Tuesday, February 25, 2020

रिश्ता की आँच से रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघलाने की कोशिश!

   मध्यप्रदेश की कांग्रेस इन दिनों त्रिकोण में फंसी है। मुख्यमंत्री कमलनाथ और पार्टी महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच कुछ दिनों से शीतयुद्ध जारी है, जिसमें शब्दबाणों से हमले किए जा रहे हैं। ये सारा शीतयुद्ध मीडिया के मैदान में चल रहा है। मीडिया ने दोनों दिग्गजों के लिए अपना मैदान खोल दिया! इस सियासी जंग के पीछे दो कारण छुपे हैं। एक कारण तो राज्यसभा की खाली होने वाली वो अतिरिक्त सीट है, जिस पर ज्योतिरादित्य सिंधिया को भेजे जाने की चर्चा है! दूसरा, प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष पद है, जिस पर अपने नेता को काबिज करने के लिए सिंधिया समर्थक लम्बे समय से लगे हैं। लगता है, इस जंग का अब निर्णायक समय आ गया! दिग्विजय सिंह ने मोर्चा संभाल लिया! वे दोनों नेताओं के बीच मध्यस्थ की भूमिका में दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने इस मुद्दे को बातचीत से हल करके रास्ता निकालने के प्रयास किए हैं। इसके अलावा भी कुछ दबे-छुपे कारण हैं, जो इस मुलाकात से जोड़कर देखे गए हैं। 
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- हेमंत पाल
  
  कांग्रेस के नेता भले ही प्रदेश संगठन में सब कुछ ठीक होने के दावे कर रहे हों, पर तय है कि सब ठीक तो नहीं है। कुछ दिन थमकर विवादों की आंधी का गुबार फिर चलने लगता है, जिससे पूरा सियासी माहौल धूल-धुसरित हो जाता है। पार्टी महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अब सरकार के वचन-पत्र पर उंगली उठाकर मुख्यमंत्री कमलनाथ को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की! सिंधिया का ये हमला कितना सही है या गलत, मुद्दा ये नहीं है! असल बात ये कि ऐसी स्थितियां क्यों बनी कि उन जैसे बड़े नेता को एक अराजनीतिक मंच पर सरकार को चुनौती देने की जरुरत पड़ गई! क्या इसलिए कि जब भी ज्योतिरादित्य सिंधिया को कोई पद मिलने का जिक्र चलता है, उसमें अड़ंगेबाजी शुरू हो जाती है। पहले जब प्रदेश अध्यक्ष का नाम चला, तो किसी आदिवासी नेता को पद देने का मुद्दा उछालकर उस पर पानी झोंक दिया गया! अब उनकी नाराजी को राज्यसभा की खाली होने वाली सीट से जोड़कर देखा जा रहा है। इस सीट से सिंधिया को भेजे जाने की बात चली है।       
 अप्रैल में मध्यप्रदेश से राज्यसभा की तीन सीट खाली हो रही है। इनमें दो कांग्रेस को और एक भाजपा को मिलने के कयास लगाए गए हैं। एक सीट से दिग्विजय सिंह को फिर भेजे जाने का जिक्र किया जा रहा है। दूसरी सीट से ज्योतिरादित्य सिंधिया को दावेदार माना जा रहा है। लेकिन, जिस एक सीट से सिंधिया का नाम आने की संभावना है, वहां से प्रियंका गांधी का नाम भी उछाल दिया गया! जबकि, प्रियंका के मध्यप्रदेश से राज्यसभा जाने के आसार कम ही हैं। लेकिन, विवादों का जो गुबार उठा है, उसे थामना जरुरी है। क्योंकि, राज्यसभा की तीसरी सीट कांग्रेस को तभी मिल सकती है, जब सारे विधायक एकजुट हों! यदि सेबोटेज हुआ तो भाजपा के खाते में दो सीट जाने का अंदेशा है। लेकिन, इसके लिए जरुरी है कि बड़े नेताओं के बीच मतभेद खत्म किए जाएं! दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया की मुलाकात का असल मकसद यदि यही है, तो तय है कि आने वाले दिनों में समीकरण बदलेंगे!   
   अब जरा वो गणित भी समझ लिया जाए, जिसे लेकर सियासत का पारा गरमा रहा है। राज्यसभा की तीन में से दो सीटों पर तो कांग्रेस और भाजपा के एक-एक नेता के चुने जाने के आसार हैं! लेकिन, तीसरी सीट के लिए कांग्रेस को दो विधायकों के समर्थन की जरुरत पड़ेगी, जबकि भाजपा को 9 विधायकों में सेंध लगाना पड़ेगा। चुनाव के फार्मूले के मुताबिक हर उम्मीदवार को 58 विधायकों के वोट की जरुरत होगी। फिलहाल 230 विधानसभा में विधायकों की संख्या 228 है! दो सीटें खाली है। कांग्रेस के पास 114 व भाजपा के 107 विधायक हैं। इस गणित से कांग्रेस को दूसरी सीट जीतने के लिए बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी व निर्दलीय विधायकों का समर्थन जरूरी होगा। कांग्रेस के लिए दो विधायकों की जुगाड़ मुश्किल नहीं है, भाजपा के लिए ये तभी संभव है जब वो कांग्रेस में फूट का फायदा उठाने में कामयाब जाए! 
  सियासत में चल रही इस उठापटक के बीच कांग्रेस में विपरीत ध्रुव के रूप में विख्यात दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच की बातचीत को लेकर मीडिया में कई तरह के अनुमान लगाए! इस मुलाकात को लेकर मीडिया में जो मसाला तैयार किया है, उसके मुताबिक राज्यसभा की सीट के अलावा प्रदेश अध्यक्ष बड़ा मसला है। सिंधिया समर्थक तो दोनों ही कुर्सियों के लिए जिद किए बैठे हैं। लेकिन, यदि दोनों के बीच बातचीत की कोई संभावना भविष्य में बनती है, तो शायद इसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया की नाराजी को कुछ हद तक दूर करने की कोशिश जरूर होगी। क्योंकि, राज्यसभा को लेकर कांग्रेस में जो अटकलबाजियां है, उसका फैसला अंततः पार्टी आलाकमान को करना है। पार्टी की उस असहजता को दूर करने के लिए भी दोनों ने बीच कोई ऐसा रास्ता तो निकाला होगा, जिससे भाजपा को पार्टी में सेंध लगाने का मौका न मिले, जिसकी आशंका पार्टी को सता रही है। कारण कि सियासी असंतुलन के माहौल में पार्टी कोई जोखिम लेना भी नहीं चाहेगी।
  कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष का सवाल भी अहम् है। क्योंकि, मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष भी हैं! इस पद पर कौन बैठेगा इसे लेकर असमंजस बरक़रार है। जब भी अध्यक्ष पद की बात चलती है, सिंधिया समर्थक अपने नेता को इसके लिए सही चेहरा बताते हैं! लेकिन, जो इससे असहमत हैं, वे इस पद पर किसी आदिवासी को बैठाने की बात करते हैं। इसके पीछे मूल कारण ये बताया जाता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 में से 31 सीटें जीती हैं। कमलनाथ भी किसी आदिवासी नेता को ही प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहते हैं, ताकि आदिवासियों में संदेश जाए कि पार्टी उनके साथ है। अध्यक्ष पद की इस दौड़ में अब तक बाला बच्चन, उमंग सिंघार, ओमकारसिंह मरकाम और कांतिलाल भूरिया का नाम सामने आ चुका है। 
  कांग्रेस महासचिव और पार्टी के मध्यप्रदेश प्रभारी दीपक बावरिया ने तो सिंधिया और कमलनाथ के बीच भी मुलाकात की संभावना जताई है। उन्होंने कहा कि दोनों नेता विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस द्वारा जनता से किए वादों को पूरा करने के तरीकों पर बात करेंगे। दोनों लंबित मुद्दों पर काम करेंगे और विभिन्न वर्गों के लोगों की चिंताओं और मांगों का समाधान निकालेंगे। उन्होंने दोनों के बीच मतभेद की संभावनाओं को भी नकार दिया। लेकिन, सभी जानते  ये पूरा सच नहीं है। दोनों नेताओं के बीच तनाव का जो रिश्ता है, उसकी गर्माहट को सियासत में महसूस किया जा रहा है! लेकिन, दिग्विजय सिंह की मध्यस्थता से दोनों के बीच जमी बर्फ पिघलेगी और पार्टी एकजुट होगी!
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Monday, February 17, 2020

मध्यप्रदेश कांग्रेस में असंतोष की हवा कहाँ से और क्यों चली!

   मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार जिस दिन से बनी है, उसी दिन से सबसे ज्यादा इसी बात की चर्चा है कि ये सरकार कितने दिन चलेगी! भाजपा के नेता तो शुरू से ही सरकार के गिरने के दावे कर रहे हैं। कई बार ये बयान भी सामने आए कि किसी भी दिन सरकार गिरा दी जाएगी! लेकिन, अभी तक भाजपा तो सरकार नहीं गिरा सकी! पर, कांग्रेस में जरूर असंतोष की हवा चलने लगी है। निगम-मंडलों में नियुक्तियां लटकी हैं! कई ऐसे पद भी खाली पड़े हैं, जहाँ डेढ़ दशक से इंतजार कर रहे कांग्रेसी नेताओं को जगह दी जा सकती है! अदालतों में सरकारी वकीलों के कई पदों पर अभी भी भाजपा समर्थिक वकील काबिज हैं! ऐसे में पार्टी के दिग्गज नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सत्ता के शांत तालाब में मुख्यमंत्री की तरफ बयान का एक पत्थर उछालकर माहौल को तनाव में ला दिया। अब इस स्थिति को संभालने की कोशिशें की जा रही है! लेकिन, इससे ये सवाल तो जरूर खड़ा होता है कि ऐसी स्थितियाँ क्यों बनी? समय रहते पार्टी ने इस पर ध्यान नहीं दिया, तो हालात विस्फोटक होने में देर नहीं लगेगी! उधर, भाजपा ऐसे असंतोष को हवा देने के लिए तैयार बैठी है! 
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- हेमंत पाल

  सालभर में यह पहली बार नहीं है, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ सरकार के कामकाज पर कोई नकारात्मक टिप्पणी की हो! जब से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, वे पिछले किसानों की कर्जमाफी और बाढ़ राहत सर्वे को लेकर सरकार की नीयत और कार्यप्रणाली पर सवाल दाग चुके हैं। अब उन्होंने चुनाव के 'वचन पत्र' में जनता से किए वादे पूरे नहीं करने पर सड़क पर उतरने की बात कही! लेकिन, उन्हें उम्मीद नहीं थी, कि सामान्य तौर पर बयानबाजियों को नजरअंदाज करने वाले कमलनाथ इसका जवाब इस तरह देंगे! कमलनाथ ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा 'तो उतर जाएं...!' प्रदेश के राजस्व मंत्री डॉ. गोविंद सिंह ने बात संभालते हुए कहा कि धन की कमी के कारण 'वचन पत्र' के कुछ वादे पूरे नहीं हो सके! उन्हें सड़कों पर उतरने की जरूरत नहीं है, चर्चा करके मुद्दे सुलझा लिए जाएंगे। जबकि, दिग्विजय सिंह ने मामले को समेटते हुए नई बात कही कि ज्योतिरादित्य सिंधिया अकेले क्यों सड़क पर उतरें, हम सभी सड़क पर उतरेंगे! लेकिन, उन्होंने ये भी कहा कि कमलनाथ सरकार को ये वादे 5 साल में पूरे करना है!   
  ज्योतिरादित्य सिंधिया की नाराजी को सिर्फ असंतोष कहकर किनारे नहीं किया जा सकता! भले ही ये असंतोष सिंधिया के बहाने सामने आया हो, पर पिछले छह महीनों में ऐसी कई घटनाएं हुई, जिसमें कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की चिढ सामने आई है। प्रदेश के कांग्रेस संगठन में यथा स्थितिवाद किस कदर हावी है, ये इससे जाहिर है कि प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री का पद कमलनाथ अकेले संभाल रहे हैं। वे कई बार पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ने की इच्छा भी जाहिर कर चुके हैं! मगर, पार्टी अभी तक उन्हें अध्यक्ष पद से ही मुक्त नहीं कर सकी! इसका कारण है, पार्टी में मची अंदरूनी खींचतान! ये इतनी ज्यादा है कि कमलनाथ का कोई विकल्प नहीं सूझ रहा! कई बार जब ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम भी उभरा, पर उसे जल्द दबा दिया गया! देखा गया है कि अध्यक्ष के लिए सिंधिया का नाम सामने आते ही कोई नया मुद्दा उछाल दिया जाता है! कभी ये पद किसी आदिवासी नेता को देने की बात की जाती है, तो कभी कोई नया दावेदार खड़ा कर दिया जाता है। यही कारण है कि असंतोष का गुबार अब फटने की स्थिति में आ गया।    
   कांग्रेस से जुड़े लोगों ने 15 साल तक अच्छे दिन आने का इंतजार किया! लेकिन, उन्हें लग नहीं रहा कि उनके लिए दिन बदले हैं। निगम, मंडल, आयोग और बोर्ड के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत कई पद खाली पड़े हैं, जिन पर मज़बूरी में अफसर काबिज हैं! इन पर कब नियुक्ति होगी, कोई नहीं जानता! यहाँ तक कि प्रदेश की अदालतों में अभी भी भाजपा राज में नियुक्त सरकारी वकील बैठे हैं। विपक्षी पार्टी के समर्थित वकील सरकार की पैरवी करें और सरकार समर्थित इंतजार करें, ये असंतोष का कारण तो होगा ही! क्योंकि, सरकार बनने के बाद लगा था कि पार्टी जल्द ही नेताओं और कार्यकर्ताओं की राजनीतिक नियुक्ति करके उपकृत करेगी! सरकार के पास माध्यम भी था, पर टल गई! लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लगने से असंतोष का गुबार शांत हो गया! जबकि, कई नेता बगावत के मूड में भी आ गए थे। ऐसे में उन्हें समझाया और राजी किया गया कि अभी पार्टी के लिए काम करें! चुनाव के बाद उन्हें नवाजा जाएगा! पर, ये वादा भी पूरा नहीं हुआ! जब नियुक्तियों का दौर टलता नजर आया तो असंतोष मुखर होने लगा! अभी तक ये बात किसी को समझ नहीं आई कि इन नियुक्तियों में अड़ंगा कहाँ और क्यों आ रहा है!
  निगम, मंडलों के पदाधिकारियों को लेकर पार्टी के भीतर खींचतान का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस मसले पर बातचीत तो कई बार हुई, पर कोई फैसला नहीं हुआ। विधानसभा और लोकसभा चुनाव के दौरान जिन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया गया, उन्हें पार्टी ने भरोसा दिलाया था कि उनका राजनीतिक नियुक्तियों में ध्यान रखा जाएगा, मगर एक साल गुजर गया, पार्टी ने कोई ध्यान नहीं दिया। कई विधायक मंत्री पद न मिलने से नाराज हैं, पर बोल नहीं पा रहे! सरकार और पार्टी के बीच समन्वय के लिए बनी समितियों का बेमतलब रह गई! पद पाने की लालसा ही पार्टी में असंतोष का सबसे बड़ा कारण बन रहा है! लेकिन, ये असंतोष अलग-अलग तरह से बाहर निकल रहा है! जब भी मौका मिलता है ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने मन का गुबार निकाल देते हैं।पिछले दिनों इंदौर में दो कार्यकर्ता इसलिए हाथापाई पर उतर आए कि दोनों मुख्यमंत्री कमलनाथ के नजदीक जाना चाहते थे, पर उन्हें रोका गया! 
  शिकायत सिर्फ राजधानी तक ही सीमित नहीं है। जिलों की राजनीति में भी असंतोष का गुबार पनपने लगा है, जो किसी भी दिन फट सकता है। इसका कारण ये भी है कि असंतोष के माहौल में भी उन लोगों को ज्यादा तवज्जो मिल रही है, जिन्होंने विधानसभा चुनाव में सेबोटेज किया था! ऐसी घटनाओं ने आग में घी का काम किया है। धार विधानसभा में भाजपा का खुला समर्थन करके कांग्रेस को हराने वाले 'बुंदेला गुट' के कुलदीप बुंदेला को सहकारी बैंक का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया गया! जबकि, ये जग जाहिर है कि 'बुंदेला गुट' ने पूरे 15 साल भाजपा के साथ गलबैयां की और कांग्रेस को नुकसान पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसा क्यों किया गया, इसका जवाब किसी के पास नहीं है! उधर, मुरैना सहकारी बैंक के अध्यक्ष पद पर हरीसिंह यादव की नियुक्ति के बाद से सिंधिया की नाराजी भी बढ़ी है। जब ग्वालियर का इलाका सिंधिया का प्रभाव वाला क्षेत्र है, तो वहां कोई भी राजनीतिक नियुक्ति उनकी सहमति से ही होना थी, पर इस राजनीतिक संतुलन की अनदेखी की गई! 
  आलीराजपुर में मंत्री सुरेन्द्र सिंह बघेल को भी पिछले दिनों जि़ला कांग्रेस अध्यक्ष महेश पटेल के गुस्से का सामना करना पड़ा। बघेल को खरी-खरी सुनाने के साथ उन्होंने यह तक कह दिया गया इससे अच्छी तो भाजपा सरकार थी। ये नाराजी इसलिए उभरकर सामने आई कि महेश पटेल कुछ शिकायतें लेकर आए थे, लेकिन उन्हें तवज्जो नहीं दी गई! वे जिले में अवैध रेत परिवहन और शराब के अवैध कारोबार की शिकायत सहित ऐसे ही कुछ मुद्दों की शिकायत लेकर पहुंचे थे। अपनी बात कहते-कहते वे भड़क गए और मंत्रीजी को खरी-खोटी सुना दी। ये चंद उदाहरण हैं, पर ऐसी नाराजी हर जिले में है। पार्टी को इस असंतोष का इलाज करना होगा, अन्यथा कुछ महीनों बाद होने वाले नगरीय निकाय और पंचायत के चुनाव में इसका नकारात्मक असर भी देखने को मिल सकता है!
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पगडंडी से ऊपर आती नायिका!

- हेमंत पाल

  कसर इस बात के लिए फिल्मों की आलोचना की जाती है, कि फ़िल्म की कहानियों में महिला पात्रों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती! उन्हें कभी केंद्रीय भूमिका नहीं दी जाती और हीरो से रोमांस के लिए ही रखा जाता है। फिल्म की कहानी का पूरा ताना-बाना ही ऐसा बुना जाता है कि हीरो दर्शकों की नजर में बना रहे। नाच-गाने और रोमांस के अलावा नायिका को हीरो की भूमिका को सपोर्ट करने वाला ही किरदार दिया जाता रहा है। लेकिन,यदि कोई फिल्म महिला मुद्दे पर केंद्रित है, तो वह कला फ़िल्म की तरह बनकर रह जाती हैं या उन पर 'लीक से हटकर' बनी फ़िल्म का ठप्पा जड़ दिया जाता है। पर, अब यह चलन बदल रहा है। हिंदी फ़िल्मों में नई नायिका का उदय हो गया! वो अकेली हनीमून मना आती है, अपराधियों को ढूंढ लेती है और खुद गैंग भी चला लेती है।  
  अब फिल्मों में महिलाओं को केंद्रीय पात्र बनाने से फिल्मों का परिदृश्य भी बदल रहा है! महिला किरदारों को 'हीरो' की तरह देखा जा रहा है, जो पूरी फिल्म को अपने कंधे पर लेकर चलती हैं। सिर्फ कथानक ही नहीं प्रमोशंस, मार्केटिंग और पूरा अभियान ही उनके आसपास घूमता हैं। बीते कुछ सालों में ऐसी कई बेहतरीन फिल्में आई, जिनमें महिलाओं के चरित्र को इस तरह से प्रदर्शित किया गया जिससे उनका आत्मविश्वास और भावनाएं उजागर हुई हैं। ऐसी ही और फिल्मों का निर्माण हो रहा है, जो महिलाओं पर केंद्रित हैं, पर उनका महिमा मंडन नहीं करती। 
   जबकि, सिनेमा में लंबे समय तक पुरुषों का वर्चस्व रहा है। 'अभिमान' में जया भादुड़ी की भूमिका ऐसा ही एक उदहारण था। बीते सिनेमा की नायिकाएं हों या ‘दिलवाले दुलहनियाँ’ की या फिर ‘कुछ कुछ होता है’ की आधुनिक नायिका जो लंदन से लौटकर भी घर में आरती गाती दिखाई देती है। इसलिए कि इसी में उसकी भारतीयता दिखाने का प्रयास होता रहा है! हिंदी सिनेमा का दर्शक ऐसी ही नायक आश्रित नायिकाओं का मुरीद भी रहा है। लेकिन, बदलते वक़्त ने नायिका को नई भूमिका सौंप दी। अब फिल्मों के कथानक समय, काल और परिस्थितियों के मुताबिक बदल रहे हैं। फिल्म इंडस्ट्री की इसी परंपरा की ताजा कड़ी है महिला प्रधान फ़िल्में! पिछले चार-पाँच सालों में ऐसी कई फ़िल्में दिखाई दीं, जिनमें नायिका प्रधान रही! महिलाओं पर केंद्रित कहानियों पर कई फिल्में बनी, जो महिलाओं के प्रति रुढ़िवादी सोच को खारिज करने और महिला सशक्तिकरण से जुड़ी थीं।
  महिलाओं के मुद्दों या उनके नज़रिए को दर्शाती गुलाब गैंग, क्वीन, मर्दानी, मर्दानी-2, मैरी कॉम, दम लगा के हईशा, एन एच 10, पीकू, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स, एंग्री इंडियन गॉडेस को ऐसी ही फिल्मों में गिना जा सकता है। अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म 'पिंक' भी महिला केंद्रित है। मीरा नायर की क्वीन आफ काटवे, नीरजा, अकीरा, सरबजीत, साला खुडूस जैसी फिल्में भी महिलाओं पर केन्द्रित फिल्में थी। सुजाय घोष की 'कहानी-2' के सस्पेंस में विद्या बालन और अर्जुन रामपाल की मुख्य भूमिकाएं हैं। लेकिन, फोकस पूरी तरह फिल्म की नायिका पर ही रहा। आमिर खान की 'दंगल' महावीर सिंह फोगट की जीवन कथा पर आधारित स्पोर्ट्स ड्रामा थी। इसमें फोगट अपनी बेटियों गीता और बबिता को कुश्ती सिखाकर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय महिला पहलवान बनाता हैं। फिल्म 'नूर' भी महिला केंद्रित थी। 'हसीना' का मूल कथानक भी एक गैंगस्टर महिला का है। ये फिल्म कुख्यात दाउद इब्राहिम की बहन हसीना पारकर की जीवन शैली पर आधारित है। इसमें श्रृद्धा कपूर ने 'हसीना' की भूमिका निभाई है। देखना है कि ये दौर कब तक चलता है। कब तक नायक पगडंडी पर चलता है। क्योंकि, एक ही विषय पर फ़िल्में तब तक ही बनती है, जब तक दर्शक उन्हें पसंद करें। 
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Tuesday, February 4, 2020

कमलनाथ की राजनीतिक और कॉरपोरेट छवि में सामंजस्य!


  मध्यप्रदेश की राजनीति इन दिनों पार्टी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री कमलनाथ के आसपास केंद्रित है। बात उन्हीं से शुरू होती है और उन्हीं पर ख़त्म भी होती है। सालभर पहले जब पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंपी थी, तब प्रदेश की उनकी राजनीतिक समझ को लेकर सवाल खड़े किए गए थे! लेकिन, अब पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह ये सोच बदल गया! उनकी 'एक्शन' और 'रिएक्शन' के फर्क को समझा जाने लगा है। उनकी 'कॉरपोरेट मुख्यमंत्री' वाली छवि कारगर साबित होती दिखाई दे रही है। उनकी गिनती उन नेताओं में भी नहीं की जाती, जो नौकरशाही के भरोसे सरकार चलाने के मजबूर रहते हैं। विधानसभा चुनाव से पहले और सरकार बनने के बाद उनकी चुनौतियों में भी बदलाव आया! पहले उनके मुकाबले सिर्फ भाजपा थी, अब पार्टी का एक असंतुष्ट धड़ा भी मौके, बेमौके उन पर हमले करता रहता है। लेकिन, राजनीतिक जंग के इस मैदान में कमलनाथ का नपा-तुला बोलना भी उनके लिए फायदेमंद साबित हो रहा है। वे अपने राजनीतिक अनुभव से कॉरपोरेट छवि के बीच बेहतर तालमेल बैठाने में सफल होते नजर आ रहे हैं।  
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हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश की राजनीति में पिछले कुछ दशकों से जो नेता छाए रहे, उनमें कमलनाथ का नाम कहीं नहीं था। उन्हें केंद्र की राजनीति में सिद्धहस्थ माना जाता था! उनकी राजनीति की धारा छिंदवाड़ा से दिल्ली तक ही सीमित थी। लेकिन, अब उन पर से वो मुहर हट गई! उन्होंने देश के बाद प्रदेश की राजनीति में भी अपना राजनीतिक कौशल दिखा दिया। पहले उन्होंने कभी मध्यप्रदेश की राजनीति में दखल देने की उत्सुकता नहीं दिखाई और न किसी की आँख की किरकिरी बने। यही वजह है कि वे हमेशा सर्वमान्य नेता और पार्टी हाईकमान के लाडले रहे। 1980 में आपातकाल के बाद जब अर्जुन सिंह ने प्रदेश की बागडोर संभाली, उसके बाद से प्रदेश की राजनीति में कई नेता आए और गए! पर, कमलनाथ को कभी प्रदेश की राजनीति में कभी पारंगत नहीं माना गया। वे 1977-78 के दौर में कांग्रेस की संजय गांधी टीम के युवा चेहरे के रुप में उभरे थे। उस समय इस टीम में गुलामनबी आजाद, विद्याचरण शुक्ल, बंसीलाल और अंबिका सोनी के साथ कमलनाथ भी उनके नजदीक थे। उसी दौरान इंदिरा गांधी से भी उनकी निकटता बन गई। यही कारण है कि वे लम्बे समय तक केंद्र की राजनीति तक सीमित रहे। लेकिन, उनके प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद हालात तेजी से बदले और डेढ़ दशक से सत्ता पर काबिज भाजपा सरकार से बाहर हो गई! इसे तब कमलनाथ की कूटनीतिक सफलता मानने वाले लोग कम थे, पर आज ऐसे लोगों की संख्या बढ़ गई! लोग मानने लगे हैं कि कमलनाथ भले ही दूसरे नेताओं की तरह वाचाल और प्रतिक्रियावादी नहीं हैं, पर विरोधियों को हर मोर्चे पर पटखनी देना उन्हें आता है! फिर वे विरोधी पार्टी के अंदर हों या बाहर!  
    राजनीति में कमलनाथ को 'मैन ऑफ़ रियल पाॅलिटिक्स' भी कहा जाता है! वे देश के बड़े कारोबारी भी हैं, इसलिए उन्हें 'कॉर्पोरेट मुख्यमंत्री' का तमगा भी दिया जाता है। ख़ास बात ये कि उनके फैसलों में परिस्थिति की समझ और परिपक्वता झलकती है। पिछले दिनों कई बार ऐसा महसूस भी किया गया! कांग्रेस आलाकमान ने जब छिंदवाड़ा के इस सांसद को मध्यप्रदेश की कमान सौंपकर विधानसभा चुनाव की चुनौती सौंपी थी, तब इस फैसले को बहुत हद तक सही नहीं समझा गया था। टिप्पणीकारों ने इसकी छीछालेदर भी की थी! यहाँ तक कि जब किनारे वाले बहुमत से कांग्रेस ने प्रदेश में सरकार बनाई, तब भी उसके गिरने की भविष्यवाणी की जाने लगी! लेकिन, धीरे-धीरे हालात बदल गए और अब सरकार गिरने का दावा करने वाले ही कमलनाथ की तारीफ करने लगे हैं! विपक्ष के जो नेता 'बॉस' के आदेश पर कभी भी सरकार के गिरने का दावा करते नहीं थकते थे, वे भी अब शांत बैठ गए! पार्टी के अंदर भी एक धड़ा उन्हें पसंद नहीं करता रहा! कई बार विवाद के हालात भी बने, पर धीरे-धीरे स्थिति बदलने लगी है।  
   उन्हें 'कॉरपोरेट मुख्यमंत्री' कहे जाने का बड़ा कारण ये है कि कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उन्होंने अपनी इस क़ाबलियत का लोहा मनवाया। नरसिंहराव सरकार में जब वे पर्यावरण मंत्री बने, तब 1992 में रियो द जिनेरो सम्मेलन में उन्होंने विकासशील देशों के मुखर प्रवक्ता के रुप में अपनी पहचान बनाई थी। जहाँ इन देशों ने विकसित राष्ट्रों की दादागिरी पर सवाल उठाए थे। इसके बाद मनमोहन सिंह सरकार में वाणिज्य और उद्योग मंत्री के रुप में उन्होंने देश की विदेश-व्यापार नीति से लेकर 'डब्लूटीओ' और 'जी-20' जैसे अहम मंचों पर अपनी क्षमताओं का इजहार किया। लेकिन, संसदीय कार्यमंत्री के रूप में यूपीए दो सरकार के अंतिम दो मुश्किलभरे सालों में जब विपक्ष आक्रामक था, तब भी उन्होंने संकट मोचन वाली कारगर भूमिका निभाई। इसमें विपक्ष से उनके निजी रिश्तों और कुशल प्रबंधन क्षमता का अहम योगदान रहा। इसका फ़ायदा उन्हें प्रदेश की राजनीति में भी मिल रहा है। 
    दाओस में 'वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम' की बैठक में भी उन्होंने मध्यप्रदेश में निवेश की संभावनाओं को तलाशा है। प्रदेश में निवेश की संभावनाओं के सिलसिले में उन्होंने कई दिग्गज उद्योगपतियों से मुलाकात की। 'सीआईआई' और मध्यप्रदेश सरकार के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित 'इन्वेस्ट मध्यप्रदेश कांफ्रेंस' में भी उन्होंने कहा था कि निवेश को निमंत्रित करने के लिए प्रदेश में सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश की जाएगी! उनकी ये कोशिशें कामयाब होती दिखाई भी देने लगी हैं। 'वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम' में आए कई उद्योगपतियों को उन्होंने मध्यप्रदेश में निवेश के लिए आमंत्रित भी किया। लूलू ग्रुप, दुबई के एम ए यूसुफ अली ने मध्यप्रदेश में कन्वेंशन सेंटर की स्थापना का भरोसा दिलाया है। वेलस्पन ग्रुप के बीके गोयनका ने जलापूर्ति और आधारभूत संरचना में निवेश को लेकर बात आगे बढ़ाई है। स्विट्जरलैंड की कंपनी एमकेएस के सीईओ मरवान शकरची ने भी गोल्ड रिसायकल यूनिट लगाने का विश्वास दिलाया। 'ट्राईडेंट ग्रुप' के राजिंदर गुप्ता ने टेक्सटाइल सेक्टर में निवेश का आश्वासन दिया। यदि ये निवेश आकार लेते हैं तो करीब 10 हजार लोगों के लिए रोजगार की नई संभावनाएं पैदा होंगी।  
   पूरे राजनीतिक करियर में कमलनाथ की गिनती कभी फ्रंटफुट वाले वाचाल नेताओं में नहीं हुई! इसका कारण कि वे दूसरे नेताओं के मुकाबले कम बोलते हैं और अनर्गल बातें नहीं करते! उठा-पटक वाली दांव-पेंच से भरी राजनीति में भी उनका भरोसा नहीं है! वे काम के जरिए अपनी पहचान बनाना चाहते हैं और वही सब मध्यप्रदेश में नजर भी आया। सीधे शब्दों में कहा जाए तो वे विरोधियों की लाइन मिटाकर छोटी करने बजाए, खुद की लाइन बड़ी करने की कोशिश में रहते हैं। क्रिकेट की भाषा में कहा जाए तो वे टवेंटी-टवेंटी के नहीं, बल्कि टेस्ट मैच के ऐसे बैट्समेन हैं, जो लम्बी पारी खेलते हैं। उनके पास धैर्य और संयम है, जो राजनीति के खिलाडियों में कम ही नजर आता है। उनकी छवि जननेता की कभी नहीं रही! मगर, प्रशासनिक व प्रबंधन क्षमता के साथ विरोधियों को भी साथ लेकर चलने में उन्हें बेहद कुशल माना जाता है। भाजपा के भी कई बड़े नेताओं से भी उनके अच्छे रिश्ते रहे हैं। कांग्रेस की राजनीति में चार दशकों में बड़े उतार-चढ़ाओ के बाद भी उनके दबदबे में कोई कमी नहीं आई। आज 70 साल के होने के बावजूद उनका दम-ख़म बरक़रार है। एक दौर ये भी आया जब उनके भाजपा में जाने तक की अफवाह उड़ी! कमलनाथ के अलावा कोई और नेता होता तो ये विवाद कहीं ज्यादा गहराता, पर कांग्रेस के प्रति कमलनाथ की प्रतिबद्धता पर शंका नहीं की गई। इस अनपेक्षित हालात के बाद भी पार्टी ने कमलनाथ पर अपना भरोसा कम नहीं किया और उसी का नतीजा है कि आज मध्यप्रदेश में उन्हें सबसे ज्यादा भरोसेमंद नेता के रूप में मान्यता मिल रही है। 
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Sunday, February 2, 2020

नेहरू विचारधारा और फ़िल्में

- हेमंत पाल

   देश की आजादी के बाद फिल्मों का चेहरा कैसा था, आज ये एक अहम् सवाल है। क्योंकि, आजादी से पहले और बाद के भारत में बहुत अंतर था। सोच के अलावा देश के निर्माताओं को भविष्य की भी चिंता थी! वे अपनी इसी चिंता और सोच को फिल्म के परदे पर भी दर्शाने के इच्छुक थे, ताकि फिल्म दर्शकों का भी नजरिया बदले! लेकिन, 50 के दशक की फिल्मों के साथ वास्तव में न्याय नहीं हुआ! क्योंकि, उस समय के फिल्मकार देश के पहले नेता पं जवाहरलाल नेहरू की पहली सरकार द्वारा गढ़े गए राष्ट्रवादी मिथकों को परदे पर उतारने की कोशिश में था। इसका असर ये हुआ कि जो फ़िल्में बनी उसने काफी हद तक सरकार के विचारों को ही परदे पर उतारने की कोशिश ज्यादा की! 
    इसे फिल्मकारों की मज़बूरी भी माना जा सकता है! क्योंकि, फिल्म निर्माण पर सरकारी नियंत्रण का शिकंजा भी धीरे-धीरे कसने लगा था। 1951 में बनाई गई 'फिल्म इन्क्वायरी कमेंटी' ने फिल्म निर्माताओं से साफ़ कहा भी था कि वे राष्ट्र-निर्माण में अपनी फिल्मों से योगदान दें। सरकार ने यह उम्मीद भी जताई थी, कि देश का सिनेमा संस्कृति, शिक्षा और स्वस्थ मनोरंजन को केंद्र में रखकर निर्मित होगा। इसका मकसद ये बताया गया कि इससे बहुआयामीय राष्ट्रीय चरित्र’ का निर्माण होगा। इसी दौर में फिल्मों पर सेंसरशिप भी लगाई जाने लगी। तब ये नियंत्रण इतने कड़े थे कि तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री बीवी केसकर ने आकाशवाणी पर फ़िल्मी गीत बजना भी बंद करवा दिया था।
    हिंदी फिल्मों का इतिहास अपने शुरूआती दौर में दो हिस्सों में बंटा था। पहला, मूक फिल्मों से शुरुआत और फिर फिल्म बोलती फिल्मों का विस्तार! दूसरा, आजाद भारत में वैचारिक बदलाव, चुनौतियाँ और भविष्य की चिंता वाले सवाल। यही कारण है कि दूसरे दौर पर नेहरू के विचारों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया। क्योंकि, आजादी के बाद अवाम में उनका आकर्षण था और देश ने उन्हें उम्मीद की किरण के रूप में भी देखा था। लेकिन, यही वो समय भी था, जब वामपंथी विचारधारा के फिल्मकार भी सामने आए! इस दशक में कुछ ऐसी फ़िल्में बनी जिनमें राष्ट्रवाद झलकता था, तो ऐसी फ़िल्में भी आई जिसमें इस विचारधारा का विरोध नजर आया। श्री-420, आवारा, दो बीघा जमीन, प्यासा, मदर इंडिया, हिंदुस्तान हमारा, जागते रहो, नया दौर और 'दो आँखे बारह हाथ' के जरिए नेहरू विचारधारा को दर्शाया गया तो इसकी आलोचना भी की गई!
    बीआर चोपड़ा की फिल्म 'नया दौर' का कथानक महात्मा गाँधी के विचार 'श्रम के महत्व' पर केंद्रित थी। लेकिन, इसमें नेहरू के आधुनिक विचारों का रुझान भी दिखाई दिया। ये पूरी फिल्म गांव में उतरे फ़िल्मी शहर के संदर्भों से आतप्रोत थी। जबकि, बिमल रॉय की फिल्म 'दो बीघा जमीन' देश के नए विकास मॉडल और उससे उभरे दर्द को सामने लाई थी। इसमें रोजगार की तलाश में गाँव छोड़कर शहर आने वालों की पीड़ा का खुलासा था। गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' के कथानक में भी गरीबी, भुखमरी, बेकारी और उससे जन्म लेती वैश्यावृत्ति का चित्रण था। फिल्म का नायक जब गाता है 'जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहाँ हैं' तो सहजता से ध्यान उस और जाता है, जिनके हाथ में आजाद भारत के निर्माण का झंडा था। इस दौर की सबसे सशक्त फिल्मों में एक 'मदर इंडिया' थी, जिसने किसानों के दर्द, साहूकारी, सूदखोरी और शोषण के खिलाफ एक औरत के माध्यम से आवाज उठाई थी। लेकिन, इसके विरोध को हिंसक रूप से दर्शाया गया था, जो गांधीवादी नहीं माना गया। 
  इसे संयोग माना जाए या फिर फिल्मकारों के विचारों में आया बदलाव कि इस दशक के फिल्म निर्माण में आई परिपक्वता को दुनियाभर में सराहा गया। आजादी से पहले जिन हिंदी फिल्मों को पौराणिक कथाओं और धार्मिक कथानकों पर केंद्रित माना जाता था, उन्हें दुनिया में मान्यता मिली। राजकपूर की 1955 में आई 'श्री-420' को सोवियत बॉक्स ऑफिस पर सबसे सफल विदेशी फिल्म का तमगा मिला था। 1957 में बनी 'मदर इंडिया' ऑस्कर में जाने वाली पहली भारतीय फिल्म थी, जो अंतिम 5 तक पहुंची। इसी साल आई गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' को अमेरिकी पत्रिका 'टाइम्स' ने दुनिया की 100 सदाबहार फिल्मों की लिस्ट में शामिल किया, जो अकेली भारतीय फिल्म है। 1957 की ही 'दो आंखें बाहर हाथ' गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड जीतने वाली पहली भारतीय फिल्म थी। आशय यह कि आजादी के बाद नेहरू विचारधारा का जो प्रभाव फिल्मों में दिखाई दिया, वो मनोरंजन के बदलाव का भी आधार बना!
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