Sunday, January 31, 2016

वक़्त के साथ बदलता रहा नायक


हेमंत पाल 

  समय, काल और परिस्थिति के मुताबिक फिल्मों ने भी अपने आपको बहुत बदला है। फिल्मों का रंग बदला, वो श्वेत-श्याम से रंगीन गई! कथानक में आधुनिकता आ गई! संगीत प्रयोग होने लगे! और जब फ़िल्में बदली तो सबसे पहले बदला फिल्मों का नायक! वो नायक जो फिल्म के केंद्र में होता है। फिल्म की कहानी इसी किरदार के आसपास घूमती है। फिल्म को दर्शकों की पसंद के अनुरूप ढालने में यही एक किरदार होता है, जो प्रमुख भूमिका में होता है। पुरुष प्रधान समाज की तरह फिल्मों में भी नायक ही कहानी को आगे बढ़ाता है। फिल्मों में नायक का उदयकाल चालीस के दशक में आजादी से पहले ही शुरू हो गया था। यही वो वक़्त था, जब फिल्मों में सेंट्रल केरेक्टर की तरह नायक यानी हीरो दिखाई देने लगा! इस परंपरा के पहले सितारे थे पृथ्वीराज कपूर! हिंदी फिल्मों में सबसे ज्यादा पारिश्रमिक एक लाख भी उन्होंने ही लिया था। इसके बाद मोतीलाल, चन्द्र मोहन और सोहराब मोदी को नायकत्व हांसिल हुआ! 

  पचास का दशक शुरू होने से पहले यानी आजादी के दौर में परदे पर आया सिनेमा का पहला सुपर स्टार अशोक कुमार! वे पहली हिट फिल्म 'किस्मत' से शिखर पर पहुँचे! दर्शकों ने उन्हें जिस तरह सर आँखों पर उठाया, उसके सामने उस काल के सारे सितारे टिमटिमाने लगे थे। इस परंपरा को आगे बढ़ाने वाले सुपर स्टार देव आनंद, दिलीप कुमार और राज कपूर भी अशोक कुमार के नक़्शे कदम पर चले! अशोक कुमार ने ही देव आनंद को अपनी फिल्म 'जिद्दी' में भूमिका देकर पहचान दिलाई थी। बाद में देव आनंद को एवरग्रीन हीरो कहा गया! वहीँ दिलीप कुमार ट्रेजेडी किंग बने! राजकपूर की सबसे अलग शैली ने उन्हें शोमैन बना दिया!
  हिंदी फिल्मों में हमेशा से ही नायकों का वर्चस्व रहा है। उनका रूतबा भी बड़ा होता है। कहानी भी उनके मुताबिक ही लिखी जाती है। सबसे ज्यादा पारिश्रमिक भी हीरो को ही मिलता है। फिल्म की सफलता का ज्यादा फ़ायदा भी हीरो खाते जाता है। श्वेत श्याम फिल्मों के बाद जब रंगीन फिल्मों का दौर शुरू हुआ तो देव आनंद, दिलीप कुमार और राज कपूर की आड़ में शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, राजकुमार, मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, विश्वजीत और जीतेंद्र कि गाड़ी भी चलने लगी! लेकिन, किसी ने भी एक-दूसरे का रास्ता नहीं काटा! राजेन्द्र कुमार रोमांटिक हीरो बनकर जुबली कुमार बने! शम्मी कपूर ने मस्तमौला हीरो के रूप में पहचान बनाई! राजकुमार को उनकी ख़ास संवाद अदायगी ने दर्शकों में लोकप्रिय बनाया! अपनी बलिष्ठ काया के कारण धर्मेन्द्र परदे के पहले 'ही मैन' कहलाए! ... और अपनी देशभक्ति वाली इमेज के कारण मनोज कुमार बन गए भारत कुमार!  
 फिर आया सुपर-डुपर स्टार का जमाना, जिसकी नींव रखी राजेश खन्ना ने! सत्तर के दशक के मध्य में पहला सुपर स्टार बनकर उभरे इस हीरो ने लगातार 16 हिट फिल्में देकर बॉक्स ऑफिस को हिला दिया! कोई भी समकालीन हीरो राजेश खन्ना के सिंहासन के आस-पास भी नहीं आ पाया! रोमांटिक हीरो का जो क्रेज राजेश खन्ना का रहा, वो स्टारडम किसी और को हांसिल नहीं हुआ! जीतेंद्र, ऋषि कपूर, शशि कपूर, विनोद महरा और सुनील दत्त की भी फ़िल्में आती रही! हिट भी हुई, लेकिन जो दीवानगी राजेश खन्ना को लेकर थी वो किसी को नसीब नहीं हुई! दर्शकों के दिमाग पर रोमांटिक हीरो का जो भूत राजेश खन्ना ने चढ़ाया, उसे उतारा अमिताभ बच्चन ने! गुस्सैल नायक कि जो छवि अमिताभ ने परदे पर बनाई, दर्शकों के लिए बिल्कुल नया अनुभव था! 'जंजीर' से दर्शकों को 'एंग्री यंगमैन' के दर्शन हुए! बात व्यवस्था के विरोध की हो या किसी और मुद्दे की, अमिताभ हर रोल में फिट दिखे! परदे का ये ऐसा हीरो था, जो आज भी चाहने वालों का रोल मॉडल बना हुआ है!   
  90 के दशक के बाद से हीरो का चेहरा और मोहरा दोनों बदला! बड़े परदे पर तीन 'खान' का दबदबा कायम हो गया! रोमांटिक हीरो बनकर परदे पर छाए आमिर खान बाद में सामाजिक मुद्दों के पैरोकार बन गए! अपनी खास स्टाइल के कारण उन्हें वास्तविक अभिनेता माना जाने लगा! शाहरूख खान ने युवाओं में रोमांस का जादू भर दिया। जबकि, सलमान खान ने शर्मीले नायक की भूमिका से परदे पर अवतरित होने के बाद एक्शन हीरो को साकार किया! उनके समकालीन नायकों संजय दत्त, अजय देवगन और अक्षय कुमार ने भी एक्शन को अपनी पहचान बनाया! अमिताभ बच्चन के बाद खाली हुई जगह को भरने की असफल कोशिश की गई! लेकिन, फिर भी जब सिनेमा के परदे के सर्वकालीन नायक का जिक्र होगा तो सिवाए अमिताभ बच्चन के समकक्ष किसी का और का नाम लिखा जाएगा, ऐसा नहीं लगता! उनके सामने तो ट्रेजिडी किंग दिलीप कुमार की चमक भी भी मद्धम जाती है।   
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Friday, January 29, 2016

कांग्रेस के 'मिशन-2018' में क्या फिर मठाधीश उभरेंगे?




- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश में कांग्रेस इन दिनों बेहद उत्साहित है। पार्टी को कुछ सफलताएं भी हाथ लगी! झाबुआ-रतलाम लोकसभा उपचुनाव में भाजपा पूरी ताक़त झोंकने के बाद भी जीत नहीं सकी, सफलता कांग्रेस को मिली! कुछ निकाय चुनावों में भी कांग्रेस ने भाजपा को पछाड़ा! अब, कांग्रेस का सारा जोर मैहर उपचुनाव में कमाल करने पर है! इस तात्कालिक सफलता का असर ये हुआ कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव को हटाने की जो कोशिशें तेजी पकड़ रही थी, ठंडी पड गई! कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौंपने के लिए जिस 'मिशन - 2018' की स्क्रिप्ट लिखी गई थी, उसे फिलहाल किनारे कर दिया गया! शायद मैहर विधानसभा उपचुनाव को लेकर ये फैसला किया गया हो! इंतजार इस बात का है कि 'मिशन-2018' की स्क्रिप्ट में कोई बदलाव होता है या कुछ दिनों बाद उसे फिर हवा दी जाती है? 
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   मध्यप्रदेश कांग्रेस में पिछले कुछ महीनों से अध्यक्ष को लेकर खींचतान चल रही हैं! कई नेता अध्यक्ष पद की दौड में हैं। प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव पर करीब सालभर से तलवार लटक रही हैं। झाबुआ-रतलाम लोकसभा उपचुनाव जैसे हीं कांग्रेस ने जीता, वैसे हीं कांग्रेस के बडे नेताओं को अध्यक्ष की कुर्सी दिखाई देने लगी! उन्हें लगने लगा कि आने वाला समय कांग्रेस का है। अगले चुनाव में कांग्रेस फिर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो सकती है। कांग्रेस के कार्यकर्ताओ में भी उत्साह नजर आने लगा हैं। पार्टी का मानना है कि बिहार चुनाव, फिर झाबुआ चुनाव के बाद ही दिखाई देने लगा कि अब मोदी-लहर उतार पर है। जिस मध्यम वर्ग मोदी को सर पर उठा लिया था, महंगाई के कारण उसी वर्ग का भाजपा से मोहभंग होने लगा है! इसके अलावा लोग प्रदेश सरकार से भी नाराज। है जनता पर कई टैक्स और भ्रष्टाचार के मुद्दों को लेकर कांग्रेस अब 2018 के चुनाव पर नजर लगाए हुए हैं। नेताओं का मानना है कि 2018 में कांग्रेस विधानसभा चुनाव फतह कर लेगी! यही कारण है कि प्रदेश अध्यक्ष को लेकर लोगों की लार टपकने लगी हैं। बीच में जो नाम सामने आए थे, उनमें कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, मुकेश नायक और अतिउत्साही जीतू पटवारी के नाम शामिल थे। कांग्रेस ने प्रदेश सत्ता पाने के लिए 'मिशन-2018' की तैयारी के लिए कांग्रेस मध्यप्रदेश की कमान कमलनाथ को सौंपने का मन बना भी लिया! इस मिशन की तैयारी के लिए पार्टी अभी से उन्हें प्रदेश में सक्रिय करना चाहती है! लेकिन, राजनीतिक हालातों में बदलाव के कारण इसकी घोषणा रोक दी गई! 

  इतने सबक लेकर भी कांग्रेस में गुटबाजी कम हुई हो, ऐसा नहीं लगता! दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया में नहीं बनती, यह जगजाहिर हैं। दिग्विजय सिंह को मुकेश नायक भी पसंद नहीं! ऐसे में पार्टी हाईकमान ने कुछ महीने पहले फैसला किया कि दिग्विजय सिंह कमलनाथ का सम्मान करते हैं! वे आर्थिक रुप से मजबूत भी हैं! प्रदेश में उनके कई समर्थक हैं, तो उन्हें कमान सौंप दी जाए! लेकिन, ये मुहिम कांग्रेस को मिली तात्कालिक सफलता से हाशिये पर चली गई! जब कमलनाथ को पार्टी की कमान सौंपने की हलचल तेज हुई, तो सिंधिया समर्थक भी तैयारी में लग गए! उनका मानना है कि युवा होने के कारण सिंधिया के नाम पर भी विचार किया जाना चाहिए! लेकिन, पिछले विधानसभा चुनाव में सिंधिया को चुनाव प्रचार की बागडोर सौंपकर पार्टी देख चुकी है कि उनके प्रचार से पार्टी सिर्फ 58 सीटों पर सिमट गई थी! उनके राजसी व्यवहार से भी पार्टी कार्यकर्ताओं को हज़ार शिकायतें हैं! इसके बाद भी पार्टी उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंप सकती है, इस बात की उम्मीद कम ही है!    
  कमलनाथ के हाथों में मध्यप्रदेश की कमान देने की ख़बरों ने प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति को गरमा दिया था। अध्यक्ष अरुण यादव के विरोधी इससे खुश भी हुए, लेकिन मुहिम अपने अंजाम तक नहीं पहुँच सकी! यादव की नई कार्यकारिणी से नाराज नेता भी इस बहाने अपने लिए राहत खोजने लगे थे! प्रदेश कांग्रेस के नए अध्यक्ष के लिए नवंबर-दिसंबर में चुनाव होना थे! संगठन चुनाव के जरिए ही अध्यक्ष तय होना था! लेकिन, लगता है मैहर चुनाव को देखते हुए, इस फैसले को टाल दिया गया! आलाकमान ने कमलनाथ के नाम पर विचार की बात कहकर नई बहस छेड़ दी! अभी तक कमलनाथ छिंदवाड़ा तक ही सक्रिय रहे थे। विधानसभा और लोकसभा चुनाव के समय भी उन्होंने प्रदेश में कोई शिरकत नहीं की। कुछ महीने पहले जबलपुर में जरूर कमलनाथ ने यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमरिंदरसिंह राजा बरार के साथ व्यापमं घोटाले को लेकर हुए आंदोलन में हिस्सेदारी की थी। पिछले दो दशक में शायद कमलनाथ का यह पहला मैदानी आंदोलन था। लेकिन, किसी एक आंदोलन से किसी नेता की नेतृत्व क्षमता का आकलन हो जाए, कैसे संभव है? फिर एक सवाल ये भी है कि क्या कारण है, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ दोनों ही लोकसभा चुनाव तो जीत जाते हैं, पर उनके इलाके पार्टी विधानसभा चुनाव हार जाती है! यदि दोनों नेताओं का अपने इलाके में प्रभाव है तो विधानसभा सीटों पर वो असर दिखाई क्यों नहीं देता?    
  कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा प्रदेश के मुखिया की कुर्सी के लिए सबसे ज्यादा बेताब विधायक जीतू पटवारी भी दिखाई दिए! प्रदेश के 12-13 जिलो में कई आंदोलन करके वे अपना नाम सामने भी ला चुके हैं। पटवारी फिलहाल राहुल गांधी की कोर कमेटी में हैं, वे इसी का फायदा उठाने की कोशिश भी कर रहे हैं। लेकिन, उनसे किसी बड़े चमत्कार उम्मीद करना बेमानी होगा! सिर्फ राऊ विधानसभा चुनाव जीत लेना, योग्यता इसलिए नहीं माना जा सकता कि उनके प्रतिद्वंदी की हार के पीछे कुछ और कारण भी थे! जीतू पटवारी के साथ हीं मुकेश नायक को भी प्रदेश अध्यक्ष की दौड में शामिल माना जा रहा हैं! सत्यदेव कटारे के बीमार होने के बाद मुुकेश नायक को सामने आने का मौका भी मिला!  
  ये बात भी देखी जाना चाहिए कि अरुण यादव को चुनावों में जीत के रूप में लगातार संजीवनी मिल रही हैं! आंबेडकर जयंती पर राहुल गांधी की महू में हुई सभा को भी काफी सफल माना गया! इस कारण भी अरुण यादव को अपने सफल नेतृत्व को साबित करने का समय मिला! झाबुआ-रतलाम लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस की शानदार जीत के बाद एक बार फिर कांग्रेस को लेकर वोटर गंभीर दिखे हैं। अरुण की 'जन विश्वास पदयात्रा' को भी अच्छा प्रतिसाद मिला, जो इस बात संकेत है कि उनके नेतृत्व की असली परीक्षा अभी नहीं हुई! 
  कांग्रेस हाईकमान ने जब प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए अरुण यादव पर भरोसा जताया था, तब इसके पीछे  कारण ओबीसी कार्ड चलना भी रहा! पार्टी कार्यकर्ताओं को यह संदेश देने की कोशिश भी की गई थी कि अब प्रदेश के मठाधीशों की ज्यादा नहीं चलेगी! एक कारण जातीय समीकरणों को साधना रहा था! भाजपा ने अपने शासनकाल में तीन मुख्यमंत्री उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराजसिंह चौहान दिए, जो ओबीसी वर्ग से आते हैं। यादव के बहाने कांग्रेस ने इस वोट बैंक में भी जनाधार बढ़ाने का प्रयास किया! जब अरुण यादव नाम चला, तब ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी यह जिम्मेदारी देने का विचार किया गया था! कमलनाथ समर्थक बाला बच्चन के नाम पर भी विचार किया गया था। लेकिन, मौका अरुण यादव को दिया गया! लेकिन, लगता है उन्हें सफलता मिलने में थोड़ी देर लगी! यदि वक़्त पार्टी ने फिर पत्ते फैंटने कि कोशिश की, तो बाजी पलट भी सकती है! 
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(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)

Thursday, January 21, 2016

ये हैं अभिनय की मंडी के बाल मजदूर!


- हेमंत पाल 
   इन दिनों टीवी सीरियल और विज्ञापनों की दुनिया में बच्चे एक अहम किरदार अदा कर रहे हैं। सीरियलों में तो बच्चे दिखाई दे ही रहे हैं! विज्ञापन के जरिए घरेलू प्रोडक्ट भी बच्चों से बिकवाने की कोशिश हो रही है। वाशिंग पाउडर से लगाकर इलेक्ट्रॉनिक सामानों के विज्ञापन भी बच्चे कर रहे हैं, जिनका उनसे कोई वास्ता नहीं होता! यही स्थिति सीरियलों और कुछ हद तक फिल्मों की भी है। बाल कलाकारों के बगैर तो कोई सीरियल ही पूरा नहीं होता! लेकिन, शायद कभी किसी ने नहीं सोचा कि बाल किरदार अदा करते-करते इन बाल कलाकारों का बचपन छिनता जा रहा है। न तो इन बच्चों की पढाई पूरी हो पा रही है और न वे अपने बचपन को ही जी पा रहे हैं! ये सभी बाल कलाकार बाल मजदूर बनकर रह गए! इस बात से इंकार नहीं कि बच्चे जिंदगी के हर पहलू में सबसे अहम रोल अदा करते हैं! तो फिर टीवी सीरियल और विज्ञापन उनके बिना कैसे पूरे होंगे? टीवी पर तो बच्चे इन दिनों मुख्य भूमिका में हैं।

   ये बाल कलाकार टीवी के परदे से पर ही नहीं, फिल्मों तक में करिश्मा कर रहे हैं। टीवी सीरियलों में तो बच्चे बड़े कलाकारों जैसा ही अहम रोल निभा रहे हैं। उड़ान, ये जो है मोहब्बतें, बाल हनुमान, महाराणा प्रताप जैसे सीरियलों को जरा याद कीजिए! सर्फ़ एक्सेल, महेन्द्रा ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स के विज्ञापनों में भी बच्चे ही तो अहम है। फ़िल्में भले ही सौ-सौ करोड़ रुपए का कारोबार कर रही हो, पर देश में सिनेमा से कई गुना ज्यादा दर्शक टीवी के हैं! यही कारण है कि पिछले कुछ समय से बच्चों को केंद्र में रखकर ही सीरियलों में उनके लिए रोल लिखे जा रहे हैं! विज्ञापन भी बच्चों को केंद्र में रखकर बनाए जा रहे हैं। सीरियल के अलावा रियलिटी शो भी बच्चों पर बन रहे हैं। वक्त बदल गया है। बच्चे अब बड़े कलाकार हैं, बड़ों से भी बड़े। लेकिन, इस सारी कवायद में उनका बचपना छिन गया और वे वक़्त से पहले बड़े हो गए!
  विज्ञापनों और सीरियलों में इन बाल कलाकारों के ज्यादा काम करने से उनके आराम, पढाई, विकास और बचपन पर खासा असर हो रहा है। क्योंकि, इन बच्चों के माता-पिता को भी बच्चों की कमाई का ज्यादा ध्यान है! ऐसे ही एक बाल कलाकार के परिजन का कहना है कि यह सब जीवन का हिस्सा है। इससे बच्चों का बचपन खिलकर सामने आ रहा है। उनकी कमियां तलाशने के बजाए, बच्चे जिस तरह से टीवी इंडस्ट्री को चला रहे हैं, उसे उनकी सफलता के नजरिए से देखा जाना चाहिए! जबकि, एक सीरियल निर्देशक का मानना है कि अब टीवी में बच्चों के लिए स्कोप बहुत बढ़ गया है। उनके सपने भी बड़े हो गए! इसे गलत भी नहीं कहा जा सकता! लेकिन, ये नजरिया रखने वाले निर्देशक भी हैं, जिनका मामना है कि इन कलाकार बच्चों के सपने बड़े नहीं होते! ये सपने उनके घरवाले अपने दिमाग में लेकर चलते हैं। बच्चे टीवी में एक्टर बनने नहीं आते, वो तो इसलिए आते हैं क्योंकि परिजन उनको इसके लिए प्रेरित करते हैं।
 महाराष्ट्र सरकार ने एक बार इस तरह का सवाल उठने पर सीरियलों में काम करने वाले बाल कलाकारों से काम लेने वाले निर्माताओं और उनके माता पिता पर कार्रवाई करने का ऐलान किया था। इसलिए कि सरकार को लगा कि बच्चों से उनकी क्षमता से ज्यादा काम लिया जा रहा हैं। ये बालश्रम कानून के तहत अपराध की श्रेणी में आता है। बाल श्रम (रोकथाम और नियमन) कानून 1986 के अनुसार इनके काम की अवधि 6 घंटे से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। ख़ास बात ये कि काम की जानकारी भी सरकार को देनी होती है। लेकिन, ग्लैमर के दबाव में ऐसा कुछ हो नहीं सका!
  बच्चों और उनके परिजनों को सीरियल में काम करना अच्छा लग रहा है। बच्चों की कमाई से परिजन निहाल हो रहे हैं! सीरियल और रियलिटी शो भी मजे से चल रहे हैं, तो कानून को कौन तवज्जो दे! बच्चे कितने घंटे काम करते हैं, कैसा काम कर रहे हैं, कितना कमा रहे हैं! सरकार को इसकी जानकारी कोई नहीं देता! कोई देता भी है, तो उसमें झूठ ज्यादा होता है। 'बालिका वधु' सीरियल का प्रमुख किरदार निभाने वाली अविका गौर ने 2008 में इस सीरियल में काम करना शुरू किया था! इस दौरान उन्हें एक की भी दिन छुट्टी नहीं मिली। इससे अविका की सेहत पर असर पड़ा! बताते हैं कि उसे अस्थमा भी हो गया। उसे कभी मुंबई में शूटिंग करना पड़ती, कभी कभी साउथ में! छुट्टी के बारे में सोचना भी अविका के लिए गुनाह जैसा था! ये तो सिर्फ एक उदाहरण है, ये कहानी हर उस बच्चे की है जो परदे पर हमें दिखाई दे रहा है! क्या कोई कभी उनकी खुशियों के बारे में भी सोचता होगा? क्योकि, उनके घरवालों के लिए तो वो पैसे कमाने की मशीन है!
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Friday, January 15, 2016

इन दिनों बहुत संवेदनशील है 'मालवा'




    मध्यप्रदेश में इन दिनों जैसे शांत हालात बाहर से नजर आ रहे हैं, वास्तव में वैसा है नहीं! पिछले कुछ महीनों में कहीं भी सांप्रदायिक तनाव उभर आना सामान्य बात हो चली है! मुद्दा सिर्फ दो समुदायों के बीच तनाव बढ़ने तक सीमित नहीं है! अब तो ये सांप्रदायिक तनाव हिंसक हो चले हैं। पूरे प्रदेश में जरा सी बात या अकारण ही आग सुलगती नजर आने लगी है। सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति प्रदेश के पश्चिमी इलाके मालवा की है! मालवा इलाका कई दिनों से बेहद संवेदनशील हैं! इस इलाके के कई जिले बारूद के ढेर पर बैठे लग रहे हैं। जरा सी चिंगारी इसे कभी भी बड़ी आग में तब्दील कर सकती है। 
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हेमंत पाल 

   सांप्रदायिक दंगों क्यों होते हैं, ये सवाल बरसों से पूछा जा रहा है! लेकिन, कोई भी इसका जवाब नहीं खोज पाया! सांप्रदायिक दंगों के कारणों को लेकर कभी शोध भी नहीं हुआ! इसका बड़ा कारण है सही आंकड़ों का सामने न आ पाना और अदालतों में इन दंगों के मामलों का लंबे समय तक चलना! पूर्व आईएएस अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर का मानना था कि दंगे कभी अपने आप नहीं होते! दंगे करवाने के लिए तीन चीज़ें बहुत जरूरी है! नफ़रत पैदा करना, बिल्कुल वैसे जैसे किसी फैक्टरी में कोई वस्तु बनती हो! दूसरा, दंगों में हथियार, जिसका भी ख़ास प्रयोजन होता है! तीसरा है, पुलिस और प्रशासन का सहयोग, जिनके बिना कुछ भी मुमकिन नहीं! उन्होंने एक बार कहा था कि मैं सामाजिक हिंसा का अध्ययन कई सालों से कर रहा हूँ! इस नाते पक्के तौर से कह सकता हूँ कि दंगे होते नहीं, करवाए जाते हैं! उन्होंने बतौर आईएएस कई दंगे देखे थे! अगर दंगा कुछ घंटों से ज़्यादा चले तो मान लें कि वह प्रशासन की सहमति से चल रहा है! 
  इस बात पर भरोसा न किया जाए, पर आजाद भारत में पहला सांप्रदायिक उन्माद मध्यप्रदेश में ही हुआ था! देश में पहला दर्ज सांप्रदायिक दंगा 1961 में जबलपुर शहर में हुआ था! इसके बाद से अब तक इस तरह के तनाव उभरना आम बात हो गई! देश का जिक्र न करके बात को मध्यप्रदेश तक रखा जाए, तो पिछले एक साल के दौरान छोटी-छोटी बातों पर दोनों समुदाय कई बार आमने-सामने आ चुके हैं! खतरनाक बात ये है कि इस तरह के तनावों का मूल कारण धार्मिक रहा है। प्रदेश में बीते दिनों में जो भी सांप्रदायिक तनाव घटनाएं हुई, उसके पीछे कहीं न कहीं धर्म ही कारण रहा! देश और प्रदेश जब भी सांप्रदायिक उन्माद भड़का, उसके मूल में किसी न किसी समुदाय की धार्मिक भावनाओं का आहत होना! सहनशीलता और धैर्य की कमी के साथ-साथ और क्रिया का प्रतीकारात्मक उत्तर देना शामिल है। 
   प्रदेश में इन दिनों संभावित दंगों की सुगबुगाहट स्पष्ट सुनाई दे रही है। उस पर भी मालवा क्षेत्र में बिगड़ते हालात प्रशासन की पकड़ से दूर नजर आ रहे हैं! आश्चर्य इस बात पर कि पुलिस का खुफिया तंत्र और मुखबिरी का नेटवर्क भी इस सुगबुगाहट को भाँपने में फेल हो रहा है! इंदौर में पिछले दिनों हुई घटना के अलावा देवास, धार, आगर, खरगोन, नीमच और खंडवा में दिखाई दी! हाल ही में देवास में संघ की शाखा में बच्चों को खेलते हुए कुछ युवाओं ने मारपीट की! प्रशासन ने  कार्रवाई की तो कुछ लोगों पक्षपात पूर्ण माना! दूसरे दिन जब शौर्य यात्रा निकल रही थी, तो उसपर ईंट फेंकी गई। झंडा भी निकालकर फाड़ दिया, जिससे दूसरे समुदाय के लोग भड़क गए! लेकिन, इन दिनों मालवा का धार जिला सबसे ज्यादा संवेदनशील है। जिला मुख्यालय के अलावा धामनोद, धरमपुरी, बाग़ और अब मनावर में ऐसी ही घटना हुई! प्रशासन के लिए तो अब ये नियमित अभ्यास जैसा बन गया है! मालवा इलाका लम्बे समय से 'सिमी' के बेस कैंप के रूप में जाना जाता है। खंडवा के बाद अब इस नेटवर्क से जुड़े लोग धार जिले में सक्रिय नजर आ रहे हैं! भोजशाला के कारण ये संगठन यहाँ कभी भी बड़ा सांप्रदायिक तनाव फैला सकता हैं! 
     नीमच जिले के जावद कस्बे में ऐसा ही तनाव हनुमान जयंती के मौके पर हुआ, जब जुलूस पर पथराव हो गया! इसके बाद दोनों पक्षों की ओर से मारपीट हुई। इसके बाद भड़की हिंसा पर काबू में पाने के लिए प्रशासन ने कर्फ्यू लगाना पड़ा! धार जिले के मनावर में विश्व हिन्दू परिषद की शौर्य यात्रा के दौरान नारेबाजी और पथराव के बाद सांप्रदायिक तनाव फैला। भीड़ ने दर्जनभर दुकानों और कुछ वाहनों में आग लगा दी। इन लोगों ने दो बसें भी आग हवाले कर दी! खरगोन में तो एन दशहरे के दिन रावण दहन के बाद निकले विजय जूलूस पर पथराव के दौरान हिंसा भड़क गई थी! घटना के बाद कर्फ्यू तक लगाया गया! गड़बड़ियों की आशंका देख 'शूट एंड साइट' के भी आदेश दिए गए थे! 
 एक कड़वा सच यह भी है कि दोनों समुदायों के बीच शांति एवं सौहार्द्र की राह में इस तरह के सांप्रदायिक दंगे रोड़ा बनकर उभरते हैं। साथ ही मानवता पर ऐसा गहरा घाव छोड़ जाते हैं, जिससे उबरने में कई साल लग जाते हैं। मध्य प्रदेश में इस तरह के तनाव के भड़कने का एक कारण सोशल मीडिया को भी माना जा रहा है। ये निष्कर्ष इसलिए निकाला गया, क्योंकि प्रदेश में सांप्रदायिक घटनाओं की जो वारदातें सामने आई हैं, उनमें से अधिकांश में सोशल मीडिया की भूमिका नजर आई! धार और खंडवा में सांप्रदायिक हिंसा की जो वारदातें रहीं उनमें व्हाट्सएप्प और फेसबुक से ख़बरें फैलाई गई! संसद में दंगों को लेकर हुई बहस में गृह राज्य मंत्री किरन रिजिजू ने भी स्वीकार किया है कि ज़्यादातर सांप्रदायिक दंगे सोशल मीडिया पर आपत्ति जनक पोस्ट, लिंग संबंधी विवादों और धार्मिक स्थान को लेकर होते हैं। सन 2015 में प्रदेश के 29 जिलों में करीब 50 सांप्रदायिक वारदातें हुईं। इन घटनाओं में से 18 घटनाएं सिर्फ इंदौर जोन में हुईं! जबकि, जबलपुर जोन में 12, भोपाल में एक, उज्जैन जोन में 7 वारदात हुई। 
  एक गोपनीय रिपोर्ट के मुताबिक सांप्रदायिक तनाव उभारने वालों की साजिश का पता लगाने में पुलिस का इंटेलिजेंस नेटवर्क बेहद कमज़ोर है। ऐसी कई घटनाएं सामने आईं, जबकि पुलिस का खुफिया तंत्र सक्रिय होता तो उन्हें रोका जा सकता था! लिहाज़ा दंगों के हालात बन गए। खरगोन और सिवनी में बने दंगों के हालात के बाद पुलिस मुख्यालय ने ये रिपोर्ट तलब की थी! जिसमें इस बात का स्पष्ट ज़िक्र था कि दोनों जगहों पर पुलिस को पहले से नहीं पता था, कि हालात बेकाबू हो जाएंगे। खरगोन में दशहरे के मौके पर एक समुदाय के लोग इकट्ठा होकर पथराव करने की तैयारी में थे! खबर इंटेलिजेंस को नहीं लगी! ख़ुफ़िया तंत्र कमज़ोर होने से घंटों तक खरगोन में सांप्रदायिक तनाव बना रहा! सिवनी के बरघाट में भी पुलिस को बस स्टैंड,थाने में एक समुदाय विशेष की भीड़ इकट्ठा होने की खबर नहीं लगी! ये सलाह भी उस रिपोर्ट का हिस्सा है, जो खरगोन और सिवनी दंगों के बाद आई है। 
  सरकार और प्रशासन के सामने सबसे बड़ी चुनौती धार में बसंत पंचमी का त्यौहार शांति से मन जाना है। भोजशाला के कारण यहाँ एक बार फिर सांप्रदायिक तनाव के हालात बनते दिखाई दे रहे हैं। 2006 और 2013 के बाद इस बार भी बसंत पंचमी शुक्रवार के दिन है! इस दिन हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय विवादित भोजशाला में अपने-अपने धार्मिक कार्यक्रम करेंगे! आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) इस कथित विवादित स्थान की देखभाल करता है! उसने हिंदुओं को मंगलवार और मुसलमानों को शुक्रवार को इस जगह आने की अनुमति दी है। 12 फ़रवरी को शुक्रवार है और इस दिन बसंत पंचमी के चलते दोनों समुदाय यहां पर आएंगे। दोनों ही समुदाय यहां प्रार्थना करने पर अड़े हैं। 2013 में भी शुक्रवार के दिन ही बसंत पंचमी थी। तब भी काफी तनाव हुआ था। इस दौरान हुई हिंसा के बाद पुलिस को हवाई फायरिंग करनी पड़ी थी! क्‍योंकि, हिंदुओं ने नमाज के लिए भोजशाला खाली करने से इनकार कर दिया था। इस बार फिर ऐसे हालात न बनें, इसकी कोशिशें की जा रही है। सरकार और प्रशासन के सामने ये चुनौती सिर्फ कानून व्यवस्था तक सीमित नहीं है। मूल मुद्दा है दोनों समुदायों में सद्भाव कायम रखते हुए बसंत पंचमी की चुनौती को जीत लेना!  
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Monday, January 11, 2016

स्याह शुरुआत के बाद जिन्हें शिखर मिला!


- हेमंत पाल 

   सिनेमा का परदा इतना विशाल होता है कि उसके सामने सितारों की कोई अहमियत नहीं होती! सिनेमा के उद्भव से आज तक कई सितारे उभरे और अस्त हो गए! पर सिनेमा का परदा वहीँ का वहीँ है! दिलचस्प बात ये है कि जिन सितारों ने परदे पर छाने के लिए इस परदे पर जन्म लिया, उनमें से ज्यादातर का शुरुआती वक़्त बेहद स्याह था! यदि देव आनंद, मेहमूद, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, सलमान खान और रेखा से लगाकर कपिल शर्मा तक ने सिनेमा के परदे पर अपने अभिनय के जलवे दिखाए हैं तो यही सितारे शुरुआत नकार दिए गए थे! संघर्ष के दौर में अमिताभ बच्चन बड़े-बड़े प्रोड्यूसरों के घर के चक्कर लगाया करते थे! एक दिन वे राजश्री प्रोडक्शन के ताराचंद बड़जात्या से मिले, तो उन्हें बेहद निराशा हाथ लगी। ताराचंद ने ये कहकर मायूस कर दिया कि तुम बहुत लंबे हो, तुम्हारे लिए हीरोइन कहाँ से लाएंगे तुम हीरो नहीं बन सकते! फिर, अमिताभ को चांस मिला ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म 'सात हिंदुस्तानी' में! लेकिन, दुर्भाग्य ने अभी उनका साथ नहीं छोड़ा था! अमिताभ ने मनमोहन देसाई की फिल्म के लिए स्क्रीन टेस्ट दिया, लेकिन रिजेक्ट कर दिए गए! बाद में उसी मनमोहन देसाई ने सितारा बने अमिताभ के साथ मर्द, कुली, अमर-अकबर-एंथोनी और सुहाग जैसी आधा दर्जन हिट फिल्में बनाई!

  सलमान खान को आज हिट फिल्मों का फार्मूला माना जाता है! लेकिन, अपने पहले स्क्रीन टेस्ट में वे भी फेल हो गए थे! 'मैंने प्यार किया' के लिए 'राजश्री' को नए चेहरे की तलाश थी। कुछ लोगों ने ताराचंद बड़जात्या को सलीम खान के बेटे सलमान का नाम सुझाया। फिर स्क्रीन टेस्ट हुआ, जिसमें सलमान को रिजेक्ट कर दिया गया! एक दिन फिल्म निर्माता सुरेश भगत ने फिर ताराचंद बड़जात्या के सामने सलमान का जिक्र किया! इस बार सूरज बड़जात्या ने सलमान का स्क्रीन टेस्ट लिया। तब सलमान को सूरज बडज़ात्या का साढ़े 4 घंटे तक इंतजार करवाया था। लेकिन, इस बार सलमान को फिल्म के लिए चुन लिया गया। तब से आज तक सलमान 'राजश्री' की करीब हर फिल्म में 'प्रेम' बनकर छाए हुए हैं। एक्टिंग का टेलेंट-हंट जीतने वाले अपने समय के रोमांटिक हीरो जतीन खन्ना उर्फ़ राजेश खन्ना को भी लम्बे समय तक अपनी पहली फिल्म का इंतजार करना पड़ा था!
   सिनेमा के एवरग्रीन हीरो देव आनंद जब फिल्मों के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब उन्हें इप्टा के एक नाटक 'जुबैदा' में अभिनय का चांस मिला! इसका निर्देशन बलराज साहनी कर रहे थे। देव आनंद को 10 लाइन का एक डायलॉग दिया गया। वे उसे रातभर रटते रहे। लेकिन, अगले दिन रिहर्सल में बलराज साहनी को लगा कि बात कुछ जमी नहीं! वे झुंझला गए और देव को झिड़कते हुए कहा, 'तुम कभी हीरो नहीं बन सकते!' ये बात देव के दिल को चुभ गई! यह भी संयोग है कि जिस डायलॉग के कारण देव आनंद को बेआबरू होकर 'जुबैदा' नाटक से आउट होना पड़ा था, उसी डायलॉग सुनाकर उन्होंने 'हम एक हैं' का स्क्रीन टेस्ट पास किया था! एक ज़माने के खूंखार विलेन और बाद में हीरो बने शत्रुघ्न सिन्हा के बारे में भी कहा जाता है कि संघर्ष के दिनों में उन्हें भी रिजेक्ट किया गया! उन्हें कटे-पिटे चेहरे वाला तक कहा गया! अमरीश पुरी भी बॉलीवुड के बड़े विलेन थे! लेकिन, जीवन के पहले स्क्रीन टेस्ट में उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया था! फिर वे नाटककार सत्यदेव दुबे के लिखे नाटकों पर पृथ्वी थिएटर में काम करने लगे। जिसमें दी गई कुछ प्रस्तुतियों ने बॉलीवुड में एंट्री दिलाई।
   जाने माने कॉमेडियन महमूद जब कमाल अमरोही के पास फिल्म में काम मांगने गए तो उन्होंने महमूद को यहाँ तक कहा था कि आप अभिनेता मुमताज अली के पुत्र है, पर जरूरी नही कि एक अभिनेता का पुत्र भी अभिनेता बन सके! आपके पास फिल्मों में अभिनय करने की योग्यता नहीं है! इस तरह की बात सुनकर कोई भी मायूस हो सकता है! लेकिन, महमूद ने इस बात को चैलेंज की तरह लिया और एक दिन हिंदी फिल्मों में कॉमेडी का नया इतिहास रच दिया! सफल फिल्मों की नायिका रेखा अपनी शुरुआती फिल्मों के दौरान सांवली और मोटी थीं। उनके अनुसार उन्हें अगली डकलिंग (बदसूरत बत्तख का बच्चा) कहा जाता था! पर इसके बाद रेखा ने जो जगह बनाई, वो अलग कहानी है! जरीना वहाब ने पुणे के 'फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया' में दाखिला लिया! लेकिन, उनके सांवले रंग और सामान्य लुक को लेकर उन्हें कई बातें सुनाई गई! कहते हैं कि राज कपूर ने भी जरीना को देखते ही कह दिया था कि ये लड़की कभी हीरोइन नहीं बन सकती हैं! लेकिन, बाद में जरीना 'राजश्री' की कई सफल फिल्मों की नायिका रही है।
  लारा दत्ता थियेटर में काम करती थी! एक दिन फिल्म के लिए स्क्रीन टेस्ट का बुलावा आया, तो वे काफी उत्साहित थीं। पूरी मेहनत से स्क्रीन टेस्ट देने के बाद जब लारा ने निर्देशक से पूछा कि कब संपर्क करूं, तो उन्होंने जवाब दिया कि आप संपर्क मत कीजिए, हम खुद आपसे संपर्क कर लेंगे। फिर उनका कोई फोन नहीं आया! कोई सोच सकता है कि शबाना आजमी जैसी सभ्रांत अभिनेत्री किसी को बदसूरत कह सकती हैं? लेकिन, यह बात खुद उनके साथी कलाकार नसरुद्दीन शाह ने स्वीकारी! अनुपम खेर ने अपने टीवी शो में नसीरुद्दीन और ओमपुरी दोनों से पूछा था कि क्या शक्ल और सूरत को लेकर उन्हें कभी जिल्लत सहनी पड़ी है? तो नसीरुद्दीन ने कहा था कि शबाना आजमी ने हमारी एनएसडी की पुरानी तस्वीर देखकर कहा था कि ये दो बदसूरत इंसान, कैसे एक्टर बनने की जुर्रत कर सकते हैं?
   सिर्फ बड़े परदे के सितारों ने ही जिल्लत नहीं झेली, टीवी के कलाकारों को भी इन हालातों से गुजरना पड़ता है! अपने पहले सीरियल 'बालिका वधू' में आनंदी का रोल करके घर-घर लोकप्रिय हुई अविका गौर का कहना है कि वे अब तक सौ-डेढ़ सौ बार रिजेक्ट हो चुकी हैं। मुझे हर बार उम्मीद होती थी कि इस एड या सीरियल के लिए मुझे बुलाया जाएगा, पर जब मैं उसी प्रोजेक्ट में किसी और को देखती तो बहुत रोना आता! 2007 में 'लॉफ्टर चैलेंज सीजन-3' के लिए जब अमृतसर में ऑडिशन हो रहे थे तब दोस्तों के कहने पर आज के लोकप्रिय कॉमेडियन कपिल शर्मा भी ऑडिशन देने पहुंचे थे! लेकिन, उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया! जबकि, उनके स्कूल के दोस्त राजू सिलेक्ट कर लिए गए! ये वही राजू हैं, जो 'कॉमेडी नाइट विथ कपिल' में नौकर का किरदार निभाते हैं।
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Friday, January 8, 2016

ये कांग्रेस के टर्निंग पॉइंट का संकेत तो नहीं?



 रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव में जीत के बाद 8 निकाय चुनाव में कांग्रेस की जीत ने कांग्रेस में नई ऊर्जा का संचार किया है। उसे प्रदेश की सत्ता और करीब आती नजर आने लगी है! अब कांग्रेस के सामने मैहर विधानसभा सीट का उपचुनाव चुनौती की तरह है! पार्टी के सभी गुटों के क्षत्रप भी एक साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। ये हालात बिहार विधानसभा के नतीजों के बाद बदले हैं! यदि कांग्रेस की जीत का परचम मैहर में भी लहरा गया तो भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें उभरना स्वाभाविक होगा! क्योंकि, राजनीति में मतदाताओं की मानसिकता को समझना और उसी के मुताबिक फैसले लेना सबसे जरुरी होता है! शायद इसी मानसिकता को समझने में भाजपा से कहीं चूक हो रही है!
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 हेमंत पाल 
  किसी राजनीतिक पार्टी की सत्ता आखिर कितने समय तक सकारात्मक नतीजे दे सकती है? इस सवाल का जवाब यही हो सकता है कि जब तक उसे मतदाता स्वीकारते रहेंगे! शिवराजसिंह चौहान इस समय मध्यप्रदेश में अपनी पार्टी की तरफ से मुखिया के रूप में तीसरी पारी खेल रहे हैं! वे चौथी पारी खेलेंगे या नहीं, ये इस बात पर निर्भर है कि मतदाताओं की मनः स्थिति क्या कह रही है? और जहाँ तक मतदाताओं की मानसिकता की बात है तो ताजा संकेत भाजपा के लिए सकारात्मक नहीं लग रहे! रतलाम-झाबुआ लोकसभा सीट का उपचुनाव जीतने के बाद कांग्रेस जिस तरह बल्लियों उछल रही थी, उसे इसी तरह का उत्साह दिखाने का एक मौका और मिल गया! प्रदेश में 8 नगर परिषदों के चुनाव में कांग्रेस ने 5 पर जीत दर्ज कराकर डंका बजा दिया! देश के 8 स्थानीय निकायों के 193 वार्डों में चुनाव हुए! इनमें से भाजपा को 93 वार्डों पर विजय मिली, जबकि कांग्रेस के खाते में 60 वार्ड आए। लेकिन, नतीजे में कांग्रेस ने 8 में से 5 स्थानीय निकायों पर विजय दर्ज की! जबकि, भाजपा 3 निकाय तक सीमित रही। जबकि पिछली बार 8 स्‍थानों में से 7 स्थान भाजपा ने जीत मिली थी। यानि कांग्रेस ने मुख्यमंत्री शिवराज चौहान को बड़ा झटका देते हुए भाजपा से 4 नगरीय निकाय छीने हैं।
  रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव की जीत को कांग्रेस मध्यप्रदेश में अपनी खोई सत्ता फिर से पाने की कुंजी मानकर उत्साहित है। इस जीत को कांग्रेस प्रदेश में अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत होने का टर्निंग पाईंट भी मान रही है। पहले बिहार विधानसभा चुनाव में उम्मीद से ज्यादा सीट पाने के बाद कांग्रेस के लिए मध्यप्रदेश में रतलाम-झाबुआ सीट की जीत संजीवनी से कम नही है। अब इस जीत के उत्साह पर 8 में से 5 निकाय चुनाव जीत  लगा दी! इन सफलताओं से जहाँ प्रदेश के कांग्रेसी गुटों में एकता का स्वर गूंजा, वहीँ गुटों के सरदार माने जाने वाले नेताओं के बीच की दूरियां भी कुछ हद तक घटी! वास्तव में ये दूरी भले ही कम हुई हो या नहीं! मगर इस जीत के बाद वे एक मंच पर आकर भाजपा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने की तैयारी में जरूर लग गए हैं। अब कांग्रेस की इस जीत की सही परीक्षा मैहर विधानसभा उपचुनाव में होगी! यदि कांग्रेस यह सीट जीत लेती है, तो वास्तव में भाजपा को अगली जीत के लिए गंभीरता से सोचना होगा और नए सिरे से जतन करना पड़ेंगे! 
  भाजपा के लिए चिंता का सबसे बड़ा कारण है कांग्रेस का शहरी इलाकों में जीतना! मध्यप्रदेश के साथ ही छत्तीसगढ़ के शहरी निकाय के चुनाव में भी कांग्रेस की जीत ने भाजपा नेताओं की नींद उड़ा दी! क्योंकि, अभी तक कांग्रेस शहरी इलाके में भाजपा के वर्चस्व को चुनौती नहीं दे सकी थी। शहरी इलाकों में कांग्रेस की जीत का सीधा सा मतलब है शहरी, मध्यम वर्गीय मतदाताओं में भाजपा से नाराजी बढ़ी है! बिहार विधानसभा में भी जदयू की जीत और कांग्रेस के सफल प्रदर्शन के बाद से हालात तेजी से बदले हैं। जबकि, वास्तविकता ये है कि बिहार में राजद और जदयू ने कूटनीति के तहत कांग्रेस को ज्यादा सीटें शहरी इलाके की सीटें दी थीं! उसका मानना था कि भाजपा शहरों में ज्यादा ताकतवर है, वहां उसके सामने कांग्रेस नहीं टिकेगी! लेकिन, जब नतीजे सामने आए तो वो हैरान करने वाले रहे। कांग्रेस ने शहरी इलाकों के साथ ही सवर्ण मतदाताओं की बहुलता वाले इलाकों में भी भाजपा को चित किया! 
  बिहार उपचुनाव की उस हवा का ही असर है कि मध्यप्रदेश के साथ ही छत्तीसगढ़ के शहरी निकाय में कांग्रेस ने भाजपा को हराया है। 11 शहरी निकायों में हुए चुनाव में कांग्रेस 8 में जीती है और भाजपा को मिले 3 निकाय! जबकि, इन निकायों में हुए पिछले चुनाव में भाजपा ने 11 में से 7 निकायों में झंडे गाड़े थे! बदलाव की यही बयार मध्यप्रदेश में दिखी जहाँ 8 में से 5 निकाय में कांग्रेस जीती! कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन की बात बिहार, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश तक ही सीमित नहीं है। तीन और राज्यों कर्नाटक, तेलंगाना और महाराष्ट्र के विधान परिषद चुनावों में भी कांग्रेस ने जीत दर्ज की है। प्रदेश कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता केके मिश्रा मुताबिक भाजपा की बदली हुई बयार जो बिहार से चली, वो झाबुआ पहुंची और अब नगर निकाय चुनाव में इन पांच स्थानों पर उसे नकारात्मक संदेश मिला! नगरीय निकायों में कांग्रेस की जीत से पूरे प्रदेश की राजनीतिक फिजां बदलेगी! प्रदेश में भाजपा का पतन शुरू हो गया है। यह जीत चुनिंदा क्षेत्रों की नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश की जीत है। क्योंकि, ये पांचों नगरीय निकाय प्रदेश के अलग-अलग इलाकों के हैं। 
  पहले रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव की जीत, फिर निकाय चुनाव में मिली सफलता ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के लिए भी संजीवनी का काम किया! उनको पद से हटाने की कोशिशों में कमी भी आती दिखाई दी! लेकिन, ये दावे से कहा नहीं जा कि उनकी कुर्सी कितने दिन सुरक्षित रहेगी! अब सबसे बड़ी चुनौती ये है कि क्या कांग्रेस मैहर विधानसभा उपचुनाव में भी कमाल दिखा पाएगी? यदि कांग्रेस मोर्चा जीत लेती है, तो इस बात की पुष्टि हो जाएगी कि कांग्रेस के गुटों में बंटे सरदारों का साथ आना सही कदम था! क्योंकि, अभी तक तक के चुनावों में तो कांग्रेस ही कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी प्रतिद्वंदी रही है। यदि वास्तव में कांग्रेस गुटबाजी को किनारे रखकर एकता दिखाने में कामयाब रही, तो उसके लिए चुनौती मुश्किल नहीं है। 
   मैहर विधानसभा सीट कांग्रेस विधायक नारायण त्रिपाठी के इस्तीफे के बाद रिक्त हुई थी! वे भाजपा में शामिल हो गए और भाजपा ने उनको भाजपा प्रत्याशी बनाकर मैदान में भी उतारा है। इस सीट पर मुकाबला सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के बीच ही नहीं है! बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी भी अपनी दावेदारी दिखाने में पीछे नहीं है। क्योंकि, बसपा पहले ही यहाँ अपना ख़म ठोंक चुकी है। सतना संसदीय सीट से एक बार बसपा कांग्रेस और भाजपा दोनों को चित कर चुकी है। यहाँ से विधायक भी बसपा के खाते में बने हैं! बसपा का इस इलाके में अलग ही आधार है। ऐसी स्थिति में बसपा उम्मीदवार कांग्रेस और भाजपा दोनों के सामने त्रिकोणीय हालात पैदा कर सकता है। 2013 के चुनाव में बसपा उम्मीदवार ने कुछ ऐसा ही चुनावी संघर्ष बनाया था। वे भी कांग्रेस से अचानक बसपा में चले गए थे। यही सब नारायण त्रिपाठी ने भी किया! वे बसपा छोड़कर कांग्रेस में आए और चुनाव जीत गए! मगर बाद में उन्होंने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार अजयसिंह का विरोध किया और कांग्रेस की विधायकी से इस्तीफा दे दिया! वास्तव में ये चुनाव जीतना भाजपा के लिए इसलिए जरुरी है कि उसे अपना आत्मविश्वास फिर अर्जित करना है! कांग्रेस की जीत उसके लिए टर्निंग पॉइंट का स्पष्ट संकेत होगा।   
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Friday, January 1, 2016

'मुद्रा' देखकर भाजपा ने सौंपे जिलों के सिंहासन!


   प्रदेश भाजपा संगठन को फिर नए रूप में ढ़ालने कि कवायद शुरू हो गई! पहले मंडल अध्यक्षों के चुनाव हुए, अब जिला अध्यक्षों के नाम घोषित कर दिए गए हैं। अंतिम चरण में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का नाम फाइनल होगा! लेकिन, लगता नहीं कि सारे संगठनात्मक पाखंड के बाद भी मंडल और जिला अध्यक्षों के नामों का फैसला सर्वानुमति से हुआ है! मंडल अध्यक्षों को लेकर तो मामला बाहर नहीं आया! पर, जिला अध्यक्षों के नाम सामने आने के बाद चारों तरफ विरोध के स्वर उभरने लगे! जो जिला अध्यक्ष बनाए गए हैं, उनमें से करीब दो दर्जन नाम ऐसे हैं, जिनके नाम पर सर्वानुमति नजर नहीं आती! ऐसे में पार्टी के वो ईमानदार और निष्ठावान कार्यकर्ता पिछड़ गए, जो अध्यक्ष बनने कि उम्मीद में पार्टी नेताओं के सामने अब तक फर्शी सलाम करते रहे हैं। ये पद अब इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गए कि जिला संगठन मंत्रियों को हटा दिया गया है! जिला अध्यक्षों पर अब किसी तरह का अंकुश नहीं रहा!  000

- हेमंत पाल  
 मध्यप्रदेश के भाजपा जिला अध्यक्षों के चयन में पूरा दखल भोपाल में बैठे चंद नेताओं का रहा! भाजपा ने रायशुमारी से जिला अध्यक्ष बनाए जाने का जो प्रोपोगंडा किया था, उसका सच भी सामने आ गया! ऐसे लोग भी कुर्सी पर काबिज हो गए, जिनके नाम रायशुमारी में कहीं थे ही नहीं! उन्हें संगठन नेताओं और मंत्रियों से नजदीकी और 'पहुँच' का इनाम दिया गया! उनकी 'मुद्रा' उनकी पद प्राप्ति का सबसे बड़ा माध्यम बनी! ये कहानी किसी एक इलाके में नहीं, प्रदेश के अधिकांश जिलों में हुई! पार्टी जिस परिवारवाद से मुक्त होने, महिलाओं को राजनीति में पर्याप्त स्थान देने, भ्रष्ट आचरण वाले नेताओं से किनारा करने, युवाओं को आगे लाने और रायशुमारी से नेतृत्व को समृद्ध करने का दावा करती है, वो सब सारी कसमें यहाँ खंडित हो गई! कांग्रेस पर जिन बातों के लिए ऊँगली उठाई जाती थी, वो सारी खामियाँ अब उसी भाजपा में नजर आने लगी है, जो खुद के गंगा जैसा पवित्र होने का दावा करते नहीं अघाती थी! चुनाव में टिकटों के बिकने, संगठन में पदों कि बोली लगने जैसे आरोपों के बाद अब जिला अध्यक्षों की कथित रायशुमारी भी दागदार हो गई! 
   शुचिता और अनुशासन की बात करने वाली पार्टी ने इस बार जिला अध्यक्षों के चयन में कई अनोखे प्रयोग भी किए! पार्टी के राजनीतिक इतिहास में संभवतः ये पहला मौका है, जब पार्टी में किसी पद पर रहे बगैर कोई व्यक्ति सीधा जिला अध्यक्ष बना हो! यह प्रयोग सागर में किया गया! इस जिले की कमान राजा दुबे को सौंपी गई है। वे कभी भाजपा में किसी पद पर नहीं रहे। भाजपा के व्यापारी प्रकोष्ठ के पदाधिकारी जरूर थे! न ही वे सागर संसदीय क्षेत्र के बाशिंदे हैं। उनका गाँव सागर जिले के देवरी का तेंदुडाबर है,जो दमोह संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। राजा दुबे का भोपाल में ऑटो मोबाइल्स और रियल स्टेट का कारोबार है। यहाँ से पूर्व विधायक भानू राणा का नाम अध्यक्ष पद में सबसे आगे था। लक्ष्मण सिंह और शैलेष केशरवानी भी लाइन में थे, पर राजा दुबे कि 'मुद्रा' पकड़ भारी रही! उन्हें राजनीति में आए भी ज्यादा अरसा नहीं हुआ! वे अभी तक भाजपा में भी नहीं थे। एनजीओ के जरिए समाजसेवा कर रहे थे। 
   राजा दुबे को सागर का जिला अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर हलकों में कई कहानियाँ सुनाई जा रही है। सोशल मीडिया पर ऐसे किस्से भी सुनाये जा रहे हैं, जो पार्टी कि 'सुचिता' पर ऊँगली उठाते हैं। ऑटो मोबाइल और रियल स्टेट के कारोबारी होने के कारण राजा दुबे का ज्यादातर समय भी भोपाल में ही गुजरता है। कहा जा रहा है कि उन्हें दो मंत्रियों और संगठन के एक बड़े नेता कि नजदीकी के कारण नवाजा गया है। कहानी ये भी है कि उन्होंने सागर भाजपा का जिला कार्यालय बनवाया है, इसलिए इसकी चाभी भी पार्टी ने उन्हें ही सौंप दी! एक दिलचस्प बात ये कि सागर लोकसभा क्षेत्र के शमशाबाद के विधायक सूर्यप्रकाश मीणा को विदिशा जिले का भाजपा अध्यक्ष बनाया गया है। लोकसभा क्षेत्र के गणित के हिसाब से ये मामला भी बिलकुल विपरीत है! 
     उज्जैन में नगर अध्यक्ष का पद फिर से इकबालसिंह गांधी को सौंप दिया गया! जबकि, सच्चाई ये है कि संगठन मंत्री राकेश डागौर कार्यकर्ताओं की पहली पसंद थे। यहां किशोर खंडेलवाल और विनोद कांवड़िया के नामों पर भी कुछ विधायक अड़े थे! पर, संगठन मंत्री अपनी पसंद के इकबालसिंह को फिर जिला अध्यक्ष बनवाने में सफल रहे। गाँधी के नाम को मंत्री पारस जैन का भी समर्थन रहा! इसी तरह दमोह में मंत्री जयंत मलैया की पसंद को देखते हुए देवनारायण श्रीवास्तव को जिला अध्यक्ष बनाया गया। युवाओं को आगे बढ़ाने का दावा करने वाली पार्टी ने देवास में 72 साल के गोपीकृष्ण व्यास को जिला अध्यक्ष बना दिया। सिर्फ इसलिए कि वे पार्टी के बड़े नेता कैलाश जोशी के समर्थक हैं। एक तरफ जब पार्टी 60 के नेताओं  रिटायर करने की बात कर रही है तो 72 साल के व्यासजी क्या पार्टी नैया पार लगाएंगे। नरसिंहपुर में तो पार्टी कि हालत ये है कि वहां पार्टी को जनसंघ के ज़माने से घूम फिरकर एक ही नेता कैलाश सोनी अध्यक्ष पद के लिए नजर आ रहा है!   
  जिला अध्यक्ष पद पर परिवारवाद को प्रश्रय देने का मामला भी खुलकर सामने आया! छतरपुर में पुष्पेन्द्रप्रताप सिंह को जिला अध्यक्ष बनाया गया। जबकि, उनकी पत्नी अर्चना सिंह वहाँ कि नगरपालिका अध्यक्ष है। क्या एक ही घर में दो बड़े दिए जाने थे? मुद्दे कि बात ये है कि विधायक ललिता यादव ने पुष्पेन्द्रप्रताप सिंह के नाम का विरोध किया था, पर उनकी बात को अनसुना कर दिया गया! कहा जा रहा कि उन्हें इंदौर में पदस्थ संगठन के एक बड़े पदाधिकारी ने 'एडजस्ट' करवाया है। इसी तरह सदानंद गौतम को पन्ना जिले का फिर से अध्यक्ष बनाया गया है। क्योँकि, वे संगठन के कुछ नेताओं के बेहद करीबी थे। जबकि, पन्ना जिले के ही दो बड़े नेताओं ने उनका विरोध किया था। भिंड जिले में संजीव कांकर को संगठन नेताओं की मेहरबानी से जिला अध्यक्ष बनाया गया है। ये जानते हुए कि रीवा में संगठन मंत्री रहते उन पर विधायक अभय मिश्रा से हथियार खरीदने के आरोप लगे थे। ग्वालियर और चम्बल इलाके के तो करीब सभी जिला अध्यक्ष केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर पसंद से बनाए गए हैं। ये उसी तरह का क्षत्रपवाद है, जो कांग्रेस कि पहचान रही है। भाजपा में भी अब उसी तरह के क्षत्रप हावी हैं, जो अपने इलाके की फ़ौज के सेनापति बनकर पार्टी के अंदर ही मोर्चे लड़ाया करते हैं।    
  महिलाओं को राजनीति में सम्मानित स्थान देने और दिलवाने का दावा भाजपा कई बार कर चुकी है! लेकिन, जब पार्टी के सामने किसी महिला को संगठन में लेने या जिला अध्यक्ष बनाने का सवाल उठता है तो कन्नी काट ली जाती है। 43 जिला अध्यक्षों की लिस्ट में सिर्फ एक महिला का नाम दिखाई दिया! सिवनी से ही पूर्व विधायक नीता पटैरिया को पार्टी ने जिला अध्यक्ष का पद दिया गया है। जबकि, वे अभी भी प्रदेश मंत्री पद पर हैं। इससे पहले मंडल अध्यक्षों चुनाव में भी करीब 700 मंडलों के चुनाव में सिर्फ सारनी में एक महिला को मंडल अध्यक्ष का पद दिया गया! क्या पार्टी संगठन को चार दर्जन से ज्यादा जिलों में 8-10 योग्य महिला नेता भी नहीं मिलीं, जिन्हे जिला अध्यक्ष बनाया जा सके? 
  इंदौर जैसे जागरूक शहर में नगर अध्यक्ष पद पर 'निष्क्रिय' कैलाश शर्मा के नाम पर दोबारा मुहर लगा दी गई! जबकि, कैलाश शर्मा पर हमेशा फैसलों से बचने के आरोप चस्पा रहे हैं। अध्यक्ष के लिए रायशुमारी  की बात सामने आते ही वे यकायक सक्रिय हो गए। जबकि, अपने 23 महीने के कार्यकाल के बाद भी उन्होंने नगर कि कार्यकारिणी तक नहीं बनाई! सालभर बाद भी वे निगम के जोनल अध्यक्ष के लिए नाम तक तय नहीं करवा सके? कैलाश शर्मा को दोबारा नगर अध्यक्ष न बनने देने के लिए आखिर समय तक कोशिश की गई। वे रायशुमारी में भी पीछे थे। लेकिन, संगठन ने सबकी सलाह लेने की बात कहकर नगर और जिला अध्यक्ष के नाम घोषित कर दिए। इस पद के दूसरे दावेदार उमेश शर्मा का नाम अंत तक सामने था! लेकिन, किसी भी नेता ने भी उनका नाम आगे नहीं बढ़ाया। इस पद के तीसरे दावेदार कमल वाघेला को कोई भी महामंत्री से नगर अध्यक्ष पद देने को राजी नहीं था। 
   अशोक सोमानी को इंदौर भाजपा का जिला अध्यक्ष घोषित किया गया।  इंदौर के ही जिला अध्यक्ष पद के लिए अशोक सोमानी को लेकर भी खींचतान हुई। जिले की राजनीति में दोनों गुटों में तीन साल में कई बार आमना-सामना हुआ। बड़े नेताओं ने दोनों विधायकों को बुलाकर सहमति बनाने का प्रयास किया। लेकिन, दोनों ही गुट अपने समर्थक उम्मीदवारों के नाम पर अड़े रहे। भोपाल में हुई रायशुमारी के दौरान जब दोनों गुटों में सहमति नहीं बनी तो दोनों ने ओम परसावदिया का नाम आगे बढ़ाया, लेकिन संगठन ने अशोक सोमानी के नाम पर सहमति दे दी। 
   आदिवासी बहुल जिले धार में भी एक अनजान से चेहरे डॉ राज बरफा को जिला अध्यक्ष बना दिया गया! ये बिल्कुल अप्रत्याशित सा नाम है। ख़ास बात ये भी कि निवर्तमान अध्यक्ष रमेश धारीवाल भी कुक्षी से थे और राज बरफा भी उसी इलाके के हैं! क्या जिले का सारा भाजपा राजनीतिक कौशल कुक्षी में ही समाया है, जहाँ से पार्टी विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारी है। कभी सक्रिय राजनीति में दिखाई न देने वाले डॉ बरफा का नाम अध्यक्ष की दौड़ में भी अचानक आया! डॉ बरफा को विधायक रंजना बघेल का भी खास माना जाता है। दरअसल, इस जिले में भाजपा के कई बड़े नेता हैं और किसी की एक-दूसरे से नहीं पटती! उस सबके बीच तालमेल बैठा पाना क्या राज बरफा जैसे अदने नेता कि हिम्मत होगी? रायशुमारी के दौरान बंद कमरे में पार्टी पर्यवेक्षक महेन्द्र हार्डिया के सामने भी दो पूर्व जिला अध्यक्षों ने गंभीर आरोप लगाए थे! मुद्दे की बात ये है कि धार का जिला अध्यक्ष का चयन भी संदेह के घेरे से बाहर नहीं है! आलीराजपुर से राकेश अग्रवाल, बड़वानी से ओम खंडेलवाल, धार से डॉ राज बरफा, झाबुआ से दौलत भावसार और खरगौन से बाबूलाल महाजन को जिला अध्यक्ष बनाया गया है! जबकि, ये सभी आदिवासी जिले हैं और अध्यक्ष बनाए गए हैं गैर आदिवासी!  
  निमाडी जिले खरगौन में पूर्व विधायक बाबूलाल महाजन को जिले कमान दी गई है। जबकि, 2003 में खरगौन से विधायक रहे महाजन का टिकट 2008 में इसलिए काटा गया था कि उनपर भ्रष्टाचार और चंदाखोरी के आरोप लगे थे। अब पार्टी को उनमें ऐसी क्या ईमानदारी दिखाई दी कि उनको जिला सौंप दिया गया? क्या इस तरह के फैसले इशारा नहीं करते कि कहीं न कहीं कोई बड़ी 'गड़बड़' हुई है! आदिवासी जिले झाबुआ में किसी आदिवासी के बजाए दौलत भावसार को जिला अध्यक्ष बनाया जाना 'संदेह' की तरफ संकेत देता है। जबकि, हाल ही में हुए लोकसभा उपचुनाव में पार्टी हार चुकी है। इस हार के बाद जिला अध्यक्ष क्या किसी आदिवासी को नेता नहीं बनाया जाना था? उनका नाम झाबुआ जिले में ही जाना पहचाना नहीं है। सीधी के जिला अध्यक्ष की चुनावी प्रक्रिया में 38 नेताओं ने दावेदारी पेश की! अध्यक्ष पद के लिए भाजपा नेताओं की इतनी बड़ी फौज देखी गई। सभी अपने आपको अध्यक्ष के योग्य बताने में कोताही नहीं बरत रहे थे। कैडर बेस कही जाने वाली पार्टी में एक साथ इतने लोगों का अध्यक्ष पद की दावेदारी करना और किसी एक (लालचंद गुप्ता) को सबसे योग्य मानकर जिला अध्यक्ष बना दिया जाना, क्या 'कुछ' होने कि तरफ इशारा नहीं करता?
(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)
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