Monday, July 27, 2020

मध्यप्रदेश में विधायकों की बगावत से कांग्रेस ने क्या सीखा?

  कांग्रेस के विधायकों का टूटना और भाजपा से जुड़ना अब चौंकाने वाली खबर नहीं रह गई। जिस दिन ऐसा कुछ नहीं होता, उस दिन जरूर लगता है कि क्या बात है, आज किसी का बाद विकास की धारा से जुड़ने का मन क्यों नहीं हुआ! आश्चर्य की बात तो कांग्रेस का इन घटनाओं के प्रति निर्लिप्त भाव है! वो सिर्फ जाने वाले विधायकों की गिनती कर रही है, इससे ज्यादा कुछ नहीं! प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ भी सिर्फ विधायकों के मन को बदलता हुआ देख रहे हैं, कर कुछ नहीं पा रहे! जब सिंधिया समर्थक 19 और 3 अन्य विधायकों ने पाला बदला था, तब लगा था कि जो होना था, वो हो गया! पर बाद में एक के बाद एक तीन और विधायकों के पाला बदलने की घटना ने कहानी को आगे बढ़ा दिया! अभी भी इस कहानी का पटाक्षेप नहीं हुआ! कांग्रेस इस खरीद-फरोख्त बता रही है, पर सिर्फ यही कारण होगा, ये गले नहीं उतर रहा! इसे कांग्रेस के संगठन की कमज़ोरी भी माना जाना चाहिए! 
000       

- हेमंत पाल

   ध्यप्रदेश में कांग्रेस का सियासी संकट अभी ख़त्म नहीं हुआ! जब भी पार्टी उससे उबरने और निष्ठावान के बचे रहने की बात करती है, कोई न कोई विधायक पाला बदलता दिखाई देता है। 22 विधायकों की बगावत के बाद कांग्रेस को लगा था कि अब कोई नहीं जाएगा! तभी एक-एक करके तीन विधायक खिसक गए। आखिर अचानक कांग्रेस से विधायकों के इस मोहभंग का कारण क्या है, ये कोई नहीं समझ पाया! यहाँ तक कि प्रदेश कांग्रेस के मुखिया  कमलनाथ भी समझ नहीं पा रहे हैं, कि 3 महीने बाद अचानक बगावत का बवंडर फिर क्यों उठा! उधर, भाजपा का दावा है, कि कांग्रेस छोड़ने का  सिलसिला अभी थमा नहीं है! एक सवाल ये भी उठता है कि भाजपा आखिर किस संभावित संकट से बचने के लिए दलबदल करवा रही है। क्या उसे सिंधिया समर्थक विधायकों की जीत का भरोसा नहीं है या भविष्य में सिंधिया के दबाव से बचने के लिए वो कांग्रेस में तोड़फोड़ करके अपनी राजनीतिक सुरक्षा का इंतजाम कर रही है। कारण जो भी हो, पर इसके पीछे कांग्रेस की अपनी कमजोरी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कहीं ऐसा तो नहीं कि बगावती विधायक कांग्रेस में व्याप्त 'अपना आदमीवाद' से ऊब गए थे! क्योंकि, ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद भी कहा नहीं जा सकता कि कांग्रेस खेमेबाजी से मुक्त हो गई! अभी भी गुटबाजी के कई टापू हैं, कांग्रेस को जिनकी पहचान करना है।        
    मार्च में जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़कर कमलनाथ सरकार गिराई थी, तब बहुत सी बातें ऐसी थीं, जो सियासी कारणों से लोगों को सही लग रही थी! डेढ़ साल की कमलनाथ सरकार के दौरान सिंधिया की उपेक्षा और उन्हें कोई सम्मानजनक पद न दिए जाना  राजनीतिक समझ वाले लोगों को नागवार गुजरा था। इसे ही सियासी बगावत का बड़ा कारण भी समझा गया। कांग्रेस ने भी छाती पर पत्थर रखकर सबके सामने तो नहीं, पर अपनी गलती भी ली थी! बाद में कांग्रेस नेताओं ने इशारों में कहा था कि सिंधिया समर्थक मंत्रियों की बात नहीं सुनी गई और ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाना था, पर नहीं बनाया गया। लेकिन, तीन महीने बाद अचानक बगावत का बवंडर फिर उठा और कांग्रेस के तीन विधायक सोशल डिस्टेंसिंग के साथ टूटकर फिर भाजपा में आ गए। सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया कि तीनों ने एक साथ नहीं, बल्कि अलग-अलग दिनों में भाजपा से रिश्ता जोड़ा! पर, ऐसा क्यों हुआ, ये समझ से परे है। क्योंकि, कांग्रेस भी ऐसे किसी हादसे की उम्मीद नहीं कर रही थी। लेकिन, भाजपा का दावा है कि अभी कुछ और टूटेंगे!
    अपने विधायकों के लगातार भाजपा में जाने की घटनाओं से कांग्रेस परेशान भी है और नाराज़ भी! लेकिन, वह कुछ करने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि, यह आँधी अभी थमी नहीं है। यदि भाजपा का दावा सही है, तो कुछ और विधायक लाइन में खड़े हैं। इस तोड़फोड़ पीछे कांग्रेस ने भाजपा जिम्मेदार बताया और कहा कि कांग्रेस के पास भाजपा के इस वायरस का इलाज है। उपचुनाव में जनता भाजपा को दिखा देगी कि उसे ये सियासी अंदाज पसंद नहीं आया! लेकिन, कांग्रेस अभी तक अपनी गलती स्वीकारने की स्थिति में क्यों नहीं है। न तो कमलनाथ ने सिंधिया-गुट की बगावत के वक़्त अपनी गलती मानी, न निर्दलीय विधायकों के शिवराज-सरकार को समर्थन देने के फैसले के समय और न तीन विधायकों के पार्टी छोड़ने पर पछतावा किया! आश्चर्य है कि जो कड़वी सच्चाई राजनीति की बारीकियों को न समझने वालों को साफ़ दिखाई दे रही थी, उसे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होते हुए कमलनाथ नहीं समझे! पिछले दिनों उन्होंने कांग्रेस विधायकों की बैठक भी बुलाई थी, उसमें भी दर्जनभर से ज्यादा विधायक अलग-अलग कारणों से गायब रहे! क्या ये संकेत नहीं था, कि सबकुछ उतना सामान्य नहीं है, जितना समझा या समझाया जा रहा है।  
   कांग्रेस के आरोपों को भाजपा ने बेबुनियाद बताते हुए ये जरूर कहा कि कांग्रेस के बड़े नेता ही पार्टी को संभालने में नाकाम है। यही कारण है कि  विधायक पार्टी में खुद को फिट नहीं बैठा पा रहे और नाराज़ होकर पार्टी छोड़ रहे हैं। भाजपा का ये भी कहना है कि दरअसल ये कांग्रेस के लिए आत्मचिंतन का समय है। उन्हें हम पर आरोप लगाने की जगह खुद की पार्टी को संभालना चाहिए। देखा जाए तो कांग्रेस को अपनी उन ग़लतियों पर आत्मचिंतन जरूर करना चाहिए, जो उसने सत्ता में रहने के दौरान की गई! 15 साल बाद जब कांग्रेस सरकार बनाने स्थिति में आई, तब ये नहीं सोचा गया कि वो पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं है और उसे संभल संभलकर कदम रखना है। सरकार को समर्थन देने वाले निर्दलियों को हाशिए पर रखा गया और सिंधिया के साथ उनके गुट की भी उपेक्षा की गई! विधायकों और कार्यकर्ताओं को भी तवज्जो नहीं दी गई! 100 से ज्यादा पद खाली थे, पर उन्हें भरा नहीं गया! यदि ये सब नहीं होता तो शायद कमलनाथ सरकार के गिरने का कोई कारण नहीं था। आखिर कांग्रेस की ये कमजोर कड़ी भाजपा ने समझ ली और एक चोट में उसे तोड़ दिया। 
   कांग्रेस में बगावत की समय पर सूचना तक पार्टी को न लग पाना भी चिंता की बात है। न तो उन्हें सिंधिया-समर्थकों की बगावत का अंदाजा था और न बाद में तीन विधायकों के दलबदल की भनक लगी। कमलनाथ ने जब भी पार्टी में असंतोष से इंकार किया, कहीं न कहीं से नया बुलबुला जरूर नजर आया! कमलनाथ के इस तरह गलत साबित होने का सीधा सा मतलब है, कि उनका सूचना तंत्र कमजोर है या फिर वे ये मान चुके हैं कि बगावत रोक पाना उनके बस में नहीं है। ये भी गौर करने वाली बात है कि सिंधिया के साथ 19 ने कांग्रेस छोड़ी, लेकिन बिसाहूलाल सिंह, ऐदलसिंह कंसाना और हरदीपसिंह डंग को कांग्रेस से क्या नाराजी थी? बाद में जिन तीन विधायकों प्रधुम्नसिंह लोधी, सुमित्रा कस्डेकर और नारायण पटेल ने पार्टी छोड़ी, वे तो किसी गुट के नहीं थे! फिर क्या कारण है कि वे कांग्रेस से रस्सी तुड़ाकर भागे! ये लोग तो कांग्रेस के चुनावी सर्वेक्षण में जीतने वाले माने गए थे। अभी सिलसिला थमा नहीं है, देखना है कि इस गिनती का अंत कहाँ होता है! लेकिन, जहाँ भी होगा, वहीं से मध्यप्रदेश में कांग्रेस के अंत-अध्याय की शुरुआत भी होगी! क्योंकि, कांग्रेस कभी वक़्त पर संभलने में विश्वास नहीं रखती!     
-----------------------------------------------------------------

Sunday, July 26, 2020

मनोरंजन क्रांति की अमर्यादित राह!

- हेमंत पाल

    महामारी के इस काल में समाज में जो क्रांतिकारी बदलाव आए हैं, उनमें निश्चित रूप से एक मनोरंजन की दुनिया भी है। सिनेमाघरों के बंद होने और टीवी पर नए कार्यक्रमों के थम जाने का असर ये हुआ कि लोगों ने अपने मोबाइल फोन में ही मनोरंजन का मसाला ढूंढ लिया। क्योंकि, लॉक डाउन की वजह से घरों में बंद दर्शकों के पास ओटीटी प्लेटफॉर्म के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। उन्हें वेबसीरीज देखने का ऐसा चस्का लगा कि अधिकांश लोग इसके मुरीद हो गए। संवाद का सशक्त माध्यम बनकर लोगों की जिंदगी में आया मोबाइल फोन मनोरंजन का विकल्प बन गया। इस माध्यम की सबसे बड़ी खासियत ये रही कि इसमें सबको अपनी पसंद का मसाला अपने समय पर और अपनी भाषा में मिलने लगा। अभी तक इक्का-दुक्का लोगों को ही इसकी लत लगी थी, पर लम्बे लॉक डाउन ने सभी को इस घेरे में ले लिया।   
     सेक्रेड गेम्स, मिर्जापुर, काफिर और 'अपहरण' से शुरू हुआ दर्शकों का वेबसीरीज शौक पाताल लोक, ब्रीद-सीरिज़, बुलबुल और 'आर्या' तक पहुँच गया। लेकिन, इस प्लेटफॉर्म पर वेबसीरीज और फिल्मों का सबसे नकारात्मक पक्ष है अश्लीलता, हिंसा और असंसदीय भाषा! खुलेआम गालियाँ, बात-बात पर गोलियाँ चलना और हद दर्जे की अश्लीलता वाले दृश्य। एक सीमा तक तो ये सब इसलिए सहन किया जा सकता है कि ये समाज में बदलाव का नतीजा है! लेकिन, अभी संस्कारों में इतना प्रदूषण भी नहीं फैला कि बात-बात पर गालियाँ बकी जाए या खुलेआम अश्लीलता दिखाई दे। निश्चित रूप से इस वर्ग के दर्शक भी समाज में हैं और ऐसा कंटेंट उनकी डिमांड पर ही बनता होगा। पर, इसे सबकी थाली में नहीं परोसा जा सकता। 
   सिनेमा के दर्शकों ने वो समय भी देखा है, जब हीरो और हीरोइन की नजदीकी की एक मर्यादित सीमा तय थी! टीवी में तो ऐसा कुछ पूरी तरह वर्जित ही था। यहाँ तक कि जब गर्भ निरोधकों के विज्ञापन टीवी पर आना शुरू हुए, तब भी दर्शकों ने आपत्ति उठाई थी! इसके बाद ऐसे विज्ञापन रात 10 बजे के बाद दिखाए जाने लगे। लेकिन, अब सिनेमा ने थोड़ी रियायत ले ली और मर्यादा की सीमा रेखा भी थोड़ी आगे खिसक गई! सेंसर बोर्ड को कहानी की डिमांड बताकर हीरो-हीरोइन को ज्यादा नजदीक लाया जाने आने लगा! पर, टीवी पर अभी ये प्रतिबंध नहीं टूटा, अलबत्ता वर्जित विज्ञापनों पर से रोक जरूर हट गई! लेकिन, टीवी अपनी छद्म प्रगतिशीलता के कारण आज भी वहीं खड़ा है, जहां 10-15 साल पहले था। क्योंकि कंटेंट में सुधार के बजाए टीवी सीरियल बनाने वालों ने कहानी में झटके देकर दर्शकों को भरमाना शुरू कर दिया है। 
     मनोरंजन के नए माध्यम ओटीटी प्लेटफॉर्म ने सिनेमा और टीवी सबको पीछे छोड़ते हुए सारी सीमाएं लांघ दी। इस बात से इंकार नहीं कि ऐसे सीन समाज में सामान्य नहीं हैं, पर जो दिखाया जा रहा है, वो मनोरंजन के नजरिए से कुछ ज्यादा तो है। कुछ लोग इसे मनोरंजन में क्रांति भी कहते हैं, पर वास्तव में ये कोई क्रांति नहीं, बेवजह की अश्लीलता जरूर है। सेक्रेड गेम्स, मिर्जापुर, जमतारा और 'पाताल लोक' में जो हिंसा और अश्लील सीन दिखाए गए, उनमें बहुत से कहानी का हिस्सा नहीं लगते। बेडरूम सीन दिखाने के कई संकेत हैं, जरुरी नहीं कि उसके लिए कैमरे को अंदर घुसाया जाए। ये न तो मनोरंजन है और न कहानी की डिमांड। वेबसीरीज का सबसे सकारात्मक पक्ष ये है, कि इसे दर्शक अकेला या अपने साथी के साथ देखता है! टीवी की तरह इन्हें न तो परिवार के साथ देखा जाता है न सिनेमाघरों में इसका सार्वजनिक प्रदर्शन होता है। इसलिए निहायत व्यक्तिगत स्तर पर इसे देखने को कोई आपत्ति तो नहीं, पर नासमझ नई पीढ़ी, इससे विचलित हो सकती है।  
   दर्शकों को भरमाकर अश्लीलता दिखाकर अपनी प्रसिद्धि बढ़ाने की कोशिश और अनैतिक जरिया है। क्योंकि, अनसेंसर्ड कंटेंट का मतलब ये नहीं कि बोल्ड कहानियों की आड़ में सॉफ्ट पोर्न दिखाया जाने लगे। कुछ ओटीटी प्लेटफॉर्म पर तो खुलेआम सी-ग्रेड की न्यूडिटी दिखाई जा रही है। एकता कपूर का प्लेटफॉर्म अल्ट-बालाजी भी मनोरंजन की आड़ में अश्लीलता बांटने में पीछे नहीं है। सच कहा जाए तो ये 'मस्तराम' सीरीज का वेब संस्करण ही है। टीवी पर कभी सास-बहू के सीरियल के जरिए अपनी पहचान बनाने वाली एकता कपूर अब गंदी बातें, ट्रिपल एक्स, रागिनी एमएसएस और 'बेकाबू' जैसी सीरीज तक सीमित हो गई! विक्रम भट्ट के वेब कंटेंट को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है, जिनमें बेवजह ऐसे सीन भरे जाते हैं! माया, फ से फैंटसी जैसी कई इरोटिका सीरीज से साफ समझ आता है कि इसका मकसद अश्लीलता परोसकर दर्शक बटोरना ही है। 
------------------------------------------------------------------------

Tuesday, July 21, 2020

भाजपा की सत्ता पाने की चाह और हाशिए पर प्रतिबद्धता!

  
राजनीति का अंतिम लक्ष्य सत्ता पाना होता है। ये बात राजनीति शास्त्र की किताबों में हो या नहीं, पर भारतीय राजनीति में ये गहरे तक उतर गई है। भाजपा का मोदी-शाह युग आने के बाद तो इसे भारतीय जनता पार्टी ने पूरी तरह आत्मसात कर लिया। अब पार्टी को अपने 'पार्टी विथ डिफ़रेंस' के ब्रह्मवाक्य को भी बदल देना चाहिए! क्योंकि, वो इस काम में सबसे आगे निकल गई है। राज्यों में भाजपा ने जिस तरह जोड़-तोड़ करके सरकार बनाने की शुरुआत की, उसे भारतीय राजनीति का निकृष्टतम अध्याय कहा जाएगा। आश्चर्य है कि पार्टी के इस (कु) कृत्य को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी समर्थन मिल रहा है। जिसके पास पार्टी कार्यकर्ताओं को दीक्षित करने की जिम्मेदारी है। 'संघ' का ये भी मानना है, कि भाजपा की सबसे बड़ी ताकत उसके समर्पित कार्यकर्ता हैं। लेकिन, जिस तरह भाजपा का कांग्रेसीकरण हो रहा है, उससे पार्टी के वे समर्पित कार्यकर्ता अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। वे उस पद और प्रतिष्ठा से भी वंचित हो रहे हैं, जो सिर्फ उनका अधिकार है।    
000 

- हेमंत पाल 


सोशल मीडिया पर आजकल एक चुटकुला बहुत पढ़ने में आ रहा है। पढ़ने वाले इसे बड़े चटखारे लेकर पढ़ रहे हैं। 

देश में नई पार्टी के उदय होने की संभावना है
जिसका नाम होगा 'भारतीय कांग्रेस जनता पार्टी!'
और  
इसका चुनाव चिन्ह होगा 'हाथ में कमल। 

    ये तो महज एक चुटकी है, पर इसमें जो गंभीरता छुपी है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। क्योंकि, भाजपा पर लम्बे समय से ये आरोप लग रहा है कि वो सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। सत्ता की हवस ने पार्टी को उस कगार पर ला दिया कि उसने अपने प्रतिबद्ध नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी भुलाना शुरू कर दिया। मध्यप्रदेश में पहले सत्ता पाने और फिर उसे बचाने के लिए भाजपा का जोड़-तोड़ का खेल जारी है। पहली खेप में कांग्रेस के 22 विधायकों को तोड़कर भाजपा ने चुनी हुई सरकार को गिराकर अपनी सरकार बनाई! अब उसे मजबूती देने के लिए इक्का-दुक्का कांग्रेसी विधायकों को प्रलोभन देकर भाजपा में मिलाया जा रहा है! पार्टी की इस कारगुज़ारी से उन भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं की अनदेखी हो रही है, जो बरसों से भाजपा का झंडा थामकर घूम रहे हैं। कांग्रेस से बगावत करके आने वालों को हाथों-हाथ पद बांटे जा रहे हैं, पर इससे भाजपा के नेता अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। पार्टी का संगठन मजबूत है और सरकार पर पार्टी का कब्ज़ा है, इसलिए कोई विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा! लेकिन, नाराजी का धुंआ कई जगह से निकलता दिखाई दे रहा है।   
    किसी भी राजनीतिक दल की सबसे बड़ी ताकत उसके कार्यकर्ता होते हैं, जो निस्वार्थ भाव से पार्टी और नेताओं के लिए काम करते हैं। वे न तो पद की चाह रखते हैं न प्रतिष्ठा की! लेकिन, उन्हें उम्मीद जरूर होती है कि कभी न कभी पार्टी की नजर उन पर पड़ेगी और उन्हें प्रतिबद्धता और समर्पण का पुरस्कार मिलेगा। भाजपा के पास कार्यकर्ताओं की बड़ी फ़ौज है। इस बात में भी शक नहीं कि वे किसी और पार्टी से कहीं ज्यादा समर्पित होकर काम करते हैं। भाजपा के कार्यकर्ताओं को समर्पण की शिक्षा 'संघ' से मिलती है, इसलिए उनकी प्रतिबद्धता पर संदेह नहीं किया जाता। वे किसी नेता के बजाए पार्टी के प्रति समर्पण का भाव ज्यादा रखते हैं! लेकिन, अब भाजपा में जिस तरह का बदलाव आता दिखाई दे रहा है, पार्टी कार्यकर्ताओं के समर्पण की कोई कीमत नहीं रह गई! सत्ता को सहारा देने के लिए कांग्रेस से जिस तरह विधायकों को तोड़कर और उनके साथियों को भाजपा का दुपट्टा पहनाया जा रहा है, वो किसी भी समर्पित भाजपा नेता को रास नहीं आ रहा! 
   मध्यप्रदेश में भाजपा ने जिस तरह की राजनीति की शुरुआत की है, वो न तो पार्टी के नेताओं को रास आ रही है और न राजनीति की समझ रखने वाले जानकारों को! क्योंकि, ये पार्टी के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। सिर्फ सत्ता पाने की स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रतिद्वंदी पार्टी के लोगों को तोडना, उन्हें पार्टी की सदस्यता दिलाना और फिर अपने चुनाव चिन्ह पर उपचुनाव लड़ाना राजनीतिक रणनीति के हिसाब से सही हो! पर, पार्टी के नेताओं और  कार्यकर्ताओं को जिस तरह किनारे किया जा रहा है, वो किसी के गले नहीं उतर रहा। आखिर, उन लोगों कि क्या गलती जो बरसों से पार्टी के अच्छे दिन आने का इंतजार कर रहे थे! क्योंकि, जब अच्छे दिन आए तो उसका फ़ायदा उन्हें मिल रहा है, जो कल तक उनके प्रतिद्वंदी बनकर सामने खड़े थे। इसलिए कहा जा सकता है कि भाजपा ने अपनी चाल, चरित्र और चेहरे वाली विचारधारा को तिलांजलि दे दी। कांग्रेस मुक्त राजनीति का उसका नारा अब बदलकर 'कांग्रेस युक्त राजनीति' हो गया। क्या भाजपा ने कांग्रेस को खुद में समाहित करके उसे राजनीति से मुक्त करने की रणनीति बनाई थी! कम से कम हाल के क़दमों से तो ऐसा ही लग रहा है!
   राजनीति में नेताओं की विचारधारा में बदलाव नई बात नहीं है। देश के राजनीतिक इतिहास के पन्ने पलटे जाएं, तो आजादी के बाद तो पूरा विपक्ष ही कांग्रेस के गर्भ से निकला है। लेकिन, वो वैचारिक मतभेदों से उपजी स्थितियाँ थीं, न कि जनप्रतिनिधियों को खरीदकर संख्या बढ़ाने की कोशिश! पार्टी के बड़े नेताओं की इस कुत्सित चालों का सबसे ज्यादा ख़ामियाज़ा उन नेताओं और कार्यकर्ताओं को भुगतना पड़ता है, जिनका हक़ मारा जाता है। मध्यप्रदेश के नज़रिए से इसका मूल्यांकन किया जाए, तो ज्योतिरादित्य सिंधिया खेमे की वजह से कई बड़े नेता मंत्री बनने से वंचित हो गए! जो किसी तरह पद पा गए, तो वे सम्मानजनक विभाग पाने से रह गए। समय गुजरने के साथ अभी इसके और भी उत्तरोत्तर प्रभाव दिखाई देंगे। जहाँ भी उपचुनाव होना है, वहाँ तो भाजपा के सारे नेता और कार्यकर्ता उपेक्षित हो जाएंगे! उन्हें पार्टी प्रतिबद्धता की मज़बूरी के कारण बागी कांग्रेसी नेताओं के लिए चुनाव प्रचार भी करना पड़ेगा। इस स्थिति में उनकी आत्मा उन्हें जिस तरह कचोटेगी, उसका अहसास उन्हें ही होगा, जो इन हालातों से गुजरेंगे! लेकिन, पार्टी से बंधे होने के कारण अपनी पीड़ा किसी को सुना भी नहीं सकते!
      भाजपा के समर्पित कार्यकर्ता पार्टी हाईकमान की इस नई सत्ता संस्कृति को सहजता से स्वीकारेंगे, ऐसा लग नहीं रहा! उपचुनाव के दौरान असली भाजपा के लोगों और राजनीतिक स्वार्थ के वशीभूत भाजपा के पाले में आए लोगों में तनाव का माहौल बन सकता है। क्योंकि, दोनों पार्टियों की चुनाव शैली में काफी फर्क है। जब दोनों में टकराव होगा, तो भाजपा कार्यकर्ताओं को किनारे होना पड़ेगा! क्योंकि, चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार का झुकाव उन लोगों की तरफ ज्यादा होगा, जो उसके साथ कांग्रेस छोड़कर आए हैं। ऐसे में भाजपा संगठन का रुख ही निर्धारित करेगा कि उसकी नजर में प्रतिबद्धता की कीमत क्या है! उसे बरसों का साथ निभाने वाले साथियों की जरुरत है या उन मौकापरस्तों की जिनकी प्रतिबद्धता की कीमत कभी भी लगाई सकती है। जो आज भाजपा हाथों बिके हैं, वो कल किसी और के पाले में भी जा सकते हैं। लेकिन, तब उन भाजपा के तपोनिष्ठ कार्यकर्ताओं का क्या होगा, जिनके दिल में उपेक्षा की फांस गड़ गई है।   
--------------------------------------------------------------------------------    

Friday, July 17, 2020

एक और कांग्रेस विधायक ने पाला बदला, भाजपा ने सुरक्षा की खातिर विकल्प चुना!

हेमंत पाल 

    मध्यप्रदेश में कांग्रेस विधायकों की गिनती एक और कम हो गई! बुरहानपुर जिले की नेपानगर सीट से विधायक सुमित्रा देवी कासडेकर ने भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दुपट्टा धारण कर लिया। इसके साथ ही 114 विधायकों का काफिला घटते-घटते 90 तक आ गया। अभी कहा नहीं जा सकता कि बीच रास्ते में कितने विधायक और कांग्रेस से बिछुड़ेंगे! क्योंकि, भाजपा ने कांग्रेस के तालाब में काँटा डाल रखा है! उसे उम्मीद है कि कुछ और विधायक दाना खाने आएंगे और फंसेंगे। भाजपा की ये सियासी चाल सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। भाजपा सिंधिया-खेमे की जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं है, इसलिए सिंधिया खेमे से अलग कांग्रेस विधायकों को तोड़ने का दूसरा विकल्प तलाशा जा रहा है। 
   सप्ताहभर के अंदर प्रदेश में कांग्रेस को ये दूसरा राजनीतिक झटका लगा। बड़ा मलहरा के प्र्दुयमनसिंह लोधी के बाद नेपानगर की विधायक सुमित्रा देवी कासडेकर ने पार्टी छोड़ दी। उधर, भाजपा का दावा है कि कुछ और विधायक संपर्क में हैं। ऐसे विधायकों की संख्या 10 बताई जाती है, जो कांग्रेस छोड़ने के लिए बोरिया-बिस्तर बांधकर बैठे हैं! सप्ताहभर में 2 विधायकों के भाजपा में आ जाने के बाद अभी 8 और कौनसे हैं, ये देखना बाकी है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव से जुड़ी सुमित्रा देवी ने अचानक पाला बदल क्यों किया, फिलहाल इसका जवाब किसी के पास नहीं है! अरुण यादव के नजदीकी नेता भी इस घटना को अप्रत्याशित मान रहे हैं। लेकिन, कांग्रेस का कहना है कि सुमित्रा को भी पद और पैसे का लालच देकर खरीदा गया है। वे बेहद लोप्रोफाइल वाला अनजान सा चेहरा रही हैं और बहुत कम वोटों से चुनाव जीती थीं। जबकि, सुमित्रा देवी का कहना है कि उनके कहने से कमलनाथ ने तबादले नहीं किए और न मिलने का टाइम दिया!
   पिछले सप्ताह बड़ा मलहरा से कांग्रेस के विधायक प्रद्युमन सिंह लोधी ने भी पार्टी छोड़ी थी और उसके 6 घंटे बाद ही उन्हें केबिनेट मंत्री के दर्जे वाले निगम का अध्यक्ष बना दिया गया था। संभव है कि ऐसा ही कोई लालच का पत्ता सुमित्रा देवी के सामने भी फेंका गया होगा। इस घटना पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ का कहना है 'मुझे चिंता नहीं है। मुझे पता था कि कुछ लोग हैं जो छोड़ देंगे, इसलिए वे चले गए। यह आश्चर्य की बात नहीं है। भाजपा विधायकों को बुला रही है, उन्हें पैसे और अलग-अलग पोस्ट दे रही है।' जबकि, राजनीति के गलियारों में चल ख़बरों में कहा जा रहा है कि कांग्रेस के कई विधायकों को तोड़ने का मिशन है। इस चर्चा के बाद कमलनाथ ने कुछ विधायकों से मुलाकात भी की थी। लेकिन, किसी ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया। 
   उपचुनाव से पहले कांग्रेस के लिए ये नया झटका है। पहले 22 विधायकों ने एक साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ पार्टी से बगावत करके कमलनाथ की 18 महीने पुरानी सरकार गिरा दी! अब 2 विधायकों ने पार्टी का साथ छोड़ दिया। पिछले दिनों मुरैना में हुई वर्चुअल रैली में बागी विधायक एदलसिंह कंसाना की इस बात को किसी न गंभीरता से नहीं लिया था, कि कांग्रेस के 15 विधायक उनके संपर्क में हैं। अब ये बात सही साबित हो रही है कि संपर्क के जरिए सौदेबाजी जारी है। जिसका सौदा हो रहा है, वो भाजपा के पाले में आता जा रहा है। बुंदेलखंड के 4 और महाकौशल के एक विधायक के जल्द टूटने के भी दावे किए जा रहे हैं। पिछले दिनों कमलनाथ ने दमोह के विधायक राहुल सिंह और बंडा के तरबतसिंह को भोपाल बुलाकर इसी संदर्भ में बात की थी! लेकिन, दोनों ने ही ऐसी किसी आशंका से इंकार किया।      
   लाख टके का सवाल ये है कि जब भाजपा के पास सिंधिया के साथ आए 22 विधायकों की सीटें खाली हैं, फिर कांग्रेस से और विधायक क्यों तोड़े जा रहे हैं! समझा जा रहा है कि भाजपा के आंतरिक सर्वे के मुताबिक ज्यादातर सिंधिया समर्थक उपचुनाव जीतने की स्थिति में नहीं हैं। यदि ऐसा होता है, तो शिवराजसिंह सरकार मुसीबत में आ जाएगी! यही कारण है कि भाजपा ने कांग्रेस की कुछ और कमजोर कड़ियों पर वार करने की तैयारी की है, ताकि उनके चुनाव जीतने पर सरकार सुरक्षित रहे। इसके अलावा एक कारण ये भी है कि भाजपा अब ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक दबाव को कम करना चाहती है! वो नहीं चाहती कि सिंधिया अपने रिमोट कंट्रोल से शिवराज-सरकार चलाए! यदि सिंधिया के खाते वाली सीटों के अलावा उपचुनाव होंगे और उम्मीदवार जीतेंगे तो भाजपा उन्हें अपने हिसाब से चला सकती है।   
 ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में 22 विधायक आए थे। आगर-मालवा और जौरा विधानसभाओं की सीटें पहले से खाली थी। समझा जा रहा था कि प्रदेश में 24 सीटों पर उपचुनाव होंगे। लेकिन, 2 और कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे के बाद अब खाली सीटों संख्या 26 हो गई है जहाँ  उपचुनाव होंगे। मध्य प्रदेश विधानसभा में 230 सदस्य हैं, इनमें 22 ने पहले ही इस्तीफा दे दिया और 2 का निधन हो गया। 26 सीटें खाली होने से विधानसभा में सदस्य संख्या 204 हो गई है। कांग्रेस के फ़िलहाल 90 विधायक हैं और भाजपा के पास 107 हैं। सदन में 4 निर्दलीय, 2 बसपा और एक विधायक समाजवादी पार्टी से है। 
----------------------------------------------------------------------------

Wednesday, July 15, 2020

प्रशासन के साथ जुगलबंदी क्यों कर रहे जनप्रतिनिधि! 

- हेमंत पाल
 
   लॉक डाउन खुलने के बाद इंदौर शहर के हालात बहुत बेहतर नहीं हैं। कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या रोज सीढ़ी चढ़ रही है। क्योंकि, लॉक डाउन के बाद शहर को जिस तरह धीरे-धीरे खोला जाना था, उसमें जल्दबाजी की गई। जैसी सख्ती बरती जाना थी, उसमें ढिलाई बरती गई! कई मामलों में अनदेखी भी की गई! ऐसी स्थिति में जनप्रतिनिधियों की भूमिका नेतागिरी चमकाने तक सीमित होकर रह गई! प्रशासन के सामने सब खामोश हैं। शहर में फिर से लॉक डाउन को लेकर एक नेता के अलावा सबकी चुप्पी सवाल खड़े करती है।    
  शहर में कोरोना संक्रमण से उपजी स्थितियों को काबू करने के लिए 'आपदा प्रबंधन समूह' नाम से जो समिति बनाई गई है, वो पूरी तरह प्रशासन के हाथ की कठपुतली बनकर रह गई! उसमें कहने को जनप्रतिनिधि हैं, पर सबकी जुबान पर ताले डले हैं। सबसे निरीह भूमिका सांसद की है, जो प्रशासन के सुर में ताल मिलाने तक सीमित हैं! प्रशासन भी जो खुद नहीं कह पाता, वो सांसद से बुलवा दिया जाता है। तीन महीने के लॉक डाउन के बाद जब शहर में जिंदगी को सामान्य करने की स्थिति आई, तो समझा जा रहा था कि ये फैसला समझदारी से किया जाएगा! पहले वो काम शुरू होंगे, जिनसे गरीबों को काम मिलेगा! सब्जी और किराना की आपूर्ति सामान्य होगी! लेकिन, देखते ही देखते सारे बाजार खुल गए। जिस बाजार की जरुरत नहीं, उसे भी खोल दिया गया। '56 दुकान' और समोसे-कचोरी की दुकानों पर फिर भीड़ लगने लगी। यदि इन दुकानों को खोलना भी था तो सीमित समय के लिए अनुमति दी जाना थी! लेकिन, सारे बाजार को बैखौफ होकर खोल दिया गया! प्रशासन और उसके साथ संगत करने वाले 'आपदा प्रबंधन समूह' ने ये समझ लिया कि कोरोना दुम दबाकर भाग गया है, अब कोई खतरा नहीं है! दरअसल, इसकी सबसे कमजोर कड़ी है जनप्रतिनिधियों की भूमिका, जो इस समूह की बैठक में चेहरा दिखाने तक सीमित है।
  जानकारी के मुताबिक इस समूह की सोमवार को हुई बैठक में करीब-करीब तय कर लिया गया था, कि मंगलवार सुबह से 7 या 10 दिन का लॉक डाउन फिर लगाया जाए! प्रशासन की इस मंशा पर 'आपदा प्रबंधन समूह' में शामिल कोई जनप्रतिनिधि आपत्ति लेगा, इसकी गुंजाइश भी नहीं थी! लेकिन, सिर्फ एक व्यक्ति दबाव में प्रशासन के फिर से लॉक डाउन के इरादे खंडित हो गए! भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने रविवार रात को ही मीडिया के सामने अपना इरादा जाहिर कर दिया कि शहर को फिर लॉक डाउन की आग में नहीं झोंका जाना चाहिए! उन्होंने ये सुझाव भी दिया कि कुछ लोगों की नासमझी की सजा पूरे शहर को नहीं दी जा सकती। जो नियम-कायदे तोड़े उसके साथ सख्ती की जाए, पर पूरे शहर को बक्शा जाए! उन्होंने जिस कड़े लहजे में ये बात कही, उसका असर ये हुआ कि 'आपदा प्रबंधन समूह' को अपना फैसला बदलना पड़ा! उन्हें ये रुख शायद इसलिए अख्तियार करना पड़ा कि उन्हें प्रशासन के फैसले का अंदाजा हो गया होगा! अब बात इस पर ख़त्म हुई कि शनिवार तक कि स्थिति की समीक्षा जाएगी, फिर फैसला होगा! लेकिन, यदि कैलाश विजयवर्गीय अपनी बात नहीं रखते, तो तय था कि मंगलवार सुबह से फिर शहर घरों में कैद जाता! कुछ मामलों में पहले पूर्व महापौर कृषणमुरारी मोघे ने भी प्रशासन पर लगाम कसी थी।  
   ये बात समझ से परे है कि आखिर जनप्रतिनिधि प्रशासन के सामने इतने सहमे और दुबके क्यों हैं? प्रशासन के अधिकारी जो चाहते हैं, उस पर 'आपदा प्रबंधन समूह' की मोहर लगवा लेते हैं और कोई कुछ बोल नहीं पाता। जनप्रतिनिधि प्रशासन का भोंपूं बनने को मजबूर क्यों हो गए! सांसद शंकर लालवानी के दबाव में शहर में सबसे ज्यादा बाजार खोले गए! एक समुदाय विशेष की दुकानें खुलवाने और उनके व्यापार को चालू कराने में उन्होंने किस तरह की रूचि दिखाई, ये बात किसी से छुपी नहीं है। लेकिन, आज वही बाजार शहर की मुसीबत बन गए! एक मुद्दा ये भी अहम् है कि इस समूह में जनता कि सहभागिता कितनी है! शहर के बारे में गंभीरता से सोचने वाला बुद्धिजीवी वर्ग इसमें क्यों नहीं है! व्यापारिक संगठनों को 'आपदा प्रबंधन समूह' में शामिल क्यों नहीं किया गया! ये समूह अफसरों और नेताओं का जमघट बनकर क्यों रह गया! जिन्हें जनता ने नकार दिया, वे बतौर जनप्रतिनिधि इस प्रबंधन समूह का हिस्सा क्यों हैं! जनता के मन में ऐसे कई सवाल और नाराजी बहुत ज्यादा है।           
  जहाँ तक सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क लगाने और सेनेटाइज़िंग का मसला है, तो प्रशासन सख्ती करने से झिझक क्यों रहा है, इस सवाल का जवाब किसके पास है! लोग सड़कों पर बिना मास्क निकल रहे हैं, भीड़ लगाकर खड़े हैं, देर रात तक घूम रहे हैं, पर उनसे कोई कुछ नहीं बोल रहा! जब तक सख्ती को वास्तव में सख्ती से लागू नहीं किया जाता, संक्रमण को नियंत्रित कर पाना मुश्किल है। लोगों को ये भी सहन नहीं हो रहा कि जो काम पुलिस और प्रशासन को करना चाहिए, जिसके लिए उनके पास प्रशासनिक अधिकार हैं, वो काम नगर निगम के छोटे-छोटे कर्मचारियों और अधिकारियों को क्यों दिए गए! डंडे के जोर पर लोगों के वाहनों को रोकना, चैकिंग करना, ऑफिस में घुसकर धमकाना, जुर्माना वसूलना ये लोगों की सहनशक्ति परीक्षा लेने जैसी बात है! शहर में सख्ती हो और नियम तोड़ने वाले को उसकी सजा भी मिले, पर लोग नहीं चाहते कि नगर निगम के अदने से कर्मचारी को सरे बाजार किसी की भी इज्जत उछालने की इजाजत दे जाए! इस शहर की तासीर ऐसी नहीं है। लेकिन, लोग ये भी नहीं चाहते कि प्रशासन और जनप्रतिनिधि उसके धैर्य की परीक्षा लें! यदि जनता ने किसी को जनप्रतिनिधियों को चुना है, तो बेहतर है कि वे अपनी जिम्मेदारी को समझें और प्रशासन के सामने मुखरता से जनता का पक्ष रखें! मास्क लगाने से उनकी आवाज बंद नहीं होती, जनता के नजरिए से सोचें और बोलें भी!               
----------------------------------------------------------

Monday, July 13, 2020

सियासी कसमें-वादे और उनसे मुकरने का अंतहीन सिलसिला!

     मध्यप्रदेश विधानसभा का ये पूरा कार्यकाल सियासी वादों और वादाखिलाफी का अलिखित दस्तावेज बन गया है। कांग्रेस ने मतदाताओं से किए चुनावी वादों को 'वचन पत्र' नाम दिया था। लेकिन, पार्टी के महत्वपूर्ण घटक ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ पर किसानों, युवाओं और शिक्षकों के साथ वादा खिलाफी का लांछन लगाकर विद्रोह कर दिया। वे अपने साथियों के साथ प्रतिद्वंदी पार्टी भाजपा में चले गए! यहाँ भी उनके साथ कई वादे किए गए! लेकिन, जब उन वादों को पूरा करने की बात आई, तो आना-कानी की जाने लगी! क्योंकि, वादे करना और उन्हें पूरा करना दो अलग-अलग बातें हैं! जब ये वादे सियासत के धरातल पर लिए गए हों, तो उनसे मुकरना स्वाभाविक है। इस नजरिए से देखा जाए, तो सिंधिया ने कमलनाथ पर जो वादाखिलाफी का आरोप लगाया था, वही अब उनके साथ हुआ! भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने सरकार गिराने के लिए सिंधिया से वादे तो कर लिए, पर जब उन्हें पूरा करने की बारी आई, तो शिवराजसिंह चौहान उसमें कतरब्यौंत करना चाहा! नतीजा ये हुआ कि शपथ के बाद कई दिनों तक विभागों का बंटवारा टला! बाद में वादा पूरा भी किया तो अनमने भाव से! 
000

- हेमंत पाल
            
  मोहब्बत और राजनीति में कसमों और वादों की बहुत ज्यादा अहमियत होती है। लेकिन, दोनों ही स्थितियों में वादे करने के बाद समझ आता है, कि उन्हें पूरा करना आसान नहीं है। मध्यप्रदेश की राजनीति में भी बीते दो साल से वादे करने और फिर उन्हें तोड़ने का ही सिलसिला चल रहा है। किसी ने चुनाव जीतने के लिए मतदाताओं से वादे किए तो दूसरे ने विद्रोह के लिए इन्हीं वादों को मुद्दा बनाया। बाद में सरकार गिराने के लिए वादे किए गए, लेकिन जब सरकार बन गई तो वादे पूरे करने में टालमटोली होने लगी। अब एक बार फिर मनमुटाव का दौर शुरू हो गया! लेकिन, अंततः जीत उन वादों की हुई जिनके कंधे पर सत्ता का सिंहासन टिका था। लेकिन, इस कोशिश में उनके साथ नाइंसाफी हो गई, जो बरसों से पार्टी के लिए जिंदाबाद के नारे लगाते नहीं अघाते थे, उनकी आधी जिंदगी पार्टी के लिए दरी बिछाते हुए बीती! इस सारी कवायद से एक बात तो साफ़ हो गई कि वादा लेने वाला यदि कमजोर हो, तो वादा करने वाला वादाखिलाफी करने में देर नहीं करता!      
     प्रदेश में राजनीतिक वादों की शुरुआत कांग्रेस ने की थी, जब विधानसभा चुनाव में उसने मतदाताओं से लोकलुभावन वादे किए। इन्हीं वादों की बदौलत उसने किनारे पर बहुमत पाकर सत्ता पर कब्ज़ा भी कर लिया। विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए सत्ता से बाहर होना बेहद त्रासद था! क्योंकि, शिवराजसिंह चौहान ने भाजपा के 15 साल के कार्यकाल में लगातार 13 साल तक मुख्यमंत्री रहकर मतदाताओं से काफी नज़दीकी रिश्ता बना लिया था! वे बिना बात के किसी के भी 'मामा' बन जाते थे। यही कारण था कि भाजपा ने छाती-माथा कूटने की स्थिति तक कांग्रेस का विरोध किया। डेढ़ साल में कम से कम डेढ़ सौ बार कमलनाथ सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई! भाजपा ने आरोप भी लगाया था, कि अभी तक हम कमलनाथ सरकार को वादों वाली सरकार कहते है! लेकिन, अब हम ही कह रहे हैं कि ये वादाखिलाफी वाली सरकार है। कांग्रेस ने 'वचन पत्र' के रूप में पाँच साल के लिए चुनावी वादे किए थे, पर सरकार से हर महीने वादों का हिसाब माँगा जाने लगा! किसानों की कर्ज माफ़ी वाले वादे को भाजपा ने सर-माथे पर उठाया। इसके अलावा कांग्रेस का दूसरा प्रमुख वादा था बेरोजगारों को भत्ता देना! कांग्रेस अपने वचन-पत्र  में किए इस वादे से एकदम मुकर गई, जो वाकई उसे महंगा पड़ा। 
  कमलनाथ सरकार पर लगा वादाखिलाफी का दौर ज्यादा दिन नहीं चला! कांग्रेस के ही एक गुट के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया उर्फ़ 'महाराज' ने अपने समर्थकों के साथ पार्टी से विद्रोह कर दिया! भाजपा में आकर उन्होंने कमलनाथ सरकार पर मतदाताओं से वादाखिलाफी करने और ट्रांसफर उद्योग चलाने के आरोप लगाए। कहा कि 18 महीनों में उनके सारे सपने बिखर गए। 10 दिन में किसानों की कर्ज माफी की बात की थी, पर वादा पूरा नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि किसानों को बोनस और ओलावृष्टि का भी मुआवजा नहीं मिला। सिंधिया का कहना था कि मंदसौर गोलीकांड के बाद मैंने सत्याग्रह छेड़ा था, लेकिन हजारों किसानों पर से केस नहीं हटे! युवा भी बेबस हैं, उनके लिए रोजगार के अवसर नहीं हैं। पार्टी छोड़ने के लिए सिंधिया ने उन्हीं वादों आधार बनाया, जो खुद उन्होंने मतदाताओं से विधानसभा चुनाव के समय बतौर चुनाव अभियान समिति का मुखिया बनकर किए थे।  
   इस बात से इंकार नहीं कि अपने ही चुनावी वादे निभाने में कांग्रेस की गति काफी धीमी रही! सरकार का सालभर पूरा होने के बाद जब 'वचन पत्र' पर हुए काम की समीक्षा की गई, तो नतीजा अच्छा नहीं था। तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा था 'रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जायी!' लेकिन, इस मामले में प्राण जाए बिना वचन झूठा पड़ गया। विभागीय समीक्षा की रिपोर्ट के मुताबिक तब सरकार के बड़े विभागों की 'वचन पत्र' पर अमल की चाल बेहद सुस्त थी। कई विभाग तो ऐसे थे, जो कांग्रेस के वचन पत्र में फिसड्डी साबित हुए! इनमें स्कूली शिक्षा विभाग सबसे आगे था। शिक्षा विभाग में वचन पत्र के 82 बिंदू लंबित रहे। जबकि, सामान्य प्रशासन विभाग में 69 बिंदुओं पर अमल नहीं हुआ। इसी तरह से गृह विभाग के 67, पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग के 64, नगरीय प्रशासन विभाग में 59, कृषि विभाग में 54, स्वास्थ्य विभाग में 55 बिंदुओं पर अभी अमल नहीं हुआ था। 50 सरकारी महकमों के 1302 में से 345 वचन ऐसे थे, जिन्हें पूरा करने से खजाने पर वित्तीय भार आना था, इसलिए इन्हें सरकार ने टाल दिया। यानी वादे और वादाखिलाफी का दौर यहाँ भी चला। 
   अब आते हैं प्रदेश की राजनीति की सबसे बड़ी वादाखिलाफी पर, जो होते-होते बच गई। यदि ये घटना हो जाती तो शिवराज सरकार का चौथा कार्यकाल मुश्किल में आ जाता! क्योंकि, प्रदेश की भाजपा सरकार इन्हीं खम्भों पर टिकी थी! ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जब कांग्रेस से पाला बदलकर भाजपा का पल्ला थामा, तब उन्होंने भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से कुछ कसमें ली थी! इनमें से कुछ थीं, खुद के लिए राज्यसभा का टिकट, केंद्र में मंत्री पद, अपने समर्थक मंत्रियों के लिए वही विभाग जो कांग्रेस सरकार में उनके पास थे, कुछ समर्थकों को राज्यमंत्री का स्वतंत्र विभाग और कांग्रेस छोड़ने वाले सभी पूर्व विधायकों को उपचुनाव में भाजपा की उम्मीदवारी। इसके अलावा और क्या वादे किए गए, इनका खुलासा धीरे-धीरे सामने आएगा! लेकिन, यहीं पेंच अटक गया! बताया गया कि सिंधिया ने अपने मंत्रियों के लिए बड़े और मलाईदार विभाग मांगे। ये थे नगरीय विकास, पंचायत एवं ग्रामीण विकास, राजस्व, महिला एवं बाल विकास, परिवहन, वाणिज्यिक कर, लोक निर्माण, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी, स्कूल शिक्षा, उद्योग और जल संसाधन विभाग। 
  शिवराजसिंह चौहान इन विभागों में कुछ कटौती करना चाहते थे! क्योंकि, भाजपा के जिन गिने-चुने लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था, उनके लिए कुछ नहीं बचता! विभागों को लेकर ऐसी खींचतान मची कि मुख्यमंत्री इस मसले का हल निकालने के लिए दिल्ली तक हाजिरी लगा आए। लेकिन, दो दिन रहने के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला, तो वापस भोपाल आ गए। वहाँ उन्हें कह दिया गया कि सिंधिया से जो वादे किए हैं, वो पूरे किए जाएं। दरअसल, सारा झमेला परिवहन जैसे गाढ़ी मलाईदार विभाग को लेकर था, जो भाजपा छोड़ना नहीं चाहती थी! लेकिन, आठ दिन की जद्दोजहद के बाद अंततः भाजपा को 'महाराज' के सामने शरणागत होना पड़ा! क्योंकि, महाराज किसी कीमत पर समझौते के लिए राजी नहीं हुए! आशय यह कि भाजपा चाहकर भी अपने वादे से मुकर नहीं पाई! इस तरह वादों और वादाखिलाफी का एक लम्बे दौर का अंत हुआ! अब अगला दौर उपचुनाव में 'महाराज' के सभी 22 समर्थकों को भाजपा का टिकट देने के वक़्त आएगा! भाजपा ने यदि तब फिर काट-छांट करना चाहा, तो हो सकता है फिर कोई नया विवाद खड़ा हो!
----------------------------------------------------------------------      



Saturday, July 11, 2020

असली एनकाउंटर भी फ़िल्मी पुलिस जैसे!

हेमंत पाल

   पुलिस की भूमिका को लेकर लोगों के मन में हमेशा ही ये जिज्ञासा होती है कि क्या असल पुलिस वाले भी फ़िल्मी पुलिस जैसे ही होते है! ये जिज्ञासा स्वाभाविक है! क्योंकि, खाकी वर्दी के अंदर इंसान बसता है! लेकिन, जब ये इंसान वर्दी पहनता है, तो असल पुलिस और फ़िल्मी पुलिस में ज्यादा फर्क नहीं रह जाता! यही कारण है कि दर्शकों को फिल्म की भ्रष्ट पुलिस, राजनीतिकों के सामने पुलिस का दब्बू अंदाज और आम आदमियों पर ज्यादतियों जैसी बातें सही लगती है। सिर्फ यही नहीं गुंडे, बदमाशों के खिलाफ किए जाने वाले असली और फ़िल्मी एनकाउंटर तक एक जैसे लगते हैं। उत्तरप्रदेश के दुर्दांत अपराधी विकास दुबे को पकड़कर पुलिस ने उसे जिस तरह एनकाउंटर किया गया, वो बिल्कुल फ़िल्मी अंदाज है। ऐसी कम से कम एक दर्जन फ़िल्में बन चुकी है, जिनमें बदमाशों को इसी तरह फर्जी एनकाउंटर में मारते दिखाया गया।
     एनकाउंटर का नाम सुनते ही 2004 में आई नाना पाटेकर की फिल्म 'अब तक छप्पन' की याद जरूर आती है। यह फिल्म मुंबई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक पर बनी थी। फिल्म में 56 लोगों का एनकाउंटर बताया गया था। नाना पाटेकर ने इसमें एनकाउंटर स्पेशलिस्ट साधु अगाशे का किरदार निभाया था। संजय दत्त की 'वास्तव' भी गैंगस्टर पर बनी फिल्म थी। इसमें मुंबई के अंडरवर्ल्ड के जीवन की कड़वी सच्चाईयों को दिखाने की भी कोशिश की गई थी। माना गया था कि ये फिल्म मुंबई के गैंगस्टर छोटा राजन के जीवन पर आधारित थी। लेकिन, इसमें हीरो का एनकाउंटर नहीं होता! अजय देवगन और इमरान हाशमी की फिल्म 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' में भी गैंगबाजी को गंभीरता से फिल्माया गया था।
    इस तरह की फिल्मों में एक 'बाटला हाउस' थी, जो दिल्ली के बाटला हाउस इलाके में संदिग्ध आतंकवादियों के एनकाउंटर पर बनी थी। इस घटना में पुलिस की दो संदिग्ध आतंकवादियों से मुठभेड़ हुई, जिसमें उन्हें मार दिया जाता है। निखिल के निर्देशन में इसी आधार पर बनी फिल्म में एनकाउंटर को बखूबी ढंग से फिल्माया गया था। फिल्म में जॉन अब्राहम ने उस पुलिस अफसर संजीव कुमार यादव का किरदार निभाया था, जिसने असली एनकाउंटर को अंजाम दिया था। फिल्म में यह साबित करने की कोशिश की गई थी कि ये एनकाउंटर फेक नहीं था। इसी तरह 'शूटआउट ऐट वडाला' कुख्यात अपराधी मन्या सुर्वे के एनकाउंटर पर बनी थी। पुलिस ने 1982 में उसे वडाला इलाके में मार गिराया था। फिल्म में जॉन अब्राहम गैंगस्टर बने थे और अनिल कपूर ने एनकाउंटर करने वाले पुलिसवाले की भूमिका निभाई थी। 'शूटआउट ऐट लोखंडवाला' 1991 में गैंगस्टर माया डोलस और मुंबई पुलिस की मुठभेड़ पर बनी फिल्म थी। इस फिल्म में दिनदहाड़े होने वाला एनकाउंटर खासा सुर्खियों        में रहा!
    फिल्म 'खाकी' में संदिग्ध आतंकवादी को छोटे शहर से पकड़कर मुंबई तक लाने का मिशन था। इस फिल्म में अजय देवगन ने उस पुलिस वाले का किरदार निभाया था, जो आतंकवादी का साथ देता है। अंत में अजय देवगन को एनकाउंटर में मार दिया जाता है। रोहित शेट्टी की फिल्म 'सिम्बा' में रणवीर सिंह की मुंह बोली बहन के साथ बलात्कार और मर्डर हो जाता है। पुलिस वाला बना रणवीर बहन के हत्यारों को एनकाउंटर में मार देता है। सलमान खान की फिल्म 'गर्व' भी कुछ इसी तरह की कहानी थी। इसमें सलमान खान ने पुलिस का रोल निभाया है। बहन के बलात्कार का बदला वह आरोपियों का एनकाउंटर करके लेता है।
    अनुराग कश्यप की फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के दोनों भाग धनबाद के कोल माफिया और गैंगवार से प्रेरित है। फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने फैजल खान का किरदार निभाया था, जो फहीम खान से प्रेरित था। फिल्म में तो फैजल खान के किरदार की मौत हो जाती है, मगर असल में फहीम को हजारीबाग जेल में उम्र कैद की सजा मिली थी। फिल्म के उस सीन ने सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरीं जिसमें फैजल खान रामाधीर की गोलियों से भूनकर हत्या कर देता है।
   अजय देवगन और विवेक ओबरॉय की फिल्म 'कंपनी' अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम और छोटा राजन के अलग होने की घटना से प्रेरित थी। इसमें पहली बार विवेक ओबरॉय दिखाई दिए थे। रामगोपाल वर्मा निर्देशित यह फिल्म अपने समय की हिट फिल्म थी। इसमें गैंगवार को बेहद क्रूरता से फिल्माया गया था। मुंबई के एक माफिया डॉन अरुण गवली पर बनी फिल्म 'डैडी' में गवली के माफिया डॉन से राजनीति तक के सफर को दिखाती है। अर्जुन रामपाल ने इसमें अरुण गवली की भूमिका की थी। इमरान हाशमी भी ‘मुंबई सागा’ में एनकाउंटर स्पेशलिस्ट का किरदार निभाने वाले हैं। इस फ़िल्म को संजय गुप्ता बना रहे हैं। इसके अलावा जॉली एलएलबी-2, रईस, एनकाउंटर : द किलिंग और शागिर्द भी ऐसी फ़िल्में थीं जिनमें एनकाउंटर के सीन     फिल्माए गए थे।
-------------------------------------------------------------------

Wednesday, July 8, 2020

जहाँ जिंदा कौमें हैं, वो सवाल तो करेंगी!

- हेमंत पाल    
  
   समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने कहा था 'जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं!' लेकिन, इतने सालों बाद भी लोकतंत्र में जिंदा कौमों को सवाल करने का हक़ नहीं है! सवाल करने वालों को अपमानित किया जाता है और दबाने की कोशिशें होती है। क्योंकि, अभी पूरी कौम जिंदा नहीं है, जो जिंदा हैं, उनकी जुबान बंद करने की कोशिश होती है। ऐसी ही एक घटना इंदौर में घटी, जब नेता से सवाल करने वाली एक जागरूक लड़की को समाज और व्यवस्था दोनों ने खामोश रहने की सलाह दी! मामला इंदौर का है, जहाँ पत्रकारिता की पढाई कर रही एक लड़की ने मंत्री तुलसी सिलावट से सरकार गिराने को लेकर सवाल किया तो वे असहज हो गए! नतीजा ये हुआ कि सवाल पूछने वाली उस लड़की के चरित्र हनन कोशिशें की जाने लगी! जब वो रिपोर्ट करने थाने पहुंची तब भी उससे सवाल किए गए! पर, इस घटना ने नई परंपरा जरूर डाल दी! आश्चर्य नहीं कि अब हर नेता से मतदाता सवाल करने लगे! क्योंकि, जिंदा कौमें हैं, तो सवाल तो करेंगी!   
   ये घटना इंदौर के स्पेस पार्क टाउन शिप की है, जहाँ जल संसाधन मंत्री तुलसी सिलावट लोगों के साथ संवाद कर रहे थे! लोगों से उनकी ये सदाशयता नहीं थी, बल्कि ये इलाका उनके सांवेर विधानसभा क्षेत्र में आता है, जहाँ उपचुनाव होने वाले हैं। मंत्री से लड़की ने दो सवाल पूछे! पहले सवाल में उसने पूछा कि आपको कांग्रेस की सरकार गिराकर और भाजपा में आकर कैसा लग रहा है? आप लोगों ने अच्छी भली सरकार को गिरा दी है, जो अच्छा काम कर रही थी। इस पर तुलसी सिलावट कहते हैं कि अच्छा महसूस हो रहा है, तभी तो सरकार गिराई है। ये लड़की उपासना शर्मा है, जो मॉस कॉम की पढाई कर रही है। वो सवाल पूछने के साथ ही वीडियो भी बनाती है। सवाल सुनते ही तुलसी सिलावट की बोलती बंद हो जाती है! उनके पास कोई जवाब नहीं होता। लड़की और भी कई सवाल पूछती है, मगर वह किसी का जवाब नहीं देते। फिर आयोजकों ने लड़की को सवाल पूछने से मना कर दिया। इस पर उपासना बोली कि मैं भी वोटर हूँ, सवाल पूछना मेरा हक है। बाद में उपासना ने एक न्यूज चैनल से बात करते हुए कहा है कि मैंने जब तुलसी सिलावट से सवाल किया तो वे यहीं बोले कि टाइगर जिंदा है। मैं कहती हूं कि टाइगर जिंदा तो है, लेकिन उसका जमीर मर गया है। 
   उपासना का कहना है कि जिन लोगों ने दलबदल कर सरकार गिराई उनका तो कुछ नहीं बिगड़ा! अब, चुनाव होगा तो उसमें जनता का पैसा बर्बाद होगा।  हमने पांच साल के लिए सरकार चुनी थी! लेकिन, कुछ लोगों ने उसे 18 माह में ही गिरा दिया! यह जनता के साथ धोखा है। उपासना ने स्पष्ट भी किया कि उसका किसी पार्टी से संबंध नहीं है, वह सिर्फ वोटर है और उसी के नाते उसने सवाल पूछा! लेकिन, इस घटना के बाद उपासना सोशल मीडिया पर मंत्री समर्थक कार्यकर्ताओं के निशाने पर आ गई। उसके बारे में दुष्प्रचार किया गया! आपत्तिजनक बातें लिखकर वायरल की गईं। उसे कांग्रेस का एजेंट बताया गया! उपासना शर्मा जब मामले की शिकायत करने पुलिस अधिकारियों के पास गई तो वहां मौजूद कुछ अधिकारियों ने उससे कहा कि आप कौन होते हो, मंत्री से सवाल पूछने वाली! लड़की का कहना है कि सिलावट समर्थकों द्वारा उसके चरित्र को लेकर भी अश्लील टिप्पणियाँ भी की गई! उसके भद्दे फोटो बनाकर पोस्ट किए गए। जब उपासना शिकायत करने थाने गई तो उसे इंतजार कराने के बाद लसूड़िया पुलिस ने आवेदन लेकर मामले की जांच करने का हवाला देकर रवाना कर दिया। लेकिन, कार्रवाई कुछ नहीं की। मुद्दा ये है कि व्यवस्था को ये सलाह देने का हक़ किसने दिया कि वो उपासना से उसके सवाल पूछने के बारे में पूछताछ करे!   
   कांग्रेस की नेता शोभा ओझा ने आरोप लगाया कि तुलसी सिलावट से सवाल पूछने वाली लड़की का सोशल मीडिया पर चरित्र हनन किया जा रहा है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान मामले में संज्ञान लेकर दोषियों को तत्काल गिरफ्तार कराएं तथा उन पर कठोर दंडात्मक कार्रवाई करने का मार्ग प्रशस्त करें। लेकिन, इसके अलावा कांग्रेस का कोई स्थानीय नेता खुलकर उपासना के साथ खड़ा नजर नहीं आया! ट्वीटरवीर कांग्रेस नेताओं की जुबान भी बंद है कांग्रेस के मीडिया प्रभारी और पूर्व मंत्री जीतू पटवारी ने कहा कि जिस तरह से सोशल मीडिया पर बेटी उपासना शर्मा के सवाल पूछने पर उसके खिलाफ भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा आपत्तिजनक टिप्पणी की जा रही है, यह भाजपा की चाल, चरित्र और चेहरे को उजागर करती है। लेकिन, फिर भी जिस तरह कांग्रेस को इस मामले पर संज्ञान लेना था, वो नहीं किया गया। 
    सवाल पूछने के बाद जो भी हालात बने हों, पर इस घटना ने जिंदा कौमों को प्राणवायु जरूर दे दी। उपासना शर्मा सिर्फ वो लड़की नहीं है, जिसने सवाल पूछा और बदले में उसे उलाहना मिली! बल्कि, वो मुर्दा कौम को झकझोर कर जगाने वाली लड़की है, जिसने लोगों को अपने अधिकार की याद दिलाई कि सवाल पूछना उनका हक़ है! अब यदि कल को हर सभा में ऐसे सवाल पूछे जाने लगे तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए! क्योंकि, जिंदा हो, तो जिंदा नजर भी आना चाहिए!       
------------------------------------------------------------------

Monday, July 6, 2020

भाजपा के लिए आने वाला वक़्त संभलकर चलने का!

    इन दिनों मध्यप्रदेश में भाजपा असमंजस में हैं! पार्टी दिखा तो नहीं रही, पर समझ जरूर रही है कि उसके लिए आने वाला वक़्त अच्छा नहीं है! सत्ता बचाने के लिए भाजपा को 24 उपचुनाव में से कम से कम 10 सीटें तो जितना ही होंगी। 24 में से 22 सीटें तो सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए लोगों की है! भाजपा की मज़बूरी है कि उसे पार्टी के अपने वफादारों को किनारे करके इन बागियों को इसलिए जिताना है, क्योंकि ये उनकी सियासी मज़बूरी है। लेकिन, यदि 22 में से ज्यादातर बागी जीत गए, तो उसे हमेशा सिंधिया की प्रेशर पॉलिटिक्स का शिकार होना पड़ेगा। अभी तक जो पार्टी खुली गुटबाजी से बची थी, उसमे सत्ता के दो केंद्र बन जाएंगे! ऐसे में क्या ये आशंका सही लग रही है, कि भाजपा 10 से ज्यादा सीटों पर मेहनत करने के मूड में नहीं है! वो उतने ही बागियों को उपचुनाव जिताना चाहती है, जितने से उसकी सरकार बची रहे! क्योंकि, ज्यादा सीटें जीतने से जो जोखिम बढ़ेगा, वो पार्टी अनुशासन के लिए ठीक नहीं है!     
000 

- हेमंत पाल
  
  भाजपा ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस के 22 विधायकों के पाला बदलने के बाद सरकार बनाई थी। उनमें से कई मंत्री भी थे। वादे के मुताबिक शिवराज ने ज्यादातर को किसी तरह समायोजित तो कर लिया, पर इससे भाजपा में जो अंदरूनी नाराजी का माहौल बन गया, जो दिक्कत देने वाला है। दिखाने को सबकुछ सामान्य बताया जा रहा है, जबकि पार्टी के अंदर गुस्से का लावा खदबदा रहा है। कई बड़े नेता सिंधिया समर्थकों को ज्यादा तवज्जो देने से रूठे हैं। लेकिन, पार्टी के प्रदेश नेतृत्व की मजबूरी है कि उसे संभलकर चलना है। उसे भाजपा के पुराने नेताओं को भी साधकर चलना और सिंधिया से किए वादे भी निभाना है। लेकिन, जिस तरह सिंधिया की प्रेशर पॉलिटिक्स रंग दिखा रही है, आगे की राह आसान नहीं लग रही! ऐसी स्थिति में शिवराजसिंह को न केवल कांग्रेस से आए इन नेताओं को चुनाव जिताना है, बल्कि उन सीटों पर भाजपा के उन नेताओं का भी ध्यान रखना है, जो बागी कांग्रेसियों के भाजपा में आने से प्रभावित हुए हैं। उपचुनाव में चंबल जीतना भाजपा के लिए सबसे मुश्किल है। पार्टी हर मोर्चे पर मुस्तैदी से जुटी है, पर मतदाता और भाजपा के पुराने नेताओं, कार्यकर्ताओं के मन की थाह लेना मुश्किल है। सिंधिया समर्थक कार्यकर्ताओं और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच सामंजस्य को लेकर भी आसान नहीं है! यदि चुनाव के पहले इनमें तालमेल नहीं हुआ, तो यहाँ भाजपा को विधानसभा चुनाव की तरह नुकसान उठाना पड़ सकता है। 
    ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ बगावत कर भाजपा में आने वाले 22 में से 14 तो मंत्री बन गए, लेकिन 8 ऐसे हैं जिन्हें कोई पद नहीं मिला। उन पर उपचुनाव जीतने की चुनौती अलग है। उपचुनाव जीतने की राह इतनी आसान भी नहीं है कि भाजपा निश्चिंत हो जाए! सिंधिया के जिन समर्थकों को मंत्री बनने का मौका नहीं मिला, उनमें कांग्रेस के टिकट पर अंबाह से विधानसभा चुनाव जीते कमलेश जाटव, अशोक नगर से जजपाल सिंह जज्जी, करेरा से जसवंत जाटव, ग्वालियर पूर्व से मुन्नालाल गोयल, गोहद से रणवीर जाटव, भांडेर से रक्षा सरैनिया, मुरैना से रघुराजसिंह कंसाना और हाटपीपलिया से मनोज चौधरी हैं। रणवीर जाटव को छोड़कर बाकी 7 पहली बार विधानसभा पहुंचे थे! अब इनकी मुसीबत कई मोर्चों पर बढ़ गई। उन्हें मतदाताओं को तो मनाना ही है, उन भाजपा नेताओं की भी मान मुनव्वल करना है, जिन्हें हराकर वे चुनाव जीते थे! मनोज चौधरी ने हाटपीपलिया से भाजपा के दीपक जोशी को चुनाव हराया था। अभी वे नाराज चल रहे हैं। बदनावर से भंवरसिंह शेखावत ने राजवर्धनसिंह दत्तीगाँव खिलाफ मोर्चा खोल रखा है! सांवेर से तुलसी सिलावट से हारे राजेश सोनकर को पार्टी इंदौर जिले का अध्यक्ष बनाकर संतुष्ट करने कोशिश जरूर की, पर माहौल नहीं बता रहा कि वे खामोश रहेंगे। मसला ये कि ऐसी नाराजी अंततः भाजपा की परेशानी का कारण ही बनेगी। यही हालात ग्वालियर-चंबल इलाके में भी है।   
  मंत्री बनने से वंचित रहे नेताओं में पांच अनुसूचित जाति के हैं। ये पांच भांडेर, अंबाह, गोहद, करेरा और अशोक नगर की सुरक्षित सीट से विधानसभा चुनाव जीते थे। सभी सीटें ग्वालियर-चंबल इलाके की हैं, जहाँ जाटव समाज का वर्चस्व है। यदि उपचुनाव में बसपा ने दांव खेला, तो इन सीटों पर अनुसूचित जाति वोटों को लेकर जमकर घमासान होगा। ऐसे में यदि इन सीटों पर भाजपा के बड़े स्थानीय नेताओं ने भितरघात किया, तो उपचुनाव के नतीजे क्या होंगे, अनुमान लगाया जा सकता है। मंत्रिमंडल विस्तार के बाद भाजपा के पुराने नेताओं ने जिस तरह की नाराजी व्यक्त की, उससे समझा जा सकता है कि उपचुनाव में भी सबकुछ ठीक नहीं रहेगा। भितरघात की स्थिति बनी तो भाजपा लिए सत्ता बचाने की कोशिश मुश्किल होगी।
  एक संकट कम वोटों से पिछला विधानसभा चुनाव जीते नेताओं को फिर से उपचुनाव जिताना भी है। हाट पिपलिया से मनोज चौधरी 13 हजार वोटों से चुनाव जीते थे। तब कांग्रेस माहौल कांग्रेस के पक्ष में था। रणवीर जाटव 23 हजार से ज्यादा वोटों से जीते थे और रक्षा सरैनिया की जीत 39 हजार वोटों से हुई थी। लेकिन, कमलेश जाटव और जजपाल जज्जी जैसे लोग तो दस हजार से भी कम से जीते थे। कमलेश जाटव को तो निर्दलीय नेहा किन्नर ने ही कड़ी टक्कर दी थी। सुवासरा से हरदीपसिंह डंग तो मात्र साढ़े 300 वोट से जीते थे। अब इन सभी को भाजपा उम्मीदवार बनकर उपचुनाव लड़कर अपनी जीत सुनिश्चित करना है। ये न सिर्फ इन बागी नेताओं के लिए, बल्कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और भाजपा के लिए भी चुनौती से कम नहीं है। ऐसे में कांग्रेस के बागियों के परफॉर्मेंस पर ही शिवराज सरकार का अस्तित्व टिका है। अगर कांग्रेस ने उपचुनाव में उन सीटों पर पार्टी का कब्जा बरकरार रखा, तो प्रदेश में फिर से एक बड़ा राजनीतिक उलटफेर होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
    अभी विधानसभा उपचुनाव की तारीख घोषित नहीं की गई! लेकिन भाजपा ने चुनाव प्रबंधन समिति तथा संसाधन समिति का गठन कर अपनी तैयारी शुरू कर दी। इसमें चार केंद्रीय मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर, प्रह्लाद पटेल, थावरचंद गहलोत और फग्गनसिंह कुलस्ते हैं। इसके अलावा मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा और ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इसके सदस्य हैं। उधर, कांग्रेस भी कसर नहीं छोड़ रही और चौंकाने वाले नतीजों की कोशिश में है। ग्वालियर इलाके के बालेंदु शुक्ला और मालवा के प्रेमचंद गुड्डू की कांग्रेस में वापसी को इसी नजरिए से देखा जा रहा है। ये सिंधिया के भाजपा प्रवेश से खुश नहीं थे, इसलिए उन्होंने फिर कांग्रेस का दामन थाम लिया। कांग्रेस इस उपचुनाव में कई बड़े नेताओं को दांव पर लगाकर भाजपा के लिए उपचुनाव को मुश्किल बनाना चाहती है। यही कारण है कि अजय सिंह, मीनाक्षी नटराजन और प्रेमचंद गुड्डू को चुनाव में खड़ा करके भाजपा को चुनौती देने के मूड में है। इसलिए कांग्रेस के इस दावे में दम है कि उपचुनाव के नतीजे चौंकाने वाले होंगे। 
   सियासी नजरिए से देखा जाए तो भाजपा को उपचुनाव की चिंता मुक्त रहना चाहिए! क्योंकि, अपने साथियों को चुनाव जिताना भाजपा से ज्यादा सिंधिया की चिंता है! पर, लग रहा है कि भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें ज्यादा गहरी है! मंत्रिमंडल विस्तार में सिंधिया ने दबाव डालकर अपने ज्यादा समर्थकों को मंत्री बनवा लिया, जिससे भाजपा के कई नेता बाहर रह गए! फिर मलाईदार विभागों के लिए दबाव बनाया! लेकिन, ये सारा प्रेशर तभी कारगर होगा जब 22 में से ज्यादातर बागी चुनाव जीत जाएं! लेकिन, यदि ऐसा होता है, तो भी शिवराजसिंह के नया खतरा खड़ा हो जाएगा! सिंधिया समर्थक अपने नेता को मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर सकते हैं। इसलिए जो आसार लग रहे हैं, उनका इशारा है कि भाजपा भी कूटनीति से उपचुनाव लड़ने के मूड में है! वे उतने ही बागी उम्मीदवारों को चुनाव जिताएगी जितनी सीटों की उसे जरुरत है! इससे उसकी सत्ता भी सुरक्षित रहेगी और सिंधिया के भाव भी कम हो जाएंगे! पर,अभी इस कूटनीति को देखने और समझने के लिए नतीजों तक इंतजार करना होगा!
----------------------------------------------------------------------

Saturday, July 4, 2020

एक गीत के नाम लिखी फिल्म की कामयाबी!

- हेमंत पाल

   हिंदी फिल्मों की दुनिया अजीब है। जिस तरह से नमक के बिना खाने के स्वाद की कल्पना करना मुश्किल है, उसी तरह गानों के बगैर फिल्मों के बारे में सोचना भी उतना ही मुश्किल है। राज कपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार और राजेश खन्ना जैसे सितारों ने तो रूपहले पर्दे पर झूमते हुए गाने गाकर ही बाॅक्स ऑफिस पर कब्जा ज़माने में सफलता पाई थी। लेकिन, कुछ फिल्में ऐसी भी हैं, जो केवल एक गाने के कारण बाॅक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ इकट्ठा करने में कामयाब रही। कभी ये कव्वाली रही, कभी ग़ज़ल तो कभी शादियों में गाए जाने वाले गीत!
  एक गीत की बदौलत बाॅक्स ऑफिस पर सिक्कों की बरसात कराने में संगीतकार रवि बेजोड़ रहे। उनकी एक नहीं, कई ऐसी फिल्में हैं, जो केवल एक गाने के कारण दर्शकों ने बार-बार देखी! ऐसी ही फिल्मों में एक है शम्मी कपूर की 'चायना टाउन' जिसका गीत 'बार बार देखो, हजार बार देखो' तब जितना मशहूर हुआ था, आज भी उतना ही मशहूर है। शादी ब्याह से लेकर पार्टियों में जहां कई नौजवानों को संगीत के साथ थिरकना होता है, इसी गीत की डिमांड होती है। रवि की दूसरी फिल्म हैं 'आदमी सडक का' जिसका गीत 'आज मेरे यार की शादी है' बारात का नेशनल एंथम बनकर रह गया है। इसके बीना दुल्हे के दोस्त आगे ही नहीं बढते! इसी तरह दुल्हन की बिदाई पर 'नीलकमल' का रचा गीत 'बाबुल की दुआएं लेती जा' ने दर्शकों की आंखें नम तो की, फिल्म की सफलता में भी बहुत योगदान दिया।
     रवि ने आरएटी रेट (दिल्ली का ठग), तुम एक पैसा दोगे वह दस लाख देगा (दस लाख ), मेरी छम छम बाजे पायलिया (घूँघट), हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं (घराना), हम तो मुहब्बत करेगा (बाम्बे का चोर), ए मेरे दिले नादां तू गम से न घबराना (टाॅवर हाउस ), सौ बार जनम लेंगे सौ बार फना होंगे (उस्तादों के उस्ताद), आज की मुलाकात बस इतनी (भरोसा), छू लेने दो नाजूक होंठों को (काजल ), मिलती है जिंदगी में मोहब्बत कभी कभी (आंखे), तूझे सूरज कहूं या चंदा (एक फूल दो माली), दिल के अरमां आंसुओं में बह गए (निकाह) जैसे एक गीत की बदौलत पूरी फिल्म को दर्शनीय बना दिया!
   फिल्मों को बाॅक्स आफिस पर कामयाबी दिलवाने वाले अकेले गीतों में दिल के टुकडे टुकडे करके मुस्करा के चल दिए (दादा), आई एम ए डिस्को डांसर (डिस्को डांसर), बहारों फूल बरसाओ (सूरज), परदेसियों से न अंखियां मिलाना (जब जब फूल खिले), चांद आहें भरेगा (फूल बने अंगारे), चांदी की दीवार न तोडी (विश्वास), शीशा हो या दिल हो (आशा), यादगार हैं। सत्तर के दशक में एक फिल्म आई थी 'धरती कहे पुकार के' जिसका एक गीत 'हम तुम चोरी से बंधे इक डोरी से' इतना हिट हुआ था कि इसी गाने की बदौलत यह औसत फिल्म सिल्वर जुबली मना गई। इंदौर के अलका थिएटर में तो उस दिनों प्रबंधकों को फिल्म चलाना इसलिए मुश्किल हो गया था कि काॅलेज के छात्र रोज आकर सिनेमाघर में जबरदस्ती घुस आते और इस गाने को देखकर ही जाते थे। कई बार तो ऐसे मौके भी आए जब रील को रिवाइंड करके छात्रों की फरमाइश पूरी करना पड़ी।
   हिंदी सिनेमा में एक दौर ऐसा भी आया जब किसी सी-ग्रेड फिल्म की एक कव्वाली ने दर्शकों में गजब का क्रेज बनाया था। इस तरह की फिल्मों में स्टंट फिल्म बनाने वाले फिल्मकार और आज के सफल समीक्षक तरूण आदर्श के पिता बीके आदर्श निर्मित फिल्म 'पुतलीबाई' भी शामिल है। फिल्म की नायिका आदर्श की पत्नी जयमाला थी। इस फिल्म की एक कव्वाली 'ऐसे ऐसे बेशर्म आशिक हैं ये' ने इतनी धूम मचाई थी, कि सी-ग्रेड फिल्म 'पुतलीबाई' ने उस दौरान प्रदर्शित सभी फिल्मों को पछाडते हुए सिल्वर जुबली मनाई थी। इसके बाद तो हर दूसरी फिल्म में कव्वाली रखी जाने लगी। 'पुतलीबाई' के बाद एक और फिल्म आई थी नवीन निश्चल, रेखा और प्राण अभिनीत 'धर्मा' जिसमें प्राण और बिंदू पर फिल्माई कव्वाली 'इशारों को अगर समझों राज को राज रहने दो' ने सिनेमा हाॅल में जितनी तालियां बटोरी बॉक्स आफिस पर उससे ज्यादा सिक्के लूटने में सफलता पाई।    इसके बाद कव्वाली का दौर थमा,तो फिल्मकारों ने इससे पीछा छुड़ाकर फिर गजलों पर ध्यान केंद्रित किया। एक गजल से सफल होने वाली फिल्मों में राज बब्बर, डिम्पल और सुरेश ओबेराय की फिल्म 'एतबार' (किसी नजर को तेरा इंतजार आज भी है) और 'नाम' (चिट्ठी आयी है) प्रमुख हैं। इस तरह देखा जाए तो हिंदी फिल्मों का मिजाज बड़ा अजीब है, कभी फिल्में दर्जनों गानों के बावजूद हिट नहीं होती तो कभी बिना गाने और महज एक गाने के दम पर बाॅक्स ऑफिस पर सारे कीर्तिमान तोड़ देती है।
---------------------------------------------------

Friday, July 3, 2020

मंत्रिमंडल शिवराज का, विस्तार सिंधिया का!

- हेमंत पाल 
 ध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान के मंत्रिमंडल का विस्तार हो गया। 28 नए मंत्री शामिल कर लिए गए। कुछ तय नाम कट गए, तो कुछ अनपेक्षित नाम शामिल किए गए। जो विधायक और गैर-विधायक इस विस्तार में शरीक किए गए, उसे देखकर लगता है कि मंत्रिमंडल शिवराज का जरुर बना, पर विस्तार ज्योतिरादित्य सिंधिया का हुआ। इस वजह से कई जगह संतुलन गड़बड़ा गया। जिस राजनीतिक चातुर्य और बुद्धिमत्ता की पार्टी से उम्मीद की जा रही थी, वह कहीं नजर नहीं आई! भाजपा को बनियों और महाजनों की पार्टी कहा जाता है, पर विस्तार में वैश्य समाज का कोई प्रतिनिधि नहीं है। संतुलन की सारी कोशिशें ठाकुर, दलित और आदिवासी में उलझकर रह गई! सिंधिया को साधने की कोशिश में क्षेत्रीय संतुलन भी नहीं रहा! ये सबकुछ आगे शिवराजसिंह की मुश्किलें बढ़ा सकता है।   
   जब से मंत्रिमंडल के विस्तार की कवायद चली, तभी से कुछ नामों को लेकर जमकर चर्चा रही! गोपाल भार्गव, भूपेंद्र सिंह, रामपाल सिंह, राजेंद्र शुक्ला, विजय शाह और यशोधरा राजे सिंधिया ऐसे नाम थे, जिन्हें शामिल नहीं किए जाने की हवा गरम थी! पर दो नामों को छोड़कर सभी ने शपथ ली। गोपाल भार्गव और भूपेंद्र सिंह के नाम पर ज्यादा पेंच था। लेकिन, दोनों को जगह मिली। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर के सहयोग से भारतसिंह कुशवाह और ब्रजेंद्र सिंह मंत्रिमंडल में शामिल किए गए, पर वे चेतन कश्यप को शामिल नहीं करा सके, जिनकी पूरी उम्मीद थी। यशोधरा राजे को भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के दबाव में मंत्री बनाया गया है। जबकि, उनके नाम को लेकर शुरू से ही संशय था।
  क्षैत्रीय संतुलन के नजरिए से देखा जाए तो विस्तार में कई खामियां नजर आ रही हैं। कुछ जिलों और क्षेत्रों की पूरी तरह उपेक्षा की गई। इंदौर से उषा ठाकुर को मंत्री बनाया गया जो महू की विधायक हैं! इससे पहले तुलसी सिलावट को शामिल किया गया था, जो सांवेर से हैं। ऐसे में इंदौर शहर से एक बार फिर कोई भी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं है। जबकि, रमेश मेंदोला को मंत्रिमंडल में लिया जाना तय माना जा रहा था। मुख्यमंत्री मालिनी गौड़ को लेना चाहते थे, पर उषा ठाकुर और मालिनी गौड़ दोनों में किसी एक ठाकुर को ही लेना था, इसलिए उषा ठाकुर को मौका दिया गया। भोपाल से फिर विश्वास सारंग को जगह मिली, जबकि विष्णु खत्री का नाम सबसे आगे था। बताते हैं कि उनके पिता कैलाश सारंग ने फिर अस्पताल कार्ड खेलकर बेटे को मंत्री बनवा दिया। ये अस्पताल कार्ड क्या है, ये भाजपा के लोग अच्छी तरह जानते हैं। धार के बदनावर से सिंधिया समर्थक राजवर्धनसिंह दत्तीगाँव को मंत्री बनाया गया, तो नीना वर्मा को छोड़ दिया गया। जबकि, विक्रम वर्मा की वरिष्ठता को देखते हुए उन्हें मौका दिए जाने के आसार थे। रायसेन जिले से रामपाल सिंह या सुरेंद्र पटवा को मंत्री नहीं बनाए जाने से भी जिले में मायूसी है। पर, दोनों का दामन दागदार होना, इसका सबसे बड़ा कारण है। यहाँ से सिंधिया समर्थक और कांग्रेस के बागी प्रभुराम चौधरी को जगह दी गई। 
  मालवा क्षेत्र में असंतुलन का सबसे बड़ा प्रमाण मंदसौर-नीमच क्षेत्र रहा! यहाँ से तीन लोगों को मंत्री बनाया गया। जगदीश देवड़ा और ओमप्रकाश सकलेचा भाजपा के विधायक हैं और हरदीपसिंह डंग उन बाग़ियों में हैं, जिन्होंने कांग्रेस से विद्रोह किया था। इस कोशिश में झाबुआ और रतलाम पूरी तरह छूट गया। बड़वानी से प्रेमसिंह पटेल जरूर पहली बार मंत्री बने, जबकि उनकी बदकिस्मती रहती थी कि जब भी चुनाव जीते सरकार नहीं बनी! राजनीतिक कयास लगाए जा रहे थे कि शिवराज सरकार के मददगार बने चार निर्दलियों और बसपा, सपा के तीन विधायकों में से किसी को शामिल किया जा सकता है! पर, इनके साथ पहले कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने धोखा किया, अब भाजपा ने भी इन्हें किनारे कर दिया। देखना है कि इन्हें निगम, मंडलों में कहीं जगह दी जाती है या नहीं! वैसे एक संभावना यह कि इनमें से किसी को विधानसभा उपाध्यक्ष बनाया जाए!   
    इस पूरे मंत्रिमंडल विस्तार की कवायद का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है विंध्य क्षेत्र की उपेक्षा। 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की झोली भरने का सबसे बड़ा काम इसी इलाके ने किया था! भाजपा यदि सत्ता पाने के मुहाने तक पहुंची, तो उसके पीछे विंध्य की बड़ी भूमिका रही! पर, जब रेवड़ी बाँटने का मौका आया तो विंध्य को किनारे कर दिया गया। लगता है कि पार्टी ने राजेंद्र शुक्ला को ही पूरा विंध्य समझ लिया है। यहाँ से रामकिशोर कांवरे और बिसाहूलाल सिंह को जगह दी गई! जबकि, किसी ब्राह्मण को मौका नहीं मिला। विंध्य क्षेत्र में लगातार दो विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा। विंध्य में भाजपा ने पिछले चुनाव में 24 सीटें जीती, पर प्रतिनिधित्व उस हिसाब से नहीं दिया। इस इलाके में ब्राह्मण राजनीति के अपने अलग ही समीकरण हैं, जिनकी उपेक्षा की गई! इससे ब्राह्मणों की नाराजी सामने आ सकती है, जो पार्टी भारी पड़ेगी।
  विंध्य की ही तरह महाकौशल क्षेत्र की अनदेखी की गई। यहाँ से सिर्फ रामखिलावन पटेल को मंत्रिमंडल में जगह दी गई! संजय पाठक को लेकर पहले से ही समझा जा रहा था कि उन्हें नहीं लिया जाएगा, वही हुआ भी! लेकिन, अजय विश्नोई को भी भुला दिया गया। महाकौशल की कई सीटों पर ब्राह्मणों का वर्चस्व है और हार-जीत में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है, पर महाकौशल से ब्राह्मण चेहरा ही नदारद है। ग्वालियर-चंबल इलाके के भिंड जिले से दूसरी बार विधायक बने सिंधिया के समर्थक रणवीरसिंह जाटव को विस्तार में शामिल किए जाने की चर्चा थी! लेकिन, अंतिम समय में रणवीरसिंह जाटव की जगह मेहगाँव से पहली बार चुनाव जीते और अब पूर्व विधायक हो गए ओपीएस भदौरिया को शपथ दिलाई गई! इस नजरिए से कहा जाए तो मंत्रिमंडल के विस्तार में मुख्यमंत्री की उतनी नहीं चली, जितनी उम्मीद की गई थी। 
-----------------------------------------------------------

Wednesday, July 1, 2020

मध्यप्रदेश में 'बदले की राजनीति' का नया अध्याय शुरू

'राजनीति बहुत गंदी हो गई' ये बात अकसर जुमलों में कही जाती है। लेकिन, धरातल पर इसे परखा जाए तो ये नितांत सच भी है। स्वस्थ राजनीति जैसी बातें तो हवा हो गई! विपक्ष को जनता का फैसला मानने की परंपरा का भी लोप हो गया! ये मान लिया गया कि जो सत्ता में है, वही जनता का फैसला है और जो विपक्ष में है, वो दुश्मन से कम नहीं! कम से कम शिवराज सरकार के कुछ फैसलों ने तो ये साफ़ ही कर दिया। उन्होंने कमलनाथ सरकार के कार्यकाल के अंतिम 6 महीनों के फैसलों की समीक्षा के लिए मंत्रियों की टीम बना दी! जबकि, कमलनाथ ने 13 साल के शिवराज सिंह के कार्यकाल पर नजर तक नहीं डाली! शिवराज सरकार में 'व्यापम' जैसी बड़ी गड़बड़ियां हुई, पर कमलनाथ ने कुछ नहीं किया। इसे कांग्रेस सरकार की खामी मानी जाए या खूबी! पर, अब ये बात उठने लगी है कि कांग्रेस ने ये सदाशयता क्यों दिखाई! उसे भी वे पुराने पन्ने खोलना थे, जो दागदार हैं।
000       

- हेमंत पाल

    शिवराज सरकार का पूरा ध्यान कमलनाथ सरकार के अंतिम दिनों में लिए गए फैसलों पर है! इस दौरान तबादलों, राजनीतिक नियुक्तियों, किसान कर्ज माफी को लेकर शिवराज सरकार को गड़बड़ी का अंदेशा है। उन सभी फैसलों की समीक्षा करके शिवराजसिंह चौहान पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार को घेरने की तैयारी में लगी है। जबकि, कमलनाथ ने बतौर मुख्यमंत्री पुरानी सरकार के फैसलों की फाइलों तक को नहीं पलटा! जबकि, शिवराज सरकार पर भी व्यापम, आबकारी, परिवहन, ई-टेंडर से लगाकर स्वास्थ्य विभाग में हुए घोटालों पर उंगली उठाई गई थी। कमलनाथ पर ऐसे कई मुद्दों पर कार्रवाई का भारी दबाव था! पर, इसे कमलनाथ की कमजोरी कहें, सदाशयता या फिर नासमझी कि उन्होंने किसी की सलाह पर कान नहीं धरे! इसी का फैसला है कि आज उनके फैसलों पर उंगली उठाई जाने लगी। दरअसल, ये जल्दबाजी इसलिए की जा रही है कि इन मामलों को 24 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में मुद्दा बनाकर उछाला जाए। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कमलनाथ सरकार पर चुनाव के वचन पत्र के प्रति गंभीर नहीं रहने और उसके मुताबिक काम न करने का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ी थी! भाजपा उसी बात को सही ठहराने की कोशिश में है, ताकि चुनाव की हवा पलटी जाए, जो अभी विपरीत दिशा में जाती नजर आ रही है।      
    शिवराजसिंह चौहान सरकार ने कमलनाथ सरकार के दौरान लिए गए फैसलों की जांच कराने की घोषणा की है। इसके लिए बकायदा एक समिति 'ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स' भी बना दिया गया, जिसमें तीन मंत्री शामिल हैं। इसमें दल बदलकर मंत्री बने तुलसी सिलावट को भी जगह दी गई। सिलावट खुद पहले कमलनाथ कैबिनेट में थे और उनके पास स्वास्थ्य की जिम्मेदारी थी। कमलनाथ सरकार के तमाम फैसलों में वे भी शामिल थे। इसके अलावा समिति में गृह और स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा और कृषि मंत्री कमल पटेल को जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ये समिति कमलनाथ सरकार के फैसलों की समीक्षा करके राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट देगी! वे 22 बागी विधायक भी कांग्रेस सरकार के फैसलों में सहभागी थे, जो अब भाजपा में है। समिति इस बात की भी जांच करेगी कि सरकार के फैसलों की आड़ में कितनी गड़बड़ी हुई है! ऐसे गड़बड़ी वाले मामलों में तथ्य मिलने पर संबंधित के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज की जा सकती है! ये समिति जनविरोधी (कथित) फैसलों की भी समीक्षा करेगी और जरूरी समझेगी तो पुरानी सरकार के फैसलों को रद्द या बदल सकती है।
   बताया जाता है कि सांसद विवेक तनखा ने कमलनाथ को कई बार सलाह दी थी, कि जिस 'व्यापम' मुद्दे पर कांग्रेस को जनता का समर्थन मिला है, उसकी जाँच के लिए 'एसआईटी' गठित की जाए। जो भी दोषी पाया जाए, उस पर कार्रवाई हो! लेकिन, कमलनाथ इतने व्यस्त थे कि उन्हें ऐसे मामलों पर ध्यान देने की रूचि ही नहीं थी। वे चाहते तो शिवराज सरकार के 13 साल कार्यकाल की फाइलें खुलवा सकते थे! लेकिन, वे खामोश रहे! इसे लेकर कांग्रेस में भी असंतोष है कि आखिर कमलनाथ ने ऐसी कोई कार्रवाई क्यों नहीं की! उसी का नतीजा है कि आज उन्हें ही कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। कांग्रेस के कई नेताओं को आपत्ति है कि कमलनाथ ने सियासी फैसले लेने में रूचि क्यों नहीं ली! वे प्रदेश के ऐसे किस विकास में वे व्यस्त हो गए थे कि उन्हें अपने नीचे से खिसकती जमीन तक नजर नहीं आई! वे पूर्ण बहुमत की सरकार मुखिया तो थे नहीं, जो सरकार चलाने में निश्चिंत रहे! न तो उन्होंने सरकार को सहयोग देने वालों को साधने की कोशिश की और न विपक्ष को घेरने की! 
    राजनीति के नजरिए से ये बात आसानी से गले नहीं उतरती कि सरकार से जुड़े 108 पद ख़ाली रह गए, जिसपर वे अपने कार्यकर्ताओं और सहयोगी विधायकों को उपकृत कर सकते थे, पर नहीं किया! हश्र ये हुआ कि एक झटके में सरकार चली गई और सारी चाणक्य नीति धरी रह गई! शिवराज सिंह से 15 महीने तक दोस्ती निभाना और अपने सहयोगियों को नजरअंदाज करने का ही नतीजा है कि आज सरकार विपक्ष में है और अपने ही फैसलों पर घिरने की तैयारी में है। जिस दिन ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी नीति से हटकर शिवराजसिंह चौहान से मिलने घर गए थे, उसी दिन से उन्हें साधने के कदम क्यों नहीं उठाए गए! इसे सामान्य शिष्टाचार वाली मुलाकात क्यों समझा गया! जबकि, राजनीति की सामान्य समझ रखने वाला भी इस मुलाकात का मंतव्य आसानी से समझ सकता है! अब ये टिप्पणी करने में जरा भी झिझक नहीं की जा सकती कि कमलनाथ सरकार के कुछ फैसलों में दूरदृष्टि का भारी अभाव था! वरिष्ठों की अनदेखी कर पहली बार मंत्री बनने वालों को सीधे कैबिनेट का दर्जा देना, सहयोगी विधायकों को किसी भी पद पर नियुक्ति न देना और अपने सलाहकारों पर जरुरत से ज्यादा भरोसा करना उन्हें भारी पड़ गया! कुछ सहयोगी तो किसी जिम्मेदार पद पर न होते हुए भी अफसरों को सीधे निर्देश देकर काम का दबाव बनाते थे!      
   ये सब वो खामियां हैं, जो कांग्रेस सरकार पर भारी पड़ गई! शिवराज सरकार ने कोरोना से थोड़ी राहत मिलते ही कमलनाथ सरकार के कामकाज पर जाँच बैठाकर ये साबित करने की भी कोशिश की है कि कांग्रेस की 15 महीने की सरकार ने बड़ी गड़बड़ियां की! यदि आगे की संभावनाओं पर नजर डाली जाए तो इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की घेरेबंदी की जा सकती है। आश्चर्य नहीं कि एफआईआर तक दर्ज की जाए! क्योंकि, भाजपा सरकार का मकसद भी यही है कि जनता की अदालत में कांग्रेस को इतना बदनाम कर दिया जाए कि उसे फिर कभी सरकार बनाने का सपना भी नहीं आए! ये तो सच है कि कांग्रेस सरकार में भी काली भेड़ों की कमी नहीं थी! कई मंत्रियों के भाइयों, दामादों और परिवार से जुड़े लोगों ने फायदा उठाने का धंधा शुरू कर दिया था!
   कमलनाथ सरकार में 'अपना आदमीवाद' भी जमकर चला! लेकिन, कांग्रेस के लोग इस बात पर भरोसा नहीं करते कि  कमलनाथ ने खुद सरकार का मुखिया रहने का कोई फ़ायदा लिया होगा! लेकिन, प्रदेश की राजनीति में उनकी पकड़ न होने का फ़ायदा लेने वालों की कमी नहीं रही! पर, क्या वे फैसले 'गड़बड़ी' या 'भ्रष्टाचार' की श्रेणी में आते हैं, अब इसका निर्णय तो शिवराज सरकार की जाँच समिति ही करेगी! इसे प्रदेश में बदले की राजनीति  अध्याय कहा जा सकता है! आगे जिस भी पार्टी की सरकार बनेगी, वो पिछली सरकार को घेरने के हथकंडे जरूर अपनाएगी! पर, इस तरह के अध्याय की शुरुआत ठीक नहीं है! इससे गंदगी और कीचड बढ़ेगा! क्योंकि, काजल की इस कोठी से कोई उजला होकर नहीं निकला और न निकल सकता है!       
---------------------------------------------------------------------------