वे मुख्यमंत्री नहीं हैं, उनकी बातों में अब वजन भी नहीं रहा!
  भाजपा के लिए झाबुआ सीट को जीतना जरुरी था! क्योंकि, 230 सदस्यों की विधानसभा में सत्ता संतुलन के लिहाज से यह सीट महत्वपूर्ण थी। कमलनाथ के नेतृत्व में प्रदेश में सरकार चला रही कांग्रेस के पास सदन में 114 विधायक थे। कांग्रेस बहुमत के आंकड़े (116) से दो सीट दूर थी! झाबुआ की जीत से वो कुल सीटों के आधे पर आ गई! 4 निर्दलीय, 2 बहुजन समाज पार्टी और एक समाजवादी पार्टी के विधायक की मदद से वह गठबंधन की सरकार चला रही है। ये बात अलग है कि सरकार पर असुरक्षाबोध का साया था! जब से प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, भाजपा के नेताओं ने कई बार सरकार के तख्तापलट के दावे किए! ये बातें झाबुआ में भी सुनी गई! भाजपा नेता गोपाल भार्गव ने ये तक कहा गया कि चुनाव के बाद कमलनाथ सरकार गिरा दी जाएगी और शिवराज सिंह फिर मुख्यमंत्री बनेंगे! लेकिन, अब सभी नेताओं की जुबान पर लगाम लग गई! हार के बाद पूरी पार्टी में नीम सन्नाटा है! वास्तव में झाबुआ सिर्फ एक उपचुनाव नहीं था! इस जीत ने कांग्रेस के आत्मविश्वास को दोगुना कर दिया और भाजपा के पैरों के नीचे से संभावनाओं की जमीन खींच ली!
  आम तौर पर उपचुनाव पार्टियों की साख के सवाल पर लड़े जाते हैं! लेकिन, झाबुआ का उपचुनाव सत्ता का था! इसीलिए इस उपचुनाव का महत्व ज्यादा था। दोनों पार्टियों ने ताकत लगाने में कोई कमी नहीं छोड़ी! भाजपा के लिए इस एक सीट का महत्व इतना था कि इसे जीतने के लिए उसने आदिवासी इलाके में भी अपने चिर-परिचित राष्ट्रवाद के हथकंडे तक को आजमाने में कसर नहीं छोड़ी! कमलनाथ ने भी कई बार झाबुआ का दौरा किया और क्षेत्रीय विकास के लिए अरबों की योजनाओं की घोषणाएं की। विधानसभा में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा सिर्फ 5 सीट पीछे थी! उसके नेताओं को उम्मीद थी कि वे सरकार को समर्थन दे रहे 7 गैरकांग्रेसी और एकाध किसी कांग्रेसी विधायक को तोड़कर भविष्य में कमलनाथ सरकार को गिरा सकते हैं! संभव है कि ऐसी कोई रणनीति बनी भी होगी! यही कारण था कि उपचुनाव के बाद भाजपा सरकार बनने के शिगूफे छोड़े गए! लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ! न नौ मन तेल हुआ, न राधा नाची! 
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Monday, October 28, 2019

परदे के पीछे चलता अंतहीन कोल्डवार!

- हेमंत पाल

   संजय लीला भंसाली की फिल्म 'इंशाअल्लाह' को सलमान खान ने बीच मझधार में छोड़ दिया। जबकि, इस फिल्म की शूटिंग शुरू हो चुकी थी और  नायिका आलिया भट्ट पर फिल्म का एक गीत भी फिल्माया जा चुका था। फिल्म के डिब्बा बंद होने का कारण सलमान और भंसाली के बीच क्रिएटिव दखलंदाजी बताया गया! सलमान कहानी को ही बदलना चाहते थे! वे चाहते थे कि 'इंशाअल्लाह' में प्रेम कहानी का हिस्सा लंबा रखा जाए, जिसके लिए भंसाली तैयार नहीं थे! फिल्म इंडस्ट्री में कलाकारों आपसी और प्रोड्यूसर, डायरेक्टर्स के बीच खींचतान के किस्से कम नहीं हैं! रिश्तों में एक-दूसरे में गुंथी इस दुनिया में मतभेदों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। कुरेदा जाए तो हर फिल्म में कहीं  ऐसी स्थितियां बनती हैं! कुछ संभल ली जाती हैं, कुछ बिगड़ जाती हैं! लेकिन, जब बड़े कलाकारों या फिल्मकारों के बीच तनातनी होती है, तो वो इंडस्ट्री में खबर बनते देर नहीं लगती! लेकिन, सलमान खान जैसे कुछ ही एक्टर हैं, जिनके साथ कई विवाद जुड़े हैं। ये सितारों के बीच चलने वाला वो कोल्डवार है, जो बाॅलीवुड में बरसों से चला आ रहा है। 
   संजय दत्त की बायोपिक 'संजू' का ट्रेलर देखकर सलमान खान की प्रतिक्रिया थी कि मेरे दोस्त संजू की भूमिका कोई दूसरा अभिनेता कैसे कर सकता है? इस पर सलमान से खौफ खाने वाले रणबीर कपूर ने पलटवार किया कि अभी तक किसी अभिनेता ने अपनी ही बायोपिक मे काम नहीं किया है। सलमान और रणबीर की यह तनातनी भले ही केटरीना के कारण हो, लेकिन यह इकलौता या नया मामला नहीं है। सलमान इससे पहले एश्वर्या को लेकर विवेक ओबेराय और शाहरूख तक से भिड़ चुके हैं। रणबीर के दादा राजकपूर भी ऐसी तनातनी से बच नहीं पाए। वैसे तो राजकपूर का बाॅलीवुड में इतना दबदबा था कि कोई दूसरा कलाकार उनसे पंगा मोल नहीं ले पाता था। लेकिन, जाने-अनजाने में देवआनंद उनसे पंगा ले बैठे थे! कम ही लोग जानते हैं कि सुनील दत्त और नर्गिस की शादी करवाने में देवआनंद का बड़ा हाथ था। यही बात राजकपूर को खल गई और उनके बीच एक अदृश्य तनाव देखा गया था! ये तब तक चला, जब राज कपूर ने देवआनंद की सबसे प्यारी नायिका जीनत अमान को उनसे छिन नहीं लिया। संयोग है कि उसी दिन देव आनंद भी जीनत को लेकर एक बड़ी घोषणा करने वाले थे! दिलीप कुमार का इस त्रिमूर्ति में तो किसी से विवाद नहीं रहा, लेकिन उनकी काॅपी करने वाले राजेन्द्र कुमार उनके मतभेद कायम रहे! इसका कारण था उनकी बीबी और राजेन्द्र कुमार की प्रेमिका सायरा बानो। 
  आपसी खींचतान के इस सिलसिले को राजकुमार ने भी खूब पोषित किया। वे बात-बात पर हर किसी से भिड़ लेते थे और लोगों को कोई मसालेदार किस्सा सुनने को मिल जाता! उनका मानना था कि बाॅलीवुड मे यदि कोई 'कुमार' है तो वह सिर्फ राज कुमार! प्रकाश मेहरा से लेकर फिरोज खान तक उनका कोल्डवार चर्चित रहा है। अमिताभ का तो नाम ही एंग्रीयंग मैन था, इसलिए उनका विवाद कई सितारों से हुआ! इनमें राजेश खन्ना ,धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिंहा तक शामिल हैं। हालांकि, उनकी बेटी कपूर परिवार की बेटी के घर ब्याही है! लेकिन, करिश्मा से अभिषेक की शादी न करवाने से उनके और कपूर परिवार के बीच तनातनी हो गई थी। 
  नायक और नायिकाओं के बीच भी तनातनी के किस्से देखे गए हैं। ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार के साथ भी यह सब हुआ था। मधुबाला और उनके बीच इतना लम्बा विवाद चला कि 'मुगले आजम' के सेट पर दोनों ने बातें करना तक बंद कर दिया था। 'संघर्ष' के सेट पर भी उनकी साधना से भिड़ंत हुई, तो साधना ने फिल्म छोड़ दी थी। इस भूमिका को बाद में वैजयंती माला ने किया! लेकिन, दिलीप कुमार की उनसे भी ठनी थी। 'लीडर' के सेट पर तो दोनो एक-दूसरे से बात तक नहीं करते थे। रितिक रोशन और कंगना के बीच भी विवाद के किस्से भी कम चर्चित नहीं रहे! फिल्म निर्माता -निर्देशकों और कलाकारो के बीच तनातनी के किस्से भी सुने जाते हैं। राहुल रवैल ने धर्मेन्द्र और राजेन्द्र कुमार के लड़कों की पहली फिल्मों को हिट बनाया, लेकिन कई बार फिल्म की क्रेडिट से उनका नाम तक हटाना पडा। लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी, ओपी नैयर तथा शंकर जयकिशन के बीच कोल्डवार को भी भुलाया नहीं गया! 
    ऐसे किस्से सिर्फ अभिनेताओं तक ही सीमित नहीं है। अभिनेत्रियों के बीच भी अकसर छत्तीस का आंकड़ा देखा गया है। बीते जमाने में की नायिकाओं से लेकर आज की नायिकाओं में तनातनी का संबंध देखा गया है। हेमा मालिनी और श्रीदेवी, माधुरी, करीना से लेकर दीपिका और प्रियंका चोपड़ा के बीच कई बार ये माहौल देखा गया! यह खींचतान व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता के चलते तो चलती ही है, कभी-कभी प्रेम संबंधों को लेकर भी पनपने लगती है। अक्षय कुमार को लेकर रवीना टंडन और शिल्पा शेट्टी में तो एयरपोर्ट पर मारपीट का मौका तक आ गया था। 
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Saturday, October 26, 2019

झाबुआ में भाजपा को बाहरी नेताओं की 'मनमानी' ने हरवाया!

- हेमंत पाल  

   अपनी राजनीतिक जागरूकता और बड़े उलटफेर के कारण झाबुआ हमेशा चर्चा में रहा है। इस बार भी यहाँ वही सब हुआ! झाबुआ उपचुनाव का  नतीजा अप्रत्याशित नहीं रहा। वही हुआ जिसका अनुमान लगाया गया था। वास्तव में ये चुनाव प्रदेश का राजनीतिक शक्ति परीक्षण था, जिसमें कांग्रेस ने बाजी मार ली। भाजपा ने भी जोर आजमाइश में कोई कसर नहीं छोड़ी! पर, कमजोर रणनीति और अतिआत्मविश्वास आदिवासी मतदाताओं के मानस को बदल नहीं सका। इस उपचुनाव से साबित हो गया कि भाजपा यहाँ कभी सीधे मुकाबले में चुनाव नहीं जीत सकती। कृष्णमुरारी मोघे जैसे चुके और थके हुए नेता को चुनाव का दायित्व सौंपा गया! वे खुद चुनाव नहीं जीत सके तो बाहरी सीट पर कैसे चुनाव प्रबंधन करेंगे, ये समझा जा सकता है! संभागीय संगठन मंत्री जयपाल चावड़ा ने भी यहाँ स्थानीय स्तर पर गंभीरता नहीं दिखाई! इस उपचुनाव में कांग्रेस की जीत के जो भी कारण खोजे जाएं, पर सच यही है कि झाबुआ के मतदाताओं को ये मंजूर नहीं था कि उनका प्रतिनिधि विपक्ष में बैठे! कांतिलाल भूरिया की जीत सिर्फ कांग्रेस उम्मीदवार की जीत नहीं है, बल्कि कमलनाथ सरकार के 10 महीने के कार्यकाल का मूल्यांकन भी है।
   पिछले लोकसभा उपचुनाव में भी यही सब हुआ था। इस बार भी वही कहानी दोहराई गई। भाजपा के लिए परेशानी की बात ये रही कि पूरा दम लगाने के बाद भी मतदाताओं ने भाजपा के वादों पर भरोसा नहीं किया। बार-बार कमलनाथ सरकार गिराने और किसानों की कर्ज माफी न होने का विलाप करने के बावजूद भाजपा की दाल नहीं गली। जबकि, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह से लगाकर पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान तक ने अपना प्रभाव दिखाने की कोशिश की, पर खामोश मतदाताओं ने सबक सिखा दिया! वे जानते हैं कि धारा-370, पुलवामा हमला, पाकिस्तान और राष्ट्रवाद के सामने स्थानीय मुद्दे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। प्रचार के अंतिम दौर में भाजपा नेताओं ने मतदाताओं को ये दर्शाकर प्रभावित करने की भरसक कोशिश की, कि कमलनाथ  सरकार कभी भी गिर सकती है! बेभरोसे के भाजपा विधायक नारायण त्रिपाठी को सामने लाकर भी अपनी बात को वजन देने के प्रयास किए गए! लेकिन, इस सबका आदिवासी मतदाता पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा!
  पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के विक्रांत भूरिया को भाजपा उम्मीदवार गुमानसिंह डामोर ने करीब 10 हजार वोट से मात दी थी। लेकिन, 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया को झाबुआ लोकसभा सीट पर 90 हजार वोटों से हार के बावजूद झाबुआ विधानसभा सीट पर 7 हजार 298 वोटों की बढ़त हाँसिल हुई! यही कारण था कि डामोर के सांसद बनने के बाद खाली हुई झाबुआ विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने कांतिलाल भूरिया पर ही दांव खेला है। जबकि, भाजपा ने बेहद कमजोर भानु भूरिया को मैदान में उतारा। दोनों पार्टियों ने झाबुआ में इस बार जीत के लिए जितना दम लगाया, उतनी ताकत पहले कभी दिखाई नही दी।
  भाजपा की करारी हार के पीछे कारणों को खोजा जाए तो कुछ कारण इतने स्पष्ट हैं कि यदि पार्टी उन बातों का ध्यान रखती तो नतीजे को बदला जा सकता था। पहला कारण है, गुमानसिंह डामोर को विधायक पद से इस्तीफ़ा दिलाना! यदि विधानसभा चुनाव में झाबुआ से भाजपा के टिकट पर डामोर जीत गए थे तो उन्हें लोकसभा का टिकट नहीं दिया जाना था! स्थिति ऐसी भी नहीं थी कि भाजपा के पास उम्मीदवार नहीं था! लेकिन, एक ही उम्मीदवार को दोनों चुनाव नहीं लड़वाए जाना थे! यदि ऐसा हुआ भी तो उन्हें लोकसभा की सीट से इस्तीफ़ा दिलवाना था, न कि विधानसभा की! लोकसभा में तो भाजपा के पास प्रचंड बहुमत है, वहां एक सांसद कम भी हो जाता तो फर्क नहीं पड़ता, पर जहाँ विधानसभा में एक-एक विधायक का महत्व है, तो फिर ये रिस्क नहीं ली जाना थी! प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने से मतदाता का मानस उस पार्टी की तरफ झुकना स्वाभाविक है। 
  दूसरा कारण है, भाजपा उम्मीदवारी के चयन में स्थानीय समीकरणों का ध्यान नहीं रखा गया। कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया के सामने भाजपा ने बहुत कमजोर उम्मीदवार भानु भूरिया को मैदान में उतारा! जबकि, उससे कहीं बेहतर नेता मौजूद थे। भानु भूरिया और उनके पिता बालू भूरिया की छवि झाबुआ क्षेत्र में कैसी है, ये बात किसी से छुपी नहीं! ये जानते हुए भी उसे टिकट दिया गया! यही कारण था कि भाजपा उम्मीदवार अपने गाँव से भी जीत नहीं सके! ये भी सुनने में आया है कि भाजपा के कुछ बड़े नेताओं ने टिकट को लेकर खुले आम सौदेबाजी भी की थी! ऐसे में जिसने मांग पूरी कर दी, उसे टिकट दे दिया गया! इन नेताओं के नाम भी चर्चा में हैं!
  तीसरा कारण है, स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं की उपेक्षा! पिछले लोकसभा उपचुनाव के दौरान भाजपा उम्मीदवार निर्मला भूरिया अनुकूल माहौल और सारे संसाधनों के मुहैया होने के बावजूद चुनाव हार गई थी! उस चुनाव के दौरान भी भाजपा के कई बड़े नेताओं और उनके मुंहलगे कार्यकर्ताओं ने झाबुआ को हाईजेक कर लिया था। इससे स्थानीय नेता और कार्यकर्ता उपेक्षित हो गए थे! वही सब इस बार भी हुआ! भाजपा के संभागीय संगठन मंत्री जयपाल चावड़ा ने पूरे विधानसभा क्षेत्र के हर सेक्टर का प्रभारी बाहरी कार्यकर्ता को बनाया! उन्होंने ही चुनाव की रणनीति बनाई और स्थानीय कार्यकर्ताओं निर्देश दिए, जो उन्हें रास नहीं आए! चुनावी सभाओं के मंच पर भी बाहरी लोगों का कब्ज़ा हुआ! पार्टी ने सोशल मीडिया के शौक़ीन कई कार्यकर्ताओं को इंदौर से झाबुआ भेज दिया, जिन्होंने कई ऐसी बातें उजागर कर दी, जो नहीं की जाना थी! इससे कांग्रेस को अपनी रणनीति बदलने का मौका मिल गया! 
   चौथा कारण है, ऐसे स्थानीय नेताओं को महत्व दिया जाना जिन्हें पार्टी का प्रदेश नेतृत्व उनके पदों से हटा चुका था! मनोहर सेठिया और शैलेश दुबे दोनों को भाजपा संगठन ने अध्यक्ष पद से हटाया था! ये दोनों ही नेता लम्बे समय से हाशिये पर थे, लेकिन चुनाव प्रबंधन करने वालों ने इन्हें बड़ी जिम्मेदारी दी! ये भी एक कारण था कि स्थानीय कार्यकर्ता नाराज हुए और उन्होंने बेमन से काम किया! नारायणपुरा इलाका जिसे भाजपा का गढ़ माना जाता है, वो भी इस बार ढह गया! यदि भाजपा ये चुनाव स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं के भरोसे लड़ती, तो संभव है कि नतीजा इसके उलट होता! 
  इस चुनाव में कांग्रेस की चुनावी रणनीति पूरी तरह कारगर रही! बाहर से आए कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं ने स्थानीय कार्यकर्ताओं से आगे निकलने की कोशिश नहीं की और न उनकी बातों को अनसुना किया। बल्कि, कुछ मामलों में भाजपा के कई स्थानीय पदाधिकारियों को भी कांग्रेस की रणनीति ने फंसा लिया। कांग्रेस ने जो व्यापारी प्रकोष्ठ की एक बैठक बुलाई थी, उसमें कई भाजपा पदाधिकारी भी आए और उन दानों को चुगा, जो डाले गए थे! इन सारे हालात देखकर कहा जा सकता है कि भाजपा को उसके ख़राब चुनाव प्रबंधन, नेताओं के बड़बोले बोल, अतिआत्मविश्वास और बाहर से झाबुआ पहुंचे नेताओं और कार्यकर्ताओं की मनमानी हरवाया!  
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Tuesday, October 22, 2019

'अशुद्ध के खिलाफ युद्ध' कितना कारगर, कितना दिखावटी!

- हेमंत पाल 

  त्यौहार के नजदीक आते ही प्रशासन की सबसे ज्यादा सख्ती दिखाई देती है, नकली मावे और मिठाइयों पर! ऐसा साल में दो या तीन बार ही होता है! लेकिन, त्यौहार के बाद सारी सख्ती नदारद हो जाती है! सरकार किसी भी पार्टी की हो, ये पाखंड बरसों से हो रहा है और आगे भी होता रहेगा! पूरे साल लोग मिलावटी खाद्य पदार्थ खाते रहें, प्रशासन चिंता से निश्चिन्त रहता है! लेकिन, त्यौहार आते ही धरपकड़ का माहौल बन जाता है! पहली बार कमलनाथ सरकार ने मिलावट से मुक्ति को अपने एजेंडे में शामिल किया है। मिलावट की सूचना देने वाले को ईनाम देने का एलान भी किया गया! थोड़ी सख्ती भी नजर आई, पर उतनी नहीं जितनी सिंगल यूज़ प्लास्टिक और पॉलीथिन की थैलियां पकड़ने के लिए की जाती है! इंदौर जैसे बड़े शहर में मिलावटी सामान पकड़ने का ढोंग ज्यादा दिखाई देता है, वास्तव में मिलावट पर सख्ती नहीं हो रही, खानापूर्ति ही ज्यादा हो रही है! 
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  रों के बुजुर्ग अकसर अपने वक़्त के शुद्ध खाने का जिक्र करते रहते हैं! कीमत तो समय के साथ बदलती रहती है, पर शुद्धता को लेकर उनका आकलन सही होता है कि आज हम जो खा रहे हैं, सब अशुद्ध है। ये बात सच भी है। उपयोग की हर चीज में आज मिलावट है। पानी से लगाकर दूध, फल, सब्जी, मिठाई और मसालों तक में किसी न किसी रूप मिलावट है। मुद्दे की बात ये कि किसी भी सरकार ने जीवन से जुड़े इस मसले को गंभीरता से नहीं लिया! सरकार के खाद्य विभाग ने कभी इसे अपनी प्राथमिकता की सूची में नहीं रखा! इसलिए कि उन्हें ऐसे मामलों की अनदेखी करने की कीमत मिलती रहती है! कमलनाथ सरकार ने मिलावट को लेकर थोड़ी सख्ती की और इसके लिए कुछ नियम-कायदे भी बदले! लेकिन, सरकारी स्तर पर होने वाली लापरवाही पर फिर भी लगाम नहीं लगी! नहीं लगा कि मिलावट पकड़ने वालों ने किसी बड़ी मछली पर नकेल डाली हो! छोटे दुकानदार और हलवाइयों की पकड़-धकड़ ही ज्यादा नजर आ रही है! इसलिए कि बड़ी मछली में जाल डालने पर उनके जाल ही खींचकर ले जाने खतरा रहता है! सरकार ने मिलावट की सूचना देने वाले को 25 हज़ार तक का इनाम की घोषणा की गई! लेकिन, अभी ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि किसी ने सूचना दी हो या उसे इनाम मिला हो! 
   हाल ही में मिलावटी और नकली दूध को लेकर बड़े खुलासे हुए! आंकड़ा सामने आया कि प्रदेश में करीब 48% फीसदी दूध शुद्ध नहीं है! यहाँ तक कि शुद्धता का दावा करने वाले पैकेट वाले दूध में भी अशुद्धि मिली! लेकिन, न तो कहीं कड़ाई दिखाई देती है और न लगता है कि किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई! दूध में डिटर्जेंट पाउडर, यूरिया, स्किम्ड मिल्क पाउडर, कास्टिक सोडा, ग्लूकोज, रिफाइंड तेल, नमक और स्टार्च की मिलावट की जाती है! इससे यह लोगों के सेवन योग्य नहीं रह जाता। भिंड और मुरैना क्षेत्र तो नकली मावे और दूध के गढ़ ही बन गए! यही से त्यौहारी मौसम में नकली मावे की खेप पूरे प्रदेश में भेजी जाती है! लेकिन, जो मावा और उनसे बनी मिठाइयाँ पकड़ी जाती है, वो असल कारोबार का 5% भी नहीं है। इंदौर जैसे बड़े शहर में जहाँ खाने-पीने के शौकीन लोग ज्यादा हैं, नकली और मिलावटी खाद्यान्न बिकता है! भी प्रशासन और संबंधित विभागों की नाक के नीचे! मामला सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है! केमिकल से पके रंगे-पुते फल, गंदे पानी में उपजाई जाने वाली सब्जियाँ भी गंभीर मुद्दा है! लेकिन, प्रशासन के अफसरों और निगमकर्मियों को पॉलीथिन की थैलियां पकड़ने से ही फुर्सत नहीं! 
   इस गौरखधंधे को रोकने के लिए सरकारी स्तर पर कभी ठोस प्रयास नहीं हुए। यही कारण है कि यह मर्ज गंभीर बीमारी बन चुका है! खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने के लिए कड़े कदम तो उठाए रहे हैं! लेकिन, उस पर अमल कितना हो रहा है, ये बड़ी बात है! मुख्यमंत्री कमलनाथ के विचार और प्रयास दोनों नेक हैं। लेकिन, जब तक लोगों का प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग नहीं मिलेगा, तब तक इस धीमे जहर से पूरी तरह मुक्ति पाना संभव नहीं है। खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए कानून है, जिसे 'फूड एंड ड्रग' कहा जाता है। शहरों में इसका दायित्व नगरीय निकायों के पास है और गाँव में फूड इंस्पेक्टर यह काम करते हैं। लेकिन, इस कानून का क्रियान्वन इतना लचर है कि बहुत ही कम मामलों में मिलावट करने वालों को सजा मिल पाती है। दरअसल, ये छोटे दुकानकारों और होटल व्यवसायियों को परेशान करने का हथियार बन गया! यदि सरकार की मंशा ईमानदारी से मिलावट रोकने की है, तो सबसे पहले संबंधित विभाग पर नकेल डालना होगी। इन काली भेड़ों पहचान कर उन्हें रेवड़ से बाहर करना होगा, तभी बात बनेगी! मिलावटी खाद्यान्न पकड़ने की ख़बरें अकसर जोरशोर से प्रचारित की जाती हैं! लेकिन, इन बातों से तो बात नहीं बनेगी! जब तक इन्हें सजा नहीं मिलेगी, मिलावटखोर काबू में नहीं आएंगे! मिलावट रोकने के लिए राज्य सरकार के संबंधित कानूनों में संशोधन की प्रक्रिया शुरू की गई है! कहा जा रहा है कि नए प्रावधानों को और सख्त बनाए जाने की कोशिश की जा रही है। लेकिन, ये कब होगा, फिलहाल इसका इंतजार है! 
  महाराष्ट्र सरकार ने तो खाद्य पदार्थों में मिलावट को गैर-जमानती अपराध का कानून बना दिया। दोषी पाए जाए पर इसमें उम्रकैद तक की सजा हो सकेगी। वहाँ की सरकार ने 'खाद्य मिलावट रोधक (महाराष्ट्र संशोधन) विधेयक' पारित करने अपनी मंशा को स्पष्ट कर दिया। ऐसा ही कुछ मध्यप्रदेश में भी करना होगा, जिससे खाद्य सामग्री में मिलावट करने वालों को कड़ी सजा मिल सके। मिलावट रोकने के लिए कानून केंद्र सरकार बनाती है, लेकिन उसका पालन राज्य की एजेंसियों को करवाना होता है। खाद्य विभाग, नगर निगम, पुलिस, एफएसएसएआई के जिम्मे इस कानून के अनुपालन की जिम्मेदारी होती है। लेकिन, इन महकमों में इतना भ्रष्टाचार है, कि अधिकारी कानून का डर दिखाकर वसूली करते हैं। वे सैंपल तो इकट्ठा कर लेते हैं, पर उनकी जांच नहीं करवाते। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि हम  रहे हैं, वो कितना शुद्ध है! यहां तक कि घर में पकने वाले भोजन की भी गुणवत्ता भी संदिग्ध होती है। क्योंकि, जो कुछ बाजार से खरीदा जाता है, उसकी निगरानी की सरकारी व्यवस्‍था लापरवाह और भ्रष्ट है। सरकार यदि खाद्य पदार्थों में मिलावट को काबू करने के अपने प्रण को लक्ष्य तक पहुंचाना चाहती है, तो उसे सबसे पहले उस भ्रष्ट नौकरशाही पर नकेल डालना होगी, जो इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है!  
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Sunday, October 20, 2019

झाबुआ उपचुनाव दोनों पार्टियों के लिए 'अहम्' का मुद्दा!

 - हेमंत पाल

   झाबुआ में चुनाव प्रचार थम गया! उपचुनाव के लिए दोनों प्रमुख प्रतिद्वंदी पार्टियों की सारी कवायद पूरी कर ली! बाकी जो प्रबंधन बचा है, वो आज रात पूरा हो जाएगा! कांग्रेस और भाजपा दोनों ने चुनाव जीतने की कोशिश में कोई कमी नहीं छोड़ी और सारे पैंतरे इस्तेमाल किए। कांग्रेस के कई मंत्रियों ने झाबुआ में डेरा डालकर मतदाताओं को लुभाने के हरसंभव प्रयास किए। जबकि, भाजपा ने भी अपनी तरफ से कोई कसर नहीं रखी! लेकिन, स्थिति देखकर कहा नहीं जा सकता कि नतीजे का ऊंट किस करवट बैठेगा! क्योंकि, प्रचार के मुकाबले में दोनों का पलड़ा बराबरी का रहा है। जबकि, उम्मीदवारी में कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया ज्यादा मजबूत नजर आ रहे हैं! उन्हें प्रदेश में कांग्रेस सरकार होने का भी फ़ायदा मिलेगा! भाजपा का बागी क्या कमाल दिखाएगा, इसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता!
   झाबुआ विधानसभा सीट का अपना अलग राजनीतिक चरित्र है। यह सीट बरसों से कांग्रेस की परंपरागत सीट रही है और कांतिलाल भूरिया का यहाँ एकछत्र राज रहा! इस सीट पर भाजपा तभी जीती, जब कांग्रेस में बगावत हुई और मुकाबला त्रिकोणीय बना! कभी भी सीधे मुकाबले में भाजपा झाबुआ नहीं जीत सकी! पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव की कहानी भी यही थी! जहाँ तक हार-जीत के अनुमानों का सवाल है, प्रचार की अंतिम स्थिति तक पहुँचते दोनों पार्टियाँ बराबरी पर दिखाई दे रही हैं। शुरुआत में कांग्रेस के प्रचार का जोर ज्यादा लगा, जो प्रचार के आखिरी दौर तक पहुँचते-पहुँचते भाजपा के पक्ष में झुकता हुआ सा लगा! आखिरी दिन के प्रचार में प्रदेश के वर्तमान और पूर्व दोनों दोनों ही मुख्यमंत्री झाबुआ में थे। लेकिन, भाजपा के नेता इस बात को छुपा नहीं पाए कि उनका उम्मीदवार भानु भूरिया अपेक्षाकृत कमजोर है। 
  यह आदिवासी सीट हमेशा ही प्रदेश में अपनी अलग राजनीतिक मौजूदगी दर्ज कराती रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव में यहाँ के मतदाताओं ने भाजपा के दिलीपसिंह भूरिया को चुनाव जिताया! लेकिन, सवा साल बाद उनके निधन से खाली हुई सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया चुनाव जीतकर दिल्ली गए! इस बार सांसद बनने के बाद झाबुआ के विधायक गुमानसिंह डामोर को झाबुआ सीट छोड़ना पड़ी, तो यहाँ उपचुनाव के हालात बने हैं! पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में यहाँ से कांतिलाल भूरिया के बेटे डॉ विक्रांत भूरिया को भाजपा के गुमानसिंह डामोर ने हराया था! लेकिन, कांग्रेस की हार का सबसे बड़ा पेंच कांग्रेस के बागी उम्मीदवार जेवियर मेढ़ा थे, जिन्हें करीब 36 वोट मिले थे! डॉ विक्रांत की हार का सबसे बड़ा कारण ही वे थे! लेकिन, इस बार कहानी बदल गई! अब जेवियर कांग्रेस के साथ प्रचार में लगे हैं। उधर, उपचुनाव में भानु भूरिया को भाजपा उम्मीदवार बनाए जाने के विरोध में कल्याणसिंह डामोर ने बगावत कर दी। कांग्रेस की जीत इस पर भी टिकी है, कि भाजपा का ये बागी उम्मीदवार कितने वोट काटता है। 
  ख़ास बात ये कि इस पूरे उपचुनाव में हवा बार-बार बदलती दिखाई दी! शुरू में तो कांतिलाल भूरिया की उम्मीदवारी और जेवियर मेढ़ा के उनके साथ होने से कांग्रेस ताकतवर दिखाई दी! करीब दर्जनभर मंत्रियों के प्रचार में आने से भी फर्क पड़ा! मुख्यमंत्री कमलनाथ भी दो बार प्रचार कर आए! दिग्विजय सिंह भी झाबुआ पहुंचे! पर, पूरे उपचुनाव के प्रचार अभियान में ज्योतिरादित्य सिंधिया कहीं दिखाई नहीं दिए! उनके गुट के मंत्रियों ने भी झाबुआ में प्रचार से दूरी बनाए रखी! पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव और इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में धुआंधार प्रचार करने वाले सिंधिया की झाबुआ उपचुनाव से दूरी पर उँगलियाँ भी उठी! जबकि, पहले दौर के प्रचार में भाजपा पिछड़ी थी, पर बाद में उसने अपनी स्थिति सुधार ली! कांग्रेस ने चुनाव जीतने पर कांतिलाल भूरिया को मंत्री बनाने का एलान करके अच्छा पांसा फेंका है, जो असर दिखा सकता है! 
   विधानसभा में अपने आंकड़े सुधारने के लिहाज से झाबुआ उपचुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए प्रतिष्ठा का सवाल है। कांग्रेस चाहती है कि भाजपा से यह सीट छीनकर अपनी स्थिति को बेहतर कर लिया जाए! वहीँ, भाजपा इस सीट को फिर जीतकर कमलनाथ सरकार को घेरना चाहती है! यदि कांग्रेस हारती है तो किसानों की कर्ज माफ़ी न होने जैसे भाजपा के आरोपों को दम मिलेगा! लेकिन, यदि नतीजे कांग्रेस के पक्ष में रहे तो कमलनाथ सरकार की जमीन ज्यादा मजबूत होगी। कांग्रेस ने जेवियर मेढ़ा को साधकर अपनी एक बड़ी कमजोरी को सुधार लिया! लेकिन, भाजपा के बागी कल्याणसिंह डामोर मैदान में बने रहने से भाजपा परेशानी कम नहीं हुई! कल्याण डामोर को टिकट मिलने का इतना भरोसा था कि चुनाव से पहले ही उन्होंने झाबुआ सीट के सभी पोलिंग बूथ का दौरा कर लिया था! अब देखना है कि उनकी बगावत क्या रंग लाती है! 
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कुछ नया सोचो, तभी फिल्म चलेगी!


- हेमंत पाल 

  नए सोच के हिंदी सिनेमा में औरत की शख्सियत की वापसी होती दिखाई देती है। नायिका की वापसी और उसके जुझारूपन को दर्शकों ने भी हाथों हाथ लिया। क्योंकि, आज का दर्शक नायिका को शिफॉन साड़ियों की फंतासी से बाहर लाकर यथार्थ की खरोंचों के बीच महसूस करना चाहता है। इस आईने में वह अपने आपको देखना और जानना चाहता है। इन फिल्मों ने लैंगिक बहसों को भी नया मोड़ दिया। समाज और परदे पर पुरुष, स्त्री का शत्रु या उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसका साथी है। वह अपने पुरुष अहंकार और वर्चस्ववाद से मुक्त होकर, स्त्री के मर्म और उसके अधिकारों को समझते हुए नए तरीके से अपना विकास कर रहा है। फिल्मों के इन स्त्री पात्रों के साथ-साथ पुरुषों की सामंती छवियां भी खंडित हुई हैं और अब ये पूरी तरह स्वीकार्य भी हैं।
  याद किया जाए तो कंगना रनौत की फिल्म ‘क्वीन’ ने सबसे पहले स्त्री स्वातंत्र्य और स्त्री अस्मिता से जुड़े पहलुओं को आधारभूत और जरूरी स्तर पर समझने की कोशिश की थी! ये एक आम लड़की के कमजोर होने, बिखरने और फिर संभलने की अनूठी कहानी थी। इसमें फिल्मकार ने रानी के माध्यम से स्त्री की जिजीविषा और संघर्ष का बेहतरीन चित्रण किया था। बधाई हो, बरेली की बरफी और 'शुभमंगल सावधान' जैसी विशुद्ध मनोरंजन, सामाजिक और परिस्थिजन्य स्थितियों से उपजे हास्य की फिल्म है। ख़ास बात ये कि नए दौर की इन फिल्मों में स्त्री पात्रों को बहुत अहमियत दी है। 'तुम्हारी सुलू' का विषय भी बिल्कुल नया है और 'सीक्रेट सुपरस्टार' ने तो स्त्री पात्र को सम्पूर्णता दे दी! 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' तो इन सबसे चार कदम आगे है। 
  बदले दौर की फिल्मों में स्त्री पात्र शर्म और संकोच की कैद से निकलने लगी हैं। वे कथित सभ्रांत समाज से बेपरवाह होकर ठहाके लगाती हैं, चीखती हैं, जोर-जोर से गाती और नाचती हैं! जब तक कि उनका मन नहीं भर जाता। पीकू, पिंक, नीरजा, नील बटे सन्नाटा, डियर ज़िंदगी जैसी फ़िल्में पूरी तरह अभिनेत्रियों के कंधे पर टिकी थी। आमिर ख़ान के अभिनय से सजी फ़िल्म 'दंगल' भी एक तरह से महिला प्रधान फ़िल्म ही थी। श्री देवी ने भी परदे पर अपनी वापसी के साथ 'इंग्लिश विंग्लिश' और 'मॉम' जैसी फिल्मों में काम किया था। इससे पहले भी कई महिला प्रधान फ़िल्में बनी जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा बिजनेस किया।
  अब हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को ठीक से समझा और उसे आवाज दी है। अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, इम्तियाज अली जैसे युवा निर्देशकों और जोया अख्तर, रीमा कागती, किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग बदले हैं। इनकी स्त्रियां जीने के नए रास्ते और उड़ने को नया आसमान ढूंढ़ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसूरते, हर वक्त अपने दुखड़े सुनाते चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहा। उसे भी पात्रों के सशक्त व्यक्तित्व की खोज थी, जो अब पूरी हुई लगती है।
  इस वजह से मनोरंजन के अर्थ और पैमाने बदले हैं। सिनेमा ने समझ लिया कि बदला हुआ नया दर्शक केवल लटकों-झटकों से संतुष्ट नहीं होगा! उसे कुछ नया और ठोस देना होगा जो उसे अपने आसपास का वास्तविक सा लगे! यही कुछ वजह है कि आमिर खान जैसे एक्टर और सिनेमा के असली व्यवसायी फिल्मकार को भी अपने किले से बाहर निकलकर 'दंगल'  के बाद 'सीक्रेट सुपरस्टार' जैसी फिल्में बनाने को मजबूर होना पड़ा। अब मारधाड़, गुंडागर्दी, साजिशों और उलझी हुई कहानियों के दिन लद गए! आज के दर्शकों को चाहिए शुद्ध मनोरंजन जो उन्हें तीन घंटे तक सारे तनाव से मुक्त रखे और फिल्म की कहानी उसे अपनी या अपने आसपास की लगे! दर्शकों ने भी सिनेमा के इस बदले और समृद्ध रूप को स्वीकार किया। कुछ ऐसी फिल्में भी बन रही हैं, जिन्होंने सिनेमा और समाज के बने-बनाए ढांचों को बदला है। अब परदे पर वही चल रहा है, जिसमें कुछ नयापन है! प्रेम कहानियां, बदला और पारिवारिक विवाद तो हाशिए पर चले गए!
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Thursday, October 17, 2019

गोपाल भार्गव के चुनावी भाषण के निहितार्थ समझिए!


झाबुआ में शिवराज सिंह के मुख्यमंत्री बनने की बात कही, इंदौर में पलटे  

- हेमंत पाल

 भाजपा के कुछ नेताओं ने कमलनाथ सरकार गिराने का शिगूफा छोड़कर ख़बरों में छाए रहने का अचूक फार्मूला ढूंढ लिया है! वे जानते हैं कि राजनीति के मंच से बोली गई, ये लाइनों के सुर्खियां बनने में देर नहीं लगती! झाबुआ के विधानसभा उपचुनाव के एक चुनावी मंच से प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने कहा दिवाली के बाद शिवराज चौहान प्रदेश के मुख्यमंत्री होंगे! ऐसे राजनीतिक शिगूफे छोड़ना गलत नहीं है! पर, झाबुआ से इंदौर आते ही गोपाल भार्गव ने पलटा मार दिया! बोले कि चुनाव सभाओं में ऐसा बोलना पड़ता है! ये कोई घोषणा नहीं, चुनावी भाषण था! आशय यह कि भाजपा की न तो कांग्रेस सरकार गिराने की कोई योजना है और न शिवराज सिंह के फिर मुख्यमंत्री बनने की! 
  भाजपा नेता गोपाल भार्गव के लिए ऐसे बयान देना नई बात नहीं है! ये पहली बार नहीं है, जब गोपाल भार्गव ने महज गाल बजाने वाली बयानबाजी की है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को मध्यप्रदेश में ज्यादा सीटें मिलने के बाद भी उन्होंने राज्यपाल से विधानसभा का सत्र जल्द से जल्द बुलाने की मांग की थी, ताकि मोदी लहर में फ्लोर टेस्ट करवाया जा सके! बताते हैं कि पार्टी ने इस मामले को भी गंभीरता से लिया था! वे चुनाव प्रचार में जब पहली बार झाबुआ आए थे, तब भी कांग्रेस उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया की जीत को पाकिस्तान की जीत बता आए थे! इस पर झाबुआ कोतवाली में गोपाल भार्गव पर एफआईआर दर्ज की गई थी। 
  लेकिन, इस बार उन्होंने सरकार के गिरने और शिवराज के मुख्यमंत्री बनने की जो बात झाबुआ में बोली, उससे वे कुछ घंटे बाद ही बदल गए! ध्यान देने वाली बात कि जब गोपाल भार्गव ने झाबुआ में शिवराज सिंह के दिवाली बाद राज्याभिषेक की घोषणा की, तब खुद शिवराज सिंह भी मंच पर मौजूद थे। इससे एक बात तो साफ़ हो गई कि बोलने के मामले में गोपाल भार्गव की गंभीरता संदिग्ध है। यदि उन्होंने शिवराज सिंह के दिवाली बाद मुख्यमंत्री बनने की संभावना बताई थी, तो उस पर कायम रहकर तार्किक कारण भी बताना थे। ये आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि शायद गोपाल भार्गव के झाबुआ में दिए इस बयान को पार्टी के दिल्ली दरबार ने ठीक नहीं माना! यदि ऐसा कुछ होता भी है, तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा ये फैसला गोपाल भार्गव तो नहीं करेंगे! भार्गव के बयान के बाद शिवराज सिंह चौहान ने खुद ट्वीट करके कहा कि 'मुझे किसी पद की आकांक्षा नहीं है। मेरा एक ही पद है, जनता के दिलों में रहना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वैभवशाली, गौरवशाली भारत के निर्माण के अभियान में पूरी ताकत के साथ जुटे रहना।'
   समझा जा रहा है कि नेता प्रतिपक्ष का ये उत्साह मंगलवार को राजधानी में बदले राजनीतिक माहौल से प्रेरित था। भाजपा विधायक नारायण त्रिपाठी पूर्व मंत्री नरोत्तम मिश्रा के साथ प्रदेश भाजपा कार्यालय पहुँचे और कहा कि मैं भाजपा में था, भाजपा में हूँ और भाजपा में ही रहूंगा। ये वही विधायक हैं जो कुछ महीने पहले विधानसभा में मत विभाजन के समय कांग्रेस के पाले में चले गए थे! इसके साथ ही प्रदेश में सरकार बदलने की बात फिर से उठकर सामने आ गई। ये सारा मामला विधानसभा में नंबर गेम से जुड़ा है। 230 विधायकों की विधानसभा में किसी पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत नहीं है। बहुमत का जादुई आंकड़ा 116 सदस्य है, जबकि कांग्रेस के पास 114 विधायक है। बहुमत से दो कम। इसलिए कांग्रेस ने बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों का समर्थन लेकर अपनी ताकत को 121 तक बढ़ाया है।
  विधानसभा में 4 निर्दलीय विधायक है, 2 विधायक बसपा से है और एक विधायक समाजवादी पार्टी से! जबकि, भाजपा के पास 109 विधायक थे, जो झाबुआ विधायक गुमानसिंह डामोर के सांसद बनने के बाद घटकर 108 रह गए! कांग्रेस की कोशिश है कि झाबुआ जीतकर विधायकों की संख्या 115 कर ली जाए ताकि सुखद स्थिति बन जाए! गोपाल भार्गव ने ऐसे ही कुछ गणित से मध्यप्रदेश में फिर भाजपा सरकार बनने का फार्मूला बना लिया और झाबुआ में उसे बखान दिया! लेकिन, बाद में उनका पलटना उनकी राजनीतिक उच्श्रृंखलता की निशानी है।
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Tuesday, October 15, 2019

कीर्तिमान बनना था पौधरोपण का, बन गया घोटाले का!

- हेमंत पाल

 मध्यप्रदेश की पिछली भाजपा सरकार ने नर्मदा नदी के किनारों पर पौधारोपण करके रिकॉर्ड बनाने का दावा किया गया था। 2 जुलाई 2017 को एक दिन में 7 करोड़ 10 लाख से ज्यादा पौधे लगाकर 'गिनीस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड' में दर्ज करवाने की कोशिश भी की गई! इस पौधरोपण पर 455 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। व्यवहारिक रूप से एक दिन में इतनी बड़ी संख्या में पौधे लगाना संभव नहीं है! लेकिन, ये कारनामा किया गया! कमलनाथ सरकार ने इस मामले की जाँच इकोनॉमिक अफेंस विंग (ईओडब्ल्यू) को सौंपने की घोषणा कर दी! इसमें प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, तत्कालीन वन मंत्री गौरीशंकर शेजवार और कुछ अधिकारियों के नाम हैं! इस पूरी योजना में पेड़ों की कीमत से लेकर गड्डे खोदने और रोपे गए पौधों की संख्या तक में गड़बड़ी की आशंका है!   
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   मध्यप्रदेश की सौ से ज्यादा विधानसभा सीटें नर्मदा नदी के किनारों को छूती हैं। यही कारण है कि प्रदेश के लोगों का नर्मदा नदी से आत्मीय लगाव है! इस इलाके के लोगों ने भी पौधरोपण में गड़बड़ी मामले को नजदीक से देखा था। जब कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह नर्मदा यात्रा पर थे, तब उन्होंने भी इसे समझा और सुना था! पिछले कुछ सालों से नर्मदा संरक्षण बुरी तरह प्रभावित हुआ, जिससे किनारे बसे लोग पूर्ववर्ती भाजपा सरकार से खासे नाराज हैं। दिग्विजय सिंह ने अपनी नर्मदा यात्रा के दौरान नदी किनारे पौधरोपण पर भी कई बार टिप्पणी की! ये बातें सुनी-सुनाई होती तो शायद उनपर भरोसा नहीं किया जाता! पर, दिग्विजय सिंह ने ये सब छह महीने तक रात-दिन महसूस किया। उनकी कई रातें इन्ही लोगों के बीच गुजरी! उन्होंने यात्रा के दौरान खुद कोई राजनीतिक वार्तालाप भले न किया हो, पर उनके कान खुले थे! उनके साथी परिक्रमावासी शायद ये सब दर्ज भी कर रहे थे। इसलिए उन्होंने भी शिवराज-सरकार की खामियों को समझा था। ये दिग्विजय सिंह की 'नर्मदा परिक्रमा' के असल निहितार्थ थे जो अब सामने आए हैं।
  प्रदेश के वन मंत्री उमंग सिंगार के मुताबिक पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की जिद के चलते इतनी बड़ी तादाद में पौधे रोपे गए! शुरू में बनी योजना में 5 करोड़ पौधे लगाने का आदेश था! लेकिन, करीब 7 करोड़ पौधे खरीद लिए गए! पौधरोपण के दौरान 455 करोड़ की योजना में घोटाले के आरोप लगाते हुए वन मंत्री का कहना है कि एक दिन में ही भाजपा सरकार ने करोड़ों रुपए भष्टाचार की भेंट चढ़ा दिए। कीर्तिमान बनाने के नाम पर दूसरे राज्यों से पौधे खरीदे गए और अनाप-शनाप भुगतान किया गया। 20 रुपए का पौधा 200 रुपए से ज्यादा दाम में खरीदा गया! पौधों की खरीद के बाद इस घोटाले को छुपाने की हरसंभव कोशिश की गई! फाइल गायब कर दी गईं। वन विभाग ने अपनी जानकारी में एक जगह 15,625 पौधे दर्शाए हैं, मगर मौके पर सिर्फ 11,140 पौधे मिले। पौधारोपण के लिए किए गड्ढों की भी यही स्थिति है। तत्कालीन सरकार ने पौधे लगाने के लिए 9,985 गड्ढे करने का दावा किया, लेकिन जब इसकी जांच की गई तो मौके पर 2343 गड्ढों में लगे पौधे पाए गए। इन आंकड़ों से साफ है कि इस मामले में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी हुई है।
    घोषणा के मुताबिक तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और वन मंत्री गौरीशंकर शैजवार के अलावा आधा दर्जन से ज्यादा वन अधिकारियों के खिलाफ भी जांच होगी। आरोप लगाया गया है कि पौधरोपण का विश्व रिकॉर्ड बनाने की कोशिश के चलते जनता के पैसों का दूसरे लोगों को लाभ पहुंचाने के इरादे से इस्तेमाल किया गया। 7 करोड़ पौधे नहीं लगाए गए, क्योंकि खोदे गए गड्ढों की संख्या दावा किए गए आंकड़ों से काफी कम थी! वन विभाग के जरिए की गई आंतरिक जांच में भी पाया गया कि मुख्यमंत्री कार्यालय के जरिए पौधारोपण का फैसला इतनी जल्दबाजी में लिया गया था कि वन और बागवानी विभागों सहित सरकारी एजेंसियों के पास इस तरह से बड़ी संख्या में पौधारोपण का समय नहीं था! प्राथमिक जांच में यह भी पता चला कि गुजरात समेत कई निजी एजेंसियों से ज्यादा कीमत में पौधे मंगवाए गए थे!
  मुद्दे की बात ये कि पौधरोपण के बाद तत्कालीन शिवराज सरकार भी यह तय नहीं कर पाई थी कि नर्मदा कछार में वास्तव में कितनी संख्या में पौधे रोपे गए! तब भी सरकार ने पौधरोपण के चार बार अलग-अलग आंकड़े दिए थे। जिनमें काफी अंतर सामने आया था! पहले 5 करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य था फिर उसे बढाकर 6 करोड़ किया गया और सरकार ने सात करोड़ 10 लाख पौधे रोप दिए! लेकिन, गिनीज बुक को 5 करोड़ का रिकॉर्ड भेजा गया! इसमें से साढ़े तीन करोड़ पौधों के रोपण को मान्य करने का दावा किया गया। एक ही दिन और एक ही समय में करोड़ों पौधे लगाने का रिकॉर्ड बनाना तत्कालीन भाजपा  सरकार को भारी पड़ गया। एक दिन में पौधे तो लगा दिए, लेकिन उसका रिकॉर्ड तक व्यवस्थित नहीं हो पाया! जबकि, यह काम चार महीने में पूरा होने का दावा किया गया था। इसके लिए तब विकास शाखा के तत्कालीन एपीसीसीएफ और अब रिटायर वन अफसर वाय. सत्यम को सरकार ने संविदा नियुक्ति दी थी। वे प्रदेश के सरकारी हलके में गिनीज बुक रिकॉर्ड दर्ज कराने के एक मात्र एक्सपर्ट माने जाते हैं।
  सरकार ने 2 जुलाई 2017 को नर्मदा कछार में रोपे गए पौधों की संख्या 6 करोड़ 63 लाख बताई। जबकि, विभाग की वेबसाइट पर 7 करोड़ 10 लाख 39 हजार पौधे लगाने का दावा किया गया। 15 मार्च 2018 को विधानसभा में एक सवाल के जवाब में वन विभाग ने बताया कि प्रदेश में सहयोगी विभागों से मिलकर 7 करोड़ आठ लाख 63 हजार पौधे लगाए गए। फिर क्या कारण था कि 'गिनीज बुक' को 5 करोड़ पौधे रोपे जाने का रिकॉर्ड भेजा गया। बाद में वन विभाग ने दावा किया कि 'गिनीज बुक' ने पौधरोपण के वीडियो और प्रमाण के आधार पर साढ़े 3 करोड़ पौधों के रोपण मान्य किया! योजना के तहत प्रदेशभर में एक लाख 21 हजार 275 स्थानों पर ये पौधरोपण किया गया। सभी की वीडियोग्राफी कराने का मतलब था, इतने वीडियोग्राफर का इंतजाम करना, जो संभव नहीं है। इसी को लेकर दिक्कत आई। कहा गया था कि हमने सभी स्थानों के वीडियो दिए हैं! लेकिन, गिनीज बुक की टीम डेढ़-दो मिनट के वीडियो नहीं मान रही! उसे चार घंटे का वीडियो चाहिए, जो हमारे पास नहीं है। कई जगह के फोटो दिए हैं, जिन्हें मान्य नहीं किया गया।
 वन विभाग ने नर्मदा कछार में डेढ़ करोड़ रूटशूट (विशेष प्रजाति के पौधों की कलम) लगाए थे। वह ग्रोथ नहीं कर पाए हैं। इनमें से ज्यादातर पौधे नर्मदा का जलस्तर बढ़ने पर बह गए, तो कुछ पनप ही नहीं पाए। विभाग इसका हिसाब नहीं दे पा रहा है। इस कारण रिकॉर्ड दर्ज होने में देरी हुई! जबकि, विभाग के अफसरों का कहना था कि 92% पौधे जिंदा हैं। इसे लेकर विभाग ने एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) में हलफनामा भी दिया था। तत्कालीन अपर मुख्य सचिव दीपक खांडेकर ने कहा था कि दो जुलाई-17 को पौधरोपण की ताजा स्थिति जानने के लिए पोर्टल की व्यवस्था की गई थी। जिस पर हर मिनट आंकड़े अपडेट हुए। उसी कारण हर बार पौधों का आंकड़ा बदला है। छह करोड़ से नीचे आंकड़ा जाने का कारण चार घंटे का वीडियो नहीं देना है। एक लाख 21 हजार स्थानों पर वीडियोग्राफी कराई भी नहीं जा सकती थी। इस संबंध में गिनीज बुक के अफसरों से बात चल रही है।
 वन विभाग द्वारा अक्टूबर 2017 में एक सर्वे रिपोर्ट भी तैयार की गई थी, जिससे विभाग द्वारा रोपे गए 333.72 लाख पौधे में से लगभग 91 प्रतिशत पौधे जीवित स्थिति में होना दर्शाया था। जबकि, जो करोड़ों पौधे दूसरे विभागों द्वारा रोपा जाना दर्शाया है, उनमें से जीवित पौधों की स्थिति का कोई रिकॉर्ड दर्ज नहीं है। इस पूरे अभियान में करोड़ों रुपए खर्च किए गए! नर्मदा संरक्षण को लेकर 'कैम्पा फंड' से भी कृषि वानिकी से समृद्धि योजना के अंतर्गत पौधरोपण कराया गया था। कृषकों को भूमि पर पौधे लगाने के लिए सितंबर 2017 में 1 करोड़ 8 लाख पौधे वितरित किए गए थे। इसके बाद जुलाई से अगस्त 2018 के दौरान भी 90 लाख पौधों का वितरण नर्मदा संरक्षण के तहत किसानों को किया गया। वनदूतों के माध्यम से 39 लाख 36 हजार रुपए का अनुदान भी बांटा गया था। इन पौधों की गिनती भी नर्मदा सेवा यात्रा के पौधरोपण में कर ली गई। अभी जाँच होना बाकी है, हो सकता है जो दिख रहा है उससे भी बड़ा मामला सामने आए!
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Saturday, October 12, 2019

'बिग बॉस' से कोई खुश नहीं!

- हेमंत पाल
   टेलीविजन के दर्शकों को सालभर जिन दो शो का बेताबी से इंतजार रहता है, वे हैं 'कौन बनेगा करोड़पति' और 'बिग बॉस!' दोनों ही शो इनके होस्ट और फॉर्मेट के कारण ज्यादा पसंद किए जाते हैं! 'कौन बनेगा करोड़पति' को तो हमेशा की तरह इस बार भी दर्शकों ने सराहा! लेकिन, इस बार 'बिग बॉस' अपने विवादास्पद फॉर्मेट के कारण आलोचना का शिकार हो गया! इससे पहले के सीजन भी 'बिग बॉस' पर उंगलियां उठी है, पर इतनी जल्दी नहीं! उसके कारण भी घर में बंद प्रतियोगियों की हरकतें ज्यादा रहीं! इस बार शुरुआत में आलोचना का कारण इसका फॉर्मेट था, जिसमें पुरुष और महिला प्रतियोगियों को एक बिस्तर पर सोने की अनिवार्यता थी! दर्शकों की नाराजी के बाद इसे दो दिन बाद बदल तो दिया, पर बहाने 'बिग बॉस' लोगों के निशाने पर आ गया!         
    ये पहली बार हुआ कि 'बिग बॉस' शुरू होते ही सोशल मीडिया पर दर्शकों का गुस्सा फट पड़ा! लोगों ने अपनी नाराजी जताते हुए सूचना प्रसारण मंत्रालय से 'बिग बॉस' को बंद करने तक की मांग कर दी! शो के मेकर्स पर यह भी आरोप लगाया गया कि वे भारतीय संस्कृति का अपमान कर रहे हैं। कई समाजसेवी संगठनों के अलावा एक सांसद और विधायक ने भी इस शो के फॉर्मेट को गलत बताते हुए सूचना प्रसारण मंत्रालय को पत्र लिखा! सूचना प्रसारण मंत्रालय ने भी इस पत्र को गंभीरता से लिया और जाँच के आदेश दे दिए! विवाद बढ़ने के बाद शो के मेकर्स ने इस नियम को बदल तो दिया, पर उसके बाद भी लोगों की नाराजी कम नहीं हुई! कहा गया है कि 'बिग बॉस' हिंदू संस्कृति का अपमान कर युवा पीढ़ी को भटका रहा है। इस शो पर लव जिहाद को प्रमोट करने का भी आरोप लगा! कहा गया कि कश्मीर का लड़का आसिम एक ब्राह्मण लड़की अमायरा के साथ बेड शेयर कर रहा हैं! इसे लेकर लोगों ने आपत्ति जताई और इसे लव जिहाद का नाम दिया।
   साधु संतों की सर्वोच्च संस्था 'अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद' ने भी इस शो का विरोध करते हुए इसका प्रसारण तत्काल रोकने को कहा है। उनका कहना है कि 'बिग बॉस' का प्रस्तुतिकरण भारतीय संस्कृति के अनुकूल नहीं है। यह अश्लीलता एवं फूहड़ता फैलाकर सामाजिक समरसता को नुकसान पहुँचा रहा है। इस रियलिटी शो के बदले फॉर्मेट का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) ने कलर्स टीवी के इस शो पर तुरंत रोक लगाने की मांग की! 'बिग बॉस' में अश्लीलता के खिलाफ मेरठ के लोग भी काफी आक्रोशित थे। इसके चलते शो के होस्ट सलमान खान के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अश्लीलता फैलाने का मुकदमा दायर किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने इस अर्जी को स्वीकार कर लिया था। शो में हुआ पहला टास्क भी दर्शकों को काफी अश्लील लगा। ये टास्क घर की मालकिन बनीं अमीषा पटेल ने घरवालों को राशन जीतने के लिए दिया था। इसी साथ अमायरा जो कि ब्राह्मण हैं उसे बाथरूम साफ करने की जिम्मेदारी देने से समाज के लोग काफी नाराजी व्यक्त कर रहे हैं।
   इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि देश में पिछले कुछ सालों से भारतीय संस्कृति के रक्षकों की संख्या बढ़ी है। अब वो माहौल नहीं है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कोई कुछ भी बोलेगा या दिखाएगा तो उसे अनदेखा किया जाएगा! संजय लीला भंसाली जैसे बड़े डायरेक्टर को अपनी फिल्म 'पद्मावत' को लेकर जबरदस्त विरोध सहना पड़ा था! यहाँ तक कि फिल्म का नाम बदलना पड़ा और फिल्म के कुछ हिस्से फिर से फिल्माना पड़े थे! आशय यह कि संस्कृति और सभ्यता से खिलवाड़ करने वालों को लोग आसानी से बख्शते नहीं हैं! ऐसे माहौल में 'बिग बॉस' के मेकर्स को भी ऐसा फॉर्मेट नहीं रखना था, जिस पर उंगली उठने की कोई गुंजाइश हो! पुरुष और महिला प्रतियोगी को एक बिस्तर पर सुलाना और खाने की सामग्री मुंह में दबाकर एक दूसरे को देना कहाँ की रचनात्मकता है? इस तरह का मनोरंजन वो भी प्राइम टाइम में दर्शक कैसे बर्दाश्त करेंगे, ये सोचा जाना था!
   शो की लोकप्रियता को लेकर जो सामाजिक मापदंड हैं, उन्हें किनारे नहीं किया जा सकता! हमेशा विवादित रहा 'बिग बॉस' इस बार भी कुछ ज्यादा ही सीमा लांघ गया! बेहतर होता कि इस प्राइम टाइम शो में क्रिएटिव टास्क रखे जाते, जो प्रतियोगियों में स्पर्धा बढ़ाते और कुछ अलग तरह का मनोरंजन परोसते! लेकिन, वो सब छोड़कर फूहड़ता से लोकप्रियता बटोरने की कोशिश की गई! 'बिग बॉस' ने अश्लीलता की जो लक्ष्मण रेखा पार की है, उसे उसकी भरपाई तो करना ही पड़ेगी! क्योंकि, अब दर्शक मनोरंजन के नाम पर कुछ भी झेलने के लिए मजबूर नहीं हैं!
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Monday, October 7, 2019

खुद भी 'प्यासा' रहे गुरुदत्त!

- हेमंत पाल

  जिस तरह साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, वैसे ही फ़िल्में भी समकालीन परिस्थितियों से प्रभावित होती हैं। 1950 का दशक सिनेमा के प्रसंग में काव्यात्मक और कलात्मक फ़िल्मों के व्यावसायिक चलन को विकसित करने के लिए प्रसिद्ध हैं। उनमें भी सबसे ज्यादा ख्याति गुरुदत्त की फिल्मों को मिली। गुरुदत ने 50 और 60 के दशक में भारतीय सिनेमा को 'कलात्मक एवं गंभीर विषय' की दिशा देने की सफल कोशिश की। यही उनकी उपलब्धि है, और इसीलिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। गुरुदत्त की 1957 में आई फ़िल्म 'प्यासा' भी तात्कालिक प्रभावों से अछूती नहीं थी। फिल्म इतिहास में इस फिल्म को क्लासिक का दर्जा प्राप्त है। समाज के छल-कपट से आक्रोशित नायक अपने मौलिक अस्तित्व को अस्वीकार देता है। हताशा की इस चरम सीमा को गुरुदत्त ने बेहतरीन तरीके से फिल्माया था। एक संघर्षशील कवि और सेक्स वर्कर से उसकी दोस्ती को ख़ूबसूरत अंदाज़ में पेश किया गया था। 'प्यासा' में आजादी से पहले के भारत के हालात दर्शाए गए हैं। दरअसल, 'प्यासा' को फिल्म कला का व्याकरण भी कहा जाता है। गुरुदत्त ने इस फिल्म की पटकथा 1947 से 1950 के दौर में लिखी थी, जब वे अंग्रेजी मैग्ज़ीन 'इलेस्ट्रेटेड वीकली' में लघुकथाएं लिखा करते थे।
   'प्यासा' में गुरुदत्त के साथ माला सिन्हा, वहीदा रहमान और रहमान मुख्य भूमिका मे थे। गुरुदत्त माला सिन्हा से प्रेम करते हैं, लेकिन माला सिन्हा की शादी रहमान से हो जाती है। वहीदा रहमान एक वेश्या के रोल में हैं। यह वहीदा रहमान की प्रारंभिक फिल्मों में सै एक है। 'प्यासा' के बाद 1959 में गुरुदत्त ने 'कागज के फूल' फिल्म बनाई। यह उनकी बेहद कलात्मक फिल्मों में से एक है। इस फिल्म के लिए उन्होंने अपना सब कुछ बेच दिया था। लेकिन, उस समय फिल्म सफल नहीं हुई। इन फिल्मों के वह निर्देशक भी थे। इसके बाद 1960 में उनकी फिल्म 'चौदहवीं का चाँद' और 1962 में 'साहिब, बीबी और गुलाम'आई। ये भी उनकी चर्चित फिल्में हैं।
  प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रिका 'टाइम' की वेबसाइट ने 10 सर्वश्रेष्ठ रोमांटिक फ़िल्मों की एक सूची पेश की थी। इसमें भी ‘प्यासा’ को श्रेष्ठ पांच फ़िल्मों में स्थान मिला था। 'टाइम' की सूची में पहले स्थान पर 'सन ऑफ द शेख' (1926), दूसरे पर 'डॉड्सवर्थ' (1939), तीसरे पर 'कैमिली' (1939), चौथे पर 'एन एफे़यर टू रिमेम्बर' (1957) और पांचवे स्थान पर 'प्यासा' (1957) को रखा गया है। इससे पहले 'टाइम' ने 2005 में भी ‘प्यासा’ को सर्वश्रेष्ठ 100 फ़िल्मों में शामिल किया था। 'टाइम' के मुताबिक भारतीय फ़िल्मों में आज भी परिवार के प्रति निष्ठा और सभी का प्यार से दिल जीतने की भावना देखने को मिलती है। 2002 में 'साइट एंड साउंड' द्वारा 'ऑल टाइम ग्रेट फिल्म' के लिए कराए गए क्रिटिक्स एंड डायरेक्टर्स पोल में भी 'प्यासा’ को 160वीं रैंक हांसिल हुई थी। 'इंडिया टाइम्स मूवीज' ने ‘प्यासा’ को बॉलीवुड की श्रेष्ठ 25 फिल्मों में जगह दी और 2011 में 'टाइम' ने वैलेंटाइन-डे पर ‘प्यासा’ को 10 बेस्ट रोमांटिक फिल्मों में शामिल किया था। 'प्यासा' गुरुदत्त द्वारा निर्देशित, निर्मित एवं अभिनीत हिंदी सिनेमा की सदाबहार रोमांटिक फ़िल्मों में से एक है। गुरुदत्त को 'भारत का ऑर्सन वेल्स' भी कहा जाता है। 2010 में, उनका नाम सीएनएन के श्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं की सूची में शामिल किया गया। 
  गुरुदत्त वो शख्स थे, जिनके लिए शायद ये दुनिया बनी ही नहीं थी! जिसके नसीब में बहुत कुछ था, मगर जो वह चाहता, वो नहीं था! इस निर्देशक ने सिनेमा को 'प्यासा' जैसी अद्भुत फिल्म दी, लेकिन, अपने लिए कुछ भी न रख पाया! गुरुदत्त का पूरा नाम था वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे! शुरूआती शिक्षा कलकत्ता (अब कोलकाता) में करने के बाद उन्होंने अल्मोड़ा में नृत्य कला केंद्र में एडमिशन लिया था। उसके बाद कलकत्ता में ही टेलीफ़ोन ऑपरेटर का काम किया। बाद में वे पुणे चले गए और प्रभात स्टूडियो से जुड़ गए। यहाँ उन्होंने पहले अभिनेता और फिर नृत्य-निर्देशक के रूप में काम किया। 
    उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘बाज़ी’ (1951) देवानंद की ‘नवकेतन फ़िल्म्स’ के बैनर तले बनी थी। इसके बाद उनकी दूसरी सफल फ़िल्म थी ‘जाल’ (1952) जिसमें देवानंद और गीता बाली ही थे। इसके बाद गुरुदत्त ने ‘बाज़’ (1953) के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की। हालांकि उन्होंने अपने पेशेवर जीवन में कई शैलियों में प्रयोग किया, लेकिन उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फ़िल्मों में प्रदर्शित हुआ। गुरुदत्त बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे हर फिल्म को बारीकी से अलग-अलग तरह से बनाया करते थे। गुरुदत्त के बारे में ये बात प्रसिद्ध था कि वे एक एक शॉट के तीन-तीन रिटेक लिया करते थे। कभी कभी तो जब तक सभी उस सीन से सहमत न हों, जब तक उस सीन को फिल्माते रहते! उनकी इस तरह की लगन को देखकर ही गुरुदत्त के अद्भुत निर्देशक होने में कोई शक रह नहीं जाता! 
1964 में 39 वर्ष की उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई। वह 10 अक्टूबर 1964 की सुबह अपने पेढ़र रोड मुम्बई स्थित बंगले के बैडरूम में मृत पाए गए। बताया जाता है कि उन्होंने शराब के साथ नींद की गोलियाँ ज्यादा मात्रा में खा ली थींं। उनकी ज्यादातर फिल्मों में वहीदा रहमान रहती थीं। अपुष्ट रूप से यह कहा जाता है कि वह वहीदा रहमान से प्यार करने लगे थे। लेकिन, वे शादीशुदा थे इसलिए वहीदा के साथ आगे नहीं बढ़ सकते थे। यही वजह उनकी मौत का कारण बनी। इसके पहले भी वे दो बार आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे। ज़्यादातर वक़्त गंभीर रहने वाले गुरुदत्त का निधन एक पहेली बन कर रह गया! कोई इसे आत्महत्या कहता है तो कोई मौत! क्योंकि, जिस वक़्त उनका निधन हुआ, तब वे बिलकुल अकेले थे। उनके चले जाने से कई ऐसी चीज़ें थी जो शायद हमेशा के लिए ही रह गई। 
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Tuesday, October 1, 2019

अनुशासन की बागड़ लांघते कांग्रेस के वाचाल नेता!

- हेमंत पाल 

  जब भी कोई राज्य सरकार बहुमत के किनारे पर होती है, सबसे ज्यादा अनुशासन उसी पार्टी के बड़े नेता और कार्यकर्ता ही तोड़ते हैं! क्योंकि, उन्हें इस बात का विश्वास होता है कि उनकी अनुशासनहीनता पर कोई कान नहीं धरेगा! यदि ऐसा हुआ भी तो उनके खिलाफ कोई कार्रवाई तो हो नहीं सकेगी! मध्यप्रदेश में तो आजकल कुछ बड़े नेता ही अनुशासन की बागड़ लांघने की कोशिश में लगे हैं। ख़ास बात ये है कि जिस कांग्रेस के एकजुट होने के दावे किए जा रहे थे, उसे खंडित होने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा! अब तो पार्टी के साथ सरकार में भी तीन फांक साफ़ नजर आने लगी है! कई मंत्री तो अपना शक्ति प्रदर्शन करने का कोई मौका भी नहीं चूक रहे! उलजुलूल बयानबाजी से अखबार रंगे जा रहे हैं और चैनल पर बहस छिड़ी है! ध्यान देने वाली बात ये कि अनुशासनहीनता करने वालों पर कोई कार्रवाई भी नहीं हो रही! उमंग सिंगार के बयान लेकर इतने हंगामे के बाद भी उनका बाल भी बांका नहीं हुआ! ये सब सरकार के स्थायित्व के लिया अच्छा संकेत नहीं है!            
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   राजनीति में अनुशासन का अपना अलग ही महत्व होता है! इसका कोई निर्धारित मापदंड नहीं होता! ये पार्टी के साथ नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी नजर आता है! लेकिन, कांग्रेस में अनुशासन की धज्जियाँ उड़ती दिख रही है! बड़े नेताओं की आपसी गुटबाजी के कारण उनके समर्थक कार्यकर्ताओं में तो ये हर तरफ दिखाई दे रहा है, पर अब बड़े नेता और मंत्री भी अनुशासन की सीमा लांघ रहे हैं! कब, कहाँ क्या बोलना है, इसका भी ध्यान नहीं रखा जा रहा! मुख्यमंत्री के सामने कोई मंत्री सार्वजनिक रूप से टिप्पणी करे, अमूमन ऐसा होता नहीं है! लेकिन, कमलनाथ-सरकार में ऐसे कमाल भी हो रहे हैं। भोपाल में मेट्रो प्रोजेक्ट के शिलान्यास कार्यक्रम में भी कुछ ऐसा ही घटा! मुख्यमंत्री कमलनाथ की घोषणा का भोपाल से विधायक आरिफ मसूद ने मंच से ही विरोध कर दिया। उन्होंने अपनी बात कुछ इस अंदाज में कही थी कि मुख्यमंत्री ने सुनकर असहज महसूस किया और विधायक की तरफ देखने लगे। भोपाल मेट्रो के शिलान्यास कार्यक्रम को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि भोपाल की ये मेट्रो रेल सेवा 'भोज मेट्रो' के नाम से जानी जाएगी। जब मुख्यमंत्री का संबोधन खत्म हुआ, तो धन्यवाद भाषण के लिए मंच पर आए कांग्रेस विधायक ने मुख्यमंत्री की ओर देखते हुए कहा 'दादा भाई राजा भोज के नाम से कई काम हो चुके हैं और हो रहे हैं। इसलिए मेट्रो प्रोजेक्ट का नाम भोपाल मेट्रो ही रहने दिया जाए।' इसे विचारों की स्वतंत्रता तो नहीं, साफ़-साफ़ अनुशासनहीनता ही माना जाएगा! क्योंकि, वे अपनी बात बाद में भी कर सकते थे, पर उन्होंने सार्वजनिक मंच का उपयोग करके बता दिया कि उन्हें मेट्रो का नामकरण मंजूर नहीं है! 
   सरकार के कुछ मंत्री ऐसे हैं, जिनकी वाचालता (या नासमझी) पार्टी के साथ सरकार को भी मुश्किल में डाल रही है। ऐसी ही एक मंत्री हैं इमरती देवी जो हमेशा ही अपने बयानों से सुर्ख़ियों में बनी रहती है। मामला इस मंत्री के विधानसभा क्षेत्र डबरा का ही है! वे यहां के अस्पताल के हालात का जायजा ले रही थी! इस बीच कुछ लोगों ने अस्पताल की अव्यवस्‍था और पदस्थ डॉक्टर की लापरवाही का मुद्दा उठाकर उसके ट्रांसफर की मांग की! भीड़ के सामने तो मंत्राणी शांत रही, लेकिन अस्पताल से बाहर आकर उनका जमीर जाग उठा! वे सच बोल गईं 'जे कह रहा ट्रांसफर करा दो, अरे ट्रांसफर कराबे में पइसा लगता है, इससे अच्छा तो सस्पेंड करा दूंगी!' इस दौरान उनके साथ चल रहे कुछ लोगों ने उनके इस बयान का वीडियो बना लिया। बाद में ये वीडियो सार्वजनिक हो गया। यदि बात सुनी-सुनाई होती तो शायद उसे नकार दिया जाता और आरोप मीडिया पर लगता कि बयान को तोड़-मरोड़कर दिखाया गया है! लेकिन, जो बोला गया, वो सबके सामने था!
  महिला एवं बाल विकास मंत्री इमरती देवी का वीडियो सामने आने के बाद कांग्रेस बैकफुट पर आ गई! वहीं, भाजपा को ये आरोप लगाने का मौका मिल गया कि सरकार ट्रांसफर उद्योग चला रही है! ये बात पहले भी कही जाती रही है, पर भाजपा को इस बहाने आरोप दोहराने का मौका मिल गया। ग्वालियर से भाजपा सांसद विवेक शेजवलकर ने तो इस बयान पर कांग्रेस को जमकर घेरा! उनका कहना था कि अब भाजपा कुछ नहीं कह रही! कांग्रेस सरकार के मंत्री ही अपनी पोल खोल रहे हैं। दरअसल, इमरती देवी की सहजता ने कांग्रेस के ट्रांसफर उद्योग की बखिया उधेड़ दी! ज्योतिरादित्य सिंधिया की समर्थक इमरती देवी पहले भी बेबाक बयानों के लिए चर्चित रही हैं! प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की लॉबिंग के समय इमरती देवी ने साफ़-साफ़ सिंधिया के पक्ष में बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को ही प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहिए! हम 'महाराज' के अलावा किसी को मंजूर नहीं करेंगे! हम पूरे दम से लगे हैं, बस महाराज पीछे न हटें! ये वही इमरती देवी हैं, जो अपनी शपथ तक पूरी नहीं पढ़ सकी थीं।
   सरकार के उच्च शिक्षा एवं खेल मंत्री जीतू पटवारी भी हमेशा अपनी बेबाक बयानों को लेकर चर्चा में बने रहते हैं। वे जब विपक्ष में थे, तब भी कहीं, कुछ भी बोलते रहते थे। हाल ही में अपने विधानसभा क्षेत्र राऊ के एक गांव में एक कार्यक्रम में जीतू पटवारी ने मंच से पटवारियों के खिलाफ बयान दिया। उन्होंने कलेक्टर  संबोधित करते हुए कहा कि कलेक्टर साहब, आपके सौ फीसदी पटवारी रिश्वत लेते हैं. इन पर आप लगाम लगाइए! उन्होंने रिश्वत लेने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की चेतावनी भी दी! साथ ही लोगों से भी अपील की कि वे किसी को खासकर पटवारियों को रिश्वत न दें! मंत्री का कहना था कि हाथ जोड़ने और अनुरोध करने पर भी पटवारी काम नहीं करते! रिश्वत लेना और देना दोनों अपराध हैं! कोई मांगे तो आप इसे मना करें और काम करवाएं! यदि आवेदन के बाद भी काम नहीं होता है, तो आप मुझे बताएं। गरीब महिलाएं पेंशन के लिए परेशान हो रही हैं। जब वे कर्मचारियों से मिलने जाती हैं, और कहती हैं कि पांच-पांच बार फॉर्म भर दिए हैं, लेकिन कोई देखने वाला नहीं हैं। लेकिन, अब शिकायतों का निराकरण नहीं हुआ तो कार्रवाई होगी। दरअसल, जीतू पटवारी की भाषा चेतावनी वाली थी।
 जीतू पटवारी हमेशा ही पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के ट्‍वीट पर जवाब को लेकर भी मीडिया में छाए रहे हैं! जबकि, ये उनका दायित्व नहीं है! फिर भी वे पार्टी प्रवक्ता की तरह हर मामले में सार्वजनिक मंचों और सोशल मीडिया पर अपनी बात करते रहते हैं! शिवराज सिंह पर उनका एक रीट्वीट था 'आप भाजपा में अपनी साख खत्म होने के डर से उसे बचाने के लिए मोदी-शाह की पूजा तो क्या, उनके पैर धोकर उसका पानी पियो, हमें कोई आपत्ति नहीं!' इससे पहले उन्होंने शिवराज सिंह के 'टाइगर अभी जिंदा है' वाले बयान पर टिप्पणी की थी 'शिवराज सिंहजी आप एक अच्छे इंसान हो, बढ़िया सीधे, सज्जन, सरल, दुबले पतले व्यक्ति हो! आप दूसरी योनि में क्यो जाना चाहते हो! जरा इसका उत्तर तो दे दो! अच्छे इंसान से जानवर की योनि प्राप्त करना चाहते हो?' पटवारी ने एक बार ये भी कहा था 'शिवराजजी कहते हैं कि मैं खम्बे पर चढ़कर तार जोड़ दूंगा, मैं उनको कहना चाहता हूँ खम्बे पर चढ़ने की गलती मत करना! ये कमलनाथजी का खम्बा है ओर इसमें तार भी है ओर करंट भी है, चिपक जाओगे फिर मत कहना! विपक्ष पर हमले तक तो ऐसी बयानबाजी ठीक लगती है! लेकिन, राजनीतिक मर्यादा का ध्यान रखा जाना भी जरुरी है! पर, आश्चर्य इस बात का कि पार्टी स्तर पर कभी ये बात सामने नहीं आई कि किसी सीनियर नेता ने समझाइश दी हो!
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