Friday, December 30, 2022

कोरोना काल के बाद बदला मनोरंजन का स्वाद!

- हेमंत पाल

    कोरोना काल ऐसा दुखद प्रसंग है, जिसे कोई याद करना नहीं चाहता। इस महामारी ने देश और दुनिया को हर जगह से तोड़ दिया। यहां तक कि मनोरंजन पर भी इस महामारी ने ख़ासा असर डाला। सिनेमाघर बंद हो गए और लोग घरों में कैद हो गए। समय काटने के लिए दर्शकों के पास ओटीटी ही एकमात्र विकल्प बचा था। दर्शकों ने कई महीनों तक मोबाइल में मनोरंजन ढूंढा! कुछ हद तक उनको अच्छा भी लगा। लेकिन, फिर भी फिल्म देखने की उनकी इच्छा ख़त्म नहीं हुई। कई महीने तक सिनेमाघरों के बंद रहने के बाद जब दरवाजे खुले, पर वे भी बंधनों कई के साथ। जबकि, दर्शक ऐसे बंधनों के आदी नहीं होते! वे जिस मस्ती के साथ सिनेमाघरों में फिल्म देखने आते हैं, वो नदारद हो गई! कोरोना बचाव के तमाम साधनों के साथ एक सीट की दूरी को भी जरुरी बताया गया। कई महीनों तक नई फ़िल्में भी रिलीज नहीं हुई। क्योंकि, सभी निर्माता अप्रत्याशित भय के कारण अपनी महंगी फिल्म को रिलीज करने से डर रहे थे। अनुमान लगाया गया कि कोरोना काल में फिल्म जगत को करीब 5 हज़ार करोड़ का बड़ा नुकसान हुआ। ये ऐसा नुकसान था, जिसकी भरपाई में सालों लग जाएंगे। 
     दर्दभरे समय के बाद मनोरंजन के लिहाज से कुछ हद तक संभला साल 2022 भी विदा हो गया। फिल्मों के लिहाज से बीते साल को बेहद त्रासद माना जाएगा। कई बड़े सितारों की फिल्में धराशायी हुई। ऐसे में गिनती की ही फ़िल्में दर्शकों पर अपना असर छोड़ सकीं। महंगे सितारे और बड़े बजट की कमजोर कहानी, पुराने ढर्रे, खराब एक्टिंग और कमजोर डायरेक्शन की वजह से बॉक्स ऑफिस पर ज्यादातर फ़िल्में करिश्मा नहीं कर सकीं। आमिर खान, रणबीर कपूर, अक्षय कुमार और अजय देवगन जैसे बड़े सितारों को भी बॉक्स ऑफिस पर निराशा का सामना करना पड़ा। कोरोना काल के बाद रिलीज हुई पहली फिल्म अनन्या पांडे और ईशान खट्टर की 'खाली पीली' थी, जो चली नहीं। लेकिन, पहली बड़ी फिल्म 'ब्रह्मास्त्र' थी, जिसने बहुत अच्छा कारोबार किया। कोरोना काल के बाद पिछले साल अक्टूबर में सिनेमाघर खुले। इसके बाद करीब 27 फिल्में रिलीज हुईं। लेकिन, जिन्हें हिट कहा जाए वे फ़िल्में उंगलियों पर गिनने लायक हैं।  
    अक्षय कुमार और आमिर खान जैसे बड़े स्टार की आठ बड़े बजट की फिल्में रिलीज हुईं, लेकिन उनकी कोई भी फिल्म संतोषजनक बिजनेस नहीं कर सकी। लेकिन, 'ब्रह्मास्त्र' ने बॉक्स ऑफिस पर पहले दिन की कमाई के रिकॉर्ड तोड़ दिए। इस फिल्म ने ओपनिंग डे पर भारत में 36 करोड़ का कलेक्शन किया। वहीं, ग्लोबल ग्रॉस कलेक्शन 75 करोड़ रुपए रहा। इस तरह 'ब्रह्मास्त्र' कोरोना काल के बाद बॉक्स ऑफिस पर पहले दिन सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फिल्म बन गई। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कोरोना के बाद दर्शकों की फिल्म देखने की रूचि भी बदल गई। छोटी फिल्मों से उनका मोहभंग हुआ और बड़े बजट और बड़े केनवस की फ़िल्में सफल हुई। बीते एक साल में देखा जाए तो जितनी भी फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल हुई सभी करोड़ों की लागत से बनी थी!
    2022 में कई ऐसी फ़िल्में आई जिन्होंने हिट होकर चौंका दिया। किसी ने 200 तो किसी ने 300 करोड़ कमाए। लेकिन, कई ऐसी फ़िल्में बनी, जो अपनी लागत भी नहीं निकाल सकी। सबसे ज्यादा नुकसान अक्षय कुमार और आमिर खान को हुआ। आमिर की तो एक ही फिल्म 'लालसिंह चड्ढा' ही फ्लॉप हुई, पर अक्षय कुमार की सम्राट पृथ्वीराज, बच्चन पांडे, रक्षाबंधन और 'रामसेतु' जैसी चार फ़िल्में लगातार फ्लॉप हुई। 
     इसके अलावा विक्रम वेधा, जर्सी, रनवे-34, हीरोपंती-2, जयेशभाई जोरदार, थैंक गॉड और धाकड़ ऐसी फ़िल्में थी जो अपनी लागत निकालने में भी सफल नहीं हुई। कुछ ऐसी फिल्में भी रही जिनकी कास्ट और बजट कास्ट इतना साधारण था कि किसी ने ध्यान भी नहीं दिया कि ये फिल्में परदे पर भी उतरी है। लेकिन, 'द कश्मीर फाइल्स' जैसी फिल्मों ने तो जैसे चमत्कार ही किया। 15 करोड़ की फिल्म ने 250 करोड़ का कारोबार किया, जबकि फिल्म में कोई बड़ा कलाकार भी नहीं था। 11 मार्च को रिलीज हुई इस फिल्म ने पहले दिन तो 3 करोड़ की कमाई की, लेकिन बाद भी इसकी कमाई का ग्राफ लगातार बढ़ता गया।
    'भूल भुलैया-2' ने भी अप्रत्याशित सफलता पाई। कार्तिक आर्यन की यह ऐसी फिल्म रही, जिसने उन्हें लाइम लाइट में ला दिया। स्ट्रगल कर रहे कार्तिक के लिए यह फिल्म हीरे की खान साबित हुई। 'भूल भुलैया-2' इस साल 8 जुलाई को सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी। देखा जाए तो बीता साल वास्तव में साउथ की फिल्मों के नाम रहा। साल की ज्यादातर बड़ी हिट फिल्म भी साउथ की ही देन रही। इनमें कन्नड़ फिल्म 'कांतारा' सबसे ज्यादा चर्चा पाने वाली फिल्म बनी। 15 करोड़ के बजट में बनी कांतार ने देशभर में लगभग 275 करोड़ का बिजनेस किया, जबकि वर्ल्डवाइड कलेक्शन 325 करोड़ से भी ज्यादा रहा। तेलुगु फिल्म 'कार्तिकेय-2' जो 13 अगस्त को रिलीज हुई हुई और हिट हुई। इसे माउथ पब्लिसिटी का अच्छा फायदा मिला।
      करीब 175 करोड़ में बनी अक्षय कुमार और मानुषी छिल्लर की फिल्म 'सम्राट पृथ्वीराज' को दर्शकों ने नकार दिया। अक्षय की अदाकारी को लेकर भी सवाल उठाए गए। यह फिल्म सिर्फ 70 करोड़ ही कमा सकी। आमिर खान की 'लाल सिंह चड्ढा' ने भी बॉक्स ऑफिस पर निराश किया। फिल्म को 180 करोड़ के बजट में बनाया गया, लेकिन वह सिर्फ 60 करोड़ ही कमा सकी। सौ करोड़ से ज्यादा में बनी रणबीर कपूर की फिल्म     
      'शमशेरा' को भी दर्शकों ने नकार दिया। डेढ़ सौ करोड़ की यह फिल्म सिर्फ 43 करोड़ ही कमा सकी। रनवे-34 जिसमें अजय देवगन, अमिताभ बच्चन, बोमन ईरानी और रकुल प्रीत सिंह थे दर्शकों को दिल नहीं जीत सकी। 65 करोड़ में बनी इस फिल्म ने लागत की आधी ही कमाई 32 करोड़ की। टाइगर श्रॉफ की 'हीरोपंती-2' जो करीब 70 करोड़ में बनी वह भी बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गई। फिल्म के पहले भाग को दर्शकों ने खूब पसंद किया, पर इस बार मामला जमा नहीं! साल का अंत भी रोहित शेट्टी की फिल्म 'सर्कस' से हुआ।  
         दर्शकों के बदले जायके ने सफलता के पर्याय माने-जाने वाले रोहित शेट्टी का जायका भी बिगाड़ दिया। साल के अंत में प्रदर्शित उनकी फिल्म 'सर्कस' से उन्हें बड़े धमाके की उम्मीद थी, लेकिन वह भी धराशायी हो गई। इससे साबित हो गया कि रणवीर सिंह भी सफलता की गारंटी नहीं रहे। शेक्सपियर की कहानी 'कॉमेडी ऑफ़ इरर्स' पर रोहित शेट्टी ने दांव चला, पर वे उसका फिल्मीकरण करने में चूक गए। जबकि, इससे पहले इस कहानी पर किशोर कुमार की 'दो दूनी चार' और संजीव कुमार की 'अंगूर' सफलता के झंडे फहरा चुकी है। फिर भी रोहित शेट्टी की इस मायने में तारीफ की जाना चाहिए कि उन्होंने एक हजार से ज्यादा लोगों को लेकर कोरोना काल में इस फिल्म का निर्माण किया, ताकि उनका स्टाफ और तकनीशियन भूखे न मर सकें।
        रीमेक को लेकर काफी कुछ कहा जाता रहा है, पर इस साल पांच ऐसी फिल्मों ने पानी भी नहीं मांगा। शाहिद कपूर और मृणाल ठाकुर की 'जर्सी' से बहुत उम्मीदें थी, जो धराशायी हुई। यह 2019 में आई सुपरहिट तेलुगु फिल्म 'जर्सी' का हिंदी रीमेक था, लेकिन 80 करोड़ रुपए में बनी इस फिल्म ने मात्र 27 करोड़ की कमाई की। 2014 में रिलीज हुई तमिल फिल्म 'जिगर ठंडा' का रीमेक अक्षय कुमार की 'बच्चन पांडे' भी बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गई थी। 165 करोड़ रुपए के बजट में बनी ये फिल्म सिर्फ 60 करोड़ रुपए ही कमा पाई।
      'विक्रम वेधा' 2017 में इसी नाम से आई तमिल फिल्म थी, जिसने बॉक्स ऑफिस पर झंडे गाड़े थे, लेकिन ऋतिक रोशन और सैफ अली खान के अभिनय से सजी 'विक्रम वेधा' ने दर्शकों को निराश किया। 180 करोड़ में बनी इस फिल्म ने 93 करोड़ का ही कारोबार किया। तेलुगु फिल्म 'मिडिल क्लास अब्बाई' का रीमेक 'निकम्मा' नाम से बना, पर फिल्म दर्शकों को रास नहीं आई। 22 करोड़ बजट की फिल्म  मात्र 2 करोड़ भी नहीं कमाए। मलयालम की राष्ट्रीय पुरस्कार फिल्म 'हेलेन' हिंदी में 'मिली' नाम से बनी पर बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर पड़ी। फिल्म ने साढ़े 3 करोड़ ही कमाए। सालभर में जो हुआ उसे देखकर कहा जा सकता है कि कोरोना काल के बाद फिल्म के दर्शकों का स्वाद बदल गया है! अब उन्हें चटपटा मनोरंजन पसंद आने लगा!
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Saturday, December 24, 2022

फिल्मों को भी खूब भाई गोवा की रंगीन जिंदगी!

 - हेमंत पाल

     दिसम्बर का महिना आते ही देशभर के पर्यटक अपना झोला लेकर गोवा की तरफ निकल पड़ते हैं। 25 दिसम्बर और 31 दिसम्बर को तो गोवा के तटों पर सैलानियां का सैलाब दिखाई पडता है। गोवा का यह सैलाब केवल भौगोलिक पृष्ठभूमि ही नहीं, सिनेमा के परदे पर भी अकसर दिखाई देता है। संयोग की बात है कि 61 साल पहले दिसंबर माह की 19 तारीख को गोवा पुर्तगालियां की उपनिवेषिता से आजाद होकर भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बना, तब से अब तक गोवा और उसके आसपास की दृष्यावलियां कई फिल्मों में दिखाई दी। लेकिन, गोवा की आजादी को लेकर अभी तक कोई प्रभावशाली फिल्म नहीं बनी। जितनी भी फिल्में बनी, उन्होंने दर्शकों पर अपना प्रभाव जरूर छोड़ा। 
    गोवा की आजादी को लेकर सबसे पहले 1965 में कॉमेडियन, अभिनेता और निर्माता-निर्देशक आईएस जौहर ने 'जौहर महमूद इन गोवा' फिल्म बनाई थी। इस फिल्म के प्रति जौहर कितने गंभीर थे, इसका पता इसी से चलता है, कि उन्होंने इसका प्रदर्शन 1 अप्रैल 1965 को किया। लेकिन, इस फिल्म ने आईएस जौहर की लॉटरी लगा दी। जौहर, महमूद, सोनिया साहनी, सिमी गरेवाल और कमल कपूर अभिनीत यह फिल्म अपने गानों के कारण खूब चली। कल्याणजी-आनंदजी ने इस फिल्म के लिए यह दो दीवाने दिल के, अंखियो का नूर है तू और 'धीरे रे चलो मोरी बांकी हिरनिया' जैसे कर्णप्रिय गीतों की रचना की थी।
    गोवा स्वतंत्रता संग्राम पर दूसरी फिल्म 1983 में प्रदर्शित 'पुकार' थी। अमिताभ बच्चन, टीना मुनीम, जीनत अमान, रणधीर कपूर, प्रेम चोपडा, श्रीराम लागू अभिनीत इस फिल्म का निर्देशन रमेश बहल ने किया था। कहानी के मुताबिक, इस फिल्म का कथानक आजादी से पहले वाले गोवा पर केंद्रित था। फिल्म में क्रांतिकारियों का एक समूह पुर्तगाल से आजादी के लिए लडता है। यह फिल्म अपने कथानक के बजाए 'समंदर में नहाकर और भी रंगीन हो गई हो' जैसे गरमा-गरम गीत के कारण चर्चित तो हुई, पर बॉक्स आफिस पर धराशायी हो गई थी। इसके बाद गोवा के स्वतंत्रता संग्राम पर कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं बन पाई। लेकिन, गोवा की लोकेशन पर कई फिल्में बनने लगी। जिनमें गोवा के चर्चों और मंदिरों से लेकर समुद्री तट का भरपूर दोहन हुआ। 
     कोंकण के होने के कारण गुरूदत्त को गोवा की लोकेशंस खूब लुभाती थी। गोवा की पृष्ठभूमि पर गुरूदत्त ने क्राइम फिल्म 'जाल' का निर्माण किया था। देव आनंद और गीता बाली अभिनीत इस सफल फिल्म के गीत 'ये रात ये चांदनी फिर कहां' और 'चोरी चोरी मेरी गली आना है बुरा' आज भी सुने जाते हैं। गोवा में फिल्माई गई फिल्मों में रति अग्निहोत्री और कमल हासन अभिनीत 'एक दूजे के लिए' बेहद सफल हुई थी। ओल्ड पेट्टो ब्रिज, डोना पाउला चेट्टी, शांता दुर्गा मंदिर और हार्वालेम वाटर फाल्स की सुंदर लोकेशन पर फिल्माए दृश्यों को दर्शकों ने बेहद पसंद किया था। डायरेक्टर होमी अदजानिया की फिल्म 'फाइंडिंग फैनी' की शूटिंग भी गोवा में ही हुई थी। 
     संजय लीला भंसाली को भी गोवा की लोकेशन कुछ ज्यादा ही अच्छी लगती है। सलमान, मनीषा कोईराला और नाना पाटेकर जैसे कलाकारों को लेकर उन्होंने 'खामोशी : द म्यूजिकल' फिल्म बनाई। इसमें दर्शकों ने ओल्ड गोवा, अंजुना बीच, सालिगांव चर्च और रिवर क्रुज के दृश्यों का आनंद लेते हुए मधुर संगीत का आनद उठाया। इसके बाद संजय लीला भंसाली ने गोवा की पृष्ठभूमि लेकर खूबसूरत फिल्म 'गुजारिश' बनाई, जिसमें ऋतिक रोशन और ऐश्वर्या राय की केमिस्ट्री को सराहा तो गया। लेकिन, अपने विषय के कारण यह बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाल नहीं कर पायी। यदि किसी फिल्म ने गोवा को सबसे ज्यादा लोकप्रिय बनाया, तो वह थी अनिल कपूर, दीपिका और रणवीर सिंह की फिल्म 'दिल चाहता है।' इसमें गोवा के चापोरा फोर्ट को बहुत सुंदरता के साथ सेल्यूलाइड पर उतारने का प्रयास किया गया था। इसका नतीजा यह हुआ कि गोवा की सैर पर जाने वाले 'दिल चाहता है' में दिखाए फोर्ट को जरूर देखते हैं।
      फिल्मों में हास्य और स्टंट का घालमेल करने वाले रोहित शेट्टी ने अपनी 'गोलमाल' श्रृंखला में गोवा का खास उपयोग किया। रोहित ने अपनी इस श्रृंखला की अब तब बनी तमाम फिल्मों में दोना पाउला बीच, फोर्ट अगुआडा और पणजी स्थित जीएमसी काम्पलेक्स की लोकेशंस को रोमांचक अंदाज में पेश करने में सफलता पायी। गोवा की पृष्ठभूमि का उपयोग करके सफलता का कीर्तिमान बनाने में अजय देवगन की फिल्म 'सिंघम' भी उल्लेखनीय है। इस फिल्म के एक्शन सिक्वेंस में दोना पाउल जेट्टी का इस तरह से उपयोग किया गया कि अब जो पर्यटक गोवा में यहां जाते हैं, तो गाइड यह बताना नहीं भूलते कि इस जगह पर जयकांत शिर्के के गुंडों और बाजीराव के बीच जमकर मारपीट हुई थी। इस फिल्म का निर्देशन भी रोहित शेट्टी ने किया। उनकी एक फिल्म 'दिलवाले' में भी गोवा की लोकेशंस का जमकर उपयोग किया। फिल्म में दिखाया गया कि शाहरूख खान और वरूण धवन गोवा में रहकर कार रिपेयरिंग वर्कशॉप चलाते हैं। इस फिल्म में यूं तो पूरे गोवा के दर्शन होते है, लेकिन इसकी ज्यादातर शूटिंग पंजिम चर्च पर हुई थी। शाहरूख खान की एक अन्य फिल्म 'जोश' में भी गोवा की पृष्ठभूमि दिखाई गई।
      रोहित शेट्टी और संजय भंसाली की तरह ही अजय देवगन के लिए भी गोवा की लोकशंस भाग्यशाली साबित हुई। रोहित शेट्टी की फिल्मों के अलावा अजय देवगन की सफल सस्पेंस फिल्म 'दृष्यम' को भी गोवा में ही फिल्माया गया। फिल्म का नायक विजय सालगांवकर गोवा में केबल टीवी केबल का व्यवसाय करता है। वह अपने परिवार के साथ सत्संग और खरीददारी के लिए पंजिम जाता है। उसका घर भी गोवा की सुंदर लोकेशन पर स्थित है। इन फिल्मों के अलावा रोहन सिप्पी निर्देशित क्राइम थ्रिलर 'दम मारो दम' भी उल्लेखनीय है, जिसमें निर्देशक ने 2 से 3 हजार लोगों की भीड़ एकत्रित कर गोवा के अरपोरा मार्केट में शूटिंग की थी। गोवा की पृष्ठभूमि पर आधारित कुछ उल्लेखनीय फ़िल्में है गो गोवा गोन, फाइंडिग फेनी, डियर जिंदगी, लेडिज वर्सेस रिकी बहल, नाम शबाना, भूतनाथ, दिल चाहता है, गोलमाल, सिंघम, दम मारो दम, दिलवाले और 'दृश्यम!'  
     1972 में महमूद निर्मित अमिताभ की फिल्म 'बाम्बे टू गोवा' में केवल नाम ही गोवा का था, पूरी फिल्म बस में ही फिल्मायी गई थी। जब फिल्म रिलीज हुई, तो यह अमिताभ बच्चन या शत्रुघ्न सिन्हा की फिल्म नहीं थी। वास्तव में, यह महमूद की कॉमेडी फिल्म थी, जिसे दर्शक कुछ घंटों के मनोरंजन की उम्मीद में देखने आए थे। उन्हें इससे कुछ और मिला तो वह बोनस था। हिन्दी फिल्मों के अलावा हॉलीवुड की कुछ फिल्मों में भी गोवा को शामिल किया गया। इन फिल्मों दूसरे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित जासूसी फिल्म द सी वोवेल्स, बोर्न सुपरमेसी, शेडो आफ द कोबरा और द लेटर्स, बेंकाक हिल्टन शामिल है। फिल्मों की लोकेशन और पृष्ठभूमि के अलावा गोवा का लोक संगीत भी फिल्मों में काफी पसंद किया गया है। संगीतकार-प्यारेलाल के गुरू एंथोनी गोंसाल्विस भी गोवा के ही थे। उन्हें श्रृद्धांजलि देते हुए प्यारेलाल ने 'अमर अकबर एंथोनी' का गीत 'माय नेम इज एंथोनी गोंसाल्विस' रचा था। गोवा की पृष्ठभूमि पर आधारित गीत 'ना मांगू सोना चांदी' को श्रोताओं ने खूब सराहा है।
      गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत मनोहर पर्रिकर की जिंदगी पर भी फिल्म बनाने की तैयारी शुरू हो गई। फिल्म मेकर्स इसे स्व पर्रिकर के जन्मदिवस पर इस फिल्म को रिलीज करने की योजना बना रहे हैं। इसे दो भाषाओं हिंदी और कोंकणी में रिलीज किया जाएगा। फिल्म के प्रोड्यूसर स्वप्निल शेतकर के मुताबिक, पर्रिकर की सभी उपलब्धियों और उनसे जुड़े विवादों को फिल्म में दिखाया जाएगा। कहानी में मुख्य रूप से 2000 में उनके पहली बार मुख्यमंत्री बनने से पहले की घटनाओं को भी शामिल किया जाएगा, जिनके बारे में ज्यादातर लोग नहीं जानते। 
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Friday, December 16, 2022

सिनेमा की अनूठी डगर ... गांव, कस्बे और शहर!

- हेमंत पाल

    फिल्म बनाते समय फिल्मकारों की कोशिश रहती है, कि वे फिल्म में नए-नए कारणों से रोचकता लाएं, ताकि दर्शक आकर्षित हों! इसलिए वे अपनी फिल्म के शीर्षकों, गीतों या फिल्म के कथानकों में उन जगहों को शामिल करते हैं, जो दर्शकों के जाने-पहचाने हों या जिन्हें देखने की दर्शकों को तमन्ना हो। यही वजह है कि फिल्म निर्माण से लेकर आज तक फिल्मों में जब भी जहां भी फ़िल्मकार को मौका मिलता है, वे शहरों, गांवों, कस्बों या प्रदेशों के नाम शामिल करते हैं। फिल्म में जाने-पहचाने शहरों, गांवों, स्थानों के नाम का इस्तेमाल किए जाने से वे चर्चित हो जाते हैं। कई बार छोटे कस्बे के दर्शक अपने कस्बे या गांव का नाम आने पर इतने गदगद होते हैं कि वे फिल्म को बार-बार देखकर लोकप्रिय बना देते हैं। फिल्मों में रियलिज्म का दौर भी तेजी से प्रचलन में आ रहा है। रियल स्टोरी और रियल लोकेशन की चाह में कई निर्देशक शहरों के असली नामों का इस्तेमाल भी करते हैं। खास बात ये है कि ये नाम सिर्फ फिल्मों की स्क्रिप्ट ही नहीं, बल्कि कभी-कभी फिल्म के टाइटल तक भी जगह बना लेते हैं।
   फिल्मों के शीर्षक की बात की जाए तो पहले दर्शकों में बंबई और दिल्ली का बहुत क्रेज था। अधिकतर लोग इन बड़ी जगहों पर जाने से कतराते थे। कोई कभी दिल्ली या मुंबई देख आता तो महीनों तक वहां के किस्से सुनाया करता था। इसी बात को भुनाते हुए कई निर्माता निर्देशकों ने इन शहरों के नाम अपनी फिल्मों के शहरों में इस्तेमाल किए है। सबसे पहले बंबई, बाम्बे या आज की मुंबई की बात की जाए तो मरीन ड्राइव (1955) मिस बॉम्बे (1957) क्या ये बॉम्बे है (1959) बॉम्बे का बाबू (1960), बॉम्बे का चोर (1962),हॉलिडे इन बॉम्बे (1963) मिस्टर एक्स इन बॉम्बे (1964), बॉम्बे रेसकोर्स (1965) बम्बई रात की बाहों में (1967 ) बाम्बे टू गोवा (1972),बॉम्बे बाय नाइट (1979), बॉम्बे 405 मील (1980), ), सलाम बॉम्बे (1988)  बॉम्बे (1995) , बॉम्बे बॉयज़ (1998) मुंबई से आया मेरा दोस्त (2003) मुंबई मैटिनी (2003),शूटआउट एट लोखंडवाला (2007) मुंबई सालसा (2007), मुंबई मेरी जान (2008), बाम्बे टू बैंकॉक (2008), वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई (2010), मुंबई कनेक्शन (2011),मुंबई मिरर (2013) ,लव इन बॉम्बे (2013) वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई दोबारा! (2013) शूटआउट एट वडाला (2013), बॉम्बे टॉकीज (2013), मुंबई दिल्ली मुंबई (2014),मुंबई कैन डांस साला (2014), मिडसमर मिडनाइट मुंबई (2014) जैसी फिल्में बनी और चली भी।
      बंबई (या मुंबई) के बाद नंबर आता है दिल्ली का। इस शहर को लेकर भी कई सफल-असफल फिल्मों का निर्माण हुआ है। सबसे पहले दिल्ली शहर पर आधारित फिल्म थी चांदनी चौक (1954) इसके बाद 1957 में राज कपूर की फिल्म 'अब दिल्ली दूर नहीं' आई। फिर आई किशोर कुमार और वैजयंती माला की शंकर जयकिशन के संगीत से सजी सफल फिल्म 'नई दिल्ली।' 1956 में प्रदर्शित इस फिल्म के दो साल बाद फिर किशोर कुमार ने ही 'दिल्ली का ठग' में काम किया। यह फिल्म भी सफल रहीं। इसी क्रम में न्यू दिल्ली टाइम्स (1986), नई दिल्ली (1988), दिल्ली हाइट्स (2007), दिल्ली-6 (2009) चांदनी चौक टू चाइना (2009), दिल्ली बेली (2011), दिल्ली चलो (2011), दिल्ली सफारी (2012), क्या दिल्ली क्या लाहौर (2014) जैसी फिल्मों ने दिल्ली का नाम मशहूर किया।
       यही सिलसिला बनाते हुए पंजाब मेल (1939), हैदराबाद की नाज़नीन (1952) झाँसी की रानी (1956), हावड़ा ब्रिज (1958), लव इन शिमला (1960) बनारसी ठग (19620), कश्मीर की कली (1964) जौहर इन बॉम्बे (1967), रोड टू सिक्किम (1969), हैदराबाद ब्लूज़ (1998),  पंचवटी (1986), बनारसी बाबू (1997), भोपाल एक्सप्रेस (1999), मिशन कश्मीर (2000), कलकत्ता मेल (2003), वेलकम टू सज्जनपुर (2008), गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012), चेन्नई एक्सप्रेस (2013), देहरादून डायरी (2013), मद्रास कैफे (2013), गो गोवा गॉन (2013), जिला गाजियाबाद (2013), बदलापुर (2015), लखनऊ इश्क (2015) और बॉम्बे वेलवेट (2015) फिल्मों ने ऐसे ऐसे शहरों से दर्शकों को वाकिफ कराया, जिसका नाम उन्होने पहले कभी सुना नहीं था। अर्जुन कपूर और संजय दत्त की फिल्म 'पानीपत' भी इसका उदाहरण है।
   अब कुछ ऐसी फ़िल्में जिन्हें उनके ऐसे ही शीर्षकों ने लोकप्रिय बनाया। 90 के दशक में कश्मीर में बढ़ती आतंकियों घटनाओं के बीच 'मिशन कश्मीर' फिल्म आई। इस फिल्म में ऋतिक रोशन, संजय दत्त और प्रीति जिंटा मुख्य मुख्य भूमिका में नजर आए थे। 'मुंबई मेरी जान' इस शहर के मिडिल क्लास लोगों के अनुभवों पर आधारित फिल्म थी। इसमें मुंबई की स्पिरिट को पेश किया गया था। फिल्म में केके मेनन, सोहा अली खान और आर माधवन जैसे कलाकार थे। राकेश ओमप्रकाश द्वारा निर्देशित फिल्म 'दिल्ली-6' में अभिषेक बच्चन और सोनम कपूर ने मुख्य भूमिका निभाई थी। इस फिल्म में पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली के कई हिस्सों को दिखाया गया था। 
       एआर रहमान के संगीतबद्ध किए 'ये दिल्ली है मेरे यार' गीत ने लोकप्रियता निभाने में मदद की थी। 'लखनऊ सेंट्रल' फिल्म में कैदी फरहान को म्यूजिक का काफी क्रेज होता है। वो जेल में मौजूद बाकी लोगों के साथ बैंड बनाता है और जेल को तोड़ने की कोशिश करता है। 'जिला गाजियाबाद' गैंगस्टर बबलू श्रीवास्तव की जिंदगी पर आधारित थी। फिल्म में दो दुश्मन ग्रुप दिखाए गए थे। फिल्म के प्लॉट से स्पष्ट है कि इस फिल्म से लोगों के दिल में गाजियाबाद शहर को लेकर अच्छी छवि नहीं बनी थी। आयुष्मान खुराना, कृति सेनन और राजकुमार राव की फिल्म 'बरेली की बर्फी' कामयाब फिल्मों में एक थी। इस फिल्म में बरेली की गलियों को दिखाकर छोटे शहर की लाइफ को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश किया गया था।
   अनुराग कश्यप निर्देशित फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' को देश के साथ विदेशों में ही सराहा गया। वासेपुर की अंतड़ियों में शूट किए हिंसक और विवादित दृश्यों के चलते कुछ संगठन ने ये भी कहा था कि कश्यप की फिल्म से उनके शहर की इमेज इमेज पर नेगेटिव प्रभाव पड़ा है। 'बॉम्बे' फिल्म हिंदू-मुस्लिम के बीच मोहब्बत पर आधारित थी। फिल्म में एक कपल बेहतर जीवन की तलाश में मुंबई पहुंचता है, जहां उन्हें नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसे डायरेक्टर मणिरत्नम की शानदार फिल्मों में गिना जाता है। 
     फिल्मों में ही नहीं वेब सीरीज में भी अब यही फार्मूला आजमाया जाने लगा है। पंकज त्रिपाठी की वेब सीरीज 'मिर्जापुर' ने अपने हिंसक और बोल्ड डायलॉग से लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इस वेब सीरीज की कहानी भी काफी पसंद की गई है और सीरीज के बाद से मिर्जापुर शहर चर्चा में आया। देश ही नहीं विदेशों के कई शहरों को भी हिन्दी फिल्मों ने सेल्यूलाइड पर उतारा। इनमें लव इन टोक्यो, नाइट इन लंदन, सिंगापुर, चाइना टाउन, चाइना गेट, चांदनी चौक टू चाइना, हांगकांग, लंबू इन हांगकांग, जौहर महमूद इन हांगकांग, जौहर महमूद इन गोवा और 'गो गोवा' जैसी फिल्में शामिल है।
    फिल्मी शीर्षकों के अलावा फिल्मी गानों में भी देश-विदेश के शहरों के तराने खूब गूंजे। पुरानी फिल्मों से लेकर नई फिल्मों तक में ऐसे कई गाने बने, जिनमें शहरों के नाम आए हैं। कुछ गाने पूरी तरह उन शहरों पर ही आधारित हैं, तो कुछ में बस थोड़ा सा जिक्र भर हुआ। अशोक कुमार की 'आर्शीवाद' ऐसी फिल्म है जिसके गीत रेल गाड़ी में सबसे ज्यादा शहरों के नामों को शामिल किया गया। ऐसे ही शहरों को लोकप्रिय करने वाले गीतों में ये दिल्ली है मेरे यार (दिल्ली 6), काट कलेजा दिल्ली (नो वन किल्ड जेसिका), तुझसे मिलना पुरानी दिल्ली में (बंटी-बबली का कजरारे कजरारे), दिल्ली की सर्दी (जमीन), बंबई से आया मेरा दोस्त (आप की खातिर), ये है बंबई मेरी जान, ई है बंबई नगरिया तू देख बबुआ (डॉन), शोला है या है बिजुरिया, दिल की बजरिया मुंहई नगरिया (टैक्सी नं 9211),अपना बॉम्बे टॉकीज (बॉम्बे टॉकीज), केरल में गरमी है नैनीताल से सर्दी भेजो जो 'सिर्फ तुम' फिल्म के गीत 'पहली पहली बार मोहब्ब्त की है' का अंतरा है। 
       इसके अलावा टिकट खरीद के बैठ जा सीट पे निकल न जाए कहीं चेन्नई एक्सप्रेस (चेन्नई एक्सप्रेस), कश्मीर मैं तू कन्याकुमारी (चेन्नई एक्सप्रेस), काश्मीर की कली हूं मैं (जंगली), हाय रे मेरा घाघरा, बगदाद से लेके दिल्ली वाया आगरा (ये जवानी है दीवानी), टाइम फॉर कैलकटा किस (ब्योमकेश बक्शी), पंजाब द पुत्तर है पिंड जलंधर (2 स्टेट्स), झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में (मेरा साया), बंबई से गई पूना पूना से गई दिल्ली दिल्ली से गई पटना (हम हैं राही प्यार के), शिरडी वाले साईं बाबा (अमर अकबर एंथोनी), खईके पान बनारस वाला (डॉन), ये लखनऊ की सरजमीं (चौदहवीं का चांद), ए शहर-ए-लखनऊ तुझे मेरा सलाम है (पालकी) मैं बंबई का बाबू (नया दौर ) ये है बॉम्बे मेरी जान (सीआयडी) को दर्शक बड़े चाव से गुनगुनाते हैं।
   अन्य शहरों की तरह इंदौर और भोपाल का भी फिल्मों में समय-समय पर अच्छा उपयोग किया गया। किशोर कुमार और मीना कुमारी की फिल्म 'नया अंदाज' में नायक-नायिका की नाटक मंडली जिन शहरों में जाती है उनमें इंदौर भी होता है। 'बरसात की रात' में केएन सिंह की बेटी मधुबाला और फक्कड़ गायक भारत भूषण घर से भागकर इंदौर की रानी सराय में ठहरते हैं। एक दिन केएन सिंह को रेडियो पर भारत भूषण का गीत सुनाई देता है 'जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात' और गाने के तुरंत बाद जब उद्घोषक कहता है यह इंदौर रेडियो स्टेशन है और अभी आप जाने-माने गायक से गीत सुन रहे थे। इस पर केएन सिंह अपने गुर्गों को बुलाकर कहता है इंदौर जाओ और दोनो को पकड़कर लाओ। फिल्म 'धर्मा' के क्लाइमेक्स में तवायफ बिंदू खलनायक प्राण से कहती है 'दिवाली की रात में इंदौर के राज दरबार से मुजरा करके आ रही थी, तो रास्ते में उसे एक बच्चा मिला।' फिल्म 'हमारे तुम्हारे' फिल्म में संजीव कुमार इंदौर, भोपाल वालों के उच्चारण दोष पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं तुम इंदौर भोपाल वाले गोरी को गौरी कहते हो।
      सदी के महानायक अमिताभ के मुंह से भी फिल्म 'डॉन' में इंदौर का जिक्र हुआ। डॉन का अमिताभ बड़बोला है, वो अपने आपको हर क्षेत्र का उस्ताद बताता है। एक दृश्य में जब वह पहलवानों से घिर जाता है, तब एक पहलवान को धोबी पछाड़ मारकर कहता है 'हम भी विजय बहादुर पहलवान इंदौर वाले के चेले रह चुके हैं।' फिल्म 'नौ दो ग्यारह' में देवानंद इंदौर से गुजरते हुए इंदौर रेलवे स्टेशन पर जाकर चलो महू महू चलो की आवाज लगाते हैं। 'चोरी मेरा काम' में भी जीनत अमान इंदौर का हवाला देती है, तो 'शोले' में सुरमा भोपाली जगदीप गप्पे मारते हुए कहता है अपना भोपाल होता तो ...! किशोर कुमार दुनिया में कहीं भी शो करते तो शुरुआत में अपना परिचय देते हुए कहते थे 'मेरे बहनों भाइयों लोगों और लुगाइयों आप सभी को किशोर कुमार खंडवे वाले का नमस्कारम।
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Tuesday, December 13, 2022

अभिनय ही नहीं, कई मामलों में अलग थे दिलीप कुमार!

 - हेमंत पाल 

     आज दिलीप कुमार हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन, उनमें बहुत कुछ ऐसा रहा जो उन्हें सबसे अलग करता रहा। कलाकारों की भीड़ में भी वे अलग ही रहे! उन्होंने कभी अपने आपको अलग रखने की कोशिश तो नहीं की, पर संयोग कहें या किस्मत, वे हर मामले में अपने समकालीनों से अलग ही रहे। ये भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने अपने आपको कलाकार तक सीमित रखा! वे कलाकार होने के साथ नफीस साहित्यिक व्यक्ति भी थे। उर्दू भाषा तो उनके मुख से किसी महकते गुल की तरह धारा प्रवाह रूप में बहती थी। यह धारा भी इतनी निर्मल और सहज होती थी कि किसी भारी भरकम शब्दावली का उपयोग करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। गाहे-बगाहे किसी कार्यक्रम में उनके मुख से जो शब्द निकलते, वे श्रोताओं को एक अदबी रस में डूबो देते थे। लंदन के अलबर्ट हॉल में लता मंगेशकर का परिचय उन्होंने जिस अंदाज में दिया था आज भी वो शब्द श्रोताओं के कान में शहद घोलते हैं। 
   एक बार उन्होंने ऐसे ही एक कार्यक्रम में अनायास कह दिया था 'हमारे बाद इस महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे, बहारें हमको ढूँढेगी न जाने हम कहाँ होंगे!' आज जब इन पंक्तियों को याद किया जाता है, तो लगता है कि दिलीप कुमार ने न जाने किस संदर्भ में अपने बारे में ही इन पंक्तियों को दोहराया होगा, जो आज सच साबित हो रहा है। दिलीप कुमार सिर्फ अभिनेता नहीं, पाठशाला भी नहीं पूरा विश्वविद्यालय ही थे। उन्होंने अभिनय में कभी भी अपने पूरे शरीर को नहीं झोंका, बल्कि केवल हाथों और चेहरे से अपना अभिनय बयां किया और खूब किया। होठों से मंद स्वरों में निकलते संवाद, आंखों से झांकती संजीदगी और माथे पर पड़ने वाली बालों की लटों से ही दिलीप कुमार सब कुछ कर जाते और कह जाते थे।
      किंग खान की उपाधि तो शाहरुख खान के लिए मीडिया ने गढी थी, लेकिन बॉलीवुड के असली किंग खान तो यूसुफ खान ही रहे! उन्हें उसी मीडिया ने गलत बयानी कर ट्रेजडी किंग के नाम से मशहूर कर दिया था। ट्रेजडी किंग का उनका रूप तो महज मेला, जोगन, शहीद, अंदाज, दीदार, शिकस्त और देवदास के लिए ही था। लेकिन, अपनी पचास से थोड़ी ज्यादा फिल्मों में तो ट्रेजिडी किंग नहीं, वे किरदार थे जिसके लिए निर्माता निर्देशक ने उन्हें फिल्मों में चुना था। इसी उपाधि से तंग आकर दिलीप कुमार इतने डिप्रेशन में आ गए कि उन्होंने आजाद ,कोहिनूर और 'राम और श्याम' में कॉमेडी करनी पड़ी। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि उन्होंने गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' करने से इंकार कर दिया, जिसका उन्हें ताउम्र अफसोस भी रहा।
    वे ऐसे कलाकार थे जिसके जीवन का हर पक्ष कोई न कोई फलसफा रहा! यूसुफ़ खान से दिलीप कुमार बनने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। उनकी उच्च शिक्षा मुंबई के खालसा कॉलेज से हुई, जहां उनके प्रोफ़ेसर डॉ मसानी ने उनको देविका रानी से मिलवाया था। अच्छी उर्दू आने के कारण देविका रानी की कंपनी ने उन्हें पटकथा लेखक के रूप में रख लिया। लेकिन, उनके शालीन व्यवहार, नफासती अंदाज और अच्छी उर्दू के साथ अच्छे ड्रेसिंग सेंस का दोहरा आकर्षण देविका की पारखी नज़रों से छुपा नहीं रहा। उन्होंने यह जानते हुए कि जिस नौजवान ने कभी थिएटर का मुंह नहीं देखा, उनके सामने ‘'ज्वार-भाटा' फ़िल्म की मुख्य भूमिका के लिए प्रस्ताव रख दिया। 1944 में सामने आई यही उनकी पहली फ़िल्म थी।
     इस फिल्म में उन्हें अनुबंधित करते समय देविका रानी ने एक ही शर्त रखी कि वे अपना नाम बदल लें और ऐसा नाम रखें, जो दर्शकों को अच्छा लगे। यूसुफ खान के फिल्मी नामकरण के लिए हिंदी के प्रसिद्ध कवि पंडित नरेंद्र शर्मा से आग्रह किया गया और उन्होंने तीन नाम सुझाए वासुदेव, जहांगीर और दिलीप कुमार। इनमें से यूसुफ़ को जहांगीर नाम पसंद आया था, लेकिन वहीं कार्यरत कथाकार भगवती चरण वर्मा ने दिलीप कुमार नाम की सिफारिश की और देविका रानी ने भी दिलीप पर ही अपनी राय क़ायम की। इस तरह यूसुफ़ खान दर्शकों के लिए दिलीप कुमार बन गए। इस फिल्म के लिए उनका पारिश्रमिक साढ़े बारह सौ रुपए तय हुआ, जिसे यूसुफ खान ने सालाना पारिश्रमिक समझ लिया था। क्योंकि, तब औसत तनख्वाह ही पचास रुपए महीना हुआ करती थी। बाद में पता चला कि यह तो मासिक पारिश्रमिक था। 
    ऐसा ही एक वाकया तब हुआ था, जब देविका रानी ने कुमुद गांगुली से अशोक कुमार बने अभिनेता को 300 रुपए का पारिश्रमिक देना मुकर्रर किया था।  इसे भी अशोक कुमार अपना सालाना पारिश्रमिक समझ बैठे थे। मजे की बात तो यह कि 300 रुपए की एकमुश्त रक़म पहली बार पाकर दादा मुनी इस चिंता में पड़ गए थे कि उसे कहाँ रखें। इतनी बड़ी रक़म घर में होते हुए उन्हें नींद भी कैसे आएगी! अंत में वे तकिए की खोल में पैसे रखकर उसे सिर के नीचे दबाकर सोए थे। फिर भी उन्हें रातभर नींद नहीं आई थी। अनुबंध के बाद अशोक कुमार और शशधर मुखर्जी के साथ दिलीप कुमार की ट्रेनिंग शुरू हुई और दिलीप कुमार का जन्म हुआ, जो हिन्दी फिल्म का वटवृक्ष साबित हुए।
     दिलीप कुमार और विवादों का नाता बहुत पुराना रहा है। कभी उन पर पाक परस्त होने का आरोप लगाया गया, तो कभी यह प्रचारित किया गया कि 'पैगाम' में उनके सह कलाकार राजकुमार उन्हें खा गए थे! लेकिन, उन्होंने यदि पर्दे पर अंडर प्ले किया, तो सिर्फ इसलिए क्योंकि फिल्म के किरदार की यही मांग भी थी। 'पैगाम' में वे राजकुमार के छोटे भाई बने थे, लिहाजा उन्हें बड़े भाई के सामने दबकर ही रहना था जो कहानी की डिमांड भी थी। 'संघर्ष' की भी यही कहानी थी जिसके बारे में यह तक कह दिया गया कि संजीव कुमार के बढ़ते प्रभाव से बचने के लिए उन्होंने उनके पात्र को मरवा दिया। जबकि, फिल्म की कहानी यह थी कि उन्हें जहर पिलाने के लिए जिस वैजयंती माला का उपयोग किया जाता है वह उनके बचपन की प्रेयसी होती है। हकीकत जानने पर वह जहर का प्याला बदलकर संजीव कुमार को पिला देती है और अपने प्यार को बचा लेती है।
    'संघर्ष' में दिलीप कुमार और वैजयंती माला के बीच जितने भी रोमांटिक सीन थे, सभी तनाव के साथ फिल्माए गए थे। क्योंकि, 'मधुमती' और 'गंगा जमुना' के दौरान दोनों के बीच जो प्यार पनपा था, 'लीडर' के बनते-बनते वह नफरत में बदल गया। वैजयंती माला उनका तीसरा प्यार थी। उनका पहला प्यार 'शहीद' फिल्म की नायिका कामिनी कौशल थी, दूसरा प्यार थी मधुबाला जिससे उन्हें 'तराना' के दौरान मोहब्बत हो गई थी। दोनों शादी भी करना चाहते थे, लेकिन मधुबाला के पिता नहीं चाहते थे कि उनकी कमाऊ बेटी हाथ से निकल जाए। 
        उस दौरान दिलीप कुमार को यकीन था कि मधुबाला प्यार की खातिर अपने पिता की बात नहीं मानेगी! लेकिन, मधुबाला ने अपने पिता का साथ दिया और दोनो के प्यार के बीच दरार पैदा हो गई जो 'नया दौर' के दौरान खाई बन गई। नतीजा ये हुआ कि मधुबाला ने फिल्म छोड़ दी और जब बीआर चोपड़ा ने हर्जाने के लिए केस लगाया तब दिलीप कुमार ने बीआर चोपड़ा का पक्ष लिया। उसके बाद दोनों में बातचीत बंद हो गई। इसी अबोले के बीच दोनों ने 'मुगले आजम' में रोमांटिक दृश्य दिए। लेकिन, एक दृश्य में जब दिलीप कुमार ने मधुबाला को जमकर तमाचा लगाया, तो सब कुछ खत्म हो गया।
     सायरा बानो से शादी के बाद जब आसमां से उन्होंने निकाह किया तो एक बार फिर वे विवादों में घिर गए। जब उन्हें मुंबई का उन्हें शेरिफ बनाने का प्रस्ताव मिला, तो वे उसे नकारते रहे, तब शरद पवार ने उन्हें मनाया था। इसके बावजूद दिलीप कुमार की झोली हमेशा पुरस्कारों से भरी रही। राज्यसभा की सदस्यता के साथ 'पद्म भूषण' व 'दादा साहेब फाल्के' जैसे सम्मानों से नवाज़ा.गया। वे एकमात्र अभिनेता थे, जिन्हें दाग, आजाद, देवदास, नया दौर, कोहिनूर, लीडर, राम और श्याम तथा 'शक्ति' जैसी आठ फ़िल्मों के लिए आठ बार वर्ष के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार मिला। पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'निशान-ए-इम्तियाज' से भी उन्हें नवाजा गया। इसके बावजूद वे परदे पर फिल्म दर फिल्म अपने मरने को सच-सा जीवंत बनाने की सफल कोशिश करते रहे। इसके बीच अभिनय में गहन अवसाद को निरंतर साकार करते-करते मरणांतक अवसाद को जीते-जीते दिलीप साहब अपने वास्तविक जीवन में भी अवसाद डिप्रेशन में चले गए और अंतिम कुछ साल तक वह अपनी भूली हुई याददाश्त से जूझते रहे। अंततः यादों की जुगाली करते हुए 7 जुलाई 2021 को वे इस दुनिया से रुखसत हो गए।
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Saturday, December 10, 2022

गुजरात की जीत में भाजपा हिमाचल की हार न भूले!

    भाजपा ने गुजरात फिर जीत लिया। ये उसकी लगातार होने वाली जीत का अगला कदम है। पार्टी इस जीत से बहुत ज्यादा उत्साहित है। निश्चित रूप से चुनाव की जीत राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं में उत्साह भरती हैं। लेकिन, लगता है भाजपा गुजरात की जीत में हिमाचल प्रदेश की हार को भूल रही है। भाजपा ने गुजरात में अपनी दोहराई भर है, नया राज्य जीता नहीं, पर एक राज्य खो दिया। ये वो राज्य है जो इस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का गृह राज्य भी है। क्या कारण है कि 'मोदी ब्रांड' गुजरात में तो चला, पर हिमाचल में उसे जनता ने नकार दिया। भाजपा के लिए मैनपुरी और खतौली के उपचुनाव के अलावा दिल्ली नगर निगम के चुनाव भी चिंतन का विषय हैं! बेहतर होगा कि पार्टी गुजरात की जीत के जश्न में हिमाचल की हार को नजरअंदाज न करे। 
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- हेमंत पाल
   दो राज्यों के चुनाव के नतीजे सामने आ गए। साथ ही चुनाव को लेकर किए जा रहे दावों का सच भी सामने आ गया। इस चुनाव में कौनसी पार्टी ने कितनी सीटें जीती, किसकी सत्ता कायम रही और किसका झंडा ज्यादा लहराया, उससे ज्यादा बड़ी बात है कि लोकतंत्र ज्यादा मजबूत हुआ। इन चुनाव ने सभी पार्टियों को जश्न मनाने का मौका देने के साथ कुछ ऐसे सबक भी दिए, जो भविष्य का गंभीर संकेत हैं। जो नतीजे सामने आए, वो लोकतंत्र के ताकतवर होने का इशारा हैं। साथ ही राजनीतिक पार्टियों को चिंतन करने का भी संदेश देते हैं कि वे मतदाताओं को जागीर समझने की ग़लतफ़हमी न पालें।  
    भाजपा गुजरात की जीत को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साहित है और जश्न में डूबी है। लेकिन, उसे हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। भाजपा ने गुजरात में अपनी सत्ता को फिर से पाया, पर हिमाचल में भाजपा ने सत्ता को खोया भी है। गिनती के लिहाज से देखा जाए तो भाजपा के लिए यह बड़ा नुकसान है कि उसने एक राज्य खो दिया। ऐसी पार्टी जो केंद्र की सत्ता में हो और अपनी जीत के दावे और अपनी चुनावी रणनीति का दम भरती हो, उसके लिए हिमाचल की हार बड़ी बात है। हिमाचल में कांग्रेस ने 68 सीटों में से 40 पर जीत दर्ज की। कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर दिया। 
   गुजरात में हुई करारी हार के बाद यदि हिमाचल में भी कांग्रेस हार जाती, तो उसके लिए आने वाला समय और चुनौती भरा होता। हिमाचल में चार दशकों से हर बार सत्ता बदलने का इतिहास रहा है। इसलिए भाजपा के लिए बड़ी बात ये थी, कि वो इस रिवाज को खंडित करती। यहां कांग्रेस के प्रचार अभियान की कमान प्रियंका गांधी ने संभाल रखी थी। यदि वास्तव में मोदी ब्रांड होते, तो उनका जादू इस पहाड़ी राज्य में भी चलना था, फिर क्या हुआ जो ऐसा नहीं हुआ। भाजपा के लिए चिंताजनक बात ये भी है, कि हिमाचल प्रदेश भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का राज्य है। जो पार्टी देश की राजनीति में अव्वल हो उसके अध्यक्ष के राज्य में ही उसे हार का मुंह देखना पड़ा। नड्डा का चुनाव के टिकटों में दबदबा रहा और उन्होंने रिकॉर्ड संख्या में रैलियों के साथ निजी रूप से भाजपा अभियान को आगे बढ़ाया। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर भी ख़म ठोककर लगे थे, पर जो नतीजे सामने आए वो निराशाजनक रहे। 
     दिल्ली में नगर निगम की हार और उत्तर प्रदेश में मैनपुरी लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी की आसमान फाड़ जीत भी भाजपा के लिए किसी चुनौती से कम नहीं! इन राजनीतिक हादसों को नजरअंदाज करके उसे गुजरात की जीत की आड़ में छुपाया जा रहा है। हिमाचल के अलावा मैनपुरी से समाजवादी की डिंपल यादव की जीत भी महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस सीट को कसने की पूरी कोशिश की, पर वे सफल नहीं हुए। मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट के उपचुनाव में रालोद के मदन भैया की जीत ने भी भाजपा को आईना दिखा दिया। 
      देखा जाए तो यह एक तरह से उन राजनीतिक पार्टियों के लिए संदेश भी है, जो मतदाताओं को अपनी जागीर समझने की भूल करने लगती हैं। उन्हें लगता है कि हम मतदाता को हम जिस दिशा में चाहे घुमा सकते हैं। उन्हें जो दिखाना या भरमाना चाहेंगे, वे उस भ्रम में आ भी जाएंगे! यही कारण है कि गुजरात की जीत की आड़ में हिमाचल की हार, दिल्ली के एमसीडी की हार को नजरअंदाज किया जा रहा है। गुजरात में भले ही कांग्रेस के सफाई की बात की जा रही हो, लेकिन हिमाचल भी भारत का एक राज्य और जहां उसी कांग्रेस ने अपनी जीत हासिल करके बता दिया कि ये पार्टी अभी खत्म नहीं हुई। जिस नरेंद्र मोदी को ब्रांड बनाकर गुजरात की जीत का श्रेय दिया जा रहा है, वही मोदी ब्रांड हिमाचल प्रदेश में कोई चमत्कार क्यों नहीं कर पाए या दिल्ली में उनका जादू क्यों नहीं चला! भाजपा की छाती पर मूंग दल रही 'आप' पर भाजपा नकेल क्यों नहीं डाल सकी! नकारात्मक प्रचार के बावजूद दिल्ली नगर निगम के चुनाव में 15 साल बाद भाजपा को 'आप' ने सत्ता से बाहर कैसे कर दिया। 
    इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि लाख खामियों के बावजूद गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भी लोकप्रिय होने के साथ बड़े नेता हैं। 27 साल की एंटी इनकंबेंसी को किनारे करके यहां बड़ी जीत पाना इस बार आसान नहीं लग रहा था, पर ये चमत्कार हुआ, तो सिर्फ ब्रांड मोदी के कारण! गुजरात में यह भाजपा की सबसे बड़ी जीत कही जा रही है। कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी ने नेतृत्व में कभी 149 सीटें जीती थी, आज भाजपा उससे आगे निकल गई। लेकिन, फिर भी सोलंकी को मिले मतों का प्रतिशत आज भी भाजपा को मिले वोटों के ज्यादा है। सोलंकी के समय कांग्रेस को 55.3% वोट मिले थे, जबकि भाजपा को अभी 53% वोट मिले। यह भाजपा की बड़ी जीत है, पर उसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसके लिए पार्टी ने कितनी मेहनत की।  स्वयं नरेंद्र मोदी ने 31 बड़ी रैलियां की, रोड शो किए और 135 विधानसभा सीटों पर चुनाव प्रचार किया। 
   गृह मंत्री अमित शाह ने भी 108 सीटों पर प्रचार किया। यदि वास्तव में गुजरात में भाजपा की जड़ें इतनी मजबूत है, तो यह सब करने की जरूरत शायद नहीं थी! यही स्थिति दिल्ली नगर निगम की भी कही जा सकती है, जहां स्वयं नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भाजपा के लिए प्रचार करना पड़ा। यह सब भाजपा की लोकप्रियता का संकेत नहीं, बल्कि चिंता का विषय है। इन छोटे चुनाव में भी बड़े नेताओं को दखल देना पड़ रहा है। सबसे बड़ी बात तो यह कि हिमाचल में सारी कोशिशों के बावजूद भाजपा वह नहीं पा सकी, जिसकी उसे उम्मीद थी। इस राज्य का रिवाज है यहां का मतदाता हर 5 साल में सरकार बदल देता है। वही भाजपा के साथ भी हुआ। यदि यह नहीं होता, तो भाजपा कद बढ़ता, पर ऐसा कुछ नहीं हो सका
        दिलचस्प पक्ष है कि अरविंद केजरीवाल की 'आप' राजनीति ने गुजरात के दम पर ही दस साल में आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर लिया। देखा जाए तो यह देश का सबसे सफल राजनीतिक स्टार्टअप है। भले ही उसे गिनती में पांच सीटें मिली हो, पर उसे मिले 13% वोट भविष्य के लिए अच्छा संकेत है। दिल्ली निकाय चुनावों में जीत हासिल करके अरविंद केजरीवाल ने गुजरात में एक अच्छी शुरुआत की। देखा जाए तो भाजपा के लिए कांग्रेस से बड़ा खतरा 'आप' है।  
    ये चुनाव के नतीजे वास्तव में देश के लोकतंत्र की मजबूती, मतदाताओं की परिपक्वता और उनकी समझदारी का प्रतीक है। दो राज्यों के इन चुनाव और चंद उपचुनाव के नतीजों से यह साबित हो गया कि देश का मतदाता किसी पार्टी के दबाव और प्रभाव में नहीं है। वह किसी प्रलोभन या झूठे वादों में भी अब आंख मूंदकर भरोसा नहीं करता। देश की सियासत एक नई राह की और मुड़ने लगी है। दो राज्यों के परस्पर विपरीत नतीजों से यह भी स्पष्ट हो गया कि भाजपा भले ही स्वीकार न करे, पर इन चुनावों से उसे बड़ा नुकसान हुआ है न कि उतना फायदा जिसके जश्न में वह सच को नहीं समझ रही! विपक्ष भी अब समझ गया कि भाजपा को टक्कर देने के लिए उसे भी राष्ट्रवाद का डंका बजाना होगा। गुजरात तो 27 साल से भाजपा का था। यदि मुहिम की तरह मुकाबले में उतरा जाए, तो बीजेपी की ताकत के बावजूद उससे दूसरे राज्य भी छीने जा सकते हैं। 
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Tuesday, December 6, 2022

शिवराज का ये नया अंदाज सच में चौंकाने वाला!

- हेमंत पाल

      मध्यप्रदेश में इन दिनों बीजेपी पूरी तरह चुनावी रंग में है। पिछले विधानसभा चुनाव में मात खा चुकी पार्टी अब येन-केन-प्रकारेण अगला चुनाव जीतने की जुगत में है। पार्टी भले ही अभी चुनावी मुहिम पर नहीं लगी हो, पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने जरूर मोर्चा संभाल लिया। तीन महीने में जनता को उनका रूप बदला हुआ नजर आ रहा है। वे अब पहले वाले शिवराज नहीं रहे! वे मंच पर भी कुर्सी पर नहीं बैठते, बल्कि माइक हाथ में लेकर अफसरों को चमकाते दिखते हैं। जनता इनके इस बदले रूप से चमत्कृत है। क्योंकि, पहली बार वे उस शिवराज से मुखातिब हैं, जो सीधे कोड़ा फटकारते नजर आ रहे हैं। मुख्यमंत्री के इस रौद्र रूप से अफसरों में घबराहट हैं, पर जनता खुश हैं।   
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      मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने सरकार के सिस्टम को सुधारने की जैसे मुहिम छेड़ दी। पिछले कुछ ही दिनों में उन्होंने दस-बारह अधिकारियों और कर्मचारियों को मंच से ही सस्पेंड कर दिया। अगले साल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में जरूरी था कि जनता और सरकार के बीच की दूरी को पाटा जाए। यही कारण है कि शिवराज पूरी तरह एक्शन मोड में आ गए। क्योंकि, उन्हें कुछ तो ऐसा करना था जो लोगों को कुछ नया लगे। शिवराज सिंह बहुत सारी घोषणाएं करते रहते हैं। कुछ पूरी होती है, कुछ लोग भी भूल जाते हैं और सरकार भी! ऐसे में जनता को आकर्षित करने का सबसे आसान तरीका था कि उन्हें मंच से ही सरकार के एक्शन दिखाए जाएं! 
    मुख्यमंत्री के अफसरों और कर्मचारियों को बिना किसी जांच-पड़ताल के सस्पेंड करने के आदेशों से गांव की जनता तालियां पीटने लगती है। उन्हें लगता है कि मुख्यमंत्री ने सही किया। लेकिन, बाद में कोई शायद ही पता करता होगा कि सस्पेंड हुए अधिकारियों और कर्मचारियों का क्या हुआ! क्योंकि, लोग सिर्फ तात्कालिक प्रतिक्रिया से खुश होते हैं, बाद में क्या हुआ इससे उन्हें कोई वास्ता नहीं! बीते शनिवार को शिवराज सिंह औचक निरीक्षण के लिए डिंडौरी पहुंच गए। वहां बांध निर्माण के काम में भ्रष्टाचार के आरोप में तीन बड़े अफसरों को सस्पेंड किया। इसके पहले बड़वानी और बैतूल जिले में कई को मंच से ही निलंबित करने का आदेश जारी किया। मुख्यमंत्री सीधे जनता के बीच जा रहे हैं। वे किसानों, ग्रामीणों की समस्या सीधे सुन रहे हैं। मंच से ही मौजूद जनता से सवाल करते हैं, जवाब लेते हैं और कार्रवाई के निर्देश देते हैं। लोगों ने ऐसा कभी पहले नहीं देखा! वे जनता के मुख्यमंत्री बनकर अफसरों को सुधरने की नसीहत देने के साथ लापरवाह अफसरों की क्लास भी लेते हैं। 
      मुख्यमंत्री अपने भाषणों में सिर्फ अधिकारियों और कर्मचारियों को ही नहीं धमकाते, बल्कि गुंडे-माफियाओं को भी चेतावनी देते हैं। अब उन्होंने आदिवासी युवतियों से शादी करके आदिवासियों की जमीन की अफरातफरी करने वालों को भी चेताना शुरू कर दिया। उन्होंने इसे भी 'लव जिहाद' का नाम दिया। शिवराज सिंह आजकल नया मध्य प्रदेश बनाने की भी घोषणा कर रहे हैं। अपने खास अंदाज में ये भी कहते हैं कि 'प्रदेश में अब कमाने वाला खाएगा, लूटने वाला जेल जाएगा।' शिवराज के इस बदले रूप से प्रशासनिक महकमों में हड़कंप के हालात हैं। अधिकारियों के खिलाफ एक्शन के फैसलों पर लोग जितना खुश होते हैं, उससे मुख्यमंत्री का उत्साह बढ़ रहा है। हर मंच से मुख्यमंत्री एक ही बात दोहराते हैं कि अगर जनता को कोई दिक्कत हुई तो मामा उसको छोड़ेगा नहीं। वे सीधे उन्हें शिकायत करते हुए जनता का दिल जीतने की कोशिश कर रहे हैं। ये गलत नहीं है, पर वास्तव में ये शिवराज का बदला रूप है। 
   शिवराज सिंह चौहान इन दिनों सरकारी योजनाओं समेत जनता से सभी समस्याओं को देखने के लिए हेलीकॉप्टर से औचक दौरा कर रहे हैं। कहा जा रहा कि स्थानीय प्रशासन को भी अंतिम समय में मुख्यमंत्री के आने की जानकारी दी जाती है। उनकी इस एक्शन वाली भूमिका से सरकारी अमले को समझ नहीं आ रहा कि क्या किया जाए! क्योंकि, अब मुख्यमंत्री किसी भी शिकायत पर कार्रवाई कर सकते हैं। मुख्यमंत्री ने पिछले दिनों एक मंच से साफ घोषणा भी की कि जनता को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, अगर जनता को कोई दिक्कत हुई तो मामा दिक्कत देने वाले को छोड़ेगा नहीं।
   मुख्यमंत्री का ये अंदाज पूरी तरह चुनावी है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि, ये मुख्यमंत्री का पहला कार्यकाल नहीं है। वे 18 साल से प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। फिर क्या कारण है कि अभी तक उनका ये अंदाज कभी नजर नहीं आया! उनके इतने लम्बे कार्यकाल के बाद भी यदि अफसर-कर्मचारी लापरवाह हैं, तो इसका जिम्मेदार कौन है! निश्चित रूप से इसके लिए सरकार के अलावा कोई और नहीं! आज जो शिवराज का अंदाज लोग देख रहे हैं, वो वास्तव में ओरिजनल है नहीं, इस पर शंका करने वाले भी कम नहीं है।     
      मुख्यमंत्री का ये अंदाज पहली बार सितम्बर में लोगों ने देखा था। उन्होंने आदिवासी छात्रों से फोन पर दुर्व्यवहार करने वाले झाबुआ के एसपी को तत्काल हटाया था। बताते हैं कि सोशल मीडिया पर एक ऑडियो वायरल हुआ जिसमें एसपी अरविंद तिवारी छात्रों से अशोभनीय व्यवहार करते सुनाई दे रहे थे। मामला संज्ञान में आते ही मुख्यमंत्री ने मामले की रिपोर्ट मांगी और उन्हें निलंबित कर दिया। इन छात्रों ने अपनी सुरक्षा को लेकर एसपी से गुहार लगाई थी। लेकिन, एसपी ने उन्हें सुरक्षा देने के बजाए उन्हें फटकार दिया था। इस घटना के अगले दिन कलेक्टर सोमेश मिश्रा को भी हटा दिया। लेकिन, इसके बाद मुख्यमंत्री के एक्शन की जो तारीफ हुई उसने उन्हें उत्साहित कर दिया। उन्हें लगा कि जनता का दिल जीतने का ये सबसे सबसे अच्छा तरीका है।  
      शिवराज सिंह की तुलना अनिल कपूर की फिल्म 'नायक' से की जा रही है। इस फिल्म में अनिल कपूर को एक दिन का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिलता है और वो सब कुछ बदल देता है। उसका अंदाज वैसा ही होता है, जो आजकल शिवराज का है। वे भी मंच से अधिकारियों को निलंबित कर रहे हैं। मुख्यमंत्री गांव के लोगों और किसानों से सीधे मिलते हैं, उनकी शिकायत सीधे सुनते हैं और अफसरों को सस्पेंड करने में देर नहीं करते! शिवराज इन दिनों अपनी जननेता की छवि बनाना चाहते हैं। वे पूरी तरह चुनाव के मूड में आ गए और चुनाव जीतने का कोई मौका गंवाना नहीं चाहते! लेकिन, कहीं ऐसा न हो कि छोटे अफसरों और कर्मचारियों को चमकाने का उनका अंदाज उनके गले न पड़ जाए! क्योंकि, चुनाव में इन्हीं लोगों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। 
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Sunday, December 4, 2022

मनोरंजन से मालामाल राजश्री के 75 साल!

हेमंत पाल 

      हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को सौ साल से ज्यादा हो गए। इस लम्बे दौर में बहुत कुछ घटा। मूक फिल्मों ने बोलना सीखा, फिल्मों में गाने सुनाई देने लगे, ब्लैक एंड व्हाइट से फ़िल्में रंगीन हुई, स्टार वैल्यू का जमाना आया। लोगों ने सितारों को आसमान चढ़ते और अस्त होते देखा। लेकिन, इंडस्ट्री ने यह भी देखा कि एक फिल्म निर्माण कंपनी ने इस उतार-चढाव के बीच अपनी स्थापना के 75 साल पूरे कर लिए। ये है ताराचंद बड़जात्या कि 'राजश्री पिक्चर्स!' इस फिल्म निर्माण कंपनी को इंडस्ट्री की संस्कारों की पाठशाला भी कहा जाता है, जिसने फिल्मों को यह सामाजिकता का संस्कार दिया। यह भी बताया कि पारिवारिक फिल्मों के दम पर भी दर्शकों का मनोरंजन किया जा सकता है। यदि कहानी में दम हो, तो उसे किसी बड़े सितारे की जरुरत नहीं! इसलिए यह भी कहा जा सकता है 'राजश्री' का नाम ही कई बार फिल्मों की सफलता के लिए काफी होता है। 'राजश्री पिक्चर्स' के नाम से उन्होंने सिनेमा का ऐसा एम्पायर खड़ा किया, जो 75 साल से लगातार पारिवारिक और सामाजिक फिल्में बना रहा है।   
    ताराचंद बड़जात्या ने 1933 में फिल्मों में प्रवेश किया, जब वे 19 साल के थे। उन्होंने 'मोती महल थियेटर्स' से अपना काम शुरू किया। ताराचंद बड़जात्या ने पहले अपने फिल्म प्रोडक्शन हाउस का नाम अपने बेटों 'राज' और 'कमल' के नामों को मिलाकर राजकमल रखा था। इस प्रोडक्शन हाउस के बारे में कहा जाता है कि इन्हें पारिवारिक फिल्मों में सफलता इसलिए मिली, कि इनकी फिल्मों का कथानक बेहद संस्कारित होता है। यहां तक कि नायक-नायिका नजदीक भी नहीं आते! ये उस दौर में बहुत हिम्मत की बात है, जब सिनेमा में अश्लीलता की बाढ़ आई हुई है और पूरा परिवार एक साथ बैठकर फिल्म नहीं देख सकता। देशभर में सिनेमाघरों के निर्माण में भी यह फ़िल्मी परिवार पीछे नहीं रहा। इसके अलावा मितव्ययिता भी राजश्री का मूलमंत्र है। एक फिल्म में उन्होंने गीत के फिल्मांकन के लिए तरह-तरह के फलों से सेट लगाया गया था। शूटिंग के बाद लंच में इन्हीं फलों को निकालकर सभी को लंच करवाने का कीर्तिमान भी राजश्री के नाम दर्ज है। इंदौर का बैम्बिनो सिनेमा एक समय राजश्री की ही फिल्में दिखाने के लिए चर्चित था।
    इस फिल्म निर्माण कंपनी की उम्र और देश की आजादी की उम्र बराबर है। 15 अगस्त 1947 को जिस दिन देश आजाद हुआ, उसी दिन ताराचंद बड़जात्या ने 'राजश्री पिक्चर्स' के रूप में इस कंपनी की नींव रखी। उन्होंने 1960 में 'राजश्री प्रोडक्शन्स' की स्थापना की और हिंदी सिनेमा को एक से बढ़कर एक नायाब फिल्में दीं। उनकी पहली फिल्म 'आरती' सुपरहिट रही। 1964 में आई दूसरी फिल्म 'दोस्ती' ने भी अपार सफलता हासिल की। यह अपने समय की ब्लॉकबस्टर फिल्म थी, जिसे उस समय 6 फिल्म फेयर पुरस्कार मिले थे। इसके बाद सफल फिल्मों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। इस प्रोडक्शन कंपनी ने कई सुपरहिट फिल्में दी। 'राजश्री' की ज्यादातर फिल्मों को सफलता मिली। लेकिन, सबसे सफल फिल्मों में दोस्ती (1964), अंखियों के झरोखे से (1978), नदिया के पार (1982), सारांश (1984), मैंने प्यार किया (1989), हम आपके हैं कौन (1994), हम साथ साथ हैं (1999) और 'दुल्हन वही जो पिया मन भाए' भी सुपरहिट थी। अब 'ऊंचाई (2022) भी इस फेहरिस्त में शामिल हो गई। 
       राजश्री ने हमेशा पारिवारिक फिल्में ही बनाई, ऐसा भी नहीं है। बड़ी फिल्मों के साथ कम बजट और नए कलाकारों को लेकर कुछ मारधाड़ और फैंटेसी फिल्में भी राजश्री के कुनबे से निकली है। इनमें अलीबाबा और मरजीना, तूफान और मैटिनी शो में गोल्डन जुबली मनाने वाली महेंद्र संधू की जासूसी फिल्म 'एजेंट विनोद' भी शामिल हैं। राजश्री घराने ने सिर्फ नए कलाकारों को ही पहचान नहीं दी रविंद्र जैन, राम लक्ष्मण जैसे संगीतकारों और हेमलता, जसपाल सिंह, येसुदास जैसे गायकों भी स्थापित किया। विजयेंद्र घाटगे, अमोल पालेकर, रंजीता, सचिन, अरुण गोविल, प्रेम किशन, शरत सक्सेना और रामेश्वरी को आगे बढ़ाने में और पद्मा खन्ना जैसी अभिनेत्री को निखारने में राजश्री के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 
      कहा जाता है कि 'राजश्री' की फ़िल्में जब पूरी हो जाती है, तो उस नई फिल्म को सबसे पहले परिवार के सदस्यों, घर के ड्राइवरों और बच्चों को दिखाया जाता था। उनसे फिल्म के बारे में राय ली जाती थी और उनके सुझाव को गंभीरता से भी लिया जाता! जरुरी होता तो फिल्म में सुधार के बाद ही फिल्म रिलीज होती। इसलिए कि यदि उनके परिवार और परिवार से जुड़े लोगों को ही फिल्म पसंद नहीं आती, तो उसे दर्शकों के सामने कैसे परोसा जा सकता है! इस कंपनी ने डिस्ट्रीब्यूशन का काम भी हाथ में लिया और दक्षिण भारत से अनेक फिल्म निर्माताओं को हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा में लाए। उन्होंने कई ब्लॉकबस्टर फिल्मों का डिस्ट्रीब्यूशन किया जिनमें शोले, धर्मवीर, अमर-अकबर-एंथनी, विक्टोरिया नं. 203, रोटी कपड़ा और मकान, कुली, खिलौना, बैजू बावरा, आनंद, गुड्डी, कभी खुशी कभी गम, देवदास और 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' जैसी अपने समय की सुपरहिट फिल्में शामिल हैं।
     राजश्री की पहचान पारिवारिक और मूल्य आधारित फ़िल्में बनाने की रही है। अपनी इस पहचान से ही उनकी फिल्मों ने सफलता के परचम लहराए। इन फिल्मों में परिवार, दोस्ती और रिश्तेदारी को सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती है। 1964 में आई 'दोस्ती' पूरी तरह से दो दोस्तों के समर्पित प्रेम और भावुकता पर आधारित थी। पांच दशक बाद राजश्री ने इसी दोस्ती पर 'ऊंचाई' पर फिल्म बनाई। 'दोस्ती' की तरह 'ऊंचाई' भी मूल्य आधारित फिल्म है, जिसमें बड़े सितारों के होने के बावजूद राजश्री का टच साफ़ दिखता है। इस बार चार बूढ़े दोस्तों की कहानी दिखाई गई, जबकि 'दोस्ती' दो बच्चों के भावनात्मक लगाव की कहानी थी। इस फिल्म की सफलता ने यह भी दिखाया कि कहानी दमदार हो, तो फिल्म के लिए किसी बड़े सितारे की जरुरत नहीं होती! इस स्टार विहीन फिल्म की कामयाबी इसलिए भी बेमिसाल थी। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म ने उस दौर में करीब दो करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया था। 'दोस्ती' में वह सब कुछ था जो दर्शकों को बांधकर रख सके। प्यार, भावना, रिश्ते, विवशता, अमीरी, गरीबी, सुर और संगीत! इस फिल्म के जादू से कोई बच नहीं पाया था। यह फिल्म उस वक्त बहुत लंबे वक्त तक सिनेमाघरों में चली। भावना का ज्वार ऐसा कि शायद ही इससे कोई दर्शक बचा हो। 
   1978 में आई फिल्म 'अंखियों के झरोखों से' सच्चे प्रेम की कहानी है, जो अपनी तरह की अलग फिल्म थी। इसमें सचिन पिलगांवकर, रंजीता कौर और मदन पुरी ने अभिनय किया है। ये एक अपनी तरह की अलग लव स्टोरी फिल्म है, जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया था। फिल्म में नायक अरुण और नायिका लिली ख़ुशी से फूले नहीं समाते जब उनके माता-पिता उनकी शादी के लिए राज़ी हो जाते हैं। जब सब कुछ ठीक चल रहा होता है, तो लिली बीमार पड़ जाती है। हालत तब बदलते हैं, जब पता चलता है, कि लिली को ल्यूकेमिया है। सभी लिली को बचाने की कोशिश करते हैं। लेकिन, लिली की हालत और खराब होती जाती है। फिल्म के अंत में लिली की अरुण की बाहों में मौत हो जाती है। फिल्म का कथानक सच्चे प्रेम का संकेत देता है। 1982 की फिल्म 'नदिया के पार' भी राजश्री की हिट फिल्मों में गिनी जाती है। इसमें भी सचिन और साधना सिंह मुख्य भूमिकाओं में थे। बाद में इसी कथानक पर 'हम आपके हैं कौन' बनाई गई। इन दोनों फिल्मों का कथानक प्रेम कहानी पर आधारित था। इसकी खासियत यह थी कि 'नदिया के पार' जिस कथानक पर ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी थी 'हम आपके हैं कौन' वही शहरी पृष्ठभूमि पर गढ़ी गई फिल्म थी।     
      राजश्री की जो फ़िल्में सबसे ज्यादा पसंद की गई उनमें एक थी 1984 में आई 'सारांश' जिसमें बहुत कुछ ऐसा था, जो समाज के खोखलेपन को उजागर करता था। फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में अनुपम खेर, रोहिणी हट्टंगड़ी, सोनी राज़दान और मदन जैन थे। फिल्म में रिश्वतखोरी, भाई भतीजावाद, अविवाहित गर्भावस्था और समाज का दोगलापन सामने आता है। ये फिल्म ऐसे बुजुर्ग दंपति की कहानी है, जो अपने इकलौते बेटे को खोने के बाद जीने की उम्मीद छोड़ देते हैं। कहानी में मोड़ तब आता है जब उन्हें जीवन जीने का एक नया मकसद मिलता है। फिल्म में 60 साल के बुजुर्ग का किरदार निभा रहे अनुपम खेर उस वक़्त केवल 28 वर्ष के थे। इसे महेश भट्ट ने निर्देशित किया था। इस फिल्म ने बेहद मर्मभेदी ढंग से समाज में मौजूद सभी समस्याओं पर प्रकाश डाला था।
       'राजश्री' की व्यावसायिक रूप से सफल फिल्मों में एक 1989 में आई फिल्म 'मैंने प्यार किया' थी, जिसे ताराचंद बड़जात्या परिवार के उत्तराधिकारी सूरज बड़जात्या ने निर्देशित किया था। ये एक संगीत से भरी प्रेम कहानी थी। जिसमें सलमान खान और भाग्यश्री मुख्य भूमिकाओं में थे। सलमान खान की मुख्य भूमिका और भाग्यश्री के फिल्म करियर की शुरुआती फिल्म थी। यह 80 के दशक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फिल्म थी। 1999 की फिल्म हम साथ साथ हैं, 2006 की फिल्म 'विवाह' के बाद इस कंपनी की कई फ़िल्में आई जिन्होंने मनोरंजन के साथ समाज को संस्कारित भी किया। इसी परंपरा का निर्वहन करते हुए 'ऊंचाई' ने भी अपनी जगह बनाई! ये फिल्म 1964 में आई 'दोस्ती' का ही बदला हुआ रूप है।    
     सूरज बड़जात्या ने एक साक्षात्कार में बताया कि बैनर का नाम हमारी बुआ जी राजश्री के नाम पर है, जो जयपुर में रहती हैं। इसका प्रतीक चिन्ह माता सरस्वती है। इस प्रतीक चिन्ह को लेकर भी एक मजेदार किस्सा है। जिस समय 'दोस्ती' बन रही थी तब ताराचंद बड़जात्या ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को फिल्म का संगीत देने ऑफिस बुलाया। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ऑफिस तो गए, लेकिन उनका इरादा संगीत देने का नहीं था। क्योंकि, दोनों ने तय किया था कि संगीत की गुणवत्ता के लिए एक समय में पांच से ज्यादा फिल्म नहीं करेंगे। 'दोस्ती' उनकी छठी फिल्म थी। जब वे राजश्री के दफ्तर पहुंचे तो वहां उनकी नजर राजश्री प्रोडक्शन के प्रतीक चिन्ह माता सरस्वती पर पड़ी। उन्हें ऐसा लगा कि माता सरस्वती ही उन्हें अवसर दे रही है। यदि वे मना करते हैं, तो माता सरस्वती का अपमान होगा। यह विचार कर उन्होंने 'दोस्ती' में संगीत देना स्वीकार कर लिया। शायद इसी का असर था कि उनकी इस छठी फिल्म का संगीत इतना लोकप्रिय हुआ कि 1964 के फिल्मफेयर पुरस्कार में इन्होंने आरके फिल्म्स की म्यूजिकल सुपरहिट 'संगम' के गीत-संगीत को पछाड़कर उस साल का  फिल्मफेयर अवॉर्ड अपनी झोली में डाल लिया। उस फिल्म से शुरू हुआ 'राजश्री' का सफर आज भी परंपरा के साथ अनवरत जारी है।     
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राहुल ने चलते-चलते गढ़ी हुई छवि तो बदल ली!


- हेमंत पाल 

   कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा करीब आधी पूरी कर ली। मध्यप्रदेश से निकलकर अब वे राजस्थान में प्रवेश कर गए। उनके बुरहानपुर से मध्यप्रदेश प्रवेश के बाद जिस तरह के कयास लगाए जा रहे थे, वे धराशायी हो गए। न तो पार्टी में कोई सेबोटेज हुआ और भीड़ में कोई कमी आई। उनके साथ लोग लगातार जुड़ते रहे! बेशक उनमें तमाशबीन भी होंगे, पर विपक्ष के वे दावे तो हाशिए पर चले गए कि राहुल के साथ कौन चलेगा! इस यात्रा के नतीजे जो भी हों, पर राहुल गांधी की वो 'पप्पू' वाली छवि तो खंडित हुई ही है, जो गढ़ी गई थी! सवाल ये भी है कि वे यदि 'पप्पू' ही हैं तो फिर घबराहट किस बात की!  
      राहुल गंतव्य की तरफ बढ़ रहे हैं। केरल से शुरू हुई 'भारत जोड़ो यात्रा' को लेकर कांग्रेस का जो मकसद था, वो काफी तक पूरा होता नजर आ रहा है। लेकिन, इसका असल नतीजा 2024 का लोकसभा चुनाव होगा! पर, अभी तक की यात्रा का निष्कर्ष निकाला जाए तो राहुल ने जनता को व्यक्तिगत रूप से उम्मीद से ज्यादा आकर्षित तो किया है। फिर भी उनका जनसम्पर्क का तरीका हो या भाषण देने की अनौपचारिक शैली!
      यात्रा से पहले और यात्रा के दौरान कई तरह के दावे किए गए। हर बार कहा गया कि इस यात्रा की सफलता संदिग्ध है! आखिर कोई, क्यों राहुल के साथ चलेगा! पर साथ चलने वालों की भीड़ लगातार बढ़ती गई। राहुल गांधी ने इंदौर में अपनी प्रेस कांफ्रेंस में भी कहा कि जब केरल से यात्रा शुरू की थी, तो मीडिया ने कहा था कि यहां तो ठीक है, कर्नाटक में दिक्कत आएगी, वहां राहुल के साथ कौन खड़ा होगा! लेकिन, कर्नाटक की भीड़ देखकर कहा गया कि महाराष्ट्र में तो सबसे ज्यादा समस्या है। पर, वहां भी लोगों का जबरदस्त प्रेम मिला। फिर दावा किया गया कि मध्यप्रदेश में तो राहुल गांधी की यात्रा की सफलता संदिग्ध है। लेकिन, मुझे मध्यप्रदेश में जनता का जो स्नेह मिला वो बाकी सभी राज्यों से बहुत ज्यादा है। अब कहा जाने लगा कि राजस्थान में दिक्कत आएगी! 
     राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो यात्रा' को तीन महीने होने वाले हैं। इस दौरान राहुल गांधी और कांग्रेस ने क्या पाया, अभी यह निष्कर्ष सामने नहीं आया। लेकिन, अभी तक इस यात्रा का जो मूल्यांकन किया गया, वो यात्रा की सफलता का संकेत है। कांग्रेस के महासचिव जयराम रमेश की इस बात में बहुत दम है कि इस यात्रा से असली राहुल गांधी जनता के सामने आए हैं। आशय यह कि विरोधी पार्टी ने राहुल गांधी की जिस तरह की छवि बनाई थी, वो काफी हद तक धुल गई। अब लोगों ने जिस राहुल को नजदीक से देखा, महसूस किया वो उस छवि से बहुत अलग हैं, जिसका अब तक प्रचार किया जाता रहा है।
    केरल से शुरू हुई ये यात्रा कर्नाटक होते हुए महाराष्ट्र तक पहुंची और अब मध्यप्रदेश में है। राहुल ने करीब आधी यात्रा पूरी कर ली। पर वे जहां से भी गुजरे उस किसी भी राज्य में कांग्रेस की सरकार नहीं है। मध्यप्रदेश के बाद जब राहुल सोयत कलां से राजस्थान में प्रवेश करेंगे, तब इस यात्रा की असली परीक्षा होगी। क्योंकि, वहां कांग्रेस की सरकार है और साल भर बाद उसे विधानसभा चुनाव का सामना भी करना है। 
   जहां तक राहुल की इस यात्रा की सफलता और असफलता की बात है तो निश्चित रूप से सफलता का आंकड़ा अनुमान से ज्यादा है। कांग्रेस और राहुल गांधी की यात्रा का प्रबंधन करने वाली टीम ने भी अनुमान नहीं लगाया था, कि राहुल के प्रति लोगों का झुकाव इतना जबरदस्त होगा। जिस तरह से राहुल का रास्ते में स्वागत हो रहा है, वो अद्भुत, अविश्वसनीय और विरोधियों को चिढ़ाने वाला है। जो लोग राहुल के साथ यात्रा कर रहे हैं, उन्हें भी आश्चर्य है कि यह नहीं सोचा गया था कि हर जगह राहुल का इतना जबरदस्त स्वागत होगा। 
    वे जिस भी इलाके से गुजर रहे हैं, वहां के छोटे-बड़े लोग राहुल का हाथ पकड़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे रहे हैं। महाराष्ट्र से निकले तो राहुल गांधी को समर्थन देने फिल्म निर्देशक और कलाकार अमोल पालेकर और उनकी पत्नी भी नजर आए। टीवी एक्ट्रेस रश्मी देसाई भी दिखाई दी। इस यात्रा में कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के अलावा ब्लॉक कार्यकर्ता और स्थानीय नेता भी शामिल हो रहे हैं। कांग्रेस ने नेताओं के अनुसार, इस पदयात्रा को जनता का जबरदस्त समर्थन मिल रहा है। इस यात्रा का संबंध चुनाव से नहीं 
   कांग्रेस के नेता कई बार कह चुके हैं कि राहुल गांधी की इस यात्रा के अगुवाई में पूरे देश में की जा रही यात्रा का किसी भी राज्य के चुनाव से कोई संबंध नहीं है। अगर इसके प्रभाव का आकलन करना है, तो यह 2024 के लोकसभा चुनाव में ही किया जा सकता है। उन्होंने कहा कहा कि राहुल गांधी कोई ब्रांड नहीं हैं कि उनकी रीब्रांडिंग करना पड़े। भारत जोड़ो यात्रा से पहले भाजपा ने सोशल मीडिया पर उनकी खास छवि बना दी थी। भाजपा ने कभी सही राहुल गांधी को चित्रित नहीं किया। भारत जोड़ो यात्रा नए राहुल गांधी को नहीं, असली राहुल गांधी को दिखा रही है। भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी की छवि में पूरी तरह से बदलाव आया। आज मीडिया या सोशल मीडिया में राहुल गांधी वैसे नहीं हैं, जो 70-80 दिन पहले थे। उन्होंने कहा कि 3,570 किमी लंबी यात्रा का फायदा यह है कि राहुल बिना किसी बिचौलिए के, लोगों के साथ सीधे संपर्क में हैं। नतीजा यह कि असली राहुल गांधी सबके सामने हैं, सबके पास हैं।
     यात्रा में राहुल गांधी के साथ हजारों की संख्या में ऐसे लोग भी हैं, जो अलग-अलग राज्यों से अपना समर्थन दिखाने के लिए पहुंच रहे हैं। राहुल गांधी को महिलाओं से लेकर बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं का भी समर्थन मिल रहा है। कांग्रेस ने 'भारत जोड़ो यात्रा' की तस्वीरों को शेयर करते हुए ट्वीट किया था 'इस विशाल विविधता के लोगों को जोड़ना जहां हमारी समृद्ध विरासत, संस्कृति, प्रेम और सम्मान भारत के ताने-बाने के रंगीन धागे हैं।' ख़ास बात ये कि राहुल गांधी भी इस यात्रा को सकारात्मक रूप से ले रहे हैं। कभी वे रास्ते में फुटबॉल खेलते नजर आते हैं, कभी बच्चों के साथ तस्वीर खिंचवाते दिखाई देते हैं। कुछ महिलाएं राहुल से मिलकर भावुक होते भी दिखाई दी। कहीं लोग ढोल और नगाड़े के साथ लोग राहुल की यात्रा में पहुंचते दिखाई देते हैं। .
      राहुल गांधी ने कहा कि उनके नेतृत्व वाली 'भारत जोड़ो यात्रा' का संदेश यह है कि भारत को बांटा नहीं जा सकता और नफरत नहीं फैलाई जा सकती। यह यात्रा श्रीनगर में समाप्त होगी और हम यह संदेश देंगे कि भारत को बांटा नहीं जा सकता, नफरत नहीं फैलाई जा सकती। यात्रा का यही मकसद भी है। उन्होंने कहा कि भारत में तीन-चार अरबपति हैं। वे जो चाहे कर सकते हैं। उन्हें जो भी व्यवसाय चाहिए, वे कर सकते हैं चाहे हवाई अड्डा, बंदरगाह, सड़क, बुनियादी ढांचा, दूरसंचार या बैंकिंग हो, लेकिन देश के युवा नौकरी चाहते हैं तो उन्हें वह नहीं मिलता।
गुजरात में यात्रा बनी मुद्दा
     कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा भले ही गुजरात से होकर नहीं गुज़र रही हो। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सियासी हमलों इस पदयात्रा को राज्य विधानसभा चुनाव के प्रचार-युद्ध का बड़ा मुद्दा बना दिया। पहले मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में पदयात्रा को निशाना बनाया, इसके बाद कांग्रेस को उन पर पलटवार करने का मौका मिल गया। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने पदयात्रा पर प्रधानमंत्री के बयानों को उनकी ‘बौखलाहट’ का नतीजा बताया। 
    प्रधानमंत्री के चुनावी भाषण का जवाब देते हुए कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि भारत जोड़ो यात्रा का मकसद देश में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी, सामाजिक विभाजन और राजनीतिक तानाशाही के माहौल में देश की अंतरात्मा को जगाना है। जो लोग इन हालात से चिंतित हैं, गांधीवादी रास्ते में यकीन करते हैं और देश के संविधान के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं, उनका यात्रा में स्वागत है। लेकिन, प्रधानमंत्री इस यात्रा की आलोचना करने के लिए अपनी चिर-परिचित 'बदनाम करो और भड़काओ' की सियासत का सहारा ले रहे हैं। साफ दिख रहा है कि वे पिछले करीब तीन महीनों के दौरान यात्रा को मिले जन-समर्थन से हताश और बौखलाए हुए हैं। 
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Friday, November 25, 2022

कोरोना काल ने बदली सिनेमा की चाल!

- हेमंत पाल 

     कोरोना के बाद हमारे आसपास का माहौल और समाज में बहुत कुछ बदला। यह बदलाव जीवन के हर क्षेत्र में आया। लोगों का रहन-सहन बदला, सेहत के प्रति जागरूकता बढ़ी, संयुक्त परिवार के प्रति नया दृष्टिकोण पनपा और साथ में सिनेमा में कुछ नया देखने का मोह भी बढ़ा। लोगों ने लॉकडाउन में ओटीटी पर बहुत कुछ देखा और पसंद किया। इसका असर ये हुआ कि सिनेमा के दर्शकों को मनोरंजन का नया विकल्प मिला। उन्हें लगा कि अब वे फिल्मकारों और कलाकारों की पसंद से बना सिनेमा क्यों देखें! वे वही देखेंगे जो उनकी पसंद का सिनेमा होगा। कोरोना काल से पहले और उसके बाद की फिल्मों पर नजर डाली जाए तो बात साफ़ हो जाएगी कि दर्शकों की पसंद कितनी बदली। कोरोना काल से पहले कुछ साल तक छोटे शहरों पर आधारित कहानियों का बोलबाला रहा। गली बॉय, अंधाधुंध, शुभ मंगल सावधान और अंग्रेजी मीडियम जैसी फिल्मों को पसंद किया जाता रहा! लेकिन, वो एक अलग दौर था। कोरोना काल के बाद दर्शकों ने उसे नकार दिया।
     ऐसी कई फिल्मों के नाम गिनाए जा सकते हैं, जिनकी कहानियां पारिवारिक थी, पर ये फ़िल्में नहीं चली! कोरोना काल के बाद जो फ़िल्में पसंद की गई, उनमें कुछ अलग था। गंगूबाई काठियावाड़ी, भूल भुलैया-2, कश्मीर फाइल्स, ब्रह्मास्त्र, दृश्यम-2 और 'ऊंचाई' जैसी फ़िल्में दर्शकों की पसंद में शामिल हुई। गौर किया जाए हर फिल्म की कहानी कुछ अलग रही और उनमें नयापन भी रहा। इसके अलावा जो ख़ास बात थी, वो था लार्जर देन लाइफ कथानक। इनमें कोई भी फिल्म न तो प्रेम कथा थी और न बदले की भावना वाली कहानी! दर्शकों की ये बदली हुई पसंद हिंदी फिल्मों का ऐसा ट्रेंड है, जो नया है। ऐसे माहौल में संजय लीला भंसाली की 'गंगूबाई काठियावाड़ी' पहली फिल्म थी, जिसने दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने का काम किया।         
      कोरोना काल के बाद जब सिनेमाघर खुले तो सबसे बड़ी समस्या थी, कि संक्रमण से घबराए दर्शकों को उसके अंदर कैसे लाया जाए! क्योंकि, सुरक्षा के इंतजामों के अलावा उन्हें नई तरह का मनोरंजन दिया जाना भी बड़ी चुनौती थी। सिनेमाघरों ने सुरक्षा की व्यवस्था तो कर दी, पर दर्शकों की पसंद को नहीं समझ सके कि करीब दो साल तक ओटीटी के मोहजाल में फंसे दर्शकों को क्या नया दिखाया जाए! क्योंकि, शुरुआती दौर में रनवे 34, हीरोपंती-2, अटैक-2, ऑपरेशन रोमियो, जर्सी, सम्राट पृथ्वीराज, रक्षाबंधन और 'रामसेतु' जैसी जितनी फिल्में रिलीज हुई उनमें और कोई नहीं चली। शाहिद कपूर, जॉन अब्राहम, अक्षय कुमार, आमिर खान, टाइगर श्रॉफ और जॉन अब्राहम जैसे कलाकारों की ये सभी फिल्में फ्लॉप हुई। कंगना रनौत की धाकड़, रणवीर सिंह की जयेश भाई जोरदार, आयुष्मान खुराना की अनेक, गणेश आचार्य की देहाती डिस्को, मेजर, जनहित में जारी और अनिल कपूर की 'थार' जैसी फिल्में भी नहीं चली। ऐसे में 'गंगूबाई काठियावाड़ी' के बाद कार्तिक आर्यन और तब्बू की 'भूल भूलैया-2' दूसरी ऐसी फिल्म थी जो दर्शकों की पसंद पर खरी उतरी। 
     रणबीर कपूर जैसे कलाकार की 'शमशेरा' भी कमाल नहीं दिखा सकी। सच्ची कहानी पर बनी फिल्म 'रॉकेट्री' भी उन फिल्मों में थी, जिसे दर्शकों ने कुछ हद तक पसंद किया। लेकिन, रणबीर की 'ब्रह्मास्त्र' हिट की तरफ बढ़ती गई। लगातार फ्लॉप फिल्मों के बाद कुछ फिल्मों का हिट होना इस बात का सबूत है कि दर्शकों को कुछ अलग तरह मसाला चाहिए। अभी तक फिल्मकार और कलाकार दर्शकों को मूर्ख समझने की जो भूल करते थे, उन्हें उसका सबक मिल गया। दर्शकों पर अपनी पसंद थोपने पर उन्हें मुंह की खानी पड़ती थी। 
      फिल्मी दुनिया में माउथ पब्लिसिटी किसी फिल्म के हिट होने का सबसे बड़ा जरिया है। इसका उदाहरण 'कश्मीर फाइल्स' की सफलता में देखा गया। जो फिल्म शुरू में 500 स्क्रीन पर प्रदर्शित हुई, वो एक हफ्ते में चार हजार स्क्रीन्स तक पहुंच गई। अगर कंटेंट अच्छा नहीं होगा, तो दर्शक सिनेमाघरों में फिल्में देखने नहीं जाएंगे। लेकिन, उन्हें वहां तक लाने के लिए थिएटर वाली फीलिंग दिलाना भी जरूरी है। कोरोना काल के बाद जो फ़िल्में हिट हुई, उनकी कहानी में नयापन था। फिर वो गंगूबाई काठियावाड़ी हो, आरआरआर हो, पुष्प या फिर 'ब्रह्मास्त्र!'
     कोरोना काल में फिल्मों पर ओटीटी के हमले के बाद बेदम हुई फ़िल्मी दुनिया के सामने दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने की जो चुनौती सामने थी, उसने फिल्म बनाने वालों को परेशानी में भी डाल दिया था। फिल्मकारों को इससे ये तो समझ में आ गया था कि हथेली में सिमट चुकी मनोरंजन की दुनिया से दर्शकों को बाहर निकालकर सिनेमाघरों तक पहुंचाना आसान नहीं होगा। इसके लिए कुछ नया जादू दिखाना होगा। वो जादू रहा भव्य सिनेमा। उसी से सिनेमाघर में दर्शक आ सकते थे। एसएस राजामौली ने 'आरआरआर' बनाकर ये साफ कर दिया कि अगर दर्शकों को सिनेमाघर तक लेकर आना है, तो उसके लिए भव्य सिनेमा बनाना ही होगा। बड़ा बजट, बड़े-बड़े कलाकार, कुछ अलग सा कथानक और भव्यता ही आज के समय की मांग हैं। फिर आई 'पुष्पा' उसके बाद ब्रह्मास्त्र जिसका केनवस बहुत बड़ा था। निर्माताओं को समझ आ गया जो दर्शक पांच या छह सौ रुपए टिकट पर खर्च करेगा उसे भव्यता का अनुभव कराने के साथ फुल एंटरटेनमेंट तो देना ही होगा। यदि वह नहीं दिया गया तो दर्शकों को ओटीटी के मायाजाल से बाहर निकालना आसान नहीं होगा!  
     ऐसा नहीं कि पहले भव्य सिनेमा नहीं बना! समय काल के दौर में भव्यता का पैमाना अलग-अलग रहा। इसकी शुरुआत 'मुगले आजम' से हुई थी और लंबे समय तक ये दौर चला। सत्तर और अस्सी के दशक में मल्टीस्टारर फिल्में खूब बनी और चली भी। लेकिन, 90 के दशक के बाद से इसमें कमी आई। फिर भी भव्य फ़िल्में तो उंगलियों पर गिनी जाने वाली ही बनाई गई। यश चोपड़ा, रामानंद सागर, करण जौहर, संजय लीला भंसाली और साजिद नाडियादवाला जैसे फ़िल्मकारों ने बड़े बजट और बड़े स्केल की फिल्में बनाकर दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने का सिलसिला बनाए रखा। हाल के सालों में राजामौली की 'बाहुबली' और उसकी सीक्वल ऐसी फिल्म रही, जिसे दर्शकों ने थिएटर में देखना ही पसंद किया। एक समय था जब कहा जाने लगा था कि ओटीटी के जादू से बड़े परदे का चार्म खत्म हो जाएगा। लेकिन, कोरोना के बाद पुष्पा, गंगूबाई काठियावाड़ी, आरआरआर और कश्मीर फाइल्स, ऊंचाई और दृश्यम-2' जैसी फिल्मों की सफलता से लगता है कि बड़े पर्दे का जादू पूरी तरह खत्म नहीं होने वाला। क्योंकि, ओटीटी आपके घर में और आपकी जेब में है। आप कभी भी देख सकते हैं लेकिन भव्य फिल्मों का मज़ा बड़े पर्दे पर ही आता है। 
      सफल हुई फिल्मों से एक बेंचमार्क जरूर सेट हुआ है। अब आने वाली फिल्मों को भी उसी नजरिए से देखा जाएगा। इसलिए अब निर्माताओं को बड़ा मनोरंजन देना ही होगा! यही कारण है कि समलैंगिक संबंधों पर बनी सीरियस फिल्म बधाई दो, मिस्टर परफेक्ट यानी आमिर खान की लालसिंह चड्ढा, अक्षय कुमार की सम्राट पृथ्वीराज, बच्चन पांडे, रक्षा बंधन और 'रामसेतु' जैसी फ़िल्में लगातार फ्लॉप हुई। इससे ये ग़लतफ़हमी जरूर दूर हुई कि फ़िल्में सिर्फ स्टार वैल्यू से चलती हैं। यदि ऐसा होता तो आमिर, शाहरुख, अक्षय से लगाकर सलमान खान तक की फिल्में फ्लॉप क्यों होती!
    अब दर्शक वही फ़िल्में देखने थिएटर में जाएंगे जिसका मज़ा उन्हें ओटीटी या छोटी स्क्रीन पर नहीं आएगा। अब मेकर्स को लगने लगा है कि अगर फिल्म को एक इवेंट नहीं बनाएंगे, अगर वो लार्जर देन लाइफ वाली फीलिंग नहीं देंगे तो बात नहीं बनेगी। एक जमाना था जब मल्टीस्टारर फिल्में बनती थीं, लोग इंतजार करते थे, थिएटर में जाते थे और फिल्में हिट हो जाती थीं। साउथ तो पहले ही इस दिशा में आगे बढ़ चुका है। ऐसे में बॉलीवुड को कमर कसनी होगी। ये ट्रेंड कभी आउट ऑफ फैशन नहीं होगा। 90 के दशक से हमने ऐसी फिल्में बनानी बंद की थी, लेकिन अब उनकी वापसी होगी! 
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Thursday, November 17, 2022

चूड़ियों वाले हाथों में कई बार दिखा हंटर!


- हेमंत पाल

    हिंदी फिल्मों में एक्शन का काम नायक का होता है। खलनायक से लड़ना हो या पूरी सेना को चित करना हो, नायक ये काम बखूबी से करता रहा है। ऐसे काम के लिए कभी नायिका को लायक नहीं माना जाता। ऐसी फ़िल्में बहुत कम आई, जब नायिका ने हंटर फटकारा हो! लेकिन, जब भी ऐसी फिल्म आईं वो दर्शकों की पसंद पर खरी उतरी। याद किया जाए तो 1935 में रिलीज हुई 'हंटरवाली' पहली ऐसी फिल्म थी, जिसमें नायिका हंटर चलाती थी। होमी वाडिया की डायरेक्ट की हुई इस फिल्म में फीयरलेस नाडिया ने काम किया था। कहा जाता है कि सीक्वल फिल्मों का सिलसिला भी इसी फिल्म से शुरू हुआ। इस सीरीज की दूसरी फिल्म 1943 में 'हंटरवाली की बेटी' रिलीज हुई थी। 1930-1950 के बीच में डायमंड क्वीन, हंटरवाली, शेर दिल और 'तूफान क्वीन' में भी फियरलेस नाडिया को दिखाया गया। इन फिल्मों में नाडिया बेखौफ अंदाज में स्टंट करती नजर आईं थीं। ये वो दौर था जब परदे पर नायिका सिर्फ पति के प्रति समर्पित होकर त्याग की प्रतिमूर्ति होती थी। लेकिन, उस दौर में नाडिया ने ऐसी कई फिल्मों में काम किया, जिनमें एक तरफ उन्होंने जमींदारों के खिलाफ लड़ाई लड़ी तो दूसरी तरफ औरतों की शिक्षा और आजादी की बात की। 
   घुड़सवारी करते हुए करतब दिखाना हो, चलती ट्रेन से कूदना हो, झरने के ऊपर से छलांग लगाना या शेरों के साथ खेलना हो, 'हंटरवाली' के नाम से जाने जानी वाली नाडिया सारे स्टंट खुद किया करती थीं। यही कारण था कि उन्हें 'फियरलेस नाडिया' का नाम दिया गया, इसी नाम से उनकी पहचान भी बनी। 'मैरी' से कब उन्हें लोग फियरलेस नाडिया या निडर नाडिया कहने लगे, ये उन्हें भी पता नहीं चला। 1935 में बनी फिल्म 'हंटरवाली' में स्टंट्स दिखाने के बाद नाडिया हर तरह की फिल्में करने लगी थीं। लेकिन, उनके फैंस उन्हें बेखौफ अंदाज में ही देखना चाहते थे। नाडिया को फिल्मों में इस मुकाम तक पहुंचाने में उनके पति होमी का एक बहुत बड़ा हाथ रहा। दोनों ने कई फिल्मों में साथ काम किया। फिल्मों में साथ काम करते हुए दोनों के बीच प्यार हुआ और कुछ साल बाद उन्होंने इस प्यार को शादी में बदलने का फैसला किया। दोनों ने 1961 में शादी कर ली। नाडिया सर्कस में भी जाबांजी के करतब दिखा चुकी थीं। इसलिए फिल्मी पर्दे पर इन्हें दिखाना उनके बायें हाथ का खेल था। अपनी फिल्मों में वे ऊंचाई से छलांग लगाती, चलती ट्रेन के ऊपर फाइट करती और मर्दों से दो-दो हाथ होने में पीछे नहीं हटती। उस दौर में किसी महिला अभिनेत्री का ऐसा करना असाधारण काम था। 
     देखा गया कि किसी हीरो या हीरोइन से प्रभावित होकर उसके जैसा बनने के कई प्रयास हुए। लेकिन, किसी हीरोइन ने कभी नादिया से प्रभावित होकर खुद को उनकी तरह ढाला हो, ऐसा कभी नहीं लगा! इंडस्ट्री में कई ऐसी नायिकाएं हैं, जिन्होंने यदा-कदा ऐसी फिल्मों में काम जरूर किया। जब हीरोइनों ने प्रेमिका की भूमिका से किनारा किया, तो वे कठोर किरदार में सामने आईं। कुछ ऐसी फिल्में बनीं जिसमें लेडी डॉन, गैंगस्टर या डकैत की भूमिकाओं को भी सशक्त अंदाज में पेश किया। नाडिया की तरह ही उनसे मिलते-जुलते नाम वाली नादिरा ने अपनी पहली ही फिल्म 'आन' में हंटर थाम लिया था। यह बात अलग है कि उनका हंटर मजलूमों की हिफाजत के लिए नहीं चला, बल्कि एक मगरूर राजकुमारी की अकड़ दिखाने के लिए मजलूमों पर ही चला था। बाद में नायक दिलीप कुमार उसे सबक सिखाता है। 'धरमवीर' में जीनत ने भी इसी अंदाज में हंटर थामा था। मनमोहन देसाई ने जीनत का यह रूप राजकुमार फिल्म की मगरूर राजकुमारी साधना की स्टाइल में रचा था। क्योंकि, अपने सीधे-साधे गंवार पति को छोटे भाई के हंटरों से बचाने के लिए माला सिन्हा ने 'बहुरानी' में तो हेमामालिनी ने 'ज्योति' में हंटर थामा था। जालिम पति को सबक सिखाने के लिए रेखा भी खून भरी मांग में हंटर थाम चुकी हैं।
    प्रियंका चौपड़ा ने अपनी पहचान से अलग द्रोण, डॉन, डॉन-2, जय गंगाजल और 'मैरी कॉम' में एक्शन किया। दीपिका पादुकोण ने लफंगे परिंदे और 'बाजीराव मस्तानी' में एक्शन के साथ तलवारबाजी भी की। कंगना रनौत को हमेशा ऐसी फिल्मों में काम करने का शौक रहा जिसमें एक्शन हो। रंगून, रिवाल्वर रानी, मणिकर्णिका और धाकड़ ऐसी ही फ़िल्में रहीं। ऐश्वर्या राय जैसी सुंदरी ने भी जोश, खाकी, धूम-2 और 'जोधा अकबर' में तलवार चलाई। जबकि, कैटरीना कैफ ने एक था टाइगर, बैंग-बैंग और 'धूम-3' में नायक के साथ एक्शन किए! बिपाशा बसु ने अजनबी, धूम 2 और 'रेस' में कुछ ऐसे ही किरदार निभाए। शिल्पा शेट्टी जैसी हीरोइन ने भी 'दस' में सीक्रेट एजेंट का रोल किया था। अनुष्का शर्मा ने 'एनएच-10' और 'सुल्तान' में उनकी शुरुआती फिल्मों से अलग काम किया। माधुरी दीक्षित ने ज्यादातर फिल्मों में कमसिन नायिका की भूमिका की है, पर 'गुलाब गैंग' में उन्होंने भी डंडे चलाए। नई एक्ट्रेस तमन्ना भाटिया भी 'बाहुबली' में एक्शन अवतार में दिखाई दी।
      साल 1999 में आई फिल्म ‘गॉड मदर’ गुजरात के पोरबंदर में माफिया राज चलाने वाली डॉन से नेता बनी संतोकबेन जडेजा के जीवन से प्रेरित थी। फिल्म में यह भूमिका शबाना आजमी ने निभाई। 'गोलियों की रासलीला रामलीला' में सुप्रिया पाठक का किरदार दबंगता से भरा था। जबकि, 2022 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ में आलिया भट्ट ने भी कोठे की ऐसी मालकिन की भूमिका निभाई, जो किसी हंटरवाली से कम नहीं है। ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ फिल्म एस हुसैन जैदी की पुस्तक 'माफिया क्वींस ऑफ़ मुंबई' पर बनाई है। इसमें गंगूबाई हरजीवनदास उर्फ गंगूबाई कोठेवाली की कहानी है। 
      याद किया जाए तो हेमा मालिनी ने 'सीता और गीता' में डबल रोल निभाया था। एक सीधे किरदार के साथ दूसरा रोल हंटरवाली का था। श्रीदेवी का 'चालबाज' वाला किरदार भी इससे काम नहीं था। रिचा चड्ढा का फिल्म 'फुकरे' में भोली पंजाबन का किरदार निभाया था। नेहा धूपिया ने 2010 में आई फिल्म ‘फंस गए रे ओबामा’ में मुन्नी गैंगस्टर का किरदार निभाया था। श्रद्धा कपूर की फिल्म 'हसीना पारकर' अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम की बहन पर आधारित थी। फिल्म 'सुपारी' में नंदिता दास डॉन के किरदार में दिखाई दी थी। जबकि, शेखर कपूर निर्देशित फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में सीमा विश्वास ने डकैत फूलन देवी का किरदार निभाया। प्रतिमा काजमी ने 'वैसा भी होता है पार्ट 2' में गंगू ताई का किरदार निभाया था। ईशा कोपिकर ने फिल्म 'शबरी' में मुंबई की पहली क्राइम लेडी का किरदार निभाया था।
     सिनेमा में सशक्त महिला के किरदार को लेकर हर फिल्मकार का अपना अलग नजरिया होता है। लेकिन, ऐसी फिल्मों के कथानक की सबसे बड़ी ताकत होती है कमजोर समझी जाने वाली औरत को नए रूप में देखना। फिल्म 'आंधी' में सुचित्रा सेन को हंटर चलाते नहीं दिखा गया, पर उनका विल पावर स्ट्रांग होता है। पितृसत्तात्मक समाज में सत्ता में होते हुए भी वे अपने दम पर आगे बढ़ती हैं। लेकिन, उस ऊंचाई तक पहुंचने के लिए इस किरदार को बहुत सारे त्याग करने पड़ते हैं। जिस दायरे में ऐसी फिल्में बनी, उसमें दर्शकों ने कई महिला केंद्रित किरदार देखे! लेकिन, अब यह सामान्य बात हो गई। 
     सिर्फ हिंदी फिल्मों में ही नहीं, दूसरी भाषाओं की फिल्मों में भी नायिका को ऐसे किरदार निभाते देखा गया। भोजपुरी सिनेमा की सुपरस्टार कही जाने वाली अभिनेत्री पाखी हेगड़े ने भी 'हंटरवाली' में कुछ उस तरह का रोल किया जैसा 'शहंशाह' में अमिताभ ने किया था। इससे पहले पाखी ने 'औलाद' और 'दाग' में भी एक्शन रोल किए थे। फिल्मो के कथानक में जिस तरह से नए प्रयोग हो रहे और महिला सशक्तिकरण का दौर है, ऐसी फ़िल्में फिर बने तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए! नए ज़माने की नायिकाएं भले ही हंटर न चलाएं, पर यदि वे किसी को तमाचा भी मारेंगी तो हॉल में बैठे दर्शक तालियां बजाने से खुद को रोक नहीं पाएंगे!    
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