Sunday, March 27, 2022

फ़िल्मी गीतों के रंग बिरंगे बोल में छुपी उपमाएं

- हेमंत पाल
     रंगों से फिल्मों का नाता सिर्फ होली गीतों तक ही नहीं होता! इसके अलावा भी कई ऐसे प्रसंग होते हैं, जब फ़िल्मी गीतों के बोलों में रंगों को पिरोया जाता है। कई बार ये फिल्म के कथानक की जरुरत भी होती है। नायक और नायिका के बीच रंग भरे यह गीत चुहलबाजी के लिए होते हैं, कभी किसी और वजह से गीतों को रंगों से रंगा जाता है। ये सब मिलकर ही ऐसा तारतम्य रचते हैं, जिसमें दर्शक को बंधता है। गीतों में ऐसा भी कुछ होता है, जिसे सुनकर पता चल जाता है कि ये किस सिचुएशन में फिल्माए गए होंगे! यदि नायिका रूठ जाती है, तो नायक कुछ अलग अंदाज में उसके गुस्से की तुलना लाल रंग से करता है। यदि मस्ती के मूड में होता है, तो 'गुलाबी आंखें जो तेरी देखी' जैसा गीत गुनगुनाने लगता है। तात्पर्य यह कि फिल्म के कथानक के मुताबिक गीतों के बोल में रंग मिलाए जाते हैं। ये सिर्फ होली गीतों में ही नहीं होता, नायक-नायिका के बीच मोहब्बत और मान-मुनव्वल वाले गीतों में भी रंग पिरोए जाते रहे है। इसलिए कि जीवन में रंगों का अपना अलग ही महत्व है। रंगों के बिना तो जिंदगी बेरंग है, फिर वो फ़िल्मी गीतों की बात क्यों न हो!
     रंग की अपनी पहचान तो होती ही है, उनका उपयोग उपमाएं देने के लिए भी किया जाता है। फिल्मों में नायिका की खूबसूरती का बखान करने के लिए शायद रंगों से अच्छी शायद कोई जुबान नहीं होती! जब नायक प्रेमपाश में बंधकर नायिका की तारीफ करना शुरू करता है, तो नायिका का हर अंग रंगों में रंग जाता है। कत्थई आँखों वाली एक लड़की, ये काली-काली आँखें, नीला दुपट्टा पीला सूट जैसे कई गीत अब तक रचे जा चुके हैं, जो रंगों की कूची से नायिका की खूबसूरत रचना करते हैं। ये चलन सिर्फ फिल्मों तक ही सीमित नहीं है। पुराने ग्रंथों, नाटकों और कविताओं में भी रंग सदियों से छाए हैं। यश चोपड़ा की फिल्म 'सिलसिला' के गीत 'नीला आसमां सो गया' को सुनकर ही नायक के दर्द का अहसास हो जाता है। 
    जबकि, 'कोहिनूर' में दिलीप कुमार और मीना कुमारी पर फिल्माए 'तन रंग लो जी आज मन रंग लो' में होली की चुहलबाजी का इशारा है। इसी तरह 'आखिर क्यों' में राकेश रोशन भी होली खेलते हुए जब 'सात रंग में खेल रही हैं दिलवालों की होली रे' गाते  हैं, तो अलग ही मस्ती का एहसास होता है। पर, जरूरी नहीं कि होली गीतों में ही रंगों की बात हो! इससे अलग भी कई ऐसे गीत हैं, जिनमें रंगों का जिक्र किया गया। गुलज़ार का लिखे और मुकेश के गाए 'आनंद' के गीत 'मैने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने, सपने सुरीले सपने' में नायक का कुछ अलग ही रोमांटिक अंदाज नजर आता है।
   कई गीतों को सुनकर लगता है कि रंगों की दुनिया ही फ़िल्मी गीतों में समा गई। अनिल कपूर ने '1942 ए लव स्टोरी' में 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' गाकर नायिका की खूबसूरती को चार दर्जन उपमाओं से सराहा है। जबकि, शाहरुख़ खान ने 'डुप्लीकेट' में गाया 'कत्थई आँखों वाली एक लड़की।' 'बाजीगर' में फिर शाहरुख़ ने कहा 'ये काली-काली आँखें, ये गोरे-गोरे गाल।' थोड़ा पीछे जाएं तो राजेश खन्ना ने 'द ट्रेन' में नंदा के लिए कहा था 'गुलाबी आँखे जो तेरी देखी शराबी ये दिल हो गया।' पर, हर बार नायक ने ही उपमाएं नहीं दी! नायिका ने खुद अपनी आँखों का रंग बताकर अपनी लाचारी प्रकट की। 'खुद्दार' फिल्म के गीत 'ये नीली-नीली आँखें मेरी मैं क्या करूँ' में करिश्मा कपूर की आँखों के रंग की लाचारी साफ़ नजर आती है।
     कभी-कभी नायक और नायिका के रंग रूप को भी गीतों में समाहित किया गया। यही वजह है कि फिल्म 'जाने-अनजाने' में शम्मी कपूर की नीली नीली आंखें देखकर लीना चंदावरकर चहकने लगी थी 'तेरी नीली नीली आंखों के दिल पे तीर चल गए' तो यही शम्मी कपूर 'राजकुमार' में साधना को सलाह देते हुए कहते हैं 'इस रंग बदलती दुनिया में इंसान की नीयत ठीक नहीं, निकला न करो तुम सज धज के ईमान की नीयत ठीक नहीं!' रंगीन मिजाज देव आनंद को भी रंगों से बेहद प्यार था। उनके निर्देशन में बनी फिल्म 'प्रेम पुजारी' के कई गीतों में गीतकार नीरज ने रंगों का इस्तेमाल किया। उन्होंने लिखा 'रंगीला रे तेरे रंग में, फूलों के रंग से दिल की कलम से, शोखियों में घोला जाए के अंतरे में वे फरमाते हैं 'रंग में पिघले सोना अंग से यूं रस छलके!' तो उनके समकालीन राज कपूर को फिल्म 'श्री 420' में 'सर पे लाल टोपी रुसी' कुछ ज्यादा ही पसंद आई। उनके छोटे भाई शशि कपूर ने भी फिल्म 'कन्या दान' में नीरज ने जो चिट्ठी लिखवाई, उसमें भी रंगों का हवाला देते हुए कहा 'लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद हजारों रंग के सितारे बन गए!'
    कभी-कभी गीतों में रंग भरने वाले गीतकार इन्हीं रंगों में इतने डूब जाते ही कि वे एक ही गीत में नायिका के रंग की अलग-अलग उपमा देने लगते हैं। फिल्म 'जिंदगी' में वैजयंती माला की खूबसूरती का बयान करते हुए हसरत जयपुरी जो लिखा उस गीत को गाते हुए राजेन्द्र कुमार कहते हैं 'पहले मिले थे सपनों में और आज सामने पाया' इस गीत के अलग-अलग अंतरों में वे उन्हें कभी सांवली तो कभी गोरी मानने की भूल कर बैठते है। एक अंतरे में वे गाते हैं 'ओ सांवली हसीना दिल मेरा तूने छीना' गाते हैं, तो दूसरे अंतरे में कहते हैं 'गोरे बदन पर काला आंचल और रंग ले आया हाय कुर्बान जाऊं!' वैसे तो प्यार का रंग सबसे प्यारा होता है. लेकिन जब सजना दूर हो, तो यही रंग नायिका को नहीं भाते। तभी तो राजेश खन्ना से मिलने को बेताब आशा पारेख फिल्म 'आन मिलो सजना' में अऱज करती है 'रंग रंग के फूल खिले मोहे भाये कोई रंग ना, अब आन मिलो सजना।' 
     जिन गीतों में रंगों का सुंदर प्रयोग किया है उनमें कुछ चुनिंदा गीत हैं नील गगन पर उड़ते बादल, नीले गगन के तले धरती का प्यार पले, नील गगन तले, तेरी आँखों का रंग है अंगूरी तौबा तेरे होठों का रंग है सिंदूरी तौबा, रंग और नूर की बारात किसे पेश करूं, रंगीन समां है, पीली-पीली सरसों फूली पीली उड़े पतंग, आज रंग लो दिलों को एक रंग में, मैने रंग ली आज चुनरियां, रंग बसंती छा गया, लाल लाल गाल मेरे मैं क्या करूं, मोरा गोरा रंग लइले, बज उठेगी सनम हरे कांच की चूड़ियां, ओ लाल दुपट्टे वाली, ओ काली टोपी वाले तेरा नाम तो बता, सर पे टोपी लाल हाथ में रेशम का रूमाल!  
    फ़िल्मी गीतों में बात सिर्फ नायिका के अंगों की व्याख्या तक ही सीमित नहीं रहती, कई बार उससे आगे भी निकल जाती है। 'प्रेम नगर' में राजेश खन्ना अपनी शराब की आदत से परेशान होकर गाते हैं 'ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा।' कभी-कभी तो नायिका अपनी फरमाइश ही रंगों से जोड़कर करती है, 'आज का अर्जुन' में जयाप्रदा ने अमिताभ बच्चन से कहा था 'गोरी है कलाईयाँ तू ला दे मुझे हरी हरी चूड़ियां।' नायिका की ड्रेस के रंग भी गीतों में समाते रहे हैं। 'हमेशा' के इस गीत को याद कीजिए जिसमें सैफ अली काजोल को देखकर गाते हैं 'नीला दुपट्टा पीला सूट कहाँ चली तू दिल को लूट।' बॉबी देओल भी 'बादल' में रानी मुखर्जी को देखकर गाते हैं 'झूम-झूम के घूम-घूम के इसने सबको मारा ... ले ली सबकी जान, गरारा ... लाल गरारा।' 
    रंगों का ये जादू नायिका की सुंदरता ही नहीं दर्शाता, नायिका की छेड़खानी का बहाना भी बन जाता है। 'आई मिलन की रात' में काला सा काला, अरे काले हैं दिलवाले गोरियन दफा करो' क याद कीजिए। 'देवदास' का भी एक गीत बहुत चर्चित है 'हम पे ये किसने हरा रंग डाला' तात्पर्य यह कि रंगों के बहाने कोई भी बात की जा सकती है। लेकिन, दिल की व्यथा भी यही रंग बताते हैं। 'कोरा कागज' का गाना मेरा जीवन कोरा कागज़, कोरा ही रह गया' अपने आपमें मनःस्थिति और दिल की पीड़ा को उजागर करता है। इसलिए कि कोरा कागज़ सफ़ेद होता है, जो मायूसी की निशानी है।    
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Saturday, March 19, 2022

वे फ़िल्में जिनका कथानक अपने समयकाल से आगे रहा!

- हेमंत पाल 

   इंसानों की तरह, हर फिल्म का भी एक जीवनकाल होता है। इसलिए कि फ़िल्में कई बार समाज के पीछे चलती है, कभी आगे चलकर रास्ता दिखाती हैं। ऐसी फिल्मों की कमी नहीं, जिन्हें देखकर लगता है कि ये अपने समय से पहले दर्शकों के सामने आ गई! दरअसल, ये फ़िल्में एक प्रयोग की तरह होती है, जिन्हें कई बार सफलता मिल जाती है, तो कभी ये दर्शकों के गले नहीं उतरती। इन फिल्मों की सबसे खास बात होती है कि उनका ट्रीटमेंट! यदि वो दर्शकों को पसंद आ गया तो बॉक्स ऑफिस पर सफलता का झंडा गाड़ लेती हैं। ऐसे में निर्देशक के सामने चुनौती होती है कि वे फिल्म की कहानी को दर्शकों को बिना किसी उलझन के कैसे समझा पाता है। राज कपूर जैसे कुछ निर्देशकों ने ये काम बखूबी से किया है। उन्होंने मुद्दों को इतने प्रभावशाली तरीके से पेश किया उनकी फिल्में अपने वक्त से आगे की मानी गईं। लेकिन, 1970 में आई 'मेरा नाम जोकर' में उनका प्रयोग उल्टा पड़ गया था। फिल्म की असफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि ये तब के सामाजिक दायरे में फिट नहीं बैठी थी। पहली बार दर्शकों ने एक स्कूल टीचर के साथ उसके स्टूडेंट के मोह को शिद्दत से देखा था। निश्चित रूप से तब के समाज ने इसे स्वीकार नहीं किया और फिल्म सफलता नहीं पा सकी।   
     प्यासा (1957) को सिनेमा के स्वर्ण युग की फिल्म कहा जाता है। सामाजिक मानदंडों पर टिप्पणी करने की जो हिम्मत गुरुदत्त ने दिखाई वो किसी और के लिए संभव नहीं था। इस फिल्म में उनका चरित्र भी श्रेष्ठ रूप में सामने आया था। इस फिल्म के 'जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहां है' जैसे गाने आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। इसके बाद अमरदीप निर्देशित देव आनंद की 'तीन देवियां' (1965) के ज्यादातर दृश्य ब्लैक एंड व्हाइट में फिल्माए गए थे। ये एक ऐसे कवि की कहानी थी, जिसे तीन अलग-अलग महिलाओं से प्यार हो जाता है। यह फिल्म लेखक डीएच लॉरेंस की रचनाओं से प्रेरित थी। यह उस समय से बहुत आगे की फ़िल्म थी! देव आनंद की ही 1966 में आई फ़िल्म 'गाइड' की गिनती भी ऐसी ही फिल्मों में होती है। यह फिल्म जब बनी, तब के हिसाब से 'गाइड' को काफ़ी बोल्ड कहा गया था। फिल्म का नायक 'राजू गाइड' अन्य फिल्मों के नायकों की तरह सच्चाई का पुलिंदा नहीं था और न फ़िल्म की हीरोइन रोज़ी अभिनेत्रियों की तरह त्याग और सहनशीलता की मूर्ति थी। जब शादी-शुदा ज़िंदगी उसे ख़ुशियाँ न दे सकी तो उसने विवाह के बंधन के बाहर रिश्ता बना लिया। 'गाइड' को चार पीढ़ियों ने देखा और पसंद किया। इसे जब भी देखा गया, तो दर्शकों को लगता कि ये आज बनी फिल्म है। नवकेतन बैनर की करीब सभी फिल्में ऐसी ही बनी, जिन्हें देखकर लगता था कि ये वक़्त के पहले की फिल्में हैं। फिल्मों में हीरो अच्छाई का प्रतीक होता है, वो कभी कुछ बुरा नहीं कर सकता! लेकिन, 'गाइड' का राजू वैसा नहीं था। 
    फरहान अख्तर निर्देशित 'दिल चाहता है' (2001) तीन दोस्तों की कहानी थी। दोस्ती के रिश्ते और प्यार से पगी इस फिल्म में एक तरह का संदेश था। इसमें जिंदगी के खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ दोस्ती और प्यार का असली मतलब समझाया गया था। यही कारण है कि बरसों बाद भी फिल्म आज की कहानी लगती है। 2002 में आई फिल्म 'क्या कहना' को पसंद किए जाने का कारण इसमें टीनएज प्रेगनेंसी की कहानी फिल्माई गई थी। ऐसी लड़की की कहानी जिसके गर्भवती होने के बाद समाज के ताने सहने पड़ते हैं। उसके प्रेमी को कोई कुछ नहीं कहता। समय से आगे की फिल्मों में 'माई ब्रदर निखिल' (2005) भी है, जिसमें एड्स जैसा मुद्दा दिखाया गया था। जबकि, उस समय 'एड्स' पर लोग खुलकर बात करने से हिचकते थे। फिल्म में दिखाया था कि कैसे निखिल को एड्स होने की बात का पता चलते ही उसे घर वाले बाहर कर देते हैं। उसे वो सब झेलना पड़ता है, जो असल जिंदगी में भी इस बीमारी वालों के साथ व्यवहार किया जाता है। सलाम नमस्ते (2005) भी ऐसी फिल्म थी, जिसमे रिश्तों को नया विस्तार दिया गया था। 2006 की फिल्म 'कभी अलविदा ना कहना' भी अपने समय से पहले बनी फिल्म थी। फिल्म का मूल विषय हर किसी को अपने हिस्से की खुशी पाने का अधिकार है। निर्देशक करण जौहर ने फिल्म के संदेश को बहुत संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया था। फिल्म के कलाकारों के बीच कमाल की केमिस्ट्री देखने को मिली थी। 
     इसी तरह मीरा नायर ने अपनी फिल्म 'मानसून वेडिंग' में चाइल्ड अब्यूज का मुद्दा उठाया था। ये एक यौन शोषित लड़की की कहानी थी, जो अपने परिवार से इस बारे में कुछ नहीं कहती। लोग आज भी बच्चों की बात को अनसुना कर उन्हें डांट देते हैं। फिल्म ने पेरेंट्स को एक तरह से सलाह दी थी, कि अपने बच्चों की बात पर ध्यान देना कितना जरूरी है। संवेदना और सहजता के साथ फिल्म बनाना आसान नहीं होता, पर कुछ फिल्म ने इस भ्रम को तोड़ा है। 2014 में आई 'मार्गरिटा विद ए स्ट्रॉ' एक ऐसी दिव्यांग महिला की कहानी दिखाई थी, जो अपनी सेक्सुएलिटी के बारे में खोज करती है। फिल्म में एक लड़की को लड़की से प्यार हो जाता है। क्या इसे समय से पहले की फिल्म नहीं कहा जाएगा!
  1978 की फिल्म 'शालीमार' भले ही व्यावसायिक रूप से सफल नहीं हुई, पर ये देश में बनी शीर्ष फिल्मों में से एक थी। ये बेहतरीन क्लासिक फिल्म थी, जिसे हॉलीवुड और बॉलीवुड दोनों के सितारों दोनों के साथ बनाया गया था। इसके बाद आई 'जाने भी दो यारो' (1983) भी ऐसी फिल्म थी, जिसमें बेहद रोचक अंदाज में भ्रष्टाचार पर सीधी चोट की गई थी। व्यवस्था, कारोबार और मीडिया के गठजोड़ करारा व्यंग्य किया था। यह फिल्म इतनी पसंद की गई कि इसने वैकल्पिक सिनेमा को पंख लगाने जैसा काम कर दिया। कुछ फिल्में अनायास बन जाती है, जो बाद में मील का पत्थर साबित होती हैं। ये ऐसी फिल्म थी, जिसका दोबारा बनाना असंभव होता है। यह अपनी तरह की अलग ही क्लासिक फिल्म थी। 1985 में आई 'खामोश' को भी अपने समय से पहले की फिल्मों में गिना जा सकता है। इस फिल्म में कोई गीत नहीं था। 'खामोश' ने अपने दौर के दर्शकों झकझोर दिया था। सईद मिर्जा ने 1989 में जब 'सलीम लंगड़े पे मत रो' बनाई तो इसे अटपटे और लम्बे नाम के कारण खूब चर्चा मिली थी। ये फिल्म मुंबई के गैरकानूनी धंधे में शामिल एक युवक की कहानी थी। फिल्म में मानव जीवन के मूल्यों को गहराई समझाया गया था। 80 के दशक की फिल्मों के लिए इस विषय पर बनी फिल्म एक अनोखा प्रयोग था। 
    1990 में आई फिल्म 'एक डॉक्टर की मौत' एक डॉक्टर के इर्द-गिर्द घूमती कहानी थी, जो कुष्ठ रोग के लिए एक वैक्सीन तैयार करता है। प्रतिष्ठान के खिलाफ उसकी लड़ाई उसका अलग ही संघर्ष था। फिल्म की सूक्ष्मता बहुत प्रभावित करती है। यश चोपड़ा की फिल्म 'लम्हे' (1991) भी वक़्त से पहले आई फिल्म थी। इसमें एक पकी उम्र का व्यक्ति अपनी ही बेटी के प्यार में पड़ जाता है। अनाचार के रंगों के कारण 'लम्हे' को बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा सफलता तो नहीं मिली, पर इस फिल्म को बनाना ही बड़ा साहसिक काम था। यह यश चोपड़ा की बनाई सबसे बोल्ड फिल्मों में से एक रही। 'लम्हे' शायद यश चोपड़ा के अपरंपरागत मानवीय रिश्तों को दिखाने का एक अलग ही प्रयास था। धर्मवीर भारती के चर्चित उपन्यास 'सूरज का सातवाँ घोड़ा (1992) को श्याम बेनेगल की सबसे सफल फिल्मों में गिना जाता है। फिल्म का नायक मयंक मुल्ला तीन अलग-अलग महिलाओं से अपना प्रेम संबंध बनाता है। इस फिल्म में घटनाओं को एक अलग ही दृष्टिकोण से दर्शाया गया था। 
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हितानंद शर्मा में कुछ ऐसा है, जो सुहास भगत से अलग!

- हेमंत पाल

     भारतीय जनता पार्टी ने मध्यप्रदेश भाजपा के सह संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा को सुहास भगत की जगह प्रदेश भाजपा का संगठन महामंत्री नियुक्त कर दिया। सुहास भगत की संघ के वापसी की घोषणा के साथ ही इस बात की संभावना भी व्यक्त की गई थी। क्योंकि, चुनाव के डेढ़ साल पहले भाजपा कोई नया प्रयोग नहीं करना चाहती थी, इसलिए हितानंद शर्मा को ये जिम्मेदारी देना सही भी है। सुहास भगत के साथ करीब डेढ़ साल से काम करते हुए, वे संगठन की तासीर को समझ भी चुके हैं। उन्हें सितम्बर 2020 को सह संगठन महामंत्री बनाया गया था। हितानंद शर्मा की नियुक्ति को भाजपा के 'मिशन 2023' से जोड़कर देखा जा रहा है। उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान हितानंद शर्मा को वहां जिम्मेदारी दी गई थी। उन्होंने वहां चुनाव को काफी करीब से देखा है। अब उसी तर्ज पर वे मध्य प्रदेश में भी भाजपा को जिताने की तैयारी में है। शायद इसीलिए हितानंद शर्मा को ये दायित्व सौंपा गया है। 
   सुहास भगत की संघ में वापसी के साथ ही इस बात के कयास लगाए जाने लगे थे कि संघ से किसी नए व्यक्ति को ये जिम्मेदारी देने के बजाए, हितानंद शर्मा को ये पद सौंपा जा सकता है। क्योंकि, वे सहयोगी के रूप में सुहास भगत के साथ काम कर चुके हैं और संगठन में उनके संबंध भी बेहतर हैं। भाजपा के 'मिशन 2023' के लिए यदि भाजपा में यदि किसी को नया संगठन महामंत्री बनाया जाता तो मुश्किल थी। क्योंकि, विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कुछ सख्त फैसले भी लेना पड़ सकते हैं और किसी नए व्यक्ति के लिए यह आसान नहीं होता! प्रदेश भाजपा संगठन के पदाधिकारियों को समझने में भी नए व्यक्ति को ज्यादा समय नहीं मिलता। विधानसभा चुनाव में भाजपा कोई नया जोखिम नहीं लेना चाहती थी, इसलिए सह महामंत्री हितानंद शर्मा को यह जिम्मेदारी सौंपना सही फैसला है।
  भाजपा संगठन में हितानंद शर्मा को नजदीक से समझने वालों का मानना है कि सुहास भगत के मुकाबले वे ज्यादा सहज और मिलनसार हैं। उनके साथ संवादहीनता जैसी समस्या भी नहीं है, जो सुहास भगत के साथ थी। भगत तो कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते थे और मिलने से बचने की कोशिश करते! जबकि, हितानंद के साथ ये समस्या नहीं है। सह संगठन महामंत्री होते हुए भी वे सबसे खुलकर मिलते और सबकी बात सुनते रहे हैं! उनकी यही सकारात्मकता कार्यकुशलता अब उनकी जिम्मेदारी में कामकाज का आधार बनेगी।    
   हितानंद शर्मा को 27 सीटों के उपचुनाव से पहले प्रदेश संगठन में ये जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इससे पहले वे आरएसएस के सहयोगी संगठन विद्या भारती में प्रांतीय संगठन मंत्री के तौर पर कार्य कर रहे थे। हितानंद मूलतः संघ के प्रचारक हैं और आरएसएस के कई अनुषांगिक संगठनों में रह चुके हैं। उन्हें प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत के सहयोगी के तौर पर लाया गया था। हितानंद शर्मा लम्बे समय से संघ से जुड़े रहे हैं। उन्हें संगठन चलाने में माहिर माना जाता है। उन्हें 27 विधानसभा सीटों के उपचुनाव से पहले लाया गया था, जो उनके लिए परीक्षा की घड़ी था।  
  27 सीटों के उपचुनाव से पहले हितानंद शर्मा को भाजपा का सह संगठन मंत्री बनाने का कारण यह भी था कि उन्होंने चंबल और ग्वालियर क्षेत्र में लंबे समय तक आरएसएस के अलग-अलग अनुषांगिक संगठनों में काम किया है। वे वहां के माहौल और तासीर से अच्छी तरह से वाकिफ हैं। उपचुनाव की 27 सीटों में से 16 सीटें ग्वालियर-चंबल संभाग में आती थी। ऐसे में इन चुनाव में भी हितानंद का फायदा भारतीय जनता पार्टी को लेना चाहा था, जो सफल रहा। 
   भाजपा के अंदरखाने की जानकारियां बताती है कि हितानंद शर्मा को जब लाया गया था, तब सबसे बड़ा मकसद पार्टी के भीतर उठने वाले असंतोष को नियंत्रित करना था। इस नजरिए से उपचुनाव से लेकर अभी तक के कार्यकाल में हितानंद अपने लक्ष्य में सफल रहे हैं। उनके आने के बाद से मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के अंदर का असंतोष न तो उभरकर बाहर आया और न मीडिया में शीर्षक बना! उन्हें उन्हें संगठन का माहिर खिलाड़ी माना जाता है। लेकिन, उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी को तैयार करना है, इसमें वे कितने सफल होते हैं, ये बड़ा सवाल है।
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Wednesday, March 16, 2022

सुहास भगत का प्रमोशन हुआ या उन्हें हटाया गया, इसमें कई पेंच!

- हेमंत पाल

    मध्यप्रदेश के भाजपा प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत को 'संघ' (आरएसएस) में वापस में भेज दिया गया। उन्हें एमपी-छत्तीसगढ़ का बौद्धिक प्रमुख बनाया गया है। अब वे भोपाल के बजाए जबलपुर में रहेंगे। उन्हें 2016 में 'संघ' से ही भाजपा में भेजा गया था, अब वे फिर 'संघ' में बुला लिए गए। वे 6 साल से प्रदेश भाजपा में संगठन महामंत्री थे। उनके इस बदलाव को सुहास भगत के प्रमोशन के रूप में प्रचारित किया गया! कहा गया कि उन्हें दो राज्यों का बौद्धिक प्रमुख बनाया गया है। इस बात को ज्यादा जोर से कहा गया! जबकि, सच्चाई यह है कि सुहास भगत को संगठन महामंत्री के महत्वपूर्ण पद हटाया गया है। वे जिस पद पर थे, वो राजनीतिक रूप से ज्यादा महत्वपूर्ण कुर्सी थी! भले ही 'संघ' से नजरिए से बौद्धिक प्रमुख बड़ा पद कहा जा रहा हो, पर राजनीति की बारीकियों और उसकी तासीर को समझने वालों को ये प्रमोशन गले नहीं उतर रहा!  
      संघ की प्रतिनिधि सभा में हुए इस फैसले को सकारात्मक नजरिए से जरूर देखा गया हो, पर संगठन महामंत्री का उनका कार्यकाल बेदाग़ नहीं रहा। न उसे पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने सकारात्मक रूप से लिया है। उन पर पक्षपाती होने के भी आरोप लगे। कार्यकर्ताओं से संवाद के मामले में उन्हें बेहद कमजोर समझा गया। चंद लोगों को छोड़ दिया जाए, तो ज्यादातर कार्यकर्ता और नेता उनसे खुश नहीं थे। वे न तो कार्यकर्ताओं को आसानी से उपलब्ध थे और उनका संवाद सहज रहा। कई कार्यकर्ताओं को शिकायत रही, कि वे मिलते भी थे, तो संवादहीनता की स्थिति में! मोबाइल फोन में देखते हुए कार्यकर्ताओं से उनके संवाद की आदत भी नाराजगी का कारण रहा! जो कार्यकर्ता 6 साल तक खामोश रहे, अब वे मुखर होने लगे हैं। जमीनी स्तर पर संवादहीनता और अपने खास लोगों के अलावा अन्य कार्यकर्ताओं से संवादहीनता और दूरी बनाए रखना उनकी सबसे बड़ी कमजोरी रही। इस वजह से पार्टी में बरसों से काम कर रहे कार्यकर्ता अपने आपको उपेक्षित महसूस करने लगे थे! 
   मुख्यमंत्री से भी सुहास भगत के रिश्ते भी कभी सहज नहीं रहे। उनकी तरफ से सरकार और शिवराज सिंह चौहान के लिए कभी सकारात्मक धारा भी बहती दिखाई नहीं दी। जबकि, सरकार और सत्ताधारी पार्टी के संगठन में गहरा गठजोड़ होता है, पर सुहास भगत ने कभी इस दिशा में प्रयास किए हों, ऐसा नहीं लगा। यही कारण था कि पहले रहे संगठन महामंत्रियों की तरह मुख्यमंत्री का इनसे सामंजस्य नहीं बन सका। कई बार ये साफ़-साफ़ दिखाई भी दिया। इसे मुख्यमंत्री की सदाशयता ही कहा जाना चाहिए कि उन्होंने इसे जाहिर नहीं होने दिया और अपनी तरफ से सहजता बनाए रखी!  
    कहा ये भी जा रहा कि प्रदेश के विधानसभा चुनाव को करीब डेढ़ साल बचा है। ऐसे में भाजपा ने अभी से संगठन को कसना शुरू कर दिया। यदि इस बात को सही भी मान लिया जाए, तो उनकी संगठनात्मक योग्यता को देखते हुए उन्हें हटाया नहीं जाना था! पर, उन्हें 'संघ' ने भाजपा से वापस बुला लिया! जबकि, देखा जाए तो भाजपा उनके कार्यकाल में ही 2018 का चुनाव भाजपा हारी थी! बाद में जिस तरह भाजपा सरकार बनी, वो पार्टी की अपनी रणनीति का नतीजा था। निश्चित रूप उसमें सुहास भगत की कोई भूमिका नहीं रही! कहा ये भी जा रहा है, कि प्रदेश का भाजपा संगठन 2023 के चुनाव में कोई रिस्क नहीं लेना चाहता, इसलिए वो अभी से अपने तरीके से जमावट कर रहा है। सुहास भगत की 'संघ' में वापसी कहीं उसी जमावट का हिस्सा तो नहीं!      
     इससे पहले कप्तान सिंह सोलंकी प्रांत प्रचारक रहते हुए, मध्यप्रदेश भाजपा के संगठन महामंत्री बने थे। उन्हें भी पद के दायित्व से मुक्त किया गया था, पर उनकी मूल संगठन में वापसी नहीं की गई। वे बाद में भी भाजपा में काम करते रहे और राज्यपाल भी बने। अनिल दवे भी 'संघ' से भाजपा में आए थे और अपनी काबिलियत के दम पर केंद्रीय मंत्री के पद तक पहुंचे। माखन सिंह और कृष्णमुरारी मोघे को भी संगठन मंत्री बनाकर भेजा गया था, उनकी भी वापसी नहीं हुई। इसलिए सुहास भगत की 'संघ' में वापसी को प्रमोशन कहना गले उतरने वाली बात नहीं है।  
   इस बात से इंकार नहीं कि सुहास भगत ने अपने कार्यकाल में कई नए प्रयोग शुरू किए। युवाओं को संगठन में ज्यादा मौका दिया। मंडल अध्यक्षों के लिए अधिकतम 35 साल का आयु बंधन लागू किया। फिर जिला अध्यक्षों के लिए भी 45 साल पैमाना बनाया गया। इसका अच्छा नतीजा भी निकला और प्रदेश में नई भाजपा बन गई। उन्होंने पूरी तरह संघ के एजेंडे के हिसाब से काम किया। बहुत से नए प्रयोग किए! पर, जरूरी नहीं कि सभी प्रयोग सफल हों! क्योंकि, राजनीति में कई ऐसे पेंच होते हैं, जो कब और कहां खुल जाए कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। ऐसा ही कुछ सुहास भगत के प्रयोगों में भी हुआ!  
   संगठन महामंत्री बनते ही सुहाग भगत ने विंध्य क्षेत्र के संगठन मंत्री चंद्रशेखर झा को हटाया था। इस फैसले पर कई विपरीत टिप्पणियां भी हुई। प्रदेश सह संगठन मंत्री के रूप में उनकी अतुल राय की नियुक्ति भी चर्चा में रही। बाद में शिकायतों के बाद अतुल राय को हटाना गया। पार्टी के जिला अध्यक्षों की नियुक्ति में हुए विवाद को तो आज भी कोई भूला नहीं! सुहास भगत ने दर्जनभर जिलों में अपनी पसंद के अध्यक्ष बनाए थे। बताया गया था कि उन जिलों के वरिष्ठ भाजपा नेताओं से इस बारे में बात तक नहीं की गई। यही कारण था कि जिला अध्यक्षों के नाम सामने आते ही इंदौर, खरगोन और ग्वालियर में जमकर विरोध हुआ था। इंदौर में तो भाजपा नेता उमेश शर्मा ने तो तभी से कमर कस रखी है, जो कई बार उनकी नाराजगी के रूप में सामने भी आई!  
    शिकायत के आधार पर संभागीय संगठन मंत्री के पद से हटाए गए चार लोगों को फिर लाभ के पद पर बैठाना सुहास भगत के कार्यकाल का अच्छा फैसला नहीं कहा गया। जिन संगठन महामंत्रियों को हटाया गया, वे फिर ऐसे पदों पर बैठ गए, जिसके लिए भाजपा के निष्ठावान नेताओं ने उम्मीद लगा रखी थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जयपाल सिंह चावड़ा को इंदौर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाया जाना! अनुशासन से बंधे होने के कारण किसी नेता ने खुलकर मुंह तो नहीं खोला, पर इस पर अंदर ही अंदर विरोध बहुत हुआ! जिस दिन चावड़ा ने अध्यक्ष पद ग्रहण किया, सारे नेताओं को वहां मौजूद रहने की हिदायत दिए जाने की भी ख़बरें थीं। दरअसल, चावड़ा के विरोध का सबसे बड़ा कारण था, उनका बाहरी होना! इतना बाहरी कि वे जिस देवास के हैं, वो उज्जैन संभाग का एक जिला है! जो व्यक्ति इंदौर का ही नहीं है, उसे विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाया जाना कहां तक उचित था!      
   कार्यकर्ताओं के नजरिए से कुशाभाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल, कृष्णमुरारी मोघे, कप्तानसिंह सोलंकी, भगवतशरण माथुर, माखन सिंह और अरविंद मेनन की तुलना में सुहास भगत को लोकप्रिय संगठन महामंत्री नहीं कहा जा सकता! उनके फैसलों की कभी दबकर तो कभी खुलकर आलोचना होती रही। उनके रहते संगठन और विचारधारा का पक्ष पीछे छूटता गया, ये कहने वालों की कमी नहीं है। ऐसे हालात में यदि ये कहा जाए कि सुहास भगत का प्रमोशन करके उन्हें दो राज्यों का बौद्धिक प्रमुख बनाया गया, तो ये तार्किक रूप से सही कैसे माना जाए! यदि वास्तव में सुहास भगत का प्रमोशन ही किया जाना था तो उन्हें 'संघ' में उनकी मर्जी का काम दिया जाता। वे संघ के प्रकल्प 'नर्मदा समग्र' में जाना चाहते थे और 'नदी का घर' में रहने की मंशा रखते थे। लेकिन, उन्हें भोपाल के बजाए जबलपुर भेज दिया गया। इन सारी सच्चाइयों को देखते हुए कैसे मान लिया जाए कि वे प्रमोशन पर बौद्धिक प्रमुख बने हैं!  
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Saturday, March 12, 2022

जीवन, सिनेमा और रेल के पहियों पर सवार कथानक

 - हेमंत पाल

    हिंदी सिनेमा के इतिहास में सिर्फ बदलते समय फिल्मों के कारण ही बदलाव नहीं आया, उससे नए-नए किस्से-कहानियां भी जुड़ते गए। ऐसा ही एक माध्यम बना रेल, जिसके बिना सिनेमा का इतिहास कभी पूरा नहीं हो सकता। एक समय ट्रेन का सफर स्टेटस सिंबल बना था, उसी समय सिनेमा में भी इसे अपनी कहानियों में शामिल किया। रेलों पर अफसाने लिखे जाने लगे और ट्रेन के सफर में मिलन के दृश्य फिल्माए गए। सिनेमा और रेल का रिश्ता तो सिनेमा के जन्म के साथ ही जुड़ गया था। क्योंकि, लुमियर बंधुओं की शुरूआती लघु फिल्मों में प्लेटफार्म पर रेल के रुकने और यात्रियों के चढ़ने-उतरने के दृश्य थे। वास्तव में रेल कई लोगों के जीवन से बहुत गहराई से जुड़ी है। हर किसी के पास रेल सफर से जुड़ी कई खट्टी-मीठी यादें होती हैं। जब यही दृश्य उसे फिल्म में दिखाई देते हैं, तो वो इससे कनेक्ट होता है। ऐसे कई फिल्मकार हैं, जिन्होंने अपनी कहानियों में रेल के सफर को हिस्सा बनाया। फिल्में समाज का आईना होती हैं और इसीलिए फिल्मकारों ने रेल को खूबसूरती से अपनी कहानी में पिरोया। कई अहम फिल्में जिनकी कहानी रेल से शुरू हुई या रेल के दृश्य ने फिल्म को एक अलग दिशा में मोड़ दिया! इसलिए कि कहानी को सरल ढंग से बयां करने के लिए रेल बहुत महत्वपूर्ण है। एक्शन, रोमांस, इमोशन सभी तरह के दृश्य बड़े सहज ढंग से ट्रेनों पर फिल्माए गए। कई फिल्में हैं, जिन्हें आज भी सिर्फ रेल पर फिल्माए गए सीन के कारण याद किया जाता है। 
   बीते जमाने की बात करें, तो 1934 में पहली बार 'तूफान' फिल्म में रेल का सीन फिल्माया गया था। इसके बाद तो रेल पर फिल्मों का सफर चलने लगा। ये वो दौर था, जब रेल और फ़िल्में लोगों के जीवन का हिस्सा बन रही थीं। इसके बाद 1936 में बनी 'अछूत कन्या' की कहानी तो रेल ट्रैक के आसपास ही घूमती है। क्योंकि, नायिका का पिता रेलवे क्रॉसिंग पर हरी झंडी दिखाने का काम करता है। 1955 में आई एक फिल्म का नाम ही 'रेलवे प्लेटफार्म' था। इसके मुख्य कलाकार सुनील दत्त और नलिनी जयवंत थे। 1942 में महबूब खान की फिल्म 'रोटी' में भी रेल के दृश्य थे। 1958 की फिल्म '16वां साल' में 'है अपना दिल तो आवारा' गीत को देवानंद और वहीदा रहमान पर ट्रेन में फिल्माया गया था। गीत को काफी पसंद इसलिए किया गया क्योंकि पहली बार किसी नायक ने सबके सामने अपने दिल का हाल बयां किया था। 1960 में आई फिल्म 'काला बाजार' में भी एक गीत रेल की बोगी में फिल्माया, जिसमें देव आनंद नीचे वाली और वहीदा रहमान ऊपर वाली सीट पर होती है। 1969 में आई 'आराधना' में 'मेरे सपनों की रानी' गीत का फिल्मांकन रेल में हुआ था। 1988 में अमिताभ बच्चन और मीनाक्षी शेषाद्री की फिल्म 'गंगा-जमुना-सरस्वती' का गाना 'साजन मेरा उस पार है' भी रेल में फिल्माया था। कमाल अमरोही की कालजयी फिल्म ‘पाकीज़ा’ में रेल का एक महत्वपूर्ण दृश्य था, जो मीना कुमारी और राजकुमार पर फिल्माया था। इस अकेले दृश्य में जीवंतता लाने के लिए कमाल अमरोही ने कमालिस्तान स्टूडियो में ट्रेन की पटरी बिछवाई और रेल का डिब्बा बनवाया था। 
   यश चोपड़ा को तो रोमांटिक फिल्मों का बादशाह कहा जाता रहा! लेकिन, उनकी ज्यादातर फिल्मों में रोमांस के दृश्य इन्हीं रेलों में फिल्माए गए। क्योंकि, यश चोपड़ा फिल्मों में रेलवे का बखूबी चित्रण करते थे। 'मशाल' (1984) में उन्होंने एक गाने 'मुझे तुम याद रखना' की शूटिंग ट्रेनों के इर्द-गिर्द की थी। इसके बाद शाहरुख खान के साथ फिल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' (1995) बनाई। इसमें शाहरुख और काजोल के बीच ऐसे यादगार सीन फिल्माए, जो दर्शक कभी भूल नहीं सकते! इस फिल्म का वो सीन जिसमें नायिका नायक से मिलने के लिए स्टेशन पर काफी दूर तक दौड़ती है। उनकी फिल्म 'वीरजारा' (2004) में भी ट्रेन का बेहतरीन चित्रण किया गया। शाहरुख खान ने फिल्म 'दिल से' (1998) में मलाइका अरोड़ा खान के साथ एक गाने 'छइयां छइयां' की शूटिंग चलती ट्रेन की छत पर की, जो खासा लोकप्रिय हुआ। 'स्वदेश' में भी शाहरुख़ रेल पर बैठे हुए दिखाई दिए। यह फिल्म भले ही हिट नहीं हो सकी, लेकिन इसकी काफी तारीफ हुई। इसके बाद शाहरुख की 'चेन्नई एक्सप्रेस' ने भी धमाल मचाया। फिल्म की शुरुआत भी रेल से होती है।  
      70 के दशक में लगभग हर फिल्म में कोई कोई सीन रेल से जुड़ा जरूर होता था। शोले (1975) में पुलिस अफसर बने संजीव कुमार की जय-वीरू से पहली मुलाकात रेल में ही होती है। फिल्म में डाकुओं और पुलिस के बीच लम्बी लड़ाई दिखाई गई। 'द बर्निग ट्रेन' (1980) का तो कथानक ही ट्रेन से जुड़ा था। इसमें पहली बार चलने वाली एक ट्रेन में आग लगने के बाद उसे बुझाने की कोशिशें दिखाई गई थी। जब बी मेट, चेन्नई एक्सप्रेस, बंटी और बबली, 1.40 की लास्ट लोकल जैसी कई ऐसी फिल्में आई, जिनका सफर रेलों के साथ ही पूरा हुआ। रेल में कई ऐसे सीन शूट किए गए, जिसे लोग काफी पसंद किया। 
'गदर' का वो दृश्य जिसमें हीरो अपनी प्रेमिका को पाकिस्तान से ला रहा है और रेल पर पाक फौजी उसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं। आमिर खान तो फिल्म 'गुलाम' के एक दृश्य में रेल से रेस लगाते हैं। करीना कपूर और शाहिद कपूर की फिल्म 'जब वी मेट' के तो ज्यादातर दृश्य रेल में ही फिल्माए, जो काफी यादगार रहे। ऐसी ही 2013 की फिल्म 'राजधानी एक्सप्रेस' थी, जिसके जरिए टेनिस लिएंडर पेस ने बॉलीवुड में कदम रखा। लेकिन, ये रेल पटरी से उतर गई। फिल्म में पेस ने दमदार भूमिका निभाई, लेकिन उनका यह अंदाज लोगों को पसंद नहीं आया। खुशवंत सिंह के उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ से प्रेरित होकर पामेला रुक्स ने भी फिल्म बनाई थी। 
    राजकपूर के बारे में कहा जाता है कि वे ‘रिश्वत’ नाम की एक कहानी पर फिल्म बनाना चाहते थे, पर वे बना नहीं सके! इस कहानी में रेल की बोगी को मुख्य आधार बनाया गया था। कहानी का नायक एक रिटायर्ड शिक्षक होता है, जो अपने केंद्रीय मंत्री बने बेटे से मिलने दिल्ली जाता है। पूरी फिल्म रेल के एक डिब्बे में बनना थी। कथानक का आधार था कि रेल का एक डिब्बा देश की विविधता का ऐसा प्रतीक है, जिसमें कई धर्मों, भाषाओं और विचारधाराओं के लोग एक साथ यात्रा करते हैं। कहानी में ये भी था कि डिब्बे में कितनी भी भीड़ हो, जैसे ही सफर शुरू होता है, सभी को जगह मिल जाती है। सीट पर बैठे यात्री भी अपनी सीट में खड़े यात्रियों को जगह देते हैं। राजकपूर इस फिल्म के जरिए अपनी फिल्म ‘जागते रहो’ की तरह देश की विसंगतियों और विषमताओं के बीच आम आदमी के कष्ट की कहानी दिखाना चाहते थे, पर उनकी ये इच्छा अधूरी रह गई।  
     कई फिल्मों में रेल डकैती के दृश्य फिल्माए गए। दिलीप कुमार की ‘गंगा-जमुना’ में रेल डकैती का दृश्य बहुत रोमांचक बन पड़ा था। ‘शोले’ में भी उसी तर्ज का एक दृश्य था। फिल्म 'प्लेयर्स' में भी चलती ट्रेन में डकैती डालते हुए दिखाया गया है। हालांकि यह फिल्म एक हॉलीवुड फिल्म से प्रेरित थी। लेकिन 'प्लेयर्स' में अभिषेक बच्चन समेत कई कलाकार करोड़ों के सोने के लिए चलती ट्रेन में लूटपाट करते हैं। एक्शन फिल्मों से करियर की शुरुआत करने वाले अक्षय कुमार की 2004 में आई फिल्म 'खाकी' में भी ट्रेन का अहम किरदार रहा। इस फिल्म में बदमाशों से बदला लेने के लिए पुलिस की टीम ट्रेन का सहारा लेती है। बोनी कपूर ने अपनी फिल्म 'रूप की रानी, चोरों का राजा' में रेल में डकैती का बेहद रोमांचक दृश्य था। नायक हेलिकॉप्टर से चलती रेल पर उतरता है और मालगाड़ी के डिब्बे का दरवाजा खोलकर सारा माल बाहर फेंकता है। उसके साथी फेंके माल को ट्रक में भरकर ले जाते हैं। यह किसी हिंदी फिल्म में रेल डकैती का श्रेष्ठ दृश्य बन पड़ा था। एक फिल्म में रेल के कूपे में तलाकशुदा पति-पत्नी सालों बाद मिलते हैं। लंबी यात्रा के दौरान वे नजदीक आते हैं और उनका टूटा रिश्ता फिर जुड़ जाता है। राजेश खन्ना की फिल्म 'रोटी' में चलती ट्रेन को दिखाया गया था। सलमान खान भी रेल के खासे दीवाने रहे। उनकी कई सफल फिल्मों जैसे तेरे नाम, दबंग, वांटेड की शूटिंग रेलवे प्लेटफार्म व ट्रैक पर हुई। 2008 में आई कई ऑस्कर पुरस्कार विजेता फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर में भी चलती ट्रेन को फिल्माया था। किशोर कुमार की 'हाफ टिकट' में भी रेल थी।  
    शम्मी कपूर की पहली फिल्म का तो नाम ही 'रेल का डिब्बा' था। राजेश खन्ना ने भी 'द ट्रेन' में काम किया, पर फिल्म की कहानी में ट्रेन का कोई जिक्र नहीं था। 'अजनबी' में जरूर उन्होंने स्टेशन मास्टर की भूमिका निभाते हुए मालगाड़ी के डिब्बे पर जीनत के साथ 'हम दोनो दो प्रेमी' गाना गाकर दर्शकों को लुभाया था। रेल और रेल पर फिल्माए जाने वाले गीतों में 'आशीर्वाद' का अशोक कुमार पर फिल्माया एक गाना बेहद लोकप्रिय हुआ था। 'प्रोफेसर' का मैं चली में चली, 'मेरे हुजूर' का रुख से जरा नकाब हटाओ, 'विधाता' में शम्मी कपूर ने इंजन ड्राइवर बनकर 'हाथों की चंद लकीरों का' गीत गाया था। 'जब प्यार किसी से होता है' का जिया ओ जिया कुछ बोल दो, 'खूबसूरत' का इंजन की सिटी में म्हारो मन डोले, 'दीवाना' का हम तो जाते अपने गांव और 'लाट साहब' का सवेरे वाली गाड़ी से चले जाएंगे उल्लेखनीय है। 
      मिलन और बिछुड़ने के दृश्यों में भी फिल्मकारों ने रेल और प्लेटफॉर्म का अच्छा उपयोग किया है। 'दो उस्ताद' में राज कपूर और शेख मुख्तार बचपन में मालगाड़ी के अलग-अलग रैक पर चढ जाते हैं। रास्ते में मालगाड़ी के रैक कटकर अलग-अलग दिशाओं में चले जाते हैं। इसकी नकल करके सलीम जावेद ने 'हेराफेरी लिखी' तो इस दृश्य को ज्यों का त्यों उठा लिया था। 'तीसरी कसम' और 'सदमा' दो ऐसी फिल्में हैं, जिनके अंतिम दृश्य में रेल में बैठकर नायिका की बिदाई के दृश्य इतने मार्मिक थे कि दर्शक नम आँखे लिए सिनेमा हॉल से बाहर आता है। 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' का रेल पकड़ने को बेचैन बेटी का हाथ छोड़कर भीगी आंखों और रुंआसी आवाज में कहा गया अमरीश पुरी का संवाद 'जा सिमरन, बना लें अपनी जिंदगी' दर्शक कभी नहीं भूल पाएंगे। 'इज़ाज़त' में रेखा और नसीरुद्दीन शाह एक स्टेशन प्लेटफार्म के वेटिंग रूम में मिल जाते हैं। नसीर भारी बारिश में भीगकर आते हैं। रेखा का पति शशि कपूर होता है, रेखा चली जाती है। जाते हुए पीछे मुड़कर जिस कशिश से नसीर को देखती है, वो अनूभूति की सघनता का विरल लम्हा है। ये दृश्य दर्शाता है कि दोनों में कुछ ऐसा था, जो जाते हुए महसूस हुआ। 
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Friday, March 4, 2022

वैधव्य की सफेदी पर फ़िल्मी रंग के छींटे

- हेमंत पाल

    रत के जीवन में कई पड़ाव आते और जाते हैं। कुछ उन्हें जीवन के सपनों की मंजिल की और ले जाते हैं, कुछ उनकी जिंदगी में ठहराव बनते हैं। वैधव्य ऐसा ही पड़ाव है, जहां आकर औरत की जिंदगी ठहर सी जाती है। ये वो मुकाम है, जहां औरत के जीवन से सम्मान का ख़त्म हो जाता है। इसके बाद उसे अपमान, अवमानना और अन्याय सहते हुए जीवन जीने को बाध्य होना पड़ता है। लेकिन, समय के बदलाव के साथ औरतों के प्रति समाज का नजरिया बदला है। इसके साथ सिनेमा ने भी विधवा नारी के जीवन पर केंद्रित फ़िल्में बनाकर इस बदलाव का संकेत दिया। लेकिन, यह सब एक दायरे तक ही सीमित रहा! विधवा उद्धार पर फ़िल्में बनाने में फिल्मकार आज भी हिचकिचाते हैं। इसलिए कि सिनेमा की रंगीनियत में वैधव्य का सफेद रंग कहीं कमाई में बाधक न बन जाए! इस विषय को अनदेखा तो नहीं किया गया, पर इस दमदार विषय को उठाने वाली फिल्मों का अभाव तो लगता है। पलटकर देखा जाए तो ज़्यादातर फ़िल्मकार इस संवेदनशील विषय पर फ़िल्म बनाने से बचते रहे। लेकिन, ऐसे निर्माता-निर्देशक भी हैं, जिन्होंने इस मुद्दे पर अपनी आवाज़ बुलंद कर विधवाओं की ज़िंदगी पर फ़िल्म बनाने का साहसिक फैसला किया। इनमें महबूब खान राजकपूर, वी शांताराम, यश चोपडा से लगाकर शक्ति सामंत और राकेश रोशन जैसे बड़े फिल्मकार शामिल है। 
     देखा गया है कि फिल्मों मे विधवाओं को महज फिलर की तरह उपयोग में लाया जाता रहा। दिखाया यह जाता कि हीरो की मां विधवा है, जो सिलाई-कढ़ाई करके अपने बेटे का लालन-पालन करती थी। बाद में ये बच्चा या तो 'त्रिशूल' के अमिताभ की तरह अच्छा निकलता है या 'दीवार' के अमिताभ की तरह बिगड़ जाता है। ऐसी फिल्मों की गिनती नहीं, जिनमें विधवा महिला की भूमिका बहुत सीमित रही! सबसे पहले महबूब खान ने इस विषय को कुरेदा और विधवा महिला के संघर्ष को लेकर 1940 में फिल्म 'औरत' बनाई! बाद में 1957 में उसका रंगीन संस्करण 'मदर इंडिया' के रूप में बनाकर एक विधवा की व्यथा-कथा को बेहद मार्मिक तरीके से पेश किया गया। नरगिस ने इसमें विधवा का सशक्त रोल निभाया था। दिखाया गया था कि पति की मौत के बाद अकेली औरत कैसे अपने बच्चों को पालती और खुद को ज़माने की गंदी नजरों से भी बचाती है। फिल्म के अंत में नरगिस अपने बिगड़े बेटे को ही गोली मार देती है। 
      शक्ति सामंत को थ्रिलर बनाने में माहिर माना जाता था। उन्होंने भी विधवा प्रेम और विवाह को लेकर कई सफल फिल्में बनाई। इसकी शुरुआत गुलशन नंदा के उपन्यास पर बनी फिल्म 'कटी पतंग' से की, जिसमें आशा पारेख ने विधवा की भूमिका निभाई थी। ‘कटी पतंग’ की कहानी विधवा विवाह पर केंद्रित थी, पर उसमें कई पेंच थे। इस कहानी पर हॉलीवुड में पहले ‘नो मैन ऑफ हर ओन’ के नाम से फिल्म बन चुकी थी। ये फिल्म भी एक उपन्यास पर आधारित है जिसका नाम था 'आई मैरीड ए डेड मैन' जिसके लेखक कॉर्नेल वूलरिच हैं। बाद में ‘कटी पतंग’ के तमिल में ‘नेनिजिल ओरू मूल’ और तेलुगू में ‘पुन्नामी चंद्रडुडु’ के नाम से रीमेक भी बने। इससे पहले उन्होंने शर्मिला टैगोर को 'आराधना' में विधवा के रूप में दिखाया था। शक्ति सामंत की तरह ही राकेश रोशन भी कमर्शियल फिल्में बनाने के लिए मशहूर रहे हैं। उनकी दो फिल्मों 'खून भरी मांग' और 'करण अर्जुन' में उन्होंने विधवाओं के संघर्ष को मनोरंजक अंदाज में पेश किया था।
    ऐसी फिल्मों में एक 1975 में आई 'शोले' भी थी। इसमें जया बच्चन ने विधवा राधा का किरदार निभाया था। खलनायक गब्बर सिंह ठाकुर के पूरे परिवार को खत्म कर देता है, उसमें राधा का पति भी होता है। जया भादुड़ी ने शांत और सुशील विधवा बहू के किरदार को बेहद संजीदगी से निभाया और अमिताभ ने फिल्म में जय का किरदार निभाया था। राधा और जय में नजदीकी बढ़ती ही है, कि जय की मौत हो जाती है! मौत के बाद जया का खिड़की बंद करने का दृश्य बेहद मार्मिक था। राज कपूर बैनर की 'प्रेम रोग' इस विषय पर केंद्रित बेहतरीन फिल्म थी। इसमें ऋषि कपूर (देवधर) ने गरीब अनाथ का किरदार निभाया, जिसकी बचपन से पद्मिनी कोल्हापुरी (मनोरमा) से दोस्ती थी। लेकिन, मनोरमा की शादी अमीर लड़के से करवा दी जाती है। वक्त की मार पड़ती है और उसके पति का निधन हो जाता है। विधवा मनोरमा का जेठ ही उसकी इज्जत लूट लेता है। ससुराल में इतना बड़ा जख्म मिलने के बाद वो पिता के घर लौट आती है। यहां फिर उसकी मुलाकात देवधर से होती है, वो उसे नई जिंदगी देने की कोशिश करता है। इस फिल्म के गाने भी लोकप्रिय हुए थे। निरूपा राय को की 'दीवार' (1975) और वहीदा रहमान की 'त्रिशूल' (1978) को भुलाया नहीं जा सकता! स्मिता पाटिल की फिल्म 'वारिस' को भी इस विषय पर बनी अच्छी फिल्म माना जाता है। 1966 में मीना कुमारी और धर्मेंद्र की फिल्म 'फूल और पत्थर' की नायिका विधवा होते हुए एक अपराधी से प्रेम करती है। मीना कुमारी ने इसके बाद 'दुश्मन' और 'मेरे अपने' में भी विधवा महिला की सशक्त भूमिका निभाई, पर ये फिल्म का मुख्य कथानक नहीं था। कल्पना लाजमी ने अपनी 'रूदाली' में राजस्थान की उन विधवाओं की व्यथा कही, जो अपने जीवन-यापन के लिए दुख के अवसरों पर जाकर रोने का काम करती है।
   1997 में आई फिल्म 'मृत्युदंड' में माधुरी दीक्षित ने दृढ विश्वासी महिला की भूमिका निभाई थी। वो ऐसी महिला की भूमिका में थी, जो अपने साथ दूसरी औरतों के अधिकारों के लिए लड़ती है। बाद में पति की मौत का बदला भी लेती है। रानी मुखर्जी की फिल्म 'बाबुल' में भी पति की मौत के बाद के हालात थे। ससुर दोबारा उसकी शादी पसंद के लड़के से करवा देते हैं। 2005 में आई 'वाटर' थोड़ी अलग तरह की फिल्म थी। फिल्म में लीजा रे, सीमा विश्वास और सरला करियावासम थीं। इसका कथानक विधवा आश्रम के आसपास घूमता है। 2019 में आई 'द लास्ट कलर' में भी एक विधवा महिला (नीना गुप्ता) का संघर्ष दिखाया गया था। ओटीटी पर आई फिल्म 'पगलैट' में सान्या मल्होत्रा ने भी विधवा की भूमिका निभाई थी, जो शादी के कुछ दिन बाद ही विधवा हो जाती है। उसका पति से कोई जुड़ाव नहीं हो पाता। पति के निधन के बाद वो उसकी तस्वीर पर आने वाले कमेंट और लाइक गिनने में ही बिजी होती है। 
   शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली को भी यह विषय बहुत पसंद था। वे धर्मेन्द्र को लेकर राजेन्द्र सिंह बेदी के उपन्यास 'एक चादर मैली सी' पर फिल्म बना रही थी, जो करीब पूरी हो चुकी थी। लेकिन, उनकी मौत के बाद यह फिल्म प्रदर्शित नहीं हो सकी। पत्नी की मौत से शम्मी कपूर इतने दुखी हुए कि उन्होंने अपने हाथ से फिल्म की निगेटिव को जला दी थी। बाद में इस विषय पर हेमा मालिनी और ऋषि कपूर की फिल्म 'एक चादर मैली सी' भी आई, जो ज्यादा सफलता हासिल नहीं कर सकी। राजेन्द्र सिंह बेदी की इसी कहानी पर धर्मेंद्र और वहीदा रहमान की 'फागुन' भी आई थी! लेकिन, ये भी दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ने में नाकामयाब रही।
      कुछ फिल्मों में विधवाओं को अलग अंदाज में भी दिखाया गया। इसका मकसद भले हास्य रचना रहा हो, पर पहले शशिकला और बाद में बिन्दु ने कई फिल्मों में जवान विधवा का यह कामुक चरित्र निभाया जो वितृष्णा पैदा करता था। जबकि, कुछ अभिनेत्रयों को इस विधवा चरित्र निभाने में सिद्धहस्त माना गया। उन्हें बार-बार ऐसी भूमिकाएं भी मिली। मीना कुमारी ने विधवा की भूमिका में परदे पर कई बार आंसु बहाए। दुश्मन, मेरे अपने, फूल और पत्थर इसके उदाहरण हैं। राखी को भी अपनी पहली फिल्म 'जीवन मृत्यु' में विधवा विलाप करना पड़ा था। इसके बाद रेशमा और शेरा, करण-अर्जुन, दूसरा आदमी, राम लखन सहित आधा दर्जन फिल्मों में वे कभी सफेद तो कभी काली साड़ी पहने दिखाई दी। जबकि, रेखा ने 'खून भरी मांग' और 'फूल बने अंगारे' में विधवा बनकर बदला लिया। पुरानी अभिनेत्रियों में लीला चिटनिस, सुलोचना, ललिता पवार, लीला मिश्रा, दुर्गा खोटे और अचला सचदेव को भी दर्शकों ने ज्यादातर विधवा रूप में ही देखा है।
   हिन्दी फिल्मों में अक्सर महिलाओं को विधवा तब दिखाया जाता है, जब वे हीरो या हीरोइन की मां होती है। जिन फिल्मों में मुख्य नायिका को विधवा दिखाया गया, वो भी कुछ समय के लिए! उनके पति के मरने की झूठी खबर आती है या पति इन्हें छोड़कर चला जाता है। फिल्म के अंत तक वो लौट आता है। राज कपूर की संगम, देव आनंद की हम दोनों, ऋषि कपूर-शाहरुख खान की दीवाना, शशि कपूर और आशा पारेख की 'कन्यादान' भी ऐसी ही फिल्में थी। कुछ फिल्मों में नायिका जमाने को दिखाने के लिए विधवा होने का स्वांग करती है और छुप छुपकर अपने पति से मिलती रहती है। देव आनंद, नूतन की फिल्म 'बारिश' और देव आनंद और उषा किरण की फिल्म 'पतीता' भी ऐसी ही फिल्में थी। इसके अलावा रोहेना गेरा की फिल्म इज लव इनफ, इरफान खान और पार्वती थिरूवोथू अभिनीत करीब-करीब सिंगल, नीना गुप्ता की द लास्ट कलर, आयशा टाकिया और गुल पनाग की डोर और विद्या बालन, अरशद वारसी और नसीरुद्दीन शाह की' इश्किया' भी विधवाओं को केन्द्र में रखकर बनाई गई फ़िल्में थीं। सामाजिक समस्या से जुड़ा ये सिलसिला बरसों से जारी है और अनंतकाल तक चलता रहेगा।  
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