Friday, July 29, 2022

जेल जीवन की सच्चाई और फ़िल्मी फार्मूला

- हेमंत पाल

    ब वो समय नहीं रहा जब लोग फिल्मों से प्रेरणा लेकर कोई अच्छा काम करते थे या खुद बदल जाते थे! लेकिन, कभी-कभी जब ऐसा होता है तो वो खबर जरूर बन जाता है। अभिषेक बच्चन की फिल्म 'दसवीं' भले ही हिट फिल्मों की गिनती में न आए, पर इस फिल्म से प्रेरित होकर आगरा सेंट्रल जेल के 12 कैदियों ने उत्तर प्रदेश बोर्ड की परीक्षा जरूर पास कर ली। कैदियों ने कहा भी कि जेल में इस फिल्म की शूटिंग के बाद उन्हें पढ़ने की प्रेरणा मिली! 'दसवीं' में 'गंगाराम चौधरी' (अभिषेक बच्चन) ने एक अनपढ़, भ्रष्ट और दिल से देसी नेता की भूमिका निभाई थी, जो जेल में नई चुनौती का सामना करता है और शिक्षित होने की तरफ बढ़ता है। जेल पर बनी यह पहली फिल्म नहीं है। जब से फ़िल्में बनना शुरू हुई, तब से फिल्मों में जेल से जुड़े कई कथानक रचे गए। 2017 में रंजीत तिवारी के निर्देशन में एक कैदी के जीवन पर सच्ची घटना पर बनी 'लखनऊ सेंट्रल' में कैदी की मनोदशा को बारीकी से दिखाने की कोशिश हुई थी। इसमें उसकी जेल से भागने की इच्छा और बाद में आया बदलाव दिखाया था। वास्तव में यह फिल्म दर्शकों को परंपरागत जेल की विभीषिका से अलग परिचित भी कराती है। क्योंकि, जेल हमेशा ही फिल्मकारों के लिए रोचक विषय रहा है और दर्शकों के लिए यह रहस्यमय सच है।
      जेल जीवन पर हिंदी में गंभीर फिल्म इक्का-दुक्का ही बनी! अधिकांश फिल्मों में जेल को फेंसी आयटम की तरह ही दिखाया जाता रहा। कभी नायक को जेल में बंद गुंडे पीटते हैं, कभी वो अपने आपको बेगुनाह साबित करने जेल तोड़कर भाग जाता है। कैदियों को जेल में पत्थर तोड़ते दिखाया जाता है, तो कभी वे कोरस स्वर में गाना गाने लगते हैं। फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो जेल जीवन को सबसे पहले 1947 में आई फिल्म 'जेल यात्रा' में दिखाया गया था। गजानन जागीरदार के निर्देशन में बनी इस फिल्म में राज कपूर और कामिनी कौशल ने मुख्य भूमिका की थी। यह फिल्म राज कपूर के लिए एक ऐसा अनुभव था, जो उनकी कई फिल्मों में अलग रूपों में कई फिल्मों में दिखाई दिया। 'जेल यात्रा' नाम से 1981 में भी एक फिल्म बनी, पर वो सफल नहीं हुई। सोहराब मोदी ने भी 'जेलर' नाम से 1958 में फिल्म बनाई, जो उनकी ही 1938 में इसी नाम से बनी फिल्म का रीमेक थी। फिल्म में सोहराब मोदी जेलर थे, जिसकी पत्नी एक डॉक्टर के साथ भाग जाती है। उन्होंने दो बार जेलर की भूमिका में खुद को कास्ट किया था। अब रजनीकांत ने अपनी नई फिल्म का नाम 'जेलर' रखा है।
    इसी तरह की एक फिल्म थी 1957 में वी शांताराम ने 'दो आंखें बारह हाथ' बनाई थी। यह फिल्म कैदियों के सुधार पर बनी अभी तक की सबसे अच्छी फिल्म मानी जाती है। ये फिल्म सच्ची घटना पर आधारित थी। अंग्रेजी शासनकाल में पुणे के पास की औंध रियासत में वहां के प्रगतिशील शासक ने एक आयरिश मनोवैज्ञानिक को जेल में बंद खतरनाक अपराधियों को खुली जेल में रखकर उन्हें सुधारने का प्रयोग करने की इजाजत दी थी। वी शांताराम ने उसी घटना को अपनी फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' का आधार बनाया। इसमें जेल के सुपरिटेंडेंट को कैदियों से अमानवीय व्यवहार करते दिखाया था। जबकि, जेलर आदिनाथ सरल व्यक्ति होता है। 
     जेलर अपने अधिकारियों से छः सजायाफ्ता अपराधियों को जेल से छोड़ने की अनुमति माँगता है, ताकि वह उन्हें खुले में रखकर उनमें सुधार ला सके। इस प्रयोग के लिए उन्हें अनुमति मिल जाती है और वह हत्या के आरोप में सजा काट रहे छः दुर्दांत कैदियों को अपने साथ ले जाता है। वो उनमें बदलाव भी ले आता है! लेकिन, फिल्म के अंत में कैदियों की सांड के आक्रमण से रक्षा करते हुए जेलर आदिनाथ के प्राण भी चले जाते हैं। यह देखकर इन कैदियों का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वे आदर्श नागरिक की तरह जीवन जीने का संकल्प लेते हैं। असली सांड से लड़ाई में वी शांताराम की आंखें भी ख़राब हो गई थी! 
   जेल को केन्द्र में रखकर हिन्दी सिनेमा कारों ने कुछ क्लासिक फिल्में भी दी है। ‘बंदिनी’ (1963 में) बिमल रॉय की अनमोल धरोहर है। इस फिल्म में नूतन और धर्मेन्द्र की भूमिका थी। जेल का एक डॉक्टर एक मुजरिमा के प्यार में पड़ जाता है। बिमल रॉय ने 1963 में फिल्म 'बंदिनी' बनाकर जेल में महिला बंदियों की मानसिक हालत और उनके तन्हाई भरे जीवन की कहानी कही थी। उन्होंने फिल्म के जरिए जेल में बंद उम्र कैद की सजा काट रही महिला कैदियों के मजबूत और कमजोर दोनों पक्षों को उजागर किया था। बंगाल में जेलर रहे चारुचंद्र चक्रवर्ती के उपन्यास 'तामसी' पर बनी यह फिल्म आज भी अपने शीर्षक के मुताबिक महिला बंदियों की जिंदगी की मार्मिकता को कहने वाली बेहतरीन फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म के आशा भोंसले के गाए गाने 'ओ पंछी प्यारे' और 'अब के बरस भेज भैया को बाबुल' में बंदिनी की त्रासदी का दर्द था, जिसे हाल में बैठा दर्शक भी अपने भीतर तक गहराई से महसूस करता है। 
      राज खोसला के निर्देशन में 1958 में बनी फिल्म 'काला पानी' में देव आनंद एक ऐसी लड़ाई लड़ते हैं, जिसमें एक निरअपराध पिता को जेल के सीखचों से निकालने के लिए एक बेटा कानून से लड़ाई लड़ता है। 1996 में तेलुगु में भी 'काला पानी' नाम से फिल्म बनी, पर ये देव आनंद की फिल्म के मुकाबले कमजोर थी। इस फिल्म ने आजादी के दौरान फ्रीडम-फाइटर्स का जेल जीवन दिखाया था कि वे उन्हें कितनी यातनाएं दी जाती थी। इसी तरह प्रकाश झा की फिल्म 'गंगाजल' में भी बिहार की भागलपुर जेल में कैदियों की आंखें फोड़ने वाली सच्ची घटना का सजीव चित्रण किया गया था। जबकि, संजय दत्त की बायोपिक 'संजू' में जेल की गंदगी को इतने घृणित अंदाज़ में दिखाया गया था कि दर्शकों को उबकाई सी आने लगती है। सलमान खान भी चार फिल्मों में जेल के सीन कर चुके हैं। 2004 में आई फिल्म 'गर्व' में सलमान जेल में अपनी कहानी सुनाते नजर आए थे। 2014 की फिल्म 'जय हो' में सलमान को एक नेता को मारने के जुर्म में जेल हो जाती है। 'बजरंगी भाईजान' में सलमान को पाकिस्तान की जेल में बंद किया जाता है। फिल्म 'किक' में सलमान उस समय जेल में बैठे नजर आते जब जैकलीन फर्नांडिस उन्हें पुलिस स्टेशन मिलने आती है। चोर मचाए शोर, सरबजीत, कैदी, कैदी नंबर 911, हवालात और छोटे मियां-बड़े मियां जैसी कई फ़िल्में याद की जा सकती हैं, जिनमें जेल को दर्शाया गया है।    
    2009 में लीक से हटकर समाज के सच को अपनी फ़िल्मों में पेश करने वाले मधुर भंडारकर ने करीब डेढ़ साल की रिसर्च के बाद फिल्म 'जेल' बनाई, जो सच के काफी करीब थी। यह कहानी मध्यम वर्ग के उस नौजवान की थी, जो किसी कारण से जेल में फंस जाता है। पूरी कहानी भीड़ भरी जेल में उसके अनुभवों को दिखाते हुए आगे बढ़ती है। 2017 में आई फिल्म डैडी, लखनऊ सेंट्रल और फिर दाऊद इब्राहिम की बहन पर बनी फिल्म 'हसीना पारकर' में भी जेलों को फिर से शहरी चौपालों की जिज्ञासा का विषय बनाया गया था। 1986 में आई सुभाष घई की फिल्म 'कर्मा' की मूल कहानी भी जेल पर थी। फिल्म में दिलीप कुमार एक पुलिस अधिकारी और जेल का इंचार्ज है। वह अपराधियों को सुधारने में विश्वास रखता हैं। एक आतंकवादी संगठन के सरगना को गोपनीय रूप से उनकी जेल में रखा जाता है। ऐसे में जब राणा दूर कहीं होता है, सरगना के लोग जेल का पता लगाकर उसे छुड़ा लेते हैं। 
    फिल्मकारों के लिए जेल सदाबहार विषय रहा है। वे इस बात से आश्वस्त रहते हैं कि जेल खबर बनती है, जनता को खींचती हैं और दर्शकों को भी बांधने में सफल होती हैं। इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता! जेलों के अंदर के हालात को बड़े परदे पर उतारने का एक बड़ा मकसद बॉक्स ऑफिस पर कमाई करना ही रहा है। लेकिन, फिल्म के सेट और असली जेल में बहुत फर्क है। फिल्म निर्माता, निर्देशक बखूबी जानते हैं कि आम आदमी की दिलचस्पी जेलों के जीवन के प्रति हमेशा रही है! वे अपनी इस उत्कंठा को फिल्म के परदे पर देखकर पूरी करते हैं। क्योंकि, यहां कौतूहल है, सींखचों के पीछे परछाई भरे समाज को देखने की उत्सुकता भी है। लेकिन, जरूरी नहीं कि ऐसी फिल्में जेल जीवन की वास्तविकता दिखाती हों! इन फिल्मों का मकसद जेल में भी नायक का नायकत्व कायम रखना होता है! यदि ऐसा नहीं होता तो 'कालिया' (1981) में अमिताभ बच्चन जेल में ये डायलॉग नहीं बोलते 'हम जहां खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है! इस एक डायलॉग बाद दर्शकों को पता लग जाता है कि नायक आगे क्या करने वाला है! 
    1987 में सुरेन्द्र मोहन ने ऋषि कपूर, शत्रुघ्न सिन्हा और मिथुन को लेकर 'हवालात' नाम से फिल्म बनाई थी ,जिसकी 16 रीलों में से एक चौथाई में भी जेल का नामो-निशान तक नहीं था। 'जौहर महमूद इन गोवा' में तो जेल को ससुराल मानकर 'दो दीवाने दिल के चले हैं, देखो मिल के' गाते हुए जेल जाते हैं। वैसे तो धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक फिल्मों में भी बंदीगृह दिखाने की परंपरा बरसों से रही है। अत्याचारी राजा या दानव इसका उपयोग करके सीधे-साधे राजा या प्रजा को कैद में डालकर अत्याचार करते हैं। भगवान कृष्ण जन्म पर आधारित लगभग सभी फिल्मों में पौराणिक जेल (कारागृह) को अनिवार्य रूप से दिखाया जाता रहा है। बदले स्वरूप में फिल्मों में यही जेल महज एक प्रसंग बनकर रह गई!  
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Sunday, July 24, 2022

किस दबाव में महापौर के चुनाव डायरेक्ट कराए गए!

     यदि सरकार महापौर के चुनाव डायरेक्ट नहीं करवाती तो आज नतीजों का रुख कुछ और होता! कमलनाथ सरकार का फैसला बदलने की जिद बीजेपी के लिए परेशानी का कारण बन गई। लेकिन, सवाल उठता है कि क्या बीजेपी को पूर्वाभास नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है! मुख्यमंत्री पर आखिर किसने और क्यों दबाव डाला कि महापौर का चुनाव डायरेक्ट करवाया जाए! इसके पीछे कहीं उन नेताओं का कोई स्वार्थ तो नहीं है, जो अपने गुर्गों को सीधे महापौर का चुनाव लड़वाकर महापौर बनवाना चाहते थे! इस सवाल का जवाब शायद कभी न मिले, पर कोई तो ऐसी सच्चाई है जो इसके पीछे छुपी है!    
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- हेमंत पाल
 
    प्रदेश की 16 नगर निगमों और नगर पालिकाओं के साथ नगर परिषदों के चुनाव नतीजे आ गए। नतीजों से सब कुछ साफ़ हो गया। दावों और वादों की असलियत का गुबार छंट गया! अब वो कारण तलाशे जा रहे हैं, जो इन नतीजों का कारण बने! इस बार चुनाव में बीजेपी को सफलता तो मिली, पर उतनी नहीं, जितनी उम्मीद और दावा किया गया था। 16 में से सिर्फ 9 जगह ही बीजेपी महापौर की कुर्सी पर अपनी जीत दोहरा सकी। सवाल उठता है कि ऐसे हालात क्यों बने! यदि नगर निगमों में महापौर के चुनाव इनडायरेक्ट होते, तो क्या स्थिति इससे बेहतर नहीं होती! दरअसल, इस फैसले के पीछे बीजेपी की अंदरूनी राजनीति जिम्मेदार है। ये बातें भले ही कभी बाहर न आए, पर पार्टी में एक बड़ा तबका मुख्यमंत्री के नीचे से जमीन खींचना चाहता है और डायरेक्ट-इनडायरेक्ट के खेल के पीछे भी वही जिम्मेदार है! 
    सिर्फ महापौर का चुनाव डायरेक्ट करवाने के फैसले के पीछे भी कई किंतु, परंतु छुपे हैं! क्योंकि, पार्टी के कई बड़े नेता खेमेबंदी करके 'अपने वालों' को महापौर बनवाना चाहते थे, जो इनडायरेक्ट चुनाव की स्थिति में संभव नहीं था! तब पहले पार्षद बनने की मज़बूरी होती। इसके अलावा वे शिवराज सरकार के उन फैसलों को भी आईना दिखाना चाहते थे, जिनकी सफलता का अकसर पार्टी के बड़े नेताओं के सामने दावा किया जाता है! अब, जबकि सारी कोशिशों के बाद भी बीजेपी अपने 7 महापौर उम्मीदवारों को हारने से बचा नहीं सकी, हार के छिद्रान्वेषण में अब कहीं न कहीं सरकार को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। अच्छा हुआ कि शिवराज सिंह ने संगठन का आधा ही फैसला माना। यदि सभी निकाय के चुनाव डायरेक्ट करवाए जाते, तो हाहाकार मचना तय था! 
     कांग्रेस जीरो से हीरो बन गई और 5 नगर निगमों में उसके उम्मीदवार महापौर बन गए! ग्वालियर, जबलपुर, रीवा, मुरैना और छिंदवाड़ा में कांग्रेस का पंजा जीत गया। कटनी में बीजेपी की बागी ने कमाल दिखा दिया। सिंगरौली में 'आप' की उम्मीदवार ने कांग्रेस और बीजेपी दोनों को रेस से बाहर कर दिया। यदि महापौर का चुनाव इनडायरेक्ट होता तो क्या यह संभव होता!
     बीजेपी इस हार को आसानी से स्वीकार करे या नहीं, पर यह सच है कि पार्टी की एक गलती (या अतिआत्मविश्वास) उस पर भारी पड़ गया! सन 2000 से प्रदेश में महापौर और नगर पालिका अध्यक्ष का चुनाव डायरेक्ट कराया जा रहा था!  कमलनाथ ने सरकार में आने के बाद उसे पलट दिया। उन्होंने पार्षदों द्वारा महापौर पद के चुनाव का वही पारंपरिक तरीका वापस कायम कर दिया। लेकिन, जब कमलनाथ सरकार गिरी और शिवराज सिंह फिर मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अध्यादेश लाकर पुरानी व्यवस्था लागू कर दी, कि महापौर को जनता सीधे चुनेगी। बाद में इसमें फेरबदल ये किया कि महापौर के चुनाव तो डायरेक्ट होंगे, पर नगर पालिका और नगर परिषद में पार्षद ही अध्यक्ष चुनेंगे!  
     यही गलती, शिवराज सरकार से हुई। यदि कमलनाथ सरकार वाला फार्मूला ही लागू रहता तो पार्षद ही महापौर चुनते! क्योंकि, जिन नगर निगमों में बीजेपी के महापौर उम्मीदवार हारे हैं, उन सभी में पार्षद बीजेपी के ही ज्यादा जीते। यदि शिवराज पुराना नियम बरक़रार रखते, तो आज 16 में से 14  (मुरैना और छिंदवाड़ा छोड़कर) महापौर बीजेपी के होते और विरोधियों को उंगली उठाने का मौका नहीं मिलता।
    नगर निगमों में महापौर का चुनाव डायरेक्ट कराने का शिवराज सरकार का दांव उल्टा इसलिए पड़ा कि वे पार्टी संगठन के दबाव में आ गए। पार्टी के अंदर ख़बरें बताती है, कि मुख्यमंत्री डायरेक्ट चुनाव के पक्ष में बिलकुल नहीं थे। इसलिए उन्होंने पहले (दिसंबर 2020) लाए अध्यादेश पर कार्रवाई नहीं की और वो निर्धारित समय के बाद निष्प्रभावी हो गया! लेकिन, दबाव बढ़ने पर वे दूसरी बार (मई 2022) महापौर का चुनाव डायरेक्ट और नगर पालिका और नगर परिषद का चुनाव इनडायरेक्ट करवाने का अध्यादेश लाया गया। 
      जानकारी के लिए याद रखें कि भाजपा संगठन ने कृष्णमुरारी मोघे को कमलनाथ सरकार के उस फैसले के विरोध में बनाई गई समिति का अध्यक्ष बनाया था। उन्होंने भी सभी चुनाव डायरेक्ट कराने के पक्ष में मोर्चा संभाला था। तब मोघे ने भी कहा था कि बीजेपी अपने फैसले पर अटल है। यह अध्यादेश भले निष्प्रभावी हो गया हो, पर बीजेपी सरकार पूरी ताकत से फिर से महापौर और अध्यक्ष का चुनाव डायरेक्ट कराने की कोशिश से पीछे नहीं हटेगी। संगठन ने ऐसे कई प्रयोग किए जिनसे सरकार पर दबाव बढ़ा था। 
     सीधे जनता से महापौर का चुनाव करवाने का मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का फैसला उन पर ही भारी पड़ गया। कमलनाथ सरकार जब महापौर, नगर पालिका और नगर परिषद अध्यक्ष के चुनाव को इनडायरेक्ट तरीके यानी पार्षदों के जरिए कराने का अध्यादेश लेकर आई थी, उस समय बीजेपी ने विरोध किया था। कमलनाथ सरकार के इस फैसले को तब बीजेपी ने लोकतंत्र की हत्या तक कहा था। नगर निकाय में अध्यक्ष के इनडायरेक्ट चुनाव कराने के फैसले के खिलाफ बीजेपी तत्कालीन राज्यपाल लालजी टंडन से भी मिले थे। बीजेपी ने इसे लेकर मोर्चा तक खोला और अंततः कोरोना के कारण चुनाव टल गए! लेकिन, बाद में जो हुआ उसे भी सही नहीं कहा जा सकता! क्योंकि, इस एक फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए, जिनके जवाब लम्बे समय तक खोजे जाते रहेंगे!
कहां, किसके, कितने पार्षद जीते 
- भोपाल में नगर निगम में 85 पार्षद सीटें हैं। इनमें बीजेपी के 58, 
  कांग्रेस के 22 और अन्य के पांच पार्षद जीते हैं। 
- ग्वालियर नगर निगम में 66 पार्षद सीटें हैं। इनमें बीजेपी के 34, कांग्रेस 
  के 25 और अन्य को 7 सीटें मिली हैं। 
- इंदौर नगर निगम बोर्ड में 85 पार्षद सीटें हैं। बीजेपी के 64, कांग्रेस के 19 और 
  अन्य के 2 पार्षद चुनकर आए। 
- छिंदवाड़ा नगर निगम में 48 पार्षद सीटें हैं। इनमें बीजेपी 
   के 18, कांग्रेस के 26 और 4 अन्य पार्षद जीते। 
- जबलपुर नगर निगम में 79 पार्षद सीटें है। बीजेपी के 44, कांग्रेस के 26 और अन्य के 9 पार्षद जीते हैं। 
- उज्जैन नगर निगम में 54 पार्षद सीट है। बीजेपी के 37 और कांग्रेस के 17 पार्षदों ने जीत दर्ज की। 
- कटनी नगर निगम में 45 पार्षद सीट है। बीजेपी के 27, कांग्रेस के 15 और 3 अन्य को जीत मिली। 
- मुरैना नगर निगम में 47 पार्षद सीटें है, जिनमें से बीजेपी 
   के 15, कांग्रेस के 19 और अन्य 13 पार्षद जीते हैं। 
- रीवा नगर निगम में 45 पार्षद सीटें हैं, जिनमें से बीजेपी के 18, 
   कांग्रेस के 16 और अन्य के 11 पार्षद चुने गए। 
- रतलाम नगर निगम में 49 पार्षद सीटें हैं, जिनमें से बीजेपी के 
   30, कांग्रेस के 15 और अन्य 4 पार्षद जीते। 
- देवास नगर निगम में 45 पार्षद सीट हैं। बीजेपी के 32, कांग्रेस के 8 और अन्य 5 पार्षद जीते। 
- खंडवा नगर निगम में 50 पार्षद सीटों में से बीजेपी के 28, कांग्रेस के 13 और अन्य 9 पार्षद जीते। 
- बुरहानपुर नगर निगम में 48 पार्षदों में बीजेपी के 19, कांग्रेस के 15 और अन्य के 14 पार्षद बने। 
- सागर नगर निगम में 48 पार्षद सीट हैं। बीजेपी के 40, कांग्रेस के 7 और अन्य से एक पार्षद जीता। 
- सिंगरौली नगर निगम में 45 पार्षद सीट हैं। इनमें बीजेपी 
   के 23, कांग्रेस के 12 और अन्य के 10 पार्षद जीते। 
- सतना नगर निगम में 45 पार्षदों में से बीजेपी के 20, कांग्रेस के 19 और 6 अन्य से पार्षद चुने गए। 
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Friday, July 22, 2022

एक फिल्म, एक कलाकार पर किरदार तीन!

- हेमंत पाल

     फिल्म के नायकों का सोच बेहद असुरक्षित होता है। वे जैसे-जैसे दर्शकों की नजरों में चढ़ते जाते हैं, उनका असुरक्षा बोध बढ़ता जाता है! उन्हें हर दूसरे कलाकार से इसलिए भय लगता है कि कहीं कोई उनसे आगे न निकल जाए! फिर वो साइड हीरो या कैरेक्टर एक्टर ही क्यों न हो! फिल्मकारों ने नायकों को इस असुरक्षा बोध से बाहर निकालने का एक रास्ता निकाला और उन्हें पहले डबल रोल में लिया, ताकि वे नायक के अलावा भी किरदार निभाए! बाद में तो यही नायक तीन-तीन किरदारों में नजर आने लगे! यानी पूरी फिल्म के हर प्रमुख किरदार में एक ही कलाकार नजर आने लगा। फिर वो किरदार कोई भी क्यों न हो! लेकिन, एक ही कलाकार को तीन किरदारों में देखना दर्शकों के लिए आसान नहीं होता! यही कारण है कि ऐसी ज्यादातर फिल्मों को दर्शकों ने नकार दिया। डबल रोल में जरूर फ़िल्में हिट हुई, पर ट्रिपल रोल वाली फ़िल्में दर्शकों के गले नहीं उतरी! इक्का-दुक्का फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो ज्यादातर फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप ही हुई! 
     दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन जैसे अपने समय काल के महान समझे जाने वाले कलाकारों ने भी फिल्म में तीन किरदार निभाए, पर ऐसी फिल्मों ने पानी भी नहीं मांगा! जबकि, ये दोनों कलाकार अपने विविधता पूर्ण अभिनय के लिए ही दर्शकों में पहचाने जाते रहे हैं। फिल्मकारों को लगा होगा कि एक ही दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन फिल्म का बेड़ा पार लगा देते हैं, तो इनके तीन-तीन किरदार तो आसमान फाड़ देंगे! लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। फिल्मों में कुछ और चर्चित कलाकारों ने भी तीन किरदार निभाए। इनमें साऊथ की फिल्मों के महानायक रजनीकांत और कमल हासन के अलावा धर्मेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती, रितिक रोशन, महमूद, आईएस जौहर, देवेन वर्मा, परेश रावल और जॉनी लीवर भी शामिल हैं। 
     ऐसा नहीं कि तीन रोल वाली भूमिकाएं नए ज़माने की देन है। ऐसे प्रयोग तो बरसों पहले शुरू हो गए थे। हिंदी फिल्मों में क्रूर सास की भूमिका निभाने वाली ललिता पवार ने तो 1932 में आई मूक फिल्म 'कैलाश' में तिहरी भूमिका निभाई थी। जबकि, दिलीप कुमार की बतौर नायक 1976 में आई आखिरी फिल्म 'बैराग' थी। मुशीर रियाज की इस फिल्म में दिलीप कुमार की तिहरी भूमिका थी। 'बैराग' में वे कैलाश, भोलेनाथ और संजय के रोल में थे। लेकिन, यह फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हुई! इस फिल्म की असफलता वे इतना टूट गए थे, कि 5 साल तक उनकी कोई फिल्म नहीं आई! 1983 में अमिताभ बच्चन ने भी 'महान' में तीन किरदार निभाए! उन्होंने पिता और दो बेटों की भूमिकाएं की थी! फिल्म की कहानी ऐसे वकील पर आधारित थी, जो हत्या के झूठे केस में फंसने के बाद फरार हो जाता है। लेकिन, एक अमिताभ का  जादू चलता रहा, वो कमाल तीन अमिताभ मिलकर भी नहीं कर सके थे! 
    इसके साल भर बाद 1984 में आई फिल्म 'जॉन जानी जनार्दन' में रजनीकांत ने तिहरी भूमिका की, पर दर्शकों ने इस फिल्म को भी नापसंद कर दिया। यह फिल्म 1982 की सुपरहिट तमिल फिल्म 'मूनरु मुगम' का हिंदी रीमेक थी। इससे पहले 1970 में महमूद ने 'हमजोली' में तीन किरदारों से दर्शकों का मनोरंजन किया था। इसमें एक भूमिका महिला की भी थी। महमूद की यह फिल्म तमिल में बनी 'पन्नाकारा कुटुम्बम' (1964) का रीमेक थी। इसी साल (1970) आई देव आनंद की फिल्म 'जॉनी मेरा नाम' में आईएस जौहर ने तीन भाइयों की भूमिका अकेले निभाई थी। महमूद और आईएस जौहर से प्रेरित होकर देवेन वर्मा ने भी 1978 में फिल्म 'बेशर्म' में ऐसी ही तिहरी भूमिका निभाई, पर वे किरदार में जीवंतता नहीं ला सके थे।  
      तिहरी भूमिका में दर्शकों को सिर्फ कमल हासन ही लुभाने में कामयाब रहे थे। उन्होंने 1989 में 'अप्पू राजा' में ऐसे ही तीन रोल निभाकर दर्शकों को रोमांचित किया। इसमें कमल हासन ने पिता और दो पुत्रों का किरदार निभाया! इस फिल्म की सबसे खास बात थी एक बेटे का बौना होना! इस बौने के किरदार ने दर्शकों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया था। 1996 में शाहरुख खान का अलग ही जलवा था। उनकी हर फिल्म कामयाबी की ऊंचाई छूती थी! लेकिन तीन रोल वाली उनकी फिल्म 'इंग्लिश बाबू देसी मेम' सुपर फ्लॉप साबित हुई। यह फिल्म दो भाईयों की कहानी पर बनी थी, जिसमें एक पैसे के पीछे भागने वाला होता है, दूसरा सुकून भरा जीवन जीने के लिए लंदन से भारत आ जाता है। वह भारत आकर शादी करता है, लेकिन बच्चे के जन्म के बाद उसकी मौत हो जाती है। फिल्म में शाहरुख ने पिता गोपाल मयूर और उसके दोनों जुड़वा बेटों विक्रम और हरी के तीन किरदार निभाए थे, पर बात यहां भी नहीं बनी। एक शाहरुख़ का जो जलवा था, वो तीन किरदार नहीं बिखेर सके। 
     मिथुन चक्रवर्ती ने भी 'रंगबाज' (1996) में तीन रोल किए थे। उस समय इस फिल्म को 'त्रिदेव' का पैरोडी वर्जन कहा गया था। इसकी कहानी 'त्रिदेव' से काफी मिलती-जुलती भी थी। फिल्म में मिथुन ने इंस्पेक्टर कुंदन का किरदार निभाया था। मिथुन ने ही हमेशा खुश रहने वाले किशन और गांव में रहकर लोगों की मदद करने वाले बनारसी का भी रोल किया था। रितिक रोशन ने 'कृष-3' में ट्रिपल रोल किए, जिसमें उनके कृष्णा मेहरा, क्रश रोहित मेहरा के किरदार भी शामिल थे। साजिद खान की निर्देशित 'हमशक्ल' (2014) एक कॉमेडी फिल्म थी, जिसमे सैफ अली खान, रितेश देशमुख, तमन्ना भाटिया, ईशा गुप्ता, चंकी पांडे और बिपाशा बसु मुख्य भूमिकाओं में थे। फिल्म की कहानी पागलखाने से भागे दो दोस्तों और उनके हमशक्लों पर आधारित थी। इस फिल्म में सैफ अली खान, रितेश देशमुख के अलावा राम कपूर ने भी ट्रिपल रोल किए थे। फिल्म 'सत्यमेव जयते 2' में जॉन अब्राहम ने जुड़वां भाइयों के किरदार निभाए जिनके नाम जय और सत्य थे। साथ ही उन्होंने इन जुड़वां के पिता दादा साहब बलराम आजाद का भी रोल किया। 
      एक से अधिक पात्रों की भूमिका निभाने में संजीव कुमार का कोई मुकाबला नहीं है जिन्होंने फिल्म 'नया दिन नई रात' में नौ पात्रों की जानदार भूमिका निभाई थी। यह तमिल फिल्म 'नवरात्रि' की रिमेक थी, जिसमें शिवाजी गणेशन ने नौ भूमिकाओं में प्राण फूंके थे। फिल्म 'वो मैं नहीं' में नवीन निश्चल ने भी पांच अलग-अलग किरदार निभाए थे। यह मराठी फिल्म 'तो मी नव्हे च' पर आधारित थी, जिसमें प्रभाकर पणशीकर ने कुख्यात अपराधी माधव काजी की भूमिका निभाई थी, जो अलग भेष धरकर महिलाओं को फंसाया करता था।
     सिर्फ नायक ही नहीं कैरेक्टर रोल और कॉमेडी रोल वाले कलाकारों ने भी तिहरी भूमिकाएं की है। फिल्म 'ओए लक्की लक्की ओए' में परेश रावल ने तीन भूमिकाएं की थी! पहले फिल्म में परेश रावल सिर्फ गोगी के रोल के लिए थे। मगर बाद में निर्देशक के कहने पर उन्होंने डॉ हांडा की भूमिका निभाई और अंत में लक्की के पिता का भी किरदार भी परेश रावल ने ही किया। जानी लीवर ने 'अचानक' में तिहरी भूमिका निभाकर दर्शकों को लुभाया था! हीमैन धर्मेंद्र ने भी 'जियो शान से' में सुनील दत्त ने 'मिलन' में तीन भूमिकाएं की थी। 
    एक समय सबसे हिट अभिनेता रहे गोविंदा के लिए पहलाज निहलानी ने फिल्म 'राजू रंगीला' की तैयारी की है, जिसमें गोविंदा ट्रिपल रोल करेंगे। गोविंदा और पहलाज निहलानी दो दशक बाद साथ काम कर रहे हैं। इन दोनों की साथ में आखिरी फिल्म फिल्म 'आँखें' थी, जो 1993 में रिलीज हुई। 'राजू रंगीला' के बारे में कहा गया कि इसमें गोविंदा ट्रिपल रोल में दिखेंगे और उनके साथ तीन नई हीरोइन होंगी। सलमान खान भी अनीस बज्मी के साथ फिल्म 'नो एंट्री' का सीक्वल करने वाले हैं। फिल्म का नाम 'नो एंट्री में एंट्री' रखा गया है, जिसमें सलमान तीन किरदार निभाते दिखाई देंगे। सलमान के अलावा अनिल कपूर और फरदीन खान भी इस फिल्म ऐसी ही तिहरी भूमिका में होंगे। इन सभी के साथ 9 किरदारों के लिए अलग-अलग अभिनेत्रियां भी होंगी। अक्षय कुमार की भी एक अनाम फिल्म की घोषणा हुई, जिसमें वे तीन अलग-अलग रोल निभाएंगे! लेकिन, घोषणा के बाद से फिल्म से जुड़ी कोई खबर बाहर नहीं आई! 
     सिर्फ अभिनेताओं ने ही ट्रिपल रोल निभाए हैं, ऐसा नहीं! सिनेमा की दुनिया में कुछ अभिनेत्रियां भी हैं, जिन्होंने एक ही फिल्म में तीन-तीन किरदारों की भूमिकाएं की। ऐसी भूमिकाओं की शुरुआत का श्रेय ही मूक फिल्मों की नायिका ललिता पवार के खाते में जाता है। इसके अलावा नूतन ने 'मिलन' में और 'मधुमती' में वैजयंती माला ने भी तिहरी भूमिका निभाई थी। ये बात अलग है कि नायिकाओं के किरदार अलग-अलग जन्मों तक फैले थे। जबकि, प्रियंका चोपड़ा ने फिल्म 'व्हाट्स योर राशि' में डबल या फिर ट्रिपल नहीं बल्कि बारह किरदारों को एक साथ निभाया। पर, आज कोई इस फिल्म का नाम तक नहीं जानता! इस फिल्म में प्रियंका को फिल्म में संजना, अंजलि, रजनी, काजल, हनसा, चंद्रिका, भावना, नंदिनी, मल्लिका, विशाखा, झंखना और पूजा के रोल में देखा गया था। फिल्म निर्माताओं ने ऐसे किरदारों में नायिकाओं को ज्यादा मौका नहीं दिया! यही कारण है कि फिल्मों का ये कोना अभी सूखा है!
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16 में से 7 गए बाकी बचे 9 महापौर!

निकाय चुनाव विश्लेषण
 
- हेमंत पाल 
 
    ध्य प्रदेश की सभी 16 नगर निगमों के चुनाव नतीजे अब सामने आ गए। सभी पार्टियों के दावों और वादों को मतदाताओं ने कितनी गंभीरता से लिया, ये इन नतीजों से स्पष्ट हो गया। 2015 में हुए नगर निकाय चुनाव में भाजपा ने सभी 16 नगर निगमों के महापौर पद जीतकर कांग्रेस समेत सभी पार्टियों को मुकाबले से बाहर कर दिया था। लेकिन, इस बार ऐसा नहीं हुआ! 16 में भाजपा 7 निगमों में महापौर चुनाव हार गई। 5 निगमों में कांग्रेस के महापौर चुनाव जीतने में कामयाब रहे! सबसे बड़ा उलटफेर सिंगरौली में हुआ जहां आम आदमी पार्टी (आप) की उम्मीदवार ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को हराकर ख़म ठोंका! प्रदेश में 'आप' के 41 पार्षद भी जीते हैं। कटनी नगर निगम के महापौर पद पर भाजपा की बागी उम्मीदवार की जीत भी किसी चमत्कार से कम नहीं कही जा सकती! प्रदेश की 40 नगर पालिकाओं में से भाजपा 20 पर जीती, कांग्रेस ने 12 नगर पालिकाओं पर कब्ज़ा जमाया, जबकि 8 पर निर्दलियों ने जीतकर सारे समीकरण बिगाड़ दिए। 
   सरसरी नजर से देखा जाए, तो इस नगर निकाय चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को हुआ! कांग्रेस को इस चुनाव में मिली जीत से ऑक्सीजन मिली और 'आप' ने मध्यप्रदेश की राजनीति में अपने आने का इशारा कर दिया। 'आप' ने सिंगरौली में महापौर की सीट जीतकर एक तरह से प्रदेश में अपने राजनीतिक प्रवेश का डंका बजा दिया। महापौर के अलावा 'आप' के कई पार्षद भी प्रदेश में जीते हैं। चौंकाने बात यह भी रही कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी 'ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन' (एआईएमआईएम) को मुस्लिम वर्ग में मिला समर्थन।
    बुरहानपुर में कांग्रेस की महापौर उम्मीदवार शहनाज इस्माइल आलम की मात्र 388 वोट से हार का सबसे बड़ा कारण ही ओवैसी की पार्टी का उम्मीदवार रहा, जिसने 10,332 वोट लेकर कांग्रेस के समीकरण बिगाड़ दिए। बुरहानपुर और जबलपुर में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के कुछ पार्षद भी चुनाव जीते! इसे मुस्लिमों के कांग्रेस से भंग के रूप में समझा जा सकता है। खरगोन में भी ओवैसी की पार्टी के 3 पार्षद जीते हैं। ओवैसी की पार्टी ने जिस तरह से कांग्रेस के चुनावी समीकरण बिगाड़े हैं, वो भी गौर करने वाली बात है। अभी तक मध्यप्रदेश में किसी तीसरी पार्टी का उदय नहीं हुआ था। बीएसपी और एसपी ने कोशिश जरूर की, पर उनके ज्यादातर नेता बिकाऊ रहे। पर, लगता है 'आप' ने संकेत दे दिया वे लंबी रेस के लिए तैयार हैं। इस चुनाव में ओवैसी कांग्रेस के वोट कटवा जरूर बन गए।  
    नगर निकाय के चुनाव के सामने आए नतीजे भाजपा को जश्न मनाने का मौका नहीं देते! इन नतीजों से अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का साफ़ इशारा मिलता है। निकाय चुनाव के इन नतीजों ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को एक तरह से सचेत कर दिया कि मतदाता के मानस को समझें और किसी मुगालते में न रहें। खासकर भाजपा के लिए तो यह कान में बजने वाली घंटी है। क्योंकि, उसने 7 नगर निगम का महापौर पद खोया है! कांग्रेस के पास खोने को कुछ था नहीं, तो उसने 5 महापौरों को जितवाकर अपनी ताकत दिखा दी! रीवा, जबलपुर, ग्वालियर, मुरैना और छिंदवाड़ा की जीत कांग्रेस के उत्साह को दोगुना करने के लिए काफी है। छिंदवाड़ा को छोड़कर ये सभी भाजपा दिग्गजों के गढ़ समझे जाते हैं। कांग्रेस के उज्जैन महापौर की हार सिर्फ साढ़े सात सौ वोट और बुरहानपुर में 388 वोट से हुई है। ये भी भाजपा के लिए चिंतन का विषय है!   
     सत्ताधारी भाजपा के कई मजबूत किले ध्वस्त हुए। निकाय चुनाव के नतीजे देखकर भले ही लगे कि भाजपा की जीत का आंकड़ा बड़ा है, पर पिछले चुनाव की तुलना में पार्टी को बड़ा नुकसान हुआ। वो दो अंकों में से एक पर सिमट गई। कई भाजपा दिग्गज अपना गढ़ भी नहीं बचा सके। प्रदेश में साल भर बाद विधानसभा चुनाव होना है, ऐसे में ये चुनाव नतीजे भाजपा की चिंता बढ़ाने वाले ही कहे जाएंगे। जबकि, कांग्रेस के लिए यह उत्साहित करने वाले हैं। प्रदेश की 16 नगर निगमों में से भाजपा ने इंदौर, भोपाल, बुरहानपुर, उज्जैन, सतना, खंडवा, सागर, देवास और रतलाम में जीत दर्ज की तो कांग्रेस ने ग्वालियर, जबलपुर, छिंदवाड़ा, रीवा और मुरैना में महापौर पद पर कब्जा जमाया। सिंगरौली में 'आप' और कटनी में निर्दलीय की जीत भी इतिहास में दर्ज होने लायक है।   
इस आहट की गूंज को सुनिए  
   इसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की स्पष्ट आहात माना जा रहा है। आज आए पूरे नतीजे कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए संकेत हैं कि वे इसके गर्भ में छुपे मतदाताओं के इशारों को समझें! दोनों ही पार्टियों को इन नतीजों के मुताबिक अपना घर सुधारना होगा। ग्वालियर, जबलपुर, सिंगरौली, रीवा, छिंदवाड़ा, कटनी और मुरैना जैसे शहरों में भाजपा की हार ने पार्टी को सोचने के लिए मजबूर किया है। यह भी स्पष्ट है कि भाजपा के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी देखने को मिली, जिसका कांग्रेस को फायदा मिला। ग्वालियर जैसे भाजपा के गढ़ में कांग्रेस ने उसे शिकस्त दी। क्योंकि, वहां उसके कार्यकर्ता एकजुट होकर लड़ें। कांग्रेस एक बार फिर से शहरी इलाकों में अपना आधार वापस पाने में सफल रही! 
भाजपा के गढ़ में सेंध      
    ग्वालियर में जहां 57 साल बाद कांग्रेस को जीत मिली, वहीं जबलपुर में 23 साल बाद कांग्रेस का महापौर चुना गया। छिंदवाड़ा में 18 साल बाद कांग्रेस का महापौर होगा। ग्वालियर, जबलपुर, मुरैना और रीवा भाजपा के मजबूत गढ़ माने जाते रहे हैं। यहां पार्टी को मिली शिकस्त ने कई सवाल जरूर खड़े कर दिए। ज्योतिरादित्य सिंधिया, नरेंद्र सिंह तोमर, नरोत्तम मिश्रा, बीडी शर्मा, प्रभात झा और जयभान पवैया के पार्टी के संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा भी इसी इलाके से आते हैं। शिवराज सरकार में पांच मंत्री भी ग्वालियर-चंबल से हैं। उधर, जबलपुर से भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह सांसद हैं, तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा की ससुराल जबलपुर में है। इसलिए यहां भाजपा की हार उसे चिंतित करने वाली तो है।  
चिंता कांग्रेस के लिए भी  
   नगर निकाय चुनाव में कांग्रेस के 5 महापौर चुनाव जीते। कांग्रेस के लिए ये चुनाव नतीजे पिछले चुनाव के मुकाबले अच्छे रहे! किंतु, दिग्विजय सिंह और अरुण यादव जैसे बड़े नेता अपना किला नहीं बचा सके! दिग्विजय सिंह के लोकसभा क्षेत्र भोपाल में पार्टी को हार मिली! जबकि, उनके अपने प्रभाव वाले राजगढ़ और ब्यावरा नगर पालिका में भी कांग्रेस हार गई। जीत की संभावना वाले खंडवा और बुरहानपुर में कांग्रेस हारी। इंदौर में जीतू पटवारी के प्रभाव वाले राऊ विधानसभा में पार्टी को गहरा गड्ढा मिला। 
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Saturday, July 16, 2022

परदे पर भी कई बार प्रलय ला चुकी हैं प्राकृतिक आपदाएं!

- हेमंत पाल 

     फिल्मों की कहानियों में नए-नए फंडे जोड़ना फिल्मकारों का पुराना शगल रहा है! क्योंकि, वे जानते हैं कि जब तक नए पंच नहीं होंगे, दर्शकों को बांधकर रखना मुश्किल होगा। यही कारण है कि फिल्मों में सीधी चलती कहानी में अचानक कोई ऐसा मोड़ आ जाता है, जो पूरी धारा बदल देता है। कभी हीरो का एक्सीडेंट हो जाता है और उसकी याददाश्त चली जाती है जैसे 'हिना' में होता है! कभी हीरोइन की याददाश्त वापस आ जाती है, जैसा 'हादसा' का क्लाइमेक्स था! ऐसे ही कहानियों में बदलाव प्राकृतिक आपदाएं ले आती है। कभी बाढ़ का जलजला तबाही ले आता है, कभी सूखा पड़ जाता है तो कभी भूकंप की विभीषिका फिल्म का कथानक ही पलट देती है। सिर्फ बॉलीवुड ही नहीं, हॉलीवुड में इस तरह के प्रयोग तो बहुत ज्यादा होते हैं! हॉलीवुड की फिल्मों में तो अनपेक्षित हादसों को गढ़कर कहानी बनाई जाती है! हिंदी फिल्मों में अभी प्राकृतिक हादसों को बहुत कम फिल्माया गया! इक्का-दुक्का फ़िल्में ही ऐसी बनी जिसका कथानक पूरी तरह बाढ़, सूखे या भूकंप पर केंद्रित हो! जबकि, अंग्रेजी में ऐसी कई फ़िल्में बनी! हिंदी फिल्मों में यदि ऐसी घटनाएं जोड़ी भी गईं, तो कहानी में मोड़ लाने के लिए! 
     कई हिंदी फिल्मों के टाइटल जरूर इसे इंगित करते हुए रखे गए, पर फिल्म में ऐसा कुछ नहीं था! गुलजार की फिल्म का नाम 'आंधी' जरूर था, पर ये राजनीतिक फिल्म थी। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म 'तूफान' एक गुंडे की कहानी थी! फिल्मों में तेज आंधी, तूफान या बारिश के दृश्यों को सांकेतिक रूप से आने वाली आफत के रूप में दिखाया जाता रहा है। राज कपूर की पहली सफल फिल्म 'बरसात' ही थी। उनकी फिल्म 'आवारा' में भी जब पृथ्वीराज कपूर अपनी गर्भवती पत्नी को घर से निकाल देते हैं, तो अचानक तेज गरज के साथ बारिश होने लगती है। 'मेरा नाम जोकर' में जब राज कपूर फिल्म के तीसरे हिस्से में पद्मिनी का घर छोड़कर जाते हैं, तब कड़ाके साथ बिजली गरजती है और उस भारी बरसात में पद्मिनी उसे लौटने की गुजारिश करते हुए कहती है 'अंग लगजा बालमा।' राज कपूर की ही फिल्म 'सत्यं शिवम् सुंदरम' के अंत में बाढ़ का प्रलयंकारी दृष्य थे। पुल टूटने की वजह से पूरा गांव बर्बाद हो जाता है। लोग अपना गांव छोड़कर दूर चले जाते है। इन दृश्यों में बाढ़ से तबाही को बेहद संजीदगी से फिल्माया गया था। शशि कपूर और जीनत अमान की इस फिल्म के बाढ़ वाले दृष्य को राजकपूर ने खुद कैमरा लेकर अपने लोनी वाले फार्म हाऊस में आई वास्तविक बाढ़ के समय फिल्माया था। 
     राज कपूर की तरह ही महबूब खान ने भी बाढ़ के प्रभाव का उपयोग अपनी क्लासिक फिल्म 'मदर इंडिया' में किया। इस कालजयी फिल्म में कुदरत के कहर दिखाया था। सुनील दत्त और नरगिस की यह फिल्म हिंदी सिनेमा की एपिक फिल्मों में से एक है। दिखाया जाता है कि बाढ़ के आ जाने से पूरा गांव तबाह हो जाता है, खेती बर्बाद हो जाती है, खाने के लाले पड़ जाते हैं। किसानों को खुद बैलों की जगह हल से खेत जोतने पड़ते हैं। भुखमरी और प्लेग की बीमारी से गांव वाले परेशान हो जाते हैं। 'मदर इंडिया' उन फिल्मों में है, जो ऑस्कर के नॉमिनेशन तक पहुंचने में कामयाब रही थी। इसके अलावा 'सोहनी महिवाल' और 'बैजू बावरा' में भी बाढ़ को फिल्म के कथानक से जोड़ा गया था। बारिश और बाढ़ को मनोज कुमार ने अपनी फिल्म 'पूरब और पश्चिम' के पहले श्वेत-श्याम हिस्से में बहुत कलात्मकता से फिल्माया था। मनमोहन देसाई की फिल्म 'सच्चा झूठा' में राजेश खन्ना की बहन नाज के बाढ़ में फंसने का दृश्य था। 
     ऐसा नहीं कि हिन्दी फिल्मों में प्राकृतिक आपदा के नाम पर केवल बाढ़ का ही सहारा लिया गया है। जब बाढ़ पर बस नहीं चल पाया, तो फिल्मकारों ने भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा को फिल्म के कथानक में जोड़कर प्रस्तुत किया था। इसमें सबसे ज्यादा सफल रही बीआर चोपड़ा की फिल्म 'वक्त' जिसमें अभिनेता बलराज साहनी ने काम किया था और फिल्म में प्राकृतिक आपदा को फिल्माया गया। इसमें भूकंप से सब कुछ तबाह होने  जिक्र था। शुरुआत में दिखाया जाता है, कि लाला केदारनाथ (बलराज साहनी) बहुत अमीर होते हैं। तभी एक भूकंप आता है और सब तबाह कर देता है। यहां तक कि उनका परिवार भी बिछड़ जाता है। उनके तीन बच्चे होते हैं, जो अलग हो जाते हैं। उनका हंसता, खेलता परिवार एक भूकंप की वजह से तबाह हो जाता है। राजा की तरह जीवन जीने वाले लाला केदारनाथ को फकीरों की तरह जिंदगी बितानी पड़ती है। फिल्म में शशि कपूर, राजकुमार, सुनील दत्त और शर्मिला टैगोर जैसे कलाकार थे। इसी तरह फिल्म 'जल' में कच्छ के रण को दिखाया गया था। इसकी कहानी बक्का के इर्द गिर्द घूमती है, जो सूखे के बीच पानी ढूंढ़ने की कोशिश करता है। डायरेक्टर अमोल गुप्ते की इस फिल्म में पूरब कोहली ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 
    26 जुलाई 2005 को मुंबई में आई बाढ़ पर आधारित फिल्म 'तुम बिन' में बारिश की विभीषिका को फिल्माया गया था। इमरान हाशमी और सोहा अली खान मुख्य भूमिका में थे। दोनों बाढ़ के बीच फंसकर कैसे मुसीबत से निकलते हैं, यह फिल्म का मूल कथानक था। फ़िल्म का निर्देशन कुणाल देशमुख ने किया था। मुख्य भूमिकाओं में इमरान हाशमी और सोहा अली ख़ान नजर आए थे। इस विषय पर 2008 में भी '26 जुलाई एट बारिस्ता' नाम की फिल्म आई थी। 
 
       सारा अली खान और सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म 'केदारनाथ' भी 2013 में आई इतिहास की सबसे भयानक तबाही पर आधारित थी। फिल्म हिंदू लड़की और मुस्लिम लड़के बीच लव स्टोरी पर बनाई गई थी, पर इसमें बाढ़ की विभीषिका को बहुत अच्छी तरह फिल्माया था। रोनी स्क्रूवाला की इस फिल्म को बाढ़ पर बड़े पैमाने पर फिल्माई गई बॉलीवुड की पहली फिल्म माना जाता है। फिल्म के बहुत सारे दृश्य पानी में फिल्माए गए थे। करण जौहर की फिल्म 'माई नेम इज खान' में भी बाढ़ में फंसे लोगों का एक प्रभावी दृश्य था। इस आपदा के समय में दिमागी बीमारी से ग्रस्त नायक शाहरुख़ खान कई लोगों की जान बचाता है। 
   हिंदी फिल्मों में जहां प्राकृतिक आपदा को फिल्म के कथानक के साथ जोड़कर कुछ ही रीलें खर्च करने की कोशिश की जाती है, वहीं हॉलीवुड में इस विषय पर पूरी फिल्में ही बना दी जाती है। हॉलीवुड में प्राकृतिक आपदाओं पर बनी फिल्मों की खासियत ये होती है कि ये अपने दर्शकों को असली थ्रिलर महसूस कराती हैं। इतना रोमांच पैदा किया जाता है, कि दर्शक अपनी सीट पर ही उस आपदा को महसूस करता है। दर्शक इन दृश्यों को बिल्कुल असली की आपदा जैसा महसूस करने लगता है। अब तक प्राकृतिक आपदाओं से लेकर दुनिया के खत्म होने तक की कई प्राकृतिक आपदाओं पर फिल्में बन चुकी हैं। 
     हेलेन हंट और बिल पैक्सटन द्वारा अभिनीत 1996 में आई फिल्म 'ट्विस्टर' बॉक्स ऑफिस पर धमाकेदार हिट साबित हुई। इस फिल्म ने वास्तव में जबरदस्त दृश्य वाला प्रभाव दिखाया था। 2004 में आई 'द डे आफ्टर टुमारो' में बर्फीले तूफान और सुनामी की त्रासदी को दिखाया गया था। अमेरिका में आई इस त्रासदी से पूरा देश तहस नहस हो जाता है। फिल्म का निर्देशन रोलैंड ने किया था। इसके बाद 2007 में प्रदर्शित टोनी के निर्देशन में बनी फिल्म 'फ्लड' पूरी तरह से बाढ़ पर ही आधारित थी। 
    2009 में आई फिल्म '2012' में भूकंप और सुनामी से पूरी दुनिया की तबाही का रोमांचक फिल्मांकन किया गया था। इस फिल्म जॉन कुसैक, अमांडा पीट और ओलिवर जैसे कलाकार मुख्य भूमिका में थे। इसका निर्देशन भी रोलैंड ने ही किया था। दुनियाभर के दर्शकों ने फिल्म को काफी पसंद किया था। 2011 में आई स्टीवन सोडरबर्ग की फिल्म 'कंटेजियन' कोरोना वायरस के बढ़ने के बाद सोशल मीडिया पर ट्रेंड हो रही है। इस फिल्म में ग्वेनेथ पाल्ट्रो, मारिओन कोटिलार्ड, ब्रेयान क्रेन्सटन, मैट डेमन, लॉरेन्स फिशबर्न, जूड लॉ, केट विंसलेट और जेनिफर ने एक्टिंग की है। यह फिल्म 2009 में फैले स्वाइन फ्लू के वायरस के फैलने पर आधारित थी। 2015 में प्रदर्शित फिल्म 'सैन एंड्रियास' में ड्वेन जॉनसन, कार्ला गुजिनो और अलेक्सेन्ड्रा जैसे कलाकार मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म का निर्देशन ब्रैड पेयटन ने किया था। इस फिल्म में भूकंप और सुनामी से होने वाली त्रासदी को दिखाया गया था। 
    हॉलीवुड की ही फिल्म 'जियोस्टॉर्म' एक साइंस डिजास्टर पर आधारित फिल्म थी, जो 2017 में आई थी। इस फिल्म का निर्देशन डीन डिवालिन ने किया था और जेरार्ड बटलर, जिम स्टर्जेस और अब्बी कॉर्निश जैसे कलाकार मुख्य भूमिका में थे। हॉलीवुड ने जहां इस विषय को शिद्दत के साथ उठाया, वहीं हमारे निर्माता, निर्देशक इसे फिलर के रूप में ही उपयोग करते रहें। ज्यादा हुआ तो बारिश, तूफान, आंधी, जलजला, आंधी और तूफान, आया तूफान जैसे शीर्षक बनाकर ही रह गए। इससे आगे नहीं बढ़े, क्योंकि हिंदी के फिल्मकार हीरो-हीरोइन के रोमांस और नाच-गाने से आगे कुछ सोच ही नहीं पाते!
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Friday, July 8, 2022

परदे पर मध्यप्रदेश घूंघट में क्यों छुपा रहा!

- हेमंत पाल

    फिल्मों की शूटिंग के लिए मध्यप्रदेश को बेहतरीन जगह माना जाता रहा है। ये प्रदेश हमेशा से फिल्म निर्माण के लिए सुरक्षित और पसंदीदा जगहों में शामिल रहा। भोपाल से लेकर इंदौर, ग्वालियर, ओरछा और जबलपुर के अलावा भेड़ाघाट, महेश्वर और मांडू तक को फिल्मी पर्दे पर जगह मिली है। बीते सालों में फ‍िल्‍मों के अलावा कई टीवी सीरियल्स और विज्ञापनों की शूटिंग भी यहां हुई। प्रदेश में कम से कम दस जगह ऐसी हैं, जिन्हें फिल्मकार अपनी नजर में बेहतरीन फिल्म लोकेशन मानते हैं। इनमें मांडू, भोपाल, महेश्वर और भेड़ाघाट फिल्मकारों की सबसे पसंदीदा जगह रही। लेकिन, मुद्दे की बात ये है कि किसी भी फिल्म में मध्यप्रदेश के इन शहरों को उनकी वास्तविक पहचान के साथ नहीं दर्शाया गया! कभी महेश्वर को बनारस बना दिया जाता है तो कभी मथुरा! भेड़ाघाट को ओडिसा बना दिया जाता रहा। इसलिए प्रदेश के अफसर और नेता कलाकारों के साथ फोटो खिंचवाकर खुश हो लेते हैं! वे भूल जाते हैं कि प्रदेश के इस सांस्कृतिक शोषण को रोकना भी उनकी ही जिम्मेदारी का हिस्सा है!   
     प्रदेश के पर्यटन स्थलों का फिल्मकारों ने सांस्कृतिक शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! राजकुमार कोहली की फिल्म 'जीने नहीं दूंगा' मांडू में फिल्माई गई, पर मांडू का नाम और वैभव सब नदारद था! निर्देशक गुलजार ने जरूर 'किनारा' में मांडू को कहानी में पिरोकर उसी नाम की पहचान के साथ फिल्माया था! क्योंकि, फिल्म के कथानक में भी मांडू का नाम था। विद्या बालन की फिल्म ‘शेरनी’ को तो पूरी तरह यहीं फिल्माया गया, सरकारी सुविधाएं भी ली गई! लेकिन, कथानक में मध्यप्रदेश कहीं नहीं था। सभी फिल्मकारों ने भी प्रदेश की खूबसूरती का शोषण ही किया! सरकार भी इसी में खुश हो लेती है कि हमारे यहाँ शूटिंग हुई, पर सवाल है कि इससे मध्यप्रदेश को क्या मिला! सारी सरकारी सुविधाएं लेने के बाद भी न तो प्रदेश के उस शहर या कस्बे को कोई पहचान मिलती है और न पर्यटन की दृष्टि से सरकार को ही कोई लाभ!  
   पिछले कुछ सालों में प्रदेश का महेश्वर कस्बा फिल्मों की शूटिंग के मामले में काफी पहचाना गया। लेकिन, किसी फिल्म की कहानी में महेश्वर का नाम सुनाई नहीं दिया। नामचीन एक्टर अक्षय कुमार की दो फिल्मों 'पैडमैन' और 'टॉयलेट एक प्रेम कथा' की शूटिंग यहां हुई। फिल्म के कई महत्वपूर्ण शॉट्स यहीं फिल्माए गए। महेश्वर के घाट और महल परदे पर दिखे, लेकिन महेश्वर कहीं नहीं था! धर्मेंद्र के होम प्रोडक्शन की दो फिल्मों (यमला पगला दीवाना) के सीक्वल की शूटिंग यहीं हुई! पर, एक मैं भी 'महेश्वर' नाम नहीं आया! 'तेवर' में सोनाक्षी सिन्हा का चर्चित डांस यहीं घाट पर फिल्माया गया, पर फिल्म में वो मथुरा में नजर आया! महेश्वर में तेलुगु की मेगा बजट फिल्म 'गौतमीपुत्र शतकरणी' की भी शूटिंग हुई है। ये फिल्म दूसरी शताब्दी की पृष्ठभूमि पर बनी है। इसलिए महेश्वर के किले को उसी दौर के महलों की तरह तैयार किया गया था। तय था कि इस फिल्म में भी महेश्वर किसी और नाम से दिखेगा और न दिखाई दिया। देश की पहली रंगीन फिल्म 'आन' को नरसिंहगढ़ और इसके आसपास में फिल्माया गया था। इसे फ़िल्मी दुनिया के पहले शो-मेन मेहबूब खान ने बनाया था। फिल्म का ज्यादातर हिस्सा यहीं फिल्माया गया। फिल्म में नरसिंहगढ़ का किला, जल मंदिर, कोटरा के साथ देवगढ़, कंतोड़ा, रामगढ़ के जंगल, गऊघाट के कई हिस्से फिल्म की शूटिंग का हिस्सा बने थे। 
   संजय लीला भंसाली की फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' के एक बड़े हिस्से की शूटिंग भी महेश्वर में हुई! सेना के साथ विश्राम के बाद घोड़े पर सवार होकर युद्ध के लिए निकल रहे बाजीराव पेशवा का भव्य सीन महेश्वर के घाट पर शूट किया गया था। समझा जा सकता है कि कहानी में ये सभी दृश्य महेश्वर के संदर्भ में तो होंगे नहीं! इसी तरह का सांस्कृतिक शोषण बरसों से 'भेड़ाघाट' के साथ भी होता आया है। रितिक रोशन की फिल्म 'मोहन जोदाड़ो' की कुछ शूटिंग यहीं हुई, पर फिल्म पर कहीं भेड़ाघाट नहीं था। प्रकाश झा ने भी भोपाल में का फिल्मों की शूटिंग की, पर नाम बदलकर! अब तक तो यही होता रहा है। यदि आगे भी यही होता, रहा तो मध्यप्रदेश के पर्यटन विभाग का ये स्लोगन चरितार्थ हो जाएगा 'एमपी अजब है, सबसे गज़ब है।'  
   साठ के दशक में मांडू में 'दिल दिया दर्द लिया' की शूटिंग हुई थी! तब से अब तक मध्यप्रदेश के वैभव को कई फिल्मों को फिल्माया गया, पर कभी शूटिंग स्थल वाले कस्बे या गांव के नाम का उल्लेख तक नहीं किया गया! महेश्श्वर के घाटों को कभी बनारस के घाट बनाकर दिखाया जाता है, कभी मथुरा तो कभी यहाँ के महल को सम्राट अशोक का उड़िया साम्राज्य बनाकर! प्रकाश झा ने अपनी कई फिल्मों की शूटिंग भोपाल और आसपास की, लेकिन न तो कहीं मध्यप्रदेश नजर आया न भोपाल! इससे प्रदेश को सबसे बड़ा नुकसान ब्रांडिंग का होता है! फिल्मों में प्रदेश के पर्यटन स्थल दिखाए जाने से पर्यटक आकर्षित होते हैं! लेकिन, दुर्भाग्य है कि फिल्मकार प्रदेश सरकार को भरमाकर सुविधाएं तो बटोर लेते हैं, पर परदे पर यहां की प्राकृतिक संपदा और पुरावैभव किसी और नाम से नजर आता है। 
      शाहरुख खान और करीना कपूर की फिल्म 'अशोका' की शूटिंग पचमढ़ी में हुई थी। करीना और शाहरुख के कई सीन यहां के जंगलों में फिल्माए गए थे। फिल्म की शूटिंग भी महेश्वर में हुई थी, पर उड़ीसा के किसी शहर के नाम पर! अभिनेता इरफान खान की फिल्म 'पानसिंह तोमर' को चंबल क्षेत्र में फिल्माया गया था। इससे पहले 'पुतलीबाई' की शूटिंग भी यहीं हुई थी। सलमान खान की चर्चित फ‍िल्‍म 'दबंग-3' की भी बहुत सी शूटिंग महेश्वर और मांडव में शूट किया गया था। यहां शूटिंग के दौरान ही उनकी फिल्‍म पर विवाद भी हुआ था। गुजरे जमाने की बात करें तो नया दौर, मुझे जीने दो, यमला-पगला-दीवाना, तीसरी कसम, किनारा, सूरमा भोपाली, पीपली लाइव, चक्रव्यूह, गंगाजल-2 जैसी अनगिनत फिल्मों की शूटिंग मध्य प्रदेश में की गई थी। 
      इसके अलावा कंगना रनौत की फिल्म 'रिवॉल्वर रानी' प्रदेश में ही शूट की गई। इसका अहम हिस्सा ग्‍वालियर किले में और बाकी हिस्सा ग्वालियर के आसपास शूट किया था। प्रकाश झा की फिल्म 'राजनीति' की शूटिंग भी भोपाल शहर में हुई। इस फिल्‍म में जिस भव्य इमारत को दिखाया गया, वह भोपाल का मिंटो हॉल है। 1998 में आई सलमान खान और काजोल की फिल्म 'प्यार किया तो डरना क्या' की शूटिंग में इंदौर के डेली कॉलेज को दिखाया गया। अर्जुन कपूर और सोनाक्षी सिन्हा की 'तेवर' की काफी शूटिंग महेश्वर घाट पर हुई। फिल्‍म का सबसे चर्चित गाना भी घाट पर शूट किया गया था। इंदौर के डेली कॉलेज, लालबाग और घंटाघर में भी कई फिल्मों की शूटिंग की गई! 
   अनिल शर्मा की फिल्म 'सिंह साहब द ग्रेट' की इंदौर में हुई शूटिंग के समय सरकार ने कहा था कि मध्यप्रदेश में जिन फिल्मों की शूटिंग होगी, उन्हें सुविधा देने के लिए नीति बनाई जाएगी। लेकिन, इस विषय पर कोई बात नहीं हुई! सुविधा तो फिल्मकारों को आज भी मिल ही रही है, पर प्रदेश को इस सबसे क्या मिलता है! इस मामले में उत्तर प्रदेश की नीति काफी स्पष्ट है! वहाँ फिल्म की आधी से ज्यादा शूटिंग करने वाले फिल्मकारों को आर्थिक मदद दी जाती है और मनोरंजन कर में भी रियायत मिलती है! जबकि, मध्यप्रदेश के सामने सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि शूटिंग में जिस शहर, कस्बे या स्थान को फिल्माया जाए, फिल्म में उसे उसी रूप में दिखाया जाना जरुरी किया जाए! इसके लिए बकायदा करार किया जा सकता है या इसे पर्यटन नीति में शामिल किया जाए! यदि सरकार ये कर सकी तो फिल्म के परदे पर महेश्वर के घाट न तो बनारस बनेंगे और न यहाँ का किले को मथुरा का किला बनाकर दिखाया जाएगा।  
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Wednesday, July 6, 2022

दो विधानसभा क्षेत्र तय करेंगे इंदौर का महापौर कौन होगा!

    नगर निकाय चुनाव का शोर थम गया। अब शांत मन से मतदाता तय करेगा कि आने वाले पांच सालों के लिए उसे शहर की चाभी किसे सौंपना है। लेकिन, इंदौर के दो विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जो इंदौर के अगले महापौर की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे! ये हैं क्षेत्र क्रमांक 2 और 4 जहां से भाजपा के रमेश मेंदोला और मालिनी गौड़ विधानसभा चुनाव जीते थे। इन दोनों क्षेत्रों से भाजपा के पुष्यमित्र भार्गव को जितनी लीड मिलेगी जीत का आधार उतना मजबूत होगा। क्षेत्र क्रमांक-1 से कांग्रेस के विधायक संजय शुक्ला खुद उम्मीदवार हैं और राऊ से कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी हैं! इन दोनों से कांग्रेस उम्मीदवार को जनसमर्थन मिलने का अनुमान है। जबकि, क्षेत्र 3 और 5 में मुकाबला बराबरी का है।        
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- हेमंत पाल 

    इंदौर के संदर्भ में इस बार का चुनाव बेहद अहम कहा जा सकता है। इस सच्चाई को हर वो मतदाता समझ रहा है, जो थोड़ा-बहुत भी चुनाव और इंदौर की मानसिकता को समझता है! पिछले कुछ चुनाव एक तरह से भाजपा के लिए वॉकओवर जैसे थे। कांग्रेस ने भी एक तरह से हारी हुई बाजी की तरह चुनाव लड़ा। पिछला चुनाव जब मालिनी गौड़ महापौर चुनी गई थी, वो पूरी तरह एकतरफा ही कहा गया था। लेकिन, उससे पहले जब कृष्णमुरारी मोघे चुनाव जीते, तब जरूर कांग्रेस ने भाजपा को खासी मशक्कत करवाई थी। उसी का नतीजा था कि मोघे किनारे पर चुनाव जीते थे। पर, इस बार चुनाव की फिजां बदली-बदली सी है!
     इसके पीछे भी दो कारण नजर आ रहे है! पहला यह कि कांग्रेस ने करीब दो साल पहले ही संजय शुक्ला की उम्मीदवारी की घोषणा कर दी थी। जबकि, भाजपा को अपना उम्मीदवार तय करने में खासी रस्साकशी करना पड़ी। भाजपा के पास दावेदारों की कमी नहीं थी, पर भाजपा ने कुछ अलग करने की कोशिश में पुष्यमित्र भार्गव को मुकाबले में उतारा! ये फैसला भी आसानी से नहीं हुआ! जिस तरह की कवायद हुई, उसने दावेदारों के दिलों पर खरोंच जरूर डाल दी। इस खींचतान में भाजपा उम्मीदवार को प्रचार के लिए सिर्फ 20 दिन का समय मिला। भाजपा ने नए चेहरे को टिकट दिया, जिसे इंदौर की जनता ने नेता के रूप में नहीं देखा। इसके पीछे कोई राजनीतिक मज़बूरी थी या रणनीति ये किसी को आजतक समझ नहीं आया!    
    भाजपा को पिछले चुनाव में अच्छा जनसमर्थन मिला है, इसलिए उसके उम्मीदवार के लिए महापौर का चुनाव जीतना मुश्किल नहीं था, बशर्त चेहरा पहचाना होता! भाजपा के टिकट के दावेदारों की लिस्ट में कम से कम आधा दर्जन नेता ऐसे थे, जिनके लिए ये चुनाव इतना मुश्किल नहीं था, जितना पूरे चुनाव प्रचार के दौरान दिखाई दिया। ऐसी स्थिति में भाजपा उम्मीदवार पुष्यमित्र भार्गव की जीत पूरी तरह शहर के दो विधानसभा क्षेत्रों के कंधों पर टिकी है। ये क्षेत्र हैं विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2 जहां से रमेश मेंदोला विधायक हैं। उन्होंने 2018 का चुनाव 71011 वोटों से जीता था। दूसरा क्षेत्र है विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-4 जहां से मालिनी गौड़ ने 2018 का चुनाव 43090 वोटों से जीता। यही दो विधानसभा क्षेत्र हैं, जहां से मिलने वाली बढ़त भाजपा के महापौर उम्मीदवार की राह आसान करेगी। लेकिन, कहा नहीं जा सकता कि ये दोनों भाजपा विधायक खुद को मिले वोट पुष्यमित्र को पूरी तरह ट्रांसफर करवा सकेंगे। चार साल बाद ये संभव भी नहीं है। 
      रमेश मेंदोला की क्षेत्र क्रमांक-2 में अपनी पकड़ है और पार्टी से हटकर उनका अपना भी जनाधार है। जबकि, क्षेत्र क्रमांक-4 से मालिनी गौड़ को महापौर चुनाव में बढ़त मिलने का कारण उनका उस दौरान महापौर होना भी रहा। अब वे अपनी बढ़त को पुष्यमित्र के लिए कितना फ़ायदा दे पाती हैं, सभी की नजरें इस पर हैं। विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-3 से आकाश विजयवर्गीय ने 5751 वोटों से चुनाव जीता था और क्षेत्र क्रमांक-5 से महेंद्र हार्डिया 2018 का चुनाव सिर्फ 1133 वोटों से जीते थे। इसलिए इन दोनों क्षेत्रों में बढ़त बहुत ज्यादा होगी, इसका अनुमान नहीं है!  
    कांग्रेस उम्मीदवार संजय शुक्ला के लिए आसान बात ये रही कि पार्टी ने उनका नाम करीब दो साल पहले घोषित कर दिया था, जब कमलनाथ सरकार के कार्यकाल में नगर निकाय चुनाव की हलचल हुई थी। उनके नाम को लेकर पार्टी में कोई मतभेद भी नहीं था। वे इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-1 से विधायक भी हैं। उनका अपना संपर्क दायरा इसलिए भी बड़ा है, क्योंकि उनके पिता विष्णुप्रसाद शुक्ला और भाई गोलू शुक्ला दोनों भाजपा से जुड़े हैं। पिता तो 'बड़े भैया' के नाम से बरसों से शहर में जाने-जाते हैं। चुनावी साधन-सम्पन्नता के मामले में भी वे भाजपा उम्मीदवार पुष्यमित्र भार्गव पर भारी हैं, जो चुनाव में भी दिखाई दिया।
     संजय शुक्ला को क्षेत्र क्रमांक-1 से बढ़त मिलने का अनुमान लगाया जा रहा है। क्योंकि, वे इस क्षेत्र से विधायक हैं और उनका पिछले चार साल का कार्यकाल भी संतोषजनक रहा है। उनके पास अपने समर्थकों की भी अपनी फ़ौज है। उनके प्रचार में कांग्रेस का बहुत बड़ा योगदान भी दिखाई नहीं दिया। इसके अलावा राऊ विधानसभा भी कांग्रेस के पास है। वहां के कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी ने भी पार्टी के महापौर उम्मीदवार के पक्ष में अच्छा माहौल बनाया। कांग्रेस को इसके अलावा क्षेत्र क्रमांक-3 और क्रमांक-5 से बढ़त मिलने का अनुमान लगाया जा रहा है। क्षेत्र-3 शहर के प्रतिष्ठित कारोबारी लोगों का इलाका है। जबकि, क्षेत्र-5 में खजराना और मूसाखेड़ी जैसी मुस्लिम बस्तियां हैं, जिनका कांग्रेस के पक्ष में रहना तय है। इस विधानसभा क्षेत्र से भाजपा ने विधानसभा चुनाव सिर्फ 1133 वोटों से चुनाव जीता था।  
         जिस तरह से दोनों उम्मीदवारों ने चुनाव प्रचार किया, फ़िलहाल निश्चित रूप से कह पाना मुश्किल है, कि पलड़ा किसकी तरफ ज्यादा झुकेगा। क्योंकि, दोनों उम्मीदवारों के पास अपनी जीत के दावे करने के सशक्त आधार हैं। भाजपा के पुष्यमित्र भार्गव को चुनाव जिताने के लिए मुख्यमंत्री समेत कई बड़े नेता लगे रहे। साथ ही भाजपा के पिछले चार महापौरों के कार्यकाल का सकारात्मक पक्ष भी भाजपा उम्मीदवार के खाते में दर्ज होगा! लेकिन, इन महापौरों के कार्यकाल की खामियों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! सम्पति कर, जल कर और कचरा संग्रहण शुल्क में अनाप-शनाप बढ़ोतरी के अलावा नर्मदा के पानी का असामान्य वितरण भी पूरे चुनाव प्रचार के दौरान छाया रहा!
     चुनाव प्रचार का सबसे दिलचस्प पहलू रहा 'पीली गैंग' की कार्रवाई का चुनावी मुद्दा बनना। कांग्रेस उम्मीदवार ने इसे अपने प्रचार का प्रमुख मुद्दा बनाया, जिसे जनसमर्थन भी मिला। सब्जी और फल बेचने वालों के ठेलों को तोड़े जाने की नगर निगम की कार्रवाई को उन्होंने अनुचित बताया और वादा किया कि वे इससे मुक्ति दिलाएंगे! जबकि, भाजपा चुनावी माहौल में भी नगर निगम की इस कार्रवाई पर अंकुश नहीं लगा सकी। व्यापारियों के लिए नगर निगम से बनने वाले ट्रेड लाइसेंस को संजय शुक्ला ने मुफ्त करने का वादा करके उन्हें भी खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस ने स्मार्ट सिटी योजना में सड़क चौड़ीकरण में लोगों को टीडीआर (ट्रांसफर डेवलपमेंट राइट्स) न देने को भी चुनावी मुद्दा बनाया और वादा किया कि इस दिशा में कार्रवाई करेंगे। जबकि, भाजपा अपने चुनाव घोषणा पत्र में भी ये वादा नहीं कर सकी।      
    इसमें शक नहीं कि विपक्ष में होने के कारण संजय शुक्ला के पास मुद्दों और वादों की कमी नहीं रही! लेकिन, भाजपा उम्मीदवार का कोई जवाबी वादा न करना आश्चर्यजनक रहा! भाजपा के घोषणा पत्र में भी प्रभावित करने वाला कोई ऐसा पक्ष दिखाई नहीं दिया, जो मतदाता को आकर्षित करे। यहां तक कि जब संजय शुक्ला ने शहर में 5 फ्लाईओवर अपनी जेब से बनवाने का वादा किया, तो भी भाजपा ने उसका सटीक जवाब नहीं दिया। कैलाश विजयवर्गीय से जब मीडिया ने इस बारे में सवाल किया तो उन्होंने भी इसे बचकानी बात कहकर टाल दिया। लेकिन, लोगों ने इस वादे की प्रशंसा जरूर की। कोरोना मृतकों 20-20 हज़ार देने के उनके वादे ने भी एक वर्ग को प्रभावित किया है। अब चुनाव प्रचार थम गया और मतदाता अपना मानस बनाने में लगा है। उसे ही तय करना है कि कौन उसके लिए ज्यादा बेहतर महापौर साबित होगा। 
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Sunday, July 3, 2022

फिल्मों में हर जगह गिनती का बोलबाला!

- हेमंत पाल

    यदि किसी से पूछा जाए कि फिल्मों में सबसे ज्यादा टाइटल किस चीज पर आधारित हैं, तो ज्यादातर लोग दिल, प्यार या मोहब्बत जैसे नाम लेंगे। लेकिन, कम ही लोग जानते हैं कि अब तक हिन्दी फिल्मों के शीर्षक संख्याओं पर ही दिए गए हैं। बात केवल शीर्षक ही नहीं हिन्दी फिल्मों के गानों और फिल्मी शब्दावलियों में भी संख्या का सबसे ज्यादा महत्व है। देखा जाए तो फिल्मों में संख्या का उपयोग फिल्म निर्माण के साथ ही शुरू हो जाता है। फिल्म का जो क्लैप दिया जाता है उसमें भी शॉट नम्बर का उल्लेख होता है। किसी भी दृश्य को फिल्माने से पहले क्लैप बॉय एक पट्टी पर फिल्म का नाम और शॉट का नम्बर लिखकर बोलते हुए क्लैप देता है। फिल्म पूरी होने के बाद सेंसर बोर्ड को भेजी जाती है, तो पास होने के बाद जो सेंसर सर्टिफिकेट होता है उसमें पहले यह दर्शाया जाता था। इसमें फिल्म की लम्बाई फीट के साथ साथ रीलों की संख्या में जैसे कि 14 रील या 24 रील दर्शायी जाती थी। आजकल इसे समय अवधि के रूप में प्रदर्शित किया जाता है, वह भी संख्या ही है। फिल्म के प्रदर्शन के साथ भी संख्या का मेल होता है जैसे 4 शो और शो का समय। फिल्म के प्रदर्शन के बाद भी संख्याएं उसका पीछा नहीं छोडती। संख्याएं ही तय करती हैं कि फिल्म कितना चली। जैसे 100 दिन, 25 सप्ताह , 50 सप्ताह। यहां तक कि फिल्म के व्यवसाय को भी बॉक्स ऑफिस के कलेक्शन के रूप में प्रदर्शित किया जाता है कि उसने 100 करोड़ कमाए या 500 करोड़!
    फिल्मों के सबसे ज्यादा टाइटल संख्याओं से ही बनाए गए। यकीन नहीं आता तो खुद देख लीजिए। आपने सोचा नहीं होगा कि संख्याओं पर आधारित इतनी फिल्में बन सकती हैं। शुरुआत शून्य से कीजिए। शून्य का मान कुछ नहीं होता, इस पर आधारित फिल्म 'जीरो' की असफलता ने इसे शब्दशः साबित कर दिया। एक नंबर पर तो ढेरों फिल्में बनी है। इसी एक नंबर के चलते हीरो नंबर वन, कुली नंबर वन और जोड़ी नंबर वन के हीरो को गोविंदा को तो नंबर वन का खिताब तक मिल गया। इसके अलावा एक नंबर से जो फिल्में बनी हैं उनमें एक विलेन, एक डॉक्टर की मौत, एक रुका हुआ फैसला, एक फूल दो माली, एक फूल चार कांटे, एक बार मुस्कुरा दो, एक दिल सौ अफ़साने, एक दूजे के लिए, एक गांव की कहानी, एक जान है हम, एक झलक, एक मुसाफिर एक हसीना, एक रात, एक राज, लाखों में एक, एक चालीस की लास्ट लोकल, एक और एक ग्यारह, एक राजा एक रानी, एक रात की कहानी, एक था राजा एक थी रानी, एक था टाइगर, एक मैं और एक तू, एक दीवाना था, वन बॉय टू, एक ही भूल, एक से बढ़कर एक, एक महल हो सपनों का, एक हसीना दो दीवाने, एक नारी एक ब्रह्मचारी, एक नारी दो रूप, एक पहेली, फर्स्ट लव लेटर, इक्के पर इक्का, बीबी नंबर वन, आंटी नम्बर वन, अनाड़ी नंबर-वन, बेटी नंबर वन, जोड़ी नंबर वन, शादी नंबर वन, एक अनाड़ी दो खिलाड़ी, एक बेचारा, एक     था राजा, एक रिश्ता, वन टू का फोर, एक अजनबी, वन टू थ्री, एक पॉवर वन, एक कली मुस्काई, एक बार  कहो, एक सपेरा एक लुटेरा, एक गुनाह और सही, एक दिन का बादशाह, एक नन्ही मुन्नी लड़की और बात एक रात की।
    संख्याओं पर टाइटल की दौड़ में दो भी पीछे नहीं है। यकीन नहीं आता हो, तो खुद गिन लीजिए। दो आंखें बारह हाथ, दो कैदी, दो दोस्त, दो रास्ते, दो दूल्हे, दो प्रेमी, दो दूनी चार, दो और दो पांच, दो बदन, दो बीघा जमीन, दो बूंद पानी, दो दिलों की दास्तान, दो कलियां, चतुरसिंह- 2 स्टार, वन बाय टू, टू स्टेटस, लहू के दो रंग, दो लड़के दोनों कड़के, दो शिकारी, दो भाई, दो अजनबी, दो लड़कियां, दो जासूस, दो ठग, दो झूठ, दो आंखे, दूसरी सीता, दो चोर, दो यार, दो गज जमीन के नीचे, दो दिल, डबल क्रॉस, एक हसीना दो दीवाने, दो दोस्त और तो हर फिल्म के रिमेक में दो नंबर जोड़ दिया जाता है, जैसे डॉन-2, गोलमाल-2, हाउसफुल-2 और भूल भुलैया-2 फिल्म और दूसरा आदमी!
    तीन शीर्षक से बनी फिल्मों में राज कपूर, देव आनंद और शम्मी कपूर जैसे सुपर सितारों की फिल्में शामिल है। जैसे तीसरी कसम, तीन देवियां और तीसरी मंजिल। इसके अलावा 3-जी, 3 इडियट्स, तीन बत्ती चार रास्ता, तीसरा कौन, पेज-3, तीन पत्ती, तीन थे भाई, 3 बैचलर्स, त्रिदेव, त्रिमूर्ति, त्रिनेत्र, 3 दीवाने और वन टू थ्री। कुछ फिल्में ऐसी हैं, जिन्होंने अपने टाइटल का चौका लगाया। इन फिल्मों में तीन बत्ती चार रास्ता, चार दिल चार राहें, चार दिन की चांदनी, वन टू का फोर, क्रेजी फोर और 'चांडाल चौकड़ी' प्रमुख हैं। पांच शीर्षक से निर्माताओं ने दो और दो पांच, हम पांच, पांच कैदी, 5 राइफल्स और पांच फौलादी जैसी फिल्में बनाई। चौके की जगह फिल्मों के टाइटल में छक्के कम ही लगे। इन फिल्मों में मनोरमा सिक्स फीट अंडर और दिल्ली 6 शामिल हैं।
    सात का आंकड़ा भी हिन्दी फिल्मों में दिखाई दिया। इस नंबर से बनने वाली फिल्मों में सूरज का सातवां घोड़ा, सात खून माफ, सात हिन्दुस्तानी, सात साल बाद, सात रंग के सपने, सात समुंदर पार, सात सहेलियां, सत्ते पर सत्ता और वो सात दिन प्रमुख हैं। ऐसा नहीं कि निर्माताओं ने 8 नंबर को भूल गए। इस संख्या से भले ही एक फिल्म बनी, लेकिन 'अराउंड द वर्ल्ड इन 8 डॉलर्स' ने इस संख्या का फिल्मों के टाइटिल में जोड़ दिया। नौ नंबर से देव आनंद ने 'नौ दो ग्यारह' बनाई तो वी शांताराम ने 'नवरंग' जैसी क्लासिक फिल्म रची। दस नम्बर तो वैसे ही अलग हैसियत रखता है, तो निर्माता इसे कैसे बख्शते। उन्होंने ने दस नंबरी, बाप नंबरी बेटा दस नंबरी, दस और दस कहानियों पर फिल्में बनाकर पर्दे पर उतार दिया। यह बात अलग है कि 'दस नंबरी' को छोड़कर कोई भी फिल्म सफल नहीं हो सकी और 'दस' पूरी नहीं बन सकी थी।  
   वैसे तो गिनती एक से दस तक ही होती है। लेकिन, फिल्म वाले इससे भी आगे बढ़ गए। उनका संख्या ज्ञान दस से आगे था। लिहाजा उन्होंने एक और एक ग्यारह, दो आंखें बारह हाथ, 12 बजे, 13-बी, 14 पार्क एवेन्यू, सोलहवां सावन, 16 दिसम्बर, मैं सोलह बरस की, 20 साल बाद, स्पेशल-26, तीस मार खां, टर्निंग-30, 36 चौरंगी लेन, 36 घंटे, 36 चाइना टाउन, अलीबाबा 40 चोर, नॉटी एट 40, फिफ्टी फिफ्टी जैसी फिल्में बनाकर संख्याओं का अर्धशतक पूरा किया। फिल्मकारों का संख्या प्रेम यहीं नहीं रूका, उन्हें तो संख्याओं का एक पहाड़ खड़ा करना था, लिहाजा गुरूदत्त ने 'मिस्टर एंड मिसेज 55' बनाई, फिर बनी लव-86,  99, 100 डेज, 36 घंटे, एक दिल सौ अफसाने, डायल-100, सौ करोड़ और 'सौ दिन सास के' से उन्होंने संख्या के शतक को पार किया।
     इसके बाद आरंभ हुआ हजार और लाख का सफर! इन संख्याओं पर' हजारों ख्वाहिशें ऐसी' बनी तो 'हजार चौरासी की मां' और 'ग्यारह हजार लड़कियां' भी बनी। संख्याओं पर बनी फिल्मों में लाखों में एक, दस लाख, लखपति, करोड़पति 1942 ए लव स्टोरी, हाउस नम्बर 44, 83, रोड 303, 1947 : अर्थ, रन-वे 34, 1971, 2001, श्री 420, अब तक 56 ,पोस्ट बॉक्स नं 999, कैदी नंबर 911, विक्टोरिया नंबर 203, दफा 302, एट बाय टेन तस्वीर, आईएम 24, खिलाड़ी 786, बिल्ला नंबर 786, डेढ़ इश्किया, चाची 420, 88 एनटॉप हिल, 40 दिन, टैक्सी नम्बर 9211 और लव स्टोरी 2050 तक सफर जारी रहा।
   फिल्मों के टाइटल के अलावा कुछ फिल्मों के गीतों में भी संख्या बल देखने को मिला। इनमें एक मैं और एक तू, एक तू जो मिला, एक तू ना मिला, दो दिल मिले, मिले दो बदन, दो सितारों का जमी पर है मिलन, दोनों ने किया था प्यार मगर, एक अकेला इस शहर में, दो रंग दुनिया के और दो रास्ते, चार दिनों की छुट्टी है, मैने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने, सात सहेलियां खड़ी खड़ी, हजार राहें मुड़कर देखी, वन टू का फोर, दो एकम दो दो दूनी चार, जहां चार यार मिले, एक हजारों में मेरी बहना है, लाखों हैं यहां दिल वाले, मैं एक राजा हूं, तू एक रानी हैं, एक रात मैं दो दो चांद खिले, तीतर के आगे दो तीतर दो कदम तुम भी चलो दो कदम हम भी चलें, सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, एक था गुल और एक थी बुलबुल, एक दिन तू मेरे सपनों की रानी बनेगी, हम वो हैं जो दो और दो पांच बना दें, सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं प्यार के दो चार दिन, मै सोलह बरस की तू सतरा बरस का  सोलह बरस की बाली उमर को सलाम, सौ बार जनम लेंगे सौ बार फना होगे सहित दर्जनों गीत सभी ने गुनगुनाए है। लेकिन, इन सबसे आगे निकल गया 'तेज़ाब' का माधुरी पर फिल्माया गीत एक-दो-तीन जो बारह-तेरह की गिनती तक गया!  
   एक बात कहूं मैं सजना, एक तेरा साथ हमको दो जहाँ से प्यारा है, एक सवाल मैं करूँ एक सवाल तुम करो, एक बंजारा गाए, एक तारा बोले सुन सुन, एक चमेली के मंडवे तले! एक बढकर एक मैं लाई हूं तोहफे अनेक, दो निगाहें तेरी दो निगाहें मेरी मिल के चार हुई। गा रही है जिंदगी हर तरफ बहार है, किस लिए चार चांद लग गए हैं तेरे मेरे प्यार में इसलिए, तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा, हजार राहें मुडके देखी, बारा बजे की सुइयों जैसे हम दोनों मिल जाएं, लाखों तारे आसमान में एक मगर ढूंढे ना मिला, लाखों है यहाँ दिल वाले, ताश के बावन पत्ते पंजे छक्के सत्ते, एक दिन मिट जाएगा माटी के मोल, पहला पहला प्यार है से पहली पहली बार है।  अभी ये सिलसिला बंद नहीं हुआ है, आने वाले दिनों में और भी कई गिनती वाले शीर्षक देखने को मिल सकते हैं।
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