Thursday, March 31, 2016

नौसिखिए ठेकेदारों ने बिगाड़े सारे गणित!


आबकारी राजस्व में मध्यप्रदेश सरकार को बड़ा नुकसान  

- हेमंत पाल

  इस वित्तीय वर्ष (2015-16) में मध्यप्रदेश के करीब सभी शराब ठेकेदारों ने बड़ा घाटा उठाया! अनुमान से कहीं बहुत ज्यादा! इतना कि शराब ठेकेदारों के करीब सभी ग्रुप्स इस घाटे से घबरा गए! क्योंकि, पिछले साल उन्होंने जितनी महंगी कीमत पर ठेका लिया था, उसी ने उन्हें बड़ा घाटा दिया! इसके पीछे मूल कारण था, वे नए शराब व्यवसाई जिनकी नासमझी ने ठेकों की दरें बढ़वाई थी, इस साल वे नदारद हो गए! सरकार उसी कीमत में 15% बढाकर ठेके देने पर अड़ी थी! जबकि, ठेकेदार उस कीमत से बचते रहे! क्योंकि, अनुमान के मुताबिक शराब की खपत घट रही है! सूखे, बेमौसम बरसात जैसी आपदाएं भी शराब की खपत पर असर डालती है। यही अंदेशा इस साल भी है। यदि आबकारी के नीति नियंताओं ने ये आकलन किया होता, तो उन्हें आसानी से सच्चाई का अंदाजा हो जाता! 

  वित्त वर्ष 2015-16 में प्रदेश में ठेके सबसे महंगे गए! क्योंकि, दूसरे व्यवसाय से जुड़े लोगों को शराब का धंधा ज्यादा मलाईदार लगा! रियल एस्टेट, ट्रांसपोर्टर, खनिज व्यवसायी, बड़े बिजनेसमैन और पुश्तैनी रईसों ने भी महंगे ठेके लिए! कहीं कहीं बेनामी भी! 2015-16 में जब सरकार ने ठेकों की दर 15% बढ़ाई तो नौसिखियों ने पुराने ठेकेदारों को मात देने के लिए आगे बढ़कर दरें 70-80% बढ़ाकर दुकानें ले ली! नतीजा ये हुआ कि सरकार के खजाने में अनुमान से ज्यादा राजस्व आया! सरकार को भी विश्वास नहीं था कि उसे अनुमान से इतनी ज्यादा कमाई होगी! यही कारण था कि सरकार ने इस बार भी 2015-16 के ही आंकड़े में 15% बढ़ाने का दांव चला, जो उल्टा पड़ गया! 
  क्योंकि, नए ठेकेदारों को जल्दी ही पता चल गया था कि शराब का धंधा उनके बस की बात नहीं है! ये काम इतना आसान भी नहीं है, जितना उन्होंने समझा था! हर सरकारी कर्मचारी के सामने झुकना पड़ता है! नेताओं के लिए भी शराब व्यवसाई आसान टारगेट होते हैं! कई जगह चंदा देना पड़ता है और कई तरह के 'इंतजाम' करना पड़ते हैं। यही कारण था कि इस बार ज्यादातर नौसिखिए शराब व्यवसाई गायब हो गए! कई ने तो बीच में ही दुकानें सरकार को सौंप दी और किनारे हो लिए! लेकिन, उन्होंने पुराने ठेकेदारों के सामने मुसीबत जरूर खड़ी कर दी! 
   आबकारी महकमे ने ठेकों के 2015-16 के आंकड़ों में ही 15% जोड़कर ठेकेदारों को नई दर पर ठेके लेने के लिए मजबूर करना शुरू कर दिया! इंदौर जैसे बड़े शहरों जहाँ खपत अच्छी थी, वहाँ  मुश्किल नहीं आई, पर ज्यादातर स्थानों पर ठेकेदारों के ग्रुप राजी नहीं हुए! क्योंकि, दुकानों की जो दरें बढ़ी थी, उसका खामियाजा वो भुगतने को राजी नहीं थे! बात इसलिए भी सही थी कि धंधे में आए नए ठेकेदारों ने बिना सोचे समझे महंगी दुकाने ली और कमाई होते नहीं दिखी तो पल्ला झाड़ लिया! अब परंपरागत ठेकेदार 2015-16 की दरों में कटौती चाहते हैं! सरकार ने दबाव में 15% बढ़ी दर तो कम तो की ही, मूल ठेका दर में भी 10% की कमी कर दी! लेकिन, फिर भी बात नहीं बनी! वास्तव में इस बिन्दू पर न तो सरकार गलत है न ठेकेदार! सरकार को ठेकों की वही कीमत सही लगी, जिसके उसे देनदार मिले थे! जबकि, ठेकेदारों को लगा कि उनके घाटे का सबसे बड़ा कारण ही ऊँची कीमत पर ठेके लेना था! इसलिए बार वे कोई रिस्क लेना नहीं चाहते! यही सब वजह रही कि प्रदेश की कई दुकानें बच गई! अब मज़बूरी में इन शराब दुकानों को सरकार को संचालित करना पड़ेगा!  
   कोई भरोसा करे या नहीं, पर शराब के धंधे पर मौसम का सबसे ज्यादा असर होता है! जब सूखा पड़ता है, तो ग्रामीण इलाकों में लोग रोजी-रोटी की जुगाड़ में लग जाते हैं! ऐसे में वे शराब का सेवन नहीं करते या बहुत कम करते हैं! काम की तलाश में पलायन भी होता है, इससे भी शराब की खपत प्रभावित होती है! बेमौसम बरसात से फसल भी ख़राब हुई, जिससे किसान को नुकसान हुआ और शराब व्यवसाई को भी! इस धंधे से जुड़े जानकारों के मुताबिक 2014-15 और 2015-16 में शराब का धंधा 15 से 20 प्रतिशत घटा है! आने वाले वित्त वर्ष में भी यही स्थिति रहने का अनुमान है। ऐसे में यदि ठेकेदार महँगी दर पर दुकानें लेते हैं, तो उन्हें फिर घाटा होना तय है! इसीलिए वे अंत तक सरकार की कीमत पर ठेका लेने से बचते रहे!   
को-ऑपरेशन सिस्टम 
  जानकारी के मुताबिक पुराने ठेकेदारों के ग्रुप के रवैये को देखकर सरकार ने 'को-ऑपरेशन सिस्टम' लागू करने का फैसला किया है। यदि ऐसा हुआ तो आबकारी विभाग के कर्मचारी शराब बेचते नजर आएंगे। 'को-ऑपरेशन सिस्टम' के तहत सरकार ही आबकारी अमले से दुकानों में शराब बिकवाती है। जिला स्तर पर एक समिति गठित की जाती है। जिसकी देखरेख में ये शराब दुकानें संचालित की जाती हैं। बताते हैं कि सरकार ने घोषणा तो नहीं की, पर इसकी तैयारी जरूर कर ली! 
  तमिलनाडु में ऐसे ही हालात 1998 में निर्मित हुए थे! तब ठेकेदारों ने अपनी कीमत पर सरकार से ठेके लेना चाहे थे! वित्तीय वर्ष पूरा होने पर उन्होंने न्यूनतम दर (लोएस्ट रेट) पर टेंडर लेने की प्रक्रिया की गई थी। मजबूर होकर तमिलनाडु सरकार ने विधानसभा में विधेयक लाकर 'को-ऑपरेशन सिस्टम' लागू किया था। जिसके तहत विभाग ने खुद शराब की बिक्री शुरू कर दी थी।
ऐसे बिकेगी शराब
   यदि मज़बूरी में प्रदेश में को-ऑपरेशन सिस्टम लागू होता है तो हर जिले में शराब दुकानों पर जिला प्रशासन के साथ ही आबकारी विभाग का नियंत्रण होगा। विभाग द्वारा बनाई समितियों द्वारा दुकान का संचालन राशन दुकानों की तर्ज पर किया जाएगा। रोज की आय को सरकारी खजाने में जमा करना होगा। आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना होगा।  सकता है कि नागरिक आपूर्ति निगम के माध्यम से शराब बेचीं जाए! आबकारी विभागीय के सूत्रों का भी कहना है कि यदि शराब दुकानें शर्तों के मुताबिक नीलाम नहीं हुईं, तो सरकार नागरिक आपूर्ति निगम के माध्यम से भी शराब बिकवाने का फैसला कर सकती है।
000 
फैक्ट फाइल 
- मध्यप्रदेश में 1060 अंग्रेजी शराब और 2624 देशी शराब की दुकानें हैं। 
- 2002-03 में देशी शराब की खपत 390.58 लाख लीटर और विदेशी शराब की खपत 350 लाख लीटर थी! मार्च 2015 तक 1103.69 लाख लीटर देशी तथा 1439.77 लाख लीटर विदेशी की खपत हुई।  
- 2004 से अब तक प्रदेश में शराब की खपत चार गुना और शराब से होने वाली आय दस गुना बढ़ी! 
- देश में शराब से होने वाला राजस्व डेढ़ लाख करोड़ रुपए ज्यादा है। 
- यह व्यवसाय 30% सालाना की दर से बढ़ रहा है। 
- देश में हर साल शराब की खपत 19 अरब लीटर है। इससे हर साल 1.45 लाख करोड़ रुपए का कारोबार होता है। 
- भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा शराब बाजार है। साथ ही ये सबसे तेजी से बढ़ता बाजार भी है। 
- दुनिया में भारत व्हिस्की का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। शराब की कुल खपत का 80% हिस्सा देसी-विदेशी व्हिस्की का है। 
- राज्य सरकारों के कुल राजस्व का 16 से 20% हिस्सा उन्हें शराब से ही आता है। 
- तमिलनाडु सरकार को शराब पर राजस्व से हर साल में 21 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की प्राप्ति होती है। 
--------------------------------------------------------

Wednesday, March 30, 2016

शराब ने उड़ाई खुमारी!

- हेमंत पाल  

   इंदौर। सरकार को प्राप्त होने वाले राजस्व का एक बड़ा हिस्सा शराब व्यवसाय से प्राप्त होता है। लेकिन, इस बार सबसे ज्यादा घाटा शराब से मिलने वाले राजस्व से ही होने वाला है। ये भी हो सकता है कि जो दुकानें ठेकेदारों ने नहीं ली है, वहाँ सरकार को खुद ही शराब बेचना पड़े! जानकर बताते हैं कि इस साल सरकार को शराब ठेकों से करीब सवा 6 हजार करोड़ रुपए मिलने का अनुमान था! लेकिन, संभव नहीं कि सरकार इस आंकड़े के आसपास भी पहुँच पाएगी! सरकार को इस साल 1200 करोड़ के ज्यादा के राजस्व का नुकसान होगा! ताजा हालात ये हैं कि सरकार ने अपने बजट में शराब व्यवसाय से जितनी आय का अनुमान लगाया था, उसमें 25% की कमी तो उसने स्वीकार कर ही ली! 

  अभी तक सरकार 6 बार शराब दुकानों की नीलामी के लिए निविदाएं आमंत्रित कर चुकी हैं, लेकिन, अभी भी कई दुकानें नीलामी से बची रही! शराब व्यवसाय से जुड़े कई ग्रुप इस बार कन्नी काट गए! प्रदेश के कई जिले ऐसे हैं जहाँ एक भी टेंडर नहीं आया है। कुछ जिलों में 2 या 3 टेंडर ही आए। आबकारी महकमा कितनी भी कोशिश कर ले, पर सरकार को इस साल बड़ा राजस्व नुकसान होना ही था। ख़ास बात ये है कि इस साल आबकारी के जानकारों ने आबकारी-नीति बनाने में कुछ ख़ास मेहनत की थी! वे मान रहे थे कि जिन ठेकेदारों के पास दुकानें हैं, उन्हें 15 प्रतिशत बढ़ाकर आसानी से रिनुवल किया जा सकेगा! लेकिन, उनका भ्रम जल्दी ही टूट गया! अधिकांश ठेकेदारों ने रिनुवल में रूचि नहीं दिखाई! वे सरकार से और कम दर पर ठेके लेने का दबाव बनाते रहे! क्योंकि, शराब व्यवसाय भी पिछले 2 साल में लगातार 10 से 20 प्रतिशत घटा है। 2015-16 वित्त वर्ष में ही प्रदेश में कई जगह शराब ठेकेदारों ने दुकानें बीच में छोड़ दी थी! वहां सरकार को खुद शराब बेचना पड़ी! 
  जब दुकानों के ठेके नहीं हुए तो आबकारी विभाग थोड़ा नरम पड़ा और 15% बढाकर रिनुवल करने की जिद छोड़ी! दबाव और ज्यादा बढ़ा और ठेकेदार सामने नहीं आए तो वर्ष 2015-16 से 10 प्रतिशत कम पर दुकानें देने को राजी हो गए! लेकिन, फिर भी स्थिति ये है कि कई दुकानों के लिए ठेकेदार सामने नहीं आए! सरकार की सबसे बड़ी मजबूरी ये है कि उसने अपने सालाना बजट में आबकारी से अनुमानित आय का आकलन पहले ही बढाकर कर लिया है! पिछले साल की कुल आय में 15% की बढ़ोतरी का उसे सहज अनुमान था, जो गलत भी नहीं था! अब रिनुवल के 15% कम तो सरकार ने कर ही दिए, पिछले साल से 10% और कम करने को राजी हो गई! यानी 25% का राजस्व घाटा सरकार को सामने नजर आ रहा है!    
   प्रदेश में पिछले कई सालों से ठेकेदारों के ग्रुप सरकार के साथ मिलकर व्यवसाय कर रहे थे। लेकिन, सरकार ने कभी भी करोड़ों का राजस्व देने वाले इन ठेकेदारों को अपना नहीं माना! उन्हें हमेशा प्रशासन ने भी दबाया, पुलिस ने भी और आबकारी विभाग तो खैर दूध देती गाय समझता ही है। 2016-17 वर्ष के लिए जो आबकारी नीति बनाई गई, उसमें सरकार ने ठेकेदारों को विश्वास में नहीं लिया! अफसरों को लगा कि वे जो चाहेंगे, ठेकेदार वो मानने को मजबूर होंगे! लेकिन, ऐसा नहीं हुआ! अफसरों ने जो तय किया उसका ठेकेदार विरोध करने की स्थिति में तो नहीं थे, इसलिए उन्होंने हाथ खींच लिए! उनका इतना करना था कि सरकार सकते में आ गई! सरकार की यह नीति पूरी तरह असफल साबित हुई। प्रदेश के सभी ठेकेदारों के लामबंद होने का अफसरों को अंदाजा नहीं था! एक बात ये भी कि चालू वित्त वर्ष में जो नए शराब व्यवसाई इस बिजनेस में कूदे थे, वे कहीं नजर नहीं आ रहे!


-----------------------------

Friday, March 25, 2016

डंडे से जोर से नहीं बदलेगी खुले में शौच की आदत!


- हेमंत पाल

  इन दिनों पूरे देश साथ प्रदेशभर में 'खुले में शौच से मुक्ति' का अभियान चल रहा है। जिलों का पूरा सरकारी लवाजमा आजकल इसी काम में लगा है। लगता है जैसे प्रशासन के पास बस यही एक काम बचा! गांव को सुधारने का ये अभियान इस तरह चलाया जा रहा है, जैसे सारे गांव अभी तक बिगड़े हुए थे। कोई ये नहीं सोच रहा कि सदियों से चल रही ये प्रथा सरकारी डंडे से नहीं, लोगों का सोच बदलने से बदलेगी! खुले में शौच सिर्फ लोगों की मज़बूरी नहीं, एक आदत है। गांव में कई लोगों के यहाँ टॉयलेट होते हुए भी वे खुले में ही जाते हैं! उसके पीछे मूल कारण कि उनकी बरसों से यही आदत पड़ी है। अब सरकार रातों रात गाँव वालों को बदलने की कोशिश में है। ख़ास बात ये है कि प्रशासन सख्ती से ये आदत बदलने की कोशिश में है, जो संभव नहीं! 
000

   जाने-माने व्यंगकार श्रीलाल शुक्ल की प्रसिद्ध रचना 'राग दरबारी' में उन्होंने खुले में शौच की मध्ययुगीन मानसिकता पर गहरा आघात किया है। साथ ही देश को आधुनिक बताने के पाखंड पर चोट की है। लेखक के मुताबिक जिस देश में करोड़ों लोगों को शौच करने की सुविधा नहीं है, वह देश तो मध्ययुगीन ही होगा! इस व्यंग्य रचना में गाँव की महिलाओं के खुले में शौच करने का दृश्यांकन इस लिहाज से 'क्लासिक' है कि इसमें भारत की भारतीयता और इसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगता है। इस प्रकार के वर्णनों को पढ़कर संभ्रांत और कुलीन आलोचकों/पाठकों को भदेसपन की बू आ सकती है! पर, जब यही सच है तो है! जिनके घर में टॉयलेट हैं वे तो नाक भौं सिकोड़ेंगे ही! जिन्हें बरसात में घर से बाहर शौच के लिए निकलना पड़ता है, उनका दर्द इस व्यंग्य उपन्यास में खुलकर व्यक्त हुआ है! भलेमानुस की भलमनसियत की मलामत भी की गई है। लगता है श्रीलाल शुक्ल की इसी व्यंग्य रचना ने ही सरकार को खुले में शौच के मुद्दे पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया!

  इंदौर जिले को खुले में शौच से मुक्त कर दिए जाने की घोषणा 26 जनवरी को की गई थी! दावा किया गया कि खुले में शौच से मुक्त होने वाला इंदौर प्रदेश में पहला और देश में पश्चिम बंगाल के नादिया के बाद दूसरा जिला है। जिले की 312 ग्राम पंचायतों के 610 गांवों के हर घर में शौचालय बन चुके हैं। वहाँ के नागरिकों ने खुले में शौच जाना बंद कर दिया है। कंपेल पंचायत के 40 घरों में शौचालय बनना बाकी है। प्रशासन का कहना है कि यह उपलब्धि देश में सबसे अलग है, जिसमें लोगों ने इसे खुद हांसिल किया! देश में बाकी जगह ये सरकार के द्वारा प्राप्त किया कार्यक्रम था! कहा जा रहा है कि इंदौर का ये मॉडल देश और प्रदेश के लिए रोल मॉडल बनेगा! इंदौर का खुले में शौच से मुक्त होना देश का पहला ऐसा मॉडल है जो मांग आधारित है! गांव के बच्चों, महिलाओं ने माता-पिता से जिद की और घरों में शौचालय बनवाए! लोग शौचालय का उपयोग भी कर रहे हैं। इसका प्रमाणीकरण हो गया है। इसमें कितना सच है, इसका दावा नहीं किया जा सकता! क्योंकि, शौच की आदत दबाव से नहीं सोच से ही बदल सकना संभव है! इंदौर का झोपड़पट्टी इलाका इस सबके लिए अभिशप्त है, पर प्रशासन शायद दिखाई नहीं दे रहा!
  इंदौर जिले की मौरोद पंचायत में 'खुले में शौच मुक्ति' का अभियान बच्चे चला रहे हैं! जब कोई व्यक्ति शौच करने बाहर जाता है, तो इस गांव के 30 से अधिक बच्चे सुबह 4 बजे से उठकर सीटी बजाते हैं! खुले में शौच जाने वालों को सचेत करते हैं, उन्हें समझाते तथा रोकते हैं! केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी कहा था कि बच्चों की इस 'वानर सेना' ने जो कार्य किया वह प्रशंसनीय है। इंदौर के 700 से अधिक गांव में 10 हजार से अधिक बच्चों की 'वानर सेना' सफाई के लिए पुल बना रही है। रविशंकर प्रताप सिंह ने कहा कि वे इस वानर सेना के प्रवक्ता बनेंगे और अपने ट्विटर और फेसबुक एकाउंट पर भी इसका उल्लेख करेंगे! सरकार का लोगों को उत्साहित करने का ये नजरिया सही तो है, पर क्या इस सबसे स्थाई हल निकल पाएगा? गाँवों को खुले में शौच से मुक्ति की बात की जा रही है, पर क्या इस तरह के पाखंडों से इंदौर शहर इस बीमारी से मुक्त हो पाएगा?  
  प्रदेश सरकार ने अक्टूबर 2014 से सितंबर 2015 के बीच लगभग 5.69 लाख शौचालय बनवाए थे! जबकि, 5 साल की कार्ययोजना के अनुसार लक्ष्य 90 लाख था। इसमें एक साल में एक लाख 80 हज़ार शौचालय बनना चाहिए थे! इस हिसाब से मध्यप्रदेश सरकार की उपलब्धि लगभग 31.7 प्रतिशत रही! आशय ये कि सरकार फेल हो गई। इस गति से 2019 तक लगभग 28,45,000 शौचालय ही बन सकेंगे। ये होगा कि निर्धारित लक्ष्य के बाकी 61,58,900 शौचालय बनाने के लिए 2019 के बाद 11 साल और लगेंगे। लक्ष्य 2030 तक या इसके बाद ही हासिल हो सकेगा। इसमें भी गुणवत्ता और लोगों द्वारा उनके उपयोग की गारंटी शामिल नहीं है।
  पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि खुले में शौच से मुक्ति हमारे संस्कारों व प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ मसला है! इस अभियान को हमें और अधिक प्रभावी बनाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि लोगों की सोच में बदलाव लाने के लिए गंभीर प्रयास किए जाएं। सभी कलेक्टर और जिला पंचायत सीईओ से अपेक्षा की गई है कि वे इस अभियान की कामयाबी के लिए सजग और गंभीर रहें! गोपाल भार्गव ने कहा कि लोगों की मानसिकता बदलने के लिए कुछ सख्ती करना पड़े तो प्रशासन स्वतंत्र हैं। शासन की योजनाओं का लाभ लेने वाले यदि खुले में शौच करते दिखें तो उनके राशन कार्ड निरस्त कर दिए जाएँ! जिनके बंदूक के लाइसेंस हैं और खुले में शौच करने जाते हैं, तो उनके लाइसेंस भी निरस्त कर दिए जाए। दरअसल, यही वो सरकारी डंडा है लोगों का इस अभियान का विरोध करने के लिए मजबूर करता है!
  इस सच को भी नाकारा नहीं जा सकता कि देश की आबादी का करीब आधा हिस्सा (62 करोड़ लोग) खुले में शौच करते हैं। बच्चों की करीब आधी आबादी के शारीरिक विकास के अवरुद्ध होने का कारण भी यही हो सकता है। कई शोध के नतीजों के कई लोग सहमत नहीं हैं कि असंतुलित आहार और खानपान की आदतें भी भारत में कुपोषण के लिए जिम्मेदार हैं। कई का यह मानना है कि गंदगी भी कुपोषण के कारकों में एक हो सकता है। ऐसे ‘मोबाइल टॉयलेट’ से मुक्ति हमारे लिए बड़ी चुनौती है।
  सरकारी योजनाओं में शौचालय निर्माण की बात तो जोर-शोर से की जाती है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। जो तस्वीर हमारे सामने रख रही है, उसे नकारना पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पॉपुलेशन हेल्थ के प्रोफेसर डॉ एस.वी. सुब्रमण्यम ने खुलासा किया है कि यह समस्या गरीब घरों में ही नहीं, संपन्न तबकों के बच्चों में भी है। इसकी वजह यह है कि संपन्न घरों में शौचालय की सुविधा होती है, पर उनके आसपास के कमजोर घरों में ऐसा नहीं होता! मक्खियों और पानी के माध्यम से वह भी बैक्टीरिया से संक्रमित होते हैं। इसलिए सुब्रमण्यम कहते हैं कि घरों में शौचालय होना सुरक्षा की गारंटी नहीं है!
शौचालय के इस्तेमाल से संबंधित आदत और सोच को बदलना खुले में शौच की प्रवृति को रोकने के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। यदि भारत साल 2019 तक खुले में शौच की परिघटना को समाप्त करना चाहे तो ग्रामीण इलाकों में शौचालय के निर्माण के साथ-साथ उसके उपयोग और रखरखाव को बढ़ावा देना बहुत जरुरी होगा।
-----------------------------------------

Monday, March 21, 2016

परदे से परे दुखांत प्रेम कहानियां



- हेमंत पाल 


  फिल्मों की दुनिया बड़ी अजीब है। यहाँ जितनी प्रेम कहानियां परदे पर जीवंत होती है, उससे कहीं ज्यादा परदे से परे बनती और बिगड़ती रहती हैं। परदे पर कथानक के मुताबिक प्रेम का नाटक करते-करते कब ये कलाकार असल प्रेम के बंधन में बंध जाते हैं, इन्हें खुद पता नहीं चलता! जब से परदे पर प्रेम का रंग चढ़ा है, तभी से फ़िल्मी कलाकारों की जिंदगी में भी यही असर आने लगा! फिल्मों की इस रंग बदलती दुनिया में प्रेम भी थिएटर में चढ़ती और उतरती फिल्मों की तरह होता है। जिस तरह कुछ फ़िल्में लम्बे समय तक चलती है, उसी तरह प्रेम के कुछ रिश्ते भी लम्बे चलते हैं। जबकि, कुछ रिश्ते पनपते ही मुरझा भी जाते हैं। फिल्मों का कोई भी दौर हो, प्रेम कहानियां कभी पुरानी नहीं पड़ती! ब्लैक एंड व्हाइट के दौर में भी परदे पर प्रेम का वही माहौल था जो आज है। प्रेम कहानियां हमेशा ही बनती रही हैं। कभी छुपकर प्यार हुआ, कभी खुलेआम। कुछ प्यार सफल हुए तो कुछ ने बगावत की कहानियों को जन्म दिया! हमेशा ही कोई न कोई ऐसी फिल्मी-जोड़ी बनी, जिसने फ़िल्मी कहानियों से ज्यादा अपने प्रेम से दर्शकों को आकर्षित किया है। 

   गुरुदत्त और वहीदा रहमान का 'प्यासा' से पनपा प्यार बाद में परवान नहीं चढ़ सका! पर, इस प्रेम की कहानियां कई दिनों तक चर्चा में रही! गुरुदत्त की फिल्मों की तरह उनकी प्रेम कथा का अंत भी सुखांत नहीं हुआ! कुछ ऐसी ही कहानी राज कपूर और नर्गिस है। 'आवारा' के दौरान दोनों के बीच प्रेम का बीज पनपा। दोनों की जोड़ी कई फिल्मों में साथ दिखाई दी! कई फिल्में रिलीज भी हुईं। राज और नर्गिस के रोमांस किस्से जब कपूर परिवार तक पहुंचे तो राज कपूर की पत्नी ने विद्रोह कर दिया! बाद में ये मामला सुलझा और राज कपूर और नर्गिस की जोड़ी टूट गई! लेकिन, 'आरके बैनर'  पहचान वाले प्रतीक चिन्ह में ये प्रेम कथा आज भी जीवंत है। 
  गुरुदत्त ने वहीदा रहमान को 'सीआईडी' में हीरोइन बनाया था। तभी से गुरुदत्त और वहीदा में प्रेम का अंकुर फूट गया था। गुरुदत्त को वहीदा में 'चौदहवीं का चांद' नजर आया। इसका असर उनके परिवार पर भी पड़ा। गीता दत्त से रिश्ता टूट गया। लेकिन, गुरुद्त्त के लिए वहीदा को पाना मुश्किल था। इस बाद वे गहरी उदासी में डूब गए। बाद में गुरुदत्त ने आत्महत्या कर ली! कहते हैं कि उनकी आत्महत्या कारण प्रेम में असफल होना भी रहा! कुछ इसी तरह का किस्सा ट्रेजेडी किंग कहे जाने वाले दिलीप कुमार का भी है। मधुबाला के साथ उनके प्रेम की कहानी आज भी पुराने फिल्मकारों में जीवित है। ये प्यार मधुबाला के पिता को स्वीकार नहीं था। दिलीप कुमार ने जब मधुबाला से कहा कि शादी के बाद उसे अपने पिता से संबंध तोड़ना होगा! मधुबाला को यह मंजूर नहीं हुआ और ये कहानी उसी दिन ख़त्म हो गई। इसके बाद दिलीप कुमार और वैजयंती माला के प्रेम के किस्से भी खूब चले। 'गंगा जमुना' के बाद तो दिलीप ने उन्हें अपनी हर फिल्म में मौका दिया। 'संगम' के समय भी राजकपूर का वैजयंती माला से प्रेम चल रहा था। 
  देवआनंद और सुरैया की प्रेम कहानी भी परदे से परे ख़ूब चली। दोनों ने खुलकर प्यार तो किया, पर सुरैया की नानी के कारण इस कहानी का भी सुखांत नहीं हुआ! देवानंद कोशिशों के बावजूद बात नहीं बनी। देवानंद ने तो मंगनी की अंगूठी तक बनवा ली, पर सुरैया से उनकी शादी नहीं हो सकी। फिल्मों से अलग होने के बाद सुरैया अकेली ही रहीं। कुछ ऐसी ही दुखांत कहानी अमिताभ बच्चन और रेखा की भी रही। परदे पर दोनों की जोड़ी बेहद सफल रही, पर प्रेम में असफल हो गई। ये कहानी कभी खुलकर तो सामने नहीं आई! लेकिन, यश चोपड़ा ने अपनी फिल्म 'सिलसिला' के जरिए इसे उजागर कर दिया। दोनों के प्रेम के चर्चे फ़िल्मी दुनिया में सबकी जुबान पर थे। इस कारण अमिताभ और जया का रिश्ता भी कुछ समय कसैला हुआ।  
  लेकिन, हर प्रेम कहानी का अंत दुखद नहीं हुआ! धर्मेंद और हेमा मालिनी, राजेश खन्ना और डिंपल कपाड़िया, ऋषि कपूर और नीतू सिंह की प्रेम कहानी परवान भी चढ़ी! लेकिन, ताजा दौर में ऐश्वर्या राय और सलमान खान, शाहिद कपूर और करीना कपूर, अभिषेक बच्चन और रानी मुखर्जी ऐसी प्रेम कथाएं हैं जिनके प्यार को मंजिल नहीं मिल सकी। 
------------------------------------------------------------------

Sunday, March 13, 2016

धाराओं में बंटे सिनेमा का असल मकसद


हेमंत पाल 

   फिल्मों को लेकर जब भी कभी गंभीर जिक्र छिड़ता हैं तो ये सवाल जरूर पूछा जाता है कि दर्शकों की पसंद का सिनेमा कौनसा है? सवाल सहज है, पर इसका जवाब उतना ही जटिल! क्योंकि, यही वो सवाल जिसका जवाब फिल्मों की सफलता का मापदंड होता है। दरअसल, हिंदी सिनेमा मुख्यतः दो धाराओं में बंटा है। एक में मुख्यधारा की फिल्में हैं, जिन्हें कमर्शियल या लोकप्रिय सिनेमा कहा जाता है। इस तरह की फिल्मों की सफलता का दृष्टिकोण व्यावसायिक सफलता से जुड़ा होता है। इन फिल्मों का हर साल सैकड़ों की संख्या में निर्माण होता है और इनकी कमाई भी उनकी लागत के मुताबिक होती है। ये फ़िल्में देखने वालों का भरपूर मनोरंजन करती हैं। दर्शक सबकुछ भूलकर इनमें डूब जाता है! इन फिल्मों का प्राणतत्व गीत-संगीत और नामचीन कलाकार होता हैं। ताजा जिक्र किया जाए तो आमिर खान की पीके, दक्षिण की फिल्म बाहुबली और सलमान खान की 'बजरंगी भाईजान! ये पूरी तरह काल्पनिक पटकथा को लेकर बनी मसाला फ़िल्में हैं, जिन्होंने जमकर मनोरंजन किया और सैकड़ों करोड़ का कारोबार किया!   

  दूसरी श्रेणी की फ़िल्में हैं हल्की-फुल्की हास्य और पारिवारिक कहानियों वाली फ़िल्में! आज ऐसी फिल्मों का अभाव है, पर थोड़ा पीछे जाया जाए, तो बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, अमोल पालेकर, सई परांजपे और डेविड धवन, राजश्री प्रोडक्शन और कुछ हद तक रोहित शेट्टी को इस तरह की फ़िल्में बनाने में महारथ है।चुपके-चुपके, पिया का घर, अभिमान, नमक हराम,  आनंद, बावर्ची, गोलमाल सीरीज, रजनीगंधा, छोटी सी बात और बरफी ऐसी ही फ़िल्में हैं। राजश्री के बैनर तले भी पारिवारिक प्रसंगों पर आधारित फिल्में बनाईं जो संदेश और सुधारवादी दोनों दृष्टियों से मनोरंजन करती हैं। आरती, नदिया के पार, गीत गाता चल, दोस्ती, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, चितचोर, मैं तुलसी तेरे आँगन की तक की फिल्में पारिवारिक मूल्यों को मजबूती देने वाली फिल्में रही हैं। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस प्रोडक्शन हाउस ने मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, विवाह, मैं प्रेम की दीवानी हूँ और प्रेम रतन धन पायो फ़िल्में बनाई! ये फिल्में मनोरंजक होने के साथ ही भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं को भी पोषित करती रही हैं! 
  इन दो प्रमुख धाराओं के साथ ही एक सशक्त धारा समांतर सिनेमा या कला सिनेमा के रूप में भी विकसित होती रही है। कम बजट की, सच्चाई को उजागर करती और सपाट कथ्य लिए ये फ़िल्में विशेष सामाजिक मकसद की पूर्ति के लिए बनाई जाती हैं। इस धारा को विकसित करने वाले फिल्मकार एक नई सोच के साथ सामने आए! इनकी प्रतिबद्धता और सामाजिक दायित्व इनकी फिल्मों से उजागर हुआ! श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, ऋतुपर्णों घोष, दीपा मेहता, अनुराग कश्यप को इसी श्रेणी का फिल्मकार माना जाता हैं। लेकिन, इस तरह की फिल्मों को उतने दर्शक नहीं मिलते कि इनकी व्यावसायिक सफलता का कोई आधार बन सके! इसी श्रेणी में देश के विभाजन की त्रासदी पर भी कुछ अच्छी फिल्में बनी! प्रकाश द्विवेदी की पिंजर, खुशवंत सिंह की कहानी पर ' ए ट्रेन टू पाकिस्तान और टेलीफिल्म तमस महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा गुजरात के दंगों पर बनी परजानिया, सिख दंगों पर आधारित अम्मू भी बहुत प्रभावशाली फिल्में हैं, जो इन समस्याओं के प्रति सोचने को मजबूर करती हैं। 90 के दशक में मणिरत्नम, बालचंदर और के विश्वनाथ ने भी बॉम्बे और रोजा जैसी फ़िल्में बनाकर कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की नई धारा विकसित करने का प्रयास किया था! आतंकवाद और सांप्रदायिक दुराभाव के नतीजों को रेखांकित करने वाली इन फिल्मों को ख्याति भी मिली, पर अच्छे कथानक के अभाव में ये धारा पूरी तरह विकसित नहीं हो सकी!
  हर दौर में बदलते हालातों के साथ फ़िल्में समाज के हर रूप, रंग और सोच को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त करने में सफल हुई हैं। समाज के बदलाव में फिल्मों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! फिल्में ही मनोरंजन के साथ ज्ञान, नए सोच को समृद्ध करने का कारगर उपाय है। समय के साथ फिल्म प्रस्तुतीकरण की शैली में बदलाव दिखाई देता है! लेकिन, इसके केंद्र में व्यक्ति और समाज का जुड़ाव ही प्रमुख रहा हैं। फिल्में ही समाज को एक नई सोच दे सकती हैं। लेकिन, जरुरत है कि मनोरंजन के अलावा सौद्देश फिल्मों के निर्माण का भी दौर आए, जैसा आजादी के बाद आया था! यदि ये हो सका तो ही मनोरंजन का मकसद भी सफल होगा!
00000000000000000 

Friday, March 11, 2016

'कमल' को शह देने के लिए क्या कमलनाथ पर दांव लगेगा?



हेमंत पाल 


   मध्यप्रदेश की कांग्रेस राजनीति फिर करवट ले रही है। नेतृत्व को लेकर पत्ते फेंटे जाने लगे हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के विरोधियों ने कमलनाथ के हाथ में प्रदेश की कमान देने की चर्चाओं से सियासत गर्म कर दी है। नई कार्यकारिणी से नाराज हुए नेताओं ने भी इसी रास्ते में अपने तम्बू गाड़ लिए! वैसे तो प्रदेश कांग्रेस के नए अध्यक्ष का चुनाव नवंबर-दिसंबर में चुनाव होना है। लेकिन, लगता है कि कांग्रेस की राजनीति का ऊंट इससे पहले करवट ले सकता है।अध्यक्ष का फैसला संगठन चुनाव से ही तय होना है! किन्तु, सोनिया गांधी और राहुल गांधी की मर्जी के आगे, किसी की कब चली है! यही कारण है कि पार्टी हाईकमान का मिजाज भांपकर कमलनाथ के नाम पर माहौल बनाया जाने लगा! अब तक छिंदवाड़ा को ही सियासत की सीमा मानने वाले कमलनाथ कुछ दिनों से अपने क्षेत्र से बाहर भी सक्रियता दिखा रहे है। दो दशक बाद उन्होंने जबलपुर में युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ व्यापमं घोटाले पर हुए आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की थी। दो दशक में यह कमलनाथ का पहला मैदानी आंदोलन था। जिसकी पॉजीटिव रिपोर्ट हाईकमान तक भेजी गई!   
000 

  मध्यप्रदेश कांग्रेस में कमलनाथ को पार्टी का नेतृत्व सौंपने की मांग तेज होने लगी है। उनके समर्थन में खुलकर नारे लग रहे हैं। कमलनाथ भी कुछ ज्यादा ही सक्रिय हैं। कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस 2018 का विधानसभा चुनाव कमलनाथ की अगुवाई में लड़ सकती है। कमलनाथ समर्थक भी दावा कर रहे हैं पार्टी ने अपने सभी मोहरों को आजमा लिया, अब कमलनाथ को चांस दिया जाए! हालात भी ऐसे हैं कि कमलनाथ कांग्रेस के लिए मज़बूरी बनते जा रहे हैं। कुछ दिनों पहले महाकौशल इलाके में कमलनाथ ने अपनी ताकत का अहसास  कराया था! बालाघाट और मंडला में भी कमलनाथ के समर्थन में नारे लगे! प्रदेश कांग्रेस मुखिया बनाए जाने के साथ ही उनको 2018 में मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट करने की भी आवाज उठी! बताते हैं कि कमलनाथ ने खुद ही अपने आपको प्रोजेक्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! अगले विधानसभा चुनाव के लिए उनकी ही एक टीम ने सर्वे भी किया। इसका निष्कर्ष है कि यदि कांग्रेस पूरा जोर लगाए तो 2018 में वो प्रदेश की सत्ता में वापसी कर सकती है। यही कारण है कि कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष के रास्ते प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री सपना संजोने लगे हैं। 
  प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन ने भी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए कमलनाथ का नाम उछालकर राजनीतिक हलकों में चर्चा छेड़ दी। आरिफ अकील ने भी खुलकर बाला बच्चन की बात का समर्थन किया! कहा कि यदि कमलनाथ पार्टी अध्यक्ष बनते हैं, तो कांग्रेस का भला होगा! बाला बच्चन के अलावा कमलनाथ को नेतृत्व सौंपे जाने की मांग पर कई और विधायक खुलकर सामने आए! जबलपुर से तरुण भानोत और केवलारी के विधायक रजनीश सिंह खुलकर मांग करने लगे हैं। मंडला में तो तरुण भानोत ने मंच से ‘अबकी बार कमलनाथ’ के नारे तक लगाए। भनोत ने वर्तमान प्रदेश पर ऊँगली उठाते हुए कहा कि व्यापमं की लड़ाई लड़ने में हम कमजोर साबित हुए! इसके पीछे कहीं न कहीं नेतृत्व की कमजोरी रही! कमलनाथ 33 साल से सांसद है! अब कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस संभालना चाहिए! उन्हें अगले मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जाना चाहिए। रजनीश सिंह ने भी कहा कि आज प्रदेश कांग्रेस को सशक्त नेतृत्व की जरुरत है! कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस एक होकर मुकाबला कर सकती हैं। ओंकार सिंह मरकाम और संजीव उईके भी उन विधायकों में शामिल हैं जो कमलनाथ को नेतृत्व दिए जाने की मांग कर रहे हैं।
 जब से ये मांग उठी, ये कहा जाने लगा है कि कमलनाथ को कमान सौंपने और अगले चुनाव में कमलनाथ को प्रोजेक्ट करने की मांग एक तय रणनीति के तहत उठी है। पार्टी हाईकमान ने ही कमलनाथ को प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने का इशारा किया हैं। इन्हीं संकेतों के कारण पिछले तीन महीने से कमलनाथ ने सक्रियता बढ़ाई है। हाईकमान की भी मज़बूरी है कि अब उसके पास कमलनाथ के अलावा कोई ऐसा चेहरा नहीं बचा, जिस पर दांव लगाया जा सके! दिग्विजय सिंह, सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया और ज्योतिरादित्य सिंधिया को पार्टी आजमा ही चुकी है। इन सभी को पार्टी चुनाव में कोई न कोई अहम जिम्मेदारी देकर नतीजे देख लिए हैं। इसके बावजूद 2003 से हार का सिलसिला लगातार जारी है। अब पार्टी के पास अकेले कमलनाथ ही बचे हैं! देखना ये है कि 2018 में कमलनाथ का जादू सर चढ़कर बोलता है या कांग्रेस ये चेहरा भी दूसरों की तरह पिट जाएगा।
   प्रदेश की राजनीति में कमलनाथ की सक्रियता को इस नजर से देखने वाले भी कम नहीं है कि दिल्ली की राजनीति में वे हाशिए पर आ गए हैं। उम्र के ढलते दौर में उन्हें प्रदेश में राजनीति करना ही बेहतर नजर आ रहा है। कांग्रेस में 33 साल से सांसद इस नेता को राजनीतिक से ज्यादा उद्योगपति समझा जाता है। उनकी पूरी राजनीतिक शैली कार्पोरेट घराने जैसी है। यही कारण है कि वे येन केन प्रकारेण हमेशा अपनी सीट बचाकर रखने में कामयाब हो जाते हैं। जबकि, उन्हीं के छिंदवाड़ा इलाके में कांग्रेस विधानसभा चुनाव हार जाती है। फिलहाल कांग्रेस के सामने पैसे का भी संकट है! यदि उन्हें प्रदेश कांग्रेस का दारोमदार सौंपा जाता है तो पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को इस चिंता से भी निजात मिल जाएगी! अरुण यादव भी उनसे कम तो नहीं पड़ते, पर अपनी जेब से पार्टी चलाने कौशल में वे पीछे रह जाते हैं। 
  एक सवाल ये भी है कि प्रदेश में कांग्रेस को ऑक्सीजन के लिए जिस ताकतवर नेता की खोज है क्या वो चेहरा कमलनाथ हो सकते हैं? उनके नेतृत्व में क्या कांग्रेस मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार को उखाड़ने का सपना संजो सकती है? देखा जाए तो कांग्रेस के लिए अभी ऐसा कोई भी सपना सच होता नहीं लग रहा! क्योंकि, कांग्रेस के जो तीन क्षत्रप मध्यप्रदेश में सक्रिय हैं, उनका लक्ष्य तो एक है, पर राह नहीं! वे भाजपा सरकार को तो हटाना चाहते हैं, पर उसका सारा श्रेय किसी एक नेता को मिले, ये सहन नहीं! दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया जब तक नहीं चाहेंगे, कमलनाथ भी कोई चमत्कार नहीं कर सकते! ये तीनों क्षत्रप दिखाने को अरुण यादव के खिलाफ नहीं है, पर उनके खिलाफ बारूद बिछाने मौका भी नहीं छोड़ते! अरुण यादव के खाते में झाबुआ जीत भले ही बड़ी हो, पर मैहर की हार भारी पड़ रही है। ऐसे में यादव विरोधियों को कमलनाथ के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ने में दिलचस्पी हो न हो, अरुण यादव को निपटाने की जल्दबाजी ज्यादा है! यदि कांग्रेस हाईकमान कमलनाथ को प्रदेश का दारोमदार सौंप भी देता है तो क्या उनकी ढलती उम्र उन्हें दो साल बाद होने वाले चुनाव से जूझने की इजाजत देगी? एक बात ये भी है कि अभी जो लोग कमलनाथ के कंधे पर बंदूक रखकर अरुण यादव की तरफ निशाना लगाए बैठे हैं, क्या वे हमेशा उनके साथ खड़े होंगे? कमलनाथ के नेतृत्व की मांग जब जोर पकड़ रही है तब दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य जैसे दिग्गजों के समर्थक किस पाले में नजर आते हैं! 
  ये भी नहीं कहा जा सकता कि कमलनाथ को कमान सौंप देने से प्रदेश की मरी पड़ी कांग्रेस में जान आ जाएगी! जो कमलनाथ आज तरोताजा नजर आ रहे हैं, वे वास्तव में वैसे हैं! सच्चाई ये है कि कमलनाथ की राजनीतिक शैली से उनके समर्थकों को हमेशा ही शिकायत रही है! ये भी कारण है कि वे कभी प्रदेश स्तर पर जनाधार वाले नेता नहीं रहे! छिंदवाड़ा और कुछ हद तक महाकौशल से बाहर उनके इक्का-दुक्का ही समर्थक दिखाई देते रहे हैं! इंदौर में सज्जन सिंह वर्मा, शाजापुर में हुकुमसिंह कराड़ा, निमाड़ में बाला बच्चन ही उनके मालवा में पुराने समर्थक रहे हैं! पिछले विधानसभा चुनाव के बाद तो कमलनाथ ने अपने लोकसभा क्षेत्र के बाहर ज्यादा दौरे भी नहीं किए! उनकी राजनीति पूरी तरह दिल्ली से छिंदवाड़ा तक केंद्रित रही! अब वे न तो केंद्रीय राजनीति में हैं और न उन्हें लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी मिली! ऐसे में वे अपनी राजनीतिक भूमिका को लेकर जद्दोजहद में हैं। इसी उहापोह में उन्हें मध्यप्रदेश में पार्टी की कमान थामने की कोशिश करना सबसे आसान लगा! लेकिन, फिर भी अभी उनके लिए अभी भोपाल दूर ही लग रहा है।   
0000000000000000000000000000000000

Wednesday, March 9, 2016

अपराध का मनोरंजन बन जाना

हेमंत पाल 

    हर बाजार की तरह खबर और मनोरंजन का भी एक बड़ा बाजार है। जब से छोटे परदे की अहमियत बढ़ी है, ये बाजार और ज्यादा फला-फूला है। इसी बाजार का एक प्रमुख आइटम है 'अपराध।' समाज में घटने वाली सामान्य अपराधिक घटनाओं को सनसनी बनाकर पेश करने में छोटे परदे को महारथ हांसिल कर ली है! जब टीवी पर ख़बरों की दुनिया का विस्तार हुआ, तब अपराध से जुडी ख़बरों को इतनी ज्यादा अहमियत नहीं थी! लेकिन, धीरे-धीरे जब अपराध की ख़बरें बिकाऊ माल लगने लगी, तो इन पर कार्यक्रम बनने लगे! ख़बरों में भी हिंसा वाली घटनाओं का हिस्सा अलग दिखाया जाने लगा! जब चैनल वालों का इस पर भी मन नहीं भरा तो अपराधिक ख़बरों को नए कलेवर में स्टोरी बनाकर पेश किया जाने लगा! आजतक पर 'जुर्म', एबीपी न्यूज पर 'सनसनी', एनडीटीवी पर 'डायल 100', जी न्यूज पर 'क्राइम रिपोर्टर', आईबीएन 7 पर 'क्रिमिनल', ईटीवी पर 'दास्ताने-जुर्म' और इंडिया टीवी पर 'एसीपी अर्जुन'। ऐसा भी समय आया था जब रिमोट पर किसी भी खबरिया चैनल का बटन दबाओ देखने को 'क्राइम न्यूज़' ही मिलती थी!

  इसके बाद यही दौर मनोरंजन चैनलों पर भी आ गया! सोनी-टीवी पर 'सीआईडी' को चलते-चलते 17 साल हो गए हैं। ये शो इस चैनल के सबसे लोकप्रिय शो में से एक है। इसी चैनल पर 'क्राइम पेट्रोल' भी समाज में घटे अपराधों के नाट्य रूपांतरण वाला शो है, जिसे दर्शकों काफी सराहा है। इसी तरह 'लाइफ-ओके' पर 'सावधान-इंडिया' जैसा शो चल रहा हैं। इन शो की टीआरपी अन्य शो से कहीं बेहतर है। इस तरह के टीवी शो की शुरुवात 1997 में सुहैब इलियासी ने की थी! वे सबसे पहले जी-टीवी पर 'इंडियाज मोस्ट वांटेड' शो लेकर आए। उन्हें टीवी पर ऐसा क्राइम शो बनाने की प्रेरणा लंदन के चैनल-फोर पर दिखाए जाने वाले शो से मिली थी। भारतीय दर्शकों में ये टीवी शो बेहद लोकप्रिय हुआ था। 'इंडियाज मोस्ट वांटेड' का हर एपिसोड किसी एक फरार 'मोस्ट वांटेड' अपराधी पर होता था! अपराधी की वास्तविक तस्वीर के साथ उस कारनामे की कहानी को नाट्य रूपांतरण बनाकर दिखाया जाता था! तब इस शो की लोकप्रियता का आलम ये था कि कई बड़े फरार अपराधी दर्शकों की मदद से दबौच लिए गए! यही टीवी शो बाद में 'फ्यूजिटिव मोस्ट वांटेड' नाम से 'दूरदर्शन' के परदे पर भी दिखाया गया। इसके बाद सुहैब इलिसासी इस शो को 'इंडिया टीवी' पर भी लाए थे।
  धीरे-धीरे छोटे परदे के ये क्राइम शो इतने लोकप्रिय हो गए कि इनका एक अलग दर्शक वर्ग तैयार हो गया! ये क्राइम शो हॉरर मूवी जैसा कथा संसार रचते थे। इन शो को देखने का जूनून कुछ वैसा ही था जैसा कभी अपराध पत्रिकाएं 'मनोहर कहानियां' और 'सत्यकथा' पढ़कर लोग पूरा करते थे। जब अन्य मनोरंजन चैनलों पर सास, बहू मार्का सीरियलों की धूम थी, तब 'सोनी-टीवी' पर 'सीआईडी' ने अपनी धाक जमाई! मनगढ़ंत अपराध कथाओं की गुत्थी को नाटकीय तरीके से सुलझाने वाली एससीपी प्रद्युम्न की टीम को इतना पसंद किया गया कि ये सीरियल आज 17 साल बाद भी टीआरपी खींचने की ताकत रखे है। 'लाइफ-ओके' चैनल पर इसी तरह का क्राइम-शो 'सावधान-इंडिया' भी पसंद किया जाना शो है। 'सोनी' के 'क्राइम पेट्रोल' में भी अपराधों की चीरफाड़ की जाती है, ताकि दर्शक अपराधी की मानसिक स्थिति को भी समझ सकें! नए चैनल 'एंड-टीवी' पर 'एजेंट राघव' भी इसी कलेयर का क्राइम शो है।   
  सवाल ये उठता है कि क्या अपराधों को ग्लैमराइस तरीके से पेश किया जाना जरुरी है? जब लोग टीवी पर समाज में घटने वाले अपराध को सिर्फ खबर की तरह देखना चाहते हैं, तो उसे बढ़ा-चढ़ाकर क्यों दिखाया जाता है? ख़बरों में अपराध, मनोरंजन में अपराध के बाद फिर अपराधों का नाट्य रूपांतरण! मनोरंजन चैनलों पर तो इस तरह के शो बार-बार रिपीट किए जाते हैं! दर्शाया ये जाता है कि लोग इस तरह की ख़बरों से सीख लेकर सजग रहें! जबकि, वास्तव में ऐसा होता कहाँ है? बल्कि, इस तरह के शो से अपराधिक लोगों ने जरूर सीख लेना शुरू कर दी! वे पुलिस कार्रवाई को भी समझने लगे और क़ानूनी दांव पेंचों को भी! इससे ये बात भी साबित हो गई कि अपराध सबसे ज्यादा बिकने वाला विषय है! फिर उसे अखबारों में अपराध कथाओं की तरह पेश किया जाए! पत्रिकाओं में सत्यकथा बनाकर या फिर टीवी की ख़बरों में क्राइम रिपोर्ट बनाकर! पर सबसे ज्यादा घातक है अपराध का मनोरंजन जाना! वही आज सच बनकर सामने भी आ रहा है!
000 

Friday, March 4, 2016

कंजूस विधायक कैसे खर्च करेंगे 2 करोड़?


- हेमंत पाल 

   राजनीति के अपने ही रंग हैं! यहाँ सत्ता और विपक्ष के बीच रस्साकशी भी समय के मुताबिक होती है। विपक्ष के विधायकों को यदि लगता है कि सत्ताधारी विधायकों के साथ खड़े होने से फ़ायदा हो सकता है तो वे ये मौका भी नहीं गंवाते! ये प्रसंग हाल ही में आया, जब विधायक निधि बढ़ाने को लेकर मध्यप्रदेश विधानसभा के हर रंग के विधायक एक हो गए! सभी ने मुख्यमंत्री से कहा कि हमारी विधायक निधि बढ़ाई जाए! मुख्यमंत्री ने मांग के मुताबिक 5 करोड़ तो नहीं की, पर अब विधायकों को 77 लाख के बजाए, 2 करोड़ रुपए सालाना मिला करेंगे! बात अलग है कि जो विधायक सालभर में 77 लाख रुपए भी ठीक से खर्च नहीं कर पाते हैं, वो 2 करोड़ को ठिकाने कैसे लगाएंगे? इस साल भी विधायक अपनी निधि को अभी तक पूरा खर्च नहीं कर सके हैं। इसमें भी संदेह है कि पूरी राशि खर्च हो भी पाएगी या नहीं?
000000000 


   बेवजह के मामलों को लेकर सदन में सत्ताधारी पक्ष और विपक्ष अकसर लड़ते नजर आते हैं! लेकिन, जब खुद के वेतन और विधायक निधि का मामला आता है, तो एकजुट हो जाते हैं। विधायक निधि बढ़वाने के लिए पिछले दिनों भाजपा, कांग्रेस और बसपा के विधायक एकजुट हो गए! सत्ताधारी और विपक्ष के करीब 30 विधायकों ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मिलकर विधायक निधि बढ़ाकर 5 करोड़ करने की मांग की थी! इनका कहना था कि 85 लाख रुपए पूरे नहीं पड़ते! इसमें 77 लाख रुपए विकास कार्यों पर खर्च किए जाते हैं, जबकि 8 लाख रुपए स्वेच्छानुदान है। पिछले सत्र में राऊ विधायक जीतू पटवारी ने भी सभी दलों के विधायकों के साथ मुख्यमंत्री से मिलकर विधायक निधि बढ़ाने की मांग की थी। तब भी मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया था कि राशि जल्द बढ़ाई जाएगी। मुख्यमंत्री ने भी विधायकों को भरोसा दिलाया कि सरकार इस पर विचार कर रही है। विधानसभा उपाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह की अध्यक्षता वाली कमेटी ने भी विधायक निधि की राशि 5 करोड़ करने की सिफारिश की है! किन्तु, प्रदेश की माली हालात देखते हुए वित्त विभाग विधायक निधि मद में डेढ़ करोड़ रुपए से ज्यादा देने को तैयार नहीं था! इसके बाद अंतिम फैसला मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री किया! नतीजा ये निकला कि विधायक निधि 77 लाख से बढाकर 2 करोड़ रुपए साल कर दी गई! 

  मुद्दे की बाते ये है कि प्रदेश के 230 विधायक प्रदेश की सवा सात करोड़ जनता पर इस साल की 177 करोड़ की विधायक निधि भी पूरी खर्च नहीं कर सके! फ़रवरी मध्य तक 161 करोड़ रुपए की विधायक निधि खर्च नहीं हो पाई थी! इस हिसाब से देखा जाए तो 77 लाख रुपए सालाना विधायक निधि को कम बताने वाले विधायक इस राशि का 10% भी खर्च नहीं कर पाए! इसी से लगता है कि विधायकों की मांग और वास्तविकता में कितना अंतर है! विधायक निधि की राशि का 10% भी खर्च नहीं होने का सीधा सा मतलब है कि इस साल इस राशि का अधिकांश हिस्सा लैप्स हो जाएगा! विधायकों को हर साल उनके निर्वाचन क्षेत्र में निर्माण कार्यों के लिए 77.34 लाख रुपए दिए जाते हैं। इस वित्त वर्ष में फरवरी के मध्य तक विधायक निधि के खर्च की स्थिति बताती है कि विधायकों को सिर्फ अपनी निधि बढ़वाना थी! काम करने में उनकी कोई रूचि नहीं है। 
   जानकारी के मुताबिक प्रदेश के 230 विधायकों को इस साल खर्च के लिए 177 करोड़ 87 लाख रुपए का राज्य सरकार ने प्रावधान किया है। जबकि, विधायकों ने खर्च किए 16 करोड़ 84 लाख रुपए! यह कुल राशि का 9.46% है। संभव है पिछले 15 दिनों में ये राशि कुछ बढ़ गई हो, पर पूरी विधायक निधि खर्च हो सकेगी, इसके आसार नहीं है। ये पहली बार नहीं हुआ! पिछले साल भी विधायक निधि की बड़ी राशि विधायकों द्वारा समय पर अनुशंसा नहीं किए जाने के कारण चलते लैप्स हो गई थी। बाद में विधायकों के दबाव में सरकार ने तीसरे अनुपूरक बजट में लैप्स हुए 7 करोड़ 24 लाख की रकम को फिर से बजट में शामिल कर खर्च की अनुमति दी! 
  विधायक निधि में पारदर्शिता को लेकर भी अकसर उँगलियाँ उठती रहती है। कई बार ये मीडिया की सुर्खियां भी बनती रही हैं। काम के मानक स्तर, अनावश्यक खर्च और अपने वाले ठेकेदारों को काम देने को लेकर विधायकों को कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है। ये बातें सिर्फ आरोप ही नहीं होते, कई बार ये बातें सही भी होती हैं। लेकिन, सरकार के पास विधायक निधि से होने वाले निर्माण कार्यों को लेकर पारदर्शिता का कोई फार्मूला नहीं है! जिला योजना समिति और कलेक्टर समेत कई माध्यमों से होकर इस राशि का उपयोग होता है! लेकिन, कोई फुल-प्रूफ फार्मूला नहीं है, जो मतदाता के सामने खर्च होने राशि को स्पष्ट करे! 
    इस मामले में दिल्ली की केजरीवाल सरकार की सराहना करना पड़ेगी, जिसने इसके लिए एक फार्मूला निकाला। है पारदर्शिता के मामले में दिल्ली की 'आप' पार्टी सरकार ने विधायक निधि की जानकारी ऑनलाइन कर दी है। ऐसा करने वाला दिल्ली देश का पहला राज्य बन गया है! किस विधायक ने कितनी राशि खर्च की है, इसकी पाई-पाई का हिसाब जनता के सामने होगा। इस व्यवस्था के लागू होने से सबसे बड़ा फ़ायदा ये होगा कि विधायक निधि में पारदर्शिता आएगी! जनता का कोई भी व्यक्ति विधायक निधि के बारे में जानकारी ले सकता है। उसे ये भी पता होगा कि उसके इलाके में बनने वाली सड़क पर कितना पैसा खर्च किया जा रहा है और कौन सा ठेकेदार ये काम करवा रहा है। ये भी पता होगा कि काम कितने दिन में पूरा हो जाएगा! 
   इसका एक लाभ ये भी होगा कि जनता जागरूक होगी कि उनका विधायक काम ठीक से करवा रहा है या नहीं! विधायक अपने दफ्तर या घर में बैठकर ही बजट जारी किए जाने के लिए अनुरोध कर सकेंगे। इस प्रक्रिया व्यवहार में आने के बाद विकास कार्य में तेजी आ सकेगी। दिल्ली के विधायक यदि रात में भी अपने मोबाइल या लैपटाप से अपने निधि से सड़क बनाने का अनुरोध भेजेगा, तो उसे पोर्टल के माध्यम से संदेश मिलेगा कि आपका अनुरोध पंजीकृत कर लिया गया है। इस व्यवस्था को दिल्ली अर्बन डेवलपमेंट अथारिटी (डूडा) से जोड़ा गया है। यदि इस तरह की कोई व्यवस्था मध्यप्रदेश में भी लागू की जाती है, तो ये सच भी मतदाताओं के सामने आ जाएगा कि उनका निर्वाचित प्रतिनिधि कितना सजग है और विधायक निधि खर्च करने में कितना ईमानदार है!     
  विधायक निधि को लेकर कई राज्यों में कई विवाद भी हो चुके हैं। उत्तर प्रदेश में इस निधि से विधायकों को 20 लाख रुपए तक की कार खरीदने तक की अनुमति देने का मामला हो चुका है! बाद में भारी विरोध के बाद ये फैसला बदल दिया गया था! बिहार में तो विधायक निधि को बदनामी की जड़ मानते हुए 2010 से रोक ही लगा दी गई! मध्यप्रदेश में ये व्यवस्था करीब तीन दशक पहले एक लाख रुपए सालाना से शुरू हुई थी, जो 77 लाख से होकर 2 करोड़ तक पहुँच गई! सुलगता सवाल ये है कि जो विधायक अपनी 77 लाख रुपए सालाना निधि को खर्च करने में ही कंजूसी बरतते हों, उनसे 2 करोड़ रुपए कहाँ और कैसे खर्च होंगे? 
----------------------------------------------------------------