Wednesday, February 27, 2019

खतरे में है भाजपा का गढ़, अब संघ ने थामी कमान!


- हेमंत पाल

   मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ के बारे में राजनीतिक जुमला है कि सत्ता की तिजोरी का ताला यहीं से खुलता है। क्योंकि, ये इलाका संघ का गढ़ रहा है। लेकिन, इस बार विधानसभा चुनाव में सब उलट गया। 15 साल की सत्ता के बाद भाजपा बाहर हो गई! कांग्रेस ने मालवा-निमाड़ की भाजपा के कब्जे वाली कई सीटें छीनकर उसे बड़ा झटका दिया। इस वजह से लोकसभा चुनाव से पहले संघ सक्रिय हो गया है। चिंतन के बहाने संघ प्रमुख मोहन भागवत का इंदौर में चार दिन का प्रवास इसी रणनीति का हिस्सा है। पिछले लोकसभा चुनाव में मालवा-निमाड़ की सभी 8 सीटें भाजपा ने जीती थीं। लेकिन, बाद में झाबुआ-रतलाम सीट उपचुनाव में कांग्रेस ने छीन ली थी। लेकिन, विधानसभा चुनाव के नतीजों ने सारे समीकरण बदल दिए! मोहन भागवत ने संघ के आनुषंगिक संगठनों और उनसे जुड़े विभागों से कहा है कि स्वयंसेवक राष्ट्रीय मुद्दे और चुनौतियों को लेकर जनता के बीच जाएं, ताकि केंद्र सरकार के खिलाफ एंटी-इन्कमबेंसी और स्थानीय मुद्दे बेअसर हों! 
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    मध्य प्रदेश का मालवा-निमाड़ इलाका भाजपा और संघ की मज़बूत ज़मीन माना जाता है। लेकिन, विधानसभा चुनाव में संघ की ये ज़मीन उसके हाथ से खिसक गई। यही वजह है कि संघ और भाजपा दोनों इलाके को लेकर चिंतित है। यही कारण है कि संघ ने अपना ध्यान मालवा-निमाड़ पर फोकस कर दिया। इसकी शुरुआत संघ प्रमुख मोहन भागवत के चार दिन के इंदौर दौरे से हो चुकी है। मालवा-निमाड़ क्षेत्र में 8 लोकसभा सीटें हैं! इंदौर के अलावा, उज्जैन, मंदसौर, रतलाम-झाबुआ, धार, खरगोन, खंडवा और देवास-शाजापुर सीटें है। भाजपा को धार, खरगोन, खंडवा और देवास-शाजापुर सीटों पर उलटफेर की आशंका है। जबकि, झाबुआ-रतलाम सीट कांग्रेस के पास है। इसी नुकसान को थामने के लिए संघ और उसके आनुषंगिक संगठन मैदान संभाले हैं। वहीं विधानसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित कांग्रेस भी भाजपा की कमजोर सीटों पर पूरी ताकत लगा रही है। 
   विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज़्यादा नुक़सान मालवा-निमाड़ में हुआ! क्षेत्र में विधानसभा की 66 में भाजपा सिर्फ 27 सीटें ही जीत सकी! जबकि 2013 में 57 सीटों पर भाजपा का कब्ज़ा था। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत का सबसे ज्यादा फोकस इसी इलाके पर है। मध्यप्रदेश का यह इलाका बरसों से संघ, हिंदू महासभा और संघ का मज़बूत गढ़ माना जाता है। किन्तु, विधानसभा चुनाव में ये ज़मीन उसके हाथ से निकल गई! मालवा-निमाड़ में तो भाजपा ने पिछले चुनाव के मुकाबले 30 सीटें गँवाई ही, 8 लोकसभा चुनाव से उसका मज़बूत गढ़ रहे इंदौर संसदीय क्षेत्र की भी 8 में से 4 सीटें भाजपा के हाथ से निकल गई! संघ और भाजपा दोनों इस उलटफेर से मालवा-निमाड़ में अपना राजनीतिक आधार बढ़ाने को लेकर चिंतित हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत के चार दिन के इंदौर दौरे ने संकेत भी दे दिया। 
  भागवत का ये दौरा लोकसभा चुनाव को देखते हुए काफी अहम माना गया है। अनुमान लगाया जा रहा है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में कई टिकट संघ कोटे से तय होंगे। क्योंकि, विधानसभा चुनाव में जो हुआ संघ उसे दोहराना नहीं चाहता! संघ का मानना है कि विधानसभा चुनाव में उसके निर्देश नहीं माने गए और मनमाने तरीके से उम्मीदवारों को टिकट दिए गए! अब संघ ऐसी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहता है। यही कारण है कि लोकसभा चुनावों की उल्टी गिनती शुरू होने से पहले संघ प्रमुख के इस इंदौर दौरे पर सबकी निगाहें टिकी रहीं। हालांकि, संघ का कहना है कि मोहन भागवत पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत इंदौर आए है। लेकिन, उनकी सक्रियता ने कुछ और ही इशारा किया। संघ ने औपचारिक रूप मोहन भागवत की यात्रा के राजनीतिक मंतव्य पर कुछ नहीं कहा, पर निश्चित रूप से उन्होंने प्रदेश में भाजपा की हार की जमीनी समीक्षा की है। क्योंकि, मालवा-निमाड़ का आदिवासी क्षेत्र इस बार कांग्रेस के पक्ष में रहा! 
  मालवा-निमाड़ के वनवासी बंधुओं के बीच संघ की स्वीकार्यता और भाजपा का प्रभाव कम होने से संघ कुछ ज्यादा ही चिंतित है। बताया जाता है कि संघ लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस गढ़ को और अधिक मज़बूत बनाने की मंशा से अपने सभी आनुषंगिक संगठनों से विचार विमर्श करके आगे की रणनीति तय करेगा। इंदौर के बाद संघ की दृष्टि से महत्वपूर्ण मध्यभारत और महाकौशल प्रांत की बैठक होना है। मार्च में ग्वालियर में होने जा रही प्रतिनिधि सभा की बैठक में भी देशभर के करीब 15 सौ छोटे, बड़े अधिकारियों की मौजूदगी में लोकसभा चुनाव को लेकर विचार-विमर्श किया जाएगा। इंदौर की ये यात्रा इन्हीं तैयारियों का हिस्सा है।  
  संघ के सूत्रों के मुताबिक संघ ये भी तय करेगा कि इस बार के लोकसभा चुनाव में पार्टी किन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाए! जिससे सरकार की उपलब्धियों को जनता के बीच पहुँचाया जा सके। संघ की इस सक्रियता का सबसे बड़ा कारण ये भी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव 2014 की तरह आसान नहीं है। तब भाजपा के सामने नाकाम कांग्रेस थी और देश नरेंद्र मोदी के नाम पर सहमत दिखाई दिया था। लेकिन, अब हालात वैसे नहीं हैं। पाँच साल सरकार चलने के बाद मोदी-सरकार की खामियों को भी जनता ने परखा है। देश में आर्थिक सुधारों से लेकर  मोदी-सरकार ने कई महत्वपूर्ण काम किए हैं। किंतु, इस बार विपक्ष की संभावित एकजुटता के चलते संघ को भाजपा की चुनावी वैतरणी पार लगाने के लिए मैदान में उतरना जरुरी हो गया है। मालवा-निमाड़ की 8 सीटों को लेकर संघ की क्या रणनीति रहती है, फिलहाल सबकी नजरें इसी पर टिकी हैं।  
  मध्यप्रदेश में भाजपा अपनी मजबूती कितना भी दिखावा कर ले, पर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जिस तरह बढ़त मिली है, उससे भाजपा की 12 लोकसभा सीटें खतरे में हैं। ग्वालियर के सांसद नरेंद्रसिंह तोमर के अलावा अनूप मिश्रा, फग्गन सिंह कुलस्ते, भागीरथ प्रसाद, प्रहलाद पटेल, रोडमल नागर, सुमित्रा महाजन और सावित्री ठाकुर के लिए अपनी सीटें बचाना आसान नहीं है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह भी जबलपुर सीट पर घिरे हुए नजर आ रहे हैं। पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की खंडवा सीट भी मुश्किल में है। यहाँ कांग्रेस 26,294 वोटों से आगे है। धार लोकसभा सीट 2014 के चुनाव में भाजपा की सावित्री ठाकुर ने जीती थी। 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के पास 6 सीट थीं, अब इस संसदीय क्षेत्र में इतनी ही सीटें कांग्रेस के पास है। इस लोकसभा सीट पर कांग्रेस की बढ़त 2,20,070 वोट है। यही स्थिति राजगढ़ लोकसभा सीट की है, जहाँ भाजपा के रोडमल नागर की हालत खस्ता है। यहाँ भी कांग्रेस 1,85,010 वोटों से आगे है। इंदौर से सुमित्रा महाजन ने 2014 का लोकसभा चुनाव साढ़े 4 लाख वोट से जीता था। अब वोटों का अंतर घटकर 95,380 वोट रह गया!  
  विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को मिली हार ने उसे संघ की शरण में जाने को मजबूर कर दिया। एक समय था जब इन तीनों राज्यों में संघ की स्थिति काफ़ी मजबूत मानी जाती थी। ऐसे में इस हार के बाद भाजपा को न चाहते हुए भी संघ के दिखाए रास्ते पर चलने और स्वयंसेवकों की फ़ौज को चुनाव में आगे रखना पड़ेगा। क्योंकि, भाजपा के 15 साल के राज में फैली अराजकता के कारण पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता घर बैठ गए थे। भाजपा की सरकार में पार्टी चंद नेताओं के हाथों की कठपुतली बनकर रह गई थी। लेकिन, अब संगठन की पूरी कमान संघ ने अपने हाथों में ले ली है। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में भाजपा के प्रदेश संगठन में बड़े स्तर पर फेरबदल किया जा सकता है। संभावना है कि संघ की प्रतिनिधिसभा की बैठक में संघ एवं भाजपा संगठन के पदाधिकारियों के दायित्वों को भी बदला जा सकता है।
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राजश्री की फ़िल्में और समाज!

- हेमंत पाल 

  ज सलमान ख़ान अपने कॅरियर के शिखर पर हैं। फिल्म की सफलता के लिए उनका नाम ही काफी होता है। लेकिन, उन्हें इस ऊंचाई तक पहुँचाने में जिसका सबसे ज्यादा योगदान रहा, वो है 'राजश्री' की फ़िल्में! पारिवारिक और संयुक्त परिवार की अवधारणा वाली फिल्मों से ही सलमान का कॅरियर संभला है। सलमान की पहली बड़ी कामयाब फिल्म 'मैंने प्यार किया' थी, जिसे 'राजश्री' के राजकुमार बड़जात्या उर्फ़ राज बाबू ने प्रोड्यूस किया था। उनके पिता ताराचंद बड़जात्या ने 'राजश्री' की नींव डाली थी, बाद में राज बाबू ने आगे बढ़ाया! अब, जबकि राज बाबू भी दुनिया को अलविदा कह गए, उनके बेटे सूरज बड़जात्या इसी परंपरा को आगे ले जा रहे हैं।
     फ़िल्मी दुनिया में पारिवारिक, ग्रामीण, संयुक्त परिवार और दोस्ती के रिश्तों को आधार बनाकर फ़िल्में बनाने वालों में 'राजश्री' को हमेशा आगे रखा जाता है। 1947 से अभी तक इस कंपनी ने अपनी सोच और सामाजिक विचारधारा को कभी नहीं बदला! इस फ़िल्मी परिवार ने अभी तक 58 फ़िल्में बनाई है, जिनमें 20 फिल्मों निर्माण राज बाबू ने किया! लेकिन, अपने पिता की ही तरह उन्होंने भी अपना रास्ता नहीं बदला! राज बाबू ने 'राजश्री' के बैनर तले जो फ़िल्में बनाई उनमें पिया का घर, मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, विवाह, मैं प्रेम की दीवानी हूँ और 'प्रेम रतन धन पायो' और हाल ही में आई 'हम चार' जैसी फ़िल्में हैं। उनकी बनाई आख़िरी फ़िल्म 'हम चार' हाल ही में रिलीज़ हुई!
   इस फिल्म निर्माण कंपनी ने हमेशा ही समय और सोच के साथ अपने आपको बदला है। 'राजश्री' की फिल्मों में सामाजिक सरोकार और परिवार की ताकत को अहमियत दी जाती रही है। 60 के दशक में 'राजश्री' ने दो विकलांग दोस्तों की कहानी पर 'दोस्ती' बनाई थी! 'दोस्ती' को छह फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिले थे। इसी दोस्ती को आधार बनाकर उन्होंने 'हम चार' बनाई, जिसमें आज की बदलती दुनिया का अक्स नजर आता है। 'राजश्री' को जहां अभी तक पारिवारिक फिल्मों के लिए जाना जाता है, वहीं 'हम चार' में परिवार के बजाए दोस्ती को अहमियत दी गई! इसमें दोस्तों को एक परिवार की तरह दिखाया गया है।  'हम चार' फिल्म वस्तुतः परिवार की परिभाषा पर ही आधारित है। ये दोस्तों के अटूट बंधन को दर्शाती है। आज के समय में संयुक्त परिवार कम नजर आते हैं, ऐसे में दोस्त भी परिवार बन जाते हैं। यही कारण है कि फिल्मीं दुनिया में 'राजश्री' को ट्रेंड सेटर कहा जाता है! वे एक फिल्म बनाकर जिस तरह का ट्रेंड सेट कर देते हैं, बाकी फिल्मकार भी उसी का अनुसरण करते हैं। 
  राजश्री प्रोडक्शन 7 दशकों से हिंदी सिनेमा में सक्रिय रहा है। लेकिन, इस प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले जो भी फ़िल्में बनी उसमें घर, परिवार, रीति-रिवाज और उसमें भी संयुक्त परिवारों की ताकत को 'राजश्री' ने हमेशा दर्शाने की कोशिश की है। 'राजश्री' ने 71 सालों में 58 फिल्में बनाई है। राजश्री की किसी फिल्म में मारधाड़ या साजिशें नहीं देखी गईं! उनकी फिल्मों में परिवार और आपसी स्नेह का ही जिक्र होता आया है। यही कारण है कि उनकी फिल्में परिवार के साथ देखने वाली होती हैं। 1994 में रिलीज हुई 'हम आपके हैं कौन' और 1999 में रिलीज हुई 'हम साथ साथ हैं' को आज भी दर्शक भूले नहीं हैं। राजकुमार बड़जात्या के बाद ये फ़िल्मी घराना अपना रास्ता बदलेगा, ऐसे कोई आसार नहीं हैं! क्योंकि, राज बाबू अपने फ़िल्मी संस्कार सूरज बड़जात्या सौंप गए हैं और इस परंपरा को वे उसी शिद्दत से आगे बढ़ा भी रहे हैं।
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कमलनाथ सरकार के फैसले दो महीने में ही रास आने लगे!


- हेमंत पाल

 
    जब भी किसी राज्य की सत्ता में बदलाव होता है, सभी की नजरें मुख्यमंत्री के चेहरे पर टिकती है। क्योंकि, सबकी उम्मीदों का केंद्र मुख्यमंत्री की सत्ताशैली होती है। इस नजरिए से मध्यप्रदेश में भाजपा से कांग्रेस को हुए सत्ता हस्तातंरण में लोगों का कमलनाथ से उम्मीदें बांधना स्वाभाविक था! कांग्रेस के लिए सुकून की बात ये रही कि दो महीने की कमलनाथ सरकार के फैसलों को सराहा जा रहा है। इस दौरान सरकार ने कई ऐसे फैसले किए, जो भविष्य में मील का पत्थर साबित होंगे! लेकिन, ये सच है कि सरकार के कामकाज में कमलनाथ का अनुभव साफ़ झलकता है। फिजूलखर्ची और मनमर्जी की घोषणाओं पर अंकुश लगाकर उन्होंने ये संकेत दे दिया कि उनकी सरकार की नीति क्या होगी! पिछली सरकार के बेतुके फैसलों को भी उन्होंने रोकने का साहस किया है। केबिनेट की बैठक में भी उनके सख्त फैसले और उनकी जवाबदेही तय करने के तरीके से भी नौकरशाही सकते में हैं। 
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   किसी भी सरकार को चलाने में सबसे बड़ी जरुरत होती है राजनीतिक इच्छाशक्ति की! उसमें भी खासकर मुख्यमंत्री की, जिनके फैसलों से सरकार का नजरिया और प्राथमिकताएं झलकती हैं! प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ भले ही उम्र में 70 पार हैं, लेकिन फैसलों में उनकी चुस्ती, फुर्ती और तत्परता उनकी उम्र की चुगली करती है। पद संभालते ही उन्होंने जिस तरह के फैसले लिए, उससे उनकी इच्छाशक्ति का इशारा मिलता है। किसानों की कर्ज माफ़ी का फैसला भले ही 10 दिनों की समय सीमा में लिया जाना हो, पर बाकी फैसलों में उनका अनुभव और दूरदृष्टि झलकती है। राजनीति के जानकारों का मानना है कि कमलनाथ जैसी प्रशासनिक और राजनीतिक समझने वाला कोई नेता प्रदेश में नहीं है। जब कमलनाथ को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया गया था, तब कई लोगों ने उनकी प्रादेशिक नेतृत्व क्षमता पर उंगली उठाई थी! राजनीति में ये सब स्वाभाविक भी हैं। सबसे बड़ा सवाल तो ये था कि करीब पौने दो लाख करोड़ के कर्ज में डूबे प्रदेश को उबारा कैसे जाएगा और उन चुनावी वादों का क्या होगा, जो कांग्रेस ने अपने मतदाताओं से किए हैं। लेकिन, सरकार जिस तरह संभल संभलकर कदम रख रही है, उससे लगता है कि उसे कोई जल्दबाजी नहीं है! 
   सरकार के मुखिया की कुर्सी संभालने के तत्काल बाद उन्होंने किसानों की कर्जमाफी के फरमान पर तो दस्तख़त किए ही, कन्या विवाह की अनुदान राशि भी 28 हज़ार बढ़ाकर 51 हजार रुपए कर दी। कमलनाथ ने सत्ता के विकेंद्रीकरण का भी पूरा ध्यान रखा। शिवराज सरकार के दौरान प्रदेश में जिस अफसरशाही के हावी होने की शिकायत की जाती थी, इस सरकार ने उस पर नकेल डालने में कसर नहीं छोड़ी! अपने सख्त लहजे का कमलनाथ ने नजारा दिखाते हुए अफसरों को स्पष्ट कह दिया कि गांव और जिलों की वे समस्याएं जो वहीं हल हो सकती हैं, राजधानी तक नहीं आना चाहिए! यदि ऐसा कुछ हुआ तो इसकी जिम्मेदारी अफसरों की होगी। उन्होंने सरकारी मशीनरी को समझाइश देते हुए एक बार कहा भी था कि 'उनकी चक्की देर से जरूर चलती है, मगर पीसती बारीक है!'
  मुद्दे की बात यह कि उन्होंने अपनी राजनीतिक शैली अपने पूर्ववर्ती शिवराज सिंह से बिल्कुल उलट बनाए रखी है। शिवराज सिंह को फिजूलखर्ची और मनमानी घोषणाओं की आदत थी, जबकि कमलनाथ को मुट्ठी बंद रहती है। सरकार के दो महीने के कार्यकाल के दौरान न तो उन्होंने कोई घोषणा की और न किसी मंत्री की ऐसा करने हिम्मत हुई! सरकार ने जो भी फैसले किए वे सब पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों में फेरबदल करके ही किए गए। कन्या विवाह अनुदान राशि बढ़ाने के साथ ही उन्होंने ऐसा कोई सरकारी आयोजन न करने का फैसला किया। कंट्रोल की दुकानों से गरीबों को मिलने वाले राशन की पैचीदा नीति को आसान कर दिया। गायों के लिए हर पंचायत में गौशाला खोलने का फैसला भी भाजपा सरकार को चिढ़ाने वाला ही कहा जाएगा! मुख्यमंत्री ने पुलिसकर्मियों को नए साल से वीकली ऑफ देने का फैसला करके करीब एक लाख पुलिसकर्मियों के परिवारों को भी खुश कर दिया। उनके इन फैसलों से ये जनता में ये संदेश तो गया ही है कि उनके काम करने का स्टाइल थोड़ा अलग है। मुख्यमंत्री ने खर्चों पर अंकुश तो रखा, पर जनप्रिय फैसलों में कमी नहीं आने दी! क्योंकि, चार महीने बाद लोकसभा चुनाव होना है और मार्च के शुरूआती दिनों में आचार संहिता लगने से सरकार के हाथ बंध जाएंगे!     
  कमलनाथ ने शिवराज सरकार के कई बेहूदा फैसलों को भी बदल दिया, जिसके तहत भजन मंडलियों को 57 करोड़ रुपए जारी कर दिए गए थे। कलेक्टरों व जिला पंचायत के सीईओ के माध्यम से दी गई यह राशि भजन मंडलियों को ढोल-मंजीरे व अन्य वाद्य यंत्रों की खरीद में खर्च करनी थी। शिवराज सरकार ने जुलाई 2018 में प्रदेश की 22 हजार 824 ग्राम पंचायतों में भजन मंडलियों को प्रोत्साहन देने के लिए 57.60 करोड़ रुपए आवंटित किए थे। लेकिन, आचार संहिता लगने से ये बंट नहीं पाए! नई सरकार ने ये राशि वापस मांग ली है। इसके अलावा नई सरकार ने पूर्व सरकार के चरागाह की जमीन को गोल्फकोर्स बनाने के लिए आवंटित की जमीन को भी निरस्त कर दिया। तत्कालीन भाजपा सरकार ने भोपाल के नजदीक बुलमदर फार्म की 650 एकड़ जमीन के एक बड़े हिस्से को गोल्फ कोर्स के लिए आरक्षित करने का फैसला किया था। जबकि, कमलनाथ सरकार ने फैसले को उलट दिया। सरकार के मुताबिक प्रदेश में कहीं भी गायों के चरागाह की जमीन का अन्य कोई इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा।
  जहाँ तक कमलनाथ की राजनीतिक शैली की बात है तो चुनाव लड़ने से लगाकर सरकार चलाने तक का उनका अंदाज सबसे जुदा है। वे तुरत-फुरत फैसले करने या जल्दबाजी वाले काम कम ही करते हैं! हर मामले में उनके सोचने का तरीका अलग होता है। वे न तो किसी के प्रति ज्यादा आसक्ति दर्शाते हैं और न किसी को नाराज करने में विश्वास करते हैं। वे कम बोलते हैं और जो बोलते हैं सोच-समझकर बोलते हैं! यही कारण है कि वे अपने बयानों को लेकर विवादों में नहीं उलझते! इसे उनकी राजनीतिक सफलता का राज भी कहा जा सकता है। यही कारण है कि कमलनाथ के स्तर की राजनीतिक और प्रशासनिक समझ का नेता फिलहाल राज्य में दूसरा आसानी से खोज सकना मुश्किल है। राजनीतिक और प्रशासनिक चुनौतियों के इस दौर में वे जिस तरह से सरकार चला रहे हैं, वो उनकी अपनी काबलियत और अनुभव है। बहुमत के किनारे पर बैठी उनकी सरकार के सामने चुनौतियाँ बहुत है और ऐसे में उन्हें एक-एक कदम संभलकर रखना है। खतरा इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि सत्ता खोने से बिफराती भाजपा किसी मौके की तलाश में है, पर उसे कोई मौका मिल नहीं रहा!   
  जिसे सरकार को विरासत में खाली खजाना खाली मिला हो, उसके बाद भी उसका आत्मविश्वास सर चढ़कर बोले तो लगता है कि नेतृत्व सही हाथों में है। कमलनाथ का कहना है कि भाजपा यह मानती है कि उसने कांग्रेस को खाली खजाना सौंपा है, मगर फिर भी कांग्रेस सरकार अपने वचन पर खरी उतरेगी! दरअसल, कमलनाथ की राजनीति का यही अंदाज उन्हें अन्य नेताओं से अलग करता है। कमलनाथ ने बाहर से आकर छिंदवाड़ा को अपना घर बना लिया और लोगों के दिलों उतर गए! उम्मीद की जानी चाहिए कि वे बहुत जल्द अपनी कार्यशैली से प्रदेश की जनता मन मोह लेंगे!
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परदे पर अभी कोई यादगार बाप नहीं जन्मा!


- हेमंत पाल 

   समाज में पिता और संतान के बीच दिखाई देने वाले और न दिखाई देने वाले संबंध हैं। इन पर बॉलीवुड निर्माताओं की नजर पड चुकी है। इसी के चलते कई फिल्मों में पिता की भूमिकाओं को जोरदार तरीके से सिल्वर स्क्रीन पर पेश किया। पचास से साठ के दशक के बीच बनी हिन्दी फिल्मों में पिता एक स्टीरियो टाइप कैरेक्टर हुआ करते थे। ऐसी भूमिकाओं को निभाने का जिम्मा नजीर हुसैन और मनमोहन कृष्ण ने बखूबी निभाया। इन दोनों कलाकारों ने उस दशक के सितारों राज कपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर , दिलीप कुमार से लेकर राजेन्द्र कुमार के पिता की भूमिका खूब निभाई। इसके बाद हिन्दी फिल्मो में बाप की भूमिका में प्राण भरने वाले अभिनेताओं में मोतीलाल, कन्हैयालाल, जयंत और ओमप्रकाश का दौर आया। रहमान और सप्रू ने भी इस परम्परा को आगे बढाया। यदि 'मुगले आजम' में पृथ्वीराज कपूर ने एक दमदार बाप की भूमिका निभाई, तो वक्त में समय की मार झेल रहे बाप की भूमिका में बलराज साहनी ने गजब का परफार्मेस दिया।
  सत्तर और अस्सी का दशक आते आते हिन्दी फिल्मों के बाप भी बदले और उनकी भूमिकाएं भी समय के अनुसार बदली। जो सितारे साठ के दशक में नायक थे उनमे से कई 70 और 80 के दशक में फिल्मी बाप बनकर पर्दे पर दिखाई दिए। इसी क्रम में संजीव कुमार ने 'त्रिशुल' में अमिताभ के बाप बनकर जलवा बिखेरा तो दिलीप कुमार ने 'शक्ति' और 'कर्मा' में बाप की भूमिका को यादगार बना दिया। साठ के दशक के राजकपूर सत्तर के दशक में अपने ही बेटे की फिल्म कल आज और कल में उनके बाप बने तो शम्मी कपूर ने अपनी फिल्म जंगली की नायिका सायरा बानु के बाप बनकर जमीर से दूसरी पारी की शुरूआत की। उसके बाद वे 'बेताब' और 'प्रेमरोग' में प्रभावी बाप बनकर परदे पर छा गए। छठे दशक के विलेन प्राण उम्र की ढलान पर 'अमर अकबर एंथोनी' में बाप बने तो अमजद ने 'लावारिस' में उस अमिताभ के बाप की भूमिका की, जिसके साथ वह पहली बार 'शोले' में खूंखार विलेन बनकर आए थे। इस दौर में इन पुराने सितारों के साथ साथ ओम शिवपुरी, इफ्तेखार, एके हंगल और जगदीश राज ने कई फिल्मों में बाप बनकर फिल्मों को गति प्रदान की!
   महेश भट्ट की फिल्म 'सारांश' से एक दुखी बाप की यादगार भूमिका कर लोकप्रियता बटोरने वाले अनुपम खेर आज सबके चहेते बाप है। 'दिल' से लेकर 'दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे' में उन्होंने कभी नायक तो कभी नायिका के बाप बनकर अपने किरदार को स्वाभाविक बनाया है। आलोक नाथ तो लगता है बाप के किरदार के लिए ही पैदा हुए है। उन्होने हम साथ साथ है, मैने प्यार किया, हम आपके कौन हैं में बाप बनकर अपनी रोजी रोटी कमाई तो अमरीश पुरी ने जिस दबंगई से खलनायक की भूमिका की उतनी ही दबंगई से दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे सहित कई फिल्मों में बाप को दमदार बनाकर पेश किया। उनका साथ देने ओमपुरी, नसीरूद्यीन शाह,कादरखान, सईद जाफरी ने बाप बनकर हिन्दी सिनेमा के बापों की कमी पूरी की।
   इसके बाद उन सितारों ने बाप का लिबास ओढा जो कभी सिल्वर स्क्रीन पर बतौर सफल अभिनेता अपना डंका पिटने में माहिर थे। इसे समय का तकाजा कहा जाए या कुछ! लेकिन, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना , विनोद खन्ना और यहां तक कि बाल कलाकार की भूमिका से कैरियर आरंभ करने वाले ऋषि कपूर भी कुछ खट्टी कुछ मीठी राजू चाचा, हम तुम में बाप बनकर आए। सुनील दत्त ने मुन्ना भाई एमबीबीएस में संजय दत्त के पिता की भूमिका की तो धर्मेन्द्र भी अपने पुत्तरों के बाप बनकर बडे पर्दे पर दिखाई दिए।
हमारी फिल्मों में बाप बनकर अच्छे अच्छे सितारे आए, लेकिन अभी तक कोई ऐसी फिल्म अभी तक नहीं बनी जो इस बाप के चरित्र को उस ऊंचाई तक नहीं ले गया जो ऊंचाई 'मदर इंडिया' ने एक फिल्मी मां को दी थी। हालांकि, दिलीप कुमार ने 'शक्ति' में बाप की भूमिका को दमदार बनाया था। 'दंगल' में आमिर खान ने बच्चों की सेहत के लिए हानिकारक होते हुए भी एक यादगार बाप को रूपहले पर्दे पर पेश कर बाप की गरिमा को बढाने का काम जरूर किया है।
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Tuesday, February 5, 2019

मध्यप्रदेश के खाली खजाने को लेकर गरमाती सियासत!

- हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश में नई सरकार बनने के बाद से ही ये मामला तूल पकड़ रहा है कि प्रदेश सरकार के खाली खजाने का क्या होगा? किसानों के दो लाख तक के कर्ज को माफ़ करने की घोषणा तो कर दी, पर ये ये पैसा आएगा कहाँ से? सरकार का खर्च कैसे चलेगा? सरकारी कर्मचारियों का वेतन और भत्ते समय पर देने में कोई परेशानी तो नहीं होगी और बाकी खर्चों की पूर्ति का रास्ता कहाँ से निकलेगा! कमलनाथ ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही खर्चों में कमी का एलान तो किया, पर मितव्ययिता की भी एक सीमा होती है! नई सरकार के सामने वित्तीय संकट का सबसे बड़ा कारण ये रहा कि पहले वाली सरकार ने मुक्त हस्त से खजाना लुटाकर उसे खाली कर दिया! इस वजह से कमलनाथ को विरासत में जो सत्ता मिली उसकी तिजोरी लुटी हुई थी!   
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   विधानसभा चुनाव से पहले जो मुद्दा सबसे ज्यादा चर्चा में था, वो मध्यप्रदेश सरकार की वित्तीय स्थिति को लेकर ही रहा है। पिछली शिवराज-सरकार ने चुनाव से पहले हर वर्ग को साधने की कोशिश की! इन कोशिशों का सीधा असर प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर पड़ना तय था और वही हुआ भी! चुनाव से पहले भी कांग्रेस ने इस स्थिति को लेकर सरकार पर निशाना साधा था। तब के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और आज के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा था कि प्रदेश भीषण आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। प्रदेश पर ओवर ड्रॉफ्ट का खतरा मंडरा रहा है। प्रदेश की आर्थिक स्थिति को लेकर राज्य सरकार को श्वेत पत्र जारी करना चाहिए! उन्होंने अपनी इस मांग को लेकर मुख्यमंत्री को पत्र भी लिखा था, लेकिन इसका उन्हें कोई जबाव नहीं मिला! आज जब वे प्रदेश के मुखिया हैं, ये सारा संकट उनके सामने खड़ा हो गया! उस समय कमलनाथ का आरोप था कि प्रदेश पर करीब पौने दो लाख करोड़ का कर्ज है। वित्तीय वर्ष में तीन बार सरकार बाजार से कर्ज ले चुकी है। सरकार 11 हजार करोड़ का अनुपूरक बजट भी लेकर आई थी। 
    मुख्यमंत्री कमलनाथ के पद संभालते ही सबसे बड़ा सियासी भूचाल ये आया कि किसानों की कर्ज माफ़ी का रास्ता कहाँ से निकलेगा? मुख्यमंत्री ने पार्टी के चुनावी वादे मुताबिक किसानों का 2 लाख तक का बैंक कर्ज को माफ़ करने के आदेश तो कर दिए, पर ये काम होगा कैसे? क्योंकि, उन्हें विरासत में सरकार का खजाना तो पूरी तरह से खाली मिला! जबकि, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का कहना है कि राज्य की वित्तीय स्थिति बेहतर है। उन्होंने ने तो ये भी कहा कि किसानों की कर्जमाफी नहीं चाहिए, वे अपने पसीने की पूरी कीमत चाहते हैं! लेकिन, मुख्यमंत्री कमलनाथ ने हिम्मत नहीं हारी है! उन्होंने कहा कि मैं केंद्र में वाणिज्य और उद्योग मंत्री रह चुका हूँ! मुझे पता कि अर्थव्यवस्था कैसे चलती है! प्रदेश के 70% लोगों का जीवन-यापन खेती पर निर्भर है। मामला सिर्फ खेतों में उपज उपजाने का ही नहीं है। बहुत से ऐसे लोग हैं, जो गाँव में सब्जी बेचते या खेतिहर मजदूर हैं। उनका यह भी कहना था कि यदि उद्योगपतियों का कर्ज माफ़ हो सकता है, तो सरकार किसानों की कर्ज माफ़ी क्यों नहीं कर सकती!  
   कमलनाथ ने शपथ ग्रहण करने से पहले जब सरकार की प्राथमिकताएं एवं योजनाएं बताईं, तभी शिवराज-सरकार के वित्तमंत्री जयंत मलैया ने कह दिया था कि यदि किसानों का कर्ज माफ किया, तो कर्मचारियों को वेतन देने के लाले पड़ जाएंगे! कमलनाथ ने भी इसका जवाब दिया कि उन्हें पता है कि पैसा कहाँ से आएगा! प्रदेश सरकार का खजाना खाली पड़ा है, बड़ा कर्ज है। प्रदेश में वित्तीय संकट की स्थिति है। शीघ्र ही हम इस पर कोई निर्णय लेंगे। कर्ज माफी के लिए हम नई सोच से संसाधन जुटाएंगे। सरकार कमान संभालने से ही कमलनाथ प्रदेश के वित्तीय प्रबंधन में कसावट लाकर विकास योजनाओं के लिए धन जुटाने की बात कहते रहे हैं। उन्होंने मीडिया का बजट रोककर कह दिया, कि मुझे अपनी छवि चमकाने की जरूरत नहीं है। हालांकि, ये बात भी सही है कि दो लाख करोड़ के बजट में मीडिया पर खर्च की जाने वाली राशि ऊंट के मुँह में जीरे की तरह होती है। जबकि सड़कों, फ्लाईओवर और अन्य योजनाओं पर खर्च की जाने वाली धनराशि हजारों करोड़ की होती है। इसके बावजूद मीडिया पर प्रहार करने से जनता को ये संदेश देने में सफलता जरूर मिली कि सरकार धीरे-धीरे अपना वित्तीय प्रबंधन सुधार रही है। लेकिन, नाराज मीडिया को संतुष्ट करना भी तो मुख्यमंत्री का ही काम है। 
   ये सच है कि किसानों की कर्ज माफ़ी से सरकारी खजाने पर बोझ जरूर आया है। यही कारण है कि किसानों की कर्ज माफी हमेशा ही चुनावों में बड़ा मुद्दा रही है। लेकिन, इस घोषणा पर अमल आसान नहीं होता! इसलिए कई पार्टियां किसानों की कर्ज माफ़ी के मुद्दे बचती हैं। भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री रहे शिवराजसिंह चौहान का ये कुतर्क कुछ अलग ही है! वे कहते हैं कि किसान कभी मुफ्त का कुछ भी नहीं चाहते, वे तो पसीने की पूरी कीमत चाहते हैं। किसानों कभी खैरात पसंद नहीं करते! किसानों की गरिमा का सम्मान करते हुए मैंने कई योजनाएं शुरू की, जिससे किसानों के खाते में पैसा जाए। दरअसल, ये शिवराज सिंह की वो राजनीतिक कुंठा है, जो चुनाव हारने के बाद निकल रही है। कांग्रेस की एक घोषणा से चुनाव न जीत पाने की अपनी नाकामयाबी को वे इस तरह जाहिर कर रहे हैं। 
   प्रदेश के खाली खजाने को लेकर जो सियासी तूफ़ान उठा वो धीरे-धीरे बवंडर बनता जा रहा है। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने सरकार के वित्तीय संकट को सियासी हथियार बनाया तो शिवराजसिंह ने राज्य की कंगाली की स्थिति का खंडन करते हुए कहा कि यह गलत है। खजाना में भरपूर भण्डार है। इसके लिए मैं कभी भी और कहीं भी बहस कर सकता हूँ। शिवराज ने यह भी कहा कि मध्यप्रदेश की आर्थिक स्थिति किसी भी दूसरे प्रदेशों से बेहतर है। हम अपनी सरकार के दौरान कभी दूसरे राज्यों की तरह ओवरड्राफ्ट नहीं हुए। नई सरकार के लिए भरापूरा खजाना छोड़ा है। ये कितना सही है, ये बात जयंत मलैया के उस बयान से साबित होती है कि हमने खजाना खाली करके छोड़ा है! जिस सरकार में वित्त मंत्री रहे मलैया जब्व खजाने के खाली होने का दावा कर रहे हैं, तो शिवराज सिंह के इस दावे की कोई अहमियत नहीं रह जाती कि खजाना भरा है!
     पिछली सरकार के समय से ही प्रदेश पर कर्ज का बोझ बढ़कर करीब 2 लाख करोड़ रुपए है। जिस पर 6,000 करोड़ रुपए का सालाना ब्याज देना पड़ रहा है। पिछली सरकार के अंतिम शीतकालीन सत्र में शिवराज सरकार ने 8,000 करोड़ रुपए का दूसरा अनुपूरक बजट पेश किया था। इस पहले भी करीब 14 हजार करोड़ का एक अनुपूरक बजट पेश किया जा चुका था। जबकि, 1.58 लाख करोड़ रुपए का मूल सालाना बजट इसके अतिरिक्त था। अर्थशास्त्र के जानकारों के अनुसार अनुपूरक बजट का मतलब यही है कि प्रदेश का अर्थ-तंत्र कहीं न कहीं गड़बड़ा रहा हैं। इसके अलावा शिवराज-सरकार ने बाजार से भी करीब 15,500 करोड़ रुपए का कर्ज उठाया था। इन स्पष्ट खुलासों के बाद शिवराज सिंह के इन दावों का कोई मतलब नहीं रह जाता कि खजाना भरापूरा है! हालात जो भी हों, पर सियासी झगड़ों ने सरकार के खजाने को खोलकर जनता को जरूर दिखा दिया!
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Sunday, February 3, 2019

रंग ज़माने लगी हॉलीवुड की फ़िल्में


- हेमंत पाल

  हॉलीवुड की फ़िल्में धीरे-धीरे भारतीय दर्शकों के दिल में उतरने लगी है। बेहतरीन प्रॉडक्शन, नए और अनोखे कथानक आइडियों और एक्शन वाली इन फिल्मों ने नई पीढ़ी के दर्शकों को सबसे ज्यादा आकर्षित कर रही है। जबकि, एक समय वो भी था, जब अंग्रेजी फ़िल्में देखने वालों को अच्छा नहीं समझा जाता था। समाज में उनके प्रति एक अलग ही तरह की धारणा बन गई थी कि ये वो कुंठित तबका है, जो अंग्रेजी फ़िल्में देखकर संतुष्ट होता है। लेकिन, अब समाज में उस तरह का सोच नहीं रहा! नई पीढ़ी के दर्शकों को हॉलीवुड फिल्मों की कहानियों के नए आइडिये और फ़ास्ट एक्शन काफी लुभाता है।       
  इन फिल्मों के प्रति भारत के दर्शकों बदली सोच और बढ़ती संख्या से ये साबित भी कर दिया है कि वे जब चाहें बॉलीवुड पर कब्ज़ा कर सकती हैं! धीरे-धीरे ये सब होने भी लगा है। स्थिति ये आ गई कि हॉलीवुड की फिल्में अब भारत में आसानी से 100 करोड़ का कारोबार कर लेती हैं, जबकि हिंदी फिल्मों को इस आंकड़े तक पहुँचने में सारे हथकंडे आजमाना पड़ते हैं। 2018 में ही हॉलीवुड की दो फिल्मों 'एवेंजर्स : इनफिनिटी वॉर' और 'जुरासिक वर्ल्ड' ने बॉक्स ऑफिस पर 222.69 करोड और 152 करोड का कारोबार किया। भारत के दर्शकों में हॉलीवुड फिल्मों का क्रेज किस तेजी से बढ़ रहा है इसका सुबूत है कि ‘एवेंजर्स : इनफिनिटी वॉर’ अमेरिका से दो हफ्ते पहले भारत में रिलीज की गई! इस फिल्म ने कमाई मामले में अभी तक के सारे रिकॉर्ड ही ध्वस्त कर दिए। इस फिल्म ने सबसे तेज कमाई का भी रिकॉर्ड बनाया है। गनीमत थी कि जब ये फ़िल्में प्रदर्शित हुई, तब कोई बॉलीवुड फिल्म सामने नहीं थी। यदि कोई फिल्म प्रदर्शित भी होती तो उसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ता। 2018 में पहली बार किसी हॉलीवुड फिल्म ने देश में 200 करोड के कारोबार  आंकड़ा पार किया! 
 लम्बे समय से ये बात कही जा रही है कि एक वक़्त ऐसा आएगा जब हॉलीवुड की फ़िल्में बॉलीवुड फिल्मों को चुनौती देंगी! लेकिन, इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया गया! अब, जबकि हॉलीवुड की फिल्मों के कारण बॉलीवुड की फिल्मों का बिजनेस प्रभावित होने लगा तो निर्माताओं को चिंता सताने लगी! 2015 से हालात बहुत तेजी से बदले जब जुरासिक वर्ल्ड, एवेंजर्स : एज ऑफ अल्ट्रॉन और फास्ट एंड फ्यूरियस-7 ने भारत में 700 करोड़ से ज्यादा की कमाई की थी। उससे पहले अनिल कपूर की भूमिका वाली 'मिशन इम्पॉसिबल : द घोस्ट प्रोटोकॉल' ने 40 करोड़ रुपए का बिजनेस किया। 2017 में भारत में हॉलीवुड फिल्मों की हिस्सेदारी करीब 20% थी। जबकि, दस साल पहले 2009 में यह आँकड़ा 7.2% ही था। थिएटर के अलावा डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी हॉलीवुड की फ़िल्में  बहुत देखी जा रही है।
  भारत में हॉलीवुड फिल्मों का कारोबार करीब 1000 करोड़ रुपए है। हिंदी फिल्मों से इसकी तुलना की जाए तो ये बॉक्स ऑफिस के मुताबिक करीब 15% होता है। ये आँकड़ा भले ही छोटा लगे, पर ये भी ध्यान देने वाली बात है कि हिंदी फिल्म के मुकाबले हॉलीवुड फिल्मों को बहुत कम थियेटर मिलते हैं। यदि थियेटरों के हिसाब से कमाई का औसत निकाला जाए, तो हिंदी सिनेमा कमजोर ही नजर आएगा! इन फिल्मों की सफलता का सबसे बड़ा राज है सुपर हीरो! हॉलीवुड की अधिकांश वही फ़िल्में भारतीय दर्शकों द्वारा पसंद की जाती है जिनमें सुपर हीरो होता है। अभी तक इस तरह की जो जितनी भी फ़िल्में रिलीज हुई, उन्होंने अच्छा कारोबार किया है।  
  ऐसी स्थिति में बॉलीवुड को हॉलीवुड फिल्मकारों की तरह सोचने की जरुरत है। नए ज़माने के भारतीय दर्शकों को हॉलीवुड फिल्मों में जो पसंद आ रहा है, वही सब बॉलीवुड फिल्मकारों को भी सीखना होगा! अब पुराने ढर्रे वाली प्रेम कहानियों और बदले की कहानियों के दिन लद गए। बॉलीवुड को नई सोच के मुताबिक बदलना होगा! हॉलीवुड यह सारे प्रयोग कर चुका है! हमें केवल उसे अपनाना है। भारतीय परिवेश में भी कई बेहतरीन कहानियां हैं, जिन्हें आज के दर्शकों के मनोरंजन के मुताबिक नया ट्रीटमेंट देना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो एक दिन बॉलीवुड पर हॉलीवुड  होने में देर नहीं लगेगी! 
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