Friday, November 26, 2021

हमारे जीवन मूल्यों से कितना जुड़ा सिनेमा

- हेमंत पाल

      जीवन मूल्यों का अपना अलग ही इतिहास और परंपरा है। वास्तव में ये जीवन मूल्य हमारे पारिवारिक संस्कार हैं, जो बचपन में ही घुट्टी में पिलाए जाते हैं। लेकिन, बाद में इन्हें समय-समय पर पालना-पोसना पड़ता है, ताकि उनकी चमक जीवनभर बरक़रार रहे। कभी इन जीवन मूल्यों को परिवार चमकाता है, कभी परिवेश और कभी ये सिनेमा जैसे माध्यम के जरिए पोषित होते हैं। भारतीय समाज और सिनेमा में निरंतर बदलाव हुए, लेकिन कुछ जीवन मूल्य कभी नहीं बदले। सिनेमा के नायक को उन जीवन मूल्यों का सबसे बड़ा पोषक बताया जाता रहा है। पर, सिनेमा की ये परंपरा हमेशा एक सी नहीं रही। वक़्त के साथ-साथ इसमें उतार-चढाव आते रहे। फिल्मों के शुरूआती दौर में जीवन मूल्यों को संवारा गया, लेकिन बीच में इन्हें खंडित करने में भी कसर नहीं छोड़ी गई। कभी खलनायक के बहाने तो कभी भटके नायक ने जीवन मूल्यों की तिलांजलि दी। सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो सामाजिक धरातल को मजबूती देने वाली कुछ यादगार फिल्में ऐसी है, जिसे इस नजरिए से कभी भुलाया नहीं गया। सामाजिक दायित्वों की दृष्टि से भी ये फ़िल्में महत्वपूर्ण बनी। उनमें बरसों पहले बनी फिल्म 'परिवार' को हमेशा याद रखा जाएगा। आदर्श छोटे परिवार के नजरिए से यह एक कालजयी फिल्म थी। लेकिन, उसके बाद इस कथानक पर दूसरी फिल्म शायद नहीं बनी।
     जीवन मूल्यों को लेकर अकसर समाज में उलझन बनी रहती है। इसका कोई सटीक जवाब नहीं मिलता कि जीवन मूल्यों को सिनेमा ने संभाला और संवारा या उसे दूषित ज्यादा किया! इसे लेकर हमेशा ही विवाद भी बना रहा। सामान्य तौर पर कहा जाता है, कि समाज के पतन के लिए सिनेमा ही ज़िम्मेदार है। लेकिन, ये कितना सच या झूठ है, इसका तार्किक रूप से किसी के पास कोई जवाब नहीं होता। क्योंकि, ऐसे कई प्रमाण है, जो इस तर्क को गलत साबित करते हैं। फिल्मों के आने के बरसों पहले भी समाज कई तरह की कुरीतियों और कुसंगतियों से घिरा था। सिनेमा ने समाज को आधुनिकता की राह जरूर दिखाई, पर सिनेमा के कारण समाज दूषित हुआ, ये बात गले नहीं उतरती। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि समाज में घटने वाली घटनाएं ही, परदे पर फिल्मों की कहानियों बनकर उतरती है। सिनेमा से समाज बनता है या समाज की सच्चाइयों से सिनेमा प्रभावित होता है, इसमें तर्क-वितर्क अरसे से चलता रहा है और अनंतकाल तक चलता रहेगा।
      बरसों से देखा जाता रहा है, कि सिनेमा में कथानक में बदलाव करके बात को नए सिरे से कहने की कोशिश होती। इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। क्योंकि, जीवन मूल्य वही है, पर उनकी अहमियत हर समयकाल में अलग-अलग संदर्भों में बदलती है। कई बार कहानियों में परिवेश के हिसाब से बदलाव करके अपनी बात कहने की कोशिश होती है। वी शांताराम ने 40 के दशक में 'जीवन प्रभात' बनाई थी। इसमें अपने पति से प्रताड़ित और आहत होने वाली पत्नी को केंद्रीय कथानक बनाया था। परेशान होकर पत्नी अदालत में अपनी पीड़ा की गुहार लगाती है। पर, फैसले के वक़्त न्यायाधीश कहते हैं कि पति को अपनी पत्नी के साथ ऐसी प्रताड़ना करने का अधिकार है। अदालत ने ये बात इसलिए कही थी, कि उस समय की सामाजिक परिस्थितियां ही कुछ ऐसी थी। इसके बाद वो महिला अपनी तरह प्रताड़ित पत्नियों का दल बनाती है और उन पतियों को पीटती है, जो अपनी पत्नियों पर अत्याचार करते थे।
     इसके सालों बाद माधुरी दीक्षित और जूही चावला की फिल्म 'गुलाबी गैंग' आई, जिसका कथानक भी इसी तरह का था। दरअसल, ये 'जीवन प्रभात' का ही वर्तमान संस्करण था। ये महिलाओं पर अत्याचार की ऐसी सामाजिक बुराई थी, जो इतने सालों में भी नहीं बदली! हमारे जीवन मूल्य स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करते! पर, जहाँ भी इस तरह का भेद होता है, उसके खिलाफ आवाज भी उठती है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं पर हिंसा को लेकर अकसर फिल्में बनती रही है, जिसका अंत अत्याचारी को सजा मिलने पर होता है। अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू की फिल्म 'पिंक भी स्त्री पक्ष को मजबूती से प्रस्तुत करती है। वास्तव में यही जीवन मूल्य है, जिनकी समय-समय पर फ़िल्मी कथानकों में रक्षा की गई। 
     बीच में एक समय ऐसा भी आया, जब सामाजिक दुराचारों को परदे पर उतारा जाने लगा। तर्क ये दिया गया कि समाज में यही सब घट रहा है, तो उसे फ़िल्मी कथानकों का विषय क्यों न बनाया जाए! आततायियों और डाकुओं के अत्याचार की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है। यदि ये सब सच है और समाज में होता है, तो फिर इन पर फ़िल्में क्यों नहीं बन सकती! यदि जीवन मूल्यों को सकारात्मक नजरिए से देखा जाता है, तो इनके नकारात्मक पक्ष को क्यों दबाया जाए। कुछ साल पहले 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की तरह बनी कई फिल्मों में लूट-खसोट, हत्या, बलात्कार, गुंडागर्दी, छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष ने ग्लैमरस तरीके से फिल्मों में एंट्री कर ली। यदि कोई फिल्म सामाजिक यथार्थ का आईना दिखाती है, तो ऐसी फिल्में बनने में बुराई क्या है! ऐसा सच जिसमें मानवीय मूल्यों का पतन होता है, तो ऐसी फ़िल्में भी स्वीकारी जानी चाहिए। ये बुराई है और इसका अंत कभी अच्छा नहीं होता, ये संदेश भी जीवन मूल्यों के लिए जरुरी है। आज मदर इंडिया, जागते रहो या 'सुनहरा संसार' जैसी फिल्म की तो कल्पना नहीं की जा सकती! लेकिन, फिर भी लगान, बागबान और 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' जैसी फ़िल्में भी जीवन मूल्यों को बचाने में समर्थ हैं।        
     देखा जाए, तो आज़ादी से काफी पहले से सिनेमा का चेहरा बदलने लगा था। पारसी थिएटर, नौटंकी, वीर गाथाओं पौराणिक और प्रेम कहानियों से बाहर निकलकर बेहतर समाज की परिकल्पना लिए सिनेमा के कथानकों में बदलाव आया। ये वो दौर था, जब आज़ादी के बयार में जीवन के मूल्य ज्यादा कठोर हो रहे थे। ऐसे में देश और समाज के लिए ईमानदारी, मेहनत और भाई-चारे की कहानियों वाली फ़िल्में आई। इप्टा के कलाकारों और साहित्यकारों ने हिंदी सिनेमा पर गहरा असर डाला। इससे परस्पर मानवीय सहयोग और समाज की सच्ची और ज़रूरी तस्वीर प्रस्तुत की जाने लगी। लेकिन, आजादी के बाद देश में बदलाव आया। सत्यजीत रे, विमल राय जैसे फिल्मकारों ने गरीबों की पीड़ा पर फिल्में बनाई। इसके बाद सामाजिक संदर्भों जैसे दहेज, वेश्यावृत्ति, बहुविवाह, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर भी फिल्में बनाई गई। ऋत्विक घटक, मृणाल सेन जैसे सामाजिक सोच वाले लोगों ने भी आम आदमी की परेशानियों पर नजर डाली और उसे सेलुलॉइड पर उतारा। कुछ नकारात्मक फ़िल्में बनी, पर ऐसी फिल्मों के लिए सिर्फ फिल्मकारों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता! क्योंकि, आज का युवा वर्ग और बच्चे इतने व्यस्त होते जा रहे हैं, कि उनके लिए पनपने वाले मानवीय रिश्तों को समझना और संभालना मुश्किल होता जा रहा है। जहां अभी मोहल्ले का सुख क़ायम है और पड़ोस की दुनिया के लिए सहिष्णुता और प्रेम का भाव है। ऐसे महौल से आने वाला नौजवान उम्मीद की लकीर की तरह सिनेमा के आकाश पर खड़ा है। सवाल यह कि, ऐसे कितने नौजवान हैं, जो सामाजिक मूल्यों के पक्षधर हैं और वे समाज के धरातल को समझ हैं। सिनेमा में सामाजिक मूल्यों का पोषण इन्हीं के लिए जरुरी है।   
    फिल्म इतिहास के पन्ने पलटे जाएं, तो सिनेमा में मानवीय और पारिवारिक मूल्यों को बढ़ावा देने में 'राजश्री' की फिल्मों का बड़ा योगदान है। 1962 में ताराचंद बडजात्या ने इस कंपनी को परिवारिक फिल्म बनाने के मकसद से ही बनाया था। शुरूआती फिल्मों आरती, दोस्ती, तकदीर, जीवन-मृत्यु और 'उपहार' से चर्चा में आई इस फिल्म कंपनी ने हमेशा अपने लक्ष्य का ध्यान रखा। 1972 में राजकुमार बडजात्या ने इसकी संभाली और पारिवारिक फिल्मों की परंपरा को पोषित करने के साथ आगे भी बढ़ाया। 70 के दशक में जब एक्शन फिल्मों का दौर था, तब भी इस बडजात्या-परिवार ने जीवन मूल्यों वाले सार्थक सिनेमा का दामन नहीं छोड़ा। पिया का घर, सौदागर, गीत गाता चल, तपस्या, चितचोर, पहेली, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, अंखियों के झरोखे से, सुनयना, सावन को आने दो, नदिया के पार और 'अबोध' जैसी फिल्मों का निर्माण किया। लेकिन, फार्मूला सिनेमा ने ऐसे फिल्मों को आगे नहीं बढ़ने दिया। क्योंकि, उनका लक्ष्य सामाजिक चिंतन कम और बाॅक्स ऑफिस से कमाई करना ज्यादा रहा। सिनेमा हमारे जीवन से इतना जुड़ा है कि जीवन का हिस्सा बन गया। लेकिन, सौ करोड़ की दौड़ ने जीवन मूल्यों वाली फिल्मों को हाशिए पर रख दिया। 
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Monday, November 22, 2021

पुलिस कमिश्नरी प्रणाली : नई व्यवस्था में फैसले के सारे अधिकार पुलिस के पास

   मध्यप्रदेश में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू करने की बातें कई बार हुई। कई बार घोषणाएं भी हुई, पर ये व्यवस्था लागू कभी नहीं हो सकी। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने प्रदेश के दो बड़े महानगरों इंदौर और भोपाल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू किए जाने की घोषणा की है। इसे आईपीएस अधिकारियों की पुरानी मांग पूरी होना माना जा रहा है। इस मांग को लेकर मध्य प्रदेश की आईपीएस एसोसिएशन ने 2019 में तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ से भी मुलाकात की थी। तब भी आश्वासन मिला था, पर हुआ कुछ नहीं। 
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- हेमंत पाल 

   ध्यप्रदेश में पुलिस कमिश्नरी व्यवस्था लागू करने का मसला करीब साढ़े तीन दशक से अटका हुआ है। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने पहली बार इसके लिए पहल की थी। लेकिन, केंद्र सरकार ने ये प्रस्ताव कुछ टिप्पणियों के साथ लौटा दिया था। बाद में दिग्विजय सिंह ने भी पहल की, पर बात नहीं बनी। कहा जाता कि आईपीएस और आईएएस एसोसिएशन की आपसी खींचतान और वर्चस्व की लड़ाई ने इसे लागू नहीं होने दिया। अंतिम बार तो पुलिस कमिश्नर सिस्टम 15 अगस्त 2020 को लागू किया जाना था। लेकिन, तब भी घोषणा पर अमल टल गया। पुलिस मुख्यालय भी कई बार पुलिस कमिश्नरी व्यवस्था लागू करने के लिए गृह विभाग को प्रस्ताव भेज चुका है।     प्रदेश में पुलिस कमिश्नरी प्रणाली लागू होने को लेकर अब नए सिरे से चर्चा चल पड़ी है। अभी तक तो इसे लेकर हां-ना ही ज्यादा होती रही। इसे लागू करने को लेकर हमेशा ही संशय बना रहा। मुख्यमंत्री की घोषणा पर कब अमल होता है, इस बारे में कोई दावा नहीं किया जा सकता।
   मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी घोषणा में कहा कि प्रदेश में कानून और व्यवस्था की स्थिति बेहतर है। पुलिस अच्छा काम कर रही है। पुलिस और प्रशासन ने मिलकर कई उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन शहरी जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। भौगोलिक दृष्टि से भी महानगरों का विस्तार हो रहा है और जनसंख्या भी लगातार बढ़ रही है। इस वजह से कानून और व्यवस्था की कुछ नई समस्याएं पैदा हो रही हैं। उनके समाधान और अपराधियों पर नियंत्रण के लिए हमने फैसला किया है। प्रदेश के 2 बड़े महानगरों में राजधानी भोपाल और स्वच्छ शहर इंदौर में हम पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू कर रहे हैं, ताकि अपराधियों पर और बेहतर नियंत्रण कर सकें। प्रदेश के गृहमंत्री डॉ नरोत्तम मिश्रा ने भी कहा कि इन दोनों शहरों में बढ़ती आबादी और अपराध को देखते हुए पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने का फैसला किया है। इंदौर और भोपाल की जनता को प्रयोग के तौर पर नई प्रणाली का लाभ मिलेगा। नए जमाने के क्राइम, सोशल मीडिया, आईटी से जुड़े क्राइम को काबू करने में नया सिस्टम मददगार साबित होगा।
   कमिश्नर प्रणाली को आसान भाषा में समझें तो फिलहाल पुलिस अधिकारी कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र नहीं होते! वे आकस्मिक परिस्थितियों में कलेक्टर, कमिश्नर या राज्य शासन के दिए निर्देश पर ही काम करते हैं। पुलिस कमिश्नरी प्रणाली लागू होने पर जिला कलेक्टर और एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के अधिकार पुलिस अधिकारियों को मिल जाएंगे। इसमें होटल और बार के लाइसेंस, हथियार के लाइसेंस देने का अधिकार उन्हें मिल जाता है। इसके अलावा शहर में धरना प्रदर्शन की अनुमति देना, दंगे के दौरान लाठीचार्ज या कितना बल प्रयोग हो, ये निर्णय भी सीधे पुलिस ही करेगी। यानी उनके अधिकार और ताकत बढ़ जाएंगे। पुलिस खुद फैसला लेने की हकदार हो जाएगी।
    कमिश्नरी व्यवस्था में पुलिस तुरंत कार्रवाई कर सकती है, क्योंकि इस व्यवस्था में जिले की बागडोर संभालने वाले आईएएस अफसर डीएम की जगह पॉवर कमिश्नर के पास चली जाती है। यानी धारा-144 लगाने, कर्फ्यू लगाने, 151 में गिरफ्तार करने, 107/16 में चालान करने जैसे कई अधिकार सीधे पुलिस के पास रहेंगे। ऐसी चीजों के लिए पुलिस अफसरों को बार बार प्रशासनिक अधिकारियों का मुंह नहीं देखना होगा! माना जाता है कि कानून व्यवस्था के लिए कमिश्नर प्रणाली ज्यादा बेहतर है ऐसे में पुलिस कमिश्नर कोई भी निर्णय खुद ले सकते हैं। सामान्य पुलिसिंग व्यवस्था में ये अधिकार कलेक्टर के पास होते हैं। आजादी से पहले अंग्रेजों के दौर में कमिश्नर प्रणाली लागू थी। इसे आजादी के बाद भारतीय पुलिस ने अपनाया। कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस कमिश्नर का सर्वोच्च पद होता। अंग्रेजों के जमाने में ये सिस्टम कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में हुआ करता था। इसमें ज्यूडिशियल पावर कमिश्नर के पास होता है। यह व्यवस्था पुलिस प्रणाली अधिनियम, 1861 पर आधारित है.
   पुलिस कमिश्नर सिस्टम में पुलिस महानिदेशक, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, एडीजी स्तर के अधिकारी को पुलिस कमिश्नर बनाया जा सकता है। उसके नीचे एडीजी या आईजी स्तर के दो ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर होंगे। पिरामिड में एडिशनल पुलिस कमिश्नर होंगे। इसकी जिम्मेदारी आईजी या डीआईजी स्तर अफसरों को मिलेगी। डिप्टी पुलिस कमिश्नर डीआईजी या एसपी स्तर के होंगे। जूनियर आईपीएस या वरिष्ठ एसपीएस अधिकारियों को असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर बनाया जा सकेगा।
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Sunday, November 21, 2021

टीवी पर दम तोड़ने लगा 'बिग बॉस' शो

हेमंत पाल

   पंद्रह साल पहले जब टीवी पर 'बिग बॉस' शो शुरू हुआ था, तब भारतीय दर्शकों में रियलिटी शो देखने का ज्यादा चलन नहीं था। 'सारेगामापा' और 'अंताक्षरी' जैसे संगीत के शो ही ज्यादा देखे जाते थे। ऐसे में 'बिग बॉस' जैसे लीक से हटकर बने रियलिटी शो को छोटे परदे पर परोसा गया। वास्तव में तो यह नीदरलैंड का शो है, जो 'बिग ब्रदर' के नाम से दुनियाभर में अलग-अलग भाषाओं में प्रसारित होता था। इंग्लैंड में भी यह शो 'बिग ब्रदर' के नाम से प्रसारित हुआ। वहां इस शो में शिल्पा शेट्टी ने बतौर कंटेस्टेंट इसमें भाग लिया और एक नस्लीय टिप्पणी विवाद का कारण बनी! उसी बाद ये शो भारत आया और तब से टीवी पर लगातार तीन महीने तक आता है। इसमें 13 से 15 तक कंटेस्टेंट होते हैं, जिन्हें बड़े से घर में दुनिया से पूरी तरह काटकर रखा जाता है। इन्हें समय, तारीख और दिन का भी इन्हें पता नहीं चलता। इन तीन महीनों में इन कंटेस्टेंट की दुनिया यही घर होता है। इनको एक आवाज संचालित करती है, जिसे 'बिग बॉस' नाम से पुकारा जाता है। सप्ताह भर इस घर में कई टास्क होते हैं, जिसे जीतने वाले को कुछ रियायतों का प्रलोभन मिलता है। सप्ताह के अंतिम दो दिन सूत्रधार इन प्रतियोगियों के काम और हरकतों की समीक्षा करता है। इस दौरान किसी एक प्रतियोगी को बाहर भी किया जाता है। इन 15 सालों में इस रियलिटी शो को 6 सूत्रधारों ने संचालित किया है। पहले शो को अरशद वारसी ने संचालित किया, बाद में शिल्पा शेट्टी, अमिताभ बच्चन, सलमान खान और पांचवा शो सलमान के साथ संजय दत्त ने किया था। छठे शो का एक हिस्सा 'हल्ला बोल फ़राह खान ने भी कुछ सप्ताह संचालित किया था। लेकिन, सलमान खान का लम्बे समय से 'बिग बॉस' पर कब्ज़ा बना हुआ है।   
     देखा गया है कि रियलिटी शो साल दर साल ज्यादा परिपक्व और बेहतर ढंग से संचालित हुए हैं। लेकिन, 'बिग बॉस' के पिछले कुछ सालों से बेहद कमजोर नजर आने लगा है। इस क्रम में इस बार का शो (बिग बॉस-15) सबसे ज्यादा अपरिपक्व और बिखरा हुआ नजर आया। इस रियलिटी शो की लोकप्रियता भी तेजी से घटी। जंगल वाली थीम के सेट के लिए पानी की तरह पैसा बहाया गया, पर दर्शक इससे  प्रभावित नहीं हुए। बेहिसाब खर्च और सेटअप से लेकर सलमान खान का जादू भी शो का आकर्षण नहीं बन पा रहा। इसका कारण शो के कंटेस्टेंट्स को माना जा रहा है, जो अनजाने से चेहरे हैं। वास्तव में दर्शकों के लिए इस शो का आकर्षण होता है, अपने पसंदीदा चेहरों को नजदीक से जानना और उनकी दिनचर्या और उनकी आदतों से वाकिफ होना! लेकिन, जिन चेहरों को कंटेस्टेंट बनाकर घर में लाया गया, वे दर्शकों के बीच पहचाने हुए नहीं है! इक्का-दुक्का चेहरों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश कंटेस्टेंट अनजाने और पिटे हुए कलाकार हैं। इस पर भी इन कंटेस्टेंट्स को लग रहा है कि उन्हें लगातार कैमरे के सामने बने रहना है, तो रोज विवाद और झगड़े करना होंगे। इस वजह से घर में हर कोई लड़ता हुआ, विवाद करता ही नजर आ रहा है। इस बार की एक कंटेस्टेंट पंजाब की लोक गायिका अफसाना खान ने तो चिल्ला-चोट और झगड़े की इतनी हद पार कर दी, कि उन्हें धक्के देकर बाहर किया गया। शो को लोकप्रियता के पैमाने पर मापा जाए, तो ये बहुत पीछे है। सारी कोशिशें और प्रयोग इसे दर्शकों में लोकप्रिय नहीं बना पा रहे।    
   सबसे दिलचस्प बात ये कि शो के सूत्रधार सलमान खान भी इस शो में कोई कमाल नहीं दिखा पा रहे! पिछले कई सीजन में शनिवार और रविवार को आने वाले 'वीक-एंड का वार' को सबसे ज्यादा देखा जाता रहा है। सप्ताह भर शो देखने वाले दर्शक कंटेस्टेंट की जिन हरकतों से नाखुश होते, उन्हें उम्मीद होती थी कि सलमान आकर उनकी परेड लेंगे, डाटेंगे और हिदायत देंगे! लेकिन, बिग बॉस-15 में ऐसा कुछ नहीं हो रहा! सलमान खान भी इस बार पूरी तरह फेल हो गए। वीक-एंड के किसी भी एपिसोड को दर्शकों ने पसंद नहीं किया। जबकि, दर्शकों ने कंटेस्टेंट की गलतियों पर सलमान खान का रौद्र रूप देखा और पसंद किया है। इस बार वो सब नदारद दिखा। वीक-एंड के मंच पर अब फिल्मों के प्रमोशन ही ज्यादा दिखाई दे रहे हैं। 
     'बिग बॉस' के इतिहास में 13वां सीजन सबसे सफल रहा! जिसमें सिद्धार्थ शुक्ला और शहनाज गिल थे। खुद 'बिग बॉस' ने इस सीजन के सभी कंटेस्टेंट्स की तारीफ भी की थी। सिद्धार्थ और शहनाज ने मनोरंजन के स्तर को बहुत ऊंचाई पर पहुंचाया। यही कारण था कि यह सीजन बेहद लोकप्रिय रहा। इसमें कंटेस्टेंट के बीच तनाव भी था, झगड़े भी हुए और प्रेम भी नजर आया! सबसे बड़ी बात ये कि इसमें दर्शकों के लिए मनोरंजन का भरपूर मसाला था। इस सीजन की सफलता को पैमाने पर श्रेष्ठ माना जाता है। 13वें सीजन के सलमान वाले 'वीक-एंड का वार' एपिसोड को भी अच्छा पसंद किया गया था। इस बार वो सब नदारद है। वाइल्ड कार्ड एंट्री से भी बिग-बॉस-15 को कोई फायदा नहीं हुआ। क्योंकि, जिन्हें घर में भेजा गया, वो भी अनजाने से चेहरे हैं। समझा जा रहा है कि इस बार शो का पहला हिस्सा कुछ हफ़्तों तक ओटीटी प्लेटफॉर्म पर दिखाया गया, फिर इसके 3-4 कंटेस्टेंट को इस शो में शामिल कर टीवी पर शो शुरू किया गया। शमिता शेट्टी, निशांत भट्ट और प्रतीक सहजपाल समेत कुछ कंटेस्टेंट्स दोनों शो में दिखे। बाद में दो और कंटेस्टेंट्स राकेश बापट और नेहा भसीन को बिग बॉस-15 में वाइल्ड कार्ड से एंट्री दी गई। हालांकि, राकेश बापट को बीमारी के कारण बाहर भेज दिया गया। लेकिन, ओटीटी वाले शो के कंटेस्टेंट को इतनी तवज्जो देना दर्शकों को रास नहीं आया और शायद यही इस बार की खामी भी रही।    
    इस शो के मेकर्स को जाने क्यों ऐसा लगता है कि लव एंगल और झगड़े शो को लोकप्रिय बना सकते हैं! जबकि, वास्तव में ऐसा नहीं है। 14-15 में कोई एक कंटेस्टेंट झगड़ालू हो सकता है और अभी तक के हर सीजन में यह देखा भी गया! पर, सारे कंटेस्टेंट हर समय लड़ने पर उतारू हों, ये इसी सीजन में देखा जा रहा है। कोई भी कंटेस्टेंट सामान्य दिखाई नहीं दे रहा।  जहाँ तक शो में लव एंगल दिखाने की बात है, तो उसकी भी एक मर्यादा है। बिग बॉस-15 में ज्यादातर कंटेस्टेंट के बीच जोड़ियां बन गई। ईशान सहगल और माइशा अय्यर में रोमांस दिखाई दिया। फिर तेजस्वी प्रकाश और करन कुंद्रा के बीच लव एंगल दिखाया जाने लगा। शमिता शेट्टी भी राकेश बापट के आने पर रोमांस में डूबती दिखाई दी! लेकिन, राकेश के बीमार होने से वो घर से निकल गया।
     शो का ये वो फॉर्मेट था, जो इस बार पूरी तरह फ्लॉप हुआ। टीवी शो के पिटे हुए कलाकारों को अनावश्यक तवज्जो दी गई। शिल्पा शेट्टी की बहन होने की वजह से शमिता को कुछ ज्यादा ही ख़ास समझा गया। शो के मेकर्स ने शमिता की तरफदारी की और उसे हाईलाइट किया। सोशल मीडिया पर तो दशकों ने इस शो की धज्जियां उड़ा दी। शमिता को जिस तरह तवज्जो दी गई, उसे देखते हुए शो को 'शम्मो का ससुराल' तक कहा गया। क्योंकि, शो में पहले वे खुद आईं, फिर उनके राखी भाई राजीव अदातिया और बेस्ट फ्रेंड नेहा भसीन की वाइल्ड कार्ड एंट्री हुई। कुछ दिन बाद उनके बॉयफ्रेंड राकेश बापट भी आ गए। 
  अभी तक के शो में देखा गया कि 'बिग बॉस' के घर में नियम-कायदों के प्रति बहुत ज्यादा सख्ती बरती गई। घर की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों, मारपीट करने वालों, अंग्रेजी बोलने वालों और टास्क को बिगाड़ने वालों को जेल में बंद करने तक की सजा दी जाती थी! लेकिन, पिछले तीन सीजन से जेल गायब ही हो गया। इस बार तो सारे नियम-कायदों की धज्जियां उड़ा दी गई। ज्यादातर कंटेस्टेंट्स घर के नियम तोड़ते नजर आते हैं। हिदायत के बावजूद सभी कंटेस्टेंट लगातार अंग्रेजी बोलते दिखाई दे रहे हैं। खासियत ये कि इसके लिए उन्हें कोई सजा भी नहीं दी जा रही। कई टास्क पूरे होने से पहले रद्द हुए। इस पर भी 'वीक-एंड का वार' में सलमान खान का नजरिया ढुल-मुल ही है। एक टास्क में सिंबा नागपाल ने उमर रियाज को तो पूल में धक्का दे दिया। फिर भी उन्हें न तो शो से निकाला गया और न सलमान ने उनकी खिंचाई की। जो सजा दी गई, वो वास्तव में कोई सजा ही नहीं है।  
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Monday, November 15, 2021

कोरोना काल के बाद बॉक्स ऑफिस खिलखिलाया

हेमंत पाल

    नोरंजन की दुनिया से जुड़े लोगों के लिए इस बार की दिवाली कुछ ख़ास रही। महामारी के कारण बंद पड़े सिनेमाघरों के दरवाजे पूरे खुले और अंदर से अच्छी खबर भी बाहर आई। नवंबर के पहले हफ्ते में रिलीज हुई तीन फिल्मों सूर्यवंशी, अन्नाथे और इटरनल्स को दर्शकों ने पसंद किया और बॉक्स ऑफिस की तिजोरी भर गई। ये मुश्किल दौर के बाद आई ठंडी हवा के झोंके जैसा है। लम्बा संकट काल बीतने के बाद जिस मनोरंजन की उम्मीद की जा रही थी, लगता है दर्शकों को वो मिल गया। अन्यथा कोरोना के काले काल ने समाज के हर हिस्से को अपने-अपने तरीके से नुकसान पहुंचाया। किसी की नौकरी गई, किसी की दुकान बंद हुई, किसी का कारोबार ठंडा पड़कर हाशिए पर चला गया। साथ ही मनोरंजन की दुनिया भी टूटकर बिखर गई। बनती फ़िल्में रुक गई, स्टूडियो पर ताले पड़ गए, रिलीज होने वाली फ़िल्में रोक दी गई, सिनेमाघरों को बंद कर दिया गया। फिल्म निर्माण से जुड़े तकनीशियनों और छोटे कलाकारों के सामने परिवार का पेट भरने की नौबत आ गई। स्थिति ऐसी हो गई कि किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था कि अब क्या होगा! मनोरंजन की दुनिया इतनी ज्यादा प्रभावित हुई कि टेलीविजन के सीरियलों की शूटिंग रुकने से उनका प्रसारण तक बंद हो गया। मज़बूरी में कुछ फिल्म निर्माताओं ने ओटीटी प्लेटफॉर्म पर अपनी बनी-बनाई तैयार फिल्मों को रिलीज किया, पर इक्का-दुक्का फिल्मों को छोड़कर कोई भी फिल्म दर्शकों को प्रभावित नहीं कर सकी। फिल्मों का बरसों से जमा जमाया कारोबार हाशिए पर चला गया।   
      सिनेमाघर बंद होने और सामने कोई विकल्प न देखकर कई निर्माताओं ने हिम्मत करके बेमन से ओटीटी प्लेटफार्म पर अपनी फिल्में रिलीज की। लेकिन, इसका प्रतिफल अच्छा नहीं निकला। अमिताभ बच्चन की गुलाबो-सिताबो, अक्षय कुमार की लक्ष्मी, विद्या बालन की शकुंतला देवी, वरुण धवन की कुली नंबर-1, जाह्नवी कपूर की गुंजन सक्सेना, सिद्धार्थ मल्होत्रा की शेरशाह जैसी बड़ी और छोटी फिल्में दर्शकों के सामने आई, जरूर पर बड़े परदे की तरह प्रभावित नहीं कर सकी। इनमें से चंद फिल्मों को दर्शकों का अच्छा प्रतिसाद मिला। लेकिन, अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार की 'गुलाबो-सिताबो' और अक्षय कुमार की 'लक्ष्मी' ने तो पानी तक नहीं मांगा। अक्षय कुमार की 'बेल बॉटम' भी पसंद जरूर की गई, पर कोई कमाल नहीं कर सकी। अजय देवगन की 'भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया' को भी ओटीटी के दर्शकों ने नकार दिया। सुशांत सिंह की अंतिम फिल्म 'दिल बेचारा' जरूर ओटीटी पर पसंद की गई, पर इसका कारण एक कलाकार की आखिरी फिल्म को देखकर श्रद्धांजलि देना भर था। 
     धीरे-धीरे हवा बदली, कोरोना का प्रकोप कम हुआ, जीवन सामान्य हुआ और लोग घरों से निकले, कामकाज शुरू हुआ और इसके साथ ही सिनेमाघरों में भी रौनक बढ़ने लगी। जहाँ सिर्फ आधी सीटों पर ही दर्शकों को बैठने की अनुमति थी, वहां कुछ राज्यों को छोड़कर दिवाली से सिनेमाघरों की सभी सीटों के लिए टिकट मिलने लगे। अक्षय कुमार की सूर्यवंशी, रजनीकांत की 'अन्नाथे' और हॉलीवुड फिल्म 'इटरनल्स' रिलीज हुई और चल पड़ी। ये स्थिति 19 महीने बाद आई। फ़िल्मी दुनिया को जिस दीवाली का इंतजार था, वह समय आ गया। इन तीन फिल्मों ने जो कारोबार किया, वह निर्माताओं की उम्मीद से बहुत ज्यादा अच्छा रहा। अच्छी कमाई होने से मायूस बॉक्स ऑफिस भी खिलखिलाने लगा। 'सूर्यवंशी' के निर्माता रोहित शेट्टी ने फिल्म की रिलीज के लिए करीब डेढ़ साल तक इंतजार किया। पहले यह फिल्म मार्च 2020 में रिलीज होने वाली थी। लेकिन, महामारी के कारण सिनेमाघर बंद होने से यह रिलीज नहीं हो सकी थी। अब बदले माहौल से शाहरुख खान की नई फिल्म 'पठान' और आमिर खान की 'लाल सिंह चड्ढा' और रणवीर सिंह की '83' को भी उम्मीद बंधी है कि दर्शक उन्हें देखने सिनेमाघर तक आएंगे। 
   दक्षिण के सितारे रजनीकांत की फिल्म 'अन्नाथे' के लिए एडवांस बुकिंग होना, वास्तव में अप्रत्याशित घटना ही मानी जाएगी। रिलीज हुई तीसरी फिल्म है 'इटरनल्स' जिसने अच्छा कारोबार किया। 'अन्नाथे' ने तो पहले सप्ताहांत करीब 73 करोड़ का कारोबार किया। इन तीनों फिल्मों ने महाराष्ट्र में भी अच्छा कारोबार किया। जबकि, वहां सिनेमाघरों को 50 प्रतिशत क्षमता के साथ शुरू किया गया है। फिल्मों का करीब 30% कारोबार मुंबई में होता है। बॉक्स ऑफिस पर इन फिल्मों की कमाई से साबित होता है कि आगे आने वाली फिल्मों के लिए रास्ता खुल गया है। फिल्म कारोबार के जानकारों का मानना है कि पिछले कोरोना कल के डेढ़ सालों में फिल्म इंडस्ट्री को 10 से 12 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। इस नुकसान की जल्दी पूर्ति होना तो संभव नहीं है, पर शुरुआत में रिलीज हुई तीन फिल्मों को दर्शकों ने जिस तरह हाथों-हाथ लिया है, उससे संभावनाओं के नए दरवाजे जरूर खुले हैं।  
   कोरोना काल के बाद पहली बार इस साल रक्षाबंधन के मौके पर दर्शकों ने सिनेमाघरों का रुख किया था। अक्षय कुमार फिल्म 'बेल बॉटम' को दर्शकों  और समीक्षकों की तरफ से अच्छी प्रतिक्रिया भी मिली थी। लेकिन, फिल्म ने जितनी कमाई की, उस हिसाब से देखा जाए तो देशभर में सिनेमा से मनोरंजन का 40% बाजार बचा था। बेल बॉटम' की पहले दिन की कमाई 2.75 करोड़ थी, दूसरे दिन भी 2.75 करोड़ रुपए का बिजनेस रहा, जबकि तीसरे दिन फिल्म ने 3.25 करोड़ रुपए का बिजनेस किया था। पहले वीकेंड में फिल्म ने 13 करोड़ से थोड़ा ज्यादा कारोबार किया। ये उस समय की बात है, जब महाराष्ट्र के सभी सिनेमाघर बंद थे। लेकिन, फिर भी संकटकाल में फिल्म को रिलीज करना वास्तव में हिम्मत का ही काम था। जबकि, अजय देवगन की 'भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया' जैसी फिल्म सिर्फ इसलिए नकार दी गई, कि उसे दर्शकों ने ओटीटी पर देखा था। इस फिल्म से जो उम्मीद गई थी, फिल्म उस कसौटी पर भी खरी नहीं उतरी। घर बैठे दर्शकों को फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहद कमजोर लगा। फिल्म को डायरेक्शन के मामले में भी ठीक नहीं पाया गया। ये प्रतिक्रिया सही है या गलत, पर देखा गया है कि कोरोना काल में ओटीटी प्लेटफॉर्म पर प्रदर्शित फिल्मों को दर्शकों की प्रतिक्रिया ने ही हिट या फ्लॉप किया।माउथ पब्लिसिटी के कारण कई अच्छी फ़िल्में भी नहीं देखी गई।   
    कोरोना की पहली लहर के कमजोर पड़ने के बाद इस साल मार्च में जब कई राज्यों में आंशिक रूप सिनेमाघर खुले, तो कुछ फिल्म निर्माताओं ने हिम्मत की। रूही, मुंबई सागा और 'संदीप और पिंकी फरार' रिलीज हुई। लेकिन, तीनों ही फ़िल्में दर्शकों को पसंद नहीं आई। लेकिन, ये हिम्मत ज्यादा दिन नहीं चली और अप्रैल में महामारी की बढ़ती विकरालता के बाद नई फिल्मों के प्रदर्शन पर फिर रोक लग गई। मुंबई में सिनेमाघरों के बंद रहने के कारण कंगना रनौत की 'थलाईवी' जैसी फिल्म धराशाई हो गई। इसका कारण यह कि ओटीटी प्लेटफार्म और सिनेमाघरों के दर्शकों में काफी अंतर है। सबसे बड़ा फर्क माहौल का पड़ता है। दर्शक जब सिनेमाघर में बैठता है, तो उसके आसपास भी दर्शक होते हैं और एक फिल्म देखने का ख़ास तरह का माहौल बनता है, जो ओटीटी पर कभी नहीं बन सकता! सिनेमाघर में दर्शक को पूरी फिल्म एक बार में देखना पड़ती है, जबकि ओटीटी पर किस्तों में फिल्म देखी जाती है, जो दर्शक को बांधकर नहीं रख पाती।  
    दिवाली पर मनोरंजन का बाजार फिर खुलने के बाद दिसंबर भी फिल्म कारोबार के लिए संभावनाओं से भरा देखा जा रहा है। सलमान खान की 'अंतिम' और जॉन अब्राहम की 'सत्यमेव जयते-2' भी नवम्बर में रिलीज होना है। 'अंतिम' में सलमान के साथ आयुष शर्मा हैं। आयुष की पहली फिल्म 'लव यात्री' नहीं चल सकी थी। बहनोई आयुष के करियर की मदद के लिए सलमान खान पारस पत्थर साबित हो सकते हैं। लेकिन, 'अंतिम' के सामने जॉन अब्राहम की फिल्म अपना असर दिखा सकती है। नवंबर में ही सैफ अली और रानी मुखर्जी की 'बंटी और बबली-2' भी परदे पर उतरेगी। इसके बाद पृथ्वीराज, शमशेरा, जयेशभाई जोरदार जैसी फ़िल्में बनकर तैयार है। कोरोना काल के बाद 'यशराज फिल्म्स' के लिए आने वाला समय भी कुछ ख़ास है। आदित्य चोपड़ा अपनी सर्वकालीन हिट फिल्म 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे' को ‘कम फॉल इन लव’ के नाम से नए कलाकारों के साथ परदे पर उतारने जा रहे हैं। लेकिन, अब सिनेमाघरों के खुलने और लगातार तीन फिल्मों के हिट होने के बाद बॉक्स ऑफिस पर अच्छे परिणामों की उम्मीद बढ़ी जरूर है। लेकिन, फिर भी ये सवाल जिंदा है कि क्या फिल्म इंडस्ट्री में सब कुछ पहले जैसा हो सकेगा, जो महामारी से पहले था। 
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जुआ दिवाली की प्रथा या नायक का शगल

हेमंत पाल

      दीपावली  की अपनी परंपरा है। घरों के बाहर रोशनी करने की, लक्ष्मी पूजन करने की, खुशियां मनाने की और उसी से जुड़ी एक प्रथा है उस रात जुआ खेलने की। जुआ खेलना सामाजिक रूप से सही नहीं माना जाता और ये एक अपराध भी है, फिर भी कुछ लोग जुआ इसलिए खेलते हैं कि इसके पीछे भी कोई पौराणिक कथा जुड़ी है। माना जाता है कि दिवाली के दिन जुआ खेलने का कारण एक आध्यात्मिक कथा है, जो शिव और पार्वती से जुड़ी है। कहा जाता है कि इस रात पूरे ब्रह्माण्ड के तारों और ग्रहों में बदलाव आता है, यह बदलाव शिव और पार्वती के बीच चल रहे पांसे के खेल का ही प्रभाव होता है। हमारा सिनेमा भी जुए के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। जिस तरह से दुनियाभर में जुआ खेला जाता है, उसी तरह फिल्मों में जुए से जुड़े दृश्य भी दिखाई देते रहे हैं। 
     जहां तक 'जुआरी' शीर्षक से जुड़ी फिल्मों की बात है, तो हमारे यहां इस शीर्षक से तो दो ही फिल्में बनी। पहली फिल्म 'जुआरी' 1968 में आई थी। सूरज प्रकाश निर्देशित इस फिल्म के नायक थे शशि कपूर। उनके साथ तनुजा, नंदा, मदनपुरी, और रहमान ने भी इस फिल्म में काम किया था। फिल्म का नायक शशि कपूर शराबी होने के साथ जुआरी भी होता है! लेकिन, वो दूसरों की खुशी और जरूरतमंदों की मदद के लिए जुआ खेलता है। लेकिन, कल्याणजी-आनंदजी के संगीत से सजी यह फिल्म औसत साबित हुई थी। 1994 में धर्मेंद्र, अरमान कोहली, शिल्पा शिरोडकर, महमूद, किरण कुमार, रजा मुराद और परेश रावल अभिनीत 'जुआरी' प्रदर्शित हुई, जिसका निर्देशन जगदीश ए शर्मा ने किया था। इस फिल्म में धर्मेन्द्र को जुआरी बताया था, पर वो बड़े अजीब मकसद के लिए जुआ खेलता है। उसकी प्रेमिका खलनायक के शिकंजे में है। खलनायक की शर्त है, कि यदि उसे प्रेमिका को छुड़ाना है, तो जुआ खेलना पड़ेगा। पर, यह फिल्म भी दर्शकों ने नकार दी।  
   देखा जाए तो फिल्म निर्माण भी एक तरह से जुआ ही है। इसमे कभी दांव लग जाता है, तो वारे-न्यारे हो जाते हैं! पर, यदि दांव उल्टा पड़ जाता है, तो सर की छत तक सलामत नहीं रहती। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब अपना सबकुछ दांव पर लगाने वाले फिर निर्माता फिल्म के रिलीज होने के बाद सड़क पर आ गए। क्योंकि, दर्शकों ने यदि फिल्म को पसंद नहीं किया, तो फिल्म निर्माण में लगे पैसों की भरपाई होना मुश्किल होता है! आज तो फिल्म बनने से पहले ही अलग-अलग बाजारों में बिक जाती है, पर पहले ऐसा नहीं था। सीधे शब्दों में कहें तो आज फिल्म की निर्माण उसके रिलीज से पहले ही निर्माता की जेब में आ जाती है। 
  प्रकाश मेहरा के लिए वैसे तो फिल्म निर्माण हमेशा फायदे का सौदा रहा! लेकिन, जब उन्होंने 'जिंदगी एक जुआ' फिल्म बनाई, तो सारे पांसे पलट गए और उनका दांव उल्टा पड़ गया। अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित, सुरेश ओबेराय, शक्ति कपूर, अनुपम खेर और अमरीश पुरी जैसे कलाकारों और बप्पी लहरी का संगीत भी इसे डूबने से नहीं बचा पाया। यदि श्वेत और श्याम फिल्मों के दौर में जुए पर आधारित फिल्मों की बात की जाए तो देव आनंद ऐसे सितारे थे, जिन्होंने उस दौर की अपनी हर दूसरी फिल्म में पत्ते फेंकते हुए, मुंह में सिगरेट लगाकर जुए को परदे पर उतारकर सफलता हासिल की। उनकी फिल्म निर्माण कंपनी की पहली फिल्म 'बाजी' की कहानी बलराज साहनी ने लिखी थी और निर्देशक गुरुदत्त थे। यह फिल्म ऐसे पत्ते बाज की कहानी थी, जिसके हाथों में जादू था। उसे अपने हाथों पर इतना भरोसा होता है कि वह किसी भी तरह से पत्ते बांटे दांव उसका ही बैठता था। तभी तो गीता बाली उससे गुहार करती है 'अपने पे भरोसा है तो एक दांव लगा ले।' यह फिल्म अपने ज़माने की सुपर हिट थी।
      इसके बाद देव आनंद ज्यादातर फिल्मों में जुआरी के किरदार में ही दिखाई दिए। जुआरी का चोंगा उतारकर लम्बे समय तक रोमांटिक भूमिकाएं निभाने के बाद 1971 में देव आनंद ने एक बार फिर अपने हाथों में ताश की गड्डी थामी। यह फिल्म 'गैम्बलर' थी, जिसमें देव आनंद के किरदार को उसकी मां बचपन में ही त्याग देती है। इस बच्चे की परवरिश एक आपराधिक व्यक्ति करता है। यह बच्चा ताश के पत्तों के खेल में माहिर हो जाता है। इस फिल्म में देव आनंद के साथ जहीदा थीं। 'गैम्बलर' में नीरज के गीत और सचिन देव बर्मन का संगीत था, जो बहुत लोकप्रिय हुआ। इसमें शत्रुघ्न सिन्हा भी एक अलग ही अंदाज में दिखाई दिए थे।
    सिनेमा के परदे के जुए ने भोली-भाली इमेज वाले राज कपूर को भी अपने आगोश में लेने से गुरेज नहीं किया। 'श्री 420' में जब काली कमाई कर फिल्म का नायक मालामाल हो जाता है, तो नादिरा उसे अपने मायाजाल में फंसाकर पत्तों की दुनिया में ले जाती है। लेकिन, फिल्म समाप्त होते-होते वह फिर से अपनी प्रेमिका नरगिस के पास लौटकर कह ही देते हैं मैने दिल तुझको दिया! याद नहीं आता कि हिन्दी सिनेमा की त्रिमूर्ति के तीसरे नायक दिलीप कुमार ने किसी फिल्म में जुआरी की भूमिका निभाई हो। लेकिन, असल जिंदगी में दिलीप कुमार पत्ते खेलने में उस्ताद माने जाते थे। जब उनके हाथों में ताश की गड्डी होती, तो वे पत्ते फेंटकर बांटते हुए यह जान जाते थे, कि किस व्यक्ति के पास कौनसे पत्ते हैं। इस सदी के महानायक का तमगा लगाए बैठे अमिताभ ने भी परदे पर जुए को अपनाया। 1979 में शक्ति सामंत के निर्देशन में बनी फिल्म 'द ग्रेट गैम्बलर' में अमिताभ एक ऐसे बड़े जुआरी की भूमिका में थे, जिसने कभी कोई खेल नहीं हारा था। 'ग्रेट गैम्बलर' एक्शन थ्रिलर थी जिसमें अमिताभ दोहरी भूमिका में थे। एक अमिताभ गैम्बलर होता है, जिसकी बांहों में जीनत अमान थी तो दूसरा पुलिसवाला जिसकी बांहों में नीतू सिंह। यह फिल्म अपनी विदेशी लोकेशंस और गीतों के कारण खासी चर्चित हुई थी। 
      बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड में भी आपराधिक पृष्ठभूमि वाली फिल्मों में भी जुए के दृश्य आम होते है। जेम्स बांड की फिल्मों में इस तरह के दृश्य दर्शकों ने हमेशा ही देखे होंगे। 'कसीनो रॉयल' ऐसी ही फिल्म थी। वहां कैसिनो नाम से दो बार फिल्में चुकी है। 1995 में आई मार्टिन स्कोर्सिसी की फिल्म 'कसीनो' में रॉबर्ट डे नीरो और शेरोन स्टोन मुख्य भूमिकाओं में थे। इसकी कहानी सैम नाम के एक आदमी की है, जो लास वेगास जाकर एक कैसीनो चलाता है, पर बाद में अंडरवर्ल्ड का हिस्सा बन जाता है। 1999 में आई फिल्म 'क्रूपर' एक लेखक की कहानी थी, जो पैसे कमाने के लिए एक कसीनो में क्रूपर (यानी जुए) के खेल में सहयोगी का काम करने लगता है। लेकिन, यह काम उसकी पूरी जिंदगी को इस कदर अपने कब्जे में ले लेता है कि वह लेखक से अपराधी बन जाता है। माइक हॉज के निर्देशन में बनी इस फिल्म में क्लाइव ओवेन, केट हार्डी और एलेक्स किंग्स्टन मुख्य भूमिकाओं में थे। 
   2014 में आई 'द गैम्बलर' एक अमेरिकी क्राइम ड्रामा फिल्म थी। इसके निर्देशक रुपर्ट वायट थे, जो एक प्रोफेसर होते हैं, जिसको जुआ खेलने की बहुत लत होती है। मार्क वॉलबर्ग इस फिल्म में मुख्य भूमिका में थे। 'हाई रोलर' एक बायोपिक फिल्म थी, जो अमेरिका के प्रोफेशनल पोकर खिलाड़ी स्टू उंगार के जीवन पर बनी थी। 2003 में रिलीज हुई इस फिल्म की कहानी एक फ्लैशबैक में चलती है। एक बुकी का बेटा जो कई तरह के ड्रग्स की लत से निकलकर एक बड़ा पोकर खिलाड़ी बन जाता है। लेकिन, हिंदी फिल्मों में जुआरी ऐसा विषय नहीं रहा, जो हमेशा बिकाऊ रहा हो! 70 और 80 के दशक की फिल्मों में अकसर ऐसे दृश्य जरूर दिखाई दिए, जब नायक किसी मज़बूरी में जुआखाना जाता है। पर, पूरी फिल्म का कथानक जुआरी पर टिका हो, ऐसा बहुत कम हुआ है।        
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