Tuesday, October 18, 2022

सिनेमा में कम ही बिखरे हैं दीवाली के रंग!

- हेमंत पाल 

 मारे देश में दिवाली अकेला ऐसा त्योहार है, जिसे अंतरिक्ष से भी जगमगाते देखा जा सकता है। न केवल हिन्दू धर्मावलम्बियों बल्कि सभी धर्मों को मानने वालों के लिए भी दिवाली का त्योहार किसी न किसी रूप से खुशियां लेकर आता है। हिंदी सिनेमा के पर्दे पर भी दिवाली के पर्व का उजास अनछुआ नहीं रहा। कुछ फिल्मों के गीतों व दृश्यों में दिवाली अहम रही है। कथानक के मुताबिक कहीं दिवाली की पृष्ठभूमि पर गीत फिल्माए गए, तो कहीं दृश्यों को दिवाली से जोड़कर फिल्माया गया। इससे दिवाली का उजास, खुशियां और भव्यता स्पष्ट रूप से नजर आई। हिन्दी सिनेमा में जिन हिंदू त्योहारों को सबसे ज्यादा फिल्माया गया उनमें होली, राखी और करवा चौथ के अलावा दिवाली ही सबसे ज्यादा है। मूक फिल्मों के ज़माने से त्योहारों पर केंद्रित फ़िल्में बनती रही हैं। लेकिन, धीरे-धीरे इन त्योहारों को फिल्माने का चलन कम हो गया। फिल्मों का स्वरूप बदलने से अब दिवाली के प्रसंगों को पहले की तरह शामिल नहीं किया जाता। फिर भी साल दो साल में कोई फिल्म आ ही जाती है, जिसमें दिवाली के दृश्य या गीत दिखाई या सुनाई पड़ जाते हैं। 
     गुजरे जमाने की कई फिल्में दिवाली के त्योहार आसपास घूमती रही। जयंत देसाई निर्देशित 1940 में आई फिल्म 'दिवाली' इसी परम्परा की फिल्म थी। इसके बाद 1955 में गजानन जागीरदार की 'घर घर में दिवाली' आई। इसके सालभर बाद 1956 में दीपक आशा की 'दिवाली की रात' में भी दिवाली को विषयवस्तु बनाया गया। इसके बाद फिल्मों में गाहे-बगाहे दिवाली के प्रसंगों को जोड़ा जरूर गया, लेकिन दिवाली कथानक का मुख्य विषय नहीं बन सका। 2001 में अमिताभ बच्चन की फिल्म निर्माण कंपनी 'एबीसीएल' ने आमिर खान और रानी मुखर्जी के साथ 'हैप्पी दिवाली' बनाने की घोषणा की, लेकिन इस फिल्म निर्माण कंपनी का दिवाला पिटने के कारण यह फिल्म परदे तक नहीं पहुंच सकी।
     जिन फिल्मों के कथानक में दिवाली के दृश्यों को प्रमुखता से शामिल किया गया, उनमें 1961 में आई राज कपूर और वैजयंती माला की फिल्म 'नजराना' भी एक थी। इस फिल्म का गीत 'मेले है चिरागों के रंगीन दिवाली है' लता मंगेशकर ने गाया था। यह ब्लैक एंड व्हाइट दौर की खुशनुमा दिवाली का गीत था। इस गीत का फिल्मांकन राज कपूर और वैजयंती माला पर किया और शुरू से अंत तक इसमें दिवाली की आतिशबाजी और भरपूर रोशनी नजर आती है। यह गीत आज भी देखने पर जीवंतता दर्शाता है। 1962 में आई 'हरियाली और रास्ता' में दिवाली के दृश्य नायक और नायिका के विरह को दर्शाते हैं। वैजयंती माला, दिलीप कुमार की फिल्म 'पैगाम' और 'लीडर' में दिवाली के माध्यम से फिल्म के किरदारों को जोड़ने का प्रयास भी किया गया था। 1972 की फिल्म 'अनुराग' में आपसी विश्वास को प्रदर्शित किया गया था। इसमें कैंसर से जूझ रहे बच्चों की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए पूरा आस-पड़ोस दिवाली मनाने के लिए आ जुटता है।
     दिवाली सिर्फ रोशनी और आतिशबाजी का ही त्योहार नहीं है! फिल्मों में इसे कई बार अलग तरह से भी जोड़ा जाता है। आतिशबाजी की आवाजों के बीच गोलियों के चलने और पूरे परिवार के खत्म हो जाने वाले दृश्य को अमिताभ बच्चन को सितारा बनाने वाली फिल्म 'जंजीर' में बेहद प्रभावशाली ढंग से फिल्माया गया था। फिल्म में एक बच्चा छुपकर सब देखता है और क्लाइमैक्स में वो खलनायक से बदला भी लेता है। कमल हासन की 1998 में आई फिल्म 'चाची 420' में कमल हासन की बेटी को पटाखों से घायल होते दिखाया गया। आदित्य चोपड़ा की फिल्म 'मोहब्बतें' (2000) में भी दिवाली का दृश्य था। करण जौहर की 2001 की सुपरहिट फिल्म 'कभी खुशी कभी गम' का टाइटल सांग ही दिवाली गीत है। इसमें जया बच्चन दिवाली की पूजा करते हुए इस गीत को गाती है। पारंपरिक वेशभूषा और तेज चमकती रोशनी से इस गीत की पृष्ठभूमि में दिवाली का भरपूर उजास नजर आता है।
 
    दिवाली को पृष्ठभूमि में रखते हुए तैयार किए कुछ गानों को भी अपार लोकप्रियता हासिल हुई है। इन गीतों में 'नजराना' का गीत एक वो भी दिवाली थी, 'शिर्डी के साईं बाबा' का दीपावली मनाई सुहानी भी ख़ासा पसंद किया गया था। फिल्म 'रतन’(1944) के गीत 'आई दीवाली दीपक संग नाचे पतंगा' में दीवाली के लाक्षणिक भाव की पृष्ठभूमि में नौशाद ने विरह-भाव की रचना की थी। मास्टर गुलाम हैदर ने फिल्म 'खजांची’(1941) के गीत 'दीवाली फिर आ गई सजनी’ में पंजाबी उल्लसित टप्पे का पृष्ठभूमि में आकर्षक प्रयोग किया था। फिल्म महाराणा प्रताप (1946) में 'आई दीवाली दीपों वाली’ की पारंपरिक धुन सुनने को मिली थी। 'आई दीवाली दीप जला जा' (पगड़ी) गीत में आग्रह का पुट था। वहीं 'शीश महल’(1950) के गीत 'आई है दीवाली सखी आई रे’को वसंत देसाई ने पारंपरिक ढंग से स्वरबद्ध किया था। 
     कुछ साल पहले गोविंदा अभिनीत फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया' का गाना 'आई है दिवाली, सुनो जी घरवाली' को भी दिवाली को केंद्र में रखकर बनाया गया था। ‘पैग़ाम’ में मोहम्‍मद रफ़ी का गाया और जॉनी वॉकर पर फिल्माया दिवाली गीत 'वास्तव' में कॉमेडी गाना था। 'नमक हराम' का राजेश खन्ना और अमिताभ पर फिल्माया गया गीत 'दीये जलते हैं फूल खिलते हैं' अपने फिल्मांकन के लिए दर्शकों को आज भी याद है। हम आपके है कौन, एक रिश्ता : द बांड ऑफ लव और 'ख्वाहिश' आदि में भी दिवाली के दृश्य तो दिखाए गए, लेकिन वे कहीं से भी कहानी का हिस्सा नहीं लगते! 'हम आपके है कौन' में माधुरी दीक्षित, सलमान खान, रेणुका शहाणे और मोहनीश बहल मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म में दिवाली के सीन को उस समय फिल्माया गया है जब फिल्म में सलमान खान की भाभी रेणुका शहाणे दिवाली के मौके पर बेटे को जन्म देती हैं।
    महेश मांजरेकर की संजय दत्त अभिनीत फिल्म 'वास्तव' 1999 में सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी। यह फिल्म अपने समय की हिट फिल्मों में से एक है। इस फिल्म में भी दिवाली का यादगार सीन है। फिल्म में गैंगस्टर संजय दत्त दिवाली के मौके पर अपने घर आते हैं! अपने गले में सोने की मोटी चेन, एक हाथ में पिस्टल और दूसरे में नोटों की गड्डी के साथ मां के सामने कहते हैं 'इसे 50 तोला बोलते हैं।' चेतन आनंद की 1965 में प्रदर्शित फिल्म 'हकीकत' में भी दिवाली का उल्लेख है। भारत और चीन के बीच 1962 में हुए युद्ध पर आधारित इस फिल्म के एक दृश्य में दिवाली के दिन फिल्म के अभिनेता जयंत देश के जवानों को एक संदेश भेजते हैं, जो बहुत मार्मिक होता है।
   1964 में रिलीज हुई फिल्म 'हकीकत' में दिवाली पर बहुत ही दर्द भरा सॉन्ग फिल्माया गया, जिसके बोल हैं 'आई अब के साल दीपावली, मुंह पर अपने खून मलें।' सॉन्ग को ध्यान से सुने तो इसके पहले अंतरे से ही गरीबी और बेबसी का आभास हो जाता है। इसमें कहा गया है 'बालक तरसे फुलझड़ियों को, दीपों को दीवारें!' यह सॉन्ग लद्दाख में चीन के बॉर्डर पर शहीद हुए एक देशभक्त के परिवार पर फिल्माया गया है। देशभक्ति की थीम पर बेस्ड इस फिल्म को साल 1965 में सेकंड बेस्ट फीचर फिल्म का अवॉर्ड दिया गया था। 1973 में आई फिल्म 'जुगनू' में दिवाली की थीम पर एक गीत है, जिसके बोल थे 'दीप दिवाली के झूठे, रात जले सुबह टूटे, छोटे-छोटे नन्हे-मुन्ने, प्यारे-प्यारे रे, अच्छे बच्चे जग उजियारे रे!' यह गीत धर्मेंद्र पर फिल्माया था, जिसमें वे यह बताने की कोशिश करते हैं कि दुनिया में असल उजास अच्छे बच्चों के कारण है।
    2005 में रिलीज हुई फिल्म 'होम डिलेवरी' ज्यादा नहीं चली, लेकिन फिल्म का गीत 'मेरे तुम्हारे सबके लिए हैप्पी दिवाली' ने लोगों के बीच दिवाली को लोकप्रिय किया। कुछ समय से पर्दे से दिवाली तो बिल्कुल ही गायब हो गई है। दिवाली के दृश्यों और गानों से बॉलीवुड लगभग किनारा कर चुका है। विषयवस्तु में भी अब काफी बदलाव आ गया है। यह पूरी तरह से पटकथा की मांग पर निर्भर हो गया है। दीपों के पर्व दिवाली पर प्रदर्शित फिल्मों की सफलता लगभग सुनिश्चित रहती थी। लेकिन, हाल के साल में बड़े पर्दे पर इस त्यौहार को कम ही स्थान मिला। दूसरे त्योहारों के मुकाबले सिनेमा के परदे पर दिवाली के पटाखे कम ही फूटते हैं।  
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Sunday, October 16, 2022

बड़ी फिल्मों का बाजार, छोटी फ़िल्में असरदार!

- हेमंत पाल

     नोरंजन भी एक कारोबार है, जिसमें पैसा लगाकर, पैसा कमाया जाता है। निर्माता जितना पैसा लगाता है, ब्याज समेत उससे ज्यादा कमाई की कोशिश करता है। समय के साथ फिल्मों का कारोबार जितना बढ़ा, ज्यादा पैसा लगाकर ज्यादा कमाई की उम्मीद की जाने लगी। लेकिन, फिल्मों का कारोबार बेहद असुरक्षित है। जरुरी नहीं कि इसमें फिल्मकार को हर फिल्म में फायदा ही हो, कई बार तो लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है। आशय यह कि जितनी बड़ी फिल्म, उतना बड़ा खतरा! जब कोई सैकड़ों करोड़ की फिल्म दर्शकों की पसंद पर खरी नहीं उतरती तो पूरा आसमान निर्माता पर गिरता है। राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर' जब फ्लॉप हुई थी, तो उनका सबकुछ बिक गया। लेकिन, इसके विपरीत कम लागत वाली फिल्मों को यदि दर्शक नकार भी देते हैं, तो निर्माता सड़क पर नहीं आता। लेकिन, यदि ये फ़िल्में पसंद की जाती है, तो जमकर कमाई भी करती है। जय संतोषी मां, द कश्मीर फाइल और 'आर्टिकल 15' ऐसी ही छोटी फ़िल्में हैं, जिन्होंने कमाल कर दिया था।      
      फिल्मों के 'अच्छे' होने को उनके बड़े बजट से आंके जाने का रिवाज है। जितना बड़ा प्रोडक्शन हाउस, जितना बड़ा निर्माता उतनी ही बड़ी फिल्म! 'मुगले आजम' से शुरू हुआ 'बड़ी' फिल्मों का दौर आज भी जारी है! करण जौहर, यशराज फिल्म्स, संजय लीला भंसाली और शाहरुख़ खान का रेड चिली प्रोडक्शन हॉउस ऐसे ही कुछ नाम हैं, जो बड़े बजट वाली 'बड़ी' फ़िल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं! इसका मतलब यह नहीं कि भारी भरकम बजट से बनने वाली फ़िल्में सफल होती हैं! बड़े सितारों और महंगे सेटों वाली फिल्मों के बीच में कुछ ऐसी फिल्में भी आती हैं, जो दर्शकों पर खासा असर छोड़ती हैं और कमाई भी करने में पीछे नहीं रहती! लेकिन, लंच बॉक्स, पानसिंह तोमर, शिप ऑफ़ थीसिस, गैंग ऑफ़ वासेपुर कुछ ऐसी फ़िल्में हैं, जिन्होंने थिएटर से बाहर निकलते दर्शकों को कुछ सोचने पर मजबूर किया! 
   करण जौहर का धर्मा प्रोडक्शन बहुत बड़ा बैनर है! इस बैनर ने दिल तो पागल है, कुछ कुछ होता है, अग्निपथ (रीमेक), स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर और 'ये जवानी है दीवानी' जैसी बड़े बजट की फार्मूला फिल्में बनाई! लेकिन, इसी प्रोडक्शन हाउस ने 'लंच बॉक्स' जैसी छोटी फिल्म भी बनाई! इसके अलावा विक्की डोनर, फरारी की सवारी, आर्टिकल 15, शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी और 'कहानी' छोटी फ़िल्में हैं, जिन्होंने बड़ी-बड़ी फिल्मों को पानी पिला दिया! ये कम बजट की ऐसी फ़िल्में थी, जिनमें न तो बड़े सितारे थे और न हो महंगे सेट! फिर भी ये फ़िल्में चली और बजट से कई गुना ज्यादा कमाई भी की! इन फिल्मों के निर्माण में यू-टीवी, वॉयकॉम, पीवीआर पिक्चर्स और रिलायंस जैसे प्रोडक्शन हाउस और स्टूडियोज़ ने पैसा लगाया या डिस्ट्रीब्यूट किया!
      लागत और कमाई के मामले में 1975 में आई फिल्म 'जय संतोषी मां' को अब तक की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर माना जाता है, जिसने उसके साथ रिलीज हुई मल्टीस्टारर और अपने समय काल की सबसे महंगी 'शोले' के दर्शकों को खींच लिया था। इस फिल्म की अपार सफलता ने सभी को चौंकाया भी। सिर्फ 25 लाख के बजट में बनी इस धार्मिक फिल्म ने तब 5 करोड़ कमाए थे। ये अब तक की ब्लॉकबस्टर साबित हुई। इसके 47 साल बाद 'द कश्‍मीर फाइल्स' ने कमाल किया। विवेक अग्निहोत्री की इस फिल्म की सफलता बहुत कुछ 'जय संतोषी मां' से मेल खाती है। 15 करोड़ की अनुमानित लागत में बनी इस फिल्म ने 341 करोड़ कमाए। 2013 में आई 'आशिकी-2' 1990 में आई संगीत से भरी महेश भट्ट की 'आशिकी' का सीक्वल थी। 'आशिकी-2' ने 78.64 करोड़ रुपए की कमाई की और ये 'आशिकी' से भी बड़ी हिट साबित हुई। मोहित सूरी द्वारा निर्देशित 'आशिकी-2' भी 15 करोड़ के बजट में बनी थी। 2018 में दो छोटी फिल्मों ने बड़े बजट की फिल्मों को रेस से बाहर कर दिया था। ये थी 'बधाई हो' और 'स्त्री!' 29 करोड़ के बजट में अमित रवींद्रनाथ शर्मा के निर्देशन में बनी 'बधाई हो' ने घरेलू बॉक्स ऑफिस पर ही 134.46 करोड़ का कलेक्शन किया था। जबकि, अमर कौशिक की निर्देशित हॉरर कॉमेडी 'स्त्री' तो 24 करोड़ से भी कम बजट में बनी थी। इसने 124.56 करोड़ की कमाई की।
    इस तरह की फ़िल्में हर दौर में बनती रही है। 80 के दशक में 'जाने भी दो यारो' जैसी कम बजट की कई फ़िल्में बनी और अच्छी चली! पेस्टनजी, मिर्च मसाला, सलाम बॉम्बे और 'चश्मे बद्दूर' जैसी कई फिल्में बनी! ये आर्ट नहीं, ठेठ फार्मूला थीं, लेकिन अर्थपूर्ण थी जिन्होंने दर्शकों का जमकर मनोरंजन किया! पिछले कुछ सालों में मेट्रो शहरों में कई मल्टीप्लेक्स थिएटर बने और इनमे चलने वाली फिल्मों का एक नया दर्शक वर्ग तैयार हुआ। नया दर्शक वर्ग मतलब महंगी कारों से आने वाले लोग, सीमित और गद्देदार सीटें, हमेशा कोल्ड ड्रिंक पीते और पोप कॉर्न चबाते दर्शक! इन दर्शकों को सस्ती टिकट वाली बिना सितारों वाली फ़िल्में कभी रास नहीं आती!  
      देखा जाए तो बड़े और छोटे बजट वाली फिल्मों के बीच हमेशा ही एक अघोषित जंग चलती रही है! छोटे बजट वाली फिल्मों को किसी बड़ी फिल्म से डर नहीं लगता! पर, महंगी फिल्मे बनाने वाले निर्माता हमेशा इस बात का ध्यान रखते हैं कि जब उनकी फिल्म रिलीज हो रही हो तो, दर्शकों को बांटने वाली कोई भी फिल्म मुकाबले में न खड़ी हो! क्योंकि, फिल्म का बजट जितना बड़ा होगा, उसका फ़ायदा भी उतनी देर से निकलेगा और नुकसान का अंदेशा भी ज्यादा होगा! 'लंच बॉक्स' जैसी छोटे बजट की फिल्मों में अपनी अदाकारी दिखाने वाले इरफ़ान खान भी मानते थे कि 90 और 2000 के दशक की शुरुआत में जो दौर था, आज उससे कहीं बेहतर वक़्त रहा। मसाला फिल्मों का सौ करोड़ रुपए कमाना भी छोटी फ़िल्मों के लिए अच्छा है! इसलिए कि ये लो-बजट फ़िल्में बड़े बजट की फिल्मों से कॉम्पटीशन नहीं करती, बल्कि उनकी मदद करती हैं! इनकी वजह से ही छोटी फ़िल्में बॉलीवुड में सरवाइव कर पाएंगी!
   याद किया जाए तो 30 करोड़ की लागत से बनी लव रंजन की फिल्म 'सोनू के टीटू की स्वीटी' (2018) ने भी धमाल मचाया था। इस फिल्म में अपने परिचित अंदाज़ में शहरी युवा के प्यार और उसके साइड इफेक्ट्स को उकेरा था। फिल्म ने 100 करोड़ से ज्यादा का कारोबार किया। 2017 में आई 'हिंदी मीडियम' ने भी जबरदस्त कामयाबी हासिल की थी। सिर्फ 15 करोड़ में बनी इस फिल्म के प्रमोशन पर जरूर करीब 7 करोड़ फूंक दिए गए, पर 22 करोड़ की लागत से बनी फिल्म ने वर्ल्ड वाइड 110 करोड़ की कमाई की। इसमें भारत में ही 67.01 करोड़ की कमाई हुई। नीरज घेवन के निर्देशन में बनी 'मसान' 2015 में रिलीज हुई थी। महज 3 करोड़ लागत की इस फिल्म ने तीन गुना यानी 9 करोड़ की कमाई की। इसे कांस फिल्म फेस्टिवल में भी सराहा गया था। सधी हुई कहानी कहने के लिए चर्चित हंसल मेहता की 2012 में आई फिल्म 'शाहिद' को भी दर्शकों ने सराहा था। 80 लाख में बनी इस फिल्म ने लगभग तीन करोड़ कमाए थे। राजकुमार गुप्ता के निर्देशन में बनी 'नो वन किल्ड जेसिका' (2011) सिर्फ 9 करोड़ में बनी, जिसने 58 करोड़ की कमाई की थी। यह फिल्म साल 1999 में हुए जेसिका लाल हत्याकांड पर आधारित थी। 
      2011 में ही आई लव रंजन की फिल्म 'प्यार का पंचनामा' ने दर्शकों का एक नए तरह के सिनेमा से परिचय कराया था। 7 करोड़ में बनकर तैयार हुई इस फिल्म ने 17 करोड़ की कमाई की। तिग्मांशु धूलिया के निर्देशन में बनी 'साहेब, बीवी और गैंगस्टर' (2011) 4 करोड़ में बनाई गई, पर इसने बॉक्स ऑफिस पर 20 करोड़ की कमाई कर ली थी। ऐसी फिल्मों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी देव डी, निशिकांत कामत के निर्देशन में बनी मुंबई मेरी जान, अभिषेक कपूर के निर्देशन में बनी रॉक ऑन, निर्देशक नीरज पांडेय की 2008 में आई फिल्म ए वेडनेसडे, अनुराग बसु के निर्देशन वाली 2007 में आई फिल्म लाइफ इन मेट्रो, 2007 में ही आई श्रीराम राघवन के निर्देशन वाली 'जॉनी गद्दार' के अलावा अनुराग कश्यप की दो भागों में आई 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' को ऐसी ही फिल्मों में गिना जाता है, जिन्होंने कम लागत में फ़िल्में बनाकर धांसू कमाई की है।  
     पर, अब लगता है 100 और 300 करोड़ में बनने वाली फिल्मों के दौर के बाद 5, 10 और 15 करोड़ में बनने वाली फ़िल्में भी आएंगी, जो दर्शकों का मनोरंजन करने में बड़ी फिल्मों से ज्यादा सफल रहेंगी! इसका इशारा भी मिल गया। 5 करोड़ में बनी 'विक्की डोनर' ने 46 करोड़ कमाए थे! 10 करोड़ की 'फरारी की सवारी' ने करीब 15 करोड़ का कारोबार किया! जबकि, 15 करोड़ में ही बनी 'शंघाई' ने 19 करोड़ कमाए! विद्या बालन जैसी कलाकार को लेकर सिर्फ 8 करोड़ रुपए के बजट से बनी 'कहानी' ने तो 104 करोड़ रुपए कमाकर रिकॉर्ड बना दिया था! इसी तरह 8 करोड़ की 'पानसिंह तोमर  का आंकड़ा रहा 36 करोड़ रुपए। फिर भी सलमान, शाहरुख़ और आमिर खान को तो 100 करोड़ वाले क्लब में शामिल होने का ही शौक है! हो भी क्यों नहीं? जब निर्माता किसी सितारे के साथ फिल्म बनाने के लिए 200 करोड़ का जुआं खेलेगा तो 400 करोड़ की उम्मीद तो करेगा ही!
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Friday, October 14, 2022

श्रेय लेने की जल्दबाजी में सांसद कई बार चूके, इस बार भी!

- हेमंत पाल

  ऐसा लगता है कि इंदौर के सांसद शंकर लालवानी को हर बात में श्रेय लेने की बहुत जल्दबाजी रहती है! इस जल्दबाजी में कई बार उनसे चूक भी होती है। ऐसी ही एक चूक उनसे प्रधानमंत्री के उज्जैन आगमन के मौके पर हुई। अभी मंगलवार को प्रधानमंत्री के आगमन पर उन्होंने फेसबुक पर एक फोटो शेयर किया, जिसे उन्होंने उज्जैन का फोटो बताया। जबकि, फोटो गुजरात का था। आधे घंटे से ज्यादा समय तक यह पोस्ट उनके फेसबुक वॉल पर रही। प्रधानमंत्री जब इंदौर आकर हेलीकॉप्टर से उज्जैन के लिए निकले, उसके कुछ देर बाद ही लालवानी ने जल्दबाजी में फेसबुक पर फोटो शेयर करते हुए उज्जैन नगरी में प्रधानमंत्री का स्वागत होने की बात लिखी।
    सांसद से ये चूक हो गई कि उन्होंने गलत फोटो पोस्ट कर दिया। इस फोटो पर जनता से अभिवादन स्वीकार करते बोर्ड पर गुजराती में लिखा हुआ था। फोटो के शेयर करने के बाद काफी लोगों ने सांसद लालवानी की पोस्ट पर कमेंट भी किए। गलती का अहसास होने के बाद लालवानी ने फोटो वाली ये पोस्ट डिलीट कर दी। लेकिन, जो खिल्ली उड़ना थी, वो तो उड़ चुकी थी।
    शंकर लालवानी की ये श्रेय लेने की आदत पहली बार नहीं देखी गई! वे हमेशा ही सबसे आगे रहने की कोशिश में निशाने पर आ जाते हैं। अभी शहर के लोग स्वच्छता अवॉर्ड मामले में भी उनके राष्ट्रपति के हाथों अवॉर्ड लेने की बात को भूले नहीं थे कि ये नई गलती हुई। देश में छठी बार इंदौर को स्वच्छता में अव्वल रहने का अवार्ड मिला। शहर की ये उपलब्धि सभी के साझा प्रयासों का नतीजा है। नगर निगम के अधिकारियों ने रणनीति बनाई, सफाईकर्मियों ने उसे क्रियान्वित किया और जनता ने उसमें सहयोग किया। लेकिन, इस सफलता का श्रेय लूटने वालों में कोई पीछे नहीं रहा। यहां तक कि राष्ट्रपति से अवार्ड लेने में भी वे लोग आगे रहे, जिन्हें इस कामयाबी का पूरा श्रेय नहीं दिया जा सकता। नगर निगम कमिश्नर प्रतिभा पाल और सांसद शंकर लालवानी मंच पर सबसे आगे रहे। उनके पीछे थे महापौर पुष्यमित्र भार्गव, जो वास्तव में सही हकदार होते!
    निगम कमिश्नर की मौजूदगी कुछ हद तक सही थी, क्योंकि वे उस संस्था की मुखिया है, जिसे यह अवार्ड मिला! महापौर इस बार प्रतीकात्मक चेहरा थे, क्योंकि उनको शपथ लिए अभी महीना भर ही हुआ है। उनका इस उपलब्धि में सीधा कोई योगदान तो नहीं है, पर वे शहर के महापौर तो हैं। पर, सांसद मंच पर क्यों आए, यह बात जनता को आज भी खटक रही है और भाजपा नेताओं में भी इसे लेकर खुसुर-पुसुर है। क्योंकि, उनका न तो नगर निगम से कोई सीधा वास्ता है न स्वच्छता के प्रयासों में उनका योगदान कहीं नजर आता है! फिर वे किस हैसियत से स्वच्छता अवार्ड लेने में सबसे आगे रहे, इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा! पहली बार नहीं, वे पहले भी इस उपलब्धि का श्रेय लूट चुके हैं।      
      इंदौर के अलावा देश और प्रदेश के अन्य शहरों को भी इसी आयोजन में दूसरी उपलब्धियों के लिए अवार्ड दिए गए, पर किसी भी शहर का सांसद मंच पर नहीं आया। यहां तक कि इसी मंच पर देश में सबसे पहले 'हर घर जल' प्रमाणित जिला घोषित होने पर बुरहानपुर जिले को सम्मानित किया गया। लेकिन, यह अवार्ड पीएचई विभाग के अतिरिक्त प्रमुख सचिव मलय श्रीवास्तव और कलेक्टर प्रवीण सिंह के अलावा आठ सदस्यीय दल ने लिया। इसमें चार स्व-सहायता समूह की महिलाएं, पीएचई विभाग के अधिकारी और सीईओ जिला पंचायत रोहित सिसोनिया शामिल थे। पर, सांसद कहीं नहीं थे! फिर क्या कारण है कि इंदौर के सांसद अति उत्साह में जिस तरह हर मंच पर पहुंच जाते हैं, तो यहां भी आगे आ गए! बेहतर होता कि प्रतीक स्वरुप किसी स्वच्छता कर्मी को मंच तक ले जाया जाता! राष्ट्रपति के प्रोटोकॉल का उल्लंघन इसलिए नहीं होता कि बुरहानपुर का अवार्ड लेने भी स्व सहायता समूह की महिलाएं पहुंची थीं। इसी समारोह में अन्य राज्यों को भी पुरस्कृत किया गया था लेकिन वहां पर भी उस क्षेत्र के सांसद नहीं पहुंचे थे और पहुंचना भी नहीं चाहिए था, सवाल ही पैदा नहीं होता लेकिन शंकर लालवानी इन सब से परे हैं।
   अब तो हालत यह हो गई है कि हर मामले में सांसद की श्रेय लेने की आदत, लोगों को हजम नहीं हो रही। भाजपा में भी इस बात की चर्चा है कि वे हर मंच पर तो नजर आते ही हैं, शहर की हर उपलब्धि में भी अपने योगदान की मुहर लगाने का मौका भी नहीं छोड़ते! लेकिन, स्वच्छता अवार्ड के मंच पर उनकी मौजूदगी सभी को खल रही है। शहर के कई भाजपा नेता और अफसर भी उनकी इस आदत से परेशान बताए जाते हैं।
    कुछ दिनों से सांसद शहर के मास्टर प्लान को लेकर ज्यादा सक्रियता दिखा रहे हैं। वे शायद यह भूल गए कि अब वे इंदौर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष नहीं हैं। वे जिस तरह के जन प्रतिनिधि हैं, वो लोकसभा में क्षेत्र का प्रतिनिधि है, न कि शहर की हर संस्था का मुखिया! पिछले दिनों शहर के मास्टर प्लान को लेकर शहर की एक संस्था के पदाधिकारी नगरीय निकाय विभाग के अधिकारी से मिलने भोपाल गए थे। सांसद की इसमें कहीं कोई भूमिका नहीं थी और न होना भी चाहिए! लेकिन, वे चाहते थे, कि पदाधिकारी इसके लिए उनके नाम का उल्लेख करें। ये पहला और आखिरी प्रसंग नहीं है, जब सांसद ने श्रेय लेने की कोशिश नहीं की हो!
    भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने भी पिछले दिनों ऐसे ही मामले में मंच से गुस्सा बताया था। स्वच्छता अवार्ड के एक कार्यक्रम में इंदौर के छठी बार देश में आगे आने का श्रेय स्वच्छता जुड़े कर्मियों और नागरिकों को न देने के बजाए अधिकारियों को दिए जाने पर अपनी नाराजगी व्यक्त की थी, जो सही भी है। कैलाश विजयवर्गीय के मुताबिक, इस सफलता का श्रेय सफाई मित्रों और नागरिकों को जाता है। इंदौर के लोग अपने पूर्वजों के कारण सुसंस्कृत और अनुशासित हैं। राजनीतिक मज़बूरी के कारण उन्होंने किसी नेता का नाम नहीं लिया हो, पर निश्चित रूप से सांसद की उस मंच पर मौजूदगी खलने वाली तो थी!  
    दो साल पहले सांसद शंकर लालवानी ने लोकसभा में अलग सिंधी राज्य की मांग उठाई थी! उन्होंने सिंधी में अपनी बात रखी! लेकिन, उनकी इस मांग के पक्ष में न तो भाजपा खड़ी हुई और न सिंधी समाज! क्योंकि, उनकी इस मांग का कोई तार्किक आधार नहीं था। उनके संसदीय क्षेत्र के सिंधी समुदाय ने भी इसका विरोध किया! क्योंकि, आज तक किसी सिंधी नेता ने ऐसी कोई बात नहीं की! लोकसभा में लालवानी से पहले ओडिशा के मयूरभंज के सांसद बिशेश्वर तुडू ने भी शून्यकाल में यही बात कही थी! वास्तव में तो लालवानी ने बिशेश्वर तुडू की मांग को आगे बढ़ाया है, नया कुछ नहीं नया जोड़ा! जब बात सामने आई तो उस पर लीपापोती करने की कोशिश की गई। शंकर लालवानी ने सिंधी प्रदेश की जो मांग की, वो पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है। सांसद ने शायद यह सोचा होगा कि अगर यह मांग लोकसभा में करूंगा, तो पूरी दुनिया मे मेरा नाम होगा और समाज के लोग प्रभावित होंगे! जबकि, लालकृष्ण आडवाणी, राम जेठमलानी, सुरेश केसवानी या अन्य किसी सिंधी नेता ने आज तक यह मांग नहीं की।
    अपने आपको बड़ा नेता बताने की कोशिश में सांसद शंकर लालवानी ट्रैफिक पुलिस ने भी हत्थे चढ़ चुके हैं। पिछले साल खंडवा उपचुनाव के समय यातायात नियमों के उल्लंघन के आरोप में उन पर जुर्माना लगाया गया था। उन पर चुनाव आचार संहिता के दौरान अपने वाहन पर सांसद की नेमप्लेट लगाने और हूटर बजाने का आरोप लगा था। उनकी गाड़ी नो एंट्री पर भी खड़ी थी, जिसे पुलिस ने गाड़ी को लॉक करके 1500 रुपए का जुर्माना लगा दिया था। ये अकेला मामला नहीं है।
    इंदौर में सुमित्रा महाजन लगातार आठ बार सांसद रहीं और लोकसभा अध्यक्ष जैसे उच्च पद पर पहुंची, पर उन्होंने सांसद पद की गरिमा को हमेशा बनाए रखा! उन्होंने न तो अनावश्यक श्रेय लेने की कोशिश की और न अपने आपको 'विकास पुरुष' की तरह प्रचारित करना चाहा! जबकि, शंकर लालवानी वो कर रहे हैं, जो सांसद पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है। वे जन-प्रतिनिधि हैं, जिन्हें बकायदा लोकसभा से वेतन मिलता है! बेहतर हो कि वे शहर के नेता बनने की कोशिश करें, जिसे जनता दिल से चाहे, अनमने भाव से झेले नहीं!
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'शिव' के आशीर्वाद से बजा 'शिवराज' का डंका!

- हेमंत पाल


    उज्जैन के 'श्री महाकाल लोक' के लोकार्पण ने महाकाल मंदिर के आकार के साथ प्रदेश की भाजपा राजनीति के कई समीकरण भी बदल दिए। जिस सफल और भव्य तरीके से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने ये आयोजन हुआ, उसने इन आशंकाओं पर तो पानी फेर ही दिया शिवराज सिंह की कुर्सी कंपकंपा रही है। ये दावे करने वाले भी पीछे हट गए कि विधानसभा चुनाव से पहले कोई नया चेहरा प्रदेश का मुखिया होगा। नरेंद्र मोदी ने जिस तरह मंच से शिवराज सिंह चौहान की तारीफ की और इस मंदिर के भव्य स्वरूप का श्रेय उन्हें दिया, उससे बहुत कुछ बदला है और बहुत कुछ बदलेगा!
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     क्टूबर के दूसरे मंगलवार की शाम कई मायनों में यादगार कही जा सकती है। खासकर मध्य प्रदेश, उज्जैन और प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह के लिए। उज्जैन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों 'श्री महाकाल लोक' के लोकार्पण ने भक्ति और अध्यात्म के अभूतपूर्व संगम के साथ प्रदेश की राजनीति को भी नया स्वरूप दिया। इस भव्य आयोजन ने कुछ बना दिया, कुछ बदल दिया और बहुत कुछ बदलने को मजबूर कर दिया। इसे महाकाल ज्योतिर्लिंग का चमत्कार कहा जाए या शिवराज सिंह चौहान की मेहनत और समर्पण का परिणाम कि उज्जैन जैसी धार्मिक नगरी नए रूप में निखर आई! दो हेक्टेयर का महाकाल परिसर 20 हेक्टेयर का बना दिया गया। अगले चरण में यह 47 हेक्टेयर का विशाल परिसर बन जाएगा। 'श्री महाकाल लोक' का सिर्फ भौतिक रूप ही नहीं निखरा, इसके साथ शिवराज सिंह की राजनीतिक ताकत भी बढ़कर चौगुनी हो गई! पार्टी के अंदर और बाहर उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदियों ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में उज्जैन में हुए इस सफल आयोजन के बाद मायूसी तो होगी।   
    प्रधानमंत्री ने जनसभा में अपने भाषण की शुरुआत में कहा कि जब महाकाल का आशीर्वाद मिलता है, तो काल की रेखाएं मिट जाती हैं, समय की सीमाएं मिट जाती हैं और अंत से अनंत की यात्रा आरंभ हो जाती है। इसे राजनीतिक संदर्भों में देखा और समझा जाए तो महाकाल की सबसे ज्यादा कृपा शिवराज सिंह पर ही होगी। क्योंकि, उन्होंने इस पावन नगरी को कई मायनों में बदल दिया। 'श्री महाकाल लोक' ने सिर्फ महाकाल मंदिर का आकार ही नहीं बढ़ाया, साथ में इस धार्मिक नगरी के भविष्य के नए रास्ते भी खोले हैं। सबसे बड़ी बात यह कि इस अवसर पर भाजपा के सबसे बड़े और ताकतवर नेता की मौजूदगी ने प्रदेश के मुखिया का कद बढ़ा दिया।
  भाषण में नरेंद्र मोदी ने कहा कि 'श्री महाकाल लोक' की यह भव्यता भी समय की सीमा से परे है। ये आने वाली कई पीढ़ियों को अलौकिक दिव्यता के दर्शन कराएगी। भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना को ऊर्जा देगी। मैं इस अद्भुत अवसर पर राजाधिराज महाकाल के चरणों में शत-शत नमन करता हूं। मैं आप सभी को देश-दुनिया में महाकाल के सभी भक्तों को हृदय से बहुत-बहुत बधाई देता हूं। विशेष रूप से भाई शिवराज सिंह चौहान और उनकी सरकार का मैं हृदय से अभिनंदन करता हूं। वे लगातार इतने समर्पण से इस सेवा यज्ञ में लगे हुए हैं।
    'श्री महाकाल लोक' का निर्माण सिर्फ एक मंदिर परिसर का विस्तार नहीं, उससे बहुत ज्यादा कुछ है। अभी तक उज्जैन को धार्मिक नगरी की मान्यता मिली थी। महाकाल मंदिर में सालभर लाखों दर्शक आते हैं। हर 12 साल सिंहस्थ होता है। लेकिन, फिर भी ये शहर सुप्त माना जाता रहा है, जहां कोई काम धंधा पनप नहीं पाता! यहां कि अर्थव्यवस्था इंदौर के कारण बढ़ नहीं पाती है। लेकिन, अनुमान है कि 'श्री महाकाल लोक' बनने के बाद यहाँ यहां के लोगों के जीवन स्तर में अंतर आएगा। शहर का सालाना 300 करोड़ का कारोबार बढ़कर दोगुना हो जाएगा! क्योंकि, यहां बाहर से आने वाले जो श्रद्धालु महाकाल का दर्शन करके लौट जाते थे, वे अब 3 से 4 दिन उज्जैन में रहेंगे! सिर्फ उज्जैन शहर ही नहीं, मालवा अंचल का पर्यटन और धार्मिक यात्राओं की संख्या बढ़ेगी, जिससे आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि का लाभ पूरे इलाके को मिलेगा।
   ये तो हुई उज्जैन की आर्थिक उन्नति के भविष्य की बात। लेकिन, उससे ज्यादा अहम है मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के 'श्री महाकाल लोक' के प्रति समर्पण की बात! उन्होंने 'श्री महाकाल लोक' के लोकार्पण से पहले कहा था कि ऐसा लग रहा है, जैसे मेरा जीवन सार्थक हो गया। 2016 में जो महाकाल परिसर की जो कल्पना की थी, वो साकार हुई। उन्होंने कहा था कि मैंने ऐसी शिव सृष्टि की कल्पना की थी, जिसमें महाकाल के दर्शन के बाद भक्तों को भगवान शिव की लीलाएं भी देखने को मिले। 2017 में इस विचार पर चर्चा की गई। इसके बाद 2018 में कैबिनेट ने इस महाकाल प्रकल्प को स्वीकृति दी। लेकिन, इस प्रकल्प के बारे में जो सोचा गया था, उससे कहीं बहुत उत्तम, अद्भुत और अकल्पनीय काम हुआ, जो हमारी सांस्कृतिक अभ्युदय को दिशा देगा। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारत में सांस्कृतिक पुनरुत्थान का काम हो रहा है। पहले बाबा केदारनाथ धाम का पुनर्निर्माण हुआ, फिर काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बना और अब महाकाल महाराज के परिसर में श्री महाकाल लोक की अद्भुत रचना हुई।
    धर्म और अध्यात्म से परे हटकर इस आयोजन की भव्यता को देखा जाए तो इसने बरसों के लिए उज्जैन को यादगार बना दिया। इसकी आयोजना के लिए सिर्फ मुख्यमंत्री और उनके प्रशासन की पीठ थपथपाई जाना चाहिए। इतने भव्य कार्यक्रम में कहीं न कहीं कोई न कोई खामी रहना स्वाभाविक है, पर आज का ये कार्यक्रम इस सबसे अछूता रहा! योजना, क्रियान्वयन और व्यवस्था की दृष्टि से सभी कुछ सही हुआ। इसे महाकाल की कृपा ही कहा जाना चाहिए कि मौसम विभाग की चेतावनी और अनुमान के बावजूद इंद्र देवता की कृपा रही और बारिश नहीं हुई। सारे किंतु, परंतु को देखते हुए कहा जा सकता है, कि जो लोग मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को लम्बे समय से राजनीतिक रूप से अस्थिर समझ रहे थे, उन्होंने भी आज चुप्पी साध ली होगी। साथ ही जो खुद को विकल्प जान रहे थे, वे भी लाइन तोड़कर खड़े हो गए होंगे! क्योंकि, जब महाकाल का आशीर्वाद मिलता है, तो काल की रेखाएं मिट जाती हैं!
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Wednesday, October 12, 2022

भाजपा ने मांडू शिविर में अनुभव की सीख से परहेज क्यों किया!

- हेमंत पाल  

     भारतीय जनता पार्टी ने 'सिटी ऑफ़ जॉय' में अपना तीन दिन का प्रदेश स्तर का प्रशिक्षण शिविर किया! इस शिविर को पार्टी की रणनीति के तहत मुद्दों पर आधारित चिंतन के लिए आयोजित किया गया था, पर यहां चिंतन कम भाषण ज्यादा हुए! चिंतन के विषयों में भी गंभीरता नहीं लगी। इसका सबसे बड़ा कारण था कि पार्टी ने कई अनुभवी नेताओं को भुला दिया। इनके राजनीतिक अनुभव और वरिष्ठता का लाभ लिया जाना था, वो नहीं लिया गया। ऐसी स्थिति में प्रदेश स्तर का प्रशिक्षण शिविर औपचारिक बन कर रह गया। 
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    शिविर में क्या चिंतन हुआ ये पार्टी का अपना रणनीतिक मामला है। 181 पार्टी कार्यकर्ताओं के सामने वही बात कही गई होगी, जो पार्टी बाहर लाना चाहती है। पर, असल में इस शिविर का अपना अलग राजनीतिक मतलब होना चाहिए था। मांडू में शिविर आयोजित करने का आशय यहां के उस राजनीतिक माहौल को अपने पक्ष में करना था, जो पिछले चुनाव में भाजपा के पक्ष में नहीं रहा! लेकिन, शिविर के अंत में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने मीडिया के सामने आकर जो बयान दिया, उसमें राजनीतिक पक्ष नदारद था। पार्टी अध्यक्ष से जिस तरह के वक्तव्य की उम्मीद की गई थी, वो सामने नहीं आया। उन्होंने तीन दिन के शिविर में हुए चिंतन पर कुछ बताने के बजाए प्लास्टिक के उपयोग को रोकने की बात कही, जो गले नहीं उतरती! क्या कोई राजनीतिक पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को प्लास्टिक के उपयोग से रोकने के लिए प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करेगी!        
    यदि प्रशिक्षण वर्ग की बात की बात की जाए तो संघ के क्षेत्रीय प्रचारक दीपक विस्पुते के प्रबोधन को सबसे ज्यादा प्रभावी माना गया। मौजूद कार्यकर्ताओं ने बताया कि उन्होंने बहुत सटीक और प्रभावशाली बातें बताई! जबकि, संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा शिविर में अपनी कोई छाप नहीं छोड़ सके। इसके अलावा जो वक्ता थे सिर्फ जल्दबाजी में भाषण देने तक सीमित रहे। यहां विदेश नीति तक पर पाठ पढ़ाया गया, जिसकी जरुरत का मंतव्य समझ नहीं आया!     
    'सिटी ऑफ जॉय' कहे जाने वाले मांडू में तीन दिन तक सत्ता और संगठन का समागम हुआ। इसमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा के साथ संगठन से जुड़े नेताओं ने भी भाग लिया। लेकिन, पार्टी ने उन पुराने नेताओं को भुला दिया, जिनके राजनीतिक अनुभव से पार्टी के नए बने नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ सीखने को मिलता। विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को उस सीख की ज्यादा जरूरत थी, जो उन्हें परिपक्व बनाती। भाजपा ने पिछला विधानसभा चुनाव हारा था, इस सच्चाई को तो नकारा नहीं जा सकता। आज भाजपा यदि सत्ता में है, तो वो जन भावना का नतीजा भी नहीं है।
      मांडू के इस शिविर की सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि इसमें पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता, केंद्रीय मंत्री, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विक्रम वर्मा को भुला दिया गया। बेशक उनके राजनीतिक अनुभव से पार्टी के कार्यकर्ता लाभान्वित होते और उन्हें नई सीख मिलती! लेकिन, संगठन ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की कि कार्यकर्ता उनके अनुभव से कुछ सीखते! पार्टी ने ऐसे नेताओं को 'मार्गदर्शक मंडल' में भेजकर अपना जो नुकसान किया, उसका हिसाब निश्चित ही बाद में सामने आएगा! मांडू के इस शिविर में यदि आदिवासी क्षेत्र में चुनावी रणनीति पर बात होना थी, तो विक्रम वर्मा से ज्यादा जानकार कौन था, पर उन्हें बतौर प्रशिक्षक बुलाना तो दूर, बतौर मेहमान भी नहीं बुलाया गया, जबकि वे उसकी जिले के निवासी हैं और उनकी पत्नी पड़ौस की विधानसभा से विधायक हैं। पार्टी की नीति के मुताबिक यदि विक्रम वर्मा मार्गदर्शक मंडल में भी हैं, तो क्या पार्टी को उनके मार्गदर्शन की जरुरत महसूस नहीं होती!
   सिर्फ विक्रम वर्मा ही नहीं इंदौर से सुमित्रा महाजन, कृष्णमुरारी मोघे को भी भुला दिया गया। जबकि, ये दोनों नेता भी अनुभव में उस सभी नेताओं से ज्यादा समृद्ध हैं, जो मांडू में प्रशिक्षण देने पहुंचे थे। सुमित्रा महाजन के पास भी अलग तरह का अनुभव है। वे लोकसभा अध्यक्ष जैसे बड़े पद पर रही हैं, इसलिए वे जो सीख देती, वो निश्चित रूप से कार्यकर्ताओं के लिए काम की बात होती! यही स्थिति कृष्णमुरारी मोघे की है, जो सांसद भी रहे और विधायक भी! संघ से भी वे जुड़े रहे हैं। इस दृष्टि से भी वे कार्यकर्ताओं को काम की बात बताते! पर, ऐसा नहीं किया गया। जब यह शिविर आदिवासी बहुल इलाके में किया जा रहा था तो केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते को क्यों भुलाया गया। वे आदिवासी हैं और निश्चित रूप से उनकी बातों का अलग प्रभाव पड़ता! शिविर में ऐसा कोई आदिवासी नेता को नहीं बुलाया गया जो अगले चुनाव को लेकर कोई सलाह देता! 
   पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और सांसद प्रभात झा भी उन नेताओं में हैं, जिन्हें भाजपा ने इस शिविर में बुलाने लायक नहीं समझा! जबकि, मीडिया संपर्क के मामले में उनके पास अनुभव का खजाना है। पार्टी ने मीडिया से सामंजस्य को लेकर कोई चिंतन किया या नहीं, ये तो नहीं पता! पर, पार्टी का किसी भी नए या पुराने प्रवक्ता को शिविर में नहीं बुलाया गया। गोविंद मालू, दीपक विजयवर्गीय और हितेष वाजपेयी के अलावा वर्तमान प्रवक्ताओं को भी शिविर से दूर रखा गया! फिर शिविर में चिंतन का स्तर क्या होगा, ये समझा जा सकता है।          
   देखा जाए तो पार्टी के ऐसे शिविरों में पदाधिकारियों, नेताओं और कार्यकर्ताओं को सबसे ज्यादा जरूरत मीडिया से सामंजस्य बनाने की होती है। कई बार पार्टी इस वजह से मुश्किल में भी फंसी, पर शिविर में संभवत इस मुद्दे पर कोई बात ही नहीं हुई। भाजपा ने न तो प्रदेश प्रवक्ता रहे गोविंद मालू को बुलाया और न दीपक विजयवर्गीय को! यहां तक कि अभी जो पार्टी के प्रवक्ता हैं, वे भी नदारद रहे। आदिवासी क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को अगले विधानसभा चुनाव के लिए जिस तरह से रणनीतिक तौर पर तैयार किया जाना था, वो शायद नहीं किया गया। इसका सीधा सा आशय है कि शिविर के प्रशिक्षकों के अलावा चिंतन के विषयों को लेकर भी गंभीरता नहीं बरती गई! 
     भाजपा में पहले जब भी ऐसे शिविर हुए, उसमें चिंतन के विषयों के चयन को लेकर भी वरिष्ठ नेताओं की समिति बनती थी, जो ये तय करती थी कि वर्तमान समय में प्रशिक्षण शिविरों में किन विषयों पर चिंतन किया जाना चाहिए। लेकिन, लगता है अब वो सब भुला दिया गया। अब पार्टी के प्रशिक्षण शिविर महज औपचारिक बनकर रह गए। इनमें नेताओं की भाषणबाजी के अलावा चिंतन जैसा कुछ हुआ हो, लगता नहीं! शिविर में शामिल कुछ कार्यकर्ताओं ने  भी बताया कि तीन दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसमें कार्यकर्ताओं को सहभागिता का मौका मिला हो! जबकि, चिंतन का मतलब है आपसी चर्चा होना! जबकि, मांडू में जो हुआ वो एकालाप से ज्यादा कुछ नहीं हुआ! भाषणबाजी भी ऐसे विषयों पर हुई, जिसका कार्यकर्ताओं से सीधा कोई सरोकार नहीं होता! इसलिए कहा जा सकता है, कि इस शिविर से पार्टी को कोई ऐसा फ़ायदा तो शायद ही हुआ हो, जो अगले विधानसभा चुनाव के नजरिए से पार्टी कार्यकर्ताओं को तैयार करे! 181 कार्यकर्ता मांडू से क्या सीखकर गए, ये सच सामने आने में भी ज्यादा वक़्त नहीं लगेगा!
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Saturday, October 8, 2022

हमें मिलना ही था हमदम, किसी राह भी निकलते!

हेमंत पाल 

    इसे संयोग ही कहा जाएगा कि अक्टूबर की लगातार दो तारीखों को फिल्म इंडस्ट्री की सदाबहार जोड़ी अमिताभ बच्चन और रेखा के जन्मदिन होते हैं। जिस तरह दोनों के जन्मदिन 10 और 11 को होते हैं, उसी तरह कभी दोनों एक-दूसरे के आगे-पीछे घूमते थे। राजकपूर-नर्गिस और धर्मेन्द्र-हेमा मालिनी की तरह अमिताभ और रेखा की जोड़ी भी सर्वकालिक हिट रही। दोनों का प्रेम सिर्फ फिल्म के कथानक तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि परदे से बाहर आकर भी ये काफी चर्चित रहा! इस जोड़ी ने सिनेमा के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया। वैसे भी सिनेमा को जोड़ियों की एक पुरानी आदत है। यही कारण है कि परदे पर दिखाई देने वाली प्रेम कहानियां निजी जिंदगी की भी प्रेम के बंधन में बंध जाती है! रील लाइफ का हर रियल लाइफ में तो नहीं बदला, पर इनके चर्चे खूब रहे। 
     राज कपूर-नर्गिस, देव आनंद-सुरैया, दिलीप कुमार-मधुबाला तो परदे और चर्चा तक सीमित रहे, पर ऋषि कपूर-नीतू सिंह, रणधीर कपूर-बबीता और धर्मेन्द्र हेमा मालिनी ने जरूर रियल लाइफ में भी जोड़ी बनाई। उसी परम्परा को अमिताभ-रेखा ने आगे बढाया, पर चंद जोड़ियों की तरह ये भी परदे की जोड़ी तक ही रही। इस जोड़ी के हिट होने के साथ ही निजी जिंदगी में भी इनका प्यार गहराता गया। लेकिन, सामाजिक बंधनों और परंपराओं ने इनके बीच दूरी को कम नहीं होने दिया। लेकिन, पांच दशक बाद भी इस प्रेम की सुगंध कम नहीं हुई। परदे पर 'दो अनजाने' से बनी सिनेमा की इस जोड़ी ने आखिरी बार यश चोपड़ा की रोमांटिक ड्रामा फिल्म 'सिलसिला' तक एक साथ काम किया।
       इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि रेखा का करियर अमिताभ का साथ मिलने के बाद ही संवरा और उसने उड़ान भरी! बतौर अभिनेत्री पहली फिल्म 'सावन भादो' में सांवली और मोटी सी दिखने वाली रेखा, अमिताभ से जुड़ने के बाद अलग ही रूप निखर आई। 'मुकद्दर का सिकंदर' में रेखा और अमिताभ की जोड़ी ने पहली बार शोहरत के आसमान को छुआ था। इसके बाद देखते ही देखते इस जोड़ी ने हिन्दी सिनेमा के इतिहास में पसंदीदा जोड़ी के रूप में अपना नाम दर्ज कराया। रेखा के दोनों रूपों का फर्क वे दर्शक ज्यादा बेहतर जानते हैं, जिन्होंने 'सावन भादो' से मुकद्दर का सिकंदर, मि नटवरलाल, गंगा की सौगंध से 'सिलसिला' तक का उनका सफर देखा है। 'सिलसिला' को तो दर्शकों ने फ़िल्मी कथानक से ज्यादा सच्ची प्रेम कहानी की तरह देखा! क्योंकि, उसमें इनकी लव स्टोरी का तीसरा कोण यानी जया बच्चन भी मौजूद थी और उसी भूमिका में! उस फिल्म का अंत भी कुछ इनकी प्रेम कहानी की पूर्णाहुति की तरह ही था। 
      'सिलसिला' के बाद अमिताभ और रेखा एक-दूसरे से दूर हो गए थे। लेकिन तीन साल बाद 'कुली' के सेट पर अमिताभ के साथ जो हादसा हुआ, उसने उन्हें फिर नजदीक ला दिया। अमिताभ को गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। बताते हैं कि रेखा तब अमिताभ से मिलने के लिए तड़प उठी थी। वो अमिताभ को देखने अस्पताल भी पहुंच गईं, लेकिन उनको मिलने नहीं दिया गया! उसके बाद रेखा ने खुलकर अमिताभ की सेहत के लिए मन्नतें ली और नंगे पैर मंदिर-मंदिर गई थी। उन्होंने ये बाते किसी से छुपाई भी नहीं! ऐसी कई कहानियां हैं, जब रेखा ने अमिताभ से मिलना चाहा और उन्हें रोका गया। ऋषि कपूर और नीतू सिंह की शादी का किस्सा तो काफी चर्चित है, जब अमिताभ पूरी फैमिली के साथ उस शादी में गए थे और रेखा वहां दुल्हन की तरह मांग में सिंदूर सजाकर आई थी! तब शादी से ज्यादा चर्चा रेखा के सिंदूर की थी! सब ये जानना चाहते थे कि रेखा की मांग में सिंदूर का राज क्या है! बताते हैं कि रेखा ने तब तो खुद को सुर्ख़ियों में रखा, पर बाद में बताया कि वे एक फिल्म की शूटिंग से सीधे इस शादी में आई थी, इसलिए मेकअप नहीं हटाया था।  
      इस फ़िल्मी जोड़ी में प्रेम का अंकुर कब पनपा, इसे लेकर अकसर 'दो अनजाने' की शूटिंग का उल्लेख किया जाता है। बताते हैं कि रेखा सेट पर कभी टाइम से नहीं आती और न शूटिंग में सीरियस रहती थीं। एक बार अमिताभ बच्चन ने रेखा को समय पर आने और अपना काम सीरियसली करने के लिए इस तरह समझाया कि वे न सिर्फ टाइम से आने लगी, बल्कि शूटिंग में भी सीरियस होने लगीं। इन पर नजर रखने वालों का कहना है कि इस घटना के बाद रेखा और अमिताभ में नजदीकियां बढ़ने लगीं थी। लेकिन, लंबे समय तक ये मोहब्बत दुनिया की नजरों से छुपी रही। इनका प्यार तब खुलकर सामने आया, जब फिल्म ‘गंगा की सौगंध’ की शूटिंग के दौरान किसी एक्टर ने रेखा को कुछ गलत बोल दिया। उसने रेखा के साथ बदतमीजी भी की। इस पर वहां मौजूद अमिताभ यह सब बर्दाश्त नहीं कर पाए और आपा खो बैठे। फिर वहां जो हुआ, उसके बाद दोनों की नजदीकियां जगजाहिर हो गई। 
      जया को अकसर इस जोड़ी की अड़चन कहा जाता है, जो स्वाभाविक भी है। लेकिन, जया ने वही किया जो एक पत्नी को करना चाहिए। किंतु, ये भी सच है कि रेखा जब अपना करियर बनाने मुंबई आई, तब उनकी पहली दोस्त जया ही थीं। उस समय जया भादुड़ी थी बच्चन नहीं! दोनों एक ही बिल्डिंग में ऊपर-नीचे रहते थे और तब मोबाइल नहीं होते थे और रेखा के पास लैंडलाइन फोन भी नहीं था। इसलिए उसने सबको जया का नंबर दे रखा था, जब किसी का फोन आता तो जया उसे बुला लेती। उस समय जया को रेखा 'दीदी भाई' बोला करती थी और वही सम्बोधन आज भी है। 
      जब अमिताभ-रेखा की फिल्मी जोड़ी के चर्चे सरेआम होने लगे, तो जया बच्चन ने कोशिश की कि अमिताभ और रेखा साथ काम करें। लेकिन, ये संभव नहीं हुआ। उस समय टीटो टोनी ने रेखा और अमिताभ को लेकर 'राम बलराम' की प्लानिंग की! जया और टीटो दोस्त थे, तो जया ने टीटो से कहकर फिल्म में रेखा की जगह जीनत अमान को रखवा दिया। लेकिन, यह बात छुप नहीं सकी और रेखा ने टीटो के सामने 'राम बलराम' में बिना पैसे लिए काम करने का ऑफर दिया। टीटो इस ऑफर को नकार नहीं सके और जया के न चाहने के बाद भी फिल्म फिर रेखा के हाथ में आ गई। लेकिन, बताते हैं कि इस फिल्म के सेट पर जया और रेखा के बीच कुछ असहज प्रसंग भी हुआ था, जिसके बाद अमिताभ सेट से चले गए थे।  
      इन दोनों के रिश्तों पर सबकी नजरें रहती है। खासकर तब, जबकि किसी फ़िल्मी आयोजन में रेखा के अलावा अमिताभ और जया पहुंचते हैं। कैमरे पर भी इन तीनों को बार-बार दिखाया जाता है। क्योंकि, लोग आज भी इस प्रेम कहानी के प्रति सहानुभूति रखते हैं। वहां मौजूद लोग भी अमिताभ और रेखा की नजरों को परखते हैं कि किसने, किसकी तरफ कितने बार देखा। कई बार ऐसे प्रसंग भी आए, जब दोनों स्टेज पर साथ दिखाई दिए! लेकिन, जब भी ऐसी स्थिति आई अमिताभ बच्चन को संजीदा देखा गया, पर रेखा की नजरों में हमेशा शरारत दिखाई दी! इसलिए कि वे आज भी दुनिया से अपनी मोहब्बत छुपाना नहीं चाहती। ऐसे में जया की मौजूदगी का अपना अलग अर्थ होता है। इतने सालों में भी अमिताभ ने कभी न तो खुलकर न इशारों में रेखा से अपने रिश्ते की बात स्वीकारी! पर, रेखा कई बार इस बात को कबूल कर चुकी हैं।
     सिमी ग्रेवाल के शो में जब सिमी ने रेखा से अमिताभ को लेकर सवाल किए तो उन्होंने हर सवाल का जवाब बेबाकी से दिया था। इस रिश्ते पर रेखा ने कहा था कि मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग क्या सोचते हैं! मैं उन्हें अपने लिए प्यार करती हूं किसी को दिखाने के लिए नहीं! मैं उनसे प्यार करती हूं और वो मुझसे, लोग बोलते हैं कि बेचारी रेखा पागल है! लेकिन मुझे फर्क नहीं पड़ता कि कौन क्या सोचता है! रेखा ने तो यहां तक स्वीकार किया था कि वो किसी और के हैं और ये सच्चाई मैं बदल नहीं सकती! वे शादीशुदा आदमी हैं लेकिन ये बात उनको अलग नहीं करती! मैं उनको पसंद करती थी और करती हूं। दोनों के प्रेम की सबसे बड़ी बात यह है कि दोनों ने न तो कभी अपनी मर्यादा लांघी और न कभी सार्वजनिक जीवन में एक-दूसरे के बारे में अनुचित टिप्पणी की। इसका सीधा सा मतलब यह कि ये नदी के दो किनारों की तरह वो पाक मोहब्बत है, जो कभी मिलते नहीं, पर हमेशा सामने और साथ रहते हैं।  
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Friday, October 7, 2022

कांग्रेस के नए अध्यक्ष के सामने पार्टी का अतीत बड़ी बाधा!

- हेमंत पाल

    कांग्रेस का भविष्य क्या है! इस सवाल का जवाब आज किसी के पास नहीं है! यहां तक कि उनके पास भी पार्टी के भविष्य को लेकर कोई ठोस योजना नहीं है, जिनके हाथ में इसकी कमान है! जानकारों की इस बात में भी दम है कि कांग्रेस का सबसे बड़ा बोझ उसका अतीत है। पार्टी लंबे समय तक वैभवशाली और रसूखदार पार्टी रही है। यही कारण है कि अब उसके लिए वर्तमान की हकीकतों और भविष्य की संभावनाओं को स्वीकारना मुश्किल है। पार्टी का भविष्य, उसकी ताकत, उसकी कमजोरी के अलावा उसे मिलने वाले अवसर सीमित है। कांग्रेस ने बीते एक दशक में कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की, बल्कि खोया ज्यादा है। अब उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती तो पार्टी को एकजुट करने की ही है। राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के बहाने पार्टी को एक बड़ी अग्निपरीक्षा से गुजरना है! अब जिसके हाथ में पार्टी की कमान होगी, वो इस 136 साल पुरानी को कैसे और कब तक जिंदा रख पाता है, ये देखना है। 
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      कांग्रेस इन दिनों संक्रमण काल से गुजर रही है। कई बड़े नेता नाराज होकर पार्टी छोड़ रहे हैं तो कुछ नेता इतने मुखर हो गए कि अब सामने आकर बयानबाजी करने से भी संकोच नहीं कर रहे! जबकि, अभी तक कांग्रेस में नेतृत्व का खुलकर विरोध कम ही हुआ। उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी में खदबदाहट कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही। ऐसे में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की हलचल ने गुटबाजी का संक्रमण ज्यादा ज्यादा ही बढ़ा दिया। असंतुष्टों की एक जमात लम्बे समय से ग्रुप-23 बनाकर अपनी नाराजी जाहिर कर रही थी, अब ये दरककर बाहर जाने लगे। गुलाम नबी आजाद इसका ताजा उदाहरण है जो बाड़ा कूदकर निकल गए और आनंद शर्मा ने अपनी नाराजी जाहिर कर दी। उभरे असंतोष का लब्बोलुआब यह है कि पार्टी का अगला राष्ट्रीय अध्यक्ष न तो गांधी परिवार से हो और न उनका कोई ख़ास, जो उनके कहे से चले!    
      कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि अगर गांधी परिवार से अलग कोई कांग्रेस की कमान संभालता है, तो पार्टी में फूट पड़ने की आशंका ज्यादा है। पार्टी में अभी काफी गुट बन चुके हैं, ये गुट केवल गांधी परिवार के चलते ही एकजुट हो पाते हैं। अगर गांधी परिवार ने पार्टी की बागडोर छोड़ी, तो इनका विद्रोह तेज हो जाएगा। पार्टी के भविष्य के लिए यह एक तरह से खतरा है। जबकि, पार्टी के एक अन्य राष्ट्रीय स्तर के नेता का कहना है कि पार्टी पर परिवारवाद का आरोप लगता है। ऐसी स्थिति में किसी ऐसे चेहरे को यह जिम्मेदारी देना जरुरी है जो नेहरु-गांधी परिवार का विश्ववसनीय हो। लगता है मल्लिकार्जुन खड़गे पर आकर ते तलाश ख़त्म हो गई।
     कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए सही व्यक्ति की तलाश में कई चेहरे उजागर हुए! सबसे ज्यादा छीछालेदर हुई राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत की, जिन्हें गांधी परिवार के सबसे नजदीक समझा जाता था। उनसे मुख्यमंत्री पद नहीं छूटा, पर उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का मोह त्यागना पड़ा। फिर दिग्विजय सिंह सामने आए, पर कुछ ही घंटों में वे भी नेपथ्य में चले गए। इसके बाद मल्लिकार्जुन खड़गे अचानक सामने आए और पांसा पलट गया! क्योंकि, उनका नाम फ़ाइनल होने के साथ ही ये कयास सही साबित हुए कि गांधी परिवार से अलग जो भी पार्टी का अध्यक्ष होगा, वो गांधी परिवार का नजदीकी नेता ही होगा! यानी पार्टी में लोकतंत्र महज एक दिखावा ही है।  राज्यसभा में नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे गांधी परिवार के करीबी हैं। वे कर्नाटक से आते हैं और अगले साल कर्नाटक में भी चुनाव होने हैं। मल्लिकार्जुन यदि पार्टी अध्यक्ष बनते हैं, तो कांग्रेस दक्षिण के राज्यों पर फोकस कर सकती है। लेकिन, इससे उत्तर भारत के मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के कमजोर होने का खतरा है।
     ऐसे माहौल में यह भी सोचा जा रहा था कि राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव औपचारिक होगा। गांधी परिवार से मुक्त होने के बाद कांग्रेस उनके ही किसी व्यक्ति को कमान सौंप देगी। लेकिन, ये आशंका गलत निकली। पहले समझा जा रहा है कि जी-23 का कोई नेता चुनाव लड़ सकता है, पर वे साहस नहीं कर सके। लेकिन, ये तय है कि वे शशि थरूर के पीछे खड़े हैं। थरूर ने मलयालम दैनिक अखबार 'मातृभूमि' में एक लेख लिखकर 'स्वतंत्र और निष्पक्ष' चुनाव कराने का आह्वान किया था।
   यदि ये कहा जाए कि ये चुनाव शशि थरूर के आवाज उठाने की वजह से ही हो रहे हैं, तो गलत नहीं होगा। शशि थरूर ने ही 2020 में सोनिया गांधी को पत्र लिखकर संगठनात्मक सुधारों की मांग की थी। उन्होंने कहा था कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रतिनिधि सदस्यों को यह फैसला लेने दें कि इन अहम पदों पर पार्टी का नेतृत्व कौन करेगा! इससे आने वाले नेताओं के समूह को वैध बनाने और पार्टी का नेतृत्व करने के लिए उन्हें विश्वसनीय जनादेश देने में मदद मिलेगी। तिरुवनंतपुरम से सांसद शशि थरूर ने तब यह भी लिखा था कि फिर भी एक नए अध्यक्ष का चुनाव करना पुनरुद्धार की और एक शुरुआत है, जिसकी कांग्रेस को सख्त जरूरत है। मैं उम्मीद करता हूं कि चुनाव के लिए कई उम्मीदवार सामने आएंगे। पार्टी और देश के लिए अपने विचारों को सामने रखना निश्चित तौर पर जनहित को जगाएगा।
  अब शशि थरूर का कहना है कि अब की स्थिति में पार्टी को पूरी तरह से पुनर्जीवित करने की जरूरत है। लेकिन, नेतृत्व के जिस पद को तत्काल भरने की जरूरत है वह स्वाभाविक रूप से कांग्रेस अध्यक्ष का पद है। थरूर ने कहा कि चुनाव के दूसरे लाभ भी होते हैं। उन्होंने कहा कि उदाहरण के लिए, हमने हाल ही में नेतृत्व की दौड़ के लिए ब्रिटिश कंजरवेटिव पार्टी में कई लोगों की रुचि देखी। इसी तरह के बदलाव की जरूरत कांग्रेस को भी है। इससे पार्टी को लेकर नेशनल इंट्रेस्ट बढ़ेगा और बड़ी संख्या में मतदाता भी पार्टी को आकर्षित होंगे। इसी वजह से मैं चाहता हूं कि पार्टी के भीतर कई नेता इसके लिए आगे आएं। पार्टी के लिए अपने विजन को सामने रखें। इससे पब्लिक इंटरेस्ट जरूर पैदा होगा।
      कांग्रेस के अतीत के पन्ने पलटे जाएं तो 28 दिसंबर 1885 को थियोसोफिकल सोसायटी के प्रमुख सदस्य रहे एओ ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना की थी। स्थापना के वक्त ह्यूम के साथ 72 और सदस्य थे। पार्टी के गठन के बाद ह्यूम संस्थापक महासचिव बने और वोमेश चंद्र बनर्जी को पार्टी का पहला अध्यक्ष नियुक्त गया। इसके बाद से अब तक पार्टी को 56 अध्यक्ष मिल चुके हैं। सबसे ज्यादा 45 साल तक पार्टी की कमान नेहरू-गांधी परिवार के पास ही रही है। सिर्फ 1885 से लेकर 1919 तक नेहरू-गांधी परिवार का ज्यादा दखल नहीं रहा। 1919 में कांग्रेस पार्टी के अमृतसर अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू को नया अध्यक्ष चुना गया। 1928 में उन्हें कलकत्ता के अधिवेशन में फिर से पार्टी का अध्यक्ष चुन लिया। इसके बाद 1929 में कांग्रेस की कमान मोती लाल नेहरू के बेटे पं जवाहर लाल नेहरू को मिल गई। लगातार दो साल उन्होंने कमान संभाली, फिर सरदार वल्लभ भाई पटेल को नया अध्यक्ष चुन लिया गया। 1936 और 1937 में जवाहर लाल नेहरु फिर से अध्यक्ष बनाए गए। 
     देश की आजादी के बाद 1951 में फिर से कांग्रेस की कमान पं जवाहर लाल नेहरू को मिली। इस बार वो लगातार चार साल तक अध्यक्ष बने रहे। 1959 में कांग्रेस में इंदिरा गांधी की एंट्री हुई और वह अध्यक्ष बनीं। 1960 में इंदिरा के हाथ से कांग्रेस की कमान नीलम संजीव रेड्डी के पास चली गई। 1978 से 1983 तक फिर से इंदिरा अध्यक्ष रहीं। 1985 में कांग्रेस की कमान राजीव गांधी को मिली और छह साल तक उन्होंने कुर्सी संभाली। 1998 में सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद 2017 तक वह 19 साल तक पार्टी की टॉप लीडर बनी रहीं। 2017 में सोनिया ने बेटे राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सौंप दी। हालांकि कई राज्यों और लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद राहुल ने 2019 में अध्यक्ष पद छोड़ दिया। तब से सोनिया गांधी ही पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं।
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Saturday, October 1, 2022

सिनेमा में सतही रहा साबरमती का संत!

हेमंत पाल

   फिल्मों में राजनीति और नेताओं का जब भी और जहां भी जिक्र होता है, वो कभी सकारात्मक नहीं होता। अमूमन फिल्मों में ये किरदार भ्रष्ट व्यवस्था का प्रतीक बताए जाते हैं। लेकिन, जब भी गांधीजी का जिक्र हुआ, उन्हें सच्चे देशभक्त और मॉस कम्युनिकेटर के रूप में दिखाया गया। महात्मा गांधी यानी ऐसा सर्वमान्य व्यक्तित्व जिसकी एक आवाज पर पूरा देश उठकर खड़ा हो जाता था। गांधी को देश ने कभी व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा माना। जब बदलते समय की विचारधाराओं का समकालीन सिनेमा पर असर पड़ता रहा, तो सिनेमा पर भी गांधी विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ना तय है। लेकिन, उनके व्यक्तित्व को ढाई घंटे में परदे पर उतार पाना संभव नहीं रहा। इसके बावजूद समय-समय पर ये कोशिश होती हुई है। पर, वास्तव में सिनेमा ने पूरी तरह उनके साथ पूरा न्याय नहीं किया! जो फ़िल्में बनी, उनमें गांधीजी के व्यक्तित्व को सही मायनों में प्रतिबिम्ब नहीं किया। सालभर में हजारों फ़िल्में बनाने वाले भारतीय सिनेमा ने गांधी विचारधारा को सही तरह से प्रचारित करने में कंजूसी ही दिखाई! जो प्रयास किए गए, वे संख्या की दृष्टि से नगण्य ही कहे जाएंगे। इस मामले में जो अपार सफलता हासिल हुई, वो विदेशी फिल्मकार रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' से मिली। बेन किंग्सले ने गांधी के किरदार को जो जीवंतता दी, वो अद्भुत ही कही जाएगी। 
     जब भी सिनेमा में महात्मा गांधी का जिक्र आया, बात 'गांधी' से शुरू होकर 'लगे रहो मुन्ना भाई' पर ख़त्म हो जाती है। इस नजरिए से देखा जाए तो राजकुमार हिरानी ने गांधीवाद को एक नया नजरिया जरूर दिया, पर ये कोशिश आगे नहीं बढ़ सकी। लेकिन, ब्लैक एंड व्हाइट के युग में वी. शांताराम और विमल राय की फिल्मों ने गांधीवाद के आदर्श को प्रश्रय जरूर दिया। इस दौर की दो बीघा जमीन, दो आंखें बारह हाथ, आवारा और 'जागृति' को ऐसी ही फिल्में माना गया, जिनमें गांधी विचारधारा की झलक थी। पहले फ़िल्में देखना अच्छा नहीं समझा जाता था! किंतु, अब यह धारणा बदल गई। ऐसे में यदि किसी ने गांधी को नहीं पढ़ा, तो वे दर्शक 'गांधी' पर बनी हुई फिल्में देखकर गांधी दर्शन समझ सकते हैं। महात्मा गांधी के चरित्र ने फिल्मकारों को प्रभावित तो किया, पर उन पर फिल्म बनाने वाले कम हुए। गांधीजी के काल से अब तक कई फिल्में बन चुकी हैं। 
    गांधी चरित्र पर बनी फिल्मों में सबसे पहले जागृति (1954) में बनी थी। इसके गीत कवि प्रदीप ने लिखे थे। फिल्म का लोकप्रिय गाना था 'दे दी हमें आजाद बिना खड्ग बिना ढाल!' 1962 में बाल चित्र समिति ने 'बापू ने कहा' बनाई थी। इसमें नाना पलसीकर ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फिल्म में एक छोटा बालक बापू के आदर्शों से प्रभावित होता है और बापू के आदर्शों को अपने गांव में लोगों को सिखाता है। 1969 में बनी 'बालक' का गीत 'सुन ले बापू ये पैगाम मेरी चिट्ठी तेरे नाम' भी पसंद किया गया था। 'महात्मा : लाइफ ऑफ गांधी' में 1948 तक के गांधी जीवन और भारत की आजादी के लिए उनके संघर्ष को दिखाया था। अंग्रेजी में बनी यह फिल्म ब्लैक एंड वाइट थी और इसे बेहद पसंद किया गया था। बाद में इस फिल्म को हिंदी में भी बनाया गया। इसके बाद लम्बे अरसे तक फिल्मकारों का इस तरफ ध्यान नहीं गया। 
   1982 में रिचर्ड एटनबरो की 'गांधी' में मुख्य भूमिका बेन किंग्सले ने निभाई थी। यह फिल्म गांधी की बायोग्राफी पर केंद्रित थी। इसे 8 ऑस्कर अवॉर्ड मिले थे।ऑस्कर के साथ ही बाफ्टा, ग्रैमी, गोल्डन ग्लोब और गोल्डन गिल्ड समेत 26 अवार्ड मिले थे। इसके बाद 1993 में आई फिल्म 'सरदार' केतन मेहता ने निर्देशित की जिसमें अन्नू कपूर ने महात्मा गांधी का किरदार निभाया। इसमें गांधी और सरदार पटेल के वैचारिक मतभेद को दर्शाया था। वास्तव में यह फिल्म दो महापुरुषों के रिश्तों को समझने का बेहतरीन उदाहरण थी। इसमें सरदार पटेल का चरित्र परेश रावल ने निभाया था। 1996 में 'मेकिंग ऑफ महात्मा' का निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया, जिसमें गांधी की भूमिका रजत कपूर ने निभाई। इसमें मोहनदास करमचंद गांधी के 'महात्मा' बनने की कहानी को विस्तार से दिखाया गया। ब्रिटेन और अफ्रीका में रहने के दौरान गांधीजी ने क्या देखा और उससे उनके जीवन में क्या कुछ बदलाव हुआ इस पूरी यात्रा को काफी प्रभावी ढंग से इस फिल्म में दिखाया गया है।  
    सन 2000 में बनी 'हे राम' को कलाकार कमल हसन ने बनाया और फिल्म की कहानी भी उन्होंने ही लिखी। उन्हीं के निर्देशन में यह फिल्म बनी। इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह ने गांधी का किरदार निभाया। इसमें विभाजन के बाद फैली अशांति और गांधीजी के हत्या के बीच की कहानी दिखाई थी। 2005 में आई फिल्म 'मैंने गांधी को नहीं मारा' जानू बरुआ के निर्देशन में बनी थी। फिल्म में अनुपम खेर ने उत्तम चौधरी की भूमिका निभाई थी, जो यह स्वीकार करता है कि उसने ही गांधी की हत्या की है। उसके बाद उनकी बेटी उर्मिला मातोंडकर यह पता लगाने की कोशिश करती है कि क्या सच में उसके पिता ने गांधी की हत्या की है या कोई और बात है! 
   राजकुमार हिरानी के निर्देशन में आई फिल्म 'लगे रहो मुन्ना भाई' में मुख्य भूमिका में संजय दत्त थे। इसमें अरशद वारसी और बोमन ईरानी ने भी काम किया था। यह फिल्म गांधी विचारधारा पर बनी थी और इसमें उनकी शिक्षाओं पर भी रोशनी डाली गई थी। फिल्म में दिखाया गया था कि आज के दौर में गांधी की प्रासंगिकता क्यों जरूरी है! फिल्म में बेहद मनोरंजक ढंग से गांधी के किरदार को परदे पर उतारा था। इसमें मूल किरदार को गांधी विचारधारा से प्रभावित दिखाया था। लेकिन, जब भी यह किरदार गलत रास्ते पर चलने की कोशिश करता है, उसे बापू नजर आते हैं। इस कॉमेडी फिल्म में आज के युग की गांधीगिरी को बेहद रोचक अंदाज में प्रचारित किया गया था। 
      फिरोज अब्बास मस्तान के निर्देशन में 2007 में बनी फिल्म 'गांधी माई फादर' महात्मा गांधी और उनके बेटे हरिलाल के रिश्तों पर केंद्रित थी। गांधी का किरदार दर्शन जरीवाला ने और बेटे की भूमिका में अक्षय कुमार थे। हरिलाल को लगता है, कि देश के पिता होने के बावजूद महात्मा गांधी एक अच्छे पिता होने में असफल रहे। इस फिल्म को नेशनल अवार्ड मिला था। 2018 में आई फिल्म 'गांधी : द कॉन्सपिरेसी' को अल्जीरिया के निर्देशक करीम टांडिया ने बनाया था। यह फिल्म भारत विभाजन के बाद से गांधीजी की हत्या तक के घटनाक्रम पर आधारित थी। इसमें गांधी का किरदार एक्टर, प्रोड्यूसर और राइटर जीसस सेंस ने निभाया था। इन सारी फिल्मों में आजादी के समय के गांधीवाद से लगाकर आजतक की गांधीगिरी को समाहित किया गया, जिसे दर्शकों ने पसंद भी किया। 
   चीनी मूल के घुमंतू फोटोग्राफर एके चेट्टियार ने 1938 में लगभग एक लाख किलोमीटर की भारत यात्रा के बाद गांधीजी के प्रति आस्था और प्रभाव को देखते हुए एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'महात्मा गांधी 20 सेंचुरी प्रोफेट' (बीसवीं सदी के पैगंबर महात्मा गांधी) बनाई थी। 15 अगस्त 1947 को दिल्ली में इसका प्रसारण किया गया था। 1953 में वे इस फिल्म को अंग्रेजी में डब करके वे अमेरिका भी ले गए जहां तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डीडी आइसन होवर और उनकी पत्नी के लिए के ख़ास स्क्रीनिंग की। एक समय के महान कलाकार चार्ली चैपलिन भी गांधी जी से बहुत प्रभावित थे। 1936 में चैपलिन ने अपनी फिल्म 'मॉडर्न टाइम्स' में मशीनीकरण के कारण मजदूरों के मजदूरों के हो रहे नुकसान को दर्शाता जो महात्मा गांधी की ही प्रेरणा थी।
    1940 में चार्ली की क्लासिक फिल्म 'द ग्रेट डिक्टेटर' आई थी, जिसमें हिटलर के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध को चार्ली ने फिल्म का मूल विषय बनाया था। गांधीजी पर फिल्मों के अलावा कई डॉक्यूमेंट्री भी बनी। महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की मानसिकता पर 1963 में जेएस कश्यप ने 'नाइन ऑवर्स टू रामा' बनाई। 1968 में 'महात्मा : लाइफ ऑफ गांधी' बनी और फिर आई 'महात्मा गांधी : ट्वेंटिएथ सेंचुरी प्रोफेट।' आशय यह कि अभी भी सिनेमा के परदे पर गांधीजी को जीवंत किया जा सकता है। पर, कोई फिल्मकार हिम्मत तो करे! क्योंकि, गांधी एक व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा है और विचार कभी नहीं मरते। कोई नाथूराम गोडसे भी गांधी विचारों की हत्या नहीं कर सकता।
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