Thursday, December 28, 2023

ये मुख्यमंत्री की सख्ती ही नहीं, ब्यूरोक्रेसी को इशारा भी!

- हेमंत पाल 

    गुना बस हादसे के बाद मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने जिस तरह की सख्ती दिखाई, वो अप्रत्याशित कही जा रही है। वास्तव में ऐसी सख्ती दिखाने की जरुरत भी थी। उनकी इस कार्यवाही की तारीफ की जा रही है। लेकिन, यह जरुरी भी था, जो अभी तक कभी देखने को नहीं मिला। घटना की गंभीरता के नजरिए से भी और मुख्यमंत्री के भविष्य के तेवर दिखाने के लिए भी। डॉ मोहन यादव को लेकर आम लोगों का और प्रशासनिक सोच ऐसा नहीं बना था। उनसे इस तरह की सख्ती की उम्मीद नहीं की गई थी, जो उन्होंने दिखाई। लेकिन, इस एक घटना को लेकर उन्होंने मंत्रालय से लेकर नगरपालिका तक के 6 बड़े अफसरों को जिस तरह नाप दिया, वो प्रशासनिक व्यवस्था के लिए संदेश है कि उन्हें कमजोर मुख्यमंत्री न समझा जाए। बस हादसे पर कलेक्टर, एसपी, आरटीओ के साथ ट्रांसपोर्ट कमिश्नर और विभाग के प्रमुख सचिव तक को हटाया जाना सामान्य बात नहीं है। किंतु, उनकी एक असामान्य कार्यवाही ने उन्हें आज हीरो बना दिया।  
    जब से डॉ मोहन यादव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, उनकी कामकाज की शैली का स्पष्ट इशारा नहीं मिला था। शिवराज सरकार में वे उच्च शिक्षा मंत्री रहे, जो एकेडमिक जैसा विभाग हैं, जहां के फैसलों का जनता से ज्यादा वास्ता भी नहीं पड़ता। लेकिन, जब से वे मुख्यमंत्री बने, कोई ऐसे फैसले भी सामने नहीं आए, जो उनकी सख्ती का संकेत दें। गुना की इस घटना ने उन्हें मौका दिया, जिसके जरिए उन्होंने बता दिया कि मुझे हल्के में नहीं लिया जाए। वे कड़े प्रशासनिक फैसले लेने में भी पीछे नहीं हटेंगे। ये बात भी है, कि सरकार बदलने के बाद ज्यादातर अफसरों के तबादले की बात की जा रही थी, पर जिस तरह उन्होंने 6 अफसरों को हटाया, उसने बता दिया कि वे किसी के प्रभाव में काम नहीं करेंगे। वे सिर्फ सख्ती की बातें ही नहीं करेंगे, सख्ती भी ऐसी करेंगे जो दिखाई देगी।      
    सबसे पहले तो उन्होंने दो बड़ी मीटिंगों को कैंसिल करके घटना स्थल पर जाने का फैसला किया, उससे उनकी संवेदनशीलता का इशारा मिलता है। वे वहां गए और घटना का जायजा लिया। जो जानकारी उन्हें मिली, उससे निष्कर्ष निकला कि बस अवैध रूप से चल रही थी यानी आरटीओ दोषी, समय पर फायर ब्रिगेड नहीं पहुंची इसके पीछे नगर पालिका के मुख्य कार्यपालन अधिकारी (सीएमओ) की लापरवाही है। दोनों को तत्काल प्रभाव से सस्पेंड कर दिया। देखा जाए तो ये सामान्य बात थी और समझा गया कि बात यहीं ख़त्म हो गई। लेकिन, भोपाल पहुंचकर उन्होंने गुना कलेक्टर और वहां एसपी को हटाने के आदेश दिए। गुना कलेक्टर तरुण राठी का मंत्रालय ट्रांसफर कर अपर सचिव बनाया दिया गया। एसपी विजय कुमार खत्री को पुलिस मुख्यालय भेज दिया।
    सबसे बड़ी कार्यवाही तो ट्रांसपोर्ट कमिश्नर संजय झा विभाग के प्रमुख सचिव को हटाने को लेकर की गई। इस घटना से मुख्यमंत्री ने मामले के सारे पहलुओं को समझ लिया कि बात सिर्फ दुर्घटना के बाद समय पर फायर ब्रिगेड भेजने तक सीमित नहीं है। बस बिना परमिट और फिटनेस के चल रही थी, इसका सीधा सा मतलब है कि आरटीओ के अलावा ऊपर तक का अमला इसमें शामिल है। एक और गौर करने वाली बात यह भी है कि बस का मालिक भाजपा का पदाधिकारी बताया जा रहा है, उस पर भी कार्रवाई की बात की गई। डॉ मोहन यादव ने मामले की जांच के लिए समिति का गठन किया है। इसका संकेत यह भी समझा जाना चाहिए कि अभी आग ठंडी नहीं हुई!  
     हादसे की जांच के आदेश के बाद एक समिति गठित हो गई, जो तीन दिन में रिपोर्ट सौंपेगी। अपर कलेक्टर मुकेश कुमार शर्मा को समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। उनके नेतृत्व वाली समिति में गुना एसडीएम दिनेश सावले, ग्वालियर से संभागीय उप परिवहन आयुक्त अरुण कुमार सिंह और गुना के विद्युत सुरक्षा सहायक यंत्री प्राणसिंह राय भी इसमें शामिल हैं। यह समिति सारे पहलुओं की जांच करेगी। जिनमें दुर्घटना के कारण, दुर्घटनाग्रस्त बस और डंपर को मिली अनुमतियां, बस में आग लगने के कारण, जिम्मेदार विभागों की भूमिका की जांच शामिल है। मुख्यमंत्री की इस सख्ती को इस तरह भी समझा जाना चाहिए कि वे किसी के आभामंडल की गिरफ्त में नहीं है।
    ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट को भी दोषियों पर कठोर कार्रवाई करने को कहा गया। राज्य के सभी कलेक्टर्स और पुलिस अधीक्षकों को बिना परमिट और फिटनेस के चल रहे वाहनों पर कार्यवाही के निर्देश दिए गए। यह भी कहा कि आटीओ के सभी बड़े अफसरों की भी जिम्मेदारी तय कर सख्त कार्यवाही की जाए। ऐसी घटनाओं की पुनरावृति न हो, इस बात का ध्यान रखा जाए। यह बेहद संवेदनशील मामला है। सभी जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध राज्य सरकार सख्त कार्रवाई करेगी। दरअसल, ये पूरा घटनाक्रम ब्यूरोक्रेसी को मुख्यमंत्री के तेवर दिखाने के साथ अगले पांच साल के लिए भी एक संकेत है कि पहले वाली सरकार में जो हुआ वो गुजर गया। अब वो सब नहीं चलेगा जो अभी तक होता आया है।
ट्रांसपोर्ट एक्सपर्ट का नजरिया 
    प्रदेश के पूर्व ट्रांसपोर्ट आयुक्त एनके त्रिपाठी ने इस घटना पर अपनी टिप्पणी में बताया कि गुना बस हादसे में मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने तत्काल परिवहन आयुक्त और प्रमुख सचिव को हटाकर अपने तेवर स्पष्ट कर दिए। उन्होंने यह संदेश दिया कि वरिष्ठतम अधिकारियों को अपने दायित्वों को गंभीरता से लेना होगा। गुना के एसपी और कलेक्टर को हटाया जाना तथा आरटीओ तथा सीएमओ को निलंबित करना इसी श्रृंखला में है। मध्य प्रदेश सहित भारत वर्ष में सड़क दुर्घटनाओं का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। जबकि, पूरे विश्व में सड़क दुर्घटनाएं घट रही है।
    अधिकारियों के विरुद्ध की गई इस कार्रवाई से सड़क दुर्घटनाओं पर कोई प्रभाव पड़ेगा, इस पर मुझे बहुत संदेह है। सड़क दुर्घटनाओं को कम करने के लिए बहुत श्रम साध्य, तकनीक से पूर्ण तथा संसाधन की आवश्यकता है। राज्य सरकार को राजमार्गों और शहरों के अंदर होने वाली सड़क दुर्घटनाओं को ज़्यादा गंभीरता से लेते हुए इन्हें कम करने के लिए लिए ठोस योजना और क़दम उठाने होंगे।
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Monday, December 25, 2023

नायक के हाथों अपमानित होती नायिका

- हेमंत पाल 

     फ़िल्मी कथानकों में महिलाओं की स्थिति को लेकर अकसर बहस चलती रही है। उंगलियों पर गिनी जाने वाली चंद फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो ज्यादातर फिल्मों में नायिका का किरदार नायक से अलग अपनी पहचान नहीं बना पाता। ऐसी फ़िल्में भी बहुत कम है, जो महिला प्रधान होते हुए हिट हुई। इन दिनों रणबीर कपूर की फिल्म 'एनिमल' की चर्चा है। इसलिए नहीं कि फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त सफलता मिली। इसके अलावा चर्चा का कारण फिल्म में नायिका का अपमानजनक चित्रण है, जो विवाद बन गया। सड़क से संसद तक में फिल्म के उन दृश्यों पर आवाज उठी, जिनमें नायक को नायिका पर हाथ उठाते दर्शाया गया। यह पहली बार नहीं है कि 'एनिमल' जैसी फिल्म को लेकर उंगली उठाई गई हो। इससे पहले शाहिद कपूर की फिल्म 'कबीर सिंह' को लेकर भी सवाल खड़े किए गए थे। संयोग माना जाना चाहिए कि 'एनिमल' और 'कबीर सिंह' दोनों फिल्मों के डायरेक्टर संदीप रेड्डी वांगा ही हैं। जब 'कबीर सिंह' आई तब इस डायरेक्टर ने कहा था कि मैं जानबूझकर एक असामान्य लव स्टोरी बनाना चाहता था। ये प्यार के कारण एक व्यक्ति की जिंदगी बदलने की कहानी है। मैंने किरदार को ज्यादा वास्तविक और सरल रखने की कोशिश की। लेकिन, 'एनिमल' में तो ऐसे दृश्य जरुरी नहीं थे! 
     संसद में फिल्म को लेकर आवाज अच्छे संदर्भ में नहीं उठी, बल्कि फिल्म में महिलाओं को जिस तरह दोयम दर्जे का समझा गया। उस पर राज्यसभा सदस्य रंजीत रंजन ने टिप्पणी की। उनका कहना था कि 'एनिमल' जैसी फिल्में समाज में हिंसा और स्त्री द्वेष को बढ़ावा देती हैं। उनका कहना था कि आजकल कुछ इसी तरह की फिल्में आ रही हैं। अगर आप कबीर, पुष्पा से शुरू करें तो अभी एक और ऐसी फिल्म (एनिमल) चल रही है। मैं आपको कह नहीं पाऊंगी कि मेरी बेटी के साथ बहुत सारी बच्चियां थीं। वे कॉलेज में पढ़ती हैं। वे आधी फिल्म देखने के बाद उठकर और रोकर चली गई। हिंसा और महिलाओं के प्रति इतने असम्मान को फिल्म के जरिए जस्टिफाई किया गया। उनका कहना है कि कबीर फिल्म में शाहिद कपूर को और 'एनिमल' में रणबीर कपूर को जो करते दिखाया गया उसे समाज सही नहीं मान रहा। यह चिंतनीय विषय है। इसके अलावा भी बहुत सारे ऐसे उदाहरण हैं। इस हिंसा और नेगेटिव रोल को नायक की तरह पेश किया जा रहा है। हमारे आज के बच्चे इन्हें रोल मॉडल मानने लगे। सांसद ने फिल्म की रिलीज को मंजूरी देने के लिए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) और ऐसी फिल्मों को हरी झंडी देने के लिए बोर्ड द्वारा इस्तेमाल किए गए मानदंडों पर भी सवाल उठाया। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी फिल्में समाज के लिए एक ‘बीमारी’ है।
     जो सवाल उठाए, वो गलत नहीं है। पितृसत्ता समाज की जड़ें बेहद गहरी है, इसे समझना है, तो इसका खुलासा 'एनिमल' में होता है। फिल्म में सिर्फ पिता है। फिल्म के कथानक में यह पिता ही हर जगह मौजूद है। बेटे का पिता के लिए लगाव दिखाई भी देता है। मगर यह लगाव सामान्य प्रेम नहीं, बल्कि उसे पिता जैसा बनना है। मां उसके जीवन में कहीं नहीं है। फिल्म के कथानक के मुताबिक, नायक पिता के लिए किसी हद तक जाने को तैयार रहता है। यहां तक कि पिता के जन्मदिन पर वह अपने लम्बे बाल कटवाकर उन्हें एक सरप्राइस गिफ्ट देता है। ऐसा भी वक़्त आता है, जब वो बग़ावत करके घर से निकल जाता है। लेकिन, जब पिता पर हमला होता है, तो उसका बदला लेने के लिए विदेश से लौट आता है। फिल्म में चारों तरफ आदमियों की दुनिया है। उसमें औरतें हैं, पर किसी खास भूमिका में नहीं। 
     इस फिल्म में नायिका की भूमिका को दोयम दर्जे से भी नीचे जगह दी गई। कई दृश्यों में बहस करने पर उसे थप्पड़ भी पड़ते हैं। इसी से समझा जा सकता है कि फिल्म में पुरुष और महिला के बीच किस हद तक असमानता है। इस सबके बाद भी जब नायिका काबू में नहीं आती तो एक दृश्य में हीरो कहता है 'शादी में डर होना चाहिए।' पूरी फिल्म में नायिका को धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करने वाली संस्कारी बताया गया। असल में इस फिल्म पर चर्चा इसलिए जरूरी हो जाती है, कि ऐसी फ़िल्में ही बहस छेड़ती हैं। यह बहस इस बात की, कि औरतों को कितनी आजादी चाहिए। ऐसी फिल्में अलग तरह के समाज की कल्पना करती हैं, जिसमें औरतों के साथ गुलाम की तरह व्यवहार किया जाता है। पुरुष ये क्यों तय करें कि मां, बहनें या फिर पत्नी क्या पहनेंगी, क्या पियेंगी! उनकी हिफाजत की ज़िम्मेदारी सदियों पहले भी मर्दों के हाथ में थी और आज भी है। 
       'एनिमल' से पहले 'कबीर सिंह' के कुछ दृश्यों पर आपत्ति उठाई गई थी। शाहिद का किरदार नशा करते हुए, गालियां देते हुए, लोगों को पीटते दिखाया गया था। चाकू की नोक पर एक लड़की को कपड़े उतारने को कहता है। हीरोइन को मारता है, लड़की की बिना इच्छा कॉलेज में घोषणा करता है कि यह उसकी ‘बंदी’ है, कोई उसकी तरफ देखेगा भी नहीं। वह हीरोइन पर शादी के लिए दबाव बनाता है। ऐसी हरकतों के बावजूद कबीर को बेचारा बताने की कोशिश की गई। वहीं कबीर की प्रेमिका नायक के ख़राब बर्ताव, गुस्से और दबाव के बावजूद उसके सामने झुकी रहती है। इस तरह के दृश्यों को मर्दानगी का विकृत स्वरूप और महिलाओं को कमजोर दिखाने की कोशिश है। 
   मसला सिर्फ इन दो फिल्मों तक सीमित नहीं है। शाहरुख खान की 1993 में आई फिल्म 'डर' में भी नायक का हद से ज्यादा प्यार का पागलपन था। लेकिन, उस किरदार को विलेन की तरह दिखाया गया। 1990 की फिल्म 'राजा' में नायक आमिर खान अपने अपमान का बदला लेने के लिए नायिका माधुरी दीक्षित से जबरदस्ती शादी करता है। फिर भी वो उससे प्यार करने लगती है। सलमान खान की फिल्म 'तेरे नाम' (2003) में नायिका हमेशा नायक के खौफ में जीती है, फिर भी उसे प्यार करती है। सैकड़ों ऐसी फिल्मों के उदाहरण मिल जाएंगे, जिनमें हीरो की जबरदस्ती और हिंसा के बावजूद नायिका को खूंखार नायक ही पसंद आता है। 
    फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाएं सिर्फ नायक को रिझाने और एक विपरीत किरदार होने के अलावा दूसरे मामलों में भी कमतर ही रही। आईबीएम रिसर्च और ट्रिपल आईटी दिल्ली ने 5 साल पहले बीते 50 साल में आईं करीब 4 हजार हिंदी फिल्मों की इसी विषय पर रिसर्च की। इसमें देखा गया था कि फिल्म की कहानियों के ऑनलाइन सिनॉप्सिस में महिलाओं और पुरुषों का कैसे जिक्र होता है। उनके लिए कैसे शब्दों, विशेषणों और क्रियाओं का इस्तेमाल किया जाता है। 
      स्टडी में सामने आया कि जहां कहानी में पुरुषों का जिक्र औसतन 30 बार आया, वहीं महिलाओं का जिक्र 15 बार आया। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह दर्शाता है कि महिला किरदारों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। हीरो के लिए ज्यादातर मजबूत, सफल, ईमानदार जैसे विशेषण और मार दिया, गोली मार दी, बचा लिया, धमकाया जैसी क्रियाओं का इस्तेमाल किया गया। वहीं हीरोइन के लिए खूबसूरत, प्यारी, विधवा, आकर्षक, सेक्सी जैसे विशेषण और शादी की, स्वीकार किया, शोषण हुआ, मान गई जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया। करीब 60% महिला किरदारों को टीचर बताया गया, वहीं पुरुष किरदारों के पेशों में ज्यादा विविधता देखी गई। नायिकाओं के अपमान का ये मुद्दा यहीं ख़त्म नहीं होता। जब तक फिल्मकार ऐसे कथानकों पर फ़िल्में बनाते रहेंगे, ये बहस जारी रहेगी। क्योंकि, महिलाओं को पुरुष की बराबरी का दर्जा सिर्फ कहने से नहीं मिलेगा, उसके लिए सोच बदलना पड़ेगी। इसके लिए सिनेमा को भी बदलना पड़ेगा।    
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Tuesday, December 19, 2023

लम्बी फिल्मों का इतिहास भी बहुत लंबा!

 
- हेमंत पाल 

    देश में सैकड़ों फिल्में हर साल बनती है। हर फिल्म की कोई न कोई ऐसी खासियत होती है, जिस वजह से वे दर्शकों को आकर्षित करती है। कुछ चुनिंदा फिल्मों की खासियत उनकी लंबाई होती है। कुछ बहुत छोटी तो कुछ की लंबाई का रिकॉर्ड तोड़ होती है। कोई फिल्म इतनी छोटी बनी कि उन्हें इंटरवल की जरुरत नहीं पड़ी, तो कुछ फिल्मों में दो-दो इंटरवल करना पड़े। ऐसी फ़िल्में भी बनी जिनकी लंबाई की वजह से सिनेमाघरों ने उन्हें रिलीज करने से ही इंकार कर दिया। आखिर 5 घंटे से ज्यादा लंबी फिल्म को कोई सिनेमाघर कैसे दिखाएं और दर्शक क्यों देखें। आश्चर्य की बात रही कि फिल्म इतिहास में अपनी लंबाई को लेकर खास रही फिल्में दर्शकों का मनोरंजन करने में सफल भी रहीं। ये लंबी जरूर थी, पर इनमें से ज्यादा ने दर्शकों को उबाया नहीं। आज भी दर्शक इन फिल्मों को इनके दिलचस्प कथानक की वजह से याद करते हैं। रणबीर कपूर की नई फिल्म 'एनिमल' को उसकी लम्बाई के कारण याद किया जाता है। क्योंकि, लंबे समय से दर्शकों की छोटी फिल्म देखने की आदत है, ऐसे में 'एनिमल' की सफलता के बाद ऐसी फिल्मों का चलन शुरू होगा, ये नहीं कहा जा सकता। फिल्मकार ये हिम्मत तभी कर सकते हैं, जब कहानी में उसे इतना खींचने की गुंजाइश हो।
     यदि किसी भी फिल्म की लंबाई दो-ढाई घंटे से ज्यादा हो, तो उसकी कहानी में इतना दम होना चाहिए कि वो दर्शकों को बांध सके। क्योंकि, दर्शकों को इतनी देर तक रोककर रखना आसान नहीं होता। लेकिन, ये तभी संभव हो सकता है जब उसका कथानक और निर्देशन जबरदस्त हो। अगर जरा भी कथानक ढीला पड़ा, तो दर्शक बीच फिल्म में कुर्सी छोड़ने में देर नहीं करेगा। लंबी फिल्म उसे कहा जाता है, जो दो-ढाई घंटे की फिल्म के मुकाबले साढ़े तीन या चार घंटे से ज्यादा लंबी होती है। खास बात यह कही जाएगी कि अधिकांश लंबी फिल्में सफल रही हैं।
      हिंदी सिनेमा का इतिहास देखा जाए, तो लंबी फ़िल्में बनाने की शुरुआत 1964 में राज कपूर ने की थी। उनकी फिल्म 'संगम' लंबी होने की वजह से उसमें दो इंटरवल थे। 'संगम' में राज कपूर, राजेंद्र कुमार और वैजयंती माला जैसे कलाकार थे। यह फिल्म एक प्रेम त्रिकोण पर आधारित कथानक था, जो 3 घंटे 58 मिनट लम्बी थी। हिंदी फिल्म इतिहास की ये पहली इतनी लंबी फिल्म थी। ये उस समय की सुपरहिट फिल्मों में थी। दो इंटरवल होने से सिनेमाघरों में इसके दो शो ही चलते थे। 'संगम' की सफलता कुछ ऐसी रही कि ये फिल्म 60 के दशक में ‘मुगल-ए-आज़म’ के बाद सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्मों में गिनी गई। रिचर्ड एटनबरो की महात्मा गांधी के जीवन पर बनी फिल्म 'गांधी' भी 3 घंटे 11 मिनट लंबी फिल्म थी।  
    हर लंबी फिल्म सफल हो, ये जरूरी नहीं। राज कपूर की ही 1970 में आई 'मेरा नाम जोकर' ने उन्हें कर्ज में डुबो दिया था। जबकि, फिल्म की स्टार कास्ट 'संगम' वाले कलाकार भी थे। यह फिल्म राज कपूर का ड्रीम प्रोजेक्ट था, लेकिन उनके सारे सपनों को ध्वस्त कर दिया। 'संगम' से थोड़ी ही ज्यादा लंबी इस 4 घंटे की फिल्म को देश की सबसे लंबी फिल्मों में शामिल किया जाता है। इसमें भी दो इंटरवल होते थे। यह फिल्म एक सर्कस के जोकर 'राजू' की कहानी थी, जिसका दर्द कोई नहीं समझ पाता। इसे राज कपूर की बेहतरीन फिल्मों में गिना जाता है। इस फिल्म के घाटे से उबरने के लिए राज कपूर ने बेटे ऋषि कपूर को लेकर ही 'बॉबी' बनाई थी। 
     1975 में रमेश सिप्पी ने 'शोले' बनाई, इसे भी लंबी फिल्मों गिना जाता है। 3 घंटे 20 मिनट की इस फिल्म का शुरूआती कारोबार बेहद ठंडा था। लेकिन, धीरे-धीरे दर्शक जुटने लगे और फिल्म ने 35 करोड़ की कमाई का रिकॉर्ड बनाया। दो दशक तक 'शोले' की इस कमाई का कोई फिल्म रिकॉर्ड नहीं तोड़ पाई थी। 'शोले' से 6 मिनिट लम्बी बनी राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'हम आपके हैं कौन' ने 135 करोड़ रुपए की कमाई की। सलमान खान, माधुरी दीक्षित और मोहनीश बहल इस फिल्म के कलाकार थे। 
    लंबी फिल्मों का दौर यहीं ख़त्म नहीं हुआ। 2001 में आई आशुतोष गोवारिकर निर्देशित आमिर खान की फिल्म 'लगान' भी 3 घंटे 44 मिनट लंबी थी, जो सुपर हिट साबित हुई। इसके अनोखे पात्रों को आज भी दर्शक याद करते हैं। अपनी अलग सी कहानी के कारण इसे ऑस्कर में भी एंट्री मिली। यह फिल्म ब्रिटिश राज के दौरान एक गांव की कहानी बताती है, जो अंग्रेजों के साथ क्रिकेट का खेल खेलते हैं, ताकि वे करों का भुगतान न कर सकें। युद्ध के कथानक पर जेपी दत्ता के निर्देशन में बनी 'एलओसी कारगिल' 2003 में रिलीज हुई। यह फिल्म हिंदी फिल्म इतिहास की तीसरी सबसे लंबी फिल्मों में एक थी। इसकी लंबाई 4 घंटे 10 मिनट थी। इसका कथानक 1999 के भारत-पाकिस्तान युद्ध पर केंद्रित था, जो कारगिल में लड़ी गई थी। आदित्य चोपड़ा के निर्देशन में आई 'मोहब्बतें' भी 3 घंटे 36 लंबी थी। शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या राय और जुगल हंसराज की यह फिल्म अपने समय में सुपर हिट हुई थी। इस फिल्म को इसलिए भी याद किया जाता है कि इसने अमिताभ बच्चन को बतौर अभिनेता दूसरा जन्म दिया। 
    आशुतोष गोवारिकर की 2008 में आयी फिल्म 'जोधा अकबर' भी लंबी फिल्मों की फेहरिस्त में शामिल है। ऋतिक रोशन और ऐश्वर्या राय की यह फिल्म 3 घंटे 33 मिनट लंबी थी। लेकिन, अभी तक की सबसे लंबी फिल्मों में अनुराग कश्यप की 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' को गिना जाता है। 5 घंटे 21 मिनट लंबी इस फिल्म को बना तो लिया गया, पर इसकी लंबाई के कारण कोई सिनेमाघर इसे रिलीज करने को राजी नहीं हुआ। इसके बाद फिल्म को दो हिस्सों में बांटकर रिलीज किया गया। फिल्म का पहला हिस्सा जून 2012 और दूसरा पार्ट अगस्त 2012 में रिलीज किया। तीन पीढ़ियों की कहानी बताती इस फिल्म के दोनों हिस्सों ने बॉक्स ऑफिस पर जमकर धमाल मचाया था। अनिल कपूर, सलमान खान, गोविंदा और प्रियंका चोपड़ा की फिल्म 'सलाम-ए-इश्क' (2007) भी 3 घंटे 36 मिनट लम्बी थी। बड़े सितारों के बावजूद ये फिल्म पसंद चली नहीं। इनके अलावा, तमस, हम साथ-साथ हैं और 'कभी अलविदा न कहना’ भी लंबी फिल्मों में शामिल हैं। 
      बरसों बाद 2016 में आई सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म 'एम एस धोनी' भी 3 घंटे 5 मिनट लंबी थी। इससे पहले 2008 में 'गजनी' ने 3 घंटे का दायरा तोड़ा। 2000 से अभी तक 23 साल में 20 फिल्में भी ऐसी नहीं हैं, जिनकी लंबाई 3 घंटे से ज्यादा हो। क्योंकि, दर्शकों को तीन घंटे तक बांधकर रखना आसान नहीं होता। जब किसी फिल्म की ज्यादा लंबाई का जिक्र होता है, तो स्वाभाविक रूप से जिज्ञासा होती है कि फिल्म में ऐसा क्या खास है, जो इसकी कहानी कहने में इतना वक़्त लिया गया।
    ऐसी कई फ़िल्में पौराणिक कहानियों पर भी बनी। जोधा अकबर, लगान, स्वदेस और नायक या ऐसी लंबी फिल्मों को इसी दर्जे में रखा जा सकता है। लंबी फिल्मों का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ। रणबीर कपूर की 'एनिमल' के बाद शाहरुख खान की आने वाली फिल्म 'डंकी' भी लंबी फिल्मों में गिनी जाने वाली फिल्म होगी। 'एनिमल' 3 घंटे 21 मिनट लंबी फिल्म है। जबकि, राजकुमार हिरानी निर्देशित शाहरुख खान 'डंकी' 2 घंटे 40 मिनट की फिल्म बताया गया है। आज दो-सवा दो घंटे से ज्यादा लंबी फिल्म बनने वाली फिल्म को लंबा ही माना जाएगा। 
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मोहन यादव के नाम ने चौंकाया पर क्यों!

- हेमंत पाल 

     मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का नाम जिस तरह घोषित किया गया वो किसी सस्पेंस भरी फिल्म के क्लाइमेक्स से कम नहीं था। सारी पटकथा दिल्ली में पहले से लिखी जा चुकी थी। सस्पेंस का खुलासा करने वाले पात्र भी तय हो चुके थे। किसे क्या करना है सब पहले से तय हो गया। किसी को बताया नहीं गया कि कथानक का अंत क्या है! लेकिन, जब मुख्यमंत्री का नाम घोषित हुआ, तो सबका चौंकना स्वाभाविक था। क्योंकि, ये नाम किसी के अनुमान में शामिल नहीं था। भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में यह घटना संदेश की तरह है कि यहां कभी, कुछ भी होने पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए!  
      इस प्रसंग से ये संदेश दिया कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व कुछ भी कर सकता है। अभी तक ये सिर्फ कहा जाता रहा, पर अब मध्यप्रदेश में जो हुआ वो निश्चित रूप से चौंकाने वाली घटना कही जाएगी। सारे अनुमानों, कयासों, संभावनाओं और जानकारों के विश्लेषणों को धता बताते हुए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने मोहन यादव को विधायक दल की बैठक में पर्यवेक्षकों के जरिए मुख्यमंत्री घोषित करवा दिया। चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद किसी ने नहीं सोचा होगा कि उज्जैन (दक्षिण) के विधायक मोहन यादव को प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है।  
      विधायक दल की बैठक में केंद्रीय पर्यवेक्षक और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने डॉ मोहन यादव के नाम की घोषणा की। जबकि, पिछले 8 दिनों में मोहन यादव को मुख्यमंत्री जैसा अहम पद दिए जाने की संभावना किसी ने व्यक्त नहीं की थी। जो संभावित नाम सामने थे, उनमें शिवराज सिंह चौहान को फिर से मुख्यमंत्री बनाए जाने या फिर प्रहलाद पटेल, नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय, ज्योतिरादित्य सिंधिया में से किसी का नाम लगभग तय समझा जा रहा था। लेकिन, विधायक दल की बैठक में जो हुआ उस नाम ने उन विधायकों को भी निश्चित रूप से चौंकाया होगा, जो इस बैठक में मौजूद थे। क्योंकि, लगता नहीं कि किसी भी विधायक ने मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाने की मंशा जाहिर की होगी। लेकिन, जो हुआ वह निश्चित रूप से पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का थोपा हुआ नाम ही माना जाएगा। लेकिन, इस पर भी नाटक पूरा हुआ।  
      पर्यवेक्षकों के सामने शायद ही किसी ने मोहन यादव का नाम लिया होगा। विधायकों ने जो नाम लिए होंगे उनमें वे ही पांच नाम होंगे, जो दौड़ सामने थे। यदि उन पांच नामों में 10 नाम और भी जोड़ दिए जाएं, तब भी शायद उनमें मोहन यादव का नाम नहीं आएगा। क्योंकि, न तो उनमें कभी उनमें नेतृत्व की अपार क्षमताओं को आंका गया और न पार्टी में उन्हें इस पद के योग्य समझा गया। चुनाव प्रचार के दौरान भी कांग्रेस उम्मीदवार को मंच से अपशब्द बोलने को लेकर भी वे मीडिया में चर्चा में रहे। उज्जैन के मास्टर प्लान में उनकी जमीन को लेकर भी सालभर पहले बड़ा विवाद हुआ। फिर वे ओबीसी का इतना बड़ा चेहरा भी नहीं है, कि उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जाता। लेकिन, जब पार्टी ने विधायकों के जरिए उन्हें मुख्यमंत्री घोषित कर ही दिया तो उन्हें स्वीकारना ही पड़ेगा। 
     शिवराज सिंह चौहान की सरकार में डॉ मोहन यादव उच्च शिक्षा मंत्री थे। साल 2013 में वह पहली बार उज्जैन (दक्षिण) सीट से विधायक चुने गए थे। 2018 में वे फिर इसी सीट से विधायक चुने गए थे। 2023 में तीसरी बार वे फिर उज्जैन (दक्षिण) से उम्मीदवार बनाए गए और उन्होंने कांग्रेस के चेतन प्रेम नारायण यादव को 12941 वोटों से हराया। उज्जैन के महाकाल महाराज को वहां का राजा माना जाता है। राजा के सामने कभी कोई दूसरा राजा नहीं बनता। यही कारण है कि उज्जैन में कभी कोई मुख्यमंत्री या इस स्तर का नेता रात रुकने की हिम्मत भी नहीं करता। लेकिन, अब उज्जैन के विधायक मोहन यादव को पार्टी ने मुख्यमंत्री बना दिया, तो सवाल उठता है कि एक राजा के होते दूसरे राजा का क्या होगा! महाकाल के राज में क्या वे उज्जैन में रात बिताएंगे या नहीं! क्योंकि, महाकाल के राज में कोई दूसरा राजा विश्राम नहीं करता। 
'यादव' होने से लोकसभा में फ़ायदा मिलेगा  
    मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाए जाने के पीछे जो सबसे बड़ा कारण नजर आ रहा, वो है लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश और बिहार की ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना। बात सिर्फ ओबीसी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की होती, तो शिवराज सिंह और प्रहलाद पटेल भी ओबीसी वर्ग से ही आते हैं। लेकिन, उनका सरनेम 'यादव' नहीं है जो उत्तर प्रदेश और बिहार में सबसे ज्यादा असर करेगा। यही कारण है कि उन्हें तय रणनीति के तहत मौका दिया गया। इसे भी संयोग माना जा सकता है कि प्रदेश के दिल्ली से भेजे गए चुनाव प्रभारी भी 'यादव' (भूपेंद्र यादव) ही थे।   
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Thursday, December 14, 2023

मध्यप्रदेश की राजनीति : कांग्रेस की करारी हार के गर्भ में क्या छुपा!

- हेमंत पाल
 
      तीन राज्यों में कांग्रेस की करारी हार के बाद पार्टी सदमे में है। पार्टी की सबसे बुरी हार मध्यप्रदेश में हुई, जहां उसकी सत्ता में वापसी को लेकर कोई शंका नहीं थी। ताजपोशी की पूरी तैयारी हो चुकी थी, कि अचानक भाजपा की सुनामी आ गई। जितनी सीटें भाजपा को मिली, वो अनपेक्षित सा आंकड़ा है। कांग्रेस को परेशानी इसलिए है, कि उसे प्रतिद्वंदी कि ऐसी जीत की उम्मीद कतई नहीं थी। उसे अनुमान था कि मुकाबला कांटाजोड़ जरूर है, पर कांग्रेस बाजी मारकर सरकार बनाने लायक बहुमत पा लेगी। लेकिन, जो हुआ उसने प्रदेश नेतृत्व को आत्ममंथन करने पर मजबूर कर दिया। अब हार के कारण तलाशने के लिए मंथन हो रहा है। देखा जाए तो इसका कोई मतलब नहीं रह गया, जो होना था वो हो चुका। अब आने वाले पांच साल तक भाजपा ही मध्यप्रदेश की सत्ता में रहेगी और कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में!
    कमलनाथ पिछले 6 साल से मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। पार्टी की तरफ से वे ही मुख्यमंत्री का चेहरा भी थे। लेकिन, चुनाव नतीजों ने भाजपा को अव्वल साबित कर दिया। उसे 163 सीटें मिली और कांग्रेस मात्र 66 सीट पर सिमटकर रह गई। इस चुनाव में भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले 57 सीटों का फ़ायदा हुआ। इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर, रतलाम, सागर, दमोह और खंडवा जैसे शहरी क्षेत्रों में जिस तरह कांग्रेस की हार हुई, वो सबसे ज्यादा चिंता की बात है। इन शहरों में पार्टी का पूरी तरह सफाया हो गया। जहां तक हार के कारणों का सवाल है, तो कमलनाथ का सॉफ्ट हिंदुत्व का चुनावी प्रयोग पूरी तरह असफल रहा। कांग्रेस पर भाजपा ने हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाया, जिसका जवाब देने के लिए कमलनाथ ने धार्मिक आयोजनों पर ध्यान दिया। हनुमान जयंती पर पार्टी दफ्तर में ही पूजा-पाठ करवाया गया। पार्टी में 'धार्मिक और उत्सव प्रकोष्ठ' के गठन के साथ धार्मिक कार्यक्रम करवाए गए। लेकिन, इससे हिंदुओं में पकड़ नहीं बनी, उल्टा मुस्लिम वोटर नाराज हो गए। 
     यदि कांग्रेस की हार के कारणों की चीरफाड़ की जाए, तो कई ऐसे कारण सामने आएंगे, जो भाजपा की जीत को सही साबित करते हैं। कांग्रेस की हार के कारणों में उम्रदराज कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की बड़ी भूमिका रही। कमलनाथ भले 6 साल से प्रदेश अध्यक्ष हों, पर वे जन नेता नहीं हैं। वे रणनीति बना सकते हैं, पर उसे अमल कैसे किया जाए, ये वे नहीं कर जानते। उनमें एक कमजोरी संपर्क की भी है। पार्टी के कार्यकर्ता तो छोड़ विधायकों तक को उनसे मिलने से पहले कई औपचारिकता निभानी पड़ती है। यही कारण है कि उन्हें पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के बजाए कारपोरेट कंपनी का मैनेजर ज्यादा कहा जाता है। निश्चित रूप से चुनाव में उनकी ये आदत पार्टी के लिए मुश्किल बनी है। ये उनकी संगठनात्मक खामी ही मानी जाएगी कि वे कांग्रेस को उस हालत में ले आए, जहां से उसके आगे बढ़ने की सारी संभावना ही ख़त्म हो गई। यही स्थिति दिग्विजय सिंह की भी है, वे पार्टी कार्यकर्ताओं पर गुर्राते ज्यादा दिखाई दिए। इन दोनों नेताओं की वजह से पार्टी में नई लीडरशिप को आगे आने का मौका नहीं मिला। इस बार ज्यादातर युवा नेता चुनाव हार गए, जिसके बाद भविष्य की संभावना भी ख़त्म हो गई।  
     मध्य प्रदेश में भाजपा की जीत उतना मायने इसलिए नहीं रखती, जितनी कि कांग्रेस की हार। भाजपा के जीत में लाडली बहना, सनातन का मुद्दा, सांसदों को विधानसभा चुनाव में उतारना और प्रधानमंत्री मोदी की 'गारंटी' सहित कई कारण गिनाए जा सकते हैं। लेकिन, कांग्रेस की हार का केवल एक ही कारण नजर आ रहा है कि प्रदेश में पार्टी का नेतृत्व बूढ़ा, निस्तेज और अड़ियल रहा। युवा नेताओं को चुनाव अभियान में शामिल नहीं किया गया। थके, चुके और बूढ़े नेताओं ने कांग्रेस की लगाम नहीं छोड़ी। उम्मीदवारों की घोषणा से लगाकर चुनाव प्रक्रिया और प्रचार रणनीति तक ऐसे नेताओं के हाथ में रही, जिन्हें अब सक्रिय राजनीति से रिटायर हो जाना चाहिए था।   
      कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे बूढ़े नेता मध्यप्रदेश में कोई चमत्कार कर सकेंगे, यह सोचना कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की बड़ी भूल थी। कांग्रेस ने 2018 में इस सोच को बदल लिया होता तो, आज ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा युवा नेतृत्व उनसे दूर नहीं जाता। जिस भाजपा को पिछले विधानसभा चुनाव में जनता अस्वीकार कर चुकी थी, वो फिर सत्ता में नहीं आती। इसके बावजूद केंद्रीय नेतृत्व ने कोई सबक नहीं सीखा और कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के हाथ में सारा दारोमदार सौंपकर जीत के दावे किए जाने लगे। पूरे चुनाव अभियान में दोनों नेताओं के बीच सामंजस्य का भी साफ़ अभाव दिखाई देता रहा। यहां तक कि सार्वजनिक मंच पर भी दोनों में खींचतान हुई। इसका नतीजा ये हुआ कि मतदाताओं ने इन्हें नकार दिया। 
   कांग्रेस और भाजपा की चुनावी रणनीति में मूल अंतर चुनाव लड़ने का है। भाजपा जहां उम्मीदवारों की घोषणा से मतदान तक उनके साथ खड़ी रहती है।  कांग्रेस टिकट देकर उन्हें अकेला छोड़ देती है। ये हर बार देखा गया और इस बार भी इसमें कोई सुधार नहीं देखा गया। उम्मीदवारों की घोषणा के बाद पार्टी के संगठन ने चुनाव लड़ने में कहीं उनका साथ नहीं दिया। यहां तक कि जहां पार्टी उम्मीदवारों के खिलाफ विद्रोह हुआ, वहां भी संगठन ने ध्यान नहीं दिया। नतीजा ये हुआ कि जहां कांग्रेस की जीत लगभग तय मानी जा रही थी, वहां भी उसकी लुटिया डूब गई। ये सीधे-सीधे कांग्रेस संगठन की खामी ही मानी जाएगी कि वो पार्टी को एकजुट नहीं कर सकी।  
      प्रदेश में कांग्रेस के दो ही नेता है दिग्विजय सिंह और कमलनाथ। लेकिन, इन दोनों की रणनीति और सारी चुनावी तैयारी भाजपा के सामने धरी रह गई। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि दोनों कि उम्र अब चुनावी राजनीति करने की नहीं रही। लेकिन, दोनों ही इसे स्वीकारने को तैयार नहीं। उनकी इस जिद की वजह से प्रदेश का युवा नेतृत्व उभर नहीं सका। इस चुनाव में कई ऐसे युवा नेता चुनाव हार गए, जिनकी जीत से नई संभावना की उम्मीद की गई थी। प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष जीतू पटवारी की राजनीतिक वाकपटुता के सभी कायल हैं माना जाता है। लेकिन, इस बार वे अपने कौशल को जीत में नहीं बदल सके। प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरुण यादव अब युवा नहीं रहे। यही स्थिति अर्जुन सिंह के बेटे राहुल सिंह की भी है। 
    दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह को पार्टी में सबसे ज्यादा संभावनाशील नेता माना जाता है। वे पिछला चुनाव बड़े अंतर से जीते थे, पर इस बार उन्हें जीतने में भी मुश्किल हो गई। लोकसभा चुनाव की नजदीकी को देखते हुए अब कांग्रेस के पास नया नेतृत्व खड़ा करने का समय नहीं बचा। संभावनाशील आदिवासी युवाओं में उमंग सिंगार और हनी बघेल को भी किनारे नहीं किया जा सकता। इन दोनों ने लगातार जीत दर्ज करके साबित किया कि उनमें भी दम है। लेकिन, वे अभी तक नेतृत्व की आँख में नहीं आए। अभी कांग्रेस के खाते में लोकसभा की 29 में से सिर्फ एक सीट है। केंद्रीय नेतृत्व भी असहाय है, कि वो कुछ नहीं कर सकता। विधानसभा चुनाव में भाजपा के सामने कांग्रेस की जो गत हुई, इसमें बहुत ज्यादा सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती। 
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Saturday, December 9, 2023

दिखावे की दुनिया में मिसाल बना ये विवाह

    फ़िल्मों की दुनिया में दिखावा बड़ी चीज है। जो जितना बड़ा अभिनेता, वो उतना बड़ा आभामंडल रचता है। जब इनका विवाह होता है या बच्चा जन्म लेता है तो वो खबर मीडिया से सात तालों में छुपाई जाती है। विवाहों में मीडिया के आने पर तो रोक होती ही है, जो चुनिंदा मेहमान किसी दूर रिसोर्ट या महल में आमंत्रित किए जाते हैं उनसे भी मोबाइल रखवा लिया जाता है। यदि बच्चे का जन्म हो, तो उसका चेहरा नहीं दिखाया जाता। लेकिन, एक अभिनेता ऐसा है जिसने ऐसे प्रपंचों से अपने विवाह को दूर रखा। उन्होंने दुनिया के सामने मणिपुर के मैतेई समुदाय की रस्मों से वहीं की अपनी प्रेयसी से विवाह किया।  
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- हेमंत पाल

    रणदीप हुड्डा को फिल्मों में अलग तरह का अभिनेता माना जाता है। उन्होंने फिल्मों में कई तरह के किरदार निभाए और अपनी ऐसी पहचान बनाई कि उन्हें किसी दायरे में नहीं बांधा गया। उन्होंने अपने अभिनय के साथ ही अपना विवाह भी कुछ इस तरह किया कि उनकी मिसाल दी जा रही है। एक तरफ जब फिल्म कलाकार अपने विवाह को इवेंट की तरह करके दिखावा करते हैं। जिन दर्शकों ने उन्हें सितारा बनाया उन्हीं से अपने विवाह के फोटो और वीडियो छुपाकर ऐसा आभामंडल रचा जाता है, जैसे वे सबसे अलग हों। पर, रणदीप ने जिस सादगी और बिना किसी दिखावे या छुपाव के अपना विवाह किया उसे बेहद सराहा जा रहा है। 
     रणदीप हुड्डा ने मणिपुर की अपनी प्रेयसी लिन लैशराम से वहां के परंपरागत मैतेई रीति-रिवाज के साथ विवाह किया। जब इस विवाह की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुई, तब लोगों को जानकारी मिली। न कोई माहौल बनाया और न कुछ छुपाया गया। इस विवाह का सबसे बड़ा आकर्षण रहा दूल्हा और दुल्हन का लिबास। देश के ज्यादातर लोग मैतेई रीति-रिवाज से अनजान थे। दुल्हन लिन लैशराम की पौशाक में इतना सम्मोहन था कि जिसने भी तस्वीरें और वीडियो देखे, सबका ध्यान उधर चला गया। लिन लैशराम ने अपनी शादी के लिए पोटलोई आउटफिट चुना, जिसमें वे बेहद खूबसूरत दिखाई दीं। मैतेई हिंदू दुल्हन अपनी शादी में पोटलोई या पोलोई ड्रेस ही पहनती हैं। यही उनका पारंपरिक परिधान है।
      रणदीप हुड्डा और लिन लैशराम दोनों पिछले चार साल से एक-दूसरे को डेट कर रहे थे। उनकी पहली मुलाकात नसीरुद्दीन शाह के थिएटर ग्रुप 'मोटले' में काम के दरमियान हुई। उस समय रणदीप उनके सीनियर कलाकार थे। दोनों काफी समय तक अच्छे दोस्त रहे। दोनों में दोस्ती बहुत गहरी हो गई तो उन्होंने इसे विवाह में बदलने का फैसला किया। कुछ दिन पहले दोनों ने एक साझा बयान में अपने रिलेशन को ऑफिशियल किया था। रणदीप और लिन ने इंफाल के शन्नापुंग रिसोर्ट में विवाह की रस्में अदा दी। इसमें दोनों के परिवार और रिश्तेदार शादी में शामिल हुए। 
   देश में हिंदू धर्म में कई छोटे-बड़े कई ऐसे समुदाय हैं, जिनका हिंदू रीति-रिवाज में अपना अलग रिवाज होता है। उन्हीं में से एक है मणिपुर के मैतेई समुदाय के रीति-रिवाज। एक्टर रणदीप हुड्डा ने अपनी गर्लफ्रेंड लिन लेशराम से इसी रिवाज में विवाह किया। इस रस्म में दुल्हन के परिवार की बड़ी तीन महिलाएं दूल्हे की फैमिली का स्वागत करती हैं। केले के पत्ते से लपेटी हुई एक थाली में पान सुपारी रखकर स्वागत किया जाता है। इस रस्म में दूल्हा और दुल्हन ख़ास तरह की पौशाक में होते हैं। दुल्हन पोटलोलई परिधान पहनती हैं और दूल्हा सफेद धोती-कुर्ता। तुलसी के पौधों को साक्षी मानकर विवाह की रस्में पूरी की जाती है। दुल्हा-दुल्हन को एक घेरे में बैठाकर, लोग उन्हें पैसे देकर सम्मानित करते हैं। दुल्हन दूल्हे को वरमाला पहनाकर नमस्ते करती है। इस मैतई विवाह रस्म के कई अलग-अलग नाम हैं, जो मणिपुरी विवाह, लुहोंगबा और यम पानबा है।
      रणदीप हुड्डा के इस विवाह से उनके पैतृक गांव जसिया गांव के लोग भी खुश हैं। उन्होंने रणदीप के विवाह की जानकारी मिलने पर जमकर खुशियां मनाईं। गांव के सरपंच ओम प्रकाश हुड्डा ने कहा कि गांव के लाडले रणदीप ने देश-दुनिया में गांव का नाम रोशन किया। नव दंपत्ति जब गांव में आएंगे तो उनके लिए आशीर्वाद समारोह किया जाएगा। रणदीप के शादी के बंधन में बंधने पर जसिया गांव में रहने वाली उनकी चाची-ताईयों व बहनों सहित सभी ग्रामीणों में खुशी है। रणदीप की चाची ने बताया कि रणदीप जमीन से जुड़े हुए हैं। वे जब गांव आते हैं तो सभी से हंसी खुशी मिलते हैं। दो माह पहले भी वे गांव में आए थे तो सभी से मिले थे। अब वो बहुत बड़े आदमी हो गए हैं। वे सब उनसे पहले भी शादी करने की बात कहते थे। अब रणदीप का विवाह होने से गांव वालों में बहुत खुशी है।
      रणदीप हुड्डा ने अपनी अभिनय करियर की शुरुआत 2001 की मीरा नायर की फिल्म 'मानसून वैडिंग' फ़िल्म से की थी। अच्छे अभिनय के बावजूद रणदीप को अगली फिल्म के लिए चार साल तक इंतजार करना पड़ा। 2005 में आई राम गोपाल वर्मा की फ़िल्म 'डी' में उन्हें अपने किरदार के लिए बहुत प्रशंसा मिली थी। 'डी' के बाद हुड्डा ने कई फ़िल्में की जो चली नहीं। 2010 में आई मिलन लुथरिया की फ़िल्म 'वन्स अपोन अ टाइम इन मुंबई' से उन्हें फिर अपनी खोई मंजिल मिली। इसके बाद उन्होंने साहिब-बीवी और गैंगस्टर (2011), जन्नत-2 (2012) और रंग रसिया (2014) में महत्वपूर्ण किरदार निभाए। फिल्म 'लाल रंग' में शकंर की भूमिका को काफी सराहा गया। उन्हें सबसे ज्यादा प्रसिद्धि हाई-वे (2014), सरबजीत (2016) और स्वातंत्र्य वीर सावरकर से मिली।  
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Wednesday, December 6, 2023

सिनेमा में बागी और बगावत का लम्बा दौर

- हेमंत पाल

       राजनीति में बागियों और उनकी बगावत को बेहद हिकारत की नजर से देखा जाता है। समझा जाता है कि उन्होंने पार्टी के साथ दगा करके कोई अक्षम्य अपराध किया है। लेकिन, जब ये बागी अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं, तो उन्हें हाथों-हाथ लिया जाता है। राजनीति में भी ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जब नेताओं ने नाराज होकर बगावत की और उन्हें सफलता भी मिली। राजनीति ने जब अपना स्वरूप बदला तो ऐसा अकसर देखा गया .सत्ता पक्ष का ही कोई नेता अपनी ही पार्टी को सत्ता से बाहर करने के लिए बगावत कर देता है। कभी ऐसी बगावत कुचल दिया जाता है, तो कभी बागी अपनी कोशिश में सफल भी होते हैं। राजनीति में ऐसी बगावत बिना किसी खून-खराबे के सिर्फ संख्या बल पर चलती और फलती है। सत्ता हासिल करने के लिए तो बागी बनकर बगावत करना आम है। लेकिन, कभी किसी के दिल पर राज करने के लिए समाज या परिवार के खिलाफ भी बगावत की जाती है। यानी समाज में किसी न किसी रूप में बागियों की बगावत का खेल चलता रहता है, तो फिर फ़िल्में उससे अलग कैसे रहे! कुछ ऐसा ही कई फिल्मों के कथानकों में भी देखा गया। गुस्से में नायक कभी अपने परिवार से, कभी जमींदार के अत्याचार से और कभी व्यवस्था के खिलाफ बगावत करता है और फिल्म का अंत होते-होते अपनी बगावत को सही साबित कर देता है। 
      70 और 80 के दशक में जब डाकुओं की फिल्मों का बोलबाला था उन सभी का कथानक बगावत पर ही केंद्रित रहा। याद किया जाए तो धर्मेंद्र, विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन ने ऐसी कई फिल्मों में काम किया जिसमें बगावत के बाद वे बंदूक उठाकर जमींदार के दम्भ को चकनाचूर कर देते हैं। बिंदिया और बंदूक, पत्थर और पायल, कच्चे धागे, गंगा की सौगंध, पानसिंह तोमर, पुतलीबाई और सोन चिरैया जैसी दर्जनों फिल्मों में ऐसे ही कथानक थे। दरअसल, सिनेमाघरों के अंधेरे परदे पर भी बागी और बगावत का खेल तब से खेला जा रहा है, जब सिनेमा ने बोलना सीखा ही था। यूं तो सिनेमा में बगावत राज दरबार से जुड़े कथानकों वाली फिल्मों में भी दिखाई देती रही। लेकिन, जब परदे पर प्यार बिखेरने वाले नायक-नायिकाओं के प्रेम के रास्ते पर समाज कांटे बिखेर देता है, तब यही नायक या नायिका बगावत पर आमादा हो जाते हैं। क्योंकि प्यार और जंग में सब कुछ जायज है। कम आश्चर्य की बात नहीं कि हर दूसरी फिल्म में बागी और बगावत का कथानक होने के बावजूद फिल्मों के नाम या गीतों में बागी या बगावत जैसे नाम कम ही दिखाई दिए। 'बगावत' नाम से तो एक ही फिल्म बनी, जबकि 'बागी' शीर्षक का फिल्मों में कई बार उपयोग किया गया। यहां तक कि 'बागी' के आगे नंबर लगाकर उसे कई बार भी बनाया गया। लेकिन, ऐसा कोई गीत याद नहीं आता जिसमें 'बागी' या 'बगावत' शब्द का उपयोग किया गया हो।
     'बागी' शीर्षक से पहली फिल्म 1953 में प्रदर्शित हुई, जिसमें तलवारबाज नायक रंजन के साथ सायरा बानो की मां नसीम बानो नायिका थी। इसके खलनायक थे प्राण जो अपने ही राज्य के राजा के खिलाफ बगावत करके गद्दी हथिया लेते हैं। तब एक बागी खड़ा होता है, जो राज गद्दी के साथ राजकुमारी को भी हासिल कर लेता है। 'बागी' के कलाकारों में मुकरी, अनवर हुसैन, शम्मी और बीएम व्यास थे। फिल्म का एक गीत 'हमारे बाद दुनिया में हमारे अफसाने जवां होंगे, बहारें हम को ढूंढेंगी मगर हम जाने कहां होंगे' बहुत लोकप्रिय हुआ था। इसके पांच साल बार रंजन एक बार फिर बागी बने और मधुबाला के साथ उनकी फिल्म 'बागी सिपाही' आई, जिसे फेंटेसी बनाने में माहिर भगवान दास वर्मा ने बनाया था। फिल्म में चंद्रशेखर और भी निशी दिखाई दिए थे। यह फिल्म रोम के प्रसिद्ध शासक नीरो की कहानी पर आधारित थी।
     ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में जो बगावत दिखाई जाती थी, उसमें ज्यादातर फिल्में ऐसी थी जिसमें कूूर सेनापति सीधे-साधे राजा के खिलाफ बगावत करके उसे जेल में डाल देता था। ऐसे दगाबाज सेनापतियों के किरदार जीवन, अनवर हुसैन, हीरालाल, तिवारी और बीएम व्यास जैसे कलाकारों ने बखूबी निभाए। बाद में प्राण और प्रेम चोपड़ा ने भी कभी राजगद्दी और कभी राजकुमारी को पाने के खातिर ऐसी भूमिकाएं की। 1964 में एक बार फिर सिनेमा के परदे पर बागी के दर्शन हुए। इस फिल्म में क्रूर सेनापति जीवन के रथ के नीचे एक बच्चा कुचल जाता है। उसके पिता सेनापति के बेटे का अपहरण करके उसे बाप के विरूद्ध बागी बना देते हैं। यह बागी होता है प्रदीप कुमार जो राजकुमारी विद्या चौधरी से प्रेम करते हुए बगावत करता रहता है। फिल्म में मुमताज की भी भूमिका थी। इसका निर्देशन रामदयाल ने किया था। लेकिन, परदे पर यह फिल्म कुछ ख़ास कमांल नहीं कर पायी। इसके कई साल तक 'बागी' नाम ही सुनाई नहीं दिया। लेकिन, किशोर कुमार, कुमकुम, अनवर हुसैन, श्याम कुुमार, बीएम व्यास अभिनीत 'बागी शहजादा' परदे पर आयी, जिसमें बगावत से ज्यादा कामेडी का अंदाज था। लिहाजा यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर ढीली ही रही।  
     इसके बाद 'बागी शहजादी' नाम से से भी 1965 में प्रदर्शित हुई जिसमें हेलन, चित्रा और जयराज की प्रमुख भूमिका थी। यह फिल्म फ्रंट बेंचर्स के लिए बनी थी। लिहाजा कब आई और कब चली गई कुछ पता नहीं चला। 1993 में 'बागी सुल्ताना' नाम से फिल्म आयी और 1975 में शिवाजी गणेशन और जयललिता अभिनीत 'बागी लुटेरा' आई तो, पर दर्शकों का दिल नहीं लूट पाई। इसके अलावा प्यार में बागी बनना भी कोई नई बात नहीं थी। बस अंदाज बदला सा होता है। साठ के दशक में प्यार में बगावत पर आधारित सबसे महंगी और भव्य फिल्म 'मुगले आजम' आयी तो लगा पूरा देश ही मोहब्बत के नाम पर बगावत कर देगा। फिल्म का एक संवाद काफी चर्चित हुआ था 'यदि प्यार करना बगावत है, तो समझ लीजिए कि सलीम बागी हो गया!' इस संवाद पर दर्शकों ने खूब तालियां पीटकर इस बगावत को परवान चढ़ाया था। अस्सी और नब्बे के दशक में जब फेंटेसी फिल्मों की चमक फीकी पड़ने लगी तो परदे पर प्रेम के रंग चमकने लगे। राज कपूर की फिल्म 'बॉबी' में भी प्यार में बगावत करने वाले दो युवा प्रेमियों की कहानी को दर्शकों ने सिर आंखों पर बिठाया, तो कमल हासन और रति अग्निहोत्री की फिल्म 'एक दूजे के लिए' में बागी प्रेमियों के दुखद अंत ने दर्शकों की आंख गीली कर दी थी। 
     वैसे तो देश की आजादी के लिए भी देश भक्तों ने भी आजादी के लिए बगावत की, जिसे क्रांति नाम दिया गया। यहां बागी और बगावत के बजाए 'क्रांति' और 'क्रांतिवीर' जैसे शीर्षको वाली फिल्में आई। बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों का कारोबार करने वाली फिल्म 'आरआरआर' की कहानी भी विद्रोह पर आधारित है। यह काल्पनिक कहानी है, जो भारत के स्वतंत्रता सेनानियों अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम के इर्द-गिर्द घूमती है। जिन्होंने ब्रिटिश राज और निजाम हैदराबाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। चंबल के बीहड़ों में पनपे डाकुओं के लिए दस्यु के बजाए बागी शब्द ज्यादा पसंद किया जाता था। जब कोई व्यक्ति अत्याचारों से तंग आकर बदला लेने के लिए बीहड़ की शरण लेता था, तो कहा जाता था कि वह बागी हो गया। 
      पानसिंह तोम ,बैंडिट क्वीन और पुतली बाई ऐसे ही बागियों के जीवन पर आधारित फिल्में थी, जिनमें बागी शब्द नदारद था। 90 के दशक में सलमान खान ने एक बार फिर 'बागी' शीर्षक को परदे पर साकार कर दर्शकों को अपनी तरफ आकर्षित किया। इस फिल्म में उनके साथ नगमा पहली बार पर्दे पर नजर दिखाई दी थी। इस बगावत में किरण कुमार और मोहनीश बहल ने साथ दिया था। इसके बाद तो टायगर श्राफ ने 'बागी' शीर्षक पर कब्जा ही कर लिया। टायगर श्राफ और श्रृद्धा कपूर ने एक के बाद एक बागी शीर्षक से फिल्में देना आरंभ किया। 'बागी' से लेकर बागी-4 तक यह सिलसिला कायम है।
     बागी और बगावत दो ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ प्रायः किसी स्थापित व्यवस्था के खिलाफ आवाज या कदम उठाकर उसका विरोध करने से जुड़ा होता है। इस तरह के विरोध को अकसर बगावत कहा जाता है और बगावत करने वालों को 'बागी' नाम दिया जाता है। जबकि, बागी और बगावत दोनों ही समाज से जुड़े हुए हैं। कई बार गलत काम का विरोध करके नई दिशा देने के लिए कोई बागी हो जाता है, तो कभी किसी राज्य या राजा के खिलाफ कोई एक नायक या प्रजा बगावत को आमदा हो जाती है। कभी कभी अच्छे राजा के खिलाफ कुटील मंत्री सेना को अपने पक्ष में कर बगावत कर सत्ता हासिल करने की कोशिश करता है। वास्तव में बगावत या बागी हमेशा गलत अर्थों में नहीं है। नकारात्मक मकसद के लिए की गई बगावत जरूर गलत मानी जा सकती है, पर आजादी के मकसद, गलत व्यवस्था के विरोध, मोहब्बत की खातिर और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना तो गलत नहीं है। यही वजह है कि फिल्मों में बागी की बगावत को हमेशा सही संदर्भों में देखा गया! क्योंकि, फिल्म का नायक सही जो होता है।    
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जन 'मन' की थाह न ले पाया कोई!

    मध्य प्रदेश का अगले पांच साल का राजनीतिक भविष्य तय हो गया। भाजपा ने उम्मीद से ज्यादा सीटें पाकर यह साबित कर दिया कि चुनाव में रणनीति ही सबसे ज्यादा कामयाब होती है। भाजपा ने उसके सबूत भी दे दिए। उम्मीदवारों की जल्दी घोषणा करना, चुनाव से पहले एक बड़ी जनहितकारी योजना की घोषणा और उम्मीदवारों के चयन में सतर्कता ही भाजपा की कामयाबी का सबसे बड़ा कारण रहा। इसके विपरीत कांग्रेस हर मोर्चे पर कमजोर साबित हुई। कांग्रेस को उसका अतिआत्मविश्वास ले डूबा। 
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- हेमंत पाल

   ध्य प्रदेश के चुनाव नतीजों ने उन सारे अनुमानों को पलट दिया, जो इस बार बीजेपी के सत्ता से बाहर जाने की संभावना जता रहे थे। जिस तरह के नतीजे सामने आए, उससे निश्चित रूप से खुद भाजपा भी अचरज में होगी! क्योंकि, जनता के मन में जो था, वो भाजपा के अनुमानों से भी अलग निकला। मध्य प्रदेश में बीजेपी फिर सरकार बनाएगी, इस बात के आसार तो पार्टी को थे, पर उसके इस विश्वास में कहीं न कहीं शंका-कुशंका थी। क्योंकि, 18 साल से ज्यादा लंबे शासनकाल में एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर को भी सोचकर चला जा रहा था। बीजेपी के नेताओं को लग रहा था कि जनता कि खामोशी कहीं उनके खिलाफ न जाए! पर, ऐसा नहीं हुआ। जो नतीजे सामने आए और बीजेपी को जितनी सीटें मिली, वो उसके अनुमान से कहीं ज्यादा मानी जाएगी। इसलिए कि बीजेपी को कांटाजोड़ मुकाबले में 130 से 135 सीटों का अनुमान था, पर आंकड़ा 160 से आगे तक पहुंच जाएगा, ये सोचा नहीं गया था। वास्तव में जो हुआ, वो राजनीतिक जानकारों के लिए एक तरह से शोध का विषय हो सकता है, कि इतने लंबे शासनकाल के बाद भी कोई पार्टी जनता के दिल में कैसे बसी हुई है! जबकि, पड़ौसी छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मतदाताओं ने बाजी पलट दी। 
     मध्यप्रदेश में बीजेपी सरकार की वापसी के लिए पार्टी ने इस बार हर संभव प्रयास किए। सबसे बड़ा प्रयोग यह था कि पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव के अलावा सात सांसदों को भी चुनाव लड़ाया गया। इनमें अधिकांश वे सीटें थी, जहां से बीजेपी पिछले दो या तीन चुनाव हारी थी। अधिकांश जगह बीजेपी की स्थिति इस बार भी बेहतर नहीं बताई गई थी। यही कारण रहा कि यहां सांसदों को चुनाव लड़ाया गया और इसका नतीजा अच्छा रहा। जहां से सांसदों को मैदान में उतारा गया उन जिलों में बीजेपी का प्रदर्शन बेहतर रहा। चुनाव की घोषणा से पहले 39 उम्मीदवारों की घोषणा करना भी बीजेपी की एक महत्वपूर्ण चुनाव रणनीति का हिस्सा रहा। लेकिन, फिर भी कहीं न कहीं भाजपा के मन में यह भय तो था कि हम जीतेंगे या नहीं! क्योंकि, शुरुआती राजनीतिक जानकारियां बता रही थी, कि बीजेपी इस बार सौ का आंकड़ा भी शायद पार न करे। ऐसी स्थिति में बीजेपी सरकार से बाहर हो जाएगी और कांग्रेस को मौका मिल जाएगा। लेकिन, चुनाव नतीजों ने स्पष्ट कर दिया था कि बीजेपी ने फिर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया।  
    अब सवाल यह उठता है कि एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर का क्या हुआ? मतदाताओं में इतने साल बाद भी यह भरोसा क्यों बना रहा, कि उसके लिए बीजेपी का ही सरकार में बने रहना जरूरी है। निश्चित रूप से इस सवाल का एक ही जवाब है कि कांग्रेस सारी कोशिशों के बाद भी लोगों का भरोसा नहीं जीत सकी। लेकिन, अब यदि इसी सवाल को ज्यादा कुरेदा जाए, तो जवाब मिल जाएगा कि कांग्रेस की हार के लिए कोई और नहीं खुद कांग्रेस ही जिम्मेदार है। उसकी हार का सबसे बड़ा कारण यह माना जाना चाहिए कि कांग्रेस ने सिर्फ भाजपा की गलतियों में ही अपनी जीत को ढूंढने की कोशिश की। भाजपा के नेता हमेशा यही देखते रहे कि भाजपा कहां गलती कर रही है और उसे कैसे पटखनी दी जाए! खुद को आगे बढ़ाने या जनता का विश्वास जीतने के लिए उतने गंभीर प्रयास नहीं किए, जितने किए जाना चाहिए। जबकि, चुनाव जीतने के लिए प्रतिद्वंदी पार्टी को पीछे छोड़ने के अलावा खुद के आगे बढ़ने का माद्दा भी होना चाहिए, जो कांग्रेस नहीं कर सकी। कांग्रेस के पास भविष्य की जनहितकारी योजनाओं का कोई ठोस खाका भी नहीं था। यहां तक कि बीजेपी की 'लाड़ली बहना योजना' से मुकाबले के लिए कांग्रेस ने भी योजना की घोषणा की, पर वो विश्वास के धरातल पर खरी नहीं उतरी।
     मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कुछ महीने पहले 'लाडली बहना योजना' की बड़ी घोषणा की थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस योजना ने प्रदेश में बीजेपी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह योजना एक तरह से बीजेपी के लिए 'मास्टरस्ट्रोक' साबित हुई। साल भर पहले बीजेपी को ये अंदाजा हो गया था, कि इस बार का चुनाव आसान नहीं है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री ने गरीब महिलाओं को हर महीने हजार रुपए देने की घोषणा की और इसे आगे बढ़ाकर तीन हजार करने का भरोसा दिलाया। इसका व्यापक असर हुआ। 'लाडली बहना योजना' ने न सिर्फ बीजेपी की स्थिति को संभाला, बल्कि चुनाव में आसमान फाड़ जीत भी दिला दी। 
    शिवराज सिंह चौहान ने महिलाओं की एक सभा में मंच घुटनों के बल बैठकर इस योजना की घोषणा की थी। इसमें बीजेपी ने प्रदेश की 1.32 करोड़ से ज्यादा महिलाओं को पहले 1000 रुपए फिर 1250 रुपए महीने देना शुरू किया। यही नहीं, लाड़ली बहनों को घर देने तक का ऐलान किया। महिलाओं को फायदा होने का मतलब है कि परिवार को फायदा। इस योजना ने एक परिवार के औसतन 5 वोट पर असर डाला जो सीधे बीजेपी के खाते में गए। जबकि, पहले कहा जा रहा था कि बीजेपी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थी। लेकिन, बीजेपी को महिलाओं की इस योजना ने जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस योजना को मुख्यमंत्री ने जिस तरह प्रचारित किया, उसने अपना अलग असर छोड़ा। 
     इस बार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के पिछड़ने का एक सबसे बड़ा कारण यह भी माना जा सकता है, कि उसकी मध्य प्रदेश की राजनीति पूरी तरह दिग्विजय सिंह और कमलनाथ पर केंद्रित होकर रह गई है। पार्टी की राजनीति के हर फैसले कमलनाथ या दिग्विजय सिंह पर केंद्रित रहे। कोई भी तीसरा नेता या यूथ लीडरशिप को कांग्रेस ने आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया। यहां तक कि यूथ कांग्रेस अध्यक्ष डॉ विक्रांत भूरिया भी इसलिए अध्यक्ष बनाए गए कि वे कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के बेटे हैं। कांग्रेस ने इस आदिवासी युवा को अध्यक्ष बनाकर यह बताने की कोशिश जरूर की, कि वो आदिवासियों के संवेदनशील है। लेकिन, यूथ लीडरशिप में जो जुझारूपन होना चाहिए, वो उनमें कहीं नजर नहीं आया। खुद विक्रांत भूरिया अपना कोई असर नहीं छोड़ पाए और वह झाबुआ तक सीमित होकर रह गए। इसके विपरीत बीजेपी के पास युवा नेताओं की कमी नहीं है। उसके पास एक दर्जन से ज्यादा ऐसे नेता हैं, जो पार्टी का नेतृत्व करने में सक्षम है। 
     इस बार बीजेपी ने एक नया प्रयोग यह भी किया कि किसी भी नेता को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में सामने नहीं लाया गया। चार बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के शासन में चुनाव लड़ा गया, वे पार्टी के स्टार प्रचारक भी रहे, उनकी योजनाओं और उनकी ही चुनावी योजनाओं पर चुनाव लड़ा गया, लेकिन वे मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किए गए। पार्टी ने चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष भी केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर को बनाया। इसके अलावा भाजपा ने कई समितियां बनाकर यह चुनाव लड़ा, इसलिए यह कहा जा सकता है कि भाजपा रणनीतिक तौर पर कांग्रेस से बहुत आगे रही। साथ ही जनता को यह विश्वास दिलाने में भी सफल रही कि मध्यप्रदेश और यहां के लोगों के हित के लिए भाजपा का चुनाव जीतना ज्यादा जरूरी है। इसका फायदा भी साफ दिखाई दिया, जब भाजपा ने सरकार बनाने लायक बहुमत से आगे जाकर सम्मानजनक आंकड़ा पा लिया। जबकि, कांग्रेस में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ही रणनीति बनाते और चुनाव लड़ाने के साथ खुद भी सार्वजनिक रूप से लड़ते रहे। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं कांग्रेस की रणनीति इस बार बुरी तरह फेल हुई और वे जनता में अपना विश्वास कायम नहीं रख सके। 
      इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि बीजेपी की इस जीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने प्रदेश में धुआंधार जनसभाएं कीं। आदिवासी इलाके झाबुआ, अलीराजपुर के अलावा मालवा-निमाड़ में जहां भी कांग्रेस को जीत का प्रबल दावेदार माना जा रहा था, वहां नरेंद्र मोदी की जनसभाओं ने मतदाताओं को प्रभावित करने में कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस के बारे में कहा जाता है कि वो हर राज्य में अलग रणनीति के साथ आगे बढ़ती है। किसी राज्य में वो मुस्लिम वोटों को लुभाने की कोशिश करती है, तो किसी राज्य में 'सनातन' के आधार पर वोट पाने की रणनीति अपनाती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कमलनाथ हनुमान जी के भक्त हैं। लेकिन, वे सिर्फ चुनाव के दौरान ही अपनी भक्ति दिखाते हैं। वहीं दिग्विजय सिंह अपनी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के कारण कई बार आलोचनाओं का शिकार हो चुके हैं। ये और ऐसे बहुत से कारण है जो कांग्रेस की हार और भाजपा की जीत का कारण बने। अब कांग्रेस को आत्ममंथन करना होगा कि उनकी हार का कारण क्या रहा! क्या कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का जादू अब मध्यप्रदेश में पूरी तरह ख़त्म हो गया!    
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परदे पर हमेशा पसंद किए गए कोर्ट रूम कथानक

    फिल्म के किसी कोर्ट वाले दृश्य में गवाह का ये कहना 'मैं गीता पर हाथ रखकर कसम खाता हूँ' हमेशा ही फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने का आधार बनता है। दर्शकों ने वास्तविक अदालत की कार्रवाई भले न देखी हो, पर फिल्मों में दिखाई देने वाली इन कार्रवाइयों से उन्हें पता चलता है कि अदालतों में किस तरह की जिरह होती होगी। कोर्ट रूम ड्रामा पर बनी अधिकांश फिल्मों का सफल होना इसी बात का संकेत है। 'एक रुका हुआ फैसला' जैसी कुछ फिल्मों ने तो बरसों बाद भी दर्शकों को बांधे रखा हैं।  

- हेमंत पाल

   अदालत में जब किसी दिलचस्प मामले पर बहस होती है, तो उसे सभी देखना चाहते हैं। फिर वे दृश्य रियल हो या फ़िल्मी। कोर्ट रूम ड्रामे पर कई फिल्में बनी और उनमे से ज्यादातर को पसंद किया गया। इन फिल्मों को समीक्षकों के साथ दर्शकों ने भी सराहा। इन फिल्मों में कुछ फिल्मों में कॉमेडी का मसाला डाला गया तो कुछ में थ्रिल था। इसलिए कहा जाता है कि कोर्ट ड्रामा पर आधारित फिल्में और वेब सीरीज हमेशा से ही दर्शकों को रोमांचित करती रही है। कोर्ट कथानक विषय को लगभग हर वर्ग के दर्शक पसंद करते हैं। कोर्ट रूम में होने वाले खुलासे दर्शकों को सीट से बांध देते हैं। ऐसी कई फिल्में आई जिनके कोर्ट रूम ड्रामा के रोमांच ने दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर दिया। परदे पर जब दो वकील बहस करते हैं, तो दर्शक खो जाते हैं। यह भी सच है कि फिल्मों में अदालत के दृश्यों को बहुत मेहनत से तैयार किया जाता है। क्योंकि, कोर्ट सीन को बेहतर बनाने के लिए दोनों पक्षों को जोरदार संवाद की जरूरत होती है। दरअसल, अदालत की कार्यवाही हमारे समाज और न्यायतंत्र का अहम हिस्सा है। इसलिए कई फिल्मों में ऐसी कार्यवाही को अहम स्थान दिया गया। कई फिल्में तो ऐसी है, जिनका क्लाइमेक्स या कथानक का मोड़ ही कोर्ट रूम सीन रहा।
      फिल्मों में अदालती कार्यवाही के दृश्यों की रोचकता ऐसा महत्वपूर्ण पहलू होता है, जहां से या तो कहानी का प्लॉट तैयार होता है या फिर ये फिल्म का क्लाइमेक्स बनता है। जिस भी फिल्म में अदालत की कार्रवाई के दृश्य दिखाए जाते हैं, वे वहीं ख़त्म नहीं हुए, बल्कि आगे के दृश्यों में भी उसका जिक्र होता रहा। ऐसे दृश्यों में किसी गवाह का ये कहना कि 'मैं गीता पर हाथ रखकर कसम खाता हूँ' फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने का आधार बनते हैं। क्योंकि, गीता पर हाथ रखकर जरुरी नहीं कि वो गवाह सच बोल रहा है। जरुरी नहीं कि फिल्मों के सभी दर्शकों ने वास्तविकता में अदालत की कार्रवाई देखी हो, पर फिल्मों में दिखाई देने वाली इन कार्रवाइयों से उन्हें इतनी जानकारी तो मिलती ही है, कि अदालतों में किस तरह की जिरह होती होगी। निश्चित रूप से वास्तविक अदालतों के मुकाबले फ़िल्मी अदालतें ज्यादा नाटकीयता होने के साथ दर्शकों को बांधने में भी कामयाब भी होती हैं। अदालतों की गंभीर कार्रवाइयों पर बनी अधिकांश फिल्मों का सफल होना इसी बात का संकेत है। कुछ फ़िल्में तो बरसों बाद भी दर्शकों को बांधे हैं।         
      ऐसी ही एक फिल्म 1986 में आई थी बासु चटर्जी की 'एक रुका हुआ फैसला' जो आज भी अनोखी फिल्म कही जाती है। ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तो बहुत ज्यादा सफल नहीं हुई, पर जिसने भी देखा, इससे बंधकर रह गया। इसका कथानक इतना दमदार था कि इसे अभी तक की बेहतरीन कोर्टरूम ड्रामा फिल्मों में गिना जाता है। ये कहानी ज्यूरी के सदस्यों के बीच तनाव, कशमकश और न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दर्शाती है। खास बात यह कि पूरी फिल्म एक कमरे में ही फिल्माई गई। अब इस फिल्म को फिर से बनाया जा रहा है। फिल्म इतिहास को खंगाला जाए तो बीआर चोपड़ा ने 1960 में 'कानून' बनाई थी। बिना गानों वाली इस पहली फिल्म की कहानी अख़्तर उल-ईमान और सीजे पावरी ने लिखी थी। इसमें मौत की सजा के खिलाफ एक मामले को दिखाया था। इसमें तर्क दिया था कि गवाहों को भी धोखा दिया जा सकता है और झूठी गवाही किसी को फांसी तक ले जा सकती है। फिल्म में हत्या के एक मामले पर जिरह दर्शाती है, जहां जज (अशोक कुमार) का भावी दामाद (राजेंद्र कुमार) हत्या के एक मामले में बचाव पक्ष का वकील है। उसे अपने होने वाले ससुर पर शक होता है। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म का क्लाइमैक्स चौंकाने वाला था।
      राज कपूर की 1951 में आई फिल्म 'आवारा' में उनके पिता पृथ्वीराज कपूर ने वकील और जज का किरदार निभाया था, जो एक गलतफहमी की वजह से जन्म से पहले ही अपने बच्चे और पत्नी का त्याग कर देते हैं। पिता की नाइंसाफ़ी और ज़िंदगी की दुश्वारियां एक बच्चे को आवारा बना देती हैं। उसे अदालत के कड़े इम्तिहान से गुज़रना पड़ता है, जहां बेगुनाही के रास्ते में उसका पिता ही दीवार बन जाता है। इस फिल्म में वकील बनीं नरगिस के साथ पृथ्वीराज कपूर की जिरह ने इस कोर्ट रूम ड्रामें को रोचक बनाया था। राज कपूर के दादा दीवान बशेश्वरनाथ सिंह कपूर भी आखिरी दृश्यों में जज के किरदार में दिखते हैं। ये 60 के दशक की फिल्म भी क्लासिक फिल्मों में थी।
    यश चोपड़ा की चर्चित फिल्म 'वक़्त' की कहानी भी एक परिवार के बिखरने से शुरू होकर हत्या के इल्ज़ाम में फंसे एक भाई को दूसरे भाई द्वारा बचाने पर ख़त्म होती है। इसमें कोर्ट के यादगार दृश्य हैं। सुनील दत्त वकील के किरदार में थे, जबकि राज कुमार हत्या के आरोपी होते थे। 'वक़्त' को हिंदी सिनेमा की पहली मल्टीस्टारर फ़िल्म कहा जाता है। 1962 में आई फिल्म 'बात एक रात की' शंकर मुखर्जी निर्देशित फिल्म रहस्य, रोमांच से भरपूर कोर्ट रूम ड्रामा थी। इस फिल्म का संगीत भी बेहद हिट रहा। इसमें फ़िल्म की नायिका वहीदा रहमान पर हत्या का आरोप लगता है, जिसे वो स्वीकार भी कर लेती है। लेकिन, वकील बने देव आनंद को आरोपी के इकबाले-जुर्म पर विश्वास नहीं होता। यहीं से इस रोमांचक कोर्ट रूम ड्रामा शुरू होता है। 
    अदालत के ड्रामे वाली फिल्मों में 1983 की फिल्म 'अंधा कानून' को भी गिना जा सकता है। फिल्म में अमिताभ बच्चन (जां निसार अख्तर) की फॉरेस्ट ऑफिसर की भूमिका थी, जिनका चंदन तस्करों से संघर्ष होता है, जिसमें एक तस्कर मारा जाता है। इसका इल्जाम अमिताभ पर लगता है और उसे सजा सुना दी जाती है। जेल की सजा भुगतने के बाद सच सामने आता है कि जिसकी हत्या के आरोप में सजा सुनाई गई, वो जिंदा है। उसके बाद फिल्म का क्लाइमेक्स बेहद नाटकीय था। 'मेरी जंग' (1985) में भी अदालत के लंबे सीन थे। फिल्म के एक सीन में वकील का किरदार निभा रहे अनिल कपूर जहर देने के आरोप को झुठलाने के लिए कोर्ट में जहर पी लेते हैं। इस फिल्म का बड़ा हिस्सा कोर्ट में शूट किया गया था। लेकिन, 1993 की फिल्म 'दामिनी' में सनी देओल का वकील के किरदार को दर्शक आज भी नहीं भूले। फिल्म का 'तारीख पर तारीख ... ' वाला डायलॉग बेहद चर्चित हुआ। यह फिल्म एक घरेलू नौकरानी के साथ हुए बलात्कार मामले के इर्द-गिर्द घूमती है। 
    नाम से ही अदालत के कथानक का अहसास कराने वाली फिल्मों में 2013 में आई फिल्म 'जॉली एलएलबी' भी है। फिल्म में कॉमेडी के जरिए गंभीर संदेश दिया। एक जूनियर वकील जॉली एक हाई प्रोफाइल हिट एंड रन मामले से जुड़ जाता है और सिस्टम से टकराता है। चार साल बाद 2017 में इस फिल्म का सीक्वल 'जॉली एलएलबी-2' नाम से बना। इसमें एक गैर संजीदा वकील जॉली (अक्षय कुमार) एक फर्जी एनकाउंटर के केस से जुड़कर लड़ता है। दोनों ही फिल्मों में जज की भूमिका में सौरभ शुक्ला ने जबरदस्त काम किया था। 2012 की फिल्म 'ओ माय गॉड' धर्म के नाम पर समाज में फैलाए पाखंड पर चोट करती है। नास्तिक कांजी (परेश रावल) की दुकान भूकंप के कारण ढह जाती है और इंश्योरेंस कंपनी इसे 'एक्ट ऑफ गॉड' करार देकर इंश्योरेंस राशि का भुगतान करने से इंकार कर देती है। परेशान होकर कांजी भगवान पर मुकदमा दायर कर देता है। इस अनोखे मुकदमे के कारण कई की पोल खुलती है और कोर्ट रूप में हंसी का माहौल बनता हैं। ये फिल्म तेलुगु में भी 'गोपाला-गोपाला' के नाम से बनी थी। अब्बास-मस्तान की फिल्म 'एतराज' (2004) भी ऐसी ही थी, जिसकी कहानी बलात्कार के एक झूठे आरोप को लेकर बुनी थी। इसमें प्रियंका चोपड़ा ने निगेटिव किरदार किया था। वो अपने पूर्व प्रेमी अक्षय कुमार पर बलात्कार का झूठा आरोप लगाती है। इसमें करीना कपूर भी थी, जो अक्षय कुमार की पत्नी होने के साथ वकील भी है, वो पति के बचाव में खड़ी हो जाती है।
      'रुस्तम' (2016) को भी कोर्ट रूम की यादगार फिल्म कहा जाता है, जो नौसेना के एक अधिकारी के जीवन से जुड़ी सच्ची घटना पर आधारित थी। नौसेना का एक अधिकारी गोली मारकर एक व्यक्ति की हत्या कर खुद को कानून के हवाले कर देता है। अब ज्यूरी को इस बात का फैसला करना होता है कि ये साजिश के तहत की गई हत्या है या फिर आत्मरक्षा में गोली चलाई गई। अक्षय कुमार को इस फिल्म में बेहतरीन अभिनय के लिए नेशनल अवार्ड मिला था। इसी साल आई 'पिंक' (2016) बलात्कार जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बनाई गई थी। इसमें अमिताभ ने वकील की भूमिका की थी। 'पिंक' को सामाजिक मुद्दों पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इसे तमिल में 'नेरकोंडा परवाई' (2019) और तेलुगु में 'वकील साब' (2021) के नाम से बनाया गया। अजय बहल की निर्देशित फिल्म 'आर्टिकल 375' (2019) को भी बेहतरीन कोर्टरूम ड्रामा फिल्म कहा जाता हैं। फिल्म की कहानी बलात्कार के एक केस के आसपास घूमती है। फिल्म में कोर्ट की कार्यवाही बिना किसी लाग-लपेट के दिखाने की कोशिश की गई। 
    कुछ साल पहले 2018 में आई फिल्म 'मुल्क' भी कोर्ट रूम ड्रामा थी। अनुभव सिन्हा की ये फिल्म इस बात को जोर से उठाती है कि 'सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं होते।' इस फिल्म की खासियत यह है कि यह बेहतर हिंदू या बेहतर मुसलमान बनने की बजाए बेहतर इंसान बनने की बात करती है। क्योंकि, संविधान के मुताबिक इस देश में सबको रहने का पूरा अधिकार है। यह फिल्म कुछ गंभीर मुद्दों और आतंकवाद के अन्य चेहरों पर ध्यान केंद्रित करती है, जिन्हें छुपाया जाता है। फिल्म में तापसी पन्नू और आशुतोष राणा ने वकील की भूमिका निभाई थी। इसी साल (2023) आई मनोज बाजपेयी की फिल्म 'सिर्फ एक बंदा काफी है' अदालत की कार्रवाई पर बनी रोचक फिल्मों में एक है। सच्ची घटना पर बनी फिल्म में मनोज बाजपेयी ने वकील पीसी सोलंकी की भूमिका निभाई। यह एक ऐसे वकील की कहानी है, जो एक बड़े धर्मगुरु के खिलाफ अकेले केस लड़कर पीड़िता को न्याय दिलाता है। फिल्म में मनोज बाजपेयी ने वकील की जबरदस्त भूमिका निभाई है।
    इसके अलावा 'ट्रायल बाय फायर' (2023) दिल्ली के उपहार सिनेमा के अग्निकांड की कहानी पर बनी फिल्म थी। 'गिल्टी माइंड्स' (2022) की कहानी दिल्ली की दो लॉ फर्म के इर्द गिर्द घूमती है। 'शाहिद' (2013) फिल्म शाहिद आज़मी की सच्ची कहानी पर बनी थी, जिन्हें 1994 में स्टेट के खिलाफ साजिश करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। सजा काटने के दौरान शाहिद ने कानून की पढ़ाई की और जेल से बाहर आने के बाद उन लोगों का बचाव किया जिन पर आतंकवाद का गलत आरोप लगा था। उन्होंने 17 लोगों को ऐसे आरोपों से मुक्त करवाया था। इसके अलावा 'शौर्य' (2008) फिल्म केके मेनन के बेहतरीन अभिनय और सबसे अच्छे मोनोलॉग के लिए याद की जाती है। इसके अलावा वीर जारा, मेरा साया, नो वन किल्ड जेसिका, कोर्ट, सबसे बड़ा खिलाड़ी, दो भाई और 'क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता' फिल्मों का कथानक कोर्ट रूम पर आधारित था। अभी ये दौर ख़त्म नहीं हुआ, जल्द ही कोई कोर्ट रूम ड्रामा देखने को मिल सकता है।   
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