Monday, December 13, 2010

एक थी उमा भारती!

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में उमा भारती होने के अलग मायने हैं। उन्हें सिर्फ एक हिंदुवादी नेता, अक्खड़ या मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री कहकर बात पूरी नहीं की जा सकती! पाँच साल पहले जब वे अचानक मध्यप्रदेश के मुखिया की कुर्सी से बेदखल की गई (या हो गई) थी, तब यह मान लिया गया था कि इसके साथ ही उनकी राजनीति का अध्याय भी समाप्त हो गया! इसके बाद उन्होने मीडिया के सामने लालकृष्ण आडवानी को खरी-खरी सुनाकर अपने इरादों का अहसास करा दिया था। कुछ ने उनके इस अक्खड़ और फक्कड अंदाज पर पीठ थमथपाई थी, तो किसी ने इसे राजनीतिक उच्छृंखलता कहा था। इसके बाद वे पार्टी से निकल गई और असंंतुष्ट भाजपाईयों का एक अलग कुनबा खड़ा करने की कोशिश की। नई पार्टी बनाने के उमा भारती के फैसले की अलग-अलग तरीके से चीरफाड़ की गई। कोई उनका कितना भी विरोधी रहा हो, पर सभी का कहना था कि इस महिला में फिनिक्स होने का माद्दा है। फिनिक्स यानी कि वह पक्षी जिसके बारे में मान्यता है कि वह अपनी ही राख से फिर जीवित हो जाता है। लेकिन, उमा भारती के बारे में यह भ्रम ही निकला! क्योंकि, भगवा धारण करके भी उनके अंदर कहीं न कहीं राजनीतिक लोभ जीवित था। ये लोभ मुख्यमंत्री बनने के बाद आया या उससे पहले से था, यह कहना मुश्किल है। क्योंकि, उनकी राजनीतिक कार्यशैली को नजदीक से देखने और समझने वालों का निष्कर्ष था कि उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा किसी पदलोभी नेता से कम नहीं है।
भाजपा को नेस्तनाबूद करने के उनके संकल्प ने कई को प्रभावित किया। बहुत से लोग उनके साथ यह सोचकर आ गए कि इस महिला में संघर्ष करने की जिजीविषा है, जो राजनीति के शिखर तक पहुँचेगी। चुनाव में उनकी पार्टी मुकाबले की खातिर मैदान में भी उतरी, पर भाजपा के सामने कहीं टिक नहीं सकी। उनके सारे वजीर राजनीति की शतरंज की बिसात पर प्यादे ही साबित हुए! उनके मोहरे हारकर भी भाजपा के लिए भस्मासुर नहीं बन सके। इस पर भी उमा भारती का राजनीति गुरूर कम नहीं हुआ। उनकी टीम भी किसी चमत्कार की उम्मीद में डटी रही, लेकिन राजनीति का उसूल है कि यहाँ झंडा थामने वाले तब तक ही साथ देते हैं, जब नेता में जोश मौजूद हो! धीरे-धीरे दहाड़ने वाली उमा भारती ठंडी पड़ने लगी। इतने पर भी वे यह कहने से नहीं चूकती थीं कि मैं पार्टी में वापस नहीं लौटूँगी! किंतु, जब किसी व्यक्ति में राजनीतिक महत्वाकांक्षा जाग जाती है तो उसके दावे और वादे भी झूठे पड़ने लगते हैं। वही सब उमा भारती ने भी किया। भाजपा और लालकृष्ण आडवाणी को कोसने वाली यह नेता अब फिर उसी भाजपा में लौटने को राजी हो गई, जिसे वे छोड़कर गईं थी!
इसके लिए शायद उमा भारती को दोष देना ठीक नहीं होगा। क्योंकि, राजनीति में इस तरह के स्वांग करना और मौकापरस्त होना स्वाभाविक है। बार-बार बयान बदलना पहले भी इस नेता की आदत रही है, और अब भी है। जो उमा भारती कभी भाजपा में लौटना नहीं चाहती थीं, वे आने को राजी हो गई! जो सालभर का अवकाश लेकर चिंतन करना चाहती थी, वह मायावती को चुनौती देने के लिए कमर कसकर खड़ी है! लेकिन, उन लोगों का क्या दोष जो कभी भरोसा करके उनके साथ चल पड़े थे, वे अब कहाँ है? पार्टी ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उमा भारती के लिए तो दरवाजे खोल दिए, पर वे बचे-खुचे कार्यकर्ता कहाँ जाएंगे जो 'किसी अच्छे" की उम्मीद में उनके पीछे चल रहे थे? दरअसल, यही राजनीति है! कोई सवाल करे कि राजनीति कैसी होती है, तो जवाब दिया जा सकता है कि उमा भारती जैसी होती है!