Sunday, September 26, 2021

इन कालजयी किताबों से जन्मा सिनेमा!

- हेमंत पाल

   पने जन्मकाल से ही हिंदी सिनेमा की अपनी एक अलग धारा रही है। कुछ विषयों को छोड़ दें, तो ये धारा दर्शकों की पसंद-नापसंद और बदलते ज़माने के अनुसार हमेशा बदलती रही है। कभी ये धारा समयकाल की घटनाओं से प्रभावित रही, कभी सामाजिक बदलाव से और कभी इतिहास के पन्ने पलटकर उसमें से कहानियां तलाशी गई। एक दौर ऐसा भी आया, जब फिल्मकारों ने समाज के साथ किताबों में अपने लिए मसाला ढूंढा! 20वीं सदी की शुरुआत में जब हिंदी सिनेमा की शुरुआत हुई, तब उसकी सबसे ज्यादा मदद धार्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक किताबों की कहानियों ने ही की थी! इसके बाद सिनेमा में स्वतंत्रता आंदोलन और गांधीजी के आदर्श समाए रहे! इस दौर में 'जिस देश में गंगा बहती है' जैसी फ़िल्में बनी, जिसमें डकैतों और चोरों का ह्रदय परिवर्तन कराकर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लौटने की बात कही गई। 
     उपन्यास या नाटक जब फिल्म बनकर हमारे सामने आते हैं, तो दिमाग पर ज्यादा असर डालते हैं। यही कारण है कि फ़िल्मी दुनिया में कालजयी रचनाओं पर फिल्में बनती रही। देखा जाए तो सिनेमा ने अपने सामाजिक सरोकारों को कभी अलग नहीं होने दिया, फिर वो किसी भी रूप में दर्शकों को परोसे जाते रहे हों! प्रेम, बदला और पारिवारिक समस्याओं के अलावा खेल, शिक्षा, स्वास्थ्य, पहलवानी और आतंकवाद जैसे नए विषयों पर भी फ़िल्में बनी और पसंद की गईं! ये समय पहले नहीं था! लेकिन, ऐसी अभिव्यक्ति जो बीते कुछ दशकों में हुई, सिनेमा ने पहले कभी नहीं की थी। समाज और देश की समस्याओं पर फिल्मकार मुख्य रूप में चिंता करते दिखाई देने लगे हैं।
   सामाजिक सरोकारों के लिए फिल्मकारों ने उस दौर में लिखी गई किताबों को माध्यम बनाया! स्मृतियों के गर्भ को टटोला जाए तो 1953 में पहली बार सामाजिक सरोकारों को लेकर बिमल रॉय के निर्देशन में ‘दो बीघा जमीन’ बनाई गई थी। यह सलिल चौधरी की प्रसिद्ध कहानी पर आधारित थी। इसे उस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म माना गया था। मजदूरों और किसानों की समस्या पर आधारित संभवतः ये पहली यथार्थवादी फिल्म थी। इस फिल्म ने किसानों के जीवन की समस्याओं का करुण और जीवंत प्रभाव दिखाया था।1954 से 60 तक ऐसी ही सामाजिक फिल्मों का दौर रहा! यथार्थ का चेहरा दिखाने का काम 'परिणीता' ने भी किया, जो शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित थी। इसके बाद 'देवदास' भी शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की कहानी पर बनी। उनकी कई किताबों पर हिंदी और बंगाली फ़िल्में बनाई गई। सामाजिक विसंगतियों पर गहरी चोट करती 'मदर इंडिया' भी महबूब खान ने इसी समय बनाई! ये फिल्म सिनेमा के इतिहास का मील का पत्थर साबित हुई! 
     सामाजिक भावनाओं को कचोटती 'जागते रहो' का निर्माण भी राज कपूर ने 1956 में किया था। 1957 में गुरुदत्त की ‘प्यासा’ ने सामाजिक चेतना को बुरी तरह झकझोरा था! 1959 में फिर बिमल रॉय ने जाति बंधनों पर चोट करने वाली ‘सुजाता’ बनाई! कृष्ण चोपड़ा ने प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ पर ‘हीरा मोती’ नाम से फिल्म बनाई, जो साहित्य और सिनेमा के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी बनी! प्रेमचंद की ही कहानियों पर सत्यजीत रे ने 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'सद्गति' बनाई। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी तीसरी कसम, मन्नू भंडारी के उपन्यास आपका बंटी और महाभोज, शैवाल के उपन्यास पर ‘दामुल’ के अलावा केशव प्रसाद मिश्र की रचना ‘कोहबर की शर्त’ पर राजश्री ने ‘नदिया के पार’ और बाद में ‘हम आपके हैं कौन’ बनाई। राजेन्द्रसिंह बेदी की कहानी पर एक चादर मैली सी, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर सूरज का सातवाँ घोड़ा, विजयदान देथा की ‘दुविधा’ नाम की कहानी पर ‘पहेली’, उदयप्रकाश के उपन्यास पर ‘मोहनदास’ जैसी फ़िल्में बनाने की हिम्मत की गईं जो पसंद    की गई। 
   1968 में बनी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म 'सरस्वतीचंद्र' भी एक गुजराती उपन्यास पर बनाई गई थी, जिसे गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी ने लिखा था। इसी उपन्यास पर 2013 में निर्देशक संजय लीला भंसाली ने एक टेलीविजन सीरियल भी बनाया। 1956 में आई देव आनंद की फिल्म 'गाइड' आरके नारायणन के उपन्यास 'द गाइड' पर आधारित थी। 1971 की फिल्म 'तेरे मेरे सपने' लेखक एजे क्रोनिन के उपन्यास ‘सिटाडेल’ की कहानी पर बनाई गई थी। 1978 में श्याम बेनेगल के निर्देशन में 'जुनून' बनी, यह फिल्म लेखक रस्किन बांड के उपन्यास 'ए फ्लाइट ऑफ पिजंस' पर थी। 1981 में उर्दू उपन्यास 'उमराव जान अदा' पर 'उमराव जान' ने तो इतिहास रच दिया था। इसके रचनाकार मिर्जा हादी रुसवा थे। सुशांत सिंह राजपूत की डेब्‍यू फ‍िल्‍म 'काई पो चे' चेतन भगत के उपन्यास 'द थ्री मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ' पर आधारित थी। वहीं, आमिर खान, शरमन जोशी और आर माधवन की फिल्म 'थ्री इडियट्स' भी चेतन भगत के ही उपन्यास 'फाइव प्वाइंट समवन' पर बनी थी। श्रद्धा कपूर और अर्जुन कपूर की फिल्म 'हाफ गर्लफ्रेंड' भी चेतन भगत की ही किताब पर रचे गए कथानक पर बनी, पर ये पहली दो फिल्मों की तरह नहीं चली।   
   इसका आशय ये कदापि नहीं कि कालजयी किताबों पर बनने वाली फिल्मों को हमेशा सफलता मिली है! कई फिल्मों को दर्शकों ने नकारा भी! क्योंकि, विषय की समझ और पटकथा की सृजनात्मक क्षमता आसान नहीं होती। बहुत कम फिल्मकार होते हैं, जो फिल्म की तकनीक और किताब की समझ के साथ न्याय करके पटकथा को आकार दे पाते हैं। गोदान, उसने कहा था, चित्रलेखा और 'एक चादर मैली सी' ऐसी ही फ़िल्में थीं जो चर्चित किताबों पर बनी, पर असफल हुई। दरअसल, किताब के मूल भाव से सामंजस्य बैठाते हुए उसकी गहराई तक उतरकर फिल्म बनाना चुनौती भी है और जटिल प्रक्रिया भी। साहित्य को सिनेमा में बदलने वाले कुछ ही सिद्धहस्त निर्देशक हुए हैं। इनमें बिमल रॉय, सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, प्रकाश झा, गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकार अव्वल रहे हैं। अभी ये प्रयोग थमा नहीं है। फिल्मों के बाद अब ओटीटी पर ऐसी फिल्मों की बाढ़ आने वाली है।  
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Saturday, September 25, 2021

देव आनंद की हर अदा ही अभिनय

हेमंत पाल

   देव आनंद एक ऐसे स्टार थे, जिनकी दुनिया दीवानी थी। उन्हें रोमांस किंग के नाम से लोकप्रिय थे। अपनी डायलॉग डिलीवरी, अदाकारी और लुक्स की वजह से वे बहुत पॉपुलर थे। लड़कियां तो उनकी एक झलक पाने के लिए बेताब रहती थीं। लेकिन, देव आनंद का स्टारडम ज्यादा लंबा नहीं चला। लेकिन, जिस कदर उस छोटे से दौर में लोगों ने उन्हें चाहा, उन्हें लेकर जो दीवानगी थी, वैसी आज कल के किसी अभिनेता को नसीब नहीं हो सकती। देव आनंद सिर्फ एक्टर नहीं थे। वे निर्देशक भी थे, निर्माता भी थे और फिल्मों की कहानी भी गढ़ते थे। उन्हें संगीत की समझ थी और सबसे खास बात ये कि वे समय से आगे सोचने की क्षमता रखते थे। उनकी एक्टिंग के अंदाज ने उन्हें हमेशा अपने समकालीन कलाकारों की भीड़ से अलग रखा। लेकिन, तारीफ के साथ देव आनंद को आलोचना भी बहुत मिली। उन पर उंगली उठाई गई और कहा गया कि अब तो देव आनंद को काम छोड़ देना चाहिए। एक दौर वो भी था, जब उनके गर्दन झुकाने के अंदाज और काली पैंट-शर्ट लड़कियों को बेहोश कर देता था। उन दिनों सफेद शर्ट पर काला कोट पहनने का स्टाइल बहुत ट्रेंड हुआ! लेकिन, इसके बाद कुछ ऐसा हुआ कि देव आनंद के काला कोट पहनने पर ही रोक लगा दी गई।  
    इस सुपरस्टार की इतनी फैन फॉलोइंग इतनी थी, कि हर टॉकीज का शो फुल हो जाता था। धूप में घंटों खड़े होकर दर्शक टिकट लेते। देव आनंद की 'जॉनी मेरा नाम' जब रिलीज हुई, तो फर्स्ट डे फर्स्ट शो के लिए भीड़ टूट पड़ी। जमशेदपुर के एक टॉकीज के बाहर तो टिकट के लिए गोलियां तक चल गई थीं। ये घटना बताती है कि देव आनंद की लोकप्रियता किस कदर हावी थी। 50 और 60 के दशक में हिंदी फिल्मों में अभिनेताओं की जिस तिकड़ी का नाम आता है, उनमें दिलीप कुमार, राज कपूर के अलावा तीसरा नाम देव आनंद का ही है। इन तीनों कलाकारों ने दर्शकों के लिए अलग अलग स्वाद की फिल्में बनाईं। सिनेमा ने भी इनकी एक अलग छवि बनाई। दिलीप कुमार को ट्रेजेडी किंग कहा गया, राज कपूर को शोमैन तो देव आनंद को रोमांस का बादशाह। देव आनंद ने अपनी जिंदगी तो बनाई ही, कई और लोगों को भी अपने साथ मिलाकर मशहूर बनाया। 
    देव आनंद को अपने समयकाल का सबसे हैंडसम कलाकार माना जाता था। वे उस दौर में सफल अभिनेता भी थे। चाहने वालों की उनके प्रति दीवानगी का आलम या था कि लड़के उनकी हर स्टाइल की नक़ल करते और लड़कियां उन्हें देखकर अपने होश खो बैठती थी। यूं तो देव आनंद को सभी पसंद करते थे मगर रियल लाइफ में लड़कियां उन पर जान छिड़कती थीं। कहा जाता है कि जब देव आनंद काले कपड़े पहनकर निकलती थीं तो लड़कियां उनकी एक झलक पाने के लिए बिल्डिंग से कूदने को भी तैयार हो जाती थीं। कहा जाता है कि देव आनंद की एक फैन ने उन्हें ब्लैक सूट में देख लिया था। इसके बाद वह फैन देव आनंद के पीछे इतनी पागल हो गई थी कि उसने अपनी जान दे दी थी। इस खबर में सच्चाई हो या नहीं, मगर किसी एक्टर के लिए ऐसी दीवानगी के किस्से कम ही सुनने को मिले। देव आनंद को ब्लैक सूट में देखकर लड़कियां तो पागल हो जाती थीं। इसलिए उनसे गुजारिश की गई थी, कि वे सार्वजनिक जगहों पर काले कपड़े या सूट पहनकर नहीं निकलें।
      झुक-झुककर संवाद अदायगी का उनका खास अंदाज हो या फिर उनकी फीमेल फैन्स की बात! देव आनंद अपने समकालीन कलाकारों में हमेशा अलग ही थे। बॉलीवुड में कितने ही हीरो आए और चले गए, लेकिन देव आनंद जैसे कुछ ही हैं, जिनके बिना हिंदी फिल्मों का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। अपने दौर में रूमानियत और फैशन आइकन रहे देव आनंद को लेकर कई किस्से मशहूर हैं। हिंदी सिनेमा में करीब छह दशक तक दर्शकों पर अपनी अदाकारी और रूमानियत का जादू बिखेरने वाले अभिनेता देव आनंद को एक्टर बनने के लिए भी कई पापड़ बेलने पड़े। उन्होंने 1942 में लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में अपनी शिक्षा पूरी की। वे आगे भी पढ़ना चाहते थे, लेकिन पिता की हैसियत नहीं थी। पिता ने कहा कि यदि वे आगे पढ़ना चाहते हैं, तो नौकरी कर लें। यहीं से उनका फ़िल्मी सफर भी शुरू हो गया। 1943 में जब वे मुंबई पहुंचे, तब उनके पास कोई ठिकाना नहीं था। देव आनंद ने मुंबई में रेलवे स्टेशन के पास सस्ते होटल में कमरा किराए पर लिया। उनके साथ तीन लड़के और रहते थे, जो फिल्मों में काम करना चाहते थे। देव आनंद को अशोक कुमार की फिल्म 'अछूत' इतनी पसंद आई थी कि उन्होंने एक्टर बनने की ठान ली। इसके बाद अशोक कुमार ने ही देव आनंद को फिल्म 'जिद्दी' में ब्रेक दिया था।
    रिश्ते निभाने में भी देव आनंद की कोई जोड़ नहीं थी। वे गुरुदत्त के बहुत अच्छे दोस्त थे। इसी दोस्ती के साथ देव आनंद और गुरुदत्त के बीच एक समझौता हुआ कि देव आनंद अपनी फिल्मों में गुरुदत्त को निर्देशक बनाएंगे और यदि गुरुदत्त कोई फिल्म निर्देशित करते हैं,तो उन फिल्मों में देव आनंद ही हीरो होंगे। इस वादे को निभाते हुए देव आनंद और गुरुदत्त ने कई फिल्मों में एक साथ काम किया।1951 में आई 'बाजी' से गुरुदत्त ने निर्देशन की शुरुआत की। वे खुद बहुत हुनरमंद थे, इसलिए आगे चलकर वे जबरदस्त कलाकार और निर्देशक बनकर सामने आए। दोनों का रिश्ता सिर्फ यहीं ख़त्म नहीं हुआ। राज खोसला को देव आनंद ने ही गुरुदत्त के सहायक निर्देशक के रूप में नियुक्त किया था। जब राज खोसला ने अपनी पहली फिल्म बनाई तो उसमें उन्होंने देव आनंद ही हीरो बने। राज खोसला के निर्देशन में बनी पहली पांच फिल्मों मिलाप, सीआईडी, कालापानी, सोलवां साल और बंबई का बाबू के हीरो देव आनंद ही थे। 
    देव आनंद की पहचान रोमांटिक हीरो के रूप में थी, पर उनकी निजी जिंदगी में उन्हें वो प्यार नहीं मिला, जो उनकी चाहत थी। देव आनंद और सुरैया की प्रेम कहानी को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की सबसे दुखांत प्रेम कहानियों में गिना जाता है। देव की वजह से ही सुरैया ने जीवन भर शादी नहीं की। यह कहानी तब शुरू हुई, जब सुरैया स्टार थीं और देव आनंद अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। सुरैया कार से आती थीं और वे लोकल ट्रेन से। फिल्म ‘विद्या’ फिल्म की शूटिंग चल रही थी, गाना ‘किनारे किनारे चले जाएंगे हम’ शूट हो रहा था। जिस नाव पर ये गाना फिल्माया जा रहा था, वो अचानक पलट गई और सुरैया डूबने लगी। देव आनंद ने छलांग लगाई और सुरैया को पानी में से निकाल लाए। यहीं से दोनों के बीच प्यार का अंकुर फूटा। एक दिन उन्होंने सुरैया के घर फोन किया, तो सुरैया की मां ने फोन उठाया। बाद में सुरैया की नानी को इस रिश्ते का पता लगा तो वे खिलाफ हो गईं। नानी की वजह से ये रिश्ता आगे नै बढ़ सका। देव आनंद ने बताया था कि वो अकेली ऐसी लड़की थी, जिसके लिए मैं रोया! उसके बाद ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया!’ इस घटना के बाद सुरैया ने कभी शादी नहीं की। देव आनंद ने 1954 में अभिनेत्री ‘कल्पना कार्तिक’ के साथ शादी की, जबकि सुरैया ने जीवन भर शादी नहीं की।
     देव आनंद का वास्तविक नाम धर्मदेव पिशोरीमल आनंद था, जिसे उन्होंने फिल्मों में आने के बाद बदलकर देव आनंद रख लिया था। उन्होंने पूरे फिल्मी करियर में 112 फिल्में की। अपने फिल्म करियर की शुरुआत 1946 में 'हम एक हैं' से की थी। इसके बाद आगे बढो, मोहन, हम भी इंसान हैं जैसी कुछ फिल्मों के बाद उनके फ़िल्मी सफर ने आकार लिया। लेकिन, मील का पत्थर साबित हुई फिल्मिस्तान की फिल्म 'जिद्दी!' 'गाइड' में उनकी भूमिका आज भी याद की जाती है। उन्होंने अपने करियर में पेइंग गेस्ट, बाजी, ज्वैल थीफ, सीआईडी, जॉनी मेरा नाम, अमीर गरीब, वारंट, हरे रामा हरे कृष्णा जैसी सुपर हिट फिल्में दीं। उन्हें सिनेमा में सहयोग के लिए सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहेब फाल्के से भी सम्मानित किया गया। देव आनंद का 3 दिसम्बर 2011 को निधन हुआ था, तब उनकी उम्र 88 वर्ष थी। देव आनंद तब लंदन में थे और वही एक होटल में ही उन्होंने आखिरी सांस ली। उनकी इच्छा की मुताबिक उनका अंतिम संस्कार भी वहीं किया गया। निधन के बाद उनका कोई फोटो भी सामने नहीं आया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनको दर्शकों ने जिस तरह देखा है, वो पहचान बदले।
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Sunday, September 19, 2021

मेरा 'मन' क्यों तुम्हें चाहे, मेरा 'मन'

हेमंत पाल 

    सिनेमा को मनोरंजन भी कहा जाता है। मनोरंजन में वह सब कुछ आता है जो मन को लुभाए या बहलाए। एक तरह से सिनेमा मन मोहने का एक साधन है जिसमें कभी कहानीकार, कभी निर्माता कभी गीतकार या संगीतकार के मन की बातें इस अंदाज में कही और दिखाई जाती है कि दर्शकों का मन डोलने लगता है। यही कारण है कि सिनेमा में अधिकांशतः मन हावी रहा है। फिल्मकारों ने सिनेमा में मन का बेहताशा उपयोग किया और सिनेमा के शैशवकाल से चली आ रही यह मन की बात आज भी जारी है। मन कुछ ऐसी ही चीज है, जिसे आज तक न तो किसी ने अच्छी तरह से समझा है और न इसे मनमाफिक तरीके से परिभाषित किया। आखिर यह मन है क्या? कोई इसे दिल से जोड़ता है, तो कोई दिमाग से! लेकिन, मन न तो दिल है और न दिमाग। मन तो बस मन है, जिस पर किसी की मनमानी नहीं चलती। जब सिनेमा की बात आती है, तो यहां मन का दो तरह से इस्तेमाल किया जाता है। जब दर्शकों के मन की होती है तो फिल्में बॉक्स ऑफिस की वैतरणी पार कर जाती है। लेकिन, इसके विपरीत जब कोई निर्माता या निर्देशक दर्शकों के साथ मनमानी पर उतर आता है, तो दर्शक भी उसे मनचाहा प्रतिसाद नहीं देते और फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धराशाही हो जाती है।
    अब यदि सिनेमा में मन के प्रयोग की बात की जाए तो फिल्मों के शीर्षक से लेकर गानों में मन का मनचाहा, मनमाफिक और मनपसंद उपयोग किया गया है। यह भी संयोग है कि मन ऐसा विषय है जिस पर बनी अधिकांश फिल्में सफल हुई। शुरुआत इंद्र कुमार की फिल्म 'मन' से कर ली जाए। आमिर खान और मनीषा कोइराला अभिनीत इस फिल्म का शीर्षक भले ही 'मन' रहा हो, लेकिन इसमें मन की बजाए तन-बदन पर ज्यादा ध्यान दिया गया था। फिर भी यह फिल्म सफल रही। 'मन' को आधार बनाकर रखे गए शीर्षक वाली फिल्मों में छोटे से लेकर बड़े सभी सितारों ने काम कर दर्शकों का मन बहलाया है। देव आनंद और टीना मुनीम अभिनीत फिल्म 'मनपसंद' अंग्रेजी फिल्म 'माय फेयर लेडी' पर आधारित थी। इसे देव आनंद के सचिव और खास तरह के गद्य नुमा गीत लिखने में माहिर अमित खन्ना ने बनाया था। इस फिल्म में राजेश रोशन ने भी मनपसंद संगीत दिया। संजीव कुमार को 'मन' वाले शीर्षक ज्यादा भाते थे। यही कारण है कि 'मनचली' में उन्होंने पूरे मनोयोग से काम कर दर्शकों का मन जीतने में कामयाबी हासिल की थी। इसके बाद संजीव कुमार ने 'मन की आँखें' की नायिका के साथ जिस मन पर आधारित फिल्म में काम किया वह थी 'मनमंदिर।' इस फिल्म में दर्शकों ने भले ही आंसू बहाए, लेकिन निर्माता दर्शकों के आंसुओं से पैसा बटोरकर मन ही मन मुस्कुराते रहे।
   धर्मेंद्र और वहीदा रहमान ने 'मन की आंखें' में पारिवारिक कहानी का आधार लेकर मन को बहलाने की सफल कोशिश की। इस फिल्म में मन से ज्यादा दर्शकों की आंखे खुली! सुनील दत्त ने जब अपने भाई सोमदत्त को लेकर फिल्म बनाई तो उसका शीर्षक भी 'मन का मीत' रखा। इसमें सोमदत्त को फिल्म की नायिका लीना चंदावरकर के 'मन का मीत' बताया गया और विनोद खन्ना लीना चंदावरकर पर मनमानी कर उसे अपने मन में बसाने का असफल प्रयास करते रहे। लेकिन हकीकत में हुआ उल्टा ही। 'मन का मीत' सफल रही। लेकिन, फिल्म के नायक सोमदत्त दर्शकों के 'मन के मीत' नहीं बन पाए। इसके उलट दर्शकों के मन में नफरत के बीज बोने वाले विनोद खन्ना के रूप में दर्शकों को मनचाहा खलनायक मिल गया, जो आगे चलकर नायक बनकर कई नायिकाओं के मन के मीत बने। फिल्मों की सफलता का सबसे बड़ा फार्मूला है दर्शकों के मन को पढ़ना और उनके मन के मुताबिक मनचाहे मसालों का उपयोग कर मनचाही फिल्म बनाना। इस विधा में जो निर्माता निर्देशक सबसे ज्यादा दर्शकों के मन भाये संयोग से उन्हें भी 'मन' जी के संबोधन से पुकारा जाता था। वाकई में मनमोहन देसाई हिन्दी सिनेमा के मनचाहे फिल्मकार थे। दुर्भाग्य से वह नंदा से विवाह करने की चाह मन में लिए ही चल बसे।
     किशोर कुमार को परदे पर उल जलूल हरकतें करने में माहिर माना जाता था। उनकी इन हरकतों को देखते हुए निर्माता ने उन्हें साधना के साथ लेकर 'मनमौजी' नाम से फिल्म ही बना डाली, जो मदनमोहन के मनमोहक संगीत से सजी थी लिहाजा उसका सफल होना तो तय ही था। फिल्मों के शीर्षक और गीतों के अलावा मन पर डायलॉग भी लिखे गए, जिसमें फिल्म 'चाइना गेट' का संवाद 'मेरे मन को भाया मैं कुत्ता मारकर खाया' खूब चला तो मनमोहन कृष्ण आजीवन मनचाही भूमिका मिलने की तलाश में रोने वाली भूमिका निभाते रहे। मनमोहन नामक दूसरे अभिनेता ने 'शहीद' में चंद्रशेखर आजाद की भूमिका में प्राण फूंके। लेकिन, बाद में वह हीरोइन पर मनमानी कर बलात्कार करने की भूमिका में कुख्यात हो गए। 'आराधना' में जब शर्मिला टैगोर मनमोहन को तमाचा मारती है, तो वे कहते हैं 'जब कोई लड़की मुझे थप्पड़ मारती है, तो मैं बुरा नहीं मानता उसका नाम डायरी में लिख लेता हूं और मौका मिलते हिसाब पूरा कर डालता हूं।' इस संवाद ने दर्शकों के मन में उनके प्रति इतनी नफरत भर दी कि इसके बाद जब भी मनमोहन परदे पर आते दर्शक गालियां देने लगते हैं।
    फिल्मी शीर्षकों के बाद दो अक्षरों का यह छोटा सा शब्द 'मन' गीतकारों के इतने मन भाया कि इसे लेकर दर्जनों लोकप्रिय गीतों का सृजन हुआ। फिल्म 'रागिनी' का गीत 'मन मोरा बावरा' वैसे तो किशोर कुमार पर फिल्माया गया था। लेकिन, इसे गाया मोहम्मद रफी ने, क्योंकि किशोर कुमार का मन कहता था कि रफी ही इसके साथ इंसाफ कर सकते हैं। ऐसा ही एक क्लासिकल गीत 'नाचे मन मोरा मगन' था जिसे 'मेरी सूरत तेरी आंखें में' अशोक कुमार पर फिल्माया गया था। 'असली नकली' में देव आनंद नायिका साधना के मन की थाह लेकर गाते हैं 'मन मंदिर में तुझको बिठाकर रोज करूंगा बातें शाम सबेरे हर मौसम में होगी मुलाकातें' तो 'सरस्वतीचंद्र' में नूतन तन के ऊपर मन की श्रेष्ठता साबित करने के लिए कहती है 'तन से तन का मिलन हो न पाया तो क्या, मन से मन का मिलन कोई कम तो नहीं।' 
    1954 में बनी 'नागिन' में जब प्रदीप कुमार बीन बजाते हैं, तो वैजयंती माला बेसुध होकर नाचने लगती है। पार्श्व में गीत बजता है 'मन डोले मेरा तन डोले, मेरे दिल का गया करार रे, ये कौन बजाये बाँसुरिया!' गीतकार शैलेन्द्र ने विजय आनंद की फिल्म ‘काला बाजार’ के लिए आत्मा का ताप मिटाने वाला भजन ‘मोह मन मोहे, लोभ ललचाए, कैसे-कैसे ये नाग लहराए’ लिखा था। 1964 में आई फिल्म 'चित्रलेखा' का गीत 'मन रे तू काहे न धीर धरे, वो निर्मोही मोह न जाने, जिनका मोह करे' बहुत लोकप्रिय हुआ था। संजीव कुमार फिल्म 'मनचली' में हीरोइन को छेडते हुए गाते हैं 'ओ मनचली कहां चली' तो 'शर्मिली' में नीरज ने लिखा था 'आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन।' मन से जुड़े कुछ गीतों में फिल्म 'उत्सव' का गीत मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को, 'मन' फिल्म का गीत मेरा मन क्यों तुम्हे चाहे, 'हैप्पी न्यू इयर' का मनवा लागे रे सांवरे, दो कलियां का बच्चे मन के सच्चे, 'नागिन' का तन डोले मेरा मन डोले, एक बार फिर का मन कहे मैं झूमूं नाचूं। फिल्म 'सीमा' का 'मन मोहना बड़े झूठे' बहुत लोकप्रिय हुए हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि 'मन' की थाह पाना आसान नहीं! कम से कम सिनेमा की दुनिया में तो 'मन' खूब चलता है! कभी फिल्मों के नाम में, कभी डायलॉग में तो कभी गीतों में! एक और बात याद कीजिए, हमारे राष्ट्रगान 'जन गण मन अधिनायक जय है' में भी 'मन' की अपनी अहमियत है।       
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Saturday, September 18, 2021

मध्यप्रदेश में क्या कोई राज्यसभा के लायक नहीं!

   भाजपा हाईकमान ने मध्य प्रदेश से राज्यसभा की एक सीट के लिए नाम की घोषणा कर दी। लेकिन, जो नाम सामने आया उसने प्रदेश के नेताओं को निराश ही किया। क्योंकि, जो आधा दर्जन नाम मध्यप्रदेश से राज्यसभा के लिए दस्तक दे रहे थे, उनमें से किसी को भी इस लायक नहीं समझा गया। तमिलनाडु से विधानसभा चुनाव हारे और फिलहाल केंद्र में राज्यमंत्री डॉ अल मुरुगन मध्यप्रदेश से राज्यसभा के उम्मीदवार होंगे और उनकी जीत भी तय है। 
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- हेमंत पाल

   राज्यसभा की एक सीट को लेकर भाजपा के कुछ नेताओं को जिस बात की आशंका थी, वो सही साबित हुई। कहा जा रहा था कि पार्टी में संभावित असंतोष को देखते हुए किसी बाहरी नेता को उम्मीदवार बनाया जा सकता है, वही हुआ भी सही! पार्टी हाईकमान ने तमिलनाडु के नेता डॉ अल मुरुगन को मध्यप्रदेश से भाजपा का उम्मीदवार बनाया है। इन दिनों भाजपा में एक बात चटखारे लेकर की जा रही है, कि गुजरात में जो हुआ, उसके बाद पार्टी में कुछ भी हो सकता है! राज्यसभा उम्मीदवार का चयन भी उसी आशंका का अगला कदम है।     
     मध्यप्रदेश से राज्यसभा की 11 सीटें हैं। इनमें 10 सीटों में से 7 पर भाजपा के सदस्य हैं, तीन पर कांग्रेस का कब्जा है। अब जो उपचुनाव है, वह एक सीट के लिए होना है। ये उपचुनाव निर्विरोध होगा और भाजपा उम्मीदवार आसानी से चुनाव जीत दर्ज कर सकेगा। क्योंकि, कांग्रेस ने इस चुनाव से अपने आपको अलग रखा। उसे किसी तरह का राजनीति लाभ नजर नहीं आ रहा, इसलिए ये सही फैसला भी है। लेकिन, भाजपा ने जिस तरह उम्मीदवार का चयन किया, उसने कई भाजपा नेताओं को निराश किया होगा। थावरचंद गहलोत निमाड़-मालवा इलाके से आते हैं और अनुसूचित जाति वर्ग के हैं ऐसे में पार्टी को प्रत्याशी चयन के जरिए निमाड़-मालवा क्षेत्र और अनुसूचित जाति वर्ग दोनों को बेहतर संदेश था। पर, उनकी जगह जिसे उम्मीदवारी दी गई, उससे प्रदेश की भाजपा राजनीति के समीकरण सही नै बैठते।  
    केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत को जब राज्यपाल बनाकर कर्नाटक भेजने का फैसला किया गया तो मध्यप्रदेश से राज्यसभा की ये सीट खाली हुई थी। उसके बाद से ही अनुसूचित जाति के कई नेताओं की नजरें इस सीट पर लगी थी। थावरचंद गहलोत के इस्तीफे के बाद अनुसूचित जाति वर्ग से आने वाले नेताओं में इस वर्ग से मध्य प्रदेश से कोई राज्यसभा सदस्य भी नहीं है। प्रदेश सरकार में मंत्री रहे लालसिंह आर्य का नाम सबसे ज्यादा संभावित नामों में से था। वे पार्टी के अनुसूचित जाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी है। लेकिन, पार्टी ने सुदूर तमिलनाडु के डॉ अल मुरुगन को उम्मीदवार बनाकर कई को निराश किया। जब तक उम्मीदवार तय नहीं हुआ था, तब तक अलग-अलग अंचल से अलग-अलग जाति वर्ग से तर्क दिए जा रहे थे। लेकिन, पार्टी हाईकमान का अलग ही मंथन चल रहा था, जो पहले से तय था। पहले सर्वानंद सोनोवाल का नाम भी सामने आया, पर उन्हें असम से उम्मीदवार बनाया। 
    भाजपा में उम्मीदवार को लेकर लम्बे समय से मंथन का दौर चल रहा था। कई तरह के कयास लगाए जा रहे थे। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती के अलावा केंद्रीय मंत्री सत्यनारायण जटिया और पूर्व मंत्री लालसिंह आर्य के नाम चर्चा में थे। सबसे प्रबल नाम लालसिंह आर्य का था। लेकिन, डॉ अल मुरुगन का नाम सबसे ज्यादा चौंकाने वाला रहा! वे केंद्रीय मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री हैं और अभी किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं। मध्यप्रदेश से भाजपा के जो राज्यसभा के बाहरी सदस्य हैं, उनमें एक धर्मेंद्र प्रधान भी हैं, जो मूलतः ओडिशा से हैं, पर उन्हें मध्यप्रदेश से भेजा गया था। पार्टी का ये रवैया ये भी बताता है कि उसके लिए मध्यप्रदेश के भाजपा नेताओं की हैसियत क्या है! इस प्रदेश को राजनीतिक चरागाह की तरह समझा जाने लगा है! ये पहली बार नहीं हुआ, ऐसे राजनीतिक फैसले पहले भी हुए हैं।    
   देश के पांच राज्यों से राज्यसभा सीटों के लिए 23 सितंबर से नामांकन पत्र दाखिल किए जाएंगे। जरूरत होने पर 4 अक्टूबर को मतदान होगा। इस सीट से जो भी सदस्य चुना जाएगा उसका कार्यकाल 2 अप्रैल 2024 तक रहेगा। मध्य प्रदेश में भाजपा बहुमत में है इसलिए  कारण भाजपा खेमे से ही दावेदारियां हो रही हैं। थावरचंद गहलोत अनुसूचित जाति वर्ग से थे, इस वजह से इस वर्ग के दावेदार नेताओं को उम्मीद थी, जो स्वाभाविक है। थावरचंद गहलोत जिस वर्ग से हैं, उस समाज का कोई भी नेता राज्यसभा या लोकसभा में पूरे कार्यकाल के लिए नहीं भेजा गया। जबकि, इस समाज की संख्या 40 लाख के करीब है। 
   राज्यसभा के लिए जिस उम्मीदवार डॉ अल मुरुगन को चुना गया, वे तमिल राजनीतिज्ञ और पेशे से अधिवक्ता हैं। फ़िलहाल वे मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय और सूचना और प्रसारण मंत्रालय में राज्य मंत्री के रूप में कार्यरत हैं। इससे पहले वे भारतीय जनता पार्टी की तमिलनाडु इकाई के प्रदेश अध्यक्ष रहे थे। तमिलनाडु के नामक्कल जिले के निवासी मुरुगन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने से पहले राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के उपाध्यक्ष थे। डॉ मुरुगन ने मानवाधिकार कानून में स्नातकोत्तर कर डॉक्टरेट की है! मार्च 2020 में जब वे भाजपा की तमिलनाडु इकाई के अध्यक्ष बने थे, तब उनके पास विधानसभा चुनाव की तैयारी करने के लिए साल भर का ही समय था। राज्य में द्रविड़ विचारधारा की गहरी जड़ों के चलते हिन्दुत्व को आगे रखने वाली पार्टी का नेतृत्व करना मुरुगन के लिए आसान काम नहीं था। लेकिन, उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत जरूरत पड़ने पर 'सॉफ्ट द्रविड़ विचारधारा' को अपनाने में झिझक नहीं दिखाई। साथ ही अपनी पार्टी के राष्ट्रवाद को भी बरकरार रखा। विधानसभा चुनाव में मुरुगन बहुत कम मतों के अंतर से हारे थे। वे धारापुरम (सुरक्षित) निर्वाचन क्षेत्र से 1,393 मतों के अंतर से विधानसभा चुनाव हार गए थे। 
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तवायफों से रोशन रहा सिनेमा का परदा

- हेमंत पाल

      सिनेमा और समाज हमेशा ही एक-दूसरे को राह दिखाते आए हैं। पथ प्रदर्शक की इसी परंपरा में परदे पर गाहे बनाने वह किरदार भी उभरकर सामने आ जाते है, जिन्हे देखकर दिन के उजाले में हम नाक भौंह सिकोड़ते हैं। लेकिन, इसी समाज के कुछ चेहरे छुपते छुपाते उन बदनाम गलियों में पहुंच जाते हैं जहां तवायफें रातें रोशन करती हैं। जो लोग इन गलियों में नहीं जाते, उनके लिए फिल्मकारों ने सिनेमाघरों में बैठकर कोठों का मंजर देखने और तवायफों की अदाओं पर सिक्के बरसाने का इंतजाम किया है। सैल्यूलाइड पर इस विषय कई फिल्में बनती रही, जो तवायफों और उनके जीवन को अलग-अलग अंदाज में पेश करती हैं। सिनेमा के लिए तवायफ इतना दमदार विषय है कि बड़ी से बड़ी अभिनेत्री और सिनेमा की त्रिमूर्ति भी इससे बच नहीं सकी। दिलीप कुमार की देवदास, राजकपूर की राम तेरी गंगा मैली और देव आनंद की 'काला पानी' इसी कथानक पर बनी ऐसी फ़िल्में हैं, जो मील का पत्थर बन गई। गुरुदत्त ने तो तवायफों की बदहाली से परेशान होकर 'प्यासा' में साहिर लुधियानवी की लेखनी से पंडित नेहरू को चुनौती देते हुए कह दिया था 'जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां है! यहाँ एक बात स्पष्ट करना होगी कि तवायफ और वैश्या दो अलग-अलग पेशे हैं, जो राजे-रजवाड़ों के दौर से समाज में आए। तवायफ यानी गाने-बजाने वाली औरत और शरीर का सौदा कर ने वाली वैश्या कहलाती है! इसमें बहुत महीन अंतर है और कई बार ये ख़त्म भी हो जाता है। कई बार दर्शक और समीक्षक फिल्म में तवायफ को भी वैश्या का किरदार समझ बैठते हैं। जबकि, बाजार में अपना जिस्म बेचना और कोठे में नाचना दोनों अलग-अलग काम हैं। कई फिल्मों में इस बारीक अंतर को गंभीरता से दिखाया गया, तो कई फिल्मों में ये कहानी उलझकर रह गया। 
    लेखिका रुथ वनिता ने अभी तक बनी 235 फिल्मों में तवायफों की भूमिका को लेकर 'डांसिंग विद द नेशन : कोर्टिजंस इन बॉम्बे सिनेमा' किताब लिखी थी। उनका मानना है कि हिंदी फिल्मों में तवायफों को कभी पतित और अबला के तौर पर पेश नहीं किया गया। उन्हें विदुषी, अपने हुनर में काबिल, अमीर और आधुनिक औरत की तरह दिखाया गया, जो अपनी मर्जी की मालकिन हैं। तवायफ को एक अच्छी औरत साबित करने वाली फिल्मों में 'साधना' और 'तवायफ' को भी गिना जा सकता है। लेकिन, सबसे अलग थी शरतचंद्र चटर्जी की 'देवदास' की तवायफ चंद्रमुखी, जो निस्वार्थ भाव से देवदास का सहारा बनती है। मुज़फ्फर अली की फिल्म ‘जानिसार’ भी एक तवायफ और अवध के नवाब की प्रेम कहानी थी। सिनेमा के परदे पर तवायफों की कहानी पर फ़िल्में बनाना काफी अरसे पहले शुरू हो गया था। लेकिन, आजादी के बाद की फिल्मों में ये चलन कुछ तेजी से बढ़ा। नामचीन तवायफों की जिंदगी को कहानी में गढ़कर परदे पर उतारा गया। अभिनेत्री वहीदा रहमान तो उस दौर में गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' (1957) में तवायफ की भूमिका की, जब दूसरी अभिनेत्रियां इससे कतराती थीं। उन्हें लगता था कि ऐसे किरदार निभाने से उनकी छवि बिगड़ेगी। 
     1972 में 'पाकीजा' और 1981 में आई 'उमराव जान' ने तवायफ़ों की जिंदगी की कई परतें खोली थीं। ये दोनों फिल्में हिंदी फिल्म इतिहास की अमर कथाएं मानी जाती है। 'पाकीजा' में मीना कुमारी ने साहेब जान और नरगिस के मां-बेटी के दोहरे किरदार निभाए थे। 'पाकीजा' की खासियत थी कि इस फिल्म ने देखने वालों को तवायफ की खूबसूरती में छुपी तड़प, प्रेम और समर्पण से परिचित कराया था। निर्देशक कमाल अमरोही ने ये घृणित जीवन जीने वाली औरतों की मुसीबतों का हल ढूंढने की कोशिश भी की थी। ये फिल्म बनने में 14 साल जरूर लगे, पर मीना कुमारी ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। मीना कुमारी और रेखा दोनों को इन फिल्मों से जीवन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म होने का सम्मान मिला।1981 में लेखक मिर्ज़ा मोहम्मद हादी रुसवा के उर्दू उपन्यास 'उमराव जान' पर मुजफ्फर अली ने रेखा को लेकर 'उमराव जान' बनाई थी। फिल्म के लिए रेखा को सर्वश्रेष्ठ अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। गीत-संगीत और अभिनय में भले ही दोनों फिल्मों ने इतिहास बनाया हो। लेकिन, दोनों फिल्मों में एक बड़ा अंतर था। कमाल अमरोही की 'पाकीजा' और मुजफ्फर अली की 'उमराव जान' में तवायफ के मन में दबा प्रेम, समर्पण और आम औरत की तरह घर बसाने की अतृप्त इच्छा का ही फिल्मांकन था। लेकिन, 'पाकीजा' में समाज के इस वर्ग की समस्याओं का पूर्ण विराम लग गया। उधर, 'उमराव जान' में पुरुषों में वफा और सच्चा प्यार तलाशती तवायफ की जिंदगी को एक सवालिया निशान लगाकर छोड़ दिया गया था।  
     रेखा ने 'उमराव जान' के अलावा 1978 में अमिताभ बच्चन के साथ 'मुकद्दर का सिकंदर' में भी जोहराबाई की भूमिका निभाई, जो कोठे पर नाचती है। इस फिल्म का एक गाना 'सलाम ए इश्क मेरी जान' लम्बे अरसे तक लोगों की जुबान पर चढ़ा रहा। 1997 में आई फिल्म 'आस्था' में भी रेखा ने ऐसी गृहिणी का किरदार निभाया था जो परिवार के लिए वैश्या बन जाती है। इसके अलावा प्यार की जीत, उत्सव, दीदार-ए-यार और 'जाल' जैसी फिल्मों में भी उन्होंने तवायफ का किरदार निभाया था। इस्माइल श्राफ की फिल्म 'आहिस्ता आहिस्ता' में एक बच्ची को तवायफ बनाने की आईटीआई मार्मिक प्रस्तुति की गई थी कि जिसे देखकर दर्शक अंदर तक हिल जाता है।
    तवायफों की जिंदगी को कुरेदना संजय लीला भंसाली का प्रिय विषय है। 'देवदास' के बाद उन्होंने 2015 में 'बाजीराव मस्तानी' बनाई टी जिसमें दीपिका पादुकोण ने मस्तानी की भूमिका की। भंसाली ने अब 'गंगूबाई काठियावाड़ी' बनाई, जिसमें आलिया भट्ट ने तवायफ का किरदार निभाया। ये फिल्म एक तवायफ के माफिया क्वीन बनने की कहानी है। भंसाली की यह फिल्म मशहूर लेखक एस हुसैन जैदी की किताब 'माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई' पर आधारित है। तवायफ की भूमिका वाली यादगार फिल्मों में 2002 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म 'देवदास' है, जिसमें माधुरी दीक्षित ने चंद्रमुखी का किरदार निभाया था। चंद्रमुखी को देवदास से प्यार हो जाता है, लेकिन ये प्रेम कहानी पूरी नहीं हो पाती। इससे पहले 'खलनायक' (1993) में तवायफ बनकर माधुरी ने 'चोली के पीछे' पर डांस किया था। उन्होंने 'कलंक' में भी तवायफ की भूमिका की। यह बंटवारे से पहले 1945 की पृष्ठभूमि पर बनी थी। फिल्म में वे एक मुस्लिम तवायफ बहार बेगम बनी है, जो पहली सेकुलर नायिका के तौर पर सामने आती है। वे राम की जीत के गीत गाती और कोठे पर नटराज की मूर्ति नजर आती है। 
     फिल्म 'बेगम जान' में विद्या बालन का अभिनय भी दर्शकों को बेहद पसंद आया था। बांग्ला फिल्म ‘राजकहिनी’ की रीमेक ‘बेगम जान’ कई मायनों में एक अहम फिल्म है। इसमें विभाजन की त्रासदी में तवायफों के दर्द को बयां किया गया। फिल्म के केंद्र में बेगम जान है जो उन्मुक्त पर सख्त औरत है जो कोठा चलाती है। ऐसा ही अंदाज श्याम बेनेगल ने ‘मंडी’ में शबाना आजमी का दिखाया था। शर्मिला टैगोर जैसी अभिनेत्री ने भी दो बार ऐसी भूमिका की। लेकिन, दोनों किरदार अलग-अलग थे। राजेश खन्ना के साथ 'अमर प्रेम' में वे शांत और अंतर्मुखी तवायफ बनी, जिसे राजेश खन्ना को प्यार हो जाता है। इसके बाद वे संजीव कुमार के साथ गुलजार की फिल्म 'मौसम' में तवायफ का किरदार किया जो बेहद तर्रार होती है। वो शराब भी पीती है और उसके हाथ में सिगरेट भी दिखाई देती है। 
   मधुर भंडारकर की फिल्म 'चांदनी बार' (2001) में तब्बू ने इतना जीवंत अभिनय किया कि उसे नेशनल अवॉर्ड मिला था। फिल्म में अंडरवर्ल्ड की कहानी के साथ तवायफों के दर्द को भी दिखाया गया था। फिल्म के लिए तब्बू को बेस्ट एक्ट्रेस का नेशनल अवॉर्ड मिला था। ऐश्वर्या राय भी ऐसा किरदार निभाने के मोह से बची नहीं! 2006 में उन्होंने जेपी दत्ता की 'उमराव जान' के रीमेक में अभिषेक बच्चन के काम किया था। ये एक ऐसी तवायफ की कहानी थी, जो ये बदनाम काम छोड़कर आम जिंदगी जीना चाहती थीं, पर ऐसा हो नहीं पाता! करीना कपूर भी दो बार फिल्मों में इस तरह के किरदार में नजर आईं। 2004 में आई 'चमेली' में करीना ने तवायफ की भूमिका निभाई थी, इसमें करीना के साथ राहुल बोस थे। 2012 में आई फिल्म 'तलाश' में भी करीना ने इसी तरह का किरदार निभाया था। कंगना रनौत ने ‘रज्जो’ में इसी तरह का किरदार निभाया था। कंगना पहली बार ऐसी किसी भूमिका में नजर आई थीं। उन्होंने इस काम के लिए काफी मेहनत भी की, पर फिल्म कामयाब नहीं हो पाई थी! 
  रानी मुखर्जी ने भी 'लागा चुनरी में दाग' और 'मंगल पांडे' में तवायफ का किरदार अदा किया, जो उनके सभी किरदारों से अलग था। ये फिल्म परदे पर तो कमाल नहीं कर सकी, लेकिन रानी के किरदार को सराहा गया। श्रुति हासन ने भी निखिल आडवाणी की फिल्म 'डी डे' में वैश्या की भूमिका निभाई थी। इसमें उन्होंने अर्जुन रामपाल के साथ कई बोल्ड सीन भी दिए थे। बीआर चोपड़ा की फिल्म 'चेतना' में भी रेहाना सुल्तान ने अपनी अदाकारी से वैश्या के किरदार को जीवंत किया था। 'चिंगारी' में सुष्मिता सेन ने भी वैश्या के किरदारों को दमदार तरीके से निभाने की कोशिश की। मधुर भंडारकर की गिनती ऐसे निर्देशकों में हैं, जो विषय को जीवंतता के साथ पर्दे पर पेश करते हैं। उनकी फिल्म 'ट्रैफिक सिग्नल' पूरी तरह से इसी विषय पर केंद्रित थी जिसमें कोंकणा सेन ने जोरदार था। युक्ता मुखी ने भी 'मेमसाहब' में इसी तरह का किरदार किया।
    फिल्मों के शुरूआती दौर में जाएं तो 1941 में होमी वाडिया प्रोडक्शन की इंग्लिश फिल्म 'कोर्ट डांसर' आई थी। इसमें पृथ्वीराज कपूर ने प्रिंस चन्द्रकीर्ति और साधना बोस ने राज नर्तकी की भूमिका निभाई थी। तवायफों के काल्पनिक किरदारों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुई, सलीम और अनारकली की प्रेम कहानी। 1928 में आरएस चौधुरी ने 'अनारकली बनाई जिसमें दिनशा बिल्मोरिया और रूबी मायर ने काम किया था। 1935 में चौधुरी ने इन्हीं दोनों कलाकारों को लेकर दूसरी बार फिर 'अनारकली' बनाई! फिल्मिस्तान ने 1953 में नंदलाल जसवंत लाल के निर्देशन में प्रदीप कुमार, बीना राय को लेकर फिर 'अनारकली' बना डाली। लेकिन, 1961 में के आसिफ ने 'मुग़ले आज़म' बनाकर इस कथानक को अमर कर दिया। अकबर बने पृथ्वीराज कपूर के साथ दिलीप कुमार और मधुबाला ने सलीम और अनारकली के पात्रों को जिस तरह जीवंत किया, वो कोई और नहीं कर सका। जबकि, 1955 में तमिल और तेलुगु में वेदांतम राघवैया के निर्देशन में में भी सलीम-अनारकली की कथा को फिल्माया जा चुका है। शशि कपूर ने शूद्रक के संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिकम' पर 'उत्सव' फिल्म बनाई थी। इसमें रेखा ने वसंत सेना का किरदार निभाया था, जो राज दरबार में नर्तकी होती है। 
   आचार्य चतुरसेन ने अपने उपन्यास 'वैशाली की नगर वधु' में आम्रपाली नाम की तवायफ को गढ़ा था। इस पर भी अब तक दो बार 'आम्रपाली' नाम से ही हिंदी फ़िल्में बनी है। पहली बार 1945 में नंदलाल जसवंतलाल के निर्देशन में बनी 'आम्रपाली' में मुख्य किरदार सबिता देवी ने किया था। दूसरी बार 'आम्रपाली' 1966 में बनी जिसे लेख टंडन ने निर्देशित किया था। इसमें आम्रपाली का किरदार वैजयंती माला ने निभाया था और सुनील दत्त मगध सम्राट अजातशत्रु थे। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास 'चित्रलेखा' की नायिका चित्रलेखा जो बाल विधवा है और मौर्य सम्राट की राज नर्तकी भी। इस कहानी पर निर्देशक केदार शर्मा ने दो बार फ़िल्म बनाई। 1941 में बनी पहली 'चित्रलेखा' में मेहताब और नंदरेकर ने काम किया था। ये फिल्म अभिनेत्री मेहताब के स्नान दृश्य के कारण चर्चित हुई थी। 1964 में दूसरी बार बनी 'चित्रलेखा' में मीना कुमारी, प्रदीप कुमार और अशोक कुमार थे। लेकिन, अब सिनेमा से ये विषय धीरे-धीरे हाशिए पर चला गया। क्योंकि, दर्शकों की नई पौध की ऐसे कथानकों में कोई रूचि नहीं है। 
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Wednesday, September 15, 2021

संभागीय संगठन मंत्रियों की बिदाई, भाजपा में बदलाव का हिस्सा!

   सत्ता और संगठन के बीच तालमेल बनाने के लिए डेढ़ दशक पहले तैनात किए गए संभागीय संगठन मंत्रियों की तैनाती का प्रयोग सफल नहीं हुआ। अंततः इस व्यवस्था  कर दिया गया। क्योंकि, इनके कामकाज का तरीका हमेशा ही चर्चा में रहा। जिस संघ ने इन्हें जिम्मेदारी सौंपी थी, वह भी इनके कामकाज के तरीकों से नाराज था। संघ ने शुरुआत में सिर्फ संघ प्रचारकों को ये दायित्व सौंपा था, पर बाद में गैर-प्रचारकों और गृहस्थ पदाधिकारियों को भी इससे जोड़ लिया गया। शुरू में कामकाज अच्छा चला और उसके सार्थक नतीजे भी दिखाई दिए! लेकिन, सत्ता के प्रभाव से ये भी बच नहीं सके। इसके बाद उनके कामकाज को लेकर शिकायतें सामने आने लगीं। संघ की शुचिता वाली कार्यपद्धति त्याग कर ये संभागीय संगठन मंत्री मनमानी करने लगे। सरकार के निर्णयों में भी उनका दखल साफ़ दिखाई देने लगा था। पार्टी की चित्रकूट में हुई पार्टी की चिंतन बैठक में यह मुद्दा बेहद गंभीरता से उठा था। यही कारण था कि इन्हें एक झटके में कार्यमुक्त कर दिया गया। कहा जा सकता है कि इस कार्रवाई में पार्टी अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा ने संगठन मंत्री सुहास भगत से बाजी मार ली! 
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- हेमंत पाल

     भारतीय जनता पार्टी में अब वो दौर चल रहा है, जब उसे अपनी व्यवस्थाओं में बदलाव के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। ऐसा ही एक बदलाव छह संभागीय संगठन मंत्रियों को उनके दायित्वों से मुक्त करना था। इनकी सम्मानजनक बिदाई के लिए सभी को प्रदेश कार्यसमिति का सदस्य बनाने का फैसला किया गया। लेकिन, संभागीय संगठन मंत्री के रूप में इनका जो रुआब था, वो ख़त्म हो गया। वास्तव में इनका ये रुआब ही इनकी बिदाई का कारण बना। भाजपा संगठन ने पहली बार कोई ऐसा फैसला किया, जो चर्चा में बना। पार्टी ने संभागों में तैनात छह संगठन मंत्रियों को हटा दिया। ये सभी लोग प्रदेश कार्यसमिति में शामिल किए गए हैं। लेकिन, इन्हें हटाए जाने के बाद प्रचारित किया जा रहा है कि इनको निगम-मंडलों में जगह दी जाएगी। लगता नहीं कि ऐसा कुछ होगा। क्योंकि, ज्योतिरादित्य सिंधिया के कुछ लोगों के साथ कुछ वरिष्ठ नेताओं से इन पदों को भरा जाएगा। फिर सभी 6 संभागीय संगठन मंत्रियों को उनकी गलतियों की वजह से हटाया गया है! यदि इन्हें लाभ का पद दिया गया, तो ये फिर वही गलतियां दोहरा सकते हैं। संभव है कि कार्यमुक्त इन पदाधिकारियों को होने वाले स्थानीय निकाय चुनाव में लगाया जा सकता है। हटाए गए संभागीय संगठन मंत्रियों में शैलेंद्र बरुआ के पास जबलपुर और नर्मदापुरम की जिम्मेदारी थी। जयपाल सिंह चावड़ा इंदौर और जितेंद्र लिटोरिया उज्जैन संभाग की कमान संभाल रहे थे। आशुतोष तिवारी के पास ग्वालियर और भोपाल संभाग, श्याम महाजन के पास रीवा-शहडोल और केशव सिंह भदौरिया के पास सागर और चंबल की जिम्मेदारी थी।  
    संभागीय संगठन मंत्रियों को अचानक क्यों हटाया गया, इस सवाल का जवाब मुश्किल नहीं है! पार्टी से जुड़े हर कार्यकर्ता इसके पीछे की सच्चाई जानता है कि इस पद पर बैठे लोग किस तरह उच्श्रृंखल हो गए थे। संघ ने उन्हें सरकार और संगठन के बीच समन्वय के लिए नियुक्त किया था, पर वे पार्टी के इंस्पेक्टर की तरह बर्ताव करने लगे थे। इन लोगों का कामकाज सर्वशक्तिमान सत्ता केंद्र के रूप में दिखाई देने लगा था। संभागीय संगठन मंत्रियों के प्रशासन के कामकाज में भी दखल देने की बातें सुनाई देती थीं। इससे प्रशासनिक कामकाज भी प्रभावित होने लगा था। इन संगठन मंत्रियों के प्रभाव में सांसद और विधायक समेत पार्टी पदाधिकारी भी थे। लम्बे समय से जिलों में पार्टी के हर फैसले में संभागीय संगठन मंत्रियों का हस्तक्षेप दिखाई देता था। ख़ास बात ये कि किसी में भी इनका विरोध करने की हिम्मत नहीं थी। समझा जाता था कि इन्हें ये सब करने का अधिकार ऊपर से मिला है। 
    संभागीय संगठन मंत्रियों के खिलाफ पार्टी को लंबे समय से शिकायतें मिल रही थी! कहा जा रहा था कि उन्होंने अपने कार्य क्षेत्र में समानांतर सत्ता केंद्र बना लिए थे। इससे संगठन की व्यवस्थाएं और कामकाज प्रभावित होने लगा। था लेन-देन की शिकायतों के साथ संभागीय संगठन मंत्री संघ के मूल चरित्र से भी हटने की भी ख़बरें चर्चा में थीं। भले ही उज्जैन के एक संगठन मंत्री का अश्लील वीडियो सामने आया, पर ऐसी शिकायतें अन्य के खिलाफ भी सामने आई थी। कामकाज से जुड़ी शिकायतों को लेकर पहले भी अम्बाराम कराड़ा, हुकुम गुप्ता, रतलाम के संगठन मंत्री चौरसिया, कैलाश गौतम, तपन भौमिक, राकेश डागोर, संजीव सरकार, चंद्रप्रकाश मिश्रा और कार्यालय मंत्री रहे सत्येंद्र भूषण सिंह की सेवाएं भी वापस ली गई। स्पष्ट है कि संघ में जिस शुचिता और सद्चरित्रता का कठोरता से पालन किया जाता है, उसकी यहाँ कई बार धज्जियां उड़ती दिखाई दी। कुछ संभागीय संगठन मंत्रियों के बच्चे विदेशों में भी पढ़ रहे हैं। समझा जा सकता है कि उनकी लाखों रुपए की फीस कहाँ से आती होगी। ये लाभ का पद नहीं है, फिर भी इससे लाभ लेने की बातें छुपी नहीं रही! ऐसी भी शिकायतें थीं कि कार्यकर्ताओं को संगठन में नियुक्ति में भेदभाव भी इनके कहने पर किया जाने लगा था। 
   प्रदेश संगठन ने 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद जिले और विधानसभा स्तर पर तैनात चुनाव सहायक और विस्तारकों की सेवाएं भी समाप्त कर दी थी। संभागीय संगठन मंत्रियों को कार्यमुक्त करने का फैसला भी तभी कर लिया गया था। लेकिन, पार्टी इन्हें अपमानित करके निकालना नहीं चाहता था। यही कारण था कि इनकी नई जिम्मेदारी तय होने तक इन्हें हटाया नहीं गया। संगठन महामंत्री इनको पूरी तरह मुक्त करने के बजाए दायित्व में बदलाव के पक्षधर थे। चित्रकूट में हुई चिंतन बैठक में संघ प्रमुख डॉ मोहन भागवत के सामने फिर से यह मुद्दा उठाया गया था और तभी तय कर लिया गया था कि इन्हें हटाना है। कहा जा सकता है कि ये फैसला लेने में पार्टी अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा अव्वल रहे और प्रदेश संगठन मंत्री सुहास भगत इसमें पिछड़ गए। जबकि, ये फैसला काफी पहले लिया जाना था।  
   भाजपा में अब संभागीय संगठन मंत्री की व्यवस्था को ही खत्म कर दिया गया। बदली व्यवस्था के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के पैटर्न पर प्रदेश को तीन भागों बांटने की तैयारी है। जिसके तहत मालवा, मध्य और महाकौशल प्रांत के स्तर पर नई नियुक्ति की जाएंगी। जिसमें संघ के प्रचारकों को बड़ी भूमिका दी जा सकती है। बताया जा रहा है कि प्रदेश में तीन सह संगठन मंत्री होंगे। नई व्यवस्था को लागू करने के लिए दो और सह संगठन मंत्रियों को संघ भेजेगा। फिलहाल एक सह संगठन मंत्री हितानंद शर्मा है, जो प्रदेश संगठन मंत्री सुहास भगत के सहयोगी के रूप में काम कर रहे हैं। जल्दी ही तीन सह संगठन मंत्रियों को एक-एक प्रांत की जिम्मेदारी देने की योजना है। संभागीय संगठन मंत्रियों को हटाए जाने के बाद से प्रदेश में संगठन महामंत्री सुहास भगत और सह संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा ही पूरी व्यवस्था देखेंगे। भाजपा संगठन में एक बदलाव ये भी हुआ है कि अब राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री शिवप्रकाश भी भोपाल में ही रहेंगे। वे यहाँ से संगठन और सरकार की गतिविधियों पर नजर रखेंगे। भाजपा ने संगठन का नया ढांचा गढ़ने के लिए मध्यप्रदेश को प्रयोगशाला बनाने की तैयारी की है। बताते हैं कि पार्टी ने यह फैसला संघ की सहमति से लिया।इसके कयास लम्बे समय से लगाए जा रहे थे। पर, राजगढ़ में हुई प्रदेश पदाधिकारियों की बैठक में इसे अंतिम रूप दिया गया था।
    पार्टी संगठन में अचानक हुए इस बदलाव के पीछे भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और प्रदेश प्रभारी पी मुरलीधर राव की कार्यप्रणाली का असर समझा जा रहा है। पार्टी जो फैसला तीन साल में नहीं ले सकी थी, उसे एक झटके में ले लिया गया। प्रदेश के सभी 6 संभागीय संगठन मंत्रियों को प्रदेश कार्यसमिति सदस्य बनाकर उनके गृह क्षेत्र भेज दिया गया। कुछ साल पहले भाजपा ने जिला संगठन मंत्री का पद भी समाप्त कर दिया था। माना जा रहा है कि संगठन में नए सिरे से प्रांतीय संगठन मंत्रियों की तैनाती की जाएगी, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संरचना के अनुसार तीनों प्रांतों में संगठन का काम देखेंगे। जानकारी के मुताबिक अब मध्य भारत प्रांत, महाकौशल और मालवा के लिए तीन प्रांतीय संगठन मंत्री तैनात किए जा सकते हैं। पार्टी का यह भी विचार है कि प्रांतीय संगठन मंत्री के पद पर संघ के प्रचारकों को ही तैनात किया जाए। पार्टी आगे जो भी फैसला करे, पर संभागीय संगठन मंत्रियों का प्रयोग असफल होने के बाद अब उसे हर कदम फूंक फूंककर रखना पड़ेगा। यदि हर जिले और संभाग में सत्ता केंद्र बनने लगे, तो सारी व्यवस्था ही भंग हो जाएगी।    
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Friday, September 10, 2021

परदे पर कई बार शिक्षक बना नायक

- हेमंत पाल

   शिक्षक और छात्र जीवन में कई घटनाएं ऐसी होती है, जो फिल्मों के लिए अच्छा विषय बनती रही हैं। फिल्म देखने वाले हर दर्शक का स्कूल से वास्ता होता है, इसलिए उनका जुड़ाव भी फिल्म की सफलता का कारण बनता है! फर्क सिर्फ इतना कि शिक्षक और छात्रों के रिश्तों को फिल्म के कथानक में किस तरह पिरोया गया। जब से फ़िल्में बनाना शुरू हुई, कुछ सामाजिक विषय इतने लोकप्रिय रहे कि उन्हें हर दौर में दर्शकों ने पसंद किया। इनमें एक है शिक्षक और छात्र का रिश्ता। ये जीवन के मोड़ से जुड़ा ऐसा संबंध होता है, जो भविष्य तय करता है। व्यक्ति के जीवन में माता-पिता के बाद यदि सबसे ज्यादा प्रभाव किसी का होता है, तो वह निश्चित रूप से शिक्षक है, जो माता-पिता की ही तरह निस्वार्थ भाव से अपने छात्रों को जीवन की कठिनाइयों से लड़ने की राह दिखाता है। ऐसी कई फ़िल्में हैं, जिनमें छात्र और शिक्षक के बीच या तो बहुत जुड़ाव बताया गया या तनाव! इस रिश्ते में कई उतार-चढाव भी आते हैं, तनाव उत्पन्न होता है और ऐसे में शिक्षक का किरदार निभाने वाले अभिनेता को अपनी अभिनय प्रतिभा दिखाना होती है। क्योंकि, इस किरदार में न तो एक्शन होता है और न प्रेम की संवेदना व्यक्त करने का मौका मिलता है। कलाकार को सारी प्रतिभा छात्रों के प्रति शिक्षक के समर्पण के जरिए दिखाना होती है। ये बात अलग है, कि कभी ये भूमिका नाटकीय रूप में दिखाई दी, कभी गंभीरता के साथ कथानक का हिस्सा बनी। 
       फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो 1954 में प्रदर्शित फिल्म 'जागृति' में संभवतः सबसे पहले इस किरदार को पूरी संजीदगी के साथ निभाया गया था। फिल्म में अभि भट्टाचार्य ने शिक्षक की भूमिका निभाई थी। संगीतकार हेमंत कुमार के निर्देशन में कवि प्रदीप का रचा और उनका ही गाया गीत ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की’ बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसके साल भर बाद 1955 में राजकपूर की फिल्म ‘श्री 420’ आई। वैसे तो प्रेम कथा थी, पर इसमें अभिनेत्री नरगिस ने ऐसी आदर्श शिक्षिका की भूमिका निभाई थी, जो बच्चों को सच्चाई का पाठ पढ़ाती है। फिल्म में उन पर फिल्माया गीत ‘इचक दाना बिचक दाना’ भी पसंद किया था। 1968 में आई फिल्म 'पड़ोसन’ में अभिनेता महमूद संगीत शिक्षक की भूमिका में दिखाई दिए, जो सायरा बानो को संगीत सिखाते हैं। 1972 में आई गुलजार की फिल्म ‘परिचय’ में भी शिक्षक और छात्रों के बीच के बनते-बिगड़ते रिश्तों का खूबसूरत नजारा था। इसमें जितेन्द्र ऐसे शिक्षक की भूमिका में थे, जो सख्त अनुशासन वाले प्राण के घर में शैतान बच्चों को पढ़ाने बुलाए जाते हैं। लेकिन, बच्चे उन्हें परेशान कर देते हैं। इसके बावजूद जितेन्द्र हिम्मत नहीं हारते और सभी शरारती बच्चों को राह पर ले आते हैं। 1974 में आई फिल्म ‘इम्तिहान’ में कॉलेज के शिक्षक और छात्रों के बीच की राजनीति को दिखाया था। इसमें विनोद खन्ना ने प्रोफेसर की भूमिका निभाई, जो छात्रों को सीधे रास्ते पर चलने के लिए प्रेरणा देते हैं। 
     अमिताभ बच्चन ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने कई फिल्मों में शिक्षक की भूमिका निभाई। इनमें संजय लीला भंसाली की ‘ब्लैक’ उल्लेखनीय है। फिल्म में अमिताभ मानसिक रूप से विक्षिप्त लड़की को पढ़ाने के लिए नियुक्त किए जाते हैं। 'ब्लैक' के अलावा अमिताभ ने चुपके चुपके, कस्मे वादे, और 'दो और दो पांच’ जैसी फिल्मों में भी शिक्षक के किरदार निभाए। 2011 की फिल्म ‘आरक्षण’ में भी अमिताभ बच्चन शिक्षक ही बने थे। 1975 में ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘चुपके चुपके’ में अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र ने कॉलेज के शिक्षक की भूमिका निभाई। ये एक कॉमेडी फिल्म थी, जिसमें इन कलाकारों ने अपनी एक्शन छवि से निकलकर शिक्षक का किरदार निभाया था। फिल्म का कथानक बेहद रोचक था, जिसे इस कलाकारों ने पूरी शिद्दत से निभाकर दर्शकों को चमत्कृत कर दिया। आज भी स्वस्थ कॉमेडी फिल्मों की चर्चा में 'चुपके चुपके' का नाम लिया जाता है। 
    1978 में आई ‘कस्मे वादे’ में अमिताभ बच्चन ने डबल रोल किया था। एक रोल में वे कॉलेज शिक्षक की भूमिका में थे। 1980 की फिल्म ‘दो और दो पांच’ में अमिताभ ने शशि कपूर के साथ शिक्षक की भूमिका निभाई थी। राजकुमार ने भी 1980 की फिल्म ‘बुलंदी’ में शिक्षक का चुनौती भरा किरदार साकार किया था। इस फिल्म में राजकुमार अपराध की दुनिया के सरगना के पुत्र को सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं और तमाम अड़चनों के बावजूद उसे सही रास्ते पर ले ही आते हैं। फिल्म 'छलांग' में आज के ज़माने के अभिनेता राजकुमार राव ने भी स्कूल शिक्षक की भूमिका निभाई थी। अभिनेता बनने से पहले राजकुमार स्कूल शिक्षक हुआ करते थे। 
     शाहरुख़ खान को वैसे तो रोमांस का बादशाह कहा जाता है, पर उन्होंने भी कई फिल्मों में शिक्षक की भूमिका की। 1992 में प्रदर्शित ‘चमत्कार’ में शाहरुख ने कॉलेज के क्रिकेट कोच बने थे। इसके बाद 2000 में आई फिल्म ‘मोहब्बतें’ में वे संगीत शिक्षक थे, तो 2006 की फिल्म ‘चक दे इंडिया’ में शाहरुख ने हॉकी कोच बने, जो महिला टीम को अंततः जीत दिलाने में कामयाब होते हैं। यह किरदार बेहद चुनौती भरा था। लेकिन, शाहरुख़ ने इसे गंभीर अंदाज से निभाकर दर्शकों का दिल जीत लिया। 
     नायकों की तरह ही कई अभिनेत्रियां भी शिक्षक के किरदार में नजर आईं। इनमें हेमा मालिनी 'दिल्लगी' और 'दो और दो पांच में' शिक्षिका बनी, तो 'असली नकली' और 'मेरा नाम जोकर' में सिमी ग्रेवाल, राखी 'तपस्या' में, 'सफर' में शर्मिला टैगोर, 'प्रतिघात' में सुजाता मेहता के अलावा गायत्री जोशी ने 'स्वदेश' में आदर्श शिक्षिका के किरदार निभाए। लेकिन, शिक्षिका और छात्र के बीच कुछ ऐसे रिश्ते भी दिखाए गए, जो परंपरा से अलग हैं। 'मेरा नाम जोकर' में किशोर उम्र वाले ऋषि कपूर का अपनी शिक्षक सिमी ग्रेवाल के प्रति दिलचस्पी को राजकपूर ने प्रभावी तरीके से दिखाया था। इस फिल्म में एक दृश्य था, जब सिमी ग्रेवाल एक खेत में कपड़े बदल रही होती हैं और ऋषि कपूर उसे चुपके से देखते हैं। 1994 में आई फिल्म 'अंदाज' में शिक्षक और उसकी छात्रा के बीच एक प्रेम संबंध दिखाया गया। स्कूल गर्ल करिश्मा कपूर अपने शिक्षक अनिल कपूर के प्रति प्रेम भाव रखने लगती हैं। 'मैं हूँ ना' में शाहरुख खान और सुष्मिता सेन के बीच आकर्षण होता है। फिल्म में शाहरुख छात्र होते हैं और सुष्मिता कॉलेज में उनकी शिक्षक। फिल्म 'नशा' में पूनम पांडेय शिक्षक की भूमिका में नजर आईं थीं। स्कूल का एक छात्र उनकी तरफ आकर्षित होता है। 
    इस रिश्ते को बेहद खूबसूरती से फिल्म ‘हिचकी’ में फिल्माया गया है। टारेट सिंड्रोम से पीड़ित शिक्षक रानी मुखर्जी अपनी खामियों को नजर अंदाज करके गरीब बच्चों को समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करती है। उनकी यह फिलासफी जिंदगी का नजरिया सकारात्मक बना देती है। ऐसी कुछ फिल्में खास होती हैं। परिचय, इम्तिहान और ‘तारे जमीं पर’ को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। 2007 की फिल्म ‘तारे जमीन पर’ में आमिर खान शिक्षक बने थे। फिल्म की कहानी डिस्लकसिस बीमारी से पीड़ित एक बच्चे पर आधारित थी। फिल्म ‘इकबाल’ में एक जुनूनी मूक बधिर लड़का क्रिकेटर बनना चाहता है। उसके सपनों को उड़ान तब मिलती है, जब पूर्व क्रिकेटर नसीरुद्दीन शाह बतौर कोच उसके हुनर को मांजते हैं। ‘3 इडियट्स’ में इंजीनियरिंग कॉलेज के डीन वीरू सहस्त्रबुद्धे और आमिर खान और उसके दोस्तों के बीच सार्थक नोक-झोंक दिखाई गई थी। बिहार के आनंद कुमार पर आधारित फिल्म ‘सुपर 30’ में रितिक रोशन ने आनंद कुमार का किरदार निभाया था। शिक्षा में व्यवसाय कैसे अपने पैर पसार रहा है, इस मुद्दे को फिल्म ‘चाक एन डस्टर’ में दिखाने की कोशिश की गई थी। इरफान खान अभिनीत फिल्म ‘हिंदी मीडियम’ की कहानी स्कूल में गरीब बच्चों के लिए कुछ स्थान सुरक्षित रखे जाने पर आधारित थी। अपने बेटे को स्थान दिलाने के लिए नायक गरीबों की बस्ती में रहने तक चला जाता है। अभी भी इस रिश्ते के कई नए आयाम सामने आना बाकी है। क्योंकि, ज़माने के साथ ये रिश्ता भी करवट ले रहा है। 
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Friday, September 3, 2021

समानांतर सिनेमा दिखाता है, जीवन का यथार्थ!

हेमंत पाल 

     विद्या बालन का एक डायलॉग कुछ समय पहले बड़ा लोकप्रिय हुआ था, जिसमें वे रोचक अंदाज में तीन बार 'इंटरटेनमेंट .. इंटरटेनमेंट ... इंटरटेनमेंट और मैं इंटरटेनमेंट हूँ!' इस डायलॉग को यदि सिनेमा के नजरिए से देखा जाए, तो लगता है कि फ़िल्में आखिर क्या है, इंटरटेनमेंट ही तो है! देखने वाला वहाँ कुछ समय के लिए अपनी सारी परेशानियां भूल जाता है। लेकिन, इंटरटेनमेंट सिर्फ मन बहलाव ही नहीं है, ये भी दो हिस्सों में बंट गया। एक सिनेमा फार्मूला कहानियों पर बनता है, जो दर्शकों को बांधता है! दूसरा सिनेमा वो है, जो जीवन का यथार्थ दिखाता है, यानी समानांतर सिनेमा! दूसरी तरह की फ़िल्में कुछ ख़ास इसलिए होती हैं कि इनकी कहानियां हमें अपनी या अपने आसपास की लगती है। समानांतर फिल्मों में मुख्यतौर पर जमींदार या पूंजीपतियों द्वारा शोषण, अंधविश्वास और धार्मिक पाखंड पर चोट, युवा वर्ग के असंतोष, महिलाओं पर अत्याचार, भेदभाव जैसे कई सामाजिक मुद्दे दिखाई देते हैं। इनका समाज से सीधा सरोकार होता है। वास्तव में समानांतर सिनेमा को एक सांस्कृतिक आंदोलन की तरह देखा गया, जिसमें विषय की गंभीरता को यथार्थ और नैसर्गिकता के साथ जोड़कर रचा जाता है। ऐसी फिल्मों में हमेशा नए अंदाज से सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रमों को परदे पर उतारने की कोशिश की गई।
        समानांतर सिनेमा को जीवन का यथार्थ कहा जरूर गया, लेकिन माना नहीं गया। क्योंकि, समानांतर सिनेमा का कैमरा हमेशा दमित और शोषित वर्ग पर ही फोकस होता रहा है। जबकि, सिर्फ दमन और शोषण ही समाज का यथार्थ नहीं है! समाज के यथार्थ में खुशी और गम दोनों शामिल होते हैं। फकत गम को ही समाज का यथार्थ या समानांतर सिनेमा का सच नहीं माना जा सकता। यदि समाज के यथार्थ में जीवन के सभी पक्षों को शामिल किया जाए, तो इसे समानांतर नहीं यथार्थवादी सिनेमा कहना ज्यादा उचित होगा। यदि इसमें 'अंकुर' शामिल है, तो 'हम साथ साथ है' को भी शामिल किया जा सकता है। समझा जाता है कि हमारा समानांतर सिनेमा इटैलियन न्यू रियलिज्म, फ्रांस के फ्रेंच न्यू वेव और जापान के न्यू वेव सिनेमा से प्रभावित रहा। भारतीय सिनेमा में भी यथार्थवादी झलक बहुत पुरानी बात रही। ऐसी फिल्मों की नींव 1920 से 30 के दशक में ही पड़ गई थी। 1925 में बाबूराव पेंटर ने अपनी मूक फिल्म 'सावकारी पाश' बनाई, जिसमें वी शांताराम ने गरीब किसान का किरदार निभाया था। ये किसान अपनी जमीन एक साहूकार को देने के लिए मजबूर हो जाता है और गांव छोड़कर शहर में मिल मजदूर बन जाता है! इसे भारत की पहली समानांतर फिल्म माना जाता है। महिलाओं की दुर्दशा पर भी 1937 में बनी फिल्म 'दुनिया ना माने' भी ऐसी ही फिल्म थी। लेकिन, ये परंपरा तब आगे नहीं पढ़ सकी। 
     1940 से 1960 के दशक में समानांतर सिनेमा ने फिर करवट ली। इस दौर में उसे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बिमल राय, मृणाल सेन, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद और वी शांताराम ने पल्लवित किया। इन फिल्मों पर साहित्य की गहरी छाप थी। चेतन आनंद ने 1946 में 'नीचा नगर' जैसी फिल्म बनाई, जिसे कॉन फिल्म फेस्टिवल में ग्रैंड प्राइज मिला था। इस परम्परा को ही बाद में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अदूर गोपालकृष्णन तथा गिरीश कासरवल्ली ने बढ़ाया। ऐसे फिल्मकारों में एक गुरुदत्त भी थे, जिन्होंने कला और फार्मूला सिनेमा को जोड़ने का कमाल किया। उनकी फिल्म 'प्यासा' को हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्म माना जाता है। अमेरिका की 'टाइम' पत्रिका ने इसे 'ऑल टाइम बेस्ट 100 मूवी' में जगह दी है। लेकिन, कला फिल्मों से व्यावसायिक सफलता पाने में ऋषिकेश मुखर्जी की भी कोई बराबरी नहीं कर सकता। इस तरह की फिल्मों के दर्शकों का एक विशेष वर्ग होता है। दर्शकों का दायरा सीमित होने के कारण इन फिल्मों की व्यावसायिक सफलता संदिग्ध हमेशा ही मानी गई। लेकिन, कई कला फिल्में ऐसी हैं, जिन्हें बॉक्स ऑफिस पर अच्छी सफलता मिली। 
    आजादी के बाद 50 और 60 के दशक में सिनेमा दो धाराओं में बंट गया। एक धारा में सामाजिक सरोकार के चिंतन को स्थान दिया गया। दूसरी धारा में मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा बढ़ा! इसे मुख्यधारा का सिनेमा कहा गया। दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे, जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. दर्शकों ने समानांतर सिनेमा को व्यावसायिक सिनेमा से इतर हटकर एक नए विकल्प के रूप में देखा। बांग्ला फिल्मों में इसे बढ़ने में सत्यजित रे की खासी भूमिका रही, जो विश्व सिनेमा से प्रभावित हुए। ‘पथेर पांचाली’ (1955) से सत्यजीत रे ने यथार्थवादी फिल्मों का ये सिलसिला शुरू किया। इस फिल्म की पूरी पटकथा कभी नहीं लिखी गई। कागज पर सत्यजित राय कुछ नोट लिखते थे और स्केच बनाते थे।
    हिंदी में समानांतर सिनेमा की नई शुरुआत 1969 में मृणाल सेन की फिल्म 'भुवन सोम' को माना जाता है। 1976 में मृणाल ने 'मृगया' बनाई, जो मिथुन चक्रवर्ती की पहली फिल्म थी। इसमें मिथुन ने एक आदिवासी क्रांतिकारी का किरदार निभाया था, जो पत्नी के यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है। बाद में सत्यजीत रे ने हिंदी में पहले ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और बाद में ‘सद्गति’ बनाई। सत्यजीत रे के फ़िल्मी कथ्य में एक अलग ही शिल्प होता था। सुंदर छायांकन, विलक्षण दृष्टि बोध और दृश्य संयोजन के मामले में तो वे सदैव अनन्य रहे। 1953 में आई बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ ने समीक्षकों की प्रशंसा के साथ व्यावसायिक सफलता भी प्राप्त की थी। इसे कॉन फेस्टिवल (1954) में भी अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिला। इसके बाद बिमल रॉय ने बिराज बहू, देवदास, सुजाता और 'बंदिनी' फिल्में बनाई। 1970 और 1980 के दौरान समानांतर सिनेमा ने जमकर विकास किया। श्याम बेनेगल शैली के फिल्मकारों का हौसला बुलंद हुआ! इसी दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, रेहाना सुल्तान, साधु मैहर, अमोल पालेकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, गिरीश कर्नाड के साथ समय-समय पर रेखा और हेमा मालिनी का भी सानिध्य मिला। 
    श्याम बेनेगल समानांतर सिनेमा के नवसृजन के प्रमुख हस्ताक्षर बने। उन्होंने 1973 में पहली फिल्म 'अंकुर' बनाई। गांवों में शहरी घुसपैठ के परिणामों पर बनी यह फिल्म सफल रही। 'अंकुर' ने तीन राष्ट्रीय समेत 42 अवॉर्ड जीते। 1975 में बेनेगल ने 'निशांत' और 1976 में 'मंथन' बनाई। 'मंथन' को भी राष्ट्रीय पुरस्कार नवाजा गया। उनकी मंडी, कलियुग और 'जुनून' भी बेहद चर्चित रही। श्याम बेनेगल के साथ जुड़े गोविंद निहलानी भी इसी रास्ते पर आगे बढे और ऐसी ही यथार्थवादी फिल्में बनाई। निहलानी की 1981 में आई 'आक्रोश' को दर्शकों के साथ समीक्षकों ने भी सराहा। बाद में निहलानी ने कला और फार्मूला कथानकों पर फ़िल्में बनाना शुरू किया। पुलिस की विवशता पर अर्धसत्य, वायुसेना पर विजेता, मिल मालिक और मजदूरों के आपसी संघर्ष पर आघात, समाज के नवधनाढ्य वर्ग के खोखलेपन पर 'पार्टी' और आतंकवाद पर 'द्रोहकाल' बनाई। 1980 में मणि कौल ने गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना पर 'सतह से उठता आदमी' का निर्माण किया। 1983 में कुंदन शाह ने कालजयी फिल्म 'जाने भी दो यारों' बनाई। 1984 में सईद अख्तर मिर्जा ने 'मोहन जोशी हाजिर हो' और 'अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' बनाकर नए रास्ते खोले। 1986 में केतन मेहता ने स्मिता पाटिल को लेकर 'मिर्च मसाला' बनाई।  
    1990 के शुरुआती दौर में निर्माण लागत बढ़ने का सबसे बड़ा प्रभाव समानांतर फिल्मों पर पड़ा और ऐसी फिल्मों का बनना लगभग बंद हो गया। फिल्मकारों ने समानांतर सिनेमा से मुंह मोड़ लिया। शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह और कुलभूषण खरबंदा जैसे कला फिल्मों से उपजे कलाकारों ने भी अपने रास्ते बदल लिए। लेकिन, 2000 के बाद फिर यथार्थवादी सिनेमा के घोड़े बदले अंदाज में परदे पर दौड़े। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम से नए प्रयोग हुए। मणिरत्नम ने 'दिल से' और 'युवा' बनाई तो नागेश कुकनूर ने 'तीन दीवारें' और डोर परदे पर उतारी। सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी, जानू बरूआ की मैने गाँधी को नहीं मारा, नंदिता दास की फिराक, ओनिर की 'माय ब्रदर निखिल' और 'बस एक पल' ने माहौल बदलना शुरू किया। इसके बाद अनुराग कश्यप ने 'देव डी' और 'गुलाल' पीयूष झा की 'सिकंदर' के बाद विक्रमादित्य मोटवानी की 'उड़ान' ने नई धारा को जन्म दिया। 
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