Tuesday, August 20, 2019

पुलिस की रेवड़ में काली भेड़ों को ढूंढने की जरुरत!

आम आदमी के जहन में बरसों से पुलिस को लेकर एक ख़ास छवि रही है। लोग मानते हैं कि पुलिस सभ्य लोगों की मदद के लिए नहीं होती! क्योंकि, सभ्य लोग पुलिस से डरते हैं और नहीं चाहते कि उनसे कभी सामना करना पड़े! इसका कारण है 'खाकी' का खौफ! आम लोगों और पुलिस के बीच दूरी कम करने के सामाजिक प्रयास कई बार हुए, पर सब बेनतीजा रहे! इसका कारण है, पुलिस का अमानवीय और पक्षपाती होना! इंदौर में पिछले दिनों कुछ पुलिस वाले जिस तरह की अनैतिक गतिविधियों को लेकर बेनकाब हुए हैं, वो पुलिस का नया चेहरा है! उससे लोग सहम से गए! गुंडों से दोस्ती, आपराधिक लोगों को प्रश्रय और शराब पीकर दुष्कर्म की कोशिश ने पुलिस की वर्दी को और ज्यादा दागदार बना दिया है। आश्चर्य इस बात का कि अब छोटे पुलिसवालों के अलावा बड़े और जिम्मेदार पुलिस अफसर भी ऐसे कृत्यों में लिप्त पाए गए! लेकिन, पूरा पुलिस महकमा ऐसा नहीं हैं! लेकिन, रेवड़ में चंद काली भेड़ों 
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- हेमंत पाल

   पुलिस को लेकर इंदौर में लोगों की शिकायतें लगातार बढ़ रही है। जिस तरह का पक्षपात पिछले दिनों इंदौर में पुलिस ने किया, वो किसी की नजरों से बच नहीं सका। गुंडों और बदमाशों को प्रश्रय देने की घटनाओं के सैकड़ों सुबूत लोगों की जुबान पर हैं। पुलिस थानों में फरियादी के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार, असामाजिक तत्वों के प्रति सहानुभूति की घटनाएं आम हो गईं! लगता है, पुलिस का काम सिर्फ दोपहिया वाहन चालकों के चालान बनाना और हेलमेट मुहिम चलाने तक सीमित है। ऐसी स्थिति में शांत कहे जाने वाले इंदौर शहर में अपराध की वारदातें बढ़ी हैं! हाल ही में एक कुख्यात गुंडे को पुलिस के छोटे से लेकर बड़े अफसरों ने जिस तरह प्रश्रय दिया, उसने लोगों की इस चिंतित हैं कि पुलिस आखिर किसके लिए हैं?
   जनता और पुलिस के रिश्तों को लेकर चर्चा हमेशा गर्म रहती है। शांतिप्रिय आदमी पुलिस से बचना चाहता है! इसलिए कि 'खाकी' का भय अपराधियों से ज्यादा फरियादियों को होने लगा! अपराधियों से तो पुलिस का हमेशा साबका बना रहता है, इसलिए वे तो भयभीत नहीं रहते! लेकिन, सभ्य आदमी अपनी इज्जत को लेकर पुलिस का सामना करना नहीं चाहता! पुलिस के पास कानून व्यवस्था को लेकर जितनी कानूनी शक्तियां हैं, उतनी किसी के पास नहीं! लेकिन, सरकार और समाज की सारी कोशिशें पुलिस को मानवीय नहीं बना सकीं और न उसका निरंकुश चेहरा ही बदल सका! देखा जाए तो आजादी के बाद भी जो बिल्कुल नहीं बदली, वो पुलिस ही है! इस व्यवस्था में जो बदलाव किए जाने थे, वो नहीं हो सके! इस दिशा में अभी तक होने वाली कोशिशें भी फाइलों में दबकर रह गई! इसी का नतीजा है कि पुलिस के कामकाज पर लगातार उँगलियाँ उठती रही हैं। 
    आज स्थिति यह है कि सामान्य लोग खाकी वर्दी से डरते हैं। उन्हें लगता है कि पुलिस सिर्फ नेताओं की सुरक्षा और गुंडों, बदमाशों और अपराधियों को संरक्षण देने के लिए है। पिछले कुछ दिनों में इंदौर में जिस तरह की घटनाएं घटी, ये मानना मज़बूरी हो गया है कि पुलिस से बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं की जा सकती! इंदौर में भी पुलिस को लेकर लोगों की अकसर शिकायतें सामने आती रहती है। थानों में शिकायत करने आने वालों के साथ दुर्व्यवहार होना तो आम बात है। इसके अलावा कोई घटना होने पर फोन नहीं उठाना भी पुलिसकर्मियों की आदत है। ये भी नितांत सच है कि पुलिस के ऐसे चंद पक्षपाती और अपराधिक चरित्र वाले कर्मचारियों के कारण पूरा विभाग बदनाम हो रहा है। ये वो काली भेड़ें हैं, जो रेवड़ को बदनाम करती हैं। 
  पुलिस में सुधार की बात है, तो सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में पुलिस व्यवस्था में सुधार के संदर्भ में कुछ दिशा-निर्देश जारी किए थे। उम्मीद की जा रही थी, कि राज्य सरकारें दिशा-निर्देशों का पालन करेंगी और तत्परता से कदम उठाएंगी! लेकिन, राज्य सरकारों ने पुलिस सुधारों के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई, लेकिन वे स्वेच्छा से कुछ भी करने को तैयार नहीं हुईं। राज्य सरकारें हमेशा ही पुलिस सुधारों को लेकर ढीले रवैये का परिचय देती हैं। सच तो ये है कि वे पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति का परित्याग नहीं हो पा रहा! जब तक पुलिस व्यवस्था में माकूल सुधार लागू नहीं किए जाते, तब तक पुलिस की चाल, चरित्र और चेहरा शायद नहीं बदलेगा।
     हाल ही में इंदौर में लोगों के प्लॉटों पर कब्जा करने वाले एक कुख्यात गुंडे का जब आपराधिक रिकॉर्ड सामने आया, तो कई पुलिस वालों के चेहरे उजागर हुए! शहर के एक थाने के तत्कालीन सीएसपी समेत ज्यादातर पुलिसवाले उस गुंडे के साथी और हिस्सेदार निकले। वे गुंडे को अपने साथ गाड़ी में घुमाते थे और जमीन पर कब्जे के लिए भी पहुंच जाते! विभाग ने इन आरोपी पुलिसवालों के खिलाफ कार्रवाई तो की, लेकिन उन प्रभावित लोगों की पीड़ा को कौन समझेगा, जिन्होंने पुलिस को उस गुंडे के मददगार के रूप देखा है! उस दर्द की दवा न तो विभाग के पास है न सरकार के! पुलिस वालों से दोस्ती ने उस गुंडे को इतना बैखौफ कर दिया था कि वो खुले आम जमीनों पर कब्जे करता, फर्जी रजिस्ट्री बनवाता और शिकायत करने वालों को झूठे मामलों में फंसाने की धौंस देता! अब इस मामले की जब सारी परतें खुलेंगी, तब कई और राज सामने आ सकते हैं!
   खाकी का खौफ क्या होता है, ये सभ्य आदमी ज्यादा जानता है! शहर के एक एसआई पर पिछले दिनों आरोप लगा था कि वह शराब के नशे में फ्लैट में घुस गया और वहाँ रहने वाले युवक पर उसकी बहन से शारीरिक संबंध बनाने का दबाव बनाने लगा। उस युवक को झूठे मामले में फँसाने के लिए धमकाया और मारपीट भी की गई! उस एसआई की मांग थी, कि या तो मैं तेरी बहन के साथ संबंध बनाऊंगा, नहीं तो मुझे 20 हज़ार रुपए चाहिए! जब घटना बड़े अफसरों के सामने आई तो उसके शराब पीने, धमकी देने और जबरन पैसे मांगने पुष्टि हुई और उसके खिलाफ कार्रवाई हुई! ऐसी घटनाएं सामने आने के बाद कैसे उम्मीद की जाए कि पुलिस का काम शहर के लोगों को सुरक्षा देना है! अब खाकी के भय से तो लोग अपने घर में ही असुरक्षित होते जा रहे हैं!
   इंदौर की क्राइम ब्रांच में पदस्थ एक महिला डीएसपी के खिलाफ हाल ही में इसलिए कार्रवाई की गई, कि वो बड़े अफसरों की जानकारी के बिना लेन-देन करके पुराने विवादस्पद मामलों को सुलझा रही थी! जबकि, नियम के अनुसार उन्हें शिकायती आवेदनों पर सीधे कार्रवाई का अधिकार नहीं था। उनके साथ रीडर और सिपाही को भी संलग्न पाया गया! बताते हैं कि कुछ दिनों पहले एक व्यक्ति को पकड़ा और अपने अफसरों को बिना बताए उसे थाने भेज दिया। पहले उस पर समझौते का दबाव बनाया, फिर कार्रवाई कर दी। क्राइम ब्रांच में पदस्थ अफसर सीधे आवेदन और शिकायतें नहीं ले सकते। नियम है कि एसपी (मुख्यालय) और एसएसपी द्वारा आदेशित शिकायतों की ही जांच की जाती है। जबकि, इस मामले में डीएसपी खुद ही पत्र लिखकर कार्रवाई करवा रही थीं। ये तो वे चंद किस्से हैं, जो सामने आ गए! पुलिस की अमानवीयता, पक्षपात और वसूली के किस्सों की शहर और प्रदेश में कमी नहीं है! व्यवस्था का सबसे बदरंग चेहरा पुलिस ही है, जिसके दाग धोने की कोशिश शुरू होना चाहिए! क्योंकि, कोई भी समाज तब तक नहीं सुधरता, जब तक उसके आसपास का सुरक्षा घेरा मजबूत नहीं हो! किसी गुंडे का जुलूस निकाल देने या गुंडों की अवैध संपत्ति ढहा देने से लोग खुश नहीं होंगे! ज्यादा जरुरी है पुलिस और असामाजिक तत्वों की कड़ी को तोडकर उन काली भेड़ों को ढूँढना, जो पूरे महकमे को बदनाम कर रही हैं।
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भीड़ में खो जाने वाला हरफनमौला!

- हेमंत पाल

   फ़िल्मी दुनिया में चॉकलेटी चेहरों को चांस ज्यादा मिलता है! ऐसे बहुत कम ही कलाकार हैं, जिनका चेहरा भीड़ में खो जाने वाला है, पर वे अपने अभिनय से छाप छोड़कर अपनी पहचान बनाने में कामयाब होते हैं! ऐसा ही एक चेहरा है आयुष्मान खुराना का! चेहरे-मोहरे से समाज के मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करता, परेशान सा ये चेहरा कहीं से चॉकलेटी हीरो नहीं लगता और है भी नहीं! आयुष्मान का न तो फ़िल्मी बैकग्राउंड है और उनके ऊपर किसी गॉडफादर का हाथ है! वे आज जो भी हैं, अपने अभिनय के दम पर हैं! उन्होंने अपने अभिनय से बॉलीवुड में अच्छा मुकाम भी पाया और राष्ट्रीय पुरस्कार जैसा सम्मान भी! आयुष्मान का नाम आते ही उनकी एक अलग छवि उभरकर आती है। वे लीक से हटकर फिल्में करते हैं और ऐसी फिल्मों को तवज्जो भी देते हैं, जिसमें उनकी अदाकारी को पहचाना जाए। यही कारण है कि हर फिल्म में आयुष्मान का अभिनय दमदार होता है! उन्हें देखकर नहीं लगता कि वे अभिनय कर रहे हैं, लगता है जैसे वे उस रोल को जी रहे हैं।
  याद किया जाए तो 70 और 80 के दशक में हल्की-फुल्की फिल्मों का एक दौर आया था। जिसमें मध्यवर्ग की परेशानियों, अभाव भरी जिंदगियों और जिंदगी की नई-नई पैचीदगियों को ढालकर फ़िल्में बनाई जाती थी। ऐसी फिल्मों में सबसे पसंदीदा अभिनेता होते थे अमोल पालेकर! आज भी कुछ उसी तरह की फिल्मों का दौर है! लेकिन, अमोल पालेकर की जगह ले ली आयुष्मान खुराना ने! आज आयुष्मान उसी सीधे-साधे युवक की छवि को आगे बढ़ाते से लगते हैं। वे मध्यवर्ग के किरदारों में एकदम फिट बैठते हैं! उनका अभिनय फिल्म की कहानी के किरदार को असलियत में ढाल लेता है और मध्यवर्गीय दर्शक खुद को उससे आसानी से जोड़ भी लेता है। 'विक्की डोनर' से अपने करियर की शुरुआत करने वाले आयुष्मान अब तक 10 से ज्यादा फिल्में कर चुके हैं और हर फिल्म में उन्होंने अलग-अलग तरह के रोल किए।    
  आयुष्मान के लिए अभिनय का सफर आसान नहीं था। उन्होंने कई पापड़ बेले! लेकिन, उनकी किस्मत का तारा तब चमका, जब जॉन अब्राहम ने उन्हें स्पर्म डोनर जैसे बोल्ड विषय पर फिल्म के लिए चुना। इस तरह 2012 में आयुष्मान खुराना ने शुजित सरकार के डायरेक्शन में 'विकी डोनर' से अभिनय की दुनिया में पहला कदम रखा था। यह फिल्म शुक्राणु दान और बांझपन की कहानी थी। समीक्षकों ने फिल्म को सराहा और आयुष्मान के अभिनय की भी तारीफ हुई। इसके बाद 'दम लगा के हईशा' और 'बरेली की बर्फी' में भी आयुष्मान ने अपनी अदाकारी  दिखाया। 'शुभ मंगल सावधान' को भी अच्छा रिस्पॉन्स मिला था। उनकी फिल्में 'बधाई हो' और 'अंधाधुन' में आयुष्मान के काम की जमकर तारीफ हुई है। 'अंधाधुन' में बेहतरीन अभिनय के लिए तो उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा की गई। 
  'बधाई हो' में उनका ऐसे बेटे का किरदार है, जिसकी माँ अधेड़ उम्र में फिर से मां बनने वाली है! शुभ मंगल सावधान, बरेली की बर्फी और दम लगा के हईशा में उनके मध्यवर्गीय परिवार वाले युवक के किरदार ने नए रंग भरे! जिस 'अंधाधुन' फिल्म में तो उनका बड़ा अजीब सा किरदार है! नायक अंधा नहीं होकर भी, संगीत के अंधे टीचर की तरह रहता है। ऐसे में वो एक हत्या का चश्मदीद गवाह बन जाता है और कहानी उलझ जाती है। देखा जाए तो आयुष्मान की अभिनय यात्रा बहुत लम्बी रही है। वे पांच साल तक चंडीगढ़ के थिएटर के साथ जुड़े रहे, जिसने उनके अभिनय को तराशा! बाद में आयुष्मान ने दिल्ली में एफएम चैनल 'बिग एफएम' में रेडियो जॉकी के रूप में काम किया। टीवी पर वे पहली बार एम-टीवी रोडीज के सीजन-2 में नजर आए। बाद में एम-टीवी पर ही पेप्सी एमटीवी वाजअप, द वाइस आफ यंगिस्तान जैसे युवाओं के कार्यक्रमों में वीडियो जॉकी बने! आयुष्मान को मल्टी टैलेंटेड कहा जा सकता है। वे सिर्फ अच्छे अदाकार ही नहीं है, वे गाते भी हैं, एंकरिंग भी करते हैं और रेडियो जॉकी का काम  उन्होंने किया ही है। यानी अभी उनके अभिनय के और भी कई रंग देखना बाकी है! 
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Monday, August 12, 2019

वही उद्योगपति अब मध्यप्रदेश आएंगे, जो निवेश कर सकेंगे!

   कमलनाथ सरकार प्रदेश की बेरोजगारी से निजात पाने के लिए भी अक्टूबर में होने वाले निवेशक सम्मेलन का उपयोग करने के मूड में हैं! उन्होंने इसका संकेत मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तत्काल बाद दे भी दिया था कि प्रदेश के उद्योगों को 70% रोजगार प्रदेश के लोगों को देना होगा! इस घोषणा का विपक्ष ने विरोध भी किया, पर इसका कोई असर नहीं हुआ! दरअसल, प्रदेश सरकार रोजगार मूलक निवेश नीति पर काम कर रही है। इसका नजारा, इस बार के निवेशक सम्मेलन में दिखाई देगा, जिसे कमलनाथ सरकार ने 'मेग्‍नीफिसेंट मध्‍यप्रदेश' नाम दिया है। ये 18 से 20 अक्टूबर तक इंदौर में होगा! इसका खाका बनाया जा चुका है और उस पर काम भी शुरू हो गया! मुख्यमंत्री ने देश के बड़े उद्योगपतियों से अपने पुराने रिश्तों का इस्तेमाल कर प्रदेश के हर जिले की जरूरत के मुताबिक निवेश लाने की योजना बनाई है।
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- हेमंत पाल
   बेरोजगारी मध्यप्रदेश की एक बड़ी समस्या रही है। पिछली शिवराज सरकार भी इससे अंजान नहीं थी, लेकिन निवेश को लेकर उसकी नीति अस्पष्ट थी। इस समस्या का हल उद्योगों के अलावा और कुछ हो भी नहीं सकता! किंतु, शिवराज सरकार ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया! उनकी सरकार के लिए 'इंवेस्टर्स समिट' एक इवेंट तक सीमित था! भारी भरकम खर्च के बाद भी इसके कभी सार्थक नतीजे नहीं निकले! अब कमलनाथ सरकार के पास सबसे अच्छा मौका है, जब वे उद्योगपतियों को अपनी निवेश घोषणाओं को जमीन पर उतारने के लिए मजबूर करेंगे! कमलनाथ ने कहा भी है कि प्रदेश में आज सबसे बड़ी जरूरत युवकों के लिए सुरक्षित रोजगार के नए अवसर पैदा करना! जब तक प्रदेश में निवेश नहीं आएगा, ये काम संभव नहीं हो सकता। इसके लिए निवेशकों के बीच सरकार को विश्वास का वातावरण निर्मित करना पड़ेगा! क्योंकि, निवेश तभी आता है, जब उद्योगपति को सरकार पर भरोसा हो! निवेशक को जब भरोसा होता है, कि वे यहां आकर भ्रष्टाचार में नहीं फंसेंगे, तभी वे निवेश के लिए आगे बढ़ते हैं! प्रदेश सरकार नई निवेश नीति भी बना रही है, जो क्षेत्रवार और जिलावार होगी! क्योंकि, उद्योग के मामले में हर जिले की स्थिति अलग है। 
   शिवराज सरकार के कार्यकाल में प्रदेश में 5 'इंवेस्टर्स समिट' हुए और लगभग हर समिट में एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा के समझौतों (एमओयू) पर हस्ताक्षर हुए थे। मगर जमीनी स्तर पर कुछ नजर नहीं आया। कई इलाकों में किसानों की सैकड़ों एकड़ जमीनें ले ली गईं, मगर कोई उद्योग नहीं लगा। कमलनाथ ने इस पर भी चिंता जताई थी। उन्होंने कहा था कि यह सच है कि उद्योगों ने जमीन तो ले ली, मगर उद्योग नहीं लगे! क्योंकि, विश्वास नहीं था। यही कारण है कि कमलनाथ ने कुर्सी संभालते ही शिवराज सरकार की तय 'इन्वेस्टर्स समिट' रद्द कर दी, जो इसी साल 23 और 24 फरवरी को इंदौर में होने वाली थी। शिवराजसिंह चौहान को चौथी बार अपनी सरकार बनने का इतना भरोसा था कि उन्होंने विधानसभा चुनाव से पहले ही समिट के लिए तैयारी शुरू कर दी थी। दिल्ली और मुंबई में उद्योगपतियों के साथ मीटिंग भी कर ली थी! लेकिन, सरकार नहीं बनने से सारी उम्मीदें धरी रह गई! 
  कांग्रेस शुरू से ही शिवराज-सरकार कार्यकाल में होने वाली इस तरह की इंवेस्टर्स समिट का विरोध करती रही है। खुद मुख्यमंत्री कमलनाथ भी 'ग्लोबल इनवेस्टर्स समिट' के सरकारी पाखंड के खिलाफ रहे हैं! उन्होंने इस पर होने वाले खर्च और निवेश प्रस्तावों के मूर्त रूप न लेने को लेकर सरकार को कटघरे में खड़ा किया था। कमलनाथ खुद उद्योगपति हैं और निवेश की बारीकियों और उद्योगपतियों की मानसिकता को भी वे समझते हैं। देश के बड़े उद्योगपतियों से भी उनके नजदीकी रिश्ते रहे हैं। कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में अपने वचन पत्र में प्रदेश में नई उद्योग नीति लाने और उद्योगों के अनुकूल माहौल बनाने का वादा भी किया था। ये सच भी किसी से छुपा नहीं है कि शिवराज सरकार के कार्यकाल में (2007 से 2016 तक) हर दूसरे साल पांच इंवेस्टर्स समिट हुई! इसमें तीन इंदौर में और एक-एक ग्वालियर व खजुराहो में हुई! इन समिट्स में देश के कई उद्योगपतियों को बुलाकर प्रदेश में निवेश के लाखों करोड़ के एमओयू साइन हुए! लेकिन, वास्तविक निवेश बहुत कम हुआ! कमलनाथ ने शिवराजसिंह चौहान के कार्यकाल में हुई इंवेस्टर्स समिट के दौरान हुए एमओयू की फाइलें निकलवाने के भी निर्देश दिए थे। 
   शिवराज सरकार के कार्यकाल में 'इंवेस्टर्स समिट' के नाम पर क्या होता था, इसका सही खुलासा मुख्यमंत्री कमलनाथ ने विधानसभा में एक सवाल के जवाब में दिया था। उन्होंने बताया था कि 2014 से 2018 के बीच ‘ग्‍लोबल इन्‍वेस्‍टर्स समिट’ के नाम से इंदौर में 8 से 10 अक्‍टूबर 2014 और 22-23 अक्‍टूबर 2016 को समिट हुईं। इन दो आयोजनों पर 4433.86 लाख का खर्च हुआ। इन समिट में निवेश के एमओयू नहीं होकर 'ऑनलाईन इन्‍टेंशन टू इन्‍वेस्‍ट' (निवेश आशय प्रस्‍ताव) हुए थे। 2014 से 4.33 लाख करोड़ के 3175 निवेश आशय प्रस्‍ताव तथा 2016 में 5.62 लाख करोड़ के 2172 निवेश आशय प्रस्‍ताव ऑनलाईन दर्ज हुए थे। इनमें 3754 प्रस्‍ताव अभी भी क्रियाशील स्थिति में है। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा था 18-20 अक्‍टूबर 2019 को इंदौर में प्रस्‍तावित निवेशक सम्मेलन का नाम 'मेग्‍नीफिसेंट मध्‍यप्रदेश' रखा गया है। इसमें करीब 500 वास्‍तविक निवेशक कंपनियों को ही आमंत्रित किया गया है। कार्यक्रम पर अनुमानित खर्च लगभग 16.37 करोड़ रुपए निर्धारित किया गया है। 
  कमलनाथ सरकार नए सिरे से निवेश लाने में जुट गई है और अपने वचन पत्र के मूल मुद्दे की और बढ़ रही है। मुख्यमंत्री खुद उद्योग जगत की समझ रखते हैं, इसलिए उनके लिए निवेश लाना मुश्किल नहीं लग रहा! भरोसे के नजरिए की बात करें, तो उन्होंने पाँच साल मजबूत सरकार का संदेश दिया है। नौकरशाही को भी उन्होंने इशारा कर दिया है कि अब पुराना ढर्रा नहीं चलेगा। प्रदेश में ज्यादा निवेश लाने के लिए कमलनाथ ने मुंबई में 'राउंड टेबल फार इन्वेस्टमेंट इन एमपी' का आयोजन किया था। इसमें मुकेश अंबानी, कुमार मंगलम बिड़ला, टाटा ग्रुप के चंद्रशेखर और शापोरजी पल्लोनजी के साइरस मिस्त्री सहित कई बड़े उद्योगपतियों से चर्चा की। हलचल देखकर लगता है कि कमलनाथ की सोच शिवराज सरकार से अलग है। निवेश के लिए शिवराज सरकार ने भी बहुत जोर लगाया था, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। क्योंकि, सारी कवायद अफसरशाही के हाथ में थी! उन्होंने 'इंवेस्टर्स समिट' के नाम पर खूब चाँदी काटी! लेकिन, अब उन पर भी लगाम लग गई! अब वही उद्योगपति बुलाए जाएंगे, जो निवेश का भरोसा दिलाएंगे!   
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वक़्त के साथ परदे पर बदलता कश्मीर

- हेमंत पाल
    कश्मीर और बॉलीवुड का रिश्ता दशकों पुराना रहा है। कई सुपरहिट फिल्मों को कश्मीर में फिल्माया गया है। प्रेम कहानियों के जरिए कई बार कश्मीर की वादियां और खूबसूरत घाटियों को दिखाया गया! कभी रोमांस दिखाया गया, तो कभी गानों को यहाँ फिल्माया गया! लेकिन, अब कश्मीर में बनने वाली फिल्मों में बर्फीले पहाड़ों पर सेना के जवान बंदूकों के साथ ज्यादा दिखाई देते हैं! सरकार ने जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को खत्म कर दिया! इस फैसले का असर कश्मीर समेत पूरे देश पर पड़ा है और आगे फिल्मों में भी दिखाई देगा। बॉलीवुड ने भी जम्मू-कश्मीर से जुड़े मुद्दे को फिल्मों के जरिए  उठाया और वहाँ की त्रासदी पर कई कहानियां गढ़ी! उन्होंने कश्मीर की नैसर्गिक सुंदरता के साथ आतंकवाद के स्याह पहलुओं को भी सेलुलॉइड पर उतारा! बीते तीन दशकों में जब कश्मीर मसला ज्यादा उलझा तो जो कश्मीर की वादियाँ कभी प्रेम कहानियां फिल्माने के लिए उपयोग की जाती थी, वहाँ भटकते युवाओं और सेना की कार्रवाई को फिल्माया जाने लगा!   
  वक्त के साथ यहाँ की राजनीति जिस तरह बदलती रही, ये बदलाव फ़िल्मी कहानियों में भी नजर आया। कश्मीर के कारण भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव, अलगाववाद, आतंकवाद और सेना की तैनाती के कारण फिल्मों में दिखाई देने वाला खूबसूरत कश्मीर परदे पर भी बदलता गया। बर्फीले पहाड़, हरीभरी वादियां तो आज भी फिल्मों में दिखती हैं, लेकिन उनका प्रसंग बदल गया! प्रेम और रोमांस से बदलकर राजनीति, युद्ध, सेना की कार्रवाई और आतंकवाद जैसे विषयों में बदल गया। 60 के दशक में जब फ़िल्मी कहानियों में रोमांस छाया था, 90 के दशक में वो तनाव, आतंक और साजिशों में समा गया। फिल्मकारों ने भी यहाँ की खूबसूरती को छोड़कर त्रासदी को सामने लाने की ज्यादा कोशिश की। मिशन कश्मीर, रोजा, फना, सिकंदर, हैदर माचिस, एलओसी, जब तक है जान, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों, हक़ से, टेंगो चार्ली और ताहन जैसी फिल्में बनी जिसमें खूबसूरत कश्मीर में छुपे दर्द को दिखाया गया! इन फिल्मों ने कश्मीर में तैनात सेना के दूसरे चेहरे, वहाँ के लोगों की परेशानियों और सामाजिक मुद्दों को दर्शकों के सामने रखा! 
  कश्मीर की समस्या उलझने का असर ये हुआ कि रोमांटिक कहानियों की जगह बंदूकों की आवाजों और साजिशों ने ले ली! कुछ फिल्मों में यह दिखाने की कोशिश हुई, कि कैसे घाटी में एक पूरी पीढ़ी अपनी जिंदगी बदले की आग में झोंक दी! कुछ मौकापरस्त अलगाववादी लोग कैसे राजनीति चमकाने के लिए युवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। कश्मीर मसले पर बनी फिल्मों में ऐसे कई टकराव दिखाकर देश के लोगों को यहां की काली सच्चाई से रूबरू कराने की कोशिश हुई है। इसी के साथ फिल्मकारों का नजरिया भी कश्मीर की सच्चाई के मुताबिक तेजी से बदला! 
   यदि कश्मीर समस्या पर बनी फिल्मों की बात की जाए तो चंद ही फ़िल्में ऐसी हैं, जो सच से रूबरू कराती हैं। 2000 में बनी फिल्म 'मिशन कश्मीर' वहाँ पनपते आतंकवाद को लेकर बनी थी। ये फिल्म अल्ताफ नाम के एक कश्मीरी युवक की कहानी थी, जो गलत रास्ते पर भटक जाता है। जबकि, उससे पहले 1992 में आई 'रोजा' प्रेम कहानी में आए मोड़ और आंतकवाद के नजरिए से आम आदमी की समस्या दिखाने की कोशिश की गई थी। फिल्म 'फ़ना' एक नेत्रहीन लड़की और आतंकवादी की प्रेम कहानी थी। 2002 में आई 'मां तुझे सलाम' का मूल विषय भी कश्मीर मसला था। लेकिन, 'हैदर' इन सबसे आगे रही। ये कश्मीरी लड़के की कहानी थी, जिसके पिता गायब हो जाते हैं! उनपर आरोप लगता है कि वो आतंकवादियों को शरण देते हैं। शाहिद कपूर ने फिल्म में बेहतरीन एक्टिंग की है फिल्म में कश्मीर के बीते हुए समय और वर्तमान को दिखाने की कोशिश की गई है। इसके बाद 'उरी' में सर्जिकल स्ट्राइक का नजारा था! 
  अब, जबकि कश्मीर के राजनीतिक हालात बदले हैं, फिल्म बनाने वालों ने भी अपना रुख बदल लिया! जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 प्रावधान‌ में बदलाव के बाद बॉलीवुड इस संजीदा विषय पर फिल्म बनाने पर उतावला हो रहा है। इंडियन मोशन पिक्सर्स प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन (इम्पा), प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और इंडियन फिल्म एंड टेलीविजन प्रोड्यूसर्स काउंसिल में अनुच्छेद-370 पर संभावित फिल्मों के शीर्षकों को रजिस्टर कराने को लेकर निर्माताओं में होड़ मची गई! यानी समय के साथ कश्मीर की कहानी भी बदलती गई! प्रेम के बाद आतंकवाद और अब वहाँ आया बदलाव बॉलीवुड का विषय बनेगा!
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Monday, August 5, 2019

पहले नहीं देखा होगा, आत्मविश्वास का ये अंदाज!

#Kamalnath

   कमलनाथ की अपनी एक राजनीतिक शैली है, जो अमूमन राजनीतिकों में बहुत कम देखी जाती है! वे कम बोलते हैं, बेवजह बयानबाजी नहीं करते! कभी किसी ने उन्हें खुलकर ठहाके लगाते नहीं देखा! उनके चेहरे के हावभाव ही बहुत कुछ बताते हैं। उन्हें समझकर उनके मिजाज का अंदाजा लगाया जा सकता है! याद किया जाए तो कुछ यही शैली अर्जुन सिंह की भी रही है! जिस तरह लोगों ने कभी अर्जुन सिंह को खुलकर हँसते नहीं देखा, ऐसा ही कुछ कमलनाथ के बारे में भी कहा जाता है। उनकी भाव-भंगिमाएं से ही उनके आत्मविश्वास का अंदाजा होता है। वे जब प्रधानमंत्री से मिलते हैं, तो एक पैर पर दूसरा पैर चढ़ाकर बेतकल्लुफी वाले अंदाज में बैठते हैं! उनका ये अंदाज कहीं से उन मुख्यमंत्रियों की तरह दिखाई नहीं देता, जो याचक की तरह नरेंद्र मोदी के सामने बैठते हैं! ये भी देखा गया कि वे अपने फैसलों पर अडिग दिखाई देते हैं। विपक्ष की बयानबाजी से भी कमलनाथ विचलित नहीं होते! बीते महीनों में न तो वे कभी अपनी सरकार की अस्थिरता से परेशान लगे और न सरकार के निर्दलीय और अन्य पार्टियों के विधायकों को साधने की कोशिश की! अपनी घोषणाओं लागू करने के मामले में भी वे किसी की परवाह करते कम ही दिखाई देते हैं।        
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- हेमंत पाल


    राजनीति में चुनौतियां स्वीकारना और जद्दोजहद करके जीतना कमलनाथ की राजनीति की खूबी रही है। अपने करियर में उन्होंने कई उतार-चढाव देखे, राजनीतिक साजिशों को समझा और उनसे बाहर भी निकले! विधानसभा चुनाव से पहले जब कमलनाथ को पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष पद की कमान सौंपी थी, तब किसी को भरोसा नहीं था कि वे संगठन को इतना मजबूत कर सकेंगे कि राज्य में 15 साल से काबिज भाजपा को पटकनी दे दें! लेकिन, कमलनाथ ने ये कारनामा कर दिखाया! पार्टी को उन्होंने हमेशा जीत का भरोसा दिलाया, जो सच भी साबित हुआ! किनारे पर बहुमत होने के बावजूद उन्हें कभी समर्थन जुटाने की जद्दोजहद करते नहीं देखा गया! वे तो कभी सरकार गिरने के भय से भी भयभीत नहीं लगते! अनुमान के विपरीत उन्होंने न तो बाहरी समर्थकों को पद की लालीपॉप दी और ऐसा कुछ किया जो उनकी कमजोरी दिखाए!   
     मुख्यमंत्री कमलनाथ की मुस्कुराहट तब देखने नहीं, समझने लायक होती है, जब भाजपा नेता उनकी सरकार गिराने की बात करते हैं। वे कभी अपनी पार्टी की राजनीतिक ताकत की बात नहीं करते, बल्कि भाजपा को अपना घर संभालने की सलाह देते हैं। उनका आत्मविश्वास विधानसभा में भी साफ़ नजर आता है। बड़बोले भाजपा नेताओं की बोलती उन्होंने जिस तरह की बंद की, वो उनके आत्मविश्वास के अलावा रणनीति कौशल भी बताता है। कमलनाथ ने बीते महीनों में भाजपा को जमीन दिखाने में कसर नहीं छोड़ी! किसान ऋण माफी को लेकर विपक्ष ने उन्हें कई बार निशाने पर लिया, पर लगा नहीं कि वे कभी विचलित हुए हों! यदि कोई ये कहे कि दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य और पार्टी के दूसरे क्षत्रपों को साधकर भरोसे के साथ 5 साल निकालना आसान नहीं है! लेकिन, लगता है अब यही बात कमलनाथ की ताकत बन गई, जो उनके शुभचिंतकों, आलोचकों और महत्वाकांक्षी नेताओं के लिए छुपी नहीं है! उनकी कटाक्ष वाली मुस्कुराहट में कई राज छुपे होते हैं और उनके इसी अंदाज में उनकी ताकत को समझना होगा! राजनीति का अपना ये स्टाइल वे छुपाना भी नहीं चाहते!
  किनारे पर बैठे बहुमत के बावजूद कमलनाथ में इतनी निश्चिंतता क्यों और कैसे नजर आती है, ये सवाल अहम है! क्योंकि, उन्होंने प्रदेश की सियासत की बारीकियों को अच्छी तरह समझ लिया है। वे बात बात पर चुनौती देने वाले भाजपा नेताओं की ताकत का भी अंदाजा लगा लिया। वे देख भी चुके हैं कि बॉस इशारे पर सरकार गिराने का दावा करने वालों की बातें कितनी खोखली थी, ये स्पष्ट भी हो चुका है। उन्हें अपनी रणनीति पर भरोसा है, कि कोई उनकी सरकार का बाल भी बांका नहीं कर सकता! वे कांग्रेसी निर्दलियों के अलावा सपा और बसपा का भरोसा तो जीत ही चुके हैं, भाजपा के भी घोषित और अघोषित विधायक भी उनके पाले में हैं। उन्हें अपने प्रबंधन पर भरोसा है! कमलनाथ अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी प्रबंधन क्षमता, साख, अनुभव और दूरदर्शिता को विपक्षियों ने परख लिया है। कमलनाथ की मुस्कुराहट भी आसान नहीं है! उसमें छुपी रणनीति सिर्फ उन्हें जानने समझने वालों को पकड़ में आती है। लेकिन, उसमें भी आशा, संभावना या ताकत ही नहीं विश्वास ज्यादा नजर आता है। इस सबको मुख्यमंत्री कमलनाथ का पावर स्ट्रोक समझा जाए या फिर वक्त का तकाजा, यह समय बताएगा! लेकिन, सरकार की मजबूती को लेकर वे हमेशा ही आत्मविश्वास से भरे भरे ही नजर आए! 
    बात सिर्फ कमलनाथ की भंगिमाओं से आत्मविश्वास झलकने की ही नहीं है! अपने वादों को लेकर भी उनका अड़े रहना, उनकी अजब कार्यशैली का नमूना है। वे सिर्फ घोषणा नहीं करते, उसपर अडिग भी रहते हैं। कांग्रेस ने अपने विधानसभा चुनाव के वचन पत्र में प्रदेश के उद्योगों में स्थानीय लोगों को 70% रोजगार देने का वादा किया था। क्योंकि, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लोगों के कारण मध्यप्रदेश में स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं मिल पाती है। इसके बाद काफी विवाद हुआ, लेकिन कमलनाथ सरकार ने अपने कदम पीछे नहीं हटाए! जब उन्होंने घोषणा की, तो विपक्ष ने अपने अंदाज में हमला किया। जमकर होहल्ला हुआ, पर कमलनाथ बेअसर रहे! अपने वादे से तस से मस नहीं हुए और आदेश जारी कर दिया कि कंपनियों को टैक्स में छूट और अन्य लाभ पाना हो तो इस आदेश का पालन करना होगा! लेकिन, इस घोषणा को लेकर भाजपा का तंज समझ से परे रहा। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने कहा कि कमलनाथ सरकार पहले उद्योग धंधे तो लगाए! स्थानीय लोगों को आरक्षण तो वे उसके बाद ही दे पाएंगे! ये भी सवाल किया कि ये बताएं कि वे दावोस गए थे, तो कितना निवेश लाए? जब उद्योग ही नहीं तो रोजगार कैसे देंगे? 15 साल तक सरकार चलाने वाली भाजपा के नेता को ये तंज करने से पहले सोचना था, कि उद्योग नहीं हैं, तो ये जिम्मेदारी शिवराज सरकार की ज्यादा है, न कि कमलनाथ सरकार की! जिस सरकार ने 15 साल तक सरकार चलाई, वो खुद ऐसे सवाल करे तो बात गले नहीं उतरती!
  राजनीतिकों के बारे में अमूमन ये धारणा बनी रहती है, कि वे 'अच्छे लोग' नहीं होते! लेकिन, राजनीतिक जीवन में काम करने की ‘कमलनाथ शैली’ ने उन्हें हमेशा ही 'अच्छा आदमी’ होने का आभास दिलाया। इस वजह से कमलनाथ के चाहने वालों की फेहरिस्त लंबी है। वे लोगों से देशी अंदाज में बात करते हैं। उनकी इस अदा को लोग पसंद भी करते हैं। कई बार उनके शब्द लोगों को गुदगुदाते भी हैं। कलाकारी तो नहीं कर रहे, हवा में बातें मत करना, कमलनाथ की चक्की देर से पीसती है, लेकिन बारीक पीसती है या उनका तो सिर्फ मुंहभर चलता है, विपक्ष में मेरे लायक और नालायक दोनों तरह के दोस्त हैं! ऐसी गुदगुदी करने वाली बातों के बीच उनकी पारखी नजरें सामने वाले की खूबियों और खामियों को परखती रहती है। उन्होंने चार दशक तक केंद्र की राजनीति की, इसलिए उन्हें सीधे जनता और मीडिया से संवाद का मौका कम ही आया है। पहली बार वे राज्य की राजनीति कर रहे हैं, वो भी पूरे आत्मविश्वास के साथ! डगमगाते समर्थन में वे अपने पैर संभलकर जरूर रख रहे हैं, लेकिन ये तय है कि फिसलेंगे नहीं!   
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Sunday, August 4, 2019

परदे पर पागलपन बहुत पुराना चलन!

- हेमंत पाल

   पागलपन एक मानसिक रोग है, जिसमें इंसान अपने मस्तिष्क से नियंत्रण खो देता है और असामान्य व्यवहार करने लगता है। इस रोग ने फिल्मकारों को फिल्में बनाने का एक नया विषय जरूर दिया है। यह बात अलग है कि फिल्मी पागल आम पागलों से कुछ अलग होते हैं। हाल ही में आई फिल्म 'जजमेंटल है क्या' फिल्म को इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए! क्योंकि, इसमें कंगना रनौत और राजकुमार राव ने साइको किरदार निभाए हैं। वैसे हिन्दी फिल्मों में पागलपन का दौर कब आरंभ हुआ, कहना मुश्किल है। लेकिन, शुरुआती दिनों में फिल्मों में पागल या पागलखाने का एकाध सीन जोडकर फिल्म के कथानक को आगे बढाया जाता था। इन फिल्मों में दिखाए जाने वाले पागल किरदार कार्टून ज्यादा और पागल कम दिखाई देते थे। जब किसी किरदार को पागल बनकर पागलखाने भेजा जाता तो उसके इर्दगिर्द पागलों की पूरी फौज जमा होकर अजीबोगरीब हरकतें करती थी। यदि कोई नायिका पागलखाने जाती, तो उसे घेरने के लिए वहां की पागलों की फौज खड़ी हो जाती! लेकिन, यदि नायक पागलखाने जाता है, तो कामेडियन की फौज 'मेरी भेंस को डंडा क्यों मारा ...' जैसे गाने गाकर सवाल करने लगती!  

    फिल्मों में नायक या नायिका के पागल होने के कई कारण होते हैं।  वैसे तो हीरो-हीरोइन के पागल होने का कारण प्यार ही होता है। जिसका सबूत देने के लिए वह चीख चीख कर गाते हैं ' मै तेरे प्यार में पागल...' लेकिन नायक या नायिका को पागल बनाकर उनकी जायदाद हड़पने के लिए चाचा या मामा नहीं तो सौतेला भाई या सौतेली माँ दवाई देकर या डॉक्टर की मदद लेकर यह काम जरूर करते हैं। फिल्मों के करीब सभी छोटे-बड़े एक्टर परदे पर पागल बन चुके हैं। ऐसी फिल्मों में शम्मी कपूर प्रेम में हताश होकर 'पगला कहीं का' कहलाता है और डॉक्टर आशा पारेख का प्यार उसके पागलपन का इलाज करता है। 'इत्तेफाक' में राजेश खन्ना पागल बनकर नंदा के घर में घुसकर एक हत्या का पर्दाफाश करता है।  
  हिंदी सिनेमा में संजीव कुमार ने 'खिलौना' में अदाकारी करके पागल किरदार को एक रूतबा दिया था। उनकी 'खिलौना' में निभाई पागल की जानदार भूमिका को आज भी मील का पत्थर माना जाता है। इसके बाद 'अनहोनी' में वे फिर पागल बने थे! जहाँ संजीव कुमार और राजेश खन्ना पागलों की भूमिका में सजीव लगे, वहीं जीतेंद्र और राजेंद्र कुमार ने कुर्ता फाड़ पागल बनकर हास्यास्पद काम ही किया। किशोर कुमार और महमूद तो फिल्मों में पागल बनकर उछलकूद ही करते रहे! जबकि, राजेंद्रनाथ को हर भूमिका में पागल की तरह मुद्राएं बनाते देखा गया। 
    यदि पागलपन या मानसिक विक्षुप्तता पर बनी फिल्मों को देख जाए, तो 'इत्तेफाक' और 'खिलौना' के बाद या उससे कहीं ऊपर राजेश खन्ना और वहीदा रहमान की फिल्म 'खामोशी' का नंबर आता है। इसमें पागल रोगी का इलाज करने वाली नर्स वहीदा रहमान उसी पागल के प्रेम में सही में पागल हो जाती है। श्रीदेवी और कमल हासन की 'सदमा' को भी ऐसी यादगार फिल्मों में गिना जा सकता है। इस विषय पर बनी देवआनंद की 'फंटूश' और सुनील दत्त की 'यादें' भी उल्लेखनीय फ़िल्में हैं। 'दिल दिया दर्द लिया' के क्लाइमेक्स में प्राण ने पागल की जबरदस्त एक्टिंग की थी। देखा जाए तो 'रंगा खुश' का जोगिंदर, 'शोले' का गब्बर सिंह, 'शान' का शाकाल और 'मिस्टर इंडिया' का मुगेम्बो जैसे किरदार भी किसी पागल से कम नहीं थे। 
  नए दौर की फिल्मों में शाहरुख़ खान ने 'डर' में जुनूनी प्रेमी  संजय दत्त ने 'खलनायक' सलमान खान ने 'तेरे नाम' में राधे मोहन की भूमिका में और एक्शन अभिनेता रितिक रोशन ने 'कोई मिल गया' में एक अर्धविक्षिप्त व्यक्ति का जो रोल किया था, वो कौन भूल सकता है। यही बात 'जजमेंटल है क्या' पर भी लागू होती है। कंगना रनौत और राजकुमार राव ने परदे पर अपनी हरकतों से जो इमेज बनाई, वो परदे के पागल किरदारों पर ज्यादा हावी रही! 'गली गुलियां' में मनोज बाजपेई मानसिक बीमार का रोल निभाने की तैयारी में हैं। मनोज इस फिल्म में एक जीनियस का किरदार निभाएंगे, जिसे लोग भुलाने लगते हैं। इस वजह से इस शख्स का मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है। तो इसका मतलब है कि परदे पर पागलपन का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ!
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