Sunday, February 26, 2023

आज भी बरक़रार है ब्लैक एंड व्हाइट का जादू!

- हेमंत पाल

    हिंदी सिनेमा ने अपने सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास ने कई उतार-चढाव देखे हैं। इनमें कुछ संघर्ष भरे, कुछ अच्छे थे, कुछ बहुत अच्छे और यादगार पड़ाव रहे। शुरुआती समय में फ़िल्में बनाना बेहद दुष्कर काम था! पर, जैसे-जैसे तकनीक समृद्ध हुई, फिल्मकारों के काम में भी रचनात्मकता आई। तकनीकी सुधार से फिल्मांकन, संगीत और डायरेक्शन में भी बहुत बदलाव आया। शुरू के दौर में जो फ़िल्में ब्लैक एंड व्हाइट बनती थीं, वे धीरे-धीरे रंगीन होने के साथ बेहतर होती गई। जब फिल्मों ने जीवन की वास्तविकता रंग लिए, तो लोगों ने ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों को लगभग भुला दिया। लेकिन, आज भी उस दौर की कुछ फ़िल्में ऐसी हैं, जो अपनी कहानी, डायरेक्शन, फिल्मांकन और अभिनय के मामले में आज की फिल्मों पर भारी हैं।
     70 के दशक के बाद तो ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्में बनना बंद ही हो गई! लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट काल की कुछ यादगार फ़िल्में ऐसी हैं, जिन्हें आज भी पसंद किया जाता है। ये फ़िल्में उन पुरानी विंटेज कार की तरह हैं, जिनमें बैठने वाला अपने आपमें कुछ अलग ही महसूस करता है। क्योंकि, ये फ़िल्में भी किसी विंटेज से कम नहीं! सभी तो नहीं, पर कुछ फ़िल्में ऐसी हैं, जो आज भी देखी जाती हैं। ये वे फिल्में हैं, जो जीवन की सच्चाइयों से रूबरू कराने के साथ कई सामाजिक मुद्दों की तरफ इंगित करती हैं। इन फिल्मों के कलाकार भी अपने दौर के वे लोग हैं, जिनके अभिनय का आज भी लोहा माना जाता है।
    पसंद की जाने वाली फिल्मों में 1949 की फिल्म 'महल' को रखा जा सकता है। कमाल अमरोही के निर्देशन में बनी इस फिल्म में अशोक कुमार और मधुबाला ने काम किया था। ये पुनर्जन्म से जुड़ी अलौकिक सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। ये दो प्रेमियों के मिलन और बिछड़ने की कहानी है। एक महल में दो प्रेमी आधी रात को मिलते हैं। एक दिन प्रेमी एक हादसे का शिकार हो जाता है और प्रेमिका से मिलने नहीं आ पाता। कई सालों के बाद नया मालिक अशोक कुमार वहां रहने आता है, तब रहस्य सामने आता है। इसमें मधुबाला ने दोहरी भूमिका निभाई थी। ऐसी ही एक फिल्म है 1951 की 'आवारा' जिसके निर्देशन के साथ राज कपूर ने इसमें काम भी किया था। इस फिल्म ने देश-विदेश में कामयाबी के कई झंडे गाड़े थे। फिल्म में पृथ्वीराज कपूर ने जज की भूमिका निभाई थी। इसी साल (1951) में आई फिल्म 'अलबेला' का निर्देशन मास्टर भगवान ने किया था और इसके कलाकार थे गीता बाली और मास्टर भगवान। फिल्म की कहानी एक गरीब पर केंद्रित थी, जो अपनी बहन की शादी के लिए पैसे नहीं जुटा पाता है। घर से निकलते समय अमीर के रूप में लौटने की कसम खाता है। जब वो वापस लौटता है, तो उसे पता चलता है कि उसकी माँ अब जीवित नहीं है। उसने सालों तक जो पैसे घर भेजे, वे भी गायब थे। 
        निर्देशक बिमल रॉय की फिल्म 'दो बीघा ज़मीन' (1953) में बलराज साहनी, मुराद, निरूपा रॉय ने काम किया था। रवींद्रनाथ टैगोर की बंगाली कविता 'दुई बीघा जोमी' इस फिल्म की नींव थी। इस फिल्म में गरीब किसान ठाकुर हरनाम सिंह (मुराद) के हाथों गरीब किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) के संघर्ष और जबरन वसूली का दर्दभरा चित्रण था। किसान और उसका परिवार दो एकड़ जमीन बचाने के लिए अपना जीवन ख़त्म कर देते हैं, जो उनकी जीविका का एकमात्र साधन होता है। 1954 में आई फिल्म 'बूट पॉलिश' को प्रकाश अरोड़ा ने निर्देशित किया था। इसके कलाकार कुमारी नाज़, रतन कुमार, चंदा बुर्के और डेविड थे। यह फिल्म भाई-बहन भोला (रतन कुमार) और बेलू (कुमारी नाज़) की कहानी थी। मां की मौत के बाद, क्रूर चाची कमला देवी (चंदा बुर्के) भाई और बहन को सड़क भिखारी बनने के लिए मजबूर करती है। जॉन अंकल (डेविड अब्राहम) की मदद से, भोला और बेलू अपनी चाची के खिलाफ जाने और जीवन जीने का फैसला करते हैं। 1955 में आई फिल्म 'बाप रे बाप' को अब्दुल रशीद कारदार ने निर्देशित किया था। किशोर कुमार, चाँद उस्मानी, स्मृति बिस्वास  की ये फिल्म एक सुपर-हिट कॉमेडी थी। 
    ब्लैक एंड व्हाइट दौर की राज कपूर निर्देशित क्लासिक फिल्मों में 'श्री 420' (1955) को भी गिना जाता है। इसमें राज कपूर के साथ नरगिस और नादिरा थे। फिल्म एक गांव के लड़के रणबीर राज की कहानी है, जो अपनी किस्मत आजमाने शहर जाता है। वहां उसे विद्या (नरगिस) से प्यार हो जाता है। राज शहर में कई चालाक लोगों से मिलता है, जो उसे धोखाधड़ी का जीवन जीने के लिए सिखाते हैं। यह फिल्म रूस में बहुत लोकप्रिय हुई थी। 1956 में आई 'जागते रहो' निर्देशक अमित मित्रा की फिल्म थी, जिसमें राज कपूर, प्रदीप कुमार, स्मृति बिस्वास और नरगिस थे। फिल्म की कहानी में एक गरीब व्यक्ति के बेहतर जीवन जीने की उम्मीद की कहानी थी। लेकिन, यह भोला किसान लालच और भ्रष्टाचार के जाल में फंस जाता है।
     'जागते रहो' भारतीय सिनेमा की क्लासिक फिल्मों में एक है। इसे रूसी बॉक्स ऑफिस पर भी ब्लॉक बस्टर घोषित किया गया था। इसी तरह 1957 में आई 'प्यासा' निर्देशक गुरुदत्त की फिल्म थी, जिसमें गुरुदत्त के साथ वहीदा रहमान, माला सिन्हा ने काम किया था। इसकी कहानी है एक कवि का संघर्ष था जो अपनी कविताओं को प्रकाशित करने के लिए संघर्ष करता है। वह उस वेश्या गुलाबो (वहीदा रहमान) से मिलता है, जो उसकी कविता से प्यार करती है। अबरार अल्वी फिल्म के लेखक थे। 
   1957 में आई फिल्म 'नया दौर' बीआर चोपड़ा ने बनाई थी। इसमें दिलीप कुमार, वैजयंती माला और अजीत थे। इसकी कहानी में शंकर (दिलीप कुमार) घोड़ा गाड़ी खींचकर आजीविका कमाता है। लेकिन, मकान मालिक सेठ जी (नजीर हुसैन) के बेटे कुंदन (जीवन) को शंकर और साथी धमकाते हैं। क्योंकि, वह उसी मार्ग पर बस की सवारी शुरू करता है। ब्लैक एंड व्हाइट काल की 'मधुमती' (1958) भी आज पसंद की जाने वाली फिल्मों में एक है। इसके निर्देशक बिमल रॉय थे और इसमें दिलीप कुमार, वैजयंती माला, प्राण और जॉनी वॉकर ने काम किया था। 'मधुमती' एक सदाबहार रोमांटिक फिल्म है, जिसमें दो जन्मों की कहानी थी। 1958 की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' निर्देशक सत्येन बोस ने निर्देशित की थी। इसमें किशोर कुमार, अशोक कुमार और अनूप कुमार के साथ मधुबाला थी। 1959 में आई गुरुदत्त की फिल्म 'कागज़ के फूल' में गुरुदत्त के साथ वहीदा रहमान और वीणा सप्रू थे। अबरार अल्वी की कहानी पर बनी 'काग़ज़ के फूल' गुरुदत्त के जीवन की कहानी थी, जो बेहद दुखद थी। 
   हिंदी सिनेमा की सबसे क्लासिक कही जाने वाली फिल्मों में एक 'मुगल-ए-आज़म' (1960) को के आसिफ ने निर्देशित किया था। इसमें पृथ्वीराज कपूर, मधुबाला, दिलीप कुमार और दुर्गा खोटे ने काम किया था। फिल्म की कहानी प्रेम और पिता के जिद्दी स्वभाव और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर गढ़ी गई थी।  फिल्म में मुगल राजकुमार सलीम (दिलीप कुमार) और दरबारी अनारकली (मधुबाला) की प्रेम कहानी पर प्रकाश डाला गया है। बाद में इस फिल्म को नई तकनीक से रंगीन बनाया गया था। कहा जा सकता है कि इस फिल्म को दोहराया नहीं जा सकता। निर्देशक विजय आनंद की 'काला बाज़ार' (1960) में देव आनंद, वहीदा रहमान और नंदा थे। ये विजय आनंद की सफल ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी। फिल्म में रघुवीर (देव आनंद) एक यात्री के साथ बहस से बस कंडक्टर की नौकरी गंवाने के बाद कालाबाजारी करने लगता है। बाद में वो महसूस करता है कि वो गलत रास्ते पर है। 1961 में आई 'काबुलीवाला' निर्देशक हेमेन गुप्ता की फिल्म थी। इसमें बलराज साहनी, बेबी सोनू, बेबी फरीदा ने अभिनय किया था। इसकी कहानी ड्राई फ्रूट बेचने अब्दुल रहमान खान (बलराज साहनी) की थी।
    'साहिब बीबी और गुलाम (1962) को गुरुदत्त की फिल्मों के लेखक अबरार अल्वी ने निर्देशित किया था। इसके कलाकार मीना कुमारी, गुरुदत्त, रहमान थे। फिल्म में कई फ्लैशबैक हैं। इस फिल्म में कई डायलॉग भी क्लासिक थे। फिल्म 'बंदिनी' (1963) को निर्देशक बिमल रॉय की क्लासिक फिल्मों में गिना जाता है। इसमें अशोक कुमार, नूतन, धर्मेंद्र थे। इसकी कहानी एक महिला कैदी नूतन और डॉ देवेंद्र (धर्मेंद्र) पर केंद्रित है। 'बंदिनी' एक एक महिला कैदी की दुखद और भावनात्मक कहानी है।
       1963 में राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा, इस फिल्म ने 1964 के फिल्मफेयर पुरस्कारों में कई श्रेणियां जीतीं। 1967 की फिल्म 'रात और दिन' निर्देशक सत्येन बोस की फिल्म थी, जिसमें नरगिस, प्रदीप कुमार और फिरोज खान ने काम किया था। यह फिल्म एक महिला केंद्रित ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी। इसके अलावा और भी कई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाई। इनमें अनमोल घड़ी (1946), आर पार (1954), देवदास (1955), चोरी चोरी (1956) और हावड़ा ब्रिज (1958) भी हैं।
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33 दिनों के 26 आयोजन में विक्रमादित्य नदारद!

- हेमंत पाल

      महाकवि कुमार विश्वास ने उज्जैन में 'महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ' से राम कथा वाचन करते हुए जो विवाद खड़ा किया, उससे सिर्फ वे ही निशाने पर नहीं आए! इस बहाने पूरी संस्था की चीर-फाड़ शुरू हो गई। अब इस बात पर भी बहस चल पड़ी कि शोधपीठ जैसी गंभीर संस्था खुद को इवेंट कंपनी की तरह कैसे प्रोजेक्ट कर सकती है! इसलिए कि शोधपीठ का सालाना कार्यक्रम 'विक्रमोत्सव' पहले सात दिन और फिर नौ दिन के होते थे। लेकिन, इस साल ये आयोजन 33 दिन पर पहुंच गया! देश की सांस्कृतिक चेतना पर केंद्रित 33 दिन के इस 'विक्रमोत्सव-2023' का आयोजन 18 फरवरी से शुरू हुआ जिसकी पूर्णाहुति 22 मार्च को होगी। इसमें 26 आयोजन किए जा रहे हैं, जिसमें 'महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ' सहित शासन के 31 विभागों की भागीदारी है। आश्चर्य इस बात पर कि आज तक किसी भी सरकारी संस्थान ने इतना लम्बा आयोजन नहीं किया! फिर क्या कारण है कि इस संस्था को इतनी मनमर्जी करने की छूट दी गई! ध्यान देने वाली बात यह भी, कि संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर ने तो एक तरह से इस पूरे आयोजन से पल्ला झाड़ रखा है।  
    2019-2020 में उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य के काम पर शोध के नजरिए से इस शोधपीठ की स्थापना की गई थी। इसे शासन के संस्कृति विभाग के अंतर्गत रखा गया था। शुरुआती दौर में विक्रमादित्य से जुड़ी शोध पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। विक्रमादित्य से संबद्ध प्रामाणिक दस्तावेज इकट्ठा करके उस पर काम किया। ये वो काम था, जिससे इस शोधपीठ की साख बनी और इसका उद्देश्य प्रतिपादित हुआ। लेकिन, धीरे-धीरे ये गंभीर संस्था इवेंट की तरफ मुड़ने लगी और इसे हर साल होने वाला 'विक्रम उत्सव' आयोजित करने का दायित्व सौंप दिया गया। इसी के साथ ये संस्था इसके मकसद से भटक गई।
     सही शब्दों में कहा जाए तो 'विक्रम उत्सव' की इवेंट कंपनी बनने के साथ ही इस 'महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ' में वे सारी खामियां दिखाई देने लगी, जो किसी भी अच्छे मकसद को भटकाने के लिए काफी होती है! ऐसे में वो सारी साख जो इस शोधपीठ की पहचान थी, ध्वस्त हो गई! अपना आदमी वाद और सेटिंग बाजी से लगाकर यहां वो सब होने लगा जिसके लिए सरकारी संस्थाएं बदनाम होती है। इस बार 33 दिनों का आयोजन इस सबकी अति है। ख़ास बात ये कि बैनर भले ही विक्रमादित्य के नाम का है, पर ज्यादातर आयोजनों का स्वरुप कुछ और ही है। भला विक्रमादित्य का पुस्तक मेले, व्यापार मेले, युवा विज्ञान मेले, कवि सम्मेलन, दीपोत्सव, नाट्य, प्रदर्शनियां, प्रकाशन, ग्रामोद्योग हस्त शिल्प मेले, वन औषधि मेले, पौराणिक फिल्मों के अंतरराष्ट्रीय समारोह और युवा विज्ञान सम्मेलन से क्या वास्ता!      
       इतने लम्बे आयोजन में कितने झोल-झाल हैं, उसका एक नजारा तो सामने आ ही गया। अंदरखाने से रिसी ख़बरें बताती है कि इस सबके पीछे दो व्यक्ति हैं। एक इस शोधपीठ के निदेशक श्री राम तिवारी और दूसरे उच्च शिक्षा मंत्री मोहन यादव जो इस शोधपीठ की स्थानीय समिति के अध्यक्ष भी हैं। आखिर जब किसी आयोजन का बजट ढाई करोड़ होगा तो स्वाभाविक है, मुद्रा का आचमन करने के नए-नए फॉर्मूले भी सोच लिए जाएंगे! वही सब यहां भी हो रहा है। बता दें कि ये वही श्री राम तिवारी हैं, जो राज्य शासन के संस्कृति विभाग के बरसों तक संचालक और कर्ताधर्ता रहे हैं। उनमें 'इवेंट' को 'मैनेज' करने के सभी गुण हैं।  
    33 दिन के इस आयोजन की जिम्मेदारी 35 सरकारी विभागों के हवाले की गई है। इसके अलावा कुछ जिम्मेदारी संघ की अनुषांगिक संस्थाओं को भी सौंपी गई। इसलिए कि जब किसी कार्यक्रम में अड़चन आए तो 'संघ' की इन संस्थाओं को बीच में डालकर उसे संभाल लिया जाए, जैसे 'प्रखर राष्ट्रवाद' वाले कार्यक्रम हुआ था। वास्तव में ये कार्यक्रम किसी और विभाग को करना था, पर जब उस विभाग ने हाथ खड़े किए तो उसे 'संस्कार भारती' ने किया। इस पूरे इवेंट की तैयारी कितनी लचर है, ये शुरूआती दौर में ही साबित हो गया। बची खुची किए कविराज कुमार विश्वास ने खोल दी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि 22 मार्च तक इस आयोजन की हालत क्या होगी, इसे समझा जा सकता है।      
    रामकथा के पहले दिन जब कथावाचक के श्रीमुख से 'संघ' को लेकर विवादास्पद बोल निकले, उसके बाद जो हुआ वो सबके सामने हैं। लेकिन, कुमार विश्वास के माफीनामे के बाद भी जब स्थिति संभलती नहीं दिखी, तो शाम के सेशन में जबरन की भीड़ बढाकर ये प्रचारित किया गया कि रामकथा कितनी ज्यादा सफल है। ये बात अलग है कि कुमार विश्वास करीब 50 लाख लेकर राम कथा का वाचन करने दिल्ली से उज्जैन तो आ गए, पर तीन दिन उनका रात्रि विश्राम इंदौर की पांच सितारा होटल में हुआ। उज्जैन के बारे में मान्यता है कि कोई 'राजा' श्रेणी का व्यक्ति (जैसे सिंधिया परिवार के लोग) यहां रात नहीं बिताते! क्योंकि, उज्जैन के राजाधिराज अकेले भगवान महाकाल हैं। लेकिन, कुमार विश्वास को उज्जैन में रात्रि विश्राम में क्या दिक्कत थी, ये समझ से परे है।
    'महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ' के कामकाज की सारी सच्चाई सामने आ गई। ये भी तय है कि ये संस्था अपने मूल मकसद से भटक गई है। अब यदि सरकार ने इसे और ढील दी, तो इसका हश्र क्या होगा, इसे सोचा जा सकता है। अब सरकार के लिए जरुरी हो गया कि इस तरह के इवेंट पर नकेल कसी जाए और 33 दिन के पूरे आयोजन जांच भी हो! क्योंकि, 33 दिन तक होने वाले फिजूल के इवेंट का मकसद क्या है और इससे किसका भला होना है! निदेशक श्रीराम तिवारी और मंत्री मोहन यादव की इच्छा से तो आयोजन का स्वरुप तय नहीं होगा! इसमें संस्कृति विभाग का दखल जरूरी है कि उच्च शिक्षा विभाग का जिसके मंत्री मोहन यादव है! संस्कृति विभाग की मंत्री उषा ठाकुर के आयोजन से अलग-थलग रहने का असल कारण भी पता होना चाहिए!
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'रामकथा' विवाद के बाद शोधपीठ के निदेशक की कुर्सी खतरे में!

- हेमंत पाल   

      ज्जैन में कुमार विश्वास की रामकथा के पहले दिन जो कुछ हुआ, वो जैसा भी था, लेकिन उसने नए विवाद को जन्म जरूर दे दिया। एक धार्मिक आयोजन के मंच से उन्होंने जो कहा वह कितना सही या गलत था, फिलहाल मुद्दा यह नहीं है! लेकिन, उसे लेकर नया राजनीतिक बवाल जरूर मच गया। सिर्फ बवाल ही नहीं मचा, उसे लेकर एक नई अंतर्कथा का भी जन्म हो गया। अब इस बवाल का खामियाजा किसे भुगतना पड़ेगा, सबकी नजरें वहां लगी है! लेकिन, सभी का मानना कि 'महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ' के निदेशक श्री राम तिवारी पर गाज गिर सकती है! क्योंकि, संघ और भाजपा में इस मामले को लेकर जितना रोष है, उसके प्रतिफल को समझा जा सकता है।   
      संस्कृति विभाग के महाराजा विक्रमादित्य शोध पीठ के बैनर तले हो रहे इस आयोजन पर सवालिया निशान उठने लगे हैं। उमा भारती, जय भान सिंह पवैया सहित भाजपा के कई नेताओं ने इस मामले को लेकर ट्वीट करते हुए कहा है कि कुमार विश्वास की टिप्पणी क्षमा योग्य नहीं है।  उमा भारती ने ट्वीट करके कुमार विश्वास को लपेट दिया। उमा भारती ने ट्वीट किया 'कुमार विश्वास तुमने तो माफी मांगते हुए भी सबको सामान्य बुद्धि का कह दिया, अब कुपढ़, अनपढ़ की बात तो पीछे छूट गई किंतु तुम्हारी बुद्धि विकृत है यह स्थापित हो गया। जबकि, संघ के नेता जयभान सिंह पवैया ने कुमार विश्वास के बारे में कहा कि 'आपकी टिप्पणी शोभनीय और क्षम्य नहीं हो सकती।' जबकि, संघ के कोटे से मंत्री बने उच्च शिक्षा मंत्री मोहन यादव की ख़ामोशी अखरने वाली है। क्योंकि, जब कुमार विश्वास संघ के बारे में बोल रहे थे वहां मोहन यादव भी मौजूद थे। पर, वे न तो उस समय कुछ बोले और और न बाद में उन्होंने कुछ कहा! समूचे मामले में उनकी चुप्पी कई शंकाओं को जन्म दे रही है। 
     कुमार विश्वास के विवादास्पद बयान और उसके बाद जारी अहंकार भरे माफीनामे के अलावा भी इस मामले में बहुत कुछ भी हुआ। महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ के निदेशक श्री राम तिवारी का एक कथित फर्जी पत्र बकायदा महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ के लेटर पैड पर जारी हुआ। जिसमें कुमार विश्वास को संबोधित करते हुए लिखा था 'आपसे विक्रम उत्सव 2023 में श्री राम (अपने अपने राम, राम के शंकर और शंकर के राम) के लिए अनुरोध किया गया था। लेकिन, एक भक्तिमय रामकथा में आपके द्वारा 21 फरवरी को आयोजित 'अपने-अपने राम' कार्यक्रम में अवांछित, अमर्यादित और दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणियां की गई है। जिसको लेकर समाज में अत्यंत रोष है। अतः शेष राम कथा (राम के शंकर और शंकर के राम) 22 और 23 फरवरी को निरस्त करने का निर्णय लिया गया है। खेद है कि एक सांस्कृतिक और धार्मिक श्री राम कथा कार्यक्रम में अमर्यादित टिप्पणियां आपके द्वारा की गई है।' 

        इसके बाद एक और पत्र महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ के ही लेटर पैड पर जारी हुआ। इसमें कहा गया 'विक्रम उत्सव 2023 के अंतर्गत 21 से 23 फरवरी तक कुमार विश्वास की चलने वाली राम कथा (अपने-अपने राम, शंकर के राम और राम के शंकर) कार्यक्रम बदस्तूर जारी है। सोशल मीडिया पर निदेशक महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ के नाम से जारी पत्र नकली है, जो विघ्नसंतोषियों द्वारा जारी किया गया है, इसकी कोई सत्यता नहीं है!'
      इन दोनों पत्रों में एक ध्यान देने वाली बात ये है कि दोनों ही पत्रों के क्रमांक (मविशो / 389 और मविशो A389) हैं। यदि पहले वाले पत्र को नकली मान भी लिया जाए, तो भी आवक-जावक में उसका पत्र क्रमांक सही कैसे है! बाद वाले पत्र को भी उसी क्रमांक (A जोड़कर) से जारी किया जाना दर्शाता है, कि कुछ तो ऐसा हुआ, जो बाहर नहीं आया! दोनों ही पत्रों (नकली और असली) पर निदेशक श्रीराम तिवारी के दस्तखत में भी ज्यादा फर्क दिखाई नहीं देता। एक और गौर करने वाली बात ये है, कि जिस पत्र को श्रीराम तिवारी असली बता रहे हैं, उसमें भी उन्होंने लिखा कि 'जारी पत्र नकली है, जो विघ्नसंतोषियों द्वारा जारी किया गया!' तात्पर्य यह कि कुमार विश्वास ने जिन्हें विघ्नसंतोषी कहा, श्रीराम तिवारी ने अपने पत्र में उसकी पुष्टि लिखकर कर दी।               
     एक पत्र को नकली और दूसरे को असली बताया गया जा रहा है! कौन सा पत्र नकली है और कौन सा असली, इस बारे में उज्जैन के सियासी और प्रशासनिक गलियारों में तरह तरह की चर्चा है। उज्जैन से मिली जानकारियां और चल रही चर्चा पर भरोसा किया जाय तो दोनों ही लेटर असली बताए जा रहे है। स्थानीय लोगों का मानना है कि पहला लेटर कुमार विश्वास की विवादास्पद टिप्पणी और संघ, भाजपा के विरोध के तत्काल बाद जारी किया गया था! क्योंकि, तब इस बात अंदाजा नहीं था कि कुमार विश्वास माफ़ी मांग लेंगे। जब उन्होंने माफीनामे का वीडियो जारी कर दिया तो दूसरा लेटर जारी करके पहले वाले को नकली बता दिया गया!     
     श्री राम तिवारी सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं और अब वे 'महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ' के निदेशक पद पर काबिज है। ये शोधपीठ महाराजा विक्रमादित्य के नाम पर स्थापित की गई है। इसका मुख्यालय तो उज्जैन में है, पर इसका कार्यालय भोपाल में है। शायद इसलिए कि श्रीराम तिवारी के लिए ये ज्यादा सुविधाजनक है। उन्होंने संस्कृति विभाग में लंबे समय तक मुखिया के तौर पर काम किया है, इसलिए वे सारे विभागीय दांव-पेंचों से वाकिफ हैं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता! उन सभी दांव-पेंचों को जानकर और समझकर ही श्री राम तिवारी इस शोधपीठ के निदेशक बने हैं। 
    अब मुद्दा ये है कि कथित राम कथा वाचक कुमार विश्वास की 'संघ' पर टिप्पणी के बाद भी क्या श्रीराम तिवारी  इस पद पर बने रहेंगे! क्योंकि, सरकार भाजपा की है और मामला 'संघ' पर सीधी टिप्पणी का है। फिर टिप्पणी के बाद अपने कुतर्कों से उसे सही साबित करके माफी मांगने का है। देखना यह है इस पूरे घटनाक्रम की गाज किस पर गिरती है! इसमें किसकी कितनी भूमिका है! विभाग की मंत्री उषा ठाकुर जो संघ के काफी निकट हैं और उन्हें रामभक्ति को लेकर जाना जाता है, वे इस मामले में क्या करती हैं!
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Wednesday, February 22, 2023

ये माफ़ी नहीं, कुमार विश्वास की अहंकारोक्ति ज्यादा!

 - हेमंत पाल 

    देश के जाने-माने कवि और हिंदी के प्रोफ़ेसर कुमार विश्वास उज्जैन में तीन दिन की रामकथा कर रहे हैं। लेकिन, 'राम कथा' के पहले दिन ही दिन वे विवादों में आ गए। अभी दो दिन और कथा का आयोजन होना है। इस कथा के दौरान उन्होंने ने 'संघ' को लेकर ऐसा कुछ कह दिया कि बवाल मच गया। अपनी विवादित टिप्पणी के बाद से वे भाजपा और आरएसएस के निशाने पर आ गए। भाजपा के नेताओं ने चेतावनी दी, कि अगर कुमार विश्वास ने माफी नहीं मांगी, तो उनकी राम कथा नहीं होने जाएगी। इस चेतावनी के बाद कुमार विश्वास ने एक वीडियो जारी करके माफ़ी मांगी। लेकिन, इसमें उनकी माफ़ी का अंदाज अजीब है। उनकी भाषा में बेहद अहंकार से भरा है और पूरी बातें कुतर्कों से भरी और सलाह देने वाली है।  
    गलती करना या हो जाना मानवीय स्वभाव है और गलती करके माफ़ी मांगना बड़प्पन है। अफ़सोस के साथ माफ़ी मांगने का अपना अलग नजरिया होता है। जिसमें विनम्रता के साथ जाने-अनजाने में भूल से कहीं गई अपनी बातों पर खेद जताया जाता है। इसके अलावा माफ़ी मांगने वाला यह भी दर्शाने की कोशिश करता है, कि उससे जो गलती हुई, उसे नजर अंदाज किया जाए और आगे मैं इस बात का ध्यान रखूंगा कि ऐसा कोई प्रसंग नहीं आएगा, जिससे किसी के दिल को ठेस पहुंचे। लेकिन, कुमार विश्वास ने जो वीडियो जारी किया, वो माफ़ी के निर्धारित सामाजिक मापदंड़ों पर कहीं खरा नहीं उतरता।  
    उज्जैन में हो रहा राम कथा का ये कार्यक्रम मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा कराया जा रहा है। यानी ये शुद्ध रूप से सरकारी आयोजन है, जिसमें सरकारी खर्च पर कुमार विश्वास को 'रामकथा' बांचने के लिए बुलाया गया है। देखा जाए तो संस्कृति विभाग ने भी कुमार विश्वास को बुलाकर गलती ही की! क्योंकि, न तो उनकी पहचान राम कथा वाचक की है और न वे बिना विवाद के कोई बात करते हैं। ऐसे ढेरों प्रसंग हैं, जिनमें कुमार विश्वास ने विवादास्पद बातें की और फिर उसे कुतर्क और गोलमाल तरीके से सही ठहराने की कोशिश की! इस बार भी उन्होंने 'माफ़ी' और 'क्षमा' जैसे दो शब्दों का उल्लेख किया, ताकि उनकी बात भी सही साबित हो और माफ़ी समझा जाए!
      आज की उज्जैन की घटना भी उससे अलग नहीं है। यदि उनके वीडियो को गंभीरता से देखा और सुना जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें अपनी बातों पर कतई अफ़सोस नहीं है और न उनका इरादा सीधे-सीधे माफ़ी मांगने का है। उन्होंने वीडियो में अपनी बात की शुरूआत ही अपने बीमार होने, गला ख़राब होने से की है। उससे ऐसा लग रहा है मानो वे सरकार और जनता पर कोई अहसान कर रहे हों। जबकि, इस रामकथा वाचन का उन्होंने अच्छा खासा पैसा लिया है। सामान्यतः माफ़ी मांगने वाला व्यक्ति कम शब्दों में अपनी बात ख़त्म करता है और खेद व्यक्त करता है। लेकिन, कुमार विश्वास ने पूरे 2 मिनट 19 सेकंड तक अपनी बात की सफाई दी, फिर दो बार 'माफ़ी' और 'क्षमा' बोला! इस पूरे वीडियो में वे 'विघ्न संतोषी' और ये कहने से भी नहीं चूके कि 'राम की कथा को कौन भंग करता है, यह भी ध्यान रखिएगा!' इसका सीधा सा भावार्थ तो यही हुआ कि कथा भंग करने की धमकी देने वाले ही विघ्न संतोषी हैं।
रामकथा अच्छे लोग भंग नहीं करते! 
     इस वीडियो में कुमार विश्वास ने बेहद शालीनता से धमकी भी दी कि 'मैं जो बोल रहा हूं, उसे उसी अर्थ में समझे जो मैं बोल रहा हूं। अगर आप उसे किसी और अर्थ में समझेंगे तो उसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं।'  उनके वीडियो में एक और बात है जो उनके अहंकार के साथ उनके रामकथा में निपुणता दर्शाती है। उन्होंने कहा कि 'मैं भगवान राम से प्रार्थना करूंगा कि जिन्होंने भी यह विघ्न संतोष पैदा किया है, ईश्वर उनकी बुद्धि की मलिनता को दूर करें।' कोई माफ़ी मांगने वाला भला आपत्ति लेने वाले को विघ्न संतोषी कहने के साथ उसकी बुद्धि को मलिन तभी कहेगा, जब उसे अपने ज्ञान पर अहंकार होगा, जो कि कुमार विश्वास में साफ़ नजर आता है।            
माफ़ी वाले वीडियो में ये कहा 
     कुमार विश्वास ने अपने बयान पर एक वीडियो जारी करके सफाई दी। उन्होंने कहा कि कथा प्रसंग में मैंने मेरे कार्यालय में काम करने वाले एक छोटे बालक के बारे में यह टिप्पणी की थी। संयोग से वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में काम करता है, पढ़ता लिखता कम है और बोलता ज्यादा है। मैंने उससे कहा था कि तुम पढ़ा लिखा करो 'वामपंथी कुपढ़ हैं और तुम अनपढ़ हो!' सिर्फ इतनी सी बात मैंने कही थी, वह भी एक प्रसंग में। लेकिन, इसे कुछ विघ्न संतोषी लोगों ने ज्यादा ही फैला दिया। कुमार विश्वास ने आगे कहा कि आज मुझे कुछ समाचार मिले और बताया गया कि कुछ लोग इस कथा को भंग करने वाले हैं। आपसे आग्रह है कि राम की कथा को कौन भंग करता है, यह भी ध्यान रखिएगा! 
       मैं उज्जैन के लोगों से अनुरोध करता हूं कि वहां पहुंचे और मैं जो बोल रहा हूं, उसे उसी अर्थ में समझे जो मैं बोल रहा हूं। अगर आप उसे किसी और अर्थ में समझेंगे तो उसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं। फिर भी आपकी सामान्य बुद्धि में से यह प्रसंग किसी और तरीके से चला गया हो, तो उसके लिए मुझे माफ करें, क्षमा करें। कुमार विश्वास ने आगे कहा कि मैं आज प्रांगण में भगवान राम से प्रार्थना करूंगा कि जिन्होंने भी यह विघ्न संतोष पैदा किया है, ईश्वर उनकी बुद्धि की मलिनता को दूर करें। भगवान से जुड़े, प्रभु श्रीराम से जुड़े! मैं पुनः स्पष्ट करना चाहता हूं कि मेरा कथन मेरे कार्यालय में काम करने वाले एक बालक के बारे में था। ऐसी बातें जो मेरे पिता भी मुझसे कहते हैं कि तुम बड़े मूर्ख हो। मेरे पिता संघ के बड़े पदाधिकारी थे, मेरे भाई भी हैं। ऐसी बातें तो सभी बोलते हैं।  लेकिन, मैंने उस लड़के से बोला, क्योंकि वह आयु में बहुत छोटा बच्चा है इसलिए बोल दिया और आपको अपना मानकर सूचित कर दिया। 
इस बात पर विवाद पनपा   
    कुमार विश्वास ने कहा कि 'संघ' के लिए काम करने वाले एक युवक ने बजट के पहले मुझसे पूछा कि बजट कैसा होना चाहिए! तो कुमार विश्वास इस सवाल पर संघ के कार्यकर्ता को कहा 'जहां वामपंथी कुपढ़ है अर्थात पढ़े लिखे तो है लेकिन उन्होंने सही शिक्षा नहीं ग्रहण की! वहीं दूसरी तरफ आरएसएस यानी संघ अनपढ़ है। उन्होंने इस पूरे परिप्रेक्ष्य में रामायण का भी उदाहरण दिया। यह भी कहा कि भगवान राम के समय कौन सा बजट पेश किया जाता था! दरअसल, कुमार विश्वास ने रामराज्य को लेकर संघ के स्वयंसेवक पर निशाना साध दिया, जिसमें वे फंस गए! 
पहले भी माफ़ी मांग चुके 
   कुमार विश्वास पर कवि सम्मेलन के दौरान एक मुस्लिम धर्मगुरु पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने का भी आरोप लगा था, जिस पर उन्होंने माफ़ी मांग ली थी। 2008 में केरल की नर्सों पर दिए अपने विवादित बयान पर भी वे माफी मांग चुके हैं। उन्होंने नर्सों के बारे में कुछ ऐसा कह दिया था कि महिला आयोग ने भी उस पर टिप्पणी की थी। बेंगलुरु में तो नर्सों ने तो सड़क पर उतरकर कुमार विश्वास के खिलाफ प्रदर्शन किया था। केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमान चांडी ने तब अरविंद केजरीवाल को चिट्ठी लिखकर कुमार विश्वास से माफी मांगने को कहा था। जब मामला बढ़ गया तो कुमार विश्वास ने माफी मांग ली। इसलिए उज्जैन की घटना नई नहीं है। कुमार विश्वास पहले विवाद खड़ा करते हैं, फिर अपने अंदाज में माफ़ी भी मांग लेते हैं, जैसा उन्होंने आज किया!
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Saturday, February 18, 2023

नए गानों की नई रफ्तार, पीछे छूटी बग्घी और कार

- हेमंत पाल

    करीब ढाई दशक पहले एक फिल्म आई थी 'अंदाज अपना अपना' इस फिल्म का एक गाना था 'ये लो जी सनम हम आ गए' इस गाने के बैकग्राउंड में घोड़े की टॉप की आवाज गूंजती है। ये आवाज इस गाने को जिस तरह सपोर्ट करती है, वो सुनकर अच्छा लगता है। फ़िल्मी गीतों में ऐसे प्रयोग बरसों से होते आए हैं। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के ज़माने से आज के दौर तक में वाहनों पर सवार होकर अलग-अलग मूड के गाने फिल्माए गए! ऐसी स्थिति में सबसे ज्यादा मूड रोमांटिक गानों का ही रहा। हीरो अपनी हीरोइन को मनाने के लिए उसका कार या बाइक से पीछा करता है। फिर दोनों मस्ती के मूड में वाहन पर सवारी करके झूम कर गाना गाते हैं। कई बार हीरो अपनी जांबाजी दिखाने के लिए गाना गाते हुए बाइक चलाता है या रिझाने के लिए उसके पीछे-पीछे आता है।
      फिल्म 'अंदाज' में राजेश खन्ना ने अपनी छोटी सी भूमिका में बाइक पर 'जिंदगी इक सफर है सुहाना' गाते हुए दिखाई दिए थे। 'मुकद्दर का सिकंदर' में अमिताभ बच्चन 'रोते हुए आते हैं सब' गाना गाते हैं, जो आज भी पसंद किया जाता है। 'शोले' में साइडकार वाली बाइक पर जय-वीरू की जोड़ी 'ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे' गाकर अपनी दोस्ती का इजहार करते हैं। कई फिल्मों में मोटर साइकिल पर गीत फिल्माए गए। यश चोपड़ा ने 'काला पत्थर' में शशि कपूर पर 'इक रास्ता है जिंदगी' फिल्माया था। वहीं, 1977 में आई 'परवरिश' में अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना ने 'जाते हो जाने जाना प्यार का सलाम लेते जाना' गीत के जरिए अपनी हीरोइनों के साथ रोमांस किया। 1981 में आई संजय दत्त की फिल्म 'रॉकी' में वे बाइक पर गाना गाते दिखाई दिए थे 'जरा सा सिर्फ जरा सा बदनाम!'  
      नब्बे के दशक के बाद से बॉलीवुड में गीतों के फिल्मांकन के तौर-तरीके में जो बदलाव आया, उसके बाद से ऐसे गीतों की गुंजाइश कम हो गई। शायद इसका एक कारण यह भी रहा कि उस जमाने में कार और बाइक गिनती के घरों में होती थी। ऐसे में पर्दे पर किसी को कार या बाइक चलाते हुए गाना गाते दिखाना सिनेमाई फंतासी गढने में योगदान देता था। आज जब छोटे शहरों और कस्बों में मध्यमवर्गीय घरों के बाहर भी दोपहिया और चार पहिया वाहन खड़े होना आम बात हो गई, तब परदे पर ऐसे गीत आकर्षण का केंद्र नहीं रह गए। सड़कों पर भागते वाहनों पर फिल्माए गए गीत अक्सर जिंदगी को लेकर फलसफे सुनाया करते थे, जो अब बचा नहीं! 
       जिस समय को सिनेमा का स्वर्णकाल कहा जाता है, उस दौर के ऐसे कई गाने हैं, जो आज भी याद आते हैं। पर, अब तो ऐसे गाने न तो सुनाई देते हैं और न फिल्मों में दिखाई देते हैं। फिल्म 'मुनीम जी' में नलिनी जयवंत के साथ कार में सवार देव आनंद 'जीवन के सफर में राही …' गाते हैं तो अलग ही समां बांधता है। बरसों बाद यही देव आनंद 'गैंबलर' में कार चलाते हुए जाहिदा को चूड़ियां भेंट करते हुए गाते हैं 'चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है!' इसी तरह 'मेरे जीवन साथी' में राजेश खन्ना अपनी भावी जीवन संगिनी के ख्यालों में डूबकर 'चला जाता हूँ किसी की धुन में' गाते हैं। 
     'कश्मीर की कली' में शम्मी कपूर 'किसी न किसी से कभी न कभी न कभी तो' गाते हुए अपनी नियति को स्वीकार करते हैं कि दिल तो उनको लगाना ही पड़ेगा। शम्मी कपूर की ही फिल्म 'एन इवनिंग इन पेरिस' में वे हेलीकॉप्टर पर सवार होते हैं और हीरोइन शर्मिला टैगोर को रिझाते हैं, जो समुद्र में पानी पर स्केटिंग करती दिखाई देती है। गीत के बोल थे 'आसमान से आया फरिश्ता प्यार का सबक सिखलाने!' इससे आगे का सीन प्रमोद चक्रवर्ती ने धर्मेन्द्र पर 'जुगनू' में फिल्माया था। धर्मेंद्र ग्लाइडर में हेमा मालिनी के लिए गाते हैं 'भेज दे चाहे जेल में प्यार के इस खेल में, तेरा पीछा ना मैं छोडूंगा सोणिये!' ऐसे ही चेतन आनंद ने बारिश में भीगी मुंबई की सड़कों पर दौड़ती गाड़ी में 'हंसते जख्म' में नवीन निश्चल से गवाया था 'तुम जो मिल गए हो' जिसने रोमांस का नया आकाश रचा था। 'चलती का नाम गाड़ी में' किशोर कुमार अपने दोनों भाइयों के साथ विंटेज कार में गाते हैं गाते हुए दिखाई दिए थे। 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे में भी शाहरुख़ डबल देकर बस में ऊपर झूमकर गाना गाते बताया था। 
    शम्मी कपूर फिल्म 'ब्रह्मचारी' में बच्चों के साथ 'चक्के में चक्का चक्के में गाड़ी' गाते हैं, तो फिल्म 'फूल खिले हैं गुलशन गुलशन' में ऋषि कपूर अपनी मंडली के साथ 'मन्नू भाई मोटर चली पम पम पम' गाते हुए निकलते हैं। जीप में भले ही कार जैसा ग्लैमर नहीं, लेकिन फिल्मी गानों में उसने भी स्थान पाया। कश्मीर की मनोरम सड़क पर खुली जीप में सवार विश्वजीत ने फिल्म मेरे सनम' में 'पुकारता चला हूँ मैं' गाकर रोमांटिक माहौल रचा था। जीप की ही सवारी करते हुए शशि कपूर ने फिल्म 'दीवार' में नीतू सिंह से पूछा था 'कह दूँ तुम्हें या चुप रहूं।' खुली जीप पर सवार होकर दार्जिलिंग जाते हुए राजेश खन्ना ने 'आराधना' में 'मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू' गाकर शर्मिला टैगोर का दिल जीता था। फिल्म 'झुक गया आसमान' में राजेंद्र कुमार ने खुली जीप में 'कौन है जो सपनों में आया, कौन है जो दिल में समाया' गाया था जो आज भी गुनगुनाया जाता है।  
    कई फिल्मों में गाने तांगों, इक्काओं और बग्घियों पर भी फिल्माए गए। मोटरसाइकिल, कार और जीप पर कई गीत फिल्माए गए, वहीं गांवों की सवारी तांगा, बैलगाड़ी, रिक्शा और साइकिल पर भी गीतों का फिल्मांकन हुआ है। 'शोले' में हेमा मालिनी तांगा चलाती है, तो धर्मेन्द्र साइकिल चलाते हुए गाते हैं 'कोई हसीना जब रूठ जाती है, तो है तो और भी हसीन हो जाती है” के जरिए प्रेमिका को मनाने की कोशिश करते हैं। फिल्म 'परिचय' में जितेंद्र को भी ऐसे ही तांगे पर बताया गया था। फर्क इतना था कि गाना जितेंद्र गाते दिखाई नहीं देते, बैक ग्राउंड में सुनाई देता 'मुसाफिर हूं यारों' है। 'इम्तिहान' में विनोद खन्ना भी तांगे में ही 'रुक जाना नहीं तू कहीं हार के' गाने की आवाज के साथ परदे पर उतरे थे। फिल्म 'जीत' (1972) में रणधीर कपूर और बबीता का रोमांटिक गाना 'चल प्रेम नगर जाएगा बतला ओ तांगे वाले' आज भी लोगों का पसंदीदा गीत है। 'विक्टोरिया नंबर 203' (1972) में अशोक कुमार और प्राण की जोड़ी विक्टोरिया पर सवारी करती और गाना गाती दिखाई दी थी।    
     साइकिल पर ही 1999 की फिल्म 'भाभी' में गोविंदा और जूही चावला प्रेम को दर्शाने वाला गाना 'चांदी की साइकिल, सोने की सीट' गाते अपने प्रेम का इजहार करते हैं। पुरानी फिल्मों में भी कई गाने साइकिल पर ही फिल्माए गए। 'पेइंग गेस्ट' में देव आनंद साइकिल पर सवार होकर राह चलती नूतन से कहते हैं 'माना जनाब ने पुकारा नहीं' और दूसरी तरफ वे साइकिल पर मुमताज को आगे बैठाकर 'तेरे मेरे सपने' में 'हे मैंने कसम ली' गाते हुए कभी जुदा न होने की कसम खाते हैं। देव आनंद ने ही फिल्म 'बात एक रात की' में अकेले साइकिल पर चलते हुए अपनी एकाकी जीवन को कुछ इस तरह से बयां किया 'अकेला हूं मैं इस दुनिया के लिए कोई साथी है तो मेरा साया।' इसी तरफ 'खुद्दार' में संजीव कुमार साइकिल की सवारी करते हुए ही अपने छोटे भाइयों को समझाते हैं 'ऊँचे-नीचे रास्ते और मंजिल तेरी दूर।' पचास-साठ के दशक में पिकनिक मनाने जा रही दोस्तों और सहेलियों की टोली तो अक्सर साइकिलों के कारवाँ पर ही गाते हुए चलती थी। 'दिल धड़कने दो' और 'डियर जिंदगी' में भी हीरो-हीरोइन को साइकिल पर सैर करते दिखाया गया था।     
       ऐसी सिचुएशन में बैलगाड़ी पर गीतों को याद किया जाए, तो दो फ़िल्में याद आती है। दो कालजयी गीत बैलगाड़ी पर ही फिल्माए गए। फिल्म 'तीसरी कसम' में राजकपूर और वहीदा रहमान की जोड़ी थी जिन पर शैलेन्द्र ने चार गीत फिल्माए। ये चारों गीत आज भी जेहन में चलचित्र की तरह चलते हैं। सजनवा बैरी हो गए हमार, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना और 'चलत मुसाफिर मोह लियो रे' ऐसे गीत हैं, जिन्हें आज भी लोग सुनना और गुनगुनाना पसंद करते हैं। 
       1966 में बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी इस फिल्म के संगीत ने अपने समय में रिकॉर्ड सफलता प्राप्त की इसके बावजूद बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म असफल सिद्ध हो गई। एक फिल्म आई थी संजीव कुमार की 'अनोखी रात।' इस फिल्म में संजीव कुमार पर बैलगाडी पर मुकेश की आवाज में 'ओहो रे ताल मिले नदी के जल में नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में कोई जाने ना ऐसा गीत है जो भुलाए नहीं भूल पाते हैं। राजश्री की फिल्म 'नदिया के पार' में भी बैलगाड़ी पर एक गीत फिल्माया गया था। पर अब वाहनों पर फ़िल्मी गीतों का फिल्मांकन लगभग लोप ही हो गया! यदि देखना चाहें तो उस पुराने दौर में लौटना पड़ेगा, जब ऐसे गीत रचे जाते थे!    
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Friday, February 17, 2023

सीहोर में जो हुआ, वो प्रशासन की बदइंतजामी का नतीजा!

- हेमंत पाल
  
    बीते दो दिनों में सीहोर में जो कुछ हुआ, वो अप्रत्याशित नहीं था। रुद्राक्ष महोत्सव में जिस तरह की भीड़ उमड़ी और बदइंतजामी हुई, वो होना ही था। क्योंकि, पिछले साल भी यही हुआ था। लेकिन, सीहोर के प्रशासन ने उससे कोई सबक नहीं सीखा। आश्चर्य की बात तो ये कि इस बार भी वही सब होने दिया। ये एक धार्मिक आयोजन था, जिसके लिए पुख्ता इंतजाम करना प्रशासन की जिम्मेदारी होता है। लेकिन, प्रशासन का दायित्व सिर्फ पंडित प्रदीप मिश्रा या उनके रुद्राक्ष महोत्सव तक ही सीमित नहीं था! आम लोगों को इस आयोजन से कोई परेशानी न हो, ये देखने का काम भी प्रशासन का ही है। ये कोई बहुत बड़ी चुनौती नहीं थी। क्योंकि, पिछले साल भी इसी तरह रास्ता जाम हुआ, लोग परेशान हुए थे। उसके बाद रुद्राक्ष वितरण रोकना पड़ा था। इस बार भी वही अव्यवस्था हुई, बल्कि उससे कहीं ज्यादा हुई। लेकिन, लगता है पर प्रशासन ने पिछली घटना से कोई सबक नहीं सीखा और न ऐसे इंतजाम किए कि पिछले साल जैसी बदइंतजामी न हो! पर, ऐसा कोई कदम उठाया गया हो, ऐसा कुछ लगा नहीं!   
    प्रशासन ने इंदौर-भोपाल रास्ते को पहले से ही कई जगह से बदलने का फरमान जारी कर दिया था। इसी से लग गया था कि आगे क्या होने वाला है। किसी एक धार्मिक आयोजन के लिए उन हजारों लोगों को परेशान करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता, जिनका इस आयोजन से कोई वास्ता नहीं था। जिला प्रशासन रुद्राक्ष महोत्सव को रोकने की स्थिति में नहीं था, पर वो व्यवस्था करने में भी नाकाम रहा। 10 लाख लोगों के पहुंचने का अंदाजा प्रशासन को भले न हो! लेकिन, जितना भी अंदाजा लगाया गया था, व्यवस्थाएं उसके लिए भी नाकाफी ही लगी! 
      जब बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन पर भीड़ उमड़ रही थी, उसी से अंदाजा लगा लिया जाना था कि ये भीड़ जब आयोजन स्थल पहुंचेगी, स्थिति क्या होगी। प्रदीप मिश्रा रुद्राक्ष वितरण करने वाले हैं, यह उनका व्यक्तिगत धार्मिक आयोजन है। इसके लिए प्रशासन ने जिस तरह पलक पांवड़े बिछाए वो सही नहीं माना सकता! अब भले ही प्रशासन भीड़ की वजह से व्यवस्था भंग होने की आड़ लेकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना चाहे, पर वो जो हुआ उस जिम्मेदारी से बच नहीं सकता!  भीड़ के कारण तीन हजार लोगों का बीमार होना, एक महिला की मौत हो जाना, हजारों लोगों का परेशान होना व्यवस्थागत खामी के अलावा और कुछ नहीं है। पंडित प्रदीप मिश्रा रुद्राक्ष बांटने वाले हैं और लोग उन्हें लेने आने वाले हैं, इसके लिए इंतजाम न होने का दोषी किसी और को नहीं ठहराया जा सकता! जबकि, इस आयोजन में मुख्यमंत्री के आने की भी जानकारी थी, फिर भी कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं की गई।
     रुद्राक्ष वितरण भी भारी अव्यवस्था के बाद रोका गया, जिसे पहले ही रोका जाना था या उसे होने ही नहीं दिया जाना था। प्रशासन कि इसके पीछे क्या मंशा थी यह तो स्पष्ट नहीं है! लेकिन, प्रशासन या तो पंडित प्रदीप मिश्रा से डरा हुआ है या वह कोई ऐसा कदम नहीं उठा रहा, जिससे कोई नाराज हो! ये नाराजगी किसकी हो सकती है, इसे समझा जा सकता है। लेकिन, वहां न आने वाली और रुद्राक्ष की चाह न रखने वाली जनता को बेवजह परेशान क्यों किया गया। 
     पिछले साल जब सीहोर में शिव महापुराण की कथा हो रही थी, उस समय भी रुद्राक्ष उत्सव का आयोजन किया था। लेकिन, रुद्राक्ष वितरण का कार्यक्रम प्रशासन ने बीच में ही बंद कराया था। क्योंकि, लाखों की भीड़ में प्रदीप मिश्रा ने बाल्टी के पानी में से मुट्ठी भर रुद्राक्ष निकालकर भीड़ पर फेंक दिए। इसके बाद वहां भगदड़ जैसे हालात पैदा हो गए। माना कि पिछले साल हो सकता है पंडित प्रदीप मिश्रा को आने वालों की संख्या का अनुमान न हो! लेकिन, इस बार प्रशासन को भी जानकारी थी और पंडित प्रदीप मिश्रा को भी। लेकिन, जब बुधवार को भीड़ ज्यादा बढ़ने लगी तो रुद्राक्ष वितरण एक दिन पहले शुरू कर दिया गया। लेकिन, अगले दिन जब 10 लाख लोग इकट्ठा हो गए और हालात बेकाबू हो गए तो भी रुद्राक्ष वितरण रोका नहीं गया। जब तक कि एक महिला की मौत नहीं हो गई और 3 हजार लोग बीमार नहीं हो गए! 
    लगातार दूसरे साल प्रशासन व्यवस्था करने में नाकाम रहा है। अब आगे इन दो घटनाओं से सबक लेकर प्रशासन को सख्त फैसले लेने होंगे! क्योंकि, सभी लोग रुद्राक्ष की चाह रखने वाले नहीं होते! इंदौर-भोपाल के रास्ते से गुजरने वालों को उससे भी जरूरी बहुत से काम होते हैं! प्रशासन सिर्फ पंडित प्रदीप मिश्रा के रुद्राक्ष महोत्सव इंतजाम करने के लिए नहीं है, उसे आम लोगों तकलीफ को भी समझना होगा!
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Saturday, February 11, 2023

'पठान' की सफलता से मिले खनखनाते सबक!

- हेमंत पाल

   शाहरुख़ खान की फिल्म 'पठान' इन दिनों बड़ा मुद्दा है। जबकि, सामान्यतः किसी फिल्म के साथ ऐसा नहीं होता! पर, इस फिल्म के साथ बहुत कुछ ऐसा हुआ, जिसने इसे केंद्र में ला दिया। दरअसल, ये फिल्म एक सबक है और लक्ष्य तक पहुंचने की जिद का नतीजा भी! सबक उनके लिए जो इस फिल्म का विरोध करके अपनी राजनीतिक रोटी सेंकना चाह रहे थे। उनका विरोध उल्टा पड़ गया और फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। क्योंकि, उस विरोध में हर व्यक्ति शामिल नहीं था। दूसरा सबक यह कि फिल्म के साथ धर्म को जोड़ना खतरनाक प्रयोग है। जहां तक शाहरुख की बात है, तो उसने भांप लिया था कि फिल्म को लेकर हुआ विरोध नकारात्मक नतीजा नहीं देगा, वही हुआ भी। इस पूरे मामले में सूचना और प्रसारण मंत्रालय की गलती ये रही कि उसने फिल्म के विरोध के बीच सेंसर बोर्ड की भूमिका को स्पष्ट नहीं की, जो की जाना थी।  
    कोई फिल्म अपनी रिलीज से पहले कितनी चर्चा में रह सकती है, 'पठान' ने उस ऊंचाई पर जाकर निशान लगा दिया। अपने एक गाने के कारण ही ये फिल्म चर्चा में नहीं आई, इसके पीछे भी कई दबे-छुपे कारण हैं। सबसे बड़ा कारण यह कि इस फिल्म का हीरो शाहरुख़ खान है! उसे निशाना बनाने के लिए हिंदूवादियों ने फिल्म के एक गाने की आड़ ली। ऐसे दृश्यों पर उंगली उठाई गई, जो हर दूसरी फिल्म में देखने को मिल जाते हैं। जिस भगवा रंग के गलत इस्तेमाल को हथियार बनाया गया, वो भी अतार्किक ही कहा जाएगा। क्योंकि, किसी भी रंग पर किसी पार्टी या विचारधारा वालों का कब्ज़ा होता नहीं! फिर भी इस बात को तूल दिया गया। दरअसल, सारा विरोध शाहरुख़ और फिल्म की हीरोइन दीपिका पादुकोण को लेकर था। हिंदू विचारधारा को थोपने वालों को शाहरुख़ से विरोध क्यों है, ये जगजाहिर है! दीपिका को वे अलग विचारधारा से जोड़कर देखते हैं। पर, अंततः जो नतीजा सामने आया, वो झटका देने वाला था। फिल्म ने सफलता का वो आंकड़ा छू लिया, जिसकी कल्पना इस फिल्म को बनाने वालों को भी नहीं की होगी। कहा जा सकता है कि फिल्म के प्रति उत्सुकता जगाने में इसकी निगेटिव पब्लिसिटी का बहुत बड़ा हाथ रहा। यदि ये सब नहीं होता, तो शायद 'पठान' आसमान नहीं छूती!       
         इतने विरोध, हंगामे और बहिष्कार के बाद भी 'पठान' की सफलता इस बात का सुबूत है, कि लोग अब धार्मिक बहस से ऊब चुके। वे अब शांति और सद्भाव चाहते हैं। मानवीय स्वभाव भी है, कि लोग लंबे समय तक एक जैसा माहौल पसंद नहीं करते। 'पठान' की सफलता के बहाने ऐसे कई सवालों का जवाब मिल गया। अब इस बात पर बहस हो सकती है कि आखिर 'पठान' को दर्शकों ने क्यों पसंद किया! शाहरुख़ खान की अदाकारी कारण, उसकी चुस्त पटकथा से या उसके साथ जुड़े विवादों ने! क्योंकि, फिल्म का टीजर (ट्रेलर का भी छोटा रूप) रिलीज होते ही जिस तरफ बवाल मचा, उससे फिल्म को लेकर एक हवा बन गई थी। लोगों ने यह भी सोचा कि आखिर विरोध करने वालों ने टीजर में ऐसा क्या देख लिया कि सड़क पर उतर आए! फिल्म के बॉयकॉट की मांग उठने लगी थी, पर जो हुआ वो अद्भुत ही कहा जाएगा।    
     ये नहीं कहा जा सकता कि रिलीज के बाद सबकुछ थम गया। आग भले बुझ गई हो, पर सुलगन जारी रही। 'पठान' के रिलीज होने वाले दिन कई जगह फिल्म के पोस्टर फाड़े गए। कुछ जगह शो भी कैंसिल हुए। कुछ शहरों में सांप्रदायिक सद्भाव भी प्रभावित हुआ। पर, जब फिल्म की सफलता आंकड़ों में आसमान छूने लगी, तो सब शांत हो गया। विरोध के बाद फिल्म के हिट होने का उदाहरण पहले भी हुआ, पर ऐसा शायद नहीं! आमिर खान की फिल्म 'पीके' को लेकर भी आक्रोश उपजा था। 2014 में आई इस फिल्म का भी हिंदूवादी संगठनों ने विरोध किया। काफी विरोध के बाद 'पीके' रिलीज़ हुई और उसने बॉक्स ऑफिस पर धमाल कर दिया। 'पीके' ने कुल 854 करोड़ का कारोबार किया। जबकि, इसका विरोध भी ज़बरदस्त हुआ था। विरोध झेलने वाली फिल्मों में 'पद्मावत' भी थी। मलिक मुहम्मद जायसी की कहानी पद्मावती' पर बनी इस फिल्म के खिलाफ भी आवाज उठी। शूटिंग के दौरान तोड़फोड़ की गई। बड़ी मुश्किल से नाम में थोड़ा हेरफेर करके फिल्म रिलीज हुई। लेकिन, जब फिल्म दर्शकों के सामने आई, तो सफलता का भूचाल आ गया। 'पद्मावत' ने 571 करोड़ की कमाई की। इस लिस्ट में 'पठान' तीसरी फिल्म है, जिसने विरोध की आग में झुलसकर सफलता का स्वाद चखा है।  
      इन आंकड़ों से साबित होता है, कि विरोध हमेशा सार्थक नतीजा नहीं देता। कई बार इस तरह का विरोध फिल्म को मुफ्त की पब्लिसिटी भी देता है। देखा जाए तो 'पठान' को लेकर ज्यादा पब्लिसिटी नहीं हुई। न तो किसी टीवी शो में शाहरुख़ ने फिल्म का प्रचार किया और न इसे लेकर कोई प्रायोजित इंटरव्यू ही दिया। इसके बाद भी फिल्म को लेकर जो उत्सुकता जागी, उसका कारण सिर्फ उसका निरर्थक विरोध था। जबकि, यदि किसी फिल्म के समर्थन में भी लोग खड़े हों, तब भी ऐसी सफलता किसी फिल्म को नहीं मिलती! अक्षय कुमार की फिल्म 'सम्राट पृथ्वीराज' को हर स्तर पर प्रचारित किया गया। कई राज्यों में उसे टैक्स फ्री किया। अक्षय कुमार ने भी ज़बरदस्त प्रचार किया, मगर फिर भी फिल्म औंधे मुंह गिरी। सब जोड़कर फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर कमाई 60 करोड़ के आसपास रही। यही कहानी 'राम सेतु' की भी थी। फिल्म को हर स्तर पर प्रचारित किया गया। पर, जो हुआ वो किसी से छुपा नहीं रहा! यह फिल्म कुल मिलाकर 90 करोड़ ही कमा पाई, जिससे उसकी लागत भी नहीं निकली। आशय यह कि जिस फिल्म का किसी सोच की वजह से विरोध हुआ, वह फिल्म उतनी ही सफल हुई। 'पठान' के एक गाने में दीपिका पादुकोण के कपड़ों के रंग को लेकर सवाल उठाए। 'बेशर्म रंग' गाने में दीपिका पादुकोण के भगवा रंग के कपड़ों के इस्तेमाल पर कुछ राजनीतिक लोग भड़क गए। उन्होंने 'पठान' को रिलीज न होने देने की भी धमकी भी दी। 
       शाहरुख़ खान को फिल्म इंडस्ट्री का संकट मोचक कहा जाता है। 80 के दशक में जब वीडियो कैसेट के आने के बाद फिल्म इंडस्ट्री बर्बाद होने वाली थी, तब शाहरुख़ ही ऐसे कलाकार थे जिन्होंने इंडस्ट्री को उबारा। उसी शाहरुख़ ने एक बार फिर इंडस्ट्री को संकट से निकाला। कोविड काल के बाद मनोरंजन के इस माध्यम की जो हालत हुई, वो किसी से छुपी नहीं है। कई थिएटर बंद हो गए, कलाकारों के पास काम नहीं बचा, फिल्मों का स्तर गिर गया। साउथ की रीमेक का सहारा लेकर फिल्में बनने लगी। ऐसे में लोगों ने 'बायकॉट बॉलीवुड' ट्रेंड शुरू कर दिया। ऐसे माहौल में एक बार फिर शाहरुख खान ने बॉलीवुड की नैया पार लगाई। 'पठान' जैसी सुपरहिट फिल्म देकर दर्शकों को जता दिया कि हिंदी सिनेमा अभी मरा नहीं है। देश के 25 सिंगल स्क्रीन थिएटर जो कोरोना के बाद बंद हो गए थे, उनमें फिर रौनक लौट आई। 
     यह कहना गलत नहीं होगा कि 'पठान' को बॉलीवुड की नहीं, बल्कि बॉलीवुड को 'पठान' की जरूरत ज्यादा थी। जिस तरह 90 के दशक में वे रोमांस के बादशाह बनकर उबरे थे। अब उन्होंने 57 साल की उम्र में एक्शन करके साबित कर दिया कि वे अभी चुके नहीं है। शाहरुख़ ऐसे कलाकार हैं, जो हर रोल में फिट बैठते हैं। शाहरुख करीब चार साल बाद परदे पर दिखाई दिए। 'जीरो' के फ्लॉप होने के बाद शाहरुख खान के करियर पर सवाल उठाना शुरू हो गए थे। यह भी कहा जाने लगा था कि अब उन्हें रिटायरमेंट लेना चाहिए। ऐसे माहौल में 'पठान' से उनकी वापसी ने इतिहास बनाने के साथ उन लोगों के मुंह पर ताले लगा दिए, जो उन पर उंगली उठा रहे थे।
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Wednesday, February 8, 2023

एक अनूठे गीत की संयोग वाली दास्तान!

हेमंत पाल

    प्रेम के ढाई अक्षर होते हैं और अहं में भी अमूमन उतने ही शब्द होते हैं। ढाई अक्षरों वाले इन दोनों शब्दों का संबंध बनाने और बिगाड़ने में अहम भूमिका होती है। जहां प्रेम से संबंध बनते और पनपते हैं, वहीं अहं से संबंध बिगड़ते और टूटते हैं। संबंध के बनने और बिगड़ने में प्रेम और अहं दोनों जिम्मेदार होते हैं। संबंधों की यह सच्चाई संबंध में परदे पर जितनी शिद्दत से पेश की गई, परदे के बाहर भी संबंधों के जुड़ने और टूटने का क्रम भी दिखाई देता रहता है। एस मुखर्जी को हिंदी सिनेमा में मसाले का उपयोग करने का सबसे ज्यादा श्रेय दिया जाता है। उनकी पाठशाला से जॉय मुखर्जी, साधना, संजीव कुमार जैसे सितारे तो निकले ही, नासिर हुसैन और ओपी नैयर ने भी मुखर्जी परिवार को रजत पटल पर स्थापित करने में अहम् भूमिका निभाई। एस मुखर्जी जहां अपने बडे बेटे जॉय मुखर्जी को सितारा बनाने में सफल रहे, वहीं अपने छोटे बेटे देव मुखर्जी का फिल्मों से संबंध जोड़ने में वे भले ही कामयाब रहे हों, लेकिन फिल्मों से देव मुखर्जी के सबंधों को पुख्ता करने या स्थायित्व देने में वह सफल नहीं हो पाए।
    अपने बेटे का फिल्मों से संबंध जोड़ने का यह सिलसिला फिल्म 'संबंध' से ही शुरू हुआ था। इसे संयोग कहें या प्रेम और अहं का अंतरजाल कि 'संबंध' में ही गीतकार प्रदीप, संगीतकार ओपी नैयर और गायक मुकेश के बीच संबंध बनने और बिगडने का संबंध रहा है। मसाला फिल्मों के जनक एस मुखर्जी 'संबंध' से कुछ अलग करने का सोच रहे थे। इसलिए उन्होंने इसके गीत संगीत में भी प्रयोग करने का निश्चय किया और गीतकार प्रदीप और संगीतकार ओपी नैयर की बेमेल जोडी का किसी तरह मेल करने में भी वे कामयाब रहे। यह संबंध मुखर्जी परिवार के साथ कवि प्रदीप और संगीतकार ओपी नैयर के प्रेम का परिणाम था।
    इस फिल्म के लिए ओपी नैयर का मिजाज कुछ अलग ही था। वे भी मसालेदार धुनों से इतर संजीदा धुन बनाकर फिल्मी दुनिया को यह दिखाना चाहते थे कि उनका संगीत केवल घोड़ों की टापों या पंजाबी लोक संगीत के सहारे ही नहीं चलता! बल्कि, वे सुरमई संगीत का सृजन भी उतनी ही संजीदगी से कर सकते हैं। गीतकार प्रदीप के गीतों में शुद्ध हिंदी का प्रयोग होता था और अपने गीत अक्सर वह स्वयं ही गाते थे जो कविता नुमा धुनों में पिरोए होते थे। एक बड़ा गीतकार होने का उन्हें भ्रम था, तो अपने संगीत से श्रोताओं को थिरकाने वाले ओपी नैयर की सनक भी कुछ कम नहीं थी। गीत और संगीत का सिलसिला संबंधों के बनने और उसमें दरार पड़ने से आरंभ हुआ। यह गीत था 'चल अकेला चल अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा रही चल अकेला। 
     इस गीत के लिए प्रदीप ने यह तय माना था कि वे इसे खुद ही गाएंगे। लेकिन, आशा भोंसले की सिफारिश पर ओपी नैयर इसे मुकेश से गवाना चाहते थे। मजे की बात तो यह है कि मुकेश और ओपी नैयर के संबंध भी ज्यादा अच्छे नहीं थे। तारा हरीश की फिल्म 'दो उस्ताद' जिसके एक नायक राज कपूर थे उसमें ओपी नैयर ने राज कपूर के गीत मुकेश से गवाने की मांग ठुकरा कर मोहम्मद रफी से सारे गीत गवाए थे। इसके बाद राज कपूर और ओपी नैयर कभी साथ नहीं आए। लेकिन, संबंधों की इस तल्खी का असर मुकेश पर भी पडा। इसके बावजूद संबंधों के चलते ओपी नैयर ने 'चल अकेला' के लिए मुकेश को राजी कर लिया और यह गीत इतना ज्यादा लोकप्रिय हुआ कि मुकेश के टॉप टेन गीतों में इसने अपना स्थान बना लिया। इसके बाद ओपी नैयर और मुकेश के संबंध तो सुधर गए, लेकिन नैयर और प्रदीप के बीच तनातनी के हालात बन गए। लेकिन, दोनों ने अपनी प्रतिभा पर किसी तरह की आंच नहीं आने दी और फिल्म 'संबंध' के सारे गीत एक से बढ़कर एक लिखे गए और एक से बढ़कर एक धुनों में पिरोकर गीत संगीत का प्रगाढ़ संबंध स्थापित कर दिया।
   'संबंध' में एक गीत और था, जो अपने आप में अद्भुत था। 'अकेली हूं मैं पिया आ' यह गीत अदभूत इस मायने में था कि मुजरा स्टाइल में होने के बावजूद इसमें मुजरे जैसा हल्कापन नहीं था। न तो बोल में और न संगीत में। यह भी कम ही देखा गया कि इस शैली के गीत को शुद्ध हिंदी में लिखा गया और कम से कम वाद्य यंत्रों के प्रयोग से इसकी प्रभावशीलता बढा दी गई हो। गीत की शुरुआत विषय वस्तु और गायन का अंदाज देखकर इसकी तुलना राज कपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत 'अंग लग जा बालमा' के साथ की जाने लगी। उसकी शुरुआत भी चार पंक्तियों के साथ आरंभ हुई। इसमें भी नायिका अपने अकेलेपन की तड़फ का हवाला देते हुए नायक को आमंत्रण देती है। फिर भी 'अंग लग जा बालमा' और 'अकेली हूं मैं पिया आ' कि तुलना इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि दोनो गीतों के भाव भिन्न है। 'अंग लग जा बालमा' के फिल्मांकन में नायिका का खुलापन वासना को भड़काने का काम करता है, तो संबंध का गीत प्रेममय आमंत्रण है जिसमें रंचमात्र भी वासना नहीं है। एक गीत यदि कामदेव की पत्नी रति का रचा प्रपंच नजर आता है तो दूसरा गीत राधा और मीरा की याचना है।
   'अकेली हूं मैं पिया आ' के बोलों पर यदि ध्यान पूर्वक विचार किया जाए तो यह किसी तवायफ के कोठे से निकला गीत नहीं, बल्कि किसी मंदिर से निकली प्रभु को पुकारने का प्रयास है। इंसान यदि अकेला बढ़ता जाए और अपने हौंसले के बल पर चलकर 'चल अकेला चल अकेला' गाता हुआ आगे बढता भी जाए। लेकिन, अकेले बढ़ते-बढ़ते जब उसका मेला पीछे छूट जाता है और वह नितांत अकेला पड़ जाता है, तब उसे ईश्वर के अलावा कुछ और नजर नहीं आता। इस गीत में दुनिया की भीड़ में अकेली पड़ी ऐसी ही एक दुखियारी की पुकार है, जो अकेली होकर अपने प्रिय प्रभु को पुकार रही है। अकेली हूं में पिया, यहां पिया और कोई नहीं स्वयं ईश्वर है जिसे राधा और मीरा ने इसी स्वरूप में देखा था।
   गीत के अंतरे भी अपनी व्यथा और ईश्वर से आकर रक्षा करने की याचना की तरफ इंगित करते हैं। प्रभु यदि रूपनगर के कुंवर हैं, तो नायिका रूपनगर की कुंवारी बनकर कहती है कि उनके बिना वह तरस रही है और कहती है राजा प्रीत निभा। यह अनुनय राधा का भी हो सकता है, जो द्वारका नरेश को प्रीत निभाने का बचपन का वादा निभाने की याद दिला रही है। दूसरा अंतरा कहता है 'जब जब देखूं मैं दर्पण में आग सी लगती है नाजुक तन में क्या करूं तू ही बता।' इन पंक्तियों का भावार्थ भी छायावाद से प्रेरित लगता है। 
      सांसारिक दृष्टि से रूप, दर्पण और आग सब कुछ अलग है और आध्यात्मिक रूप से इनके मायने बदल जाते है। यहां इंसान का रूप उसकी आत्मा होती है और दर्पण उसका मन जब दुनिया से दुखी अकेली पडी प्रभु प्यारी गुहार करते हुए अपने मन के दर्पण में झांकती है या अपनी अंर्तआत्मा को झकझोरती है तो उसे अपने आसपास विरह की आग जलती दिखाई देती है यह प्रभु विछोह की आग है जिसके लिए उसे प्यार की शीतल छैयां यानी प्रभु के सानिध्य की जरूरत होती है । लेकिन, वह नहीं जानती कि प्रभु कृपा कब और कैसे होगी । इसलिए वह प्रभु के सामने प्रश्न छोडती है 'क्या करूं तू ही बता अकेली हूं मैं पिया आ...!'
     यदि इस गीत में प्रयुक्त वाद्य यंत्रों पर गौर किया जाए तो वह भी ईश्वरीय प्रतीत होते हैं। यूँ तो ओपी नैयर के आर्केस्ट्रा में वायलिन ढोलक का बहुतायत से प्रयोग होता है । लेकिन 'अकेली हूं में पिया आ' को उन्होंने महज एक गीत नहीं बल्कि प्रभु याचना और प्रार्थना मानकर उन्हीं वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया है जो मीरा और उनके  गोपाल के बीच के संबंधों को प्रतिबिंबित करते है। इसकी शुरुआत भले ही सारंगी से हुई हो, लेकिन अंतरे में 'पग घुंघरू बांध गोपाल' के सामने नृत्य करती मीरा के पैरो के घुंघरू के साथ गोपाल के ओठों से लगी बांसुरी का सुंदर प्रयोग किया गया है। बीच-बीच में सितार का प्रयोग इसके दर्शन इसकी आध्यात्मिकता को और बढा देता है। परदे पर भले ही अकेली हूं में पिया आ नर्तकी और नृत्य देखने आने वालों के बीच संबंध जोड़ता दिखाई पड़ता है। लेकिन, परदे से परे यह प्रभु और प्रभु-दर्शन की प्यासी राधा और मीरा के संबंधों को रेखांकित करता है।
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