Sunday, September 29, 2019

रिश्ते टूटे तो परदे पर जोड़ियां भी!

- हेमंत पाल 


   फिल्म के परदे पर जोड़ियों का अपना अलग ही संसार है। ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन फिल्मों तक के दौर में फ़िल्मी दर्शक कुछ जोड़ियों के बहुत दीवाने रहे! देवआनंद-मधुबाला, धर्मेंद्र-हेमा मालिनी, जीतेंद्र-रीना रॉय, शत्रुघ्न सिन्हा-रीना रॉय, अमिताभ बच्चन-रेखा और ऋषि कपूर-नीतू सिंह जैसी कई जोड़ियों को पसंद किया गया। कई जोड़ियां ऐसी भी बनी, जिनकी मोहब्बत के खूब चर्चे हुए! ऋषि-नीतू ने तो शादी कर ली, पर सबके साथ ऐसा नहीं हुआ! किन्ही कारणों से जब इनका निजी रिश्ता टूटा, तो इन्होंने कभी एक-दूसरे को मुड़कर नहीं देखा। साथ में काम करना भी इन्हें मंजूर नहीं किया।
  अमिताभ बच्चन और रेखा की जोड़ी रील से रियल लाइफ़ तक हिट रही। इस जोड़ी को बॉलीवुड की सबसे रहस्यमयी प्रेम कहानियों में भी शामिल किया जा सकता है। इनके प्यार का सिलसिला उस वक़्त टूटा, जब ये अमिताभ की पर्सनल लाइफ़ को प्रभावित करने लगीं। परिवार को बचाने के लिए उन्होंने रेखा के साथ अपनी जोड़ी तोड़ ली। इसी के साथ दोनों के पर्दे पर साथ आने की संभावनाओं पर भी विराम लग गया। यश चोपड़ा की 1981 की फ़िल्म 'सिलसिला' के बाद दोनों कभी साथ नहीं आए। 'सिलसिला' को इस जोड़ी की रील लाइफ स्टोरी कहा जाता है। 70 के दशक में इनके बीच नजदीकियों के किस्से आम थे। बड़े-बड़े निर्माता-निर्देशक इन्हें अपनी फिल्में में साइन करना चाहते थे, लेकिन जब इनके रिश्ते में दरार आई, तो इन्होंने कभी भी साथ काम नहीं किया।
   सलमान खान और ऐश्वर्या राय 90 के दशक की सबसे मशहूर जोड़ी हुआ करती थी। इनकी प्यार के किस्से भी हर जगह चर्चित थे। लेकिन, एक समय ऐसा आया जब इनके बीच दूरियां आ गईं! फिर इन्होंने कभी साथ काम नहीं किया। कई निर्माताओं ने कोशिश भी की, पर बात नहीं बनी। इनके ब्रेकअप का कारण विवेक ओबरॉय जाता था। लेकिन, ऐश्वर्या राय से उनका रिश्ता भी ज्यादा लम्बा नहीं चला। ऐश्वर्या ने विवेक के साथ कुछ फिल्में भी की, जिनमें से कुछ सफल भी रहीं! पर, बाद इन्होंने साथ काम नहीं किया। ऋतिक रोशन और कंगना रनौत का किसा भी अजीब है। 'कृष' में धमाल मचाने वाले ये दोनों कलाकार आज एक-दूसरे की शक्ल भी नहीं देखना चाहते हैं। दोनों के बीच विवाद का लम्बा इतिहास है।
  अभिषेक बच्चन और करिश्मा कपूर की प्रेम कहानी भी दिलचस्प है। दोनों के परिवार उनकी शादी करने वाले थे, लेकिन करिश्मा की माँ बबीता के विरोध की वजह से ये रिश्ता सगाई से आगे नहीं बढ़ सका! फिर इन्होंने कभी न तो साथ काम किया और न इनकी जिंदगी ही आपस में कभी टकराई! अभिषेक और रानी मुखर्जी के बीच भी नजदीकी रिश्ता बना था! 'बंटी और बबली' के बाद ये सबसे चर्चित जोड़ी थी! लेकिन, बात आगे नहीं बढ़ी और ये रिश्ता ख़त्म हो गय। एक समय जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु चर्चित जोड़ी हुआ करती थी। बिपाशा को कभी सफल अभिनेत्री नहीं समझा गया, पर वे जॉन से रिश्ते की वजह से ही वे ख़बरों में रहीं। लेकिन, अंत में दोनों अलग हो गए। दोनों ने ब्रेक-अप के बाद कभी साथ काम नहीं किया। दोनों ने शादी करके अपने रास्ते भी बदल लिए।     परदे की सबसे चर्चित जोड़ियों में करीना कपूर और शाहिद कपूर की जोड़ी भी गिनी जाती है। 2004 में आई फिल्म 'फिदा' से दोनों नजदीक आए थे। दोनों की 36 चाइन टाउन, छुप-चुछुप के और 'मिलेंगे-मिलेंगे' आई। लेकिन, 'जब वी मेट' फिल्म के दौरान इनमें ब्रेकअप हो गया। कई साल बाद दोनों 'उड़ता पंजाब' में नजर तो आए, लेकिन एक साथ नहीं! फिल्म के प्रमोशन के दौरान भी दोनों ने एक-दूसरे की अनदेखी की। साफ जाहिर है कि ये दोनों एक जोड़ी की तरह काम नहीं करना चाहते हैं!
   रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण एक समय परदे की सबसे खूबसूरत जोड़ी थी। दोनों ने कुछ फ़िल्में भी साथ की। अपने रिश्तों को लेकर दोनों सीरियस भी थे, लेकिन इस जोड़ी का भविष्य भी अच्छा नहीं रहा! दोनों ऐसे अलग हुए कि परदे पर भी साथ दिखाई नहीं दिए। रणवीर सिंह के साथ अनुष्का शर्मा की जोड़ी भी बॉलीवुड की पसंद की जाने वाली जोड़ी थी। दोनों का बॉलीवुड में आगमन भी 'बैंड बाजा बारात' से ही हुआ था। अनुष्का और रणवीर सिंह ने करीब तीन साल तक रिश्ता निभाया फिर अलग हो गए। पूर्व मिस यूनिवर्स सुष्मिता सेन ने भी डायरेक्टर विक्रम भट्ट के साथ अपने रिश्ते को खुलकर कबूला था। यहाँ तक बताया गया कि उनसे शादी करने के लिए विक्रम अपनी पत्नी से तलाक ले रहे हैं! लेकिन, ऐसा हुआ नहीं और सुष्मिता और विक्रम अलग हो गए। सिद्धार्थ मल्होत्रा और आलिया भट्ट भी अपनी पहली फिल्म 'स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर' में पहली बार दिखाई दिए थे। लम्बे समय तक साथ रहकर भी इन्होंने कभी खुलकर अपने रिश्ते को नहीं स्वीकारा! अब दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं। 
  अक्षय कुमार और रवीना टंडन ने 90 के दशक कई फ़िल्मों में काम किया। दोनों के बीच लम्बा संबंध रहा! मगर, ट्विंकल खन्ना से शादी के अक्षय और रवीना के रोमांस का जल्द ही पैकअप हो गया। दोनों को आखिरी बार 1998 में 'क़ीमत' में साथ देखा गया था। अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा की भी जोड़ी बनी थी। प्रियंका के करियर की शुरुआत ही अक्षय की फिल्म 'अंदाज़' से हुई थी। इसके बाद कुछ और फ़िल्मों में दोनों साथ आए, मगर अक्षय और प्रियंका की ऑन एंड ऑफ़ स्क्रीन केमिस्ट्री जब अक्षय की फ़ैमिली लाइफ़ के लिए ख़तरा बनने लगी थी। इसके बाद अक्षय ने प्रियंका से रील और रियल लाइफ़ दोनों में दूरी बना ली। दोनों की आख़िरी फ़िल्म 2005 में आी 'वक़्त- द रेस अगेंस्ट टाइम' थी।
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Tuesday, September 24, 2019

शहद के छत्ते की तरफ लपलपाती राजनीति और नौकरशाही!

- हेमंत पाल 

        जीवन की जो बुराइयां गिनी जा सकती है, उनमें एक है लालच! लेकिन, इनमें सबसे घृणित लालच है, चरित्र की राह पर भटक जाना! आजकल मध्यप्रदेश की राजनीति और नौकरशाही इसी लालच की पीड़ा भोग रही है! दरअसल, ये वो दर्द है जो ज्यादा मीठा खाने की चाह से उभरता है! ये जानते हुए कि ये घृणित लालच वक़्त आने पर ब्याज समेत वसूली करता है, फिर भी लोग इसके मोहपाश से मुक्त नहीं होते! होना संभव भी नहीं है! क्योंकि, ये ऐसी मानवीय कमजोरी है, जो आदिकाल से आजतक अलग-अलग प्रसंगों में अपना असर दिखाती रही है! कभी एक देश अपने दुश्मन देश की ख़ुफ़िया जानकारियां जुटाने के लिए मोहनी जाल फैलाते हैं! कभी सेना के अफसरों को फंसाकर उनसे काम निकाला जाता है! ये वो अचूक निशाना है, जिसका वार कभी खाली नहीं जाता! ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इसका प्रयोग मेनका के जरिए इंद्र ने भी किया था! जब देवता भी इस बुराई से नहीं बच सके, तो राजनीति और नौकरशाही की जीभ इस शहद के छत्ते को देखकर लपलपाने लगी तो इसमें              बुराई क्या है!       
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   'हनीट्रैप' यानी शहद की तरह ऐसे मीठा जाल जिसमें फंसने वाले को कुछ अंदाजा नहीं होता! वो जानता है कि जो कर रहा है, वो गलत है फिर भी फंसता चला जाता है! ऐसे में वो नहीं जानता कि कहां फंस गया है और किस मकसद से किसका शिकार बनने वाला है। मध्यप्रदेश में इन दिनों ऐसे ही एक मीठे जाल ने अच्छा खासा हंगामा मचा रखा है! जब ये राज खुला, तब इसे महज पैसे की लालच में गरम गोश्त का धंधा समझा गया था! लेकिन, जब परतें खुली तो नेपथ्य में अच्छी खासी साजिश नजर आई। सरकार बनाने और गिराने तक के दावे किए जाने लगे! लेकिन, ये तय है कि जिन पाँच महिलाओं को पकड़ा गया है, उनमें से किसी का मकसद सरकार गिराने या बचाने का नहीं होगा! क्योंकि, उनका तो उस चारे की तरह इस्तेमाल किया गया, जो मछली पकड़ने के लिए मछुआरे करते हैं! उनका दोष तो सिर्फ जिस्म की सौदेबाजी था, जिसकी आड़ में शायद किसी का कोई और मकसद था! 
    इस पूरे घटनाक्रम का मूल मकसद तो नेताओं और अफसरों की चारित्रिक कमजोरी का फ़ायदा उठाकर उनसे अपना काम निकलवाना और ब्लैकमेल करके वसूली करना रहा होगा! किसी महिला की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी होगी तो उसकी भी सीमा होगी! लेकिन, उनके इस 'खुलेपन' और बिंदास अंदाज के पीछे एक राजनीतिक साजिश रच ली गई! ये साजिश क्या थी और इससे किसका फ़ायदा और नुकसान होना था, फिलहाल ये स्पष्ट नहीं है! क्योंकि, दोनों ही राजनीतिक पाले में खड़े लोग एक-दूसरे पर संदेह के हथियारों से हमले कर रहे हैं! किंतु, इस शहद के छत्ते को लेकर नौकरशाह जिस तरह जीभ लपलपाते दिखाई दिए, वो समाज के उच्च वर्ग के चारित्रिक पतन का सबसे घृणित पक्ष है! इससे एक सवाल ये भी उठता है कि क्या इस एक लालच की पूर्ति करके सबकुछ हांसिल किया जा सकता है? कम से कम अभी तक जो सच सामने आया है, उससे तो यही   लगता है!     
    यह कहना अभी मुश्किल है कि इस सारे घटनाक्रम का मकसद महज ब्लैकमेलिंग था या इसकी आड़ में कोई दूसरी पटकथा लिखी जा रही थी! लेकिन, इंदौर में दर्ज शिकायत के बाद पुलिस जिस तरह सक्रिय हुई और चंद घंटों में पूरे मामले को खोलकर रख दिया, उससे लगता है कि एफआईआर तो एक बहाना था! इसके पीछे की पूरी पटकथा को पहले ही पढ़ लिया गया था! मीडिया के मुताबिक इंटेलीजेंस के पास पहले से इस बात की सूचना थी की एक पूर्व मंत्री ने इन मधुमक्खियों का इस्तेमाल करके कांग्रेस के साथ विधायकों को फंसाने की तैयारी कर रखी थी! दो मंत्रियों को शहद के मीठे जाल फांस भी लिया गया था। पूरी साजिश सफल हो पाती, उसके पहले ही एटीएस ने इस कांड के परखच्चे उड़ा दिए! इंदौर में दर्ज हुई नगर निगम के अफसर हरभजन सिंह की शिकायत से पहले पुलिस को सबकुछ पता तो था! लेकिन, शिकायत के बगैर पुलिस के भी हाथ बंधे थे! यही कारण है कि शिकायत दर्ज होते ही पुलिस के हाथ मधुमक्खियों के गिरेबान तक पहुँच गए और कलई खुलने में भी देर नहीं लगी!
   सबसे कमाल की बात तो ये है कि इस ब्लैकमेलिंग गैंग की महिलाओं ने एनजीओ को हथियार की तरह इस्तेमाल किया! वे अफसरों को अपने तरीके से फंसाती थीं और उनसे अपने एनजीओ के लिए सरकारी प्रोजेक्ट लेती थीं! इस बहाने हाईप्रोफाइल सोसायटी तक उनकी पहुँच बन जाती और उनका मकसद आसानी से पूरा हो जाता! ऐसे ही उनका ब्लैकमेलिंग का खेल भी चलता रहता! नौकरशाहों और नेताओं के बीच जिस्म की ये सौदेबाजी कब से चल रही थी, कहा नहीं जा सकता! लेकिन, कुछ महीने पहले मंत्रालय में पदस्थ एक सीनियर नौकरशाह का आपत्तिजनक वीडियो सामने आने के बाद उन्हें लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया था। उनसे सारे कामकाज भी वापस ले लिए गए थे! सामने आए वीडियो में ये अधिकारी युवती के साथ शराब पीते हुए अश्लीलता कर रहे थे। जब इस वीडियो से मंत्रालय में हड़कंप मचा तो सरकार के कान खड़े हुए! जिस अफसर का वीडियो बाहर आया उसकी सरकार में नंबर-दो की भूमिका थी! शायद ये घटना उस साजिश की शुरुआत रही होगी, जो अब खुलकर सामने आई है!
   बताते हैं कि शिकार को फंसाने में श्वेता जैन की भूमिका अहम थी! श्वेता की 2012 से भाजपा नेताओं से नजदीकी थी। छतरपुर से सागर आकर उसने 2013 में विधानसभा का टिकट भी मांगा था! लेकिन, एक अश्लील वीडियो ने उसकी दावेदारी खत्म कर दी! कमलनाथ सरकार गिराने का बार-बार दावा करने वाले भाजपा के तीन पूर्व मंत्रियों को श्वेता जैन का नजदीकी माना जा रहा है! पुलिस का मानना है कि इस गिरोह के निशाने पर सौ से ज्यादा लोग थे! ये सिर्फ नेता या नौकरशाह ही नहीं, बड़े बिजनेसमैन भी हैं। इनमें से करीब आधे को तो ब्लैकमेल किया जा चुका है। यदि इशारों को समझा जाए तो इनका शिकार होने वालों में दो पूर्व मुख्यमंत्री, तीन पूर्व मंत्री, एक पूर्व सांसद, करीब 20 नौकरशाहों के साथ कुछ बड़े बिजनेसमैन भी हैं! इसके अलावा वर्तमान सरकार के दो मंत्री और कुछ विधायक भी शहद के छत्ते में फंस चुके हैं! 19 लड़कियों के सहारे इनके अश्लील वीडियो बनाकर इनसे वसूली की गई!
  इतिहास बताता है कि इस शहद विधा का दुनिया में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल रूस की ख़ुफ़िया एजेंसी केजीबी ने किया! इस विधा को कला बनाने का श्रेय भी केजीबी को ही जाता है। शीत युद्ध के समय उन्होंने मास्को के आसपास स्कूल भी बनाए थे, ताकि लोग यह सीख सकें कि किसी दूसरे देश में जाकर कैसे रहा जाए और देशहित में क्या किया जाए! केजीबी इस प्रथा में बहुत माहिर थी। भारतीय खुफ़िया एजेंसियां भी विदेशों से जानकारी जुटाने के लिए 'हनीट्रैप' का इस्तेमाल करती रही हैं? जासूसी का ये बहुत महत्वपूर्ण हथियार है। पहले ज्यादातर गुप्त सूचनाएं जासूसों से इसी तरह मिला करती थीं, लेकिन अब इसका इस्तेमाल कम हो गया। अब तकनीकी का इस्तेमाल ज़्यादा किया जाने लगा है! लेकिन, यदि किसी से कोई जानकारी हांसिल करना है, तो उसे बदले में कुछ देना पड़ता है! किसी को पैसा चाहिए तो किसी को इस तरह का सुख! पर, ये ऐसा खतरनाक लालच है, जो कभी न कभी सामने आ ही जाता है! अब सारी नजरें उत्सुकता से उस तरफ लगी है कि मध्यप्रदेश में उठा ये तूफ़ान कहाँ जाकर थमेगा! कोई बेनकाब होगा भी या सारे कांड को जाँच की आड़ में दबा दिया जाएगा! क्योंकि, जिस हम्माम में सबको पकड़ा गया है, वहाँ नेता भी हैं, नौकरशाह भी और बड़े उद्योगपति भी!
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Sunday, September 22, 2019

दर्शक के नायकत्व का प्रतिनिधि!

- हेमंत पाल

   जब कोई व्यक्ति दर्शक के रूप में फिल्म देखता है, तो वह समय, समाज, यथार्थ और परिस्थितियों से भी कट सा जाता है। परदे के सामने वह ऐसे संसार में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसकी मानसिक चेतना फिल्म के नायक पर केंद्रित हो जाती है! वो खुद में नायकत्व महसूस करने लगता है। उसे लगता है कि वही वो नायक है, वही शत्रुओं का संहारक है। यही दर्शक जब फिल्म देखकर बाहर निकलता है, तो उसे चारों तरफ बदलाव सा महसूस होता है! उसका मन जोश, साहस, वीरता, प्रेम, दयालुता, करुणा, दोस्ती जैसी मानवीय अच्छाइयों से भर जाता है। कभी वो अपने अंदर 'मुग़ले आज़म' के दिलीप कुमार को महसूस करता है, तो कभी 'दीवार' के गुस्सैल अमिताभ बच्चन को! नायकत्व का ये अहसास आना किसी ख़ास वर्ग और समाज के दर्शक की बात नहीं है! कोई भी हो, उसमें नायकत्व आ ही जाता है। ये चंद पलों की वो स्थिति है, जो उसे अपने असल जीवन में कभी नसीब नहीं होती! नायकत्व का यही सोच दर्शक को सबसे ज्यादा भाता है। लेकिन, ये भावना फिल्मों के कथानक पर निर्भर है कि दर्शक ने कौनसी फिल्म देखी!    
  देखा गया है कि हर फ़िल्म किसी न किसी मनुष्य के जीवन की प्रतिनिधि होती है। यही कारण है कि हर दर्शक परदे पर खुद को महसूस करता है।  अलग है कि किसी के जीवन में ये कुछ कम तो किसी में ज्यादा! क्योंकि, फिल्म वो माध्यम है, जिसमें पूरा समाज समाया हुआ है। कोई ऐसा समाज, धर्म, कार्य या ज्ञान नहीं है, जिसे कभी न कभी किसी न किसी रूप में फ़िल्मों में दिखाया गया हो! ख़ास बात ये कि पटकथा में समाज का प्रतिनिधित्व दर्शाने के लिए एक सद्चरित्र व्यक्ति को चुना जाता है! यही होता है फिल्म का नायक और दर्शक का प्रतिनिधि! यही नायक समाज के सामने एक उदाहरण बनता है। 
  दर्शक अपने जीवन की हार, कमज़ोरियों, समस्याओं और परिस्थितियों से हारा हुआ है। सिनेमा के परदे की नकली कहानियों में वो अपने जीवन की सफलता तलाशने जाता है। ऐसे में उसे सिनेमा उसे एक असीम संतुष्टि देता है, कि परदे पर ही सही जीत तो नायक की ही होती है। परदे पर नायक उस दर्शक का प्रतिनिधि है, जो कठिन परिस्थितियों में भी संघर्ष से नहीं हारता! सिनेमा देखते समय दर्शक वास्तव में दर्शक नहीं रहता, बल्कि नायक बन जाता है। सिनेमा के परदे पर चमत्कार करता है और खलनायक को हराकर नायक बन जाता है। सिनेमा का यह संघर्ष  ही दर्शक का सबसे बड़ा आकर्षण होता है जो उसे सिनेमा देखने के लिए प्रेरित करता है।
 असल बात ये कि सिनेमा आम आदमी को कुछ पलों का नायकत्व प्रदान करने का माध्यम है। यही कारण है कि समाज के हर वर्ग में सिनेमा की लोकप्रियता असीमित है। सिनेमा ही वह माध्यम भी है, जो किसी आम इंसान को नायक बना देता है। इतिहास इस बात का प्रमाण है कि फिल्मों ने न जाने कितने आम इंसान को नायक बनाया! सामान्यतः ऐसा होता नहीं है, पर फिल्मों में वही सब होता है, जो वास्तविक जीवन में नहीं होता! यही कारण है कि जो जीवन में नहीं होता, वो सब फ़िल्मों में होता है।
  मनुष्य प्रवृत्ति संघर्षशील होती हैं। कोई परिस्थितियों से लड़ता है, कोई अपने अतीत से! कुछ लोग सत्य के तो कुछ असत्य के पीछे भागते हैं। बस यहीं से आरंभ होती है नायक की सत्य और असत्य के संघर्ष की यात्रा। इसी से नायक और खलनायक की प्राथमिकताएं निर्धारित होती है। जो सत्य का अनुयायी है, वो नायक और जो इसका विरोधी है, वो खलनायक! ऐसी स्थिति में नायक का कद बड़ा होता है! हमारे धर्मग्रंथ और मिथक इस बात के प्रमाण हैं कि हर समयकाल में प्रतिनायक के संहार के लिए नायक की जरुरत पड़ती है। इतिहास के नायक और खलनायक सदा इस बात की याद दिलाते हैं कि संघर्ष चाहे जैसा भी हो, अंततः जीत नायक की ही होती है। 
   फिल्म का अधिकांश हिस्सा खलनायक यानी प्रतिनायकत्व को स्थापित करने में लगता है! लेकिन, नायक को स्थापित नहीं करना पड़ता! जब भी नायक सामने आता है, अपने वाकचातुर्य और रणनीति से वह खलनायक को मात जरूर देता है! समय इस बात का गवाह है कि चाहे जो हो, बुरे व्यक्ति को अंत में जाना ही पड़ता है। यही खलनायक के साथ भी होता है! ये सिनेमा का वो दर्शन है, जो परदे पर भी और उसके बाहर भी सबको समझ आता है। सिनेमा में नायक की कभी हार नहीं होती! ये सामाजिक रूप से जरुरी है और फिल्म कारोबार की दृष्टि से भी! क्योंकि, यदि नायक ही हार गया, संघर्ष का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा! यही कारण है कि नायक कभी हारता नहीं!
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Tuesday, September 17, 2019

झाबुआ उपचुनाव में जीत का समीकरण उम्मीदवारी से तय होगा!

- हेमंत पाल

  मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य में कभी ऐसे राजनीतिक हालात नहीं बने कि दोनों प्रमुख पार्टियों को एक-एक सीट के लाले पड़े हों! सरकार बनाने वाली कांग्रेस भी बहुमत के किनारे पर है! ऐसे में झाबुआ सीट के लिए होने वाला उपचुनाव दोनों के लिए प्रतिष्ठा सवाल बन गया। कांग्रेस ये उपचुनाव जीतकर अपनी ताकत बढ़ाना चाहती है! भाजपा अपनी इस सीट को दोबारा जीतकर ये साबित करना चाहती है कि कांग्रेस की कमलनाथ सरकार से प्रदेश की जनता का मोह भंग हो चुका है। सरकार बनने के बाद यह पहली खुली राजनीतिक जंग होगी जो दोनों पार्टियों की रणनीतिक ताकत और भविष्य की तैयारी बताएगी! लेकिन, झाबुआ में बागियों का इतिहास काफी लम्बा रहा है! इस बार भी क्या बागी उम्मीदवार अपनी मौजूदगी का असर दिखाएंगे, चुनाव के नतीजे इस पर भी निर्भर करते हैं। प्रदेश में सरकार के चलने और गिरने में झाबुआ उपचुनाव के नतीजे अहम भूमिका होगी! क्योंकि, यह सीट जीतकर कांग्रेस पूर्ण बहुमत में आ सकती है। यदि इसका उल्टा हुआ तो फिर सरकार के भविष्य पर संकट मंडराएगा! 
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  झाबुआ-रतलाम लोकसभा सीट से सांसद चुने जाने के बाद भाजपा के जीएस डामोर ने झाबुआ विधानसभा सीट खाली कर दी थी! अब इस सीट पर उपचुनाव होने के साथ ही राजनीतिक शक्ति परीक्षण होगा! ऐसी स्थिति में कांग्रेस की कोशिश है कि भाजपा से झाबुआ सीट छीनकर विधानसभा में अपनी सीटों की संख्या 115 कर ली जाए, ताकि बहुमत के मामले में पार्टी की स्थिति संतोषजनक हो! वैसे तो यहाँ मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में ही होना है! पर, सबसे बड़ी आशंका बागी उम्मीदवारों की है, जिनकी दोनों पार्टियों में कमी नहीं! 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस की हार में टिकट न मिलने पर बागी जेवियर मेढा ने करीब 35 हज़ार वोट काटकर अपना जादू दिखाया था! अब फिर वही हालात बन रहे हैं। लेकिन, हलचल बताती है कि इस बार कांग्रेस ने ऐसी स्थिति न बनने की तैयारी कर ली है! प्रदेश में सरकार की उसी की है इसलिए उसके लिए बागी रोकना आसान भी है!
   झाबुआ सीट पर कांग्रेस इस बार पार्टी के नेताओं की गुटबाजी थाम ले, पर 'जय आदिवासी युवा संगठन' (जयस) उसे शह दे सकता है। वैसे तो 'जयस' में भी फूट है, पर यदि उनका कोई उम्मीदवार चुनाव लड़ता है, तो इसका कांग्रेस को नुकसान होगा। झाबुआ में हुई 'जयस' की महापंचायत में भी घोषणा की गई थी, कि यदि सरकार ने उनकी मांगे नहीं मानी तो झाबुआ उपचुनाव में वे अपना उम्मीदवार खड़ा कर सकते हैं। लेकिन, झाबुआ जिले में 'जयस' भी बिखरी नजर आ रही है। विधानसभा चुनाव में यहाँ से कांग्रेस के बड़े नेता कांतिलाल भूरिया के बेटे डॉ विक्रम भूरिया को भाजपा के अफसर से नेता बने जीएम डामोर ने हराया था। अपनी इस परंपरागत सीट से कांग्रेस करीब 10 हजार वोटों से इसलिए हारी थी कि जेवियर मेढा ने करीब 35 हज़ार वोट की चोट दी थी! स्पष्ट है कि यदि जेवियर निर्दलीय चुनाव नहीं लड़ते तो कांग्रेस उम्मीदवार आसानी से चुनाव जीत जाता! जीएम डामोर ने विधानसभा चुनाव में डॉ विक्रांत भूरिया हराया और लोकसभा चुनाव में उनके पिता और कांग्रेस के बड़े आदिवासी नेता माने जाने वाले कांतिलाल भूरिया को! 
  पहले चाहे कांग्रेस किसी भी हालात से गुजरी हो, पर अब वो कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं लगती! ऐसा होने भी नहीं देना चाहिए! क्योंकि, झाबुआ सीट की हार-जीत दोनों के लिए कुछ ख़ास मायने रखती है! कांग्रेस जीती तो प्रदेश में उसका ये दावा मजबूत होगा कि कमलनाथ सरकार के प्रति लोगों का भरोसा मजबूत हुआ है! लेकिन, यदि कांग्रेस ने फिर मात खाई तो उसकी सरकार को विपक्ष से नई चुनौती का मुकाबला करना पड़ सकता है! भाजपा तो कांग्रेस को हराने के लिए अपने तरकश में रखे सारे तीर आजमाएगी! कांग्रेस के विधानसभा चुनाव में किए गए वादों को वो झाबुआ उपचुनाव में हथियार की तरह इस्तेमाल करेगी! अब देखना है कि कांग्रेस इससे कैसे निपटती है! वैसे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस झाबुआ विधानसभा क्षेत्र से करीब 8 हज़ार से वोट से आगे रही थी! ये इस बात का प्रमाण है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार पार्टी में हुए विद्रोह का नतीजा थी!    
   कांग्रेस झाबुआ विधानसभा उपचुनाव में जेवियर मेड़ा को उम्मीदवार बना सकती है, इस बात के आसार ज्यादा हैं। जबकि, कांग्रेस की तरफ से कांतिलाल भूरिया और डॉ विक्रांत भूरिया दोनों मुँह धोकर उम्मीदवारी का भरोसा पालकर बैठे हैं! संभव है कि पार्टी भूरिया बाप-बेटे को कोई आश्वासन देकर जेवियर के लिए मना ले! लेकिन, सिर्फ मनाने से बात नहीं बनेगी! दोनों भूरियाओं को ईमानदारी से कांग्रेस को जिताने के लिए पूरा जोर लगाना पड़ेगा! क्योंकि, यदि ऐसा नहीं हुआ तो विधानसभा चुनाव की कहानी फिर दोहराई जा सकती है। कांग्रेस के लिए एक खतरा ये भी है कि यदि जेवियर मेढा को उम्मीदवार नहीं बनाया तो पार्टी के तीनों क्षत्रपों के बीच खींचतान हो सकती है! क्योंकि, जेवियर ने ज्योतिरादित्य सिंधिया का पल्ला पकड़ लिया है, जबकि भूरिया को दिग्विजय सिंह खेमे का माना जाता है।            
  झाबुआ में पिछले दो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बग़ावतियों के कारण ही हार मुँह देखना पड़ रहा है। 2008 के चुनाव में कांग्रेस के जेवियर मेढा भाजपा के पवेसिंह पारगी को हराकर चुनाव जीते और विधायक बने थे। लेकिन, 2013 के चुनाव में कांग्रेस की गुटबाजी के कारण कलावती भूरिया ने बगावत कर मैदान में आ गई और जेवियर चुनाव हार गए थे। 2016 में झाबुआ में हुए लोकसभा उपचुनाव में डॉ विक्रांत भूरिया की रणनीति और प्रबंध कौशल से प्रभावित होकर कांग्रेस ने उन्हें 2018 के विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाया। वक़्त ने फिर करवट ली और अब चुनाव मैदान में बागी उम्मीदवार बनकर जेवियर मेढा आ गए और जीती हुई सीट कांग्रेस के हाथ से निकल गई। बताते हैं कि जेवियर ने पार्टी को स्पष्ट बता दिया है कि यदि उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया तो वे फिर बगावत कर सकते हैं! ये संभावना भी है कि जेवियर को भाजपा अपने पाले में ले आए और कांग्रेस को उसी के हथियार से चुनौती दे! भाजपा ने इसके लिए कुछ कदम बढ़ाए भी हैं! इसलिए कांग्रेस को हर हालात पर नजर रखना होगी।  
   भाजपा ने भी उपचुनाव के लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी है। कांग्रेस की तरह भाजपा में भी उम्मीदवारी को लेकर खींचतान है, पर टिकट की आस करने वालों की कमी भी नहीं है। पूर्व विधायक शांतिलाल बिलवाल का टिकट जीएस डामोर के कारण कट गया था! लेकिन, इस बार भी उनकी उम्मीदवारी पर संदेह है। इसके अलावा झाबुआ नगर पालिका के पूर्व अध्यक्ष पर्वत मकवाना का नाम भी चल रहा है! लेकिन, उनके कार्यकाल की बदनामी उनका पीछा नहीं छोड़ रही! राणापुर नगर पंचायत अध्यक्ष सुनीता अजनार भी एक दावेदार है। किंतु, अभी के हालात इनमे से किसी के पक्ष में नहीं लग रहे! स्थिति चाहे जो हो, दोनों ही पार्टियाँ इस चुनाव को जीतने में कोई कसर शायद ही छोड़े! क्योंकि, विधानसभा में संख्या बल के हिसाब से 229 के सदन में अब भाजपा के 108 विधायक हैं और कांग्रेस के पास 114 विधायक! एक निर्दलीय प्रदीप जायसवाल को कांग्रेस ने मंत्री बनाया है, जो कांग्रेस के साथ हैं। कांग्रेस की तैयारी है कि झाबुआ सीट जीतकर अपनी ताकत को 115 तक बढ़ाकर बहुमत के और करीब आया जाए। पर, सारा दारोमदार झाबुआ के मूड पर टिका है!
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Saturday, September 14, 2019

हिंदी फिल्मों में भाषा का घालमेल!

- हेमंत पाल

    भारत में कई भाषाओं में फ़िल्में बनती हैं। मुंबई की फ़िल्मी दुनिया हिंदी फिल्मों के लिए जानी जाती है, जबकि दक्षिण में तीन भाषाओं में फिल्म बनती है! बांग्ला, भोजपुरी और उड़िया के अलावा कुछ और भाषाओं में भी फ़िल्में बनाई और देखी जाती है! लेकिन, सबसे ज्यादा असरदार है, हिंदी सिनेमा! कहने को इन फिल्मों की भाषा हिंदी है, पर इसमें कई भाषाओं और बोलियों का घालमेल है! शुरूआती समय में तो हिंदी सिनेमा में उर्दू का तड़का लगता था! किंतु, समय के साथ-साथ ये रिश्ता दरकने लगा! सिर्फ भाषा के इस्तेमाल में ही बदलाव नहीं आया, बोलने का लहजा भी बदल गया। इस बात से इंकार नहीं कि समाज ही सिनेमा को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है, पर भाषा ही वो घटक है, जो फ़िल्म का संस्कार दर्शाता है।
  50 और 60 के दशक के मध्यकाल तक फिल्मों में जुबान स्पष्ट और आसान थी। जबकि, अब आज की फिल्मों में इंग्लिश शब्दों के प्रयोग के साथ-साथ स्थानीय बोली का भी घालमेल ज्यादा दिखने लगा है। अपराध की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'गैंग आफ वासेपुर' को भाषा के स्तर पर फिल्मों में आने वाले बदलाव का मोड़ कहा जा सकता है। इस फिल्म में भाषा का विकृततम रूप सुनाई दिया था। अब तो स्थिति ये आ गई कि फिल्मों की भाषा को किरदार मुताबिक गढ़ा जाने लगा है! 'तनु वेड्स मनु' में कंगना रनौत अपना परिचय हरियाणवी में देती है। 'बाजीराव मस्तानी' में मराठा बना रणवीर सिंह मराठी बोलता नजर आता है! 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में भोजपुरी, 'उड़ता पंजाब' में पंजाबी, 'पानसिंह तोमर' में ब्रज भाषा का इस्तेमाल हुआ! वास्तव में तो फिल्मों की भाषा दर्शक की मनःस्थिति तक पहुँचने का जरिया होती है! यही कारण है कि ऐसी भाषा का इस्तेमाल होता है, जो लोगों में लोकप्रिय हो और आसानी से समझ आए। 
   हिंदी सिनेमा की भाषा की बात की जाए तो ये न तो व्याकरण सम्मत है न साहित्यिक! कहने को इन्हें हिंदी फ़िल्में कहा जाता हो, पर वास्तव में ये खरी हिंदी नहीं है, बल्कि कई भाषा और बोलियों का मिश्रण है! जबकि, देखा जाए तो मराठी, मलयालम, तमिल और यहाँ तक कि भोजपुरी और बांग्ला फिल्मों में भी वहाँ की अपनी भाषा होती है! पर, हिंदी फिल्मों में पूरी तरह हिंदी भाषा नहीं होती! फिल्म के संवादों में भाषा की इतनी मिलावट है, कि इसे हिंदी फ़िल्में तो कहा ही नहीं जा सकता! इसमें क्षेत्रीय बोलियों के साथ अंग्रेजी का भी भरपूर इस्तेमाल होता है। फिल्मों में भाषा का जो बदलता स्वरुप सामने आ रहा है, वो काफी हद तक हमारे समाज और संस्कृति का मापदंड है। देखा जाए तो समय के साथ बोलचाल की भाषा में भी बदलाव आ रहा है। ऐसे में सबसे सही भाषा वही मानी गई है, जो अपनी बात कहने का जरिया बने! कहने को एक फिल्म 'हिंदी मीडियम' भी बनी, पर ये भी हिंदी के लिए नहीं थी!      
   दादासाहेब फाल्के ने जब 1913 में सबसे पहले बिना आवाज वाली फिल्म 'राजा हरिशचंद्र' बनाई थी, तब फिल्म की भाषा कोई विषय नहीं था! लेकिन, उसके बाद 1931 में जब पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' बनी, तो भाषा भी एक मुद्दा बन गया! लेकिन, तब हिंदी के साथ उर्दू की नफासत का पुट था, जो धीरे-धीरे लोप होता गया। 1940 में महबूब ख़ान ने 'औरत' बनाई थी, जो एक महिला के संघर्ष की कहानी थी। इसके बाद महबूब ख़ान ने एक ग्रामीण महिला के संघर्ष को ग्रामीण परिवेश में दिखाते हुए 'मदर इंडिया' बनाई! इस फिल्म की भाषा भोजपुरी मिश्रित हिन्दी थी। ग्रामीण परिवेश की कहानी वाली फिल्मों में हिन्दी और भोजपुरी का ही ज्यादा प्रयोग होता था। क्योंकि, मुंबई तथा अन्य बड़े शहरों में बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से गए लोगों की संख्या ज्यादा थी, जो भोजपुरी बोलते थे। खेती छोड़कर मज़दूरी करने आए मजदूर की जिंदगी पर बिमल राय ने 'दो बीघा जमीन' जैसी फिल्म बनाई थी। इसमें बलराज साहनी ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इस फिल्म की भाषा तो हिन्दी थी, पर अनेक गाने भोजपुरी भाषा से जुड़े थे।
  ये मुद्दा भी बहस का विषय रहा कि भाषाई संस्कार में आए बदलाव से हिंदी को नुकसान हुआ या कोई फायदा भी हुआ? इस मुद्दे पर सभी एकमत नहीं हो सकते! इसलिए कि सभी के तर्क अलग-अलग हो सकते हैं! ये भी कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों में क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव से हिंदी का स्तर गिरा नहीं है! बल्कि, इस रास्ते से हिंदी क्षेत्रीय भाषा एक बड़े समूह तक जरूर पहुंची है! ये ज़रूर है कि आज बॉलीवुड में ज्यादातर फिल्मों में खिचड़ी भाषा का इस्तेमाल होने लगा है। इसमें अंग्रेजी, हिंगलिश सबकुछ होता है। ये भी कहा जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से हिंदी खराब नहीं हो रही, बल्कि समृद्ध हो रही है। साथ ही क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां भी संरक्षण पा रही है। लेकिन, फिर भी बॉलीवुड की फिल्मों को हिंदी फ़िल्में ही कहा जाता है और कहा जाता रहेगा।
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Tuesday, September 10, 2019

मतभेदों की चौड़ी होती खाई में समाती मध्यप्रदेश कांग्रेस!

- हेमंत पाल

आठ महीने पहले जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, तब लगा था कि पार्टी के तीनों क्षत्रप सामंजस्य से पाँच साल सरकार चला लेंगे! शुरू में ऐसा लगा भी, पर धीरे-धीरे सामंजस्य का शिखर दरकने लगा! क्षत्रप खुद तो दिल की बातों को जुबान पर नहीं लाए, पर उनके समर्थकों ने मोर्चा संभाल लिया! कमलनाथ सरकार पर दिग्विजय सिंह के बहाने हमले होने लगे! पहली बार मंत्री बने नेता भी इतने मुखर हो गए कि ताल ठोंककर दिग्विजय सिंह के अनुभव को चुनौती देने लगे! बात इतनी बढ़ी कि बंद कमरों की बातचीत निकलकर सड़क पर आ गई! गुटबाजी की गर्मी इतनी बढ़ी कि मनभेदों की खाई मतभेदों में बदल गई! ये पार्टी में अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा है! लेकिन, डगमगाते समर्थन पर टिकी सरकार के लिए ये सबसे खतरनाक स्थिति है! उधर, भाजपा इस आपसी जंग का फ़ायदा उठाने के लिए सत्ता के छींके के नीचे ताक लगाकर बैठी है! ये हालात सरकार के भविष्य के लिए अच्छे नहीं कहे जा सकते!   
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   डेढ़ दशक बाद सत्ता में लौटी कांग्रेस को मध्यप्रदेश में सरकार बनाए अभी सालभर भी पूरा नहीं हुआ और पार्टी की कलह सामने आ गई! विधानसभा चुनाव में एकसाथ खड़े होकर भाजपा से मुकाबला करने वाले नेताओं के बीच खींचतान इतनी ज्यादा बढ़ गई कि पार्टी की जमीन दरकने लगी। सत्ता के जिस शिखर कलश को तीनों नेताओं ने थाम रखा था, वो पकड़ इतनी ढीली हो गई कि कभी भी बड़ी मुश्किल सामने आ सकती है! पार्टी के छोटे-छोटे नेताओं की जुबान इतनी बाहर आ गई, कि वे क्षत्रपों को शह देने की कोशिश करने लगे! दरअसल, ये कोई नई कहानी नहीं थी! जो जुबानी तलवारबाजी परदे की आड़ में जंग की तरह चल रही थी, वो सिपाही अब लड़ते-लड़ते सड़क पर आ गए! पूरी कांग्रेस आज तीन सेनापतियों के नेतृत्व में बंटकर द्वंद युद्ध लड़ रही है! ये युद्ध भी प्रतिद्वंदियों के नहीं, बल्कि अपनों के खिलाफ है। फिलहाल युद्ध विराम जरूर हो गया, पर मामला निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा! कौन हारा, कौन जीता अभी ये तय नहीं हुआ है! 
    प्रदेश कांग्रेस का अगला अध्यक्ष कौन बनेगा, इस मुद्दे पर जो खींचतान शुरू हुई, उसकी धारा बदल गई! संभावित अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थकों को जब संदेह हुआ कि उनकी राह में रोड़े अटकाए जा रहे हैं, तो वे बिफरने लगे! सिंधिया खेमे के मंत्री उमंग सिंगार ने जिस तरह दिग्विजय सिंह पर हमला बोला, वो उनकी निजी नाराजी नहीं बल्कि सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था! सिंगार तीन दिन तक अलग-अलग मोर्चों पर बेलगाम बोलते रहे! वे न तो इतने मुखर हैं और न चतुर कि पार्टी अनुशासन की सीमा लांघकर पार्टी के बड़े नेता पर शब्दबाण चलाएं! इसलिए तय है कि उनकी इस अनुशासनहीनता के पीछे किसी की शह जरूर थी! किसकी थी, ये बताने की भी जरुरत नहीं! कांग्रेस राजनीति में उमंग सिंगार की पहचान पूर्व उपमुख्यमंत्री जमुना देवी के भतीजे से ज्यादा नहीं है! उनकी बुआ जमुना देवी ने भी लम्बे समय तक दिग्विजय सिंह के खिलाफ मोर्चा संभाले रखा, यही कारण है कि रणनीति के तहत उन्हें ही इस मोर्चे पर लगाया गया! लेकिन, बात बनने बजाए बिगड़ गई!     
   कांग्रेस की गुटबाजी की इस आग में सबसे ज्यादा नुकसान सरकार की छवि को होता नजर आ रहा है! इसलिए कि जिन नेताओं के मुँह से आवाज नहीं निकलती थी, वे भी बोलने से बाज नहीं आए! इस आग में सबसे ज्यादा हाथ सैंके सरकार को समर्थन देने वाले बाहरी विधायकों ने! समाजवादी पार्टी के दो विधायकों ने भी मौका नहीं छोड़ा और सरकार पर टिप्पणी कर दी! बुरहानपुर से जीते कांग्रेस के बागी और अब समर्थक शेरा ने तो खुद को अध्यक्ष बनाने तक का विकल्प सामने रख दिया। अंततः सरकार को इस संघर्ष से बचाने के लिए खुद मुख्यमंत्री कमलनाथ को ही आगे आना पड़ा, तब मामला शांत हुआ! अब सारा विवाद पार्टी हाईकमान के हवाले कर दिया गया! लेकिन, तय है कि सारी कवायद के बाद भी होना कुछ नहीं है! इसलिए कि पार्टी अभी उस स्थिति में नहीं है कि किसी को सजा देने जैसा फैसला कर सके! यानी न तो उमंग सिंगार के जुबानी उत्पात पर लगाम लगेगी और न मनभेदों का साया छंटेगा! क्योंकि, अभी युद्ध समाप्त नहीं हुआ, सिर्फ युद्ध विराम हुआ है! 
     उधर, मध्य प्रदेश में सत्ता खोने से बिफरी भाजपा भी इस ताक में है, कि उसे कब झपट्टा मारने का मौका मिले! ऐसे में उसके दो विधायकों का पाला बदल उसकी बड़ी हार थी! अब, जबकि कांग्रेस में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा, भाजपा ने नए आंदोलन की तैयारी की है! अभी तक बतौर विपक्ष भाजपा ने जो भी आंदोलन किए वे स्थानीय स्तर के नेताओं जिम्मे हुए! पहली बार विपक्ष बड़ा हंगामा करने जा रही है!  प्रदेश सरकार की नीतियों के विरोध में 11 सितंबर को 'घंटानाद' आंदोलन किया जा रहा है। इस आंदोलन की जिम्मेदारी जिला स्तर पर बड़े भाजपा नेताओं को सौंपी गई है। भाजपा का कहना है कि प्रदेश सरकार को जनता के हितों की चिंता नहीं है! राज्य में ट्रांसफर, पोस्टिंग का धंधा चल रहा है! कांग्रेस ने चुनाव में किए वादों की भी सुध नहीं ली! कांग्रेस सरकार को नींद से जगाने के लिए भाजपा 11 सितम्बर को प्रदेश में ‘घंटानाद’ आंदोलन करने जा रही है! पार्टी कार्यकर्ता इस आंदोलन में घंटा और मंजीरे लेकर हर जिले के कलेक्टोरेट का घेराव करेंगे! जिला स्तर पर पार्टी के वरिष्ठ नेता इस आंदोलन का नेतृत्व करेंगे, ताकि सरकार की नींद खुले! भाजपा ने पिछले दिनों कई आंदोलन किए, जो स्थानीय रहे, मगर 11 सितंबर को भाजपा पहला बड़ा आंदोलन करने जा रही है। इस आंदोलन का मकसद भाजपा को अपना शक्ति प्रदर्शन भी करना है।
  आश्चर्य है कि कांग्रेस के पास भाजपा के इस आंदोलन का कोई ठोस जवाब नहीं है! संगठन के स्तर पर कांग्रेस की कमजोरी कई बार सामने आ चुकी है। कई जिलों में तो कांग्रेस के पास पूरी कार्यकारिणी भी नहीं है! जबकि, भाजपा ने विधानसभा चुनाव हारकर भी अपना आत्मविश्वास नहीं खोया! ऐसे हालात में कांग्रेस कैसे मुकाबला करेगी, कहा नहीं जा सकता! फिलहाल तो सारे कांग्रेसी नेता सत्ता की शतरंज पर अफसरों को मोहरों की तरह ज़माने में व्यस्त हैं। जो ये नहीं कर पा रहे, वो अंदर ही अंदर अपनी ही पार्टी को शह देने की साजिश रचने का भी मौका नहीं छोड़ रहे! क्योंकि, प्रदेश के हर जिले में पार्टी के तीनों क्षत्रपों की सेना है, जो सिर्फ अपने सेनापति के प्रति समर्पित है। पार्टी में ऊपर से नीचे तक ये फाड़ है, जो सभी को साफ़ नजर आ रही! जब तक मतभेदों की ये खाई नहीं भरेगी, कांग्रेस की संगठनात्मक ताकत का सही इस्तेमाल नहीं होगा। इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े राज सिंहासन गृह कलह से ही धराशाई हुए हैं! यदि ये कलह जल्दी सुलह में नहीं बदली तो भाजपा के 'घंटानाद' के बगैर भी कांग्रेस की जमीन दरक सकती है!
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Sunday, September 8, 2019

चांद चुरा के लाया हूँ!

- हेमंत पाल

  चाँद की सतह फिलहाल हमारे लिए अछूती रह गई हो! लेकिन, हिन्दी फ़िल्मों ने हमेशा ही चांद के जरिए दर्शकों के दिल के तारों को छेड़ने का प्रयास कर फिल्माकाश की सतह पर उतरने में कामयाबी हांसिल की। आसमान में चांद की जितनी भी कलाएँ होती है, फिल्मकारों ने भी उन तमाम कलाओं को समेटकर सेल्युलाईड पर उतारने का प्रयास भी किया। दूज के चांद से लगाकर पूनम के चांद को पृष्ठभूमि में रखकर हिन्दी फ़िल्मों में हमेशा दर्शकों को गुदगुदाया ही है। धरती से लाखों मील दूर मौजूद चांद ने भी फिल्मकारों के लिए प्रस्तुति के कई दिलचस्प अवसर पैदा किए हैं। उन्होंने कभी फिल्मों के शीर्षक में चांद को शामिल किया तो कभी गीतों में चाँद को शामिल कर नायक-नायिकाओं के सुर मिलाकर दर्शकों के गुनगुनाने के लिए मजबूर किया है। चांदनी रात में बांहों में बाहें डाले प्रेमी युगल को छेड़खानी करते दिखाकर उन्होंने बॉक्स ऑफिस के साथ परदे पर सिक्कों की बरसात कर चांद ने हमेशा फिल्मकारों का साथ निभाया है।
  चाँद शीर्षक से बनने वाली फिल्मों में चाँद, दूज का चाँद, चौदहवीं का चाँद, चाँद मेरे आजा, चोर और चाँद, चाँद का टुकड़ा, ईद का चाँद, चांदनी, ट्रिपल टू मून, पूनम, पूनम की रात सहित दर्जनों फिल्में बनी और इनमें ज्यादातर फ़िल्में सफल भी हुई! हिन्दी फिल्मों में चांद पर जितने गीत बने हैं, दिल को छोड़कर अन्य किसी विषय पर उतने गीत नहीं बने! धरती से चांद जितना सुंदर दिखाई देता है, उतने ही सुंदर गीत हिन्दी फिल्मों के गीत कारोबार ने कलम बंद किए हैं। माहौल चाहे खुशी का हो या गम का, मिलन का हो या जुदाई का, हिंदी फिल्मों में चाँद को प्रतीक या गवाह बनाकर हमेशा प्रयास किए गए। उठा धीरे-धीरे वो चांद प्यारा प्यारा, आजा सनम मधुर चांदनी मे हम, वो चांद जहाँ वो जाए, चाँद सी महबूबा हो मेरी, चौदहवीं का चाँद हो, खोया खोया चाँद, चाँद मेरे आजा, चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो, धीरे धीरे चल चाँद गगन में, चाँद चुराकर के लाया हूँ, चांद फिर निकला मगर तुम न आए और ये चाँद सा रोशन चेहरा समेत सैकड़ों सुरीले गीत चाँद पर लिखे गए हैं। चाँद की हकीकत जानने के बाद भी इनमे कमी नहीं आई!
  यूं तो हिन्दी सिनेमा के सितारों की अलग-अलग छवि रही है! लेकिन, चांद ने इन अलग-अलग छवियों वाले छैल-छबिलों को अपने साथ जोड़ने का करिश्मा करके दिखाया। यही कारण है कि किसी एक फिल्म में राजकपूर और नरगिस की जोड़ी 'उठा धीरे धीरे वो चांद प्यारा प्यारा' गीत का राग छेड़ती है, तो दूसरी फिल्म में रोमांटिक देव आनंद माला सिंहा की जोड़ी 'धीरे धीरे चल चांद गगन' गुनगुनाते दिखाई पड़ती है तो ट्रैजेडी किंग भी चांद को देखकर रूमानी होकर वैजयंती माला से 'तुझे चांद के बहाने देखूँ' कहे बिना नहीं रहते। विनोद खन्ना और रिषि कपूर फिल्म चाँदनी में 'मेरी चांदनी कहते हुए श्रीदेवी के पीछे दौड लगाने लगते हैं। 1957 में बनी 'देवता' में भी नायिका 'ए चाँद कल तू आना, उनको भी साथ लाना उनके बगैर प्यार आज बेक़रार है' गुनगुनाते हुए दिखाई देती है। इसे संयोग ही माना जाना चाहिए कि 1978 में फिर बनी 'देवता' में भी संजीव कपूर और शबाना आजमी 'चाँद चुरा के लाया हूँ, चल बैठे चर्च के पीछे' गाते नजर आते हैं। यह चांद का ही चमत्कार है कि फिल्मों में अक्सर गानों से दूर रहने वाले राजकुमार कभी 'चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो' और 'कभी चांद आंहे भरेगा' गाने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
  यह चांद की लोकप्रियता का ही कमाल था, कि गुजरे जमाने के कुछ फिल्मी कलाकारों में चांद उस्मानी, चंद्रशेखर और चंदमोहन जैसे नाम शामिल हुए। आज की हकीकत भले ही यह हो कि चांद की सतह चूमने की चाहत में चंद्रयान उसकी सतह पर न उतर पाया हो! लेकिन, हमारे फिल्मकारों ने धरती का चक्कर लगाने वाले चांद के बेशुमार चक्कर लगाए। संभावना है कि यह सिलसिला आगे भी यूँ अनवरत चलता रहेगा। क्योंकि, चाँद ऐसे ही चमकता रहेगा और प्रेमी दिलों में भी उसके बहाने प्रेम भी उमड़ेगा!
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Wednesday, September 4, 2019

उमंग सिंगार के दुस्साहस की गर्भनाल कहाँ जुड़ी?

- हेमंत पाल 
  मध्य प्रदेश में धार जिले की धारदार राजनीति हमेशा चौंकाती रही है! न सिर्फ कांग्रेस में, बल्कि भाजपा में भी इस जिले से कई मुखर नेता निकले! लेकिन, किसी ने भी अपनी पार्टी का नुकसान करने और राजनीतिक बदतमीजी का साहस शायद कभी नहीं किया, जो बीते दो दिनों में वनमंत्री उमंग सिंगार किया! दिग्विजय सिंह को निशाना बनाते हुए, उन्होंने कई ऐसे अनर्गल आरोप लगाए, जो कांग्रेस के लिए नया अनुभव ही कहा जाएगा! सीधे शब्दों में कहें, तो उन्होंने विपक्ष से दो कदम आगे निकलकर अपनी ही पार्टी को सरेबाजार धुनक दिया।  
    मध्यप्रदेश में जब से कांग्रेस की सरकार बनी, सत्ता और संगठन में कुछ न कुछ उठापटक जारी है! कभी गोविंद राजपूत कैबिनेट की बैठक में टिप्पणी करते हैं और वो बात रिसकर बाहर निकल आ जाती है! इमरती देवी सरेआम मंच से मुख्यमंत्री पर अपनी बात की अनसुनी करने का आरोप लगाती है। अब इन सबसे आगे बढ़कर उमंग सिंगार ने जो किया, जो सीधे शब्दों में राजनीतिक विद्रोह ही माना जाएगा! पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा को 'रेत सर्वे यात्रा' कहना! शराब माफियाओं की मदद करना और सरकारी काम में दखल देने जैसे आरोप उन्होंने सार्वजनिक तौर लगाए। दरअसल, ये उमंग सिंगार की निजी कुंठा तो शायद नहीं है! वे इतने बड़े और परिपक्व नेता भी नहीं हैं, कि इन बातों की तह तक जा सकें! वे तो बस उस ढोल को बजा रहे हैं, जो उनके गले में पड़ा है! जब इशारा होता है, वे उसे पीट देते हैं!
  कांग्रेस में उनकी राजनीति लम्बे समय तक बुआ जमुना देवी के इर्द-गिर्द ही घूमती रही! लेकिन, वे न तो उनकी तरह कूटनीति जानते हैं और न उन्होंने बुआ की तरह जवाहरलाल नेहरू से आजतक की राजनीति को देखा है! दोनों में समानता बस इतनी है कि दिग्विजय सिंह से जमुना देवी की भी कभी नहीं बनी! दोनों में राजनीतिक मतभेद किसी से छुपे भी नहीं थे! लेकिन, बात कभी इस हद तक नहीं पहुंची कि कांग्रेस की जग-हंसाई हुई हो! किंतु, जमुना देवी के भतीजे होने से उमंग सिंगार को ये रियायत नहीं मिल जाती कि वे कहीं भी अपनी वाचालता दिखाएं! क्योंकि, दिग्विजय सिंह की वरिष्ठता और राजनीतिक अनुभव के सामने उमंग बहुत बौने हैं। जिस तरह की भाषा का उन्होंने इस्तेमाल किया, वो उनकी अनुभवहीनता का प्रदर्शन ही ज्यादा है।  
  उमंग सिंगार के इस रुख की पड़ताल की जाए, तो साफ़ दिखाई देता है कि ये न तो उनके शब्द हैं और न विचार! उनका शब्दकोष और विचारकोष दोनों ही परिपक्व नहीं हैं! वे इस मामले को इतनी गंभीरता से सोच भी नहीं सकते! उन्होंने दो दिनों में जो बयानबाजी की, वो एक ख़ास समय और संदर्भ को ध्यान में रखकर की है! जब प्रदेश कांग्रेस में अध्यक्ष पद को लेकर पैचीदगी बढ़ी, तभी उनके जमीर के ज्वालामुखी में धमाका क्यों हुआ? पार्टी को इस विवाद की गर्भनाल को तलाशना चाहिए, जहाँ से विचार-संचार हो रहा है! संभव है कि ये भविष्य की किसी बड़ी राजनीतिक साजिश का कोई अंश मात्र हो! उमंग सिंगार को सबसे ज्यादा आपत्ति दिग्विजय सिंह के कुछ मंत्रियों को भेजे गए पत्र को लेकर है! स्वाभाविक है कि उनका जमीर इस तरह का कथित दबाव झेलने का आदी न हो! लेकिन, इसकी मुखालफत इस तरह जाए, ये गले उतरने वाली बात नहीं है। लेकिन, यदि पार्टी ने प्रदेश के एक मंत्री के इस दुस्साहस को नजरअंदाज किया तो आगे और भी नेता इसी राह पर चल पड़ेंगे और इसका नुकसान सरकार को झेलना पड़ेगा! अब सारी निगाहें कांग्रेस आलाकमान पर हैं कि उन्होंने इस अनुशासनहीनता को किस नजर से देखा!
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Tuesday, September 3, 2019

सिंधिया के नाम पर सहमत होने में किसे विरोध और क्यों?

 इन दिनों मध्यप्रदेश की कांग्रेस में घमासान मचा है। प्रदेश में पार्टी के नए मुखिया का नाम तय होना है, जो आसान नहीं लग रहा! प्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी चरम पर है! ऐसी स्थिति में एक सर्वमान्य पार्टी अध्यक्ष कैसे चुना जाएगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है! कमलनाथ जब पार्टी अध्यक्ष चुने गए थे, तब हालात अलग थे! प्रदेश में 15 साल से भाजपा का राज था और कांग्रेस किसी भी स्थिति इससे मुक्ति चाहती थी! जबकि, अब हालात अलग हैं! प्रदेश में कमलनाथ सरकार है और कांग्रेस सारे नेता विपक्ष को भूलकर घर की जंग व्यस्त हैं! पार्टी में कमलनाथ को समन्वय में पारंगत माना जाता है! उन्होंने अपनी इसी कला से चुनाव जीता, सरकार बनाई और बिना कोई समझौता किए चला भी रहे हैं! लेकिन, पार्टी प्रदेश अध्यक्ष को लेकर पेंच फँसा हुआ लग रहा है! यही कारण है कि इस पद के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम सामने आते ही कई नेता कुलबुलाने लगे! उनके नाम पर विरोध का कारण समझ से परे है। क्या कारण है कि किसी भी पद के लिए सिंधिया का नाम आने पर कांग्रेस के नेताओं के पेट में दर्द क्यों होने लगता है? 
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- हेमंत पाल

  मध्य प्रदेश कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष के पद को लेकर दिल्ली से लेकर भोपाल तक खींचतान जारी है। अभी तक दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया को अध्यक्ष पद का दावेदार माना जा रहा था, लेकिन दिग्विजय सिंह ने अध्यक्ष बनने से इनकार कर दिया! उन्होंने खुद को इस पद की दौड़ से ही अलग बताया। कहा कि मेरे प्रदेश अध्यक्ष बनने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। एक तरफ दिग्विजय सिंह ने अध्यक्ष पद की दावेदारी को नकारा तो दूसरी तरफ सिंधिया समर्थकों ने दुगने जोश से दावेदारी का दावा किया! देखा जाए तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की त्रिमूर्ति में वे भी एक मूर्ति हैं और समर्थकों का उनके पक्ष में आवाज उठाना बनता भी है! जब सामने वाले गुट से भी किसी एक नेता का नाम बढ़ाने की कवायद की जा रही है,तो सिंधिया समर्थक भी उससे अलग क्या कर रहे हैं! 
   कहा तो ये भी जा रहा है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश की राजनीति में पिछड़ते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में वे प्रदेश अध्यक्ष बनकर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं! मुख्यमंत्री बनने के बाद कमलनाथ अध्यक्ष पद छोड़ने की पेशकश पहले ही कर चुके हैं! लेकिन, फिर भी वे संगठन पर अपने समर्थक को ही देखना चाहते हैं! यही कारण है कि उनके करीबी बाला बच्चन को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए नाम उछाला जा रहा है। कमलनाथ अभी अध्यक्ष पद पर हैं, इसलिए ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ दोनों ही नेताओं ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर अपनी-अपनी बात भी रखी हैं। लेकिन, सुनते हैं कि कमलनाथ ने सोनिया गांधी को अध्यक्ष पद के लिए किसी नए नेता के चुनाव का सुझाव भी दिया है। लेकिन, लगता नहीं कि गुटों के दबाव में  फैसला होगा! कांग्रेस आलाकमान भी नहीं चाहता कि प्रदेश में दो पावर सेंटर बन जाएं जिनमें खींचतान हो और नुकसान पार्टी को उठाना पड़े! क्योंकि, ऐसी स्थिति में सत्ता और संगठन में तालमेल गड़बड़ा सकता है! संभव है कि किसी ऐसे नेता को प्रदेश की कमान सौंपी जाए, जिसका नाम अभी सामने नहीं आया हो!
   ज्योतिरादित्य सिंधिया के पक्ष में नकारात्मक बात ये रही कि वे खुद अपनी परंपरागत गुना सीट से लोकसभा का चुनाव हार गए! पार्टी ने सिंधिया को उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से का प्रभार सौंपा था, वहाँ भी कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा! अब उन्हें महाराष्ट्र चुनाव के लिए स्क्रीनिंग कमेटी का चेयरमैन बनाकर संतुष्ट करने की कोशिश की गई! किंतु, उन्हें जहां की भी जिम्मेदारी दी गई, वहां नतीजे संतोषजनक नहीं रहे! मध्यप्रदेश में लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली सबसे करारी हार के बाद से पार्टी के अंदर का माहौल बहुत अच्छा नहीं है। अध्यक्ष पद के लिए ही कई नाम सामने आ गए! पर, कोई भी पार्टी को इस बात के लिए आश्वस्त नहीं कर सका कि उसके अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी में सबकुछ सामान्य हो जाएगा! अभी तो इस कुर्सी के लिए  ज्योतिरादित्य सिंधिया और बाला बच्चन के नाम हवा में हैं। लेकिन, इससे पहले जीतू पटवारी और उमंग सिंघार के नाम भी उछले थे। प्रदेश सरकार में मंत्री प्रद्युम्न सिंह और इमरती देवी तो खुलेआम सिंधिया को प्रदेश में पार्टी की कमान सौंपे जाने की मांग कर चुके हैं। जबकि, दिग्विजय सिंह के भाई और विधायक लक्ष्मण सिंह ने खुलकर सिंधिया को अध्यक्ष बनाए जाने का विरोध किया है। उनका मानना है कि सिंधिया के पास समय की कमी है, इसलिए उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए। ये कोई तार्किक कारण नहीं है, पर उन्हें विरोध करना था तो इसी बात को आधार बनाया!
  आलाकमान कहीं सिंधिया के प्रति नरमी न दिखा दे, यही सोचकर अब किसी आदिवासी नेता को संगठन की कमान सौंपे जाने की मांग उठी है। लेकिन, ऐसा क्यों, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। अकेले बाला बच्चन का ही नाम उछाला जा रहा है! बेहतर होता कि विकल्प के रूप में एक-दो और भी नेताओं के नाम सामने आना थे। तर्क दिया जा रहा है कि प्रदेश में 22% आबादी जनजातीय वर्ग से है और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने में इस वर्ग का बड़ा योगदान है। जबकि, कांतिलाल भूरिया के रूप में ये प्रयोग पहले हो चुका है, जो पूरी तरह फ्लॉप साबित हुआ था! सिंधिया के पक्ष में आवाज उठाने वालों का यह भी मानना है कि पार्टी में उनकी हमेशा उपेक्षा हुई! 2018 के विधानसभा चुनाव में वे पार्टी के स्टार केंपेनर रहे! उन्हें बतौर मुख्यमंत्री देखा जा रहा था, लेकिन चुनाव जीतने के बाद कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया! राहुल गांधी उन्हें अपना दोस्त बताते रहे हैं, पर उन्हें सत्ता की कुर्सी नहीं दिला सके! सत्ता का संतुलन बना रहे, इसलिए लोकसभा चुनाव से पहले सिंधिया को आधे उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर प्रदेश से दूर कर दिया!
   ये प्रहसन अभी पूरे क्लाइमेक्स पर है! इसका पटाक्षेप तब तक ख़त्म नहीं होगा, जब तक अध्यक्ष के नाम की घोषणा नहीं हो जाती! लेकिन, पार्टी आलाकमान भी प्रदेश की राजनीति में असंतुलन बनाए रखना नहीं चाहेगा! यदि प्रदेश में दोनों प्रमुख पद एक ही खेमे के हिस्से में आ गए तो राजनीतिक अराजकता की स्थिति निर्मित होना तय है, जो पार्टी के लिए नुकसानदेह होगी! इसलिए जरुरी है कि सत्ता और संगठन में संतुलन के नजरिए से फैसला किया जाए। अभी कोई बड़े चुनाव नहीं होना है, कि आदिवासी अध्यक्ष का कार्ड खेला जाए! लेकिन, किसी ऐसे नेता को जरूर खोजा जाए जो पार्टी के तीनों बड़े नेताओं के बीच संतुलन बनाकर सरकार और संगठन को मजबूती देने में कामयाब रहे! क्योंकि, हाशिए पर बहुमत से टिकी सरकार की नींव को मजबूती मिले, इसके लिए सबसे ज्यादा जरुरी है कि घर में एकता कायम रहे! यदि घर में फूट पड़ी तो कोई भी बाहर से पत्थर मारकर घर गिरा सकता है! पर, ये बात कांग्रेस के उन नेताओं को भी समझना चाहिए जो घर की कलह को सड़क पर लाकर जगहंसाई करवा रहे हैं!
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Sunday, September 1, 2019

बच्चों का सिनेमा अभी खुद ही बच्चा!

हेमंत पाल

   ज़ादी के बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के जरिए ये कोशिश की जाती रही, कि समाज को कुछ नया दिया जा सके। इसी कोशिश में बच्चों पर केंद्रित सिनेमा की शुरुआत की गई। इसका उद्देश्य बच्चों के अपने मुद्दे, उनसे जुड़ी सामाजिक चुनौतियाँ और उनके अंतर्मन की स्थिति को पर्दे पर दिखाना था। लेकिन, अभी तक इस दिशा में कारगर काम नहीं हुआ! बच्चों पर अभी तक जो भी फिल्में बनी हैं, उनमें सिर्फ संदेश दिए जाते रहे! क्योंकि, हिंदी सिनेमा में ज्ञान देने वाली फिल्मों की बाढ़ है। अधिकांश बाल फिल्मों की कहानी में उपदेश ही ज्यादा दिखाई दिए, बालमन को कुरेदने की कोशिश किसी ने नहीं की!
    बच्चों के लिए सत्यजित राय ने कुछ बेहतर बंगाली फिल्में बनाने की कोशिश जरूर की थी। लेकिन, ताजा संदर्भों में देखा जाए तो किसी ने वास्तव में बालमन को खंगालकर फ़िल्में बनाने की कोशिश की है, तो वे हैं गुलजार! 'परिचय' और 'किताब' जैसी फ़िल्में बनाकर उन्होंने बच्चों की मानसिकता पढ़ने का काम किया था! 1972 में आई 'परिचय' ऐसे परिवार की कहानी थी जहाँ बच्चों की मनःस्थिति को बिना परखने की कोशिश की गई थी! गुलजार की ही 1977 आई 'किताब' भी बच्चों की मनोवृत्ति को समझाने वाली फिल्म मानी जाती है। 
 मेहबूब खान ने भी बच्चों के लिए 1962 में एक फिल्म 'सन ऑफ इंडिया' बनाई थी। फिल्म तो नहीं चली, पर इसका एक गीत 'नन्हा मुन्ना राही हूँ मैं देश का सिपाही हूँ' को लोग भूले नहीं हैं। 
   सत्येन बोस के निर्देशन में 1964 में बनी फिल्म 'दोस्ती' को सिर्फ बच्चों की फिल्म तो नहीं कहा जा सकता, पर ये फिल्म बच्चों को प्रेरणा जरूर देती है। शेखर कपूर ने 1983 में 'मासूम' बनाई थी! वास्तव में तो ये विवाहेत्तर संबंधों से जन्में बच्चे के कारण होने वाले पारिवारिक संघर्ष पर आधारित थी। गोपी देसाई निर्देशित 1992 में बनी फिल्म 'मुझसे दोस्ती करोगे' का विषय भी एक बच्चे के सपनों की दुनिया का चित्रण था। इसी थीम पर 1994 में अन्नु कपूर ने 'अभय' बनाई थी। आशय यह कि बच्चों पर फ़िल्में तो बनी, पर बड़े दर्शकों को ध्यान में रखते हुए!
  फिल्म 'नन्हें मुन्ने' भी याद करने लायक फिल्म है, जिसमें एक लड़की के अनाथ होने के बाद अपने तीन भाइयों के पालन पोषण के संघर्ष का चित्रण था! ऐसी ही एक फिल्म 'मुन्ना' थी जो ऐसे बच्चे की कहानी है, जिसकी विधवा माँ ख़ुदकुशी कर लेती है। बाद में चेतन आनंद ने इसी को आधार बनाकर 'आखिरी खत' फिल्म बनाई थी। बच्चों की फिल्म 'जागृति' भी आई थी, जिसका एक गीत 'हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के' आज भी सुनाई देता है। 1954 में बनी फिल्म 'बूट पॉलिश' भी बाल मनोविज्ञान को स्पष्ट करती है। एक सन्यासी और एक अनाथ बालिका के बीच स्नेह संबंध दर्शाने वाली वी शांताराम की फिल्म 'तूफ़ान और दिया' भी सराहनीय फिल्म थी! 1960 में बच्चों पर केंद्रित फिल्म 'मासूम' ने बच्चों से जुड़े कई सवाल उठाए थे। इस फिल्म का गीत 'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए' अभी भी सुना जाता है। 
   फिल्म में बच्चे को कहानी का आधार बनाकर तो कई फ़िल्में बनी, पर वास्तव में इन फिल्मों को बच्चों की फिल्म नहीं कहा जा सकता! बतौर बाल कलाकार नीतू सिंह की फिल्म 'दो कलियाँ' को बच्चों की फिल्म कहा जरूर गया, पर ये बच्चों के लिए नहीं थी! 2005 में विशाल भारद्वाज ने बच्चों के लिए 'ब्लू अम्ब्रेला' बनाई, पर वो चली नहीं! बीआर चोपड़ा' ने संयुक्त परिवारों के टूटने पर भूतनाथ' और 'भूतनाथ रिटर्न' बनाई! लेकिन, विशाल भारद्वाज की 'मकड़ी' ने बाल फिल्मों को लेकर चली आ रही धारणा को तोड़ा! 2007 में आमिर खान ने बाल मानसिकता वाली फिल्म 'तारे जमीं पर' बनाकर दर्शकों को झकझोर दिया था। परिवार में उपेक्षित और मंदबुद्धि बच्चे की ये कहानी ने कई बड़ों-बड़ों को रुला दिया था। 
   अमोल गुप्ते की फिल्म 'स्टैनली का डिब्बा' को भी बच्चों को बेहतरीन फिल्म कहा जा सकता है! गरीब राजस्थानी लड़के के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मिलने की कोशिश पर बनी 'आई एम कलाम' भी अच्छा प्रयास था। लेकिन, 1956 में अल्बर्ट लैमोरीसे निर्देशित फ्रेंच फिल्म 'रेड बैलून' और 1995 में ईरानी फ़िल्मकार निर्देशित 'व्हाइट बैलून' आज भी सिनेमा के लिए मील का पत्थर है। लेकिन, क्या कारण है कि हम बच्चों के लिए अभी तक 'चिंड्रेन ऑफ हैवन' जैसी एक भी फिल्म नहीं बना पाए? 
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परदे पर अभिनेताओं के बदलते रंग!

- हेमंत पाल

  भिनय का मतलब है बहुरूपिया होना! अभिनय ऐसा ही रंग है, जिसमें पुरुष कभी महिला बनकर और महिला कलाकार पुरुष बनकर चरित्र निभाती है! इसके पुरुष अभिनेताओं के अभिनय का एक रंग किन्नर बनना भी है! लेकिन, अपनी पहचान से इतर ऐसे किरदार निभाने में पुरुष अभिनेताओं को  महिला कलाकारों से ज्यादा सफलता मिली है! करीब सभी पुरुष अभिनेता किसी न किसी फिल्म में ऐसे रूप धर चुके हैं। कुछ साल पहले फिल्मों में विलेन को किन्नर के चरित्र की तरह दिखाया गया था। उन फिल्मों की भी गिनती की जा सकती है, जिसमें हीरो ने लड़की का भेष धरकर स्वांग रचा था! अब इस सूची में आयुष्मान खुराना का नाम भी शामिल होने जा रहा है, जो 'ड्रीम गर्ल' फिल्म में पूजा नाम की लड़की का किरदार निभाएंगे! याद किया जाए तो सबसे पहले ऐसा किरदार रिषि कपूर और पेंटल ने फिल्म 'रफूचक्कर' (1975) में निभाया था! वे एक हत्या होते देख लेते हैं और बचने के लिए लड़की बन जाते हैं!
    कई कॉमेडी फिल्मों में हीरो ने लड़की का मेकअप करके नाज-नखरे दिखाए हैं। ‘लावारिस’ के गाने ‘मेरे अंगने में..’ में अमिताभ बच्चन जैसे बड़े हीरो भी थोड़ी देर के लिए औरत के भेष में दिखाई दिए थे। गोविंदा तो कई फिल्मों में औरत बने! लेकिन, ‘आंटी नंबर-1’ में उनको सबसे ज्यादा पसंद किया गया। कमल हसन ने ‘चाची 420’ में चाची बनकर साड़ी पहनकर जलवे दिखाए थे, जो फिल्म में ऐसी पावरफुल महिला के रूप में दिखे थे जो कई गुंडों से अकेले ही लड़ जाती हैं। आमिर खान 'बाजी' और 'पीके' में औरत बने! ‘हम आपके हैं कौन’ में सलमान खान ने एक गाने में लड़की की तरह ठुमके लगाए थे। रितेश देशमुख ‘अपना सपना मनी मनी’ में, श्रेयस तलपड़े 'पेइंग गेस्ट' में लड़की बने नजर आए! जबकि, राजपाल यादव, मीका सिंह और बिंदू दारासिंह फिल्म ‘बलविंदर सिंह फेमस हो गया’ में लड़की का रुप धरा था। एक्शन किंग अक्षय कुमार भी 'खिलाड़ी' के एक दृश्य में लड़की बने थे, जो गर्ल्स हॉस्टल में रहने के लिए लड़की बनते हैं। 
  परदे पर वही रोल यादगार बनते हैं, जो अभिनेता की पहचान से अलग होते हैं। याद किया जाए तो जिस भी अभिनेता का किरदार दर्शकों के दिमाग में बसा है, वो वही है जो अनोखा है! पुरुष अभिनेताओं का महिला बनने के अलावा किन्नर बनना भी एक अहम किरदार है। आशुतोष राणा जैसे हरफनमौला कलाकार ने 1999 में आई 'संघर्ष' में किन्नर विलेन का जोरदार किरदार निभाया था। वे इसमें बेहद खूंखार विलेन बने थे! असली किन्नर शबनम मौसी की जिंदगी से प्रेरित 2005 में इसी नाम की फिल्म में भी आशुतोष राणा ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1991 की फिल्म 'सड़क' में सदाशिव अमरापुरकर ने महारानी नाम के किन्नर का रोल किया था! इस फिल्म में उनके अभिनय को काफी सराहा भी गया था। 'मर्डर-2' में धीरज पांडे की भूमिका निभाकर प्रशांत नारायणन ने अपनी एक्टिंग का लोहा मनवा लिया था। ये भी एक किन्नर का ही रूप था। 
     निर्देशक से एक्टर बने महेश मांजरेकर 'रज्जो' में किन्नर बने थे। ये बात अलग है कि ये फिल्म चली नहीं! तिग्मांशु धूलिया की 'बुलेट राजा' में रवि किशन का का रोल किन्नर का था! 1997 में आई फ़िल्म 'तमन्ना' में परेश रावल ने किन्नर बनकर अपनी अदाकारी का नया रंग दिखाया था। आने वाली फिल्म 'लक्ष्मी बॉम्ब' जो तमिल फ़िल्म 'मुनी:2 कंचना' की रीमेक है, इसका जो पोस्टर सामने आया है उसमें अक्षय कुमार किन्नर नजर आ रहे हैं! मुरली शर्मा ने दीपक तिजोरी के टीवी सीरियल 'रिश्ते' में किन्नर की भूमिका की थी। इसके बाद फिल्म 'मस्ती' में भी किन्नर बनकर नजर आए थे। प्रकाश झा की फिल्म  'गंगाजल-2' में भी मुरली किन्नर का किरदार निभाते दिखाई देंगे। इसमें मुरली के किरदार का नाम है 'मुन्ना मर्दानी!' 
  पुरुष अभिनेता का महिला या किन्नर बनकर अभिनय करना आसान नहीं होता! ये अभिनय कला की वो चुनौती है, जिसमें अभिनेता को अपने चेहरे के अलावा भाव-भंगिमाएं भी बदलना पड़ती है! महिला के मेकअप के साथ उन्हें चेहरे पर नारी सुलभ कोमलता और चाल में लचक लाना पड़ती है! वहीं किन्नर की भूमिका में पुरुष की तरह सख्त मिजाजी के साथ महिलाओं की तरह शारीरिक भंगिमाएं अपनाना पड़ती है! यही कारण है कि सभी अभिनेता इसमें सफल भी नहीं हो पाते! महिला के रोल में आज भी रिषि कपूर, कमल हसन, गोविंदा और आमिर खान को याद किया जाता है, जबकि किन्नर विलेन बने सदाशिव अमरापुरकर और आशुतोष राणा के किरदार मील पत्थर हैं!      
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