Tuesday, September 24, 2013

संजय निरुपम : 'मध्यप्रदेश में मुकाबला बराबरी का'

सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव संजय निरुपम ने अगस्त के पहले सप्ताह में इंदौर और उज्जैन संभाग की जिलेवार बैठक ली और पार्टी कार्यकर्ताओं से पूछा कि मध्य प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के बारे में उनके पास क्या सुझाव है! इंदौर और उज्जैन में दो दिनों तक हुई इस बैठक में 16 जिलों के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने निरुपम से आमने-सामने सीधे बातचीत की और विचार रखे। पार्टी कार्यकर्ताओं से सीधे सुझाव लेने और उन्हें चुनाव के लिए उत्साहित करने के राहुल गाँधी के इस प्रयोग को काफी सराहना भी मिली। इस यात्रा के दौरान विभिन्न मुद्दों पर बातचीत करते हुए संजय निरुपम ने कहा कि कांग्रेस नरेंद्र मोदी से नहीं डरती! 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ही सरकार बनेगी। भाजपा सपना देख रही है कि केंद्र में उसकी सरकार बनेगी। प्रधानमंत्री पद पर मोदी को लेकर उठे घमासान को लेकर निरुपम की राय यह थी कि भाजपा ने बच्चा पैदा होने से पहले ही झुनझुना खरीद लिया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस का सवा सौ साल का इतिहास है और वह किसी भी तरह से मोदी से नहीं डरती! मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के बारे में निरुपम ने कहा कि 200 सीटों पर तो कांग्रेस और भाजपा में बराबरी का मुकाबला रहेगा! जबकि, शेष 30 सीटों पर जोरदार घमासान होगा। यहाँ भी कर्नाटक की तर्ज पर ‍टिकट वितरण किया जाएगा। ऐसे उम्मीदवारों को ही टिकट दिया जाएगा, जो चुनाव जीत सकते हैं। सिफारिशी टिकटों पर अंकुश लगाया जाएगा। संजय निरुपम ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के मुद्दे पर कहा कि इस देश में व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ता, पार्टियाँ चुनाव लड़ती है। भाजपा में जिस तरह की बैचेनी है, वही इस तरह की बात करता है। कांग्रेस सरकार ने गरीबों के लिए काफी काम किया है। जब हमारी सरकार बनेंगी, तब तय करेंगे कि कौन प्रधानमंत्री बनेगा! बेहतर हो कि भाजपा नेता अपने चरित्र, विचार और आइडोलॉजी में बदलाव करे। तेलंगाना मुद्दे पर उन्होंने कहा कि 2000 में एनडीए सरकार ने तीन राज्य बनाए थे। ये सभी राज्य वहां की विधानसभा ने सिफारिशों के आधार पर बनाए गए थे। तेलंगाना के मामले में कांग्रेस ही नहीं भाजपा नेता भी उसका समर्थन करते थे। भाजपा कल कुछ बोल रही थी, आज कुछ बोल रही है और कल कुछ और बोलेगी! जब तेलंगाना राज्य बन जाएगा, सारी समस्या हल हो जाएगी। सोशल मीडिया के बारे में निरुपम ने कहा कि देश में केवल 3 फीसदी लोगों का ही ट्‍विटर एकाउंट है। उनमें भी वे 47 प्रतिशत को ट्‍विट करतें हैं। मैं भी मुंबई से सांसद हूं और अपनी गतिविधियां ट्‍विटर पर डालता हूं। मैं हर सप्ताह अलग-अलग क्षेत्रों में जाता हूं और उसकी जानकारी ट्‍विटर पर देता हूं। देश महानगर नहीं है, पूरा देश मुंबई भी नहीं है, देश इंदौर भी नहीं है! सोशल मीडिया का इम्पैक्ट कुछ ही शहरों में पड़ता है, पूरे देश में नहीं! लोकसभा के 2014 के चुनाव में महंगाई सबसे बड़ा मुद्दा रहेगा? इस पर उन्होंने कहा कि 2008 में विश्वव्यापी मंदी शुरू हुई थी, जिसने अमेरिका की भी हालत खराब कर दी। 2010 के बाद भारत की स्थिति खराब हुई! ब्रिक्स देशों में भारत चीन के बाद दूसरे नंबर पर है, फिर भी बहुत अच्छी स्थिति नहीं है। उन्होंने आयात कम करने पर जोर दिया। निरुपम ने कहा कि लोगों की कमाई भी बढ़ी है। कई क्षेत्रों में 10 साल पहले जो वेतन मिलता था, वह अब तीन गुना हो गया है। लोगों की क्रय शक्ति भी बढ़ी है। दालों का उत्पादन देश में 12 प्रतिशत से बढ़कर साढ़े 18 प्रतिशत हो गया है। इसके लिए सरकार ने 'राष्ट्रीय दाल मिशन' तैयार किया है। पूरे देश में 25 हजार गांवों में किसानों को दाल उत्पादन के लिए प्रोग्राम बनाकर दिया, लेकिन अभी भी हम 4 हजार टन दाल आयात कर रहे हैं। निरुपम के मुताबिक देश में गरीबी रेखा के नीचे पहले 37 प्रतिशत लोग थे, जो अब 22 प्रतिशत रह गए हैं। इसका श्रेय केंद्र सरकार की 'मनरेगा' जैसी योजनाओं को जाता है। आरटीआई मालले पर उनका कहना था कि राजनीतिक दल प्रायवेट पार्टी हैं। जो भी पैसा खर्च होता है, उसका हिसाब बैलेंसशीट में दर्शाया जाता है। इसके बाद आरटीआई क्यों चाहिए, राजनीतिक पार्टियाँ बीसीसीआई नहीं है, देश का प्रतिनिधित्व नहीं करती। कौन मंत्री कितनी बार विदेश गया, मैंने अपने क्षेत्र में क्या काम किया, यह सब आरटीआई के दायरे में पहले से ही शामिल है! भ्रष्टाचार के मुद्दे पर निरुपम का कहना था कि भाजपा चाहती है नो करप्शन नो कांग्रेस। तो फिर येदियुरप्पा कहां से पैदा हुए? मप्र भाजपा में भी काफी भ्रष्टाचार है। 14 मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं। लेकिन, जांच का अभी तक कोई अता पता नहीं! मप्र में व्यापमं और अन्य घोटालों में राज्य सरकार नकेल कसने में नाकाम रही है।

Friday, August 23, 2013

छोटे राज्यों की मांग से उठे बड़े सवाल!

- हेमंत पाल --------------------------------------------------------------- आंध्र प्रदेश को विभाजित कर पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण का फैसला आते ही देश के अन्य भागों में छोटे राज्यों के लिए दशकों से चलते आ रहे आंदोलनों में नई जान आ गई। गोरखालैंड, विदर्भ, कार्बी आंगलांग, बोडोलैंड, पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध प्रदेश, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड आदि अनेक राज्यों की मांग के समर्थन में आंदोलनों का दौर शुरू हो गया है। इस घटनाक्रम को देखते हुए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अब केंद्र सरकार को दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करना चाहिए? जो कि नए राज्यों के पुनर्गठन की समस्या का राजनीतिक, भाषाई, सांस्कृतिक और भौगोलिक सभी पहलुओं का गहराई से अध्ययन करे , ताकि, इस आधार पर सरकार भविष्य में नए और छोटे राज्यों के निर्माण के बारे में सुविचारित मानक नीति तैयार करके उस पर अमल हो सके । तेलंगाना के गठन के केंद्र सरकार के फैसले ने देश के दूसरे हिस्सों में अलग राज्यों की मांग में चल रहे आंदोलनों को भड़का दिया है। इस्तीफों का दौर भी चला और सड़क पर विरोध भी हुआ! कोई खुश हुआ तो कोई दुखी! इस बात की आशंका भी थी, क्योंकि, ऐसे राजनीतिक फैसले सभी को खुश नहीं कर सकते! ऐसे में सवाल उठता है कि देश की आजादी के बाद से हमेशा ही अलग राज्यों की मांगें क्यों उठती रही है? इस तरह की मांगों के पीछे वोट की राजनीति है या फिर कोई और कारण? इन आंदोलनों के लिए क्या सिर्फ राज्यों की सांस्कृतिक और भौगोलिक भिन्नता ही जिम्मेदार है या फिर इसके पीछे कोई और कारण भी है? समाजशास्त्रियों के तर्क हैं कि समाज के अगड़े-पिछड़े के बीच तनाव, शोषण, भाषा और संस्कृति पर मंडराते खतरे, मुख्यधारा से कट जाने का खतरा और आजादी में खलल जैसे कारण ही अलग राज्य की मांगों को हवा दे रही है। लेकिन, इस तरह की मांगों के साथ जब भी राजनीति जुड़ती है तो आंदोलन की यह चिंगारी आग की शक्ल में सबकुछ जला डालती है। लंबे समय से देश के विभिन्न अंचलों से भाषाई, भौगोलिक और जातिगत आधार पर अलग राज्यों की मांग उठती रही है। कुछ मांगें तो आजादी से पहले की हैं और कुछ आजादी के बाद की! पश्चिम बंगाल के पर्वतीय क्षेत्र दार्जिलिंग में सबसे पहले 1907 में गोरखा समुदाय के लिए अलग राज्य की मांग उठी थी! अलग गोरखालैंड की मांग कर रहे 'गोरखा जनमुक्ति मोर्चा' के प्रमुख विमल गुरुंग कहते हैं, कि दार्जिलिंग तो कभी बंगाल का हिस्सा रहा ही नहीं! इतिहास भी इस बात का गवाह है। गोरखाओं की खत्म होती पहचान बनाए रखने के लिए गोरखालैंड जरूरी है। लेकिन, केंद्र सरकार ने कभी भी इन आंदोलनों को गंभीरता से नहीं लिया! कभी आंदोलनों को बल प्रयोग से दबाया गया तो कभी समझौतों के जरिए। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार ने समस्या की तह तक जाने की कोशिश नहीं की! असम के 'बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल' के सदस्य हाग्रामा मोहिलारी का कहना है कि असम में रहकर बोडो जनजाति की पहचान ख़त्म होने वाली है। सरकार ने अलग काउंसिल का लालच भले दिया हो, पर अलग राज्य के बिना बोडो जनजाति की पहचान को बनाए रखना संभव नहीं! देश की आजादी के बाद राज्यों के पुनर्गठन की सबसे बड़ी कवायद 1953 में 'राज्य पुनर्गठन आयोग' बनाकर की गई थी! इसके तहत राज्यों की सीमाएं भाषाई आधार पर तय की जानी थी। भाषाई आधार का नतीजा ये हुआ कि भौगोलिक बसावट, क्षेत्रफल, आबादी और भाषा के अलावा दूसरी सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति जैसे मसलों को आयोग ने महत्व नहीं दिया! यही कारण था कि कुछ सालों बाद ही असंतोष पनपने लगा! चार साल बाद ही बंबई से अलग करके गुजरात को अलग राज्य का दर्जा दिया गया। इसके छह साल बाद पंजाब को तीन हिस्सों में बांटकर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बनाना पड़ा। देश में छोटे राज्यों के लिए नए सिरे से उठने वाली मांगों के लिए तीन बातें ख़ास तौर पर जिम्मेदार हैं। पहली वजह जाति और धर्म के आधार पर देश के सामाजिक ताने-बाने का राजनीतिकरण होना है। पिछले कुछ सालों में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ा है, जो लोगों की भावनाओं को भड़काकर मांग को आंदोलन का स्वरूप देने लगे हैं। चुनावी राजनीति में बड़े दल भी अपने क्षेत्रीय एजेंडे के तहत अलगाववाद की भावना को बढ़ावा देने में पीछे नहीं हैं! दूसरा कारण है देश में एकसमान विकास का अभाव! ऐसी स्थिति में यह भावना प्रबल हो जाती है कि अलग राज्य होने की स्थिति में क्षेत्र और वहां के लोगों के विकास की गति तेज होगी! क्योंकि, ये आम धारणा है कि विकसित इलाकों में निजी निवेश होता है, जिससे इलाके का विकास होता है। पिछड़े इलाके विकास की दौड़ में इसीलिए और पिछड़ते रहते हैं! अपने लिए अलग राज्य की मांग का समर्थन करने वालों के पास अपनी दलीलें हैं। मांग का समर्थन करने वाले कहते हैं कि छोटे राज्यों से सुशासन सुनिश्चित करने के अलावा विकास की गति भी तेज हो सकती है। गोरखा आंदोलन से जुड़े नेताओं का कहना है कि राजधानी से दूर होने की वजह से सरकार और प्रशासन का ध्यान इलाके की समस्याओं और विकास की ओर नहीं जाता। इन आंदोलनकारियों का ये भी कहना है कि छोटे राज्यों की विकास दर दूसरे राज्यों से बेहतर है। अपनी बात के समर्थन में वे छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का हवाला देते हैं जिनकी औसतन सालाना वृद्धि दर दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान अपने मूल राज्यों (जिनसे अलग होकर उनका गठन हुआ था) के मुकाबले बेहतर रही। ऐसी मांगों का विरोध करने वाले इसे देश की एकता व अखंडता पर खतरा मानते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है कि दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र बंगाल का अभिन्न हिस्सा रहा है। कुछ इलाके को मिलाकर यदि गोरखालैंड बना भी दिया गया, तो संसाधान कहां से आएंगे? छोटे राज्यों के गठन से राजनीतिक व सामाजिक अस्थिरता भी बढ़ेगी! झारखंड इसका ताजा उदाहरण है जहां हर साल सरकार गिर या बदल जाती है। लेकिन, सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता को आधार बनाकर छोटे राज्यों के पक्ष को नाकारा नहीं जा सकता!