Saturday, November 28, 2020

'बिग बॉस' को नकार देने की दास्तान!

- हेमंत पाल 

      टीवी पर रियलिटी शो देखने वाले दर्शकों की अलग ही जमात है! ये दर्शक नियमित रूप से ये शो देखते हैं और उन पर चर्चा भी करते हैं। टीवी पर मनोरंजन कार्यक्रमों की शुरुआत में आने वाले अन्नू कपूर के गीतों वाले शो 'अंताक्षरी' को अभी तक के सबसे पसंदीदा रियलिटी शो में गिना जाता है। उसी ने दर्शकों को शो से जोड़ा और एसएमएस के जरिए सर्वश्रेष्ठ प्रतियोगी चुनने की परंपरा डाली! ये आज भी अलग रूप में ही सही, पर जारी है। टीवी पर  सालभर नाच-गानों के रियलिटी शो आते रहते हैं। इनके बीच अमिताभ बच्चन का 'कौन बनेगा करोड़पति' भी करीब 3 महीने तक मनोरंजन के साथ दर्शकों का ज्ञान बढ़ाता है! लेकिन, इसके साथ 'बिग बॉस' जैसा शो भी टीवी दर्शकों की पसंद में शामिल है! इसके सूत्रधार सलमान खान होते हैं! इस शो का अपना अलग ही कांसेप्ट है। इसमें बाहर की दुनिया से अलग-थलग कर दिए गए करीब दर्जनभर प्रतियोगियों को एक घर में कैद करने उनके धैर्य, आत्मविश्वास और अनजान लोगों के साथ करीब तीन महीने रहने की परीक्षा होती है। वास्तव में ये एक मनोवैज्ञानिक नजरिए का विदेशी शो है! हमारे यहाँ इसके 13 सीजन हो चुके हैं और अभी 14वां सीजन चल रहा है! इस रियलिटी शो के कई सीजन बेहद सफल रहे! लेकिन, बिग बॉस के 14वें सीजन को दर्शकों ने नकार दिया।    
     अभी तक माना जाता था कि जब 'बिग बॉस' सीजन शुरू होता है, वह हमेशा टीवी पर नंबर वन पर रहता है! लेकिन, इस बार शायद दर्शकों ने इस शो को पसंद नहीं किया। ये सिर्फ अनुमान नहीं, सच्चाई है, जिसका सबूत टीवी कार्यक्रमों को उनकी लोकप्रियता के आधार पर नंबर देने वाली 'टीआरपी' ने भी दिया। 'टीआरपी' में अव्वल रहने के लिए सभी टीवी शो में मुकाबला चलता रहता है। क्योंकि, ये सिर्फ लोकप्रियता का प्रमाण नहीं, बल्कि प्रायोजक भी चाहते हैं कि उनका शो सबसे आगे रहे! यदि ऐसा नहीं होता, तो प्रायोजकों के दरकने का खतरा बढ़ जाता है। इस कोशिश में सलमान खान का शो 'बिग बॉस' कम से कम इस बार तो बुरी तरह असफल साबित हुआ। शो को अभी दो महीने हुए, पर इसे एक बार भी 'टीआरपी' की टॉप-फाइव लिस्ट में जगह नहीं मिली। जबकि, अभी तक 'टीआरपी' में 'बिग बॉस' नंबर वन रहता था। दर्शकों के नज़रिए से भी इस बार शो का काफी बुरा हाल है। 14वें सीजन की टैगलाइन रखी गई '2020 में सीन पलटेगा!' सीन तो पलटा, पर पॉजेटिव नहीं निगेटिव सेंस में। दर्शक जितना 'बिग बॉस' को देखकर बोर हुए, उतना तो शायद लॉकडाउन ने भी उन्हें बोर नहीं किया! इस बार शो के साथ ऐसा क्यों हुआ, इसके कई कारण गिनाए जा सकते हैं!  
     शो शुरू होने से पहले दावे किए गए थे, कि 'बिग बॉस' दर्शकों को फुल एंटरटेन करेगा। लेकिन, शो में जो भी कंटेस्टेंट्स आए हैं उन्हें देख लगता है कि उनका मनोरंजन से दूर तक कोई वास्ता नहीं है। सभी बोरिंग और बेवजह झगड़ालू नजर आते हैं, जो अब शो के मेकर्स की बड़ी परेशानी बन गई! उनके सामने शो को मनोरंजक बनाने की चुनौती खड़ी हो गई है। कंटेस्टेंट्स का फ्लॉप होना, मेकर्स के सिलेक्शन पर भी सवाल खड़े करता है। अभी तक के हर सीजन में 13-14 में से 4 या 5 ऐसे चेहरे होते थे, जिन्हें दर्शक पहचानते हैं। पूनम ढिल्लो, श्वेता तिवारी, रवि किशन और हीना खान जैसे कलाकारों ने इस शो में भाग लिया। लेकिन, इस बार कोई भी ऐसा कंटस्टेंट नहीं, जो दर्शकों का पहचाना हुआ हो! ऐसा भी लगता है कि सभी ये सोचकर आए हैं कि वे शो में जितना झगड़ेंगे, उतना ही कैमरे पर दिखेंगे और पसंद किए जाएंगे। एजाज खान, कविता कौशिक, रुबीना दिलैक, पवित्रा पुनिया और निक्की तंबोली ऐसे चेहरे नहीं हैं, जिन्हें घर-घर में पहचाना जाता हो! लेकिन, उनके तेवर उससे कम नहीं है। एजाज, कविता और रुबीना तो हमेशा लड़ते हुए ही दिखते हैं। इनके झगडे को मनोरंजन भी नहीं कहा जा सकता, इसलिए दर्शकों ने 'बिग बॉस' को नकार दिया। 
       शो में कंटेस्टेंट रहे और अपने आपको एक्टर मानने वाले कमाल आर खान ने 'बिग बॉस-14' के पहले एपिसोड की ही खिल्ली उड़ाते हुए इसे अब तक का सबसे ख़राब शो बताया था। लेकिन, तब उनकी टिप्पणी को गंभीरता से नहीं लिया गया! पर, अब ये बात सही साबित हो रही है। शायद ये पहला ऐसा 'बिग बॉस' है, जिसमें कोई बड़ी सेलिब्रिटी नहीं, पर सबके मिज़ाज आसमान पर हैं। इस बार के कंटेस्टेंट्स में न तो स्पार्क है और न शो को लेकर कोई जुनून! किसी की भी टास्क में रूचि दिखाई नहीं देती। फिर चाहे वो इम्यूनिटी जीतने की टास्क हो या कप्तान बनने की! कंटेस्टेंट्स के बीच हर वक़्त बेवजह का झगड़ा होता नजर आता है। ख़ास बात ये कि अदृश्य 'बिग बॉस' का अनुशासन भी टूट रहा है। अभी तक देखा गया कि कंटेस्टेंट कितनी भी उच्श्रृंखलता करें, 'बिग बॉस' के आदेश का उल्लंघन करने हिम्मत नहीं करते थे! लेकिन, इस बार के कंटेस्टेंट किसी की नहीं सुन रहे! शनिवार-रविवार को सलमान खान के 'वीकेंड का वार' की भी कई बार धज्जियाँ उड़ती देखी गई है! ऐसे में कहीं ऐसा न हो, कि शो को समय से पहले ख़त्म कर दिया जाए!    
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Thursday, November 26, 2020

मुखौटेबाज नेताओं को पहचानकर सजा देने की चुनौती!

     मध्यप्रदेश के उपचुनाव में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस बहुत पीछे रही! पार्टी के जो नेता पहले सभी 28 और बाद में कम से कम 20 सीटें जीतने के दावे कर रहे थे, पर हाथ आई सिर्फ 9 सीटें! कांग्रेस की ये हार किसी एक नेता की नहीं, पूरे संगठनात्मक ढांचे की हार है। पार्टी को भी अब इस बात का अहसास हो गया कि उसका बेहद संगठन कमजोर है। यही कारण है कि कांग्रेस ने संगठन में बड़े स्तर पर बदलाव का फैसला किया। हवाबाज, झांकीबाज और अख़बारों में फोटो राजनीति करने वाले नेताओं की संगठन से छुट्टी करने का मन बना लिया गया है। साथ ही कई जिलों के निष्क्रिय पार्टी अध्यक्षों को भी बदलने की तैयारी है। उन मुखौटेबाज नेताओं की पहचान भी की जा रही है, जिन्होंने उपचुनाव में कांग्रेस की टोपी लगाकर भाजपा को चुनाव में जिताने का काम किया। क्योंकि, कांग्रेस के कुछ नेता और कार्यकर्ता तो सिंधिया समर्थकों के साथ भाजपा में चले गए, पर कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने कांग्रेस में रहकर उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवारों की मदद की! अब समय आ गया, जब कांग्रेस को ऐसे चेहरों की पहचान करके उन्हें बेनकाब करना होगा।                 
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- हेमंत पाल 

     प्रदेश में 28 उपचुनाव के नतीजे आने के साथ ही कमलनाथ के खिलाफ पार्टी में गुबार उठने लगा था। उनकी नेतृत्व क्षमता पर उंगली उठाई जाने लगी थी। जब नतीजों के रुझान आ रहे थे, तभी कांग्रेस नेता गोविंद सिंह ने कमलनाथ को निशाने पर भी लिया। उनका कहना था कि टिकट बंटवारे में कमलनाथ ने किसी किसी की नहीं सुनी! अपनी मर्जी से सर्वे की आड़ में ही टिकट बांट दिए गए। बाद में सीहोर के एक कांग्रेस नेता हरपालसिंह ठाकुर ने खुले आम मांग की, कि कमलनाथ को इस्तीफा देना चाहिए। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। अब वक्त है कि पार्टी के किसी नए नेता को मौका दिया जाए। ये दो नेता तो खुलकर बोले, पर पार्टी में ऐसा सोचने वालों की भी कमी नहीं है। क्योंकि, जब से कांग्रेस ने कमलनाथ को मध्यप्रदेश की कमान सौंपी, वे कोई कमाल नहीं करते हुए भी कुर्सी पर जमे हैं। प्रदेश में सरकार होने के बावजूद लोकसभा चुनाव में पार्टी को बहुत बुरी हार मिली। लेकिन, कमलनाथ की कुर्सी हिली तक नहीं! उसके बाद पार्टी में इतनी बड़ी बगावत हुई, पर अध्यक्ष पद उनसे नहीं लिया गया। उपचुनाव की सारी जिम्मेदारी भी उन्हें दे दी गई। अब, जबकि पार्टी उपचुनाव में बुरी तरह पिछड़ गई, उन्हें नए सिरे से संगठन खड़ा करने का काम दिया गया है।  
   अब समय आ गया, जब कमलनाथ को अपनी संगठनात्मक क्षमता को साबित करना होगा। उसके लिए जरुरी है कि प्रदेश में बदली राजनीतिक परिस्थितियों में कांग्रेस संगठन अपने उन हवाबाज और नकली नेताओं से मुक्ति पाए, जो कहीं न कहीं इस उपचुनाव में हार का कारण बने। पार्टी ने संगठन के उन चेहरों की पहचान भी कर ली है, जिनके होने या न होने से पार्टी में फर्क नहीं पड़ेगा। सुवासरा में पार्टी की हार के जिम्मेदार कुछ नेताओं को बाहर का रास्ता भी दिखाया गया! निशाने पर वे लोग पहले हैं, जो उपचुनाव में हारी हुई 19 सीटों के प्रभारी थे। पार्टी को ये भी पुख्ता खबर है, कि कांग्रेस के सभी नेता और कार्यकर्ता सिंधिया समर्थकों के साथ भाजपा में नहीं गए! जो बच गए, उन्होंने उपचुनाव में कांग्रेस के लिए काम नहीं किया। कांग्रेस का मुखौटा लगाकर उन्होंने भाजपा को जिताने में पूरी मदद की और नतीजा सामने है। बताते हैं कि सेबोटेज दोनों पार्टियों में हुआ, पर कांग्रेस में कुछ ज्यादा। ग्वालियर-चंबल इलाके में भाजपा के वोटों में सेंध लगी, तो मालवा-निमाड़ में कांग्रेस उम्मीदवार को हराने में छुपे कांग्रेसियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। कमलनाथ ने हारी हुई सभी 19 सीटों के प्रभारियों और जिला अध्यक्षों से हार कारणों पर एक विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। इन्हीं रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस संगठन में फेरबदल की रुपरेखा तय होगी। इसका कारण ये भी है कि सारी स्थितियां अनुकूल होने के बावजूद पार्टी उपचुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी।   
    उपचुनाव में हार के बाद कमलनाथ से खुन्नस खाने वाले पार्टी नेताओं ने उन्हें जिम्मेदार बताकर रास्ते से हटाने की कोशिश की थी, पर पार्टी ने फ़िलहाल ऐसा कोई फैसला नहीं किया कि कमलनाथ प्रदेश से बाहर जाएंगे। हार के बाद भी पार्टी ने उनपर भरोसा बनाए रखा है। इसका आशय यह कि संगठन में बदलाव की चाभी भी उन्हीं के हाथ में होगी। यही कारण है कि कमलनाथ फिर चुनावी मूड में दिखाई दे रहे हैं। उनकी सक्रियता से लग रहा है कि पंचायत और नगर निकाय चुनाव की कमान भी उन्हीं के हाथ में होगी। उपचुनाव में दावे से कम सीटें जीतने के बाद उन्होंने खुन्नस खाए नेताओं से कहा कि मैं मध्यप्रदेश छोड़कर नहीं जा रहा! 2023 का चुनाव हम मिलकर लड़ेंगे। इसका स्पष्ट आशय है, कि कमलनाथ न सिर्फ पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे, उन्हें संगठन में बदलाव के लिए भी फ्री हेंड रहेगा। कमलनाथ ने भी साफ़ कर दिया कि पार्टी ऐसे नेताओं और कार्यकर्ताओं को बख्शने के मूड में नहीं है, जिन्होंने उपचुनाव में पार्टी के खिलाफ काम किया और दूसरी बार कांग्रेस को धोखा दिया। पार्टी में इस बात की सुगबुगाहट भी है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस उन काली भेड़ों पहचान कैसे करेगी। चुनौती मुश्किल तो है, पर नामुमकिन नहीं! कांग्रेस के सामने फ़िलहाल स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव की चुनौती है। उपचुनाव में सेबोटेज के बावजूद यदि पार्टी ने मुखौटेबाजों पर कार्रवाई को रोका है, तो उसका कारण यही चुनाव है। संगठन शायद नए दुश्मन खड़े करना नहीं चाहती, इसलिए अभी खामोश है। इस चुनाव में 50 जिला पंचायतों के 843 और 313 जनपद पंचायतों के 6816 जनपद सदस्यों का निर्वाचन होना है। प्रदेशभर में पंचायतों की संख्या 23040 है, जिनमें से 22795 पंचायतों में चुनाव होना है। इन चुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही अपनी जीत तय करना चाहते है।  
   कमलनाथ को हमेशा राजनीतिक प्रयोगों के लिए जाना जाता है। 2018 के विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने कई प्रयोग किए थे, जिससे पार्टी को बढ़त मिली थी! लेकिन, बाद की स्थितियाँ अनुकूल नहीं रही और पार्टी को बगावत के साथ सत्ता से हाथ धोना पड़ा। लेकिन, उपचुनाव में भी वे उतनी सीटें नहीं जीत सके कि सत्ता फिर उनके हाथ आ जाए। लेकिन, अब वे पार्टी में परफॉरमेंस ऑडिट की परंपरा शुरू कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि उन लोगों को संगठन में सही जिम्मेदारी वाले पद दिए जाएं, जो उस योग्य हैं! अब जो गाइड लाइन बनाने की योजना है, उसमें योग्यता के आधार पर ही प्रदेश कांग्रेस और जिला कांग्रेस में नेताओं को पद सौंपे जाएंगे। उनकी जिम्मेदारी भी तय की जाएगी, ताकि वे अनुशासन में बंधे रहें। बताते हैं कि सभी पदाधिकारियों का परफॉरमेंस कार्ड बनाया जाएगा। प्रदेश में ब्लॉक तक के पदाधिकारियों के कामकाज की साल में दो बार समीक्षा होगी! जिनका काम सही होगा, उन्हें ही आगे जिम्मेदारी दी जाएगी। ये भी कहा जा रहा है कि सिफारिश के आधार पर पद बांटने का काम बंद किया जा रहा है। लेकिन, ये सब आसानी से हो सकेगा, इसमें शक है। क्योंकि, कांग्रेस में गुटबाजी और अनुशासन का कोई दायरा तय नहीं है और नेताओं की जुबान पर लगाम भी नहीं लगी। कमलनाथ यदि अपने नेताओं की जुबान पर नकेल डाल सकें, तो यही उनके लिए बड़ी उपलब्धि होगी। 
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Sunday, November 22, 2020

पचास साल बाद भी 'जाॅनी मेरा नाम' कुछ खास

- हेमंत पाल

   फिल्मों के सदाबहार एक्टर देवआनंद में और उनकी फिल्मों में बहुत समानता है। उनकी ही तरह उनकी कुछ फिल्में सर्वकालिक और सदाबहार रही! समय की गर्द जिन्हें धुंधला नहीं सकी। ऐसी ही फिल्मों में पचास साल पहले आई 'जाॅनी मेरा नाम' ऐसी ही फिल्म है, जिसने साल के अंतिम महीने में प्रदर्शित होने के बावजूद साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म का दर्जा हांसिल किया था। उस साल ये फिल्म कमाई के मामले में पहले पांच स्थानों में रही फिल्मों सच्चा झूठा, आन मिलो सजना, पूरब और पश्चिम और ‘जीवन मृत्यु’ को पछाडते हुए पहली पायदान काबिज हुई थी। ‘जॉनी मेरा नाम’ पहली फिल्म है जिसने हिंदी सिनेमा के इतिहास में हर वितरण क्षेत्र में 50 लाख रुपए या उससे ज्यादा का कारोबार किया। इस फिल्म के लिए विजय आनंद ने अपनी निर्देशन फीस छह लाख तय की थी! ये हिंदी सिनेमा में किसी निर्देशक को तब मिली सबसे बड़ी फीस थी। वैसे तो ‘जॉनी मेरा नाम’ की दो भाइयों के मिलने, बिछडने और हीरों की तस्करी जैसे फिल्मी फार्मूले पर बनी थी! लेकिन, जिस तरह से विजय आनंद ने केए नारायण की कहानी का चुस्त स्क्रीन प्ले और एडीटिंग की, उसने इसे एक अलग ही फिल्म बना दी, जिसने ढाई घंटे की लम्बाई के बावजूद दर्शकों को एक पल भी सीट से हिलने नहीं दिया था। 
     इस फिल्म को गुलशन राय ने बनाया था, जिनका निर्माता बनने का किस्सा भी बहुत रोचक है। वे देवआनंद की नवकेतन फिल्म्स की फिल्मों का डिस्ट्रीब्यूशन किया करते थे और देव आनंद के काफी करीबी भी थे। बताते हैं कि एक फ़िल्मी पार्टी में राज कपूर ने उन पर फिकरा कसते हुए फिल्म वितरण के बजाए फिल्म बनाने की चुनौती दे डाली, जो उन्हें चूभ गई! उन्होंने यह बात देवआनंद को बताई, जिसके बाद 'जाॅनी मेरा नाम' फिल्म का प्लॉट बना और राज कपूर की चुनौती को स्वीकारते हुए इस फिल्म का नाम भी 'मेरा नाम जोकर' की तर्ज पर 'जाॅनी मेरा नाम' रखा गया। इसमें करण जौहर के ताऊ और  यश जौहर के बड़े भाई आईएस जौहर ने ट्रिपल रोल किए। यहीं से फिल्म में तिहरे रोल की शुरूआत मानी जाती है। बाद में दिलीप कुमार ने फिल्म बैराग, मेहमूद ने हमजोली और अमिताभ बच्चन ने ‘महान’ फिल्म में ट्रिपल रोल किए।
   जाॅनी मेरा नाम ने कमाई के साथ कई और भी कीर्तिमान बनाए। इसी फिल्म से देवआनंद और हेमा मालिनी की सफल जोडी बनी, जिसने हेमा को स्टार का दर्जा दिया। गुलशन राय को बतौर निर्माता भी इसी फिल्म ने स्थापित किया। उस समय बिहार जैसे राज्यों में शूटिंग का इंतजाम करना आसान नहीं था। लेकिन, विजय आनंद ने इस चुनौती को स्वीकार किया और नालंदा जाकर 'ओ मेरे राजा' गीत को फिल्माया जो फिल्म की जान बना। विजय आनंद ने समय बदलने के लिए भी स्टॉप फ्रेम का बहुत खूबसूरत इस्तेमाल किया है। इस कला में विजय आनंद का कोई सानी नहीं था। वे समय के साथ अपनी संपादन कैंची को इतनी तेजी से चलाते हैं कि दर्शक समझ नहीं पाता कि कब बच्चे बडे हो गए और कब भारत से नेपाल पहुंच गए।  
     'जाॅनी मेरा नाम' को सुपर हिट बनाने में राजेन्द्र कृष्ण के गीतों और कल्याणजी आनंदजी के संगीत का योगदान भी भुलाया नहीं जा सकता। सिनेमा हाल में पहली बार सुनने पर गीतों में जो ताजगी मिलती है, वही ताजगी आज भी बरकरार है। फिल्म के सभी गाने सुमधुर होने के साथ इनका फिल्मांकन भी निर्देशक विजय आनंद ने जिस तरह किया, वह एक मिसाल है। ‘पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही’ में कैमरा एक खिड़की से दूसरी खिड़की होता हुआ घूमता रहता है। कैमरे के फ्रेम खत्म हो जाते हैं, लेकिन खिड़कियां खत्म नहीं होती! इसके अलावा 'ओ मेरे राजा' की लोकेशन भी शानदार है। 'छुप छुप मीरा रोये' जहां ईश्वरीय प्रेम का प्रतीक है, तो 'बाबुल प्यारे' बाप-बेटी के प्रगाढ़ रिश्तों की गहराई को दर्शाता है। जिस नशीले अंदाज में आशा भौंसले ने ‘हुस्न के लाख रंग ...’ गीत को गाया, उससे कहीं बेहतर अंदाज में पद्मा खन्ना ने इसे परदे पर प्रस्तुत किया। फिल्म का ये गीत अपनी रिलीज के दिनों का नंबर वन आइटम नंबर बना था। जिस जमाने में हाफ स्वीव्स ब्लाउज पहनना भी अंग प्रदर्शन का बड़ा कदम माना जाता हो, उस दौर में पद्मा खन्ना गाने में एक-एक करके अपने कपड़े उतारते दिखती हैं। मर्द और औरत की नीयत के इस मुकाबले में पद्मा खन्ना इक्कीस पड़ी! कहा जाता है कि इस गीत के फिल्मांकन के दौरान प्रेमनाथ बेकाबू हो गए गए थे! पर्दे पर गीत को देखते हुए दर्शकों ने चिल्लर लुटाने का सिलसिला भी इसी गाने से शुरू किया! 
   फिल्म की सबसे बड़ी खासियत इसके ढेर सारे धांसू सितारों का जमावड़ा भी रहा! हर एक्टर की भूमिका दमदार और फिल्म की गति बढाने में जरूरी लगती है। देव आनंद, प्राण, प्रेमनाथ, सज्जन, जीवन, इफ्तिखार, श्याम कुमार, रंधावा, तीन-तीन आईएस जौहर, हेमा मालिनी और पद्मा खन्ना पर विजय आनंद ने जिस तरह से नियंत्रण रखा, वो बेमिसाल है। 'जाॅनी मेरा नाम' जितने रंग बदलती है, दर्शक बार-बार चौंकता रहता है। क्लाइमेक्स के पहले प्री-क्लाइमेक्स, फिर फ़र्स्ट क्लाइमेक्स, सेकंड क्लाइमेक्स और थर्ड क्लाइमेक्स बुनने का जो फॉर्मूला विजय आनंद ने इस फिल्म में ईजाद किया, उसे बाद में तमाम फिल्मों के निर्देशकों ने अपनी फिल्मों में इस्तेमाल किया। फिल्म के टाइटल म्यूजिक के साथ क्लाइमेक्स का बैक ग्राउंड म्यूजिक भी बहुत लोकप्रिय हुआ था। कुल मिलाकर 'जाॅनी मेरा नाम' अजीब से नाम के बावजूद सफलता और सदाबहारता की एक नई इबारत लिख गई, जो आज भी धुंधली नहीं पड़ी है।  
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Thursday, November 19, 2020

कांग्रेस संगठन में चुनाव जीतने का माद्दा नहीं!

    राजनीति में हर हार कोई न कोई सबक देती है। यही सबक बाद में जीत का मददगार बनता है। लेकिन, कांग्रेस ने इस आदर्श तथ्य से कभी कुछ नहीं सीखा। मध्यप्रदेश में डेढ़ दशक बाद सरकार बनाने, फिर अपनी गलती से उसे गंवाने और उपचुनाव में बागियों की 25 में से 19 सीटें हारने के बाद भी कांग्रेस ने लगता नहीं कि कोई सीख ली होगी! कांग्रेस ने जिस तरह चुनाव लड़ा, उसमें भी कई खामियां थीं। सबसे बड़ी खामी है कमजोर संगठन। उपचुनाव के लिए जिस तरह की रणनीति भाजपा ने बनाई थी, कांग्रेस उसके आसपास भी दिखाई नहीं दी! सीधे शब्दों में कहें तो कांग्रेस में सिर्फ उम्मीदवार चुनाव लड़ता है और भाजपा में पूरी पार्टी जान लगा देती है। इसलिए कहा जा सकता है कि कांग्रेस के जो 9 उम्मीदवार चुनाव जीते हैं, वो अपने दम पर झंडा गाड़कर आए हैं।         
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- हेमंत पाल

   कांग्रेस ने लघु विधानसभा चुनाव कमलनाथ को सामने रखकर लड़ा, पर जंग हार गई। ये पहला मौका था, जब पार्टी ने कमलनाथ के नाम पर चुनावी जंग जीतने की कोशिश की। लेकिन, नतीजे दावों के अनुकूल नहीं रहे। 40 साल की राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी और मैनेजमेंट गुरु कहे जाने वाले  कमलनाथ की चुनावी कूटनीति फेल हो गई। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की किनारे वाली जीत ने कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया। लेकिन, उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उनके पास निश्चिंतता से सरकार चलाने वाला बहुमत नहीं है। जितनी सीटें थीं, उनसे पाँच साल निकालना आसान नहीं था। उन्हें सभी को साधकर और पुचकारकर चलना था, पर वे ऐसा नहीं कर सके! कहा जाता है, कि कमलनाथ विधायकों तक से मिलने से परहेज करते थे। आम आदमी की तो उन तक पहुँच संभव ही नहीं थी! नतीजा ये हुआ कि उनके नीचे से सियासत की जमीन खींच ली गई! 2020 के उपचुनाव में पार्टी ने कमलनाथ को फ्रीहैंड दिया! उन्हें सारे फैसले करने का अधिकार दिया गया। किंतु, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष होते हुए भी वे न तो संगठन का ठीक से उपयोग कर सके और न बागियों के सामने सही उम्मीदवार खड़े कर सके।  
     अब प्रदेश की सियासत में ये सवाल पूछा जा रहा है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भाजपा 28 में से 19 सीटें जीतने में कैसे सफल हो गई! कांग्रेस क्यों अपनी सही रणनीति नहीं बना सकी! जीतने वाले उम्मीदवारों के चयन में कहां खामी रह गई! अब कांग्रेस सत्ता की दौड़ से बाहर होकर विपक्ष में आ गई, तो प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति का रूख क्या होगा! प्रदेश के राजनीतिक हालात, कांग्रेस और भाजपा की राजनीति और विधानसभा के बाकी बचे तीन साल के नजरिए से देखा जाए तो कांग्रेस इन तीन सालों में कोई चमत्कार कर सकेगी, इसकी उम्मीद कोई नहीं कर रहा! जबकि, नैतिक शिक्षा का पाठ कहता है कि इस हार के बाद कमलनाथ को मुखिया पद से हट जाना चाहिए, पर कांग्रेस में सबसे बड़ा अकाल नेतृत्व का है। कमलनाथ के बाद कौन सही चेहरा हो सकता है, यदि इस नजरिए से तलाश की जाए तो मुश्किल से दो विकल्प भी ढूँढना मुश्किल है। दरअसल, ये पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी है कि उसने मध्यप्रदेश में नए नेताओं को उभरने नहीं दिया। पिछले तीन दशक में प्रदेश की पूरी कांग्रेस 4 या 5 चेहरों के आसपास सिमटकर रही! इनमें से ज्यादातर अब रिटायरमेंट की उम्र में पहुँच चुके हैं!  
   इस उपचुनाव की बात की जाए तो ये कांग्रेस के 19 उम्मीदवारों की हार नहीं, बल्कि कांग्रेस नेतृत्व और संगठन की हार है। पार्टी ने 28 सीटों पर उम्मीदवार तय करने में स्थानीय नेतृत्व की पूरी तरह अनदेखी की। कई जिला कांग्रेस अध्यक्षों ने इस बात की शिकायत भी है कि पार्टी ने उनकी बातों को सुना तक नहीं और सर्वे से सही उम्मीदवार चुनने का तर्क दिया गया। ये सर्वे पार्टी ने किया या किसी निजी एजेंसी ने और किस आधार पर ये सर्वे किया गया इसका खुलासा नहीं किया गया! ये वास्तव में कोई गोपनीय सर्वे था या सिर्फ हव्वा इसका भी किसी को पता नहीं! ये शिकायत भी सामने आई कि जब जिला कांग्रेस से भेजी गई पैनल पर विचार ही नहीं किया गया, तो फिर सर्वे कैसे हुआ! जबकि, तरीका यह है कि निर्धारित नामों में से सही उम्मीदवार को सर्वे से चुना जाता है, पर कांग्रेस में ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसी का नतीजा है कि स्थानीय नेताओं ने भी अनमने ढंग से काम किया। जिस तरह की पैचीदा राजनीतिक हालात में ये उपचुनाव हुए, उसमें सभी को साथ लेकर चलने की जरूरत थी, पर पार्टी में एकजुटता कभी दिखाई नहीं देती।
  चुनावी राजनीति में भाजपा और कांग्रेस में बहुत अंतर है। भाजपा छोटे से छोटे चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा की तरह लेती है और पूरा संगठन उस प्रतिष्ठा की रक्षा करने में लग जाता है। उपचुनाव में भी यही हुआ। कांग्रेस ने बिकाऊ और टिकाऊ के मुद्दे को खूब हवा दी और अपनी 15 महीने की सरकार की उपलब्धियों को भुनाने की कोशिश तक नहीं की! जबकि, सस्ती बिजली का मुद्दा इतना सशक्त था कि वो मतदाताओं पर कमाल कर सकता था! पर, भाजपा ने उसे किसानों की कर्ज माफ़ी वाले मुद्दे पर इतना उलझा दिया कि कांग्रेस पूरे समय उसी की सफाई देती रही। कांग्रेस नेतृत्व की असफलता का एक कारण यह भी माना जा सकता है कि पार्टी प्रायवेट लिमिटेड बनकर रह गई! हर नेता की अपनी अलग कांग्रेस बन गई, जो प्रतिद्वंदी पार्टी के बजाए घर में ही ज्यादा लड़ती है।  
   जहाँ तक उपचुनाव में दोनों पार्टियों की जमीनी तैयारी का सवाल है, कांग्रेस ने ग्वालियर-चंबल इलाके में तो अपनी पकड़ जरूर बनाकर रखी, पर मालवा-निमाड़ की सातों सीटों को लावारिस छोड़ दिया! यहाँ उम्मीदवार खुद ही चुनाव लड़ रहा था, पार्टी कहीं नहीं थी! जबकि, भाजपा ने मालवा-निमाड़ की सीटों के लिए नियोजित वार-रूम बनाया! नेताओं को जिम्मेदारियां दी गई और उनसे लगातार फीडबैक लिया गया! पर, कांग्रेस में ऐसा कुछ नहीं हुआ! इंदौर में बने भाजपा के वार-रूम के मीडिया प्रभारी गोविंद मालू बताते हैं कि हमने हर सीट को चुनौती की तरह लिया! इसी का नतीजा था कि जिस सुवासरा और हाटपिपलिया सीट को कांग्रेस जीती हुई मानकर चल रही थी, वो कब उसके हाथ से निकल गई, उसे पता ही नहीं चला! यदि ग्वालियर-चंबल की तरह कांग्रेस ने मालवा-निमाड़ में भी वार-रूम बनाया होता तो तस्वीर कुछ तो अलग होती! ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस ने केके मिश्रा को मोर्चे पर लगाया! वे चुनाव की घोषणा से पहले ही ग्वालियर में डट गए और उन्होंने भाजपा पर लगातार मीडिया हमले किए! चंबल में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन में पार्टी की इस रणनीति का बड़ा योगदान है! लेकिन, क्या ये प्रयोग मालवा-निमाड़ में नहीं किया जाना था? वास्तव में ये कांग्रेस का अतिआत्मविश्वास नहीं, संगठनात्मक कमजोरी और कमलनाथ के सलाहकारों की नासमझी है। 
   इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जमीनी जुड़ाव के मामले में शिवराजसिंह के मुकाबले कमलनाथ बहुत पीछे हैं। चुनाव के मंच का शिवराजसिंह जिस तरह उपयोग करना जानते हैं, कमलनाथ उस तरह सोच भी नहीं सकते! जनता को सिर-माथे पर बैठाने की जो कला शिवराजसिंह को आती है, वो कई बार हवा पलटने में कामयाब हो जाती है। जनता के बार-बार हाथ जोड़ने से लगाकर धोक देने तक का फार्मूला कब, कहाँ और कैसे असर कर जाए, कहा नहीं जा सकता। जबकि, कमलनाथ की भाव भंगिमाओं में जो रुआब झलकता है, वो मतदाताओं को रास नहीं आता! इसके विपरीत शिवराजसिंह की भाव भंगिमाएं जनता को जोड़ती है, कमलनाथ में उसकी नितांत कमी है! चुनावी राजनीति में सबसे जरुरी है कि आमसभा से लौटता हुआ मतदाता उस नेता और पार्टी के प्रति सहानुभूति लेकर जाए! लेकिन, कांग्रेस के साथ ऐसे प्रसंग सुनाई नहीं दिए! कांग्रेस ने इस पूरे उपचुनाव में आरंभ से अंत तक कमलनाथ पर भरोसा किया। उम्मीदवारों के चयन, चुनावी रणनीति, प्रचार और स्टार कैम्पेनर सब कमलनाथ ही थे। ऐसे में ये कहना कहाँ गलत है कि उपचुनाव में कांग्रेस नहीं, बल्कि कमलनाथ हारे हैं। 
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Wednesday, November 11, 2020

कांग्रेस हारी या कमलनाथ की रणनीति!

 मध्यप्रदेश के उपचुनाव निपट गए। इसके नतीजे अनुमानों से थोड़ा अलग और भाजपा के दावों के नजदीक रहे। लेकिन, कांग्रेस के सारे दावे और अनुमान ध्वस्त हो गए। कांग्रेस ने अपने बागियों को ‘गद्दार’ और ‘धोखेबाज’ जैसे तमगे बांटकर चुनाव का माहौल अपने पक्ष में करने की जो कोशिश की थी, सब धरी रह गई। वास्तव में जो नतीजे सामने आए वो अनपेक्षित तो माने ही जा सकते हैं। क्योंकि, जो बागी नेता दो साल पहले कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते थे, उनमें से अधिकांश अब भाजपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गए। कई तो पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा वोटों से चुनाव जीते। राजनीति का छिद्रान्वेषण करने वालों के लिए भी ये नतीजे अनपेक्षित ही कहे जाएंगे। भाजपा ने चुनाव में भले ही सभी 28 सीटें जीतने की बात कही हो, पर उनके नेताओं के मन में भी संशय तो था। 19 सीटों पर जीत ने उनको भी चौंकाया है। साँची, सुवासरा और हाटपिपलिया ऐसी ही सीटें रहीं, जिन्हें कांग्रेस के खाते में जोड़कर देखा जा रहा था, पर ये भाजपा ने जीत ली। ये नतीजे कांग्रेस के लिए चिंता बढ़ाने वाले हैं। उसे नए सिरे से अपनी कमजोरियों को टटोलना होगा। संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने की तैयारी करना होगी और सबसे बड़ी बात ये कि धरातल पर राजनीति करने की नीति बनाना होगी। अब हवा-हवाई राजनीति के दिन नहीं बचे, क्योंकि मतदाता सब जानता कौन कितने पानी में है।

- हेमंत पाल

  ये उपचुनाव सामान्य नहीं थे। असामान्य परिस्थिति और असामान्य राजनीतिक हालात में मध्यप्रदेश में ये उपचुनाव हुए। लेकिन, नतीजों ने स्पष्ट कर दिया कि मतदाता से बड़ा कोई नहीं होता। उसकी ख़ामोशी को उसकी सहमति समझने की गलती कतई न की जाए। उसका फैसला सर्वोपरि और हमेशा सही होता है। परिस्थितियां चाहे कोई भी हो, पार्टी और नेताओं की कमान मतदाता के अलावा किसी और के हाथ में नहीं होती। कांग्रेस को इन उपचुनाव के नतीजों ने कुछ ऐसे सबक दिए, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। बशर्ते कि कांग्रेस उसे गंभीरता से समझे और अमल करे। कांग्रेस ने अपने पूरे चुनाव प्रचार में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़ने वालों को अपशब्दों से नवाजा। गद्दार और धोखेबाज कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन, इस बात का ध्यान नहीं रखा कि जिसे वो गद्दार कह रही है, क्या मतदाता भी वही सोच रहा है। अब मतदाताओं के फैसले ने साबित कर दिया कि उनकी नजर में वे न तो गद्दार हैं और न धोखेबाज। बेहतर होता कि कांग्रेस ये फैसला मतदाताओं पर छोड़ती कि इन नेताओं ने जो किया वो गद्दारी थी या धोखेबाजी।
  कांग्रेस ने ये पूरा चुनाव नकारात्मक प्रचार तंत्र की रणनीति से लड़ा। सोशल मीडिया से लगाकर मंच तक के प्रचार में न तो भाषा की गरिमा का ध्यान रखा और न जमीन पर वास्तविक एकजुटता दिखाई, जिसकी जरूरत थी। ये कांग्रेस की कोई चुनावी रणनीति थी या अतिआत्मविश्वास ये समझ से परे है। जब सिंधिया ने अपने समर्थकों के साथ विद्रोह किया, तब पार्टी ने जो मानसिकता बनाई थी, उसमें उपचुनाव तक में कोई बदलाव नजर नहीं किया। कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार में इतनी नकारात्मकता भर दी थी, कि सिंधिया समर्थक भाजपा उम्मीदवारों के प्रति मतदाताओं में सहानुभूति पैदा हो गई। इसी का नतीजा है कि भाजपा के उम्मीदवारों को अनुमान से ज्यादा वोट मिले। साँची, सांवेर, सुवासरा और हाटपीपलिया ऐसे ही इलाके हैं, जहाँ के भाजपा उम्मीदवारों ने अपने आपको नकारात्मकता से बचाए रखा और नतीजा सामने है।
  भाजपा के मुकाबले कांग्रेसी उम्मीदवारों का अपेक्षाकृत कमजोर होना भी हार का बड़ा कारण है। कमलनाथ ने सर्वे के जरिए उम्मीदवार तय करने का जो फार्मूला खोजा था, वो पूरी तरह फेल हो गया। ये सर्वे कब हुआ, कहाँ हुआ और किसने किया ये कोई नहीं समझ सका। सर्वे की आड़ में कई सीटों पर ऐसे चेहरों को उतारा गया, जिनमें जीतने का कोई माद्दा नहीं था। भाजपा से लौटे प्रेमचंद गुड्डू को साँवेर से चुनाव लड़ाना, बदनावर में टिकट बदलकर 72 साल के कमल पटेल को उम्मीदवार बनाना और करीब 9 दलबदलुओं को उम्मीदवार बनाना ऐसे ही फैसले थे, जो कांग्रेस की हार का कारण बने। देखा जाए तो ये कांग्रेस से ज्यादा कमलनाथ की मनमानी वाले फ़ैसलों की हार है। सही चेहरों को टिकट न दिया जाना और अपना आदमीवाद चलाने की रणनीति पूरी तरह फेल हो गई। कमलनाथ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे, पर उनका संगठन कहीं नजर नहीं आया। उम्मीदवार तय करने से लगाकर, रणनीति और चुनाव प्रचार तक में एक ही व्यक्ति नजर आता रहा, न कि पार्टी संगठन।
     कांग्रेस और भाजपा के संगठनों में सबसे बड़ा अंतर यही है कि भाजपा हमेशा चुनाव मोड पर रहती है और कांग्रेस को घोषणा के बाद ही चुनाव की याद आती है। कतिपय मतभेदों के बावजूद सभी चुनाव में भाजपा एक नजर आती है। जबकि, कांग्रेस न तो एकजुट है और न कभी नजर आई। पार्टी में हमेशा सिर-फुटव्वल का माहौल दिखाई देता रहता है। कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा भी बिखरा हुआ है। हर चुनाव के वक्त देखा गया है कि कांग्रेस अपने उम्मीदवार को टिकट देने के बाद उसे अकेला छोड़ देती है। यदि जीत गया तो उसे पार्टी की जीत माना जाता है, पर उसकी हार को व्यक्तिगत हार की तरह साबित करने की कोशिश होती है। टिकट देने के बाद कांग्रेस संगठन न तो स्थानीय नेताओं को जोड़ने की कोशिश करता है और न सेबोटेज करने वालों को संगठन का कोई भय रहता है। इसके विपरीत भाजपा छोटे-बड़े सभी चुनाव को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर मैदान में उतरती है और उसकी तैयारी भी दिखाई देती है। प्रदेश कांग्रेस का बिखराव इस बार के उपचुनाव में भी साफ़ नजर आया। आठ महीने का लम्बा समय मिलने के बाद भी चुनाव के प्रति तैयारी और गंभीरता का भारी अभाव रहा। नेताओं ने सोशल मीडिया और अन्य मीडिया में बयानबाजी को ही अपनी जिम्मेदारी समझ लिया था, जिसकी हवा निकलते देर नहीं लगी।
  सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात ये भी रही कि इन उपचुनाव में हवा-हवाई बातें करने वालों और ऊल-जुलूल दावे करने वालों को भी मतदाताओं ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। फिर वो इमरती देवी हों, पारुल साहू हों या कमलनाथ। सिंधिया समर्थक भाजपा उम्मीदवारों में सबसे ज्यादा मुखरता इमरती देवी ने ही दिखाई। फिजूल के बयान और जीत के दावे उन पर भारी पड़ गए। कमलनाथ की ‘आइटम’ वाली टिप्पणी को भी इमरती देवी ने बेवजह तूल देकर चुनावी मुद्दा बना दिया था, जो निश्चित रूप से उनकी हार के कारणों में से एक है। सुरखी से पारूल साहू ने भी जीत के दावों में रियायत नहीं बरती। लेकिन, कई विरोधों के बावजूद वे गोविंद राजपूत की जीत को नहीं रोक सकी। कुछ यही स्थिति प्रेमचंद गुड्डू की भी थी, जिन्होंने तुलसी सिलावट पर कई बार गलतबयानी की, पर जवाब में सिलावट शांत रहे। विपरीत परिस्थितियां के बावजूद तुलसी सिलावट ने अभी तक के अपने चुनाव में सबसे ज्यादा वोटों से जीत हासिल की। ऐसे ही एक नेता साँची के डॉ. प्रभुराम चौधरी हैं, जिनका कोई बयान पूरे उपचुनाव में सुनाई या दिखाई नहीं दिया, पर वे 28 सीटों में सबसे ज्यादा वोटों से जीते। दरअसल, मतदाता की मानसिकता कभी नकारात्मकता पसंद नहीं करती। उसके पास अपनी बात कहने  का माध्यम नहीं होता, पर नतीजों के जरिए वो अपनी बात जरूर कह देता है। इसीलिए ये उपचुनाव कांग्रेस के लिए एक सबक हैं कि उसे अपना संगठन मजबूत करना होगा और आपसी गुटबाजी का इलाज करना होगा। हर नेता की अपनी कांग्रेस वाला फार्मूला अब तक चल गया, अब नहीं चलेगा।
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Saturday, November 7, 2020

परदे पर हमेशा ठंडी रही दिवाली!

- हेमंत पाल

  दीपावली ऐसा त्यौहार है, जिसे अंतरिक्ष से भी जगमगाते देखा जा सकता है। न केवल हिन्दू धर्म के लोग बल्कि हर धर्म मानने वालों के लिए दिवाली किसी न किसी रूप में खुशियाँ लेकर आता है। हिंदी सिनेमा के पर्दे पर भी दिवाली के पर्व का उजास अनछुआ नहीं रहा! कुछ फिल्मों के गीतों व दृश्यों में दिवाली काफी अहम रही! कभी कथानक के महत्वपूर्ण दृश्य दिवाली की पृष्ठभूमि पर फिल्माए गए, तो कभी गीतों में दिवाली का उजास, खुशियां और भव्यता स्पष्ट दिखाई दी। सिनेमा में जिन त्यौहारों को कभी खुशी गम प्रकट करने का माध्यम बनाया जाता है, उनमें होली, राखी और करवा चौथ के अलावा दिवाली सबसे उल्लेखनीय है।
    त्यौहारों और फिल्म की पटकथा का लम्बा साथ रहा है। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से परदे पर दिवाली का उजियारा छाता रहा। लेकिन, धीरे-धीरे परदे से दिवाली गायब होने लगी। फिल्मों का स्वरूप और दर्शकों का नजरिया बदलने से दिवाली के प्रसंगों को पहले की तरह शामिल नहीं किया जाने लगा! फिर भी साल, दो साल में एकाध फिल्म तो ऐसी आ ही जाती है, जिसमें दिवाली के दृश्य या गीत दिखाई या सुनाई पड़ते हैं। जबकि, गुज़रे जमाने की कई फिल्में दिवाली के आसपास ही घूमती रहती थी। जयंत देसाई के निर्देशन में 1940 में आई 'दिवाली' इसी परम्परा की फिल्म थी! इसके बाद 1955 में गजानन जागिरदार की 'घर घर में दिवाली' और इसके सालभर बाद 1956 आई में दीपक आशा की 'दिवाली की रात' में भी दिवाली को विषय वस्तु बनाकर फिल्म बनाई गई थी।
   इसके बाद फ़िल्मो में गाहे-बगाहे दिवाली के प्रसंगों को जोड़ा तो गया, लेकिन इस त्यौहार को केंद्र में रखकर फ़िल्में बनाना लगभग थम सा गया। 2001 में अमिताभ बच्चन की कंपनी 'एबीसीएल' ने आमिर खान और रानी मुखर्जी को लेकर 'हैप्पी दिवाली' बनाने का प्लान किया था! लेकिन, बाद में 'एबीसीएल' का दिवाला पिटने के कारण यह योजना टल गई। जिन फिल्मों में दिवाली के दृश्यों को प्रमुखता से शामिल किया गया, उनमें 1961 में आई राज कपूर, वैजयंती माला की 'नजराना' थी! इस फिल्म में 'मेले है चिरागों के रंगीन दीवाली है' गीत लता मंगेशकर ने गाया था। यह ब्लैक एंड व्हाइट दौर की खुशनुमा दीवाली का गीत है। इसकी खासियत है कि शुरू से अंत तक इसमें दीवाली की आतिशबाजी और भरपूर रोशनी नजर आती है। यह गीत आज भी देखने पर जीवंत नजर आता है। 1962 में आई 'हरियाली और रास्ता' में भी दिवाली के दृश्यों में नायक, नायिका का विरह दर्शाया गया था। वैजयंती माला दिलीप कुमार की 'पैगाम' और 'लीडर' में दिवाली के जरिए फिल्म के किरदारों को जोड़ने का प्रयास किया था। 1972 में 'अनुराग' में भी आपसी भरोसे और विश्वास को दिवाली से जोड़कर दर्शाया था। इसमें कैंसर से जूझ रहे बच्चे की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए पूरा मोहल्ला दिवाली मनाने में जुट जाता है।
   दीवाली के पटाखों के धमाकों के बीच गोलियों की आवाज दबाकर पूरे परिवार के खत्म करने का दृश्य अमिताभ को सितारा बनाने वाली फिल्म 'जंजीर' में प्रभावशाली ढंग से फिल्माया किया गया था। फिल्म का ये दृश्य नायक अमिताभ को सपनों में हमेशा दिखाई देता है। कमल हासन की 1998 में आई 'चाची 420' में कमल हसन की बेटी के दिवाली के दिन पटाखों से घायल होने का प्रभावशाली दृश्य था। आदित्य चोपड़ा की 'मोहब्बतें' (2000) में दिवाली काफी अहम् थी। करण जौहर की 2001 में आई मल्टी स्टारर सुपरहिट फिल्म 'कभी खुशी कभी गम' का टाइटल सांग असल में एक दीवाली गीत है। इसमें जया बच्चन दीवाली की पूजा करते हुए यह गाती है! पारंपरिक वेशभूषा और दमकती रोशनी से इस गीत की पृष्ठभूमि में दीवाली का भरपूर उजास नजर आता है।
   दिवाली को पृष्ठभूमि में रखते हुए तैयार किए कुछ गानों को भी अपार लोकप्रियता हांसिल हुई। इन गीतों में 'नजराना' का गीत 'एक वो भी दीवाली थी' 'शिर्डी के सांई बाबा' का गीत 'दीपावली मनाई सुहानी' के अलावा 'खजांची' का आई दीवाली आई, कैसी खुशहाली लाई, 'पैगाम' का दीवाली गीत 'कैसे मनाएं हम लाला दिवाली' और कुछ साल पहले गोविंदा अभिनीत फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया' का गाना 'आई है दिवाली, सुनो जी घरवाली' दिवाली को केंद्र में ही रखकर रचे गए गीतों में थे। एसडी बर्मन के संगीत से सजी फिल्म 'जुगनू' फिल्म का  गीत 'छोटे नन्हें मुन्ने प्यारे प्यारे रे' अपने समय में बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसके अलावा 'नमक हराम' का राजेश खन्ना और अमिताभ पर फिल्माया गीत 'दिये जलते हैं फूल खिलते हैं' अपने बेहतरीन फिल्मांकन के लिए दर्शकों को आज भी याद है।
    कुछ समय से सिनेमा से दिवाली बिल्कुल ही गायब हो गई। लगता है दिवाली के दृश्यों और गानों से बॉलीवुड लगभग किनारा कर चुका है। इसलिए कि अब कथानक की विषय वस्तु में काफी बदलाव आ गया। सिनेमा के परदे पर त्यौहारों का मनाया जाना, बिकाऊ पटकथा की मांग पर निर्भर हो गया! फिल्मकार नई शैली के साथ प्रयोग करके कुछ नया करना चाहते हैं। वे बॉलीवुड के वैश्विक पटल पर पहुंचने के साथ वैश्विक सिनेमा के प्रशंसकों को लुभाने वाले विषयों पर फिल्म बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं। हर त्यौहार का बॉलीवुड कनेक्शन होता है। हमारी परंपराओं, व्रत-त्यौहारों को गीतों या फिल्मों के कथानक में पिरोकर दिखाया जाता रहा है। होली तो बॉलीवुड का सदाबहार त्यौहार है, लेकिन दीवाली कभी परदे का पसंदीदा त्यौहार नहीं बन पाया। दिवाली पर प्रदर्शित फिल्मों की सफलता लगभग सुनिश्चित मानी जाती है! किंतु, हाल के सालों में फिल्मों में ये त्यौहार लगभग भुला दिया गया। अभी तो बड़े परदे पर कोरोना का कहर जारी है! इसे देखते हुए इस साल तो बॉलीवुड की दीवाली पर सिनेमाघर के अंदर का अंधियारा ही हावी रहेगा! जो फिल्में इस साल दीपावली को प्रदर्शित करने के लिए तैयार की गई थी, उन्हें आगे बढाया जा रहा है। इस लिहाज से बॉलीवुड के लिए यह दीपावली सूनी और काली ही रहेगी।
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Monday, November 2, 2020

जनता की अदालत में होगा बगावत का फैसला!  

   मध्यप्रदेश के सबसे बड़े राजनीतिक उलटफेर के बाद अब उस फैसले पर जनता की मुहर लगने की घड़ी आ गई! इस सत्तापलट घटना को जनता ने किस नजर से देखा, अब इसका नतीजा आना है! 28 विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं के सामने उम्मीदवारों के प्रश्नपत्र पहुँचने के बाद वे फेल या पास का नतीजा सुनाएंगे। वे बताएँगे कि विधायकों के दलबदल करके सरकार गिराने के कारनामे को उन्होंने सही माना या गलत! ये सिर्फ विधायकों की नहीं, सरकार की भी अग्निपरीक्षा है! मध्यप्रदेश के ये उपचुनाव पार्टियों की रणनीति का भी निर्धारण करेंगे कि भविष्य में सरकार गिराने की ऐसी कोशिशें आगे की जाना क्या सही होगा! अभी तक ऐसे कई प्रयास हो चुके हैं, जब दूसरी पार्टियों के विधायकों को भाजपा ने तोड़कर अपनी सरकार बनाई है। कभी चुनाव से पहले दलबदलुओं को अपनी पार्टी में शामिल किया गया तो कभी चुनाव के बाद एकमुश्त विद्रोह करवाकर सत्ता पर कब्ज़ा किया। कर्नाटक के बाद मध्यप्रदेश में वही प्रयोग दोहराया गया! लेकिन, अब इस फैसले का जनता की अदालत फैसला होना है!   
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हेमंत पाल

  र्नाटक के बाद देश राजनीतिक इतिहास में संभवतः ये लगातार दूसरा मौका है, जब किसी चलती सरकार हुई सरकार को उसके ही विधायकों ने पटरी से उतारकर दूसरी पार्टी को सरकार बनाने में सहयोग किया हो! कभी जो हालात कर्नाटक में बने थे, वही सब मध्यप्रदेश में हुआ! इन दोनों राज्यों में चलती सरकारों को उसके ही विद्रोही विधायकों के कारण कुर्सी छोड़नी पड़ी! कर्नाटक में विद्रोहियों की संख्या 15 थी, मध्यप्रदेश में 28 में से 25 चेहरे ऐसे ही हैं। वहाँ 15 सीटों के लिए हुए उपचुनाव में जेडीएस और कांग्रेस से भाजपा में आए 13 में से 11 विद्रोहियों ने जीत हांसिल की थी। यही कारण था कि कर्नाटक में येदुरप्पा सरकार को पूर्ण बहुमत मिल गया। वहां भी 17 विधायकों ने पद छोड़कर सरकार को अल्पमत में ला दिया था। मध्यप्रदेश की कहानी भी बहुत कुछ इससे मिलती-जुलती है। फर्क सिर्फ इतना है कि मध्यप्रदेश में 22 विद्रोहियों के गुट का नेतृत्व कांग्रेस के ही एक बड़े नेता ने किया! इसके बाद भाजपा ने सरकार बनाकर कांग्रेस के तीन और विधायकों को इस्तीफ़ा देने के लिए राजी कर लिया। इससे विद्रोहियों की संख्या 22 से बढ़कर 25 हो गई! तीन सीटें विधायकों के निधन से खाली हो गई और ये आंकड़ा 28 तक पहुँच गया। अब इन 28 क्षेत्रों के मतदाता इन विधायकों के विद्रोह की उत्तर पुस्तिका जांचकर उसे सही या गलत बताने का फैसला करेंगे!  
   भाजपा ने सरकार बनाने के लिए दलबदल करवाया तो कुछ हद तक कांग्रेस ने उपचुनाव जीतने के लिए 9 दलबदलुओं को टिकट दिए। इसलिए सिर्फ भाजपा पर ये लांछन नहीं है कि उसने दलबदलुओं को मैदान में उतारा! कांग्रेस ने भाजपा और समाजवादी पार्टी से कांग्रेस में आए नेताओं को उम्मीदवार बनाया है। ऐसी स्थिति में 28 में से 9 विधानसभा क्षेत्रों में जिस भी उम्मीदवार की जीत दर्ज होगी, वो दरअसल दलबदलू ही होगा! इन 9 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही दल बदलकर पार्टी में आए लोगों को टिकट दिए! ये सीटें हैं सुमावली, अंबाह, ग्वालियर (पूर्व), डबरा, भांडेर, करैरा, बमोरी, सुरखी और सांवेर। भाजपा ने कांग्रेस से बगावत करके आए 25 नेताओं को टिकट दिया, तो कांग्रेस ने भाजपा छोड़कर आए 6, बसपा से आए 2 और बहुजन संघर्ष दल के एक नेता को कांग्रेस का टिकट दिया। ऐसी स्थिति में इन 9 सीटों पर जो भी जीता वो विधायक दलबदलू ही होगा! 
   देश के राज्यों के चुनाव के पन्ने पलटे जाएं तो 2016 से 2018 के शुरू में जितने भी राज्यों में चुना्व हुए, कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए नेताओं की जीत का आंकड़ा बहुत अच्छा रहा! ज्यादातर को चुनाव में जीत मिली थी। 2016 में हुए असम विधानसभा के चुनाव और 2018 के त्रिपुरा चुनाव तक में भाजपार्टी ने 47 कांग्रेसी विद्रोहियों को अपने टिकट पर चुनाव लड़ाया जिनमें से 36 जीत गए। असम में चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस छोड़कर आए 7 विद्रोहियों को अपना उम्मीदवार बनाया और वे सभी चुनाव जीत भी गए। जीतने वालों में हिमांता बिस्वा सरमा भी थे। 2017 में उत्तर प्रदेश और गोआ के चुनाव में भाजपा ने जितने भी कांग्रेसी बागियों को चुनाव लड़ाया, सभी ने झंडे गाड़े! उत्तराखंड, गुजरात और मणिपुर में भी बागियों की जीत का औसत 28% से 87% के बीच रहा। त्रिपुरा में भाजपा में आए कांग्रेस के 10 विद्रोहियों ने चुनाव लड़ा और 9 जीत गए। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने दूसरी पार्टियों से आए 5 विद्रोहियों को टिकट दिया! लेकिन, इनमें सिर्फ एक को ही जीत मिली। 
     महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने 20 दलबदलुओं को अपने टिकट पर चुनाव लड़वाया था, उनमें 15 जीतने में सफल थे। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के 11, एनसीपी के 6 और शिवसेना, आएसपीएस और आरपीआई (ए) के एक-एक नेता भाजपा में आए थे। लेकिन, बदकिस्मती है कि महाराष्ट्र में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होकर भी सरकार बनाने में नाकामयाब रही! झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दूसरी पार्टियों के 17 लोगों को चुनाव में उम्मीदवार बनाया था। इनमें से 7 ही चुनाव जीते! भाजपा में आने वालों में 11 'झारखंड विकास मोर्चा' के लोग थे! इस पार्टी का बाद में भाजपा में ही विलय हो गया। कांग्रेस के 3 और अन्य पार्टियों के भी 3 नेता भाजपा में आए थे। महाराष्ट्र की तरह झारखंड में भी भाजपा को अतिआत्मविश्वास ले डूबा और वो सत्ता से बाहर हो गई! हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले भी भाजपा ने अपने दरवाजे खोल दिए थे और 14 नेताओं को अपने बैनर पर चुनाव लड़वाया! इन 14 दलबदलुओं में आईएनएलडी के 9, कांग्रेस के 2 और हरियाणा जनहित कांग्रेस (भजनलाल) और शिरोमणी अकाली दल के एक-एक नेता थे। लेकिन, इनमें से 5 ही चुनाव जीते। हरियाणा में भाजपा की सरकार तो बन गई, पर ताकत घट गई!
  भारतीय राजनीति के इतिहास का पहला ज्ञात दलबदल संभवतः आम चुनावों के बाद 1952 में तत्कालीन राज्य मद्रास में हुआ था। वहां किसी पार्टी को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला था। 152 सीट कांग्रेस को और दूसरी पार्टियों को 223 सीटें मिली थीं। तब गठबंधन करके 'किसान मजदूर प्रजा पार्टी' और 'भारतीय साम्यवादी दल' ने सरकार बनाने का दावा पेश किया था! लेकिन, राज्यपाल ने देश के पूर्व गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए बुलाया! वे सेवानिवृत्ति के बाद आराम का जीवन जी रहे थे। वे उस समय विधानसभा के सदस्य भी नहीं थे। इसके बाद जोड़-तोड़ हुई और 16 विधायक विपक्ष से कांग्रेस में आ गए और राजगोपालाचारी की सरकार बन गई। लेकिन, ये सब इतिहास बन गया। ताजा बगावत को यदि जनता की अदालत ने सही ठहराया और विद्रोहियों को जीत हांसिल हुई तो फिर विधानसभाओं में बहुमत के लिए फिर ऐसे ही हथकंडे इस्तेमाल होने लगेंगे!
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