Sunday, July 31, 2016

सेरोगेसी, कुंवारा हीरो और समाज

हेमंत पाल 

   महमूद के निर्देशन में 1974 में अमरलाल छबरिया में एक फिल्म बनाई थी 'कुंवारा बाप' जिसमें एक ऐसे बाप की परेशानियों को दर्शाया गया था, जो एक लावारिस बच्चे को पिता बनकर पालता है। महमूद जैसे कॉमेडियन ने लावारिस बच्चों के इस गंभीर विषय को उठाकर दर्शकों को झकझोर दिया था! वो तो फिल्म थी, लेकिन 'कुंवारा बाप' बनने का जीवंत कारनामा एक अभिनेता ने वास्तव में कर दिखाया! जीतेन्द्र के बेटे तुषार कपूर ने एक्टिंग में अपने पिता की तरह कोई झंडे तो नहीं गाड़े, पर वे 'कुंवारा बाप' जरूर बन गए। तुषार की उम्र करीब 40 साल है, उन्होंने अभी तक शादी नहीं की! लेकिन, तुषार कपूर आईवीएफ और सरोगेसी के ज़रिए एक बेटे के पिता बन गए। भारतीय संस्कृति में पिता के नाम से वंश को आगे बढ़ाने की जो परंपरा है, तुषार ने अपना वो दायित्व भी निभा दिया! उन्होंने सरोगेसी तकनीक से पिता बनने का फैसला निर्देशक प्रकाश झा की सलाह से किया! बॉलीवुड में सेरोगेसी से माता-पिता बनाना नई बात नहीं है! नया सिर्फ ये है कि तुषार ने बिना शादी के इस तकनीक से पिता बनने का साहस किया! मुद्दे की बात ये है कि हमारा रूढ़ीवादी समाज भी अब इस तरह के बदलाव को स्वीकारने लगा है। कुंवारेपन में बच्चे गोद लेकर तो सुष्मिता सेन, रवीना टंडन और प्रीती जिंटा समेत कई एक्ट्रेस माँ बन चुकी है। सुष्मिता को छोड़कर बाद में सभी ने शादी भी कर ली!  
  बॉलीवुड में इन दिनों सेरोगेसी का ट्रेंड सा चल रहा है। कई कपल्स सेरोगेसी से पेरेंट्स बनने की इच्छा पूरी कर रहे हैं। जानी-मानी डांस डायरेक्टर फराह खान ने 40 की उम्र में शिरीष कुंदर से शादी की! क्योंकि, इस उम्र में वे बच्चा कंसीव नहीं कर सकती थी। इसलिए फराह और शिरीष ने आईवीएफ ट्रीटमेंट की मदद ली और फराह को एक साथ तीन बच्चे पैदा हुए! सोहेल खान और उनकी पत्नी सीमा ने पहले बेटे जन्म के बाद और शादी के 10 साल होने पर सरोगेसी ट्रीटमेंट का फैसला किया। 2011 में दोनों एक बेटे के माता-पिता बनें। दो बच्चों के बाद शाहरूख ने तीसरे बच्चे के लिए आईवीएफ सरोगेसी अपनाई और तीसरे बच्चे के पेरेंट्स बने। आमिर खान पहली शादी रीना दत्त से हुई थी। रीना से आमिर के दो बच्चे हैं। रीना को तलाक देने के बाद आमिर ने किरण राव से शादी की! लेकिन, किरण की प्रेगनेंसी में कुछ परेशानी थी, इस कारण दोनों ने आईवीएफ सरोगेसी की मदद ली और 2011 में उनके यहाँ बेटे का जन्म हुआ!
  बॉलीवुड निर्देशक करण जौहर भी बिना शादी के पिता बनने जा रहे हैं! लेकिन, वे बच्चे को गोद लेकर पिता बनना चाहते हैं। सुष्मिता सेन ने तो तीन लड़कियां गोद ली और अभी तक शादी भी नहीं की! रवीना टंडन भी उन एक्ट्रेस में से एक हैं, जिसने शादी से पहले दो बेटियों को गोद लिया था। एक की शादी हो चुकी है और एक बच्चे की मां भी बन चुकी हैं। सलमान खान के पिता सलीम खान ने एक अनाथ बच्ची अर्पिता को गोद लेकर पाला, जिसकी शादी सलमान ने बड़ी धूमधाम से की थी! खबर ये भी है कि सलमान ने भी एक 6 महीने के अनाथ बच्चे को गोद लिया है। निर्देशक सुभाष घई ने भी एक बेसहारा बच्ची मेघना को सहारा दिया! मेघना के प्रति उनका लगाव इतना ज्यादा है कि उनके प्रोडक्शन हाउस और एक्टिंग स्कूल की देखभाल मेघना ही करती है। एक्टर मिथुन चक्रवर्ती के तीन बच्चे हैं, फिर भी उन्होंने एक बेटी गोद ली है। नीलम और समीर सोनी ने भी शादी के दो साल बाद एक बच्ची को गोद लिया! ये लिस्ट अभी अधूरी है, बॉलीवुड के कई और कपल्स इस विकल्प को अपनाने के लिए सामने आ सकते हैं।  
  हॉलीवुड में भी बच्चों को गोद लेकर पेरेंट्स बनने वालों की कमी नहीं है। एक्ट्रेस एंजेलिना जोली और उनके ब्वॉयफ्रेंड ब्रेड पिट अब तक तीन बच्चे गोद ले चुके हैं। उनके खुद के भी तीन बच्चे हैं। निकोल किडमैन ऑस्ट्रेलियाई एक्ट्रेस, सिंगर और फिल्म प्रोड्यूसर हैं। दो बार शादी कर चुकीं निकोल अपने पहले पति टॉम क्रूज के साथ दो बच्चों को गोद ले चुकी हैं। चार्लीज की पहचान अमेरिकी और अफ्रीकी एक्ट्रेस के रूप में है। कई हॉलीवुड फिल्मों में अपनी अदाओं का जादू चला चुकी चार्लीज ने अब तक शादी नहीं की, लेकिन उनका गोद लिया बेटा है जैक्सन थेरॉन। उन्होंने इस बेटे को 2012 में गोद लिया था। हॉलीवुड एक्ट्रेस और प्रोड्यूसर कैथरीन हीगल अपने पति के साथ मिलकर दो बच्चियों को गोद ले चुकी हैं। अमेरिकी एक्ट्रेस और सिंगर मिशेल मैरी फीफर शादी के पहले ही मां बन गई थीं। 1993 में डेविड ई केली से शादी करने से पहले उन्होंने क्लाउडिया रोज को गोद लिया था। मिशेल ने डेविड से दूसरी शादी की थी, जबकि उनकी पहली शादी 1988 में तलाक के साथ ख़त्म हो गई थी। हॉलीवुड के बाद अब बॉलीवुड में भी सेरोगेसी ट्रीटमेंट और गोद लेने का चलन बढ़ रहा है। लेकिन, तुषार कपूर ने जो किया वो एक नया कदम है! हमारे यहाँ हीरो को प्रेरणा मानकर उसके नक्शेकदम पर चलने का चलन भी है! अब देखना कि कितने लोग तुषार कपूर की तरह 'कुंवारा बाप' बनने का साहस कर पाते हैं!
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Saturday, July 30, 2016

बुंदेलखंड की कमाई से भरती है मध्यप्रदेश की तिजोरी


- हेमंत पाल 

  बुंदेलखंड अलग राज्य न बने, इसके लिए मध्यप्रदेश हर संभव कोशिश करता  रहा है। एक तर्क ये भी दिया जाता है कि बिना आर्थिक सम्पन्नता के कोई नया राज्य कैसे बन सकता है? उस राज्य का खर्च कैसे चलेगा? केंद्र से कर्ज लेकर कोई नया राज्य कब तक स्थापना खर्च चलाएगा? जबकि, बुंदेलखंड की आर्थिक सम्पन्नता किसी से छुपी नहीं है! मध्यप्रदेश के जिन छ: जिलों को पृथक बुंदेलखंड में शामिल किए जाने की मांग हो रही है, वे भी खनिज संपदा के मामले में धनी हैं। अकेले पन्ना जिले से केंद्र सरकार को 700 करोड़ रुपए और मध्यप्रदेश सरकार को करीब 1400 करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त होता है। पन्ना पिछले 5000 सालों से हीरा खदानों के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है। यहां अब तक करीब 40 हजार कैरेट हीरा निकाला जा चुका है, जबकि अनुमान है कि 14 लाख कैरेट के भंडार अभी मौजूद हैं।
  बुंदेलखंड के तालाबों की मछलियां कोलकाता में खूब बिकती हैं। यहां के जंगलों में मिलने वाला तेंदूपत्ता हरा सोना कहा जाता है। खजुराहो और दतिया जैसे पर्यटन स्थल सालभर लोगों को आकर्षित करते रहते हैं। बीना (सागर) में मध्यप्रदेश की संभवत: सबसे बड़ा उद्योग ‘तेल शोधक परियोजना’ तैयार है। इस पर करीब 6400 करोड़ रुपए व्यय हुए हैं। 60 लाख टन ली. क्षमता का यह तेल शोधक संयन्त्र भारत तथा ओमान सरकार के सहयोग से स्थापित हुआ है। अनुमान है कि दोनों राज्यों के बुंदेलखंड मिलकर लगभग 1000 करोड़ रुपए का राजस्व सरकार के खाते में जमा कराते हैं, लेकिन दुर्भाग्य इसका 10 फीसदी भी उस पर खर्च नहीं होता। यह ठीक वैसी स्थिति है जब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश एक थे। छत्तीसगढ़ कमाता था और मध्यप्रदेश उसके हिस्से को डकारता था। अब मध्यप्रदेश नहीं चाहता कि बुंदेलखंड भी उससे मुंह मोड़ ले! यदि बुंदेलखंड अलग राज्य प्रांत बनता है, तो मध्यप्रदेश के हाथ से खजाना निकल जाएगा। कारखानों की बात छोड़ दी जाए, तो ज्यादातर खनिज संपदा का सरकार से ज्यादा माफिया दोहन कर रहा है। यह भी बुंदेलखंड के पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण है।
  सन 1950 में जब बुंदेलखंड में व्यापक सर्वेक्षण का कार्य हुआ तो इसके काफी अच्छे नतीजे देखने को मिले। ग्रेनाइट, सिलिका, गैरिक, गोरा पत्थर, बाक्साइट, चूना, डोलोमाइट, फास्फोराइट, जिप्सम, ग्लैकोनाइट, लौह अयस्क आदि खनिजों का प्रचुर भंडार मौजूद है। जबकि, कहा ये जाता है कि बुंदेलखंड खनिज रहित है। लम्बे समय तक लोगों की यही धारणा रही कि हीरा को छोड़कर बुंदेलखंड खनिज के मामले में बंजर है। वास्तविकता ये है कि ये धरती लोहा, सोना, चाँदी, शीशा, हीरा और पन्ना से समृद्ध है। यहां हिनौता, मझगवां तथा छतरपुर जनपद के अंगोर नामक स्थान में भी हीरा मिलने की संभावना व्यक्त की गई है। ये सच चौंका सकता है कि अभी तक बुंदेलखंड में 40 हजार कैरेट से ज्यादा  हीरा निकाला जा चुका है! अभी भी 14 लाख कैरेट हीरे के भंडारों खुदाई शेष है। कहा गया है कि हीरे की नई खोजी गई खदानों से भी इतना ही कच्चा हीरा मिल सकता हैं। नेशनल मिनरल डेवलमेन्ट कॉर्पोरेशन पन्ना द्वारा से 62 मीटर गहरी खुदाइ की जा चुकी है। जबकि, यहाँ छिछली खदानें बड़े भूखंड में फैली हैं। अकेले पन्ना में ही हीरे का वार्षिक उत्पादन 26 हजार कैरेट है! इससे राज्य सरकार को करोड़ों की रॉयल्टी सरकार को मिलती है। संभावित नई खदानों से आय वृद्धि की संभावना है।
   इसके अलावा यहाँ चूना पत्थर भी प्रचुर मात्रा में मौजूद है। बुंदेलखंड में वास्तु पत्थर के अक्षय भंडार उपलब्ध हैं। बालू पत्थर आदिकाल से अपने रंगों, समान कणों, सुगम उपलब्धता तथा स्थायित्व के लिए उत्तर भारत में वास्तु पत्थर के रुप में प्रसिद्ध है। यहाँ मिलने वाला ग्रेनाइट पत्थर भी अपनी कठोरता, रंग, अक्षयता तथा खूबसूरती के कारण अलंकरण पत्थर के रुप में लोकप्रिय है। जर्मनी, जापान, इटली में इसकी भारी मांग है। निर्माण कार्यों में उपयोग होने वाली रेत के भी यहां असीम भंडार हैं। कांच उद्योग में प्रयोग होने वाली बालू के भंडार इतने हैं कि पूरे देश की 80% मांग यहीं से पूरी हो सकती है। अनेक स्थानों में सिलिका की मात्रा 99.2% तक है। क्राकरी निर्माण में प्रयुक्त गोरा पत्थर भी कई स्थानों में मिलता है। इसका प्रयोग मृत्तिका शिल्प तथा दुर्गलनीय ईटों के उद्योगों में भी होता है। इसके ज्ञात भंडारों का आकलन 43 लाख टन किया गया है। अन्य भंडारों का सर्वेक्षण अभी होना है। 70 किमी से अधिक लम्बी उत्तर-पूर्व और दक्षिण पश्चिम संरेखित स्फटिक शैल भित्तियों से इनका अनुवांशिक संबंध बताया जाता है। विंध्य पर्वत पर पाई जाने वाली चट्टानों के नाम उसके आसपास के स्थान के नामों से प्रसिद्ध है। जैसे माण्डेर का चूना का पत्थर, गन्नौर गढ़ की चीपें, रीवा और पन्ना के चूने का पत्थर, विजयगढ़ की चीपें आदि।
  बुंदेलखंड में पाए जाने वाले खनिजों में फास्फोराइट, गैरिक जिप्सम, ग्लैकोनाइट, लौह अयस्क, अल्प मूल्य रत्न हैं। संभावित खनिजों की सूची में तांबा, सीसा, निकिल, टिन, टंगस्टन, चांदी, सोना आदि हैं। बुंदेलखंड के एक बड़े भू-भाग चौरई में ग्रेनाइट चट्टानें पाई जाती हैं। यह चट्टानें अधिकतर रेडियोधर्मी यूरेनियत युक्त होती हैं। इसकी मात्रा 30 ग्राम प्रति टन तक हो सकती है। ललितपुर में हुए सर्वेक्षण के द्वारा इस संभावना को बल मिला है। यहाँ एल्युमिनियम  भंडारों को भी पता चला है। बांदा और आसपास के क्षेत्रों में एल्यूमीनियम अयस्क बॉक्साइट का पता चला है। अनुमान है कि ये भंडार प्रति वर्ष एक लाख टन एल्यूमीनियम उत्पादन की क्षमात वाले कारखाने को कम से कम 35 वर्षों तक अयस्क प्रदान कर सकता है। छतरपुर में चूने के पत्थर प्रचुर मात्रा में हैं। अन्य स्थानों में सर्वेक्षण जारी है। बांदा जनपद में झोंका भट्टी के उपयुक्त गालक श्रेणी के डोलोमाइट का आंकलित निकाय लगभग 60 करोड़ टन से अधिक है। मृतिका शिल्प की उपयुक्त सफेद चिकनी मिट्टी के वृहद भंडार हैं। जो 5 लाख टन से अधिक है। बांदा के लखनपुर इलाके में यह 2 लाख टन से अधिक है।
सोना है, हीरा भी और पत्थर भी!
  बुंदेलखंड में कई प्रकार के खनिज उपलब्ध हैं। चित्रकूट में बाक्साइट, झांसी, महोबा, ललितपुर में डायस्पोर, पायरोफाइलाइट, झांसी में सिलका सेंट, ग्रेनाइट, बांदा में पालिश, स्लेब और टायल इत्यादि खनिज मिलते हैं। बालू के भी बडे़ भंडार हैं। चित्रकूट के मानिकपुर में 84 लाख टन बाक्साइट उपलब्ध है। ललितपुर में लौह अयस्क जिसमें 30 प्रतिशत लोहा होता है भारी मात्रा में उपलब्ध है। झांसी के बड़ा गांव और मऊरानीपुर में अभ्रक पाया जाता है। बुंदेलखंड में सोना और चांदी भी मिलता है। ललितपुर की चट्टानों में प्रति एक टन खनिज में 2.78 ग्राम प्लेटियम, 2.2 ग्राम पैलेडियम, 7.74 ग्राम रेडियम और 3.4 ग्राम सोना तथा 3.61 ग्राम चांदी पाई जाती है। यहां की मिट्टी में और भी कई खनिज पाए जाते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक बांदा जनपद के कालिंजर क्षेत्र में बागै नदी पर हीरे के संकेत मिले हैं। यहां किंबरलाइट द्वारा खोज जारी है। बुंदेलखंड विकास मंच महामंत्री श्री सिद्दीकी ने कहा है कि बुंदेलखंड में पाए जाने वाले खनिज तत्वों पर आधारित तमाम उद्योग स्थापित किए जा सकते हैं। अभी भी यहां सरकारी सूचनाओं के मुताबिक 253 खनिज आधारित उद्योग हैं। झांसी और महोबा में 84-84, ललितपुर में 23 और चित्रकूट में 30 उद्योेग हैं, जो काफी कम हैं।
   लौह अयस्क के भंडार मानिकपुर कर्वी, बेरवार, बेरार, ललितपुर में अनुमानतः 10 करोड़ टन खनिज हैं। इसमें 35 से 67 प्रतिशत लौह प्राप्त हैं जो स्पंज आयरन के लिए उपयोगी है। सोनरई (ललितपुर) में 400 मीटर से 1000 मीटर लम्बे तथा 1 से 3 मीटर मोटे ताम्र अयस्क भंडार हैं, जिनमें 0.5 प्रतिशत तांबा है। शीशे के बालू, बरगढ़ (कर्वी) में अनुमानतः 5 करोड़ टन है जो विभिन्न स्तरीय है। नरैनी (बांदा) में स्वर्ण की प्राप्ति 2 ग्राम प्रति टन है। बॉक्साइट भण्डार बांदा में 83 टन अनुमानित है। सीसा अयस्क, गैलिना टीकमगढ़ जिले के बंधा बहादुरपुर तथा दतिया में पाए जाते हैं। इसके लिए टीकमगढ़ जिले में ग्रेनाइट पॉलिशिंग का कारखाना लगाया जा सकता है। दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर जिले में पायरोंफायलाइट, पोतनी मिट्टी औद्योगिक दृष्टि से उपयोगी है। एस्बेस्ट्स तथा निकिल सागर में मौजूद है। लौह अयस्क टीकमगढ़, छतरपुर, सागर जिले में प्राप्त हैं। ताम्र अयस्क के भण्डार छतरपुर, बॉक्साइट के भंडार पन्ना, सागर तथा मणि पत्थर दतिया में हैं। इसके बाद भी कोई ये कहे कि बुंदेलखंड में आत्मनिर्भरता की संभावना नहीं है, तो ये भ्रम है या साजिश!
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Friday, July 29, 2016

जीत के टॉनिक के बाद भी कांग्रेस थकी और मायूस

   मध्यप्रदेश में कांग्रेस कहाँ है? जहाँ उसे होना चाहिए वहाँ से तो नदारद ही है। विधानसभा में विपक्ष की सशक्त भूमिका निभाने के बजाए कांग्रेस दुबकी सी लगती है? ताकतवर भाजपा के सामने छोटी-बड़ी कोई भी जीत कांग्रेस को उत्साहित नहीं करती? इतनी थकी और मायूस पार्टी कैसे चुनाव में मुकाबला कर पाएगी? ये वो सवाल हैं जो हर वो व्यक्ति पूछ रहा है, जो राजनीति की तासीर को समझता है! क्योंकि, प्रदेश में बारह साल के भाजपा शासन के दौरान कभी नहीं लगा कि विपक्ष के रूप के कांग्रेस कहीं मौजूद है! अभी तक जो कांग्रेस दिखाई दे रही है वो अपने आकाओं के नाम से बंटी पार्टी है! कहीं दिग्विजय कांग्रेस है, कहीं कमलनाथ के लोग तो कहीं ज्योतिरादित्य के दरबारी! जो बचे हैं, वो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव का बिल्ला लगाए घूम रहे हैं! जिस कांग्रेस को राजनीति के मोर्चे पर भाजपा के खिलाफ ख़म ठोंककर खड़ा होना था, वो प्रायोजित लड़ाई लड़ने में व्यस्त हैं! विपक्ष की जो भूमिका सामने आई वो मीडिया को दिखानेभर को है। 

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हेमंत पाल 
  तीन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की लगातार हार के बाद भाजपा ने जश्न मनाया था कि कांग्रेस अब ख़त्म हो गई! भाजपा के लिए ऐसा करना जरुरी था! क्योंकि, उसे अपनी ताकत का अहसास हो गया था! लेकिन, इसके बावजूद कभी नहीं लगा कि कांग्रेस ने जवाबी हमला करते हुए भाजपा को अपनी ताकत दिखाई हो! संख्यात्मक मान से कांग्रेस के पास विधायक कम हों, लेकिन मुद्दे उठाने में कांग्रेस हमेशा छुपती और बचती ही रही! जबकि, इतिहास गवाह है कि एक वक्त लोकसभा में दो सीटों पर पहुंचकर भी भाजपा ने विपक्ष की कमी महससू नहीं होने दी थी। सीधी सी बात है, संख्या के बग़ैर भी विपक्ष अपनी मौजूदगी का अहसास करा सकता है। पर, क्या मध्यप्रदेश में कांग्रेस ऐसा कुछ कर पा रही है? प्रदेश में कांग्रेस की विपक्ष की भूमिका को लेकर पार्टी हाईकमान की ईमानदार समीक्षा जरुरी है। क्योंकि, कांग्रेस न तो हार से मायूस होती है न जीत से उत्साहित! गुटबाजी में बंटी, चापलूस नेताओं से घिरी, हवाबाज और कॉर्पोरेट कल्चर वाले समझौतावादी नेताओं को जबतक कांग्रेस किनारे नहीं करेगी, उसके फिर खड़े होने की उम्मीद बहुत कम है! 
    कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक ट्वीट के जरिए अपनी पार्टी के प्रभारी प्रतिपक्ष नेता बाला बच्चन को सिंहस्थ में हुए घोटाले को विधानसभा में उठाने की सलाह दी! उन्होंने कहा कि कांग्रेस विधायक दल को सिंहस्थ में हुए भ्रष्टाचार को विधानसभा में मजबूती से उठाना चाहिए। इसका सीधा सा आशय यही है कि उनको इस मुद्दे पर कांग्रेस की दलीलें कमजोर पड़ने अंदेशा होगा! इस मामले पर विधानसभा में जो हंगामा भी हुआ! पर, दिग्विजय सिंह की सलाह का एक मतलब ये भी है कि विधानसभा में कांग्रेस कोई भी मुद्दा ईमानदारी से नहीं उठा रही है! ये सच भी है। ऐसे कई मामले हैं, जिन पर सरकार को कांग्रेस कटघरे में खड़ा कर सकती थी, पर नहीं कर सकी!
  मध्यप्रदेश के लोग कांग्रेस को मिटते देखना नहीं चाहते! बल्कि, सशक्त विपक्ष के रूप में सरकार के सामने खड़ा देखना चाहते है! क्योंकि, यदि वास्तव में जनता ऐसा चाहती तो जो 50-55 विधायक सदन में नजर आ रहे हैं, वो भी नहीं होते! ये मुश्किल भी नहीं था! लेकिन, लोगों ने कांग्रेस को जो जिम्मेदारी दी थी, उसमें वो फेल ही रही! लोग भी कांग्रेस की लगातार हारों से खुश नहीं थे! उन्हें लगा कि इससे भाजपा में उच्श्रृंखलता आ रही है! ये सच भी था! यही कारण है कि झाबुआ लोकसभा की जीत के बाद जनता ने उसे कुछ निकायों में जीत का टॉनिक दे दिया! ये सब 'मिशन-2018' में संभलने के लिए ही है! इसके बावजूद कांग्रेस की आत्ममुग्धता में कोई कमी नहीं आई! इससे बड़ा आश्चर्य क्या होगा कि विधानसभा में प्रतिपक्ष का नेता लंबे समय से बीमार है, पर उसकी जगह किसी और को ये दायित्व नहीं सौंपा जा रहा! ये अकेली गलती नहीं है! बीते सालों में कांग्रेस ने भाजपा को पनपने का पूरा मौका दिया है। अब यदि पार्टी को अपनी गलतियां सुधारना है तो उसे अपनी ग़लतियों पर खुलकर बात करनी होगी। ईमानदार और युवा और ईमानदार नेताओं को सत्ता पक्ष के सामने खड़ा करना होगा! निर्वाचित प्रतिनिधियों में जान डालना होगी कि वे जनता में भरोसा अर्जित करें!  
  कागजों पर पार्टी अपने आपको कितना भी ताकतवर बताए, लेकिन सतह पर कांग्रेस की जड़ता टूटती नहीं दिखती! उसके दावों में राजनीतिक ख़ालीपन है। अच्छे भविष्य की कोई संभावना दिखाई नहीं देती! पिछले 12 सालों में प्रदेश में कांग्रेस ने हर नेता को मौका दिया! कोई भी पार्टी की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा! कांग्रेस ऊपर से लेकर नीचे तक थकी नज़र आ रही है। यह मीडिया में बनी धारणा है या हकीकत कुछ और है? कांग्रेस कई बार हारी, टूटी और धूल झाड़कर फिर खड़ी हुई! अब भी खड़ी हो सकती है। पर उसके लिए आत्म शक्ति जरुरी है। राजनीति को ग़ौर से देखने पर लगता है कि कांग्रेस में कई स्तरों पर असंतोष पनप रहा हैं। लेकिन, इस असंतोष को को ठंडा करने के कोई प्रयास नहीं हो रहे! वास्तव में आज हर दल कांग्रेस जैसा हो गया है। देश की राजनीतिक हकीकत कांग्रेस कल्चर ही है। आज का राजनीतिक भारत कांग्रेस से कहीं ज्यादा 'कांग्रेस युक्त भारत' है। भाजपा में कई सांसद और विधायक कांग्रेस से ही आए हैं। यही कारण है कि दोनों पार्टियों के बीच सामंजस्य का पुल बन गया!  
   कांग्रेस के नेताओं के लिए इससे शर्मनाक क्या हो सकता है कि विधानसभा में कांग्रेस के सारे विधायक वो नहीं कर सके जो मंत्री पद से हटाए गए भाजपा के बाबूलाल गौर ने एक झटके में कर दिया! उन्होंने निकाय चुनाव में भाजपा की हार को जनता का मत करार दिया! मिट्टी मिले के मामले में भी गौर ने बचाव करने के बजाए सरकार पर सड़ा हुआ गेहूं बांटने का आरोप लगाया। उन्होंने विधानसभा में भोपाल और इंदौर में मेट्रो ट्रेन को लेकर सवाल उठाया था। संतोषजनक जवाब नहीं मिल पाने पर उन्होंने नगरीय प्रशासन मंत्री को घेर लिया और कहा था कि यदि वे नगरीय प्रशासन मंत्री होते तो अब तक इंदौर-भोपाल में मेट्रो चल जाती! बजट पर सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए गौर ने कहा कि सरकार कर्ज लेकर घी पी रही है। उन्होंने सरकार की फिजूल खर्ची पर भी तल्ख टिप्पणी की और कहा कि सरकार 16 करोड़ रुपए की गाड़ी खरीद रही है, जो जरूरी नहीं! उन्होंने अनुपूरक बजट के प्रावधानों को लेकर भी सवाल उठाए। कहा कि इस साल जितने बजट (लगभग 1 लाख 50 हजार करोड़ रु.) का प्रस्ताव सरकार लेकर आ रही है, उसके बराबर तो प्रदेश पर कर्ज हो गया। गौर ने कोई नई बात नहीं की! पर क्या इतनी ही तल्खी से ये सवाल कांग्रेस नहीं उठा सकती थी? दरअसल, मध्यप्रदेश में आज स्थिति ये है कि कांग्रेस को कांग्रेस से ही लड़ना पड़ रहा है। हाल में मिली जीत से उसके पास एक बार फिर नया होने का मौका आया है। यदि अभी भी पार्टी नहीं संभली, तो एक दिन उसे फिर यू-टर्न लेना पड़ेगा! हो सकता है पिछले तीन चुनावों की तरह 2018 भी कांग्रेस के लिए न हो! पर, यदि है तो उसे अभी से साबित करके दिखाना होगा!  
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Sunday, July 24, 2016

घरों में अब नहीं गूंजते टाइटल सांग

- हेमंत पाल 
  टाइटल सांग किसी भी टीवी सीरियल की जान होते हैं। ये सांग किसी बड़े शोरूम की शो-विन्डो की तरह होते हैं, जिसे देखकर शोरूम की भव्यता का अंदाजा लगता है। वैसे ही जैसे किसी फिल्म का ट्रेलर या प्रोमो! लेकिन, आज शायद ही किसी सीरियल की शुरूआत टाइटल सांग होती हो! याद कीजिए 90 के दशक के सर्वाधिक सफल सीरियल 'महाभारत’ का शीर्षक गीत 'अथ श्री महाभारत कथा' आज भी कानों में गूंजता है। 'रामायण’ का टाइटल सांग' भी अद्भुत था 'महिमा दो अक्षर के नाम की’ के बोल और संगीत तो कानों में रस घोलते थे। रुडयार्ड किपलिंग की कहानी पर आधारित 90 के दशक के मशहूर सीरियल 'जंगल बुक' का टाइटल सांग 'जंगल जंगल बात चली है पता चला है ऐसे ...!' आज भी सबके ज़हन में ताज़ा होगा! ‘जंगल बुक’ के अलावा भी गुलज़ार ने गुजरे जमाने के कई यादगार सीरियलों के टाइटल गीत लिखे! ‘पोटली बाबा की’ का टाइटल सांग ‘घुंघर वाली झेनू वाली झुन्नू का बाबा, किस्सों का कहानियों का गीतों का झाबा’ भी बड़ी उम्र के दर्शकों को बचपन में ले जाता था!
    छोटे परदे पर किसी भी सीरियल का हिट होने का एक फार्मूला टाइटल सांग भी होता था। सांग हिट तो सीरियल भी हिट! टाइटल सांग के पीछे संगीतकार और लेखक की मेहनत भी नजर आती थी! इसमें पूरे सीरियल की कहानी छुपी होती थी। लेकिन, आजकल ये ट्रेंड लगभग खत्म सा हो गया! प्रतिस्पर्धा के चक्कर में एक सीरियल के ख़त्म होते ही सीधे दूसरा सीरियल ऐसे चालू कर दिया जाता है जैसे वही सीरियल चल रहा हो! प्रतिस्पर्धा के चक्कर में चैनल दर्शकों को रिमोट को हाथ लगाने का मौका भी नहीं देते! दरअसल,ये सब टीआरपी बढ़ाने का खेल है। इसी टीआरपी की भेंट टाइटल सांग भी चढ़ गए। बढ़ते विज्ञापन और चैनलों के दौर में हर चैनल चाहता है कि दर्शक उसी से बंधे रहें! पिछले कुछ सालो में धीरे-धीरे लगभग सभी मनोरंजन चैनलों ने सीरियलों के टाइटल सांग ख़त्म कर दिए! 
  टाइटल सांग से सजे सीरियलों का एक जमाना था, जब हर घर में दूरदर्शन का राज चलता था! आज की तरह निजी चैनलों का दबदबा नहीं था! दूरदर्शन के सीरियल ही पूरे परिवार की पसंद हुआ करते थे! लोग सीरियलों के टाइटल सांग फ़िल्मी गीतों की तरह गुनगुनाते रहते थे! उस दौर में जैसे ही सीरियल शुरू होता, हर घर से टाइटल सांग्स गूंजने लगते। आज ये सब सुनाई नहीं देते! क्योंकि, टाइटल सांग का समय भी कमर्शियल हो गया! सीरियल का टाइटल सांग उसके कथानक का ही एक हिस्सा होता है, जो सीरियल की छवि दर्शाता है। 1984 में बने सीरियल 'ये जो है जिंदगी' को जरा याद करो! ये मध्यमवर्गीय परिवार से जुड़े किरदारों के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता था! इसके टाइटल सांग 'जिंदगी ये जो है जिंदगी, मिले और मिलते यहाँ अनमेल, सदियों से है यही खेल ...' को किशोर कुमार ने अपनी आवाज़ से सजाया था! इंडियन टेलीविज़न का पहला सोप ओपरा कहे जाने वाले 'हम लोग' के किरदारों के साथ तो आम दर्शकों ने अपने आपको समाहित ही कर लिया था। इसका टाइटल सांग 'कहीं तो है सपने और कहीं याद, कहीं तो है सारे कहीं फ़रियाद, पलछिन पलछिन तेरे मेरे जीवन की यही बुनियाद ...!' भी वो सबकुछ कह देता था, जो सीरियल का मूल कथ्य था! कुछ सीरियलों के टाइटल सांग तो ऐसे थे, जिनमें सिर्फ कोई शब्दजाल ही नहीं था, फिर भी वे लोकप्रिय हुए! आरके नारायण की कहानियों पर बने सीरियल 'मालगुडी डेज' का टाइटल सांग था 'तन्ना न तन्ना न न न … !' इसकी धुन इतनी मधुर थी कि याद आते ही आज भी कानों में गूंजने लगती है।
 जब टीवी के मनोरंजन संसार का बंटवारा हुआ और दूरदर्शन के मुकाबले में निजी चैनल उतरे तो शुरुआती दौर बहुत कुछ पुराने जैसा ही था! एकता कपूर के दो बड़े सोप ओपरा 'क्योंकि सास भी कभी बहुत थी' और 'कहानी घर घर की' ने महिलाओं को सबसे ज्यादा आकर्षित किया! दोनों ही सीरियलों के टाइटल सांग भी कर्णप्रिय थे! 'क्योंकि सास भी कभी बहुत थी' में तुलसी (स्मृति ईरानी) का घर का दरवाजा खोलते ही सांग शुरू होता था 'रिश्तों के भी रूप बदलते हैं ... नए नए सांचे में ढलते हैं!' जबकि, 'कहानी घर घर की' में 'रिश्तों की पूजा जहाँ हो, आदर बड़ों हो ... भीगे जो ममता का आँचल, आँसू बने गंगाजल' ठेठ पारिवारिक माहौल बना देते थे! लेकिन, पिछले कुछ सालों से तो सीरियलों के टाइटल सांग गायब ही हो गए! 90 सेकंड का वो वक़्त भी बिक गया! टाइटल सांग की जगह विज्ञापन दिखाए जाने लगे! सीधे शब्दों में कहें तो अब सीरियलों का वो दरवाजा ही बंद हो गया, जिसके खुलने के बाद दर्शक उस दुनिया में प्रवेश करते थे और उस काल्पनिक दुनिया में खो जाते थे!
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Friday, July 22, 2016

छोटी हार में छुपे, भाजपा के लिए बड़े सबक


  मध्यप्रदेश में तीन स्थानीय निकाय चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत से ज्यादा चर्चा भाजपा की हार और उसके पीछे छुपे कारणों की है! इस छोटे चुनाव के नतीजों में छुपे बड़े संदेश और संकेत को पार्टी को समझना होगा! इन तीन चुनावों के नतीजों को पार्टी होने वाले शहडोल लोकसभा और नेपानगर विधानसभा के उपचुनाव के नजरिए से भी देख रही है। राजनीतिक नजरिए से प्रदेश में भाजपा के लिए तीनों निकाय चुनाव में हार खतरे की घंटी जैसा है। छह महीने पहले भी निकाय चुनावों में भाजपा ने मुंह की खाई थी। झाबुआ-रतलाम लोकसभा उपचुनाव में हार के बाद भाजपा कि ये बड़ी हार है। इसलिए कि मुख्यमंत्री समेत कई बड़े नेता प्रचार में लगे रहे! अब इसे भाजपा गलत उम्मीदवारों का चयन कहे, तो ये हजम करने वाला बहाना नहीं है! कांग्रेस ने राज्यसभा चुनाव की एक सीट जिस कूटनीति से हांसिल की थी, उसके बाद इन तीन निकाय पर जीत का सिलसिला बरकरार होना पार्टी को उत्साह की खुराक मिलने जैसी बात है! 
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 - हेमंत पाल 
  मध्यप्रदेश में तीन स्थानीय निकायों के चुनाव के नतीजे राजनीतिक तौर पर ज्यादा अहमियत न रखते हों, मगर इन नतीजों ने भाजपा को मुसीबत में जरूर डाल दिया! तीनों निकाय चुनाव में कांग्रेस ने जीत दर्ज की! 12 साल से प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए यह हार इसलिए भी बड़ी मानी जा रही है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समेत कई मंत्री चुनाव में सक्रिय थे! तीनों जगह जीत के मुगालते में भी थे! लेकिन, सतना जिले की मैहर, रायसेन की मंडीदीप और अशोकनगर की ईसागढ़ के निकाय चुनाव में भाजपा को करारी हार झेलनी पड़ी! कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के पार्षद भी कम जीते! संभवतः ये पहली बार हुआ कि किसी चुनाव में भाजपा के हाथ बिल्कुल खाली रहे हों! जबकि, झाबुआ लोकसभा उपचुनाव के बाद इन चुनावों में जीत मिलने से कांग्रेस उत्साह बल्लियां लांघ रहा है! ये स्वाभाविक भी है! प्रदेश की जनता ने जिस पार्टी को तीन विधानसभा चुनाव में हाशिए पर रख दिया हो, उसके लिए इस तरह की छोटी-छोटी जीत ही संभलने के लिए काफी होती हैं! 
  बड़े चुनाव से जनता का नजरिया उतनी अच्छी तरह समझ में नहीं आता! छोटे चुनाव ही जनता की नब्ज का सही संकेत देती हैं! भाजपा ने इस हार को दिखावे के लिए हल्के में लिया हो, पर वास्तव में इन नतीजों की गंभीरता से पार्टी वाकिफ है। इसलिए कि तीनों निकाय प्रदेश के तीन इलाकों का मूड बताते हैं! मैहर से विंध्य-बुंदेलखंड, ईसागढ़ से ग्वालियर-चंबल और मंडीदीप से भोपाल-मध्यभारत के मिजाज का पता चलता है। प्रदेश के राजनीतिक भविष्य को भांपने के लिए भी ये चुनाव नतीजे बहुत कुछ कहते हैं! ये बात इसलिए कि भाजपा ने इन चुनावों में कांग्रेस के सामने प्रचार में मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष, संगठन महामंत्री, प्रदेश के पार्टी पदाधिकारियों अलावा कई मंत्री भी लगे थे। किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि नतीजे इतना उलट जाएंगे! भाजपा इसे अपनी हार इस संदर्भ में मान रही है कि उम्मीदवारों का चयन ठीक नहीं हुआ! जबकि, कांग्रेस का निष्कर्ष है कि ये भाजपा सरकार की असफलता पर जनता का फैसला है!   
   भाजपा इन चुनाव को छोटा बताकर हार की अनदेखी नहीं कर सकती! चुनाव छोटे जरूर थे, मगर इससे संकेत मिलता है कि प्रदेश में भाजपा की जमीनी हकीकत बदल रही है। पार्टी की पकड़ में अब वो कसावट नहीं रही, जिसके दावे किए जाते हैं। इन नतीजों से अगले विधानसभा चुनाव को भांपना तो अभी जल्दबाजी होगी! मगर ये सरकार में बैठे नुमाइंदों को झकझोरने के लिए काफी है कि अब संभलने का वक़्त है! घोषणाओं से लोगों को ज्यादा दिन तक भरमाया नहीं जा सकता! लोग अब जमीन पर उन घोषणाओं की हकीकत देखना चाहते हैं! दरअसल, ये चुनाव भाजपा की पकड़ का ढीला पड़ने का इशारा तो हैं ही, सरकार को सजग होने की भी सलाह है। इन चुनाव से कांग्रेस का उत्साह भी दोगुना हुआ है। 
   प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने भी माना कि यह चुनाव छोटे जरूर थे, मगर इस जीत से पार्टी को नई ऊर्जा मिली है। इन नतीजों ने शिवराज सरकार को बता दिया कि लोग प्रतिक्रिया नहीं देते, इसका मतलब ये नहीं निकाला जाए कि वे सरकार के काम से खुश हैं! प्रदेश में लोग सूखे के बाद अतिवर्षा से परेशान हैं! किसानों को समय पर बीज और खाद नहीं मिल रहा, किसान आत्महत्या कर रहे हैं! लेकिन, सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं! घोषणाएं सुन-सुनकर जनता का धैर्य जवाब देने लगा है! ऐसे में जब भी जहाँ भी जनता को अपना 'मत' देने का अवसर मिलता है, वो सरकार तक अपनी बात पहुंचाने का मौका नहीं छोड़ते! इन तीनों निकाय चुनाव को लेकर भाजपा बेहद गंभीर थी! क्योंकि, तीनों पर पहले भाजपा ही काबिज थी! प्रचार में मुख्यमंत्री समेत कई मंत्री और पार्टी पदाधिकारी लगे थे! किसी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी! जबकि, मुकाबले में सामने कड़ी कांग्रेस के किसी भी बड़े नेता ने इन चुनाव में प्रचार नहीं किया! स्थानीय कार्यकर्ताओं पर ही सारा दारोमदार था, फिर भी कांग्रेस को जीत हांसिल हुई! कांग्रेस के नजरिए से इन निकाय चुनाव में बड़े कांग्रेसी नेताओं का प्रचार के लिए नहीं आना भी कूटनीतिक फैसला रहा! इससे स्थानीय स्तर पर गुटबाजी नहीं पनपी और भाजपा को घेरने मौका भी कांग्रेस को मिला! जब भी कांग्रेस के बड़े नेता छोटे चुनाव में सक्रिय हुए हैं, अधिकांश में कांग्रेस को हार का मुँह देखना पड़ा! बड़े नेताओं के आने से स्थानीय कार्यकर्ता बंट जाते हैं, जिससे उम्मीदवार को नुकसान होता है। इन चुनाव में मिली जीत से कांग्रेस को अरसे बाद खुश होने और नए सिरे से सँभलने का भी मौका मिला!
  एक साथ तीनों चुनावों में पर मिली हार से भाजपा के सभी बड़े नेता हतप्रभ है! प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान का कहना है कि शायद उम्मीदवारों के चयन में उनकी पार्टी से कोई गलती हुई है। इसके साथ ही उनका कहना है कि निकाय चुनाव स्थानीय स्तर पर होते हैं, इसमें उम्मीदवार और स्थानीय मुद्दों का महत्व होता है। इस तरह कि सफाई देना पार्टी अध्यक्ष की मज़बूरी भी है। क्योंकि, कोई भी बड़ा नेता अपनी पार्टी की हार को आसानी से पचा नहीं पाता, उसके पीछे कई कारण खोज लेता है, वही भाजपा अध्यक्ष ने भी किया! लेकिन, राजधानी के नजदीक मंडीदीप हारना भाजपा की पकड़ ढीली पड़ने का साफ़ इशारा है। अब भाजपा में इस करारी हार पर मंथन शुरू हो गया है। संघ ने भी इस मामले को गंभीरता से लिया और पार्टी से जवाब माँगा है! शहडोल लोकसभा और नेपानगर विधानसभा के उपचुनाव जल्द होने की संभावना है। दोनों सीटों पर भाजपा का कब्ज़ा था और यहाँ से जीते नेताओं का पिछले दिनों निधन हो गया था! इन निकाय चुनाव की हार का असर होने वाले इन चुनावों पर न पड़े, इसलिए पार्टी डैमेज कंट्रोल में लग गई है! 
     भाजपा अपनी इस हार को छोटा चुनाव, स्थानीय मुद्दे और उम्मीदवार के चयन में गलती बताकर ध्यान भटकाने की कोशिश जरूर कर रही है! पर, पार्टी को पता है कि इन नतीजों ने पार्टी को गंभीर सोच में डाल दिया है। अब शायद पार्टी उन सारे मुद्दों पर फिर से विचार करेगी, जो इस हार के लिए कहीं न कहीं कारण रहे होंगे! फिर चाहे वो दलित आरक्षण का मामला हो, मंत्रिमंडल के पुनर्गठन से उपजी नाराजी का, घोषणा के मुताबिक वादे पूरे न कर पाने का या फिर सरकारी स्तर पर बढ़ते भ्रष्टाचार का! यदि पार्टी ने लोगों के मिजाज को भांपकर अपने आपको नहीं संभाला तो शहडोल और नेपानगर में झाबुआ दोहराने में देर नहीं लगेगी! उससे भी बड़ा मामला भाजपा कार्यकर्ताओं में बढ़ती नाराजी और उपेक्षा का है। खुलकर ये बात शायद कोई न करे, पर इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता बड़े नेताओं की उपेक्षा से नाखुश हैं! चुनाव के ये नतीजे उसी का संकेत हैं!     
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Wednesday, July 20, 2016

... कभी तन्हाइयों में हमारी याद आएगी

स्मृति शेष : मुबारक बेगम 

- हेमंत पाल 
  कला और कलाकारों के प्रति सरकार का रवैया कैसा है, ये मुबारक बेगम की मौत ने सामने ला दिया! मुबारक बेगम की मौत ने एक बार फिर सरकार का संवेदनहीन रवैया सामने ला दिया। इससे पहले एके हंगल,  ललिता पंवार, टुनटुन और साधना भी ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने अपना आखरी समय अभाव में गुजारा और इस दुनिया से गुमनामी से बिदा हो गए। जो लोग इस चमकती दुनिया की जगमगाहट देखकर इसके प्रति आकर्षित हो रहे हैं, उन्हें इन लोगो का अंत भी देखना चाहिए! 
   एक वक्त अपनी आवाज से लाखों दिलों पर राज करने वाली पार्श्व गायिका मुबारक बेगम का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया! 80 साल की मुबारक बेगम कई दिनों से बीमार थीं। पिछले साल बेटी की मौत के बाद से वे सदमे में थीं!  लेकिन, मुबारक बेगम को गम से ज्यादा अभाव ने मार दिया! बेरोजगार बेटे के साथ रह रही इस पार्श्व गायिका के पास इलाज कराने तक के पैसे नहीं थे! उनको जो 800 रुपए पेंशन मिलती थी, वही एक सहारा था! महाराष्ट्र सरकार ने इलाज का खर्च उठाने का वादा किया, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं! प्रदेश के संस्कृति मंत्री के आश्वासन पर मुंबई के अंधेरी के एक अस्पताल में भर्ती मुबारक बेगम के परिवार से सांस्कृतिक विभाग के एक अधिकारी ने मुलाकात भी की और इलाज के लिए मदद का आश्वासन दिया! पर बताते हैं कि कोई मदद नहीं पहुंची! 2011 में जरूर महाराष्ट्र सरकार ने बदहाली और बीमारी से जूझ रहीं मुबारक बेगम को एक लाख रुपए की मदद दी थी! लेकिन, इसके बाद कोई उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया! 
  1950 से 1970 के दशक में फिल्मों के कई गीतों एवं गजल गाने वाली इस बेगम सेहत काफी दिन से ख़राब थी! उन्होंने 1949 में आई फिल्म ‘आये’ के साथ अपने पार्श्व गायन की शुरूआत की थी! बेगम ने गीत ‘मोहे आने लगी अंगड़ाई आजा आजा’ और स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ ‘आओ चलें सखी वहां’ भी गाया! 50 से 60 के दशक में श्रेष्ठ संगीत निर्देशक एसडी बर्मन, शंकर जयकिशन एवं खय्याम के साथ बेगम ने कई फिल्मों के लिए गाया! इनमें 1963 की फिल्म 'हमराही' का लोकप्रिय गीत 'मुझको अपने गले लगा लो' भी शामिल है। मुबारक बेगम दुनिया को अलविदा कह चुकी हैं, लेकिन उनकी मखमली आवाज का जादू शायद ही कभी कम होगा। मुबारक बेग़म ने 50 से 60 के दशक में करीब 115 फिल्मों में 175 से ज्यादा गीत गाए! 
      मुबारक बेगम ने बिमल रॉय की ‘देवदास’ में ‘वो ना आएंगे पलटकर’ गाया था, जिसके संगीतकार बर्मन थे! बिमल रॉय ने 1958 में बनी ‘मधुमती में भी बेगम की आवाज का उपयोग किया। जिसमें उन्होंने ‘हम हाल-ए-दिल सुनाएंगे’ गीत सबसे ज्यादा पसंद किया गया। इस फिल्म के संगीतकार सलील चौधरी थे। तनुजा की फिल्म ‘हमारी याद आएगी’ का गीत ‘कभी तन्हाइयों में हमारी याद आएगी’ को बेगम के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में गिना जाता है। आशा भौंसले के साथ गाया ‘हमें दम दईके’ और ‘नींद उड़ जाए तेरी’ भी उनके सदाबहार गीतों में शामिल हैं। 1980 में रिलीज हुई फिल्म ‘रामू तो दीवाना है’ में बेगम ने ‘सांवरिया तेरी याद में’ गीत गाया था, जो उनका आखरी गीत था। 
  लाखों दिलों पर राज करने वाली और बॉलीवुड को पहचान देने वाली इस गायिका को उनके अंतिम दिनों में किसी ने नहीं पूछा! न तो सरकार ने सुध ली और न बॉलीवुड ने! उन्होंने 23 साल तक फिल्म इंडस्ट्री में काम किया! सरकार ने मदद नहीं की, ये तो सभी जानते हैं, पर करोड़ों और अरबों का कारोबार करने वाले बॉलीवुड में क्या किसी में इतनी संवेदना नहीं कि इस वृद्ध पार्श्व गायिका का इलाज भी हो सके?
मुबारक बेगम के लोकप्रिय गीत 
- कभी तन्हाइयों में हमारी याद आएगी (हमारी याद आएगी)
- मुझको अपने गले लगा लो (हमराही), 
- वह न आएंगे पलटकर (देवदास) 
- मुझको अपने गले लगा लो ऐ मेरे हमराही (हमराही)
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Tuesday, July 19, 2016

... न नेतागिरी जीती न हवाबाजी, जीती जनता!

पिपलियाहाना तालाब आंदोलन 


- हेमंत पाल

 पिपलियाहाना तालाब का स्वरूप बिगाड़कर वहाँ जिला कोर्ट की बिल्डिंग बनाने का काम तो बंद हो गया! इस फैसले का विरोध रंग लाया! दबाव के सामने सरकार को झुकना पड़ा! तालाब बच गया! अब इस आंदोलन का श्रेय लूटने वालों के बीच होड़ लग गई! सभी अपना झंडा ऊँचा रखने की कोशिश में हैं! भाजपा और कांग्रेस दोनों के नेता दावे करने में पीछे नहीं हट रहे! लेकिन, सच्चाई ये है कि न भाजपा जीती, न कांग्रेस! जीती है जनता और जनता की तरफ से आवाज बुलंद करने वाले किशोर कोडवानी! बल्कि, कुछ सवालों ने तो भाजपा को ही कटघरे में खड़ा कर दिया!
 स्थानीय भाजपा विधायक महेंद्र हार्डिया और राऊ के कॉंग्रेसी विधायक जीतू पटवारी आमने-सामने हैं! सुमित्रा महाजन के समर्थक भी 'ताई' के झंडे उठाने में देर नहीं कर रहे! यहाँ तक कि सांवेर विधायक राजेश सोनकर और क्षेत्र क्रमांक-1 के विधायक सुदर्शन गुप्ता के समर्थक भी अपने 'भैया' का गुणगान करने में पीछे नहीं हैं! पर, कोई किशोर कोडवानी और स्थानीय जनता को श्रेय नहीं दे रहा, जिनकी वजह से तालाब का काम रुका! शहर का हर भाजपा नेता श्रेय का साफा बांधकर घूम रहा है! जबकि, वास्तव में ये जीत स्थानीय लोगों के अलावा आरटीआई कार्यकर्ता किशोर कोडवानी की है! जल सत्याग्रह उन्होंने ही शुरू किया और अंत तक तालाब से पैर नहीं निकाले! तालाब स्थल से निर्माण बंद होने के बाद अब काम रुकवाने का श्रेय लेने का काम शुरू हो गया। क्षेत्र के भाजपा विधायक महेंद्र हार्डिया के समर्थकों ने भी रातों-रात होर्डिंग लगवा दिए! उधर, कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी ने भी सरकार को झुकाने में खुद की उपलब्धि प्रचारित करना शुरू कर दिया! उनके फोटो वाले होर्डिंगों से पूरा इलाका अटा पड़ा है।
  देखा जाए तो वास्तव में ये जीत भाजपा नेताओं को छोड़कर सभी की है। क्योंकि, प्रदेश में जिस पार्टी की सरकार हो, उसी पार्टी के नेता विपक्ष जैसी भूमिका निभाएं, ये बात किसी के गले नहीं उतर रही! आखिर इस जिला कोर्ट की बिल्डिंग बनवाने में किसका इंट्रेस्ट था, ये सवाल बार-बार उठ रहा है! क्या कारण था कि इंदौर के सभी भाजपा नेताओं को एक मुद्दे पर सरकार के सामने विरोध में आना पड़ा? सारा शहर एक पाले में था और सरकार सामने! सरकार झुकी, ये सही है! पर, आखिर सरकार भी जिद पर क्यों अड़ी? आंदोलन खत्म होने के बाद भी ये सवाल तो जिंदा हैं और आगे भी रहेंगे!      
  पिपलियाहाना तालाब महेंद्र हार्डिया के क्षेत्र में है। इसलिए सबसे पहले विरोध भी उनकी तरफ से उठा! हार्डिया के एक नजदीकी नेता और आईडीए संचालक राजेश उदावत ने तो करीब 5 साल पहले तत्कालीन कलेक्टर विवेक अग्रवाल के सामने भी इस तरह की किसी कार्रवाई का विरोध किया था! लेकिन, जमीन पर जिला कोर्ट का काम  शुरू होने के बाद लम्बे समय तक कोई भाजपा नेता तालाब बचाने आगे नहीं आया! सांसद होते हुए भी सुमित्रा महाजन ने शुरू में आंदोलन करने वालों का साथ नहीं दिया! जब देखा कि मामला काफी बढ़ चुका है, तब उन्होंने मुख्यमंत्री से बात की! इस बीच राऊ के कॉंग्रेसी विधायक जीतू पटवारी ने भी तालाब बचाने के लिए मुहिम चलाई! जैसा कि वे हमेशा करते आए हैं। इसके बाद ही भाजपा के सभी नेता सड़क पर आए। सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ता किशोर कोडवानी ने इस मुद्दे को बहुत गंभीरता ही उठाया! इसी का नतीजा था कि सरकार झुकना पड़ा! उन्होंने जल सत्याग्रह भी किया और मुख्यमंत्री के आश्वासन के बाद भी डटे रहे! उनका तर्क भी सही था कि सरकारी दफ्तरों में सिर्फ कागज चलता है! जब तक पीडब्ल्यूडी का पत्र नहीं देखूंगा यहाँ से नहीं हटूंगा! बाद में अफसरों के समझाने के बाद ही वे सशर्त जल सत्याग्रह ख़त्म करने को राजी हुए!
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Sunday, July 17, 2016

ऐसे होते हैं असली हीरो


हेमंत पाल 

  फिल्म के बड़े कलाकारों के बारे में आम धारणा होती है कि ये लोग देश और समाज से कटकर रहते हैं! लोगों की परेशानी और देश के सामने आए संकट से इनका बहुत ज्यादा सरोकार नहीं होता! ये जो भी करते हैं, अपनी फैन फॉलोइंग बढ़ाने, पब्लिसिटी पाने और अपने फायदे के लिए ही करते हैं! अमूमन सच भी यही है! लेकिन, इन बड़े कलाकारों के बीच कुछ ऐसे संवेदनशील हीरो भी हैं, जिनके सीने में समाज और देश के लिए दिल धड़कता है! सूखा पड़ने पर वे किसानों को आत्महत्या से रोकने कोशिश करते हैं! उनकी आर्थिक मदद करते हैं! सरकार से परदेश में फंसे भारतीयों को बचाने की अपील करते हैं! बेसहारा बच्चों के लिए काम करते हैं और सीमा पर तैनात सेना के जवानों का दिल बहलाने और उनका हौंसला बढ़ाने जाते हैं! कैंसर पीड़ितों के लिए आगे आते हैं! ऐसे बहुत से काम करते हैं, जो उनकी संवेदना दर्शाते हैं।
  अक्षय कुमार ने दक्षिण सूडान के जुबा में फंसे भारतीयों को तेजी से निकालने का विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से अनुरोध किया! वहां सरकार के समर्थकों और सरकार के खिलाफ झंडा बुलंद करने वालों के बीच टकराव के चलते शहर में हिंसा बढ़ी है! शूटिंग की व्यस्तता के बीच इतने बड़े एक्टर का सरकार से अनुरोध करना उसकी संवेदना दर्शाता है। इसी विषय पर केंद्रित फिल्म ‘एयरलिफ्ट’ में अक्षय कुमार ने भारतीय कारोबारी रंजीत कात्याल की भूमिका निभाई है! कारोबारी इराक द्वारा किए कुवैत पर किए गए हमले के दौरान कुवैत में फंसे भारतीयों को निकालने के अभियान की अगुवाई करता है। अक्षय ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से अनुरोध करते हुए ट्विटर किया 'सुषमा मैडम, आपसे अनुरोध है कि कृपया सूडान में फंसे भारतीयों को निकालने के त्वरित उपाय करें! हम उनके सुरक्षित भविष्य की कामना करते हैं!' सुषमा स्वराज ने तत्काल जवाब में ट्वीट किया 'अक्षय कुमारजी, कृपया चिंता न करें! हम जुबा से भारतीय नागरिकों को निकाल रहे हैं!' अक्षय कुमार ने ये सब पब्लिसिटी पाने के लिए नहीं किया! वे इतना ही कर सकते थे कि सरकार तक अपनी संवेदना और अपील पहुंचाते और उन्होंने यही किया भी!
  ऐसे ही एक अभिनेता हैं नाना पाटेकर! वे एक्टर से ज्यादा समाजसेवी हैं! नाना बेहद भावुक व्यक्ति माने जाते हैं! हाल ही में महाराष्ट्र में पड़े भीषण सूखे से वे बेहद द्रवित हुए! उन्होंने किसानों का दर्द महसूस किया और उनकी आर्थिक मदद के लिए आगे आए! उन्होंने सूखा पीड़ित इलाकों से बड़े पैमाने पर हुए पलायन की पीड़ा को भी महसूस किया! महाराष्ट्र को आईपीएल मैचों की मेजबानी न करने के मुद्दे पर नाना का कहना था कि यह एक भावनात्मक मुद्दा है। जब लोग मर रहे हैं, तो हम जश्न कैसे मना सकते हैं? सलमान खान को आज के सफलतम हीरो में माना जाता है! लेकिन, उनका दिल भी शोषित बच्चों के लिए धड़कता है! यही कारण है कि सलमान ने 2007 में 'बीइंग ह्यूमन' नाम से एक फाउंडेशन खड़ा किया, जो इन बेसहारा बच्चों के लिए काम करता है। सलमान अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इस फाउंडेशन पर खर्च करते हैं!  
  कभी ऐसी ही संवेदना लोगों ने सुनील दत्त में महसूस की थी! फिल्मों में अभिनय के अलावा सुनील दत्त ने देश की राजनीति में भी काम किया! जनसेवा में योगदान दिया और कैंसर पीड़ितों के इलाज की सुविधाएँ जुटाने में पूरी मदद की! सुनील दत्त को नर्गिस का ऐसा साथ मिला, जिसने उनकी जिंदगी ही बदल दी! दोनों ने कई बार अपने अजन्ता ग्रुप के साथ कई बार सीमा पर तैनात सैनिकों के लिए कार्यक्रम किए और उनका हौंसला बढ़ाया!
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Friday, July 15, 2016

तालाब बचाने के मुद्दे पर भाजपा राजनीति हाशिये पर?


   राजनीति में गुटबाजी नई बात नहीं है! जितने नेता, उनके उतने समर्थक और उतने ही गुट! ऐसा कम ही देखने में आता है कि किसी एक मुद्दे पर सभी गुट एक छतरी के नीचे आएँ! लेकिन, इंदौर के एक सौ साल पुराने तालाब को बचाने के लिए भाजपा के सभी गुट एकमत हो गए! जो नेता एक-दूसरे को फूटी आँखों नहीं सुहाते थे, वे भी पिपलियाहाना तालाब को बचाने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गए! यहाँ तक कि इस मुहिम में भाजपा और कांग्रेस के विधायकों के साथ सांसद सुमित्रा महाजन भी शामिल हैं! समाजसेवी, पर्यावरणविद, स्थानीय नागरिक, पूर्व न्यायाधीश भी तालाब के मूल स्वरुप के साथ छेड़छाड़ के खिलाफ हैं! विरोध स्वरुप जल सत्याग्रह भी जारी है। ये पूरा संघर्ष सरकार के खिलाफ छिड़ा है, जो सारे नियमों और जन विरोधों को नजरअंदाज करके आधा तालाब मूंदकर जिला कोर्ट बनवा रही है। एक तरफ जब देशभर में पुराने तालाबों को सँवारने के प्रयास हो रहे हैं, सरकार इस तालाब को मूंदने वालों के साथ खड़ी है!
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 हेमंत पाल 

  एक सामान्य परंपरा है कि जिस पार्टी की सरकार होती है, वो अपने नेताओं की बात को तवज्जो देते हैं! अंतिम फैसला उनकी ही बात सुनकर होता है। लेकिन, इंदौर के पिपलियाहाना तालाब को लेकर भाजपा के विधायकों की बात पर सरकार कान नहीं धर रही! किसी की बात नहीं सुनी जा रही! सरकार ने सभी जनप्रतिनिधियों को हाशिए पर रख दिया है। ये तालाब महेंद्र हार्डिया के क्षेत्र क्रमांक-5 में स्थित है! सबसे पहले उन्होंने ही इंदौर विकास प्राधिकरण के संचालक राजेश उदावत के साथ तालाब का स्वरुप बदलकर जिला कोर्ट की बिल्डिंग बनाने का विरोध किया था! लेकिन, न तो प्रशासन ने उनकी बात सुनी और न सरकार ने! इसके बाद इंदौर के बाकी भाजपा विधायक रमेश मेंदोला, उषा ठाकुर, सुदर्शन गुप्ता और राजेश सोनकर भी साथ आ गए! सांसद सुमित्रा महाजन ने भी तालाब के मुद्दे पर विधायकों का साथ दिया, पर सरकार अभी तक अड़ी है। आशय यह कि प्रदेश में जिस पार्टी की सरकार है, उसी पार्टी के विधायक और सांसद विरोध का झंडा लेकर खड़े हैं! भाजपा नेताओं की इससे ज्यादा मज़बूरी क्या हो सकती है कि इंदौर की राऊ विधानसभा के अकेले कांग्रेसी विधायक जीतू पटवारी को आगे करना पड़ा! भाजपा नेताओं की मज़बूरी समझकर सामाजिक मुद्दों पर आवाज उठाने वाले आरटीआई कार्यकर्ता किशोर कोडवानी को आंदोलन से जुड़ना पड़ा! इस सबके बावजूद सरकार खामोश है। 
  सरकार की हठधर्मिता से शहर और खासकर इस इलाके के लोग बेहद नाराज हैं। उनका विरोध है कि सौ साल पुराना पिपलियाहाना तालाब खत्म हुआ तो आसपास का जलस्तर भी गिर जाएगा! इस तालाब बचाने के लिए लोगों ने जल-सत्याग्रह शुरू कर दिया है। बरसते पानी में समाजसेवी, जनता, नेता सभी तालाब के किनारे बैठे हैं। समाजसेवी किशोर कोडवानी ने तो इस मुद्दे को मुहिम बना डाला! पीपल्याहाना तालाब में बन रही जिला कोर्ट की बिल्डिंग का चारों तरफ विरोध है। वकीलों के संगठन, तालाब बचाओ संघर्ष समिति, कांग्रेस-भाजपा के नेता, समाजसेवी, पर्यावरणविद, सामाजिक व व्यापारिक संगठन के पदाधिकारी के साथ आसपास के रहवासियों ने मोर्चा खोल रखा है। इस पुराने तालाब को बचाने की मुहिम शहर में ऐसा मुद्दा बन गई, जिसमें सरकार को छोड़कर सभी साथ खड़े हैं। 
  भारतीय भू-सर्वेक्षण विभाग के रिकॉर्ड में पूर्वी इंदौर का पीपल्याहाना तालाब 28 हेक्टेयर क्षेत्र में चिह्नित है। पूर्वी रिंग रोड और बायपास के बीच स्थित इस तालाब की उम्र करीब सौ साल बताई जा रही है। इसी तालाब की आधी जमीन पर जिला कोर्ट की हाईटेक बिल्डिंग बनाने का काम किया जा रहा है! ये पूरा प्रोजेक्ट 600 करोड़ बताया जा रहा है, जिसमें 280 करोड़ की लागत से कोर्ट बिल्डिंग बनना है। ख़ास बात ये है कि ये काम मुख्यमंत्री के सबसे नजदीकी माने जाने वाले 'दिलीप बिल्डकॉन' को दिया गया है! सवाल उठता है कि क्या सिर्फ यही कारण है कि इतने विरोधों के सामने सरकार और प्रशासन के मुँह पर ताला लगा है? 
   इंदौर की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन की राजनीति अमूमन चिट्ठी-पत्री तक सीमित रहती है। लेकिन, पहली बार वे मुखरता से सामने आईं! उन्होंने मुख्‍यमंत्री को पत्र लिखने के साथ उनसे मिलकर अपना विरोध भी दर्ज करवाया! इंदौर के सभी विधायकों को बुलाकर बैठक भी की! पद्मश्री जनक पलटा, पद्मश्री भालू मोंढे, पद्मश्री सुशील दोषी, पद्मश्री कुट्टी मेनन भी इस तालाब को बचाने की मुहिम में शरीक हैं। तालाब की इस जमीन पर जिला कोर्ट की बिल्डिंग बन रही है, लेकिन वकील भी इसके समर्थन में नहीं हैं। हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश ने भी सरकार से बजाए हाईटेक कोर्ट बनाने के त्वरित न्याय की जरुरत को ज्यादा जरुरी बताया! जबकि, हाई कोर्ट के तीन पूर्व न्यायाधीश केके लाहोटी, पीडी मूल्ये और शंभू सिंह ने भी सरकार की कार्रवाई का विरोध किया! इंदौर बार एसोसिएशन और वकीलों की संघर्ष समिति भी शहर से इतनी दूर एक किनारे पर जिला कोर्ट की बिल्डिंग बनाने के खिलाफ है! उनका कहना है कि जब शहर की सांसद, विधायक, समाजसेवी, पार्षद, पर्यावरणविद और स्थानीय लोग इस कोर्ट बिल्डिंग के खिलाफ हैं तो सरकार मान क्यों नहीं रही? वकीलों ने एकमत होकर कहा कि पीपल्याहाना में कोर्ट बिल्डिंग बनने से जहां तालाब नष्ट हो जाएगा, वहीं वर्तमान कोर्ट शिफ्ट होने से पक्षकारों से लेकर सभी को परेशानी होगी। वकीलों के विरोध का असर ये हुआ कि कांग्रेस के कोटे से नए बने राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा ने बिना फीस लिए सुप्रीम कोर्ट में पैरवी भरोसा दिलाया है। जीतू पटवारी और स्थानीय लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। अब इंदौर नगर निगम ने भी तालाब बचाने की इस मुहिम में साथ देने का फैसला किया है। 15 जुलाई को बजट पेश होने के बाद तालाब बचाने का प्रस्ताव लाने की बात सामने आई है। सभापति अजय नरूका के मुताबिक सभी 85 पार्षदों की स्वीकृति के बाद इसे जिला योजना समिति के पास भेजा जाएगा!  
   इंदौर के अकेले कांग्रेसी विधायक जीतू पटवारी भी तालाब में पैर डालकर बैठे हैं! जीतू का कहना है कि जनता और समाजसेवियों की कोशिशों के बावजूद सरकार तालाब को नाला बनाने पर अड़ी है। इस मुद्दे पर 'राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण' (एनजीटी) के निर्देशों का सरेआम उल्लंघन किया जा रहा है। जिस तेजी से आधे तालाब को मूंदकर कोर्ट की बिल्डिंग बनाई जा रही है, वह चौंकाने वाला है। आवास एवं पर्यावरण विभाग ने जनवरी 2011 में उपरोक्त जमीन को कोर्ट बिल्डिंग के लिए देने पर आपत्ति जताते हुए उसे तालाब की ही जमीन माना था। उसे भी नजरअंदाज किया गया? शहर के पर्यावरण प्रेमियों ने 'द नैचर वॉलेंटियर्स' के अध्‍यक्ष भालू मोंढे के नेतृत्‍व में तालाब पर हो रहे निर्माण का कड़ा विरोध कर इसे तुरंत रोकने और इस विरासत को बचाने के लिए मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह के नाम ज्ञापन सौंपा। शहरभर के विरोध के बावजूद निर्माण के काम पर कोई असर नहीं पड़ा! इसलिए कि सरकार जिसके साथ है, उसका कोई क्या बिगड़ेगा? वैसे मुख्यमंत्री ने विधायक महेंद्र हार्डिया को भरोसा जरूर दिलाया है कि जल्दी ही इस बारे में फैसला किया जाएगा! मुख्यमंत्री ने कमिश्नर से तालाब को लेकर रिपोर्ट मांगी है! देखना है अब झुकता कौन है? जनआंदोलन के सामने सरकार झुकती है या विरोध को झुकाकर तालाब की जमीन पर जिला कोर्ट की बिल्डिंग तान दी जाती है?
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Sunday, July 10, 2016

ग्लैमर के बहाने राजनीति का शगल


हेमंत पाल 

  ग्लैमर की दुनिया की एक तय उम्र होती है! खासकर अभिनेत्रियों के मामले में! ढलती उम्र के साथ वे दर्शकों की पसंद से बाहर हो जाती हैं! उनकी फिल्में पिटने लगती हैं, नई फ़िल्में मिलना बंद हो जाती हैं, मीडिया भी तवज्जो नहीं देता! लेकिन, कहा जाता है कि लोकप्रियता की चाह कभी कम नहीं होती! यही कारण है कि कुछ अभिनेत्रियां साख भुनाने के लिए राजनीति की तरफ मुड़ जाती हैं! लेकिन, सभी को मनचाही सफलता नहीं मिलती! वे चुनाव जीत भी जाती हैं, तो भी सत्ता में हिस्सेदारी का मौका नहीं मिलता! राजनीति में आने वाली हर अभिनेत्री की किस्मत स्मृति ईरानी जैसी नहीं होती, जो चुनाव हारकर भी मंत्री की कुर्सी पर नवाज दी जाती हैं! जबकि, स्मृति न तो कभी फिल्मों में काम किया और न उनके पास कोई बड़ी फैन फॉलोइंग थी! उनके खाते में एक सोप ऑपेरा और एक अधूरा सीरियल है! लेकिन, आज सत्ता के गलियारों में उनकी तूती बोलती है! भाजपा ने मथुरा से हेमामालिनी और चंडीगढ़ से किरण खेर को पार्टी का प्रत्याशी बनाया था! दोनों अभिनेत्रियां चुनाव भी जीतीं, पर स्मृति जैसी सत्ता का केंद्र नहीं बन सकीं! 
  फिल्म अभिनेत्रियों का राजनीति में आना भी एक तरह का फैशन की तरह है। करियर की ढलान पर अपनी लोकप्रियता को भुनाने के लिए राजनीति का दामन थामना सबसे आसान भी होता है। लेकिन, ज्यादातर अभिनेत्रियां सिर्फ शो-पीस तक सीमित हो जाती हैं! बीते जमाने की जानीमानी अभिनेत्री वैजयंती माला ने 1984 और 1989 में कांग्रेस के टिकट पर दक्षिण चेन्नई से चुनाव जीता! दक्षिण भारतीय फिल्मों की लेडी अमिताभ कही जानी वाली विजया शांति ने भी 2009 में तेलंगाना राष्ट्र समिति के टिकट पर आंध्रप्रदेश के मेडक संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीता। जयाप्रदा भी पहले समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीती, बाद में नई पार्टी किस्मत आजमाई तो हार गईं! अतीत पर नजर दौड़ाई जाए तो फिल्मों से राजनीति की और आने का सिलसिला दक्षिण भारत से शुरू हुआ! सच भी है कि उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत के फिल्मी सितारे राजनीति में बहुत ज्यादा अधिक सफल रहे है। जयललिता इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जो छठी बार मुख्यमंत्री हैं। 
  कांग्रेस में जब इंदिरा गांधी का युग समाप्त हुआ और राजीव गांधी ने कमान संभाली तो पहला दांव खेला अमिताभ बच्चन पर! उसके बाद जो हुआ, वो सबको पता है! अमिताभ के बरसों बाद समाजवादी पार्टी उदय हुआ! अमिताभ के मित्र अमर सिंह सामने आए और उसी वक़्त जया बच्चन ने राज्यसभा राह पकड़ी! तब से अभी तक जया कई बार राज्यसभा की सदस्य बनी पर सत्ता का केंद्र कभी नहीं बन सकीं! 90 के दशक में जब टीवी सीरियल 'रामायण' का प्रसारण हुआ तो इसके पात्र लोगों के दिलों में छा गए। घर-घर में पात्रों को पूजा जाने लगा! भाजपा को लगा कि ये कलाकारों को लोकप्रियता भुनाने का अच्छा मौका है! इसका राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है! भाजपा ने दीपिका चिखालिया (सीता) के साथ राम और रावण पर भी दांव लगाया! तीनों को लोकसभा का चुनाव लड़ाया और वे जीत भी गए! लेकिन, बाद में उनकी लोकप्रियता घटती चली गई! दीपिका तो परदे और राजनीति दोनों से गायब हो गई! 
  पूर्व मिस इंडिया और कुछ फिल्मों में काम कर चुकी नफीसा अली ने भी कांग्रेस के झंडे तले राजनीति में भूमिका निभाई! बाद में 2009 में समाजवादी पार्टी का दामन थामा। उन्हें समाजवादी पार्टी ने लखनऊ लोकसभा सीट से चुनाव भी लड़ाया, लेकिन लखनऊ की जनता को वे रास नहीं और चुनाव हार गई। ये तो उन अभिनेत्रियों जिक्र हुआ, जिन्होंने बकायदा राजनीति में उतरकर अपनी किस्मत आजमाई! ऐसी अभिनेत्रियों की भी कमी नहीं है जिन्हें उनकी कला खातिर राष्ट्रपति की तरफ से राज्यसभा नवाजा गया! नर्गिस, शबाना आजमी से लगाकर रेखा तक की ये फेहरिस्त काफी लम्बी है। लेकिन, जब भी अभिनेत्रियों के राजनीति में सफलता जिक्र होगा, स्मृति ईरानी को विस्मृत नहीं किया जा सकता! 
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Friday, July 8, 2016

'ताई' और 'भाई' की चक्की में पिसी भाजपा की राजनीति

  मध्यप्रदेश मंत्रिमंडल के पुनर्गठन में इंदौर के साथ जो हुआ, उसने इस शहर के राजनीतिक जख्म को एक बार फिर कुरेद दिया! पहले जो 'कुर्ता खींच' राजनीति कांग्रेस के शासनकाल में होती रही है, वही सब अब भाजपा में भी होने लगा! इसी टांग खिंचाई राजनीति का हश्र है कि प्रदेश की आर्थिक राजधानी का बिल्ला लटकाए ये शहर मंत्रिमंडल में नेतृत्व विहीन है! कैलाश विजयवर्गीय 'भाई' और सुमित्रा महाजन 'ताई' के बीच वर्चस्व की लड़ाई नतीजा उन नेताओं को भुगतना पड़ रहा है, जो इन दोनों के पीछे खड़े हैं! फिर भी एक सवाल सबके दिलों में कौंध रहा है कि आखिर मुख्यमंत्री की ऐसी क्या मज़बूरी थी, जो वे इन दोनों नेताओं के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सके! इस बार के पुनर्गठन में मुख्यमंत्री ने कई क्षत्रपों की अनदेखी की, तो फिर इंदौर के किसी विधायक को वे अपनी मर्जी से शपथ क्यों नहीं दिला पाए?
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हेमंत पाल 
   बड़े शहरों की राजनीति भी बड़ी होती है! बड़े शहर पर कोई एक नेता राज नहीं करता! नेताओं के इलाके बंटे होते हैं, इसी के मुताबिक उनके समर्थकों का भी बंटवारा होता है! कुछ नेता अपने इलाके तक सीमित होते हैं, तो कुछ में दूसरे के प्रभाव क्षेत्र में भी दखल देने का साहस होता है! इंदौर में भाजपा के दो सत्ता केंद्र हैं सांसद सुमित्रा महाजन 'ताई' और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय 'भाई'। दोनों नेताओं के बीच हमेशा खुली राजनीतिक जंग चलती रहती है। सांसद होने से नाते 'ताई' की राजनीति दिल्ली से चलती रही और 'भाई' की भोपाल से! लेकिन, महासचिव बनने के बाद उनका भी दिल्ली में दखल बढ़ गया! 
   इंदौर लोकसभा सीट से सुमित्रा महाजन 'ताई' 1989 से लगातार चुनाव जीतती आ रही है! पार्टी में उनके वर्चस्व को किसी ने चुनौती भी नहीं दी! क्योंकि, उनके कामकाज का तरीका आक्रामक नहीं रहा कि किसी का रास्ता कटे! लेकिन, उन्होंने अपनी 'चौकड़ी' में किसी को घुसने भी नहीं दिया! वे चंद गैर-राजनीतिक लोगों से घिरी रहती हैं! वे ही उनके राजनीतिक सलाहकार की भूमिका निभाते हैं और वे ही उनके लिए बयानबाजी भी करते रहते हैं! 'ताई' ने अपने लम्बे राजनीतिक जीवन में ऐसी कोई उपलब्धि भी इंदौर के लिए नहीं जुटाई कि लोग उसके नाम से याद उन्हें याद करें! लेकिन, कुछ मामलों में दखल देकर काम बिगाड़ने का काम जरूर किया! उनकी सारी सक्रियता रेलवे को लेकर चिट्ठी-पत्री करने तक ही दिखाई देती रही है। सक्रियता से बचकर रहना 'ताई' की आदत रही है! लोग उनकी इस राजनीतिक शैली से कभी खुश नहीं रहे, पर मज़बूरी है कि सामने कोई विकल्प भी नहीं रहा! प्रकाशचंद्र सेठी के बाद कांग्रेस के पास इंदौर में कोई ऐसा नेता नहीं रहा, जो शहर की राजनीति कमांड कर सके! महेश जोशी ने कोशिश जरूर की, पर वे भी गुटबाजी से बाहर नहीं निकल सके!
  सुमित्रा महाजन के चिर प्रतिद्वंदी माने जाने वाले कैलाश विजयवर्गीय 'भाई' ने इंदौर में भाजपा का प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया, ये उनके विरोधी भी स्वीकारते हैं! विधानसभा का क्षेत्र क्रमांक-2 पहले कम्युनिस्ट पार्टी और बाद में कॉंग्रेस का गढ़ था! उसमें सेंध 'भाई' ने ही लगाई! लेकिन, अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश में वे उनसे एक बड़ी भूल ये जरूर हुई कि कई असामाजिक तत्वों को राजनीति की आड़ में पनपने का मौका मिल गया! मिल मजदूरों वाले इस इलाके में बेरोजगारी के कारण 'भाई' को कार्यकर्ताओं की कमी तो नहीं रही, पर गैर-राजनीतिक तत्वों से उनकी राजनीतिक इमेज जरूर प्रभावित हुई! इसका खामियाजा रमेश मेंदोला को भी भुगतना पड़ा है! लेकिन, कैलाश विजयवर्गीय ने एक ऐसे नेता की छवि जरूर बनाई जो आसानी से सबके लिए उपलब्ध है! लोगों के सुख-दुःख में खड़े होने वाले इस नेता के आसपास हमेशा लोगों हुजूम बना रहता है! जहाँ एक तरफ 'ताई' बड़े लोगों की नेता बनती गईं, वहीँ 'भाई' आम आदमी के नेता बनकर बढ़ते गए! जैसे-जैसे दोनों का कद बढ़ता गया, दूरियां भी बढ़ती रही!
  अब स्थिति ये है कि इंदौर में 'ताई' और 'भाई' के बीच खुली तलवारें खिंच गई! प्रदेश के मंत्रिमंडल में किसका समर्थक शामिल होगा, इस मुद्दे ने शहर की भाजपा राजनीति को दो ध्रुवों में बाँट दिया! पार्टी की हर इकाई के सदस्यों के चयन में दोनों क्षत्रप अपनी ताकत दिखाने की कोशिश करते हैं! यही कारण रहा कि आईडीए के चैयरमेन और संचालकों की नियुक्ति लम्बे समय तक टलती रही! पार्टी के शहर अध्यक्ष के मुद्दे पर भी जमकर तनातनी हुई! लम्बे समय से ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया, जब दोनों क्षत्रपों में सहमति बनी हो! कभी राजनीतिक समरसता का पर्याय कही जाने वाली पार्टी आज राजनीति का अखाडा बनकर रह गई है! प्यारेलाल खण्डेलवाल, नारायण धर्म और राजेंद्र धारकर जैसे नेताओं ने अपनी मेहनत से इंदौर में भाजपा की जड़ों को सींचा था, आज वो जड़ें सूख गईं! अभी तक 'ताई' और 'भाई' के बीच सारी लड़ाई छुपकर होती रही है, अब सबकुछ सामने आ गया! 
  'ताई' ने इतने सालों के अपने राजनीतिक जीवन में कभी किसी नेता को पनपने नहीं दिया! बल्कि, कुछ आगे बढ़ते नेताओं को रोकने की कोशिश जरूर की! उनके होते हुए सिर्फ कैलाश विजयवर्गीय 'भाई' ही अकेले ऐसे नेता जिन्होंने भाजपा में अपनी अलग राह बनाई! पहले महापौर और बाद में लगातार मंत्री बनते रहे! यही कारण रहा कि जिस भाजपा नेता की पटरी 'ताई' से नहीं बैठी उसने 'भाई' का हाथ थाम लिया! इसके बाद इंदौर में भाजपा की राजनीति दो ध्रुवों पर केंद्रित हो गई! कई बार अपने समर्थकों के लिए दोनों के बीच विवाद भी हुए, पर कभी दोनों आमने-सामने आए हों, ऐसा नहीं हुआ! इस बार मंत्रिमंडल का पुनर्गठन पहला मौका था, जब दोनों के बीच इतनी ज्यादा रस्साकशी हुई हो! 'ताई' जिस विधायक सुदर्शन गुप्ता को मंत्री बनाने के लिए अडी थी, उसे 'भाई' ने नहीं बनने दिया! मुद्दा रमेश मेंदोला को मंत्री बनाने का था, पर वो कहीं पीछे ही रह गया! दोनों नेताओं की जिद के पीछे अपनी अलग-अलग वजह रही! 'ताई' उषा ठाकुर के विरोध में थी और सुदर्शन गुप्ता के पक्ष में! जबकि, 'भाई' का कहना था कि सुदर्शन को छोड़कर किसी को भी मंत्री बना दिया जाए!   
   
'ताई' और उषा ठाकुर के बीच हमेशा राजनीतिक विरोध रहा है। यह गांठ विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे से और मजबूत हो गई। 'ताई' चाहती थी कि राऊ विधानसभा से उनके बेटे मंदार महाजन को टिकट मिले! वहीं कैलाश विजयवर्गीय विधानसभा क्षेत्र क्रमांक तीन से चुनाव लडऩा चाहते थे। इसके चलते दोनों नेताओं के बीच में समझौता भी हो गया! लेकिन, उषा ठाकुर ने समीकरण बिगाड़ दिए। एक तरफ मंदार का टिकट कटा, दूसरी तरफ मजबूरी में 'भाई' को महू से चुनाव लड़ना पड़ा। ये भी देखा गया है कि जब भी मौका मिला 'ताई' ने उषा ठाकुर को नीचा दिखाया! एक बार 'पर्यावरण बचाओ' के संदेश को लेकर ठाकुर ने सायकल रैली निकाली थी। उसी दिन 'ताई' एमवाय अस्पताल के दौरे पर थी! उषा ठाकुर अपना कारवां लेकर वहां पहुंच गईं और सायकल चलाने का न्यौता दिया! इस पर 'ताई' का जवाब था 'मुझे नौटंकी नहीं आती है।' ये सुनकर कार्यकर्ता भी स्तब्ध रह गए। 
  ऐसे कई प्रसंग हैं जब 'ताई' ने इंदौर के नेताओं के अलावा आम लोगों को भी तवज्जो नहीं दी! हाल ही में सुमित्रा महाजन स्कूली बच्चों के अभिभावकाें को बेतुकी नसीहत देकर भी आलोचना का शिकार हुई! निजी स्कूलों की फीस बढ़ोत्तरी से परेशान अभिभावकों जब उनसे मिलने आए तो उन्होंने कहा कि अगर वे निजी स्‍कूलों की फीस नहीं भर पा रहे हैं तो अपने बच्‍चों का एडमिशन सरकारी स्‍कूल में करवा दें! अभिभावकों की मदद करने या उन्हें सांत्वना देने के बजाए उन्‍हें बच्‍चों का एडमिशन सरकारी स्‍कूल में कराने की नसीहत से लोग हतप्रभ रह गए! जब सुमित्रा महाजन से कहा गया कि निजी स्कूलों की बीमारी दूर करने की जरूरत है, तो जवाब में उन्‍होंने कहा कि आप इसे बीमारी मत कहो! आपको बीमारी लगती है तो बच्चों को निजी स्कूलों में मत पढ़ाओ, सरकारी में पढ़ाओ। जब जनता के संवेदनशील कहे जाने वाले प्रतिनिधि ऐसे होंगे तो निश्चित ही लोगों को उन नेताओं की शरण में जाना होगा, जिनकी धमक से उनके काम आसानी ही हो जाएँ! 
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Sunday, July 3, 2016

एक ही कहानी पर बार-बार फिल्मों का संयोग!


हेमंत पाल 
  सलमान खान की फिल्म 'सुल्तान' और आमिर खान की 'दंगल' की घोषणा करीब एक साथ हुई थी! जब फिल्म की शूटिंग शुरू हुई और ख़बरें लीक हुई तो पता चला कि दोनों ही फ़िल्में पहलवान जिंदगी पर आधारित हैं! दोनों ही कलाकारों ने कहानी की डिमांड के मुताबिक अपना वजन भी बढ़ाया! 'सुल्तान' की रिलीज का दिन भी तय हो गया था, इसलिए वो बनी भी जल्दी! दोनों ही फ़िल्में दो बड़े खानों से जुडी थी, इसलिए ख़बरों की दुनिया में सनसनी भी ज्यादा रही! लेकिन, अचानक आमिर की फिल्म को लेकर ख़बरें आना बंद हो गईं! पता चला कि आमिर की 'दंगल' कहानी में बदलाव किया जा रहा है! फिल्म  रिलीज भी आगे बढ़ा दी गई! बॉलीवुड में दो फिल्मों की कहानी में समानता होना नई बात नहीं है! ये संयोग भी हो सकता है, पर जब ये बार-बार होने लगे तो इसे हिट कहानियों बनी फिल्मों के रीमेक का आसान तरीका ही कहा जाएगा! हमारे यहाँ फिल्मों की कहानियों के आईडियों की चोरी नई बात नहीं है। सैकड़ों बार ये हो चुका है।

'सुल्तान' और 'दंगल' में क्या समानता होगी, फिलहाल इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता! लेकिन, दोनों ही फिल्मों का नायक पहलवान है, ये जरूर सामने आ गया! शायद ये भी एक कारण रहा होगा कि 'दंगल' की कहानी में बदलाव का फैसला किया गया! जबकि, सलमान खान को यशराज फिल्म ‘सुल्तान’ और ‘दंगल’ में नायकों की भूमिका में समानता होने के बावजूद दोनों फिल्मों की तुलना का कोई तुक नजर नहीं आता! आमिर खान का भी कहना है कि दोनों ही अलग-अलग तरह की फिल्में हैं। 'दंगल' नीतेश तिवारी के निर्देशन में बन रही है जिसकी शूटिंग पंजाब में हो रही हैं। यह फिल्म हरियाणा के पहलवान महावीर सिंह फोगट के जीवन पर आधारित है। वहीं सलमान 'सुल्तान' भी पहलवान की कहानी है, लेकिन काल्पनिक! सलमान की 'सुल्तान' ईद पर और आमिर की 'दंगल' क्रिसमस पर रिलीज होगी।

 बॉलीवुड की दो फिल्मों में कहानी को लेकर कोई टकराव हो, ऐसा अमूमन कम ही होता है! लेकिन, हॉलीवुड की फिल्मों का देसी संस्करण बना देना आम बात है। संजय लीला भंसाली को आज बड़ा फिल्मकार माना जाता है, लेकिन उनकी फिल्मों पर अकसर 'कॉपी' के आरोप लगते रहे हैं! 1996 में आई उनकी फिल्म 'खामोशी : द म्यूज़िकल’ की मूल कहानी जर्मन फिल्म 'बियोंड साइलेंस' से मिलती-जुलती थी! कहा गया था कि 'बियोंड साइलेंस' बाद में रिलीज़ हुई! जबकि,ये 1995 की फिल्म थी! 1999 की 'हम दिल दे चुके सनम' की कहानी भी हिन्दी फिल्म 'वो सात दिन' से मिलती थी! 2002 की फिल्म ‘देवदास’ शरतचन्द्र के उपन्यास का कैसा फ़िल्मीकरण था! पर, संजय लीला भंसाली का दावा था कि उन्होनें बिमल रॉय की 'देवदास' देखकर नहीं, बल्कि उपन्यास पढ़कर फिल्म बनाई है। 'ब्लेक' (2005) फिल्म को हेलेन केलर को समर्पित किया गया था, जो अंग्रेज़ी फिल्म 'द मिरेकल वर्कर' की कॉपी थी!
  महेश भट्ट की फिल्म ‘आशिकी-2’ की कहानी के बारे में भी कहा गया था कि ये अमिताभ, जया की 1973 में आई ‘अभिमान’ से मिलती-जुलती कहानी वाली फिल्म है। लेकिन, ये भी सच है कि दोनों ही फिल्मों की कहानी पति-पत्नी के संबंधों पर आधारित थी। हाल ही में आई अमिताभ बच्चन की फिल्म 'तीन' को लेकर भी कहा है कि अमिताभ की ही फिल्म 'वजीर' में भी यही प्लॉट था! फिल्म की पटकथा कुछ बहुत कुछ 'वजीर' जैसी तो है। कुंदन शाह के प्रोडक्शन वाली फिल्म ‘पी से पीएम तक' की कहानी है एक वेश्या की है, जो कुछ दिनों पहले आई ‘डर्टी पॉलिटिक्स’ जैसी ही है! पहले इसी थीम पर प्रियंका चोपड़ा के प्रोडक्शन में ‘मैडम जी’ नाम से भी फिल्म बनने वाली थी, जो अब नहीं बन रही! बॉलीवुड में ये चलन तो खत्म होने से रहा! बॉलीवुड में जो ही हिट आइडिया होगा, वो बार-बार घुमा फिराकर दर्शकों को परोसा जाता रहेगा!
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Saturday, July 2, 2016

'मेंदोला नहीं तो सुदर्शन को भी 'लाल बत्ती' नहीं!

इंदौर को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलने की अंतर्कथा 

  समर्थकों की उत्साहित फौज ने राजधानी की तरफ कूच कर लिया था! खुशियां मनाने के लिए मिठाइयां बनकर तैयार थी! स्वागत कैसा होगा, रैली कहाँ से निकलेगी ये भी तय था! लेकिन, शाम 5 बजे सारे अरमानों पर पानी फिर गया! राजभवन में जो विधायक मंत्रियों की शपथ लेने खड़े हुए, उनमें इंदौर से कोई नहीं था! न तो भंडारा भाई, न चुनरी भैया, न सबके 'बाबा!' तीनों नहीं, ऐसा कैसे हुआ? किसकी चली और किसकी नहीं? अब ये सवाल ख़बरों की शक्ल बन गया! जबकि, सभी जानते हैं कि ये 'ताई' और 'भाई' की वर्चस्व की जंग का नतीजा है! निष्कर्ष ये निकला कि 'भाई' की जिस ताकत को नजरअंदाज किया जा रहा था, वो उन्होंने फिर दिखा दी! रमेश मेंदोला नहीं तो कोई नहीं! 

  प्रदेश में जब तीसरी बार भाजपा की सरकार बनी तो इंदौर से शपथ लेने वाले एक ही विधायक थे कैलाश विजयवर्गीय यानी 'भाई'! लेकिन, पार्टी के केंद्रीय संगठन में जगह दिए जाने पर उन्होंने मंत्री पद छोड़ दिया! उसके बाद से ही कयास लगाए जा रहे थे कि उनकी जगह क्षेत्र क्रमांक 2 के विधायक रमेश मेंदोला को दी जा सकती है! क्योंकि, वो उनके सबसे करीब हैं! लेकिन, जब मंत्रिमंडल में नए मंत्रियों को शामिल करने की बात चली संभावितों में मेंदोला का नाम कहीं नहीं था! लोकायुक्त के एक मामले को इसका आधार माना गया! इसके बाद तीन नाम हवा में थे सुदर्शन गुप्ता, महेंद्र हार्डिया और उषा ठाकुर! इंदौर में भाजपा की दूसरी बड़ी ताकत और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन 'ताई' ने सुदर्शन के लिए पूरा जोर लगा दिया था! यहाँ तक कि मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर भी पक्ष में थे! जब किसी एक विधायक के लिए इतने दिग्गज लगे हों, तो शपथ में कोई शंका भी नहीं बचती! महेंद्र हार्डिया उर्फ़ 'बाबा' के पास दिग्गजों की ऐसी कोई ताकत तो नहीं थी, पर तीन बार की जीत और पिछले मंत्रिमंडल के अनुभव से उनका दावा भी मजबूत लग रहा था! उषा ठाकुर को ये भरोसा था कि यदि रमेश मेंदोला का नंबर कटा तो 'भाई' के खाते से उनको मंत्री बनने से कोई नहीं रोक सकता! 
  उधर, 'ताई' सुदर्शन का चक्र घुमाने की कोशिश करने के साथ ही, उषा के पर काटने में भी लगी थी! ऐसे में 'बाबा' की उम्मीदें बढ़ गई! लेकिन, इस सारी कवायद में रमेश मेंदोला का नाम कहीं नजर नहीं आ रहा था! एक तरह से उन्हें संभावित मंत्रियों की रेस से बाहर ही मान लिया गया था! किन्तु, किसी को इस बात का अंदाजा था कि जिसे रेस से बाहर माना जा रहा था, फैसला करने वाला 'वजीर' उन्हीं के पास था! अंदर की ख़बरें बताती कि कैलाश विजयवर्गीय ने सुदर्शन गुप्ता को छोड़कर महेंद्र हार्डिया या उषा ठाकुर को रमेश मेंदोला के साथ शपथ दिलाने का भी विकल्प रखा था! लेकिन, पार्टी नेतृत्व नहीं माना! जब रमेश मेंदोला के लिए के लिए रास्ता साफ़ नहीं हुआ, तो 'भाई' के पास वीटो पावर इस्तेमाल करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था! वही उन्होंने किया भी और एक ही फार्मूला दिया  'रमेश नहीं तो कोई नहीं!'    
  अभी तक देखा गया है कि जिस विधायक को शपथ के लिए बुलाया जाता है, वो शपथ लेकर बत्ती वाली गाड़ी में ही लौटता है! लेकिन, सुदर्शन गुप्ता के साथ ऐसा नहीं हुआ! उनकी किस्मत ने दगा दे दिया! भोपाल से फोन भी आया और वे उत्साहित समर्थकों के साथ भोपाल रवाना भी हुए, पर लौटे तो खाली हाथ! सुदर्शन का रास्ता कैलाश विजयवर्गीय ने काटा ये सब जानते हैं! क्योंकि, इंदौर के 'एक' और 'दो' नंबर की लड़ाई जगजाहिर है। पिछले विधानसभा चुनाव और चुनरी यात्रा में मनोज परमार गोली कांड के बाद से ही दोनों नेता एक दूसरे के विरोधी है। पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने सुदर्शन का चक्र नहीं चलने दिया! 'ताई' की कोशिशें कामयाब नहीं हुई! इसे विजयवर्गीय खेमे की बड़ी जीत मानी जा रही हैं! यदि ये 'भाई' की जीत है तो निश्चित ही 'ताई' की बड़ी हार भी है। 
  शपथ की तैयारी में चोट लगने वालों में इंदौर और उज्जैन संभाग से कुछ और नाम भी हैं! दोनों संभागों की कुल 66 विधानसभाओं में से 58 भाजपा के पास होना भी पार्टी नेतृत्व के लिए परेशानी का कारण है। झाबुआ-आलीराजपुर से किसी को मौका मिलने के आसार थे! मुख्यमंत्री की राखी बहन निर्मला भूरिया तो शपथ के लिए तैयार थी, पर निराश हुई! धार से रंजना बघेल, नीना वर्मा या भंवरसिंह शेखावत आस लगाए बैठे थे! जबकि, रंजना बघेल और नीना वर्मा के खिलाफ हाई कोर्ट में चुनाव याचिकाएं लंबित हैं, माना जा रहा है कि दोनों के ही चुनाव शून्य भी हो सकते हैं! फिर भी दोनों कोशिशों में लगे रहे! नीना वर्मा पहली बार की विधायक हैं, उनका पहला चुनाव शून्य हो गया था! लेकिन, फिर भी विक्रम वर्मा ने अपना दम लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी! अपनी नाराजी भी जाहिर की, लेकिन न तो कुछ होना था, न हुआ! यही स्थिति खरगोन की भी रही! 13 साल से ये जिला मंत्री विहीन है। अबकी बार तीन बार के विधायक हितेंद्र सोलंकी या बालकृष्ण पाटीदार में से किसी को शपथ मिलने का भरोसा था, लेकिन हुआ कुछ नहीं! लेकिन, इंदौर के दर्द के आगे मालवा के सभी दर्द फीके हैं! वर्चस्व की लड़ाई में इंदौर के कई नेताओं को निराशा हुई, पर हारकर भी भाजपा के 'भाई' ने इंदौर में रणनीतिक जीत का झंडा जरूर गाड़ दिया! जो लोग कैलाश विजयवर्गीय को हाशिये पर समझ रहे थे, उनके मुगालते भी इस घटना से शायद दूर हो गए होंगे!      
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Friday, July 1, 2016

भाजपा के गले की फाँस है 'बुंदेलखंड' मुद्दा


हेमंत पाल 

  मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की राजनीति में कोई बात कॉमन नहीं है! दोनों राज्यों की सीमाएं जुडी है, पर राजनीतिक तासीर में जमीन-आसमान का अंतर है! सिर्फ एक मुद्दा ऐसा है, जो दोनों राज्यों की राजनीति के लिए सरदर्द बना है! ये है 'बुंदेलखंड' को अलग राज्य बनाने का! मध्‍य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के 13 जिलों को मिलाकर अलग 'बुंदेलखंड' राज्य बनाने की मांग बरसों से हो रही है! बरसों से सुलग रहे इस मुद्दे को उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले फिर हवा दी जाने लगी है। उस हवा के प्रभाव से मध्यप्रदेश भी अछूता नहीं रहेगा! क्योंकि, उत्तरप्रदेश का जो बुंदेलखंड इलाका मध्य प्रदेश से लगा है, वहां सरगर्मी तेज हो गई है! पृथक राज्य के लिए आंदोलन कर रहे 24 संगठनों ने कमर कस ली है। मध्य प्रदेश में इस मांग को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान नकार चुके हैं। लेकिन, उमा भारती ने जब झाँसी से लोकसभा चुनाव लड़ा था, उस दौरान जोर-शोर से 'बुंदेलखंड' को राज्य बनाने की मांग का समर्थन किया था! यदि भाजपा ने उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनजर कोई फैसला कर लिया तो शायद मध्य प्रदेश को भी झुकना पड़ेगा। 'बुंदेलखंड' इलाका 1914 से अस्तित्व में आया था। अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे बुंदेलखंड इलाके में लगभग पांच करोड़ की आबादी और 70 हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र आता है। अंग्रेजी शासन के दौरान ये अलग प्रदेश ही था।

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   बुंदेलखंड इलाका दो राज्यों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश बंटा है। लेकिन, सांस्कृतिक दृष्टि से यह एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। रीति रिवाजों, भाषा और विवाह संबंधों ने इस एकता को और भी मजबूत कर दिया। संभावना है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में विभाजित `बुंदेलखंड` को जल्दी ही पृथक राज्य का दर्जा मिल सकता है। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में 'बुंदेलखंड' को लेकर कोई घोषणा की जाना भाजपा की मज़बूरी बन गया है। केंद्र में मंत्री उमा भारती ने लोकसभा चुनाव के दौरान हर चुनाव सभा में बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की घोषणा की थी! यही वजह है कि यहां के लोगों को अलग राज्य बनने की उम्मीद जागी है। लेकिन, उमा भारती का बाद का बयान उनके पुराने रूख से अलग है। उन्होंने पृथक बुंदेलखंड से मध्यप्रदेश जिलों को अलग रखने की बात की! मध्यप्रदेश के 'बुंदेलखंड' विरोधियों का तर्क रहा है कि अलग बुंदेलखंड राज्य का निर्माण आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं है! इस समय मध्यप्रदेश के खजाने में इसका योगदान केवल 9 फीसदी है, जबकि व्यय 36 फीसदी! मध्यप्रदेश सरकार का रुख बुंदेलखंड के पक्ष में नहीं है। यही कारण है कि कई भाजपा नेता बुंदेलखंड के पक्ष में होते हुए भी चुप हैं! भाजपा का कोई नेता पार्टी नजरिए खिलाफ सामने आने की हिम्मत तो करने से रहा! अभी मध्यप्रदेश में चुनाव में देरी है, इसलिए मसले पर ख़ामोशी है! लेकिन, कि ये चुनौती भाजपा को उत्तरप्रदेश चुनाव में झेलनी पड़ेगी! बाद में जिसकी आंच मध्यप्रदेश में भी आएगी! क्योंकि, तेलंगाना के अलग राज्य बनने के बाद बुंदेलखंड की मांग ने तेजी पकड़ ली है। 
  लोकसभा चुनाव के समय उमा भारती ने बुंदेलखंड राज्य को लेकर जो चुनावी घोषणा थी, अब वो भाजपा के लिए मुसीबत बन गई है! इस मुद्दे पर आंदोलन करने वालों का तर्क है कि भाजपा अब कोई भी बहाना नहीं बना सकती! क्योंकि, केंद्र और मध्यप्रदेश दोनों जगह भाजपा की ही सरकार है। इस बार समाजवादी पार्टी को भी अलग बुंदेलखंड का समर्थन कर ही होगा! बहुजन समाज पार्टी तो पिछली बार ही राज्य विधानसभा में अपने समर्थन का पक्ष रख ही चुकी थी! लेकिन, उमा भारती ने केंद्रीय मंत्री बनने के बाद नए राज्‍य से मध्यप्रदेश के प्रस्‍तावित जिलों के नाम हटाने की बात करके नई बहस छेड़ दी थी। उमा भारती का कहना था कि 'बुंदेलखंड' में मध्यप्रदेश से सागर, छतरपुर, पन्ना, दमोह, दतिया और टीकमगढ़ और उत्तरप्रदेश से झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा, जालौन, चित्रकूट और महोबा जिले होंगे। 'बुंदेलखंड' तो बनेगा, लेकिन इसमें से मध्यप्रदेश के जिलों के नाम हटाए जा सकते हैं। 
  उन्होंने ऐसा क्यों कहा इसके पीछे कोई तार्किक आधार नजर नहीं आता! उमा भारती केंद्र में वजनदार मंत्री हैं! लेकिन, मध्यप्रदेश के जिलों को हटाकर नया बुदेलखंड बनाने का विचार कैंसे आया? क्‍या ये मध्यप्रदेश के उन भाजपा नेताओं के विरोध का नतीजा है, जो मध्यप्रदेश को टूटने देना नहीं चाहते! या फिर ये मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की वो मंशा है जो बुंदेलखंड को अलग राज्य का दर्जा देने के पक्ष में नहीं हैं! क्‍या इसमें बुंदेलखड के हिस्‍से की जन भावनाएं भी समाहित हैं? क्‍या मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके को नए राज्‍य में शामिल न होने में ही इस जिलों का भला होगा? ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब खोजे जाने हैं! जबकि, अभी तक जब भी पृथक बुंदेलखंड को लेकर आवाज उठी है, उसमें दोनों राज्यों के हिस्‍से के लोग शामिल रहे हैं। अभी उमा भारती की बात पर सरकार का कोई रुख सामने नहीं आया, पर ये बयान नया विवाद जरूर खड़ा करेगा! 
  आंध्र प्रदेश से अलग करके तेलंगाना को राज्य बनाने का फैसला सामने आते ही देशभर में छोटे राज्यों के लिए दशकों से चलते आ रहे आंदोलनों में नई जान आ गई थी! गोरखालैंड, विदर्भ, कार्बी आंगलांग, बोडोलैंड, पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध प्रदेश, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड जैसे कई राज्यों के आंदोलनकारी संगठन खड़े हो गए। इस सबको देखते हुए सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अब केंद्र सरकार को दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग की नियुक्ति का फैसला नहीं करना चाहिए? ये आयोग नए राज्यों के गठन की समस्या के राजनीतिक, भाषाई, सांस्कृतिक और प्रशासनिक सभी पहलुओं का अध्ययन करके दिशा तय करे! जब 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल बनाए थे, तब भी राज्य पुनर्गठन आयोग की बात उठी थी! इसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने तेलंगाना के निर्माण को हरी झंडी दिखाई! यदि ये सब हो ही रहा है तो अन्य छोटे राज्यों के निर्माण की मांग की अनदेखी क्यों की जा रही है? नए राज्यों के निर्माण का तर्कसंगत आधार तैयार करने के लिए नए राज्य पुनर्गठन आयोग की जरुरत महसूस की जा रही है। पहला आयोग को दिसंबर 1953 में बनाया गया था, उसकी सिफारिशों की आधार पर ही 1956 में भाषाई राज्य बनाए गए थे। 
  पिछले महीने दिल्ली में बुंदेलखंड और विदर्भ को अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर बड़ी बैठक भी हुई थी जिसमें आंदोलन की रुपरेखा बन चुकी है। 'नेशनल फेडरेशन फॉर न्यू स्टेट्स (एनएफएनएस) द्वारा शुरू किए गए ‘नए भारत के लिए नए राज्य’ अभियान में कार्यकारी अध्यक्ष और फिल्मकार राजा बुन्देला, मुनीष तमांग (महासचिव गोरखालैंड) तथा प्रमोद बोरो (संयुक्त सचिव बोडोलैंड) भी शामिल हुए। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में जनता के सामने विकल्प पेश करने का दावा करने वाले 20 छोटे दलों के महासंघ ने पूर्वांचल और बुंदेलखंड जैसे राज्यों के गठन की मांग को लेकर अभियान शुरू करने की घोषणा की है। महासंघ के संयोजक गोपाल राय के मुताबिक छोटे राज्य निर्माण का होने से विकास को बढ़ावा मिलेगा। पूर्वांचल में बेरोजगारी है, वही बुंदेलखंड में चिर सूखे कारण किसान भूखे मरने और आत्महत्या करने को मजबूर हैं। पृथक बुंदेलखंड और पूर्वाचल राज्य का निर्माण वक्त की जरूरत है। 
   मध्यप्रदेश के जिन छह जिलों को पृथक बुंदेलखंड से बचाने की बात हो रही है, वे खनिज संपदा के मामले में बहुत धनी हैं। मध्यप्रदेश सरकार नहीं चाहती की उसने छत्तीसगढ़ बनने से जो खोया है, उसकी पुनरावृत्ति हो! यही कारण है कि 'बुंदेलखंड' का विरोध किया जाता रहा है। पन्ना जिले से केंद्र सरकार को 700 करोड़ रुपए, जबकि मध्यप्रदेश सरकार को करीब 1400 करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त होता है। पन्ना सैकड़ों सालों से हीरा खदानों के लिए दुनियाभर में जाना जाता है। यहां से अभी तक करीब 40 हजार कैरेट हीरा निकाला जा चुका है, जबकि अनुमान है कि 14 लाख कैरेट के भंडार अभी भी यहाँ मौजूद हैं। वहीं सागर, छतरपुर में तांबा, राक और चूना पत्थर, दतिया में सीसा अयस्क और गेरू मिट्टी, टीकमगढ़ में बैराइटिस और अभ्रक, पन्ना में अग्निरोधी मिट्टी आदि की प्रचुरता है। ये भी एक बड़ा कारण है कि मध्यप्रदेश बुंदेलखंड को जोड़े रखना चाहता है।  
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