Friday, April 27, 2018

कुछ तो कहता है ये रुककर आया फैसला!



- हेमंत पाल 

   जब दौड़ में दो लोग प्रतिद्वंदी हों, तो किसी एक का जीतना तय होता है। लेकिन, जब दूसरा प्रतिद्वंदी भी नहीं हारे, तो मान लिया जाना चाहिए कि फैसला करने वाले दोनों को ही साधकर रखना चाहते हैं। काँग्रेस ने कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की घोषणा के साथ चार कार्यकारी अध्यक्ष और ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाकर यही संदेश दिया है। भाजपा ने जबलपुर के सांसद राकेश सिंह को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो कांग्रेस ने भी उसी महाकौशल से अध्यक्ष पद के लिए हीरा तलाश लिया। इसे संयोग माना जाना चाहिए कि पहले दोनों पार्टियों के प्रदेश अध्यक्ष निमाड़ के थे और अब दोनों महाकौशल के! कमलनाथ के पक्ष में सबसे अहम्को बात ये है कि उन्हें गाँधी परिवार के नजदीक माना जाता है। 70 के दशक में संजय गांधी ने उन्हें कांग्रेस में शामिल किया था। तब से लेकर आज तक वे कांग्रेस और गाँधी परिवार के वफादार रहे हैं। आपातकाल के समय उन्हें लेकर 'इंदिरा के दो हाथ, संजय गांधी और कमलनाथ' का नारा दिया गया था। 
    कमलनाथ को प्रदेश की कमान सौंपे जाने कयास काफी पहले से लगाए जाने लगे थे। लेकिन, ये फैसला हमेशा रुकता और टलता रहा! ऐसा क्यों हुआ, इस बारे में अनुमान ही लगाए जा सकते हैं। ये भी कहा गया कि प्रदेश अध्यक्ष को लेकर जो भी फैसला होगा, वो पार्टी हाईकमान पूर्व मुख्यमंत्री और राजनीति के चाणक्य दिग्विजय सिंह की 'नर्मदा परिक्रमा' पूरी होने के बाद ही लेगा। वास्तव में ऐसा हो या नहीं, पर फैसला दिग्विजय सिंह की आध्यात्मिक यात्रा से वापसी के बाद ही कमलनाथ को कुर्सी दी गई! इसके पीछे दिग्विजय सिंह की जो रणनीति है उसके अपने आशय हैं। लेकिन, अभी भी ये फैसला रुका हुआ है कि कांग्रेस किसे मुख्यमंत्री का चेहरा रखकर चुनाव लड़ेगी?   
   ये अनुमान भी लगाया जा सकता है कि दिग्विजय सिंह और सिंधिया की राजनीतिक अदावत ने भी राहुल को कमलनाथ के हक़ में आखिरकार फैसला करने को मजबूर किया होगा। नर्मदा यात्रा से पहले भी दिग्विजय सिंह ने स्पष्ट कर दिया था, कि कांग्रेस के लिए किसी को चेहरा बनाकर चुनाव लड़ने की जरूरत नहीं है। सभी मिलकर चुनाव लड़ें और जीतने के बाद पार्टी जिसे चाहे मुख्यमंत्री बनाए! बताते हैं कि जब राहुल गाँधी ने पूछा कि पहले किसी को चुनना हो तो राय दीजिए! इस पर दिग्विजय सिंह का जवाब था कि सिंधिया के पास राजनीति के लिए बहुत वक़्त है! लेकिन, कमलनाथ के पास ये आख़िरी मौका होगा। इसलिए यदि कमलनाथ के पक्ष में पार्टी कोई फैसला करती है तो तो मेरा पूरा समर्थन रहेगा। इसलिए ये नहीं कहा जा सकता कि इस फैसले में भी तुरुप का इक्का नहीं चला गया! हाल ही में कमलनाथ ने भी कहा था कि हम सब मिलकर चुनाव लड़ेंगे और संगठन की मजबूती को लेकर काम करेंगे। आगे चलकर यदि मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने की जरूरत पड़ेगी तो चेहरा भी घोषित कर दिया जाएगा। उन्होंने ये संकेत भी दिया था कि प्रदेश में कांग्रेस को एक नहीं कई चेहरों की जरूरत है।
  देखा जाए तो अब कांग्रेस ने अपनी चुनावी सेना सजा ली है। नए सेनापति के साथ उनके जोड़ीदारों को भी खोज लिया गया। अध्यक्ष के साथ चार कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति का मतलब ये लगाया जा सकता है कि हाईकमान किसी को असंतुष्ट करने के मूड में नहीं लगता! हर इलाके से एक एक मुखिया खोज लिया गया। बाला बच्चन, रामनिवास रावत, जीतू पटवारी और सुरेंद्र चौधरी कार्यकारी अध्यक्ष होंगे। इसी साल के अंत में मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं, इसलिए मध्यप्रदेश में असल राजनीति अब दिखाई देगी। कार्यकारी अध्यक्षों की भूमिका क्या होगी, इस बारे कोई खुलासा नहीं किया गया। शायद होगा भी नहीं, क्योंकि ये सभी विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार भी होंगे और खुद जीतने में ज्यादा ध्यान देंगे। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे और दिग्विजय सिंह की रूचि अब चुनावी राजनीति में है नहीं!  
   अब कांग्रेस के सामने सारा दारोमदार जीतने वाले उम्मीदवारों के चयन का है। पार्टी यदि 'इसका आदमी, उसका आदमी' से ज्यादा जीतने वाले उम्मीदवार पर दांव लगाए तो नतीजा अपने पक्ष में किया जा सकता है। क्योंकि, इस बार के चुनाव में न तो कोई आँधी है न तूफ़ान! सारी हवा भी ठंडी पड़ चुकी है और सजे हुए शामियाने भी उखड़ गए। बरसों बाद ये ऐसा विधानसभा चुनाव होगा जिसमें वोटर को अपनी मनःस्थिति से वोट डालने का मौका मिलेगा! भाजपा सरकार के 15 साल के कार्यकाल की खूबियाँ और खामियां सामने हैं। शिवराजसिंह चौहान ने छवि से प्रदेश के लोगों से खास रिश्ता जोड़ा है। लेकिन, व्यापम, किसानों के मुद्दे और नर्मदा सहित कई मुद्दे पर सरकार को बैकफुट पर आना पड़ेगा! ऐसे में प्रदेश में ऐंटीइनकम्बेंसी से भी इंकार नहीं किया जा सकता। कमलनाथ के हाथ में कमान आने के बाद कांग्रेस भी जीत के लिए हर संभव कोशिश करेगी, पर अभी ये सारे कयास ही हैं कि कौन वोटर्स का दिल जीतेगा?
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Tuesday, April 24, 2018

नर्मदा मध्यप्रदेश की, पर पानी पर दावा गुजरात का ज्यादा!


- हेमंत पाल

  हर बार विधानसभा चुनाव से पहले विपक्ष मुद्दों की तलाश करता है! लेकिन, इस बार शिवराज-सरकार के कामकाज से ज्यादा बड़ा चुनावी मुद्दा बनेगी 'नर्मदा नदी।' इस नदी से जुड़े कई मुद्दे विधानसभा चुनाव में सरकार को घेरेंगे। 'नर्मदा परिक्रमा' से फुरसत हुए कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह तो ख़म ठोंककर नर्मदा संरक्षण पर शिवराज-सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए तैयार हैं। उन्होंने इसका इशारा भी कर दिया! नर्मदा की रेत के अवैध उत्खनन, नर्मदा के किनारों पर पौधरोपण के अलावा नर्मदा के पानी पर गुजरात की हिस्सेदारी के भी इस बार राजनीतिक मुद्दा बनने के आसार प्रबल हैं। क्योंकि, नर्मदा पर बने सरदार सरोवर बांध पर गुजरात बहुत ज्यादा निर्भर है। इस साल वहाँ हालात बदतर हैं। बांध में पानी इतना घट गया कि सूखे के हालात बन गए। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ेगी, गुजरात में जलसंकट का खतरा भी बढ़ेगा। गुजरात में नर्मदा का पानी घटने का संकेत यह है कि गुजरात सरकार ने उद्योगों को दो महीने पहले ही पानी देना बंद कर दिया। स्थानीय निकायों से भी पीने के पानी की व्यवस्था करने के लिए कहा गया है। गुजरात के किसानों को भी इस बार गर्मियों में बोवनी न करने की सलाह दी गई! नर्मदा के पानी पर आश्रित गुजरात के शहरों और गांवों को भी स्थानीय स्रोतों तलाशने के लिए कहा गया है। पिछले साल मध्यप्रदेश में कम बरसात होने से गुजरात को सरदार सरोवर बांध से केवल 45 फीसदी पानी ही मिला! जबकि, मध्यप्रदेश सरकार पर ज्यादा पानी छोड़ने के लिए दबाव बढ़ रहा है! ये दबाव केंद्र से भी है, क्योंकि वहाँ मोदी की सरकार है और संभवतः राज्यपाल से भी जो गुजरात की मुख्यमंत्री रही हैं। 
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  नर्मदा नदी के पानी के बँटवारे को लेकर मध्यप्रदेश और गुजरात आमने-सामने आ रहे हैं। गुजरात ने सूखाग्रस्त इलाके के लिए अधिक पानी के लिए केंद्र से गुहार लगाई। लेकिन, दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार है, इसलिए इसपर खुला बवाल तो नहीं मचेगा! पर, ये तय है कि नरेंद्र मोदी का गृह राज्य होने से मध्यप्रदेश पर केंद्र का दबाव बढ़ सकता है। राज्यपाल आनंदीबेन पटेल भी गुजरात से आई हैं, इसलिए उनका झुकाओ भी अपने राज्य की ही तरह होगा। ऐसी स्थिति में जो दबाव बनेगा, उससे मध्यप्रदेश सरकार को झुकना पड़ सकता है। फिलहाल तो मध्यप्रदेश ने नर्मदा का निर्धारित मात्रा से ज्यादा पानी छोड़ने से साफ़ इनकार कर दिया। जबकि, गुजरात के भरूच इलाके में नर्मदा के सूखने से गुजरात सरकार ज्यादा परेशान है। इधर, मध्यप्रदेश के निमाड़ समेत कई इलाके के हालात भी सूखे जैसे ही हैं। इसलिए नर्मदा के पानी की जरुरत गुजरात से ज्यादा मध्यप्रदेश को हैं, जहाँ नर्मदा बहती है। गुजरात सरकार ने बीते दिसंबर में केंद्र के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को लिखा था कि मध्यप्रदेश को ज्यादा पानी छोड़ने के निर्देश दिए जाएँ! मार्च में भी गुजरात ने फिर इसी मामले में केंद्र को पत्र लिखा। गुजरात सरकार ने केंद्र से ये भी कहा कि 'नर्मदा कंट्रोल अथॉरिटी' (एनसीए) से अधिक पानी छोड़ने को कहा जाए। मध्यप्रदेश ने जून-जुलाई के दौरान 5500 एमसीएम पानी गुजरात को देने का वादा किया था। जनवरी तक मध्यप्रदेश ने 5000 एमसीएम पानी की भरपाई कर दी! लेकिन, गुजरात ने 800 एमसीएम पानी की मांग शुरू कर दी। जबकि, निमाड़ समेत मध्यप्रदेश का बड़ा हिस्सा इस समय जलसंकट से प्रभावित है। विधानसभा चुनाव को देखते हुए मध्यप्रदेश सरकार ने ज्यादा पानी की मांग को फिलहाल तो नकार दिया।  
  मध्यप्रदेश में पिछले साल अपर्याप्त मानसून से इंदिरा सागर जलाशय में पानी की मात्रा पर भी प्रभाव पड़ा है। लेकिन, नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के मुताबिक दोनों राज्यों के बीच विवाद जैसी कोई स्थिति नहीं है। इंदिरा सागर से फिलहाल रोज लगभग 14 एमसीएम पानी प्रदेश की विद्युत आवश्यकता और प्रदेश की सीमा में पेयजल, सिंचाई, निस्तार और पर्यावरणीय आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए छोड़ा जा रहा है। गुजरात की जरूरतों की पूर्ति के लिए  गुजरात को सरदार सरोवर जलाशय में संग्रहित पानी का उपयोग करने की अनुमति नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की बैठक में दी जा चुकी है। इस नजरिए से तो दोनों राज्यों में नर्मदा के पानी को लेकर किसी भी प्रकार के मतभेद नहीं है। ले तो सरकारी पक्ष है। वास्तविकता में नर्मदा के पानी को लेकर दोनों राज्यों में काफी खींचतान है। आश्वासन तो यहाँ तक दिया गया कि इंदिरा सागर से रोज छोड़े जा रहे पानी में से करीब 70% का उपयोग मध्यप्रदेश की सीमा में ही हो रहा है। 
   मध्यप्रदेश में भले ही नर्मदा नदी को जीवनदायनी माना और कहा जाता हो, लेकिन गुजरात में ये भावना कहीं ज्यादा प्रबल है। वहाँ नर्मदा को लेकर राजनीतिक सामंजस्य मिसाल देने वाला प्रसंग है। गुजरात में इस मुद्दे पर कोई राजनीति नहीं होती! जब भी नर्मदा के पानी का कोई मसला आता है, सभी पार्टियाँ एकजुट हो जाती है। इससे अलग मध्यप्रदेश में कांग्रेस के तीन सांसद को तो छोड़िए, भाजपा के सारे सांसद भी नर्मदा से जुड़े मुद्दे पर एक नहीं हो पाते! मध्यप्रदेश सरकार ने नर्मदा नदी को लेकर पाखंड तो जमकर किया, पर पानी को लेकर सरकार की बेरुखी किसी से छुपी नहीं है। इसी का परिणाम था कि  मध्यप्रदेश के हिस्से का पानी भी गुजरात बह गया। गुजरात को दिए जाने वाले पानी पर नियंत्रण रखा जाए, इसके लिए मध्यप्रदेश ने 'नर्मदा बेसिन प्रोजेक्ट' कंपनी भी बनाई, पर इससे भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ। 
   ऐसे माहौल में दिग्विजय सिंह की नर्मदा को चुनावी मुद्दा बनाने की रणनीति कामयाब होती दिख रही है। क्योंकि, राजनीति के फेर में नर्मदा नदी ऐसी फंसी है कि गुजरात के साथ मध्यप्रदेश में भी नदी का पानी सूखने लगा है। गर्मी आने से पहले ही कई इलाकों में नदी से सूखी जमीन की कूबड़ निकल आई है। उधर, गुजरात में भी नर्मदा पर बना बाँध सरदार सरोवर भी बहुत ज्यादा खाली हो गया! बताया गया कि मुख्य जलाशय में जलस्तर महज 111 मीटर के आसपास है। जबकि, इसका न्यूनतम जलस्तर 110.7 मीटर होना चाहिए। जानकारी के मुताबिक विधानसभा चुनाव के समय गुजरात में बांध से 12 मीटर अनावश्यक पानी बहा दिया गया! यही वजह है कि सरदार सरोवर बांध खाली हो गया। जब पिछला मानसून लौटा था, तब यहां बांध का जलस्तर 130.74 मीटर था। दिसंबर तक जलस्तर 124 मीटर रह गया। ये जानते हुए भी गुजरात सरकार ने विधानसभा चुनाव के समय महज दो महीने में 12 मीटर पानी छोड़ दिया। आशय यह कि बांध में उपयोग के लिए अब मात्र एक मीटर पानी ही बचा है। अब गुजरात के मुख्यमंत्री किसानों से अपील कर रहे हैं कि इस बार फसल न लें। क्योंकि, बाँध से पानी दिया जाना संभव नहीं है।   
  मध्यप्रदेश सरकार इस बात को स्वीकार करे या नहीं, पर गुजरात से मध्यप्रदेश पर इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बांध से पानी छोड़ने का दबाव तो बनने लगा है। लेकिन, कई जगह नर्मदा सूखने लगी, इसलिए मध्यप्रदेश के लिए आने वाले दिन मुश्किल भरे हैं। जबकि, बारिश के मौसम को अभी दो महीने से ज्यादा का वक़्त है। पुनासा उद्वहन सिंचाई योजना से किसानों को 5 बार पानी दिया जाता था, इस बार तीन बार से ज्यादा पानी नहीं दिया सकेगा, इसके आसार नहीं हैं। इंदिरा सागर बांध का जलस्तर भी 250 मीटर के आसपास है, जबकि इसका न्यूनतम स्तर 247 मीटर निर्धारित है। अब उपयोग के लिए बमुश्किल तीन मीटर पानी बाकी है। पहली बार है कि बांध में पानी का स्तर इतना घट गया। पानी कम होने से मछली उत्पादन भी घटकर आधा हो गया। 
  ये नर्मदा के साथ की गई छेड़छाड़ का ही नतीजा है कि गुजरात के भुज में 30 किलोमीटर अंदर तक समुद्र घुस आया और वहाँ का पानी खारा हो गया। यदि अभी ये हालात हैं तो आने वाले वक़्त में हालात और ज्यादा बुरे होंगे, ये तय है। क्योंकि, नर्मदा पर अभी कई बाँध बनना बाकी है। लक्ष्य के अनुसार मध्यप्रदेश को 2014 तक नर्मदा के 18.25 एमएएफ पानी का उपयोग करना है। बचे सालों में पानी के इंतजाम के लिए 29 बांध बनाने थे। लेकिन, अभी भी 14 बाँध बनना बाकी हैं। जब ये बांध बनेंगे तो बरसों से बसे लोग ही नहीं विस्थापित होंगे, बल्कि लाखों पेड़ भी हमेशा के लिए पानी में समा जाएंगे। इस सबसे ज्यादा फायदा गुजरात को होगा, उससे कई गुना ज्यादा नुकसान मध्यप्रदेश को होगा। गुजरात के ज्यादातर गाँवों में पीने का पानी मुहैया हो जाएगा। बांध से पैदा होने वाली बिजली में से भी 16% गुजरात के हिस्से में जाएगी। स्पष्ट है कि गुजरात को फायदा होगा और मध्यप्रदेश को 877 मेगावॉट बिजली के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा। नर्मदा परियोजना में मध्यप्रदेश के सूखाग्रस्त इलाकों की भी अनदेखी की गई है। पूरी नर्मदा परियोजना अपनी जमीन से विस्थापित होने की कीमत पर खड़ी हुई है। प्रभावित होने वालों में अधिकांश छोटे किसान, आदिवासी, मछुआरे, खेतिहर मजदूर और कुम्हार हैं। इनकी सामाजिक और आर्थिक ताकत ऐसी नहीं है वे इस परियोजना का विरोध कर सकें और सरकार के खिलाफ आवाज उठाएं!  
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Sunday, April 22, 2018

सामाजिक वर्जनाएं और सेलुलॉइड


- हेमंत पाल 


  इस यक्ष प्रश्न का अभी तक सही-सही जवाब नहीं मिला कि सिनेमा देखकर समाज अपने आपको बदलता है या सिनेमा की कहानियां समाज के नजरिए से प्रभावित होती हैं। ये मुद्दा इसलिए कि भारतीय समाज में सिनेमा की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। ये सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि एक तरह से ये जीवन का हिस्सा है! इसलिए जब भी सामाजिक बदलाव का दौर आता है तो सेलुलॉइड का परदा भी उसी धारा की तरह अपना रंग बदलने लगता है। जब समाज में वर्जनाएं खंडित होना शुरू होती है, तो सिनेमा भी उनका अनुसरण करने में देर नहीं करता। ये हर दौर में होते देखा गया है। आजादी से पहले से लगाकर आज तक सिनेमा का बदलाव समाज के साथ हो होता देखा गया।  
   आजादी से पहले जब देश में स्व-अस्मिता की भावना जोर पकड़ने लगी और राष्ट्रभक्ति की चेतना अंकुरित हुई, तो सिनेमा के परदे पर भी वही रंग भरने लगे। फिल्मकारों ने अपने-अपने तरीके और मर्यादा में आजादी की भावना को विषय वस्तु बनाया। उस दौर में दबे-छुपे आजादी के भाव को उभारा गया। जब देश आजाद हो गया, तो इस संघर्ष से जुड़े सेनानियों को हीरो बनाकर परदे पर उकेरा गया। फिर आया राष्ट्र निर्माण का दौर जिसमें सामाजिक बुराइयों और बदलाव की कहानियों को जगह मिलने लगी। इसी समय में समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की भी बात उठने लगी थी। इसी समयकाल में महबूब खान ने 'औरत' और उसके बाद 'मदर इंडिया' बनाकर फिल्मों के जरिए कृषि और समाज की महाजनी अर्थव्यवस्था और उससे जुड़े अंतर्विरोधों को दर्शकों के सामने रखा। इस सच से भी समाज का सरोकार करवाया कि कृषि समाज में औरत की हैसियत क्या है? हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में भारतीय नारियों की पहचान वाली फिल्मों में वे सीता, सावित्री, तारावती, पार्वती और दुर्गा के रूप में थी। इन प्रतिरूपों पर फ़िल्में भी बनी! पर, महबूब खान ने भारतीय स्त्री के यथार्थ को परदे पर दिखाकर समाज को घुटनों पर झुकने पर मजबूर कर दिया। 
  सामाजिक बदलाव के दूसरे दौर में किसानों की समस्याओं से जुड़ी कई फिल्में बनीं। बिमल रॉय ने 'दो बीघा जमीन' बनाकर देश के संक्रमणकालीन द्वंद्वों को उजागर किया। 1953 में बनी इस फिल्म ने आजादी के बाद बदलते राजनीतिक-आर्थिक दौर को सामने रखा है और स्पष्ट किया कि भविष्य में औद्योगिकीकरण कृषि भारत से कैसी कीमत वसूलेगा! किसानों का अपनी जमीन से बेदखल होना पड़ेगा, गाँवों खाली हो जाएंगे, भूमिहीन किसानों को विस्थापन की पीड़ा भोगना पड़ेगी और भू-मालिक मजदूर बनने को मजबूर हो जाएगा। इस बात को याद रखा जाना चाहिए कि जब फिल्मकार किसानों को लेकर फ़िल्में बना रहे थे, उसी 50वें दशक में बस्तर, भिलाई, दुर्ग, छोटा नागपुर, राँची जैसी औद्योगिक सभ्यता की घुसपैठ शुरु हो गई थी। मशीम और मानव श्रम के बीच की प्रतिस्पर्धा इसी समय में तेज हुई थी। इसका फिल्मांकन बी.आर.चोपड़ा ने 'नया दौर' में किया था। राजकपूर अभिनीत 'जागते रहो' में भी गाँवों से पलायन और शहरों में गँवाई हिंदुस्तानी की हताशा दिखाई दी थी। 
  समाज के अंतर्विरोधों को केए अब्बास ने भी 'शहर और सपना' में सामने रखा था। शहर की संस्कृति कितनी संवेदनाशून्य होती है और कैसे नारकीय जीवन को जन्म देती है। इसी थीम को बाद में शहरीकरण की विद्रूपताओं के साथ श्री 42, बूट पॉलिस, जागते रहो, फिर सुबह होगी जैसी फिल्मों में भी दिखाया गया। बरसों बाद में इसी का परिष्कृत रूप त्रिशूल, अग्निपथ, सत्या, कंपनी, सरकार, हथियार जैसी फिल्मों में देखने को मिला। लेकिन, ये नेहरूयुगीन समाजवाद का नारा ज्यादा दिन जोर नहीं पकड़ सका और देश भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में पहुँच गया। इसी के साथ एक अन्य सिनेमा ने जन्म लिया जो 'कृष, रा-वन, कोई मिल गया, अवतार, 2050, माई नेम इज खान, न्यूयार्क, गजनी जैसी फंतासी फिल्मों में प्रतिबिंबित हुआ। 
   ऐसी फिल्मों से संकेत मिलते हैं कि देश में तेजी से बदलाव आ रहा है और समाज में पूरी तरह उपभोक्तावाद आ गया। भूमंडलीकृत दौर में बनी फिल्मों में उपभोक्तावाद का चरम विस्फोट, मानवीय संवेदनाओं और संबंधों का बाजारीकरण, नायक और खलनायक की भूमिका में बदलाव, बेढप शक्तियों का ग्लैमरीकरण, बढ़ती हिंसा की घटनाओं ने आक्रामकता के साथ जड़ पकड़ी हैं। आज यदि इन सारे मसालों को मिलाकर देश के राजनीतिक व आर्थिक परिदृश्य पर कोई फिल्म बनाई जाए तो वह ठीक ऐसी ही होगी। बीते दो दशकों में हुए महाघोटालों ने देश और समाज को झकझोरकर रख दिया है। अपराधिक लोग राजनीति में जगह बनाने लगे। कथित समाजसेवी अरबपतियों की गिनती में आ गए, बाबाओं का चोला पहने लोग व्यापारी बन गए। इस यथार्थ का चित्रण राजनीति, सरकार, गंगाजल, अपहरण, सत्याग्रह, नायक और पीके जैसी फिल्मों में पूरी शिद्धत के साथ दिखाई देता है।
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Tuesday, April 17, 2018

एक नर्मदा की दो ‍राजनीतिक परिक्रमाएं चुनाव में क्या गुल खिलाएंगी?


- हेमंत पाल


   मध्यप्रदेश में साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में अन्य मुद्दों के साथ जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा बवाल होने की संभावना है,वह है नर्मदा। कारण इस चिरकुंवारी नदी की बीते एक साल में प्रदेश के दो शीर्ष राजनेताअों ने प‍रिक्रमा की। पहले मुख्‍यमंत्री शिवराजन ने नर्मदा को बचाने का नारा देकर उसके फेरे लगाए तो बाद में पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजयसिंह ने पैदल पूरी यात्रा सम्पन्न की। दोनो का घोषित उद्देश्य अराजनीतिक यात्रा का था। लेकिन, नर्मदा की पतली होती धार के नीचे सियासी तानाबाना अपने आप बुनता चला गया। क्योंकि, नर्मदा केवल मप्र के पहाड़ों,जंगलों और मैदानों से ही नहीं गुजरती वह, लगभग सौ विधानसभा क्षेत्रों को भी सींचती जाती है। यही वह कोण है, जिसको सर करने के लिए आगामी चुनाव में मारामारी होना है। शिवराज की यात्रा आस्था के साथ-साथ प्रशासनिक ज्यादा थी, तो दिग्विजय की यात्रा का आवरण पूरी तरह धार्मिक और आत्म प्रक्षालन का था। कहने को दोनो ही नर्मदा को राजनीति से दूर रख रहे हैं, लेकिन चुनाव में चिरकुंवारी नर्मदा का पानी ही तय करेगा कि सत्ता के सूत्र किसके  हाथ में रहेंगे। ऐसे में दिग्विजय की तुलनात्मक रूप से खामोशी के साथ सम्पन्न हुई नर्मदा यात्रा क्या गुल खिलाएगी, कहना मुश्किल है।  
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   प्रदेश की राजनीति में पिछले कुछ सालों से अराजनीतिक मुद्दों को कुछ ज्यादा तरजीह मिल रही है। ऐसा ही एक मुद्दा 'नर्मदा नदी' भी है, जो अब पूरी तरह गरमा गया। इस नदी के प्रति लोगों की आस्था का अपना एक अलग ही इतिहास है। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक यही एक नदी है जिसकी परिक्रमा करने की पुरातन परंपरा रही है। श्रद्धालुओं के लिए नर्मदा जीवनदायनी नदी है। इस नदी की परिक्रमा करके भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह दोनों ने अपना राजनीतिक भविष्य संवारने की कोशिश की। शिवराज सिंह की 'नमामि देवी नर्मदे सेवा यात्रा' के बाद दिग्विजय सिंह भी 'नर्मदा परिक्रमा' पर निकले। लेकिन, दोनों की यात्राओं में कई अंतर रहे! मुख्यमंत्री को जहां सत्ता व संगठन का समर्थन मिला, वहीं दिग्विजय सिंह की यात्रा से कांग्रेस ने कोई वास्ता नहीं रखा। कई बड़े नेताओं ने तो दिग्विजय सिंह की इस परिक्रमा के बारे में पार्टी हाईकमान के सामने विरोध तक दर्ज कराया था। कहा गया कि यह यात्रा पार्टी को नुकसान पहुंचाएगी। क्योंकि, भाजपा को 1993 से 2003 के दिग्विजय सिंह के कार्यकाल की याद दिलाने का मौका मिलेगा। लेकिन, धीरे-धीरे सबकुछ सामान्य होता गया और उनके राजनीतिक विरोधी भी उनके साथ यात्रा में शामिल होते गए!
   मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की 'नर्मदा सेवा यात्रा' करीब छह महीने चली! इस यात्रा का मकसद नर्मदा नदी को प्रदूषण मुक्त और प्रवाहमान बनाए रखने के लिए की गई। लेकिन, वे परंपरा के विपरीत इस यात्रा में सतत शामिल नहीं रहे! वे बीच-बीच में यात्रा में शामिल हो जाया करते थे। उनकी यात्रा में राजनीति भी थी और फ़िल्मी कलाकारों का ग्लैमर भी! यात्रा का आरंभ और समापन दोनों ही भव्य थे। केंद्र सरकार के कई मंत्री, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदाधिकारी से लगाकर कई धर्मगुरुओं ने इसमें हिस्सेदारी की! मुख्यमंत्री की यात्रा के बाद इस पर हुए खर्च पर भी उँगलियाँ उठी! उधर, दिग्विजय सिंह ने अपनी पत्नी अमृता सिंह, कांग्रेस नेता रामेश्वर नीखरा, पूर्व सांसद अमलाहा और कुछ समर्थकों के साथ दशहरे के दिन 'नर्मदा परिक्रमा' की शुरुआत की। वे अपने धार्मिक गुरु शंकराचार्य स्वरुपानंद सरस्वती से आशीर्वाद लेकर परिक्रमा पर निकले। उनकी यात्रा का सबसे सशक्त पक्ष ये रहा कि उन्होंने अपने वादे के मुताबिक कहीं कोई राजनीतिक टिप्पणी नहीं की और न ऐसे किसी सवाल का जवाब ही दिया! उनकी यात्रा में पार्टी का झंडा भी नहीं रहा! जबकि, शिवराज सिंह की पूरी नर्मदा परिक्रमा में भाजपा का झंडा लहराता रहा। यात्रा के दौरान कई लोग शामिल हुए। कई भाजपा नेताओं ने भी उनका स्वागत सत्कार किया।
   प्रदेश की सौ से ज्यादा विधानसभा सीटें नर्मदा नदी के किनारों को छूती हैं। इस इलाके के लोगों की समस्याओं को जिस तरह दिग्विजय सिंह ने समझा और लोगों ने उन्हें जिस तरह सम्मान दिया वो भाजपा को परेशान करने वाला मसला है। पिछले कुछ सालों से नर्मदा संरक्षण बुरी तरह प्रभावित हुआ जिससे किनारे बसे लोग नाराज हैं। अपनी यात्रा से दिग्विजय सिंह ने नर्मदा के किनारे बसे लोगों की इसी पीड़ा को समझा, नर्मदा की घटती धारा को देखा, नदी से अवैध तरीके से रेत निकालने वाले माफिया के किस्से सुने, नदी किनारे पौधरोपण में होने वाले भ्रष्टाचार को नजदीक से देखा है। यदि ये बातें सुनी-सुनाई होती तो शायद उनपर भरोसा नहीं किया जाता! पर, दिग्विजय सिंह ने ये सब छह महीने तक रात-दिन महसूस किया है। उनकी कई रातें इन्ही लोगों के बीच गुजरी है। उन्होंने खुद ने कोई राजनीतिक वार्तालाप भले न किया हो, पर उनके कान खुले थे! उनके साथी परिक्रमावासी शायद ये सब दर्ज भी कर रहे होंगे। उनकी पत्नी मीडिया में रही है, इसलिए उन्होंने भी सरकार की खामियों और चुनाव में बनने वाले मुद्दों को समझा ही होगा! अब ये सब चुनाव में भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल होना तय है! दिग्विजय सिंह की 'नर्मदा परिक्रमा' के असल निहितार्थ तो अब सामने आएंगे। दिग्विजय सिंह ने यात्रा की समाप्ति के बाद स्पष्ट भी कर दिया कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे, पर पूरे मध्यप्रदेश में घूम-घूमकर भाजपा की पोल खोलेंगे। निश्चित रूप से वे जो पोल खोलेंगे वो नर्मदा से जुड़े मुद्दे ही होंगे। वे नर्मदा नदी में बड़े पैमाने पर होने वाले अवैध रेत खनन के सबूत भी वे सामने लाएंगे। इस सबसे पार्टी में उनका कद तो बढ़ेगा, अपनी प्रतिद्वंदी पार्टी को भी वे झुकाने में कामयाब होंगे।
   दिग्विजय सिंह दस साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद अपनी इच्छा से सक्रिय राजनीति से दूर रहे! जब वे फिर सक्रिय हुए, तो राजनीति के गलियारों में उनकी धमक को भी महसूस किया गया। अल्पसंख्यकों को लेकर उनके कई बयान विवाद भी बने, फिर भी कांग्रेस में उनके कद को कोई कम नहीं कर सका। कई बार उनके बयान पार्टी की फजीहत का कारण भी बने, बावजूद इसके कांग्रेस में उनका वजन बना रहा। मुस्लिमों के पक्ष में आवाज बुलंद करने वाले दिग्विजय सिंह के बारे में बहुत कम लोगों को पता होगा कि वे बेहद कर्मकांडी हैं और हिंदू परम्पराओं का कड़ाई से पालन करते हैं। स्वरूपानंद स्वामी के शिष्यों में एक दिग्विजय सिंह स्नान, ध्यान व पूजा पाठ करने  अपने दिन की शुरुआत करते है।
  इस यात्रा से उन्होंने कांग्रेस के उस सॉफ्ट हिंदुत्व की दिशा भी निर्धारित कर दी, जिसकी पार्टी को जरुरत है। गुजरात में कांग्रेस उस सॉफ्ट-हिंदुत्व का चमत्कार देख भी चुकी है। शिवराज सिंह ने भी गुजरात में कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्व को महसूस किया है। इसलिए वे ऐसा कोई जोख़िम नहीं उठाना चाहते थे, कि दिग्विजय की सनातनी छवि चुनावों में उनकी छवि पर हावी हो जाए! इसलिए उन्होंने अपनी 'नर्मदा परिक्रमा' के बाद 'एकात्म यात्रा' की रूपरेखा तैयार की। लेकिन, आदिगुरु शंकराचार्य की प्रतिमा स्थापना और उनके अद्वैत दर्शन को लोगों तक पहुंचाने की कवायद में चारों पीठ में से किसी भी पीठ के शंकराचार्य सम्मिलित नहीं हुए। जिससे इस यात्रा पर सवाल खड़े हुए। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने तो यहाँ तक कहा कि आदि शंकराचार्य के नाम पर हो रही यात्रा के बारे में सरकार को चारों शंकराचार्यों से मशविरा करना था। यही वजह थी कि यात्रा में कई ऐसे तथ्य आदि शंकराचार्य से जोड़कर पेश किए गए, जिनका सच से कोई वास्ता नहीं था। शंकराचार्य के सिद्धांतों या जनता से यात्रा का कोई सरोकार नहीं था।
    कांग्रेस की राजनीति के गलियारों में अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले दिग्विजय सिंह के बारे में कहा जाता है कि वे कभी हाशिए पर नहीं होते! राजनीति के इस धुरंधर खिलाड़ी की इस यात्रा से मध्य प्रदेश की राजनीतिक की दशा व दिशा में बड़ा भूचाल आना तय माना जा रहा है। उन्हें राजनीति का चाणक्य भी कहा जाता है। इतिहास इस बात का गवाह है कि उन्होंने कई बार हारी हुई बाजी को भी पलट दिया। प्रदेश में दिग्विजय सिंह को ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, सुरेश पचौरी या अन्य क्षेत्रीय नेता भी नजरअंदाज करने का साहस कर सकते। उन्होंने नर्मदा परिक्रमा को आध्यात्मिक और धार्मिक अवश्य घोषित किया था परंतु उनका राजनीतिक चोला उनसे विलग नहीं हुआ! परिवार के वे सदस्य जो सक्रिय राजनीति में है, उनके साथ चले। जब उनकी यात्रा खत्म हुई, तब विधानसभा चुनाव के छह माह बचे हैं। दिग्विजय इस यात्रा के जरिए प्रदेश की राजनीति की नब्ज समझ चुके होंगे और अब वे अपना दांव खेलेंगे।
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Sunday, April 15, 2018

अवसाद ने हमेशा सितारों को बरबाद किया!


- हेमंत पाल

    इन दिनों स्टैंडअप कामेडी के लिए मशहूूर कपिल शर्मा अवसाद के घेरे में हैं। उन्होंने अपने आपको कमरे में बंद करके दुनिया से नाता तोड़ लिया है। यहाँ तक कि अपना मोबाइल भी स्विचआॅफ कर दिया। सफलता के उन्माद के बाद उनका अवसादग्रस्त होना अपने आपमें विलक्षण घटना है। वर्ना अब तक यही सुना था कि अवसाद के बीज असफलता की खोल में बंद होते हैं। अवसाद का कारण चाहे जो भी हो, उसने जब जब फिल्मी सितारों को अपनी जद में लिया, अच्छे-अच्छे सितारे बरबादी के शिकार हुए हैं। कपिल शर्मा इसका सबसे ताजा उदाहरण है।
  फिल्मी सितारों और अवसाद का रिश्ता काफी पुराना है। सफल और असफल सभी तरह के सितारे अवसाद से ग्रस्त होकर बरबादी की और मुखातिब हुए हैं। सफलता के सातवें आसमान पर चढ़कर जाबए सितारे अपने इर्द-गिर्द एक आभासी आभामंडल निर्मित कर लेते हैं और उन्हें लगने लगता है कि वे ही सिनेमा के सूरज हैं, ऐसे में यदि उनके सूरज की चमक मंद पड़ने लगे तो वे अवसाद का शिकार हो जाते हैं। अवसाद ग्रस्त ये सितारे कभी खुद को शराब में डूबोकर बरबादी की राह पर चल पडते हैं या फिर किसी और व्यसन के प्रभाव में आ जाते हैं।  
  गुजरे जमाने के सबसे सफल गायक और अभिनेता के.एल. सहगल के साथ भी यही हुआ था। एक असफलता ने उन्हें इतना तोड़ दिया था कि उन्होंने अपने आपको नशे के सागर में डूबो लिया। धीरे-धीरे उनके कैरियर पर ही ग्रहण लग गया। लता मंगेशकर से संबंध बिगड़ने पर संगीत सम्राट सी. रामचन्द्र का भी यही हश्र हुआ था। उनके साथी कलाकार भगवान दादा को भी असफलता के अवसाद ने इस तरह जकड़ा था कि उन्हें अपने अंतिम दिन झोपड़पट्टी में रहकर एक्स्ट्रा की छोटी भूमिका करके गुजारने पड़े थे। उन्हीं की तरह सफलता के नशे में गाफिल मेहमूद खुद नशे के शिकार हो गए। एक समय तो ऐसा आया था कि उन पर नशे की सौ-सौ गोलियां असर नहीं करती थी। अवसाद ने जब उन्हें असफलता की राह दिखाई तो वह मुंबई की गलियां छोडकर बेंगलुरू चले गए । कई बरस बाद जब लौटे तो लोग उन्हें भूल चुके थे। 
   फिल्मी सितारों के अवसाद के अपने-अपने कारण हैं। दिलीप कुमार और मीना कुमारी को हिन्दी सिनेमा का ट्रेजेडी किंग और ट्रेजेडी क्वीन कहा जाता था। सेल्यूलाइड पर गंभीर भूमिकाओं में रंग भरते-भरते वे भी अवसाद के शिकार हो गए थे। दिलीप कुमार को इससे उबरने में डॉक्टरों ने हल्की-फुल्की भूमिकाएं करने की सलाह दी! इसके बाद उन्होंने आजाद, कोहिनूर और राम और श्याम में ट्रेजेडी किंग ने हास्य बिखेरा। मीना कुमारी को ऐसी सलाह नहीं मिली और वे 'साहब बीबी और गुलाम' की छोटी बहू की भूमिका को अपने जीवन में उतारकर नशे में डूब गई। महज 41 साल की उम्र में दुनिया से कूच कर गई। 
  अजीत हिन्दी सिनेमा में फेंटेसी फिल्मों के नायक रहे थे। जब फेंटेसी फिल्मों की मांग घटने लगी तो अजीत की मांग भी घट गई। अवसाद के शिकार होकर अजीत ने फिल्मी दुनिया को अलविदा कहा और हैदराबाद लौट गए। यह उनकी खुश किस्मती थी कि सूरज फिल्म के निर्माण के दौरान राजेन्द्र कुमार ने उन्हें विलेन का रोल करने के लिए राजी कर लिया और हिन्दी सिनेमा को अजीत के रूप में एक दमदार विलेन मिला। प्रेमनाथ की भी यही कहानी थी। वे फिल्मी दुनिया को छोडकर हिमालय में धुनी रमाने चले गए थे। विजय आनंद ने उन्हें तीसरी मंजिल से विलेन बनाया तो उसके बाद प्रेमनाथ सितारा विलेन बन गए।
  अवसाद ने मधुबाला को असमय दिल का रोगी बना दिया और संजीव कुमार को प्रेम में हताश होने के अवसाद ने असमय मार दिया। गुरूदत्त अवसाद में इतने बेचैन हो गए कि उन्होने नींद की गोलियों को शराब में घोलकर अवसाद के साथ-साथ इस जीवन से भी मुक्ति पा ली। यह अवसाद ही था जिसने राजेश खन्ना जैसे सुपर सितारा को एकाकी जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया। राज कपूर जैसे कुछ फिल्मकार भी हैं, जिन्होंने अवसाद को चुनौती के रूप में लिया और 'मेरा नाम जोकर' की घोर असफलता के बाद 'बाॅबी' जैसी सुपर हिट फिल्म बनाकर साबित कर दिया कि असफलता और अवसाद को सृजनशीलता के बल पर हराया जा सकता है। काश, अवसाद में डूबे कपिल शर्मा इस हकीकत को समझ पाते तो वे अपने आपको कमरे में बंद करने के बजाए स्टेज पर उतरकर दर्शको को ठहाके लगवा रहे होते! 
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Sunday, April 8, 2018

सलमान पर टिका है करोड़ों का कारोबार!


- हेमंत पाल

   जब फ़िल्मी दुनिया किसी एक सितारे पर केंद्रित हो जाती है तो सारे नफा-नुकसान भी उसी सितारे से तय होने लगते हैं। उस कलाकार की सेहत और निजी जिंदगी की उलझनें भी फिल्मों के कारोबार को प्रभावित करती है। सलमान खान को काले हिरण के कथित शिकार का दोषी माने जाने और अदालत से 5 साल की सजा मिलने के बाद भी यही मसला फिर उठा है! बताते हैं कि सलमान पर फिल्मकारों के करीब 600 करोड़ रुपए लगे हैं। यदि उन्हें ये सजा भुगतना पड़ती है, तो निर्माताओं के उस दांव का क्या होगा, जो उन्होंने सलमान की लोकप्रियता पर लगा रखा है? क्योंकि, संजय दत्त को भी जब हथियार रखने के मामले में 5 साल की सजा हुई थी, तब भी फिल्म निर्माताओं को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा था। उन्हें कई फिल्मों की शूटिंग जल्दबाजी में पूरी करना पड़ी थी और कई फिल्मों में उनका रोल काटना पड़ा था। 
   दो दशक पहले सलमान खान ने शौक में जोधपुर नजदीक काले हिरण का शिकार तो कर लिया! लेकिन, वे नहीं जानते थे कि एक छोटी सी गलती उन्हें जेल तक पहुंचा देगी! जोधपुर सेशन कोर्ट द्वारा सलमान को दी गई सजा से कई निर्माता-निर्देशकों की नींद हराम हो गई! उनके करोड़ो रुपए ऐसे प्रोजेक्ट्स में लगे हैं, जिसमें सलमान खान मुख्य भूमिका में हैं। यदि सलमान को भी संजय दत्त की तरह लंबे समय तक जेल में रहना पड़ता है तो उनके करोड़ों रुपए डूब सकते हैं। करीब एक दशक से बॉलीवुड में सफलता की गारंटी समझे जाने वाले सलमान पर आया संकट कई निर्माताओं की परेशानी का कारण बनेगा। 1988 में 'बीवी हो तो ऐसी' से परदे पर कदम रखने वाले सलमान खान को सबसे ज्यादा कमाई करने वाले कलाकारों में गिना जाता है। उनकी दो फ़िल्में 'जय हो' और ट्यूबलाइट' को छोड़कर बीते आठ-नौ सालों में रेस, बजरंगी भाईजान, दबंग, दबंग-2, और 'टाइगर' सिरीज की दोनों फिल्मों ने करोड़ों का कारोबार किया है।
  सलमान की आने वाली फिल्मों के बजट पर नजर दौड़ाई जाए तो को जोड़कर देखा जाए तो सलमान के जेल में रहने से बॉलीवुड को 600 करोड़ रुपए  से अधिक का घाटा हो सकता है। कोरियोग्राफर और डायरेक्टर रेमो डिसूजा की फिल्म 'रेस 3' में सलमान खान मुख्य भूमिका में हैं। 'रेस' सिरीज की दो फिल्मों ने 250 करोड़ से ज्यादा का कारोबार किया है। यदि सलमान को ज्यादा समय तक जेल में रहना पड़ता है, तो इससे रेमो की मुसीबत बढ़ना तय है। कोरिया की एक फिल्म ओडी टू माय फादर' की कहानी पर बनने वाली अली अब्बास जफ़र की 'भारत' की भी शूटिंग शुरू होने वाली है। सलमान की होम प्रोडक्शन फिल्म 'दबंग' सिरीज की तीसरी फिल्म भी लाइन में है। 'दबंग-3' को भी प्रभुदेवा निर्देशित करने वाले हैं।
  सलमान की एक और हिट फिल्म 'किक' का सीक्वल भी साजिद नाडियादवाला बना रहे हैं। इस फिल्म का जो पोस्टर भी साजिद ने ट्विटर पर पोस्ट किया था। यह फिल्म 2019 के क्रिसमस पर रिलीज होना है। आधा दर्जन बड़े बजट की फिल्मों के अलावा सलमान खान छोटे परदे के रियलिटी शो के भी स्टार हैं। उनके शो 'बिग बॉस' के हिट होने का एक बड़ा कारण सलमान को माना जाता है। इस साल फिर अक्टूबर में 'बिग बॉस' का 12वां सीजन शुरू होने वाला है। यदि सलमान को जेल जाना पड़ता है तो 'बिग बॉस' में कोई नया होस्ट दिखाई दे सकता है।
  इसके अलावा सलमान का एक और रियलिटी शो '10 का दम' भी जून से शुरू हो रहा है। इसके प्रोमोज आना भी शुरू हो गए। 26 एपिसोड्स वाले इस शो की शूटिंग भी शुरू होनी थी। लेकिन, सारा दारोमदार इस बात पर टिका है कि सलमान को मिली 5 साल की सजा का भविष्य क्या होगा? यदि बड़ी अदालत से सलमान को रियायत मिलती है, तब तो फिल्म निर्माता निश्चिंत हो जाएंगे! लेकिन, यदि ऐसा नहीं होता तो इन फिल्मों और टीवी शो पर तलवार लटकी रह सकती है। 
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Friday, April 6, 2018

दिग्विजय की 'नर्मदा परिक्रमा' के बाद शुरू होगी असल राजनीति!


- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश की राजनीति में इन दिनों ये सवाल काफी गंभीरता से पूछा जा रहा है कि विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस खामोश क्यों है? कांग्रेस की सुप्तावस्था कब जागृत होगी और वो कौन सा नेता होगा जो पार्टी की नाव को चुनाव की वैतरणी में उतरेगा? सवाल अहम् है पर जवाब किसी के पास नहीं! जबकि, करीब सालभर से पार्टी में हलचल है कि किसी नेता को पार्टी की कमान सौंपी जा रही है! ऐसे असमंजस भरे माहौल में दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा यात्रा ने भी कई सवाल खड़े किए कि क्या दिग्विजय सिंह जैसे चाणक्य नेता को किनारे करके पार्टी कोई बड़ा फैसला करेगी? अब, जबकि 9 अप्रैल को नर्मदा परिक्रमा की पूरी हो रही है फिर से प्रसंग उठा है कि क्या पार्टी दिग्विजय सिंह का इंतजार कर रही थी? मध्यप्रदेश की राजनीति में दिग्विजय सिंह को हाशिए पर रखकर कांग्रेस कोई बड़ा फैसला करे, ये संभव नहीं लगता! इसलिए समझा जा सकता है कि प्रदेश में कांग्रेस की असल राजनीति का असल सूत्रपात नर्मदा परिक्रमा के बाद ही होगा।        
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   नर्मदा परिक्रमा के 6 महीने पूरे होने पर दिग्विजय सिंह ने एक वीडियो जारी किया, जिसमें उन्होंने नर्मदा के घटते प्रवाह, नर्मदा के निर्मल जल में मिलते समुद्र के खारे पानी और खाली होते रेत के किनारों पर उंगली उठाई है। नर्मदा नदी को लेकर दिग्विजय सिंह की चिंता जायज भी है। पर, इसे प्रदेश में भविष्य की राजनीति का खाका भी समझा जाना चाहिए। इस पूरी यात्रा के दौरान दिग्विजय सिंह ने न तो कोई राजनीतिक बात की और न ऐसे किसी सवाल का जवाब ही दिया! लेकिन, अपनी यात्रा पूरी होने से पहले हनुमान जयंती के दिन जारी इस वीडियो में उन्होंने संकेत दे दिया कि विधानसभा के अगले चुनाव में कांग्रेस का एक प्रमुख एजेंडा नर्मदा नदी का संरक्षण भी होगा! प्रदेश की 320 में से करीब सौ सीटें ऐसी हैं, जिसका कोई न कोई सिरा नर्मदा नदी से जुड़ता है। नर्मदा नदी को लेकर इसके किनारों पर बसे गाँवों, कस्बों और शहरों के लोगों का आत्मीय जुड़ाव है। अपनी इस यात्रा से दिग्विजय सिंह ने लोगों की इसी आत्मीयता को कुरेदा है और अब वे इसे मुद्दा बनाकर शिवराज-सरकार को घेरें तो कोई आश्चर्य नहीं है।         
   मेहंदीखेड़ा में यात्रा के सौ दिन पूरे होने पर भी दिग्विजय सिंह ने नर्मदा नदी को लेकर अपनी संवेदना व्यक्त की थी। पवित्र पावन नर्मदा नदी की तीन हज़ार किलोमीटर से ज्यादा की परिक्रमा पर निकले कांग्रेस के इस नेता ने नर्मदा नदी के घटते स्वरूप और नदी में समुद्र के खारे पानी के मिलावट पर गंभीर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा था कि  नदी में पानी का जलस्तर कम होने की वजह से लगभग 80 किलोमीटर इलाके में समुद्र का पानी भी नर्मदा के पानी में मिल गया। इस कारण नदी का मीठा पानी खारा हो रहा है। दिग्विजय सिंह का कहना है कि बड़े बांधों की वजह से नर्मदा नदी कई जगह सिकुड़कर रह गई। प्रदूषण और सफाई से ज्यादा हमें इस वक्त इस मुद्दे पर चिंता करने की जरूरत है। उन्होंने यह भी कहा कि मैंने अनुभूति के आधार इस परिक्रमा का संकल्प लिया और नर्मदा मैया की कृपा से अब ये यात्रा निर्विघ्न पूरी हो रही है। उन्होंने इस बात पर भी प्रसन्नता जताई कि इस यात्रा में सभी दल, धर्म और जाति के लोग शामिल हुए। उनकी इस यात्रा ने दलगत राजनीति को भी पीछे छोड़ दिया। इस कारण आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद और कई भाजपा नेता उनके स्वागत के लिए आगे आ गए। उनकी कार्यशैली दर्शाती है कि उनसे नेताओं के वैचारिक मतभेद भिन्न विचारधारा की वजह से हैं। 
    जब से दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा शुरू हुई, हर नेता की नजर इस पर लगी रही! सभी इस नर्मदा परिक्रमा के पीछे मायने ढूंढ रहे थे। लेकिन, किसी के हाथ ऐसा कोई सूत्र नहीं लगा, जिससे नर्मदा परिक्रमा की अबूझ तिजोरी को खोला जा सके! स्वयं दिग्विजय ने भी साफ़ कर दिया था कि यात्रा के दौरान राजनीति पर कोई बात नहीं होगी! यात्रा के दौरान तो कोई राजनीतिक बातचीत की भी नहीं! पर, अंदाजा लगाया जा रहा था कि परिक्रमा के बाद वे सरकार पर इसी यात्रा के निष्कर्षों को लेकर बड़ा हमला बोलेंगे! अब इस बात का इशारा भी मिलने लगा है। दिग्विजय सिंह की इस परिक्रमा यात्रा को प्रदेश की राजनीति में 'मास्टर स्ट्रोक' कहा जा रहा है। राजनीतिक हलकों में दिग्विजय सिंह लम्बे समय से खामोश हैं! लेकिन, इस बात को भी भुलाया नहीं जा सकता कि प्रदेश में कांग्रेस की सबसे बड़ी लॉबी आज भी उनके साथ है। उनके पास ही समर्थकों की बड़ी फ़ौज है।
 कांग्रेस मान रही है कि दिग्विजय की ये नर्मदा परिक्रमा भले ही निजी यात्रा हो, पर इससे पार्टी को ताकत तो मिलेगी। यदि दिग्विजय सिंह ने चुनाव प्रचार में अपनी यात्रा के अनुभवों को सुनाया तो चुनाव में पार्टी उभरकर सामने आएगी!  अपनी सियासी मुखरता के लिए चर्चित दिग्विजय सिंह ने परिक्रमा के दौरान ख़ामोशी रखी। मीडिया के राजनीति से जुड़े सवालों पर भी वे चुप ही रहे। लेकिन, उनका यही बड़े धमाके की तरफ इशारा कर रहा है। तय भी माना जा रहा है कि 9 अप्रैल को परिक्रमा पूरी होने के बाद वे खामोश नहीं रहेंगे! नर्मदा नदी को लेकर वे जो भी बोलेंगे निश्चित रूप से वो शिवराज सरकार के लिए परेशानी का कारण बनेगा। 9 अप्रैल को जब ये नर्मदा परिक्रमा सौ से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों की जमीनी हकीकत का जायजा लेकर बरमान घाट पर पूरी होगी, तब चुनाव की सही बिसात बिछेगी। इसके बाद जब दिग्विजय सिंह अपने वादे के अपने अनुभवों के खुलासे करेंगे। दिग्विजय सिंह ने स्पष्ट किया है कि वे खुद तो चुनाव नहीं लड़ेंगे, मगर चुनाव प्रचार के दौरान वे जो बोलेंगे उसके कुछ ठोस मायने होंगे।
   ये बात तो मानना पड़ेगी कि दिग्विजय सिंह ने इस नर्मदा परिक्रमा को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी! यही कारण है कि उन्होंने कोई राजनीतिक भेदभाव भी नहीं रखा। भाजपा में घबराहट का एक कारण ये भी समझा जा सकता है। परिक्रमा के दौरान वे भाजपा के बड़े नेता प्रह्लाद पटेल के घर भी पहुंच गए! असंतुष्ट भाजपा नेता और पूर्व विधायक राणा रघुराजसिंह तोमर ने भी सिंगाजी में दिग्विजय सिंह का स्वागत किया। राणा फिलहाल भाजपा की सक्रिय राजनीति से दूर हैं, इसलिए उनकी दिग्विजय सिंह से मुलाकात को गंभीर समझा गया। परिक्रमा को लेकर संघ इसलिए तनाव में रहा कि हरिद्वार स्थित भारत माता मंदिर के संस्थापक और पूर्व शंकराचार्य ज्योर्तिमठ स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि ने दिग्विजय सिंह को पत्र लिखकर उनकी नर्मदा परिक्रमा की सराहना की। सत्यमित्रानंद को संघ के काफी नजदीक माना जाता है।
  दिग्विजय सिंह की छह महीने से ज्यादा लंबी नर्मदा परिक्रमा को पहले भाजपा ने गंभीरता से नहीं लिया था। ये तक कहा गया था कि दिग्विजय सिंह की राजनीतिक पारी अब पूरी हो गई है, इसलिए वे नर्मदा की परिक्रमा के लिए निकल पड़े हैं। लेकिन, भाजपा की इस नासमझी का सही जवाब 9 अप्रैल के बाद सामने आएगा जब दिग्विजय सिंह सियासत की शतरंज पर चाल चलेंगे। उनकी ये खामोश यात्रा सियासत को झकझोर भी सकती है। जैसे-जैसे परिक्रमा पूरी होने वाली है, उसके सियासी मकसद खोजे जाने लगे। दिग्विजय सिंह ने इसे नितांत धार्मिक यात्रा बताया, लेकिन, उनके हर इशारे को सियासत से जोड़कर देखा गया। अब इंतजार इस बात का है कि नर्मदा परिक्रमा के बाद कांग्रेस के एक चाणक्य नेता के रूप में दिग्विजय सिंह किस तरह के हमले करते हैं। क्योंकि, कांग्रेस की असली राजनीति तो 9 अप्रैल के बाद ही शुरू होगी। 
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परदे पर सुलगती रही, छात्र समस्या!


- हेमंत पाल 


   इन दिनों सीबीएसई के परचों के लीक होने और छात्रों को दोबारा वे परचे देने के निर्देश के बाद छात्र आक्रोशित हैं। सीबीएसई के इस परचा लीक काण्ड ने उन्हें सड़क पर लाकर खडा कर दिया है। इससे पहले भी छात्र कभी मंडल-कमंडल के चक्कर में सड़कों पर उतरे तो कभी भाषाई विवाद ने उन्हें सड़कों पर आने को मजबूर किया था। वैसे, तो दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र भी सडक पर आए, लेकिन वो वजह छात्रों की अपनी समस्या नहीं थी। उसका छात्र समस्याओं से कोई लेना-देना भी नहीं था। लेकिन, छात्रों की समस्याओं को बाॅलीवुड ने भी बखूब समझा और परखा है। यही कारण है कि छात्र        जीवन और उन पर आधारित फिल्में बनाने का सिलसिला नया नहीं है। दशकों से चली आ रही यह परम्परा आज भी जारी है। यह बात अलग है कि आज का फिल्मी छात्र पहले से ज्यादा वास्तविक और समाज से जुडा नजर आता है। 
   छात्र समस्या पर बनी फिल्मों को याद किया जाए तो गुजरे जमाने की जागृति, इम्तिहान, मेरे अपने, बूंद जो बन गई मोती उल्लेखनीय है। यह बात अलग है कि उस दौर में 'काॅलेज गर्ल' जैेसी फ़िल्में भी आई थी, जिनका छात्र जीवन से कोई सरोकार नहीं था। 60 और 70 के दशक में बनी छात्र जीवन आधारित फिल्मों में राज कपूर से लेकर शम्मी कपूर और देव आनंद से लेकर जीतेन्द्र तक ने काॅलेज के छात्रों की भूमिका की थी। छात्र जीवन पर बनी फिल्मों में वास्तविकता और काल्पनिकता के अंतर का सबसे बडा कारण यह है कि गुजरे जमाने के फिल्मकारो से लेकर कलाकारों में अधिकांश ऐसे भी थे, जिन्होंने कभी काॅलेज का मुँह तक नहीं देखा था! जबकि, आज के फिल्मकार और कलाकार दोनो ही उच्च शिक्षित है। यही कारण है कि आज की फिल्में ज्यादा यर्थाथवादी नजर आने लगी!   
   आज की यर्थाथवादी फिल्मों मे 'उडान' का नाम सबसे पहले आता है। विक्रमादित्य मोटवानी की इस मास्टर पीस फिल्म में स्कूल से निकाले गए एक 16 साल के लडके की कहानी को शिद्दत के साथ परदे पर उतारा गया था। हालांकि, इस फिल्म में बड़े कलाकार नहीं थे। लेकिन, रोनित राय ने एक शराबी और सख्त पिता की भूमिका से इसे दर्शनीय बना दिया था। फिल्मकार ने एक छात्र के पतन और उत्थान की कहानी को शानदार तरीके से पेश किया था। इसी क्रम में आमिर खान की 'तारे जमीं पर' एक कदम आगे है। आठ साल के एक मंदबुद्धि छात्र की कहानी को इस फिल्म ने काव्यात्मक ढंग से पेश किया था। बॉलीवुड के बड़े सितारे रितिक रोशन की फिल्म 'लक्ष्य' एक उद्देश्यहीन बेरोजगार छात्र की कहानी थी, जो सेना में भर्ती होकर एक 'लक्ष्य' निर्धारित कर उसे हांसिल करने के लिए सबकुछ दांव पर लगा देता है। 
  छात्र जीवन की फिल्मों में '3 इडियट्स' को मील का पत्थर कहा जा सकता है। इंजीनियरिग के छात्रों पर आधारित इस फिल्म का संदेश था कि छात्रों पर अपनी इच्छा लादने के बजाए उनकी रूचि के अनुसार पढ़ने दिया जाना चाहिए। फील्म 'पाठशाला' में इंग्लिश स्कूल के एक शिक्षक की कहानी कही गई है, जो म्यूजिक पढ़ाता है, लेकिन छात्रों और प्रबंध-तंत्र के खिलाफ संघर्ष का शिकार हो जाता है। इसी तरह फिल्म 'फालतू' चार कम पढे लिखे छात्रों की कहानी है जो खुद अपना काॅलेज खोलने का निर्णय लेकर उसे पूरा करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते है। छात्रों के आज के जीवन को रेखांकित करने वाली कारण जौहर की 'स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर' को छात्रों ने जहां खूब सराहा। वहीं 'द न्यू क्लासमेट' में मां और बेटी के संबंधों को पर्दे पर उतारकर यह बताया गया है कि आज की शिक्षा प्रणाली में मध्यमवर्गीय छात्रों को अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए कितने पापड बेलने पड़ते हैं। 
  श्रीदेवी की फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' यूँ तो अधेड महिला की इंग्लिश सीखने की कहानी थी। लेकिन, उसके इंग्लिश सीखने की चाहत ने इसे स्टूडेंट विषयों पर आधारित सफल फिल्म बना दिया।  इस परम्परा में 'रंग दे बसंती' को भूला नहीं जा सकता है, जो भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करने में सक्षम रही! 
किसी परीक्षा का परचा लीक होना फिल्मकारों के लिए एकदम अनूठा और नया विषय है, जिसमें सारे मसाले डालकर एक उद्येश्यपूर्ण फिल्म बनाई जा सकती है। उम्मीद की जा सकती है कि कोई पारखी फिल्मकार इस गंभीर विषय पर हाथ आजमाने आज नहीं तो कल आगे आएगा ही! 
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