Thursday, July 29, 2021

सिनेमा में धर्म का दखल और दर्शक!

- हेमंत पाल

   मारे देश में सिनेमा सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं है, बल्कि ये जीवन का हिस्सा भी है और कई मामलों में मार्गदर्शक भी। इसे जुनून और पागलपन की हद तक जाने का शगल भी कह सकते हैं। कई बार देखा गया कि फ़िल्में सिर्फ दर्शकों की पसंद की वजह से नहीं, किसी ख़ास कारण से भी चलती है। ये कारण कुछ भी हो सकता है। फिल्म का हीरो, निर्माण कंपनी, डायरेक्टर, कथानक या फिर और कुछ! लेकिन, एक बहुत बारीक तथ्य यह भी है कि कई बार फिल्मों को हिट कराने में धार्मिक मसाला भी बहुत काम आता है। दर्शक को इस तरह का मसाला ज्यादा ही प्रभावित करता है! फिल्म ख़त्म होने के बाद वो इसे मीठे जहर के रूप में अपने साथ घर ले जाता है! सनी देओल की फिल्म 'ग़दर : एक प्रेमकथा' में हीरो का पड़ौसी देश में घुसकर मारपीट करना। हैंडपंप उखाड़कर अपनी ताकत दिखाना, सिर्फ हीरो का जांबाज किरदार नहीं था! इन दृश्यों के समय सिनेमाघर में दर्शक की प्रतिक्रिया पर भी गौर करना जरुरी है। इसके उलट 'दीवार' का नास्तिक हीरो अमिताभ बच्चन जब अपनी बाजू पर 786 का बिल्ला बांधकर गुंडों की पिटाई करता है, तब भी यही दर्शक उद्वेलित हुआ था। हीरो की जेब में रखा यही बिल्ला फिल्म के उत्तरार्ध में गोली से हीरो की जान बचाता है! आशय यह है कि जाने-अनजाने में ऐसी फिल्मों का कथानक एक धर्म के प्रति आस्था और दूसरे के प्रति नफरत पनपा रहा है। लेकिन, इस पर नजर कम ही पड़ती है।   
   दरअसल, हमारे यहाँ दोनों प्रमुख समाजों में दूरियां बढ़ने से फिल्मों में दोनों धर्मों के पात्रों के प्रति अस्वीकार्यता बढ़ी है। पहले दोनों सम्प्रदायों के लोगों के बीच सौहार्द ज्यादा था। मुस्लिमों को हिन्दुओं से राम-राम करने में गुरेज नहीं था, तो हिंदू भी 'चाचा सलाम' कहते हुए झिझकते नहीं थे। लेकिन, जबसे फिल्मों में डी-कंपनी का पैसा लगा और हस्तक्षेप बढ़ा, तब से हिंदू-मुस्लिम किरदारों के बीच यह रंग शामिल हुआ है। निर्माताओं पर खास समुदाय के कलाकारों और संगीतकारों को लेने का देश पार से फतवा जारी किया जाता था। ऐसा न करने पर गुलशन कुमार जैसे कांड रचे गए! सलीम-जावेद की जोड़ी पर भी ऐसे ही आरोप लगते रहे कि उनकी फिल्मों में हिंदू धर्म का अपमान कर मुस्लिम धर्म की महिमा मंडित की जाती थी। 'शोले' का नायक मंदिर में छुपकर भगवान की आवाज निकालकर मखौल उड़ाता है, तो रहीम चाचा अपने पोते का बलिदान देने के बाद भी सब काम छोडकर नमाज पढ़ने जाता है।
   यही कारण है कि धीरे-धीरे यह बहस भी चल पड़ी कि फिल्मों में हिंदू धर्म और देवी-देवताओं को मजाक बनाकर पेश किया जाता है, पर दूसरे धर्मों के प्रति ऐसा नहीं किया जाता! उदाहरण 'ओह माई गॉड' और 'पीके' जैसी हिंदू आस्था पर चोट करने वाली फिल्मों का दिया जाता है। सेंसर बोर्ड पर आरोप लगाया जाता है, कि वो इसे मनोरंजन मानकर हरी झंडी दिखा देता है। लेकिन, किसी और धर्म को लेकर की गई टिप्पणी को आपत्तिजनक मानकर उस पर कैंची चला दी जाती है। दरअसल, सेंसर की अपनी मजबूरियां और नियम-कायदे हो सकते हैं। लेकिन, ये भी ध्यान देने वाली बात है कि फिल्मों में न तो हिंदुओं को बख्शा जाता है न मुस्लिमों को! कुछ सालों से आतंकवाद पर फ़िल्में ज्यादा बनने लगी, जिसमें मुस्लिम किरदार ही खलनायक दिखाए जाते हैं। वैसे भी फिल्मों में मुस्लिम किरदारों को जगह कम ही मिलती है। इसमें भी उनकी छवि लगभग तय होती है! वे या तो बहुत अच्छे इंसान होते हैं या बहुत बुरे, बीच में कुछ नहीं होता। कभी नहीं देखा गया कि मुस्लिम किरदार को सामान्य तरीके से फिल्माया गया हो! 
     दरअसल, ये फिल्मकारों का अपना फार्मूला है कि कैसे अपनी फिल्म की पटकथा को दर्शकों के दिमाग में फिट किया जाए! माना जाता है कि आजादी के बाद फिल्में सामाजिक बदलाव का माध्यम भी बनी। सिनेमा के सार्थक योगदान को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। लेकिन, फिल्मों के जरिए जिस तरह की विचारधारा का बीजारोपण किया जा रहा है, वो आपत्तिजनक है। फिल्मकारों को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर मसालेदार धार्मिक कहानी गढ़ने की इजाजत नहीं दी जा सकती। क्योंकि, न तो हर हिंदू धर्माचार्य पाखंडी है और न सभी मुस्लिम आतंकवादी या गुंडे हैं। दोनों ही धर्मों में अच्छे लोग भी हैं और बुरे भी! इसलिए देश की संस्कृति के मुताबिक सामंजस्य बनाए रखना जरुरी है। धार्मिक भेदभाव की घटनाओं को जिस तरह फिल्माया जाने लगा है, वो असलियत में सामाजिक विभेद पनपा रहा है। ये चंद लोगों की मानसिकता हो सकती है, पूरे समाज की नहीं! अब तो सिनेमा पर यह आरोप भी लगने लगा है कि वे नियोजित ढंग से इस मनोरंजन माध्यम का उपयोग समाज को टुकड़ों में बांटने के लिए होने लगा है! समानांतर फिल्मों के जरिए वर्ग संघर्ष की बारूद बिछाई गई, तो हिंदू-मुस्लिम किरदारों की भूमिका तय करके धर्म पर चोट की जाने लगी! 
    पिछले कुछ सालों से फिल्मों में मुस्लिम चरित्रों के चित्रण को लेकर ज्यादा ही उंगलियां उठने लगी है। जबकि, वास्तव में देश में जब 1913 में सिनेमा की शुरुआत हुई, तब ऐसा विचार किसी को नहीं आया होगा। उस समय की फ़िल्में और देश की मिट्टी की महक से जुड़ी थीं और ये धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और मारपीट जैसे कथानकों में बंटी होती थीं। लेकिन, आजादी के बाद से 60 के दशक तक की ज्यादातर फ़िल्में ऐतिहासिक मुस्लिम पृष्ठभूमि की बनाई गई! ताज महल, मुग़ले आज़म और 'रज़िया सुल्तान' उसी दौर की फ़िल्में थीं। उसके बाद मेरे मेहबूब, पाकीजा, चौदहवीं का चांद, निकाह और शमां जैसी फ़िल्में बनी और पसंद की गई। 'उमराव जान' ऐसी फिल्म थी, जिसमें पूरी तरह मुस्लिम संस्कृति की झलक देखने को मिली। क्योंकि, तब देश में जातियों और धर्मों के बीच नफरत नहीं पनपी थी। कई फिल्मों में मुस्लिम किरदारों को अच्छे दोस्त की तरह पेश किया गया। 'जंजीर' में प्राण का शेर खान का किरदार आज भी दोस्ती के लिए याद किया जाता है। लेकिन, अब ऐसा क्या हो गया कि सारे हिंदू पंडित पात्र पाखंडी हो गए, तो मुस्लिमों को आतंकवादी बनाकर दिखाया जाने लगा!
     मुहम्मद अशरफ खान और साइदा ज़ूरिया बुखारी ने 2011 में मुस्लिम किरदारों वाली 50 फिल्मों पर अध्ययन करके आश्चर्यजनक निष्कर्ष निकाला था। उन्होंने पाया कि 65.2 प्रतिशत मुसलमानों को फिल्मों में नकारात्मक रूप में पेश किया गया! करीब 30 प्रतिशत को सामान्य किरदार में और सिर्फ 4.4 प्रतिशत मुसलमानों को अच्छी छवि वाले किरदार मिले। फिल्मों के नायक को मुस्लिम बताने में भी कंजूसी की गई! हाल के दिनों में शाहरुख़ खान ने इसकी शुरुआत 'चक दे इंडिया' से की थी। बाद में जॉन अब्राहम की न्यूयॉर्क, शाहरुख की माई नेम इज़ खान और मलयालम फिल्म अनवर में जरूर मुस्लिम नायकों को दिखाया गया। रोजा, मिशन कश्मीर, फ़ना, फ़िज़ा, कुर्बान और 'विश्वरूपम' का नायक भी अच्छा मुसलमान है, जो मुस्लिम आतंकवादियों से लड़ता है। निर्माता-निर्देशक मनमोहन देसाई की हर फिल्म में तो एक अहम किरदार मुस्लिम ही होता था! 'अमर अकबर एंथनी' में तीन में से एक किरदार अकबर मुस्लिम था। 'क़ुली' का तो हीरो मुसलमान था। ये 90 के दशक से पहले की बात है। तब राजनीति में जातिवाद और धर्म के प्रति नजरिया अलग था। लेकिन, उसके बाद मुस्लिमों के प्रति समाज के सोच में बदलाव देखा गया। इसका सीधा असर फिल्मों के साथ टीवी सीरियलों पर भी पड़ा! हिंदुओं में भी ये भावना पनपी कि हिंदू किरदार को खलनायक की तरह दिखाया जाता है। पुजारी को धर्म के नाम पर ठगने वाला दिखाने के साथ सूदखोर, साहूकार, भ्रष्ट नेता और पुलिस वाले सभी हिंदू ही होते हैं! यानी दोनों ही धर्मों का इस्तेमाल करके फिल्मकार अपनी तिजोरी भर रहे हैं! 
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Sunday, July 25, 2021

परदे पर कई रंगों में फहराया प्रेम का परचम!

- हेमंत पाल

     हने को प्रेम महज ढाई अक्षरों का अफसाना है। लेकिन, यही ढाई अक्षर जब सेल्यूलाइड में ढलकर प्रेम कहानी का रूप लेते हैं तो ढाई घंटे तक दर्शक प्रेम बंधन में जकड़कर प्रेम के सागर में डुबकी लगाता है। परदे पर रूमानियत बिखेरकर पिछले सौ बरसों से फिल्मकार दर्शकों को भरमा ही तो रहे हैं। फिल्मों का प्रेम शाश्वत और अनंतकाल तक चलने वाला सिलसिला है, तभी तो प्रेम में डूबी यह दास्तां सिनेमा में सदियों से गूंज रही है। 'सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा' यह एक तरह से अघोषित गारंटी है कि जब तक सिनेमा रहेगा परदे पर प्रेम यूं ही मचलता रहेगा। क्योंकि, लम्बे समय तक हिंदी फिल्मों के कथानक का मूल आधार प्रेम रहा है। जब फ़िल्में बनना शुरू हुई, तब धार्मिक कथाओं और राजमहलों के षड्यंत्रों के अलावा जिस विषय पर फ़िल्मकारों ने हाथ आजमाए वो प्रेम ही था। लेकिन, वही फ़िल्में सराही गईं, जिनमें प्रेम को गहराई और उससे जुड़ी आस्था का सौम्य चित्रण हुआ। फिल्मी प्रेम लंबे समय तक गंभीरता का लबादा ओढ़े रहा। तब नायक-नायिका को प्रेम का इजहार करने में बहुत कवायद करना पड़ती थी। लेकिन, धीरे-धीरे ये हिचक दूर हुई और फिल्म के गानों से ही प्रेम का इजहार होने लगा।   
    फिल्मों में प्रेम शाश्वत रहा, लेकिन समय के साथ इसमें बदलाव भी आया। कभी परदे की ओट से या पेड़ की टहनी सहलाते हुए नायिका अपने प्रेम का इजहार करती थी, कभी नायक इशारे से अपने मन की बात बताते। इसलिए कि तब सामाजिक संस्कार और रीति-रिवाज प्रेम की खुली अभिव्यक्ति की इजाजत नहीं देते थे। प्रेम को अभिव्यक्त करने के तरीकों पर समय और परिस्थितियों का असर पड़ा। शुरुआती दौर की फिल्मों में गीतों के माध्यम से प्रेम का संकेत दिया जाता था। नायक-नायिका दूर से ही आंखों-आंखों में प्रेम का इजहार करते, पर कह नहीं पाते थे। फिर एक दौर ऐसा दौर भी आया, जब प्रेम का दुखांत रूप पसंद किया गया। नायिका विद्रोही हुई, तो नायक भी बेवफा होने लगे। कैशोर्य प्रेम का बगावती अंदाज भी कुछ फिल्मों में दिखा। लेकिन, अब फिल्मों में प्रेम का वो रूप दिखाई देने लगा, जिसमें शाश्वत प्रेम गायब है! 
    महबूब खान ने 'अंदाज' में दिलीप कुमार, राज कपूर व नरगिस को लेकर त्रिकोणीय प्रेम का नया फार्मूला अपनाया। ये फार्मूला हिट रहा, तो उसी तरह की कई फिल्में बनने लगी। ऐसी फिल्मों में नायिका को संशय की स्थिति में उलझाए रखना, निर्माताओं को ज्यादा भाया। समय के साथ नायक-नायिका की चारित्रिक खूबियां भी बदली। साड़ी का पल्लू मुंह में दबाकर खामोशी से हर दुख सहने वाली नायिका ने अपने व्यक्तित्व को विकसित करना शुरू किया। रिश्तों को चुनने की प्राथमिकता भी उसने ही तय की। अपने समयकाल में फिल्मकार बिमल रॉय ने भी प्रेम की धारा में कई प्रयोग किए। 'सुजाता' की नायिका सामाजिक कारणों से नायक के प्रेम को स्वीकारने से हिचकिचाती है! मगर, 'बंदिनी' की नायिका भविष्य का विकल्प ठुकराकर मुश्किलों से भरे अपने पहले रिश्ते को अपनाती है। 'देवदास' तक आते-आते तो बिमल रॉय ने प्रेम का नया रूप सामने रख दिया। लेकिन, पिछले कुछ सालों से फिल्में अपने पारंपरिक तौर तरीके बदलने लगी है, प्रेम का कथानक भी इससे अछूता नहीं रहा।  
      शम्मी कपूर ने नायिकाओं को तरसाकर प्रेम किया तो शाहरुख़ ने 'डर' दिखाकर प्रेम का इजहार किया। लेकिन, दिलीप कुमार ने परदे पर प्रेम का अलग ही अंदाज दिखाया, वे दुखांत प्रेम के पर्याय बन गए थे। मेला, अमर, बेवफा, संगदिल, नदिया के पार, मुगले आजम, जोगन और 'देवदास' में दिलीप कुमार ने प्रेम के बिछोह रूप और तड़प को ऐसी शिद्दत से उभारा कि प्रेम सुखद अनुभूति से पीड़ा ज्यादा लगने लगा। देव आनंद ने भी शुरु में दुखी नायक की भूमिका निभाई, पर जल्दी ही अपना अंदाज बदला और प्रेम की मस्ती को उभारा। उन्होंने प्रेम को पीड़ा मानने की परंपरा को तोड़कर ख़ुशी का रूप दिया। वे मधुबाला और नूतन के साथ बिंदास अंदाज में नजर आए। राज कपूर की ‘बरसात’ ने प्रेम की तड़प को अलग तरीके से उभारा। लेकिन, उसके बाद उन्होंने लय बदलकर ‘आवारा’ में प्रेम का नया रूप दिखाया। एक हाथ में वायलिन और दूसरे हाथ में झूलती नरगिस उन्मुक्त प्रेम का प्रतीक बन गईं थी। नायक-नायिका के प्रेम को ग्लैमरस अंदाज में आलिंगनबद्ध करने का सिलसिला इसी फिल्म से शुरू हुआ। इसके बाद तो मुगले आजम, प्रेम कहानी, एक दूजे के लिए और 'लव स्टोरी' जैसी फिल्मों ने प्रेम को अलग ही अंदाज में दिखाना शुरू कर दिया! आज की हिंदी फिल्में भी यही फार्मूला अपना रही है। 
     देखा गया कि अमीरी-गरीबी का भेद फिल्मी प्रेम में हमेशा दीवार बनकर खड़ा रहा। इस फॉर्मूले को हमेशा आजमाया गया। कुछ फिल्मों में शारीरिक विकलांगता भी बाधा बनी। 'आरजू' में एक पैर कट जाने और 'दो बदन' में नायक के अंधे हो जाने से प्रेम की अनुभूति में खलल पड़ता है। उधर, राज कपूर ने 'बॉबी' में कैशोर्य प्रेम की ऐसी उन्मादी धारा बहाई कि पारिवारिक बंदिशों, दुश्मनी व भेदभाव को अंगूठा दिखाकर प्रेम करने की नई लहर चल पड़ी। लेकिन, बाद में बनी किसी फिल्म को ‘बॉबी’ जैसी सफलता नहीं मिली। कमल हासन की पहली हिंदी फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ में प्रांतीय व भाषाई दीवार बनी। लेकिन, आश्चर्य है कि उत्तर भारतीय नायिका व दक्षिण भारतीय नायक की यह प्रेम कथा हिट होने के बावजूद दोहराई नहीं गई! 
    फ़िल्मी प्रेम के संदर्भ में मुद्दा यह है कि प्रेम जैसे अनुभूति वाले भाव को परदे पर फूहड़ता और अश्लीलता से क्यों पेश किया जाता है! प्रेम की अभिव्यक्ति के तरीके विकृत क्यों होते जा रहे हैं! प्रेम को एक अधिकार की तरह हासिल करने की कोशिश क्यों होने लगी! 'रांझना' ऐसी फिल्म थी, जिसे लेकर खासी बहस छिड़ी थी। इस फिल्म पर आरोप लगे थे, कि इसमें नायक ने नायिका के पीछे लगने की घटिया मानसिकता का सबूत दिया। लड़कियों से 'रांझना' में छेड़छाड़ के इस विकृत तरीके को महिमा मंडित करने पर शोभा डे और शबाना आजमी ने काफी एतराज भी किया था। ये सवाल भी उठाया था कि ऐसे गलत संदेश देने वाली फिल्मों को सेंसर बोर्ड ने रिलीज कैसे होने दिया! इसी दौरान दीपिका पादुकोण ने इस बहस को और गरमा दिया था कि प्रेम की अभिव्यक्ति के नाम पर हीरोइनों को वस्तु की तरह चित्रित करने की सीमा होनी चाहिए। बात सही है, पर इसका जवाब भी फिल्म वालों को ही ढूँढना है।   
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Sunday, July 18, 2021

हिंदी सिनेमा का ऐतिहासिक कालखंड

हेमंत पाल

    देश में सिनेमा को सौ साल से ज्यादा हो गए। इस दौरान बहुत कुछ बदला। समय, काल, परिस्थितियों के साथ देश ने बरसों की गुलामी के बाद आजादी भी देखी। इस दौरान फ़िल्में श्वेत-श्याम से रंगीन हो गई! सिनेमा के निर्माण की प्रक्रिया, कलाकारों का अभिनय, नए जमाने के कथानकों के साथ फिल्म संगीत में भी क्रांति आ गई! लेकिन, फिर भी दर्शकों को में अभी भी संतुष्टि का वो भाव नहीं आया, जो इतने सालों में आना था। निर्माण की बेहतरी के साथ फिल्मों से कमाई बढ़ी, पर दर्शक संतुष्ट नहीं है! उसे लगता है कि कहीं कोई कमी तो है! यही कारण है कि कई फ़िल्में जोरदार प्रचार और नामी कलाकारों के बाद भी दर्शकों के दिल को नहीं छू पाती! जबकि, कुछ ऐसी फिल्मों को दर्शक पसंद करते हैं, जिनके बारे में पहले से अनुमान नहीं लगाया जाता! ऐसे में सवाल उठता है कि सौ साल से ज्यादा लम्बे इतिहास में क्या कोई ऐसा दौर आया, जिसे सिनेमा का स्वर्णिम काल कहा जाए! इस सवाल के निश्चित रूप से अलग-अलग जवाब हो सकते हैं! क्योंकि, दर्शकों की रूचि भी एक सी नहीं होती! फिर इस सवाल का सही जवाब यही है, कि जिस समयकाल में कालजयी फ़िल्में ज्यादा बनी, वही स्वर्णिम दौर कहा जाएगा!           
    सिनेमा की शुरुआत के बाद करीब चार दशक से ज्यादा समय देश की गुलामी का समय था! कई घोषित और अघोषित बंदिशें थीं। फिल्मकारों के लिए निर्माण के आधुनिक संसाधन जुटाना भी आसान नहीं था। फिल्म की ज्यादातर कहानियां भी धार्मिक कथाओं और राजा की कथाओं तक केंद्रित थीं। सामाजिक बेड़ियों के कारण लम्बे समय तक महिला कलाकारों का फिल्मों में काम करना संभव नहीं हुआ! धीरे-धीरे हालात सामान्य हुए। आजादी के बाद सिनेमा ने भी करवट ली! ये वो दौर था, जब देश आजाद था और सामाजिक सोच बदल रहा था! फिल्मकारों के सामने भी नई कहानियों के विकल्प थे। इसलिए कहा जा सकता है कि 1951 से 1960 का दशक हिंदी सिनेमा का सबसे बेहतरीन युग था। इन दस सालों में बहुत कुछ ऐसा हुआ, जो बीते चार दशकों में नहीं हुआ और न बाद के सात दशकों में! इस समय को बेहतरीन इसलिए कहा जा सकता है, कि इस दौरान मुगले आजम, मदर इंडिया, प्यासा, कागज के फूल, दो बीघा जमीन, आवारा और 'दो आंखें बारह हाथ' जैसी कालजयी फ़िल्में बनी। ये वो फ़िल्में थीं, जो निर्माण, कथानक और अभिनय सभी में बेजोड़ थीं। आज भी इन फिल्मों को श्रेष्ठता के मामले में मील का पत्थर माना जाता है। संगीतकार नौशाद, शंकर जयकिशन और एसडी बर्मन और गायक, गायिकाएं लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, आशा भौंसले, किशोर कुमार और मुकेश की मखमली आवाज भी इसी स्वर्णिम काल की देन है। 
    इसे हिंदी फिल्मों का आदर्शवादी दौर भी कहा जाता है। इस दौर का नायक प्यार करने में तो पीछे नहीं था! पर, परिवार के दबाव, सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रतिबद्धता के आगे वो प्यार की कुर्बानी देने में भी पीछे नहीं हटा! आवारा, मदर इंडिया, जागते रहो, श्री 420, झाँसी की रानी, परिणीता, बिराज बहू, यहूदी, बैजू बावरा और 'जागृति' जैसी फिल्में इसी समय में बनी। ये गुरुदत्त, बिमल राय, राज कपूर, महबूब खान, दिलीप कुमार, चेतन आनंद, देव आनंद और ख्वाजा अहमद अब्बास का समय था। राज कपूर जैसे अनोखे फ़िल्मकार ने भी इसी दशक में फिल्म निर्माण और निर्देशन की शुरुआत की। यह कहना गलत नहीं होगा कि सिनेमा के नायक को असली ताकत भी इसी दशक में मिली। आजादी के बाद देश का सोच भी आकार ले रहा था, इसलिए ये समाज के आदर्शवाद का भी समय था। फिल्मकारों ने समस्या प्रधान फिल्मों की तरफ भी रुख किया और सामाजिक भेदभाव, जातिवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, फासीवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ फिल्में बनाई। सिनेमा के परदे पर वे सारे सपने नजर आने लगे, जो आजाद देश के आदर्श समाज के लिए देखे गए थे। बिमल रॉय की फिल्म 'दो बीघा जमीन' ऐसे ही सपनों की फ़िल्म थी। ये फिल्म राष्ट्र विकास के मॉडल और उसके बीच समाज के दो वर्गों के बीच सांठगांठ को सामने लाने वाली थी। इस फिल्म का नायक कर्ज की रकम चुकाने के लिए रोजगार की तलाश में गांव से कलकत्ता जाता है। कहा जाता है कि आधुनिकता ही समृद्धि लाती है।
     प्रेम में पगी कालजयी फिल्मों की बात की जाए तो बिमल रॉय ने 'देवदास' और गुरुदत्त ने 'प्यासा' बनाकर इसकी शुरुआत की! लेकिन, फिर भी इस दशक में प्रेम प्रधान फिल्मों का अभाव देखा गया। क्योंकि, इस समय में सामाजिक बंधन, मर्यादा और नैतिकता का जोर ज्यादा था। 1951 में बनी राज कपूर की 'आवारा' हिट साबित हुई। 'आन' और 'चोरी-चोरी' भी ऐसी फ़िल्में थीं, जो आज भी याद की जाती है। 1954 में वी शांताराम की 'झनक झनक पायल बाजे' भी पसंद की गई। हिंदी की कई श्रेष्ठ फिल्में इसी दौर की देन रही। फिल्मों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कारों की शुरुआत भी इसी दशक में 1954 से हुई। अभिनेता देवानंद की 'सीआईडी' और 'फंटूश' इसी समय की सफल फ़िल्में थीं। 1957 में आई महबूब खान की 'मदर इंडिया' ने तो इतिहास बना दिया। ये इस दशक की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म तो थी, ऑस्कर के लिए विदेशी भाषा श्रेणी में भारत की तरफ नामित होने वाली भी पहली फिल्म बनी। हिंदी सिनेमा का ये महत्वपूर्ण पड़ाव था। दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला की 'नया दौर' भी इसी दशक में आई! 1957 में रिलीज हुई गुरुदत्त की 'प्यासा' भी कालजयी फिल्मों में एक थी। इस फ़िल्म को तो 'टाइम' पत्रिका ने दुनिया की 100 श्रेष्ठ फिल्मों में शामिल किया है। दो आंखें बारह हाथ, पेइंग गेस्ट, मधुमती, चलती का नाम गाड़ी, फागुन, हावड़ा ब्रिज, दिल्ली का ठग, अनाड़ी, पैगाम, नवरंग और 'धूल का फूल' जैसी फिल्में भी इस दशक की फेहरिस्त में हैं। 
     बलराज साहनी, अशोक कुमार और शम्मी कपूर की फिल्मों को जबरदस्त सफलता मिली। वहीं सत्यजीत रॉय, विमल राय, गुरुदत्त, महबूब खान, वी शांताराम, के आसिफ, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे महान फिल्मकारों ने भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाई। साथ ही यश चोपड़ा, मनमोहन देसाई, विजय आनंद, ऋषिकेश मुखर्जी, शक्ति सामंत जैसे फिल्मकारो ने इसी दशक में सिनेमा की दुनिया में कदम रखा। फिल्मों में बरसों तक अपनी अदाओं से दर्शकों को हंसने के लिए मजबूर करने वाले जॉनी वॉकर, महमूद, आईएस जौहर, किशोर कुमार, भगवान दादा, मुकरी, गोप जैसे कलाकारों ने भी इसी काल में मनोरंजन की दुनिया में कदम रखा। अपनी खलनायकी से दर्शकों के रोंगटे खड़े कर देने वाले प्राण, केएन सिंह, जीवन, कन्हैया लाल और मदनपुरी भी परदे पर दिखाई दिए। 
     इसी समय 'काली घटा' से बीना राय ने अपने फिल्म करियर की शुरुआत की और बाद में प्रेमनाथ की पत्नी बनी। लता मंगेशकर और आशा भोंसले ने फिल्म 'दामन' के लिए पहली बार युगल गीत 'ये रुकी रुकी हवाएं, ये बुझे-बुझे सितारे' गीत गाया। 1951 मे प्रर्दशित आवारा के गीत 'घर आया मेरा परदेसी' में राजकपूर और नरगिस पर पहला स्वप्न दृश्य फिल्माया गया था। राज कपूर ने प्रेम के जिस फ़िल्मी चलन की शुरूात की, वह अपने पूरे शबाब पर आया। 1960 में आई ऐतिहासिक फिल्म 'मुगले आजम' आज भी बेहतरीन फिल्मों में गिनी जाती है। 'मुगले आजम' 5 अगस्त 1960 को देश के डेढ़ सौ सिनेमाघरों में एक साथ लगने वाली पहली हिंदी फ़िल्म थी। बरसात की रात, कोहिनूर, चौदहवीं का चांद, जिस देश में गंगा बहती है, दिल अपना और प्रीत पराई जैसी फिल्मों ने भी बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कारोबार किया। 1961 में आई 'जंगली' से शम्मी कपूर स्टार बने और सायरा बानो ने पहली बार परदे पर कदम रखा। इसके बाद के दौर में फिल्मों का दृष्टिकोण यथार्थपरक हो गया। बाद के दशक में फिल्मों के साथ दर्शकों का सोच भी यथार्थ की तरफ दौड़ने के साथ रंगीन हो गया!
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Monday, July 12, 2021

शिवराज पर छाए काले बादल फेरबदल के बाद छंटे!

    शिवराज सिंह चौहान को चौथी बार मुख्यमंत्री बने करीब सवा साल हो गए। इस दौरान कई बार ये चर्चाएं गर्म हुई कि मुख्यमंत्री को बदला जाएगा। वे ज्यादा दिन इस कुर्सी पर नहीं रहेंगे! ये सुरसुरी कहीं और से नहीं, भाजपा के अंदर से चली और फिर कुछ दिन बाद ठंडी भी हो गई! हर बार किसी नए नेता को उनका विकल्प बताया जाता! कुछ दिन बाद वो नाम हाशिए पर चला जाता और उसकी जगह नया नाम आ जाता! केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल से पहले भी ऐसा ही कुछ हुआ, पर बाद में जो परिदृश्य सामने आया, वो बिलकुल अलग था। इस फेरबदल के बाद तो शिवराज सिंह पहले की अपेक्षा ज्यादा ताकतवर होकर उभरे हैं। जिन्हें उनका विकल्प समझा जा रहा था, वो काफी पीछे छूट गए! कहा जा सकता है कि फिलहाल उनके ऊपर खतरे के कोई काले बादल नहीं है। 
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- हेमंत पाल

     मध्यप्रदेश में लम्बे समय से सतह के नीचे राजनीतिक घमासान खदबदा रहा था। दमोह उपचुनाव में भाजपा की हार के बाद से माहौल बनाने की कोशिश हो रही थी, कि मुख्यमंत्री को बदला जाएगा। एक महीने पहले तो इस खबर ने बहुत जोर पकड़ा कि जल्दी ही कुछ बड़ा उलटफेर होने वाला है। कुछ नेताओं की बेवजह की मेल-मुलाकातों की ख़बरों और ज्योतिरादित्य सिंधिया के भोपाल आने के बाद तो दावे किए जाने लगे कि बस अब वो वक़्त आ गया, जिसका इंतजार था! पर, ऐसा कुछ नहीं हुआ और न होना था! अब, जबकि केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल का अध्याय पूरा हो गया, बदले हालात में शिवराज सिंह चौहान की कुर्सी पर कोई खतरा नजर नहीं आ रहा! सिंधिया केंद्र की राजनीति में व्यस्त हो गए, थावरचंद गहलोत राजनीति से विदा होकर महामहिम बना दिए गए और प्रहलाद पटेल के पर कतर दिए गए। इसके अलावा तो ऐसा कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा, जो मुख्यमंत्री की कुर्सी का दावेदार हो! लेकिन, फिर भी राजनीति ऐसी बंद मुट्ठी है, जिसके बारे में ख़म ठोंककर कुछ कहा नहीं जा सकता! पर, खतरे के जिस अंदेशे को भांपा जा रहा था, लगता है फिलहाल वो टल गया!    
     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों अपने मंत्रिमंडल में बड़ा बदलाव किया। उन्होंने अपनी कैबिनेट में 43 को मंत्री पद की शपथ दिलाई, 7 मंत्रियों का प्रमोशन किया, 12 को छुट्टी दी गई, जबकि 36 नए चेहरों को शामिल किया गया! लेकिन, इस राजनीतिक कवायद को लेकर सबका अपना-अपना नजरिया है। इसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले की तैयारी भी माना जा रहा है। साथ ही उन बड़े नेताओं को सबक देने का संकेत भी है, जिन्होंने मंत्री रहते हुए गंभीरता से अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई! इन 12 मंत्रियों में रविशंकर प्रसाद सिंह और प्रकाश जावड़ेकर का नाम सबसे ऊपर और चौंकाने वाला हैं। जिन्हें ताकतवर मंत्री माना जाता था, उनकी कुर्सी खिसकते देर नहीं लगी! इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सख्ती भी कहा जा सकता है और राजनीति की कोई नई चाल भी! अपनी खामी को दूसरे के कंधे पर डालकर उसका पत्ता साफ़ करने का कारनामा मोदी पहले भी कर चुके हैं।  
     मंत्रिमंडल में हुए इस फेरबदल को मध्यप्रदेश के संदर्भ में देखा जाए, तो एक बिलकुल अलग तस्वीर नजर आती है। केंद्र की राजनीति में जो कवायद की गई, उससे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तात्कालिक संकट से मुक्त होने के साथ ताकतवर भी हुए। पिछले कुछ महीनों से मुख्यमंत्री बदले जाने का जो माहौल बनाया जा रहा था, उसकी हवा निकल गई। ज्योतिरादित्य सिंधिया के केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने से उनको अगला मुख्यमंत्री बनाने का समीकरण बैठाने वाले खामोश हो गए। अनुसूचित जाति का कार्ड खेलकर थावरचंद गहलोत को भविष्य का मुख्यमंत्री साबित करने वालों को हमेशा के लिए जवाब मिल गया कि उनकी राजनीतिक पारी अब ख़त्म हो गई! कुछ नेता जो प्रहलाद पटेल को शिवराज सिंह का विकल्प समझते थे, वे ताजा फेरबदल में उनके पर कतरे जाने से दुबक गए! उन्हें उम्मीद नहीं थी, कि दमोह उपचुनाव की हार की सजा उन्हें स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री से भी हटा सकती है। उनका विभाग भी बदल दिया गया। उन्हें पर्यटन और संस्कृति जैसे महत्वपूर्ण विभाग के स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री पद से हटाकर जल शक्ति और खाद्य प्रसंस्करण विभाग में दोयम दर्जे का राज्यमंत्री बना दिया गया। ये उनका राजनीतिक कद घटने का स्पष्ट इशारा है। 
    मध्यप्रदेश के खाते में मोदी मंत्रिमंडल में पहले से नरेंद्र सिंह तोमर, थावरचंद गहलोत, धर्मेंद्र प्रधान, प्रहलाद पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते थे। तोमर, गहलोत और प्रधान कैबिनेट तथा पटेल स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री और कुलस्ते राज्यमंत्री थे। धर्मेंद्र प्रधान मध्यप्रदेश के नहीं हैं, पर राज्यसभा में उन्हें प्रदेश की सीट से लिया गया, इसलिए उन्हें मध्यप्रदेश में गिना जाता है। इस बार सबसे बड़ा उलटफेर रहा थावरचंद गेहलोत को मंत्रिमंडल से हटाकर कर्नाटक का राज्यपाल बनाया जाना! ये बात तय है कि नाकारा होने के कारण उन्हें मंत्रिमंडल से हटाया जा रहा था, पर जातीय समीकरण की खातिर उन्हें राज्यपाल पद देकर संतुलन साधने की कोशिश की गई! वे मंत्रिमंडल में प्रदेश के मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व भी करते थे। अब उनके हटने के बाद मोदी मंत्रिमंडल में मालवा का कोई घनी-घोरी नहीं है। उम्मीद की जा रही थी, कि इंदौर या उज्जैन संभाग से किसी को मौका दिया जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ! यहाँ तक कि विंध्य और महाकौशल से भी किसी का नाम नहीं आया!    
     मोदी कैबिनेट के विस्तार से पहले राकेश सिंह और कैलाश विजयवर्गीय के भी नाम लिए जा रहे थे। लेकिन, शामिल किया गया ज्योतिरादित्य सिंधिया और वीरेंद्र खटीक को! सिंधिया का नाम तो पहले से तय था। उनके दलबल सहित कांग्रेस से भाजपा में आने की जो शर्तें थीं, निश्चित रूप से उसमें केंद्रीय मंत्री का पद दिया जाना भी शामिल होगा। पर, टीकमगढ़ के सांसद वीरेंद्र कुमार खटीक का अचानक नाम जुड़ना आश्चर्य की बात रही! थावरचंद गहलोत को हटाए जाने पर किसी अनुसूचित जाति के किसी चेहरे को तो लिया ही जाना था। उन्हें कैबिनेट में लिए जाने के पीछे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को बड़ी वजह माना जा रहा है। सिंधिया का ग्वालियर और खटीक का बुंदेलखंड दोनों इलाकों की सीमाएं उत्तरप्रदेश से मिलती है, जो उत्तरप्रदेश के चुनाव भाजपा को फ़ायदा देगी। वीरेंद्र खटीक का टीकमगढ़ क्षेत्र उत्तर प्रदेश के महोबा, हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट, ललितपुर, झांसी, जालौन, ललितपुर की सीमाओं के करीब है और इस पूरे क्षेत्र में अनुसूचित जाति का दबदबा है।        ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने के बाद मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री बदले जाने को लेकर जमकर हवा चली थी। सिंधिया समर्थकों ने अंदर ही अंदर सुरसुरी भी छोड़ी थी कि 'महाराज' को अगला मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है! लेकिन, केंद्र की राजनीति में पुनर्वास होने से ये सारे कयास हाशिए पर चले गए। मंत्री बनने से ग्वालियर इलाके में सिंधिया की ताकत बढ़ेगी, इसमें शक नहीं! पर, ये नरेंद्र सिंह तोमर, नरोत्तम मिश्रा और विष्णुदत्त शर्मा पर निर्भर है कि वे सिंधिया की पतंग को कितनी ढील देते हैं। क्योंकि, ये सभी सिंधिया के इलाके से ही आते हैं। राजनीति की शिक्षा की किसी किताब में ये अध्याय नहीं होता कि अपने प्रतिद्वंदी को कभी अपना कद बढ़ाने का मौका दिया जाए! ऐसा संभव भी नहीं है! पर, इस सारी उठापटक से शिवराज सिंह की कुर्सी को फिलहाल कोई खतरा नजर नहीं आ रहा! बल्कि जो खतरा मंडरा रहा था, वो भी छंट गया! इसके साथ ही, उन विघ्नसंतोषियों को भी सबक मिल गया जो जोड़-तोड़ की राजनीति के जरिए शिवराज सिंह को शह देने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन, फिर भी राजनीति के बारे में कोई दावा नहीं किया जा सकता! जो सुरक्षित दिखाई देता है, वो कब खतरे में पड़ जाए कहा नहीं जा सकता! इसलिए भी कि सत्ता के समीकरण बहुत उलझे हुए होते हैं। 
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Sunday, July 11, 2021

'द लास्ट लीफ' का वो आखिरी पत्ता!

हेमंत पाल

     प्रसिद्ध अमेरिकी लघु कथाकार 'ओ हेनरी' की एक चर्चित कहानी ''द लास्ट लीफ' है। इसमें बीमार बच्ची जोहंसी एक बीमार पात्र है, जो निमोनिया से मरने वाली है। वह रोज खिड़की के बाहर एक लता (बेल) से गिरते पत्तों को देखती है। उसे लगता है कि जिस दिन आखिरी पत्ता गिरेगा, वो मर जाएगी। उसके घर के नीचे रहने वाले बूढ़े कलाकार बेहर्मन को जब पता चलता है कि जोहंसी के साथ ऐसा होने वाला है, तो वो उसे बचाने के लिए अपनी कलाकारी से नकली पत्ता बना देता है। एक रात तेज आंधी चलती है। जोहंसी को लगता है कि इस आंधी में आखिरी पत्ता भी गिर जाएगा और वो मर जाएगी। सुबह, जोहंसी देखती है कि बेल के सभी पत्ते गिर गए, पर एक पत्ता बचा है। जोहंसी मान लेती है, कि यह पत्ता उसे बचाने के लिए रुका है। वह अपने आपको जीने के लिए फिर तैयार करती है और उसकी हालत में बहुत सुधार आता है। लेकिन, उस बूढ़े पड़ोसी बेहर्मन की निमोनिया से मौत हो जाती है। वास्तव में जोहंसी को जिंदा रखने के खातिर, शेष बचा पत्ता बेहर्मन की सबसे उत्तम रचना थी।
    हिन्दी सिनेमा के सौ साल पुराने दरख्त से लिपटी दिलीप कुमार की जिंदगी ओ' हेनरी की इसी कहानी 'द लास्ट लीफ' के उस पत्ते की तरह थी। लगता है कि कुदरत ने दिलीप कुमार को इस कहानी के एक कलाकार पात्र बेहर्मन की तरह ही उस नन्हीं बीमार जोहंसी यानी फ़िल्मी दुनिया को बचाने के लिए ही बनाया था। उन्होंने अपने अभिनय से हिंदी सिनेमा की शनै-शनै झरती हुई बेल पर वह अंतिम पत्ते के रूप में अपनी मौजूदगी कायम रखी, जो जोहंसी की तरह ही सिनेमा के दर्शकों को यह अहसास कराती थी, कि हिंदी सिनेमा की बेल अभी लहलहा रही है। लेकिन, इस बेल के अंतिम पत्ते के 98वें वसंत में झरते ही हिंदी सिनेमा की बेल मुरझाई सी लगी! सिनेमा की दिलीप कुमार नुमा यह बेल भी खास थी। वो घनी पत्तियों से लदे दरख्त की तरह नहीं थी। बल्कि, इस बेल पर 1944 से लेकर 2021 तक 77 साल के दरम्यान लगभग 63 पत्तियां खिली और यह आखिरी पत्ता भी 1998 से अभी तक टंगा हुआ था। यह पत्ता अहसास करा रहा था, कि वे किसी अमरबेल का एक हिस्सा हैं। 
   कई सितारे ऐसे हैं, जिनके छोटे से फिल्मी करियर में डेढ़ सौ से ज्यादा फिल्में होने के बावजूद सिने इतिहास में उनका वजूद कायम नहीं रह पाया। लेकिन, 77 साल के करियर में महज 63 फिल्में करने और 1998 के बाद परदे से दूर रहने के 23 साल बाद भी जो लोगों के दिलों में दिलीप कुमार धड़कन की तरह धड़कते रहे! यह तो कुदरत का करिश्मा ही कहा जाएगा। वरना फिल्मी दुनिया ऐसी जगह है, जहां एक मोड़ से गुजरते हुए दूसरे मोड़ तक जाने तक ही कलाकार अपना नाम और काम सब कुछ गंवा चुका होता है। इस ट्रेजडी किंग ने हर किरदार को शिद्दत से जिया। वो राजकुमार हो, किसान हो, विश्वासघाती प्रेमी हो या फिर कठोर पिता। उसके लिए परदे के सभी किरदार जिंदगी की तरह थे, जिसे उन्होंने सहजता और कौशल से जीवंत किया। 1960 में 'मुगले आजम' में सख्त और अनुशासित पिता के सामने मोहब्बत के लिए विद्रोही बेटे की भूमिका निभाने वाले दिलीप कुमार ने बीस साल बाद 1980 में 'शक्ति' में उसी शिद्दत से अनुशासन प्रिय बाप का किरदार भी निभाया! 
    इसे भी आश्चर्य माना जाना चाहिए कि दिलीप कुमार के परिवार को लम्बे समय तक यही पता नहीं था कि उनके साहबजादे क्या करते हैं! हो सकता है और किसी काम की खबर हो, पर वो फिल्मों में काम कर रहे हैं, इस बात की जानकारी नहीं थी। लेकिन, जब 'जुगनू' रिलीज हुई, तो ये राज खुल गया। राज कपूर के दादा बशेश्वरनाथ कपूर और दिलीप कुमार के पिता गुलाम सरवर कहीं सैर पर जा रहे थे। दोनों में पेशावर से ही पुराना याराना था। इसी सैर के दौरान बशेश्वरनाथ ने दिलीप के पिता को रास्ते में लगा 'जुगनू' फिल्म का पोस्टर दिखाया जिसमें उनके बेटे दिलीप कुमार का फोटो लगा था। उनके पिता को ये अच्छा नहीं लगा, क्योंकि तब ये काम इज्जतदार खानदान के बच्चे नहीं किया करते थे। पिता ने अपने बेटे से बात करना बंद कर दी। बाद में पृथ्वीराज कपूर के समझाने पर मामला     शांत हुआ। 
      ये भी गौर करने वाली बात है कि सिनेमा के ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन होने के समयकाल को जोड़ने वाली वे आखिरी कड़ी थे। उस दौर का उनका कोई समकालीन कलाकार अब नहीं है। राज कपूर और देव आनंद के साथ उनकी जो त्रिमूर्ति थी, उसकी भी वे आखिरी मूर्ति थे। लेकिन, उन्होंने राज कपूर और देव आनंद के मुकाबले बहुत कम फ़िल्में की! पर, कालजयी अभिनय की बात की जाए, तो उसमें दिलीप कुमार का कोई सानी नहीं! राज और देव को शायद ही कोई अपना आदर्श मानता हो, पर दिलीप को अपना आदर्श मानने वालों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। मगर, अपनी त्रिमूर्ति की दो मूर्तियों की तरह उन्होंने फ़िल्में बनाने में कोई रूचि नहीं दिखाई। इसके अलावा उनके बाद फिल्मों में आए राजेंद्र कुमार और राजकुमार तो कई साल पहले ही अलविदा कह गए। कहा जा सकता है, कि अब कोई ऐसा कलाकार नहीं बचा, जिसने हिंदी सिनेमा का शुरूआती और आज का दौर देखा हो! अपने फ़िल्मी सफर में किरदारों के ब्लैक एंड व्हाइट से उनके रंगीन होने तक के सफर को दिलीप कुमार ने कई भूमिकाओं में जिया। उनका वैचारिक और गंभीर नायक का सफर देश के बदलते समय के साथ नए मुकाम गढ़ता हुआ ही आगे बढ़ा है।
   इस कलाकार की एक और खासियत थी, जिस पर लोगों का कम ही ध्यान गया होगा! वे देश और समाज के बदलते समय का भी प्रतीक थे। आजादी से पहले परदे पर अवतरित दिलीप कुमार ने 40 और 50 के दशक में उहापोह में फंसे उस भारतीय नौजवान की छवि को जीवंत किया जिसके सामने भविष्य का सवाल खड़ा था। तब नेहरू का दौर था और दिलीप कुमार ने ‘शहीद’ और ‘नया दौर’ जैसी फिल्मों से खुद को नेहरूवादी नायक के रूप में उभारा! इसलिए कि तब समाज को ऐसी आदर्श की जरूरत थी। लेकिन, 60 के दशक में दिलीप कुमार ने 'गंगा जमुना' के साथ आदर्श नायक की छवि को खंडित किया। लेकिन, फिर वे असफल प्रेमी के किरदार की गिरफ्त में ऐसे आए कि उसमे फंसते ही चले गए। इस तरह के किरदारों ने उन्हें अभिनय के शिखर पर तो पहुँचाया, पर गहरे अवसाद में भी धकेल दिया। वे उस अंधे कुएं में उतर गए, जहां से बाहर आने के लिए उन्हें अपने लिए नए किरदार गढ़ना पड़े। राम और श्याम, गोपी और 'सगीना' ऐसे ही किरदार थे, जिन्होंने दर्शकों को गुदगुदाने का काम किया और दिलीप कुमार को अवसाद से निकाला।      
   दिलीप कुमार की आत्मकथा ‘द सबस्टांस एंड द शैडो' की प्रस्तावना में सायरा बानो ने लिखा है 'उनकी धर्मनिरपेक्ष मान्यताएं सीधे उनके दिल से और सभी धर्मों, जातियों, समुदायों तथा वर्गों के प्रति उनके सम्मान से निकलती है।' ये बात सच भी है। 1990 के दशक में जब मुंबई सांप्रदायिक हिंसा से जल रहा था, तब वे शांति के प्रतीक के रूप में सामने आए थे। 1993 के दंगों के दौरान तो उन्होंने अपने घर के दरवाजे मदद के लिए खोल दिए थे। ऐसे बहुत से किस्से हैं, जो उन्हें बेहतरीन कलाकार के साथ इंसान दर्शाते हैं। 
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Thursday, July 8, 2021

मौन की कोख से जन्मी अभिनय की नई भाषा

- हेमंत पाल


   दिलीप कुमार के साथ फिल्म इतिहास का एक अध्याय समाप्त हो गया। उनका अभिनय हिंदी फिल्मों में मील का ऐसा पत्थर माना जाता है, जिसके आसपास अभिनय का पूरा संसार चक्कर लगाता है। आज के कई बड़े अभिनेता जिस तरह का लाउड अभिनय करते हैं, दिलीप कुमार हमेशा उससे बचते रहे! उनके अभिनय में ऐसा ठहराव था, जो देखने वाले की आँखों के जरिए दिल में उतर जाता था। वे मौन की भाषा बोलते थे। आखिर किसे पता था कि एक यही शख़्स फ़िल्म प्रेमियों को मौन की ऐसी भाषा सिखा देगा जो उसकी पहचान बन जाएगी। वे आँखों से ऐसा अभिनय करते थे, जो कई पन्नों के डायलॉग भी असर नहीं कर सकते। पचास सालों के फिल्म करियर में महज 63 फिल्मों में अभिनय करके उन्होंने जो मुकाम हांसिल किया, जो 200 फ़िल्में करने वाले आज के अभिनेता कभी नहीं पा सकते! शायद यही कारण था कि जाने-माने फ़िल्मकार सत्यजीत रे ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ 'मेथड अभिनेता' का ख़िताब दिया था।  
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      दिलीप कुमार के फ़िल्मी करियर की शुरुआत उस समय हुई, जब अभिनय करने वालों पर पारसी थियेटर का ख़ासा असर था। सभी अभिनेता लाउड एक्टिंग करते थे। लेकिन, दिलीप कुमार कभी इससे प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने चिल्लाकर संवाद बोलने से परहेज किया और अपने अलग तरह के अभिनय से दर्शकों के दिल में जगह बनाई। उन्होंने शायद ही किसी फिल्म में चिल्लाकर अभिनय किया हो। फुसफुसाकर बोलने के साथ अभिनय की बारीकियों को परदे पर उतारकर उन्होंने जो पहचान बनाई वो उनकी अदाकारी बन गई। संवाद बोलने के बीच उनके पॉज देने और अचानक मौन होकर आँखों से अभिनय करने की उनकी अदा ने दर्शकों पर जबरदस्त असर डाला। इसका सबसे सटीक प्रमाण था 'मुगले आजम' में पृथ्वीराज कपूर के सामने उनका ठहरा हुआ अभिनय! पृथ्वीराज कपूर की आवाज में खराश थी और वे बहुत जोर से संवाद बोलते थे! 'मुगले आजम' में ये अकबर के किरदार की जरुरत भी थी, पर शहज़ादा सलीम की भूमिका में दिलीप कुमार ने कभी ऊँची आवाज में कोई संवाद नहीं बोला! उन्होंने ऊँची आवाज में बोले बिना सहज, सौम्य लेकिन दृढ़ आवाज़ में संवाद बोले और दर्शकों को ताली बजाने पर मजबूर किया। 
   राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार को हिंदी फिल्मों की त्रिमूर्ति कहा जाता था। किंतु, अभिनय की जो बहुमुखी प्रतिभा दिलीप कुमार के अभिनय में थी, वो इन दोनों कलाकारों में नहीं थी। जिस दौर में दिलीप कुमार अभिनय करते थे, तब हर बड़ा अभिनेता किसी न किसी हॉलीवुड अभिनेता से प्रेरित रहता था। राज कपूर ने चार्ली चैपलिन से प्रभावित थे, तो देव आनंद ने ग्रेगरी पेक की तरह अभिनय किया और कभी भी उन अदाओं से बाहर नहीं निकल सके। लेकिन, दिलीप कुमार ने कभी किसी की कॉपी नहीं की और अपना अलग ही अंदाज बनाया। 'गंगा जमना' में एक गांव के युवक का किरदार बखूबी से निभाया तो 'मुग़ले आज़म' में उनका अभिनय देखकर कोई कह नहीं सकता था कि मुग़ल शहज़ादे का अंदाज दिखाने में उन्होंने कोई कमी रखी। 
    बॉम्बे टॉकिज की मालकिन देविका रानी से हुई उनकी मुलाकात ने जीवन की धारा ही बदल दी। 40 के दशक में देविका रानी हिंदी फ़िल्मी दुनिया का एक बड़ा नाम था। जब वे फिल्म निर्माण में आई तो फिल्मों का एक बड़ा तबका उनके इर्द-गिर्द मंडराने लगा! लेकिन, उन्होंने दिलीप कुमार की प्रतिभा को पहचान लिया था। उन्होंने यूसुफ़ खान को 'दिलीप कुमार' बनाकर एक इतिहास रच दिया, जिसका आखिरी अध्याय आज पूरा हुआ। एक फ़िल्म की शूटिंग देखने बॉम्बे टॉकीज़ गए युसूफ खान से देविका रानी ने उनसे पूछा था कि क्या आप उर्दू जानते हैं! यूसुफ़ के हाँ कहने पर उन्होंने पूछा कि क्या आप अभिनय करना पसंद करेंगे! युसूफ को भी इसी पल का इंतजार था। इसके बाद जो हुआ, वो हिंदी फिल्म जगत के इतिहास में दर्ज हो गया।  
    देविका रानी का विचार था कि रोमांटिक फिल्मों के नायक का नाम भी रोमांटिक होना चाहिए। यूसुफ़ खान जैसा परंपरागत मुस्लिम नाम जमेगा नहीं। जब उनसे पूछा गया तो वे भी इसके लिए राजी हो गए। उस समय बॉम्बे टॉकीज़ में काम करने वाले और बाद में हिंदी के बड़े कवि भगवतीचरण वर्मा ने उन्हें तीन नाम सुझाए जहांगीर, वासुदेव और दिलीप कुमार। यूसुफ़ खान ने दिलीप कुमार चुना। गौर करने वाली बात ये भी है कि अपने पूरे करियर में दिलीप कुमार ने सिर्फ 'मुगले आजम' में मुस्लिम किरदार निभाया।  
   पांच दशक से ज्यादा समय तक चले अपने करियर में दिलीप कुमार ने 63 फ़िल्मों में काम किया। ख़ास बात ये कि उनकी हर फिल्म का किरदार अपने आपमें अनोखा होता था। अभिनय की बारीकियों में डूबना दिलीप कुमार की आदत रही। लेकिन, एक बार अभिनय में डूबना उनके लिए मुश्किल भी बन गया। कई फिल्मों में उन्होंने मरने का अभिनय किया। एक ऐसा दौर था, जब हर दूसरी फिल्म में उनकी मौत का दृश्य होता था। वे मौत के सीन को इतनी गंभीरता से फिल्माते थे, कि उसमें जीवंतता लगती थी। एक समय आया कि मरने का अभिनय करते-करते दिलीप कुमार अवसाद का शिकार हो गए। हालात ये हो गई कि उन्हें इलाज के लिए लंदन जाना पड़ा। डॉक्टरों की सलाह थी कि वे ट्रैजिक फ़िल्में छोड़कर सामान्य या कॉमेडी फ़िल्में करें और अभिनय को दिल पर न लें। लंदन में लौटकर दिलीप कुमार ने कोहिनूर, आज़ाद और 'राम और श्याम' जैसी सामान्य फ़िल्में की, जिनमें हास्य भी था। 
   दिलीप कुमार अभिनय में वास्तविकता दिखाने के लिए हर वो कोशिश करना चाहते थे, जो फिल्म में उनके किरदार की जरुरत थी। 'कोहिनूर' फिल्म के के एक गाने में उन्हें हाथ में सितार लेना था। वे नहीं चाहते थे कि कोई उनकी कमजोरी पकड़े, तो उन्होंने उस्ताद अब्दुल हलीम जाफ़र ख़ान से सितार बजाना तक सीखा। ये सब इसलिए किया गया कि आखिर सितार को पकड़ा कैसे जाता है। सितार के तार से कई बार उनकी उंगलियाँ भी कटी, पर लगन तब भी नहीं छूटी। 'नया दौर' की शूटिंग के दौरान उन्होंने तांगा चलाने वाले से बकायदा तांगा चलाने की ट्रेनिंग ली। अभिनय की इन्हीं बारीकियों ने उन्हें वो दिलीप कुमार बनाया, जो अभिनय की पाठशाला बना और जिससे अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान जैसे अभिनेता निकले। 
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Saturday, July 3, 2021

तेरी मिट्टी में मिल जांवा, गुल बन के मैं खिल जांवा

- हेमंत पाल

   'दो बीघा जमीन' का शंभू हो, 'मदर इंडिया' की राधा हो, 'लगान का भुवन हो या फिर 'पीपली लाइव' का नत्था! फिल्म के इन सभी किरदारों में एक बात सामान्य थी, कि वे परदे पर अपनी माटी के लिए लड़े। फिल्म के दर्शकों को भावनात्मक रूप से कहानी के किरदार से जोड़ने और उनकी आँखों की पोर गीली करने में ऐसे किरदार हमेशा ही सफल रहते हैं। यही कारण है कि थोड़े बहुत अंतराल के बाद फिल्मकार माटी या धरती को याद करके ऐसी फिल्में बनाते रहे हैं। ये फ़िल्में दर्शकों को उद्वेलित कर सिनेमा हाल में तालियां और बाॅक्स ऑफिस पर पैसा बटोरने में कामयाब भी होती है। बीते जमाने की बात करें, तो हमारी माटी हमेशा ही बाॅक्स ऑफिस के लिए सोना उगलती रही। आज भी फिल्मी माटी में सोना और हीरे-मोती उगलने की परम्परा बदस्तूर कायम किए हैं। महबूब खान की फिल्म 'मदर इंडिया' भी देश की मिट्टी से ही जुड़ी थी। इस फिल्म में माटी की महक उसके रंग और उससे रिसता लहू सब कुछ इतनी शिद्दत के साथ फिल्माया गया था कि पूरी फिल्म के दौरान दर्शक माटी से जुड़ा पाता है। ऐसी फिल्मों में दो बीघा जमीन, लगान और 'पीपली लाइव' को भी याद किया जा सकता है, जिसकी कहानियां सीधे जमीन यानी मिट्टी से जुड़ी थीं।    
    1953 में आई बिमल रॉय की फिल्म 'दो बीघा जमीन' किसानों की अंतहीन दुर्दशा की कहानी थी। यह फिल्म एक किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) को लेकर गढ़ी गई थी, जिसके पास दो बीघा जमीन है। इससे ही शंभू और उसके परिवार का गुजर बसर होता है। लेकिन, गांव का जमींदार कारखाने के लिए अपनी गांव की जमीन बेचना चाहता है। इस जमीन के बीच शंभू की दो बीघा जमीन का टुकड़ा भी है और जमींदार को पूरा भरोसा है कि वह जमीन के इस टुकड़े को किसी न किसी तरह हथिया लेगा। जमींदार और शंभू के बीच का द्वन्द ही फिल्म की कहानी है। आमिर खान 2010 में बनाई फिल्म 'पीपली लाइव' भी गांव के किसान नत्थू सिंह उर्फ नत्था की कहानी है, जो अपनी बीमार माँ के इलाज के लिए कर्ज लेता है और चुका नहीं पाता। कर्ज न चुकाने से नत्था को अपनी जमीन पर सरकारी कब्जे का डर सताता है। इस बीच सरकार उन किसानों के परिवार को मुआवजे का ऐलान करती है, जिन्होंने कर्ज न चुकाने की वजह से आत्महत्या कर ली। अपनी पुश्तैनी जमीन छिनने के डर से नत्था का बड़ा भाई आत्महत्या करने की बात करता है, ताकि मुआवजे की रकम से उधार चुकाया जा सके और नत्था अपने बच्चों की पढ़ाई पूरी कर सके। नत्था इस आइडिया को खुद पर अमल करने का फैसला करता है। इसके अलावा हीरा-मोती, परख और 'गोदान' माटी की ही कहानियों पर बनी फ़िल्में थी। ऐसी ही कहानियों से प्रेरित होकर मनोज कुमार ने 'उपकार' में माटी के माध्यम से देश प्रेम का संदेश देने की कोशिश की थी। 
      फिल्मों में माटी का उपयोग कर दर्शकों की भावना उभारने के कई प्रयास हुए। कहीं नायक विदेश से आकर देश की मिट्टी से जुड़कर रहने और यहीं काम करने लगता है। कहीं वह अपने माथे पर माटी का तिलक लगाकर दर्शकों की तालियां बटोरने में कामयाब रहता है। कहीं माटी के बंटवारे को लेकर दर्शकों के बीच एक तनावपूर्ण स्थिति कायम की जाती है। कहीं-कहीं माटी के सौंदर्य की झलक दिखाकर दर्शकों का दिल खुश करने के हथकंडे अपनाए जाते हैं। 'स्वदेश' को याद कीजिए, जिसमें नायक शाहरुख़ खान अमेरिका से आकर गांव की मिट्टी में रम जाता है। 'आ अब लौट चलें' में राजेश खन्ना भी बरसों विदेश में रहने के बाद बेटे के कहने पर लौट आता है। ऐसी कई फिल्मों का विषय माटी से जुड़ा होता है।
      नायक और नायिका को माटी पुत्र या माटी पुत्री बनाकर पेश किए जाने की परम्परा भी चलती आई! यह बात अलग है कि अधिकांश फिल्मों में केवल औपचारिकता निभाई जाती है। नायक अगर किसान है, तो उसके खेत की फसल को साहुकार हड़पने का प्रयास करता है। नायक जब इसका विरोध करता है, तो पुलिस उसे किसी मामले में पकड़कर हवालात में बंद कर देती है। ऐसे प्रकरण कई फिल्मों में देखे गए। पुरानी फिल्मों में माटी पुत्र बनने का काम केवल दिलीप कुमार को ही ज्यादा रास आया है। उसके बाद राजेंद्र कुमार को किसान के रूप में देखा गया। राज कपूर और देव आनंद ने तो शायद ही किसी फिल्म में किसान की तरह धोती पहनी हो! आपातकाल के समय देशभक्ति पर आधारित फिल्म 'माटी मेरे देश की' विवादों के कारण प्रदर्शित नहीं हो सकी थी। यह गुलशन ग्रोवर की पहली फिल्म थी और इसमें उन्होंने एक फौजी की भूमिका निभाई थी। यह फिल्म तो प्रदर्शित नहीं हो सकी थी, लेकिन महेंद्र कपूर का गाया फिल्म का एक गीत काफी लोकप्रिय हुआ। 'मेरे देश का हर एक बच्चा इस माटी का लाल है।' 
   फिल्मों के मध्ययुग में जब माटी से जुड़ी फिल्में आई, तो राजकुमार, जितेन्द्र, धर्मेन्द्र, राजेन्द्र कुमार, ऋषि कपूर, सलमान, शाहरूख खान और गोविंदा से लगाकर अमिताभ बच्चन ने माटी पुत्र बनकर इस भावना का मखौल उड़ाया। ये सभी नाम के लिए माटी पुत्र थे, लेकिन इनकी भूमिका कुछ रीलों तक ही सीमित रही। इसके बाद ये शहर पहुंचकर मिट्टी से सने कपड़े उतारकर साला मैं तो साहब बन गया की तर्ज पर अपनी छबि बदलकर नायिका के साथ पेड़ों के इर्द-गिर्द प्रेम गीत गाने लगे। फिल्मों के साथ मिट्टी ही नहीं जुड़ी, कुछ सितारे ऐसे भी हैं जिनके साथ मिट्टी का नाता जुड़ गया। ये कलाकार ऐसे हैं, जो सितारों की भीड़ में अपना अलग वजूद रखते हैं। अभय देओल, धर्मेंद्र और ऋषि कपूर जैसे कुछ कलाकार इसी श्रेणी में आते हैं, जो समय के बदलते दौर में भी अपनी जगह पर अडिग रहे। यही कारण है कि इन कलाकारों को मिट्टी पकड़ सितारे कहा गया है।
      हिन्दी फिल्मों के शीर्षकों में भी माटी जमकर महकी। मिट्टी, धरती, मिट्टी और सोना, धरती कहे पुकार के, माटी मांगे खून, माटी की कसम, धरती मैया, धरती पुत्र और 'मिट्टी के खिलौने' जैसी फिल्मों में केवल नाम ही था, फिल्म कहीं से भी माटी से जुड़ी नहीं लगी। इसी तरह फिल्मी गीतों में भी माटी और धरती का भरपूर उपयोग किया गया। इनमें मेरे देश की धरती सोना उगले, धरती सुनहरी अंबर नीला, धरती चांद सितारे, धरती कहे पुकार के, धरती मेरी माता पिता आसमान, धरती का प्यार पले, धरती की रानी, एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, यह माटी कहेगी सबकी कहानियां, मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए, तेरी मिट्टी में मिल जांवा जैसे गीतों ने खासी लोकप्रियता बटोरी है। डरावनी फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाले रामसे ब्रदर्स ने अपनी पहली हॉरर फिल्म 1972 में 'दो गज जमीन के नीचे' बनाई थी। एक्शन और रोमांटिक फिल्मों से उब चुके दर्शकों को ऐसी फिल्मों से नई तरह का मनोरंजन मिला था। उनका ये फार्मूला सफल रहा। लेकिन, अब नए दौर के सिनेमा में मिट्टी से जुड़ी कहानियां दर्शकों और फिल्मकारों की रुचि से बाहर हो गई है। 
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