Saturday, January 29, 2022

हर नायक में छुपा है, थोड़ा सा खलनायक

हेमंत पाल 

   ब से सिनेमा की शुरूआत हुई, दर्शकों ने परदे पर हमेशा ऐसे कथानक वाली फ़िल्में देखी, जिसका अंत सकारात्मक होता है। बुराइयों से भरा खलनायक मारा जाता है या उसे पुलिस पकड़कर ले जाती है। ये खलनायक कोई भी हो सकता है! नायिका का भाई, पिता या फिर कोई उसे चाहने वाला। लेकिन, यदि किसी फिल्म में दर्शक नायक से ज्यादा खलनायक को पसंद करने लगे, तो उसे कहा जाएगा! उस कलाकार की अदाकारी या दर्शकों की बदली पसंद! कारण चाहे जो भी समझा जाए, पर हर नायक के उसी किरदार को लम्बे समय तक याद किया गया, जिसमें उसने अपनी तय पहचान से अलग कुछ नया किया हो! हिंदी सिनेमा के हर दौर में ज्यादातर नायकों ने कभी न कभी खलनायक की भूमिका जरूर निभाई। इसकी वजह है कुछ अलग करने की चाह। साथ में एक नई तरह का प्रयोग भी। महाभारत में दुर्योधन और रामायण में रावण के किरदारों को कभी भूला नहीं जा सकता। एक कारण यह भी है कि नायक की ताकत दर्शकों को तभी समझ आती है, जब वो खलनायक को मात देता है। 
    नायक का खलनायक बनना नई बात नहीं, पर दिलचस्प ज़रूर है। जब दर्शक नायक को खलनायक की पिटाई करते देखते हैं, ऐसे में खलनायक भी वही काम करता दिखे, तो दर्शकों को ज्यादा ही मज़ा आता है। खलनायक का मतलब सिर्फ बुरा दिखना नहीं है! खूबसूरत चेहरे-मोहरे वाला भी खलनायकी का काम करता दिख सकता है। यही कारण है कि इंडस्ट्री में कई नायक कुछ नया करने के लिए खलनायक जैसे किरदार निभा चुके हैं या फिर ऐसी भूमिकाओं की तलाश में रहते हैं। संभवतः आज के सभी नायकों ने किसी न किसी फिल्म में निगेटिव किरदार जरूर निभाया। इसलिए कि फिल्म में नायक और नायिका के बाद सबसे अहम किरदार खलनायक ही होता है। इसका कारण यह भी है कि खलनायक की भूमिका नकारात्मक होने के बावजूद उसमें अदाकारी दिखाने के आयाम ज़्यादा होते हैं। नायक से उसकी हार फिल्म के अंत में होती है, पर पूरी फिल्म में वो हीरो पर भारी ही दिखाई देता है। 
     अमिताभ बच्चन के करियर पर नजर डालें, तो अमिताभ का शुरुआती समय संघर्ष में ही बीता। इस कलाकार का करियर 70 के दशक में कुछ नहीं था। उनकी पहचान चंद फ्लॉप फिल्मों के हीरो के तौर पर थी। ऐसे में अमिताभ ने 1971 में फिल्म 'परवाना' की, जिसमें उन्होंने एक तरफा प्रेमी का किरदार निभाया था। फिल्म के हीरो थे नवीन निश्चल और हीरोइन योगिता बाली थी। फिल्म के अंत में हीरोइन भले ही हीरो के हिस्से में आई हो, पर अभिनय में सबसे ज्यादा तारीफ अमिताभ की हुई। लाल आँखे लिए जब वे शराब का ग्लास उंगलियों से दबाकर तोड़ देते हैं,
तो दर्शक सहम सा जाता है। चरित्र अभिनेता ओमप्रकाश ने इस फिल्म में अमिताभ के अभिनय की बहुत तारीफ की थी। जब प्रकाश मेहरा की 'ज़ंजीर' के लिए अमिताभ का नाम चला तो उन्होंने उनके नाम की सिफारिश भी की थी। यश चोपड़ा की फिल्म 'दीवार' में भी अमिताभ का रोल वास्तव में निगेटिव ही था। फिल्म के असली हीरो तो शशि कपूर थे, पर वे अमिताभ के किरदार के सामने दब से गए थे। 
   शत्रुघ्न सिन्हा ने लम्बे समय तक निगेटिव रोल किए! परदे पर हीरो की एंट्री को तालियां मिले या नहीं, पर शत्रुघ्न के आते ही दर्शक तालियां पीटने लगते थे। उनकी डायलॉग डिलीवरी का भी अलग अंदाज होता था। दर्शकों को शत्रु के डायलॉग तक याद रहते थे। 'मेरे अपने' में शत्रुघ्‍न सिन्‍हा का डायलॉग 'श्याम से कहना छैनू आया था' और 'ख़ामोश' बोलने की उनकी स्टाइल आज भी लोग नहीं भूले। शत्रुघ्न सिन्हा ऐसे खलनायक थे, जिन्हें लोग एंटी-हीरो मानने लगे थे, उनकी यही सफलता बाद में उन्हें हीरो तक ले आई। विनोद खन्ना भी इसी तरह के अभिनेता थे, जो 70 के दशक में अमिताभ बच्चन को टक्कर देते थे। लेकिन, इस अभिनेता का शुरूआती दौर भी विलेन का ही रहा। 1970 में विनोद खन्ना की फिल्म 'आन मिलो सजना' में राजेश खन्ना जैसे सुपर स्टार के सामने दर्शक विनोद खन्ना को नहीं भूले। 1971 में आई राज खोसला की फिल्म 'मेरा गाँव मेरा देश' में उन्होंने ऐसे दुर्दांत डाकू का किरदार निभाया था, जिसके परदे पर आते ही दर्शक सहम जाते थे। धर्मेंद्र जैसे स्टार के बावजूद विनोद खन्ना तारीफ बटोरने में कामयाब रहे। 1973 में आई 'कच्चे धागे' में भी वे डाकू ही बने थे। फिर धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता से वे विलेन से हीरो बन गए। इसके बाद उन्होंने नायक की भूमिकाएं की।  
     आमिर खान जैसे चॉकलेटी नायक ने भी 'धूम 3' में डबल रोल में खलनायक जैसा रोल किया। ख़ास बात ये कि वे दोनों ही रोल में वे चोर बने। उन्होंने फिल्म के हीरो अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा से कहीं ज्यादा तारीफ भी बटोरी। यश चोपड़ा की इस लोकप्रिय सीरीज 'धूम' पर नज़र डाली जाए, तो इसमें दर्शकों की नायक से ज़्यादा उत्सुकता ये जानने की रहती है, कि खलनायक कौन है! 'धूम-2' में रितिक रोशन खलनायक थे और उनके साथ थी ऐश्वर्या राय। खलनायक की हार पर यदि दर्शक दुखी हो, तो समझ लीजिए कि फिल्म में सबसे ज्यादा तारीफ किसे मिलेगी। 'धूम-2' में रितिक और ऐश्वर्या के साथ ऐसा ही हुआ था। जॉन अब्राहम के भी नायक बनने का कारण 'धूम' ही बनी। वे अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा के सामने थे। वे उस समय के सबसे हैंडसम विलेन थे, जो बाइक पर चोरियां प्लान करता था। दरअसल, इन खलनायकों ने ही चोरों का अंदाज बदला था। नायक से ज्यादा जॉन अब्राहम जैसे चोर की एंट्री पर तालियां बजी थी। जबकि, वो स्क्रीन पर ही बोलता था 'मैं चोर हूँ!' आश्चर्य नहीं कि जॉन को यदि आज जो पहचान मिली, उसका श्रेय 'धूम' के उस खलनायक वाले किरदार को ही जाता है। आमिर खान ने 'गजनी' में और शाहिद कपूर ने 'कबीर सिंह' में भी कुछ ऐसा ही किरदार निभाया था।  
   शाहरुख़ खान को आज भले रोमांटिक हीरो माना जाता है, पर उन्होंने दर्शकों के दिल में जगह बनाई अब्बास मस्तान की 'बाज़ीगर' और यश चोपड़ा की 'डर' से। दोनों ही फिल्मों में वो खलनायक ही थे। शाहरुख़ के करियर से यदि इन दो फिल्मों को हटा दें, तो शायद आज शाहरुख वहां नहीं होते, जहाँ वे आज है। उन्हें ये दोनों फ़िल्में भी तब मिली, जब सलमान ने 'बाज़ीगर' और आमिर ने 'डर' करने से इंकार कर दिया था। 
    सैफ अली खान के करियर को दूसरी दौर में भी खलनायक का किरदार निभाने के बाद ही लोकप्रियता मिली। 'ओंकारा' में यदि सैफ़ ने लंगड़ा त्यागी का किरदार नहीं किया होता, तो सैफ़ को दर्शक भूल गए होते। लंगड़ा त्यागी का किरदार हिट होने के बाद ही सैफ़ को फिर हीरो के रोल मिले थे। संजय दत्त ने तो 'खलनायक' नाम की ही फिल्म की। सुभाष घई की यह फिल्म सुपरहिट भी रही थी। पर, यदि वे फिल्म की रिलीज के बाद जेल न गए होते तो वे आज कहीं ज्यादा सफल होते। अक्षय खन्ना भी अब इसी खलनायक बिरादरी में शरीक हो गए। 'ढिशुम' में वे वरुण धवन और जॉन अब्राहम को चुनौती देते नजर आए थे। फिल्म 'इत्तफाक' में भी वे खलनायक ही बने। ऐसी भूमिकाओं की लोकप्रियता का एक उदाहरण आशीष शर्मा भी है, जिसका करियर बनाने के सलमान खान ने काफी मेहनत की। पहली फिल्म 'लवरात्रि' की जमकर ब्रांडिंग के बाद भी फिल्म ने पानी नहीं मांगा! लेकिन, दूसरी फिल्म 'अंतिम' में वे निगेटिव रोल में दिखाई दिए, तो दर्शकों को उनके अभिनय में गुंजाइश दिखी। 
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कमलनाथ और दिग्विजय के बीच 'सब कुछ' सामान्य नहीं!

   कांग्रेस की मध्यप्रदेश राजनीति में ऊपर से सब कुछ सामान्य दिखाई दे रहा हो, पर है नहीं! कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच सामंजस्य लग रहा हो, पर वास्तव में इन दोनों बड़े नेताओं में भी मतभेद उभरते लग रहे हैं। कई बार ऐसे मौके आए, जब इनमें खींचतान हुई है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान से किसानों की समस्याओं को लेकर मुलाकात का समय न मिलने पर दिग्विजय सिंह ने सीएम हाउस के सामने जो धरना दिया, उसने इन नेताओं के बीच मतभेदों को कुछ ज्यादा ही चौड़ा कर दिया। इस राजनीतिक घटनाक्रम की परतें अब खुलकर सामने आ गई। जो कुछ सामने आया, उससे लग रहा है कि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के बीच फासले बढे हैं और राजनीतिक माहौल भी अनुकूल नहीं है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दिग्विजय सिंह को मुलाकात का समय न देने के बाद स्टेट हैंगर पर कमलनाथ से आधे घंटे बात करने से कांग्रेस की राजनीति में अंदरूनी कलह पनपने लगा है।
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- हेमंत पाल

    राजनीतिक गलियारों में एक वीडियो खासी चर्चा में हैं। यह वीडियो दिग्विजय सिंह द्वारा सीएम हाउस के सामने दिए गए धरना स्थल का है। ये तब का है, जब कमलनाथ स्टेट हैंगर पर शिवराज से बात करके सीधे धरना स्थल पर पहुंचते हैं। वीडियो में जो कुछ संवाद दिग्विजय और कमलनाथ के बीच सुनाई और दिखाई दे रहे हैं, उससे जाहिर है कि दोनों के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। ये भी समझा जा रहा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि भाजपा अपनी राजनीति से दोनों नेताओं में फूट डाल रही हो! गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने मजाक में इसका इशारा तो दे ही दिया। एक तरफ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और दिग्विजय सिंह के बीच मुलाकात को लेकर मुद्दा गरमाया! दूसरी तरफ शिवराज और कमलनाथ के बीच स्टेट हैंगर पर एक-दूसरे का हाथ थामे और मुस्कुराते दिखाई दिए। करीब आधे घंटे तक दोनों नेता बात करते रहे। इसके बाद से ही ये कयास लगाए जाने लगे कि कांग्रेस में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा! पार्टी के इन दोनों बड़े नेताओं में तल्खी बढ़ने लगी है। क्योंकि, इस एक घटना ने प्रदेश की राजनीति को ही नहीं, कांग्रेस के अंदर की राजनीति को भी खदबदा दिया। अब इन दो विपरीत प्रसंगों के राजनीतिक मतलब निकाले जाने लगे। 
   मुख्यमंत्री से स्टेट हैंगर पर मुलाकात करने के बाद कमलनाथ का सीधे दिग्विजय के धरने पर आना और मीडिया को सफाई देना भी समझ से परे रहा। उन्होंने बताया 'मैं स्टेट हैंगर पर छिंदवाड़ा से आया था, मुख्यमंत्री कहीं जा रहे थे, तभी हमारी मुलाकात हुई। यह पहले से तय नहीं था, अचानक मुलाकात हुई! मुझे धरने की भी जानकारी नहीं थी। शिवराज जी ने मुझसे कहा, देखिए दिग्विजय सिंह धरना दे रहे हैं! हालांकि, मुझे धरने की जानकारी नहीं थी। सीएम ने कहा मैं तो टाइम दे दूं, मुझे क्या तकलीफ होगी।' उधर, मुख्यमंत्री का भी उसी दिन एक वीडियो सामने आया जिसमें उन्होंने कहा कि 'मैं जा रहा था, वो आ रहे थे! स्टेट हैंगर पर हमारी राम राम हुई, बस!' जबकि वास्तव में ऐसा नहीं था।     
  धरना स्थल पर कमलनाथ-दिग्विजय साथ-साथ बैठे थे। तब कमलनाथ और दिग्विजय के बीच जो बात हुई, वो गौर करने वाली थी! इस तल्ख़ बातचीत का जो वीडियो सामने आया, जिसमें दोनों नेता धरना स्थल पर सार्वजनिक रूप से बात करते दिखाई दिए। वहाँ और भी लोग और मीडिया सब मौजूद थे। कमलनाथ बोले 'हम (दिग्विजय सिंह) तो मिले थे, चार दिन पहले, दिग्विजय साहब को बताना था।' इस पर दिग्विजय सिंह ने कहा 'आपको बताने की जरूरत ही नहीं थी।' तो कमलनाथ ने बोले 'ये बात मुझे नहीं बताई चार दिन पहले हम मिले थे, उसके बाद मैं छिंदवाड़ा चला गया।' इस पर दिग्विजय सिंह का जवाब था 'बात ये है कि हम तो डेढ़ महीने से समय मांग रहे थे। ... अब मुख्यमंत्री से मिलने के लिए आपसे क्यों समय मांगे!' दिग्विजय सिंह ने ये बात तल्खी से कही थी। इस पर कमलनाथ झुंझलाकर बोले 'देट्स ट्रू!' दरअसल, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच जो बातचीत हुई, वो दो बड़े नेताओं के बीच सार्वजनिक स्थल पर हुई सामान्य चर्चा नहीं कही जा सकती। दोनों के बीच बेहद तनाव के हालात नजर आए। संवाद भी ऐसे नहीं थे कि उन्हें सहजता लिया जाए!
     धरने के दो दिन जब दिग्विजय सिंह को शिवराज सिंह के दफ्तर से मुलाकात का समय मिला तब उनके साथ कमलनाथ भी गए। लेकिन, इस मुलाकात के खास मायने थे। दिग्विजय सिंह की मुख्यमंत्री से मुलाकात तो हुई, लेकिन वे किसानों के साथ अकेले नहीं मिल पाए। उनके साथ कमलनाथ जो थे। ध्यान देने वाली बात ये, कि जब मुलाकात हो रही थी, तब मुख्यमंत्री के सामने किसानों का मुद्दा कमलनाथ ने रखा। दिग्विजय सिंह उनसे दूर खड़े रहे। मुलाकात के बाद दिग्विजय और कमलनाथ दोनों नेताओं के बयान सामने आए। कमलनाथ ने कहा कि मैं दिग्विजय सिंह के साथ सीएम हाउस गया था। मैंने ही कहा दिग्विजय से मैं साथ जाऊंगा।
   उधर, भाजपा नेता और गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने भी इस मामले में चिकोटी लेकर कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच मतभेद पनपने का इशारा किया। उन्होंने कहा कि कमलनाथ को दिग्विजय सिंह पर भरोसा नहीं होगा, इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री से अकेले नहीं मिलने दिया। कमलनाथ जी की दिग्विजय सिंह के प्रति इतनी अविश्वसनीयता ठीक नहीं है। गृह मंत्री ने कहा कि यह अविश्वसनीयता दोनों की मित्रता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाती है। वैसे सार्वजनिक रूप से तो यह दोनों अपनी मित्रता का दावा करते दिखते हैं! लेकिन, सच कुछ और दिखा रहा है।
   कमलनाथ की अपनी अलग ही राजनीतिक शैली है। वे दोस्ती वाली राजनीति करके विरोधियों को घेरते हैं। जबकि, दिग्विजय सिंह मुद्दों पर आक्रामक रवैया अपनाते हैं और तंज शैली में बयान देते हैं। ऐसे में कहीं न कहीं दोनों के बीच मतभेद होने लगे हैं! दोनों नेताओं ने कभी इस बारे में खुलकर कुछ नहीं कहा। लेकिन, जिस तरह से प्रदेश में राजनीतिक स्थितियां बन रही है, उससे लग रहा है कि दोनों के बीच सब कुछ सामान्य नहीं है। इस बात से इंकार नहीं कि दोनों के बीच तनाव के ये हालात पहले नहीं थे। सिंधिया के कांग्रेस से जाने के बाद जब दोनों के सामने तीसरा कोई नहीं था, तो मतभेद भी पनपने लगे। 
        ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के बाद से ही प्रदेश कांग्रेस की स्थितियां ज्यादा ही बदली है। सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के बाद कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ही पार्टी दो बड़े नेता बचे हैं। दोनों का अपना अलग जनाधार है। दोनों राजनीति के पके हुए खिलाड़ी हैं। राजनीति करने का दोनों का अपना ही स्टाइल है। सिंधिया जब तक कांग्रेस में थे तब तक कमलनाथ और दिग्विजय सिंह में बेहतर तालमेल था. लेकिन अब स्थितियां बदलने लगी है। क्योंकि, दोनों नेता प्रदेश में अपना अकेले का वर्चस्व चाहते हैं और इस वजह से कई मुद्दों पर दोनों में मतभेद भी हैं। ऐसे में शिवराज सिंह भी कम नहीं है। उन्होंने दोनों को साथ रखते हुए भी उनके बीच एक महीन रेखा खींची है। उन्होंने स्टेट हैंगर पर कमलनाथ को पूरा समय दिया और फिर किसानों से मुलाकात के वक़्त भी बजाए दिग्विजय को उसका श्रेय लेने के, कमलनाथ को ज्यादा भाव दिए।  
    ज्योतिरादित्य सिंधिया वाले मामले को लेकर भी दोनों नेताओं के बीच लम्बा घटनाक्रम चला। जब सिंधिया अपने समर्थकों को लेकर बेंगलुरु गए थे, तब दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ को विश्वास दिलाया था, कि मैं सब मामला संभाल लूंगा! कमलनाथ भी निश्चिंत थे, कि सिंधिया का सेबोटेज कामयाब नहीं होगा! लेकिन, जब सिंधिया ने अपने समर्थकों ने कांग्रेस छोड़कर सरकार गिरा दी, उसके बाद दोनों नेताओं के बीच पहली बार दरार उभरी। जबकि, कमलनाथ की सरकार के दौरान समझा जाता था कि कई मामलों में दिग्विजय सिंह ही फैसले लेते हैं और ये सही था। लेकिन, सिंधिया-प्रसंग के बाद दोनों में जो तनाव उभरा, वो कई जगह सामने आया। लेकिन, धरना विवाद ने इस दरार को और चौड़ा कर दिया है। कुल मिलाकर प्रदेश में कांग्रेस के दो दिग्गज नेताओं के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है और इसका पूरा खामियाजा कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ रहा है।
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Thursday, January 20, 2022

मुरली की बेसुरी तान से भाजपा परेशान

- हेमंत पाल

   भाजपा ने मुरलीधर राव को मध्यप्रदेश भाजपा का प्रभारी बनाकर भेजा था। लेकिन, यहाँ आकर उन्होंने अपनी मुरली का अलग ही राग छेड़ दिया। वे जब भी माइक के सामने होते हैं, कोई न कोई ऐसा विवाद उगल देते हैं, जो बाद में कई दिनों तक चर्चा में बना रहता है। उनके बयानों से अभी तक कोई सियासी उथल-पुथल तो नहीं हुई, पर विपक्ष को सरकार और भाजपा पर तलवार भांजने का मौका जरूर मिल जाता है। कभी वे ब्राह्मण-बनियों को जेब में होने का दावा करते हैं, कभी अपनी ही पार्टी के नेताओं को 'नालायक' तक कहने से बाज नहीं आते! अब उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की तुलना क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान विराट कोहली से कर दी। 
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   मध्यप्रदेश भाजपा के प्रभारी पी मुरलीधर राव ने कहा कि 'शिवराज एक दिन लेट कर सकते हैं, लेकिन बूथ विस्तारक बनकर 100 घंटे पूरे करेंगे। वे विराट कोहली की तरह बैटिंग करेंगे।' ये तुलना असहज सी है, वो भी ऐसी स्थिति में जब क्रिकेट टीम ने टीम की कप्तानी से इस्तीफ़ा दे दिया हो! उनके इस बयान के कई मतलब निकाले गए और कांग्रेस को भी इसके छिद्रान्वेषण का मौका मिल गया! कांग्रेस ने तत्काल तीर चला दिया 'लीजिए शिवराज जी के कप्तानी छोड़ने के कयासों पर मुहर लग गई!' इससे पहले ब्राह्मण और बनिया समुदाय के 'जेब' में होने के उनके बयान के बाद भी जमकर विवाद हुआ था। वे कांग्रेस ही नहीं, भाजपा के भी निशाने पर आ गए। क्योंकि, ये राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि सामाजिक धरातल को सीधा प्रभावित करने वाली बात थी। जबकि, वोट बैंक के हिसाब से भाजपा की ताकत ब्राह्मण और बनियों को ही माना जाता रहा है! ऐसे में यदि पार्टी का कोई नेता उन्हें अपनी 'जेब' में होने की बात कहे, तो विवाद होना तय है। 
    इस मामले पर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने पलटवार करते हुए कहा था कि भाजपा के नेता सत्ता के नशे व अहंकार में चूर हो गए हैं। भाजपा के प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव कह रहे हैं कि मेरी एक जेब में ब्राह्मण हैं और एक जेब में बनिया हैं। जिस वर्ग के नेताओं ने भाजपा को खड़ा करने में महती भूमिका निभाई है, उन वर्गों का यह कैसा सम्मान! मुरलीधर राव ने एक बैठक में यह भी कहा था कि लगातार चार-पांच बार से सांसद, विधायक बनना, लगातार प्रतिनिधित्व करना, यह जनता का दिया हुआ वरदान होता है। इसके बाद तो रोने के लिए कुछ नहीं होना चाहिए। ऐसे नेता अगर ये कहें कि उन्हें मौका नहीं मिला, तो 'उनसे बड़ा नालायक कोई नहीं, उन्हें मौका मिलना भी नहीं चाहिए।'
   मुरलीधर राव अपने बयानों को लेकर हमेशा ही सुर्खियों में रहते हैं। ये पहली बार नहीं है, जब मुरलीधर राव ख़बरों की सुर्ख़ियों में आए हों! उनकी बेबाकी से पार्टी के भीतर ही मुरलीधर राव के खिलाफ विरोध होने लगा। संघ और पार्टी के बड़े नेता भी मुरलीधर राव की बयानबाजी से परेशान हैं। हालांकि, राव को भविष्य में ऐसे बयानों से बचने की नसीहत भी संघ और पार्टी आलाकमान की तरफ से दी जा चुकी है।  
      प्रदेश की राजनीति के हिसाब से मुरलीधर राव पार्टी के जूनियर कैडर के नेता है। वे स्वदेशी जागरण मंच और बौद्धिक मंचों से जरूर जुड़े रहे, पर राजनीति की तासीर से वे वाकिफ नहीं हैं। सक्रिय राजनीति में उनकी भूमिका भी बहुत सीमित रही। प्रदेश भाजपा में भी उन्हें भाजपा के जिन नेताओं के साथ पार्टी और संगठन की दृष्टि से काम करना है, वे भी उनसे ज्यादा वरिष्ठ हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 80 के दशक से राजनीति में सक्रिय हैं। वे विधायक, सांसद, प्रदेश अध्यक्ष के बने और पांचवी बार मुख्यमंत्री बने हैं। उनके बारे में अनर्गल बातें करने से पहले उन्हें सोचना चाहिए! मुरलीधर राव के पास राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं है। पार्टी ने उन्हें केवल मध्यप्रदेश का जिम्मा सौंपा है। यहाँ भाजपा की सरकार है और विधानसभा चुनावों में भी लम्बा वक्त है। आशय यह कि यहां ज्यादा कुछ करने की गुंजाइश नहीं है। अनुमान लगाया जा सकता है कि कहीं ऐसा कि राव इसलिए ऐसी बयानबाजी कर रहे हैं, ताकि सुर्खियों में बने रहें।  
     दिल्ली भाजपा ने मुरलीधर राव को प्रदेश भाजपा को कंट्रोल करने के लिए भेजा था। लेकिन, अब स्थिति ये आ गई कि पार्टी को खुद उनकी जुबान काबू करने की जरूरत पड़ने लगी। उनके विवादस्पद बयानों से पार्टी के साथ संघ के नेता भी परेशान होने लगे। बताते हैं कि प्रदेश प्रभारी के इन बड़बोले बयानों को हाईकमान तक पहुंचाया गया है। कहा गया कि मुरलीधर राव पर नकेल डालना जरूरी है, अन्यथा किसी दिन बड़ा विवाद खड़ा हो सकता है। उनके हिंदी भाषी नहीं होने को भी एक कारण बताया जा रहा है! लेकिन, अभी तक की उनकी बयानबाजी में कहीं भाषा अड़चन नहीं बनी! उन्होंने जो कहा स्पष्ट किया। प्रदेश के कई नेता उनके ऐसे बयानों से बेहद नाखुश हैं। उनके बयानों से हुए विवादों की जानकारी और उनके कामकाज की शैली को लेकर केंद्रीय नेतृत्व को भी दी गई है। प्रदेश में भाजपा राष्ट्रीय सह-संगठन मंत्री और प्रभारी के तौर पर शिवप्रकाश काम देख रहे हैं। वे भोपाल में ही हैं, इसलिए प्रदेश में उनकी सक्रियता भी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले अपनी टीम के साथ प्रदेश में एक्टिव है। बताते हैं कि पार्टी के अलावा संघ के स्तर पर भी मुरलीधर राव की निगरानी शुरू हो गई, इसके बावजूद उन पर काबू नहीं किया जा सका है। 
   भाजपा के पूर्व विधायक और जाने-माने कवि सत्यनारायण सत्तन ने तो कविता के जरिए मुरलीधर राव के ब्राह्मण-बनियों को लेकर दिए गए बयान का जवाब दिया था। उन्होंने एक कविता ही लिख दी।  

मुरली की धुन

ब्राह्मणों और बनियों को जेब में लिए फिरते,
भाजपा के महासचिव मुरलीधर राव जी।
नड्डा ने तो गड्ढा खोदा हिमाचल में,
आप किस बूते पर दिखा रहे ताव जी।
ब्राह्मण अटलजी ने भाजपा को अटल किया,
एक वोट तक का नहीं किया भाव-ताव जी।
अपनी जेब में चाहे जितना भी भरो आप,
लेकिन, भाजपा की डुबाओ मत राव जी
मुखर्जी और उपाध्याय दोनों ही ब्राह्मण थे,
आप की जेब में वो दोनों ही समा गए।
मोदी की गोदी में महासचिव बने आप
शिवराज की मेहनत धूल में मिला गए।
भारी भरकम पाकिट में जो अहंकार भरा,
उसी अहंकार के गड्ढे में रमा गए।
भाजपा को जनता ने सम्मान सौंपा था,
आप उस मान को मिट्टी में मिला गए।

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सिनेमा के परदे पर हीरो कभी बूढ़े नहीं होते!

- हेमंत पाल

     सिनेमा के परदे का अपना अलग ही रिवाज है। यहाँ हीरो कभी बूढ़ा नहीं होता और हीरोइन शादी होते ही परदे से आउट कर दी जाती है। आज जो भी हीरो परदे पर धूम मचा रहे हैं, सभी 50 के पार हैं, लेकिन उनके जलवे आज भी बरक़रार हैं। सलमान खान, शाहरुख़ खान, आमिर खान, अक्षय कुमार से लगाकर सनी देओल और रितिक रोशन भी 50 की उम्र लांघ गए! पर, इन्हीं के कंधे पर चढ़कर फ़िल्में सौ और दो सौ करोड़ की कमाती हैं। अमिताभ बच्चन तो 70 के भी पार हैं, पर जब वे परदे पर आते हैं, तो अच्छे-अच्छे सितारों की चमक उनके सामने फीकी पड़ जाती हैं। दक्षिण की फिल्मों की तरफ देखा जाए, तो रजनीकांत और कमल हासन का आज भी कोई जोड़ नहीं! अपने दम पर फ़िल्म चलाने का दम भरने वाले आयुष्मान खुराना भी 'गुलाबो सिताबो' में अमिताभ के सामने दबे हुए दिखे। सलमान के बहनोई आशीष शर्मा को भी जब पहली फिल्म में दर्शकों ने भाव नहीं दिया, तो 'अंतिम' में उन्हें भी सलमान खान का सहारा लेना पड़ा। ये एक या दो फिल्मों की बात नहीं, गिनती के इन पांच-छह हीरो के आसपास ही फिल्मों का सारा संसार घूम रहा है।       
     कहा जाता है कि स्टार कभी बूढ़ा नहीं होता! ये बात फिल्मों के संदर्भ में काफी हद तक सही भी है। बस मसला ये है कि उसे पसंद किया जाना चाहिए! फिल्म इंडस्ट्री में एक तरफ अमिताभ बच्चन हैं, जिनकी जगह अडिग है। अब स्थिति यह है कि उन्हें कभी कोई कभी मात नहीं दे सकता! दूसरी तरफ तीन खानों के साथ अक्षय कुमार और रितिक रोशन है, जिनके सामने कोई नया हीरो नहीं ठहरता! आज हर दर्शक की नजर इन तीन खान, एक बच्चन, अक्षय और रितिक से होकर गुजरने के बाद ही किसी और हीरो पर पड़ती है। इसे स्वीकार किया जाए या नहीं, पर मनोरंजन की इस दुनिया का सच यही है। जिस तरह रॉकस्टार के अंदाज में उंगलियों पर गिने जाने वाले इन नायकों ने परदे पर कब्ज़ा कर रखा है, उसे नकारा नहीं जा सकता। आने वाले कई सालों में भी बहुत ज्यादा बदलेगा, ऐसा नहीं लगता। आज आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव और टाइगर श्रॉफ जैसे हीरो अच्छे कलाकार हों, पर वे इन बूढ़े हीरो जैसा जादू नहीं कर सकते! जैकी श्रॉफ के बेटे टाइगर श्रॉफ ने जरूर एक दर्शक वर्ग खड़ा किया है, पर उनका करियर भी डांवाडोल ही है। उनकी फिल्म 'वार' भी तब आसमान फाड़ हिट होती है, जब रितिक रोशन उनके साथ एक्शन सीन में दिखाई देते हैं।    
 
     50 पार के इन तीनों खान, अक्षय कुमार और रितिक रोशन करीब 25 साल से अपनी लोकप्रियता बनाए हुए हैं, जो आसान बात नहीं है। उनकी आधी जिंदगी तो परदे की दुनिया पर राज करते हुए ही बीती! अगर फिल्मों का इतिहास खंगाला जाए, तो इन गिनती के नायकों ने जितने साल तक परदे पर राज किया, वो कोई और नहीं कर सका। 'दंगल' के लिए आमिर खान का वजन बढ़ाना, फिर 'सुल्तान' के लिए सलमान खान का 17 किलो वजन बढाकर घटाना आसान बात नहीं थी। शाहरुख़ ने भी 'फैन' और 'रईस' में भी प्रयोग किए। 'वार' में रितिक के एक्शन के सामने आधी उम्र के टाइगर श्रॉफ भी फीके पड़ गए थे। जहाँ अक्षय कुमार की बात है, तो वे अपने समकालीनों से बहुत आगे हैं। सनी देओल ने राजनीति में आने के बाद फिल्मों से थोड़ा मुंह जरूर मोड़ा, पर आज भी उनको पसंद करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है।         
    एक दिलचस्प बात यह भी है कि तीनों खान एक ही साल 1965 में जन्मे हैं, अक्षय इसके दो साल बाद 1967 में! जबकि, रितिक रोशन सबसे छोटे 1974 में जन्में हैं और अमिताभ सबसे बड़े हैं, जो 1942 में जन्में हैं और 80 के करीब हैं। लेकिन, इस उम्र में भी इनके जलवों का कोई जोड़ नहीं! एक ख़ास बात यह भी है कि तीनों खान, अक्षय और अमिताभ सभी के अभिनय की दिशा एक-दूसरे से अलग है। इनकी अदाकारी कहीं एक-दूसरे की धारा को नहीं काटती। सभी का नायकत्व अलग-अलग रंग दर्शाता है। सलमान खान को अलग तरह के एक्शन हीरो के रूप में मान्यता दी जाती है, तो शाहरुख़ खान का जलवा रोमांटिक हीरो का है! आमिर खान पर कोई एक ठप्पा नहीं लगा, वे 'थ्री इडियट्स' भी करते हैं और 'पीके' में भी दिखाई देते हैं! अक्षय कुमार की अपनी अलग दिशा है। वे कभी 'बेल बॉटम' में एक्शन करते दिखाई देते हैं, तो 'पैडमैन' में उनका किरदार अलग ही तरह का होता है। 90 के दशक से आजतक इस कलाकार का जलवा बड़े परदे पर जस का तस बरक़रार है। लेकिन, अमिताभ बच्चन सबसे अलग हैं। अभिनय के अपने शुरुआती दौर में एंग्री मैन बने इस कालजयी अभिनेता ने हर किरदार निभाया। इनमें सबसे छोटे रितिक की असल पहचान तो एक्शन हीरो की है, पर वे 'काबिज' और 'सुपर 30' जैसी फ़िल्में करके चौंका भी देते हैं।                 
    फिल्म इंडस्ट्री पर नजर रखने वाली मीडिया शोध कंपनी 'ऑरमैक्स मीडिया' के एक अध्ययन के मुताबिक अगर 2000 से 2014 तक के घरेलू बॉक्स ऑफिस नतीजों पर नजर डाली जाए, तो इन 14 सालों में फिल्म इंडस्ट्री में इन तीनों खानों की फिल्मों ने 4,388 करोड़ रुपए का कारोबार किया। आमिर की फिल्मों ने इन सालों में घरेलू बॉक्स-ऑफिस पर 1,282 करोड़, शाहरुख की फिल्मों ने 1,472 करोड़ और सलमान की फिल्मों ने सबसे ज्यादा 1,634 करोड़ रुपए कमाए। आमिर खान की चार फिल्मों ने बॉक्स-ऑफिस पर सौ करोड़ से ज्यादा की कमाई की। 300 करोड़ से ज्यादा कमाकर उनकी 'पीके' बॉक्स-ऑफिस पर ज्यादा कमाई का रिकॉर्ड बना चुकी है। सलमान खान की पिछली नौ फिल्मों ने बॉक्स-ऑफिस पर सौ करोड़ से ज्यादा की कमाई की। ‘बजरंगी भाईजान’ 300 करोड़ से ज्यादा कमाकर उनके लिए सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बन गई। शाहरुख खान भी पीछे नहीं हैं, उनकी छह फिल्मों ने सौ करोड़ से ज्यादा का धन बरसाया। 'चेन्नई एक्सप्रेस' कमाई के मामले में उनकी सफलतम फिल्म का दर्जा हासिल किया। 
   दुनियाभर में तीन खानों की फिल्मों की कमाई के आंकड़ों को अगर उंगलियों पर गिनना शुरू करें, तो ओवरसीज मार्केट में आमिर खान पहले, सलमान खान दूसरे और शाहरुख खान तीसरे नंबर पर हैं। आमिर की 'धूम 3' दुनियाभर में 542 करोड़ रुपए का कारोबार किया। इसके बाद 'पीके' ने दुनियाभर से 792 करोड़ कमाकर न सिर्फ खुद को सफलतम हिंदी फिल्म के खिताब पाया, बल्कि आमिर को भी ओवरसीज मार्केट में नंबर वन बनाया। दुनिया में 626 करोड़ कमाकर 'बजरंगी भाईजान' ने सलमान को इस ओवरसीज मार्केट का दूसरे नम्बर का प्रभावशाली अभिनेता बना दिया। कुछ साल पहले तक इस मार्केट के बेताज बादशाह रहे शाहरुख को 422 करोड़ रुपए कमा चुकी 'चेन्नई एक्सप्रेस' ने तीसरे स्थान पर मजबूत जगह दी। 
      आज के दौर के ये 5-6 नायक गुजरे ज़माने के तीन नायकों राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार की याद दिलाते हैं। सिनेमा के स्वर्णिम इतिहास की ये सफल तिकड़ी ऐसी थी, जिनकी अधिकांश फिल्में हिट होती थी। उन तीनों नायकों के बाद अब समय बहुत ज्यादा बदल गया, पर इन उंगलियों पर गिने जाने वाले 5-6 नायकों का दबदबा बरसों से बरक़रार है। अमिताभ बच्चन का दौर बेहद उतार-चढाव भरा रहा! उन्होंने अपनी अभिनय यात्रा में बहुत संघर्ष किया है। कम से कम तीन बार ऐसा वक़्त आया, जब अमिताभ की फ़िल्में बुरी तरह फ्लॉप हुई! लेकिन, हर बार वे संभले, खड़े हुए और फिर दौड़ पड़े! यही स्थिति अक्षय कुमार और रितिक रोशन के साथ भी आई। अक्षय और रितिक दोनों का शुरूआती दौर रोमांटिक रहा, पर बाद में दोनों ने एक्शन को अपनी पहचान बनाया और उनकी इसी खासियत ने उन्हें लंबी रेस का मौका दिया। जबकि, खान तिकड़ी का माहौल कुछ अलग ही रहा। शाहरुख़ और सलमान का समय जरूर ऊपर-नीचे होता रहा, पर आमिर एक अपनी गति से चलते रहे। आज सारे नायक इनके सामने फीके हैं, इसलिए कि दर्शकों की पसंद में इनके सामने कोई नहीं ठहरता!      
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Sunday, January 16, 2022

महामारी के इस दौर में खतरे में पड़ा सिनेमा

- हेमंत पाल

     फिल्म इंडस्ट्री अनिश्चितता से भरी है। अभी तक यहाँ फिल्मों के हिट और फ्लॉप होने को ही अनिश्चितता से जोड़कर देखा जाता था, पर अब इसमें और भी कई बातें जुड़ गई। महामारी ने मनोरंजन की इस दुनिया को कई जगह से घायल किया है। यह लगातार तीसरा साल है, जब साल के शुरुआत में फिल्मों की रिलीज टाल दी गई, फिल्मों की शूटिंग रुक गई और कई फिल्मों का भविष्य हमेशा के लिए गर्त में समा गया। कोरोना की तीसरी लहर ने पिछली दो लहरों की तरह इस बार भी इंडस्ट्री को प्रभावित किया। कोरोना के बढ़ते मामले को देखते हुए फिल्म इंडस्ट्री की गति एक बार फिर धीमी हो गई। फिल्मों की शूटिंग रुकने के साथ कई कलाकार भी कोरोना से प्रभावित होने लगे। अभी तो करीना कपूर, अमृता अरोरा, अर्जुन कपूर, नोरा फतेही और एकता कपूर के नाम ही सामने आए हैं, पर संक्रमित होने वाले कलाकारों की संख्या 20 से ज्यादा है। ऐश्वर्या राय बच्चन की फिल्म 'पोन्नियन सेल्वन’ की शूटिंग रद्द कर दी गई। वेब सीरीज 'पंचायत-2' भी ओटीटी प्लेटफार्म पर आने वाली थी, पर इसकी  शूटिंग को आगे बढ़ा दिया गया। विपुल अमृतलाल शाह भी कैटरीना कैफ को लेकर एक फिल्म की शूटिंग शुरू करने वाले थे, पर इस फिल्म की शूटिंग भी रोक दी गई।
     पिछले दो साल में लॉकडाउन के वक्त जब सिनेमाघरों को बंद किया गया, कई बड़े फिल्म निर्माताओं ने अपनी फिल्मों की रिलीज आगे खिसका दी थी। छोटे बजट के फिल्मकारों ने तो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर अपनी फिल्में रिलीज कर दी, लेकिन बड़े निर्माता अच्छे दिन के इंतजार में रहे। अक्टूबर में जब लॉकडाउन हटा और सिनेमाघरों को पूरी क्षमता के साथ खोला गया, तो फिल्में थियेटर में रिलीज हुई। तब लगा कि बॉलीवुड के दिन फिर गए। सूर्यवंशी, बंटी और बबली-2, 83, चेहरे, सत्यमेव जयते-2 और 'राधे' जैसी बड़ी फ़िल्में रिलीज हुई। लेकिन, कोरोना ने एक बार फिर बॉलीवुड को झकझोर दिया। कोरोना के कारण लगे प्रतिबंधों को देखते हुए फिर फिल्मों की रिलीज डेट आगे बढ़ाई जाने लगी। महामारी के कारण रिलीज होने वाली कई फिल्मों को बढ़ाया गया। शाहिद कपूर और मृणाल ठाकुर की फिल्म 'जर्सी' की रिलीज टाल दी गई। राजामौली की 'आरआरआर' की रिलीज भी अब नहीं होगी। प्रभास और पूजा हेगड़े की 'राधेश्याम' भी अब तय तारीख को रिलीज नहीं होगी। गणतंत्र दिवस पर अक्षय कुमार की बहुप्रतीक्षित फिल्म 'पृथ्वीराज' की रिलीज भी टल गई। इसके अलावा अटैक, गंगूबाई काठियाबाड़ी, जयेश भाई जोरदार, बच्चन पांडेय, शमशेरा और 'भूल-भूलैया 2' के परदे पर आने में भी संशय है।  
    फिल्मों की रिलीज तारीख आगे बढ़ाया जाना, महज तारीखों का बदलाव नहीं होता। फिल्मकारों के लिए यह बहुत बड़ा फैसला होता है। फिल्म पूरी होने के बाद फिल्मकार के लिए एक-एक दिन अहम होता है। फिल्म बनाने के लिए उसके बजट और लागत का एक बड़ा हिस्सा बैंकों लोन से आता है। इस बैंक लोन पर उन्हें ब्याज देना पड़ता है। ऐसे में यदि फिल्म की रिलीज डेट लगातार टलती है, तो उसका सबसे बड़ा नुकसान फिल्मकार को उठाना पड़ता है। पिछले साल 'सूर्यवंशी' और '83' की रिलीज आगे बढ़ने पर इसके मेकर्स को करीब 40 करोड़ रुपए से ज्यादा ब्याज भरना पड़ा था। इस साल रिलीज टलने के कारण भी फिल्मकारों को वही सब भुगतना होगा। ऐसे में यदि सिनेमाघरों में आधे दर्शकों को ही बैठने की अनुमति मिलती है, तो भी इसका सीधा असर भी फ़िल्मकार पर पड़ता है। वर्तमान हालात को देखते हुए कई बड़ी फिल्मों की रिलीज संभव नहीं लग रही।
   कोई इस बात का अनुमान नहीं लगा सकता कि अचानक फिल्म की रिलीज टालने का फैसला फिल्मकार को कितना महंगा पड़ता है। सिनेमा इतिहास की सबसे महंगी फिल्म राजामौली की 'आरआरआर' इस साल 7 जनवरी को रिलीज होने वाली थी। महामारी के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए और लॉकडाउन का खतरा भांपते हुए फिल्म की रिलीज को आगे बढ़ा दिया गया। कई राज्यों के सिनेमाघर भी बंद हो गए। नुकसान से बचने के लिए रिलीज टालने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। लेकिन, 'आरआरआर' के निर्माताओं को इससे भारी नुकसान हुआ। इस फिल्म के निर्माण पर 400 करोड़ रुपए खर्च हुए। रिलीज आगे बढ़ने से फिल्म के प्रमोशन पर खर्च किए 20 करोड़ रुपए बर्बाद हो गए। एडवांस बुकिंग के 10 करोड़ रुपए भी लौटाना पड़े। इसके अलावा निर्माता को करीब 100 करोड़ रुपए का जो नुकसान उठाना पड़ा, उसकी भरपाई कहीं से होना संभव नहीं है। ये सिर्फ एक फिल्म की बात नहीं, हर वो फिल्म जिसकी रिलीज आगे बढ़ती है, उसकी यही कहानी है।    
   कोरोना के कारण यूं भी दर्शकों ने सिनेमाघरों में फिल्में देखना कम कर दिया था। कई राज्यों में सिनेमाघर बंद होने से फिल्म व्यवसाय पूरी तरह चौपट हो गया। महामारी के कारण सिनेमाघर बंद होने से देश की थिएटर श्रृंखला को बड़ा नुकसान भोगना पड़ता है। उदाहरण के लिए पीवीआर समूह के पास 22 राज्यों में 850 से ज्यादा स्क्रीन हैं। अकेले दिल्ली में ही उनकी 68 स्क्रीन हैं। फिल्मों की रिलीज टलने और सिनेमाघर बंद होने से इस उद्योग को जो नुकसान हुआ उसका आकलन ही नहीं किया जा सकता। ऐसा सभी थियेटर श्रृंखला के साथ है। सिनेमाघर बंद होने का आशय सिर्फ उनके दरवाजे बंद होना ही नहीं होता। इससे जुड़ा स्टाफ और दूसरे नुकसान का तो आकलन ही नहीं किया जा सकता।
     अनुमान है कि कोरोना की वजह से फिल्म इंडस्ट्री को करीब 50 से 60 फीसदी राजस्व का नुकसान झेलना पड़ा। 2019 में 1833 फिल्में रिलीज़ हुई थीं। जबकि, 2020 में केवल 441 फिल्में ही रिलीज हो पाईं। 2021 में ये संख्या और नीचे आ गई। जिससे सिनेमाघरों से आने वाला रेवेन्यू भी नीचे खिसक गया। 'फिक्की' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एंटरटेनमेंट सेक्टर की कुल कमाई 24% घटी है। पिछले दो लॉकडाउन की बात करें, तो फिल्म इंडस्ट्री को करीब 15 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। एक अन्य रिपोर्ट बताती है कि बॉक्स ऑफिस से फिल्म इंडस्ट्री को हर साल करीब 5 से 6 हजार करोड़ का टर्नओवर मिलता है। सैटेलाइट और ओटीटी राइट्स से करीब 8-9 हजार करोड़ रुपए मिलते हैं। इसमें म्यूजिक इंडस्ट्री की 3 से 4 हजार करोड़ की हिस्सेदारी होती है। कोरोना को देखते हुए ज्यादातर छोटी फिल्में ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज की जाने लगी है। इससे बॉक्स ऑफिस और सैटेलाइट राइट्स के रूप में मिलने वाले करोड़ों रुपए का नुकसान अलग हो रहा है।
    फिल्म की रिलीज और शूटिंग रुकने के अलावा कई फिल्मों की प्लानिंग भी कोरोना के कारण अटक गई। अली अब्बास जफर अच्छे डायरेक्टर हैं। लेकिन, उनके कई प्रोजेक्ट्स कोरोना की वजह लटक गए। अयान मुखर्जी भी 3 साल से एक ही फिल्म 'ब्रह्मास्त्र' पर काम कर रहे हैं। कोरोना की वजह से यह फिल्म खत्म ही नहीं हो पा रही। कबीर खान ने फिल्म '83' की रिलीज को काफी समय होल्ड पर रखा गया। इस वजह से उन्हें भारी नुकसान हुआ। कोरोना की वजह से करण जौहर ने भी अपने कई प्रोजेक्ट को टाल दिया। इसमें एक 'तख्त' भी है। उनके बैनर में बन रही फिल्म 'ब्रह्मास्त्र' भी काफी समय से लटकी हुई है। करण इस समय 'रॉकी और रानी की प्रेम कहानी' का निर्देशन कर रहे हैं। उधर, करण मल्होत्रा 'शमशेरा' पर काफी समय से काम कर रहे हैं। कोरोना की रोक-टोक के कारण फिल्म की रिलीज और शूटिंग पर भी काफी समय रुकी रही। रोहित शेट्टी ने भी लम्बे समय तक 'सूर्यवंशी' की रिलीज को होल्ड पर रखा था। इससे उन्हें काफी नुकसान भी हुआ। इसके अलावा रोहित शेट्टी की सिंघम 3, गोलमाल 4 और 'सर्कस' भी अभी अटकी हुई है। पिछले दो अनुभवों के बाद यह तीसरा साल है जब फिर कोरोना संक्रमण ने सिनेमा पर असर दिखाया है। उम्मीद की जाना चाहिए कि ये साल उतना काला नहीं होगा, जितने बीते दो साल गुजरे।
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Saturday, January 15, 2022

रजा की मुराद पर भारी पड़ी मंत्री की मर्जी!

- हेमंत पाल

      फिल्म अभिनेता रजा मुराद भाजपा की राजनीति का शिकार हो गए। गुरुवार को रजा मुराद को भोपाल में स्वच्छता का ब्रांड एंबेसडर बनाया गया था। वे अपनी भूमिका को सही साबित करने के लिए सक्रिय भी हुए! लेकिन, वे यह जिम्मेदारी कुछ घंटे ही निभा सके, क्योंकि इस घोषणा के अगले दिन सरकार के नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेंद्र सिंह ने उनकी नियुक्ति को निरस्त करवा दिया। उन्हें हटाने के पीछे कारण बताया गया कि उन्हें भोपाल की संस्कृति की जानकारी नहीं है! जबकि, देश में पांच बार स्वच्छता का तमगा जीतने वाले इंदौर शहर का ब्रांड एम्बेसडर जिस डॉ पुनीत कुमार द्विवेदी को बनाया गया, वे तो उत्तर प्रदेश के कुशीनगर के रहने वाले हैं। उन्हें किसी ने न तो सड़क पर देखा और उन्हें इंदौर की संस्कृति के बारे में पता होगा! जबकि, उत्साह से भरे रजा मुराद ने बतौर ब्रांड एम्बेसडर भोपाल में काम भी शुरू कर दिया था। वे कई इलाकों में गए भी थे। लोगों से शहर को अपने घर की तरह स्वच्छ और पॉलिथीन फ्री बनाने का आह्वान भी किया था। लेकिन, सरकार को उनकी नियुक्ति रास नहीं आई। वो सोनागिरी में हुए कार्यक्रम में शामिल भी हुए थे। 
    भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की मानसिकता और कई बार उनके फैसलों पर भारी पड़ जाती है। वे अपने फैसलों को लेकर कितने भी तर्क दें, पर उन्हें इसका खामियाजा जनता की उलाहना झेलकर भोगना पड़ता है! इसके बावजूद उनकी सोच में कोई अंतर नहीं आता। वे कुतर्क देकर अपने फैसले को सही साबित करने की कोशिश जरूर करते हैं, पर उनके तर्क किसी के गले नहीं उतरते! पिछले दिनों हेयर स्टाइलिस्ट जावेद हबीब को लेकर भाजपा के कुछ नेताओं ने माहौल बनाने की कोशिश की थी। बेवजह उन्हें एक मामले में उलझाने की कोशिश की गई। अब जाने माने अभिनेता रजा मुराद को भोपाल के स्वच्छता ब्रांड एम्बेसडर से ये कुतर्क देकर हटाया गया कि उन्होंने भोपाल  कुछ नहीं किया और उन्हें भोपाल की संस्कृति की जानकारी नहीं है! जबकि, इसके पीछे साफ़-साफ़ दो मामले नजर आते हैं! एक कारण यह कि उन्होंने विधानसभा चुनाव के दौरान एक कांग्रेस उम्मीदवार के समर्थन में प्रचार किया था, दूसरा कारण उनका मुस्लिम होना है। जावेद हबीब के साथ भी यही सब किया था। रजा मुराद के साथ भी वही सब दोहराया गया।    
   फिल्मों में विलेन का किरदार निभाने वाले अभिनेता रजा मुराद को भोपाल नगर निगम स्वच्छता अभियान के 'ब्रांड एंबेसडर' बनाया था। लेकिन, एम्बेसडर बनाए जाने के दूसरे ही दिन प्रदेश के नगरीय विकास मंत्री भूपेंद्र सिंह की नाराजगी भरे निर्देश पर नगर निगम कमिश्नर केवीएस चौधरी ने आदेश निरस्त कर दिया। बताया जा रहा है कि रजा मुराद का झुकाव कांग्रेस की तरफ है। उन्होंने विधानसभा चुनाव के दौरान भोपाल में कांग्रेस के एक विधायक के समर्थन में प्रचार किया था। यही वजह है कि भाजपा सरकार के नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेन्द्र सिंह को नगर निगम का ये फैसला रास नहीं आया। उन्हें गुरुवार को बनाया और शुक्रवार को हटा दिया। 
   हटाए जाने के पत्र में कहा गया कि मंत्री (भूपेंद्र सिंह) के संज्ञान में आया है कि नगर निगम भोपाल द्वारा स्वच्छता अभियान के लिए फिल्म कलाकार रजा मुराद को ब्रांड एंबेसडर बनाया गया है। जबकि, ब्रांड एंबेसडर ऐसे व्यक्ति को बनाना जाना चाहिए, जिसने स्वच्छता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया हो या वो भोपाल की संस्कृति से भली-भांति परिचित हो। इस संबंध में मंत्री द्वारा तत्काल आदेश निरस्त करने एवं किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति जो भोपाल की संस्कृति से भली-भांति परिचित हो या स्वच्छता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो, ऐसे व्यक्ति या संस्था को ब्रांड एंबेसडर बनाने का निर्देश दिया है।
   वास्तव में ये मंत्री भूपेंद्र सिंह का भोपाल के प्रति सकारात्मक सोच नहीं है। दरअसल, ये पार्टी की मुस्लिम विरोधी मानसिकता है, जो सामने आई। जानकारी यह भी मिली कि इस फैसले पर संघ ने आपत्ति ली थी। यही कारण है कि रजा मुराद को हटाया गया। जबकि, इस बारे में रजा मुराद का कहना है कि वे भोपाल शहर से अच्छी तरह वाकिफ हैं। उनके तमाम रिश्तेदार यहां रहते हैं। मुराद ने यह भी कहा, 'मुझसे बड़ा भोपाली कोई नहीं हो सकता। मेरी मां, पत्नी और परिवार के कई अन्य सदस्य भोपाल से हैं। मैंने अपनी स्कूली शिक्षा यहां के कैम्ब्रिज स्कूल से पूरी की है। मैं शहर, इसकी सड़कों, इसकी विशेष भाषा, चाय, पान, गुटखा से अच्छी तरह वाकिफ हूं। इसलिए यह आरोप कि मैं शहर की संस्कृति को नहीं जानता, इसका कोई आधार नहीं है।'
   रजा मुराद ने मंत्री ने फैसले पर सवाल भी उठाया। उन्होंने कहा कि मंत्री ने ब्रांड एंबेसडर ऐसे व्यक्ति को बनाने को कहा है जिसने ‘स्वच्छता’ के क्षेत्र में सराहनीय काम किया हो। मुझे खुद को साबित करने का मौका दिए बगैर वे ये निर्णय कैसे ले सकते हैं कि मैंने कुछ नहीं किया है। उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने गुरुवार को शहर के चौक इलाके में लोगों से सूखे और गीले कचरे को अलग-अलग रखने के बारे में बात की। अगर मंत्री मेरी सेवाएं नहीं चाहते तो ऐसा ही होगा, क्योंकि वे मालिक हैं।
    रजा मुराद को स्वच्छता एम्बेसडर पद से हटाने के बाद इस मामले पर प्रदेश की राजनीति भी गरमाने लगी है। कांग्रेस ने शिवराज सरकार पर हमला किया है। कांग्रेस ने प्रदेश की भाजपा सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि मुराद को ब्रांड एंबेसडर की सूची से हटाया जाना सरकार की 'संघी सोच' है। कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा ने ट्वीट करके कहा 'मुराद को ब्रांड एंबेसडर पद से मंत्री भूपेंद्र सिंह ने हटाया, शायद अपराध यह होगा कि वह मुसलमान हैं। संघी सोच किस स्तर की है!' 
     इंदौर नगर निगम के स्वच्छ भारत अभियान के ब्रांड एंबेसडर कुशीनगर जिले के रामकोला विकासखंड के चकिया दुबौली गांव के निवासी डॉ पुनीत कुमार द्विवेदी को बनाया गया है। कुशीनगर तो मध्यप्रदेश में नहीं उत्तर प्रदेश में है। डॉ द्विवेदी शुरू से ही इंदौर नगर निगम के ब्रांड एंबेसडर हैं और 2022 के लिए भी उन्हें 'स्वच्छ इंदौर अभियान' का ब्रांड एंबेसडर बनाया गया। लेकिन, ये बात इंदौर के शायद ही किसी नागरिक को पता हो! यदि सरकार को भोपाल की संस्कृति को समझने वाले को ही ब्रांड एम्बेसडर बनाना है, तो उसे इंदौर के बारे में सोचना होगा। एक एकेडमिक सोच वाले व्यक्ति को इंदौर नगर निगम ने स्वच्छता अभियान का ब्रांड एंबेसडर बनाया है। वे न तो इंदौर में जन्मे हैं न कभी स्वच्छता को लेकर सड़क पर दिखाई दिए! यदि रजा मुराद के नाम से मंत्री को आपत्ति है, तो उन्हें इंदौर के स्वच्छता ब्रांड एंबेसडर के बारे में भी विचार करना चाहिए। वे इंदौर में एक इंस्टीट्यूट्स के निदेशक हैं, पर इंदौर की संस्कृति के जानकार  कदापि नहीं हैं।     
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Tuesday, January 4, 2022

भाजपा के मुकाबले ममता खड़ा करेंगी नया विकल्प!

   भाजपा आज जिस स्थिति में है, उसका राजनीतिक विकल्प खोज पाना आसान नहीं है। तीन साल पहले भाजपा जिस धूमकेतु की तरह केंद्र की सत्ता में वापस लौटी थी, पूरा देश चौंक गया था। क्योंकि, अपने पहले कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने ऐसे कोई चमत्कारिक काम नहीं किया था कि मतदाता उन्हें दूसरी बार भी चुनें! लेकिन, मतदाताओं के सामने सबसे बड़ी परेशानी थी, कि सामने कोई सशक्त विकल्प मौजूद नहीं था! दूसरे कार्यकाल में भी भाजपा सरकार के फैसले लोकहित के नहीं कहे जा सकते! पर, अभी भी विकल्प का अभाव है। इसके बावजूद देश के मतदाताओं के सामने अभी भी सशक्त विपक्ष नहीं है, जो भाजपा के सामने मतदाताओं को आकर्षित कर सके। अभी तक कांग्रेस को विपक्ष समझा और माना जाता रहा है, पर वो अब पुरानी बात हो गई। अब एक ऐसा विपक्ष गढ़े जाने की कोशिश शुरू हो गई, जिसमें कांग्रेस को शामिल भी नहीं किया गया। विपक्ष को खड़ा करने की कोशिश कर रही ममता बैनर्जी की कोशिश है कि उनके साथ देश के वे नेता और कार्यकर्ता तृणमूल कांग्रेस में जुड़ें, जो भाजपा के सिद्धांतों, विचारधारा और कार्यशैली से न सिर्फ असहमत हैं, बल्कि उसे सत्ता से भी हटाना चाहते हैं। लेकिन, विकल्पहीनता को लेकर परेशान हैं। ममता तृणमूल कांग्रेस को उनके लिए ऐसा मंच बना रही हैं जो कालांतर में चलकर कांग्रेस का विकल्प बन जाए।

- हेमंत पाल 

   श्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के बाद ममता बैनर्जी की ताकत जिस तरह बढ़ी, उसने देश में एक सशक्त विपक्ष की आधारशिला भी रख दी। क्योंकि,  ममता बैनर्जी ने एक राज्य के चुनाव में सिर्फ भाजपा को पटखनी ही नहीं दी, देश को ये संदेश भी दिया कि भाजपा को हराना मुश्किल नहीं है! पूरे भाजपा के मुकाबले में ममता बैनर्जी जिस तरह ख़म ठोंककर खड़ी रही और उसे खदेड़ दिया, वो आसान नहीं था! 'अबकी बार 200 पार' का नारा लगाने वाली भाजपा 70 सीटों पर अटक गई! इस जीत ने ममता बैनर्जी को इतना आत्मविश्वास दिया कि वे देशभर में बिखरे विपक्ष को एक करने में जुट गई! उनकी ये मुहिम आसान नहीं है, पर मुश्किल भी नहीं! लेकिन, ममता बैनर्जी की नजरें पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर हैं। इन चुनावों में कांग्रेस की स्थिति का आकलन करने के बाद ही वे अपनी कोशिशों को आगे बढ़ाएंगी। इस मुहिम के पहले चरण में उन्होंने कई चिर असंतुष्ट कांग्रेसियों को अपनी पार्टी तृणमूल से जोड़ा है। वे यह सब तृणमूल के विस्तार के लिए नहीं कर रही, उनकी कोशिश एक अलग विपक्ष खड़ा करने की है। इसमें ममता बैनर्जी की भूमिका क्या होगी, ये स्पष्ट नहीं है! पर, इस सारी राजनीतिक कवायद का कारण एक नई पार्टी खड़ी करना है जिसकी पहचान अलग होगी।   
     विधानसभा चुनाव जीतने के बाद ममता बैनर्जी के तेवरकुछ अलग ही हैं। वे जिस तरह कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं को तृणमूल में शामिल कर रही हैं, उससे लगता है कि वे खुद को ही अगले लोकसभा चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में तैयार खड़ा करने की कोशिश में हैं। जबकि, वास्तव में ममता बैनर्जी तृणमूल को कांग्रेस का विकल्प बनाने की कोशिश ज्यादा करती दिखाई दे रही है। वे कांग्रेस से टूटे क्षेत्रीय दलों को एकजुट करके कांग्रेसी विचारधारा की ऐसी पार्टी बनाना चाहती हैं जो भाजपा के सामने चुनाव में खड़ी हो सके। उनकी ये सारी कवायद 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए हो रही है। शरद पवार, जगन मोहन रेड्डी और चंद्रशेखर राव जैसे पुराने कांग्रेसी नेताओं और अब महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सरकारें चला रहे इन नेताओं से उनकी बातचीत होने की भी ख़बरें हैं। लेकिन, उनकी कोशिश यह देखने के बाद शुरू होगी, जब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन सामने आएगा। यदि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पंजाब में अपनी सरकार बचा लेती है। उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार बना पाती है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, गोवा और मणिपुर में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहता है, तो ममता बैनर्जी की रणनीति बदल जाएगी। इन नतीजों पर ही बहुत कुछ निर्भर है। अगर नतीजे कांग्रेस के पक्ष में आए तो ममता की मुहिम ठंडी भी पड़ सकती है। 
    भाजपा का विकल्प गढ़े जाने के अपने अभियान को आगे बढ़ाते हुए ममता बनर्जी गैर-भाजपा दलों के शीर्ष नेताओं से भी मिलने की कोशिश में है। उन्होंने घोषणा की है कि वे शरद पवार और उद्धव ठाकरे से बात करेंगी। पटना जाकर लालू यादव से और फिर एमके स्टालिन, चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी, नवीन पटनायक, हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल जैसे गैर-भाजपा शासित राज्यों के उन मुख्यमंत्रियों से भी संपर्क करेंगी। रणनीति के मुताबिक, ममता उन नेताओं को इस अभियान से जोड़ना चाहती हैं, जिनकी अपने राज्यों में अच्छी पहचान है। ममता सबसे मेल मुलाकातों के जरिए पूरे देश के गैर-भाजपा खेमें में अपनी स्वीकार्यता स्थापित करेंगी और कांग्रेस के नेताओं को तृणमूल में शामिल कराएंगी। उनकी योजना है कि 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा का विकल्प बनाई जाने वाली पार्टी कम से कम 100 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की स्थिति में हो। जहाँ इस पार्टी का जनाधार कमजोर दिखाई देगा, वहां ताकतवर क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन का रास्ता भी खोलकर रखा जाएगा। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के साथ ममता बनर्जी के रिश्ते अच्छे हैं और ये जगजाहिर भी है।  
   ममता की इस मुहिम की शुरुआत कांग्रेस और अन्य दलों के उन नेताओं को जो हाशिए पर हैं, उन्हें तृणमूल कांग्रेस से जोड़कर पार्टी का विस्तार करके की है। ममता ने सबसे पहले पूर्व वित्त मंत्री और भाजपा के असंतुष्ट नेता रहे यशवंत सिन्हा को तृणमूल कांग्रेस में शामिल किया। इसके बाद जद (यू) के पूर्व राज्यसभा सांसद पवन कुमार वर्मा के साथ कांग्रेस नेता कीर्ति आजाद, कांग्रेस से बाहर जा चुके हरियाणा प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर को तृणमूल कांग्रेस में शामिल किया। उत्तर प्रदेश के दिग्गज कांग्रेसी ब्राह्मण नेता और पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलापति त्रिपाठी के पौत्र राजेशपति त्रिपाठी और उनके पुत्र पूर्व विधायक ललितेश पति त्रिपाठी भी तृणमूल में शामिल हो गए। जबकि, पूर्वोत्तर में ममता तृणमूल कांग्रेस को एक राजनीतिक ताकत बनाकर कांग्रेस को पीछे करके भाजपा को चुनौती देने के अभियान में बंगाल जीतने के बाद से ही जुटी हैं। इस कड़ी में त्रिपुरा के स्थानीय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस पूरे दमखम से उतरी।  
      भाजपा के साथ उसका वैसा ही हिंसक टकराव हो रहा है, जैसा पश्चिम बंगाल में विधानसभा और लोकसभा चुनावों से पहले शुरू हुआ था। असम में दिग्गज नेता रहे संतोष मोहन देव की बेटी और महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने पाला बदलकर लोकसभा से इस्तीफा देकर ममता का हाथ थाम लिया। बदले में तत्काल उन्हें पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में भेज दिया गया। गोवा में पूर्व मुख्यमंत्री के कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने का झटका कांग्रेस झेल ही रही थी कि मेघालय में पार्टी के एक दर्जन विधायक पाला बदलकर ममता की पार्टी में शामिल हो गए। इस रणनीति के मुताबिक अगर सबकुछ ठीक रहा, तो 2024 से पहले तृणमूल कांग्रेस, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस, जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति मिलकर एक नया राष्ट्रीय दल खड़ा कर सकती है। इसका नाम, झंडा और चुनाव चिन्ह सब कुछ नया होगा। 
    ममता बैनर्जी अपनी पार्टी 'तृणमूल' का विस्तार करने की कोशिश में है। वे चाहती हैं कि पश्चिम बंगाल की सीमा से बाहर निकालकर तृणमूल की उपस्थिति हर राज्य में बनाई जाए। यही कारण है कि उन्होंने पार्टी के दरवाजे हर राज्य के उन असंतुष्ट नेताओं के लिए खोल दिए, जिनकी अपने राज्यों में पहचान है। लेकिन, उनकी अपनी पार्टी में पूछ नहीं बची! उनके पीछे कोई बड़ा जनाधार न हो, पर वे विचारधारा के हिसाब से भाजपा विरोधी हों। पश्चिम बंगाल के आसपास के राज्यों में तो 'तृणमूल' समर्थक और ममता को समझने वाले आसानी से मिल रहे हैं। लेकिन, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, गोवा, महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में ममता बनर्जी को 'तृणमूल' का झंडा लेकर चलने वालों की तलाश है। फ़िलहाल बिहार में यशवंत सिन्हा, कीर्ति आजाद और पवन वर्मा यह काम करेंगे। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में कमलापति त्रिपाठी परिवार की प्रतिष्ठा के वाहक राजेशपति और ललितेश पति त्रिपाठी तृणमूल कांग्रेस के रथ को आगे बढ़ाएंगे। हरियाणा में फिलहाल अशोक तंवर अब तृणमूल का काम संभालेंगे। संभव है, कांग्रेस और अन्य दलों के कुछ और नेता 'तृणमूल' से जुड़ जाएं। 
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Monday, January 3, 2022

फ़िल्मी कथानकों में मानव अधिकारों की झलक

- हेमंत पाल

    सिनेमा वो माध्यम है, जो सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन ही नहीं करता, उन्हें कई मसलों को लेकर जागरूक भी करता है। ऐसे मामलों में एक मानव अधिकार भी हैं। कई बार फिल्मों के कथानकों में भी इन अधिकारों का जिक्र इस तरह होता है कि दर्शक उसे आत्मसात कर लेते हैं। अभी तक ऐसी फ़िल्में ज्यादा तो नहीं बनी, पर ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से अभी तक जितनी भी फिल्मों में ऐसे विषयों को उठाया गया, उन्होंने दर्शकों के दिल में अपनी जगह जरूर बनाई। सिनेमा के शुरुआती काल में इस विषय पर बहुत कम फ़िल्में बनी। कुछ फिल्मकारों ने जरूर मानव अधिकार के मुद्दे को परदे पर उतारकर फिल्मों को यथार्थ से जोड़ने की कोशिश की। पर, 80 के दशक में ऐसी फिल्मों को कला फ़िल्म का दर्जा दिया जाने लगा। लेकिन, जो भी फ़िल्में बनी, उनमें मानव जीवन की त्रासदियों और उसके मूल अधिकारों के हनन की कहानी को बेबाकी से परदे पर उतारा गया।  
      हिंदी सिनेमा सामाजिक परंपराओं और सुधारों की आड़ में आम आदमी के अधिकारों का हनन होने का गवाह है और अपने अधिकारों के प्रति समाज को जागरूक करने का पर्याय भी बनता आया है। वी शांताराम, महबूब खान से लेकर श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मणि कौल, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, बुद्धदेव दास गुप्त, प्रकाश झा, सई परांजपे, सुधीर मिश्रा जैसे निर्देशक मानव जीवन की त्रासदियों व उसके मूल अधिकारों के हनन की कहानी को बड़े पर्दे पर लेकर आते रहे हैं। आजादी के सात दशक से ज्यादा समय बाद भी सिनेमा के जरिए मानव अधिकारों के प्रति जागरूक करती ये फिल्में इस बात की गवाह हैं, कि आज भी समाज में मूल अधिकारों को लेकर कैसी लड़ाई चल रही है। इस ज्वलंत सामाजिक मुद्दे को परदे पर दिखाने की पहली कोशिश 1933 में वी शांताराम ने फ़िल्म 'अमर ज्योति' बनाकर शुरू की। इसमें महिलाओं को अधिकारों के मामले में पुरुषों के समकक्ष बताने के मुद्दे को सशक्त ढंग से उठाया था। जबकि, उस समय संवैधानिक रूप से ऐसी कोई व्यवस्था लागू नहीं थी। समाज व्यवस्था भी ऐसी नहीं थी, कि कोई इस समानता के बारे में आवाज उठाए! इसलिए कहा जा सकता है, कि सिनेमा 40 के दशक से ही तत्कालीन परिस्थितियों में मानव अधिकारों की रक्षा को लेकर आवाज उठाता रहा है। 1950 में संविधान बनने के बाद भी एक बड़े हिस्से को अपने अधिकारों की जानकारी नहीं पता, पर वी शांताराम को इसका अहसास उससे पहले हो गया था। 
      संविधान में प्रावधान है कि हर व्यक्ति को अपनी 'जीविका के उपार्जन की आजादी का अधिकार' मिलना चाहिए। जीविका के इसी अधिकार पर विमल राय ने 1957 में 'दो बीघा जमीन' फिल्म बनाकर एक तरह से संदेश दिया था। फिल्म में अनपढ़ शम्भू अपनी दो बीघा जमीन, जो उसकी जीविका का एकमात्र साधन होता है, उसे साहूकार से बचाना चाहता है! उसका एकमात्र लक्ष्य अपनी जमीन को साहूकार से वापस पाना होता है। सामंतवाद पर चोट करती ये फिल्म जीविका उपार्जन के संविधान प्रदत्त अधिकार और यथार्थ में उसे हासिल करने के संघर्ष का प्रतीक थी। इसके बाद लम्बे अरसे तक इस विषय को अलग-अलग ढंग से उठाया तो गया, पर सारी फ़िल्में फार्मूला बनकर रह गई। फैक्ट्री मालिक और मजदूरों के बीच की खींचतान को कई बार दिखाया गया। 1973 में आई अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की फिल्म 'नमक हराम' और 1975 में आई अमिताभ बच्चन की फिल्म 'दीवार' में भी यही जंग दिखाई गई, पर फिल्म में मानव अधिकार जैसा मुद्दा नहीं उठ सका।    
     इस तरह की फ़िल्में बनाने की परम्परा को बाद में कला फिल्मकारों ने आगे जरूर बढ़ाया, पर वो समीक्षकों और उन सीमित दर्शकों तक सिमटकर रह गया जो ऐसी फ़िल्में पसंद करते थे। श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, ऋषिकेश मुखर्जी, प्रकाश झा ने ऐसी कई फ़िल्में बनाई। आक्रोश, निशांत, पार, तमस, गर्म हवा, मम्मो, मैं जिंदा हूँ, दो बीघा जमीन, दुनिया न माने, दो आँखे बारह हाथ, मदर इंडिया, मंडी, बाजार बैंडेट क्वीन, गंगाजल, वॉटर, ब्लैक, और 'मातृभूमि' जैसी फिल्मों में कहीं न कहीं मानव अधिकारों की ही पैरवी की गई थी। यही वे फ़िल्में थीं, जिनके कथानक समय के साथ समाज में आने वाले सुधारों और पुरातन परम्पराओं पर केंद्रित थीं। देखा जाए सबसे पहला अधिकार है ‘जीने का अधिकार!’ इसमें कन्या भ्रूण हत्या, गर्भपात और 'इच्छा मृत्यु' जैसे संवेदनशील मुद्दों से जुड़े अधिकार भी शामिल हैं। जागरूकता की सारी कोशिशों के बाद भी कई ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी कुरीतियां हैं, जिनकी वहज से कन्या के जन्मते ही उसे खत्म कर दिया जाता था। इस संवेदनशील विषय पर मनीषा झा ने 'मातृभूमि: ए नेशन विदाउट वीमन' फिल्म बनाई जो समाज की इस कड़वी सच्चाई की वीभत्स तरीके से दर्शकों के सामने रखती है। सिर्फ अधिकारों की घोषणा करने से उनकी सार्थकता साबित नहीं होती। 
     श्याम बेनेगल की फिल्म 'हरी-भरी' भी इसी का एक हिस्सा थी, जो यौन जीवन संबधी अधिकारों पर खुलकर बहस छेड़ती है। मधुर भंडाकर जैसे निर्देशक भी 'ट्रैफिक सिग्नल' और 'कॉपोरेट' से ऐसे ज्वलंत मुद्दों को उठाते रहे हैं। 'ट्रैफिक सिग्नल' जहाँ रेड लाइट से जुड़े लोगों के जीवन की परतें खोलती है, वहीं 'कॉर्पोरेट' हाई सोसायटी के बिजनेस के तौर तरीकों में औरत की स्थिति और उसके उपयोग की कहानी बताती है। मदर इंडिया, अशनि संकेत और 'अकालेन संधाने' जैसी फिल्मों में भी यह सच सामने रखा जाता रहा है। ये अधिकारों की वकालात करने के साथ भूख से तड़पते लोगों पर जमींदारों, साहूकारों और राजनीतिक साजिशों की पड़ताल करती है। 
      फिल्म 'शाहिद' मानव अधिकारों की वकालत करने वाले वकील शाहिद आजमी की सच्ची कहानी पर बनी थी, जिसकी हत्या कर दी गई थी। इस फिल्म में राजकुमार राव ने भूमिका निभाई थी। धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को रोकती अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘आर्टिकल 15’ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 पर आधारित है। इस फिल्म के लिए अभिनेता आयुष्मान खुराना राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी जीत चुके हैं। महिलाओं के अधिकारों के हनन पर गहरी चोट करती फिल्म ‘पिंक’ भी समानता के अधिकार की पक्षधर है। अनिरुद्ध राय चौधरी की इस फिल्म में उन महिलाओं की बात की गई, जो शोषण का शिकार होती रहती हैं, पर अपने अधिकारों के लिए आवाज नहीं उठातीं। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की स्थिति और अधिकारों की बात अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘लिपिस्टक अंडर माय बुर्का’ में भी सच्चाई और ईमानदारी से की गई है। हिंदी सिनेमा ने हमेशा से ही समलैंगिक व्यक्तियों की अहमियत, समाज में उनकी स्वीकार्यता व संघर्षों को दिखाया है। आशय यह रहा कि समाज उन्हें स्वीकार न करे। दीपा मेहता की 'फायर' से लेकर 'मार्गरेटा विद ए स्ट्रा, मनोज वाजपेयी की 'अलीगढ़' जरूर जैसी फिल्मों में इस हक व हकीकत को बेबाकी से दर्शाया गया है।
      एक अपराधी को भी उन अधिकार से अलग नहीं किया जा सकता, जो एक आम आदमी को हासिल है। अपराधियों के जीवन पर 1957 में वी शांताराम ने 'दो आँखे बारह हाथ' के जरिए एक जेलर के 6 कैदियों को सुधारने की कोशिशें बताई थी। इसमें उनके अधिकारों की रक्षा के साथ 'पाप से घृणा करो पापी से नहीं' जैसे गांधीवादी विचार को भी शामिल किया गया था। बरसों बाद प्रकाश झा ने 'गंगाजल' बनाकर इसी बात को आगे बढ़ाया। अपराधियों को यदि सुरक्षा का अधिकार नहीं दिया जाए, तो हालात कितने खतरनाक हो सकते हैं, यही 'गंगाजल' में दिखाया गया था। यह फिल्म 1980 में बिहार की भागलपुर जेल में हुए 'आँखफोड़ कांड' पर आधारित है। एक और अहम अधिकार है 'धर्म की आजादी का अधिकार।' यह निहायत निजी मामला है। लेकिन, जब धर्मांधता चरम पर होती है, तो मानव अधिकारों की कोई परवाह नहीं करता। फिल्मों ने धर्म से जुड़े अधिकारों पर 1947 अर्थ, मम्मो, गर्म हवा, तमस और 'पिंजर' के जरिए उठाया गया है। अनुराग कश्यप की 'ब्लैक फ्राईडे' मुंबई बम धमाकों पर बनी, तो राहुल ढोलकिया की 'परजानिया' गोधरा कांड के दौरान एक पारसी परिवार की त्रासदी की सच्ची घटना पर है।  
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