Friday, April 29, 2016

मध्यप्रदेश में दलित राजनीति के दलदल में फंसे दल


हेमंत पाल 
   डॉ भीमराव आंबेडकर की 125वीं जयंती पर इस बार भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों ने महू से दलितों पर दौरे डालने की कोशिश की! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान महू आए और बाबा साहेब आंबेडकर का गुणगान किया। उधर, कांग्रेस  के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव ने भी आम्बेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण की औपचारिकता निभाई! दोनों हीं पार्टियों में दलितों के प्रति प्रेम उमड़ आया! वास्तव में ये कोई दिली प्रेम नहीं, दलित वोट बैंक को भरमाने की कोशिश भर है! प्रदेश में दो साल बाद विधानसभा चुनाव होना है। इसलिए कांग्रेस और भाजपा दोनों अभी से दलित वोट बैंक को लक्ष्य बनाकर चल रहे हैं! आंबेडकर जयंती पर पिछले दो सालों से जो राजनीति हो रही है, वो इसी रणनीति का हिस्सा है। पहले कांग्रेस ने डॉ. आम्बेडकर की 125वी जयंती जोरशोर से पूरे देश मे मनाने का संकल्प लिया था। इसकी घोषणा पूर्व केंद्रीय मंत्री सुशीलकुमार शिंदे ने की! पिछली बार राहुल गांधी ने महू बड़ी सभा करके अपने इरादे जाहिर भी किए! इस बार भाजपा ने महू में पूरा माहौल अपने कब्जे में करने में कसर नहीं छोड़ी!  
   भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों ने दलित समाज तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिशों के तहत आंबेडकर जयंती को माध्यम बनाया! भाजपा को अपनी इस कोशिश के प्रति गंभीरता दिखाना इसलिए भी जरुरी है कि हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा बुरी तरह हारी है। बिहार में दलित और महादलित समुदायों को लुभाने का भाजपा का प्रयास बुरी तरह विफल हुआ! पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश और बिहार में जरूर जातियों की बेड़ियां टूटी थीं! दलितों के एक बड़े तबके ने भाजपा प्रति अपना विश्वास प्रकट किया था, लेकिन बिहार चुनाव के नतीजों ने इस भ्रम को चकनाचूर कर दिया। भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस ने आजादी के बाद 67 सालों में आंबडेकर को क्या सम्मान दिया? जबकि, इन 67 सालोंं में 57 साल कांग्रेस की सरकार रही! अपने तर्क में भाजपा पहले अटल बिहारी वाजपेयी और बाद में नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा सरकारों की और से डॉ आंबेडकर के सम्मान में उठाए गए कदमों को गिनाती है। केंद्र सरकार ने आंबडेकर की 125वीं जयंती मनाने के लिए 16 काम शुरू किए हैं। उनमें 14 अप्रैल को 'राष्ट्रीय बंधुत्व भाव समरसता दिवस' के रूप में मनाना! उन पर डाक टिकट और सिक्के जारी करना। दिल्ली के अलीपुर में 99 करोड़ रुपए की लागत से आंबडेकर स्मारक की स्थापना करना शामिल है। 
   संयोग माना जाए या कोई रणनीति, जब भी केंद्र या किसी राज्य में भाजपा सत्ता में आई दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों उत्पीड़न के मामले बढे हैं। जब भी दलितों और पिछड़ों ने अपनी आवाज उठाई, उसे दबाने की कोशिशें भी हुई! कहा जाता है कि दलित उत्पीड़न का विरोध चुनावी नारे के रूप में इस्तेमाल करने वाली भाजपा की नीतियां और नीयत हमेशा से दलित विरोधी रही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक गोलवरकर की किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स' में वर्ण-व्यवस्था की कुरीतियों की जिस तरह पैरवी की गई है, उससे भारतीय संविधान और इसके निर्माताओं का मखौल ही उड़ाया गया! भारत के संविधान की पहचान बाबा साहेब आंबेडकर से जुड़ी है, उससे यही साबित होता है कि संघ और भाजपा की विचारधारा और एजेंडे में समतामूलक समाज की अवधारणा के लिए कोई जगह नहीं है। देखा जाए तो भाजपा में सांप्रदायिकता भड़काने वाले कथित साधुओं, साध्वियों और समाज को तोड़ने के हिमायती नेताओं की काफी अहमियत है! लेकिन, दलित व पिछड़ों के लिए पूरा जीवन लगा देने वाले डॉ आंबेडकर , श्रीनारायण गुरु, ज्योतिबा फुले, पेरियार जैसे लोगों के नाम सिर्फ चुनावी नारों तक ही सीमित हैl 
  मध्यप्रदेश देश के उन चंद बड़े राज्यों में एक हैं जहाँ दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की राजनीतिक रूप से पहचान नहीं बन सकी! उत्तर प्रदेश और बिहार में पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और दलितों ने अपनी जो ताकत दिखाई, वैसा मध्यप्रदेश में नहीं हो सका! वो भी ऐसी स्थिति में जबकि प्रदेश में करीब 20% आदिवासी और करीब 15% दलित आबादी है। प्रदेश के कुछ इलाकों में पिछडा वर्ग भी चुनावी नतीजे बदलने की हैसियत रखते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है इस वर्ग में राजनीतिक जागरूकता का अभाव! प्रदेश का अधिकांश हिस्सा जागीरदारों के चंगुल में रहा है। प्रदेश के गठन से पहले उसके ज़्यादातर हिस्से राजे-रजवाड़ों के अधीन रहे हैं। रजवाड़ों ने कभी भी इस वर्ग में राजनीतिक जागरूकता को उभरने का मौका नहीं दिया और दबाकर रखा है। 
  ये भी एक प्रमुख कारण है कि मध्यप्रदेश में दलितों, आदिवासियों, और पिछड़े वर्ग के सशक्त राजनीतिक आंदोलनों की कमी रही! नतीजा ये हुआ कि इस वर्ग से कभी कोई नेतृत्व उभरकर सामने नहीं आया! कुछ हद तक भौगोलिक स्थितियों को भी इसके लिए ज़िम्मेदार माना जा सकता हैं। क्योंकि, आदिवासी इलाका बिखरा हुआ है, इस वजह से कोई सशक्त नेतृत्व पनप नहीं पाया! हालांकि, कांग्रेस में शिवभानुसिंह सोलंकी, जमुना देवी, अरविंद नेताम, उर्मिला सिंह और कांतिलाल भूरिया बड़े पदों पर रहे हैं! पिछडा वर्ग के अरुण यादव अभी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं। जबकि, भाजपा में दिलीप सिंह भूरिया, फग्गन सिंह कुलस्ते जैसे आदिवासी नेता सामने आए हैं। लेकिन, कोई भी नेतृत्व के शिखर तक नहीं पहुंचा!
 1990 के दशक में हिंदी भाषी इलाकों में दलित और पिछड़े वर्ग के असंतोष को दबाने के लिए कांग्रेस ने आदिवासियों और दलितों के लिए विशेष पैकेजों की घोषणा की थी! इसके बाद दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश में 'दलित एजेंडा' जैसा क़दम उठाया! दरअसल, कांग्रेस ने ये कोशिश दलितों और आदिवासियों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए थी! लेकिन, राजनीतिक स्तर पर उन्हें सशक्त करने के लिए ऐसा कुछ नहीं किया! भाजपा को भी बिहार की हार और उत्तर प्रदेश में चुनाव की निकटता के कारण दलितों के प्रति गंभीरता दर्शाने जरुरत पड़ी! दोनों प्रमुख दल इन वर्गों के प्रति अपनी जवाबदेही इसलिए भी नहीं समझते कि मध्यप्रदेश में आदिवासियों और दलितों में कोई तालमेल नहीं हैं। इससे यहां कोई संयुक्त आंदोलन उभरकर सामने नहीं आ पाया! 
  मध्य प्रदेश में एक बड़ा हिस्सा पिछड़ी जातियों का भी है। लेकिन, इस वर्ग ने कभी एक झंडे के नीचे अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने की कभी कोई कोशिश नहीं की! कांग्रेस के सुभाष यादव, भाजपा के शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती इसी पिछड़े वर्ग की देन हैं! लेकिन, इनके उभरने के पीछे सबसे बड़ा इनका राजनीतिक कौशल है, न कि पिछड़े वर्ग की मदद! यहाँ आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों की अच्छी खासी संख्या होने के बाद भी राजनीति पर लम्बे समय तक सवर्णों का कब्ज़ा रहा है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने आदिवासियों और पिछड़ों को पहचान देने के लिए साझेदार तो बनाया, पर सिर्फ वोट बैंक को बेलैंस करने के लिए! 
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Sunday, April 24, 2016

समाज के साथ हमेशा खड़ी रही फ़िल्में

* हेमंत पाल 

   फिल्मों का समाज के प्रति क्या दायित्व है? इस मुद्दे पर अकसर बहस होती रहती है और फिल्मों को कटघरे में खड़ा करने कोशिश होती है! लेकिन, ये भुला दिया जाता है कि आजादी के पहले से फ़िल्मकार अपने दायित्व को लेकर सजग हैं! तब लोगों में आजादी के प्रति जागरूकता फैलाने जैसा काम करना जुर्म था, इसलिए धार्मिक, पौराणिक और सामाजिक कहानियों के जरिए फिल्मकारों ने अपना कर्त्तव्य निभाया! याद किया जाए तो आजादी के पहले वाले मूक सिनेमा के उस दौर में सामाजिक समस्याओं पर कई फिल्में बनाई गईं! छुआछूत की समस्या, विधवा विवाह, बेमेल विवाह, बाल विवाह, वेश्यावृत्ति जैसे जीवंत मुद्दों पर फिल्में बनाई गईं। फिल्मों की कहानियों में गाँव, किसान, मजदूर और बेरोजगारों के जीवन की समस्याओं को भी फिल्मों का विषय बनाया। इन सभी फिल्मों के कथानकों में एक संदेश भी था!   

  यही वो वक़्त था जब अच्छे साहित्य की कई कथाओं पर फ़िल्में बनाई गईं! रवींद्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय और प्रेमचंद जैसे लेखकों की कहानियों पर फिल्मों का निर्माण किया गया। इस माध्यम में रचनात्मक संभावना और समाज में व्यापक पहुँच की क्षमता ने लेखकों को इस और आकर्षित किया! ये दृश्य माध्यम था इसलिए उन लोगों की समझ के दायरे में भी था जो पढऩा-लिखना नहीं जानते थे। लेकिन, इस माध्यम की सबसे बड़ी कठिनाई यह थी, कि इसका निर्माण साहित्य लेखन और प्रकाशन की तुलना में महंगा था। नाटकों की तुलना में भी यह बहुत महंगा था। उसका प्रबंध करना भी उस दौर में आसान नहीं था। ऐसी स्थिति में यह भी जरूरी था कि फिल्मकार मनोरंजक फिल्म के जरिए ही उन संदेशों को व्यक्त करें जिन्हें साहित्य अपने ढंग से अभिव्यक्त कर रहा था! 1938  प्रेमचंद के उपन्यास पर तमिल में 'सेवासदन' नाम से फिल्म बनी! हिंदी के अलावा उर्दू के भी कई लेखक फिल्मों से जुड़े। 1945 में तमिल में बनी फिल्म 'मीरा' को हिंदी में भी बनाया गया! कई ऐसे फिल्मकार भी सामने आए जिन्होंने सामाजिक समस्याओं पर फिल्म बनाना ही अपना लक्ष्य बनाया। 1930 के दशक में फिल्म निर्माण में आए इस बदलाव ने कई गंभीर लेखकों को फ़िल्मी कहानियाँ लिखने को प्रेरित किया। 
  आजादी के समय जो फिल्मकार सक्रिय थे, उन्होंने अपने तरीके से उस समय सच्चाई को अपनी फिल्मों का विषय बनाया! बल्कि, उनकी फिल्मों में देश के उस भविष्य की चिंता भी दिखाई देती थी! क्योंकि, वे अपनी फिल्मों को देश के नवनिर्माण में हिस्सेदार बनाना चाहते थे, जो भारतीय संविधान में निहित आदर्शों और मूल्यों पर टिका था! इसका स्वरूप आजादी की लड़ाई के दौरान बना था। फिल्मकारों को देश के निर्माताओं ने कोई क्रांतिकारी एजेंडा नहीं सौंपा था! लेकिन, फिल्मकारों को महसूस हो रहा था कि समतावादी भारत के बनने में भी कई मुश्किलें हैं जिनको दूर करना जरूरी है। औरतों की आजादी, सामाजिक समानता, गरीबी, दलित उत्पीडऩ जैसे समस्याओं के अलावा जमाखोरी, मुनाफाखोरी और लालच के लिए लिप्त रहने वालों से भी समाज को सचेत किया जा सकता है। धार्मिक और सांप्रदायिक वैमनस्य भी इसी तरह की समस्याएं थी, जिनपर फिल्मों का निर्माण हुआ! सिनेमा ने आजादी के बाद के दो दशकों तक इस तरह के कई मुद्दों को अपने अंदाज में उठाया! किसी एक समस्या को फ़िल्मी कथानक में रखते हुए दूसरे मसलों को भी मूल कथा से इस तरह जोड़ देते हैं कि दर्शकों को उससे जोड़ा जा सके! कुछ फिल्मों ने तो रूढ़ी का रूप ले लिया था। जैसे हिंदू और मुस्लिम (या कोई अन्य अल्पसंख्यक) की दोस्ती की कहानी! फिल्म की कथा कोई भी हो, सांप्रदायिक सद्भाव को उसमें जरूर शामिल किया जाता था। क्योंकि, बंटवारे की पीड़ा उस दौर के हर व्यक्ति ने झेली थी! इसलिए ये कहकर फिल्मों को ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि फिल्मकारों ने सिर्फ मनोरंजन की खातिर फिल्मों का निर्माण किया या करते रहे हैं। 
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Friday, April 22, 2016

सुहास से बहुत 'आस' है, मेनन के सताए भाजपाईयों को!


  मध्यप्रदेश की भाजपा राजनीति में पिछले कुछ सालों में प्रदेश संगठन मंत्री अरविंद मेनन का जाना और सुहास भगत का आना सम्भवतः सबसे बड़ा उलटफेर कहा जा सकता है। मेनन के कामकाज से असंतुष्ट और उपेक्षित नेताओं ने अब सुहास भगत से उम्मीदें लगा ली है! उन्हें लग रहा है कि मेनन के कार्यकाल में उन्होंने जो उपेक्षा झेली है, नए प्रदेश संगठन मंत्री से वे पूरी हो जाएंगी! सुहास भगत इन उपेक्षित नेताओं की आशाओं पर कितना खरे उतरते हैं, ये तो वक़्त ही बताएगा! दरअसल, अरविंद मेनन को 'संघ' में मध्यप्रदेश में सत्ता और संग़ठन के बीच अम्पायर बनाकर भेजा था, पर वे खुद ही खेलने लगे! बदले हालातों में कुछ दिनों तक प्रदेश में भाजपा की राजनीति में ख़बरों का कढ़ाव उबलता रहेगा ये तय है!
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हेमंत पाल 
 
   भारतीय जनता पार्टी में प्रदेश संग़ठन मंत्री का पद महत्वपूर्ण माना जाता है! इस पद पर काबिज नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी 'संघ' की तरफ से भाजपा में भेजा जाता है, जो निरपेक्ष भाव से प्रदेश की सरकार और संगठन में समन्वय का काम करता है। इस पद की भूमिका अम्पायर जैसी होती है! ये बेहद जिम्मेदारी वाला काम होता, इसलिए 'संघ' अपने अनुशासित और तपे हुए प्रचारकों को इस काम में लगाता है। जहाँ तक मध्यप्रदेश की बात है तो इस पद पर कुशाभाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल, कप्तान सिंह सोलंकी और माखन सिंह जैसे लोग रहे हैं! इनके फैसलों और कामकाज के तरीकों पर कभी किसी ने ऊँगली उठाने का साहस नहीं किया! लेकिन, ये पहली बार हुआ कि किसी संग़ठन मंत्री (यानी अरविंद मेनन) के फैसलों को शंका की नजर से देखा गया! उनकी उपलब्धियों को किनारे करके 'संघ' ने सरकार और संगठन के कुछ फैसलों पर आपत्ति भी उठाई। शिकायत यह रही कि फैसलों के समय 'संघ' को विश्वास में नहीं लिया गया। इसके अलावा जिन फैसलों पर ऊँगली उठाई गई उनमें प्रशासनिक फेरबदल, जिला अध्यक्षों और निगम मंडलों में नियुक्तियों समेत कुछ मामले थे। सीधी सी बात ये है कि 'संघ' ने जिसे जिसे अम्पायर बनाकर भेजा गया था, वो खुद ही खेल में शामिल हो गया!  
भाजपा में इससे पहले भी संग़ठन मंत्री बदले गए, पर ये कभी बड़ा राजनीतिक मुद्दा नहीं बना! पहली बार देखा गया कि किसी संग़ठन मंत्री को बदले जाने पर ख़बरों का बाजार इतना गर्म रहा और इसे राजनीतिक बदलाव की तरह देखा गया! बात यहीं तक सीमित नहीं रही! आडंबर और दिखावे से दूर रहने वाले 'संघ' ने भी सुहास भगत की लॉंचिंग में कोई कसर नहीं छोड़ी! 'संघ' के बड़े पदाधिकारियों की मौजूदगी में पद ग्रहण समारोह हुआ! राष्ट्रीय संग़ठन महामंत्री रामलाल, प्रदेश संगठन प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे और सुंदरलाल पटवा, कैलाश जोशी, विक्रम वर्मा समेत कई बड़े नेता इस मौके पर मौजूद थे! ये संकेत इस बात को समझने के लिए काफी है कि अरविंद मेनन को हटाए जाने को 'संघ' भी संदेश की तरह प्रचारित करना चाहता है! 'संघ' इस दंभ को भी चूर करना चाहता है कि कोई अपने आपको 'संघ' से ऊपर न समझे! पद से हटाए जाने के बाद अब मेनन को सभी संभागों में सुहास भगत के साथ दौरे करना होंगे! देखने में यह सामान्य प्रक्रिया है, पर 'संघ' उन्हें ये अहसास भी कराना चाहता कि ताकत सिर्फ पद की होती है, व्यक्ति हमेशा ही गौण होता है!
  फिलहाल भाजपा में सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि 'संघ' का अरविंद मेनन पर से अचानक विश्वास क्यों उठा और सुहास भगत में ऐसी क्या खूबी नजर आई? दरअसल, प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में अभी देर है! लेकिन, 'संघ' को मिली जानकारी के मुताबिक पार्टी के अंदर जबरदस्त असंतोष पनप रहा है। साथ ही लोगों का भी भरोसा टूट रहा है! यानी खतरा दोनों तरफ से है! फिर भी अभी देर नहीं हुई! बिगड़े हालात संभाले जा सकते हैं, शायद यही सोचकर ये फैसला किया गया! 'संघ' के मध्यभारत प्रांत प्रचारक सुहास भगत उन सारी आशाओं पर खरे उतरते हैं, जिनकी पार्टी को जरुरत है। मेनन को यदि चुनाव मैनेजमेंट का जादूगर माना गया तो सुहास को भी बेहतरीन संगठक कहा जाता है। राम मंदिर आंदोलन के दौरान 'संघ' से जुड़ने के बाद वे पूर्णकालिक प्रचारक बन गए! कहा जाता है कि वे लक्ष्य के प्रति बेहद गंभीर हैं। जो करना चाहते है, उसके लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करते हैं। वे पढ़ने की आदत वाले साधारण व्यक्ति हैं! अपनी योग्यता, मेहनत और लक्ष्य के प्रति समर्पण के दम पर ही वे ऊंचाई तक पहुंचे हैं। सुहास भगत की खासियत है कि वे जमीन से जुड़े हैं। उनके कार्यकाल में मध्य भारत इलाके में संघ की शाखाओं का तेजी से विस्तार हुआ! भगत की मेहनत से 'संघ' के अनुषांगिक संगठनों ने भी काफी उन्नति की! ग्रामीण इलाकों में संघ की विचारधारा फलीफूली, कॉलेज छात्रों के लिए 'संघ शिक्षा वर्ग' चला तथा कुटुम्ब प्रबंधन जैसे काम हुए। सुहास प्रदेशभर के संघ कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं। कार्यकर्ताओं से लगातार संपर्क और सहज संवाद उनकी परिचित शैली है।
अमूमन जल्दी फैसले लेने वाले 'संघ' ने अरविंद मेनन मामले में देरी जरूर की! लेकिन, जब फैसले की घडी आई तो उनके कामकाज को लेकर 'संघ' पदाधिकारियों के तेवर काफी तीखे रहे! जिला अध्यक्ष पदों और निगम-मंडलों में की गई नियुक्तियों में कुछ नामों को लेकर 'संघ' ने कड़ा एतराज भी उठाया! एतराज दो तरह से था! एक, इन नियुक्तियों के लिए उसे विश्वास में नहीं लिया गया! दूसरा, ऐसे कई लोग पद पाने से वंचित रहे, जिनका पार्टी में जमीनी योगदान नहीं है। इन सभी पदों पर 'अपना आदमीवाद' हावी रहा! 'संघ' ने प्रशासनिक ढीलेपन पर भी अपनी नाराजी बताई! रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव और नगर निकाय चुनाव में भाजपा को मिली नाकामी पर भी सवाल उठाए गए! इन नाकामियों को सरकार की कार्य शैली के नजरिए से देखा गया और कहा गया कि इससे पार्टी कार्यकर्ताओं में निराशा उपजी है। मंत्रियों की कार्य शैली पर टिप्पणी करते हुए कहा गया कि उन्हें कार्यकर्ताओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए!
  नए संग़ठन मंत्री सुहास भगत को जिम्मेदारी सौंपने के बाद अब चर्चाएं गर्म है कि संगठन में कैसा, कहाँ और क्या बदलाव होना है! यदि सभी ख़बरों को जोड़ लिया जाए तो ऐसा लग रहा है जैसे सत्ता और संग़ठन में बहुत कुछ बदल जाएगा! जबकि, वास्तव में ऐसा कुछ होना नहीं है! लेकिन, माना जा रहा है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा की प्रदेश इकाई में ऊपर से जिला स्तर तक असर आएगा! महिला मोर्चा में भी व्यापक फेरबदल होना तय है। प्रदेश की नई कार्यकारिणी का गठन भी अहम मुद्दा है। ये तय है कि नई कार्यकारिणी में तीन चौथाई नए चेहरे शामिल किए जाएंगे! दो प्रदेश उपाध्यक्ष और एक महामंत्री हटाए जा सकते हैं। दो नए चेहरे प्रदेश महामंत्री पद पर आएंगे। इसके अलावा प्रदेश मंत्री भी बदले जाएंगे। संकेतों को समझा जाए तो आधा दर्जन जिलों के अध्यक्षों को भी बदला जा सकता है। वे जिला अध्यक्ष भी हटाए जा सकते हैं, जो शिकायतों के कारण संगठन मंत्री पद से हटाए गए थे और बाद में जुगाड़ से जिलों के अध्यक्ष बन गए थे। पिछले दिनों सामने आई कुछ शिकायतों के बाद एक बड़ा बदलाव ये हो सकता है कि ऐसे संगठन मंत्रियों को हटाया जाएगा जो विवाहित हैं! अब संभागीय संगठन मंत्रियों की कमान भी 'संघ' प्रचारकों के जिम्मे दे जा सकती है। विवाहितों को इस महत्वपूर्ण पद से दूर रखा जा सकता है! क्योंकि, इस कारण पार्टी का अनुशासन गड़बड़ा रहा है! जिलों में संगठन मंत्री रखने का प्रयोग फेल हो जाने के बाद संभव है संभागों में पूर्णकालिक संगठन मंत्री रखे जाएंगें! 
  मेनन के बाद अब शायद मध्यप्रदेश भाजपा के संग़ठन और सत्ता में पसरी बेचैनी दूर होगी! क्योंकि, चाल, चरित्र और चेहरे से शुचिता का दावा करने वाली मर्यादित पार्टी पर इवेंट मैनेजमेंट, राजनीतिक तोड़फोड़ और साजिशों वाली राजनीति हावी होने लगी थी! अनुशासित 'संघ' ने जिन चेहरों को तराशा था, उनमें खुद के स्वयंभू होने का दंभ हो चला था। अरविंद मेनन को पद से जिस तरह हटाया गया, वो 'संघ' के कड़े फैसलों की शुरुआत का पहला कदम माना जा रहा है। बदलाव की बयार इस बिदाई से शुरू हो चुकी है। बाद में क्या होता ये तो भविष्य बताएगा, फिलहाल तो भाजपा के नए संगठन मंत्री सुहास भगत उम्मीदों के उत्तुंग शिखर पर विराजित हैं। उनके फैसले ही प्रदेश भाजपा की भावी दिशा और दशा तय करेंगे! 
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Thursday, April 21, 2016

केंद्र के लिए नजीर है, अदालत की ये टिप्पणी!

मामला उत्तराखंड का 

  नैनीताल हाईकोर्ट ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने पर वही फैसला किया, जिसकी उम्मीद थी! कोर्ट के मुताबिक राज्यपाल की रिपोर्ट में भी राज्य में संवैधानिक संकट का जिक्र नहीं था। खंडपीठ ने केंद्र से कहा कि वो 'कोर्ट के साथ खेल रहे हैं। हमें गुस्से से ज़्यादा इस बात का दर्द है कि क्या सरकार कोई प्राइवेट पार्टी है? कल अगर आप राष्ट्रपति शासन हटा देते हैं और किसी को सरकार बनाने के लिए बुला लेते हैं तो ये न्याय के साथ मजाक होगा!' हाईकोर्ट के ये तल्ख़ टिप्पणी शायद भविष्य में होने वाले ऐसे फैसलों में नजीर  है।  

हेमंत पाल 

  आजादी के बाद 68 सालों में अलग-अलग राज्यों में केंद्र सरकार द्वारा सौ से ज्यादा बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया है। संविधान की धारा 356 के अंतर्गत यह निश्चित होने पर कि राज्य में संविधान के मुताबिक शासन नहीं चल रहा है और आगे भी नहीं चल सकता! राज्य पर राष्ट्रपति शासन थोप दिया जाता है। जब भी किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है, विपक्ष केंद्र सरकार के निर्णय पर तोहमत लगाता है। ये भी सच है कि जब कोई केंद्र सरकार किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करता है, विपक्ष ने इसे 'संविधान की हत्या' निरुपित करता है। लेकिन, जब वही विपक्षी पार्टी सत्ता में होती हैं, उसे ये 'संविधान की हत्या' लगती!  
   आज से पहले भी ऐसे उदाहरण हैं, जब न्यायालय ने केंद्र के ऐसे फैसलों को बदल दिया! उत्तराखंड में कांग्रेस की हरीश रावत सरकार काबिज थी! लेकिन, कांग्रेस के 9 विधायकों के दलबदल के एलान से सरकार असंतुलित हो गई! कांग्रेस फिर भी बहुमत का दावा करती रही और विपक्ष में बैठी भाजपा का दावा रहा कि राज्य में सरकार अपना बहुमत खो चुकी है! तथ्य अपनी जगह है! पर भाजपा की राजनीति सभी को दिख रही थी। संविधान के मुताबिक ये फैसला सदन में होना था! परंपरा भी यही है। लेकिन, इसके पहले राज्यपाल की रिपोर्ट पर केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति से सिफारिश राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी! इसके बाद कुछ नहीं बचता! राष्ट्रपति शासन लागू हो भी गया! फिर भी ये सवाल जिन्दा रहा कि क्या मुख्यमंत्री हरीश रावत को सदन में अपना बहुमत सिद्ध साबित करने का मौका नहीं दिया जाना था? 
     इस घटना को एक पुराने वाकये के संदर्भ में भी याद किया जा सकता है! 1989 में कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था! तब तत्कालीन मुख्यमंत्री एस.आर.बोम्मई ने राज्यपाल से आग्रह किया था कि उन्हें विधानसभा में बहुमत साबित करने का मौका दिया जाए! लेकिन, उनकी बात को अनसुनी कर सरकार को गिरा दिया गया! मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा! नौ जजों की बैंच ने पूरे मामले को समझा और फैसला दिया कि किसी सरकार के बहुमत के दावे को सिर्फ सदन में ही साबित किया जा सकता है। ये भी कहा कि संविधान की धारा 356 का उपयोग 'किफायत' से किया जाना चाहिए। इस फैसले का असर ये हुआ कि बाद में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने का फैसला सोच समझकर किया जाने लगा! क्योंकि, ऐसे मामलों में सिर्फ संविधान की धारा के मुताबिक काम करना ही जरुरी नहीं है! लाख टके का सवाल सांविधानिक प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने का भी है।
   केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर बने सरकारिया आयोग ने भी 1988 में तत्कालीन मामलों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि धारा 356 के उपयोग के 75 मामलों में से सिर्फ 26 में ही 'सही' फैसला किया गया! अर्थात 49 मामलों में केंद्र ने राज्यों पर राष्ट्रपति शासन थोपने के लिए अपने अधिकारों से आगे जाकर निर्णय लिए! देखा जाए तो आयोग की इस टिप्पणी में बहुत कुछ समाहित है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने का सीधा सा मतलब है कि जनता द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार को जबरन हटा दिया जाना! वास्तव में ये सांविधानिक व्यवस्था पर अति महत्वाकांक्षी राजनीति के हावी होने का उदाहरण है। राज्यों में राष्ट्रपति शासन थोपे जाने के अब तक के सारे मामले यही कहानी कहते हैं। केंद्र के हाथ में आई इस चाबुक का सही और विधि सम्मत इस्तेमाल किया जाना चाहिए! पर, वास्तव में ऐसा होता नहीं है। केंद्र में किसी की भी सरकार हो, जब भी उसे मौका मिलता है नेताओं के मानस पर राजनीति हावी हो जाती है। तथ्य बताते हैं कि केंद्र में काबिज सभी सरकारों ने इस हथियार का इस्तेमाल विपक्षी राज्य सरकारों  पर करने में कभी देरी नहीं की! इमर्जेन्सी के बाद बनी जनता पार्टी सरकार ने भी दो साल में दर्जनभर राज्य सरकारों गिराने का मौका खोया! यहाँ तक कि भारतीय इतिहास की सबसे कमजोर बहुमत वाली सरकार कही जाने वाली चंद्रशेखर-सरकार ने भी सात महीने में चार राज्य सरकारों को नेस्तनाबूद कर दिया था। 
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Sunday, April 17, 2016

फ़िल्मी विरोध या राजनीति चमकाने की चाह!

- हेमंत पाल 


  शाहरुख खान ने पिछले साल 2 नवंबर को अपने 50वें बर्थडे पर एक चैनल से कहा था कि देश में इन्टाॅलरेंस (असहिष्णुता) बढ़ रहा है। अगर मुझे कहा जाता है, तो प्रतीक स्वरूप मैं भी अवाॅर्ड लौटा सकता हूँ। देश में तेजी से कट्टरता बढ़ी है। 'दिलवाले' की रिलीज होने से पहले शाहरुख ने अपने बयान पर माफी भी मांग ली! लेकिन, तब तक उनके खिलाफ माहौल बन चुका था! 'दिलवाले' का हिंदूवादी संगठनों ने विरोध किया था! संयोग से फिल्म उम्मीद के मुताबिक बिजनेस नहीं कर सकी, तो विरोध करने वालों ने इसे अपनी सफलता समझ लिया! अब इन्हीं हिंदूवादियों ने शाहरुख़ की दो नई फिल्मों 'फैंस' और 'रईस' के खिलाफ भी कमर कस ली! 'दिलवाले' के साथ ही परदे पर उतरी ‘बाजीराव मस्तानी’ का भी विरोध किया गया! कारण बताया गया कि इस फिल्म में संजय लीला भंसाली ने ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की है। 'दिलवाले' तो कमजोर पड़ी, पर 'बाजीराव मस्तानी' सफल रही! 

   ये पहली बार नहीं हुआ, जब किसी अभिनेता को इस तरह निशाने पर लिया गया हो! पहले भी कई अभिनेता अलग-अलग कारणों से अपने चाहने वालों के गुस्से का शिकार बने हैं! लेकिन, हमेशा ही विरोध का कारण पूरी तरह राजनीति से प्रेरित रहा! 1993 में जब संजय दत्त पर मुंबई बमकांड का आरोप लगा तो लोगों का गुस्सा देशभर में रिलीज उनकी फिल्म 'खलनायक' के पोस्टरों पर उतरा! अंततः फिल्म को थिएटर से उतार दिया गया! ऐसे ही आमिर खान ने जब नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ाने और गुजरात दंगों वाले अपने बयानों को वापस लेने से मना किया, तो उनकी फिल्म 'फ़ना' का विरोध हुआ था! गुजरात के आमिर का विरोध तो 'लगान' की शूटिंग के वक़्त भी हुआ था, जब वन विभाग ने नियमों का हवाला देकर चिंकारा को फिल्माने से मना कर दिया था! इस अभिनेता को तो उनकी फिल्म 'पीके' की वजह से भी कटघरे में खड़ा किया गया! कहा गया कि उन्होंने फिल्म में हिन्दू धर्म को ढोंग बताने की कोशिश की है। इसलिए कि फिल्म  कथानक में एक ढोंगी बाबा का पर्दाफाश किया गया था! इसी तरह का विरोध अक्षय कुमार और परेश रावल की फिल्म 'ओह माय गॉड' के समय भी हुआ था, जिसमें परेश रावल में भूकम्प में गिरी अपनी दुकान का मुआवजा भगवान से मांगते हुए, अदालत का दरवाजा खटखटाया था! अब ये बात अलग है कि परेश आज भाजपा के सांसद हैं!     

  जयपुर साहित्य सम्मेलन के दौरान निर्माता, निर्देशक करण जौहर को भी उनके एक बयान की वजह से नाराजी झेलना पड़ी थी! उन्होंने इस सम्मेलन में कहा था कि देश में अपने मन की बात कहना और अपने निजी जीवन के रहस्य के विषय में बात करना बहुत कठिन है। देश में ‘अभिव्यक्ति स्वतंत्रता’ और ‘लोकतंत्र’ ये दो विषय बडे उपहास अर्थात मजाक बन गए हैं।’ दरअसल, उनकी इस बात को शाहरुख़ के असहिष्णुता वाले बयान से जोड़कर समझा गया! लेकिन, करण जौहर के खिलाफ हवा नहीं बन सकी! देखा जाए तो इन कलाकारों के विरोध के मुद्दों का सवाल है तो उनका कोई मापदंड नहीं है। यहाँ तक कि विरोध करने वाले कार्यकर्ता भी नहीं जानते कि वे जिस फिल्म के पोस्टर फाड़ने जा रहे हैं, उसका कारण क्या है? ये उकसाने वाली प्रवृत्ति का ही नतीजा होता है, कि लोग फ़िल्मी कलाकारों के खिलाफ हाथ पत्थर उठाने में देर नहीं करते! पिछले दिनों बिहार में नौवीं कक्षा की एक किताब में 'बिहार के सिनेमा संसार' अध्याय में  भोजपुरी हीरो मनोज तिवारी की जीवनी पर उंगली उठाई गई! कहा गया कि  मनोज तिवारी की लोकप्रियता द्विअर्थी गीतों को लेकर अधिक है। इसलिए मनोज तिवारी के जीवन से छात्रों को क्या प्रेरणा मिलेगी? इस किताब में मनोज वाजपेयी, शेखर सुमन, शत्रुघ्न सिन्हा व निर्देशक प्रकाश झा के बारे में भी जानकारी दी गई है। वास्तव में विरोध का कारण मनोज तिवारी का भाजपा सांसद होना था।  

 कई बार नेता अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण कलाकारों खिलाफ मैदान में उतरते हैं। शिवसेना ने तो पाकिस्तानी कलाकारों और गायकों के खिलाफ ही आवाज बुलंद कर दी! उन्होंने पाकिस्तानी अभिनेता फवाद खान और माहिरा खान को भी निशाना बनाने की कोशिश की है। पाकिस्तानी ग़ज़ल गायक गुलाम अली के मुंबई में होने वाले कार्यक्रम को रुकवाकर शिवसेना ने अपने इरादे भी प्रकट कर दिए! शिवसेना के इस कदम का विरोध भी किया गया, पर इन आवाजों में दम नहीं था! हाल ही में एक फिल्म 'अलीगढ़' भी सरफिरे विरोधियों शिकार होने बची है! अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर की जिंदगी पर आधारित फ़िल्म 'अलीगढ़' के खिलाफ विरोध करने का प्रयास किया गया था। उस प्रोफेसर को समलैंगिकता के आधार पर यूनिवर्सिटी से सस्पेंड कर दिया गया था! कुछ समय बाद घर पर उनकी लाश पाई गई थी! प्रोफ़ेसर किरदार निभाने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी ने फिल्म की रिलीज से पहले अपील भी की थी कि कोई भी कार्रवाई फिल्म देखने के बाद की जाए तो बेहतर होगा! क्योंकि, वहां के छात्रों और लोगों को इस फिल्म पर गर्व होगा! वही हुआ भी! मुद्दा यही है कि फिल्म, फिल्मकार और अभिनेताओं के विरोध का कोई ठोस आधार नहीं होता! इस बहाने अपनी राजनीति को चमकाने वाले जरूर कुछ दिन ख़बरों में जिन्दा हो जाते हैं।  

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Friday, April 15, 2016

कहाँ से कैसा मोड़ लेगी, मेनन के बाद मध्यप्रदेश की भाजपा राजनीति

   भाजपा के प्रदेश संगठन मंत्री अरविंद मेनन को मध्यप्रदेश की राजनीति से अचानक हटा दिया जाना चौंकाने वाली घटना है! लेकिन, अप्रत्याशित नहीं! वे जिस तरह सत्ता और संगठन के केंद्र में सर्वशक्तिमान ताकत बनकर उभर आए थे, ये होना तय था! मेनन को मध्यप्रदेश से बाहर भेजे जाने के कयास कई दिनों से लगाए जा रहे थे। एक बार तो उन्हें उत्तरप्रदेश की बागडोर सौंपे जाने की ख़बरें भी सुनाई दी! लेकिन, उन्हें पार्टी के दिल्ली मुख्यालय तक समेट दिया जाएगा, ये अंदाजा नहीं था! मेनन को जिस पद पर दिल्ली भेजा गया है, वो नाम का बड़ा पद है, काम का नहीं। उनके तबादले को प्रमोशन भले कहा जा रहा हो, पर वास्तव में ये संगठन से मिली सजा है! मेनन ने प्रदेश में जिस तरह कि राजनीति को पोषित किया, वो कई बड़े नेताओं की आँखों में खटक रहा था! उनको प्रदेश से हटाए जाने की खबर बाहर आने के बाद भाजपा के कई बड़े नेता अंदर ही अंदर खुश हुए! ये इस बात का संकेत है कि अरविंद मेनन के प्रति भाजपा के एक बड़े दायरे में कितनी नाराजी थी!     
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हेमंत पाल 
  बरसों बाद मध्यप्रदेश की भाजपा राजनीति की ये संभवतः सबसे बड़ी घटना रही कि प्रदेश संगठन मंत्री अरविंद मेनन की रवानगी हो गई! उन्हें क्यों हटाया गया? किसके दबाव में हटाया गया? उनको हटाए जाने के बाद प्रदेश की राजनीति में किस तरह का बदलाव आएगा? मेनन जिन लोगों के तारणहार बने थे, अब उनका क्या होगा? ऐसे कई सवाल हवा में हैं, जिनके जवाब तलाशे जा रहे हैं! लेकिन, छनकर जो ख़बरें बाहर आई हैं उससे लगता है कि कहीं न कहीं इस बदलाव में भाजपा के प्रदेश प्रभारी विनय सहस्रबुद्धे की भूमिका रही है। अरविंद मेनन से उनका खामोश युद्ध लम्बे समय से चल रहा था! यही कारण है कि मेनन के तबादले को कहीं न कहीं सहस्रबुद्धे से जोड़कर देखा जा रहा है। उन्होंने कहीं संकेत भी दिए थे कि उन्हें कमजोर समझने की गलती न की जाए! सहस्रबुद्धे ने पहले मेनन की कार्यप्रणाली और उनसे जुड़े विवादों पड़ताल भी की। फिर इस विरोध को सही जगह तक पहुंचाया! क्योंकि, मेनन का विरोध पिछले दो-तीन सालों से हो रहा था, मगर विरोध की ये आवाज सही जगह तक नहीं पहुंच रही थी, यही काम सहस्त्रबुद्धे ने किया!  
  मेनन के दिल्ली गमन के जाने के बाद मध्यप्रदेश की राजनीति में बदलाव अवश्यम्भावी माना जा रहा है। हो सकता है कि मेनन के कुछ करीबियों को हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए! अरविंद मेनन के प्रति वफादार संभागों के संगठन मंत्रियों को बदलने की प्रक्रिया भी शुरू हो सकती है। इसलिए कि मेनन की ही तरह संभाग और जिलों के संगठन मंत्री भी अपने-अपने इलाकों में विधायकों और पार्टी अध्यक्षों और संगठन के अन्य पदाधिकारियों पर नकेल डालकर बैठे थे! मेनन पर अकसर ये आरोप लगता रहा कि उन्होंने अपने नजदीकी लोगों से पार्टी के अंदर एक समानांतर संगठन खड़ा कर लिया था! उनकी ही सुनी जाती थी और वे लोग ही मलाईदार पदों पर विराजे भी जाते रहे! इस सबसे योग्य कार्यकर्ता उपेक्षित हुए! इन नाराज लोगों ने पार्टी मुखिया अमित शाह तक सारी बातें पहुंचाई जो शायद मेनन बिदाई का कारण बनी! 
  इंदौर की ही बात की जाए तो मेनन के दम पर शैलेंद्र बरुआ सत्ता और संगठन का केंद्र बन गए! उन पर कई तरह की उंगलियां उठी, पर कोई उन्हें डिगा नहीं सका! इनकी छत्रछाया में जिला स्तर पर इसी तरह के संगठन मंत्रियों का राजनीतिक दबदबा रहा! जिलों में बैठे संग़ठन मंत्रियों का प्रभाव भी इतना ज्यादा था कि वे प्रशासन को अपनी मुट्ठी में रखने लगे थे! जिलों में होने वाले टेंडर और ठेके जिला संगठन मंत्रियों की मर्जी से ही दिए जाते थे! हर टेंडर और ठेके में इन जिला संगठन मंत्रियों की हिस्सेदारी तय होती थी! इस सबके बावजूद सब खामोश थे, क्योंकि अरविंद मेनन की टीम से उलझने की हिम्मत न तो भाजपा के पदाधिकारियों में थी न प्रशासन के अफसरों में! हो सकता है, अब इस तरह की घटनाओं की परतें उधड़कर बाहर आएं! इस टीम के कामकाज के रवैये से 'संघ' की छवि को भी आघात लगा! क्योंकि, संघ की हमेशा ही ये कोशिश रही है कि भाजपा के बड़े पदों पर ऐसे लोग काबिज हों, जिनकी छवि साफ सुथरी हो। लेकिन, अब संघ पृष्ठभूमि से भाजपा संगठन में आए पदाधिकारियों पर अकसर पैसे लेने के भी आरोप लगने लगे! 
 जहाँ तक होने वाले राजनीतिक बदलाव की बात है, तो संगठन के साथ ही मोर्चा, प्रकोष्ठों में खाली पड़े पदों पर होने वाली नियुक्तियों में वे लोग लाए जा सकते हैं, जिन्हें अब तक उपेक्षा मिलती रही! मेनन के नजदीकी माने जाने वाले विनोद गोटिया, सत्येंद्र भूषण सिंह, गोविंद आर्य, अजय प्रताप सिंह, अरविंद भदौरिया, मनोरंजन मिश्रा, अमरमणि त्रिपाठी और पुष्पेंद्र प्रताप सिंह जैसे नेताओं का वजन भी कम हो तो आश्चर्य नहीं! तपन भौमिक, विजेंद्र सिसौदिया और विनय दुबे भी हाशिए पर भेजे जा सकते हैं। भाजयुमो प्रदेश अध्यक्ष अमरदीप मौर्य, महिला मोर्चे की अध्यक्ष लता वानखेड़े और लघु उद्योग निगम के अध्यक्ष बाबूसिंह रघुवंशी के अलावा सागर के भाजपा जिला अध्यक्ष राजा दुबे समेत कुछ और जिलों के अध्यक्षों को भी मेनन का अभाव खल सकता है। इंदौर के संभागीय संगठन मंत्री शैलेन्द्र बरुआ, उज्जैन के राकेश डागोर, होशंगाबाद के जितेंद्र लटौरिया और ग्वालियर के प्रदीप जोशी भी बदले जा सकते हैं। कई मनमाने निर्णयों की वजह से भी मेनन विवाद में आए। सागर के महापौर पद के लिए अभय दरे का नाम आगे बढ़ाना! धार जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष राजीव यादव की नियुक्ति और धार जिला भाजपा अध्यक्ष डॉ राज बरफा को बैठना भी उनके मनमाने फैसलों की बानगी रही! रतलाम की महापौर डॉ सुनीता यार्दे के पति तो सरेआम नेताओं और पार्षदों को मेनन का नाम लेकर धमकाते रहे हैं! अब वे सारे लोग जो मेनन के इस तरह के मनमाने फैसलों से प्रभावित होते रहे हैं, मुखर होकर आगे आ सकते हैं।  
  भाजपा की राजनीति में अरविंद मेनन के जाने के साथ-साथ सुहास भगत के आने की भी ख़ुशी देखी गई! दबे छुपे सरकार और संगठन दोनों स्तरों पर दिल ही दिल में लोग खुश नजर आए! ये इस बात का भी संकेत है कि मेनन के प्रति सरकार और संगठन दोनों में नाराजगी का भाव था! मेनन पर पार्टी में गुटबाजी को हवा देने के अकसर आरोप लगते रहे हैं। मेनन के खेमे में उन्हीँ लोगों का सिक्का चलता था, जो उनकी टीम का हिस्सा होते थे! मेनन के कामकाज को इसलिए आपत्तिजनक माना गया, क्योंकि इसी पद पर कुशाभाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल, माखन सिंह और कप्तान सिंह सोलंकी जैसे संघ के तपे लोग रहे हैं! इस पद की गरिमा मेनन के कारण दो कदम पीछे आई है! 
  मेनन की राजनीति को परखने वालों का ये मानना है कि उनके व्यवहार में संघ प्रचारकों जैसी विनम्रता, सौम्यता का नितांत अभाव देखा जाता रहा! उनकी भाषा, भावभंगिमा और व्यवहार से भी कई लोगों को आपत्ति थी! मेनन के कामकाज की स्टाइल संघ प्रचारकों से अलग थी। संघ से जुड़े प्रचारकों का आचरण और व्यवहार सहज होता है, वो कभी मेनन में दिखाई नहीं दिया! लेकिन, पद के भय के कारण लोग खामोश रहे! शायद यही कारण है कि उनकी बिदाई से पार्टी और सरकार में बैठे लोग खुश दिखे! अरविंद मेनन, मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान का जिस तरह तालमेल था, कई नेताओं को उससे आपत्ति थी! क्योकि, उनकी शिकायत हमेशा अनसुनी रह जाती थी!
   अरविंद मेनन की बिदाई की ख़बरें पहले भी कई बार सुनाई दी, पर वे सही नहीं निकली! फिर, अचानक ऐसा क्या हुआ जो संघ की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा? वास्तव में संघ के बड़े पदाधिकारी मेनन के कामकाज की शैली से नाराज थे। जिलों और मंडलों में पदस्थ मंत्री स्थानीय विधायकों और पार्टी अध्यक्षों पर हावी हो गए थे। ये परंपरा संघ और भाजपा दोनों की विचारधारा के विपरीत नजर आई! मेनन के क्रियाकलाप भी संघ की शैली से अलग थे। इसलिए कि संगठन महामंत्री बनने से पहले मेनन संघ के प्रचारक नहीं रहे! जबकि, संघ अपनी छवि को लेकर बेहद सतर्क रहता है! जब मेनन के खिलाफ शिकवा शिकायतों का दौर शुरू हुआ तो संघ पदाधिकारियों को महसूस हुआ कि संगठन महामंत्री का पद पर किसी गैर-प्रचारक को सौंपना सही नहीं रहा! इसलिए कि गैर-प्रचारक रहे संगठन मंत्री संगठन और संघ के बजाए कुछ लोगों के ख़ास बनकर रह जाते हैं। अरविंद मेनन भी कभी संघ प्रचारक नहीं रहे। तत्कालीन क्षेत्रीय प्रचारक विनोद ने मेनन को 2010 में प्रचारक का दर्जा दिया और भाजपा के इस पूणर्कालिक कार्यकर्ता का प्रमोशन संघ प्रचारक के रुप में कर दिया! मेनन संभवतः पहले ऐसे प्रदेश संगठन महामंत्री रहे, जिन्होंने भाजपा से संघ में इंट्री की और प्रचारक का दर्जा पाया! जबकि, परम्परा के मुताबिक संघ अपने सभी अनुषांगिक संगठनों पर प्रचारकों या पूणर्कालिक कार्यकर्ताओं के जरिए नियंत्रण बनाकर रखता है। जबकि, मेनन के मामले में संघ उलटा चला!  
 संघ से जुड़े लोग अपने दायित्वों के प्रति खांटी होते हैं। वे पद से मोह नहीं पालते, लेकिन जब से ये खबर गर्म हुई थी कि मेनन को प्रदेश से बाहर भेज जा सकता है! उन्होंने यहीं बने रहने के लिए सारा जोर लगा दिया! किन्तु, अपनी कोशिशों में वे कामयाब नहीं हो सके! यहाँ तक ख़बरें उडी कि पहले उन्हें उत्तर प्रदेश में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी जाने वाली थी! लेकिन, उन्हें वो काम भी नहीं दिया गया! एक बात ये भी कि मेनन के तबादले को उनकी उपलब्धि की तरह प्रोजेक्ट किया गया! बताया गया कि वे दिल्ली मुख्यालय में 22 प्रकल्पों के मुखिया होंगे! ये सही भी है, पर किसी राज्य के संगठन मंत्री का दबदबा इस तरह के किसी भी पद से कहीं ज्यादा अहमियत वाला होता है! अब तो सारी नजरें इस बात पर टिकी हैं कि सत्ता और संगठन में बैठे उन लोगों का क्या होगा जिनपर अरविंद मेनन का वरदहस्त रहा है!  
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Sunday, April 10, 2016

महत्वाकांक्षा, हताशा, निराशा और जीवन अंत


हेमंत पाल

  परदे की दुनिया बड़ी बेदर्द है! यहाँ पटकथा में भले ही नायक और नायिका के मिलन के साथ सुखद अंत होता हो! पर, असली बॉलीवुड ऐसा नहीं है! परदे पर हँसते और मुस्कुराते चेहरों के पीछे कितना दर्द छुपा होता है, ये डायरेक्टर के 'कट' बोलते ही नजर आने लगता है! यही कारण है कि इस दुनिया में परदे से आउट होते ही ज्यादातर कलाकार गुमनामी के अँधेरे में खो जाते हैं! परदे की दुनिया की ये सच्चाई बरसों से महसूस की जा रही है, और की जाती रहेगी! इसी कड़ी में पिछले दिनों चर्चित टीवी सीरियल 'बालिका वधु' की अभिनेत्री प्रत्युषा बनर्जी ने ख़ुदकुशी कर ली! इसके पीछे प्रेम संबंध की असफलता में कारण तलाशा जा रहा है। जबकि, ये हादसा भी महत्वाकांक्षा उपजी हताशा का नतीजा है। ग्लैमर की इस दुनिया में अभिनेत्रियों के लिए अभिनय के अवसर न मिलना निराशा का सबसे बड़ा कारण होता है! फिर यदि एक बार सफलता का शिखर छूने का मौका मिल जाए तो फिर वास्तविकता की जमीन पर खड़े होना, आसान नहीं होता! यही डिप्रेशन बॉलीवुड का सबसे बड़ा संकट भी है। 
   प्रत्युषा बनर्जी ने 'बालिका वधु' की सीढ़ियों से लोकप्रियता का शिखर छुआ था! उसकी महत्वाकांक्षा चरम पर थीं! जब वे दर्शकों की आँख का तारा थी, अचानक वे इस सीरियल से अलग हो गईं! इसलिए कि उसे एक बड़े डायरेक्टर ने फिल्म का ऑफर दिया था! प्रत्युषा भी कुछ दिन ख़बरों में रही, फिर कहीं खो गई! ये फिल्म नहीं बनी! फिर छुटपुट रियलिटी शो में काम मिला, पर धीरे-धीरे लोगों ने पहचानना छोड़ दिया! यानी उसे हताशा, निराशा और विरक्ति ने घेर लिया! यही वो वक़्त होता है, जब कलाकार को अपना भविष्य अंधकार में नजर आने लगता है! ऐसे में साथी का मुँह मोड़ना प्रत्युषा को अंदर तक तोड़ गया होगा! लेकिन, ख़ुदकुशी की मूल वजह ब्रेकअप ही होगा, ये दावे से नहीं कहा जा सकता!  
  इससे पहले 'निःशब्द' जैसी बड़ी फिल्म में अमिताभ बच्चन के साथ करियर शुरू करने वाली अभिनेत्री जिया खान ने फांसी लगाकर ख़ुदकुशी कर ली थी! तब भी कहा गया नाकाम प्रेम संबंध के कारण उसका दिल टूट गया था! सूरज पंचोली को इसका दोषी माना गया! मामला अदालत में है और अभी वास्तविक कारण सामने नहीं आया है! लेकिन, ये भी सच है कि जिया के पास 'निःशब्द' के बाद कोई फिल्म नहीं थी! हाल ही में 'बीए पास' की अभिनेत्री शिखा जोशी ने भी आत्महत्या कर ली है। शिखा जोशी ने अपनी व्यथा किसी के सामने व्यक्त करते हुए कहा भी था कि उनके पास कोई काम नहीं है! 90 के दशक की मशहूर अभिनेत्री दिव्या भारती को आज भी लोग भूले नहीं हैं। उसने छोटी उम्र में अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया था! यही समझौता एक दिन उनकी मौत का ही कारण बन गया! 19 साल की उम्र में ही दिव्या भारती मौत के साए में सो गईं। 
 सपनों की नगरी मुंबई में अभिनय में सफल हो पाना आसान नहीं है! छोटे-छोटे रोल पाने के लिए बड़े-बड़े समझौते करने पड़ते है! इसकी कल्पना नहीं की जा सकती! लेकिन, लगातार काम मिल पाएगा और पहचान बन पाएगी, ये सबकी किस्मत में नहीं होता! यदि फिल्मों में काम मिला है तो रिलीज तक रोल बचेगा भी, इस बात की कोई गारंटी नहीं! सीरियलों के मामले में भी यही है! उसके अपने अलग दबाव हैं। फिल्म और टीवी के परदे पर हँसते मुस्कुराते चेहरों के दर्द को पढ़ पाना बहुत मुश्किल हैं! उनके दर्द कुछ ज्यादा ही हैं, जो अपना शहर या क़स्बा छोड़कर इस माया नगरी में अपनी किस्मत के सितारे ढूंढने आते हैं! काम न मिलने का तनाव, स्ट्रगल, मुंबई में रहने का संकट, अकेलापन, आर्थिक परेशानी और ऐसे में समझौते का दबाव! ये सब जीवन में कुछ कर दिखाने और आसमान छू लेने के सपने चकनाचूर कर देते हैं।      
  कुलजीत रंधावा, सिल्क स्मिता, दिव्या भारती, मॉडल नफीसा जोसफ और विवेका बाबजी, जिया खान के बाद अब प्रत्युषा बैनर्जी ने भी जीवन से हारकर वही रास्ता अपनाया। इन सभी की कहानी में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है! क्योंकि, महत्वाकांक्षा की मौत को कंधे पर उठाना बेहद त्रासद सच है! यहीं से हताशा जन्म लेती है, जो जीवन के प्रति मोह को सबसे पहले ख़त्म करती है। मौत शाश्वत है, ये सत्य है। पंरतु अपनी इच्छा से अपना जीवन का त्याग करना ग़लत है! क्योंकि, ऐसा करते वक़्त लोग अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह फेर रहे होते हैं। किसी एक शख़्स के ऐसा करने से उसके साथ जुड़े लोग भी टूट जाते हैं। इसीलिए अगर हत्या अपराध है तो आत्महत्या उससे भी बड़ा अपराध है! 
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Saturday, April 9, 2016

भारत माता से मोह या शिवसेना पर छापामार हमला!

- हेमंत पाल 
   राजनीति में कभी ऐसे प्रसंग भी आते हैं, जब जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को वाचालता की सीमा लांघना पड़ती है! ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने किया! वे भारत माता के मुद्दे खूब बोले! कहा कि 'भारत माता की जय न बोलने वालों को इस देश में रहने का अध‍िकार नहीं है!' महाराष्ट्र विधानसभा में हंगामे के बाद फड़नवीस ने ये भी कहा कि मुख्यमंत्री पद रहे न रहे, पर भारत माता की जय तो बोलना ही पड़ेगा! भारत माता की जय नहीं बोलेंगे, तो क्या पाकिस्तान की जय या चीन की जय कहेंगे? उन्होंने आरएसएस के सरकार्यवाहक भैयाजी जोशी की बात को ही आगे बढ़ाने की कोशिश की! भैयाजी ने कहा था कि वास्तव में ‘वंदे मातरम’ ही राष्ट्रगान है और भगवा झंडे को राष्ट्रीय ध्वज कहना भी गलत नहीं होगा! फड़नवीस का ये वो रूप है जिसमें लोगों ने उनका नया हिंदूवादी चेहरा देखा! वास्तव में ये आधा सच है! बाकी का आधा सच ये है कि 'संघ' के इशारे पर फड़नवीस ने अपनी सहयोगी 'शिवसेना' को मात देने की चाल चली है!    

  फड़नवीस मूलतः नागपुर के हैं, जहाँ 'संघ' का मुख्यालय है! इसलिए वे 'संघ' के कुछ ज्यादा करीब हैं। तय है कि उनके खून में भी ललामी से ज्यादा भगवापन होगा! वे भाजपा के पढ़े-लिखे और समझदार नेताओं में गिने जाते हैं। फिर उन्होंने हिन्दुत्व भरा बयान क्यों दिया, ये सहज बात नहीं है! वैसी भी नहीं, जैसा समझा जा रहा है! फड़नवीस ने अतिउत्साह में या हिन्दुत्व को ध्यान में रखकर भी ये पत्ता नहीं फैंका! ये सब 'संघ' की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। महाराष्ट्र सरकार के गठबंधन में अपनी ही सहयोगी पार्टी 'शिवसेना' को ठिकाने लगाने के लिए 'संघ' ने एक चाल चली है। क्योंकि, शिवसेना खुलकर हिंदूवाद का समर्थन करती है! उसे खुद को हिंदूवादी कहने या कहलाने में कोई संकोच नहीं! 'संघ' के इशारे पर भाजपा की विचारधारा भी पूरी तरह हिंदूवादी हो गई है! ऐसे में उसकी आँख में 'शिवसेना' खटकने लगी है। 'संघ' भाजपा को शिवसेना से ज्यादा घोर हिंदूवादी साबित करके उसे हाशिये पर लाना चाहती है! तय है कि फड़नवीस का ये बयान उसी रणनीतिक कोशिश का हिस्सा माना जा सकता है! 
    महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना सरकार में साझेदार हैं! फिर भी दोनों पार्टियों के रिश्तों में तनाव बना हुआ है! सरकार के गठन के वक़्त भी शिवसेना ने भाजपा को जमकर छकाया था! फिर शिवसेना जब सत्ता में शामिल भी हुई, तो अपनी शर्तों पर! सरकार में साझेदार होते हुए भी दोनों पार्टियों में तनाव साफ़ नजर आता है। कुछ दिन पहले हुए नगर निकाय चुनाव के कारण भी दोनों पार्टियों में दूरियाँ बढ़ी! दोनों के उम्मीदवार आमने-सामने आ गए, जिसका फ़ायदा कांग्रेस को मिला! इन सारी घटनाओं से स्पष्ट हो गया कि भाजपा और शिवसेना में ये दिखावे की दोस्ती है, जो ज्यादा दिन नहीं चलेगी! लेकिन, भाजपा के सामने सबसे बड़ा खतरा है शिवसेना का अति हिंदूवाद रवैया! 'संघ' भले ही हिन्दुओं की सबसे बड़ी पैरोकार बने, पर शिवसेना का मुकाबला नहीं कर सकती! इसी खामी को पूरा करने के लिए ही 'संघ' ने मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस को मोर्चे पर लगाया है! शंका इसलिए भी होती है, क्योंकि ये बात भाजपा का एक ही मुख्यमंत्री क्यों बोल रहा है? अन्य राज्यों में जहाँ भाजपा की सरकार है, वहाँ के मुख्यमंत्री खामोश हैं? मध्यप्रदेश  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान या राजस्थान की वसुंधरा राजे क्यों नहीं बोली? क्या इससे नहीं लगता कि फड़नवीस ने 'भारत माता बम' सिर्फ शिवसेना को निशाना बनाकर फैंका है?      
 ये सिर्फ भाजपा में ही नहीं हो रहा! शिवसेना ने भी भाजपा से किनारा करने के लिए कमर कस ली है। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने भी जो इशारा किया, उससे लगने लगा कि दोनों के रिश्ते टूटने की हद तक खींचे हुए हैं। फड़नवीस के बयान के बाद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने पिछले विधानसभा चुनाव में हारे शिवसेना उम्मीदवारों की बैठक की! उसमें उद्धव ने साफ़ कहा है कि भाजपा पूरी तरह शिवसेना को खत्म करने की कोशिश में है! इस बैठक में शिवसेना का पूरा निशाना भाजपा थी! बैठक में उद्धव ने भाजपा की आलोचना की और स्पष्ट किया कि अगले चुनाव में शिवसेना अपने दम पर चुनाव लड़ेगी! उन्होंने कार्यकर्ताओं से अभी से काम पर लग जाने की अपील की! उद्धव ने मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस के भारत माता वाले बयान का तो जिक्र नहीं किया! पर, अब शिवसेना को भी ये समझ आ गया है कि इस तरह का बयान उन्हें हाशिए पर ला सकता है। जिस अति हिन्दुत्व के दम पर शिवसेना की पहचान बनी थी, उसे अब तक भाजपा चुनौती नहीं दे सकी थी! 
  ये पहली बार हुआ कि भाजपा के किसी मुख्यमंत्री ने अल्पसंख्यक वोटरों की परवाह न करते हुए इस तरह की बयानबाजी की! इस बयान से निश्चित रूप से भाजपा को दो तरह के फायदे हो सकते हैं! एक तो उन्हें शिवसेना के हाथ से दरकते हिन्दू वोटरों का साथ मिलेगा! दूसरा, शिवसेना को तोड़ने मदद मिलेगी! यही कारण है कि महाराष्ट्र में भाजपा के मुख्यमंत्री को शिवसेना की भाषा बोलने के लिए मजबूर होना पड़ा! ये भी नहीं कहा जा सकता कि फड़नवीस का ये बयान स्वतः स्फूर्त हो! संभव है कि इस तरह के बयान से पहले कोई रणनीति बनाई गई हो, ताकि विपक्ष हमलों के साथ-साथ शिवसेना के रुख को समझा जा सके!      
   भाजपा ने काफी लम्बे समय से शिवसेना को उसके दायरे में लाने की तैयारियां शुरू कर दी थी! पिछले साल भी भाजपा ने कहा था कि वो शिवसेना के बयानों को नजरअंदाज करेगी! पार्टी की रणनीति है कि गठबंधन चलाने के लिए फिलहाल यही सबसे सही नीति होगी! भाजपा ने तय कर लिया था कि शिवसेना की और से होने वाले किसी भी हमले और बयानबाजी को नजरअंदाज किया जाएगा! शिवसेना के मुताबिक भाजपा के मंत्री शिवसेना नेताओं को अपमानित करने का काम करते रहते हैं। अहम फैसलों में शिवसेना की राय तक लेने की जरूरत नहीं समझी जाती! करीब 6 महीने से दोनों पार्टियों के बीच युद्ध विराम के हालात थे! लेकिन, ये तूफ़ान से पहले की ही शांति कही जा सकती है, बाद की नहीं! असली और नकली हिंदूवादियों की जंग तो अब होगी! मोर्चे खुल चुके हैं, बयानवीर आमने-सामने आ गए! देखना है कि इस जंग का अंतिम निष्कर्ष क्या निकलता है?
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Friday, April 8, 2016

सरकार चाहती है, इसलिए खुश रहना सीख लीजिए!


  मध्यप्रदेश के लोगों को अब खुश रहने की आदत डालना होगी! वे खुश हों या न हों, दिखाना तो होगा कि वे खुश भी हैं और खुशहाल भी! इसलिए कि राज्य सरकार ने 'खुशहाली मंत्रालय' खोलने की घोषणा जो की है। मुख्यमंत्री को उम्मीद है कि मंत्रालय खोलने से ही लोग अपने दर्द भूलकर खुश हो जाएंगे। लेकिन, मंत्रालय खोल देने से लोगों के बुझे चेहरों पर ख़ुशी लाना मुमकिन नहीं है! दरअसल, ये लॉफिंग क्लब जैसा ही प्रयोग है, जिसमें लोग गोला बनाकर खड़े हो जाते हैं और बेवजह ठहाका लगाते हैं। भूटान के 'हैप्पीनेस इंडेक्स' की देखा-देखी किए जाने वाले प्रयोग से लोग खुश होंगे, इसमें संदेह है!  
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हेमंत पाल 

    भारत के छोटे से पडोसी देश भूटान ने 1972 में 'हैप्पीनेस इंडेक्स' मॉडल तय किया था! वहाँ जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट) बजाए लोगों की खुशियों को देश की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। इसी मॉडल से प्रभावित होकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी 'मिनिस्ट्री ऑफ हैप्पीनेस' (खुशियों का मंत्रालय) बनाने की घोषणा कर दी! कहा गया कि इस मंत्रालय के जरिए लोगों को जीवन से तनाव दूर करने और खुश रहने के उपाय बताए जाएंगे। शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि मनुष्य के जीवन में भौतिक खुशहाली और समृद्धि से आनंद नहीं आ सकता। सरकार के इस 'हैप्पीनेस मंत्रालय' का मकसद लोगों को निराशा में आत्महत्या जैसे कदम उठाने से रोकना है, ताकि समाज में सकारात्मकता बनी रहे। किसी भी राज्य की खुशहाली का आकलन सिर्फ भौतिक विकास से नहीं किया जा सकता! इसलिए इस मंत्रालय का गठन किया जा रहा है। जल्दी ही कैबिनेट की बैठक में 'हैप्पीनेस मंत्रालय' के गठन के प्रस्ताव को पारित कर दिया जाएगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रस्तावित मंत्रालय द्वारा लोगों के जीवन में खुशियां लाने के लिए योग, ध्यान, सांस्कृतिक आयोजन जैसे सभी उपाय किए जाएंगें। सबसे पहले शहरों में रहने वाले बच्चों पर हैप्पीनेस मंत्रालय अपने प्रयोग करेगा! इसके तहत छात्रों को खुश रखने के लिए योग, ध्यान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा!

  सरकार की ये घोषणा एक उम्मीद जागती है! लेकिन, सिर्फ खुशियों का मंत्रालय बना देने से खुशहाली नहीं आ जाती! मंत्रालयों के कामकाज के नतीजे इतने असरदार होते, तो महिला एवं बाल कल्याण विभाग अभी तक बच्चों और महिलाओं का कल्याण कर चुका होता! ग्रामीण विकास का नया अध्याय लिखा जा चुका होता! शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मंत्रालयों से किसी को कोई शिकायत ही नहीं होती! किसानों के तो वारे-न्यारे हो गए होते! जबकि, न महिलाओं और बच्चों का भला हुआ और न ग्रामीणों के विकास की दिशा में ही कोई ठोस काम हुआ है! सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा से सभी वाकिफ हैं! मौसम से प्रभावित किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। बलात्कार के मामले में भी मध्यप्रदेश सबसे ऊपर है! इस तरह की लोक लुभावन घोषणा से प्रदेश में खुशहाली आए या न आए, सरकार पर आर्थिक दबाव जरूर बढ़ेगा! ऐसी ही एक घोषणा प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने भी की थी। उन्हें भिखारियों के कल्याण की सूझी तो उन्होंने गांधी जयंती के दिन आदेश जारी करके भीख मांगने पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन, हुआ कुछ नहीं! न तो भीख माँगना रुका और  भिखारी कम हुए!  
  दुनिया के कई देशों में लोगों के जीवन में खुशहाली लाने के काम वहाँ की सरकारें कर रही हैं! लेकिन, ये प्रयोग शुरू करने से पहले इन सरकारों के मंत्रालयों ने अपने दायित्व गंभीरता से निभाए! इसके बाद ही ये कोशिश शुरू हुई कि अब लोगों के निजी जीवन की कठिनाइयों को हल किया जाए! जबकि, आज मध्यप्रदेश में हर व्यक्ति भ्रष्टाचार, महंगी होती बिजली, एक-एक बाल्टी पानी, छोटी-छोटी नौकरी और अफसरशाही की अकड़ से जूझ रहा है। ऐसे में सरकार के इस प्रयोग के बाद कोई खुलकर हँस भी सकेगा, ये कहना मुश्किल है। सरकार का खुशहाली मंत्रालय बनाने का फैसला वास्तव में 'लाफिंग क्लब' जैसा प्रयोग है! सुबह साथ घूमने वाले लोग अपना तनाव दूर करने के लिए जिस तरह एक साथ खड़े होकर बेवजह हंस लेते हैं! उसी तरह सरकार को लगा होगा कि वो भी लोगों को हंसने के लिए मजबूर कर सकती है! जिनके जीवन में तनाव, अभाव और हर वक़्त चिंता हो, उनकों खुश करने में बरसों लग जाएंगे! अपनी वाहवाही के लिए सरकार कुछ समय बाद आंकड़ें दिखाकर अपनी सफलता का जश्न जरूर मना ले, पर वो सच नहीं होगा!           
  इस तरह के मंत्रालय की घोषणा करके शायद सरकार की कोशिश लोगों का समस्याओं से ध्यान हटाने की होगी! बेहतर होता कि सरकार लोगों की मूलभूत समस्याओं जैसे बिगड़ती आर्थिक स्थिति, किसानों की हालत, बेरोजगारी खत्म करने की दिशा में सार्थक कदम उठाती! यदि ऐसा किया होता तो खुशहाली के लिए अलग मंत्रालय नहीं बनाना पड़ता! खुशहाली अपने आप आ जाती! महिलाओं के जुड़े अपराधों को देखें तो मध्य प्रदेश का देश में अव्वल है। बीते एक साल में 4744 महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले दर्ज हुए! इनमें 2552 लड़कियां नाबालिग थीं! बाल मृत्यु दर में भी मध्यप्रदेश असम के साथ सबसे ऊपर है। प्रति हज़ार बच्चों में 54 बच्चे ऐसे होते हैं, जो सालभर भी जीवित नहीं रह पाते! मातृ मृत्यु अनुपात में भी प्रदेश की स्थिति ख़राब है! एक लाख महिलाओं में से 221 की प्रसव के दौरान मौत हो जाती है। जबकि, देश में इसका अनुपात 167 है। शिक्षा के क्षेत्र में भी हालात बेहतर नहीं है। देश में सबसे ज्यादा महंगा पेट्रोल मध्यप्रदेश में ही है! क्योंकि, यहाँ 31 प्रतिशत 'वेट' वसूल किया जाता है। ये वो हालात हैं, जिनके कारण मध्यप्रदेश अन्य राज्यों से बहुत पीछे है। ऐसे हालात में लोगों से कहा जाए कि ख़ुश रहो, तो ये कैसे संभव है? 
  प्राकृतिक आपदा से प्रभावित किसान मुआवजे न मिलने से परेशान हैं! उन्हें बिजली भी पर्याप्त नहीं मिल रही! खाद की कमी से किसान जूझता रहता है, बाजार में नकली बीज भरे पड़े हैं! कर्ज से किसान दबा जा रहा है। आम आदमी महंगाई से परेशान है। इस सबके बाद भी कहा जाए कि खुश हो जाओ, मुस्कुराओ तो ये संभव है क्या? आख़िर किस तरह से कोई सरकार एक मंत्रालय के ज़रिए लोगों की खुशहाली का ध्यान रख सकेगी? जबकि, ये हर मंत्रालय की जिम्मेदारी है। इस नए प्रस्तावित मंत्रालय से लोगों को कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही! अंत में एक बात ये भी कि खुशहाली का समृद्धता से कोई वास्ता नहीं होता! यदि इस आधार पर दुनिया का कोई देश सबसे खुशहाल होता तो वह निश्चित रूप से अमेरिका होता! क्योंकि, अमेरिका में प्रति व्यक्ति औसत आय 53,750 डॉलर पीपीपी (परचेजिंग पॉवर पैरिटी) है। जबकि, डेनमार्क की प्रति व्यक्ति औसत आय 44,950 डॉलर और भारत की प्रति व्यक्ति औसत आय 5350 डॉलर है। लेकिन, खुशहाली की फेहरिस्त में डेनमार्क सबसे ऊपर है! अमेरिका का नंबर 13वां और भारत का 118 वां है। इसलिए गुदगुदाकर किसी को थोड़ी देर तो हंसाया जा सकता है, पर ये दिल से निकली ख़ुशी नहीं होगी! यदि सरकार लोगों को निजी जीवन में ख़ुशी देना चाहती है, तो उसे पहले अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाना होगी! इसके बाद लोगों की निजी जिंदगी में झांककर दुःख दूर करने की कोशिश करना चाहिए!  
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Friday, April 1, 2016

जनसेवकों का वेतन बढ़ा, पर क्या उतनी जिम्मेदारियां भी?


- हेमंत पाल  

    प्रदेश के विधायक, मंत्री और यहाँ तक कि मुख्यमंत्री भी अपना वेतन और भत्ते बढ़ाकर खुश हैं! शायद वे अकेले सर्व शक्तिमान ताकत हैं, जिन्हें अपना वेतन बढ़ाने के लिए किसी से पूछना नहीं पड़ता! अपना परफॉर्मेंस नहीं दिखाना पड़ता और न साबित करना पड़ता है कि उनका वेतन क्यों बढ़ाया जाना चाहिए! सवाल ये उठता है कि ये जन प्रतिनिधि क्या इस वेतन वृद्धि के योग्य हैं? क्या इन्हें इनकी जिम्मेदारी का अहसास है? और क्या जिस जनता ने इन्हें चुनकर भेज है वो इस वेतन वृद्धि को सही मानती है? मुद्दा ये है कि न तो कोई इनसे पूछने वाला है और न ये किसी के प्रति जवाबदेह हैं! हर मुद्दे पर सरकार को घेरने वाले विपक्षी विधायक भी वेतन और भत्तों के बढ़ाए जाने के मामले में अपना हाथ खड़ा करने में देर नहीं करते! अब कोई नानाजी देशमुख जैसा व्यक्ति भी नहीं है, जो जन प्रतिनिधियों ज्यादा सुख-सुविधाएँ देने को लेकर आपत्ति उठाए! 
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   मध्यप्रदेश में आर्थिक तंगी के बावजूद सरकार के मंत्री और विधायकों के वेतन-भत्ते समेत विधायक निधि बढ़ा दी गई! अभी विधायकों को 71 हजार रुपए मिलते थे। इसे बढ़ाकर 1.10 लाख रुपए कर दिया गया। विधायकों का मूल वेतन 10 हजार रुपए था, जो अब 20 हजार हो जाएगा। निर्वाचन भत्ता भी 25 हजार से बढ़ाकर 50 हजार कर दिया गया। बढ़े हुए वेतन का फायदा 1100 पूर्व विधायकों को भी मिलेगा! इसी अनुपात में मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री का वेतन भी बढ़ गया। वहीं, एक अप्रैल से विधायकों की निधि भी बढ़ गई। विधायकों को अभी क्षेत्र विकास के लिए हर साल 77 लाख रुपए और 3 लाख रुपए स्वेच्छानुदान के मिलते थे। अब यह राशि बढ़कर करीब 2 करोड़ हो गई।
  वास्तव में मंत्रियों, विधायकों का वेतन बढ़ना किसी विवाद का मुद्दा नहीं है! बहस इस बात पर होना चाहिए कि ये जन प्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारी के प्रति कितने गंभीर हैं और अपना दायित्व ठीक से निभा रहे हैं या नहीं? संविधान इन जन प्रतिनिधियों को कानून बनाने का अधिकार देता है। विधानसभा की भी जिम्मेदारी नागरिकों की भलाई के लिए कानून बनाना और सरकार का नियंत्रण करना है। यह जिम्मेदारी विधानसभा के सदस्यों की होती है। वे इस जिम्मेदारी को सिर्फ हाथ उठाकर या पक्ष और विपक्ष में वोट देकर पूरा नहीं कर सकते! विभिन्न मुद्दों पर राय बनाने के लिए उसके बारे में जानकारी की जरूरत होती है। यह समय और श्रम साध्य काम है। इस काम को गंभीरता से लिया जाए, तो कोई जन प्रतिनिधि कुछ और काम कर ही नहीं पाएगा! यहाँ तक कि अपनी और अपने परिवार की आजीविका भी नहीं चला पाएगा! यही कारण है कि दुनियाभर में जनप्रतिनिधियों को पारिश्रमिक देने का रिवाज है, ताकि सिर्फ पैसे वाले लोग ही संसद और विधानसभा के सदस्य न बनें और जन प्रतिनिधित्व में निहित स्वार्थों का ही बोलबाला न हो जाए! यही कारण है कि जन प्रतिनिधियों को वेतन और सुविधाएँ दी जाती है।
  मुद्दे की बात ये भी है कि विधायकों और मंत्रियों की वेतन वृद्धि उस समय की गई जब प्रदेश सरकार पर कई हज़ार करोड़ का कर्ज है! वित्त मंत्री जयंत मलैया ने विधानसभा में अभी 4 मार्च को स्वीकार किया था कि राज्य पर 31 मार्च 2015 तक कुल कर्ज 82 हजार 261 करोड़ 50 लाख रुपए है। जबकि, इससे पहले 31 मार्च 2003 की स्थिति में ये कर्ज 20 हजार 147 करोड़ 34 लाख रुपए का कर्ज था। वित्त मंत्री के मुताबिक इसमें बाजार, केन्द्र सरकार एवं अन्य संस्थाओं से लिया कर्ज शामिल है। यह आंकड़े 31 मार्च 2015 तक के हैं। प्रदेश की आबादी सवा सात करोड़ है। इस हिसाब से प्रदेश के हर व्यक्ति पर करीब साढ़े 15 हजार रुपए का कर्ज हो गया! प्रदेश की खस्ताहाल वित्तीय हालत पर भी वित्त मंत्री जयंत मलैया ने अपनी सफाई दी! उन्होंने माना कि राज्य की माली हालत ठीक नहीं है। प्रदेश में पिछले तीन साल से लगातार पड़ रहे सूखे के चलते सरकार के राजस्व आय में भारी कमी आई! लिहाजा प्रदेश के वित्तीय हालत भी कमजोर होती जा रही है। इन हालातों के मद्देनजर सरकार ने केवल खास जरुरत के विकास कामों पर ही जोर देने का फैसला किया है। कई विकास कार्य भी रोक दिए गए। ऐसे में विधायक निधि और विधायकों और मंत्रियों के वेतन में 55% की बढ़ौतरी न्यायोचित है?
    जब देश आजाद हुआ उस वक़्त जनता और जन प्रतिनिधियों में ज्यादा फर्क नही था। ज्यादातर सांसद, विधायक और मंत्री आम लोगों जैसा ही व्यवहार करते थे! हर तरह से जनता के करीब दिखाई देते थे। लेकिन, धीरे-धीरे जन प्रतिनिधियों का रुतबा बढ़ता गया। उनके वेतन-भत्तो, सुख-सुविधाओ पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया गया! जिससे वे जनता से ऊपर उठते गए! ऐसे में जनता वहीं की वहीँ रह गई। जनप्रतिनिधियों का प्रभाव भी बढता चला गया! विकास के अलावा जनता के निजी कामकाज में भी उनका हस्तक्षेप बढ़ गया। ऐसे में जनता और उनके चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच दूरी बढ़ गई! जनता और जन प्रतिनिधियों के बीच दूरी बढ़ने का मुद्दा समाजसेवी नानाजी देशमुख ने सबसे पहले उठाया था। उन्होंने ही जन प्रतिनिधियों के निरंतर बढते वेतन, सुविधाओं आदि पर सवाल खडा किया था। आज यह स्थिति ज्यादा भयावह है। जनता की नजर में अपने ही चुने हुए प्रतिनिधि का सम्मान नहीं रहा! जबकि, इसी देश में लालबहादुर शास्त्री और अटल बिहारी वाजपेई जैसे जन प्रतिनिधि भी हुए हैं, जिन्हें आदर्श मान जाता था! आजकल तो ज्यादातर जन ही अपने प्रतिनिधी से बेहद नाराज हैं। जनता को लगता है कि अब राजनीति सिर्फ अपनी किस्मत चमकाने के सबसे आसान धंधा है!
  यही कारण है कि वास्तविक जन प्रतिनिधियों के अलावा फिल्म कलाकार भी राजनीति में आने लगे! जिन्हें अपने डूबते करियर को बचाना है। वे बिजनेसमैन आ रहे हैं जिन्हें अपने व्यापार को बचाने के साथ बढाना भी है। वे अफसर भी राजनीति की चौखट पर खड़े नजर आते हैं, जिनकी महत्वाकांक्षाएं नौकरी में बची रही। ये लोग अपनी वाक पटुता, धनबल, प्रभाव और वादों से जनता को ललचाकर सत्ता हांसिल कर लेते हैं। यह जन का अपने प्रतिनिधी के प्रति अविश्वास का वक़्त है! ये अविश्वास उस समय और बढ़ जाता है जब उसे लगता है कि हमारी तकलीफों को दूर करने के रास्ते खोजने के बजाए उनका प्रतिनिधि अपनी जेब भरने में लगा है! कुछ हद तक जनता भी इसके लिए काफी जिम्मेदार है! उसे अपना प्रतिनिधि का चुनाव करते वक़्त गंभीर होना पड़ेगा! फिल्मी हस्तियों, बिजनेसमैनों, नेताओ के पुत्र पुत्री और अमीरों को बतौर प्रतिनिधि नहीं चुनना चाहिए! आशय यही कि हमें अपनी जागरुकता को बढ़ाना होगा, तभी हम ऐसे प्रतिनिधि को चुन पाएंगे, जो खुद की सुख-सुविधाओं और वेतन का ध्यान रखने के बजाए उस जनता को सर्वोपरि माने, जिसने उसे चुनकर सदन में भेजा है।
  पिछले एक दशक में विधायकों, सांसदों एवं पंचायत प्रतिनिधियों के वेतन बढ़े, निधि बढ़ी एवं अधिकार भी बढ़े! लेकिन, ये भी ध्यान देने वाली बात है कि करीब 13 साल बाद भी दैनिक वेतनभोगी अब तक नियमित नहीं हो पाए! जबकि, इन्हें नियमित करने का आदेश हाईकोर्ट भी दे चुका है। जब विधायक निधि बढ़ गई, विधायकों का वेतन बढ़ गया। उधर, सांसदों का वेतन भी ढाई लाख हो गया। उनकी सांसद निधि भी 5 करोड़ रुपए तक पहुँच गई। पंचायत प्रतिनिधियों का वेतन, निधि एवं अधिकार भी बढ़ा दिए गए। पिछले कुछ सालों में प्राचार्यों का वेतन भी तीन बार बढ़ा! लेकिन, 13 साल से दैनिक वेतनभोगी अपने नियमितीकरण की लड़ाई ही लड़ रहे हैं! उनकी आजतक किसी ने नहीं सुनी! प्रदेश में लगभग 55 हजार दैनिक वेतन भोगी हैं। उनके नियमित होने पर उनका वेतन लगभग 20 हजार रुपए हो जाएगा। अप्रैल 2006 और जनवरी 2015 में कोर्ट ने दैनिक वेतन भोगियों के पक्ष फैसला देते हुए सरकार को निर्देश दिए थे। हाईकोर्ट ने सरकार को 2 महीने की मोहलत दी है। लेकिन,अभी तक हुआ कुछ नहीं! विपक्ष में बैठे विधायक भी इस मुद्दे पर खामोश हैं। क्या जन प्रतिनिधियों का कर्तव्य नहीं कि वे सदन में दैनिक वेतन भोगियों के लिए आवाज उठाएं? ये अकेला मुद्दा नहीं है, ऐसे कई मामले हैं जिन्हें लेकर विधायक खामोश रहते हैं।
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