Sunday, June 28, 2020

ऐसी फ़िल्में जिसमें गीतों की जगह नहीं!

- हेमंत पाल

   दुनियाभर में फिल्मों को मनोरंजन और जनचेतना जगाने का सबसे आसान और सटीक माध्यम माना जाता है। देश की आजादी के पहले बनी फिल्मों और आज की फिल्मों में समयकाल का अंतर है! लेकिन, तब से आज तक जो नहीं बदला वो है फिल्मों में गीत! कभी कहानी साथ देने के लिए तो कभी कहानी को आगे बढ़ाने के लिए बरसों से फिल्मों में गीतों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। दुनिया में हिंदी फ़िल्में ही हैं, जिनमें गीतों के बगैर काम नहीं चलता। कहानी में सिचुएशनल के मुताबिक गाने पिरोकर दर्शकों के सामने ऐसा माहौल बनाया जाता है कि वो बंधा रहता है। फ़िल्मी कारोबार में भी गीत-संगीत कमाई का बड़ा जरिया है! ये भी एक कारण है कि फिल्मों में गीत भी अहम् किरदार निभाते हैं। ऐसी बहुत सी फिल्मों के नाम गिनाए जा सकते हैं, जिन्होंने अपने गीतों की वजह से सफलता हांसिल की! लेकिन, कुछ ऐसी फ़िल्में भी आई, जिन्होंने इस प्रथा को तोड़ा! इन फिल्मों के कथानक में गीतों के लिए कोई जगह नहीं थी! इसके बाद भी इन फिल्मों ने सफलता पाई! ये चमत्कार इसलिए हुआ कि इनकी कहानी बहुत प्रभावशाली थी, जिसने दर्शकों को सोचने तक का मौका नहीं दिया। 
  बॉलीवुड के इतिहास में बिना गीतों वाली पहली फिल्म 'कानून' को माना जाता है, जो 1960 आई थी। इसे बीआर चोपड़ा ने निर्देशित किया था। ये फिल्म कानूनी पैचीदगियों के बीच से एक वकील के दांव-पेंच की कहानी थी, जो हत्यारे को बचा लेता है। इसमें सवाल उठाया गया था कि क्या एक ही अपराध में किसी व्यक्ति को दो बार सजा दी जा सकती है? ये फिल्म इसी सवाल का जवाब ढूंढती है। इस फिल्म में अशोक कुमार ने एक वकील का किरदार निभाया था। बगैर गीतों वाली दूसरी फिल्म थी 'इत्तेफ़ाक़' जिसे 1969 में यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था। राजेश खन्ना और नंदा ने इसमें मुख्य भूमिकाएं निभाई थी। यह फिल्म एक रात की कहानी है, जिसमें दर्शक बंधा रहता है। गीतों के बिना भी ये फिल्म पसंद की गई थी। यह फिल्म हत्या से जुड़े एक रहस्य पर आधारित थी, यही कारण था कि दर्शको को फिल्म में गीत न होना खला नहीं। 
   बरसों बाद श्याम बेनेगल ने 1981 में 'कलयुग' बनाकर इस परम्परा की याद दिलाई थी। इसमें शशि कपूर, राज बब्बर और रेखा मुख्य भूमिकाओं में थे। महाभारत से प्रेरित इस फिल्म में दो व्यावसायिक घरानों की दुश्मनी को नए संदर्भों में फिल्माया गया था। बदले की कहानी पर बनी इस फिल्म में कोई गाना न होने के बावजूद इसे पसंद किया गया था। इसे 'फिल्म फेयर' का सर्वश्रेष्ठ फिल्म (1982) का पुरस्कार भी मिला। इसके अगले साल 1983 में आई कुंदन शाह की कॉमेडी फिल्म 'जाने भी दो यारो' आई जिसमें नसीरुद्दीन शाह, रवि वासवानी, ओमपुरी और सतीश थे। ये एक मर्डर मिस्ट्री थी, जिसने व्यवस्था पर भी करारा व्यंग्य किया था।  
  बिना गीतों की फिल्म की सबसे बड़ी खासियत होती है पटकथा का कसा होना। यदि फिल्म की कहानी इतनी रोचक है कि वो दर्शकों को बांधकर रख सकती है, तो फिर गीतों का न होना कोई मायने नहीं रखता! इस तरह की अगली फिल्म 1999 में रामगोपाल वर्मा की आई। ये रोमांचक कहानी वाली फिल्म थी 'कौन है!' इसमें मनोज बाजपेयी, सुशांत सिंह और उर्मिला मांतोडकर ने काम किया था। इस फिल्म की पटकथा इतनी रोचक थी, कि दर्शकों को हिलने तक का मौका नहीं मिला था। 2005 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म 'ब्लैक' जिसने भी देखी, उसे पता भी नहीं चला होगा कि फिल्म में कोई गीत नहीं था। अमिताभ बच्चन और रानी मुखर्जी की ये फिल्म एक अंधी और बहरी लड़की और उसके टीचर की कहानी थी। इस फिल्म को कई अवॉर्ड्स भी मिले थे। 
  इसके अलावा बिना गीतों वाली कुछ और उल्लेखनीय फिल्मों में 2003 में रिलीज हुई 'भूत' थी, जिसका निर्देशन राम गोपाल वर्मा ने किया था। इस फ़िल्म में अजय देवगन, फरदीन खान, उर्मिला मातोंडकर और रेखा थे। ये डरावनी फ़िल्म थी और इसमें एक भी गीत नहीं था। इसी साल आई फिल्म 'डरना मना है' में सैफअली खान, शिल्पा शेट्टी, नाना पाटेकर और सोहेल खान थे। इस फ़िल्म में भी कोई गीत नहीं था, फिर भी यह हिट हुई। 2008 में आई 'ए वेडनेसडे' अपनी कहानी के नयेपन की वजह से सुर्खियों रही थी। फ़िल्म में एक आम आदमी की कहानी थी, जो व्यवस्था से परेशान होकर खुद उससे टक्कर लेता है। 2013 की फिल्म 'द लंचबॉक्स' दो अंजान अधेड़ प्रेमियों की कहानी थी, जो लंच बॉक्स जरिए प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान करते हैं। इस फ़िल्म में इरफान खान ने बहुत अच्छी एक्टिंग की थी। ऐसी ही कॉमेडी फिल्म 'भेजा फ्राई' 2007 में आई थी। लेकिन, कमजोर कहानी वाली इस फिल्म को पसंद नहीं किया गया। इसमें विनय पाठक, रजत कपूर और मिलिंद सोमन थे। 
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Tuesday, June 23, 2020

कांग्रेस से आने वालों को भाजपा अब अपने रंग में रंगेगी!

हेमंत पाल
   
   भारतीय जनता पार्टी ने दूसरी पार्टी से आने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपने रंग में रंगने की योजना बनाई है! पार्टी पहले उन्हें अपनी विचारधारा के सेनेटाइजर से सेनेटाइज़ करके उनका राजनीतिक संक्रमण दूर करेगी! फिर उन्हें अपने रंग में रंगेगी, ताकि वे भाजपा की विचारधारा और अनुशासन को समझ लें! भाजपा को ये जरुरत इसलिए महसूस हुई कि बाहर से आने वाले कार्यकर्ता अपने अलग ही रंग में होते हैं, जिससे कई पार्टी में मुश्किल खड़ी हो सकती है। अभी सबसे बड़ा खतरा 24 सीटों पर होने वाले उपचुनाव हैं, जिसमें वे सिंधिया समर्थक उद्दंडता दिखा सकते हैं, जो न तो भाजपा को रास आएगा और न उसके खांटी कार्यकर्ताओं को! जानकारी मिली है कि भाजपा ने 'संघ' के सहयोग से इन कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण सत्र की योजना बनाई है। फिलहाल ये विचार ही है, जिसे जल्दी कार्यरूप दिया जाएगा।     
    अब कहा जा सकता है कि कांग्रेस (या अन्य किसी पार्टी) से भाजपा में आने वाले कार्यकर्ताओं को अब आसानी से राजनीति करने का मौका नहीं मिलेगा। उन्हें भाजपा की सदस्यता लेने के बाद पार्टी की रीति-नीति, अनुशासन और प्रतिबद्धता से प्रशिक्षित किया जाएगा। भाजपा की चुनाव अभियान समिति में उठे इस मुद्दे को लेकर पार्टी ने गंभीरता दिखाई है। भाजपा के वयोवृद्ध नेता विक्रम वर्मा ने इस गंभीर मसले पर विचार रखा था! जानकारी के मुताबिक पार्टी संगठन और 'संघ' ने इस दिशा में एक प्रशिक्षण योजना बनाने के संकेत दिए हैं। लेकिन, इस योजना को अंतिम रूप दिया जाना बाकी है।    
   भाजपा और अन्य राजनीतिक पार्टियों में सबसे बड़ा अंतर अनुशासन और राजनीतिक सोच का है। पार्टी के ज्यादातर सदस्य आरएसएस (संघ) से निकले हैं, इसलिए वे राष्ट्रवादी नज़रिए, अनुशासन और पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता को समझते हैं। लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने के बाद उनके खेमे के कई लोग भाजपा में आ रहे हैं। जहाँ उपचुनाव होना है, वहाँ के उनके समर्थक भाजपा में आने लगे! इससे पार्टी में भीड़ तो बढ़ी है, पर ये खतरा भी खड़ा हो गया कि नए सदस्य क्या भाजपा के कठोर अनुशासन और पार्टी के प्रति सोच को समझ सकेंगे! इस समस्या का अंदाजा इसलिए हुआ कि ये समर्थक व्यक्ति केंद्रित राजनीति के पोषक हैं और अपने नेता को ही प्रचारित करने की कोशिश में रहते हैं। इससे भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं को आपत्ति आ रही है। पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विक्रम वर्मा जैसे कई पुराने नेताओं ने भी पार्टी को इस पर विचार करने को कहा है। पार्टी की बैठकों में भी इस मसले पर विचार-विमर्श हुआ और 'संघ' ने भी पार्टी को संभावित खतरे से अवगत कराया।  
  जानकारी के मुताबिक पार्टी ने दूसरी पार्टियों से आने वाले नए कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण सत्र आयोजित करने का विचार किया है। इसके लिए संघ की भी मदद लिए जाने की सूचना है। इस सत्र में नए कार्यकर्ताओं को पार्टी विचारधारा, राष्ट्रवादी सोच और अनुशासन की शिक्षा दी जाएगी। उन्हें ये भी सिखाया जाएगा कि भाजपा में व्यक्ति केंद्रित राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है! भाजपा कैडर बेस पार्टी है, जहाँ आगे बढ़ने के लिए कोई शार्ट कट नहीं होता! पार्टी विचारधारा से शिक्षित करने के अलावा बाहर से आने वाले इन नेताओं और कार्यकर्ताओं को भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं के साथ आपसी मेलजोल रखने की भी शिक्षा दी जाएगी। संगठन स्तर पर होने वाले इस प्रशिक्षण सत्र को संघ के जरिए चलाए जाने की योजना है! पर, अभी इस संबंध कोई अंतिम फैसला होना बाकी है।
    भाजपा को इस बात की भी आशंका है कि ग्वालियर-चंबल इलाके में उपचुनाव के दौरान पुराने पार्टी कार्यकर्ताओं और सिंधिया के साथ आए लोगों में आपसी तनाव हो सकता है। क्योंकि, यहाँ की 15 विधानसभा सीटों पर भाजपा के वे उम्मीदवार चुनाव में उतरेंगे, जो पहले कांग्रेस में थे। इनके साथ भाजपा में आए कार्यकर्ताओं का अपना जोश है, जो वहाँ के पुराने भाजपा कार्यकर्ताओं को शायद रास न आए! विक्रम वर्मा का भी कहना है, कि भाजपा की चुनाव लड़ने की शैली और कांग्रेस की शैली में अंतर हैं! ये कहीं तनाव का कारण न बने, इसलिए नए कार्यकर्ताओं को मूल विचारधारा की जानकारी देना भी जरुरी है।    
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कांग्रेस के सामने चुनौतियों का पहाड़ तो भाजपा में असंतोष का साया!

   मध्यप्रदेश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस और भाजपा ने उपचुनाव के लिए कमर कस ली है। जहाँ ये चुनाव होना है, वहां के माहौल में राजनीतिक गरमाहट को महसूस भी किया जाने लगा! एक-दूसरे के पाले में घुसकर तोड़फोड़ किए जाने की भी ख़बरें हैं। लेकिन, उपचुनाव की तैयारियों के मामले में अभी भाजपा का पलड़ा भारी है। क्योंकि, उसके लगभग सारे उम्मीदवार पहले से तय हैं। उसे तो अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के संभावित असंतोष को दूर करके उन्हें मुकाबले के लिए तैयार करना है। उसके लिए ये चुनौती बहुत बड़ी है! जबकि, कांग्रेस के सामने उम्मीदवारों का चयन बड़ा सवाल है। इसके साथ ही उसे ऐसी रणनीति बनाने की भी जरुरत है, जो भाजपा उम्मीदवारों को कमजोर करे! इस नजरिए से देखा जाए तो मुश्किल दोनों के सामने है। भाजपा का संगठन मजबूत है, पर उम्मीदवारों पर दलबदल का दाग है। जबकि, कांग्रेस विपक्ष में है और उसका संगठन बिखरा सा है!
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- हेमंत पाल 

    प्रदेश में 24 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव का माहौल बनने लगा है। शहरी क्षेत्रों की सीटों पर स्थानीय स्तर की कुछ तैयारी भी दिखाई देने लगी, पर ग्रामीण सीटों पर अभी हलचल कम है। उधर, भाजपा के 22 उम्मीदवार तो तय हैं, इसलिए उसे सिर्फ रणनीतिक तैयारी करना है! जबकि, कांग्रेस को सभी 24 सीटों के जीतने वाले उम्मीदवार चुनने के साथ पूरा दमखम लगाना होगा! भाजपा को शिवराज सरकार बचाने के लिए भी ज्यादा मेहनत नहीं करना है, पर कांग्रेस के लिए चुनौती ज्यादा बड़ी है। राज्यसभा चुनाव में 4 निर्दलीय और बसपा-सपा के 3 विधायकों की मदद लेकर भाजपा ने अपनी सरकार बचाने की जुगाड़ भी कर ली! लेकिन, ये कांग्रेस के लिए एक नए संकट की तरह है। जब कांग्रेस की सरकार थी, तब ये उसके पाले में थे, अब भाजपा की सरकार है, तो उसकी चिलम भरते नजर आ रहे हैं।    
   इस बार मध्यप्रदेश में होने वाले ये चुनाव सिर्फ राजनीतिक ताकत दिखाने का दंगल नहीं होगा, बल्कि ये चुनाव प्रदेश में भविष्य की राजनीति भी तय करेंगे! वास्तव में तो सबसे बड़ी चुनौती ज्योतिरादित्य सिंधिया और भाजपा के लिए है! इन उपचुनावों के जरिए सिंधिया को ये भी साबित करना है कि ग्वालियर-चंबल इलाके में उनकी तूती बोलती है और कांग्रेस के बगैर भी उस ताकत को कोई मात नहीं दे सकता! इस इलाके में भाजपा जो सीटें जीतेगी, वो भाजपा के नहीं, बल्कि सिंधिया के खाते में जाएंगी। भाजपा भी इससे अनजान नहीं है, पर यदि भाजपा ने इसे आसानी से स्वीकार लिया, तो उसके लिए ये हमेशा की मुसीबत बन सकती है। फिलहाल तो ये भाजपा की मज़बूरी है कि वो उस 'महाराज' को सर-माथे पर बैठाए जो हर चुनाव में उसके निशाने पर रहे हैं! लेकिन, यदि ग्वालियर-चंबल इलाके की 16 सीटों में से सिंधिया के बागियों ने ज्यादा सीटें जीत ली, तो राजनीति के शेयर बाजार में इस इलाके के भाजपा नेताओं के बाजार भाव जमीन पर आ जाएंगे। पर, वे कुछ कर भी नहीं सकते, सिवाए पार्टी हाईकमान का आदेश मानने के। ग्वालियर अंचल की जिन 16 विधानसभा सीटों पर चुनाव होना है, उनमें 15 सीटों पर तो बागी ही चुनाव लड़ेंगे! पर, जौरा विधानसभा का भाजपा उम्मीदवार अभी तय नहीं है। इस सीट पर विधायक रहे कांग्रेस विधायक स्व बनवारीलाल शर्मा भी सिंधिया खेमे के थे, इसलिए भाजपा को इस सीट के उम्मीदवार के लिए भी सिंधिया की बात मानना पड़ सकती है। 
   भाजपा हमेशा इलेक्शन मोड़ पर रहती है, इसलिए उसके लिए चुनाव की तैयारी मुश्किल नहीं है। लेकिन, उसके सामने 22 सीटों पर उम्मीदवारों और अपने कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल बैठाना मुश्किल है। डेढ़ साल पहले जिन कार्यकर्ताओं ने जिस नेता के खिलाफ चुनाव लड़ा, अब उन्हें उसके साथ झंडा उठाकर चलना होगा, जो सहज बात नहीं है। इसके अलावा जो नेता कांग्रेस से बगावत करके भाजपा आए हैं, उनके साथ आए कार्यकर्ताओं का समन्वय भी कठिन काम है। उम्मीदवार के लिए वो लोग महत्वपूर्ण हो सकते हैं जो उसके कहने पर पार्टी बदलकर भाजपा में आ गए! किंतु, भाजपा अपने उन कार्यकर्ताओं और नेताओं को तवज्जो देगी, जो बरसों से उसके साथ खड़े हैं। ऐसी स्थिति में दोनों के बीच खींचतान न हो, ये भी ध्यान रखना होगा। क्योंकि, दोनों पार्टियों के चुनाव लड़ने का अपना अलग तरीका है, जो विवाद का कारण भी बन सकता है। भाजपा के लिए दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। किसी को भी किनारे करना उसके लिए परेशानी खड़ी कर सकता है। भाजपा को उन बड़े नेताओं के अहम् का भी ध्यान रखना होगा जिनका इलाके में अपना वर्चस्व रहा है, पर कांग्रेस से आए लोगों के कारण वे हाशिए पर आ गए हैं।   
   जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो उसके पास दमदारी से चुनाव लड़ने के अलावा और कोई और विकल्प नहीं बचा। उसे हर सीट पर चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार की खोज तो करना ही है, साथ ही चुनावी रणनीति भी ऐसी बनाना है, जो भाजपा उम्मीदवार को पटखनी दे सके। कांग्रेस के पास अब ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा कोई जादुई चेहरा नहीं है, जिससे चमत्कार की उम्मीद की जा सके! पार्टी का सारा दारोमदार कमलनाथ और दिग्विजय सिंह पर है। ये दोनों कितने असरदार साबित होंगे, फिलहाल इस बारे में कोई दावा नहीं किया जा सकता। क्योंकि, कमलनाथ कभी जमीनी नेता नहीं रहे और न उन्होंने कभी ऐसी कोई कोशिश की है। दूसरे दमदार नेता दिग्विजय सिंह हैं, जिनका ग्वालियर-चंबल इलाके में अब ज्यादा प्रभाव नहीं रहा! कांग्रेस उम्मीदवार के चेहरे और अपनी चुनावी रणनीति से ही चमत्कार कर सकती है! पर कांग्रेस को एड़ी से चोटी तक का जोर लगाना होगा। उसे उन 22 विधायकों की बगावत को भी लोगों को लगातार याद दिलाना होगा! साथ ही उस आधार पर अपने लिए वोट का भी इंतजाम करना है। ये भी याद रखना है कि उनके पीछे पूरी तैयारी से भाजपा खड़ी है!  
    चुनावी तैयारी में कांग्रेस अभी तो भाजपा के मुकाबले पिछड़ती ही नजर आ रही है। इसका एक कारण ये भी है कि वो अभी तक सरकार गिरने और बगावत की हताशा से उबर नहीं सकी। कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा भी अभी कमजोर होने के साथ खेमों में बंटा है। आज भले ही सबसे बड़े खेमेबाज सिंधिया कांग्रेस में नहीं हैं, फिर भी कांग्रेस पार्टी में चुनावी तैयारी दम नहीं पकड़ रही! बात सिर्फ उम्मीदवार के चयन की नहीं है, चुनाव की बाकी तैयारी भी नजर नहीं आ रही! इससे पहले झाबुआ उपचुनाव के लिए कांग्रेस ने जो किया था, वो उस समय की बात है जब वह सरकार में थी! सत्ता में होते हुए उपचुनाव लड़ना और विपक्ष के पाले से चुनाव लड़ने में फर्क है। सामने 24 सीटों की चुनौती खड़ी है, तो इसके लिए कमजोर संगठन आड़े आ रहा है। शक नहीं कि कांग्रेस की इस हताशा ने भाजपा का हौसला बढ़ा दिया है। पर, इसका फ़ायदा वो कैसे उठाएगी, ये नहीं कहा जा सकता!  
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Saturday, June 20, 2020

भाजपा में कांग्रेसियों की भीड़ बढ़ने से समन्वय बिगड़ने का खतरा!

पार्टी की चुनावी बैठक में विक्रम वर्मा ने खतरे का संकेत दिया 

- हेमंत पाल 
   भाजपा की प्रदेश चुनाव अभियान समिति की बैठक में पार्टी के दिग्गज नेता विक्रम वर्मा ने एक ऐसी कड़वी बात कही, जिसने भाजपा में उभरते वैचारिक असंतुलन को उजागर कर दिया। पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि जिस तरह कांग्रेस कार्यकर्ता भाजपा में आ रहे हैं, ऐसे में हम पुराने कार्यकर्ताओं के साथ समन्वय कैसे बैठा सकेंगे! विक्रम वर्मा की इस चिंता को दूरदृष्टि की तरह देखा जाना चाहिए, जिसके नतीजे पार्टी हित में नहीं हैं। ये बात भले ही विक्रम वर्मा ने संक्षेप में कही हो, पर इसकी गंभीरता को समझना बहुत जरुरी है।  
    इन दिनों ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक कार्यकर्ताओं का रैला भाजपा की तरफ बढ़ रहा है। उन 22 विधानसभा क्षेत्रों के सैकड़ों कार्यकर्ता रोज ही भाजपा की सदस्यता ले रहे हैं, जहाँ उपचुनाव होना है। ये नहीं कहा जा सकता कि ये सभी कांग्रेसी थे और उस पार्टी को छोड़कर भाजपा में आ रहे हैं या भाजपा के प्रति उनकी कोई वैचारिक प्रतिबद्धता है। वे ये बताने की स्थिति में भी नहीं हैं कि उन्हें कांग्रेस से क्या शिकायत है! यदि पूछा भी जाए, तो वे समर्थन में  उस क्षेत्र के दलबदल करने वाले नेता का ही नाम लेंगे इससे ज्यादा उनके पास कोई तर्क नहीं है। इसका सीधा सा आशय है, कि उन्होंने मन से या किसी राजनीतिक कारणों से भाजपा की सदस्यता नहीं ली! ये उस भीड़ का हिस्सा हैं, जो सिंधिया समर्थक पूर्व विधायक उपचुनाव से पहले भाजपा में अपने समर्थन में बढ़ाना चाहते हैं। भाजपा इसलिए खुश है कि उसने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को तोड़कर उसे खोखला कर दिया! जबकि, ये सच नहीं है! भाजपा की इस तरह की खुशफहमी भविष्य के लिए गंभीर राजनीतिक खतरा हो सकती है! इसका विक्रम वर्मा जैसे नेता ने सिर्फ इशारा किया है। 
   भाजपा में विक्रम वर्मा उस खांटी पीढ़ी के नेता हैं, जिन्होंने कुशाभाऊ ठाकरे जैसे तपे हुए नेता से दीक्षा ली है। वे पार्टी की धारा को समझते हैं और उन्होंने प्रदेश में भाजपा के संगठन को बुनने और आकार देने में पसीना बहाया है। वे संगठन की बारीकियों, उसके कड़े अनुशासन और पार्टी में कार्यकर्ताओं के संगठनात्मक ढांचे को भी जानते हैं। यही कारण है कि उन्होंने जो कहा वो आज के किसी नेता के दिमाग में भी नहीं आया होगा। सिर्फ सत्ता पाने या उसे मजबूती देने के लिए भाजपा में जिस तरह की प्रक्रिया अपनाई जा रही है, वो बहुत घातक है। वर्मा जानते हैं कि भाजपा का असल कार्यकर्ता अनुशासन से बंधा होता है। उसे ये अनुशासन संघ की पाठशाला से मिलता है और इसे तोड़ने की वो कभी हिम्मत नहीं कर सकता! उसकी व्यक्तिगत विचारधारा कुछ भी हो, लेकिन वो कभी व्यक्तिपरक राजनीति करने की कोशिश नहीं करता और न पार्टी में इस सोच को कहीं स्थान दिया जाता है! जबकि, कथित कांग्रेस से जो कार्यकर्ता (या नेता) भाजपा में आ रहे हैं, वे सिर्फ सिंधिया के पीछे आ रहे हैं न कि भाजपा से जुड़ने की उनकी कोई मंशा है। उनके लिए ऊपर भी सिंधिया है, नीचे भी सिंधिया और बीच में भी सिंधिया है! वे व्यक्तिपरक नेतागिरी के लिए भाजपा का दामन थाम रहे हैं, न कि भाजपा की विचारधारा से प्रभावित होकर! 
  विक्रम वर्मा ने भाजपा और कांग्रेस कार्यकर्ताओं में समन्वय को लेकर जो चिंता जताई, उसे पार्टी ने गंभीरता से नहीं लिया, तो भाजपा में एक ऐसी धारा का प्रवाह होने लगेगा, जो अनुशासन के विपरीत होगी। क्योंकि, जो सिंधिया समर्थक भाजपा का झंडा थाम रहे हैं, उनके लिए भाजपा नहीं सिंधिया सर्वोपरि है। कांग्रेस में भी सिंधिया एक गुट था, पार्टी नहीं! वही गुट अब कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आ गया, पर उसका मूल स्वभाव आज भी कायम है। यहाँ तक कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस से उनके निजी प्रवक्ता भी भाजपा में आ गए! सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब सिंधिया भाजपा के नेता बन गए, तो उनकी बातों को मीडिया तक लाने की जिम्मेदारी भी भाजपा प्रवक्ताओं की है न कि सिंधिया के किसी प्रवक्ता की! फिर उन्हें निजी प्रवक्ता की जरुरत क्यों महसूस हुई! 
   भाजपा में संगठन के अनुशासन का अपना अलग तरीका है। यहाँ पार्टी सर्वोपरि है न कि नेता! जबकि, सिंधिया और उनके समर्थक जहाँ से आए हैं, वहाँ पार्टी अनुशासन जैसी कोई बात नहीं है। नेता जहाँ जाता है उसके साथ पूरा धड़ा उस दिशा में चला जाता है। सिंधिया समर्थकों की भाजपा में बढ़ती भीड़ उसी भेड़चाल का उदाहरण है। जबकि, संघ के अनुशासन में बंधे होने के कारण ही भाजपा में कभी 'वर्टीकल डिवाइडेशन' नहीं हुआ, जैसा कांग्रेस में कई बार हो चुका है। भाजपा में वीरेंद्र कुमार सकलेचा और कृष्णगोपाल माहेश्वरी ने एक बार 'मध्यदेशीय भारतीय जनता पार्टी' बनाई, पर कोई उनके साथ नहीं गया! उमा भारती ने मुख्यमंत्री रहने के बाद अपनी पार्टी बनाई, पर उनके साथ जाने वाले भी वे लोग थे जिन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है! जबकि, 2003 के चुनाव में प्रदेश के सभी 230 टिकट उमा भारती पसंद से बंटे थे और आसमान फाड़ बहुमत भी भाजपा को मिला था! लेकिन, जब उन्होंने भाजपा छोड़ी तो पीछे आने वाला कोई नहीं था! ये वो चंद उदाहरण हैं जो भाजपा कार्यकर्ताओं की पार्टी के प्रति आसक्ति दिखाते हैं! आज जो लोग कांग्रेस से भाजपा में आ रहे हैं क्या वो ऐसा कोई अनुशासन स्वीकार करेंगे! क्योंकि, उनकी राजनीति की धारा व्यक्तिपरक है। एक मुद्दा ये भी कि जब किसी इलाके में कांग्रेस से आए कार्यकर्ताओं और नेताओं की पूछपरख ज्यादा होने लगेगी तो भाजपा कार्यकर्ताओं की बात कौन सुनेगा! ऐसे में जो समन्वय बिगड़ेगा, अनुशासन बिगड़ेगा और पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का मन भी। 
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Thursday, June 18, 2020

सुशांत के बहाने ये प्रलाप क्यों!


- हेमंत पाल
   सुशांत सिंह की ख़ुदकुशी के बाद बॉलीवुड में कोहराम मचा है। कंगना रनौत, शेखर कपूर, अनुभव सिन्हा के अलावा कई बड़ी हस्तियों ने सुशांत की मौत पर सवाल खड़े किए! कहा गया कि सुशांत फ़िल्मी दुनिया में असुरक्षित महसूस  थे! उनका एक बड़े बैनर के साथ फ़िल्म कॉन्ट्रैक्ट को लेकर भी विवाद था। बॉलीवुड के कई बड़े फ़िल्मी घरानों ने सुशांत को काम नहीं करने दिया। इससे सुशांत गहरे अवसाद में थे। सुशांत की ख़ुदकुशी को इन सारी बातों से  जोड़कर देखा जा रहा है। इनमें कितनी सच्चाई है, ये जानने की कितनी भी कोशिश की जाए सच्चाई कभी सामने नहीं आएगी! कई जाने-माने कलाकारों के आरोप हैं कि पुराने दिग्गज नए लोगों को इंडस्ट्री में घुसने नहीं देते! शेखर कपूर ने भी कहा कि सुशांत उनके पास आकर रोया करते थे, क्योंकि बॉलीवुड के लोगों ने उन्हें निराश किया। कंगना रनौत ने कहा कि ये कोई सुसाइड नहीं, एक प्लान्ड मर्डर है। फिल्म इंडस्ट्री के पेशेगत प्रतिद्वंदिता के कारण उन्होंने ख़ुदकुशी की है। कहा जा रहा है, कि सुशांत सिंह पिछले कुछ समय से ज्यादा परेशान थे। उन्‍हें मुंबई क्राइम ब्रांच ने एक जांच के संबंध में तलब भी किया था। क्योंकि, उनकी पूर्व मैनेजर दिशा ने भी कुछ दिन पहले ख़ुदकुशी कर ली थी। पुलिस ने सुशांत का बयान भी लिया था। तभी से वे मानसिक रूप से परेशान थे। सच तो ये है कि सुशांत कामयाबी की सीढ़ियाँ दोगुनी तेजी से चढ़ रहे थे। इस लॉक डाउन के दौर में पिछले 3 माह में ऐसे किसी मुद्दे का टेंशन होना किसी के गले नहीं उतरता!
  बॉलीवुड में जब लोगों की लोकप्रियता बढ़ती है तो कलाकार एकाकी हो जाते हैं। ये उनकी मज़बूरी भी होती है कि वे उन्हीं से बचते हैं, जो उन्हें प्रसिद्धि देते हैं। सुशांत के बारे में कहा जाता है कि वे लोगों से जल्दी घुलते-मिलते नहीं थे! मानसिक परेशानी की स्थिति में व्यक्ति का यही अकेलापन उसे अंदर ही अंदर खाने लगता है। इस घटना को सुशांत की कायरता न समझकर इसका इल्जाम दूसरों पर डालने की कोशिश हो रही है। जबकि, सुशांत ने ‘छिछोरे’ फ़िल्म में जो किरदार निभाया, वो एक आशावादी और सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति का है। वे ख़ुदकुशी से बचे अपने बेटे को जिंदगी के बड़े से बड़े हादसे को सकारात्मकता ढंग से हल करने की बात करता है। अपने हॉस्टल के किस्सों जरिए उसे अपने संघर्ष से रूबरू करवाता है। लेकिन, वास्तविकता में सुशांत ऐसा नहीं था! वो महज एक फ़िल्मी किरदार था! इससे लगता है कि जीवन में कुछ ऐसे अप्रत्याशित तत्व होते हैं, जो व्यक्ति को नकारात्मक सोच के लिए मजबूर करते हैं। जब ये तत्व किसी की मनःस्थिति पर हावी होते हैं, तभी ऐसा कुछ होता है जो सुशांत के साथ हुआ! इस ख़ुदकुशी से ये बात एक बार  फिर साबित हुई।  
   इस ख़ुदकुशी ने बॉलीवुड के उन फ़िल्मी घरानों पर चर्चा जरूर छेड़ दी, जहाँ कुछ ख़ास कलाकारों की तूती बोलती है। ये आरोप भी लगा कि जो गैर फ़िल्मी युवा अपने सपनों को साकार करने इस दुनिया में आते की कोशिश करते हैं, ये ठिकाने उन्हें पैर नहीं ज़माने देते! यहाँ उनका ही सिक्का चलता है, जिनकी अपनी पहचान है और जड़ें फ़िल्मी दुनिया में गहरी है। यहाँ गॉडफादर के बगैर किसी की पूछ नहीं होती! यह परंपरा बरसों से चली आ रही है। ये आरोप है और हो सकता है कि सच्चाई भी हो, पर ऐसे घराने कहाँ नहीं हैं! हर कारोबार में घरानों की ही तो पूछ होती है! फिर क्या कारण है कि फ़िल्मी घरानों पर उंगली उठी? यहाँ तक कि राजनीति में भी परिवारवाद हावी है! फिर ये आरोप सिर्फ बॉलीवुड पर ही क्यों? 
   जिसमें टेलेंट है, उसे फ़िल्मी घरानों की कोई परंपरा नहीं रोक सकती! जिसमें क़ाबलियत नहीं है, वे भले नामी फिल्मवालों के बेटे-बेटी क्यों न हों, वे भी आउट हुए हैं। यदि घरानों से ही सबकुछ संभव होता, तो अमिताभ बच्चन का बेटा अभिषेक, जितेंद्र का बेटा तुषार और राजेश खन्ना-डिम्पल की बेटी ट्विंकल की फ़िल्में क्यों नहीं चली! जबकि, दूसरे दर्जे के हीरो रहे राकेश रोशन के बेटे रितिक रोशन ने सफलता में सबको पीछे छोड़ दिया। फिल्मों का कारोबार पूरी तरह दर्शकों की पसंद-नापसंद से चलता है, न कि घरानों की मनमर्जी से! नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने भी 14 साल तक कड़ा संघर्ष किया! फिल्मों में एक-एक सीन वाले छोटे रोल किए, पर हिम्मत नहीं हारी! उसी का नतीजा है कि आज उनकी अदाकारी का लोहा माना जाता है। इसलिए सुशांत की मौत पर सिर्फ फ़िल्मी घरानों को दोष देने वाली बात गले नहीं उतरती! यदि सुशांत को अवॉयड किया जाता तो एमएस धोनी और छिछोरे जैसी फ़िल्म उन्हें कैसे मिलती?
   कहा तो ये तक गया कि 'छिछोरे' के बाद सुशांत को सात फ़िल्में मिली थीं, पर एक-एक करके सभी या तो बंद हो गई या सुशांत को बदल दिया गया। इसे पहले बड़े बैनर की कुछ फिल्मों में सुशांत को लेने के बाद निकाल दिया था। इनमें संजय भंसाली की 'गोलियों की रासलीला : राम-लीला' और आदित्य चोपड़ा की 'बेफिक्रे' के नाम लिए जा रहे हैं। सुशांत ने इसके बाद भी कभी अपने दुःख का इजहार नहीं किया था। एक इंटरव्यू में ये जरूर कि यह बहुत मुश्किल है। यह हर किसी के लिए होता मुश्किल है! क्योंकि, हमने कुछ बहुत सफल बाहरी लोगों की कहानियों के बारे में भी सुना है और दुर्भाग्य से असफल अंदरूनी लोगों की कहानियों के बारे में भी! इसलिए, लंबे समय में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन थोड़े समय के लिए पड़ता है। अंदरूनी लोगों को वास्तव में उनकी विफलताओं को कम करने और उनकी सफलता को बढ़ाने के लिए थोड़ा अधिक स्पेस दिया जाता है। यहाँ अंदरूनी से उनका आशय उन लोगों से है, जिनकी जड़ें बॉलीवुड में है या वे किसी बड़े सितारे के बेटे या बेटी हैं। 
   कंगना रनौत ने करण जौहर को भाई-भतीजावाद का गॉड फादर कहा, जो इंडस्ट्री में आने वाले स्टार किड्स की मदद करते हैं और उनके शुरुआती करियर बनाने में मदद करते हैं! देखा जाए तो इसमें क्या बुराई है! वे वही तो कर रहे हैं, जो उन्होंने अपने फ़िल्मकार पिता से सीखा है! अब कंगना रनौत जैसे लोगों को उसमें भी खोट दिखाई देता है, तो ये उनकी अपनी परेशानी है! हादसों में भी अपनी बौद्धिक जुगाली का अवसर ढूंढने वाले ऐसे लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि करण जौहर ने सुशांत और जैकलीन फर्नांडिस को लेकर भी 'ड्राइव' बनाई थी। उन्होंने सुशांत को भी मौका तो दिया था! ये सही है कि सुशांत ने बॉलीवुड के छह साल के करियर में कई हिट फ़िल्में दी। 2013 में आई फिल्म 'काई पो चे' से लगाकर पिछले साल आई आख़िरी फिल्म 'छिछोरे' ने डेढ़ सौ करोड़ का कारोबार किया। इस फिल्म ने उनकी काबलियत साबित कर दी, थी कि वे असाधारण कलाकार थे! पर, क्या ये जरुरी है कि बड़े फ़िल्मी बैनर अपना नफा-नुकसान भूलकर किसी भी कलाकार को सिर्फ इसलिए मौका दें, कि ऐसा नहीं किया तो लोग क्या कहेंगे! जब फिल्म बनाना कारोबार है, तो फिर ये तोहमत क्यों? कंगना रनौत और अभिनव कश्यप जैसे लोग तो बस निजी खुन्नस के लिए बहाने ढूंढते रहते हैं! उनके लिए ये भी एक अवसर ही है और कुछ नहीं!  
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Tuesday, June 16, 2020

चिड़िया की आँख भेदने के लिए सबके तरकश में नए-नए तीर!

    मध्यप्रदेश में 24 विधानसभा सीटों के उपचुनाव की हलचल शुरू हो गई! ये उपचुनाव इसलिए महत्वपूर्ण है, कि इसी से सत्ता पर पकड़ का निर्धारण होगा। भाजपा ने 10-11 सीटें जीत ली, तो सत्ता पर उसकी पकड़ मजबूत हो जाएगी। पर, यदि वो ये लक्ष्य हांसिल नहीं कर सकी, तो कांग्रेस का पलड़ा भारी हो जाएगा! भाजपा की कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा सीटें जीती जाएं। कांग्रेस में अभी इस तरह की सक्रियता दिखाई नहीं दे रही। जहाँ भाजपा उपचुनाव के लिए जी-जान लगाती दिखाई दे रही है, वहीं कांग्रेस को भाजपा में असंतोष भड़कने का इंतजार है। वो भाजपा की हार में अपनी जीत खोज रही है। ऐसे माहौल में बसपा की मायावती ने भी इन उपचुनाव में उम्मीदवार उतारने का एलान करके सनसनी फैला दी। ग्वालियर-चंबल इलाके में बसपा का अपना अलग जनाधार है, जिसे नकारा नहीं जा सकता! मायावती में अचानक आई इस सक्रियता से कांग्रेस और भाजपा दोनों ने अपने तरकश में नए तीर रखने की तैयारी शुरू कर दी! इस सारे चुनावी माहौल को देखते हुए कहा जा सकता है कि उपचुनाव की चिड़िया की आँख भेदने के लिए सभी अर्जुन जैसी तैयारी में हैं। सबके तरकश में नए-नए तीरों की भी कमी नहीं, पर देखना है कि किसका निशाना सटीक बैठता है!
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- हेमंत पाल

   राजनीति का ऊंट बड़ा बेभरोसे का होता है! कब और कहाँ, किस करवट पलटी खा जाए कहा नहीं जा सकता। किसने सोचा था कि 15 महीने पहले चुनाव जीतकर सरकार बनाने वाली कमलनाथ सरकार बगावत के एक झटके से धराशायी हो जाएगी। कांग्रेस के एक गुट ने अपना पाया हटाया और सरकार जमीन पर आ गई! लेकिन, अभी राजनीति का वो अध्याय पूरा नहीं हुआ है। अभी अंतिम अध्याय लिखा जाना बाकी है, जो शिवराज-सरकार के सत्ता में पैर जमे होने की घोषणा करेगा और उसके साथ राजनीति की इस सियासी कथा की पूर्णाहुति होगी। ये अध्याय ही बताएगा कि दूसरे को गिराकर बनी सरकार क्या बरकरार रह पाएगी! सवाल बहुत पैचीदा है, पर इसके जवाब के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। सत्ता के सिंहासन का जो पाया 22 ईंटों से बना था, क्या वो फिर से बन पाएगा! यही कारण है कि अब फिर उसी ऊंट की करवट का इंतजार किया जा रहा है! दोनों ही तरफ से अपनी ताकत के दावे और प्रति-दावे किए जा रहे हैं! पर, अभी इनको परखा जाना बाकी है।
    प्रदेश की 24 विधानसभा सीटों के उपचुनाव होने वाले हैं। दो सीटें विधायकों के निधन और 22 सीटें विधायकों की बगावत से खाली हुई हैं। 24 में से 16 सीटें ग्वालियर-चंबल संभाग से आती हैं। ये पूरा इलाका कांग्रेस से बगावत के सूत्रधार ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक प्रभाव वाला माना जाता है। एक तरह से इस इलाके में उनके राजघराने की तूती बोलती है। यही कारण है, कि इस उपचुनाव पर मध्यप्रदेश की राजनीति का पूरा दारोमदार है। इस उपचुनाव के नतीजे ही तय करेंगे कि मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार और कांग्रेस का भविष्य क्या होगा? लेकिन, इस बार कांग्रेस के सामने सिर्फ चुनाव जीतना ही अकेली चुनौती नहीं होगी। उसे एक तरफ सिंधिया परिवार से मुकाबला करना होगा, दूसरी भाजपा को कमजोर करते हुए अलग तरह के जातीय समीकरण बैठाने हैं। उसे ज़मीनी तौर पर मजबूत होना होगा, तभी उपचुनाव की राह आसान होगी।
   कांग्रेस ने उपचुनाव वाले इलाकों में अपने संगठन को मजबूत करने की कवायद भी शुरू कर दी। पार्टी ने 11 नए जिला अध्यक्षों की नियुक्ति भी की! इनमें ज्यादातर जिले कांग्रेस से बगावत करके भाजपा का दामन थामने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के सियासी असर वाले हैं। कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ उपचुनाव वाले सीटों पर गोपनीय सर्वेक्षण करवा रहे हैं। समझा जा रहा है कि इन सर्वेक्षणों से ही उम्मीदवार तय होंगे। पता चला है कि कुछ सीटों की रिपोर्ट उन तक पहुंची भी है। 2018 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने यही फार्मूला अपनाया था। इसका नतीजा यह रहा कि उसने सीटों की गिनती में भाजपा को पीछे छोड़ दिया था। अब फिर इसी तरह की सर्वे रिपोर्ट को आधार बनाकर कमलनाथ सभी 24 सीटों के उम्मीदवारों का चयन करेंगे।
  प्रदेश में पिछले तीन महीने से राजनीतिक हलचल पूरी तरह शांत थी और शिवराज-सरकार अपने नैनों मंत्रिमंडल के साथ कोरोना संकट से जूझने में लगी थी। लेकिन, अब धीरे-धीरे राजनीति का चूल्हा भी गरमा रहा है, जिसपर उपचुनाव की चपातियाँ सिंकेंगी। लेकिन, अभी इस चूल्हें की आँच तेज करने की कोशिशें ही ज्यादा चल रही है। कांग्रेस ने 11 जिला अध्यक्षों की नियुक्ति करके अपनी सक्रियता का संकेत दिया, तो भाजपा ने हर सीट के चुनाव प्रभारी नियुक्त कर दिए! कांग्रेस ने उन अध्यक्षों को किनारे कर दिया, जिनकी नियुक्ति सिंधिया की सिफारिश से हुई थी। कांग्रेस की कोशिश और रणनीति ग्वालियर-चंबल संभाग की 16 में से ज्यादातर सीटों के उपचुनाव में जीत हांसिल करना है, ताकि सिंधिया के प्रभाव वाले ग्वालियर, श्योपुर, अशोक नगर और गुना जिले में सेंध लगाई जाए! कांग्रेस ने नए जिला अध्यक्षों को नियुक्त कर उन्हें उपचुनाव की ज़िम्मेदारी सौंपी है! जबकि, भाजपा इन इलाकों से ज्यादातर बागियों को मंत्रिमंडल में शामिल कर उनकी ताकत बढाकर उपचुनाव जीतना चाहती है! लेकिन, इन 16 सीटों के पुराने भाजपा नेता कहीं न कहीं पार्टी की इस रणनीति में अड़ंगेबाजी कर सकते हैं। ये कहानी सिर्फ 16 क्षेत्रों की नहीं, सभी 24 खाली सीटों पर है। भाजपा को ये खतरा इतना ज्यादा सता रहा है कि उसकी रातों की नींद हराम हो गई! यही कारण है कि मंत्रिमंडल विस्तार को टाला जा रहा है।
     इस सारी हलचल के बीच बहुजन समाज पार्टी ने जो सिक्का उछाला उससे दोनों पार्टियाँ भौचक हैं। बसपा सुप्रीमो ने सभी 24 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर दिया। मायावती के मैदान में कूदने से दोनों पार्टियों को चुनावी नुकसान का अंदेशा सताने लगा। क्योंकि, ग्वालियर-चंबल की वे सीमावर्ती विधानसभा सीटें जो उत्तरप्रदेश से लगी हैं, वहाँ बसपा का असर है। मायावती ने उपचुनाव लड़ने का मन इसलिए बनाया कि वो कुछ सीटें जीतकर त्रिशंकु सरकार बनने की स्थिति में अपना उल्लू सीधा करने की चाल चलना चाहती हैं। ये मायावती की पुरानी रणनीति रही है। डेढ़ साल पहले हुए चुनाव में ग्वालियर-चंबल संभाग की 13 सीटों पर उसे अच्छे वोट मिले थे। दो सीटों पर उसके उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे! जबकि, 13 सीटों पर बसपा के उम्मीदवारों को 40 हजार तक वोट मिले थे। अभी भी विधानसभा में बसपा के दो विधायक हैं।
   मायावती को भरोसा है कि उपचुनाव में उसे कुछ और सीट मिल सकती हैं। क्योंकि, इस क्षेत्र की मेहगांव, जौरा, सुमावली, मुरैना, दिमनी, अंबाह, भांडेर, करैरा और अशोकनगर में बसपा कभी न कभी जीत चुकी है। गोहद, डबरा और पोहरी में बसपा दूसरे नंबर पर रही है। जबकि, ग्वालियर, ग्वालियर (पूर्व) और मुंगावली में वो नतीजों को प्रभावित करने की स्थिति में रहती है। ग्वालियर-चंबल संभाग में कांग्रेस, बसपा दोनों ही पार्टियों के जनाधार वाले जातीय समीकरणों में ज्यादा अंतर नहीं है। यही कारण है कि बसपा उलटफेर करके सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखने की कोशिश में है। सामान्य तौर पर बसपा उपचुनाव में रुचि नहीं लेती। लेकिन, 22 कांग्रेस विधायकों की बगावत और इस्तीफे के बाद जिस तरह सत्ता परिवर्तन हुआ है, उससे बसपा की उम्मीदें जागी हैं। यही वजह है कि उसने सभी उपचुनाव लड़ने का एलान किया। लेकिन, मालवा और विंध्य में वो शायद उम्मीदवार न उतारे, पर ग्वालियर-चंबल में वो शतरंज की बिसात बिछा सकती है।     
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अपनी ही फिल्म का संदेश भूले सुशांतसिंह

- हेमंत पाल

  सुशांतसिंह राजपूत की फिल्म 'छिछोरे' का संदेश था कि 'जीवन में कोई भी परिस्थिति आए, व्यक्ति को आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाना चाहिए!' लेकिन, सुशांत ने उस फिल्म से भी कुछ नहीं सीखा और अपना जीवन समाप्त कर लिया। ये खबर विश्वसनीय तो नहीं है, पर सच यही है। बॉलीवुड पर कोरोना काल की आई त्रासदियों की ये एक और कड़वी घटना है। बताते हैं कि वे पिछले 6 महीने से अवसाद में थे। उनकी पूर्व मैनेजर दिशा सेलियन ने भी चार दिन पहले बिल्डिंग से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। क्या सुशांत और दिशा की आत्महत्या में कोई आपसी संबंध है, ये कयास भी लगाए जा रहे हैं। जाने-माने विलेन शक्ति कपूर की इस बात में दम है कि बॉलीवुड को किसी की नजर लग गई! एक-एक करके चर्चित लोग चले जा रहे हैं। 
    सुशांत के अंतिम इंस्टा मैसेज में भी बहुत कुछ ऐसा है, जो सोचने को मजबूर करता है। 'आंसू की बूंदों से धुंधला अतीत हवा में घुलता जा रहा है। अंतहीन सपने मुस्कान ला रहे हैं। ... और क्षणभंगुर जीवन दोनों के बीच से गुजर रहा है # मां!
   स्टार पुत्रों की भीड़ के बीच सुशांत अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हुए थे। वे उन चंद भारतीय टीवी और फ़िल्म अभिनेताओं में हैं जिन्होंने टेलीविजन से अपना करियर शुरू करके फिल्मों में भी मुकाम बनाया। सबसे पहले उन्होनें 'किस देश में है मेरा दिल' धारावाहिक में काम किया था। पर, उनको पहचान मिली एकता कपूर के धारावाहिक 'पवित्र रिश्ता' से। इसके बाद उन्हें फिल्मों के प्रस्ताव मिलना शुरु हुए। फ़िल्म 'काय पो छे' में उनके अभिनय की तारीफ़ हुई। इसके बाद वे 'शुद्ध देसी रोमांस' में वाणी कपूर और परिणीति चोपड़ा के साथ दिखे। फ़िल्म सफल रही और सुशांत का फ़िल्मी करियर परवान चढ़ गया। 
   अपनी पहली ही फिल्म से बॉलीवुड में अपनी जगह बनाने वाले सुशांतसिंह राजपूत  का भी जीवन आसान नहीं रहा है। मां बाप की इच्छा के बिना उन्होंने फिल्मों को अपना करियर चुना और इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाई। फिल्म ‘काय पे चे’ में निभाए गए अपने किरदार की प्रेरणा उन्हें अपनी बहन मीतू सिंह से मिली थी। एक समय ऐसा भी था, जब कोई बड़ी अभिनेत्री उनके साथ काम तक नहीं करना चाहती थीं! क्योंकि, वे एक साधारण परिवार से थे और उनका कोई फिल्मी बैकग्राउंड नहीं था। फिल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ इसका उदाहरण है। काफी समय बाद फिल्म के लिए परिणीति चोपड़ा को साइन किया गया था। वे अपनी लव लाइफ को लेकर भी अखबारों और टीवी की सुर्खियों में रहे हैं। 
   सुशांत फिल्म इंडस्ट्री में एक ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने अपनी काबिलियत के दम पर सफलता हांसिल की। सबसे यंग टैलेंट के रूप में उनको बॉलीवुड इंडस्ट्री में देखा जाता था। वे एक ऐसे अभिनेता थे, जो कभी भी मेहनत करने से पीछे नहीं हटे। उनके अंदर अभिनय के अलावा डांस की भी काबिलियत मौजूद थी। उनका करियर उतार-चढ़ाव से होकर गुजरा! वे ऐसे अभिनेता थे, जिनका बॉलीवुड इंडस्ट्री से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था। जब वे कॉलेज की पढ़ाई कर रहे थे, उनकी दिलचस्पी डांस में बढ़ने लगी थी। फिर उन्होंने डांस सीखने का निर्णय लिया, पर उनका परिवार इससे सहमत नहीं था। परिवार की सहमति न मानकर उन्होंने हार न मानते हुए श्यामक डाबर के डांस ग्रुप को ज्वाइन कर लिया था। श्यामक उनकी मेहनत और डांस के प्रति जुनून देखकर बहुत ही प्रभावित हुए और उन्होंने 2006 के कामनवेल्थ गेम में उन्हें डांस का अवसर दिया था। इसके बाद वे मुंबई आ गए यहां उन्होंने डांस ग्रुप के साथ भी परफॉर्मेंस किया। इस डांस ग्रुप को प्रसिद्ध कोरियोग्राफर ऐश्ले लोबो ने प्रशिक्षित किया था। सुशांत ने अपनी जिंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव देखे! उनके अंदर शुरू से ही अदाकारी का जुनून था। इसी जुनून ने उन्हें कुछ अलग करने की प्रेरणा दी! उन्होंने थिएटर में भी काम किया और बड़ा कारण यही है, कि कठिन परिश्रम ने ही उन्हें स्टार बनाकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया। सुशांतसिंह ने अपनई कला को और ज्यादा चमकाने के लिए मशहूर एक्शन डायरेक्टर अल्लन अमीन से मार्शल आर्ट की भी ट्रेनिंग ली थी। 
   उन्होंने 'जरा नच के दिखा-2' और 'झलक दिखला जा-4' जैसे बड़े डांसिंग शो भी किए। झलक दिखला जा-4 में इनकी परफारमेंस को मद्देनजर रखते हुए इनको मोस्ट कंसिस्टेंट परफारमेंस का टाइटल भी प्रदान किया गया था। सुशांत ने कई बड़ी फिल्में की, जो दर्शकों द्वारा पसंद भी की गई! 2016 में भारतीय क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी के ऊपर आई उनकी जीवनी फिल्म में सुशांत राजपूत को धोनी का किरदार करने को मिला था। इस फिल्म ने भारतीय पर्दे पर बड़ी सफलता हांसिल की। 

सुशांत राजपूत के टीवी शो 
- 2008 और 2010 में 'किस देश में है मेरा दिल'
- 2010 में 'जरा नच के दिखा' डांस शो
- 2010 और 2011 में 'झलक दिखला जा-4'
- 2009 और 2011 एवं 2014 में 'पवित्र रिश्ता'
- 2015 में 'सीआईडी'
- 2016 में 'कुमकुम भाग्य'
सुशांत राजपूत की चर्चित फिल्में - काय पो चे
- शुद्ध देसी रोमांस
- पीके
- एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी
- राब्ता
- छिछोरे
- केदारनाथ 
आने वाली फिल्में ?- दिल बेचारा
- पानी
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Saturday, June 13, 2020

सात्विक प्रेम को अल्हड बनने में वक़्त लगा!

- हेमंत पाल

   जीवन में प्रेम का अपना अलग ही अस्तित्व है। प्रेम हर दौर और हालात में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है। फिल्मों में तो प्रेम कहानी का जरुरी तत्व रहा है। हिंदी फिल्मों के शुरुआती दौर से ही प्रेम को आधार बनाकर फिल्माया गया है। पौराणिक फिल्मों तक में प्रेम का अलग ही पुट रहा है। कई फ़िल्मी कथानकों में सामाजिक कुरीतियों पर चोट करने और सामाजिक सद्भाव का संदेश देने वाली फिल्मों से भी प्रेम का सात्विक रूप उभरा। याद किया जाए तो इस समय-काल की फिल्मों में प्रेम को गीतों के जरिए भी दर्शाया गया। सामाजिक कारणों से तब प्रेम के खुले इज़हार को गलत समझा जाता था, तो नायक और नायिका दूर से ही आंखों से अपने मनोभावों को प्रकट करते थे! लेकिन, कहीं न कहीं जिंदा जरूर रहा! 
   हिंदी फिल्मों के ब्लैक एंड व्हाइट काल में दिलीप कुमार ने प्रेम को दुखांत रूप उभारा। एक असफल प्रेमी के रूप में दिलीप कुमार ने कई कालजयी फ़िल्में दी। ‘अंदाज’ में मेहबूब खान ने दिलीप कुमार के साथ राज कपूर और नरगिस को जोड़कर प्रेम का त्रिकोणीय फार्मूला बनाया, जो बाद में बरसों तक आजमाया जाता रहा! ये फार्मूला इतना हिट रहा कि बाद में इसपर कई फिल्में बनी। इन फिल्मों की ख़ासियत ये थी कि नायिका फिल्म के अंत तक संशय की स्थिति में बनी रहती है। कहानी को इस तरह गढ़ा जाता था कि नायिका की इच्छा को ख़ास तवज्जो नहीं दी जाती थी। इसे उस दौर की सामाजिक परिस्थितियों में औरत को लेकर बनी सोच के रूप में भी समझा जा सकता है। लम्बे समय तक दिलीप कुमार फिल्मों में दुखांत प्रेम के प्रतीक रहे। ये 50 के दशक का वो दौर था, जब देश आजाद हुआ था। आजादी के जश्न में जब परदे पर भी उल्लास का माहौल बनना था, लेकिन दुखांत प्रेम से गमगीन माहौल बनाया गया। दिलीप कुमार ने अपनी फिल्मों में विरह और तड़फ़ से प्रेम को शिद्दत से उभारा! 
   उधर, राज कपूर ने अपनी फिल्म ‘बरसात’ में प्रेम की अलग ही तड़प को दर्शाया। लेकिन, जल्दी ही ये अंदाज बदल दिया। उन्होंने ‘आवारा’ में प्रेम का अलग ही आवेग दिखाया। वायलिन लिए राज कपूर के हाथ में झूलती नरगिस दोनों के बीच उन्मुक्त प्रेम का प्रतीक बन गईं। दूर से प्रेम का इजहार करने के लिए मजबूर नायक-नायिका के आलिंगनबद्ध होने का सिलसिला इसी फिल्म से शुरू हुआ। राज कपूर ने अपनी अदाकारी और खुद की बनाई फिल्मों में उसे आम आदमी की पारिवारिक मज़बूरी और भावनाओं से जोड़कर परोसा। अपनी सबसे प्रयोगधर्मी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ की असफलता से उबरने के लिए उन्होंने ‘बॉबी’ में अल्हड प्रेम की ऐसी धारा बहाई कि बंदिश, दुश्मनी और भेदभाव को किनारे करके प्रेम करने की नई धारा बह निकली। 
    राज कपूर के बाद देव आनंद ने प्रेम को रुमानियत के साथ उभारा! शुरु की फिल्मों में प्रेम में असफल नायक की भूमिका के बाद देव आनंद ने अपना अंदाज बदला और मस्तमौला अंदाज में प्रेम को पीड़ा से मुक्त करके उसे मस्ती का ऐसा रूप दिया, जो देव आनंद स्टाइल में चर्चित हो गया। एक ख़ास बात ये भी रही कि उनकी फिल्मों की नायिकाओं को भी अपनी भावनाएं व्यक्त करने का पूरा मौका मिला। वे पीड़ा, अवसाद, विरक्ति और उपेक्षा के बंधन से बाहर आकर खिलखिलाती दिखाई देती थीं। खूबसुरत मधुबाला का बिंदास अंदाज और नूतन के अभिनय का जो निष्णात रूप देव आनंद के साथ नजर आता था, वो और किसी के साथ नहीं दिखा। विमल राय ने ‘देवदास’ में प्रेम का अलग ही रूप दिखाया, जो फिल्म इतिहास में मील का पत्थर बन गया। लेकिन, इस सच्चाई को कोई नकार नहीं सकता कि फिल्मों में ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी और बड़े-छोटे के भेदभाव से नायक-नायिका का प्रेम सबसे ऊपर रहा। चंद फिल्मों को छोड़कर देखा जाए तो अधिकांश हिंदी फिल्मों में प्रेम ही जीता है। 
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Friday, June 12, 2020

'सांवेर' के असंतुष्ट भाजपा नेताओं की नाराजी का सबूत है ऑडियो!

  - हेमंत पाल 
 
    प्रदेश के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवराजसिंह चौहान पहली बार इंदौर आए, तो किसी को ये अहसास नहीं होगा कि वे अपने पीछे एक बड़ा विवाद छोड़ जाएंगे। सांवेर विधानसभा के भाजपाइयों की बैठक में उन्होंने कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिराने को लेकर जो खुलासे किए, उससे कांग्रेस को नया मुद्दा मिल गया। लेकिन, इससे ये राजनीतिक मंतव्य जरूर स्पष्ट हो गया सांवेर भाजपा में तुलसी सिलावट की स्वीकार्यता आसान नहीं है। भाजपा में असंतोष का ही कारण है कि मुख्यमंत्री की बातें ऑडियो क्लिप में रिकॉर्ड होकर बाहर आ गई! 
      ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जिन विधायकों ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का पल्ला पकड़ा है, उनमें तुलसी सिलावट को अहम् कड़ी माना जाता है। लेकिन, वे पार्टी बदलकर आसानी से चुनाव जीत लेंगे, इस बात में शंका है। भाजपा में एक बड़ा धड़ा इस फैसले से असंतुष्ट है! वे तुलसी सिलावट के पक्ष में वोट मांगने में झिझक भी रहे हैं। कुछ असंतुष्ट मुखर हैं, कुछ खामोश है। मुख्यमंत्री ने इन्हीं लोगों को समझाने के लिए ये बैठक बुलाई थी, जहाँ वे अपनी धुन में बहुत कुछ ऐसा बोल गए, जो विवाद बन गया और वो सारी बातें बाहर आ गई। 
   ये असंतुष्ट नेताओं को समझाने का प्रयोजन ही था, इस बात पुष्टि इससे होती है कि ऑडियो में एक जगह मुख्यमंत्री सावन सोनकर का भी जिक्र करते हैं! लेकिन, सावन (आवाज उन्हीं की लगती है) कहते हैं 'मुझे आगर से चुनाव लड़वा दो!' लेकिन, मुख्यमंत्री ने उनके इस प्रस्ताव पर कोई टिप्पणी नहीं की। इसका सीधा सा आशय है, कि सांवेर विधानसभा के उपचुनाव में सबकुछ सामान्य नहीं है! कुछ ऐसी खिचड़ी जरूर पक रही है, जो भाजपा का सिरदर्द है। मुख्यमंत्री ने कई जगह कार्यकर्ताओं को समझाने वाली भाषा का उपयोग किया। 'हमें तुलसी भाई को जिताना है' ये वाक्य बार-बार बोला गया! उन्होंने ये भी कहा 'ईमानदारी से बताओ तुलसी भाई यदि विधायक नहीं रहे तो क्या हम मुख्यमंत्री रहेंगे? भाजपा की सरकार बचेगी क्या? इसलिए आपकी ड्यूटी है कि आप लोग तुलसी सिलावट को जिताओ! क्योंकि, सांवेर से तुलसी भाई नहीं मैं खुद चुनाव लड़ रहा हूँ! ये पार्टी की आन-बान और शान का सवाल है।' तुलसी सिलावट का बचाव करते हुए शिवराजसिंह का कहना था 'आप बताओ ज्योतिरादित्य सिंधिया और तुलसी भाई के बिना सरकार गिर सकती थी क्या? ... और कोई तरीका नहीं था! धोखा न तुलसी सिलावट ने दिया और न ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दिया! धोखा कांग्रेस ने दिया।'
   शिवराजसिंह ने कमलनाथ सरकार गिराने के पीछे जिस तरह पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के निर्देश की बात कही, वो भी मौजूद असंतुष्टों की नाराजी को ठंडा करने या ये निष्कर्ष निकलना ज्यादा बेहतर होगा कि धमकाने के अंदाज में कही! वे ये इन कार्यकर्ताओं के सामने ये बात साफ़ कर देना चाहते थे, कि सरकार गिराने के लिए जो कुछ किया गया, उसके पीछे मेरा कोई निजी स्वार्थ नहीं था! ... जो भी किया गया, वो सब दिल्ली के आदेश पर हुआ! लेकिन, मुख्यमंत्री की बातों से ये नाराजी दूर हुई होगी, इसमें संदेह है! क्योंकि, बैठक का ऑडियो क्लिप वायरल होना ही असंतोष का इशारा है।      
  इस ऑडियो क्लिप से इस एक बात का भी खुलासा होता है, कि शिवराजसिंह ने कांग्रेस से नाराज होकर ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोड़ने की सच्चाई को पूरी तरह नकार दिया। उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि 'ये  फैसला माननीय नरेंद्र भाई का माननीय अमित शाहजी और माननीय जेपी नद्दाजी का है ... ये कोई तुलसी भाई का फैसला थोड़ी था!' ये वे बातें हैं, जो भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के उस दावे ख़ारिज करती हैं कि मध्यप्रदेश की सरकार हमने नहीं गिराई! ये कांग्रेस की आपसी लड़ाई नतीजा है।      
  नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने स्वीकार किया कि ये समस्या हर उस सीट पर है, जहाँ से सिंधिया समर्थक उपचुनाव लड़ेंगे। ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री को तो उन्हें इसी तरह समझाना होगा। दरअसल, असंतुष्टों को ऐसे ही समझाया जाता है। उन्हें ये नहीं लगना चाहिए कि इसके पीछे किसी का व्यक्तिगत स्वार्थ था, बल्कि केंद्रीय नेतृत्व के इशारे पर कमलनाथ सरकार को गिराया गया है। 
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Monday, June 8, 2020

सिंधिया के साथ कुछ तो ऐसा हो रहा, जो बाहर नहीं आ रहा!

   भाजपा में इन दिनों अंसतोष की आंच पर कोई ऐसी खिचड़ी जरूर पक रही है, जिसका बाहर अनुमान नहीं हो रहा! शायद इस खिचड़ी में ज्योतिरादित्य सिंधिया से भाजपा ने जो वादे किए, वही उबल रहे हैं। क्योंकि, कांग्रेस की सरकार गिराकर खुद की सरकार बनाने के उत्साह में भाजपा ये भूल गई, इसका भविष्य में पार्टी में क्या असर होगा! सिंधिया अपना 22 लोगों का गुट साथ लाए हैं और उन्होंने शर्तों के साथ भाजपा में आना स्वीकार किया। अब वे 22 विधानसभा क्षेत्र भाजपा के गले की फांस बन गए। इसके अलावा करीब 32 सदस्यों के मंत्रिमंडल में 10 सीट सिंधिया के लिए आरक्षित हैं। ये दोनों मामले प्रदेश भाजपा को बुरी तरह मथ रहे हैं। दिखाने को भले सबकुछ सामान्य बताया जा रहा हो, पर ऐसा नहीं है। मंत्रिमंडल विस्तार भी टाला जा रहा है कि राज्यसभा चुनाव में कोई अपशगुन न हो जाए! लेकिन, भाजपा में जो खिचड़ी पाक रही है, उसके जलने की खुशबू से माहौल सही नहीं है।   
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- हेमंत पाल

   मध्यप्रदेश में भाजपा भले सबकुछ सामान्य होने की बात कह रही हो, पर ऐसा नहीं है। पार्टी ज्योतिरादित्य सिंधिया को ठीक से पचा नहीं पा रही। उसे अभी भी सिंधिया बाहरी नेता नजर आ रहे हैं, ये भ्रम स्वाभाविक भी है। सिंधिया समर्थकों की गतिविधियाँ भी भाजपा को रास नहीं आ रही। इन समर्थकों का दावा है कि होने वाले उपचुनाव में सिंधिया ही भाजपा की तरफ से प्रमुख चेहरा होंगे। जबकि, भाजपा खेमे से अभी भी शिवराज आगे हैं और सिंधिया बस उनके साथ खड़े होंगे। मतभेद की एक वजह ये भी बताई जाती है। सबसे ज्यादा 16 सीटों पर उपचुनाव ग्वालियर-चंबल संभाल में होने हैं। यहां की अधिकांश सीटें कांग्रेस ने सिंधिया के बूते पर ही जीती और सरकार बनाई थी। समर्थकों को लग रहा है कि सिंधिया का जादू फिर चलेगा, जो उनके समर्थक असल ताकत समझ रहे हैं। लेकिन, अभी बहुत कुछ होना बाकी है। औपचारिक रूप से भाजपा और कांग्रेस के टिकटों की घोषणा होना है। मंत्रिमंडल का विस्तार होना है। भाजपा की चिंता ये भी है कि कोई नया राजहठ आड़े न आए! क्योंकि, जिस एक पाये पर शिवराज-सरकार टिकी है, वो सिंधिया का ही है। भाजपा को उस पाये को तो साधकर रखना ही है, अपने लोगों को भी नाराजी से बचाना है! काम मुश्किल जरूर है, पर भाजपा को ये सब करना ही है।  
    ज्योतिरादित्य सिंधिया ने हमेशा प्रेशर पॉलिटिक्स की है। कांग्रेस में भी उन्होंने कई बार इस तरह की पॉलिटिक्स करके अपने मतलब को साधा है। लेकिन, भाजपा में वे ऐसा कुछ कर सकेंगे, ये कहा नहीं जा सकता! फिर भी उन्होंने अपनी इस पॉलिटिक्स को आज़माना तो शुरू कर दिया। कहते हैं कि जिस तरह उन्होंने नवंबर 2019 में अपने सोशल मीडिया अकाउंट से अपनी कांग्रेस वाली पहचान को हटाकर खुद को पब्लिक सर्वेंट लिख दिया था, वही फार्मूला अब भाजपा के लिए भी आज़माया है। उनके अकाउंट में अब भाजपा कहीं नजर नहीं आ रहा। लेकिन, वे इस बात को गलत बताते हैं। इसके बावजूद ये कयास लगाने वालों की कमी नहीं है कि कहीं 'महाराज' का मन तो नहीं बदल गया। यदि वास्तव में ऐसा है, तो इसके कई कारण भी नजर आ रहे हैं। 
  अंदर की ख़बरें बताती है कि भाजपा में उनके साथ सबकुछ सही नहीं हो रहा। उनके साथ किए वादों में भी कतरब्यौंत करने की कोशिश है। 'महाराज' को नज़दीक से जानने वालों का कहना है कि वे कभी दबाव में राजनीति नहीं कर सकते! ये आदत उनके पिता स्व माधवराव सिंधिया में भी थी। 1993 में तो माधवराव सिंधिया ने उपेक्षा के कारण कांग्रेस छोड़ दी थी। फिर उन्होंने 'मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस' पार्टी बनाई थी। बाद में वे कांग्रेस में लौट आए थे। कहा तो ये भी जा रहा है कि भाजपा से मोहभंग होने के बाद ज्योतिरादित्य कहीं अपने पिता की पार्टी को फिर जीवित न करें। ऐसे कई सवाल प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारों में उछल रहे हैं। क्योंकि, अब वे कांग्रेस में वापस आने से तो रहे!
     भाजपा ने उन्हें अपनी पार्टी में आने का लालच देकर जो समझौते किए थे, अब वही भाजपा पर भारी पड़ रहे हैं। राज्यसभा का टिकट, केंद्र में मंत्री पद, 22 में से 10 समर्थकों को प्रदेश में मंत्री बनाना और सभी को अपनी-अपनी विधानसभा से उपचुनाव में भाजपा का टिकट देना। इसमें भाजपा के सामने 10 मंत्री बनाना और सभी 22 सीटों से सिंधिया समर्थकों को उपचुनाव लड़वाना मुश्किल हो रहा है। क्योंकि, भाजपा के नेताओं को दस मंत्री पद देना सही नहीं लग रहा है। क्योंकि, 10 सीटों के आरक्षण से कई ऐसे नेताओं का मंत्रिमंडल विस्तार से पत्ता कट रहा है, जिनकी तूती बोलती है। यही कारण है कि 17 मई के तत्काल बाद होने वाला विस्तार लगातार टल रहा है। शिवराजसिंह चौहान भले अभी दिल्ली से समय नहीं मिलने और कोरोना का बहाना बना रहे हों, पर असल कारण सबको पता है।   
   भाजपा में जो कुछ चल रहा है, उससे ज्योतिरादित्य सिंधिया खुश नहीं हैं। कारण कि उसके केंद्र में कहीं न कहीं वे खुद के होने को महसूस भी कर रहे हैं। उनके समर्थक तो उनसे सवाल-जवाब करने से रहे, पर सवाल तो खड़े होंगे। भाजपा में आने से पहले के वादों और आज के हालात में अंतर साफ़ नजर आ रहा है। उनके किए वादे पूरे न होना ही उनकी नाखुशी की वजह है। भाजपा सरकार बने दो महीने से ज्यादा समय हो गया, पर उनके साथियों को मंत्री बनाने का वादा अभी तक पूरा नहीं हुआ। सिंधिया के ज़्यादातर समर्थक अभी भी इंतजार कर रहे हैं। मंत्री पद त्यागकर आए पुराने कांग्रेसी बेचैन हैं। उन्हें ये डर भी सता रहा है कि यदि सभी 22 को टिकट नहीं दिया गया तो क्या होगा!  
    ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद ग्वालियर क्षेत्र की 16 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए कांग्रेस ने बालेंदु शुक्ला को पार्टी में शामिल किया है। विधानसभा के 24 सीटों के उपचुनाव में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की 16 सीटें हैं और भाजपा को टक्कर देने के लिए कांग्रेस ने बालेंदु शुक्ला को अपनी टीम में शामिल किया है। वे कांग्रेस छोड़कर बसपा में गए थे, फिर भाजपा से कांग्रेस में उनकी वापसी हुई है। उनकी राजनीति कांग्रेस से ही शुरू हुई थी! वे कभी माधवराव सिंधिया के सबसे नज़दीकी आदमी थे। उनके बाल साख थे! लेकिन, उनके जाने के बाद ग्वालियर के पूर्व राजघरानों के दरवाज़े उनके लिए बंद हो गए थे। 
   विचार करने वाली एक बात ये भी है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए न तो भाजपा अजनबी हैं, और न वे भाजपा के लिए अजनबी हैं। वैसे भी सिंधिया परिवार का इतिहास बताता है कि उनका किसी ख़ास राजनीतिक या सामाजिक विचारधारा से कोई सरोकार नहीं है। ज्योतिरादित्य भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनके लिए भाजपा के राष्ट्रवादी और हिंदूवादी विचारधारा में ख़ुद को फ़िट करना ज़रा भी मुश्किल नहीं होगा। लेकिन, भाजपा ने यदि उनसे वादे करने के बाद उन्हें हाशिए पर डाला तो बात बिगड़ने में देर नहीं लगेगी। क्योंकि, नेता से पहले वे 'महाराज' हैं और उनके राजहठ को भाजपा  समझ चुकी है। 18 साल कांग्रेस में रहकर भी वे उसके प्रति प्रतिबद्ध नहीं रहे, तो भाजपा तो बहुत दूर की बात है।       
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Saturday, June 6, 2020

'सोनू' का 'सूद' भी नहीं चुका सकेगा समाज!

- हेमंत पाल

कोरोना के इस दौर में बॉलीवुड के कई कलाकारों ने गरीबों और जरूरतमंदों के लिए बहुत कुछ किया! लेकिन, उन्होंने जो किया वो इंडस्ट्री तक सिमटा रहा! ऐसे में सबसे अलग काम किया फिल्मों के खलनायक का किरदार निभाने वाले सोनू सूद ने! उन्होंने ऐसे लोगों की दिल और हाथ खोलकर मदद की, जिन्हें वे जानते तक नहीं हैं! सोनू ने महाराष्ट्र के दूसरे जिलों और राज्यों से मुंबई में आए मजदूरों को घर भेजा जो लॉक डाउन में फंसकर रह गए थे। उन्होंने पैदल घर लौट रहे, हज़ारों मजदूरों को बस से रवाना किया। बरसों बाद भी कोरोना वायरस के खिलाफ इस जंग को याद करते हुए लोग सोनू सूद का नाम गर्व के साथ लेंगे। 
    लॉक डाउन काल में देशभर के प्रवासी मजदूरों ने कितनी परेशानी का सामना किया! ये बात किसी से छुपी नहीं, पर कोई आगे नहीं आया! ऐसे में सोनू सूद को अहसास हुआ कि उन्हें कुछ करना चाहिए। परदे के इस किरदार को दर्शक अब तक विलेन के रूप में देखते रहे हैं! लेकिन, अपने इस जनहितैषी कदम के बाद समाज में वे हीरो बनकर उभरे हैं। उन्होंने इस संकट की घड़ी में हजारों मजदूरों की मदद की, जिसका नतीजा ये हुआ कि सोशल मीडिया ने उन्हें माथे पर बैठा लिया। आज वे परदे के उन सारे हीरो से कहीं ज्यादा ताकतवर हैं, जिनके हाथों उन्होंने विलेन बनकर मार खाई होगी।    
  वे आज उन मजदूरों के मसीहा बन गए, जो दूसरे राज्यों से काम करने मुंबई आए थे। लेकिन, लॉक डाउन की घोषणा के बाद उनका वापस लौटना मुश्किल हो गया था। सोनू ने इन्हें अपने घरों तक पहुंचाने का जिम्मा उठाया और इसमें वे सफल भी रहे। बसों का इंतजाम किया, उनका किराया खुद चुकाया और मजदूरों के खाने-पीने का इंतजाम भी किया। जिस सोनू सूद ने मजदूरों की मदद के लिए लाखों रुपए खर्च किए, वे सिर्फ साढ़े पाँच हज़ार रुपए लेकर मुंबई आए थे। ये पैसे भी उन्होंने दिल्ली में मॉडलिंग से कमाए थे। 
  मजबूर मजदूरों को उनके घर तक भेजने की प्रेरणा सोनू सूद को तब मिली, जब उन्होंने एक परिवार को मुंबई से बच्चों के साथ पैदल कर्नाटक जाते देखा! उस वक़्त सोनू कुछ दोस्तों के साथ इन प्रवासी मजदूरों को खाना बाँट रहे थे। उस मजदूर परिवार की हालत देखकर सोनू ने सोचा कि क्यों न सरकार से इजाजत लेकर इन्हें इनके घर छोड़ा जाए। उन्होंने महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकार से मंजूरी ली और पहली बार में 302 लोगों को घर भिजवाया। लेकिन, रवानगी के समय सबकी आंखों में आंसू थे! कुछ लोग तो रो पड़े। इसके बाद सोनू ने इसे अपनी मुहीम बना ली, कि जितना हो सकेगा, वे इन मजदूरों को घर तक पहुंचाकर रहेंगे! इसके बाद बिहार, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों से इजाजत लेकर उन्होंने इस काम को आगे बढ़ाया। 
    सवाल उठता है कि जो काम सोनू सूद और उनकी टीम ने जो किया, क्या वो सरकार नहीं कर सकती थी! इसका जवाब शायद किसी सरकार के पास नहीं हो सकता! क्योंकि, सरकार एक व्यवस्था है, जिसका दिल नहीं होता और न उसका संवेदनाओं से कोई वास्ता होता है, जो किसी की पीड़ा को देखकर दुखी हो! सोनू का दिल था, तो वो पिघला और उन्होंने इस नेक काम का बीड़ा उठाया। लेकिन, उनकी ये बात सही है, कि यदि सरकार मजदूरों के घर जाने के लिए सिस्टम को आसान कर देती, तो वे आसानी से अपने घर चले जाते! इन मजदूरों को अपने घर ही तो जाना था! वे फॉर्म नहीं भर सकते थे, इनके लिए उससे कहीं ज्यादा आसान था, पैदल ही हजार किलोमीटर चले जाना! यही कारण था कि मजदूरों ने वो रास्ता चुना जो उन्हें आसान लगा। 
  अपने इस काम को सोनू ने अकेले नहीं किया। उनके माता-पिता ने भी उनका बहुत उत्साह बढ़ाया। उनका कहना था कि आप अपनी जिंदगी में तभी सफल होंगे, जब आपने किसी का हाथ थामकर उसे उसकी मंजिल तक पहुंचाया हो! सोनू को पैदल चलने वालों में प्रवासी मजदूरों की पीड़ा ने सबसे ज्यादा व्यथित किया। एक इंटरव्यू में सोनू ने कहा भी कि सड़क पर जिनकी मौत हुई उनमे कोई किसी का भाई था और किसी का बेटा! लेकिन, व्यवस्था ने उन्हें सिर्फ एक नाम दे दिया था 'प्रवासी मजदूर' जैसे उनमें कोई जान ही न हो! अगर हम उन्हें बेआसरा छोड़ देंगे और भूल जाएंगे तो वे कहाँ जाएंगे? 
  सोनू बताते हैं कि उनके साथ पूरा परिवार दिन-रात लगा रहा, जब तक मदद मांगने वाले सारे लोगों को हमने उनके घर नहीं पहुंचा दिया। पूरी टीम ने दिन-रात काम किया। क्योंकि, जिस तरह की मुहिम हमने चलाई थी, वो काम अकेले संभव नहीं था! जैसे-जैसे हमने काम आगे बढ़ाया, लोग जुड़ते गए और कारवां बनता गया! फिर हमने हेल्पलाइन नंबर शुरू किया, उसे जारी किया। ये नंबर जारी करने के कुछ ही घंटों बाद ही 60 से 70 हजार कॉल हमारे पास आए! सोनू की टीम के सामने मुश्किल ये थी कि सबको मैनेज कैसे किया जाए। इसके बाद पूरा सिस्टम बनाया गया। 
   सोनू सूद मूलतः पंजाब के मोगा के रहने वाले हैं। वे 30 जुलाई 1973 को जन्मे थे। वे बिज़नेस परिवार से हैं! उनकी मां एक प्रोफेसर जिनकी इच्छा थी कि सोनू इंजीनियर बने। इसके लिए उन्होंने नागपुर से इलेक्ट्रानिक इंजीनियर की डिग्री की। लेकिन, इसी दौरान उन्हें मॉडलिंग का शौक लग गया। उन्होंने घर से एक साल का समय लिया और फिल्मों में करियर बनाने के लिए मुंबई आए। उसके बाद फिर पलट कर नहीं देखा! उनकी पहली फिल्म 1999 में आई जो तमिल की 'कालजघर' थी। इसमें उन्होंने पादरी का किरदार निभाया था। लेकिन, 2001 में आई 'मजनू' से उनकी साउथ में पहचान बनी। 
  हिंदी फिल्मों में वे पहली बार 'शहीद-ए-आज़म भगत सिंह' के रोल में दिखाई दिए। फिर मणिरत्नम की 'युवा' और 'आशिक बनाया आपने' में रोल मिला। लेकिन, सलमान खान की फिल्म 'दबंग' में बतौर खलनायक छेदीलाल के किरदार ने उन्हें लोकप्रिय किया। इस भूमिका के लिए सोनू सूद को दो अवॉर्ड भी मिले। एक अप्सा अवॉर्ड और दूसरा आईआईएफए का श्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार। एक इंडियन वेबसाइट के सर्वे उन्हें 'टॉप इंडियन हैंडसम मैन' में चुना गया। इस साइट के मुताबिक वे 47वें हैंडसम मैन हैं। उन्होंने हिन्दी, तेलुगू, कन्नड़ और तमिल फ़िल्मों के साथ ही सोनू ने कई बड़ी कंपनियों के लिए विज्ञापन में भी काम किया।  
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Tuesday, June 2, 2020

भाजपा की आँखों में क्यों खटकने लगे 'सिंधिया के लोग!'

   ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस छोड़कर दलबल सहित भाजपा में शामिल हुए दो महीने से ज्यादा वक़्त हो गया। पर, अभी तक एक बार भी ये महसूस नहीं हुआ कि भाजपा ने उन्हें या उनके समर्थकों को दिल से स्वीकारा हो! जब भी सिंधिया समर्थकों जिक्र होता है, भाजपा में 'सिंधिया के लोग' सम्बोधित किया जाता है। मंत्रिमंडल विस्तार में भी 'सिंधिया के लोग' भाजपा नेताओं की आँख में खटक रहे हैं। यहाँ तक कि सिंधिया समर्थकों के साथ कांग्रेस से भाजपा में शामिल होने वालों के आयोजनों में भी पोस्टर से सिंधिया का फोटो तक नदारद होता है। जबकि, भाजपा का  मध्यप्रदेश में फिर सरकार बनना इन्हीं समर्थकों की वजह से ही संभव हुआ। भाजपा और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच ये अदृश्य खाई धीरे-धीरे बढ़ रही है। वैसे भी भाजपा में किसी बाहरी नेता को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता! चौधरी राकेश सिंह से लगाकर प्रेमचंद गुड्डू तक का इतिहास बताता है कि इस पार्टी में किसी और पार्टी से आए नेता को कभी ख़ास तवज्जो नहीं मिली! जब तक कि वो संजय पाठक जैसा व्यावसायिक नेता न हो! अब तो भाजपा के बड़े नेता सिंधिया समर्थकों पर कटाक्ष तक करने लगे। ऐसे में इस जोड़ी का रिश्ता कितना ज्यादा लम्बा चलेगा, इसमें शक है। क्योंकि, भाजपा को अभी भी सिंधिया पर भरोसा नहीं है!    
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- हेमंत पाल

     ज्योतिरादित्य सिंधिया और भाजपा की राजनीतिक जोड़ी बेमेल है, इसमें किसी को कोई शक नहीं! भाजपा की विचारधारा और राजनीति से सिंधिया की राजनीतिक शैली से कहीं मेल नहीं खाती! ऐसी स्थिति में वे भाजपा में अपने आपको कैसे खपा पाएंगे और क्या उनके समर्थकों की अपने नेता के प्रति प्रतिबद्धता को भाजपा पचा पाएगी! क्योंकि, भाजपा में सामान्यतः खुली गुटबाजी कभी दिखाई नहीं देती। गुटबाजी की वहाँ भी कमी नहीं है, पर बड़े नेताओं के खौफ और ख़ास तरह की विचारधारा के कारण पार्टी में गुटबाजी कभी पनपकर सामने नहीं आ पाती। ऐसे में यदि सिंधिया समर्थक पार्टी से ज्यादा अपने नेता को तवज्जो देंगे, तो उंगली उठना स्वाभाविक है। शायद यही कारण है कि भाजपा के नेता अभी भी उन 22 बागी कांग्रेसियों को भाजपा का नहीं मानकर 'सिंधिया के लोग' कहना ज्यादा सुविधाजनक महसूस करते हैं।         
   राजनीतिक इतिहास के पन्ने पलटे जाएं, तो भाजपा में जो भी नेता दूसरी पार्टियों से आए, उन्हें उतनी तवज्जो नहीं मिली जितनी कि उन्हें अपेक्षा थी या पार्टी ने वादा किया था। इसके लिए भाजपा को दोषी नहीं माना जा सकता। क्योंकि, भाजपा की राजनीतिक शैली आरएसएस से प्रभावित होती है और किसी अन्य पार्टी के लोग उसे चाहते हुए भी स्वीकार नहीं कर पाते। बात मध्यप्रदेश की हो, तो ऐसे नामों की लिस्ट बहुत लम्बी है। चौधरी राकेश सिंह, रामलखन सिंह, हरिवल्लभ शुक्ला, फूलसिंह बरैया, बालेंदु शुक्ला और लक्ष्मण सिंह से लगाकर प्रेमचंद गुड्डू तक! हो सकता है, कुछ नाम छूट गए हों, पर मिसाल देने के लिए ये बहुत हैं! पहले कभी ये नेता भाजपा शामिल हुए और बाद में इनमें से ज्यादातर उपेक्षित होकर घर लौट आए! संजय पाठक जरूर कांग्रेस से आकर भाजपा में रच-बस गए! पर, उनका मूल कर्म राजनीति नहीं है। वे व्यावसायिक नेतागिरी करते हैं! यदि कमलनाथ सरकार ज्यादा दिन चलती, तो संभव है कि वे फिर कांग्रेसी हो जाते! लेकिन, सिंधिया के साथ भाजपा में आए लोगों का मामला थोड़ा अलग है। कांग्रेस के एक गुट के 22 विधायकों ने अपने नेता के कहने पर पार्टी छोड़ी और भाजपा में शामिल हुए। नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस की सरकार गिर गई और भाजपा की बन गई! ये भाजपा के बड़े नेताओं का फैसला था और बात सरकार बनने की थी, तो बेमन से उनका स्वागत सत्कार भी हुआ! लेकिन, अब वो बात नहीं है।
   जब ये राजनीतिक बदलाव हुआ, तब इस बात पर गौर नहीं किया गया था, कि जब मंत्रिमंडल बनने की बात आएगी तो समीकरण कैसे बैठेगा! 30-32 मंत्रियों की लिस्ट में 10 जगह तो वादे के मुताबिक सिंधिया के लोगों को मिलना है! उसमें कोई कतरब्यौंत संभव नहीं! ऐसे में बाकी बची जगह में भाजपा के लम्बरदारों को कैसे एडजस्ट किया जा सकेगा! मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर जो ख़बरें रिसकर बाहर आ रही हैं, उनका लब्बोलुआब यही है कि कोई पीछे हटने को तैयार नहीं! करीब तीन दर्जन भाजपा विधायक तो अपनी वरिष्ठता का झंडा लहराकर खुद को मंत्री बनाने का दावा कर ही रहे हैं! पार्टी के प्रदेश  अध्यक्ष, प्रदेश संगठन मंत्री और मुख्यमंत्री ने भले ही अपने तई नाम तय कर लिए हों, पर आशंका है कि खुलासा होने पर विरोध हो सकता है! कई विधायक जिन्हें मंत्री न बन पाने का पूरी आशंका है, उनके दबे-छुपे बयान भी सुनाई देने लगे! निशाने पर सिंधिया के लोग ही हैं, जिन्हें वे खुद मंत्री न बन पाने का सबसे बड़ा कारण मान रहे हैं। लेकिन, ये भूल भी रहे हैं कि सरकार बनने की सबसे बड़ी वजह यही 'सिंधिया के लोग' हैं। 
    भाजपा में मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर कितना भी अंतर्विरोध पनपे, पर दावे से कहा जा सकता है कि कोई भी नेता बगावत करने की हिम्मत नहीं जुटा सकता। क्योंकि, भाजपा के नेताओं में अभी नेतृत्व के खिलाफ बगावत करने का साहस नहीं आया! ऐसा कुछ होने की बात दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। राजनीति पूरी तरह कयासों के आधार पर चलती है। जब भी बड़े फैसले लिए जाते हैं, तो ये अनुमान भी लगाया जाता है कि यदि इसका विरोध हुआ, तो बात कहाँ तक जाएगी! फ़िलहाल भाजपा में हालात कुछ ऐसे ही हैं। सिंधिया समर्थकों के कारण यदि भाजपा में विरोध पनपता है और ये हद से ज्यादा बढ़ता है, तो बात कहाँ तक जाएगी, ये तो सोचा ही गया होगा। उसकी काट भी निकाली गई होगी! ये बात इसलिए उठी कि भाजपा के एक बड़े  नेता ने दलबदलूओं के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा 'आजकल के नेता कपड़ों की तरह दलबदल कर रहे हैं।' ये भाजपा नेता इसे अनैतिक राजनीतिक कर्म मानते हैं। उनके इस बयान को सिंधिया समर्थकों ने गंभीरता से लिया और अपने ऊपर की गई अपमानजनक टिप्पणी माना है! सुनने में ये भी आया, कि वे दिल्ली जाकर भाजपा हाईकमान के सामने अपना विरोध भी दर्ज कराएंगे! दरअसल, ये एक नेता की टिप्पणी जरूर है, पर भाजपा में सिंधिया के लोगों के बारे में ऐसा सोचने वालों की कमी नहीं है! 
  कांग्रेस की राजनीति में ज्योतिरादित्य सिंधिया को ‘महाराज’ कहा जाता रहा है! लेकिन, क्या भाजपा में उन्हें ऐसी हैसियत मिलेगी, ये नहीं कहा जा सकता। जब सिंधिया ने भाजपा की सदस्यता ली थी, उस दिन शिवराजसिंह चौहान ने जरूर ट्वीट किया था 'स्वागत है महाराज, साथ है शिवराज!' लेकिन, उसके बाद कभी सुनने में नहीं आया कि किसी खालिस भाजपाई ने उन्हें 'महाराज' कहकर सम्बोधित किया हो! जहाँ तक ज्योतिरादित्य सिंधिया की हैसियत की बात है तो बरसों से उनका विरोध करने वाले प्रभात झा क्या कभी उन्हें अपना नेता या साथी मानेंगे? ये इसलिए भी संभव नहीं है कि प्रभात झा को भाजपा से दोबारा राज्यसभा टिकट सिर्फ इसलिए नहीं मिला, कि समझौते के तहत भाजपा को सिंधिया को राज्यसभा में भेजना है। प्रभात झा ही नहीं, भाजपा में ऐसे कई नेता हैं, जो सिंधिया के पार्टी में आने से अंदर ही अंदर कुलबुला रहे हैं। लेकिन, सबकी अपनी-अपनी पीड़ा है। 
   गुना के भाजपा सांसद केपी यादव भी उन्हीं में से एक होंगे! यादव कभी सिंधिया के प्रतिनिधि हुआ करते थे! लेकिन, दोनों के बीच दूरियां इतनी बढ़ी कि भाजपा ने केपी यादव को 2019 के लोकसभा चुनाव में टिकट दिया और उन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया को हरा भी दिया। कैसे कहा जा सकता है कि सिंधिया और यादव के रिश्ते कभी सामान्य हो सकेंगे! आने वाले दिनों में सिंधिया कारण भाजपा में जिस किसी को परेशानी आएगी, वो गुप-चुप प्रतिक्रिया देता रहेगा! लेकिन, इस बात में शक नहीं कि चाहकर भी भाजपा के नेता सिंधिया को वो हैसियत न दे पाएं जो उन्हें कांग्रेस में मिली थी। इसका कारण कि जो भाजपा में जो दर्जा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले नेताओं का होता है वो किसी का कभी नहीं हो सकता! फिर वो 'महाराज' ही क्यों न हो! 
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