Wednesday, December 30, 2015

सब पर भारी रही 'बजरंगी भाईजान'


बीता बरस : 10 बड़ी फ़िल्में 

- हेमंत पाल 

  बॉलीवुड में हर साल करीब हज़ार फ़िल्में बनती हैं। लेकिन, उनमें से 30% तो रिलीज ही नहीं हो पाती! जिनको परदे का मुँह देखना नसीब होता है, उनमें कुछ ही फिल्में ऐसी होती हैं जो बॉक्स ऑफिस पर कमाल दिखा पाती हैं। 2015 में रिलीज हुई कुछ ऐसी ही फ़िल्में जो बॉक्स ऑफिस पर हिट रहीं और जिन फिल्मों ने कमाई के आंकड़ों में भी कमाल किया!  

* बजरंगी भाईजान
  इनमें सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली फिल्म रही डायरेक्टर कबीर खान की फिल्म 'बजरंगी भाईजान।' सलमान खान, करीना कपूर, नवाजुद्दीन सिद्दकी बाल कलाकार हर्षाली मल्होत्रा की जुलाई में आई इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 320 करोड़ का आंकड़ा छुआ! फिल्म में सलमान खान ने एक हिन्दू युवक पवन कुमार चतुर्वेदी की भूमिका निभाई है, जो बजरंगबली का भक्त है और मददगार भी! उसे पाकिस्तान से आई शाहिदा नाम की एक मूक-बधिर बच्ची मिलती है जो अपने मां-बाप के पास जाना चाहती है। पवन उसे पाकिस्तान पहुंचाने के लिए बॉर्डर पार कर जाता है और उसे छोड़कर आता है। फिल्म में करीना ने भी सलमान के साथ जोरदार काम किया है। 
* प्रेम रतन धाम पायो 
  राजश्री प्रोडक्शन के बैनर तले बनी डायरेक्टर सूरज बड़जात्या की फिल्म 'प्रेम रतन धन पायो' भी सलमान खान की ही फिल्म है, जिसमें सोनम कपूर, अनुपम खेर, दीपक डोबरियाल और स्वरा भास्कर अपनी अदाकारी दिखाई! दिवाली के मौके पर नवंबर में आई इस फिल्म ने उम्मीद  मुताबिक तो बिज़नेस किया, पर मार्केटिंग स्ट्रेटेजी कारण इसका बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 206.63 करोड़ तक जरूर पहुंचा! फिल्म ने वर्ल्ड वाइड 390 करोड़ की कमाई भी करके शाहरुख की पिछले साल आई फिल्म 'हैप्पी न्यू ईयर' को पीछे छोड़ दिया! दुनिया भर में ये सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में छठे नंबर पर पहुंच गई। फिल्म की कहानी ऐसे राजकुमार विजय सिंह की है, जिसका सबकुछ बिखरा हुआ है! संपत्ति के लिए उसके भाई उसे जान से मारना चाहते हैं। लेकिन, उसे बचाने के लिए विजय सिंह के कुछ वफादार लोग अलग-अलग तरीके निकाल कर सब कुछ सही करना चाहते हैं। फिल्म में सलमान का डबल रोल है। 
* दिलवाले
   एक्शन के बादशाह फिल्मकार रोहित शेट्टी ने इस बार प्रेम कहानी को स्टोरी बनाया है। दिसंबर में प्रदर्शित निर्माता गौरी खान की इस फिल्म को देशभर के 2700 सिनेमाघरों में रिलीज किया गया। लेकिन, एक विवाद में फंसने कारण एक बड़े वर्ग ने इसका विरोध भी किया, जिसका असर फिल्म के कारोबार पर भी पड़ा! 100 करोड़ से ऊपर के बजट वाली फिल्म में शाहरुख़ खान, काजोल, रणवीर सिंह और कृति सैनन हैं! अभी इस फिल्म के फाइनल आंकड़े सामने नहीं आए हैं, पर ये निश्चित रूप से 150 करोड़ से ऊपर ही होगा। फिल्म की कहानी राज (शाहरुख खान) गोवा में कार मोडिफायर का काम करता है। उसका भाई वीर (वरुण धवन) भी उसके साथ ही है। राज थोड़ा अनमना सा और ढीला ढाला दिखता है। वीर स्मार्ट है, उसे इशिता (कृति सैनन) नाम की लड़की से इश्क हो जाता है। और जब बात आगे बढ़ती है तो मालूम होता है राज जो कभी वो बुल्गारिया में रहता था, वहां मीरा नाम की एक लड़की के साथ उसका इश्क हुआ था पर वो जल्द ही खत्म हो गया था। बाद में हंसी-मजाक के बाद फिल्म का अंत हो जाता है। 
* बाजीराव मस्तानी 
   ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली संजय लीला भंसाली की फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' में रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा मुख्य भूमिका में हैं। भव्य सेट और बड़े केनवस वाली इस फिल्म में रणवीर ने मराठी योद्धा पेशवा बाजीराव का किरदार निभाया है। जबकि, दीपिका मस्तानी और प्रियंका काशीबाई के किरदार में हैं। 'दिलवाले' के साथ 18 दिसंबर को रिलीज हुई इस फिल्म ने कमाई के मामले में दुनियाभर में 100 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया। 'दिलवाले'  मुकाबले इस फिल्म का कारोबार आगे निकल रहा है। ये फिल्म देशभर के 3050 सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई है। इसका बजट भी 100 करोड़ रुपए से ज्यादा है। क्रिसमस से 1 जनवरी तक कोई और बड़ी फिल्म रिलीज नहीं हो है। इसलिए इस फिल्म बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 250 करोड़ के ऊपर निकलने की उम्मीद की जा रही है। 
* तनु वेड्स मनु-रिटर्न्स
  इस साल जो फ़िल्में अनपेक्षित रूप से हिट हुई, उनमें से एक है 'तनु वेड्स मनु-रिटर्न्स' डायरेक्टर आनंद एल राय की इस फिल्म में आर माधवन, कंगना रनौत, दीपक डोबरियाल, स्वरा भास्कर और जिमी शेरगिल ने काम किया है। मई में आई इस फिल्म ने 152 करोड़ का कारोबार किया! ये 2011 में आई फिल्म 'तनु वेड्स मनु' की सीक्वल थी। रिटर्न्स में फिल्म की कहानी को वहीं से शुरू किया गया जहाँ पुरानी फिल्म का अंत हुआ था! शादी के 4 साल बाद कंगना (तनु) और माधवन (मनु) को लंदन में परामर्श लेते दिखाया गया है! जहाँ तनु अपनी परेशानियों के लिए पति पर आरोप लगाती है। पति (मनु) आपा खो देता है और उसकी तनु से लड़ाई हो जाती है। मनु को पागलखाने भेज दिया जाता है। तनु वापस इंडिया अपने घर (कानपुर) चली आती है। मनु भी इंडिया आ जाता है और यहाँ उसे दूसरी हरियाणवी लड़की जो कंगना की डुप्लीकेट होती है, मिलती है। फिर इन दोनों के बीच खींच-तान शुरू होती है। तनु और मनु फिर साथ आते हैं। 
* एबीसीडी-2
   डांस पर केंद्रित ये फिल्म भी सीक्वल है। फिल्म में बॉलीवुड के कई नामी कोरियोग्राफर्स ने काम किया है। डायरेक्टर रेमो डिसूजा की इस फिल्म में वरुण धवन, श्रद्धा कपूर, प्रभु देवा, लॉरेन गॉटलिब, राघव जुयाल और धर्मेश येलांदे ने अपने डांस के जलवे दिखाए हैं। रेमो इससे पहले 2013 में 'एबीसीडी' नाम से फिल्म बना चुके हैं। जून में रिलीज इस फिल्म का कलेक्शन रहा 105.74 करोड़! फिल्म की कहानी विष्णु (प्रभु देवा), विनी (श्रद्धा कपूर) और सुरेश (वरुण धवन) की है जो वसई में रहते हैं और विश्व के हिप हॉप डांस चैंपियनशिप प्रतियोगिता में भाग लेते हैं। सुरेश और विनी अपने नृत्य के शिक्षक विष्णु को सम्मान दिलाने के लिए इस प्रतियोगिता को जीतना चाहते हैं। इसके लिए वे सभी लास वेगस नामक शहर के लिए निकल जाते हैं। इस प्रतियोगिता में भाग लेने और जीतने तक का सफर इस फिल्म में दिखाया गया है। 
* बेबी
   सीक्रेट एजेंट कहानी पर बनी डायरेक्टर नीरज पांडे की ये फिल्म भी उनकी हर फिल्म से कुछ अलग थी। अलग तरीके की कहानी और ट्रीटमेंट के लिए हमेशा नीरज पांडेय की तारीफ की जाती है। यह फिल्म भी एक अलग तरीके की कहानी है इसमें 'बेबी' नाम के एक गुप्त एजेंटों का ग्रुप है, जो कि सरकार के लिए काम करता है। अक्षय कुमार, तापसी पन्नु, राणा दग्गुबत्ती, डैनी, अनुपम खेर और केके मेनन की ये फिल्म जनवरी में रिलीज हुई थी। इस फिल्म ने 95 करोड़ का कारोबार किया था। अजयसिंह राजपूत (अक्षय कुमार) एक गोपनीय एजेंट है, और अपने दल का श्रेष्ठ अधिकारी है। इनका काम देश के आतंकवादियों को खत्म करना है। अजय को एक दिन राष्ट्र विरोधियों की एक बड़ी साजिश का पता चलता कि आतंकवादी मास्टरमाइंड मौलाना (रशीद नाज़) भारतीय सीमा के पार से हमले करने की तैयारी कर रहा है। 'बेबी' टीम को पहले ही इस साजिश का पता चल जाता है और अंत में ये टीम मौलाना को मार देते हैं।  
* सिंह इज ब्लिंग
 डायरेक्टर प्रभु देवा की अक्षय कुमार, एमी जैक्सन, के के मेनन, लारा दत्ता, योगराज सिंह के अभिनय वाली ये फिल्म अक्टूबर में रिलीज हुई थी, जिसने 90.25 करोड़  बिजनेस किया। कई सुपरहिट फिल्मों का निर्देशन कर चुके प्रभुदेवा ने इस फिल्म में अक्षय कुमार के साथ दूसरी बार काम किया है। इससे पहले दोनों ने फिल्म 'राऊडी राठौर' में काम किया था। फिल्म में अक्षय ने एक नाकारा सरदार  किरदार निभाया है, जिससे उसके पिता सहित गांव के लोग परेशान रहते हैं। पिता उसे अपने दोस्त के पास गोवा भेज देते हैं, जहाँ काम करते वक्त उसकी मुलाकात सारा से होती है जिसकी सुरक्षा का काम रफ्तार सिंह को मिल जाता है। फिल्म गानों  एक्शन सींस को पसंद किया गया और अक्षय सरदार बनकर एक बार फिर ऑडिएन्स को लुभाया।
* ब्रदर्स
  एक्शन पसंद करने वालों के लिए ये डायरेक्टर करन मल्होत्रा की फिल्म थी! इसमें अक्षय कुमार, सिद्दार्थ मल्होत्रा, शेफाली शाह, जैकलीन फर्नांडीज, जैकी श्रॉफ किया है। अगस्त में रिलीज इस फिल्म का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 82.47 करोड़ रहा! यह फिल्म हॉलीवुड मूवी वॉरियर्स की रीमेक है।यह दो भाईयों डेविड (अक्षय कुमार) और मॉन्टी (सिद्धार्थ मल्होत्रा) की कहानी है। डेविड एक टीचर है और मॉन्टी एक शराबी जो फाइटिंग करता है। डेविड की बेटी बीमार हो जाती है जिसे बचाने के लिए वह फाइट करना शुरू कर देता है जिसके कारण उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। वहीं अपने पिता गैरी ( जैकी श्रॉफ) का सर ऊंचा करने के लिए मॉन्टी भी फाइटिंग करता है। अंत में मॉन्टी और डेविड के बीच में फाइनल होता है। दोनों के बीच फाइट होती है। 
* पीकू
  ये एक कॉमेडी वाली गंभीर फिल्म है। शुजीत सरकार द्वारा निर्देशित यह फिल्म अलग तरह की कॉमेडी फिल्म है। इसमें अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण, इरफान खान और मौसमी चटर्जी ने काम किया है। फिल्म में एक पिता भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) और बेटी पीकू बनर्जी (दीपिका पादुकोण) के रिश्ते को दिखाया गया है। मई में रिलीज इस फिल्म ने 79.92 करोड़ का कारोबार किया। पीकू एक आर्किटेक्ट और अपने फर्म की को-ओनर हैं। उसके दिन की शुरुआत अपने पिता के साथ होती है जो पेट के मरीज है। उनके पेट की परेशानी सुनकर पीकू परेशान रहती है। पीकू के पिता अपने गांव कोलकाता जाना चाहता हैं, जिसके लिए वह एक टैक्सी बुक करती है जिसे इरफान खान चलाते हैं। इसके बाद पीकू और भास्कर टैक्सी में बैठकर कोलकाता के लिए निकलते हैं जहां शुरू होता है उनका असली सफर। अभी तक ऐसी थीम पर कभी किसी डायरेक्टर ने फिल्म नहीं बनाई थी। फिल्म का दर्शकों ने खूब तारीफ की। 
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बीता बरस : सुपर फ्लॉप  
वो फ़िल्में जो अपनी लागत भी नहीं निकल सकीं!
  बॉक्स ऑफिस पर कई फिल्में रिलीज हुईं। लेकिन, पिछले साल के मुकाबले ये साल अच्छा नहीं कहा जा सकता। कई बड़ी फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर अपना क़माल नहीं दिखा पाई। कुछ फिल्में तो इतनी बुरी तरह फ्लॉप हुईं कि वे अपनी लागत भी नहीं निकल सकीं और उनका कारोबार 10 करोड़ रुपए के अंदर ही सिमट गया। 
* हवाईजादा 
 निर्देशन विभु पूरी की हवाई जहाज के अविष्कार पर बनी इस फिल्म में मुख्य किरदार में आयुष्मान खुराना, पल्लवी शारदा और मिथुन चक्रवर्ती हैं। जनवरी को रिलीज हुई ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुह गिरी। इसकी लागत 25 करोड़ थी, जबकि इसने मात्र 3 करोड़ की कमाई की। 
* डर्टी पॉलिटिक्स 
   मार्च में रिलीज हुई ये फिल्म राजस्थान के बहुचर्चित भंवरी देवी हत्याकांड पर बनी थी। इस फिल्म में मल्लिका शेरावत-ओम पूरी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। इस मूवी ने लाइफटाइम महज 7 करोड़ रुपए का कलेक्शन किया। जबकि, इस फिल्म की लागत 15 करोड़ रुपए थी। 
* वेलकम टू कराची 
   अरशद वारसी और जैकी भगनानी की ये फिल्म मई 2015 को रिलीज हुई। यह कहानी दो भारतीय की है, जो गलती से कराची चले जाते हैं और वहाँ पर फँस जाते हैं। उनका वहाँ आतंकियों द्वारा गोलियों से स्वागत होता है और वो वहाँ से भागने के लिए रास्ता खोजते रहते हैं। फिल्म की लागत 20 करोड़ थी, जबकि फिल्म ने सिर्फ 8 करोड़ ही कमाए।
* मिस टनकपुर हाजिर हो 
   ओम पुरी, अन्नू कपूर जैसे मंझे हुए कलाकारों और विनोद कापड़ी की डायरेक्ट की हुई यह फिल्म साल की सबसे फ्लॉप फिल्म साबित हुई। फिल्म की कहानी में गाँव के युवक पर गाँव की इनामी भैस के साथ दुष्कर्म का आरोप  लगता है। फिल्म की लागत 9 करोड़ थी, जबकि यह फिल्म महज 1.28 करोड़ की कमाई की।
* बैंगिस्तान 
 31 जुलाई 2015 को रिलीज हुई इस फिल्म का निर्देशन कारण अंशुमान ने किया था। इस फिल्म में रितेश देशमुख-वीर दास ने मुख्य भूमिका निभाई थी। इस फिल्म की लगत 26 करोड़ थी जबकि इसने महज 5.5 करोड़ ही कमाए।
* बॉम्बे वेलवेट
  अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी इस बहु प्रतीक्षित फिल्म में रणबीर कपूर और अनुष्का शर्मा ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 110 करोड़ की लागत से बनी ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर डिजास्टर साबित हुई और सिर्फ 23.87 करोड़ का कारोबार कर पायी।
* कैलेंडर गर्ल्स 
   नेशनल अवार्ड विजेता निर्देशक मधुर भंडारकर की यह फिल्म 7 करोड़ ही कमा सकी। फैशन, पेज 3, चांदनी बार और ट्रैफिक सिग्नल जैसी बेहतरीन फिल्में देने वाले मधुर भंडारकर की इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाल नहीं दिखाया! ये फिल्म चार लड़कियों की है जो कैलेंडर गर्ल्स लिए सिलेक्ट होती हैं।  
* शानदार 
    शाहिद-आलिया स्टारर अक्टूबर को रिलीज हुई यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई जादू नहीं चला पाई! 68 करोड़ की लागत वाली ये फिल्म 42 करोड़ ही कमा पाई। आलिया भट्ट को रात में नींद न आने की बीमारी होती है। शाहिद को भी आलिया की तरह ही रात में नींद न आने की बीमारी होती है।
* भाग जॉनी भाग 
    कुणाल खेमू और जोया ईरानी की यह फिल्म 25 सितंबर को रिलीज हुई और मात्र 2 करोड़ का कारोबार कर सकी। फिल्म की स्क्रिप्ट काफी भ्रमित करने वाली है, एक इंसान को एक ही वक्त पर दो अलग-अलग तरह से जिंदगी बिताते हुए देखा जाता है जो 21वीं सदी के हिसाब से गड़बड़ लगी!
* मैं और चार्ल्स 
   बिकिनी किलर के नाम से मशहूर चार्ल्स शोभराज की जिंदगी पर बनी इस फिल्म में रणदीप हुडा और रिचा चड्ढ़ा ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फिल्म सिर्फ 5 करोड़ का कारोबार कर सकी। जबकि, इस फिल्म के लिए  मेहनत की गई थी और अपनी तरह की अलग ही फिल्म थी!
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बीता बरस : न हिट, न फ्लॉप 
कारोबार कमजोर, पर दिल में बनाई जगह 
  इस साल कुछ फ़िल्में बेहद चर्चित रहीं! लेकिन, उनका हश्र बॉक्स ऑफिस पर बहुत अच्छा तो नहीं रहा पर, इन फिल्मों की कहानी और निर्देशन ने इनको चर्चित जरूर बना दिया! इन फिल्मों ने दर्शकों पर खासा असर डाला और लोगों ने उसकी जमकर तारीफ भी की।
* दृश्यम :  मलयाली फिल्म की रीमेक 'दृश्यम' सस्पेंस थ्रिलर फिल्म थी। अजय देवगन, तब्बू, श्रेया सरन, रजत कपूर जैसे स्टार से सजी 'दृश्यम' को कम आंका जा रहा था! लेकिन, इस फिल्म को देखकर दर्शक मंत्रमुग्ध रह गए। 
* मसान : इस फिल्म की कहानी दिल तक जाते हुए दर्शकों के इमोशन्स को झकझोरती है। नीरज घेवान की ये फिल्म जीवन और मृत्यु के अलावा जिंदगी में आने वाले उतार-चढ़ावों के बारे में गहराई तक छूती है।
* तितली : तितली जैसी हर फैमिली एक सी नहीं होती! लेकिन, यह फिल्म जीवन, मिडिल क्लास फैमिली और पाखंडी समाज के चरित्र को उधेड़ती है।
* मांझी : द माउंटेन मैन : साइबर वर्ल्ड में रिलीज से पहले लीक हो गई 'मांझी द माउंटेन मैन' को काफी पसंद किया गया। नवाजुद्दीन सिद्दीकी की अदाकारी ने लोगों को उनका कायल बना दिया। यहां तक कि लोगों की जुबान पर इस फिल्म का तकिया कलाम शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद चढ़ गया।
* ऐंग्री इंडियन गॉडेसेस : पेन नलिन ने यह फिल्म बनाने की कोशिश की, यही बड़ी बात है। फिल्म में सात महिलाओं की दोस्ती दिखाई गई है। इनमें एक की शादी होकर एक बच्चे की माँ बन चुकी है, एक की शादी के पाँच साल बीत चुके है पर संतान नही हो पा रही है। एक सिंगर बनने की कोशिश कर रही है। कुछ अपनी जिंदगी और कैरियर के भँवर में जूझ रही है।
* तलवार : आरुषि तलवार हत्याकांड की सच्चाई कोर्ट तय करेगी, लेकिन यह फिल्म कई सवाल खड़े करती है! मेघना गुलजार का निर्देशन और इरफान खान समेत बाकी अभिनेताओं की ऐक्टिंग इस फिल्म को लाजवाब बनाती है।
* दम लगा के हईशा : ये फिल्म छोटे शहरों के युवक-युवतियों के सपने और उनकी उम्मीदों को यह फिल्म बेहद खूबसूरती से सामने रखती है। किसी का मोटापा प्यार के आड़े नहीं आ सकता यह फिल्म इस बात को बताती है।
* कोर्ट : असल कोर्ट रूम देखना है तो यह फिल्म देखिए। भारतीय न्याय प्रणाली को इस फिल्म ने दिखाया है और यह फिल्म ऑस्कर में ऑफिशल इंडियन एंट्री थी जिसके बाद लोगों की इस फिल्म को लेकर इच्छा पैदा हुई।
* मार्गरिटा विद अ स्ट्रा : लैला सेरेबरल पेल्सी से पीड़ित है। इस फिल्म में लैला का सेक्स को लेकर इच्छा का जागना और उसकी आकांक्षाओं को दिखाया गया है। फिल्म क्लकी कोचलिन की ऐक्टिंग के लिए भी देखी जानी चाहिए।
* गब्बर इज बैक : गजनी के निर्माताओं की पेशकश थी गब्बर इज बैक। गब्बर को कम आंका गया, लेकिन यह फिल्म अच्छाई और बुराई की लड़ाई को अलग ही अंदाज में पेश करती है।
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Friday, December 25, 2015

प्रशासनिक व्यवस्था की हर सीढ़ी का मुँह खुला!


- हेमंत पाल 


 प्रदेश सरकार भ्रष्ट नौकरशाही पर पूरी तरह से लगाम नहीं लगा पा रही है! प्रदेश में 'भारतीय मुद्रा के आचमन' का नजारा यह है कि अरबपति अफसरों और करोड़पति क्लर्को, बाबुओं, पटवारियों से लगाकर चपरासियों में कमाने की होड़ लगी है। बड़े अफसरों के अलावा करोड़पति चपरासियों, पटवारियों और क्लर्कों के यहाँ भी जब छापा मारा जाता है तो अकूत संपत्ति का मूल्यांकन करने में ही महीनों लग जाते हैं। सरकारी जाँच एजेंसियों ने पिछले कुछ सालों के दौरान एक हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की काली कमाई उजागर की है। इस धरपकड़ से यह बात जरूर सामने आई कि सरकारी दफ्तरों का पूरा अमला कड़ी बनाकर भ्रष्टाचार लिप्त है। अफसरों के पास नगदी और सोना रखने के लिए जगह नहीं है। कोई अपनी काली कमाई को बिस्तर बनाकर सोता है तो किसी ने बैंक के लॉकरों को नोटों से ठूंस रखा हैं। इस सबके बाद भी अभी तक व्यवस्था ने वे कारण नहीं तलाशे, जिनके चलते अफसर इतने मालामाल हुए! अगर ये कारण तलाशे जाते तो साठगांठ का खुलासा हो सकता था, जिसके संरक्षण में यह सब हो रहा है। भ्रष्टाचार की तहकीकात उन गठजोड़ों का भी खुलासा कर सकती है, जो आला अफसरों, राजनीतिकों और कारोबारियों के बीच पनपते हैं। अकेले लोकायुक्त ही प्रदेश के करीब 40 आईएएस अफसरों के खिलाफ जांच कर रहा है। ईओडब्ल्यू के पास भी करीब दर्जन अफसरों की जांच की फाइलें हैं। प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों में तो किसी का भय ही नहीं बचा! जिस तरह पटवारी जैसे छोटे कर्मचारी से लेकर बड़े अफसरों तक में पैसा लूटने की होड़ मची है, हालात बेहद गंभीर हैं! 
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- उज्जैन लोकायुक्त पुलिस ने नीमच कलेक्टर कार्यालय में पदस्थ एक क्लर्क के ठिकानों पर छापे की कार्रवाई की! आय से अधिक संपत्ति होने की शिकायत पर यह कार्रवाई की गई! उस क्लर्क के घर से नकदी, सोने-चांदी के जेवरात के अलावा जमीन में निवेश के दस्तावेज भी मिले! छापे के दौरान बिस्तर के नीचे छुपाकर रखे हुए सात लाख रुपए भी बरामद किए गए! 
- भोपाल लोकायुक्त पुलिस ने होशंगाबाद के एक स्कूल प्रिंसिपल को 10 हजार रुपए की रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों गिरफ्तार किया। लोकायुक्त के अनुसार इस संकुल प्रिंसिपल ने हॉस्टल अधीक्षिका पर रिश्वत देने के लिए दबाव बनाया था!
- खरगोन जिले में लोकायुक्त पुलिस ने ऋण पुस्तिका बनाने के बदले पांच हजार रुपए की रिश्वत ले रहे पटवारी को रंगे हाथ पकड़ा है। ये पटवारी ऋण पुस्तिका के बदले आठ हजार रुपए रिश्वत मांग रहा था।  
- लोकायुक्त की विशेष पुलिस ने धार जिले के कानवन में राजस्व निरीक्षक और एक पटवारी को किसान से 10 हजार रूपए की रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ पकड़ा! पुस्तैनी जमीन के सीमांकन करने के मामले में राजस्व निरीक्षक एवं प्रभारी ने 10 हजार रूपए रिश्वत मांगी थी।
- जबलपुर लोकायुक्त ने गाड़ासरई के पटवारी 1500 रुपये की रिश्वत लेते पकड़ा! जमीन का पट्टा बनाने के नाम पर पटवारी ने ये रिश्वत मांगी थी। गाड़ासरई के एक ग्रामीण की पुश्तैनी जमीन का बंटवारा हुआ था। जिसकी जमीन का पट्टा बनना था। लोकायुक्त की टीम ने पटवारी को रिश्वत लेते गिरफ्तार किया!
- मनरेगा स्कीम में गड़बड़ी को लेकर एक दर्जन कलेक्टरों पर ऊँगली उठी है। लेकिन, जांच रिपोर्ट इनके खिलाफ होने के बावजूद इन्हें अच्छी पोस्टिंग मिल रही है। हाइकोर्ट ने एक दागी कलेक्टर के मामले में फौरन कार्रवाई के निर्देश सरकार को दिए।
- टीकमगढ़ के तत्कालीन कलेक्टर को मनरेगा में कथित भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित किया गया! भिंड  तत्कालीन कलेक्टर पर भी ऐसे आरोप थे, लेकिन उसे बचा लिया गया और बाद में बहाल कर दिया गया।
- लोकायुक्त प्रदेश के लगभग 36 आईएएस अधिकारियों के खिलाफ जांच कर रहा है। ईओडब्ल्यू प्रदेश के करीब 25 आइएएस अधिकारियों की जांच की फाइलें हैं।
   ये तो वो चंद ख़बरें हैं, जो अखबारों की सुर्खियां बनी! जिम्मेदार लोगों ने भी इन्हें देखा और भुला दिया! जनता ने भी इन्हें देखा और इसलिए भुला दिया कि जब हर जगह यही सब चल रहा है तो क्यों विरोध करके अपने काम अटकाए जाएं? 'भारतीय मुद्रा के आचमन' का नजारा यह है कि अरबपति अफसरों और करोड़पति क्लर्को, बाबुओं और पटवारियों में एक-दूसरे को पछाडऩे की गुपचुप होड़ सी चल रही है। लोकायुक्त संगठन ने प्रदेशभर में 300 से ज्यादा रिश्वतखोर अधिकारी-कर्मचारियों को पकड़ा है! करीब सौ के यहाँ तो छापे मारकर करीब सवा सौ करोड़़ की संपत्ति भी जब्त की! प्रदेश का हर व्यक्ति जानता है कि प्रदेश गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। अफसरों से लगाकर पटवारी तक भ्रष्ट आचरण की परिधि में है। हाल ही में उज्जैन नगर निगम के एक चपरासी के घर से मिली करोड़ों की संपत्ति और मंदसौर के एक सब-इंजीनियर के घर से पकडे गए करोड़ों रुपए सरकार के इतिहास और भविष्य का बयान कर रहे हैं!
  सरकारी पैसों की अफरातफरी और काम के एवज में रिश्वत लेने चलन तो सरकारी व्यवस्था में बरसों से है। लेकिन, कहा जा रहा है कि 1998 के बाद से ये चलन बहुत तेजी से आगे बढ़ा! सरकारी योजनाओं की कमजोरियों का पहले लाभ उठाकर हर स्तर पर कमीशनखोरी का धंधा तेजी से जारी है। अनुमान यहाँ तक है कि भ्रष्टाचार की अब तक वसूली गई रकम को यदि सरकार इन अधिकारी, कर्मचारियों से बाहर निकाल ले, तो मध्यप्रदेश को अपने विकास कार्यों के लिए आने वाले बीस सालों तक किसी टैक्स की जरूरत नही रहेगी!
   अब बात करते हैं, व्यवस्था के सबसे छोटे पुर्जे 'पटवारी' से जुडी रिश्वतखोरी की कथाओं की! बात शुरू करते हैं उस कहावत से, जो छोटे-बड़े सरकारी कर्मचारियों के बारे में कही जाती है। कहावत ये है कि भयंकर अकाल में भी पांच चीजें बकरी, ऊंट, साहूकार, सरकार और पटवारी बरकरार रहते हैं! बल्कि, ये चीजें बेहतर ढंग से पनपती हैं। सरकारी अमले के वरिष्ठता क्रम में पटवारी भले ही सबसे छोटा पद हो, मगर वो सरकारी मशीनरी का सबसे महत्वपूर्ण पुर्जा होता हैं। उसके बिना राजस्व से जुड़ा कोई मामला आगे नहीं बढ़ सकता! महत्वपूर्ण राजस्व दस्तावेज के संरक्षक पटवारियों को भी पता है कि वे व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग हैं! ऐसे में मालदार बनने के लालच में कई पटवारियों और एकॉउंटेंटों की जमात ने रिश्वतखोरी की राह पकड़ ली! पिछले कुछ सालों में सबसे ज्यादा धरपकड़ पटवारियों की ही हो रही है! ऐसे पटवारियों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। सरकारी योजनाओं से लगाकर राजस्व संबंधी कई कामों में पटवारी प्रशासन और सरकार की महत्वपूर्ण इकाई हैं। शहर हो या गांव दोनों ही जमीन के नक्शे पटवारी के पास रहते हैं। वे इसका बेजा फायदा उठाते हैं। जमीन का मालिकाना हक तो पटवारी चुटकियों में बदल देता है।
  दरअसल, पटवारी ऐसा अदना सा पर सर्वशक्तिमान अधिकारी है, जिसका विरोध करना ग्रामीणों के भविष्य के लिए खतरा बन सकता है! क्योंकि, जमीन से लेकर उनकी जिंदगी के हर हिस्से को सरकार के साथ वही तय करता है। इसलिए इस शक्ति के दुरुपयोग से प्रशासन में संस्थागत भ्रष्टाचार प्रवेश कर गया! पटवारी के माध्यम से पूरा सरकारी ढांचा गलत काम करवाता है, इसलिए जरूरी है एक नया ढांचा खड़ा किया जाए, जहां इस शक्ति को विकेंद्रीकृत कर लोगों को दूसरे विकल्प दिए जाएं ताकि वे पारदर्शिता के आधार पर अपना काम करा सकें! लेकिन, पटवारियों का मानना है कि पटवारियों पर लगे इस तरह के आरोप राजनीतिक साजिश हैं। 'पटवारी छोटा कर्मचारी जरूर है, लेकिन वह कलेक्टर के बराबर सारे काम करता है।
  हमारे यहाँ इस 'पटवार-प्रणाली' की नींव शेरशाह सूरी ने रखी थी! शेरशाह, सूर साम्राज्य का संस्थापक था। इतिहासकारों का कहना है कि अपने समय में अत्यंत दूरदर्शी और विशिष्ट सूझबूझ का आदमी था। इसकी विशेषता इसलिए अधिक उल्लेखनीय है कि वह एक साधारण जागीदार का उपेक्षित बालक था। उसने अपनी वीरता, अदम्य साहस और परिश्रम के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर क़ब्ज़ा किया था। बाद में अकबर के जमाने में टोडरमल ने इस व्यवस्था में सुधार किया और फिर ब्रिटिश राज में इसे नया रूप दिया गया! आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, उत्तर भारत और पाकिस्तान तक में 'पटवारी' शब्द ही चलन में है। जबकि, गुजरात-महाराष्ट्र में 1918 तक इन्हें 'कुलकर्णी' कहा जाता था। बाद में इन्हें 'तलाटी' कहा जाने लगा! पंजाब में 'पटवारी' को 'पिंड दी मां' (गांव की मां) भी कहने का प्रचलन है। राजस्थान में पहले पटवारियों को 'हाकिम साबहु' कहा जाता था। तमिलनाडु में पटवारी को 'कर्णम' या अधिकारी कहा जाता है। गरीब किसानों के लिए 'पटवारी' ही सबसे बड़ा साहब होता है।
  बदलाव के इस युग में अब 'पटवारी' व्यवस्था को भी ठीक करने का काम शुरू हो गया है। केंद्र सरकार ने 2005 में 'पटवारी इन्फॉर्मेशन सिस्टम' (पीएटीआइएस) नामक सॉफ्टवेयर विकसित किया है। इससे जमीन का कंप्यूटरीकृत रिकॉर्ड रखा जा सकेगा। मध्यप्रदेश में भी जमीन के रिकॉर्ड का कंप्यूटरीकरण जारी है। जल्द ही ये सारे रिकॉर्ड पटवारी के लेपटॉप पर उपलब्ध होंगे।
  एक ख़ास बात ये भी है कि पटवारियों के बारे में कोई केंद्रीयकृत आंकड़ा उपलब्ध नहीं है! राजस्थान में 10,685 पटवारी पद हैं, तो मध्य प्रदेश में 11,622, छत्तीसगढ़ में 3,500 पद हैं। उत्तर प्रदेश में तो पटवारी के पद तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी चरणसिंह के जमाने में ही समाप्त कर दिए गए थे। अब उन्हें लेखपाल कहा जाता है, जिनकी संख्या 27,333 है। उत्तराखंड में इन्हें राजस्व-पुलिस कहा जाता है और राज्य के 65 फीसदी हिस्से में अपराध नियंत्रण, राजस्व संबंधी कार्यों के साथ ही वन संपदा की हकदारी का काम पटवारी ही संभालते हैं। लेकिन, यह कड़वा सच भी है कि पटवार व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जड़ें जम चुकी हैं. इसलिए देश से भ्रष्टाचार का खात्मा करने के लिए इसकी जड़ पर चोट करना जरूरी है, क्योंकि गांवों में आज भी आम आदमी पटवारी की अहमियत को देख भ्रष्टाचार के खिलाफ खुलकर बोलने के बजाए ले-देकर अपना काम कराने को मजबूर है। जब व्यवस्था की पहली से लगाकर आखिरी सीढ़ी तक हरे-हरे नोटों के लिए अपना मुँह खोलकर बैठी हो, तो कैसे उम्मीद की जाए कि कोई इन भूखे मुँहों को बंद करने का साहस कर सकेगा?
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Monday, December 21, 2015

नया ट्रेंड नहीं है ऐतिहासिक-कॉस्ट्यूम ड्रामा!

- हेमंत पाल 

  फ़िल्मी दुनिया में 'ट्रेंड्स' का एक अलग ही नजरिया है! किसी एक ढर्रे की फ़िल्में बनाने का! जब कॉमेडी फिल्मों की बाढ़ आती है, तो हर फिल्मकार कॉमेडी बनाने लगता है। जब रोमांस की फ़िल्में आती है तो नई-नई प्रेम कहानियां सामने आती है! यही चलन बीच-बीच में ऐतिहासिक फिल्मों को लेकर भी आता है। इस तरह कि फिल्मों के निर्माण में समय भी ज्यादा लगता है और इसका बजट भी बड़ा होता है, इसलिए हर निर्माता ये साहस नहीं कर पाता! लेकिन, जो ये साहस करते हैं, वे या तो बड़ी कमाई करते हैं या बड़ा नुकसान झेलने के लिए भी तैयार रहते हैं! इन दिनों ऐसी ही ऐतिहासिक कॉस्ट्यूम ड्रामा फिल्मों का दौर आया है। इनमें कुछ फ़िल्में इतिहास के किसी प्रसंग से जोड़कर बनाई जाती हैं, कुछ पूरी तरह फिक्शन फ़िल्में होती है, जिनका इतिहास और वर्तमान तो क्या वास्तविकता से भी कोई लेना-देना नहीं होता! 

   हिंदी फिल्मों में फिलहाल का ये दौर साउथ से आया है! 'बाहुबली : द बिगनिंग' पूरी तरह से फिक्शन फिल्म थी, जिसमें एनिमेशन के जरिए माहौल बनाकर ऐसी प्रेम कहानी गढ़ी, जिसने दर्शकों को चमत्कृत कर दिया! साउथ की इस फिल्म से बॉलीवुड को झटका भी लगा और कुछ नया करने का आईडिया भी मिला! अपने प्रेजेंटेशन के कारण 'बाहुबली' का जादू न सिर्फ फिल्मकारों के सिर चढ़कर बोला, बल्कि दर्शक भी अभिभूत हो गए! यदि सलमान खान की 'बजरंगी भाई जान' की जगह और कोई फिल्म 'बाहुबली' के आसपास रिलीज होती तो, पानी भी नहीं मांगती! 'बाहुबली' के बाद तमिल में बनी फिल्म 'पुलि' भी हिंदी में डब होकर रिलीज़ हुई, पर वो चमत्कार नहीं कर सकी! फिर आई 'रुद्रमादेवी' जो 'बाहुबली' के आसपास भी नहीं लगी! ये सभी फ़िल्में कॉस्ट्यूम ड्रामा तो थी, पर इनका  ऐतिहासिकता से कोई लेना-देना नहीं था! 
  अब बॉलीवुड फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' आई है, जो मराठा पेशवा बाजीराव प्रेम प्रसंग से जुडी कहानी पर बनी है। ये कहानी सच है या नहीं, इस तर्क में खुद फिल्म के निर्माता-निर्देशक संजय लीला भंसाली नहीं फँस रहे! पर, जिस तरह इस कॉस्ट्यूम ड्रामा बनाया गया है, वो तारीफ के काबिल है! इसके बाद का अगला चरण है 'बाहुबली : द बिगनिंग' का दूसरा पार्ट 'बाहुबली : द कंक्लूजन।' केतन मेहता भी 'रानी लक्ष्मीबाई' बनाने की तैयारी कर रहे हैं। आशुतोष गोवारिकर भी 'मोहन जोदड़ो' लेकर आ रहे हैं, जो प्रागैतिहासिक कालखंड पर आधारित है! ये तो वो प्रोजेक्ट हैं, जो घोषित हैं, कई फिल्मकार ऐसे विषयों की खोज में भी लगे हैं! आशय ये है कि ऐतिहासिक और कॉस्ट्यूम ड्रामा फिल्मों का दौर फिर शुरू होने वाला है! वैसे इसकी शुरुआत तो आशुतोष गोवारिकर ने 'जोधा-अकबर' बनाकर कुछ साल पहले कर ही दी थी!   
   अपना इतिहास देखना सभी को अच्छा लगता है। लेकिन, इतिहास को किताब में पढ़ने और परदे पर देखने में फर्क होता है। जब फिल्मकार इतिहास को फंतासी अंदाज परदे पर उतारता है तो दर्शकों का रोमांचित होना स्वाभाविक होता है। लेकिन, इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि ये ऐतिहासिक फ़िल्में सफल हो ही जाएंगी! इन ऐतिहासिक फिल्मों का इतिहास बताता है कि ये फार्मूला ही हमेशा चला! फिल्मों के साइलेंट दौर में 1924 में आई बाबूराव पेंटर ने 'सति पद्मिनी' निर्देशित की थी। चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी की एक झलक दिल्ली का नवाब अलाउद्दीन ख़िलजी देख लेता है। पद्मिनी को पाने के लिए चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर देता है। अलाउद्दीन ख़िलजी चित्तौड़ के राजपूतों को हरा तो देता है, पर पद्मिनी उसे नहीं मिलती! वो अलाउद्दीन के हाथ आने से पहले ही जौहर कर लेती है। हिंदी फिल्मकारों ने मुग़लकाल से जुडी कहानियों पर ही ज्यादा फ़िल्में बनाई गई है। जोधा, अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ, पसंदीदा करैक्टर साबित हुए।
जब फिल्मों को आवाज मिली तो पहली बोलती फिल्म ही 'आलमआरा' कॉस्ट्यूम ड्रामा ही थी! निर्देशक सोहराब मोदी की यह हिंदी फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। बाद में सोहराब मोदी ने पुकार, सिकंदर, पृथ्वी वल्लभ और झाँसी की रानी जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में बनाई! 'झांसी की रानी' पहली टेक्नीकलर फिल्म थी। 
  देखा गया है कि इतिहास से जुडी फिल्मों में भी महिला कैरेक्टरों को ही ज्यादा पसंद किया गया है। जहांगीर और अनारकली से प्रेम कहानी पर बनी 'अनारकली' और 'मुग़ले आज़म' का आज भी उल्लेख किया जाता है। 'अनारकली' का वास्तविकता से कोई सरोकार हो न हो, लेकिन परदे पर ये काल्पनिक चरित्र अमर जरूर हो गया। 'मुग़ले आज़म' में सम्राट अकबर और जोधा के बीच जहांगीर को लेकर टकराव हुआ था। जबकि, आशुतोष  गोवारिकर की 'जोधा-अकबर' में ये नई प्रेम कहानी में बदल गया। कमाल अमरोही की फिल्म 'रजिया सुलतान' दिल्ली की शासक रज़िया की कहानी थी, जिसे गुलाम याकूत से प्रेम हो जाता है। इसी कहानी पर 60 दशक में निरुपा रॉय और कामरान लेकर फिल्म बनाई गई थी! 'ताजमहल' में मुमताज़ महल और शाहजहाँ की अमर कहानी केंद्र में थी! शाहजहाँ की बेटी 'जहाँआरा' पर भी फिल्म बन चुकी है। 
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Friday, December 18, 2015

नौकरशाही के 'अहंभाव' पर सत्ता के मुखिया का निशाना!



मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अपने ही अफसरों के कामकाज के तरीकों और अहंभाव से नाराज हैं! ये बात अब किसी से छुपी नहीं रही! एक मंच से उन्होंने अपनी नाराजी का अहसास भी करवा दिया! मुख्यमंत्री ने न सिर्फ कामकाज पर टिप्पणी की, बल्कि उनकी 'साहबी' पर भी ऊँगली उठाई! खुद को 'परमानेंट' समझने की भावना की भी जमकर चीरफाड़ कर डाली! शिवराज सिंह की ये नाराजी लाजमी है! पर, ये हालात आए कैसे और इन्हें कौन लाया? इन सवालों के जवाब ढूँढना भी जरुरी है। दरअसल, किसी भी व्यवस्था पर नौकरशाही तभी हावी होती है, जब उसे व्यवस्था की खामियां पकड़ में आ जाती है! मध्यप्रदेश में भी यही सब हुआ! एक बात ये भी है कि नौकरशाहों को ट्रेनिंग के दौरान जिस तरह की शिक्षा दी जाती है, वो भी उनके इस अहंभाव का बड़ा कारण है! उन्हें 'राजा' की तरह व्यवहार करने और लोगों को 'प्रजा' समझने की शिक्षा भी उनकी 'साहबी' का बड़ा कारण है! जब तक अंग्रेजों राज से चली आ रही इस पद्धति में सुधार नहीं होगा किसी बड़े बदलाव उम्मीद करना बेमानी है। 
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- हेमंत पाल 
  सरकार के मुखिया और प्रशासन के बीच का सामंजस्य ही किसी सरकार की सफलता का मूलभूत आधार होता है। प्रशासन के अधिकारी मुख्यमंत्री के इशारों को जितना गंभीरता से लेंगे और उसे कार्यरूप में बदलेंगे, उतनी ही सरकार सफल होगी! लेकिन, लगता है मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और अफसरों के बीच का तालमेल कहीं न कहीं गड़बड़ा गया है! इसीलिए वे अफसरों के व्यवहार से नाखुश हैं। 'सिविल सर्विस डे' के मौके पर उन्होंने अफसरों को हिदायत देते हुए घमंड त्यागने की सलाह दी! मुख्यमंत्री ने ये भी कहा कि वे सरकार को 'टेम्पररी' और खुद को 'परमानेंट' समझने की मानसिकता छोड़ें! यहाँ तक टिप्पणी की कि अहंकार में अफसर ये भी भूल जाते हैं कि वे 'सेवक' हैं। अफसरों को यह अहसास भी कराया कि वे एक 'सामान्य आदमी' हैं। क्योँकि, वे ही नहीं समाज के विकास के लिए और लोग भी बेहतर सोच रखते हैं! 
   उन्होंने दिलीप कुमार की एक फिल्म का गाना 'साला मैं तो साहब बन गया ... ' भी गुनगुनाकर अपनी भावना व्यक्त की! कहा कि आप लोग अपने अंदर से इस भाव को निकाल दीजिए! अफसरों के पास जो अधिकार है, उसका सही उपयोग किया जाए! मुख्यमंत्री ने अपनी नाराजी व्यक्त करते हुए ये भी कहा कि जिसे अधिकार मिल जाता है, वह उसका प्रदर्शन करने से नहीं चूकता! 'साहब' के चैम्बर के बाहर बैठा चपरासी भी मिलने आए व्यक्ति को अपनी 'साहबी' का अहसास करवाता है, जो नहीं होना चाहिए! अपने 35 मिनट के संबोधन में मुख्यमंत्री ने 25 मिनट तक अफसरों को उनकी 'साहबी' का अहसास कराया! बीच-बीच में गीता के श्लोक सुनाकर उन्हें देश और के विकास में सहयोग देने के लिए प्रेरित किया। कहा कि कई अफसर ईमानदारी का ढोल बजाकर काम को इतना पैचीदा बना देते हैं कि उसे बाद वाले अधिकारी को उसे सुलझाने में पसीना आ जाता हैं। फिर सवाल खड़ा होता है कौन कलम फंसाए, इससे तो भगवान बचाए! 
  मुख्यमंत्री की ये चिंता और हिदायतें सामान्य नहीं हैं! सरकार के मुखिया के रूप में उन्होंने अफसरों को जिस भाषा में अंदाज में सलाह दी है, वो एक गंभीर मसला है! जबकि, शिवराज सिंह के बारे में अकसर कहा जाता है कि वे नौकरशाही पर काबू करने में नाकाम रहे हैं। उनके राज में अफसर कुछ ज्यादा ही निरंकुश और लापरवाह गए! पार्टी के भीतर भी कहा जाता है कि वे नौकरशाही के प्रति बेहद लचीले हैं। यही कारण है कि अफसर पूरी व्यवस्था पर हावी हो गए। लेकिन, अपनी छवि के विपरीत मुख्यमंत्री ने जिस तरह के तेवर दिखाए, वो समझ से परे है! उन्होंने अफसरों को साफ़ शब्दों स्पष्ट रूप से समझा दिया कि जनता हित के वाले कामकाज में अड़ंगेबाजी ना करें! ये भी एक तरह का अपराध ही है। मुद्दे की बात ये है कि मुख्यमंत्री ने अफसरों को ये हिदायतें बंद कमरे में न देकर सार्वजनिक रूप से दी! ऐसा करके उन्होंने ये दर्शा भी दिया कि कहीं न कहीं वे भी नौकरशाही में व्याप्त कथित श्रेष्ठता के अहंभाव से आहत हैं! 
   इस सबके पीछे एक कारण ये भी है कि राजनीतिक कारणों से लिए जाने वाले कई फैसलों के अमल में भी नौकरशाही अड़ंगे लगाती रही है। जब ये बात बाहर आती है, तो ऊँगली सरकार के मुखिया पर उठती है और उनकी योग्यता पर शंका की जाती है! इस कारण व्यवस्था से भी लोगों का भरोसा उठता है। मुख्यमंत्री ने अपनी नाराजी में 'कन्यादान योजना' का भी जिक्र किया। कहा कि मुख्यमंत्री बनने के बाद जब मैनें अफसरों को यह आइडिया दिया तो उन्होंने इसे तत्काल खारिज कर दिया! अफसरों का कहना था कि विवाह कराना सरकार का काम नही है। कुछ ऐसा ही रवैया 'लाड़ली लक्ष्मी योजना' के बारे में भी था! लेकिन, आज ये दोनों ही योजनाएं प्रदेश में तो सफल हुई ही है, केंद्र और कई अन्य राज्यों में भी इसे लागू किया गया हैं।
   मुख्यमंत्री की एक दिन की नाराजी से अफसरों में कोई बदलाव आएगा, ऐसा नहीं लगता! मुख्यमंत्री की चिंता स्वाभाविक और तार्किक है, पर इससे कुछ बदलेगा इस बात का अंदाजा नहीं लगता! देश में राजनीतिकों को रोज ही लोग कटघरे में खड़ा किया जाता है। लेकिन, नौकरशाही की निरंकुशता और मनमानी पर कम ही टिप्पणी की जाती है! मीडिया भी अफसरों से करीबी बनाने के लोभ से नहीं बच पाता! इसलिए कि मीडिया को भी पता है कि यही व्यवस्था स्थाई है! नेतागिरी तो आती-जाती रहती है। सरकारें तो आती-जाती रहती हैं! लेकिन, चपरासी से लगाकर चीफ सेक्रेटरी तक की नौकरी हमेशा बरक़रार रहती है। बात सही भी है! सरकार के निर्णयों को अमल में लाने और व्यवस्था के मुताबिक क्या संभव है और क्या नहीं, ये तय करने का फैसला तो वल्लभ भवन में ही होता हैं। 
   सवाल उठता है कि मुख्यमंत्री को कब, कहाँ और कैसे यह महसूस हुआ कि उनकी सरकार पर नौकरशाही हावी हो रही है! ऐसे में वे महज सरकार के मुखिया बनकर रह गए हैं! सरसरी तौर पर इसका कारण मुख्यमंत्री के कुछ फैसलों की फाइलों के रोके जाने से जुड़ा है। यही कारण है कि उन्होंने अफसरों की इस आदत पर भी निशाना साधा! कहा कि देखा गया है कि जरुरी फाइलें अकसर अफसरों की टेबल पर पड़ी रहती हैं। वे फाइलों पर दस्तखत करने से भी बचते हैं। अफसरों को समझना चाहिए कि फाइलों को रोकना भी एक तरह का अपराध हैं। उन्होंने नसीहत देते हुए ये भी कहा कि अफसर सरकारी नौकरी से बाहर निकलें! ढर्रे पर काम करने वाले अफसर प्रदेश पर बोझ हैं। मौका मिला है तो इसे मिशन के रूप में लेकर प्रदेश के हित में काम करें। 
   दूसरा कारण संघ द्वारा उठाई गई आपत्ति भी है। कुछ दिनों पहले 'संघ' के बड़े पदाधिकारियों ने भी मुख्यमंत्री को प्रदेश के अफसरों के बढ़ते अहंकार और निरंकुशता की शिकायत की थी। इसके अलावा एक कारण जो मुख्यमंत्री ने हाल ही में खुद ही महसूस कर लिया! शिवराज सिंह ने अफसरों को बिना शाही सेवाओं के सूखाग्रस्त गांवों का दौरा करने के निर्देश दिए थे! राज्य सरकार ने आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अफसरों के गांव के इस दौरे को लेकर कुछ नियम भी तय किए थे! कहा गया था कि सूखा प्रभावित इलाकों का दौरा करने वाले अफसर बिना सरकारी सेवाओं के किसानों के बीच जाएँ! विभागों का सहारा लिए बिना ही गांव का दौरा करें और वहीँ रात बिताएं! लेकिन, अफसरों ने मुख्यमंत्री के निर्देशों की अनसुनी की और लावजमें के साथ गांव पहुंचे! ज्यादातर ने तो खानापूरी के लिए दौरा किया और रात से पहले ही गांव से निकल लिए! कुछ गेस्ट हॉउस और होटलों में रुके! शिकायतें तो यहाँ तक थीं कि अफसरों ने सूखा प्रभावित गांवों के इस सरकारी दौरे को सपरिवार 'रूरल टूरिज्म' की तरह एन्जॉय किया! अफसरों की इस संवेदनहीनता को मीडिया ने भी जमकर उछाला था! तब भी मुख्यमंत्री की नाराजी सामने तो आई थी, लेकिन इतने सख्त रूप में नहीं! 
   संभव है उन्होंने इन सारे हालातों को समझकर ही अफसरों को अपना अहंकार छोड़ने और सरकार के निर्देशों को गंभीरता से न लेने की हिदायत दी है। देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के सात दशक बाद भी आजतक अंग्रेजी राज की नौकरशाही परंपरा को ढोया जा रहा है। क्या अभी भी वो वक़्त नहीं आया, जब नौकरशाही का भी लोकतंत्रीकरण किया जाना चाहिए? कुर्सियों पर बैठे अधिकांश अफसर अपने गुरुर में मदमस्त हैं! अधिकांश पर उनके पद का अहंकार हमेशा हावी रहता है। इन्तेहां तो तब हो जाती है, जब 'साहब' के साथ ही 'मेम साहब' और उनके बच्चे भी ये अहंकार दिखाने लगते हैं। इन हालातों में बदलाव जरुरी है। किंतु, जरूरी होगा सत्ता में बैठे नेता भी अपने आपको सुधारें! क्योंकि, उनकी सत्ता रौब की चाह ही नौकरशाही को पूरी व्यवस्था पर हावी होने का मौका देती है। दरअसल, अफसर तबके का पूरा ध्यान अपने ऐश्वर्य वाले रहन-सहन और सुरक्षित भविष्य तक सीमित रहता है। पहले आर्ट संकाय से जुड़े और प्रोफ़ेसर तबके के लोग ही प्रशासनिक सेवा में आते थे! लेकिन, अब हालात उलट गए हैं। पेशेवर सोच के हावी होने से प्रशासन में रूखापन एवं निरंकुशता दोनों बढ़े हैं। क्योँकि, अब तो डॉक्टर, इंजीनियर, मैनजमेंट, फाइनेंस और आईटी के पारंगत लोग आईएएस और आईपीएस बन रहे हैं। इस कारण प्रशासनिक सेवाओं में ग्लैमर आ गया है और सेवाभाव, संवेदनशीलता लुप्त हो गई! अब मुख्यमंत्री  से तो वे अपने खून तक में पहुँच चुका अहंकार छोड़ने से रहे! 
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Sunday, December 13, 2015

टीवी के परदे का सजा सुसंस्कृत समाज



हेमंत पाल 

   एक सुसंस्कृत समाज की जो कल्पना हमारे दिल में होती है, वो उस टीवी वाले समाज से बिल्कुल अलग होता है, जो सीरियलों में दिखाई जाती है। आजकल हर टीवी सीरियल में ऐसा परिवार दिखाए जाने का चलन है, जिसमें सामंजस्य को छोड़कर षड्यंत्रों और साजिशों का जाल बिछा होता है। हर परिवार की कोई एक बहू खलपात्र की तरह परिवार को तोड़ती है। दूसरी संस्कारित, शोषित और पीड़ित होती है। एक स्त्री परिवार की गरिमा और अस्मिता को ताक में रखने का कई मौका नहीं छोड़ती! दूसरी उसे रोकने या उसकी गलतियों को ढांकने की कोशिश करती रहती है। एक स्त्री कई पुरूषों से संबंध रखती है, एक से अधिक बार विवाह करती है और वो सारे कर्म करती है, कभी फिल्मों में जो चरित्र अजित और अमजद खान जैसे खलनायक करते थे! ये भूमिका हर टीवी सीरियल में आजकल स्त्री पात्र कर रही हैं! इस तरह के चरित्रों के बिना तो आजकल सीरियल की कहानी ही पूरी ही नहीं होती! 
   भारतीय संस्कृति में स्त्री की सोच क्या यही है? जबकि, स्त्री को तो हमारे समाज में ममता की मूर्ति कहा जाता है। भारतीय स्त्री एक मकान को घर बनाती है, घरों को तोड़ती नहीं! लेकिन, आज के टीवी सीरियलों में स्त्री के मूल चरित्र को किनारे करके अलग ही पहचान बनाने की कोशिश की जा रही है। भारतीय स्त्री की गरिमा को ताक में रखकर उसे बिकाऊ बनाने वाले फार्मूले की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा है! इसका एक पहलू ये भी है कि कुछ टीवी सीरियलों में महिलाओं की प्रताड़ना को सफलता का आधार बनाया जा रहा है! एक तरफ देश में महिला सशक्तिकरण को लेकर शोर हो रहा है, महिलाओं के सम्मान की रक्षा पर आवाज तेज होने लगी है! लेकिन, टीवी सीरियल या तो महिलाओं को पीड़ित शोषित और प्रताड़ित होते दिखा रहे हैं या उसे साजिशों का सूत्रधार दर्शा रहे हैं! वक़्त के साथ स्थितियां बदली हैं! लेकिन, सीरियल अभी भी सामाजिक और पारिवारिक साजिशों के कुचक्र से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं! इनमें शोषण करने वाली महिलाएं भी हैं और  और शोषित होने वाली भी। देखा जाए टीवी के ये सीरियल बरसो से चली आ रही परंपराओं और संस्कारों के नाम पर दमन और साजिशों को हवा ही दे रहे हैं। 
   जब टीवी पर सीरियलों का चलन शुरू हुआ, तब से वह मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय माध्यम बन गया! चैनलों की संख्या बढ़ने के साथ ही सीरियलों का रूप भी बदल गया। उनमें संपन्नता और ग्लैमर का रंग भरने लगा। तभी से टीवी सीरियलों में बेतुकी पारिवारिक स्थितियां गढ़कर उन्हें महीनों और सालों तक घसीटने का सिलसिला शुरू हो गया। जबकि, शुरू में सीरियलों की समय अवधि आम तौर पर तय होती थी। ऐसी स्थिति में सबसे आसान होता है कथानक को परिवार और महिलाओं पर केंद्रित कर दिया जाए! ज्यादातर सीरियलों में महिला किरदार कामकाजी न होकर गृहणी के रूपे में गढे जाते हैं। घरों में होने वाली उठापटक काफी तड़क-भड़क  के साथ परोसी जाती है। जिनमें महिला किरदार अहम भूमिका निभाते नजर आते हैं। इन सीरियलों में परंपरा के नाम पर मनगढंत कथानक परोसा जा रहा है। फिर आधारहीन कल्पनाशीलता के नाम पर इनमें कई गैर जिम्मेदाराना बातें दिखाई जाती हैं। हद से ज्यादा खुलापन और और सामाजिक रिश्तों की मर्यादा से खिलवाड़ आज के हर सीरियल की कहानी का हिस्सा है। आश्चर्य इस बात का कि यह सब कुछ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के नाम पर पेश किया जा रहा है। जिसका विचारों और संस्कारों पर गहरा असर पड रहा है। बहुत से सीरियलों में विवाहेत्तर संबंधों को प्रमुखता से दर्शाया जाता है। 
  भारतीय भाषा और साज सज्जा में दिखाये जाने वाले महिला पात्रों को व्यवहारिक स्तर पर ऐसे कुटिल, कपटी और षडयंत्रकारी रूप में टेलीविजन के पर्दे पर उतारा जा रहा है, जो हकीकत के सांचे में फिट नहीं बैठते। विवाह संस्कार हमारी सामाजिक संस्कृति की सबसे बड़ी खासियत रही है। जबकि, इन सीरियलों में शादी जैसे गंभीर विषय को भी मनमाने ढंग से दिखाया जाता है। भारतीय सभ्यता ,संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर दिखाई जा रही ये कहानियां परंपरागत मान्यताओं, अवमूल्यन और सामाजिक सांस्कृतिक विकृति को जन्म दे रही है। 
   बड़े-बड़े घरों में आलीशान रहन-सहन और हर वक्त गहनों से सजी, धजी रहने वाली महिला किरदारों की जीवन शैली एक आम औरत को हीनभावना और उग्रता जैसी सौगातें दे रही है। इन सीरियलों में पारिवारिक संस्कारों की तो बहुत सी बातें कही जाती है, पर पात्रों की जीवन शैली और दिखाई जाने वाली घटनाओं का देखकर महसूस होता है कि इनके जरिए कुछ नई धारणाएं, नए मूल्य गढ़े जा रहे हैं। ऐसे मूल्य जिनका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं होता! 
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Friday, December 11, 2015

बेकाबू होते हालात और ढीला पड़ता ख़ुफ़िया तंत्र!


मध्यप्रदेश में सांप्रदायिक सद्भाव का दावा करने वाली सरकार का दावा कुछ कमजोर पड़ता नजर आ रहा है! पिछले करीब सालभर में प्रदेश के कई शहरों और कस्बों तनाव जैसे हालात बने! ऐसा इसलिए हुआ कि पुलिस का ख़ुफ़िया तंत्र अक्षम साबित हुआ! इंदौर में अचानक 15 हज़ार लोगों का सड़क पर उतरकर हिंसक हो जाना, धार में मौन रैली द्वारा नारेबाजी करना और पुतना जलना, भोपाल में भी कुछ ऐसे ही हालात बनना महज संयोग नहीं है! इस सबके पीछे कुछ समाज विरोधी तत्व सक्रिय नजर आ रहे हैं! धार में इस बार फिर बसंत पंचमी शुक्रवार को है, जो पुलिस और प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती है! लेकिन, फिर भी हालात संभालने की तैयारियां नजर नहीं आ रही! धार जिले में सालभर के अंदर आधा दर्जन बार जो तनाव उभरा है, वो भी सामान्य घटना मानकर नजर अंदाज  सकता!   
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- हेमंत पाल 
    सरकार और प्रशासन इस बात को आसानी से स्वीकार करे या न करे, पर ये सच है कि मध्यप्रदेश की कानून व्यवस्था में कसावट ढीली पड़ने लगी है! जो ढीलापन नजर आ रहा है, उसमें सुधार के माकूल इंतजाम होते भी नजर नहीं आ रहे! बीते एक साल में प्रदेश के 40 से ज्यादा शहरों या कस्बों में साम्प्रदायिक तनाव का उबरना इसी व्यवस्थागत कमजोरी का संकेत है! चिंता वाली बात ये है कि पुलिस का ख़ुफ़िया तंत्र बुरी तरह फेल हो रहा है! इस दौरान ऐसी कई घटनाएं हुई, जो समय रहते रोकी जा सकती थी, पर ऐसा नहीं हुआ! अपने बचाओ में पुलिस प्रशासन कोई भी तर्क दे, पर सांप्रदायिक तनाव का उबरना ही अपने आपने ख़ुफ़िया तंत्र के पटरी से उतरने की निशानी है। सिवनी, ग्वालियर, जावरा, भोपाल, इंदौर, धार, धामनोद, धरमपुरी, हरदा, नरसिंहगढ़, जबलपुर, जावद, खरगोन, खंडवा जैसे कई शहरों और कस्बों में सालभर के दौरान कुछ न कुछ हो चुका है। 
  हाल ही में हिंदू महासभा के अध्यक्ष द्वारा पैगंबर हजरत मोहम्मद पर दिए गए कथित बयान के विरोध में प्रदेश के कई शहरों और कस्बों में मुस्लिम समुदाय ने रैलियां निकाली। इंदौर, धार समेत कई जगह की रैलियों में शामिल मुस्लिम युवक उग्र हो उठे। इंदौर में तो पत्थरबाजी और मारपीट की घटना भी हुई! गाड़ियों में तोड़फोड़ की गई। वाहनों को रोककर रीगल चौराहे की सारी सड़कें जाम कर दी गई। इस पूरे पूरे मामले में पुलिस का खुफिया तंत्र बुरी तरह नाकाम साबित हुआ! काफी देर तक पुलिस उपद्रवियों के सामने असहाय नजर आई! हालात को नियंत्रित करने के लिए एक्स्ट्रा फोर्स बुलाया गया, इसके बाद हालात सामान्य हुए! इस मामले में मुख्यमंत्री ने भी पुलिस प्रशासन से सवाल किए हैं कि इंदौर का ख़ुफ़िया तंत्र क्यों और कैसे फेल हुआ? पुलिस को समय पर खबर क्यों नहीं मिली कि हज़ारों की भीड़ रीगल पर जमा होकर हिंसक हो रहे हैं? इंदौर में हज़ारों की भीड़ ने बिना पूर्व सूचना के करीब डेढ़ किलोमीटर आकर रोड जाम करके, तोड़फोड़ की! शहर में करीब 15 हजार लोग यदि कहीं जमा हो रहे हैं, तो ये अचानक तो नहीं हुआ होगा? जबकि, सच्चाई ये है कि इसके लिए बकायदा पर्चे बांटे गए थे, लोगों को एक ख़ास स्थान पर आने का आह्वान किया गया था! क्या पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र के ये खबर नहीं थी, कि ऐसा हो सकता है?   
  दरअसल, ये सवाल सिर्फ इंदौर का नहीं है! हाल फिलहाल में ऐसे हालात प्रदेश के कई शहरों और कस्बों में बन चुके हैं! धार में भी इस मुद्दे पर निकले मुस्लिमों के जुलूस ने नारेबाजी की और पुतला जलाया! जबकि, ये मौन जुलूस था, पर उसमें नारे लगे! न तो जुलूस शामिल लोगों को नारेबाजी से रोक गया न पुतला दहन से! उस पर भी 24 घंटे तक कोई कार्रवाई नहीं की गई! बाद में पुलिस ने दबाव में आकर फरियादी की तरह मामला दर्ज किया और 9 लोगों के खिलाफ कार्रवाई की!   
   इसी तरह का वाकया भोपाल में भी पिछले दिनों हुआ, जब प्रदेशभर से आए पाँच हजार से ज्यादा दलित आदिवासियों ने राजधानी में धरना दिया और प्रदर्शन किया। इसके बाद आंबेडकर प्रतिमा के आसपास जब रास्ता जाम हुआ तो पुलिस को खबर मिली! इस घटना की भी पुलिस के ख़ुफ़िया विभाग को कोई जानकारी नहीं थी! वो भी ऐसी स्थिति में जबकि दलित आदिवासी धरना प्रदर्शन करने के लिए ट्रेन से रवाना हुए थे! भोपाल स्टेशन पर ग्वालियर की और से आने वाले सैकड़ों कार्यकर्ताओं की भीड़ से भोपाल स्टेशन खचाखच भर गया था! इटारसी, हरदा एवं बैतूल की ओर से आने वाले सैकड़ों कार्यकर्ताओं की भीड़ से हबीबगंज स्टेशन पर अराजकता जैसे हालात बन गए थे! दोनों ही स्टेशनों पर व्यवस्था कुछ घंटों घंटे के लिए चरमरा सी गई थी!  
  पुलिस प्रशासन की कमजोरियों का ही नतीजा है कि पिछले कुछ महीनों में प्रदेश में कई जगह सांप्रदायिक तनाव उभरा और हालात असामान्य हुए! बाकी शहरों और कस्बों में तो सब कुछ काबू में आ गया, पर भोजशाला के कारण धार में आग सुलगती नजर आ रही है! धार में बीते सालभर में आए दिन छोटी-छोटी बातों को लेकर विवाद पैदा हो रहा है। नजर अंदाज की जाने वाली बातों को लेकर भी दोनों समुदाय आमने-सामने आ जाते हैं! एक मजार पर किसी अज्ञात बदमाश द्वारा शराब की खाली बोतल फेंक दी जाना, दो बाइक सवारों में टक्कर, एक युवक और युवती का घर से भाग जाना, जुलूस पर अज्ञात द्वारा पत्थर फेंक देना! ये ऐसी घटनाएं हैं जिन्हें असामान्य नहीं कहा जा सकता! लेकिन, ऐसी घटनाओं पर ही धार जिले में तनाव पनपने लगा है! धार के अलावा धरमपुरी, धामनोद, मनावर में भी दोनों समुदाय कई बार आमने-सामने आने लगे हैं! दिखने में ये घटनाएँ सामान्य हैं, पर देखा जाए तो ये सुनियोजित लगती हैं! 
   पिछले दो बार की तरह 2016 में बसंत पंचमी 12 फ़रवरी शुक्रवार को आ रही है! निर्धारित व्यवस्था के मुताबिक शुक्रवार को मुस्लिम समाज भोजशाला में नमाज अता करता है और बसंत पंचमी के कारण इसी दिन हिन्दू लोग भोजशाला में बने हनुमान मंदिर में दर्शन और पूजन करने जाएंगे! प्रशासन के लिए ये हालत संभालना बेहद मुश्किल होता है! दो बार धार में बसंत पंचमी के इसी दिन बड़ी घटनाएं हो चुकी है! इस साल चुनौती इसलिए बड़ी है कि उज्जैन में 'सिंहस्थ' में आने वाले साधू-संतों के धार आने की संभावना है। धार में इन दिनों कब, कौनसी छोटी सी घटना तनाव का रूप ले कहा नहीं जा सकता! आशंका ये भी है कि कहीं ये सब भोजशाला में किसी संभावित गड़बड़ी का हिस्सा तो नहीं है? कुछ बाहरी तत्व इन हालातों में अपनी 'कारगुजारी' कर सकते हैं! ये 'बाहरी तत्व' कौन से हैं, उनकी पहचान करना बहुत जरुरी है! फिलहाल के हालात देखकर लगता नहीं कि ख़ुफ़िया तंत्र कि कमजोरी उनके मंसूबों को रोक भी पाएगी! 
   पुलिस और प्रशासन की एक कमजोर ये भी है कि धार में भोजशाला के हालातों को समझने वाला कोई अधिकारी यहाँ तैनात नहीं है। धार की तासीर को समझना आसान नहीं है, पर लगता है प्रशासन मामले की गंभीरता से अनभिज्ञ है! इन दिनों पश्चिमी मध्यप्रदेश के कई शहर बारूद के ढेर पर बैठे हैं जहाँ अंदर ही अंदर आग सुलग रही है! इंदौर, धार के अलावा खरगोन, खंडवा, मंदसौर, नीमच में भी सब कुछ सामान्य नहीं है, जैसा दूर से नजर आ रहा है! यदि ख़ुफ़िया तंत्र की ढील पोल इसी तरह बरक़रार रही तो, सरकार के सामने दिन बड़ी मुश्किल खड़ी होना तय है!
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Sunday, December 6, 2015

छोटे परदे पर गढ़ता नकली इतिहास!


- हेमंत पाल 
   टेलीविज़न सीरियलों को लेकर अकसर ऊँगली उठाई जाती है कि ये भारतीय संस्कृति और परिवारों की पहचान के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं! संयुक्त परिवारों का जो चेहरा इन सीरियलों में दिखाया जाता है, वास्तव में ऐसा किसी परिवार में नहीं होता! सास-बहू के रिश्तों का जितना नकारात्मक चेहरा सीरियल निर्माता एकता कपूर ने दिखाया, उतना शायद किसी ने नहीं! बात यही ख़त्म नहीं होती! संयुक्त परिवारों की ताकत और सच्चाई को हर दर्शक समझता हैं, इसलिए इसे मनोरंजन ही समझा जाता है! लेकिन, आजकल भारतीय इतिहास के साथ मनोरंजन के नाम पर ख़ासा मजाक किया जा रहा है! कई चैनल्स पर इतिहास से जुड़े सीरियल चल रहे हैं! महाराणा प्रताप, सम्राट अशोक, जोधा-अकबर और मीरा बाई समेत कई सीरियल दर्शक देख चुके हैं या वे चल रहे हैं। इन सीरियलों के कथानक की सत्यता की कोई प्रामाणिकता नहीं है! इतिहास को तोड़ मरोड़कर उसे मनोरंजन बनाकर परदे पर दिखा देने से दर्शकों पर अलग ही प्रभाव पड रहा है!
  सीरियल के निर्माता और चैनल किसी विवाद और कानूनी उलझन से बचने के लिए इसके कथानक को इतिहास से अलग महज मनोरंजन होने की सफाई देकर 'डिस्क्लेमर' लगाकर खुद तो बरी हो जाता है, पर दर्शकों में एक बड़ा वर्ग है जो एक नए इतिहास से परिचित होने से नहीं बचता! टीआरपी की दौड़ में सीरियल बनाने वालों के इस कृत्य को उचित नहीं ठहराया जा सकता! ऐतिहासिक कहानियाँ और कविताएं जिस तरह पढ़ने वाले के मानस पर प्रभाव डालती है, उससे ज्यादा प्रभाव टीवी सीरियल और फिल्मों से होता है! क्योंकि, हर दर्शक की रूचि इतिहास में नहीं होती! वो उसे पढता नहीं है, इसलिए इन्हीं कहानियों को सच मानकर दिमाग में बैठा लेता है। ऐसे में जब कोई प्रामाणिक इतिहास का जिक्र करता है तो वह उस पर भरोसा नहीं करता! जिस तरह चंदबरदाई के चारणी साहित्य 'पृथ्वीराज रासो' में संयोगिता नाम का चरित्र घड़कर जयचंद को गद्दारी का पर्यायवाची शब्द बना दिया! उसी प्रकार मुगले आजम, अनारकली, जोधा अकबर आदि फिल्मों ने एक मनगढ़ंत जोधा बाई नाम रच दिया, जो जनमानस के दिलो दिमाग से कभी निकल नहीं पाएगा!
  सीरियल के लेखकों ने इतिहास को नए सिरे से लिखकर उसे दूषित और विकृत कर दिया जाता है। कथानक में मनगढ़ंत किस्से और प्रसंग जोड़कर उसे मनोरंजक तो बना दिया जाता है, पर इसका सत्यता से कोई वास्ता नहीं होता! इतिहास को तोड़ मरोड़कर ऐतिहासिक पात्रों पर फ़िल्में बनने के बाद अब जिस तरह सीरियल बनाए जा रहे हैं, वो देश की संस्कृति के साथ मजाक ही है, इसका दुखद पहलु ये है कि इसकी तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं! इस नजरिए से देखा जाए तो इतिहास को प्रदूषित और विकृत करने में इन टीवी चैनल्स का सबसे बड़ा हाथ है। जोधा अकबर, महाराणा प्रताप, सम्राट अशोक, मीरां बाई इसके सटीक प्रमाण हैं! मनोरंजन के नाम पर दशकों पहले बनी फिल्म 'मुगले आजम' कोई भी यह मानने को तैयार नहीं था कि अकबर की किसी पत्नी का नाम जोधा बाई था! अकबर नामा, जहाँगीर नामा और अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने भी कहीं अकबर की किसी पत्नी का नाम जोधा नहीं लिखा था! लेकिन, 'मुगले आजम' बनने के बाद इसी विषय पर बनी फिल्म और सीरियल (जोधा अकबर) में इसी का जिक्र हुआ! दर्शकों के जहन में यह बात ठीक नहीं बैठती कि वे मनोरंजन के नाम पर कब तक मनगढंत इतिहास से रूबरू होते रहेंगे? 'मुगले आजम' फिल्म बनने के बाद कई कथित इतिहासकारों ने इस झूंठ को अपनी किताबों में शामिल करके इतिहास की प्रामाणिकता के साथ भी खिलवाड़ ही किया! 
  'महाराणा प्रताप' सीरियल में भी असली कथानक से भटककर अनर्गल बातें दिखाई गई! मेवाड़ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ छेड़छाड़ करने के आरोप भी लगे! राजस्थान के एक राजपूत संगठन ने तो इसे लेकर अपना विरोध भी दर्ज कराया था। इस संगठन का आरोप था कि सीरियल में तत्कालीन भाषा, वेशभूषा, तथ्यों एवं ऐतिहासिक घटनाक्रमों को तोड़ मरोड़ कर दर्शाया गया है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के इस सेनानी के जीवन को प्रस्तुत करते समय कपोल कल्पना वाली बातों को नहीं दिखाया जाना चाहिए! इससे इतिहास के साथ खिलवाड़ होता है तथा भावी पीढ़ी में इतिहास के साथ भटकाव की स्थिति पैदा होती है। 'महाराणा प्रताप' सीरियल में कथानक को दिलचस्प और मनोरंजन से भरपूर बनाने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों की पूरी तरह अवहेलना कर की गई! 
   'मीरा बाई' पर बने सीरियल में  अनर्गल प्रसंग जोड़े जाने के आरोप लगे थे! वृंदावन यात्रा पर जा रही मीरा बाई के साथ मेड़ता के शासक वीरमदेव को जोधपुर के शासक मालदेव के भय से छुपते हुए दिखाया गया था! राजा मालदेव और वीरमदेव के बीच जंग दिखाई गई! घायल वीरमदेव द्वारा अपनी मृत्यु से पहले मालदेव को मारना भी दिखाया गया! जबकि, तथ्यात्मक इतहास बताता है कि मालदेव का निधन वीरमदेव की मृत्यु के कई साल बाद हुआ था! वीरमदेव की मौत के बाद उनका बेटा जयमल मेड़ता की गद्दी पर बैठा और जोधपुर के शासक मालदेव से उसने युद्ध भी किए थे। यदि मालदेव और वीरमदेव आपसी झगडे में मारे गए होते तो फिर मालदेव की जयमल के साथ युद्ध कैसे होते? लेकिन, इतिहास की आड़ में सीरियल बनाने वालों को ऐतिहासिक तथ्यों से कोई सरोकार नहीं होता! उनकी नजर तो इतिहास की आड़ में साजिश और संघर्ष दिखाकर टीआरपी कमाने की होती है!   
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जीत से उत्साहित कांग्रेस के सामने नई चुनौती है मैहर!

- हेमंत पाल 

  कांग्रेस में इन दिनों उत्साह का माहौल है! लग रहा है जैसे रतलाम-झाबुआ का लोकसभा उपचुनाव जीतकर पार्टी ने कोई बड़ी राजनीतिक जंग जीत ली हो! बधाइयों के दौर चल रहे हैं! कुर्ते-पायजामे फिर कलफ लगकर निकल आए! हर कांग्रेसी नेता को लग रहा है कि अब ज्यादा दिल्ली दूर नहीं! वैसे, जिस तरह कांग्रेस पिछड़ रही थी, ये जीत बहुत मायने रखती है! लगातार कई चुनाव हारने के बाद इस लोकसभा सीट के उपचुनाव की जीत ने पार्टी के लिए रामबाण औषधि का काम किया! ये जीत सिर्फ पार्टी के लिए ही नहीं, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के लिए भी संजीवनी बूटी साबित हुई! अरुण पर पिछले कुछ दिनों से बदलाव की जो तलवार लटकी थी, वो कुछ दिन लिए टल गई लगती है! झाबुआ उपचुनाव के बाद उस आशंका पर विराम तो नहीं लगा, पर आगे जरूर बढ़ गया! क्योंकि, कुछ दिन पहले कमलनाथ को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने की संभावना सामने आई थी! लेकिन, झाबुआ की जबरदस्त जीत ने अरुण यादव के कद में इजाफा तो कर ही दिया है।
  पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान प्रदेश में मोदी लहर पूरे उफान पर थी! इस लहर में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को छोड़कर कांग्रेस के बडे-बडे नेता धराशाही हुए! इसी आंधी में कांग्रेस की झाबुआ सीट भी हाथ से चली गई थी! वहीं, उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव, निगम चुनाव, पंचायत चुनाव और उप चुनावो में लगातार कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पडा! लेकिन, बिहार चुनाव के बाद जो माहौल बदला और नरेंद्र मोदी लहर ठंडी पड़ी! बिहार में कांग्रेस को अच्छी सीटें मिली, तो प्रदेश भी उसका असर दिखाई दिया! फिर देवास विधानसभा सीट और रतलाम-झाबुआ लोकसभा सीट का उपचुनाव हुआ! कांग्रेस के खाते में रतलाम-झाबुआ की लोकसभा सीट आई! यह जीवनदान देने वाली जीत साबित हुई! क्योंकि, यहाँ कांतिलाल भूरियां 88 हजार वोटों से विजयी हुए जो पहले एक लाख 8 हज़ार वोटों से हारे थे! अब कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस पर छाया हार का कुहासा छंटने लगा है। निराशा के दिन अब दूर हो चुके हैं! इस सबसे सबसे बड़ा फ़ायदा ये हुआ कि कांग्रेस कार्यकर्ताओ में एक नए जोश का संचार हो गया!
   इस जीत से सबसे ज्यादा उत्साहित अरुण यादव एंड कंपनी है, जिसकी चलाचली की बेला थी! जब से अरुण को मध्यप्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी गई थी, वे कोई चमत्कार नहीं कर पा रहे थे! नगर निगम, नगर पालिका, पंचायत से लेकर अधिकांश उपचुनाव में पार्टी की हार के बाद माना जा रहा था कि अब अरुण यादव  विकेट भी किसी दिन गिरने वाला है! यदि रतलाम-झाबुआ उपचुनाव कांग्रेस के खाते में नहीं जाता तो अरुण यादव का जाना लगभग तय ही था! इसलिए कि चुनावों में लगातार हार के बाद कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा अरुण के खिलाफ लामबंद हो गया था! तीन महीने पहले जब प्रदेश कांग्रेस की नई प्रदेश कार्यकारिणी बनी थी! तब भी विरोधियों का एक बड़ा खेमा उसके खिलाफ खड़ा हो गया था! पार्टी के बड़े नेताओं की कार्यकारिणी से विदाई को लेकर मचे घमासान से अरुण यादव भी बैकफुट पर थे! एक बार तो लगा भी था कि शायद नई कार्यकारिणी को भंग करके नई समिति के गठन का फैसला न करना पड़े! पार्टी के कई नेता तो खुलकर पार्टी अध्यक्ष के खिलाफ खड़े हो गए थे! जबकि, कई दिग्गज पीछे से शह दे रहे थे! शायद यही वजह थी कि उसी दौरान सुस्त और निष्क्रिय जिला अध्यक्षों को हटाने और नए अध्यक्षों की नियुक्ति की सूची को जारी करने से रोक लिया गया! इंदौर, ग्वालियर, रायसेन, दमोह, सीहोर, राजगढ़, डिंडोरी, उज्जैन और रीवा में कांग्रेस के जिला अध्यक्षों का बदलना तय माना जा रहा था! पर, सब थम गया! क्योंकि, अरुण यादव को उनके सलाहकारों ने दो कदम पीछे हटने की सलाह दी! नई प्रदेश कार्यकारिणी को लेकर उपजे विरोध के सुरों के बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया और अजय सिंह के बयान भी सामने आए! उसके बाद जिला अध्यक्षों की सूची इसलिए रोक ली गई है कि कोई और नया विवाद न पनपे!
   अब ये मान लेना कि रतलाम-झाबुआ की जीत से अरुण यादव सुरक्षित हो गए हैं और अब उन्हें बदले जाने के आसार ख़त्म हो गए हैं, ये सोचना जल्दबाजी होगी! इसलिए कि कहीं न कहीं पार्टी दिग्गजों को ये पाठ पढ़ाने वाले भी सक्रिय हैं कि ये जीत कांतिलाल भूरिया की अपनी निजी पकड़ और मोदी-आँधी के ठंडा पड़ने के कारण हुई! यदि वास्तव में कांग्रेस मजबूत होकर उभर रही है, तो देवास उपचुनाव की सीट भी कांग्रेस की झोली में जाना थी! देवास में भाजपा की लीड तो करीब बीस हज़ार घटी, पर सीट पर पार्टी का कब्ज़ा बरक़रार रहा! ख़बरों पर भरोसा किया जाए, तो दिल्ली में कमलनाथ की ताजपोशी का माहौल बनने लगा है! ये बात जरूर है कि जो घोषणा जल्दी होने के आसार थे, वो थोड़ी टल गई है! इस बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम भी प्रदेश अध्यक्ष के लिए चलाने कोशिश की गई! लेकिन, विधानसभा चुनाव में उनको प्रचार की बागडोर सौंपने से ही पार्टी को जो खामियाजा भुगतना पड़ा, वो 'सच' सामने आ गया! उनके सामंती अंदाज के किस्से और किसी से सलाह न लेने की आदत के कारण शायद पार्टी ने ये प्रयोग करने से परहेज किया!
  रतलाम लोकसभा सीट भाजपा से छीनने के बाद कांग्रेस अब पूरा जोर मैहर विधानसभा सीट को अपने पास रखने लिए लगाएगी! अरुण यादव का ध्यान अब पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश फूंकने और पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में रहेगा! इस काम को अंजाम देने के लिए वे 15 से 20 दिसंबर के बीच 'जनविश्वास पदयात्रा' भी शुरू कर रहे हैं! ये उनकी पदयात्रा का ये चौथा चरण होगा। दरअसल, मैहर उपचुनाव अरुण यादव के लिए सबसे कड़ी परीक्षा होगी! यदि वे इस परीक्षा को पास कर लेते हैं, तो शायद पार्टी हाईकमान उनके बारे में कोई नया विचार करे! प्रदेश अध्यक्ष ने मैहर उपचुनाव को लेकर हाल ही में संगठन की और से अब तक की तैयारियों की समीक्षा भी की और कहा कि रतलाम चुनाव में कांतिलाल भूरिया की छवि के साथ कांग्रेस की एकजुटता, बड़े नेताओं की हिस्सेदारी का भी फायदा मिला। इसे मैहर उपचुनाव में भी दोहराया जाएगा। प्रत्याशी चयन में सभी की सहमति के साथ जीतने की क्षमता सबसे बड़ी भूमिका निभाएगा!
  मध्यप्रदेश में पिछडा वर्ग का कुल प्रतिशत 56 है। इनमें भी पिछडा वर्ग की कुल जनसंख्या में 7 प्रतिशत से अधिक यादव है। जब अरुण यादव को पार्टी की कमान सौंपी गई थी, तब कांग्रेस इस फॉर्मूले पर काम कर रही थी कि मध्यप्रदेश में अध्यक्ष लेकर सभी प्रयोग हो गए, क्यों न ओबीसी कार्ड भी खेला जाए! इसलिए कि भाजपा ने बारह साल के शासन में तीन मुख्यमंत्री उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराजसिंह चौहान कुर्सी सौंपी और तीनों ही ओबीसी से आते हैं। अरुण यादव के बहाने कांग्रेस का इसी वोट बैंक में जनाधार बढ़ाने का प्रयास था! पर, अभी तक ऐसा नहीं लगा कि कार्ड से तुरुप का कोई इक्का निकला हो! झाबुआ की जीत से उत्साहित होना तो कांग्रेस का हक़ है, पर इसे यदि मैहर में दोहराया नहीं गया, तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा!
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Monday, November 30, 2015

सजग वोटर के सामने सहमें से हैं नेता!


काउंट डाउन - 1 
रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव 
- हेमंत पाल 
  ये लोकसभा उपचुनाव कौन जीतेगा? ये सवाल झाबुआ से बाहर किसी से पूछा जाए, तो राजनीति की थोड़ी-बहुत जानकारी रखने वाला शख्स सहजता से भाजपा उम्मीदवार निर्मला भूरिया का नाम ले देगा! लेकिन, झाबुआ में जब यही सवाल किसी स्थानीय व्यक्ति से किया जाए, तो वो साफ़ जवाब नहीं देगा! ये भी हो सकता है कि खुद प्रतिप्रश्न कर ले कि आपको क्या लगता है, कौन जीतेगा? झाबुआ के आदिवासी फिलहाल चुनाव को लेकर खामोश हैं और किसी निष्कर्ष के संकेत नहीं दे रहे! यही कारण है कि यहाँ भाजपा थोड़ी असमंजस में है!
  इस बात को मौजूं न माना जाए, पर ये नितांत सच है कि बिहार विधानसभा के चुनाव में भाजपा को मिली हार को यहाँ भी गंभीरता लिया जा रहा है। इसी आशंका को भांपते हुए भाजपा ने दिवाली के पहले ही चुनाव प्रचार में तेजी लाने की कोशिशें शुरू कर दी थी! मुख्यमंत्री महीनेभर से लगातार झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम में चुनावी सभाएं कर रहे हैं! मुख्यमंत्री लगातार दो-दो दिन के चुनावी दौरे इसलिए कर रहे हैं कि कहीं, कोई चूक न रह जाए! संगठन के कई बड़े नेता महीनेभर से झाबुआ में डेरा डाले हैं। 
  इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के माथे पर चिंता की हल्की लकीरें उभरी हैं। क्योंकि, झाबुआ के आदिवासियों की खासियत है कि वो अपेक्षाकृत जागरूक, सजग और गंभीर है। वो जल्दी प्रतिक्रिया नहीं देता! देश, दुनिया की हर खबर से वाकिफ भी रहता है! ये लोग मजदूरी करने गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और राजस्थान तक जाते हैं! इसलिए उन्हें पता है कि देश का राजनीतिक मौहाल कैसा है! यही वजह है कि झाबुआ के आदिवासी को बरगलाना आसान नहीं है। उसे प्रलोभित करके अपने पक्ष में वोटिंग के लिए राजी भी नहीं किया जा सकता! 
   झाबुआ के ग्रामीण इलाकों के टोला और मजरों में आदिवासियों के बीच भी चुनाव को लेकर चर्चाओं के दौर चल रहे हैं! पर, ये सारी बातचीत उनके अपने बीच तक ही सीमित है! किसी भी बाहरी आदमी को वे मन की बात बताने से परहेज करते हैं! जोर देकर पूछने पर वे 'गांव में चर्चा है' जैसे जुमले गढ़ लेते हैं! उनके मन की थाह लेना भी आसान नहीं है। भाजपा के जो बाहरी नेता झाबुआ  डेरा डाले हैं, उन्हें भी चुनाव जीत जाने का भरोसा है, पर किसी बड़े अंतर की जीत  दावा करने से वे बचते नजर आ रहे हैं।       
  उधर, कांग्रेस आश्वस्त सी लग रही है कि वो मैदान मारने में कामयाब हो जाएगी! कांग्रेस के इस भरोसे के पीछे एक आधार भी नजर आता है कि कांतिलाल भूरिया के मुकाबले भाजपा की निर्मला भूरिया की लोकप्रियता कम है! फर्क सिर्फ इतना है कि निर्मला भूरिया के पीछे पूरी शिवराज सरकार खड़ी नजर आ रही है और कांतिलाल के साथ उनकी स्थानीय टीम है! पेटलावद हादसे के बाद सरकार ने स्थिति को संभाल जरूर लिया, पर अभी भी लोगों के दिल के दिल घाव भरे नहीं हैं! पेटलावद में वो बारूद तो जलकर ख़ाक हो गया, पर जो बारूद लोगों के दिलों में धधक रहा है वो कहाँ फटेगा, कह नहीं सकते! कागजों पर तो दोनों ही बड़ी पार्टियाँ जीत के दावे करने में पीछे नहीं हट रही! लेकिन, असल सच तो उन लोगों को पता है जिनके लिए कांग्रेस और भाजपा पार्टियाँ नहीं 'पंजे' और 'फूल' तक सीमित है! 
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काउंट डाउन - 2 
कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं!
   पिछले साल लोकसभा चुनाव हारने के बाद कांतिलाल भूरिया निश्चिंत हो गए थे, कि अब चुनावी राजनीति से पाँच साल की छुट्टी! लेकिन, अचानक हालात बदले और दिलीपसिंह भूरिया के निधन से सीट खाली हो गई! इंदौर जाकर रहने लगे कांतिलाल भूरिया को फिर झाबुआ जिले की राजनीति में सक्रिय होना पड़ा! उन्होंने वक़्त का फ़ायदा उठाया और फिर संपर्क बनाकर अपनी पकड़ मजबूत करने में लग गए! आज उसी का नतीजा है कि वे कई बार सभी 8 विधानसभा क्षेत्रों चक्कर लगा चुके हैं! जबकि, भाजपा इस मामले में पिछड़ गई! उम्मीदवारी की घोषणा में देरी इसका सबसे बड़ा कारण रहा! 
  झाबुआ और आलीराजपुर की राजनीति करीब एक सी है! दोनों आदिवासी जिले हैं और दोनों की तासीर भी एक है। लेकिन, रतलाम की बात अलग है! रतलाम शहरी इलाका है, जहाँ का राजनीतिक सोच भी अलग है। दोनों आदिवासी जिलों में फिलहाल कोई पार्टी दावा नहीं सकती कि किसका पलड़ा भारी है! क्योंकि, आदिवासी मतदाता अमूमन खामोश रहता है! पर, रतलाम में भाजपा का दबदबा साफ़ दिख रहा है!  पर,बाकी जगह ये स्थिति नहीं है। मतदाताओं का मूड भांपने के बाद भाजपा के नेता भी समझ रहे हैं कि किसी ओवर-कॉन्फिडेंस के किसी मुगालते में न रहा जाए तो ही बेहतर होगा! हवा भी बताती है कि पिछले लोकसभा चुनाव में 'मोदी लहर' में कांतिलाल के तम्बू उखड गए थे, पर अब वैसे हालात नहीं हैं! आज न तो कोई हवा है, न आँधी है और न कोई लहर! ऊपर से बिहार की हार और महंगाई ने भाजपा का ग्राफ नीचे गिरा दिया! मुद्दे की बात ये कि इन सवालों के भाजपा के पास कोई जवाब नहीं है! उस पर पेटलावद हादसे ने भी सरकार को सवालों में घेर लिया! दबी जुबान से ही सही, लोग पूछ तो रहे हैं कि हादसे का मुख्य आरोपी राजेंद्र कासवां कहाँ है? ये भी खुसुर-पुसुर है कि चुनाव के बाद उसे पकड़ भी लिया जाएगा! वो चुनाव तक ही फरार है!
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काउंट डाउन - 3 
कांग्रेसी गुटों के 'महागुटबंधन' ने बदला माहौल! 
    गठबंधन के बाद 'महागठबंधन' राजनीति में गढ़ा गया एक नया शब्द है। बिहार में छोटे राजनीतिक दलों को चुनाव में सफलता क्या मिली, इस 'महागठबंधन' फॉर्मूले के नए-नए आयाम गढ़े जाने लगे! लगता है कांग्रेस ने भी इस सफलता से कुछ सबक लिया है! तभी अचानक झाबुआ में कांग्रेस का एक अलग ही रूप नजर आने लगा! इस उपचुनाव को लेकर कांग्रेस के अंदर बदलाव भी दिखाई दिया, जो ये अहसास कराने के लिए लिए काफी है कि यहाँ प्रचार में कांग्रेस के गुटों ने भी 'महागुटबंधन' बना लिया! इस उपचुनाव में जो माहौल बदला है, वो इसी फॉर्मूले का नतीजा है।      
   अभी तक बिखरे नज़र आने वाले कांग्रेसी नेता एक साथ और एक मंच पर आकर प्रचार में जुट गए! इस उपचुनाव से छिड़ककर दूरी बनाने वाले नेता दिवाली के बाद ज्यादा ही सक्रिय नजर आए! शायद ये सब बिहार चुनाव के नतीजों का ही आफ्टर इफेक्ट है। पार्टी को उम्मीद है, कि वे इस चुनावी फॉर्मूले के बल पर मध्यप्रदेश के इस उपचुनाव में भी फतह हांसिल कर लेंगे। इस उत्साह का असर इन दिनों झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम जिलों में साफ़ देखने को मिल रहा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, सचिन पायलेट, मोहन प्रकाश और संजय निरुपम  समेत कई दिग्गज कांग्रेसी नेताओं ने यहाँ सभाएं की और कर रहे हैं। चुनाव का नतीजा चाहे कुछ भी हो, पर यह तय है कि बिहार चुनाव के नतीजों ने गुटों में बंटी कांग्रेस को एकजुट जरूर कर दिया!  
  अभी तक इस संसदीय उपचुनाव को लेकर कांग्रेस बहुत ज्यादा गंभीर नहीं लग रही थी! कांतिलाल भूरिया की आदिवासियों के बीच पकड़ होने से लग रहा था कि हार-जीत का अंतत बहुत ज्यादा नहीं होगा! पर, कांग्रेस ये चुनाव जीत सकती है, इस बात का दिल से भरोसा किसी भी बड़े नेता को नहीं था! लेकिन, माहौल बदला है, बिहार में भाजपा वाले गठबंधन की हार से! यदि सारे संसाधन झोंककर और नरेंद्र मोदी की 26 रैलियां कराने के बाद भी भाजपा बिहार में हार सकती है, तो क्या इस उपचुनाव के नतीजे को पलटा नहीं जा सकता? जब ये सवाल कांग्रेसी नेताओं के मन में कौंधा, तो उन्होंने उत्साह से कमर कस ली और जंग के मैदान में उतर पड़े! आज हालात ये हैं कि दिवाली से पहले तक ख़म ठोंककर जीत का दावा करने वाले भाजपा नेता अनमने से हैं! जीतने की बात तो कर रहे हैं पर अंतर कितना होगा? इस सवाल पर कन्नी काटने लगे! 
   कांतिलाल भूरिया को कांग्रेस की राजनीति में दिग्विजय सिंह खेमे का नेता माना जाता है। इसलिए इस बात की उम्मीद कम ही थी कि दूसरे गुटों के मुखिया इस जंग में शामिल होंगे! लेकिन, दिवाली के बाद जिस ताबड़तोड़ तरीक से कांग्रेस ने अपनी रणनीति बदली है, भाजपा हतप्रभ है। ज्योतिरादित्य सिंधिया की रतलाम वाली सभा में कम लोगों की मौजूदगी को लेकर कुछ सवाल उठे थे! लेकिन, पेटलावद में उनकी सभा में आई भीड़ ने उस कमी को पाट दिया! प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा ने भी इस बात को स्वीकार किया कि दिवाली बाद कांग्रेस ने जिस तरह का चुनाव प्रचार किया, उससे प्रतिद्वंदी खेमे के दिल की धड़कने बढ़ गई! उन्हें तो कांतिलाल भूरिया की जीत का पूरा भरोसा भी है! क्योंकि, बिहारी की तरह यहाँ का आदिवासी मतदाता भी किसी को अपने मन की थाह नहीं लेने देता!   
   इस सारी कवायद का एक असर ये भी है कि जिस अरुण यादव को कमजोर प्रदेश अध्यक्ष समझ जा रहा था, वो फिर पार्टी की नजर में चढ़ गए! जबकि, भाजपा के चुनाव प्रचार के सारे सूत्र मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने अपने हाथ में रखे हैं! भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान को एक तरह से साइड लाइन ही कर दिया गया! इसलिए कि उनकी अनसोची बयानबाजी से पार्टी कई बार मुश्किल में पड़ चुकी है! अब यदि ये उपचुनाव भाजपा जीतती है तो जीत का सेहरा सिर्फ शिवराज सिंह के माथे पर होगा! पर यदि नतीजे इसके विपरीत रहे तो …? जवाब समझा जा सकता है!
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काउंट डाउन - 2 
कागज पर भाजपा, जमीन पर कांग्रेस भारी? 
   ये उपचुनाव स्वस्थ राजनीतिक प्रतिद्वंदिता बजाए कांग्रेस और भाजपा के लिए नाक का सवाल ज्यादा बन गया है। भाजपा इस चुनाव के जरिए देशभर में ये संदेश देना चाहती है कि बिहार हारने के बाद भी उसकी जमीनी पकड़ बरक़रार है! जबकि, कांग्रेस की हरसंभव कोशिश है कि चाहे जो हो, उसे जीतकर ये साबित करना है कि बिहार जैसा माहौल पूरे देश में है! नरेंद्र मोदी के 'अच्छे दिनों' की जिस आँधी ने भाजपा की नैया पार लगा दी थी, अब वो थम चुकी है! दिल्ली के बाद बिहार इसी का संकेत है। अब ये तो नतीजे बताएँगे कि नरेंद्र मोदी से 'अच्छे दिनों की उम्मीद', दिलीपसिंह भूरिया के प्रति सहानुभूति और शिवराज सिंह चौहान के सुशासन का जादू अभी जिन्दा है या नहीं!  
  प्रदेश के अन्य आदिवासी इलाकों की राजनीति और झाबुआ की कहानी अलग है! यहाँ राजनीतिक जागरूकता दूसरे आदिवासी इलाकों से ज्यादा है। झाबुआ, आलीराजपुर पर कांग्रेस ने दशकों तक अपना ख़म ठोंककर रखा! जब पूरे देश में कांग्रेस के तम्बू ढह रहे थे, तब भी यहाँ 'पंजा' मजबूत था! कांतिलाल भूरिया दो दशक तक आदिवासी राजनीति कि धुरी रहे हैं! स्थानीय राजनीति में उनकी धाक अभी कम नहीं हुई है ! ये भी याद रखने वाली बात है कि ये लोकसभा क्षेत्र प्रदेश की उन 9 सीटों में शामिल है, जहां कांग्रेस पिछला लोकसभा चुनाव डेढ़ लाख से कम वोटों से हारी थी। 
  दिलीप सिंह भूरिया ने 5 बार कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर के टिकट पर चुनाव जीता! 2014 में वे पहली बार भाजपा के का झंडा लेकर चुनाव लड़े और जीते भी! इस संसदीय सीट पर दिलीपसिंह भूरिया10वीं बार और कांतिलाल भूरिया 5वीं बार मैदान में थे। दिलीपसिंह ने 1977 से 1996 तक लगातार छह बार कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और 1980 से 1996 तक पांच बार सांसद चुने गए। लेकिन, आदिवासियों में पैठ और जमीनी पकड़ के मामले में कांतिलाल भूरिया हमेशा आगे रहे! इसलिए कि राष्ट्रीय राजनीति में सक्रियता के कारण दिलीपसिंह की इलाके में जमीनी पकड़ अपेक्षाकृत कमजोर ही रही! 
   इस लोकसभा क्षेत्र में झाबुआ के 3, आलीराजपुर के 2 और रतलाम के 3 विधानसभा क्षेत्र हैं। थांदला, झाबुआ और सैलाना वो सीटें हैं, जहाँ पकड़ के मामले में कांग्रेस आगे है। आलीराजपुर, पेटलावद, जोबट, रतलाम लोकल और रतलाम ग्रामीण में फिलहाल भाजपा कागजों पर मजबूत है। पिछले विधासभा चुनाव में पेटलावद पर तो निर्मला भूरिया का कब्जा बरक़रार ही रहा! वे सबसे अधिक 18,668 वोटों से जीतीं। झाबुआ सीट से पवेसिंह पारगी ने अपने प्रतिद्वंद्वी को हराया था! आलीराजपुर में नागरसिंह चौहान की जीत भी 11 हज़ार से ज्यादा वोटों की रही! जबकि, जोबट से माधोसिंह डाबर तथा थांदला से कलसिंह भावर ने जीत दर्ज की थी। 
  आलीराजपुर में भाजपा विधायक नागर सिंह की ताकत भाजपा के लिए फायदेमंद होगी! उनके मुकाबले का कांग्रेस आलीराजपुर  में कोई नेता नजर नहीं आता। यहाँ से भाजपा का आगे रहने तय माना जा रहा है! जिले की दूसरी विधानसभा सीट जोबट में भी मैदान कांग्रेस के लिए आसान नहीं हैं! यहाँ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बागी उम्मीदवार को हराकर माधोसिंह डावर ने कमल खिलाया था। भाजपा उम्मीदवार निर्मला भूरिया पेटलावद इलाके में क्या जादू कर दिखाती हैं, ये आज भी एक यक्ष प्रश्न है! क्योंकि, पेटलावद हादसे को लेकर लोगों की नाराजी अभी दूर नहीं हुई है! मुआवजे और राहत से तो किसी परिवार के दुःख को कम सकता? थांदला में कांग्रेस पहले भी बेहतर नहीं थी और आज भी स्थिति ठीक है। लेकिन, फिर भी यहाँ से किसे बढ़त मिलेगी,  दावा  सकता! झाबुआ विधानसभा सीट हमेशा से कांग्रेस के लिए फायदेमंद। यदि कांग्रेस मतदाताओं  को अपने पक्ष में करने में कामयाब हुई, तो यहाँ से कांग्रेस को बढ़त मिलना तय है। ख़ास बात ये कि अब कांतिलाल भूरिया कि भतीजी कलावती भूरिया कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव में दम लगा रही है। कलावती की पकड़ को वही समझ सकता है,  झाबुआ की रजनी को नजदीक से देखा हो! ये तो हुई आलीराजपुर और झाबुआ जिले की 5 विधानसभा सीटों की बात! रतलाम की 3 सीटों की हवा अगली क़िस्त में!
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काउंट डाउन - अंतिम 
सारा दारोमदार रतलाम के मिजाज पर टिका!
 
  इस संसदीय सीट की तासीर दो तरह की है! आलीराजपुर और झाबुआ आदिवासी बहुल वाला इलाका है और रतलाम जिला पूरी तरह शहरी! झाबुआ जिले में कांग्रेस थोड़ी मजबूत नजर आ रही है, तो भाजपा को उम्मीद है कि वो रतलाम में कांग्रेस को पटकनी दे देगी! राजनीति के जमीनी आकलन से भाजपा भले ताकतवर नजर आ रही हो, पर आदिवासी मतदाता के मानस को अंदर तक भांप पाना आसान नहीं है। दशकों तक कांग्रेस की परंपरागत सीट रहा ये संसदीय क्षेत्र आज कांग्रेस की झोली में नहीं हो, पर पांसा पलटते देर नहीं लगती! संसदीय क्षेत्र की आठों विधानसभा सीटों में रतलाम (शहर)  छोड़कर कांग्रेस और भाजपा में हार-जीत का अंतर इतना बड़ा नहीं है कि उसे पाटा नहीं सके! कांग्रेस यदि वोटर्स की मानसिकता बदलने में कामयाब रही तो इस लोकसभा उपचुनाव के नतीजे चौंका भी सकते हैं। किन्तु, स्थानीय राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों का आकलन है कि 21 नवंबर तक 'पंजा' सबको ताकतवर दिखेगा, पर 24 को 'कमल' ही खिलेगा! शायद ये आकलन इसलिए है कि चुनाव के समीकरण एक रात पहले ही बदलते हैं! 
   इस लोकसभा क्षेत्र में दो जिलों झाबुआ और आलीराजपुर के साथ तीसरा जिला रतलाम है। इस जिले की तीन विधानसभा सीटें इस संसदीय क्षेत्र में जुड़ती हैं। रतलाम (शहर), रतलाम (ग्रामीण) और सैलाना! रतलाम शहर सीट कभी कांग्रेस के वोटों की फसल का गोदाम था! लेकिन, अब इस विधानसभा क्षेत्र में भाजपा का असर बढ़ा है। शहरी इलाकों में भाजपा को वैसे भी मजबूत माना जाता है! इसलिए यहाँ से कांतिलाल भूरिया को बड़ी बढ़त मिल सकेगी, इस बात पर फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता! कांग्रेस को होने वाले संभावित नुकसान की बड़ी वजह ये भी है कि यहाँ पार्टी का संगठन दमदार नहीं रहा! रतलाम की भाजपा राजनीति के केंद्र रहे हिम्मत कोठारी उर्फ़ 'सेठ' ने कांग्रेस के अधिकांश स्थानीय नेताओं के गले में पट्टा डाल रखा है। कांग्रेस उम्मीदवार के पास कभी रतलाम में कार्यकर्ताओं की बड़ी फ़ौज हुआ करती थी! अब वो हालात नहीं है! इसके विपरीत कांग्रेस को उम्मीद कि वो मैदान मार लेगी, पर इसका कोई ठोस आधार नजर नहीं आ रहा! 
  कांग्रेस का भरोसा इस बात पर टिका है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को रतलाम (शहर) से जो 55 हज़ार की लीड मिली थी, जो महापौर चुनाव में घटकर 24 हज़ार हो गई! रतलाम (ग्रामीण) से भी भाजपा को करीब 30 हज़ार की लीड मिली थी! भाजपा के दिलीपसिंह भूरिया पिछला लोकसभा चुनाव 1 लाख 8 हज़ार से चुनाव जीते थे, उसमें रतलाम की 2 सीटों का योगदान ही करींब 85 हज़ार वोटों का रहा था! भाजपा की कोशिश है कि ये लीड बढे नहीं तो कम से कम घटे भी नहीं! रतलाम ग्रामीण भाजपा की कमजोरी को भाजपा के नेता भी भांप रहे हैं! क्योंकि, सरकार से किसान खुश नहीं हैं और महंगाई भी आसमान फाड़ रही है! ऐसे में लीड बढ़ेगी, ये कहना नासमझी होगी! अब नरेंद्र मोदी की हवा का माहौल नहीं है और न इस उपचुनाव को लेकर लोगों में कोई रूचि है! ऐसे में तय है कि भाजपा की लीड बढ़ेगी तो नहीं! ये कांग्रेस के फायदे वाला संकेत है! 
  वोटिंग के अगले दिन देवउठनी ग्यारस है, हिन्दू परंपरा के मुताबिक उस दिन से शादी-ब्याह शुरू जाते हैं! ऐसे में ज्यादातर लोग शादियों में बिजी हो जाते हैं! जिसका सीधा असर वोटिंग पर होगा, जिसका नुकसान भाजपा को हो सकता है! लेकिन, कांग्रेस को नुकसान का गणित ये है कि रतलाम नगर निगम के 69 पार्षदों में कांग्रेस के 13 ही हैं, उनमे भी 7 या 8 ही कांतिलाल भूरिया का साथ देंगे! 
   जहाँ तक जातीय समीकरण की बात है तो रतलाम में ब्राह्मण, जैन और मुस्लिम वोट करीब-करीब बराबर हैं! मुस्लिम वोट तो भाजपा को मिलने से रहे! दादरी, गो-मांस पर विवाद के बाद मुस्लिमों का परंपरागत बैंक कुछ खिसका भी है! इसी तरह जैन वोटर्स भी पूरी तरह भाजपा के साथ होंगे, इसमें शक किया जा रहा है! हिम्मत कोठारी और चैतन्य काश्यप इस कोशिश में तो हैं, लेकिन, लगता नहीं कि ऐसा होगा! जैन समाज ज्यादातर व्यापारी वर्ग है! इस दिवाली पर बढ़ी महंगाई ने जिस तरह व्यापारियों का नुकसान किया है, वो उनके लिए भूलने वाली बात नहीं है। यहाँ के ब्राह्मण वोटर्स भी एक मुश्त भाजपा के साथ खड़े होंगे, इस बात दावा नहीं किया जा सकता! यदि आलीराजपुर और झाबुआ के जातीय समीकरणों पर नजर दौड़ाई जाए तो यहाँ 85% वोटर्स आदिवासी हैं! इनमें से बड़ी संख्या उन वोटर्स की है, जो दशकों तक 'पंजे' के साथ रहे हैं!  
   रतलाम में कांग्रेस ने अपनी चुनावी रणनीति भी बदली है! पार्टी ने रतलाम के सारे सूत्र इंदौर के नेता महेश जोशी के हाथ में दे दिए हैं, जिन्होंने कुशलगढ़ छोड़कर रतलाम में डेरा डाल लिया! चुनावी रणनीति का दारोमदार आजकल उनकी देखरेख में हो रहा है! इसके अलावा कई छोटे, बड़े नेताओं ने भी कमर कसकर पूरा जोर लगा दिया! दरअसल, ये भाजपा के चुनावी हमले का ही जवाब है! दिवाली के बाद जब पूरे संसदीय इलाके में भाजपा ने अपना प्रचार अभियान तेज किया और मुख्यमंत्री में गली-गली में चुनावी सभाएं करना शुरू कर दिया तो कांग्रेस ने भी उसी कूटनीति का इस्तेमाल करके हवा बनाना चालू कर दिया! कांग्रेस को फायदा देने वाला एक संकेत ये भी है कि पूर्व विधायक पारस सकलेचा कांग्रेस के साथ खड़े नजर आ रहे हैं! यदि वे अपने समर्थन से कांग्रेस को मदद दे सकने में कामयाब हुए, तो शायद कांग्रेस की उम्मीद पूरी हो सकेगी!   
 रतलाम जिले की तीसरी सीट है सैलाना! ये वही इलाका है, जहाँ पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से पछाड़ा था! सैलाना विधानसभा से भाजपा को हमेशा ही नुकसान उठाना पड़ा है। प्रभुदयाल गेहलोत के दबदबे के कारण यहाँ भाजपा हमेशा ही कमजोर रही है। प्रभुदयाल गेहलोत खुलकर कांग्रेस का समर्थन कर रहे हैं, जिसने कांग्रेस का उत्साहवर्धन किया है! मुख्यमंत्री ने इस बार सैलाना इलाके में पूरा जोर लगा दिया है! देखना है कि 24 नवंबर को नतीजे क्या कहते हैं?
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Saturday, November 28, 2015

भाजपा को कई सबक दे गई उपचुनाव की ये हार!


- हेमंत पाल 

   

   राजनीति में अतिआत्मविश्वास हमेशा धोखा देता है। प्रतिद्वंदी को कमजोर समझने की जो गलती भाजपा ने बिहार में की, वही रतलाम-झाबुआ लोकसभा सीट के उपचुनाव में भी दोहराई गई! इस चुनाव में भाजपा ने कई ऐसी गलतियां की, जो वक़्त रहते सुधारी जा सकती थी! चुनावी जंग जीत लेने का अतिआत्मविश्वास और स्थानीय नेताओं, कार्यकर्ताओं को जिस तरह हाशिये पर रखकर ये चुनाव लड़ा गया, वो आगे के लिए भी सबक है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि इस चुनाव के नतीजों का सत्ता और संगठन पर क्या असर होगा? क्या सरकार उन गलतियों को सुधारेगी, जो पार्टी की हार का कारण बने? क्या संगठन आने वाले चुनावों में यही चुनावी प्रयोग करेगा, जो रतलाम-झाबुआ और आलीराजपुर में किए गए? दरअसल, ये नतीजे सिर्फ एक लोकसभा उपचुनाव तक सीमित नहीं हैं! ये एक चिंगारी है, जो सुलग गई! यदि वक़्त रहते इसे बुझाया नहीं गया तो इसके दावानल बनते देर नहीं लगेगी!
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  रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव में सत्ता और संगठन की सारी ताकत झोंकने के बाद भी भाजपा वो नहीं पा सकी, जो उसकी मंशा थी! जबकि, कांग्रेस ने पुरानी लीड के एक लाख से ज्यादा वोट कवर करते हुए 88 हज़ार से जीत दर्ज की! इससे साबित हो गया कि भाजपा के खिलाफ बिहार जैसा अंडर करंट पूरे देश में फ़ैल रहा है! ये सिर्फ झाबुआ, रतलाम या आलीराजपुर तक की कहानी नहीं है! नरेंद्र मोदी की जिस मौसमी आँधी ने भाजपा को शिखर पर पहुंचा दिया था, वो शायद ढलान पर है! दिल्ली के बाद बिहार और अब रतलाम-झाबुआ में हुई हार इसी का संकेत है। इस हार को कुतर्कों के साथ स्वीकारते हुए भाजपा नेता कई नए तर्क दे सकते हैं! पर वे ये नहीं मानेंगे कि हमने गलत उम्मीदवार का चयन किया, इलेक्शन मैनेजमेंट में खामी थी, पेटलावद हादसे का आरोपी अब तक पकड़ा नहीं गया, स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की गई और बाहरी नेताओं के हाथ में चुनाव का संचालन सौंपा गया! ये वो तात्कालिक फैक्टर हैं, जो पार्टी की हार का कारण बने! इसके अलावा सरकारी फैसलों से ग्रामीणों को जो परेशानी हो रही है, वो भी इस चुनाव के नतीजे से जाहिर होता है। 
   भाजपा का निर्मला भूरिया को उम्मीदवार बनाना गलत फैसला ही था! पार्टी को लगा था कि दिलीप सिंह भूरिया के निधन की वजह से मतदाताओं में उनके परिवार के प्रति सहानुभूति रहेगी! लेकिन, पार्टी के लिए यही दांव उल्टा पड़ गया! पार्टी को शायद किसी ने ये सलाह नहीं दी कि आदिवासियों में इस तरह के मामलों में 'सहानुभूति' का कोई ख़ास महत्व नहीं होता! फिर निर्मला भूरिया की छवि भी नकारात्मक है। पेटलावद से चार बार चुनाव जीतने के बाद भी जनता से उनका संपर्क नहीं जैसा है। कार्यकर्ता और उनके क्षेत्र के लोगों को हमेशा शिकायत रहती है कि विधायक उनका फोन तक नहीं उठाती! आदिवासी अंचल में तो ये बात चर्चित है कि निर्मला की गाड़ी का कांच अब अगले चुनाव में ही उतरेगा! बाद में निर्मला भूरिया की कमजोर स्थित भांपकर शिवराज सिंह चौहान ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। यहाँ तक कि उन्होंने इस लड़ाई को शिवराज बनाम कांतिलाल भूरिया बना दिया! लेकिन, मुख्यमंत्री का यह फैसला भी गलत साबित हुआ।कांग्रेस ने भाजपा की इसी कमजोरी को मुद्दा बनाया। 
  ये बात भी सच है कि झाबुआ के आदिवासी किसी अनजान के सामने अपने दिल की बात नहीं कहते! वे किसी भी मामले में जल्दी प्रतिक्रिया भी नहीं देते कि कोई कयास लगाया जा सके! वे काम की तलाश में गुजरात, महाराष्ट्र दिल्ली तक जाते हैं! उन्हें देश की नब्ज का भी पता होता है! वे जानते है कि देश का राजनीतिक माहौल कैसा है! ये पूरा इलाका गुजरात की सीमा से लगा है, और वहाँ की हवा से कुछ ज्यादा ही प्रभावित भी है! इसलिए माना जा कि गुजरात में भी माहौल बदल रहा है! जिसका संकेत उन्होंने झाबुआ-आलीराजपुर की सभी पाँचों विधानसभा सीटों के फैसलों से दे दिया! गुजरात में इन दिनों नगरीय निकाय के चुनाव के लिए वोटिंग चल रही है! झाबुआ के नतीजे को यदि इशारा समझा जाए, तो गुजरात में भी बड़े फेरबदल से इंकार नहीं किया जा सकता! झाबुआ के आदिवासी की एक तासीर है कि उन्हें आसानी से बरगलाया नहीं जा सकता! उन्हें प्रलोभित करके अपने पक्ष में वोटिंग के लिए राजी भी नहीं किया जा सकता! जबकि, झाबुआ में डेरा डाले भाजपा के नेता आदिवासी मतदाताओं की नब्ज नहीं समझ सके, जिसका कांग्रेस को अंदाजा लग गया था! 
  भाजपा को दिवाली से पहले अंदेशा हो गया था कि झाबुआ की तीन और आलीराजपुर-रतलाम की एक-एक सीट से वो पिछड़ सकती है। लेकिन, भाजपा नेताओं को ये भी उम्मीद थी कि आदिवासी वोटों का जो घाटा होगा, उसकी पूर्ति रतलाम (शहर) क्षेत्र से मिली बढ़त से पाटा जा सकता है। लेकिन, शहरी मतदाताओं ने भी भाजपा का साथ नहीं दिया! सिवाय रतलाम (शहर) के भाजपा को सैलाना और रतलाम (ग्रामीण) से भी बढ़त नहीं मिली! लोकसभा चुनाव में रतलाम से भाजपा को मिली 55 हज़ार की लीड कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी! लेकिन, हिम्मत कोठारी की निष्क्रियता, कांग्रेस को मिले पारस सकलेचा साथ और चेतन काश्यप के प्रति लोगों की नाराजी ने कांग्रेस की राह आसान कर दी! इसके अलावा कांग्रेस ने महेश जोशी को चुनाव संचालन के मोर्चे पर लगाकर जीतने की कोई कसर नहीं छोड़ी! इन सारे प्रयासों से ही भाजपा की 55 हज़ार की लीड करीब 30 हज़ार घट गई! किसानों की मदद के लिए खजाना खोलने का दावा करने वाली सरकार से किसान कितने खुश हैं, ये रतलाम (ग्रामीण) के नतीजों ने बता दिया! डेढ़ साल पहले जिस सीट से भाजपा 30 हज़ार से जीती थी, वहाँ से उसे 5 हज़ार से हार का मुँह देखना पड़ा! भाजपा की सबसे बुरी गत सैलाना में हुई, जहाँ वो करीब 35 हज़ार से पिछड़ गई! भाजपा के मजबूत गढ़ों में कम मतदान होना भी, भाजपा के खिलाफ गया। आलीराजपुर के कम मतदान से ये साबित भी हो गया!  
   ये एक तरह से भाजपा के 'इलेक्शन मैनेजमेंट' की भी हार है! किसी एक सीट को जीतने के लिए जिस तरह से 'संसाधन' झोंके गए थे, आदिवासी मतदाता उसे पचा नहीं सका! ये भी कहा जा सकता है कि ये चुनाव जीतने के तात्कालिक उपायों की हार नहीं, बल्कि भाजपा की उस विचारधारा की हार है, जिसके झाँसे में पिछली बार देशभर का मतदाता आ गया था! अब वो उससे मुक्त होने की कोशिश कर रहा है! बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली हार को यहाँ आदिवासी मतदाताओं ने भी गंभीरता से लिया! इसी आशंका को भांपते हुए भाजपा ने दिवाली के पहले ही चुनाव प्रचार में तेजी लाने की कोशिशें शुरू कर दी थी! मुख्यमंत्री लगातार झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम में चुनावी सभाएं करते रहे! पूरे संसदीय क्षेत्र में मुख्यमंत्री ने 50 से ज्यादा सभाएं की! उन्होंने दो-दो दिन के चुनावी दौरे इसलिए किए कि कहीं, कोई चूक न रह जाए! अरविंद मेनन और शैलेन्द्र बरुआ समेत संगठन के कई बड़े पदाधिकारी महीनेभर तक झाबुआ में डेरा डाले रहे! पार्टी अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने भी सारा दम लगा दिया! इसके अलावा दो दर्जन मंत्रियों और चार दर्जन विधायकों को भी लगा दिया गया! नतीजा ये हुआ कि स्थानीय कार्यकर्ता और नेता उनकी चाकरी में लग गए और सारा प्रचार सिर्फ दिखावे तक सीमित हो गया! बिहार चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें तो उभरी ही थी! जानकारी है कि सरकार को भी जो ख़ुफ़िया रिपोर्ट मिली थी, उसमें भी हार के खतरे की तरफ संकेत किया गया था! 
  इस उपचुनाव में प्रदेश सरकार की योजनाओं का जमकर प्रचार किया गया! जबकि, ग्रामीणों को हर योजना की असलियत और सरकारी अफसरों के रवैये का अहसास है। लेकिन, ये नहीं कहा गया कि केंद्र सरकार की 'मनरेगा' योजना का क्यों फ्लॉप हुई? आदिवासी इलाके में 'मनरेगा' के जरिए सही तरीके से काम नहीं हुआ! यहाँ तक कि आदिवासियों को उनके काम के पैसे हक का भुगतान तक नहीं हुआ। ये भी एक वजह थी, जिससे लोगों में प्रदेश सरकार के खिलाफ नाराजगी थी। कांग्रेस ने इसी मुद्दे को सही तरीके से अपने प्रचार में शामिल किया। ये भी सच है कि ग्रामीण इलाके के लोग सरकारी दफ्तरों में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार से बहुत ज्यादा परेशान हैं! मजबूरी में वो विरोध नहीं कर पाते, पर जब ऐसा कोई मौका मिलता है, अपनी मंशा जाहिर करना छोड़ते! पटवारियों के दबाव, बिजली के भारी भरकम बिल, राजस्व के कामकाज में अड़चन जैसे कई मामले हैं जो रोज गरीब ग्रामीणों को झेलना पड़ते हैं।   
  इसे आश्चर्य कहा जा सकता है कि पूरे चुनाव में कांग्रेस जीत के प्रति बहुत ज्यादा आश्वस्त लगी! कांग्रेस ने जिस तरह एकजुट होकर चुनाव लड़ा, ये उसकी रणनीतिक सफलता भी कही जाएगी! कांग्रेस के सभी बिखरे गुट झाबुआ-रतलाम में एकसाथ दिखाई दिए! बिहार चुनाव के नतीजों के बाद तो कांग्रेस का आत्मविश्वास भी बल्लियों उछलने लगा था! चुनाव के इस नतीजे से कांग्रेस ने भी सबक सीख लिया होगा, कि ऐसे मौकों पर आपसी मतभेद भुलाकर एक जाजम पर आना फायदेमंद होता है!     
  पेटलावद हादसे ने भी भाजपा की जीत का रास्ता रोक है। मुख्यमंत्री ने हालात संभालने कोशिश तो की, पर वे भी लोगों के दिल के घाव नहीं भर सके! जिस गांव में करीब डेढ़ सौ लोग बारूद के साथ धमाके में उड़ गए हों, वहाँ के लोगों के दिलों में धधकते बारूद को समझ नहीं सके कि वो कहाँ फटेगा! तात्कालिक सहानुभूति और मुआवजे को भाजपा ने ये समझ लिया था कि लोग सब भूल जाएंगे! पर, ना ऐसा हुआ और न होता है! कांग्रेस ने भी इस घाव को आखिरी तक कुरेद कुरेदकर हरा रहने दिया!
   उपचुनाव के नतीजे से ये भी साबित कि आदिवासी मतदाता भंडारे, क्रिकेट-किट, कम्बल और साड़ी से झांसे में नही आते! उनका विश्वास जीतना सबसे ज्यादा जरुरी है और विश्वास की पूंजी एक दिन में जमा नहीं होती! झाबुआ-रतलाम की ये हार भाजपा के अतिआत्मविश्वास के अलावा जनता और कार्यकर्ता की उपेक्षा का भी नतीजा है। जहाँ तक इस हार से सबक लेकर संगठन में बदलाव का सवाल है तो पार्टी अध्यक्ष नंदकुमार चौहान कमजोर पकड़ सामने आ गई! यदि उनकी 'यस मेन' वाली छवि नहीं बदली तो पार्टी शायद उन्हें ही बदल दे! इस नतीजे से ये भी लगा रहा है कि भाजपा की पूंजी घट रही है! कांग्रेस अब इसे अपनी ताकत में बदल सकती है। अब भाजपा के मठाधीश बने लोगो को फिर कार्यकर्ता बनना पड़ेगा, तभी कुछ बदलेगा! क्योंकि, सत्ता के अहंकार से कभी चुनाव  जाते!
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