Sunday, July 30, 2017

फिल्म, सेंसर की कैंची और सरकार

- हेमंत पाल 

  इन दिनों फिल्मों से ज्यादा सेंसर बोर्ड कुछ ज्यादा ही चर्चा में रहने लगा है। जब भी कोई फिल्म बनकर सेंसर के सामने जाती है निर्माता, निर्देशक की धड़कनें बढ़ जाती है। क्योंकि, सेंसर किस सीन, संवाद और शब्द पर उंगली उठा दे कहा नहीं जा सकता! आपातकाल में तो सेंसर की सख्ती फिल्मकार देख चुके हैं। लेकिन, ताजा हालात में जिस तरह की सख्ती नजर आ रही है, वो समझ है। इंदू सरकार, जब हैरी मीट सेजल, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का और अमर्त्य सेन पर बनी डाक्यूमेंट्री पर सेंसर का जो रुख रहा, वो दर्शकों को भी रास नहीं आ रहा! पंजाब की ड्रग समस्या पर बनी फिल्म 'उड़ता पंजाब' को लेकर सेंसर ने जो सख्ती दिखाई थी, उसे लेकर भी काफी विवाद हुआ! सवाल उठता है कि क्या आज के समाज में सेंसर का इतना दखल स्वीकार्य है?

   जब से पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बने, सेंसर की कैंची की धार कुछ ज्यादा ही तेज हो गई! ये भी देखा गया है कि हर फिल्म को लेकर बोर्ड नजरिया बदल जाता है। अब तो ये सवाल भी पूछा जाने लगा है कि क्या वाकई फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड की जरूरत बची है? जिस 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' फिल्म को मुंबई फिल्म महोत्सव में लिंग समानता के लिए 'ऑक्सफैम पुरस्कार' और टोक्यो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में 'स्पिरिट ऑफ एशिया' पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका हो, उसे सेंसर पास करने से इसलिए इंकार कर दे, कि यह फिल्म ‘महिला-केन्द्रित' है! जब ऐसा कुछ होता है तो शक की सुई वहीं ठहरती है जहाँ उम्मीद की जाती है।
   पहलाज निहलानी के अध्यक्ष बनने के बाद से इस तरह के विवाद कुछ ज्यादा ही उभरने लगे हैं। क्योंकि, उनके रवैये को मनमानी और तानाशाही से भरा माना जा रहा है। जबकि, निहलानी खुद भी जाने-माने फ़िल्मकार रहे हैं। उन्होंने ज्यादातर फार्मूला फ़िल्में ही बनाई है। उनकी फिल्मों में भी वो सब होता था, जिसे लेकर उन्हें आज आपत्ति है। उनको कभी गंभीर फिल्मकारों की गिनती में नहीं लिया जाता! लम्बे अरसे बाद मुमताज को 'आँधियां' से वे दोबारा परदे पर लाए थे। उस वक़्त मैंने भी उनके नजरिए को काफी करीब से देखा और समझा था। तब वे सिर्फ निर्देशक थे और उनका नजरिया भी दर्शकों के लिए फिल्म बनाने तक सीमित था। तब कहीं से नहीं लगा था कि उनके अंदर कोई ऐसा अड़ियल इंसान छुपा है, जो सिर्फ आदेशात्मक भाषा में बात करता हो! अपने नए रूप में वे सरकार के एजेंडे को लेकर जिस तरह गंभीरता बरतते रहे हैं, फिल्म इंडस्ट्रीज में उनके खिलाफ मोर्चा खुलता जा रहा है।    
  सरकार के प्रति उनकी आसक्ति और भक्तिभाव ने भी उनके सम्मान को घटाया है। एक फिल्म के संवाद से ‘मन की बात' शब्द को निकालने के लिए भी दबाव डाला गया। क्योंकि, ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नियमित रेडियो कार्यक्रम का नाम है? पाकिस्तानी कलाकारों को भारतीय फिल्मों में काम न करने देने के उनके बयान को भी अनुचित माना गया था। ये आरोप भी लगे हैं कि सेंसर बोर्ड का एजेंडा पूरी तरह भगवा हो चुका है। अमर्त्य सेन पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री से गाय, हिंदुत्व, हिंदू और इंडिया जैसे शब्द हटाने के लिए दबाव डाला गया और उन्हें हटवा भी दिया। एक बांग्ला फिल्म के गाने ‘देख केमोन लागे’ में 'राधा' शब्द पर आपत्ति उठाई गई। जबकि, ये गाना एक लोकप्रिय लोकगीत पर आधारित था। इससे पहले अनिक दत्ता की फिल्म 'मेघनाद वध रहस्य' में 'रामराज्य' शब्द को सेंसर ने अनुचित माना था। लाख समझाने पर भी सेंसर बोर्ड नहीं माना और 'रामराज्य' शब्द हटाना ही पड़ा।
  बोर्ड के अध्यक्ष बनने के बाद निहलानी ने फिल्मों में 32 शब्दों के उपयोग पर ही आपत्ति उठाई थी। भारी विरोध के बाद इसमें से 16 शब्द हटाए गए। आज जबकि इंटरनेट की असीमित पहुँच के कारण सूचनाओं, विचारों, दृश्यों के साथ-साथ हर तरह की कला का निर्बाध संचार हो रहा है, सेंसर बोर्ड की उपयोगिता का कोई महत्व नहीं रह जाता। किसी फिल्मकार के रचे दृश्यों, संवादों और गीतों में काट-छांट करना उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने जैसा है। सेंसर बोर्ड का काम फिल्म के मुताबिक दर्शक वर्ग का आयु-समूह निर्धारित करना है, न कि अपने विचारों से फिल्म को दर्शकों के अनुरूप बनाना। लेकिन, अभी सेंसर बोर्ड यही कर रहा है!
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Friday, July 28, 2017

प्याज पॉलिटिक्स में फंसी सरकार से ब्याज भी नहीं निकला

 - हेमंत पाल 

मध्यप्रदेश सरकार लगातार दूसरे साल भी प्याज में चोट खा गई। पिछले साल भी 6 रुपए किलो पर किसानों से प्याज खरीदकर आधा पौना बेचा और बाकी सड़ाकर फेंक दिया। इस साल भी वही कहानी दोहराई गई। इस बार 8 रुपए किलो खरीदा गया और 2 रुपए किलो बेचने की कोशिश की गई। दो-तिहाई प्याज ख़राब हो गया। विधानसभा में सरकार ने अनुपूरक बजट में मान भी लिया कि उसे 580 करोड़ का नुकसान हुआ है। सरकार से प्याज खरीदी का ब्याज तक नहीं निकल सका, वो भी किसी और की जेब में गया! इसके बाद भी सरकार मानने को तैयार नहीं कि उसके इस फैसले में कहीं खोट थी। सभी जानते हैं कि ये फैसला किसानों के हित में कम राजनीतिक ज्यादा था। क्योंकि, किसानों के गुस्से को ठंडा करने के लिए सरकार ने एक बार फिर वही गलती दोहराई, जो पिछले साल वह कर चुकी थी। प्याज पॉलिटिक्स का एक पहलू ये भी है इसमें कई अफसरों ने अपने हिस्से की चाँदी काटने का कोई मौका भी नहीं छोड़ा। लेकिन, ये सवाल अनुत्तरित ही रह गया कि प्रदेश में जितनी भूमि पर प्याज नहीं उपजता, उससे ज्यादा प्याज सरकार ने खरीद कैसे लिया? 
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    मध्यप्रदेश में इन दिनों किसानों को बहलाने, पुचकारने और उन्हें अपने पक्ष में करने का दौर चल रहा है। मंदसौर कांड के बाद जिस तरह का घटनाक्रम हुआ, उससे सरकार को बेक फुट पर आने को मजबूर होना पड़ा था। कुछ हद तक कांग्रेस ने मैदान मारने कोशिश जरूर की थी। लेकिन, सरकार के लिए मुश्किल वाली बात थी कि सारी स्थितियाँ सरकार के विपरीत जा रही थीं। यही सब मैनेज करने के लिए मुख्यमंत्री ने किसानों से 8 रुपए किलो प्याज खरीदने का फैसला किया। लेकिन, इसी फैसले के कारण सरकार को प्याज के आँसू रोने को मजबूर होना पड़ा। पहले तो प्याज की फसल बंपर हुई। फिर किसानों ने उचित कीमत न मिलने को लेकर विरोध किया और सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। सरकार इतनी दबाव में आ गई कि आनन-फानन में किसानों से बाजार भाव से ऊंची कीमत पर प्याज खरीदने का फैसला कर लिया। लेकिन, यही प्याज मुसीबत बन गया और सरकार अपने फैसले को सही बताने पर आमादा है। सरकार के पास प्याज रखने के लिए जगह तक नहीं है! अब ये सरकारी प्याज बारिश में भीगकर सड़ रहा है। इस मुसीबत से निकलने के लिए सरकार ने दूसरे राज्यों को सस्ते में प्याज बेच दिया। 
    अपने फैसले को लेकर कहा गया कि ये किसान हितेषी फैसला है और जरुरत पड़ी तो आगे भी ऐसे फैसले किए जाएंगे। अपने फैसलों को लेकर सरकार का ऐसा जवाब स्पष्तः हठधर्मी ही कहा जाएगा। सरकार कुछ भी करने के लिए हमेशा स्वतंत्र होती है। उसके फैसलों पर कोई उंगली नहीं उठा सकता! लेकिन, जनता के 580 करोड़ रुपए बर्बाद करने लेकर सरकार यदि संतोषजनक जवाब देती तो बेहतर होता! किसानों के साथ वो उस जनता की भी सरकार है जो किसान नहीं हैं! वो उनके प्रति भी उतनी ही जवाबदेह है जितना किसानों प्रति! सिर्फ किसानों को संतुष्ट करने के लिए सरकार ने बाकी लोगों की नाराजी जरूर मोल ले ली!
   प्याज को लेकर सरकार ने लीपापोती वाले जो जवाब दिए हैं, वो लोगों के गले नहीं उतर रहे! प्याज की खरीदी में धांधली और उसके सड़ने के मामले में सरकार चारों तरफ से मुश्किलों में घिरी दिखाई दे रही है। लेकिन, सरकार बजाए पूरे प्रदेश के लोगों को अपने फैसले में साझेदार बनाने के हठधर्मी करती ज्यादा लगती है। किसानों के प्रति सभी की संवेदना है, ऐसे में किसानों के हित में प्याज खरीदी के फैसले को जनता और सरकार का फैसला कहा जाता अच्छा होता! लेकिन, यहाँ भी सरकार का गुरुर ही ज्यादा दिखाई दिया कि उसने जो किया ठीक किया है। इससे एक कदम आगे बढ़कर विधानसभा में ये तक कहा गया कि इस बार हमनें प्याज की खरीदी, वितरण और परिवहन की सुचारु व्यवस्था की! इसलिए सिर्फ 5 फीसदी प्याज ही खराब हुई है। जबकि, प्याज के बड़े व्यापारियों का कहना है कि प्याज को कितना भी बचाओ 30% प्याज तो ख़राब होती ही है। फिर सरकार के सिर्फ 5% ख़राब होने का आधार क्या है, ये स्पष्ट नहीं हुआ! जबकि, प्रदेशभर की मंडियों, गोदामों और सरकारी स्कूलों में प्याज के सड़ने की बदबू फैली हैं। 
  समर्थन मूल्य पर खरीदी गई प्याज प्रदेश की मंडियों में इतनी ज्यादा मात्रा में पहुंच गई कि मंडियों के चारों तरफ प्याज ही प्याज नजर आती रही। बंपर आवक से हालात इतने बेकाबू हो गए कि हर मंडी में प्याज सड़ रही है। प्याज रखने तक के लिए जगह नहीं है। इस सबसे मंडी से जुड़े अधिकारी तो परेशान है ही, मंडी में अनाज लेकर आने वाले किसान भी परेशान रहे। समर्थन मूल्य पर खरीदी गई ये प्याज व्यापारियों को औने-पौने दाम पर बेचे जाने की घटनाएं भी आम रही। मंडी वालों ने खड़े ट्रकों की दो रूपए से ढाई रूपए किलो तक में नीलामी कर दी! ये प्याज दिल्ली, महाराष्ट्र और हैदराबाद तक ले जाई गई! सबसे ज्यादा परेशानी बारिश के कारण भी हुई। बंद गोदाम में प्याज रखने से भी वो ख़राब हो जाती है और उसे जल्दी बाहर निकालना पड़ता है। जो प्याज खुले में रखी थी, वो बारिश से भीग गई और सड़ने की कगार पर आ गई। 
   प्याज की इतनी बम्पर आवक ने भी शंका के बीज बो दिए। क्योंकि, प्रदेश में जितने रकबे में प्याज की पैदावार होती है, मंडियों में पहुंचा प्याज उससे कहीं ज्यादा था! कृषि वैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिक प्रदेश में कृषि योग्य भूमि की अधिकतम क्षमता 50 लाख मीट्रिक टन अनाज उत्पादन की है। तो ये उत्पादन 84 लाख टन कैसे हो गया? ऐसे में 34 लाख टन कहां से आया? प्याज की बंपर फसल पर बहस छिड़ने का कारण भी यही था। क्योंकि, न तो इतनी अधिक बीज की बिक्री हुई और न इतना रकबा दर्शाया गया था। कृषि विभाग का अमला भी इस सबसे बेखबर रहा। कृषि मंत्री किसानों को उद्यानिकी फसल उगाने की बात कहते रहे। लेकिन, जब बम्पर फसल सामने आई तो किसान बिक्री को तरस गए। आशंका ये भी रही कि कहीं आसपास के राज्यों के किसान तो अपनी प्याज प्रदेश में नहीं बेच गए?  
  प्याज की खरीदी के बाद इसकी नीलामी की प्रक्रिया भी प्याज के छिलकों की तरह ही रही। देखा जाए तो ये नीलामी घोटालों की परतों में फंसी हुई है। प्याज से भरी पूरी रेल व्यापारियों को बहुत कम कीमत पर बेचने तक की ख़बरें सामने आई। इसके अलावा और भी कई मामले हैं जो प्याज की नीलामी को कटघरे में खड़ा करते हैं। इसे सरकार कैसे छुपाएगी? इस सबसे लगता है कि सरकार ने अभी तक सार्वजनिक आपूर्ति प्रणाली के अतीत से कोई सबक नहीं सीखा! नीलामी में उच्चतम बोली वाले व्यापारियों को ही प्याज देना थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इस पूरी प्रक्रिया की देखभाल करने वाले नौकरशाहों ने चंद व्यापारियों से सांठगांठ करके प्याज उनको देने में रूचि दिखाई! अधिकारियों ने इसी काम की कीमत ली कि वे नीलामी को इस ढंग से मैनेज करेंगे कि बोली यह 2.10 या 2.20 रुपए प्रति किलो से ऊपर न जा सके! कई बड़े व्यापारी जो प्याज से भरी रेलगाड़ी के लिए बोली लगाने को तैयार थे, उन्हें यह कहा गया कि पूरी ट्रेन के लिए बोली लगाने की अनुमति ही नहीं है। इस पूरे मामले में विपक्ष की मजबूरी है कि वो सरकार का विरोध भी नहीं कर सकती! क्योंकि, तब किसान उससे नाराज जाएंगे, फिर उन्हें मनाने का फार्मूला भी विपक्ष के पास नहीं है।   
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Wednesday, July 26, 2017

वाह! ... व्हाट एन आईडिया सरजी!

- हेमंत पाल  

   उन्होंने कभी कमिश्नरी नहीं झाड़ी! ...बल्कि एक विचारक की मानिंद वे नई योजनाओं को आकार देने और जमीन पर लाने के लिए दौड़भाग करते नजर आए है। वे जानते है कि सरकारी तंत्र में रहते हुई भी तंत्र की बाधाओं का सामना कैसे करना है। उनसे पार कैसे पाना है। वे इंदौर संभाग के कमिश्नर हैं, पर एक सामाजिक कार्यकर्ता की तरह नई योजनाओं को ऐसे आकार दिया, जिसने हर किसी के दिल को छू लिया। संभाग में कमिश्नर की भूमिका समीक्षक की होती है। उसे अपने अधिकार क्षेत्र के जिलों में चल रही योजनाओं और कानून व्यवस्थाओं पर नजर रखना पड़ती है। 
  इंदौर कमिश्नर संजय दुबे ने पिछले करीब तीन सालों में इस मिथक को तोड़ दिया। जनहित को लेकर उन्होंने कई ऐसे अनूठे काम किए, जो भविष्य में मील के पत्थर बनेंगे। अंगदान, विद्यादान और अब भोजनदान जैसी योजनाएं संजय दुबे की ही देन है। अब वे नई योजना सामने ला रहे हैं, जो पैक्ड फूड प्रोडक्ट की मियाद खत्म होने से पहले उसका उपयोग किए जाने से जुडी है। सही मायने में कमिश्नर संजय दुबे की इस योजना को देखते हुए कहना ही पड़ा वाह क्या शानदार आईडिया है सरजी। 
  'सुबह सवेरे' से बात करते हुए उन्होंने बताया कि हर व्यक्ति समाज को कुछ न कुछ लौटाना चाहता है। लेकिन, उसे सही रास्ता नहीं मिलता। प्रशासन ने अब उसके सामने कई विकल्प रख दिए हैं। जिस कार्य में भी व्यक्ति अपना सेवाभाव दशार्ना चाहता है, दिखा सकता है। अपनी नई योजना के बारे में संजय दुबे ने बताया कि अंगदान, विद्यादान और भोजनदान के बाद अब वे ऐसे पैक्ड फूड को सस्ती कीमत पर उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराने की तैयारी कर रहे हैं, जिसकी मियाद कुछ दिनों बाद खत्म होने वाली है। बड़ी-बड़ी दुकानों और शॉपिंग मॉल में कुछ पैक्ड फूड प्रोडक्ट ऐसे होते हैं, जिनकी मियाद कम होती है। यदि सामग्री बिकती नहीं तो मियाद खत्म होने के बाद निमार्ता कंपनी उन्हें बदलकर देती है। ऐसे में दुकानदार को तो नुकसान नहीं होता! लेकिन, निर्माता कंपनी पर दोहरी मार पड़ती है। उसे ये सामग्री नष्ट करना पड़ती है। संजय दुबे इसे राष्ट्रीय क्षति मानते हैं और भोजन की इस बर्बादी को बचाना चाहते हैं। उनका विचार है कि ऐसे पैक्ड फूड को मियाद खत्म होने से कुछ समय पहले ही कम कीमत पर बेचकर स्टॉक खत्म कर दिया जाए। इससे निमार्ता कंपनियों को भी नुकसान नहीं होगा और भोजन की बबार्दी भी बचेगी! अभी इस योजना का प्रारूप बन रहा है। 
कई योजनाओं के सूत्रधार 
  कमिश्नर संजय दुबे ने इंदौर में कई उल्लेखनीय काम किए हैं। उनकी योजनाओं को शहर में साकार रूप इसलिए भी मिला कि इस शहर के लोग सेवाभावी है। जब लोगों को लगा कि बाहर से आया कोई अफसर उनके शहर के लिए कुछ कर रहा है तो वे भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़े हो गए। 'अंगदान' के मामले में कमिश्नर संजय दुबे की भूमिका और सजगता को देशभर में सराहा गया। ब्रेन-डेथ व्यक्ति के परिवार को शरीर के कुछ अंगों का प्रत्यारोपण करने के लिए राजी करना आसान नहीं होता! पर, उनका ये प्रयास सफल हुआ अभी तक 20 से ज्यादा बार अंग प्रत्यारोपण की योजनाएं सफल हो चुकी है। 'विद्यादान' भी ऐसी ही योजना है, जो शिक्षादान से जुडी है। इसमें उच्च शिक्षित युवाओं को प्रेरित किया जाता है कि वे सरकारी स्कूलों में बच्चों को अपनी सुविधा से कुछ देर पढ़ाएं। इसी श्रृंखला में एक योजना है 'भोजन दान।' इसमें इसमें विभिन्न आयोजनों में बचे हुए भोजन को जरूरतमंदों में बांटा जाता है। अब इस दिशा में एक नई पहल ये हुई कि शहर की कई बड़ी होटलों ने इसमें सहयोग शुरू कर दिया। इसके अलावा अब दान में मिले भोजन को संरक्षित करने के लिए व्यवस्थाएं भी मुहैया हो गई हैं। भोजन संरक्षण के लिए कोल्ड स्टोर भोजन इकट्ठा करने के लिए आहार वेन भी उपलब्ध हो गई है। 
भोजन की बर्बादी रोकी 
  कमिश्नर संजय दुबे बताते हैं अकसर देखा गया है कि विवाह समारोहों और ऐसे आयोजनों में भोज का आयोजन होता है। कई बार बचा भोजन फेंक दिया जाता है या मवेशियों को खिला दिया जाता है। जबकि, शहर में हजारों लोग भूखे सोने पर मजबूर हैं। यही स्थिति होटलों के सामने में आती थी। फेंके गए भोजन के सड़ने से हानिकारक गैसें भी बनती हैं, जिससे पर्यावरण बिगड़ता है। ऐसे में इस भोजन को जरूरतमंदों तक पहुंचाने के लिए माकूल व्यवस्था की गई। इसके लिए 'आहार-एप' बनाया गया था। अब इस 'एप' को उज्जैन और देवास से जोड़ा जा रहा है। इसके लिए 'राबिनहुड आर्मी' नाम से एक टोली बनी है, जो सूचना मिलने पर तत्काल कार्रवाई करती हैं और भोजन लाकर जरूरतमंदों तक पहुंचाती हैं। अभी तक दान में मिले भोजन का निराकरण तत्काल करना पड़ता था, ताकि खराब होने से पहले उसका उपयोग हो जाए। लेकिन, अब भोजन के संरक्षण के इंतजाम कर लिए गए हैं। कमिश्नर ने बताया कि इंदौर प्रदेश का पहला जिला जहां खाने को संरक्षित रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था की गई है।
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अब कोई बस कभी निसरपुर नहीं जाएगी!

- हेमंत पाल 


   कुछ साल पहले हरसूद की डूब जिस तरह राजनीतिक मुद्दा बना था, अब निसरपुर भी उसी राह पर है। सरदार सरोवर बाँध के कारण धार और बड़वानी जिले के कुछ गांव पूरी तरह डूब जाएंगे। धार जिले का निसरपुर गाँव भी पूरी तरह डूबने वाला है। जैसे-जैसे बाँध में पानी बढ़ेगा, निसरपुर समेत कई गाँव का नामो-निशान ख़त्म हो जाएगा। इन गांव की बरसों पुरानी पहचान, संस्कृति और रिश्तों की डोर टूट जाएगी। अब कहीं से कोई बस कभी निसरपुर नहीं जाएगी। क्योंकि, यहाँ कोई जाने वाला ही नहीं होगा! लेकिन, इस बाँध के कारण डूब रहा ये गांव फिलहाल राजनीति का अखाडा जरूर बन गया। 
  सुप्रीन कोर्ट के आदेश के तहत प्रशासन को निसरपुर गांव 31 जुलाई तक खाली करवाना है। तात्पर्य यह कि गांव खाली करने की विनती नहीं करना, जबरदस्ती करना पड़े तो वो भी करना है। संभाग के मुखिया कमिश्नर ने संजय दुबे ने भी चेतावनी दे दी कि डूब प्रभावित लोगों को सरकार की तरफ से सभी मूलभूत सुविधाएं मुहैया करवाई जा रही है। आवास के साथ क्षतिपूर्ति का भी इंतजाम किया जा। प्रभावितों के लिए अस्थाई आवास और भोजन की भी व्यवस्था की गई है। यानी जीने के लिए जो चाहिए, वो दे तो रहे हैं ...  अब तो जाना ही होगा!
  सीधे शब्दों में सरकार ने चेतावनी दे दी कि 31 जुलाई तक मर्जी से नहीं हटे तो हटा दिए जाओगे! वास्तव में निसरपुर तो डूब का एक प्रतीक भर है। डूबने वाले गांवों की संख्या करीब 18 है। गांव में टवलई खुर्द, चिखलदा, गणपुर, गसवा, मलनगांव, परमाल, सोंडुल, धरमराय, सेमल्दा, वीरलाय, बिजासन, मोरटका, अंजड़, चैनपुरा, मेहगांव, नरवाये, गवला, शामिल हैं। इन गांवों में रहने वालों को अब सरकारी जबरदस्ती के कारण अस्थाई रूप से भवरिया, चंदनखेड़ी, मिर्जापुर, एकलवारा, बोरखेड़ी के राहत शिविरों में पनाह लेना पड़ेगी। सरदार सरोवर बांध को भरता हुए विकराल जल का प्लावन जब इन गाँवों की संस्कृति, सभ्यता, पहचान और रिश्तों की डोर को डुबो रहा होगा तब यहाँ के लोग सरकार से 80 हज़ार रुपए लेकर गाँव छोड़ चुके होंगे या सरकारी पनाहगारों में बसने को मजबूर होंगे। 
  सरकार का कहना है कि दो-तिहाई से ज्यादा लोग डूब प्रभावित इलाका खाली करने को तैयार हैं। करीब एक-तिहाई लोग नई जगह जाने के लिए राजी हो गए! लेकिन, क्या ये सौ फीसदी सही है कि लोग अपनी मर्जी से जाने को राजी हुए हैं? क्या उन्हें सरकारी डंडे से गाँव छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा रहा? उन्हें सुविधाओं का लालच देकर डराया नहीं जा रहा है? क्या वास्तव में एक भी रहवासी है जो अपनी मर्जी से जाने को तैयार है? इन सारे सवालों के जवाब सरकार भी जानती है, प्रशासन भी और समझने वाले लोग भी! 
 ऐसे में निसरपुर इलाके के लोगों का दर्द राजनीति का अखाडा जरूर बन गया। सरकार भाजपा की है, इसलिए भाजपा के नेता सबकुछ समझते हुए भी चुप हैं। दरअसल, ये चुप्पी उनकी मज़बूरी भी है। जबकि, विपक्षी धर्म का निर्वहन कर रही कांग्रेस विस्थापितों के हक़ में मोर्चा खोलकर बैठी है। सरकार में अदालत का हवाला देकर प्रशासन को मोर्चे पर लगा दिया कि वो 31 जुलाई तक इलाका खाली करवाए! उधर, कांग्रेस ने आवाज बुलंद की है हम इलाका जबरन खाली नहीं होने देंगे! राजनीति करना है तो ये कांग्रेस की भी मज़बूरी है। लेकिन, इस सबसे उन 18-20 गांवों में बसने वालों का दर्द कम नहीं होगा। उनका कैलेंडर तो इस साल 31 जुलाई को ही खत्म हो रहा है। 
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कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं, भाजपा में असंतोष!

- हेमंत पाल 

    मध्यप्रदेश की राजनीति धीरे-धीरे गरमाने लगी है। भाजपा ने अपनी हाल की कार्यसमिति की बैठक में 'अबकी बार दो सौ पार' का नारा देकर अपनी भावी योजना का खुलासा कर दिया। भाजपा ने 'मिशन 2018' के तहत विधानसभा चुनाव में 200 से ज्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य तय करके अपने आत्मविश्वास का भी खुलासा कर दिया। ये भी तय किया गया कि अगला चुनाव शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। पार्टी ने ये भी बता दिया भाजपा अगला चुनाव किसानों को केंद्रित करते हुए लड़ेगी। इस बार भाजपा का फोकस किसान और जीएसटी होगा! क्योंकि, यही दो तात्कालिक मुद्दे हैं, जो सरकार को परेशानी में डाल सकते हैं। पार्टी को अंदेशा है कि कांग्रेस भी किसानों को सरकार के खिलाफ भड़काकर भाजपा का नुकसान करने का कोई मौका नहीं छोड़ेगी। पार्टी की कोशिश है कि वो किसानों का भरोसा जीतने की कोशिश करते हुए उन्हें अपने पाले में रखने की भरसक कोशिश करेगी।
   उधर, कांग्रेस राजनीति की तस्वीर भी कुछ हद तक स्पष्ट होती दिखाई दे रही है। दिल्ली से चलने वाली हवाओं को पढ़ा जाए तो कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को जोड़ी की तरह मैदान में उतारकर करेगी। लेकिन, दिग्विजय सिंह को भी रणनीतिक के तौर पर इस्तेमाल किए जाने के आसार हैं। वरिष्ठता के चलते कमलनाथ की भूमिका प्रदेश के मुखिया की हो सकती है और मुख्यमंत्री उम्मीदवार का चेहरा होंगे ज्योतिरादित्य सिंधिया! पार्टी के बड़े नेताओं की मानें तो मध्यप्रदेश में कमलनाथ और सिंधिया दोनों ही जिताऊ चेहरे हैं। पार्टी इनका पूरा इस्तेमाल करेगी। कांग्रेस का पूरा फोकस किसी भी हाल में चुनाव जीतने को लेकर है।
  चुनाव को लेकर भाजपा जितनी गंभीरता बरत रही है, उसके मुकाबले कांग्रेस की तैयारियां कमजोर जरूर नजर आ रही है। कांग्रेस ने चुनाव जीतने को लेकर कोई बड़ी तैयारी की होगी, ऐसा कहीं नजर नहीं आ रहा। क्योंकि, रणनीति तब बनेगी, जब चुनाव की कमान संभालने वाला तय हो जाए। अभी तो सारी कवायद इस बात पर है कि नेतृत्व कौन करेगा? तीन महारथियों के बीच जो उलझन है उसके चलते कोई भी समीकरण सही नहीं बैठ रहा! पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को फिलहाल तो संतुलन बनाए रखने के लिए ही सबसे ज्यादा जद्दोजहद करना पड़ रही है।
  इस बीच चुनाव की रणनीति बनाने के लिए चुनावी रणनीति के जानकार प्रशांत किशोर का नाम उछला है। ये भी सामने आया है कि प्रदेश में प्रशांत किशोर ने अपनी टीम जरिए सभी 230 सीटों के पर प्राथमिक सर्वे करके अपनी एक रिपोर्ट पार्टी को सौंप भी दी! इसमें नेताओं की लोकप्रियता के क्षेत्रवार और बूथवार आंकड़े हैं। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को कमान सौंपने के पीछे भी प्रशांत किशोर का नाम लिया जा रहा है। रणनीतिकारों के मुताबिक प्रशांत किशोर ने अपने प्राथमिक सर्वे के नतीजे को गोपनीय रखते हुए पार्टी को स्पष्ट कर दिया था कि प्रदेश में सत्ता पाने के लिए सभी नेताओं गुटबाजी छोड़ना होगी! प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी जैसे नेताओं को गुट छोड़कर कांग्रेस के लिए गंभीर होना पड़ेगा, तभी कुछ हो सकता है। लेकिन, जब तक पार्टी के नेता खुद सामने आकर प्रतिद्वंदी पार्टी से मुकाबले में नहीं उतरेंगे, प्रशांत किशोर भी कुछ नहीं कर सकते! वैसे भी पार्टी का ये प्रयोग उत्तरप्रदेश में बुरी तरह फेल हो चुका है, फिर इस पर दांव लगाना समझ से परे है।    
   भाजपा के लिए एंटी-इनकम्बेंसी भी एक खतरा है। क्योंकि, स्थिति को जितना सकारात्मक समझा जा रहा है, उतनी है नहीं! यही कारण है कि लगातार तीन चुनाव जीतने के बाद इस बार भाजपा में घबराहट कुछ ज्यादा है। किसानों की नाराजी, जीएसटी से उभरे हालात, बढ़ती महंगाई समेत कई ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं जो सरकार के खिलाफ जा सकते हैं। कांग्रेस सरकार के विरोध की इसी नाराजी को अपनी ताकत बनाकर मैदान संभालने के मूड में है। तय है कि इस बार प्रदेश में चुनावी मुकाबला काफी हद तक असमंजस से भरा होगा! आने वाले सवा सालों में क्या नई स्थिति बनती है, कह नहीं सकते! लेकिन, यदि भाजपा ने जीते हुए विधायकों के थोकबंद टिकट काटे तो उसे सबसे ज्यादा घर से उभरी नाराजी का ही सामना करना पड़ सकता है। इस नजरिये से देखा जाए तो कांग्रेस के पास खोने को ज्यादा कुछ नहीं है। जो भी नुकसान होगा भाजपा को ही ज्यादा होगा!
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Sunday, July 23, 2017

साहित्य और सिनेमा का ये कैसा रिश्ता!

- हेमंत पाल 

  सिनेमा और साहित्य का कुछ अलग सा रिश्ता है। दोनों साथ होते हुए भी साथ नहीं हैं। क्योंकि, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, पर कोई भी इस सच को मानता नहीं! यही कारण है कि साहित्यिक कृतियों पर फ़िल्में बनाने के कई प्रयोग हुए हैं, पर ज्यादातर सफल नहीं हुए! जितना किसी साहित्यिक कृति को पसंद किया गया, उस पर बनी फ़िल्में उतनी सफल नहीं रहीं। कुछ ही फ़िल्में याद रखने लायक बन सकीं हैं। मशहूर कथाकार काशीनाथ सिंह की मशहूर कृति 'काशी का अस्सी' पर चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' बनाई, पर इस फिल्म का क्या हश्र हुआ सब जानते हैं। संवादों को लेकर फिल्म विवादों में फंसी, ठीक से रिलीज भी नहीं हो सकी और अब तो इस फिल्म का जिक्र भी नहीं होता! प्रेमचन्द के उपन्यास 'गोदान' पर इसी नाम से बनी फिल्म, फणीश्वरनाथ रेणू की कहानी पर बनी 'तीसरी कसम', महाश्वेतादेवी की कहानी पर बनी 'रुदाली', विमल मित्र के उपन्यास पर बनी ‘साहब,बीवी और गुलाम’, टैगोर की कहानी ‘नष्टनीड़’ पर सत्यजीत राय की फिल्म ‘चारुलता’ जरूर ऐसी फ़िल्में थी, जो याद रखने योग्य है।
  वास्तव में इन दोनों विधाओं की अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। साहित्य किसी दृश्य या घटना की जो व्याख्या या विश्लेषण करता है, हर पाठक के पास वही पहुँचता है। पाठकों के स्तर में अंतर के आधार पर उसका प्रभाव भी अलग-अलग होता है। जबकि, सिनेमा दृश्य माध्यम होता हैं। उसके पास व्याख्या और विश्लेषण की सुविधा बहुत कम होती है। साहित्य में जो व्याख्या उसके प्रभाव को बढ़ा देती है, उसी व्याख्या की कोशिश सिनेमा के असर को चौपट कर देती है। जो विवरण साहित्य की ताकत होता है, वही सिनेमा की कमज़ोरी बनकर सामने आता है। यही कारण है कि अधिकांश मशहूर साहित्यिक कृतियों फ़िल्मी प्रयोग असफल हुए हैं।
  आशय यह नहीं कि सिनेमा कि सम्प्रेषणीयता कम है। किन्तु, सिनेमा की भी अपनी कुछ ख़ास ताकत हैं, जो साहित्य के पास नहीं होती। फिल्मों में संगीत और दृश्य की ताकत सिनेमा को ऐसी क्षमता देती है जो उसे दूसरे और माध्यमों से अलग खड़ा करती है। ध्वनि और प्रकाश सिनेमा के कथानक की कई कमजोरियों ढांप देता है। जबकि, साहित्य के पास सिर्फ शब्दों की क्षमता होती है। लेखक को अपनी शब्द-क्षमता से ही कथानक को व्यक्त करना पड़ता है। यही कारण है कि कई बार अच्छे लेखक भी अपनी बात कहने में लड़खड़ा जाते हैं। सिनेमा के पास मौन की भाषा के इस्तेमाल की भी सुविधा होती है। लेकिन, मौन को व्यक्त करने के लिए साहित्य को बहुत से शब्द खर्चना पड़ते हैं। साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि पाठक पढ़ते हुए अपनी कल्पनाशक्ति से दृश्यचित्र बनाता है। जबकि, सिनेमा में दर्शक को डायरेक्टर की कल्पनाशक्ति देखता  पड़ती है। ऐसे में सिनेमा के दर्शक की अपनी कल्पनाशक्ति लुप्त हो जाती है। जरूरी नहीं कि डायरेक्टर की कल्पनाशक्ति और दर्शक की सोच की दिशा एक ही हो! इसलिए अधिकाँश साहित्य पर बनी फिल्म सफल नहीं हो पाती।
  साहित्य के पास सिनेमा के लिए अथाह भंडार है। उसके पास मनोभाव, दशा-दिशा, पात्रों, दृश्यों, वास्तुकला, परिवेश और भावनात्मक स्थितियों के दृश्यात्मक ब्यौरा होता हैं। शब्दों और संगीत के प्रभावों तक के विवरण साहित्य के पास मौज़ूद हैं। साहित्य ने तो सिनेमा को सहारा देने के लिए कई बार कथानक के रूप में खुद को बदला भी है। जब भी ज़रूरत हुई साहित्य ने खुले मन से सिनेमा का सहयोग किया। अब तो चेतन भगत जैसे लेखक पैदा हो गए जो सिनेमा के ही लेखक बन गए। चेतन अंग्रेजी के ऐसे लेखक हैं, जो अपना लेखन सिनेमा को जहन में रखकर करते हैं। उनकी कृतियों पर बनी फिल्मों को मिली सफलता ने उन्हें जहाँ खड़ा किया है, ये कहना मुश्किल है कि वे लेखक हैं या फ़िल्मी पटकथा के रचनाकार! अभी तक उनके 5 कृतियों पर फ़िल्में बन चुकी है। लेकिन, सभी सफल नहीं रही। दरअसल, साहित्य और सिनेमा का रिश्ता दो ऐसे पड़ोसियों जैसा रहा है, जो मोके-बेमौके ही मेलजोल रखते हैं। दोनो एक-दूसरे के काम भी आते हैं, लेकिन दोनों के बीच प्रेम है या नहीं, ये सुनिश्चित नहीं!
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Thursday, July 20, 2017

कांग्रेस की कछुवा चाल के सामने भाजपा का लांग जम्प


- हेमंत पाल 

        मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव को अभी सवा साल से ज्यादा वक़्त बचा है। कांग्रेस की तो नींद नहीं टूटी, पर भाजपा ने कमर कसकर तैयारी कर ली! कांग्रेस ने तो अभी तक तय नहीं किया कि उसके चुनावी रथ का सारथी कौन होगा, पर भाजपा ने अपनी चुनावी सेना के लिए जवानों का चुनना शुरू कर दिया। पुराने जवानों में कौन बचेगा और कौन हटेगा, इसकी रणनीति बन गई! पार्टी की गंभीरता इसी बात से नजर आती है कि उसने सभी 165 विधायकों को निशाने पर लिया है। उधर, आरएसएस और सरकार ने भी अपने विधायकों के कामकाज, जनता में छवि और अगला चुनाव जीतने की संभावनाओं की रिपोर्ट बनवा ली। इसके अलावा इंटेलीजेंस भी विधायकों की अपने स्तर पर छानबीन कर रहा है। ऐसे में सबसे बड़ा खतरा ये है कि जिसे हटाया जाएगा वो पार्टी का कितना नुकसान करेगा! इसे कांग्रेस की चुनावी कछुवा चाल के सामने भाजपा का लांग जम्प ही माना जाएगा। उधर, मुकाबले में उतरने वाली कांग्रेस अभी उहापोह में ही है कि क्या किया जाए? पिछले चुनाव में उसके खाते में कुल जमा 58 विधायक आए थे, उसमें भी 2 कम हो गए। विधानसभा में ये संख्या कैसे बढ़ेगी, ये रणनीति बनाने वाले ही अभी तय नहीं हो पाए हैं।     

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   वर्तमान विधानसभा की 230 सीटों में से भाजपा के 165 विधायक हैं। जबकि, कांग्रेस के 56, बसपा के 4 सदस्य हैं और 3 निर्दलीय हैं। विधानसभा में अभी 2 सीटें खाली हैं। भारतीय जनता पार्टी के जानकारों के मुताबिक गोपनीय रिपोर्ट में 66 सीटों पर पार्टी को नुकसान होने का खतरा है। क्योंकि, यहाँ जनाधार घटने के संकेत हैं। 66 में से 8 सीटें ऐसी हैं जहाँ से चुने गए विधायक मंत्री पद पर हैं। लेकिन, पार्टी की नजर में ऐसी 100 सीटें हैं, जहाँ उम्मीदवारों को बदले जाने का फैसला किया जा सकता है। ये विचार इसलिए बनता दिखाई दे रहा है कि जनता एक ही नेता से ऊब भी जाती है। इसलिए बेहतर हो कि उसमें समय रहते बदलाव किया जाए! दिल्ली महानगर निगम के चुनाव में भाजपा ने अपने सभी उम्मीदवार बदलकर जो प्रयोग किया था, वो बहुत सफल रहा था। अब पार्टी यही प्रयोग विधानसभा चुनाव में करने जा रही है। ज्यादा से ज्यादा नए चेहरों पर दांव लगाने का विचार बन रहा है।   
   इस बार प्रदेश की सत्ता पर काबिज भाजपा विधानसभा चुनाव को लेकर ज्यादा ही गंभीर है। पार्टी नहीं चाहती कि उसकी जरा सी गलती चौथी बार सरकार बनाने की राह में अड़चन बने! यही कारण है कि विधानसभा में बहुमत पाने के लिए सारे फॉर्मूले आजमाए जा रहे हैं। सबसे बड़ी फांस है, ऐसे विधायकों से मुक्ति पाना जिनके जीतने के आसार कम हैं। क्योंकि, ऐसे विधायकों को टिकट न देने से उनके विद्रोह का भी खतरा है। भाजपा विधायकों ने अपने कार्यकाल के दौरान जनता से कैसे रिश्ते बनाए, ये सच ही उनका अगला चुनाव लड़ने का आधार बनेगा! विधायकों का कामकाज, जनता से उनकी नजदीकी, क्षेत्र के सामाजिक संगठनों की उनके बारे में राय और पार्टी कार्यकताओं के विचार भी विधायकों के पक्ष में माहौल बनाएंगे! सीधी सी बात ये कि अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर वही चुनाव लड़ेगा, जिसके जीतने की संभावना सौ फीसदी होगी! सरकार और पार्टी दोनों ही इस बार कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं है। क्योंकि, इस बार उसके सामने एंटी-इनकम्बेंसी का खतरा भी मंडरा रहा है। पार्टी ने अभी करीब 60 से ज्यादा सीटें ऐसी खोजी है जहाँ भाजपा की हालत बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती।  
   पिछले 6 महीनों में भाजपा ने अपने विधायकों को लेकर जो खोजबीन करवाई है, उसके नतीजे संतोषजनक नहीं आए! इसलिए पार्टी चिंता में है। ऐसी कई सीटें हैं, जहाँ कि जनता अपने विधायकों के समर्थन में दिखाई नहीं दे रही। चुनाव जीतने के बाद तो कुछ विधायकों ने अपनी जनप्रतिनिधि वाली इमेज ही खो दी! जनता के बीच उनकी छवि ऐसे नेता कि बन गई, जिनके पास मिलने का समय नहीं है। भाजपा के गोपनीय सर्वे ने ऐसे कई विधायकों के सामने खतरा खड़ा कर दिया है। वर्तमान कार्यकाल के साढ़े तीन साल निश्चिंतता से गुजारने के बाद ये विधायक समझ नहीं पा रहे हैं कि बचे वक़्त में कैसे खुद को टिकट पाने के लायक साबित करें? 
   भाजपा के कुछ नेताओं की बातों पर भरोसा किया जाए, तो पार्टी अगले साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में उन्हीं नेताओं पर दांव लगाएगी, जो उसके चुनाव चिन्ह पर जीत सकेगा! इस बार पार्टी ने विधायकों के क्षेत्र में उनकी छवि जांचने के अलावा विधानसभा में भी उनके प्रदर्शन को परखा है। सदन में उनकी उपस्थिति, क्षेत्र को लेकर उठाए जाने वाले सवाल और इस सबसे जनता में बनने वाली उनकी छवि को भी आँका गया। जिन क्षेत्रों में उपचुनाव हुए हैं, वहां इन विधायकों की भूमिका कैसी रही, इस पर भी ध्यान दिया गया है। ये वो मानक हैं, जो अगले चुनाव में किसी विधायक को फिर से टिकट दिलाने या उससे छीने जाने का आधार बनेंगे।   
  पार्टी और सरकार द्वारा करवाए गए इन सर्वे से जो निष्कर्ष निकला है उसने पार्टी को चिंतित तो कर दिया, पर वक़्त रहते संभलने का मौका भी दिया है। क्योंकि, अभी विधानसभा चुनाव में इतना समय है कि हालात को संभाला जा सकता है। अब पार्टी हर सीट पर तीन संभावित उम्मीदवारों का पैनल बनाकर सही उम्मीदवार चुनेगी! ऐसे में कहा नहीं जा सकता कि कौन बचेगा और कौन कटेगा! अबकि बार पार्टी उम्मीदवार की उम्र को भी टिकट का आधार बनाने के मूड में है। यदि 70 साल की उम्र होने पर दो मंत्रियों की छुट्टी हो सकती है, तो इसी उम्र का कोई नेता विधानसभा का चुनाव कैसे लड़ सकता है! 
  उधर, कांग्रेस ने अभी तक पार्टी स्तर पर चुनाव के लिए कोई रणनीति बनाई होगी, ऐसे आसार कहीं नजर नहीं आ रहे! क्योंकि, रणनीति तो तब बनेगी, जब प्रदेश की कमान संभालने वाला तय होगा! अभी सारी कवायद इसी बात पर टिकी है कि कमान कौन संभाले? इसलिए कि पार्टी तीन महारथियों के बीच ऐसी उलझी हुई है कि कोई भी समीकरण सटीक नहीं बैठ रहा! ऐसे में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को संतुलन बनाए रखने की जद्दोजहद करना पड़ रही है। इस बीच चुनाव की रणनीति बनाने के लिए प्रशांत किशोर का नाम भी उछला है। ये भी सामने आया है कि प्रदेश में प्रशांत किशोर ने अपनी टीम जरिए सभी 230 सीटों के पर प्राथमिक सर्वे करके अपनी एक रिपोर्ट पार्टी को सौंप भी दी! इसमें नेताओं की लोकप्रियता के क्षेत्रवार और बूथवार आंकड़े हैं। 
  पार्टी के रणनीतिकारों के मुताबिक प्रशांत किशोर ने अपने प्राथमिक सर्वे के नतीजे को गोपनीय रखते हुए पार्टी को स्पष्ट कर दिया था कि प्रदेश में सत्ता पाने के लिए सभी नेताओं गुटबाजी छोड़ना होगी! प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी जैसे नेताओं को गुट छोड़कर कांग्रेस के लिए गंभीर होना पड़ेगा, तभी कुछ हो सकता है। लेकिन, जब तक पार्टी के नेता खुद सामने आकर प्रतिद्वंदी पार्टी से मुकाबले में नहीं उतरेंगे, प्रशांत किशोर भी कुछ नहीं कर सकता! वैसे भी पार्टी का ये प्रयोग उत्तरप्रदेश में बुरी तरह फेल हो चुका है।     
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Sunday, July 16, 2017

घरों में ये कैसा संस्कारहीन मनोरंजन?

- हेमंत पाल

  जब टीवी ने परिवारों के बीच एक कोने में अपने लिए जगह बनाई थी, तब समझा गया था कि इससे पारिवारिक संस्कारों की नई नींव पड़ेगी और दरकती परंपराओं को बचाया जा सकेगा! रिश्तों के प्रति विश्वास और श्रद्धा बढ़ेगी और एक नया समाज आकार लेगा! लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ! टीवी सीरियलों ने परिवारों के आपसी विश्वास को चकनाचूर करते हुए ऐसा आभासी संसार रच डाला जहाँ साजिश, अविश्वास और अपमान के अलावा और कुछ नहीं है। जबकि, तर्क ये दिया जाता रहा कि इन सीरियलों में सामाजिक संरचना में आ रहे बदलाव का प्रतिबिंब दिखाया जाता है। 

  आज तो हर कहानी में विवाह के पहले या विवाहेतर रिश्तों को सहज बताकर उसे स्थापित करने तक की कोशिश की जाती है। साजिश और हिंसा का वही अंदाज हर सीरियल में नजर आने लगा जो फिल्मों की पुरानी विषयवस्तु रहा है। अधिकांश सीरियल बड़े परिवारों और बिजनेस टाइकून लोगों के बीच चलने वाली प्रतिद्वंदिता पर केंद्रित होते है। जिसका आम दर्शकों से कोई सरोकार नहीं होता। करीब पचास-साठ साल पहले जब हिंदी फ़िल्में बेरंग हुआ करती थीं, तब इसमें पात्रों में स्पष्टतः दो चेहरे होते थे। एक प्रेम, त्याग और सहनशीलता की पराकाष्ठा था तो दूसरा साजिश, कपट और क्रूरता का प्रतिक! आज के कई सीरियलों में यही सब साफ देखा जाता है। 
 पारिवारिक रिश्तों की मधुरता और बुजुर्गों का सम्मान तो जैसे सीरियलों से गायब ही होता जा रहा है। इन सीरियलों में संयुक्त परिवारों का आदर्श रूप न दिखाकर उनके नकारात्मक पक्ष को ज्यादा उबारा जा रहा! टीवी पर जब सीरियलों का दौर शुरू हुआ था, तब परिवार के बुजुर्ग सदस्यों का सकारात्मक चेहरा सामने रखा गया था। ‘हम लोग’ की भागवंती जैसी मां और ‘बुनियाद’ के हवेली राम व लाजो जी जैसे बुजुर्ग अब किसी सीरियल में नजर नहीं आते! अब तो 'दिल से दिल तक' के दादाजी ज्यादा दिखाई देते हैं, जो दो प्रेमियों को मिलाने जुगत लगाते ज्यादा नजर आते हैं। सच्चाई ये है कि आज टीवी सीरियलों में समाज और परिवार की अलग तरह से व्याख्या होने लगी है।
  बुजुर्गों के सम्मान को भी इन सीरियलों ने ही सबसे ज्यादा मटियामेट किया। ‘हवन’ नाम के एक शो में बड़ी बहू अपने ससुर से इतना चिढ़ती है कि उसके सम्मान को कुचलने के लिए हमेशा साजिशों के जाल बुनती रहती है। उसकी करतूतों को समझने के बाद भी परिवार वाले असहाय बने रहते हैं? इसके पीछे कथानक कुछ भी हो, लेकिन ये सीरियल एक रिश्ते को तो कलंकित करता ही है। लम्बे समय तक चले सीरियल ‘दिया बाती और हम’ में भी सास को बहू के पढ़े लिखे होने और बेटे के अनपढ़ होने का दर्द सालता रहता है। बार-बार संस्कार और परंपराओं की दुहाई देने वाली सास बहू को प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ती! 
  एक सीरियल ‘प्रतिज्ञा’ भी बना, जिसमें मुखिया एक लड़की को ब्याह लाता है तो उसकी पत्नी अपनी बहू को मारने के लिए साजिशें रचती रहती है। कुछ सालों में इश्कबाज, हिटलर दीदी, मधुबाला, कबूल है, सरस्वती चंद्र, अमृत मंथन और कुमकुम भाग्य जैसे सीरियलों ने रिश्तों की ऐसी विकृत परिभाषा गढ़ दी, जिसमें चाचा, बुआ या मामा जैसे रिश्ते ही नहीं मां, भाई व बहन तक भरोसे के लायक नहीं रह गए। टीवी को रचनात्मक अभिव्यक्ति की आजादी देने का मतलब ये कतई नहीं है कि परिवार की दादी सिर्फ अपना आधिपत्य बनाने के लिए परिवार के हर सदस्य को अपनी साजिश का मोहरा बना ले। जबकि, समाज में दादी को प्रेम और वात्सल्य का सबसे सही रूप माना जाता है। कल्पना कीजिए कि ये आभासी दुनिया एक दिन कैसा वास्तविक संसार रचेगी?
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Friday, July 14, 2017

बाबा, दीदी, भाभी और भिया पर कितनी दयालु होगी पार्टी

- हेमंत पाल 

  वे बाबा है पर अध्यात्म से कोई रिश्ता नहीं! वे दीदी हैं पर जगत दीदी! भाभी ने स्वच्छता की मिसाल कायम की है तो 'भिया' चमकाने दमकाने में आगे रहे। ये इंदौर शहर के विधायक जिनमें भोजन भंडारे से लेकर सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रम आयोजित करने की होड़ सी लगी रहती है। विधानसभा क्षेत्र क्रमांक 5 की सुप्ताअवस्था को छोड़ दिया जाए तो बाकी विधानसभा सीटों को लेकर वर्तमान विधायक जीजान से अपनी छवि चमकाने में लगे है। उधर, मध्यप्रदेश में चौथी बार सरकार बनाने की तैयारी करने वाली भाजपा ने नए सिरे से अपने विधायकों के फिर जीतने की संभावनाओं को तलाशना शुरू कर दिया है। संघ और पार्टी के साथ सरकार ने भी भाजपा के विधायकों की स्थिति का पता लगाना शुरू कर दिया। ऐसे में पूरे प्रदेश में किस भाजपा विधायक को अगली बार भी टिकट मिलेगा और किसका कटेगा! इस बारे में दावे से कुछ भी नहीं कहा जा सकता! 

   इंदौर के पाँचों विधायकों को उनके अभी तक के कामकाज के आधार पर कसौटी पर कसा जाए तो दावा नहीं किया जा सकता कि सभी को टिकट मिल पाएगा! पार्टी के भीतर खबरें हैं कि दो विधायकों के टिकट बदले जा सकते हैं! ये दो कौन हो सकते हैं, अभी इसे लेकर पार्टी चुप है। लेकिन, बीते करीब साढ़े तीन सालों में करीब सभी विधायकों ने जनता की उम्मीदों के मुताबिक खुद को सही जनप्रतिनिधि साबित नहीं किया। विवादों से बचकर रहने की कोशिश तक नहीं की गई! मुद्दे की बात ये है कि एक ही पार्टी के होते हुए भी इन पाँचो विधायकों के बीच आपस में कोई सामंजस्य नहीं है। यहाँ तक कि पार्टी के पार्षद और कार्यकर्ता भी विधायकों की इस खेमेबाजी में बंटकर रह गए हैं।      
   मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और भाजपा संगठन ने अपने विधायकों के कामकाज और पब्लिक इमेज की रिपोर्ट बनवाना शुरू कर दी है। सरकारी स्तर पर इंटेलीजेंस को भाजपा विधायकों की रिपोर्ट बनाने का काम सौंपा गया है। उधर, पार्टी भी एक प्राइवेट एजेंसी के जरिए विधायकों की अगले चुनाव में जीत की संभावनाओं की तहकीकात करवा रही है। जनता के बीच विधायकों की छवि, सामाजिक संगठनों की राय और पार्टी कार्यकतार्ओं के विचार भी इस रिपोर्ट का हिस्सा का अहम् हिस्सा होंगे। इस नजरिए से देखा जाए तो इंदौर शहर के पांचों भाजपा विधायकों में शायद ही कोई पार्टी और सरकार की कसौटी पर खरा उतरेगा! आपसी मनमुटाव, गुटबाजी की राजनीति, अफसरों पर अपने और अपनेवालों के काम करवाने का दबाव और विवादस्पद बयानबाजी इन पाँचों विधायकों की पहचान बन गई है। ये सभी विधायक तभी साथ भी दिखाई देते हैं, जब मुख्यमंत्री या पार्टी का कोई बड़ा नेता मौजूद होता है। शहर के विकास के मसले पर भी ये सभी विधायक कम ही एकमत दिखाई देते हैं। कोई भी इंदौर के लिए नहीं, बल्कि अपने क्षेत्र के बारे में ही ज्यादा सोचता नजर आता है।     सबसे पहले बात शुरू की जाए क्षेत्र क्रमांक-1 के विधायक सुदर्शन गुप्ता की! इनके लिए क्षेत्र के लोगों की दिखावटी चिंता ज्यादा मायने रखती है। अपने कामकाज को लेकर सुदर्शन गुप्ता कई बार विवादों में फँस चुके हैं। एक बार तो उन्होंने दादागिरी करते हुए विद्युत कंपनी के एक इंजीनियर को फोन पर बुरी तरह से धमकाया भी था। गुप्ता ने न केवल इंजीनियर को पीटने की धमकी दी, बल्कि ये भी कहा था कि उनके समर्थक उसे नंगा करके शहर में घुमा देंगे। विधायक का यह आॅडियो जब सामने आ गया तो उन्हें सफाई देने के लिए बाध्य होना पड़ा था। मामला ये था कि विद्युत कंपनी ने बकाया बिलों की वसूली का अभियान चलाया था। इस वसूली अभियान में सुदर्शन गुप्ता के कार्यकर्ता भी चपेट में आ गए। इस पर विधायक का पारा चढ़ गया था। ऐसा ही उनका एक वीडियो और सामने आया था, जिसमें वे एक महिला पार्षद के पति को धमका रहे थे। विधायक ने कहा था कि यदि आपने मेरे पोस्टर नहीं हटवाए तो मैं तो मर्द हूँ, मैं आपकी मिसेज के कार्टून गली-गली में लगवा दूंगा। इससे आपको तकलीफ हो जाएगी। हुआ ये था कि पार्षद अनिता तिवारी के पति सर्वेश ने अपने वार्ड में दो जगह पोस्टर लगाकर विधायक सुदर्शन गुप्ता को साउथ गाडराखेड़ी में लाने वाले व्यक्ति को इनाम देने की घोषणा की थी।
  इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-2 के विधायक रमेश मेंदोला हैं, जिनकी लोकप्रियता को चुनौती नहीं दी जा सकती। पिछला चुनाव वे 90 हजार से ज्यादा वोटों से जीते थे। पार्टी के कद्दावर नेता कैलाश विजयवर्गीय के सबसे नजदीक माने जाने वाले मेंदोला के पास कार्यकतार्ओं की बड़ी फौज है, जो उनके इशारे पर 'कुछ भी' कर गुजरने में पीछे नहीं हटती! लेकिन, उनकी शहर के किसी विधायक या भाजपा से नहीं बनती। खासकर क्षेत्र क्रमांक-4 की विधायक और शहर की महापौर मालिनी गौड़ से तो बिल्कुल नहीं! यूं तो इस दो नंबर खेमे से महापौर मालिनी गौड़ की तनातनी लम्बे समय से चली आ रही है। लेकिन, नगर निगम के एक अपर आयुक्त को उनके एक पार्षद समर्थक द्वारा तमाचा मार दिए जाने के बाद ये तनातनी और बढ़ गई! उसके बाद तो आरोपों-प्रत्यारोपों का लम्बा दौर चला। आज भी उनके इशारे पर समर्थक पार्षद नगर निगम की बैठकों में शामिल नहीं होते! रमेश मेंदोला ने महापौर मालिनी गौड़ को एक चिट्ठी लिखकर सड़क की बदहाल सड़कों की तरफ उनका ध्यान क्या आकर्षित किया, मामला और बिगड़ गया! जब महापौर का जवाब आया तो अफसरों को कठघरे में खड़ा करने वाले दो नंबर क्षेत्र ने सोशल मीडिया पर 'जय हो भाभी मां' आरती जारी कर दी। इन सारे विवादों बावजूद उन्हें बहुचर्चित सुगनीदेवी जमीन आवंटन मामले में हाईकोर्ट की डबलबैंच ने फैसला देते हुए उन्हें दोषमुक्त करार दिया है। इस फैसले से उनका कद जरूर बढ़ गया है।  
  शहर के क्षेत्र क्रमांक-3 की विधायक उषा ठाकुर की राजनीति का अपना अलग अंदाज है। उनकी छवि जन प्रतिनिधि की कम हिंदूवादी नेता की ज्यादा है। कभी वे किसी समर्थक का जब्त हाथ ठेला छुड़वाने थाने पहुँच जाती हैं तो दुर्गोत्सव पर गरबा पंडालों से मुस्लिम युवकों का प्रवेश वर्जित करने का फरमान जारी कर देती हैं। उनकी इस सार्वजनिक अपील के बाद काफी विवाद भी खड़ा हुआ था। इस बारे में उषा ठाकुर का कहना था कि जो लोग हिन्दू धर्म को नहीं मानते, उनका गरबा उत्सवों में केवल नाचने-गाने के लिए आना ठीक नहीं है। इसलिए मैंने अनुरोध किया है कि गरबा पंडालों में केवल हिंदू युवकों को उनके मतदाता पहचान पत्र के आधार पर प्रवेश दिया जाए। इस भाजपा विधायक ने बताया कि गरबा आयोजकों से यह भी सुनिश्चित करने को कहा था कि युवतियां गरबा पंडालों में 'शालीन' पोशाकें पहनकर आएं और गोदना (टैटू) तथा छोटे कपड़ों से परहेज करें। उषा ठाकुर को नए साल के मौके पर यौन शोषण के आरोपों से घिरे कथित संत आसाराम बापू के चित्र की आरती उतारने को लेकर भी आलोचना झेलनी पड़ी थी।
  शहर की महापौर और क्षेत्र क्रमांक-4 की विधायक मालिनी गौड़ के राजनीतिक खाते में सबसे बड़ी उपलब्धि सफाई के मामले में इंदौर को देश में नंबर-वन बनाना है। लेकिन, भाई भतीजावाद के आरोप उन पर भी कम नहीं हैं। दो नंबर क्षेत्र के भाजपा नेताओं से उनके विवाद चलते रहे हैं। उन्होंने इस क्षेत्र के हर कार्यक्रमों से दूरी बना रखी है, लेकिन दो नंबर विधानसभा में आने वाले नगर निगम के जोनल आॅफिस का निरीक्षण करने की इच्छा उनकी जरूर रहती है। उनका कहना है कि दो नंबर क्षेत्र के नाराज एमआईसी सदस्य और पार्षद इस दौरान आएं या नहीं, पर वे लोगों की समस्या सुनने जरूर जाती रहेंगी। रेडिसन चौराहे पर अपर आयुक्त रोहन सक्सेना के साथ हुए थप्पड़ कांड के बाद से महापौर और विधायक रमेश मेंदोला के बीच जो दरार पड़ी थी, वो अभी भी भरी नहीं है। इसलिए कि इस विवाद में महापौर ने निगम अफसरों का साथ दिया था। इस घटना के बाद से एमआईसी सदस्य चंदू शिंदे और राजेंद्र राठौर सहित दो नंबर इलाके का कोई भी पार्षद निगम में कदम नहीं रख रहा है।
  इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-5 के विधायक महेंद्र हार्डिया को शहर का सबसे शालीन और अंतमुर्खी नेता माना जाता है। सामान्यत: वे सार्वजनिक बयानबाजी और विवादों से बचकर रहते हैं, फिर भी कुछ मामलों में उनपर भी पक्षपात और दबाव बनाने के आरोप लग चुके हैं। मालवा मिल से जंजीरवाला चौराहे वाली सड़क के किनारे से अतिक्रमण हटाने को लेकर वे निगम अधिकारियों से कई बार भीड़ चुके हैं। मूसाखेड़ी में नगर निगम द्वारा बस्तियों को हटाकर बनाई जाने वाली मल्टी को लेकर उठे विवाद से भी वे बच नहीं सके थे। क्षेत्र के लोग उन पर अपने इलाके के पार्षदों पर काबू न कर पाने को लेकर भी नाराज हैं। कई पार्षद मनमानी कार्रवाई कर रहे हैं, पर हार्डिया उनपर सख्ती नहीं कर पा रहे! इस कारण इस इलाके में निगमकर्मी भी बहुत ज्यादा हावी है। एक बार तो विधायक महेंद्र हार्डिया को महापौर मालिनी गौड़ को पत्र लिखकर ये कहने पर मजबूर होना पड़ा कि दरोगा और स्वास्थ्य विभाग के सीएसआई लोगों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं, जो बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
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फिर गुदगुदाएगा छोटा परदा

- हेमंत पाल

  मनोरंजन की दुनिया का बाजार बहुत अनोखा होता है। इस बाजार में वही ज्यादा बिकता है, जिसे दर्शक पसंद करते हैं। मनोरंजन बेचने वालों को दर्शकों की पसंद का पता भर चल जाए वे उसकी नई-नई रेसिपी बनाकर परोसने में देर नहीं करते! ये ट्रेंड फिल्मों में हमेशा चलता रहा है और अब टीवी में भी वही सब होने लगा! जब एकता कपूर ने सास-बहू के झगड़ों पर सीरियल बनाना शुरू किया और उसे पसंद किया जाने लगा तो ऐसे सीरियलों की भरमार हो गई! इसके बाद संगीत और डांस के रियलिटी शो पसंद किए गए तो हर चैनल ने ऐसे शो शुरू करने में देर नहीं की! 

  इसके बाद छोटे परदे पर स्टैंडअप कॉमेडी का शो 'लॉफ्टर चेलैंज' क्या आया, हर चैनल पर हंसी के ठहाके गूंजने लगे! इसके बाद ऐसे शो का एक बड़ा अंतराल आ गया। बरसों बाद कपिल शर्मा अपने नाम से स्टैंडअप कॉमेडी शो लाए! लेकिन, लम्बे अरसे तक किसी और चैनल पर कॉमेडी शो इसलिए नहीं आया कि कपिल से मुकाबले वाला कोई स्टैंडअप कॉमेडियन नहीं था। कृष्णा-अभिषेक और भारती को लेकर कुछ कोशिशें जरूर हुई, पर ये कामयाब नहीं हो सकीं!
  कुछ दिनों पहले कपिल शर्मा की उनके साथी कलाकारों से अनबन क्या हुई, संभावनाओं के नए दरवाजे खुल गए! सुनील ग्रोवर और अली असगर समेत कुछ स्टैंडअप कॉमेडियन ने दूसरे चैनलों पर नए शो की तैयारियां शुरू कर दी! इसके अलावा भी कुछ कॉमेडी-शो के प्रोमो दिखाए जाने लगे! आशय यह कि छोटा परदा फिर दर्शकों को गुदगुदाने वाला है। कभी कपिल से मुकाबला करने उतरे कृष्णा-अभिषेक फिर एक नए कॉमेडी शो दिखाई देंगे। इसमें उनके साथ अली असगर, सुगंधा मिश्रा, सुदेस लहरी और डॉ संकेत भौंसले के नाम सामने आए हैं। इस शो के प्रोमो में मिथुन चक्रवर्ती भी दिखाई दिए, पर ये तय नहीं है कि उनकी भूमिका क्या होगी!
 ये दावा नहीं किया जा सकता कि कपिल शर्मा की लोकप्रियता को प्रभावित कर सकेगा! क्योंकि, कपिल के खिलाफ पहले भी कई बार मोर्चेबंदी हुई, पर सफल नहीं हो सकी! सुनील ग्रोवर पहले भी एक बार कपिल से अलग होकर अकेले शो होस्ट करके मात खा चुके हैं। हाल ही में सलमान खान की फिल्म 'ट्यूबलाइट' के लिए भी सुनील ग्रोवर ने अलग से एक शो ‘सुपरनाइट विद ट्यूबलाइट’ बनाया था, पर उसमें भी उन्होंने बुरी तरह मात खाई! 'बीएआरसी रिपोर्ट' में कपिल के शो को 10वां स्थान मिला, तो 'ट्यूबलाइट’ के शो को 16वां। फिलहाल कॉमेडी को लेकर टीवी पर इतना हंगामा कि प्रोड्यूसर बॉलीवुड के सबसे व्यस्त और महंगे कलाकार अक्षय कुमार को भी कॉमेडी शो में ले आए। 'खतरों के खिलाड़ी' के बाद वे एक बार फिर टीवी पर वापसी कर रहे हैं।
  सिर्फ कॉमेडी शो ही नहीं, कुछ कॉमेडी सीरियल भी नया अवतार लेकर छोटे परदे पर उतरने वाले हैं। लोकप्रिय कॉमेडी शो 'हम पांच' एक बार फिर आने वाला है। इस बार इसका नाम होगा 'हम पांच फिर से।' 1995 से 99 तक ये शो 'हम पांच' नाम से टेलिकास्ट हुआ था। इसमें अशोक सराफ, प्रिया तेंडुलकर, राखी टंडन, भैरवी रैचुरा, वंदना पाठक और विद्या बालन जैसे कलाकार थे। इस शो में एक परिवार की कहानी को कॉमेडी के रूप में दिखाया गया था! इसका दूसरा सीजन 2005 में आया था। अब इसका तीसरा सीजन आने वाला है। एक और कॉमेडी सीरियल 'साराभाई वर्सेज साराभाई' के नए सीजन के टेलीकास्ट की भी तैयारी है। वैसे ऑनलाइन पर इसकी वेब सीरीज शुरू हो गई है। कॉमेडी की वेब सीरीज का भी बहुत बड़ा बाजार है, जो धीरे-धीरे अपना आकार लेता जा रहा है।
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Friday, July 7, 2017

सेनापति बदलकर अगली जंग में दांव लगाएंगी कांग्रेस और भाजपा!

- हेमंत पाल 

मध्यप्रदेश की सत्ता पर काबिज भाजपा और विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने 'मिशन 2018' की तैयारियां तेज कर दी है। भाजपा जीत का चौका लगाने के लिए कमर कस रही है, वहीं डेढ़ दशक से सत्ता का वनवास झेल रही कांग्रेस ने भी सत्ता हांसिल करने के लिए जुगत लगाना शुरू कर दिया है। दोनों ही पार्टियों में प्रदेश अध्यक्ष और प्रदेश प्रभारियों को बदले जाने की अटकलें भी जोर पकड़ने लगीं। ये बदलाव किसी भी दिन हो सकता है। कांग्रेस को तो प्रदेश अध्यक्ष के लिए कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया में से किसी एक का नाम तय करना है। लेकिन, भाजपा में अभी असमंजस बरकरार है। भाजपा में अध्यक्ष नंदकुमारसिंह चौहान के अलावा प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे को बदले जाने की भी सुगबुगाहट है। कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी मोहन प्रकाश को लेकर भी पार्टी के भीतर माहौल गरमाया हुआ है। उन पर कुछ नेताओं को प्रश्रय देने के आरोप लम्बे समय से लग रहे हैं। 
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  मध्यप्रदेश की राजनीति में इन दिनों दो ख़बरें गरम हैं। एक, मध्यप्रदेश कांग्रेस की नई जिम्मेदारी कमलनाथ को सौंपी जाएगी ज्योतिरादित्य सिंधिया को? दूसरी खबर है भाजपा का अगला प्रदेश अध्यक्ष कौन होगा? क्योंकि, नंदकुमारसिंह चौहान को हटाया जाना करीब-करीब तय है! लेकिन, दोनों ही पार्टियों में ये फैसले अभी अटके हुए हैं। कांग्रेस हाईकमान मध्यप्रदेश को लेकर अभी तक कोई फैसला नहीं कर पाई हो, लेकिन अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर प्रदेश की कमान किसके हाथ में दी जाना है, वो दो नाम उसके सामने हैं। तीसरे किसी के नाम पर कोई विचार भी होगा, ऐसे आसार बिल्कुल भी नहीं हैं। कुछ दिनों पहले चर्चा चली थी कि कमलनाथ को प्रदेश का दारोमदार सौंपा जाना अंतिम रूप से तय हो गया है। लेकिन, यदि ऐसा होता तो ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका का निर्धारण भी होना जरुरी है। क्योंकि, युवाओं में सिंधिया की लोकप्रियता को नजरअंदाज करके यदि ये फैसला किया जाता है तो नतीजे उलटे पड़ सकते हैं। हाल ही में किसान आंदोलन में भी सिंधिया की सक्रिय भूमिका से प्रदेश कांग्रेस के समीकरण बदले हैं, ऐसे में यदि हाईकमान जनभावनाओं के विपरीत फैसला लेती है तो जिंदा होती कांग्रेस एक बार फिर कोमा में जा सकती है।     
   एक समय स्थिति ये आ गई थी कि कमलनाथ के नाम पर हाईकमान फैसला चुका था! लेकिन, अचानक मामला थम गया! सारी गतिविधियां रुक गईं! क्योंकि, प्रदेश में युवा वोटर्स में ज्योतिरादित्य सिंधिया की पकड़ को देखते हुए, हाईकमान को लगा कि कहीं कमलनाथ के नाम से नए वोटर्स बिदक न जाएँ! दरअसल, पार्टी कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह के बीच समन्वय बनाने का ऐसा फार्मूला तलाश रही है कि कोई भी नाराज न हो और पार्टी में एकता भी दिखाई दे! साथ ही बदलाव का संदेश भी अच्छा जाए। इस बीच सिंधिया और दिग्विजयसिंह पर भाजपा ने जिस तरह के हमले किए, वो भी एक कारण था कि कमलनाथ का नाम आगे आ गया था। क्योंकि, पार्टी मान रही थी कि यदि विधानसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह के अनुभवों का उपयोग करना है, तो कमलनाथ को आगे लाना होगा! उनके साथ दिग्विजय सिंह की पटरी बैठ सकती है। लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया को हाशिए पर रखकर कोई फैसला होगा, इस बात की उम्मीद नहीं हैं।   
  प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष के साथ ही कांग्रेस में प्रदेश प्रभारी मोहन प्रकाश को बदले जाने के भी पूरे आसार है। क्योंकि, आरोप है कि वे संकट समय में प्रदेश कांग्रेस को उबारने में कोई योगदान नहीं दे पाए। उनके करीब चार साल के कार्यकाल के दौरान जितने भी उपचुनाव या नगरीय निकाय चुनाव हुए, उनमें पार्टी कोई खास प्रदर्शन नहीं कर सकी। एक लोकसभा उपचनाव (झाबुआ-रतलाम) और एक विधानसभा उपचुनाव (अटेर) की जीत क्रमशः कांतिलाल भूरिया और ज्योतिरादित्य सिंधिया की मानी जाती है। इसके अलावा सभी उपचुनाव कांग्रेस हारी है। प्रदेश में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की किसी भी कोशिश में मोहन प्रकाश की भूमिका गौण ही रही! उन पर अपने नजदीकी लोगों को उपकृत करने और पार्टी में गुटबाजी बढ़ाने के आरोप भी कई बार लगे! 
 उधर, भाजपा में भी बदलाव की बयार चलने की खबर है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार चौहान के बारे में तो जगजाहिर है कि वे शिवराजसिंह चौहान की छाया की तरह काम करते हैं। उनकी प्रतिबद्धता भी संगठन के प्रति कम मुख्यमंत्री के प्रति ज्यादा दिखाई देती है। अपनी अनर्गल बयानबाजी को लेकर भी नंदकुमार हमेशा ख़बरों में बने रहते हैं। हर पार्टी में संगठन को ज्यादा तवज्जो दी जाती है, क्योंकि संगठन से ही सत्ता की प्राप्ति होती है। पर, मध्यप्रदेश में भाजपा अध्यक्ष जिस तरह सत्ता के सामने फर्शी सलाम करते नजर आते हैं, पार्टी की छवि पर ऊँगली उठने लगी है। भाजपा के दिल्ली दरबार का रुख भी अगले चुनाव से पहले संगठन में बदलाव के पक्ष में लग रहा है। किसान आंदोलन से पार्टी खिलाफ जो नकारात्मकता सामने आई है, उसे संतुलित करने में भी भाजपा का प्रदेश संगठन सफल नहीं रहा! 
  सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष ही नहीं भाजपा के प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे को बदले जाने की भी सुगबुगाहट है। क्योंकि, जैसी उनके कामकाज में पहले जैसी गंभीरता का अभाव देखा जा रहा है। भाजपा में चल रही हलचल से अंदाजा लगाएं तो पार्टी के केंद्रीय संगठन ने जल्द ही सहस्त्रबुद्धे का विकल्प खोजना शुरू कर दिया है। भाजपा का दिल्ली दरबार मध्यप्रदेश के प्रभारी के लिए ऐसा नेता खोज रहा है, जो यहाँ की राजनीतिक बारीकियों को जानता हो और संतुलन बैठाकर 'मिशन-2018' के लिए काम कर सके। सहस्त्रबुद्धे को पार्टी ने लगातार दूसरी बार प्रदेश का प्रभार सौंपा था। पहली बार के कार्यकाल में तो वे काफी सहज रहे। पार्टी पदाधिकारियों और कार्यकर्ता की उन तक आसान पहुंच थी। किन्तु, दूसरे कार्यकाल में वे कुछ लोगों तक केंद्रित हो गए। राज्यसभा में लिए जाने के बाद मध्यप्रदेश में उनकी रूचि भी कम ही दिखाई देती है।  
  भाजपा के सामने सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के अलावा प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान, प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे और प्रदेश संगठन मंत्री सुहास भगत तीनों ही पदों पर बैठे नेता आत्ममुग्धता के शिकार हैं। प्रदेश अध्यक्ष तो जब भी कुछ बोलते हैं नए विवाद को जन्म देते हैं! जबकि, प्रदेश संगठन मंत्री की तो कहीं भूमिका ही नजर नहीं आती! अरविंद मेनन के कार्यकाल में पार्टी की सक्रियता और ऊर्जा का अंदाज कुछ अलग ही था, पर सुहास भगत न तो कार्यकर्ताओं के लिए उपलब्ध दिखाई देते हैं न कहीं उनके होने का संकेत ही लगता है। ऐसे में प्रदेश प्रभारी का प्रदेश से मोहभंग होना भाजपा के लिए अच्छा नहीं है। 
  भाजपा ने भले ही ज्यादातर उपचुनाव में जीत हांसिल की हो, पर उसे मिले वोटों का प्रतिशत तेजी से घटा है। करीब सभी उपचुनाव में भाजपा को मिले वोट इसका प्रमाण हैं। किसान आंदोलन से भी भाजपा को जो नुकसान हुआ, उसकी भी पूर्ति होती दिखाई नहीं दी! सरकार ने फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ा दिया और प्याज की 8 रूपए किलो खरीद कर ली! फिर भी किसानों की नाराजी दूर करने में सरकार को सफलता मिल गई, इस बात का दावा नहीं किया जा सकता! तीन महीने पहले मध्यप्रदेश में भाजपा की लोकप्रियता का जो ग्राफ था, उसमें तेजी से गिरावट आई, इस बात को कोई नकार नहीं सकता! जबकि, किसान आंदोलन ने कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया और वो फिर खड़ी होकर मुकाबले में आ गई!  
 प्रदेश के इन सारे हालातों को देखते हुए लगता है कि दोनों ही पार्टियों में मंथन का दौर तेजी से चल रहा है। कोई भी ये मौका चूकना नहीं चाहता! 'मिशन-2018' के लिए दोनों ही पार्टियों ने अपने प्रदेश अध्यक्ष और प्रदेश प्रभारी दोनों को बदलने की तैयारी कर ली है। ये बदलाव कब होगा, इस बात का दावा नहीं किया जा सकता! लेकिन, ये होना अवश्यम्भावी है। क्योंकि, दोनों ही पार्टियां जिसे भी कमान सौंपेगी, उन्हें चुनावी तैयारी और रणनीति बनाने के लिए पर्याप्त समय देना भी जरुरी होगा। भाजपा प्रदेश की सत्ता में है, इसलिए उसके सामने संगठन को संवारना बड़ा संकट नहीं है! लेकिन, कांग्रेस को फेरबदल में गुटीय संतुलन बनाने के साथ चुनाव जीतने वाले चेहरों को भी खोज करना है। आने वाले कुछ दिन प्रदेश में दोनों ही पार्टियों के लिए तलवार की धार पर चलने जैसे हैं! कारण कि हर बदलाव यदि किसी को खुश करता है तो नाराज होने वाले भी कम नहीं होते! ऐसे में संतुलन बनाकर अपने फैसलों को सही साबित करना दोनों पार्टियों के हाईकमानों के लिए चुनौती होगा!
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परदे पर गाली बको, फिल्म चलेगी!

- हेमंत पाल 

  फ़िल्में हमेशा से आम लोगों का मनोरंजन रहा है। यही समाज का दर्पण।  शायद इसी वजह से फिल्मों की भाषा और कभी-कभी तो उनके शीर्षकों में भी अपशब्दों और गालियों का इस्तेमाल होता है। आक्रोश की अभिव्यक्ति के रूप में अपशब्द या गालियों का इस्तेमाल आज समाज में बहुत सामान्य बात हैं। यही कारण है कि फिल्मों में भी गालियों का इस्तेमाल नई बात नहीं! ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में आजादी के संघर्ष से जुडी फ़िल्में ज्यादा बनती थी। तब भी कई बार फिल्मों में अपशब्द सुनाई देते थे। फिल्म के किसी किरदार की पहचान यदि नकारात्मक दर्शाना हो तो गालियां और अपशब्द उस कैरेक्टर ज्यादा जल्दी स्थापित कर देते हैं। 
   ताजा प्रसंग सुशांतसिंह राजपूत और कृति सैनन की फिल्म ‘राब्ता’ का है, जिसपर सेंसर ने कैंची चलाई थी। सेंसर बोर्ड ने फिल्म के कई दृश्यों पर आपत्ति जताते हुए कट लगाए थे। बोर्ड ने फिल्म देखने के बाद फैसला किया गया था कि फिल्म के कुछ दृश्य हटा देना चाहिए। क्योंकि, इस फिल्म में गालियों का इस्तेमाल किया गया था। बोर्ड ने कहा था कि लव स्टोरी पर आधारित फिल्मों में गालियों की कोई जरुरत ही नहीं है। 
  फिल्मों में गालियों का इस्तेमाल होने के प्रमाण ढूंढ़ना मुश्किल नहीं है। 'नो वन किल्ड जेसिका' में टेलीविजन पत्रकार की भूमिका निभाने वाली रानी मुखर्जी ने इस फिल्म में जमकर गालियां दी हैं। 'पीपली लाइव' और सलमान खान की सफल फिल्म 'वांटेड' में भी दर्शकों ने अपशब्द सुने थे। 'ओमकारा' फिल्म में अजय देवगन और सैफअली खान दोनों ने जमकर गालियाँ दी! इसके अलावा इश्किया, खट्टा मीठा, तेरे बिन लादेन और उड़ता पंजाब के संवादों में भी अपशब्दों का इस्तेमाल हुआ। संवाद  अब तो फिल्मों के शीर्षक भी गालियों वाले बनाए जाने लगे हैं। 'कमीने' और 'ये साली जिंदगी' इसी का नमूना है। आज का समाज जिस दौर में रहता हैं, उसमें गालियों का इस्तेमाल सामान्य सी बात है। फिल्मों का परिदृश्य बदलने और उनके अधिक वास्तविक होने के साथ फिल्मकार और अभिनेता शब्दों के इस्तेमाल में आजादी बरत रहे हैं। बोलचाल की भाषा में गालियों का इस्तेमाल सामान्य है।
  फिल्मों में इस नये चलन की शुरूआत फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ से अभिनेत्री रानी मुखर्जी ने शुरू की थी। इस फिल्म में रानी एक तेज तर्रार टीवी पत्रकार की भूमिका में थी, जो जमकर सिगरेट पीती है और धड़ल्ले से गालियां देती है। फिल्म के साथ रानी ने अपनी मासूम सी छवि के साथ प्रयोग करते हुए अपनी छवि बदली। फिल्म में उनका सबसे प्रचलित संवाद था ‘आई एम ए बिच।’ 'देल्ही बेली' भी बोल्डनेस और गालियों के प्रयोग के मामले में आगे रही। इस फिल्म में भी जमकर गालियों का और द्विअर्थी गानों का प्रयोग किया गया था!
 लव रंजन ने भी अपनी एडल्ट कॉमेडी फिल्म ‘प्यार का पंचनामा’ में भी अपशब्दों वाली भाषा का प्रयोग किया। था इस तरह की भाषा और विषयों से फिल्म की सफलता सुनिश्चित भले न होती हों, लेकिन रिलीज से पहले दिखाए जाने वाली झलकियों की वजह से फिल्म से विवाद जुड़ जाते हैं और फिल्म को अपेक्षित चर्चा मिल जाती है। फिल्म ‘रा-वन’ में अभिनेत्री करीना कपूर को अपने पति की भूमिका निभा रहे शाहरुख खान को अपशब्द कहते दिखाया गया था। इसी तरह की भाषा का प्रयोग करीना ने फिल्म ‘जब वी मेट’ और ‘गोलमाल थ्री’ में भी किया था। 'मोहल्ला अस्सी' के ट्रेलर तक में गालियां सुनकर लोग हैरान थे। जब फिल्मों को समाज से प्रभावित समझा जाता है तो सीधा सा मतलब कि समाज के अंदर भी इतना ही आक्रोश है जो गालियों की भाषा में बाहर आता है।  
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सरकार के गले में फँस गई प्याज राजनीति

- हेमंत पाल

  प्याज की बम्पर पैदावार और किसानों के आक्रोश ने मध्यप्रदेश सरकार को ऐसा उलझा दिया कि उसे समझ नहीं आ रहा कि कौनसा रास्ता सही रहेगा! आनन-फानन में सरकार ने किसानों से 8 रुपए किलो प्याज खरीदने का एलान तो कर दिया, पर इस हज़ारों टन प्याज का होगा क्या, ये कोई नहीं जानता! कंट्रोल की दुकानों पर ये प्याज कोई 2 रुपए किलो भी कोई खरीदने तैयार नहीं है। हालात ये हैं कि खरीदा हुआ प्याज बरसात में ख़राब हो रहा है। अब प्याज की राजनीति सरकार के गले पड़ गई! न पीछे हटा जा सकता है न आगे कोई रास्ता दिखाई दे रहा! फसलों का अर्थशास्त्र समझने वालों का कहना है कि भले ही सरकार ने प्याज 8 रुपए किलो खरीदा हो, पर ये अंततः सरकार को 19 से 20 रुपए किलो पड़ेगा। सरकार के प्याज खरीदने के एलान का असर ये हुआ कि खेरची में 5 से 6 रुपए बिकने वाला प्याज 15 से 20 रुपए किलो तक पहुँच गया। ऐसे में आम आदमी परेशान है कि किसान को फौरी राहत देने के लिए सरकार ने पूरे प्रदेश के लोगों को मुसीबत में क्यों डाला? चुनावी साल के ठीक पहले सरकार को इस सवाल से भी जूझना पड़ेगा।             
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  किसानों से 8 रुपए किलो प्याज खरीदने वाली सरकार अब उस प्याज को 2 रुपए किलो में बेचने पर आमादा है। नीलामी से लगाकर कंट्रोल की दुकानों तक पर प्याज बेचने की जुगत लगाई जा रही है। जून माह में अभी तक मंडियों में जो प्याज खरीदी गई, उसमें करीब 20 फीसदी से ज्यादा प्याज बारिश के कारण खराब हो गई! प्याज कच्ची फसल है इसलिए इसका भंडारण भी नहीं हो सकता। प्याज के परिवहन, गोदामों में रखरखाव, ब्याज और नुकसानी का आकलन करने के बाद सरकार को यह प्याज 19 रुपए किलो से ज्यादा महंगी पड़ेगी! यही स्थिति पिछले साल भी थी जब सरकारी एजेंसी 'मध्यप्रदेश राज्य सहकारी विपणन संघ (मार्कफेड) ने प्याज खरीदी के लिए बैंक से कर्ज भी लिया! उसे इसका ब्याज भी देना पड़ा था। तब भी प्याज खरीदी में सरकार को करोड़ों रुपए का घाटा उठाना पड़ा था! इस बार भी वही कहानी दोहराई गई। न पिछले साल सबक लिया न इस बार कुछ सोचा गया! इसके बावजूद किसान खुश नहीं है। 
   सरकार ने प्याज का रकबा, उत्पादन और भंडारण को लेकर जो भी अनुमान लगाए थे, सब फेल हो गए। इस बार प्रदेश में प्याज का रकबा 1.37 लाख हेक्टेयर बताया गया है, जो पिछले साल के 1.40 लाख हेक्टेयर से कम है। लेकिन इस बार प्याज की पैदावार अधिक हुई। बीते साल 32.54 लाख मीट्रिक टन प्याज हुआ, इस साल रकबा घटने के बावजूद 34.46 लाख मीट्रिक टन पैदावार हुई। प्याज की यही पैदावार सरकार के लिए मुसीबत बन गई है। हर जिले में पूरा प्रशासन इस समय प्याज की खरीदी, ट्रांसपोर्टेशन और भंडारण में लगे हैं।
  पिछले साल की तरह इस साल भी प्याज की जबरदस्त पैदावार के बाद मई में ही थोक मंडियों में प्याज के भाव इसने गिर गए थे कि किसानों ने इसे सड़कों पर फेंकना शुरू कर दिया था। प्याज की फसल की पैदावार ने किसानों की खुदकशी का प्लेटफार्म तैयार कर दिया। हालात इतने खराब हैं कि किसान जब मंड़ी में अपनी प्याज की उपज लेकर पहुंचे तो इसके खरीददार नहीं मिले! जब डेढ़ रूपए किलों में भी प्याज नहीं बिका तो किसानों का गुस्सा फट पड़ा। क्योंकि, खेती-किसानी का सारा अर्थतंत्र बैंक या साहूकारों से लिए कर्ज पर टिका होता है। किसान फसल बेचने से मिलने वाले पैसे से ही सारी उम्मीद लगाता है, लेकिन मंडी में जब प्याज को मंडी तक लाने का भाड़ा तक नहीं निकल पाया तो किसान उग्र हुए! सवाल है कि ऐसे में वे अपना कर्ज कैसे चुका पाएंगे? अब तो यह तय हो चला है कि किसान एक बार फिर कर्ज के दुष्चक्र में फंसने वाले हैं। सरकार की घोषणा के बाद भी किसानों की आत्महत्या का क्रम जारी है। 
   मध्यप्रदेश में प्याज की कीमतें जब एक रुपए किलो हो गई थी, तब भी देश की कई मंडियों में प्याज 20 रुपए किलो के करीब था! ऐसी स्थिति में सरकार के सलाहकार अफसरों को ये नहीं लगा कि इस प्याज को वहाँ बिना लाभ-हानि के बेचने की कोशिश की जाए? सरकार मुनाफा कमाने के लिए व्यापारिक सोच नहीं रख सकती, पर इस तरह अपना मूलधन तो वापस पा ही सकती थी! किसानों से प्याज खरीदकर सड़ा देना तो और फिर आने-पौने दाम पर बेचने की कोशिश करना समझदारी तो नहीं कही जा सकती! किसानों से प्याज खरीदकर गोदामों में भरने की कोशिश हो रही हैं जैसे गेहूं का भंडारण किया जाता है। इस कारण गीला प्याज उगने लगा और सड़ने लगा! यही स्थिति पिछले साल भी हुई थी। अब इस सड़े प्याज को ठिकाने लगाने के लिए सरकार हरसंभव जोर लगा रही है। इसकी 2 से ढाई रुपए किलों में कुछ बड़ी एजेंसियों को ये प्याज नीलामी में बेचा भी गया, पर लाखों क्विंटल अभी भी सरकार के गले में फंसा है! सरकार के सामने जमा प्याज को ठिकाने लगाना आज सबसे बड़ा सरदर्द है।
  किसान आंदोलन से डरकर मुख्यमंत्री ने प्याज 8 रुपए किलो खरीदने की घोषणा तो कर दी, पर अब ये प्याज सरकार के गले पड़ गया! किसानों को मदद देने के लिए की गई मुख्यमंत्री की घोषणा सरकार के खजाने को बड़ी चोट दे गई! जबकि, होना ये था कि प्याज खरीदी की योजना के साथ ही, इसके निपटान के इंतजाम भी किए जाते! यदि इस प्याज का भंडारण करना था, तो उतनी क्षमता के वेयरहाउस भी होना चाहिए, जो नहीं हैं! फिलहाल प्रदेश में 212 शीत भंडार गृह हैं जिनकी मौजूदा क्षमता करीब 9.5 लाख टन है। सरकार अगले दो सालों में क्षमता बढ़ाकर 14.5 लाख टन पर पहुंचाना चाहती है। लेकिन, आज तो इसके अभाव को सरकार ने भोग ही लिया! किसानों से प्याज खरीदी और फिर इसका निपटान न हो पाना, ऐसी घटना है जिससे सम्बद्ध विभाग और अफसरों को सबक लेना चाहिए!
  किसान आंदोलन से भयभीत सरकार ने पूरे प्रदेश में प्याज की सरकारी खरीद तो शुरू करा दी, लेकिन, किसानों को पुचकारने की कोशिश में सरकार अर्थशास्त्र भूल गई। जिस तरह के हालात हैं, उसे देखकर लगता नहीं किसान 8 रुपए किलो प्याज बेचकर भी सरकार से खुश हैं! इधर, सरकार की राजनीति भी कितनी सधेगी, ये स्पष्ट नहीं है। लेकिन, सरकारी खजाने को नुकसान कितना होगा, ये साफ़ नजर आ रहा है। 8 रुपए किलो का प्याज सरकार को 19 से 20 रुपए किलो का फटका लगाएगा! फसल का अर्थशास्त्र समझने वालों का मानना है कि सरकार कितनी भी संभाल कर ले, 25 से 30 प्रतिशत प्याज की नुकसानी होना तो तय है।
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राजनीति, सिनेमा और विरोध बहाने


- हेमंत पाल 

   फिल्मकारों को हमेशा नए कथानकों की खोज रहती है। इसी खोज में वे कभी हॉलीवुड की कहानियां चुराते हैं तो कभी रीजनल सिनेमा हिट कहानियों को बदलकर परोसते हैं। कई बार तो एक ही सफल कहानी को कलेवर बदलकर बार-बार फिल्माया जाता है! लेकिन, राजनीति ऐसा वर्जित विषय है जिसे फिल्मकार छूने से भी परहेज करते हैं। जबकि, राजनीति का परिदृश्य इतना परिमार्जित है, जिसमें किसी फार्मूला फिल्म के सारे मसाले मिलते हैं। इसके बाद भी फिल्मकार ऐसी कहानियों से बचते रहते हैं, जिनमें राजनीति का जरा भी तड़का लगा होता है। क्योंकि, जिसने भी इस काजल की कोठरी में घुसने की कोशिश की, वो साफ़ सुथरा बाहर नहीं निकल सका!    

  हिंदी फिल्मों के इतिहास के पन्ने पलटे जाएं, तो आजादी के बाद असल राजनीति पर गिनी-चुनी फ़िल्में ही बनी है। अमृतलाल नाहटा, गुलजार और प्रकाश झा जैसे कुछ निर्माताओं को छोड़ दिया जाए तो किसी ने भी राजनीति की जलती लकड़ी को पकड़ने की कोशिश नहीं की! किंतु, अब फिर कुछ फिल्मकारों ने सुलगते अंगारों को हाथ में उठा लिया! मधुर भंडारकर ने संजय गाँधी पर केंद्रित फिल्म 'इंदू सरकार' बना डाली और मिलन लूथरिया ने 'बादशाहो।' दोनों ही फिल्मों की कहानी 1975 के इमरजेन्सी के दौर को छूती है।
  'बादशाहो' की कहानी पर तो अभी कोई उंगली नहीं उठी! पर 'इंदू सरकार' के बारे में कांग्रेस ने चेतावनी दे दी कि वह इस फिल्म का पूरे दम खम से विरोध करेगी! कांग्रेस का कहना है कि इस फिल्म में गाँधी परिवार को लेकर कई आपत्तिजनक टिप्पणी की गई है। फिल्म के ट्रेलर में ही गांधी परिवार पर निशाना साधा गया। कांग्रेस को आशंका है कि फिल्म में इंदिरा गांधी और संजय गांधी को इमरजेन्सी के बहाने गलत परिप्रेक्ष्य में दिखाया गया होगा! जबकि, मधुर भंडारकर का कहना है कि फिल्म को लेकर अभी कोई धारणा न बनाएं। पहले फिल्म देखें फिर विरोध की तलवार तेज करें!
 दरअसल, भारतीय राजनीति में इमरजेंसी ऐसा युग है, जिसके काले अध्याय पर कई कहानियां गढ़ी जा चुकी है। सबसे पहले अमृतलाल नाहटा ने 'किस्सा कुर्सी का' बनाई थी। उसके बाद सुधीर मिश्र ने 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' बनाकर चर्चा पाई! लेकिन, बांग्ला फिल्म 'गणशत्रु' और 'कलकत्ता-71' की तरह मौलिकता और गहरी राजनीति दिखाने का साहस कोई नहीं कर पाया। गोविंद निहलानी ने जरूर टेली फिल्म 'तमस' बनाकर दर्शकों को प्रभावित किया था। सिनेमा की दुनिया में राजनीति हमेशा ही सिमटा सा विषय ही रहा है। मणिरत्नम की 'रोजा', गोविंद निहलानी की 'द्रोहकाल' के बाद नई दिल्ली टाइम्स, बाम्बे, और 'दिल से' जैसी फिल्मों में जरूर राजनीति और अपराध के समीकरण दिखाई दिए। 
  अपनी फिल्मों में राजनीति का तड़का मणिरत्नम, मृणाल सेन की तरह गुलजार ने भी लगाया और पारिवारिक रिश्तों में राजनीति को मिलाकर 'आंधी' का प्लाट रचा था। इस फिल्म का कथानक कहीं भी इंदिरा गाँधी जिंदगी से मेल नहीं खाता था, पर सुचित्रा सेन का मेकअप और ड्रेसअप जरूर इंदिरा गाँधी जैसा था। इसके बाद राजनीतिक साजिशों के कॉमिक हालातों पर ‘हु तू तू’ और आतंकवाद को पनपाती 'माचिस' भी गुलजार ने ही रची थी। लेकिन, आज का दर्शक प्रकाश झा की फिल्म 'राजनीति' के अलावा युवा, रंग दे बसंती, पार्टी या ‘ए वेडनेसडे’ और ‘ब्लैक फ्राई डे’ जैसी फ़िल्में पसंद करता है। राजनीतिक फिल्मों के बारे में एक सटीक टिप्पणी है 'समस्या यह नहीं कि राजनीतिक फिल्में कैसे बनाई जाएं, बल्कि समस्या फिल्मों को राजनीतिक बनाने की है।' बॉलीवुड यदि हॉलीवुड की तरह पहचान बनाना चाहता है तो उसे अमेरिकी फिल्मकारों की तरह दिमाग को खुला रखना होगा! साथ ही सेंसर कैंची की धार को भी भोथरा करना होगा, जिसने राजनीतिक कहानियों वाले सिनेमा को अछूत बना रखा है।     
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