Saturday, May 19, 2018

पानी पर फिल्म बनाने से बचता क्यों है बॉलीवुड?

- हेमंत पाल

  ज जब देश के सामने पानी की समस्या विकराल रूप ले रही है, तो कोई भी फिल्मकार इस पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं! बॉलीवुड में इसे फ्लॉप प्लॉट माना जाता है। दरअसल, सिनेमा किसी भी मुद्दे को प्रभावी ढंग से लोगों तक अपनी बात पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम है। क्योंकि, लोग इसे पर्दे पर देखते हैं और इसका सीधा असर उनके जहन पर पड़ता है। देखा जाए तो सामाजिक मुद्दों को लेकर बॉलीवुड शुरू से ही सजग रहा है। फिल्मों के शुरूआती काल से 80 के दशक तक सामाजिक मुद्दों पर कई गंभीर फिल्में बनी। राजकपूर, रित्विक घटक व दूसरे निर्देशकों ने भी अपनी कई फिल्मों का ताना-बाना सामाजिक मुद्दों से बुना! मगर 80 के दशक के बाद ऐसे कई मुद्दे हाशिए पर चले गए। सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बननी कम हो गई, यही कारण है कि पानी की किल्लत पर भी फ़िल्में नहीं बन रहीं! 
  पानी की किल्लत पर भी ख्वाजा अहमद अब्बास ने 1971 'दो बूंद पानी' जैसी सामाजिक फिल्म बनाई! लेकिन, आज उस फिल्म का जिक्र तक नहीं होता। राजस्थान की पृष्ठभूमि और पानी की किल्लत पर आधारित इस फिल्म को राष्ट्रीय अखंडता के लिए पुरस्कार भी मिला था। लेकिन, 1971 के बाद से फिर पानी की समस्या पर कोई फिल्म नहीं बनी! अलबत्ता, आमिर खान ने 2001 में 'लगान' जरूर बनाई! ये फिल्म बारिश की कमी से किसानों को होने वाली परेशानी और अंग्रेज सरकार द्वारा वसूले जाने वाले लगान पर आधारित थी। अपने सशक्त कथानक के कारण फिल्म हिट रही, पर इसमें जलसंकट जैसा मूल मुद्दा दब गया। 2013 और 2014 में पानी के मुद्दे पर ‘कौन कितने पानी में’ और ‘जल’ जरूर आई थी। ‘जल’ को कच्छ के रण में फिल्माया गया था। ये बक्का नाम के एक ऐसे युवक की कहानी थी, जिसके पास दैवीय शक्ति है। इसके दम पर वो रेगिस्तान में भी पानी खोज सकता है। इस फिल्म को विदेशी भाषा की ऑस्कर अवॉर्ड फिल्मों में भारत की तरफ से भेजा भी गया था।
  निर्देशक शेखर कपूर भी कई दिनों से 'पानी' शीर्षक से फिल्म बनाने की योजना बना रहे हैं, पर अभी भी ये पेंडिंग ही है। फिल्म का मूल भाव है 'जब कुआँ सूख जाएगा, तब हम पानी की कीमत समझेंगे? इस फिल्म की कहानी 2040 के कालखंड जोड़कर बुनी गई है, जब मुंबई के एक क्षेत्र में पानी नहीं होता और दूसरे में पानी होता है। ऐसे में पानी के लिए जंग छिड़ती है, इसी जंग में प्रेम पनपता है। फिल्म में सुशांतसिंह राजपूत, आयशा कपूर और अनुष्का शर्मा हैं। इसका पोस्टर भी जारी किया गया, जिसमें एक आदमी मुंह में घड़ा लगाए दिखाया गया है, लेकिन घड़े में एक बूँद भी पानी नहीं होता! लेकिन, इस फिल्म को प्रोड्यूसर नहीं मिल रहा! शेखर कपूर ने भी इस बात को स्वीकारा कि उन्हें विदेशी प्रोड्यूसर तो फिल्म पर पैसे लगाने को तैयार हैं। लेकिन, वे चाहते हैं कि यह फिल्म भारतीय परिवेश वाली है इसलिए बेहतर हो कि प्रोड्यूसर भारतीय हो।
  फिल्म ‘कौन कितने पानी में’ दो गाँवों ऊपरी और बैरी की कहानी है। ऊपरी गाँव ऊँची जाति वालों का है और बैरी गाँव में पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं।  लेकिन, वे जागरूक हैं और पानी को सहेजते हैं। एक ऐसा समय आता है, जब ऊँची जाति वालों के गाँव में पानी की किल्लत आती है। जबकि, पिछड़ी जाति वालों के गाँव में पानी बहुलता से रहता है। इस पानी के लिए ऊँची जाति वाले बैरी गाँव से छल प्रपंच करके पानी जुगाड़ लेते हैं। फिल्म का निष्कर्ष है कि यदि पानी को सहेजा नहीं गया तो इस किल्लत से हमें निपटना पड़ेगा। देखा गया है कि पानी की सबसे ज्यादा किल्लत गरीबों को ही चुकानी पड़ती है। अमीर तो पानी खरीदकर पी लेते हैं, लेकिन गरीब पानी खरीदकर किसे पियें?
 पानी की समस्या पर बनी एक फिल्म है ‘कड़वी हवा’ जिसकी कहानी दो ज्वलंत मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक है जलवायु में बदलाव के कारण बढ़ता जलस्तर और सूखे की समस्या! फिल्म में सूखाग्रस्त बुंदेलखंड दिखाया गया है। बुंदेलखंड ऐसा इलाका है, जो हमेशा सूखे के लिए चर्चित रहता है। सूखे की समस्या के कारण यहां के किसान कर्ज में डूबे हैं। उनकी आत्महत्याओं की ख़बरें भी लगातार आती ही रहती हैं। यहां तक कि गरीब किसान पेड़ों के पत्ते उबालकर खाने को मजबूर हो जाते हैं। किसानों की बेबसी और सूखी जमीन की हकीकत दिखाती फिल्म ‘कड़वी हवा’ में संजय मिश्रा ने बेहतरीन अभिनय किया है।
  पानी की किल्लत पर कई डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है। इनमें से एक है 'थर्स्टी सिटी।' 2013 में बनी इस फिल्म में दिल्ली में पानी की किल्लत और पानी के लिए श्रमिकों के संघर्ष को कैमरे में कैद किया गया है। पानी की किल्लत पर फ़िल्में बनाने वाले निर्देशकों को इस पर काम करने का  विचार तब आया, जब उन्होंने अपनी आँखों से इस समस्या को देखा और महसूस किया! मानव अस्तित्व से जुड़ी इस गंभीर समस्या को समझते हुए फिल्म बनाने का साहस कर रहे हैं, यह अच्छी बात है। इससे यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि संगीन विषयों पर सार्थक फिल्में बनाने वाले दूसरे निर्देशक भी आगे आएंगे। वे पानी की समस्या को रूपहले पर्दे पर उकेरकर पानी का कर्ज उतारेंगे और अपना सामाजिक दायित्व पूरा करेंगे।
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Tuesday, May 15, 2018

इंदौर के उलझे समीकरणों में भाजपा के लिए चुनाव मुश्किल!


- हेमंत पाल 


  इंदौर में पाँच सालों से राजनीतिक सन्नाटा था, पर जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, सरगर्मी बढ़ने लगी। कहा जा सकता है कि मौसम से ज्यादा गर्मी राजनीतिक माहौल में आ रही है। चुनाव से पहले भाजपा लोगों को आकर्षित करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती, इसलिए नगर निगम के मार्फ़त करोड़ों के काम के भूमिपूजन करवाए गए। जिले के प्रभारी मंत्री जयंत मलैया ने तीन दिन इंदौर में डेरा डाला, कई जगह फीते काटे और कुदाली चलाई! साथ ही उन्होंने जनता के बीच उन विधायकों का वजन भी आँका, जिन्हें पार्टी को फिर मैदान में उतारना है! शहर के 6 विधानसभा क्षेत्रों में से शायद ही कोई इलाका हो, जहाँ प्रभारी मंत्री को सबकुछ ठीक मिला हो! विधायकों से नाराजी सिर्फ लोगों तक सीमित नहीं है, पार्टी में भी रोष बरक़रार है। सुदर्शन गुप्ता को अपने इलाके में उषा ठाकुर के दखल से आपत्ति है तो रमेश मेंदोला से जुड़े पार्षद महापौर मालिनी गौड़ से रूठकर बैठे हैं। भाजपा ने हर जिले के प्रभारी मंत्री को ये जिम्मेदारी सौंपी है कि वो अपने जिले की रिपोर्ट बनाकर पार्टी को सौंपे ताकि टिकट वितरण के दौरान उस रिपोर्ट के आधार पर फैसला हो! तय है कि पार्टी को इंदौर की रिपोर्ट में समीकरण उलझे हुए ही मिलेंगे! 
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   पश्चिम मध्यप्रदेश में भाजपा की अपनी ताकत है और इंदौर उस ताकत का ऊर्जा केंद्र है। पिछले तीन विधानसभा चुनाव से यहाँ कांग्रेस के हाथ सिर्फ एक सीट आती रही! दो बार अश्विन जोशी ने भाजपा को मात दी और पिछला चुनाव राऊ से जीतू पटवारी ने जीतकर एक सीट वाली परंपरा को बरक़रार रखा। लेकिन, इस बार के हालात कुछ बदले हुए से नजर आ रहे हैं। बिखरी हुई कांग्रेस एक जाजम पर बैठती जा रही है, वहीं भाजपा में बिखराव स्पष्ट नजर आ रहा है। प्रभारी मंत्री के कार्यक्रम भी इससे नहीं बच सके और जयंत मलैया की कोशिशें भी फूट की दरार को भरने में कामयाब नहीं हुई! क्षेत्र क्रमांक एक में सुदर्शन गुप्ता के प्रभाव और कामकाज से प्रभारी मंत्री संतुष्ट दिखे, पर इस इलाके से पहले उषा ठाकुर विधायक थी, तो उनके समर्थकों ने सुदर्शन गुप्ता की चुगली करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! उषा ठाकुर के समर्थकों की कोशिश रही कि सुदर्शन गुप्ता के खिलाफ माहौल बनाकर उन्हें टिकट से बेदखल किया जाए। प्रभारी मंत्री ने अपने राजनीतिक अनुभव से इंदौर के विधानसभा क्षेत्रों का क्या मूल्यांकन किया ये तो बाहर नहीं आ सका, पर क्षेत्र में भाजपा में फूट उन्हें भी पार्टी की सेहत के लिए ठीक नजर नहीं आई होगी! 
    प्रभारी मंत्री को विधानसभा के क्षेत्र क्रमांक-2 का नजारा पार्टी  नजरिए से तो ठीक लगा होगा, पर यहाँ भी विधायक रमेश मेंदोला और महापौर मालिनी गौड़ में फूट सड़क पर दिखाई दी! जयंत मलैया की कोशिशें भी इस खाई को नहीं भर सकी। दो नंबर के इलाके में हुए भूमिपूजन और उद्घाटनों में न तो महापौर को औपचारिक रूप से बुलाया गया और न शिलालेख में उनका नाम लिखा गया। सीधी सी बात ये कि 'न विधायक ने बुलाया न महापौर आई!' जबकि, प्रभारी मंत्री ने महापौर को कार्यक्रम में साथ ले जाने की अपने तई कोशिश भी की, पर वे नहीं गईं! रेडीसन चौराहे पर दो साल पहले नगर निगम उपायुक्त के साथ हुए चांटा-कांड के बाद से मेंदोला समर्थक पार्षदों ने नगर निगम से दूरी बना रखी है। अपने प्रभाव के चलते पार्षदों के कोई काम तो नहीं रुकते, पर महापौर से उनकी नाराजी जगजाहिर है। इस सबके बावजूद क्षेत्र में रमेश मेंदोला का दबदबा कम नहीं हुआ! असर भी इतना कि अगले चुनाव में मेंदोला के मुकाबले मैदान में उतारने के लिए कांग्रेस के पास कोई भी दमदार नेता नहीं है। 2013 के चुनाव में रमेश मेंदोला ने यह सीट प्रदेश में सर्वाधिक 91 हज़ार से ज्यादा वोटों से जीतकर रिकॉर्ड बनाया था। इस बार ये आँकड़ा तो शायद बरक़रार न रहे, पर ये तय है कि वे सीट बचा लेंगे। 
  विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-3 से उषा ठाकुर विधायक हैं, पर वे यहाँ से अगला चुनाव लड़ेंगी या नहीं, इसमें संशय है। इंदौर की यही एक सीट ऐसी नजर आ रही है, जिसके विधायक को फिर टिकट मिलने की उम्मीद कम है। शहर के मध्य में व्यापारिक इलाके वाली पुराने और नए इंदौर का प्रतिनिधित्व करने वाली इस सीट के वोटर विधायक से काफी नाराज हैं। प्रभारी मंत्री को भी शायद यही इशारा मिला होगा। अपनी उग्र हिंदुत्व वाली छवि के चलते उषा ठाकुर पाँच साल में भी यहाँ के परंपरागत व्यापारी तबके में अपनी पैठ नहीं बना सकीं। उनके साथ हमेशा स्थानीय कार्यकर्ताओं का भी अभाव दिखाई दिया। यहाँ की समस्याओं से भी उन्होंने ज्यादा सरोकार नहीं रखा और यही कारण है कि लोग उनके प्रतिनिधित्व से खुश नहीं हैं। पार्टी उनकी सीट बदलती है या उन्हें आराम देती है, ये अभी तय नहीं है। लेकिन, यही एक सीट है जिस पर भाजपा का टिकट चाहने वाले कई नेताओं की नजर है।    
    महापौर और विधायक दो तमगों से नवाजी गई मालिनी गौड़ विधानसभा के क्षेत्र क्रमांक-4 से पिछले चुनाव जीती थीं। लेकिन, महापौर होते हुए मालिनी गौड़ के राजनीतिक असंतुष्टों की संख्या काफी ज्यादा है। गौड़ के परिवार के राजनीतिक दखल से भी इस इलाके के लोगों की नाराजी सामने आती रहती है। प्रभारी मंत्री को भी जो जानकारी मिली वो तो संतोषजनक बताई जा रही है, पर इस क्षेत्र में स्मार्ट सिटी को लेकर हुई तोड़फोड़ से लोग बेहद नाराज हैं। उनकी नाराजी दूर करने का कोई उपाय न तो पार्टी के पास है न सरकार के! तोड़फोड़ से उपजी नाराजी का असर शहर के अन्य इलाकों में भी भाजपा के वोट बैंक पर पड़ सकता है। यदि पार्टी ने 'एक व्यक्ति-एक पद' वाला कोई फार्मूला लागू किया तो संभव है कि मालिनी गौड़ को टिकट से वंचित होना पड़े! ऐसी स्थिति में उनके बेटे को टिकट मिलेगा या किसी और नेता को, अभी इस सवाल पर सिर्फ कयास ही लगाएं जा सकते हैं।   
   इंदौर का क्षेत्र क्रमांक-5 शहर का नई बसाहट वाला पूर्वी इलाका है, जहाँ उन लोगों की संख्या ज्यादा है, जो शहर में नए बसे हैं। इस विधानसभा क्षेत्र से महेंद्र हार्डिया विधायक हैं। पिछली बार तो उन्हें सरकार में राज्यमंत्री भी बनाया गया था, पर इस बार वे काबिल होते हुए भी आपसी जोड़तोड़ का शिकार हुए। प्रभारी मंत्री को मिली जानकारी में भी हार्डिया का कहीं विरोध नहीं हुआ होगा! क्योंकि, इलाके में उनकी छवि अच्छी होने के साथ-साथ वे सर्वसुलभ हैं। उनके आसपास कोई कॉकस भी नहीं है न उनके समर्थकों में ऐसे लोग हैं जो लोगों के आँख की किरकिरी बनें! इंदौर के अच्छे भाजपा नेताओं में महेंद्र हार्डिया को गिना जा सकता है। पार्टी में भी वे किसी एक गुट से कभी जुड़े दिखाई नहीं दिए और न किसी विवाद में रहे। उनकी सज्जनता को उनकी कमजोरी समझने वालों की संख्या जरूर ज्यादा है। लेकिन, पार्टी का एक गुट इस कोशिश में है कि हार्डिया को किनारे करके टिकट जुगाड़ा जाए! यदि ऐसा होता है तो पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पद सकता है। क्योंकि, लोग नहीं चाहते कि भाजपा का कोई बाहुबली नेता उनका प्रतिनिधि बनने कोशिश भी करे।         
  शहर की एकमात्र विधानसभा सीट राऊ ही है जो पिछले चुनाव में कांग्रेस ने जीती थी। जब देशभर में नरेंद्र मोदी की आँधी थी, ऐसे में इंदौर के किनारे वाली इस सीट से कांग्रेस की मायने रखती है। प्रभारी मंत्री के सर्वे में भी जो तथ्य सामने आए हैं, वो इस बात का इशारा तो करेंगे ही कि भाजपा यहाँ से पिछला चुनाव सिर्फ इसलिए हारी कि यहाँ जमकर सेबोटेज हुआ था। इस बार भी यहाँ से कांग्रेस के जीतू पटवारी के सामने मुकाबले के लिए उतरने वाले आधा दर्जन नेताओं ने कलफ लगे कुर्ते तैयार रखे हैं। सबके पास खुद के जीत के दावे हैं, पर पार्टी के अंदर की ख़बरों पर भरोसा किया जाए तो यदि कैलाश विजयवर्गीय विधानसभा चुनाव लड़ने को राजी हुए तो उन्हें महू से राऊ भेजा जा सकता है। पर ऐसा ही होगा, फिलहाल ये कहा नहीं जा सकता। लेकिन, इस बार इंदौर में भाजपा को क्षेत्र क्रमांक-2 के अलावा हर सीट पर जीत के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना होगा। क्योंकि, अगले चुनाव में स्थानीय मुद्दे ही किसी उम्मीदवार की हार-जीत का कारण नहीं बनेंगे, बल्कि और भी बहुत से कारण है जिन्हें लेकर लोग भाजपा से नाराज हैं, और वे अपनी नाराजी का इजहार विधानसभा चुनाव में करेंगे। ऐसे में नेताओं का आपसी मनमुटाव भारी पड़ सकता है। जबकि, मुकाबले में उतरने वाली कांग्रेस भी बोलने के लिए बहुत कुछ है। 
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Sunday, May 13, 2018

बॉलीवुड के बाजार पर हावी होता हॉलीवुड!


- हेमंत पाल 

   बॉलीवुड पर हॉलीवुड की फ़िल्में लगातार हावी हो रही है। अपने बेहतरीन प्रॉडक्शन, नए आइडियों और जबरदस्त एक्शन कारण ये फ़िल्में दर्शकों को आकर्षित कर रही है। कभी दोयम दर्जे की अंग्रेजी फ़िल्में कही जाने वाली हॉलीवुड की फिल्मों ने साबित कर दिया कि वे जब चाहें बॉलीवुड पर कब्ज़ा कर सकती हैं! धीरे-धीरे ये होने भी लगा है। हॉलीवुड की फिल्में जहाँ आसानी से 100 करोड़ का बिजनेस कर लेती हैं, वहीं अधिकांश हिंदी फिल्मों को अपनी लागत निकालने में भी एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। हाल ही में रिलीज हुई हॉलीवुड की फिल्म ‘एवेंजर्स : इनफिनिटी वॉर’ ने तो कमाई मामले में अभी तक के सारे रिकॉर्ड ही ध्वस्त कर दिए। इस फिल्म ने सबसे तेज कमाई का भी रिकॉर्ड बनाया है। भारतीय दर्शकों में हॉलीवुड की फिल्मों के बढ़ते क्रेज का ही असर है कि ये फिल्म अमेरिका से दो हफ्ते पहले भारत में रिलीज की गई!     
  भारत में हॉलीवुड की सुपरहीरो वाली फिल्में सबसे ज्यादा पसंद की जाती है। अभी तक इस तरह की जो भी फ़िल्में रिलीज हुई, उन्होंने जमकर बिजनेस किया और साथ में परदे पर उतरी हिंदी फिल्मों  ठिकाने लगा दिया। हॉलीवुड फिल्म 'ब्लैक पेंथर' के साथ आई बॉलीवुड फिल्म 'अय्यारी'  सामने दर्शकों का अकाल पड़ गया था। 1000 स्क्रीन्स पर रिलीज हुई 'ब्लैक पैंथर' ने पहले दिन 19.35 करोड़ की कमाई की, तो 1750 स्क्रीन पर उतरी 'अय्यारी' 11.70 करोड़ की ही बिजनेस कर पाई है। विद्या बालन की फिल्म 'तुम्हारी सुलू' को काफी पसंद किया गया! फिल्म ने 36 करोड़ से ज्यादा कमाई की, लेकिन ये फिल्म हॉलीवुड की 'जस्टिस लीग' से पिछड़ गई, जिसने 41 करोड़ से ज्यादा का कलेक्शन किया। 
  ये बात कई दिनों से कही जा रही है कि आने वाले वक़्त में बॉलीवुड की फिल्मों को हॉलीवुड की फिल्मों से कड़ी चुनौती मिल सकती है! लेकिन, इसे कभी गंभीर सवाल नहीं समझा गया। अब, जबकि हॉलीवुड की फिल्मों के कारण बॉलीवुड की फिल्मों का बिजनेस प्रभावित होने लगा तो निर्माताओं को चिंता सताने लगी! 2015 में जुरासिक वर्ल्ड, एवेंजर्स : एज ऑफ अल्ट्रॉन और फास्ट एंड फ्यूरियस-7 ने भारत में 700 करोड़ से ज्यादा की कमाई की थी। उससे पहले अनिल कपूर की भूमिका वाली 'मिशन इम्पॉसिबल : द घोस्ट प्रोटोकॉल' ने 40 करोड़ रुपए का बिजनेस किया। हैरी पॉटर सीरीज की अंतिम फिल्म 'हैरी पॉटर एंड द डेथी हेलोज' व 'ट्रांसफॉर्मर्स : डार्क ऑफ द मून' ने भी बॉक्सऑफिस पर 36-36 करोड़ की कमाई की। जॉनी डेप की 'पाइरेट्स ऑफ द कैरेबियन: ऑन स्ट्रेंजर टाइड्स' ने 34 करोड़ रुपए का व्यवसाय किया। विन डीजल की फिल्म 'फास्ट फाइव' ने 29 करोड़ रुपए, 'एक्स-मैन : फर्स्ट क्लास' ने 22 करोड़ रुपए, एरॉन एकहर्ट अभिनीत 'बैटल लॉस एंजेलिस' ने 20 करोड़ रुपए का व्यवसाय किया। एनिमेशन फिल्म 'एडवेंचर्स ऑफ टिनटिन: द सीक्रेट ऑफ यूनिकॉर्न' ने यहां 24 करोड़ रुपये व 'कुंग फू पांडा 2' ने 27 करोड़ रुपए का व्यवसाय किया। 'द हैंगओवर 2' ने भारतीय बॉक्सऑफिस पर 15 करोड़ रुपए कमाए।
   देखा जाए तो भारत में हॉलीवुड का बाजार 900 से 1000 करोड़ रुपए के आसपास है। ये बॉक्स ऑफिस की कमाई का 12 से 15 फीसदी बैठता है। देखने में ये आँकड़ा छोटा लगे, पर हॉलीवुड की फिल्मों को किसी बॉलीवुड फिल्म की तुलना में बहुत कम थियेटर मिलते हैं। ऐसे में यदि थियेटरों के हिसाब से कमाई का औसत निकाला जाए तो हमारा देसी सिनेमा बेहद कमजोर दिखाई देता है। 'बॉक्स ऑफिस इंडिया' के मुताबिक 2017 में जनवरी और सितंबर के बीच भारतीय बाजार में हॉलीवुड फिल्मों की हिस्सेदारी 19.8 फीसदी थी। जबकि 2009 में यह आँकड़ा 7.2 फीसदी ही था। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी हॉलीवुड की फ़िल्में खूब देखी जा रही है। जिसका सबूत ये है कि 'टेलीकॉम नियामक प्राधिकरण' के मुताबिक 2017 में इसके सब्सक्राइबर 160 फीसदी की दर से बढ़े हैं।  ऐसे में बॉलीवुड के वर्चस्व को गंभीर खतरा बताया जा रहा है, तो ये गलत नहीं है। हॉलीवुड की फिल्मों के साथ एक खास बात यह होती है कि वे हिंदी के साथ और कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में भी डब करके रिलीज की जाती हैं। इससे उनका रीजनल मार्केट बढ़ जाता है। बॉलीवुड के साथ सबसे बड़ी कमजोरी ये है कि उसके लिए टेलीविजन के अलावा कमाई का और कोई विकल्प नहीं है। उसे साऊथ की डब फिल्मों से भी चुनौती मिल रही है। .
  शाहरुख खान पहले एक्टर हैं, जिन्हें इस खतरे का आभास हो गया है कि अगर बॉलीवुड ने अपना नजरिया, टेक्नोलॉजी और प्रोडक्शन का तरीका नहीं बदला तो एक दिन हॉलीवुड बॉलीवुड को खा जाएगा। शाहरुख का मानना है कि फिल्मों में अब भाषा कोई बाधा नहीं रही! इसके अलावा कई डिजिटल प्लेटफार्म खड़े हो रहे हैं, जिनकी बेहतरीन कंटेंट तक पहुंच है। हॉलीवुड नए ज़माने के भारतीय दर्शकों की पसंद क्यों बन रहा है, हमें उससे सीखना चाहिए। बॉलीवुड को बदलना होगा और हमें भी नया सीखना होगा, जबकि हॉलीवुड यह सब कर चुका है! हमें केवल उसे अपनाना है। हमारे पास भी कई शानदार कहानियां हैं जिनको नया ट्रीटमेंट देना होगा और दर्शकों की पसंद के मुताबिक ढलना होगा! 
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Saturday, May 5, 2018

फिल्मों में ज्यादा लहराई गंगा की लहरें


- हेमंत पाल

  आज की राजनीति भले की गंगा की तरह पावन न रह गई हो, लेकिन गंगा का देश की राजनीति में बहुत अधिक महत्व रहा है। कभी ऐसा जमाना था, जब गंगा किनारे के नेता देश के भाग्य विधाता हुआ करते थे। आज भी देश का नेतृत्व गंगा का प्रतिनिधित्व करता है भले ही उसका उदगम साबरमती से हुआ हो। गंगा और राजनीति का प्रभाव इतना है कि गंगा के नाम पर वोट मांगे जाते हैं, चुनावी वैतरणी पार की जाती है बावजूद इसके गंगा की हालत उससे भी बदतर होती जा रही है जितनी मैली उसे फिल्मों तक में नहीं दिखाया गया है। हमारा सिनेमा भी गंगा के आकर्षण से  भी अछूता नहीं रहा है। फिल्मों में इसे बड़े फलक पर उकेरा गया है। शायद इसकी वजह नदी को लेकर मौजूदा सांस्कृतिक मूल्य है। यहाँ के लोगों का नदी से काफी जुड़ाव है। वे अपनी संस्कृति को इनसे जोड़कर देखते हैं। वैसे सिनेमा में बनारस को गंगा का पर्यायवाची माना जाता है। फिल्मों में नदियों को खूब फिल्माया गया है। दिलचस्प बात ये है कि इसके लिए बनारस को ही चुना जाता रहा है। गंगा को लेकर पहली भोजपुरी फिल्म 1962 में ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़एबो’ बनी थी। यह फिल्म सिनेमा हाल में 25 हफ्तों से ज्यादा चली थी। 
   सिनेमा जगत बनारस को लोकर काफी उत्साहित रहा है। यह पहले भी था और आज भी है। फिल्म निर्माता शूटिंग के लिये यहाँ आते रहते हैं। इसकी वजह शहर में पसरा आध्यात्म है जो फिल्म निर्माताओं को अपनी तरफ खींचता है। 1973 में 'बनारसी बाबू' फिल्म बनी थी। इसमें देवानंद का डबल रोल था। फिल्म के एक दृश्य में देवानंद मुंबई की गलियों में टहलते हैं। उन्हें अचानक पान की दुकान दिखती है। वह पान वाले के पास जाते हैं। पान वाला उनसे पूछता है कि कौन सा पान बाबू? देव ठेठ बनारसी टोन में कहते हैं ‘मगहई दुई बीड़ा।’ देवानंद को अपना टोन सटीक करने में दो हफ्ते लग गए थे। 'डॉन' फिल्म का हिट गाना खाई के पान बनारस वाला ... छोरा गंगा किनारे वाला गाना कौन भूल सकता है। मजे की बात यह है कि कल्याणजी आनंदजी ने इसे बनारसी बाबू के लिए ही तैयार किया था। 
   रूपहले पर्दे पर गंगा को लेकर कई ऐसी फिल्में भी बनी हैं, जो उसके किनारे पनप रहे एक अन्य पहलू को दर्शाती है। वह पहलू पूजापाठ वाली संस्कृति से अलग है। ऐसी ही एचएस रवैल की  फिल्म संघर्ष है, जो 1968 में बनी। यह फिल्म महाश्वेता देवी की बांग्ला कहानी ‘लाली असजेर आइना’ पर आधारित है। फिल्म में बनारस के उस पहलू को दर्शाया गया है जहाँ पर अपराध और हिंसा पनपती है। राज कपूर को भी गंगा से काफी लगाव रहा है। गंगा के शीर्षक से दो फिल्में बनाई थी। एक थी ‘जिस देश में गंगा बहती है’। यह फिल्म चंबल के डकैतों के ईर्द-गिर्द घूमती है। राज कपूर डकैतों को सुधारने की कोशिश करते हैं। दूसरी फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ थी। लेकिन इसमें गंगा के प्रदूषण पर कुछ नहीं दिखाया गया था। यह एक प्रेम कहानी थी। वैसे तो ऐसी दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, जिनमें गंगा शीर्षक के रूप में मौजूद है। लेकिन शायद ही कोई फिल्म ऐसी बनी हो ,जिसमें नदी की दुर्दशा को दिखाया गया हो। 
  वास्तविकता तो यह है कि फिल्म निर्माता गंगा के नाम को सिर्फ भुना रहे हैं। मसलन 'गंगा जमुना' यह 1961 में बनी थी। दिलीप कुमार और वैजंतीमाला इसमें मुख्य भूमिका में थे। यह फिल्म भी डकैतों की पृष्ठभूमि पर आधारित थी। एक अन्य फिल्म भी गंगा के शीर्षक पर बनी थी जिसका नाम है ‘जिस देश में गंगा रहता है’ यह फिल्म बेहद बकवास थी। ‘गंगा जमुना सरस्वती’ एक और फिल्म है। इसमें तीनों नदियों के बारे में कुछ नहीं दिखाया गया था। अमिताभ की 'गंगा की सौंगध' में सिर्फ इसकी कसमें ही खाई गई। जबकि, किशोर कुमार और कुमकुम की गंगा की लहरें में केवल एक गीत फिल्माकर छुट्टी कर ली गई थी। फिल्म ‘गंगाजल’ में भी गंगा नदी पर कोई बात न दिखाकर फिल्म में भागलपुर में हुए आँख फोड़वा कांड को दर्शाया गया था। 
   गंगा को शीर्षक के रूप में अन्य भाषाओं की फिल्मों में भी प्रयुक्त किया गया है। मसलन बांग्ला, तमिल, तेलुगू। लेकिन गंगा शीर्षक पर बनी सबसे बेहतरीन फिल्म ‘जय गंगा’ है, जो विजय सिंह के उपन्यास पर आधारित थी। दुर्भाग्यवश यह लेखक फिल्म को नहीं देख पाये। मगर इस फिल्म में गोमुख, गंगोत्री, ऋषिकेष, हरिद्वार और बनारस का बेहतरीन फिल्मांकन किया गया है। यह फिल्म 1996 में सीमित सिनेमा घरों में रिलीज हुई थी, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल नहीं रही। बात फकत इतनी है अभिनेता से लेकर नेता सभी ने गंगा का दोहन ही किया है।
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राकेश सिंह नई इबारत लिखेंगे या पुरानी पोथी पढ़ेंगे?


- हेमंत पाल
     
   भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह 4 मई को भोपाल आ रहे हैं। उनकी इस यात्रा का मूल मकसद पार्टी के नए प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह को पार्टी की नई जिम्मेदारियों के लिए लोकार्पित करना है। ये पहली बार है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने किसी प्रदेश अध्यक्ष के लिए ये रास्ता चुना है। राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ बैठक के लिए पार्टी के जिले से लगाकर मंडल तक के छोटे-बड़े पदाधिकरियों को बुलाया गया है! ये कवायद इसलिए, ताकि पार्टी में ये संदेश जाए कि राकेश सिंह पार्टी के शिखर नेतृत्व की पसंद हैं और वे प्रदेश में अमित शाह की प्रतिछाया की तरह काम करेंगे। लेकिन, किसी की प्रतिछाया बनने और उनकी कार्यशैली का अनुसरण करने में फर्क होता है। शायद इसी अंतर को मिटाने के लिए ये कोशिशें की जा रही है। पार्टी ने राकेश सिंह के कंधे पर चुनाव की बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। ये उनकी काबलियत की अग्नि-परीक्षा भी है। लेकिन, अपने चयन को सही साबित करने के लिए राकेश सिंह को पुरानी 'तोता संस्कृति' से बाहर निकलकर कुछ कड़े फैसले करना होंगे! यदि उन्होंने सभी को 'एडजस्ट' करने की कोशिश की, तो इसका खामियाजा भी उन्हें ही भुगतना पड़ेगा। उन्हें उस कार्य-संस्कृति में ढलना होगा, जिसमें व्यक्ति पूजा से ज्यादा पार्टी हित सर्वोपरि होता है।  
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   भारतीय जनता पार्टी ने राकेश सिंह को मध्यप्रदेश में अपना नया अध्यक्ष बना दिया! लेकिन, दो सप्ताह बाद भी सतह पर कोई हलचल दिखाई नहीं दे रही! उनके नाम पर आसमान में जो उत्साह का गुलाल उड़ा था, वो भी अब बैठ गया। राजनीति के प्रकांड पंडित भी ये स्पष्ट नहीं कर पाए कि नंदकुमार सिंह चौहान को हटाने से क्या बदलाव आएगा? पार्टी में नई चमक भरने में राकेश सिंह कैसे कामयाब होंगे? इस तरह के उहापोह भरे माहौल में नए अध्यक्ष ने पुरानी टीम को ही बेहतर बताकर इस बात को और उलझा दिया! क्या फिर माना जाए कि खराबी सिर्फ पुराने अध्यक्ष में ही थी? उन्हें हटाकर नए चेहरे को उनकी कुर्सी देने से क्या फर्क पड़ेगा, ये कहीं भी स्पष्ट नहीं हुआ! राकेश सिंह क्या अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी या नरेंद्र मोदी तो हैं नहीं, जिनके आने भर से शीर्षासन कर रही पार्टी खड़ी हो जाएगी! 
    राकेश सिंह के पास न तो जादू की छड़ी है, जो उनके आते ही सबकुछ संभल जाएगा। न उनके पास पारसमणि है, जिसके छूते ही पार्टी का हर पत्थर सोना बनकर चमकने लगेगा! वे महाकौशल से हैं, पर उन्हें पूरे महाकौशल की भी ठीक जानकारी नहीं है। ऐसे में 230 सीटों वाले मध्यप्रदेश को आने वाले 6 महीने में वे कैसे नाप और परख लेंगे और उन असली हीरों को तलाश लेंगे, जो भाजपा को फिर सरकार बनाने लायक बहुमत दिला सकें! राकेश सिंह को चाहिए कि वे अपने स्वागत में बिछे फूलों की खुशबू के बीच पार्टी की उस सड़ांध को भी पहचानें, जो अगले विधानसभा चुनाव में उनके लिए चुनौती बनेगी! तालियों की गड़गड़ाहट और सुगंधित फूलों के हारों से मिली क्षणिक ख़ुशी से ज्यादा बेहतर होगा कि पार्टी के अक्कड़खानों और कलफ से कड़क होते अहम् से सराबोर चेहरों को किनारे धकेलकर उन लोगों को आगे लाएं जो ईमानदारी से पार्टी की सेवा में लगे हैं। 
  जिन नाकारा और नाकाबिल लोगों को संगठन और जिलों की जिम्मेदारी सौंपी गई है उनके काम का मूल्यांकन भी नए अध्यक्ष को करना होगा। उनकी बैठकों का हिसाब-किताब लेना होगा और उनसे सवाल करना होंगे कि संगठन से जुडी जिले की समस्याओं का उनके पास क्या हल है? क्योंकि, जिले का अध्यक्ष ही ये सच जानता हैं कि उसके इलाके से कौन फिर जीत सकेगा और कौन चुनाव में उतारने के लायक नहीं है! चुनाव के इस दौर में यही ईमानदारी भाजपा को फिर सत्ता में लाने में कारगर होगी। इस मामले में जरा सी भी बेईमानी पार्टी हित में भारी साबित हो सकती है। 
  चुनाव को नजदीक देख कुछ पदाधिकारी संगठन से भागने लगे हैं। उनका तर्क है कि चुनाव से पहले हमें अपने क्षेत्र को देखना है, इसलिए उन्हें संगठन  कामकाज से मुक्त किया जाए! उनसे पलट सवाल किया जा सकता है कि फिर वे संगठन में काम करने के लिए राजी क्यों हुए? पार्टी के नए अध्यक्ष को चाहिए कि ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने से रोककर संगठन में सक्रिय करें। पूर्व अध्यक्ष नंदकुमार चौहान ने ऐसे पलायनवादी नेताओं को संगठन में पद ही क्यों दिया, जिनकी प्रतिबद्धताएं संगठन के अलावा कुछ और हैं। 
  दरअसल, नंदकुमार सिंह चौहान पूरी तरह 'तोता संस्कृति' में रचे-बसे अध्यक्ष थे। वे वही करते और बोलते थे, जो उन्हें कहा जाता था। वे अपने पूरे कार्यकाल में हर वक़्त मुख्यमंत्री के सामने फर्शी सलाम करते रहे। लेकिन, जब उन पर तलवार गिरी, तो कोई उन्हें बचाने नहीं आया! भाजपा के किसी निर्वाचित अध्यक्ष को हटाया जाना आश्चर्यजनक घटना है, पर ये भविष्य के लिए संकेत भी है कि पद पर टिकता वही है जो नतीजे देने में सक्षम होता है। ये वो घटना है जिससे राकेश सिंह को सबक लेना होगा और अपनी एक अलग पहचान बनाना होगी! क्योंकि, नाकारापन की स्थिति में ये फैसला दोहराया भी जा सकता है।  
 पार्टी ने कार्यकर्ताओं को चार्ज करने के लिए नई बैटरी जरूर लगा दी! पर, इससे पार्टी में नई ऊर्जा का संचार होगा या घना अँधेरा छाएगा, ये देखना अभी बाकी है। राकेश सिंह नई जमीन पर संगठन नई संरचना बनाएंगे या फिर उसी अँधेरी सुरंग में पार्टी को ले जाएंगे, जिसकी भयावहता को भांपा जा रहा है। यदि उन्हें अपने चयन को सही साबित करना है, तो जंग खाए पुराने नट-बोल्ट तो बदलना ही होंगे! ऐसा नहीं किया गया तो वे भी इतिहास के उसी कूड़ेदान में फेंक दिए जाएंगे जहाँ अक्षम, नाकारा और असफल चेहरों का ढेर लगा है। 
  वे पुराने पत्तों से कोई नया खेल नहीं खेल सकते! यदि कोई चमत्कार करना चाहते हैं तो पार्टी को नए सपने दिखाने होंगे और उसके लिए योजनाबद्ध तरीके से काम भी करना होगा! कार्यकर्ताओं के सामने 'जीत' की उम्मीद जगाना होगी। टीम-लीडर की तरह उनमें जोश भरकर उन्हें सियासी जंग के लिए तैयार करना होगा! अन्यथा वे मैली चदरिया को उजली नहीं कर सकेंगे! दुनिया जानती है कि मैली चदरिया ओढ़कर सियासी रण में प्रतिद्वंदी को परास्त करना आसान नहीं है। वो भी ऐसे प्रतिद्वंदी को जिसके खिलाफ चलाने के लिए पार्टी के पास कोई तेज धार वाला हथियार नहीं है। जो हथियार हैं, वो भोथरे हो चुके हैं। उनसे  सियासत का संघर्ष नहीं जीता जा सकता!          
  पार्टी ने ये बदलाव किसी बड़ी उम्मीद से किया गया है। राकेश सिंह के लिए ये चुनौती भी है और भविष्य के लिए रास्ता भी! बेहतर हो कि वे संकोच और शर्मा-शर्मी में अपना राजनीतिक कॅरियर दांव पर न लगने दें! उन्हें प्रदेश में अपने विश्वासपात्रों और पार्टी के प्रति वफादारों की एक ऐसी टीम भी खड़ी करना होगी जो सही कहने, करने के अलावा सही बात बताने का भी साहस रखती हो! पुरानी टीम को बदलकर जब तक नया कलेवर नहीं दिया जाता, आने वाले विधानसभा चुनाव में किसी चमत्कार का दावा नहीं किया जा सकेगा! क्योंकि, प्रतिद्वंदी पार्टी में एकजुटता नजर आ रही है और उसने भी नए चेहरे पर दांव खेला है!   
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कमलनाथ के सिर काँटों का ताज और संभावनाओं का शिखर!


- हेमंत पाल 


  मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अब दोनों प्रमुख प्रतिद्वंदियों ने अपने सेनापति बदल लिए। दोनों ही पार्टियों ने अपने पुराने सेनापति इसलिए छुट्टी दी कि वे पार्टी को चुनाव जिताने की कूबत नहीं रखते थे। आने वाले कुछ दिनों में ये सेनापति अपनी सेना भी चुन लेंगे। तब शुरू होगी असल सियासी जंग, जो तय करेगी कि प्रदेश की जनता का रुख क्या है? उसे डेढ़ दशक से चल रहे भाजपा के शासन को ही आगे ले जाना है या वो बदलाव चाहती है! सत्ता पर काबिज भाजपा से मुकाबले के लिए कांग्रेस ने कमलनाथ को अपना सेनापति चुना है। उनके राजनीतिक अनुभव पर किसी को शंका नहीं है, पर चुनाव में वे अपनी ही पार्टी के नेताओं के बीच कैसा सामंजस्य बना पाते हैं, ये सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होगा! क्योंकि, अभी सियासी हलकों में ये सवाल सबसे ज्यादा कुरेदा जा रहा है, कि कमलनाथ को नेतृत्व सौंपे जाने से ज्योतिरादित्य सिंधिया का रुख क्या होगा? क्या दिग्विजय सिंह पूरा जोर लगाकर कमलनाथ का साथ देंगे और बिना मुख्यमंत्री पद के चेहरे के कांग्रेस जनता के बीच क्या संदेश लेकर जाएगी? इन सारे सवालों के कोई भी जवाब ऐसे नहीं हैं, जो सवाल करने वाले को संतुष्ट कर सकें! क्योंकि, प्रदेश में इन तीनों नेताओं के बीच की तनातनी जगजाहिर है। अब कमलनाथ को भी अपने राजनीतिक जीवन के इस सबसे अहम् पड़ाव पर ये साबित करना है कि कांग्रेस हाईकमान ने उन पर जो भरोसा किया है, वो सही फैसला है।   
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  ध्यप्रदेश में 15 साल से भाजपा की सरकार है। 2003 में पहली बार भाजपा ने दिग्विजय सिंह को 'मिस्टर बंटाधार' का तमगा देकर कांग्रेस को पराजित करके सत्ता हथियाई थी। उसके बाद से भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता के नजदीक भी नहीं आने दिया। 2008 में कांग्रेस की आपसी फूट ने कांग्रेस को 70 सीटों के आसपास रोक दिया। जबकि, 2013 का चुनाव भाजपा ने नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार होकर जीता! लेकिन, इस बार ऐसी कोई लआँधी, तुफान या लहर नजर नहीं आ रही, जो भाजपा की मददगार बने! कांग्रेस के सामने भी चुनौती है कि वो आपसी मतभेदों की खाई भरकर ऐसा राजनीतिक धरातल तैयार करे, जो चुनाव में उसे सशक्त प्रतिद्वंदी बनाकर उभारे! दिग्गजों के बीच आपसी तालमेल बनाने के लिए ही हाईकमान ने कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह के बीच मतभेदों को कम करने की कोशिश की है। सभी को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी गई, लेकिन मुख्यमंत्री पद का चेहरा किसी को नहीं बनाया गया! अभी इस सवाल को अनुत्तरित ही छोड़ दिया गया है! 
    गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली सम्मानजनक हार के बाद कोलारस और मुंगावली उपचुनाव में मिली जीत के बाद कांग्रेस का उत्साह बल्लियों उछला! उसे ये अहसास हो गया कि यदि ईमानदारी से मेहनत की जाए और एकजुट प्रयास किए जाएं तो किला फतह किया जा सकता है। लेकिन, अभी तक कांग्रेस की चुनावी तैयारियां साफ़ तौर पर दिखाई नहीं दे रही थी! कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष और ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपकर पार्टी ने एक आधार जरूर तैयार कर दिया। ऐसे में अपनी आध्यात्मिक 'नर्मदा परिक्रमा' से उत्साहित होकर लौटे दिग्विजय सिंह की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी। उनका ये बयान कि न तो मैं चुनाव लडूंगा और न मुख्यमंत्री पद का दावेदार हूँ, पार्टी की एक नई दिशा तय करता है। यदि कांग्रेस चुनाव जीतती भी है, तो मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार सामने होंगे, एक कमलनाथ और दूसरे ज्योतिरादित्य सिंधिया!       
  कमलनाथ को प्रदेश की राजनीति में सबसे पुराने नेताओं में गिना जा सकता है। चार दशक से ज्यादा समय पहले जब वे राजनीति में आए थे, तब दिग्विजय सिंह ने राजनीति का ककहरा सीखा ही होगा! ज्योतिरादित्य सिंधिया तो शायद तब ठीक से चलना भी नहीं सीखे होंगे। इमर्जेन्सी के दौरान में संजय गाँधी के दोस्त होने के नाते वे राजनीति में आए थे। लेकिन, प्रदेश की राजनीति में उन्होंने ज्यादा रूचि नहीं ली। उन्होंने खुद को अपने लोकसभा क्षेत्र छिंदवाड़ा और दिल्ली तक सीमित रखा। कांग्रेस की राजनीति में चार दशकों में बड़े उतार-चढ़ाओ के बाद भी उनके दबदबे में कोई कमी नहीं आई। आज 70 साल का होने के बावजूद उनका दम-ख़म बरक़रार है। मध्यप्रदेश की पार्टी मुखिया की कुर्सी संभालने की उनकी महत्वाकांक्षाओं ने कभी इतनी कुंचालें नहीं भरी कि वे किसी कि आँख की किरकिरी बनें! यही सबसे बड़ी वजह है कि वे हमेशा सर्वमान्य नेता बने रहे और हाईकमान के भी लाडले रहे। पर, अब हालात बदलते लग रहे हैं। उनके सामने सबको साथ लेकर चलना ऐसी चुनौती होगी, जो प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति का भविष्य तय करेगी।  
  प्रदेश में कांग्रेस को संजीवनी घुट्टी देने की जो कोशिशें हो रही हैं, उनमें कमलनाथ को एक उम्मीद की तरह देखा जा रहा है। दूसरे दिग्गजों के मुकाबले उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सबसे सशक्त चेहरा माना गया! ऐसा नहीं है कि पार्टी के इस फैसले पर उंगली नहीं उठी होगी! पार्टी में उनके विरोधी और प्रतिद्वंदी दोनों ने मोर्चे संभाले होंगे, पर उनको प्रदेश अध्यक्ष बनने से रोकने के फैसले को बदला नहीं जा सका। एक दौर ये भी आया जब उनके भाजपा में जाने तक की अफवाह उड़ी! ये भी समझा गया कि उनके भाजपा में जाने की अफवाह फैलाकर उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनने से रोका जाए! भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने भी यह कहकर इस खबर की आंच को तेज कर दिया था कि यदि वे हमारे साथ आते हैं तो हमें खुशी होगी। नंदकुमार चौहान की जगह कोई और नेता होता तो इस बात को गंभीरता से लिया जाता! लेकिन, भाजपा के पूर्व अध्यक्ष के बयानों को राजनीतिक रूप से कभी गंभीरता से नहीं लिया गया! इसलिए ये बात हवा में उड़ गई! कमलनाथ के अलावा कोई और नेता होता तो ये विवाद कहीं ज्यादा गहराता, पर कांग्रेस के प्रति कमलनाथ की प्रतिबद्धता पर शंका नहीं की जा सकती! 
 कमलनाथ के भाजपा में जाने की अफवाहों के बीच उनकी खामोशी के भी अलग-अलग मंतव्य निकाले गए! उनकी खामोशी को संदेह की नजर से भी देखा गया। इस अफवाह ने तब जोर पकड़ा था, जब एक अनौपचारिक चर्चा में कमलनाथ ने राहुल गाँधी के मुलाबले नरेंद्र मोदी को ज्यादा मेच्योर नेता बता दिया! उसकी इस बात के नए-नए मतलब निकाले गए। इसे उनकी भावी राजनीतिक योजना की तरह देखा और समझा गया। भाजपा नेताओं ने भी उनके नाम का संधि विग्रह करके उसे 'कमल' और 'नाथ' में बाँट दिया था। भाजपा में उनका स्वागत करने तक की बात कही जाने लगी थी। मुद्दे की बात ये इस अनपेक्षित हालात के बाद भी पार्टी ने कमलनाथ पर अपना भरोसा कम नहीं किया। पार्टी के प्रति उनकी साढ़े चार दशक की राजनीतिक प्रतिबद्धता का ही नतीजा था कि किसी अफवाह पर ध्यान नहीं दिया गया। कमलनाथ कांग्रेस में ही बने रहे और अब वे प्रदेश में पार्टी का झंडा उठाकर खड़े हैं। कांग्रेस ने उन्हें  शिवराज-सरकार से मुकाबले के लायक समझा और कमान सौंप दी। 
  पीछे पलटकर देखें तो मध्यप्रदेश की कांग्रेस राजनीति में दिग्विजय सिंह के बाद कमलनाथ को अभी तक वो हैसियत नहीं मिली, जिसके वे हक़दार हैं। वे प्रदेश में अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, मोतीलाल वोरा, श्यामाचरण शुक्ल और माधवराव सिंधिया के मुकाबले कमजोर ही बने रहे। प्रदेश के मामलों में पार्टी हाईकमान पहले इन नेताओं की पहले सुनता था, बाद में कमलनाथ की! हाईकमान ने कमलनाथ को तवज्जो तो दी, पर उन्हें प्रदेश की राजनीति में ज्यादा दखल नहीं देने दिया गया। इस सच को नाकारा नहीं जा सकता कि अभी तक बड़े नेताओं की कतार में कमलनाथ को हमेशा दो कदम पीछे ही रहना पड़ा। गाँधी परिवार से नजदीकी के बावजूद वे कभी मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं बन सके। इस बार भी वे प्रदेश अध्यक्ष तो बना दिए गए, पर वे मुख्यमंत्री पद का चेहरा आज भी नहीं हैं। 
  माना कि कमलनाथ की गिनती राजनीति के सिद्धहस्त खिलाड़ियों में होती है। अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने कई उतार-चढाव देखे हैं, पर इस बार उनके सामने जो चुनौती है वो सबसे कठिन है। वे भी जानते हैं कि मध्यप्रदेश का राजनीतिक परिदृष्य उनके लिए काँटों के ताज से कम नहीं। उनके जितने राजनीतिक दुश्मन पार्टी के बाहर हैं, उससे ज्यादा पार्टी के अंदर ही बंकर बनाकर बैठे हैं। बाहर के हमलों से तो वे निपट सकते हैं, पर उन्हें घरेलू हमलों का भी मुकाबला करना है। वे प्रदेश अध्यक्ष बनकर आ जरूर गए, पर क्या वे अपने समकक्षों को संतुष्ट करने में सफल होंगे? इस पद के अन्य दावेदारों चेहरों के बीच उनके सफल होने का रास्ता न तो सीधा और न आसान! प्रदेश में ऐसे नेताओं की बड़ी फ़ौज तैयार है, जो प्रदेश में सरकार बनने की स्थिति में कलफ लगी खादी पहनकर बैठी है! ऐसे में टिकट चाहने वालों में से जीतने वाले चेहरों को छांटना भी आसान नहीं होगा। यदि कमलनाथ आपसी सामंजस्य बनाकर विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए बेदाग़ चेहरे छांटने में कामयाब हो जाते हैं, वो समझ लो उन्होंने आधा मैदान मार लिया! ये मुश्किल जरूर है पर नामुमकिन नहीं!
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