Wednesday, March 25, 2020

संभले कदम ही शिवराज सरकार को चुनौतियों से बचांएगें!

    पंद्रह महीने चली कांग्रेस की कमलनाथ सरकार जिस तरह गिरी और शिवराजसिंह चौहान ने भाजपा की सरकार बनाई, वह राजनीति के इतिहास की अनोखी घटना है। लेकिन, शिवराजसिंह के लिए विधानसभा के बचे करीब साढ़े तीन साल सरकार चलाना काँटों भरे ताज की तरह होंगे। उन्हें कमलनाथ सरकार की अच्छी योजनाओं को भी बनाए रखना होगा, जिनसे जनता खुश हुई! साथ ही अपने पिछले कार्यकाल के समय लिए गए गलत फैसलों की समीक्षा करना होगी, जो पार्टी की हार का कारण बने थे! लेकिन, सबसे बड़ी चुनौती होगी 22 बगावती कांग्रेसी  विधायकों को फिर चुनाव जिताना! क्योंकि, सरकार की बुनियाद इन्हीं विधायकों की फिर से जीत पर टिकी है। शिवराज सरकार के शुरूआती छह महीनों के फैसले भी तलवार की धार पर चलने जैसे होंगे! यही फैसले उपचुनाव में जीत का आधार बनेंगे! शिवराजसिंह चौहान को जनता के सामने अपने राजनीतिक और प्रशासनिक कौशल का लोहा मनवाने के साथ पार्टी के सामने भी अपने चयन को सही साबित करना है!
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- हेमंत पाल 

   शिवराजसिंह चौहान ने चौथी बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की शपथ ले ली। ये राजनीति की वो अनपेक्षित घटना है, जिसके किस्से बरसों तक सुनाए जाते रहेंगे। कांग्रेस के नजरिए से ये एक सबक है कि किसी नेता की इतनी उपेक्षा नहीं की जाना चाहिए कि वो बगावत पर उतर आए! जबकि, भाजपा ने जता दिया कि राजनीति में कैसे बाजी पलटकर अपनी जीत का आधार बनाया जाता है! ये पूरा राजनीतिक घटनाक्रम कैसे घटा, कांग्रेस के सिंधिया समर्थक विधायकों की बगावत के बीच से भाजपा ने सत्ता के शिखर तक पहुँचने का रास्ता कैसे खोजा, इस कथा का कई बार पारायण हो चुका! लेकिन, इस माहौल में शिवराजसिंह चौहान का फिर मुख्यमंत्री बनना, उनके राजनीतिक कौशल का बेहतरीन नमूना माना जाएगा! उन्होंने साबित कर दिया कि विपरीत परिस्थितियों में अपने मोहरों को को किस तरह चला जाए कि भी उनकी राजनीतिक चाल बहुत कारगर साबित होती हैं! राजनीति का जो प्रहसन देश और प्रदेश की राजधानी के मंच पर खेला गया, उसकी पटकथा करीब चार महीने पहले से लिखी जाने लगी थी! इस पूरे प्रसंग में शिवराजसिंह की भूमिका अहम् थी, और उन्हें इसी पटकथा के सफल मंचन का इनाम भी मिला!   
   इस बात से इंकार नहीं कि शिवराजसिंह चौहान का पिछला 13 साल का कार्यकाल उतना चुनौती भरा नहीं था, जितने कि आने वाले साढ़े 3 साल होंगे! पिछले तीनों कार्यकाल के लिए जनता ने अपना समर्थन देकर उन्हें कुर्सी सौंपी थी! इस बार भाजपा ने कांग्रेस के हाथ से सत्ता छीनी है! ऐसे में चोट खाई कांग्रेस भी भाजपा सरकार को बार-बार घेरने से बाज नहीं आएगी। नई भाजपा सरकार को बहुत फूंक-फूंककर कदम रखना होंगे! क्योंकि, परिस्थितियां  उतनी अनुकूल नहीं है, कि भाजपा निष्कंटक होकर साढ़े तीन साल निकाल सके! जो चुनौती कमलनाथ सरकार के सामने थी, वही अब भाजपा के सामने खड़ी है! कांग्रेस की तरह भाजपा भी बहुमत के किनारे पर है, इसलिए उसे भी तलवार की धार पर संभलकर कदम रखना होगा। एक भी गलत फैसला उसकी राह में फिसलन पैदा कर सकता है। 
   भाजपा की नई सरकार के सामने अभी सबसे बड़ी चुनौती होगी, उन 22 विधायकों को उपचुनाव में जिताना, जो ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस से बगावत करके भाजपा के पाले में आए हैं। शिवराजसिंह को ये भी याद रखना होगा कि इस बगावत ने ही, उनकी सरकार बनने का मौका दिया है! लेकिन, वे जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां के सभी मतदाता और समर्थक उनके इस फैसले से खुश होंगे, ये जरुरी नहीं! बगावत से नाराज मतदाता उपचुनाव में इन नेताओं के खिलाफ वोट दे सकते हैं! क्योंकि, हर मतदाता राजनीति की बारीकियों से वाकिफ नहीं होता! वो, तो उतना ही सच समझता है, जो सामने दिखाई दे रहा है! इन 22 बागियों का उपचुनाव जीतना भाजपा सरकार के स्थायित्व के लिए भी बहुत जरुरी है। इनमें से कम से कम 17-18 सीटें जीतने पर ही सरकार के साढ़े 3 साल आराम से गुजरेंगे, अन्यथा बाजी के पलटने में देर नहीं लगेगी। इन 22 विधानसभा क्षेत्र के भाजपा नेता भी पैराशूट से उतरकर भाजपा में ताकतवर बने, इन बागी कांग्रेसियों को आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे! क्योंकि, भाजपा के टिकट पर उनकी जीत पुराने भाजपा नेताओं की बरसों की मेहनत पर पानी फेर देगी! इसलिए वे कभी नहीं चाहेंगे कि ये बागी विधायक उपचुनाव जीतें! सामने भले ही वे पार्टी के निर्देश का उल्लंघन न करें, पर खुद का राजनीतिक नुकसान होते देखना वे भी नहीं चाहेंगे। 
   कांग्रेस से बगावत करने वाले 22 में से 17 विधायक ग्वालियर-चंबल इलाके के हैं। इन 22 सीटों के अलावा पहले से खाली हुई आगर-मालवा और जौरा विधानसभा सीटों को भी जीतना भी भाजपा को आसान नहीं समझना चाहिए! यदि भाजपा इस चुनौती में पिछड़ती है, तो सरकार मुश्किल में आ जाएगी। तब बाजी किसी भी करवट पलट भी सकती है। इनमें से अधिकांश सीटें जीतना ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक भविष्य के लिए भी बेहद जरुरी है। वे जिस भरोसे से 22 विधायकों को तोड़कर भाजपा में लाए हैं, वो पूरी योजना तभी कारगर होगी, जब उपचुनाव में अधिकांश सीटें भाजपा जीते! इसमें जरा भी गड़बड़ी सारी मेहनत पानी फेर सकती है। इस मुश्किल चुनौती को सिद्धहस्थ राजनीतिक कौशल से ही इन्हें जीता जा सकता है। 
   कमलनाथ सरकार ने अपने सवा साल के कार्यकाल में कुछ अच्छे फैसले भी किए हैं! उनके बारे में भी शिवराज सरकार को सोचना होगा। उन्हें जारी रखना हैं या बंद करना है, ये सब भी जनता की नजर में होगा! क्योंकि, जिन फैसलों से जनता को सीधा फ़ायदा मिला, उन्हें बदलना नई सरकार के लिए मुसीबत का कारण बन सकता है! हर तरह के माफिया के खिलाफ सख्ती, सहकारी गृह निर्माण संस्थाओं में भारी गड़बड़ियां और किसानों की कर्ज माफ़ी ऐसे ही फैसले हैं, जिनसे जनता सीधे लाभांवित हुई! शिवराज सरकार को इन फैसलों को न तो रोकना चाहिए और न बदलना चाहिए। बल्कि, इन्हें उसी सख्ती से जारी रखा जाना चाहिए, ताकि जनता को शिकायत का मौका न मिले। जो माफिया कमलनाथ सरकार की सख्ती से सामने आया है, उसे कहीं फिर दुबकने का मौका नहीं मिले! इसके लिए नौकरशाही की नकेल भी कसना होगा, जो माफिया को बचाने के लिए मौके की तलाश में है! 
  शिवराज सरकार को अपनी प्रबंधन शैली और प्रशासनिक क्षमता का भी नए सिरे से मूल्यांकन करना होगा। पिछले कार्यकाल की तरह नौकरशाही को खुली छूट देना उनके लिए परेशानी का कारण बन सकता है। कमलनाथ सरकार के गिरने के बाद इसकी संभावना कुछ ज्यादा ही है। प्रदेश के लोगों को कमलनाथ सरकार की सख्त प्रशासनिक शैली ने प्रभावित किया, इसमें शक नहीं! अब शिवराजसिंह चौहान ने फिर सरकार बना ली, तो उन्हें नौकरशाही को काबू में करना जरुरी होगा। क्योंकि, जनता की नौकरशाही से नाराजी का नजला सरकार को भुगतना पड़ सकता है। आज की स्थिति में भाजपा के स्थायित्व के लिए यही जरुरी है!
  शिवराजसिंह चौहान को उन कारणों को फिर से तलाशना और उन पर चिंतन करना होगा, जो 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार का कारण बने थे। सत्ता खोने के पीछे पार्टी के अंदर असमानता के हालात और ऊँची जाति का विद्रोह भी बड़ा कारण था, जिसे अब संभालना होगा! आरक्षण वाले मुद्दे पर सरकार और पार्टी को संभलकर फैसला करना होगा! क्योंकि, इससे भी चुनाव में भाजपा के प्रति नाराजी बढ़ी थी। ऊँची और नीची जातियों के बीच संतुलन बनाकर चलना हर सरकार का काम होता है! इसमें जरा भी संतुलन बिगड़ा तो दूसरा वर्ग विद्रोह की स्थिति में आने में देर नहीं करता! ये इसलिए भी जरुरी है, क्योंकि साढ़े 3 साल बाद भाजपा को फिर चुनाव के इसी मैदान में उतरना है!   
   नई सरकार को अपनी कुछ पुरानी योजनाओं की नए सिरे से समीक्षा करना होगी! भावांतर योजना, किशोरी विवाह योजना, लाड़ली लक्ष्मी, मध्यान्ह भोजन योजना, रेत उत्खनन नीति और नर्मदा किनारे करोड़ों का पौधरोपण जैसी योजनाओं के गलत क्रियान्वयन से जनता नाराज हुई थी। निःसंदेह ये योजनाएं सही हैं, पर इनको अफसरों ने जिस तरह संचालित किया, उससे उनकी खामियां सामने आ गई! नौकरशाही पर आंख मूंदकर भरोसा करना भी सरकार बड़ी गलती रही! जिस नौकरशाही पर इसके क्रियान्वयन जिम्मेदारी थी, उन्होंने ही इसका बंटाधार किया। इस बारे विधायकों ने भी शिकायत की, पर उनकी बातों की अनदेखी की गई! शिवराजसिंह के पिछले कार्यकाल में नौकरशाही इतनी निरंकुश हो गई थी, कि उनकी हरकतें चुनाव में पार्टी पर भारी पड़ गई! सबसे ज्यादा निरंकुशता शिवराजसिंह के 13 साल के अंतिम कार्यकाल में सामने आई थी! इसलिए सरकार की नीतियों के क्रियान्वयन की लगातार समीक्षा जरुरी है, और खामियों में सुधार की भी दरकार होनी चाहिए! अब देखना है कि सिंधिया गुट के समर्थन के पैबंद से बनी सरकार कैसे अपनी जमीन तलाश कर अपने संभले कदम रखती है!  
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Sunday, March 22, 2020

तोमर मुख्यमंत्री बने तो भाजपा के लिए कई मुश्किलें आसान!

  मध्यप्रदेश में सत्ता के समीकरण नए सिरे से सजना शुरू हो गए। बीते 15 महीने में जो नेता विपक्ष की राजनीति कर रहे थे, वो अब सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने को बेताब हैं! लेकिन, सबसे बड़ा सवाल ये है कि भाजपा की नई सरकार का मुखिया कौन होगा? क्या पिछला विधानसभा चुनाव हारे शिवराजसिंह चौहान को फिर मौका दिया जाएगा या फिर केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर इसके लिए सही चुनाव होंगे! फिलहाल इन दोनों के नाम ही चर्चा में ज्यादा हैं! लेकिन, बहुत से ऐसे कारण हैं, जो मुख्यमंत्री की कुर्सी नरेंद्र तोमर की तरफ झुकाते नजर आ रहे हैं! भाजपा का दिल्ली दरबार भी मध्यप्रदेश में किसी नए चेहरे के पक्ष में लगता है! क्योंकि, भाजपा की सरकार के लिए आने वाले साढ़े तीन साल आसान नहीं है! तोमर का नाम भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की 'गुड बुक' में हैं। वे कांग्रेस के 22 बागी विधायकों को उपचुनाव जिताने और बचे साढ़े तीन साल सरकार चलाने में अकेले समर्थ नेता दिखाई दे रहे हैं।  
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- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश में फिर से सत्ता में आ रही भाजपा का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा? ये ऐसा सवाल है, जो सियासी गलियारों में लगातार घनघनाकर अपनी मौजूदगी लगातार दर्ज करा रहा है। मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शिवराजसिंह चौहान और केंद्रीय मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर का नाम सबसे आगे हैं। उसके बाद नरोत्तम मिश्रा और केंद्रीय मंत्री थावरचंद गेहलोत का नाम है! सारी स्थितियां दर्शा रही है कि भाजपा का दिल्ली दरबार भी ऐसे नेता को नेतृत्व सौंपना चाहता है, जो विपरीत हालात से निपटने की कूबत रखता हो! भाजपा को नए मुखिया के चुनाव में बहुत फूंक-फूंककर कदम रखना होंगे! क्योंकि, स्थितियां उतनी अनुकूल भी नहीं है कि भाजपा निष्कंटक होकर साढ़े तीन साल निकाल सके! जो चुनौती कमलनाथ सरकार बनने पर कांग्रेस के सामने थी, वही अब भाजपा के सामने है! मुहाने पर बहुमत होने से भाजपा को तलवार की धार पर संभलकर चलना होगा, जो आसान नहीं है। 
      कमलनाथ सरकार के गिरने के बाद शिवराजसिंह चौहान खुद को सरकार के स्वाभाविक दावेदार मानकर चल रहे हैं। उनकी अति-सक्रियता से लग रहा है, कि उन्होंने मानसिक रूप से खुद को बतौर मुख्यमंत्री तैयार भी कर लिया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भोपाल आने पर भी शिवराजसिंह ने हर संभव प्रयास किए, कि उनका पलड़ा भारी दिखाई दे! लेकिन, आने वाले वक़्त की चुनौतियों का इशारा है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए नरेंद्रसिंह तोमर सबसे बेहतर चयन हैं। क्योंकि, वादे के मुताबिक यदि भाजपा ज्योतिरादित्य सिंधिया को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल करती है, तो ग्वालियर-चंबल अंचल प्रदेश में सबसे ताकतवर इलाका हो जाएगा। एक शहर से दो मंत्रियों का केंद्र में होना भी राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से सही नहीं माना जा सकता। इसलिए तोमर को भोपाल भेजने से ऐसा राजनीतिक संतुलन बनेगा, जो भाजपा को भविष्य में फ़ायदा देगा। 
  इससे ग्वालियर-चंबल अंचल से ज्योतिरादित्य को केंद्रीय मंत्रिमंडल में लेने का रास्ता भी साफ हो जाएगा। यदि ऐसा होता है, तो नरेंद्र तोमर को विधानसभा की खाली जौरा सीट से उपचुनाव लड़ाया जा सकता है। पिछली शिवराज सरकार में ग्वालियर-चंबल इलाके से सात मंत्री थे। इस बार भी ऐसा ही कुछ रहने की उम्मीद है। प्रदेश में राजनीतिक रूप से ग्वालियर-चम्बल पावरफुल हो जाएगा! एक केंद्रीय मंत्री के अलावा प्रदेश का मुख्यमंत्री भी यहीं से होगा। मोदी सरकार में लंबे समय से केंद्रीय मंत्री पद संभाल रहे नरेंद्रसिंह तोमर का मुख्यमंत्री बनने के आसार इसलिए मजबूत है कि वे पहले प्रदेश में मंत्री रह चुके हैं। दो बार भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभाल चुके हैं। कार्यकर्ताओं और विधायकों से भी तोमर का गहरा नाता है। जहां आगे उपचुनाव होना हैं, उनमें से अधिकांश सीटें ग्वालियर-चंबल अंचल की हैं। तोमर भी इसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए पार्टी उन पर दांव लगा सकती है। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने ताजा राजनीतिक उठापटक में एक बड़ी जिम्मेदारी तोमर को सौंपी थी। सिंधिया को भोपाल ले जाकर राज्यसभा का पर्चा भराने तक की जिम्मेदारी तोमर के पास थी। अहम मसलों पर रणनीति भी तोमर के दिल्ली के निवास पर ही बनी! 
    भाजपा की नई सरकार के सामने अभी सबसे बड़ी चुनौती होगी, उन 22 विधायकों को चुनाव जिताना, जो सिंधिया के साथ कांग्रेस से बगावत करके भाजपा में आए हैं। वे जिस भी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां के सारे मतदाता उनके इस फैसले से खुश तो शायद नहीं होंगे! चुनाव में वे इन नेताओं के खिलाफ वोट दे सकते हैं! फिर वहां के भाजपा नेता भी पैराशूट से उतरकर भाजपा में प्रभावशाली बने इन विद्रोहियों को स्वीकार नहीं करेंगे! इसका कारण ये भी है कि भाजपा के टिकट पर उनकी जीत भाजपा पुराने नेताओं की बरसों की मेहनत पर पानी फेर देगी! इसलिए वे नहीं चाहेंगे कि बागी विधायक उपचुनाव जीतें! ऐसे में नरेंद्रसिंह तोमर को मुख्यमंत्री बनाए जाने का पक्ष इसलिए भी मजबूत है कि 22 में से 17 विधायक ग्वालियर-चंबल इलाके के हैं। तोमर के मुख्यमंत्री होने से उनकी जीत का आधार पुख्ता होगा। लेकिन, यदि शिवराजसिंह को प्रदेश की कमान सौंपी जाए तो वे यहाँ कमजोर पड़  सकते हैं। इन 22 सीटों के अलावा पहले से खाली आगर-मालवा और जौरा सीटों को भी जीतना आसान चुनौती नहीं है। यदि भाजपा इस चुनौती में पिछड़ती  है,तो फिर सरकार पलटने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता! इनमें से अधिकांश सीटें जीतना नरेन्द्रसिंह तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों के राजनीतिक भविष्य के लिए बेहद जरुरी है। सिद्धहस्थ राजनीतिक कौशल से ही इन्हें जीता जा सकता है। 
   नरेंद्रसिंह तोमर की प्रबंधन शैली और प्रशासनिक क्षमता भी उनके मुख्यमंत्री बनने का कारण बन सकता है। कमलनाथ सरकार के गिरने के बाद इसकी सबसे ज्यादा जरुरत भी है। प्रदेश के लोगों ने शिवराजसिंह के 13 साल के कार्यकाल में जिस तरह का लुंज-पुंज प्रशासन देखा, उन्हें कमलनाथ की सख्त प्रबंधकीय शैली ने प्रभावित किया था। यदि शिवराजसिंह वापस सरकार बनाते हैं, तो प्रदेश फिर नौकरशाहों के हाथ में चला जाएगा, जो आज की स्थिति में भाजपा के लिए ठीक नहीं है! तोमर में क़ाबलियत है, कि वे नौकरशाहों पर नकेल डालकर सफल सरकार चला सकते हैं! इसके अलावा नरेन्द्रसिंह तोमर की कार्यकर्ताओं से निकटता और उनकी संवाद शैली भी पार्टी के लिए अच्छा माहौल बनाएगी। वे कम जरूर बोलते हैं, पर उनकी सुनने की क्षमता बहुत अच्छी है। पार्टी अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने कार्यकर्ताओं की बात को हमेशा गंभीरता से सुना भी है। जबकि, शिवराजसिंह की वाचालता और एकालाप वाली शैली किसी के गले नहीं उतरती! 
   2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने मध्यप्रदेश की सत्ता गँवाई थी! शिवराजसिंह के मुख्यमंत्री होते पार्टी के सत्ता गंवाने के पीछे पार्टी के अंदर असमानता के हालात और ऊँची जाति के विद्रोह को भी कारण माना जा रहा था। यही वजह है कि शिवराजसिंह चौहान अभी भी सभी विधायकों को स्वीकार्य नहीं हैं। भाजपा विधायक दल में शिवराजसिंह को फिर मुख्यमंत्री बनाए जाने पर कई का विरोध है। भाजपा नेताओं और विधायकों की मांग है कि इस बार किसी और को मौका मिलना चाहिए। लेकिन, किसे मिलना चाहिए? इस सवाल पर अधिकांश का जवाब नरेंद्रसिंह तोमर के पक्ष में है! केंद्र में पिछले 6 साल के दौरान उन्होंने पार्टी नेतृत्व से सामंजस्य भी बनाकर रखा है और वे मोदी-शाह की 'गुड़ बुक' वाले नेताओं में से एक हैं।
   प्रदेश में भाजपा सरकार बनाने में भी तोमर की भूमिका 'किंग मेकर' की रही है। कांग्रेस से विद्रोह करके भाजपा को सरकार बनाने के हालात मुहैया कराने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया भी नहीं चाहेंगे कि शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री बनें! क्योंकि, 2018 के विधानसभा चुनाव में शिवराजसिंह ने चुनाव प्रचार के समय राजनीतिक संस्कारों की सारी मर्यादाएं लांघते हुए सिंधिया राजपरिवार के बारे में बहुत कुछ अनर्गल कहा था! उन्होंने ज्योतिरादित्य के अलावा सिंधिया परिवार पर भी 'कमर के नीचे' निजी हमले किए थे। इससे यशोधराराजे तो इतनी नाराज हो गई थीं कि वे कोप भवन में जाकर बैठ गई थीं। बाद में उन्हें किसी तरह मनाकर चुनाव में सक्रिय किया गया। शिवराजसिंह ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में आने के बाद भी नहीं छोड़ा! भोपाल में नॉन स्टॉप बोलते हुए उन्हें 'विभीषण' तक कह डाला!      
    नरेंद्र तोमर और शिवराजसिंह के बाद तीसरा नाम नरोत्तम मिश्रा का भी सामने आया है। पर उनके नाम पर सहमति होने की उम्मीद कम ही है। वे भिंड, मुरैना में अपनी पकड़ रखते हैं। लेकिन, नरोत्तम के नाम पर सिंधिया का सहमत होना भी जरुरी है। नरोत्तम मिश्रा और ज्योतिरादित्य सिंधिया के रिश्ते हमेशा ही तनाव भरे रहे हैं। देखा जाए तो नरेन्द्रसिंह तोमर जैसी शैली नरोत्तम मिश्रा की भी है। वे भी कार्यकर्ताओं में लोकप्रिय, प्रबंधन में पारंगत और ग्वालियर-चम्बल में लोकप्रिय है। लेकिन, इस बड़ी चुनौती के लिए पार्टी उन्हें चुनती है या नहीं, ये बड़ा सवाल है। चौथा नाम थावरचंद गेहलोत का भी आया, पर मुख्यमंत्री जैसे अहम् पद के लिए ये बहुत कमजोर नाम है! क्योंकि, विधानसभा के बचे कार्यकाल में भाजपा निश्चिंतता से सरकार चला सकेगी, ऐसा भी नहीं है! फिलहाल, भाजपा को मुख्यमंत्री पद के लिए ऐसे रणनीतिकार को चुनना है, जो हर मुश्किल स्थिति में सही समय पर सही फैसला ले सके। कम से कम शिवराजसिंह और नरोत्तम मिश्रा में ये काबलियत तो नहीं है! यही कारण है कि नरेंद्रसिंह तोमर को ऐसे मुश्किल हालात में सबसे सही नाम माना जा रहा है!  
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परदे पर कई बार दिखा वायरस का आतंक

- हेमंत पाल  

  दुनिया में महामारियों का एक लम्बा इतिहास रहा है। आज के 'कोरोना वायरस' की तरह कई बार ऐसी जानलेवा बीमारियां फैली, जिसने लाखों लोगों की जान की है। जब विज्ञान ज्यादा उन्नत नहीं था, हैजा भी महामारी बना था। लेकिन, जहाँ तक परदे की दुनिया की बात है, फिल्मों की कहानियों में इस विषय पर भी कल्पना के घोड़े जमकर दौड़ाए जा चुके हैं। फिल्म इंडस्ट्री के लिए महामारी का कहर नई बात नहीं है! हॉलीवुड में तो ऐसी कई फ़िल्में आई, जिनमें वायरस जनित बीमारी का कहर दर्शाया गया या बीमारियों के वायरस को प्रयोगशाला में जैविक हथियार की तरह विकसित किया गया। फिल्मकार अपने कथानक के जरिए दर्शकों के लिए बड़े परदे पर ऐसा खौफनाक माहौल पहले ही बना चुके हैं। लेकिन, बॉलीवुड के फिल्मकार इस तरह का साहस कभी नहीं कर सके! वे आज भी प्रेम कहानियों और हंसीठट्ठे की फ़िल्में बनाकर सौ या सो सौ करोड़ की कमाई में उलझे हैं। 
    2011 में आई फिल्म 'कोंटेजियन' को 'कोरोना वायरस' का पूर्वाभास करने वाली सबसे नजदीकी फिल्म माना जा सकता है। स्टीवन सोडरबर्ग के निर्देशन में बनी ‘कॉन्टेजियन’ की कहानी 'कोराना' महामारी से बहुत कुछ मिलती थी। यह फिल्म अपने अनोखे कथानक के कारण सफल भी हुई! दुनिया में 'कोरोना' के सामने आते ही इस फिल्म की भी चर्चा होने लगी! फिल्म की कहानी नायिका ग्वेनेथ पॉल्ट्रो से शुरू होती है। एक शेफ का हाथ संक्रमित मांस को लग जाता है! लेकिन, वह हाथ नहीं धोता। इसके बाद वो वायरस ग्वेनेथ पाल्ट्रो के किरदार तक पहुंच जाता है। यहीं से ये वायरस फैलना शुरू होता है और एक महामारी का रूप ले लेता है। ग्वेनेथ पाल्ट्रो का इलाज भी होता है, किंतु कुछ दिन बाद उसकी मौत हो जाती है। इसी संक्रमण से उसके बेटे की भी मौत होती है। धीरे-धीरे ये संक्रमण फैलता जाता है। क्योंकि, बीमारी लाइलाज होती है। सबकुछ थम सा जाता है। एयरपोर्ट्स, सड़कें, बाजार सब खाली हो जाते हैं। फिल्म में जो दिखाया गया था, उन सारी स्थितियों की तुलना आज के हालातों से की जा सकती है। इस फिल्म में ग्वेनेथ पॉल्ट्रो के अलावा केट विंसलेट, मैट डेमन, जूड लॉ जैसे बड़े कलाकारों ने काम किया था।  
    2019 में आई अंग्रेजी वेब सीरीज 'द हॉट जॉन' में 1989 का दौर बताया गया था। 6 एपीसोड की इस सीरीज की कहानी में वैज्ञानिकों को वॉशिंगटन-डीसी के रिसर्च लैब में चिंपांजियों में इबोला वायरस मिलता है। इस वायरस से इंसानों में भी खतरा पैदा हो जाता है। इंसानों को बचाने के लिए वैज्ञानिक अमेरिकी आर्मी कोशिश करती हैं और अंत में वे कामयाब भी हो जाते हैं। 2016 में आई हॉलीवुड फिल्म 'पेनडैमिक' को जॉन सूट्स ने निर्देशित किया था। ये फिल्म जॉम्बी नाम के एक वायरस के फैलने की कहानी है। इस वायरस से इलाके में संक्रमण फैल जाता है और बड़ी संख्या में लोग प्रभावित होने लगते हैं। जॉम्बी के फैलने के बाद सड़कों पर घूम रहे लोगों को बचाने की कोशिश शुरू होती है। वायरस से निपटने के लिए डॉक्टर्स और रेस्क्यू टीम डट जाती है।
   1995 में आई ‘ब्लाइंडनेस’ एक थ्रिलर फिल्म थी। इस फिल्म में व्हाइट सिकनेस को महामारी की तरह दिखाया गया था। फिल्म की कहानी भी 'कोरोना वायरस' के कहर से मिलती जुलती थी। कहानी के मुताबिक एक व्यक्ति को अचानक दिखना बंद हो जाता है। उसका इलाज कर रहा डॉक्टर भी अपनी आंखें खो देता है। बाद में ये बीमारी दुनियाभर में फैल जाती है। फिल्म में भय का जबरदस्त माहौल निर्मित किया गया। था फिल्म में जूलियन मूर और मार्क रफेलो जैसे एक्टर्स ने काम किया था। 2008 की फिल्म 'पोंटीपूल' भी वायरस के खतरे से रची गई कहानी थी। इसका निर्देशन ब्रूस मैकडॉनल्ड ने किया था। इसमें ऑन्टारियो के पोंटीपूल का एक रेडियो जॉकी ग्रांट मैजी सुनने वालों को एक वायरस के बारे में चेतावनी देता है। शहरभर में फैल चुके इस वायरस के कारण लोग जॉम्बी में बदलते जा रहे हैं। 1995 की फिल्म 'आउटब्रैक' भी बंदरों से फैले वायरस पर केंद्रित थी। फिल्म में केविन स्पेसी, मॉर्गन फ्रीमैन, डस्टिन हॉफमैन ने काम किया था। वुल्फगैंग पीटरसन निर्देशित इस फिल्म में बंदरों से फैले एक वायरस से उत्पन्न खतरे को दिखाया था। अफ्रीका के रेन फॉरेस्ट से लाए बंदरों से फैले वायरस से बचाव के लिए वैज्ञानिकों को मेहनत करते दिखाया गया था।
   'द एंड्रोमेडा स्ट्रेन' 1971 आई ऐसी फिल्म थी, जिसने शायद पहली बार वायरस से होने वाले खतरे का अहसास कराया था। 1972 में इस फिल्म को दो ऑस्कर कैटेगरी में नॉमिनेट भी किया गया था। कथानक के अनुसार एरिजोना टाउन के नजदीक एक सैटेलाइट क्रैश हो जाती है। इस घटना के बाद उस इलाके के लोग अचानक मरना शुरू हो जाते हैं। वैज्ञानिक सैटेलाइट से धरती पर पहुंचे जानलेवा वायरस से लड़ने की कोशिश में लग जाते हैं और अंत में अपनी कोशिश में सफल भी होते हैं। ऐसे ही 2009 की फिल्म 'द था' आर्कटिक रिसर्च सेंटर पर काम कर रहे चार इकोलॉजी रिसर्च स्टूडेंट्स की कहानी थी। इन्हें पता चलता है कि दुनिया को ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण बर्फ पिघलने से खतरा इसलिए नहीं है, क्योंकि पिघलती बर्फ में ऐसा पैरासाइट छुपा है, जो महामारी फैला सकता है। इस फिल्म में वेल किल्मर की अहम भूमिका थी। वायरस का आतंक बताने वाली 2008 में आई फिल्म 'क्वारंटाइन' भी थी। फिल्म का निर्देशन जॉन एरिक डॉडल ने किया था। इसमें कुछ पत्रकारों को अमेरिका के के लॉस एंजेलिस में रात में फायर-क्रू के साथ काम करने के लिए कहा जाता है। एक इमरजेंसी कॉल के दौरान वे एक अपार्टमेंट में पहुंचते हैं, जहां पुलिस पहले से होती है। बाद में पता चलता है कि बिल्डिंग में एक ऐसी महिला है, जो अंजान वायरस से पीड़ित रहती है। इस फिल्म में भी वायरस के भय को दर्शाया गया था। 'ट्रायोफोबिया' नाम की शॉर्ट फिल्म भी वायरस के कथानक के कारण सुर्ख़ियों में है। इसमें दिखाया गया है कि संक्रमण के चलते एक महिला की जिंदगी कैसे हमेशा के लिए बदल जाती है। 
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Monday, March 16, 2020

भाजपा की राजनीति को कितना बदलेंगे 'महाराज!'

   
मध्यप्रदेश की कांग्रेस राजनीति में अभी तक एक ताकतवर गुट के मुखिया रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया अब भाजपा के पाले में हैं। उन्होंने बड़े धूम-धड़ाके के साथ कांग्रेस छोड़ी और भाजपा का दामन थाम लिया! राजनीतिक इतिहास में शायद ये उन चंद दलबदल वाली बड़ी घटनाओं में से एक है, जिसने पूरी राजनीति की धारा को बदला है। 1989 में विश्वनाथप्रताप सिंह ने इसी तरह राजीव गाँधी से विद्रोह कर नई पार्टी बनाकर देश की पूरी राजनीति बदल दी थी! सिंधिया ने देश की तो नहीं, पर प्रदेश की राजनीतिक धारा को जरूर प्रभावित किया है! क्योंकि, 'महाराज' के साथ उनके समर्थकों ने भी कांग्रेस छोड़ने में देर नहीं की! लेकिन, सबसे बड़ा सवाल ये है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने से प्रदेश की राजनीति कैसी करवट लेगी? वे भाजपा के दिग्गजों के साथ किस पायदान पर खड़े होंगे? भाजपा के दिग्गजों की भीड़ में कहीं खो तो नहीं जाएंगे और क्या भाजपा के नेता उन्हें स्वीकार करेंगे या वे भाजपा की सोच में कोई बदलाव कर सकने में समर्थ होंगे? ऐसे कई सवाल हैं, जो आने वाले दिनों में मध्यप्रदेश की राजनीति में उठेंगे! अब भाजपा की ग्वालियर-चंबल की राजनीति में भी बड़ी अंतरकलह और गुटबाजी देखने को मिल सकती है।  
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- हेमंत पाल
 नसंघ और भाजपा की संस्थापक रही विजयाराजे सिंधिया के पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया उर्फ़ 'महाराज' की राजनीति का अपना अलग ही अंदाज रहा है! वे कांग्रेस में भी उस गुट के मुखिया थे, जो उन्हें नेता के बजाए 'महाराजा' मानता था! उनके भाजपा में जाने के बाद अब उनके अधिकांश समर्थक भाजपा की चौखट पर खड़े हैं। इस नजरिए से देखा जाए तो वे भाजपा में अकेले नहीं आए, अपने साथ पूरा गुट है, जो कहीं न कहीं भाजपा की राजनीति को प्रभावित करेगा! जिस ग्वालियर-चंबल इलाके में उनका प्रभाव है, वहाँ भाजपा के कई बड़े नेता आते हैं! नरेंद्रसिंह तोमर, प्रभात झा, जयभान सिंह पवैया के अलावा भाजपा के हाल ही में मनोनीत प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा भी इसी इलाके के हैं। ये सभी नेता हमेशा से सिंधिया के सामने चुनौती बनकर खड़े थे! अब इन सभी के साथ सिंधिया को तालमेल बैठाना पड़ेगा या फिर ये भाजपा दिग्गज सिंधिया के साथ समीकरण बैठाएंगे, ये देखना होगा! 
   ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा का दामन थामने के बाद तय है कि मध्यप्रदेश की राजनीति में कई नए समीकरण बनेंगे! इससे कांग्रेस की राजनीति का क्या हश्र होगा, फिलहाल इससे ज्यादा प्रासंगिक यह है कि भाजपा में कैसी उथल-पुथल होगी! उनके स्वागत में तो सभी नेताओं ने पलक-पांवड़े बिछा दिए। नेताओं के घर-घर उनका भोज हुआ! पर, जब इन नेताओं को 'महाराज' की मौजूदगी से अपना अस्तित्व खतरे में लगेगा, तब क्या होगा? सिंधिया के भाजपा से जुड़ने से सबसे ज्यादा प्रभाव ग्वालियर चंबल के क्षेत्र और उनके नेताओं पर पड़ेगा! पिछले विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र की 34 में से 27 सीटें जीतना ही उनके प्रभाव का संकेत है! अब ये बात अलग है कि ज्योतिरादित्य खुद अपनी पुश्तैनी गुना लोकसभा सीट से सवा लाख वोट से हार गए थे। किंतु, अब सबकी नजर भाजपा की राजनीति में होने वाली संभावित उठापटक पर लगी है!      
  भाजपा के नेताओं का कहना है कि राजनीति में उनके परिवार का सम्मान पहले से है! इस बदलाव से पार्टी में गुटबाजी बढ़ने जैसी कोई बात नहीं है! क्योंकि, वे मानते हैं कि भाजपा में गुटबाजी बढ़ने या घटने जैसा कोई फार्मूला नहीं है! जिसे जो जिम्मेदारी मिलती है, वही उसका कद होता है। पूजने वाले समर्थकों की भीड़ से भाजपा में कद का आकलन नहीं होता! जबकि, सच्चाई ये है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के कारण ग्वालियर-चंबल इलाके के नेताओं के साथ शिवराजसिंह चौहान जैसे नेताओं में भी घबराहट है। इसलिए कि सिंधिया की जैसी राजनीतिक शैली है, उसे पचाना भाजपा के लिए आसान नहीं है! क्योंकि, भाजपा जिस तरह की कैडर बेस पार्टी है, जिसमें पैराशूट से उतरे नेताओं का एडजस्ट होना मुश्किल है! यहाँ संजय पाठक जैसे नेता इसलिए हजम कर लिए जाते हैं, क्योंकि, उनकी अपनी कोई शैली नहीं होती और उनके साथ ऐसे समर्थकों की भीड़ भी नहीं होती जिनकी उन्हें चिंता करना पड़े!
   भाजपा इस बात से लाख इंकार करे कि उनके यहाँ मनमुटाव, असंतोष और गुटबाजी के लिए कोई जगह नहीं है! पर, सच्चाई ये है कि प्रदेश की भाजपा राजनीति में भी असंतोष का पारा चढ़ा हुआ है! फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस में ये सब मुखरता से होता है, भाजपा में ये खेल परदे के पीछे छुपकर खेला जाता है। सिंधिया के आने के बाद अब तक तो उनको शह और मात देने की चाल सोच भी ली गई होगी! क्योंकि, कोई भी नेता अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगाकर खुद के तमाशा बनने का इंतजार कभी नहीं करेगा! सिंधिया के सामने बड़ी मुश्किल ये भी है, कि उन्हें भाजपा में अपनी जगह बनाने के साथ, अपने समर्थकों का भी ध्यान रखना है! उधर, कांग्रेस भी यही चाहती है कि सिंधिया ने जिस तरह के लांछन लगाकर कांग्रेस त्यागी है, उन्हें अपनी उस भूल का अहसास जल्दी हो। वे जिस सम्मान और पद की लालसा में भाजपा में गए हैं, उनका ये भ्रम भी टूटे!
   प्रदेश के भाजपा नेताओं के प्रभाव क्षेत्र को देखें तो नरेंद्रसिंह तोमर का ग्वालियर-चंबल, प्रहलाद पटेल का बुंदेलखंड-महाकौशल, गोपाल भार्गव का बुंदेलखंड, नरोत्तम मिश्रा का ग्वालियर, कैलाश विजयवर्गीय का मालवा-निमाड और राकेश सिंह महाकौशल क्षेत्र में अपना प्रभाव रखते हैं। जबकि, शिवराजसिंह चौहान अकेले ऐसे नेता हैं, जिनका पूरे प्रदेश में जनाधार है। भाजपा में ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक भविष्य का अनुमान लगाया जाए तो उनका सबसे ज्यादा सामना शिवराज सिंह से ही होगा! अभी भले ही भाजपा नेता सिंधिया के भाजपा में आने से पार्टी को मजबूती मिलने का दावा कर रहे हों और युवा वर्ग के जुड़ाव की बात कर रहे हों! लेकिन, यह भी सही है कि भाजपा के नेताओं को सिंधिया का आना रास नहीं आ रहा! कारण कि उनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर होने के साथ ही भाजपा में उनकी इंट्री भारी-भरकम तरीके से हुई है! यदि अनुमान के मुताबिक वे केंद्र में मंत्री बनाए जाते हैं, तो भाजपा के नेता उनके सामने बौने नजर आएंगे!
  शिवराज सिंह से 'महाराज' का आमना-सामना होने के कयास इसलिए लगाए जा रहे हैं कि 2018 के विधानसभा चुनाव में दोनों के बीच जमकर शाब्दिक जंग छिड़ी थी। गुना में तो कांग्रेस की एक सभा में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने शिवराजसिंह चौहान की तुलना ‘कंस' और ‘शकुनी' तक से की थी। इस सभा में सिंधिया ने कहा था कि शिवराजसिंह चौहान कहते हैं कि वे 'मामा' हैं। भाजपा कहती है कि वे हिंदू धर्म के एकमात्र रक्षक हैं! अगर हम इस पर सहमत हों, भी जाएं तो धर्मग्रंथों में मामा की परिभाषा कैसे की गई है, सब जानते हैं! एक कंस मामा था, जिसने अपने भांजे को खत्म करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी! दूसरा ‘शकुनी मामा' था, जिसने हस्तिनापुर को नाश करने के लिए सब कुछ किया! अब कलयुग में तीसरे मामा भोपाल के वल्लभ भवन (राज्य सचिवालय) में बैठे हैं! आशय ये कि जहाँ दोनों में इतनी कटुता थी, वहां सामंजस्य कैसे बैठेगा? आज नहीं तो कल ये दिखावटी दोस्ती की असलियत तो सामने आएगी ही!     एक तरफ जहां ज्योतिरादित्य सिंधिया की व्यक्तिगत छवि है, दूसरी और भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व से उनके नजदीकी रिश्ते बन गए हैं। दरअसल, सिंधिया उस राज-परिवार से संबंध रखते हैं, जिसने पहले जनसंघ और बाद में भाजपा की नींव रखी! इस घराने को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सम्मान देता है। ऐसी स्थिति में मध्यप्रदेश के भाजपा नेताओं के सामने खुला विरोध करना तो कभी संभव नहीं होगा! यही वजह है कि भाजपा के कई नेताओं को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी है, जो स्वाभाविक भी है! सिंधिया सामान्यतः विवादों से दूर रहते हैं और युवाओं उनकी खास अहमियत है। ऐसे सकारात्मक माहौल के साथ उनकी पहुंच सीधे पार्टी में ऊपर तक होने का भी अपना असर होगा। 
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Wednesday, March 11, 2020

'कमल' खिलेगा या 'कमल' बचेगा!

- हेमंत पाल

  मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार फ़िलहाल आईसीयू में है। सरकार की स्थिति गंभीर है। हिचकियाँ चल रही है। डॉक्टर पूरी कोशिश में है कि सरकार की सांसे सामान्य हो जाएं, पर बार-बार बढ़ रही हिचकियों ने चिंता बढ़ा दी है। हालात देखकर राजनीतिक डॉक्टर कोई बुलेटिन जारी करने की स्थिति में भी नहीं है। राजनीति के इन जानकार डॉक्टरों का निष्कर्ष है कि सरकार की ये हालत खुद की गलती से हुई है। वक़्त पर असंतोष का इलाज नहीं करने पर असंतोष के वायरस ने सरकार को बीमार कर दिया है। ऐसे में कहा नहीं जा सकता कि राजनीति के तालाब में सालभर पहले मुरझाया 'कमल' फिर खिल उठेगा या 'कमल' के नाथ इस तालाब से अपनी सरकार  हिचकोले खाती नाव को बचाकर किनारे तक ले जाएंगे।   
  ये तो हुई होली जैसी मजाक की बात! पर, वास्तविक स्थिति भी यही है। कमलनाथ सरकार आज जिस संक्रमणकाल से गुजर रही है, उसके लिए कोई और नहीं वे खुद जिम्मेदार है। विधानसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! चुनाव अभियान समिति के मुखिया के तौर पर उन्होंने पूरे प्रदेश में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पर सरकार बनने के बाद सिंधिया को हाशिये पर रख दिया गया। सवा साल में कमलनाथ ने ऐसी कोई पहल नहीं की, जो सिंधिया का प्रभाव दिखाए! ऐसे में सिंधिया का नाराज होना स्वाभाविक था और उसी का नतीजा है कि आज सरकार आईसीयू में अंतिम सांसे गिन रही है। 
    कांग्रेस में हाशिए पर आ गए, ज्योतिरादित्य सिंधिया यदि अपना वजूद तलाशने के लिए विद्रोह करने के मूड में आ गए, तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है! उन्हें राजनीतिक गद्दार कहने वाले ये क्यों भूल जाते हैं, कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने उनको आगे करके ही विधानसभा चुनाव लड़ा गया! लेकिन, बदले में उन्हें मिला कुछ नहीं। उन्हें राज्यसभा में भेजे जाने की बात चली, तो प्रियंका गाँधी का नाम उछालकर उन्हें किनारे कर दिया गया। जबकि, ऐसी ही नाराजी बताकर सचिन पायलेट राजस्थान में उपमुख्यमंत्री बना दिए गए, पर सिंधिया को न तो राज्यसभा में जाने दिया जा रहा है और न पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनने दिया गया। ऐसी स्थिति में सिंधिया ने जो फैसला किया उसे गलत भी नहीं कहा जा सकता!
   कांग्रेस में घमासान मचा है। प्रदेश में पार्टी के नए मुखिया का नाम भी तय होना है, जिसे लेकर जूतमपैजार मची है! ऐसी स्थिति में एक सर्वमान्य पार्टी अध्यक्ष कैसे चुना जाएगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है! कमलनाथ जब पार्टी अध्यक्ष चुने गए थे, तब हालात अलग थे! प्रदेश में 15 साल से भाजपा का राज था और कांग्रेस किसी भी स्थिति इससे मुक्ति चाहती थी! जबकि, अब हालात अलग हैं! प्रदेश में कमलनाथ सरकार है और कांग्रेस सारे नेता विपक्ष को भूलकर घर की जंग व्यस्त हैं! पार्टी में कमलनाथ को समन्वय में पारंगत माना जाता है! उन्होंने अपनी इसी कला से चुनाव जीता, सरकार बनाई और बिना कोई समझौता किए चला भी रहे हैं! लेकिन, पार्टी प्रदेश अध्यक्ष को लेकर पेंच फँसा हुआ लग रहा है! यही कारण है कि इस पद के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम सामने आते ही कई नेता कुलबुलाने लगे! उनके नाम पर विरोध का कारण समझ से परे है। क्या कारण है कि किसी भी पद के लिए सिंधिया का नाम आने पर कांग्रेस के नेताओं के पेट में दर्द क्यों होने लगता है? 
  ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश की राजनीति में पिछड़ते जा रहे हैं। वे प्रदेश अध्यक्ष बनकर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते थे, लेकिन दिग्विजय सिंह ने ये होने नहीं दिया। मुख्यमंत्री बनने के बाद कमलनाथ अध्यक्ष पद छोड़ने की पेशकश पहले ही कर चुके हैं! लेकिन, फिर भी वे संगठन पर अपने समर्थक को ही देखना चाहते हैं! जबकि, कांग्रेस आलाकमान नहीं चाहता कि प्रदेश में दो पावर सेंटर बन जाएं! जिनमें खींचतान हो और नुकसान पार्टी को उठाना पड़े! क्योंकि, ऐसी स्थिति में सत्ता और संगठन में तालमेल गड़बड़ा सकता है! 
  ये प्रहसन अब क्लाइमेक्स से आगे निकल गया है! इसका पटाक्षेप तब तक नहीं होगा, जब तक कोई निर्णायक स्थिति नहीं आती! लेकिन, पार्टी आलाकमान भी प्रदेश की राजनीति में असंतुलन बनाए रखना नहीं चाहेगा! यदि प्रदेश में दोनों प्रमुख पद एक ही खेमे के हिस्से में आ गए तो राजनीतिक अराजकता की स्थिति निर्मित होना तय है, जो पार्टी के लिए नुकसानदेह होगी! इसलिए जरुरी है कि सत्ता और संगठन में संतुलन के नजरिए से फैसला किया जाए। अभी कोई बड़े चुनाव नहीं होना है, कि आदिवासी अध्यक्ष का कार्ड खेला जाए! लेकिन, किसी ऐसे नेता को जरूर खोजा जाए जो पार्टी के तीनों बड़े नेताओं के बीच संतुलन बनाकर सरकार और संगठन को मजबूती देने में कामयाब रहे! क्योंकि, हाशिए पर बहुमत से टिकी सरकार की नींव को मजबूती मिले, इसके लिए सबसे ज्यादा जरुरी है कि घर में एकता कायम रहे! यदि घर में फूट पड़ी तो कोई भी बाहर से पत्थर मारकर घर गिरा सकता है! पर, ये बात कांग्रेस के उन नेताओं को भी समझना चाहिए जो घर की कलह को सड़क पर लाकर जगहंसाई करवा रहे हैं!
  ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने की ख़बरें हवा में है। पर, यदि वे ऐसा करते हैं तो उनका राजनीतिक करियर संकट में पड़ना तय है। क्योंकि, भाजपा का इतिहास है कि उसने कभी किसी दूसरी पार्टियों से आने वाले नेताओं के साथ अच्छा सुलूक नहीं किया है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब अन्य पार्टियों से आए नेता भाजपा में आकर अप्रासंगिक हो गए! महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री बनने की जिद पर शिवसेना से दूर हो चुकी भाजपा ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बनने देगी, इसमें ढेरों अड़चनें हैं। लेकिन, राजनीति में कुछ भी कहा नहीं जा सकता। कभी भी कुछ भी हो सकता है। अभी तक आत्मविश्वास से चल रही कमलनाथ सरकार हिचकोले खा रही है। अभी तक तीन पाए पर खड़ी सरकार अपने एक पाए  नजरअंदाज कर रही थी! जब उस पाए ने हिलकर अपनी अहमियत दिखाई तो पूरी सरकार कांप गई! कांपने वाली सरकार गिरती  बचती है, अभी इस बारे में सिर्फ कयास लगाए जा सकते हैं। 
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Tuesday, March 3, 2020

'वीडी' के आने से जो बदलेगा, वो शायद कई को रास न आए!

   भाजपा ने विष्णुदत्त शर्मा उर्फ़ 'वीडी' को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर कई संकेत दिए हैं। उनके अध्यक्ष बनने से या तो प्रदेश में भाजपा की राजनीति बदलेगी या फिर एक नए शीतयुद्ध की शुरुआत होगी। क्योंकि, उनके साथ विरोध की एक बड़ी श्रृंखला जुड़ी है, जिसके सुलझने में वक़्त लगेगा! दस साल से बड़े पदों पर ख़म ठोंककर बैठे नेताओं के जाने के भी बदले जाने के आसार हैं। 'वीडी' की संघ पृष्ठभूमि उन्हें बड़े नेताओं के खुले विरोध से तो बचाएगी, पर इसका एक खतरा पार्टी के भाजपा और संघ में बंटने का भी है! विष्णुदत्त शर्मा का तेज तर्राट व्यवहार पहले भी विरोध का कारण रहा है! अब, वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं, तो इस विरोध के मायने भी बदलेंगे! संभवतः पहला बदलाव जातीय समीकरणों के संतुलन के तहत नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव को नई जिम्मेदारी देने से होगा। सारी नजरें इस बात पर लगी हैं कि 'वीडी' खुद को बदलेंगे या पार्टी को अपने हिसाब से बदलने की कोशिश करेंगे!   
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- हेमंत पाल

  विष्णुदत्त शर्मा का भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनना कई मायनों में पार्टी के सोच में बदलाव का इशारा है। प्रदेश अध्यक्ष के लिए लम्बे समय से कयास लगाए जा रहे थे। यह भी लग रहा था कि शायद पार्टी राकेश सिंह को दोबारा से मौका दे। क्योंकि, प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर उनका कार्यकाल अभी बाकी था। लेकिन, सारी अटकलों को किनारे करते हुए कमान वीडी शर्मा को सौंप दी गई। जबकि, इसमें बड़ी अड़चन उनका ब्राह्मण होना था। अब माना जा रहा है, कि जातिगत समीकरणों को साधने के लिए संभव है कि संगठन स्तर पर कोई बड़ा बदलाव हो। समीकरण देखें, तो फिलहाल नेता प्रतिपक्ष के तौर पर गोपाल भार्गव ब्राह्मण चेहरा हैं और नरोत्तम मिश्र मुख्य सचेतक! इससे पहले पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान पार्टी का ओबीसी चेहरा थे। ऐसे में माना जा रहा था कि प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर किसी आदिवासी या दलित चेहरे को मौका दिया जा सकता है, लेकिन ब्राह्मण चेहरे के सामने आने ने सबको चौंका दिया। 
  'वीडी' को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने के बाद प्रदेश के शीर्ष पदों पर बिगड़े जाति समीकरण को संभालने की जुगत लगाई जा रही है। ऐसी स्थिति में आने वाले दिनों में संगठन में कुछ पदों पर बदलाव होना लगभग तय है। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद सबसे पहले बदले जाने की चर्चा सबसे ज्यादा है। इस पद पर वरिष्ठ विधायक गोपाल भार्गव हैं, जो बुंदेलखंड के बड़े नेता हैं। जब, पार्टी के नए अध्यक्ष पद की बात चली, वीडी शर्मा का नाम सबसे ऊपर था! लेकिन, उनका ब्राह्मण होना आड़े आ रहा था। अब, जबकि उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया तय है कि बाद के हालात को संभाला जाएगा। प्रदेश अध्यक्ष के नाम की चर्चा के दौरान पार्टी के सामने सबसे बड़ी परेशानी वाली बात भी जातिगत समीकरणों को संतुलित करना था। यही कारण था कि अन्य विकल्पों पर विचार किया जा रहा था। गोपाल भार्गव के नेता प्रतिपक्ष होने के कारण ही विधायक दल के मुख्य सचेतक नरोत्तम मिश्रा और पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा ने प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए अपनी कोशिशें कम कर दी थीं। लेकिन, वीडी शर्मा के नाम पर पार्टी की मुहर लगने के बाद अब यही विकल्प बचा है कि बाकी के ब्राह्मण नेताओं को नया काम सौंपा जाए! 
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का चेहरा वीडी शर्मा राजनीतिक अनुभव में अन्य नेताओं से कमजोर हैं। इसके बावजूद इसके संघ ने उनके नाम पर सहमति दी और उन्हें कमान सौंपी! दरअसल, संघ ने प्रदेश में भाजपा की सेकंड-लाइन बनाने पर काम शुरू कर दिया है। इसका तात्पर्य है कि प्रदेश भाजपा के मठाधीशों को हाशिए पर लाना है। विष्णुदत्त शर्मा उर्फ़ 'वीडी' यूं तो रहने वाले चंबल के मुरैना के हैं, लेकिन मौजूदा वक्त में खजुराहो से सांसद हैं। 'वीडी' के मुकाबले नरोत्तम मिश्रा हों, कैलाश विजयवर्गीय, प्रभात झा, फग्गन सिंह कुलस्ते, शिवराज सिंह चौहान या लाल सिंह आर्य अनुभव के मामले में काफी वरिष्ठ हैं। इनके मुकाबले वीडी शर्मा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना पार्टी में युवाओं को नेतृत्व सौंपने की और बढ़ाया गया कदम माना जा रहा है। 
  भाजपा की कमान खजुराहो सांसद वीडी शर्मा को मिलना एक बड़े बदलाव की आहट है! यह बदलाव सिर्फ प्रदेश भाजपा का चेहरा ही नहीं बदलेगी, बल्कि इसका गहरा असर पूरे प्रदेश की भाजपा राजनीति पर होगा। राजनीति को समझने वालों के लिए ये एक चौंकाने वाला फैसला है। लेकिन, भाजपा की कार्यशैली समझने वालों को कोई हैरानी नहीं है। क्योंकि, विरोध में सहमति ढूँढना हमेशा ही भाजपा के राजनीतिक प्रयोग का हिस्सा है। हैरानी की सबसे बड़ी वजह है, वीडी का इतिहास। पहले जब भी 'वीडी' का नाम विधानसभा या लोकसभा चुनाव की उम्मीदवारी के लिए सामने आया, विरोध करने वालों ने विरोध का झंडा थामने में देर नहीं की। इसका कारण था उनकी संघ वाली पृष्ठभूमि और तेज़तर्रार छवि! 'वीडी' के वरिष्ठ भी जानते हैं कि वीडी को कमान मिलना बहुतों को हाशिए पर धकेल देगा। 
  जब भोपाल लोकसभा से दावेदारी को लेकर विष्णुदत्त शर्मा का नाम सामने आने की बात चली, तो पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने तो यहाँ तक कह दिया था कि ये वीडी शर्मा कौन है, मैं उन्हें नहीं जानता! इसके बाद मुरैना से उनके चुनाव लड़ने की बात आई तब भी उनका नाम हटा दिया गया। विधानसभा चुनाव में मौका न मिलने से 'वीडी' वैसे भी नाराज से चल रहे थे! आखिर उन्हें लोकसभा चुनाव में खजुराहो सीट से मौका दिया गया! जबकि, यहाँ से फिल्म एक्टर और बुंदेलखंड को राज्य बनाने की मुहिम में लगे राजा बुंदेला का नाम चल रहा था। 'वीडी' के विरोध को देखते हुए उनकी जीत की बहुत ज्यादा उम्मीद भी नहीं की गई थी! खजुराहो के पूर्व विधायक गिरिराज किशोर ने तो राकेश सिंह को इस्तीफा तक भेज दिया था। खूब पुतले फूंके गए, पर अंततः वीडी चुनाव जीत गए।
  मध्यप्रदेश को संघ का भी सबसे मज़बूत गढ़ माना जाता है और संघ की प्रयोगशाला भी! पिछले दिनों संघ प्रमुख ने प्रदेश का लंबा दौरा भी किया! उन्होंने पार्टी के आदिवासी एजेंडे की बात की, लेकिन प्रदेश की कमान सौंपी गई ब्राह्मण नेता को! जाहिर है कि संघ ने पार्टी के कुछ नेताओं को संदेश देने की भी कोशिश की है! खुले विरोध के बावजूद खजुराहो फतह करने वाले वीडी संघ के एजेंडे के तहत फैसले लेंगे और संगठन को भी वही आकार देंगे। ऐसे बदलाव से कुछ लोगों को तकलीफ भी होगी। अभी तो सबने खुश होने का दिखावा किया है! लेकिन, तय है कि वीडी के एक्टिव होने के बाद पार्टी की रणनीति के साथ 'मठाधीशों' की राजनीति में बदलाव आएगा।  
  माना जा रहा है कि अब वीडी अपनी नई टीम बनाएंगे और उनकी टीम में नए व युवा चेहरे अधिक होंगे। ऐसा होने पर ही भाजपा संगठन में चला आ रहा यथास्थितिवाद खत्‍म होगा। वीडी के चयन के साथ ही भाजपा के केंद्रीय नेतृत्‍व ने यह भी साफ कर दिया कि प्रदेश में अब सेकंड लाइन काम करेगी। वीडी को अगले चुनाव तक काम करने का अवसर मिला है, तब तक वे स्‍वयं को सिद्ध कर सकते हैं। अध्‍यक्ष पद के अब तक के सारे दावेदार वरिष्‍ठ नेता अब मार्गदर्शक मंडल की तरह काम करेंगे। संगठन की कमान संभालने की उनकी हसरत अब केवल हसरत बन रह गई है। 
   वीडी शर्मा के आने के बाद प्रदेश पदाधिकारियों में बड़ा बदलाव होना तय है। प्रदेश में 6 साल से कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। अब पार्टी प्रदेश अध्यक्ष को प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत का भी साथ मिलेगा। भगत ने भी स्पष्ट कर दिया है, कि अब काम करने वाले और कार्यकर्ताओं के बीच पकड़ रखने वाले नेताओं को आगे लाया जाएगा। नए प्रदेश अध्यक्ष ने भी संकेत दिए कि पार्टी के विपक्ष में होने के बाद मजबूती और ताकत को बढ़ाने के लिए जो भी जरूरी होगा, किया जाएगा। जिम्मेदारियों को भी बदला जाएगा। 2014 में नंदकुमार सिंह चौहान ने अध्यक्ष बनने के बाद थोड़ा बदलाव किया था! लेकिन, ज्यादातर टीम वही रही। बाद में राकेश सिंह ने जिम्मा संभाला, लेकिन पहले विधानसभा चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव के कारण उन्होंने भी कोई बदलाव नहीं किया। अब माना जा रहा है कि मार्च-अप्रैल में भाजपा की नई टीम सामने आ सकती है। संघ के निर्देश हैं कि 15 साल तक सत्ता में मंत्री रहे या अन्य किसी सरकारी व्यवस्था में रहे लोगों को संगठन में लाया जाए। इसमें से कुछ महामंत्री, मंत्री व प्रदेश उपाध्यक्ष पद के साथ प्रदेश प्रवक्ता बनेंगे। 
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टीवी के परदे पर 'विवाह' का प्रपंच!

- हेमंत पाल
   विवाह एक पवित्र बंधन है और सनातन धर्म में विवाह की एक निर्धारित पद्धति है। लेकिन, फिल्म और टेलीविजन के परदे पर 'विवाह' को तमाशा बना दिया गया! फिल्मों में तो नायक और नायिका का विवाह कहानी का हिस्सा होता है, इसलिए उसे मनोरंजन माना जा सकता है! लेकिन, टेलीविजन पर इस जीवन की इस पवित्र रिवाज को मजाक ही बना दिया गया। विवाह के रियलिटी शो बना दिए गए, जिसमें तीन-चार महीने तक किसी एक पुरुष या महिला कलाकार को केंद्र में रखकर उनके विवाह का नाटक किया जाता है! विवाह से जुड़े सारे प्रपंच किए जाते हैं, पर शो के समाप्त होते ही सीरियल की कहानी की तरह ये रिश्ता ख़त्म हो जाता है। टीवी पर सिर्फ शादी नहीं कराई जाती, रियलिटी शो के नाम पर सरासर झूठ परोसा जाता है। जबकि, प्रचारित यह किया जाता है कि ये सच की शादी है! टीवी के परदे पर कई बार ऐसी नकली शादियां हुई है या शादी होने का नाटक किया गया। 'मुझसे शादी करोगे' जैसा रियलिटी शो भी प्रसारित हुआ जो अभी तक इस तरह के शो में सबसे निकृष्ट दिखाई दिया।       
    टीवी के परदे पर इन दिनों रियलिटी शोज़ का बोलबाला है। दर्शकों को बांधने के लिए हर चैनल रियलिटी शो को लेकर नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। गाने और नाचने के रियलिटी शो तो हर चैनल पर चल रहे हैं! लेकिन, अब इसमें भी नए प्रयोग किए जाने लगे! ऐसे में किसी एक्ट्रेस या एक्टर का विवाह कराने  जैसे फॉर्मेट वाला शो कुछ अलग ही है! टीवी की दुनिया में रियलिटी शो का मतलब है, दर्शकों के सामने वास्तविकता दिखाना! लेकिन, विवाह कराने वाले शोज़ की वास्तविकता संदिग्ध ही है। अभी तक इस तरह के जितने भी शो प्रसारित हुए, उसकी सच्चाई ये है कि कोई भी शादी नहीं टिकी! यह भी माना जा सकता है कि ये शो रियलिटी जरूर कहे गए, पर उनका वास्तविकता से कोई वास्ता नहीं था! बरसों पहले माधुरी दीक्षित ने भी टीवी पर इस तरह का एक कार्यक्रम 'कहीं न कहीं कोई है' का संचालन किया था। लेकिन, माधुरी के होने के बावजूद ये शो निर्धारित हफ़्तों तक भी नहीं चला।
  'बिग बॉस' जैसे लोकप्रिय शो के निर्माताओं ने 'मुझसे शादी करोगे' जैसा लचर रियलिटी शो बनाकर साबित कर दिया कि दर्शकों के प्रति उनकी क्या जवाबदेही है! क्योंकि, इसके दोनों प्रतियोगियों की सच्चाई दर्शक पहले से जानते हैं! पारस छाबड़ा और शहनाज गिल दोनों की 'बिग बॉस' में अपनी-अपनी जोड़ियां थीं! इस शो में दोनों ने सिर्फ एक्टिंग की! कहीं नहीं लगा कि वे किसी रियलिटी शो के रियल कैरेक्टर हैं। शो के निर्माताओं ने 'बिग बॉस' के दर्शकों को बांधने के लिए आनन-फानन में ये शो शुरू किया, पर बात नहीं बनी! 'बिग बॉस' के सेट पर ही 'मुझसे शादी करोगे' शुरू कर दिया गया, जिसका फॉर्मेट भी दर्शकों की समझ से बाहर रहा! लम्बे समय तक यह भी स्पष्ट नहीं हुआ कि ये शो दो प्रतियोगियों के लिए बनाया गया है या शो में मौजूद प्रतियोगी भी आपस में एक-दूसरे से शादी करने पर आमादा हैं। ये सच्चाई भी किसी से छुपी नहीं है कि शहनाज के पिता 'मुझसे शादी करोगे' शो के खिलाफ थे! सीधा सा तात्पर्य है कि शहनाज गिल सही में शादी करने नहीं, बल्कि अपनी फीस लेकर एक्टिंग की।   
  करीब दस साल पहले जब मीका के कथित चुंबन कांड से राखी सावंत चर्चा में थी, तब एक टीवी शो 'राखी का स्वयंवर' आया था। इसी के साथ टीवी पर सेलेब्रिटीज की शादी के रियलिटी शो की शुरुआत भी हुई! 2009 में आए इस शो में राखी सावंत के लिए लड़का खोजने की कोशिश की गई थी। किंतु, इस शो की खिल्ली ज्यादा उड़ी! क्योंकि, राखी की इमेज ऐसी नहीं थी, कि उसे सेलिब्रिटी कहा जाए या कोई अच्छा लड़का उससे शादी करने को लालायित हो! शो से चैनल ने जमकर टीआरपी बटोरी, आखिर में ये सब सिर्फ पब्लिसिटी स्टंट साबित हुआ। इसके बाद राजनेता प्रमोद महाजन के लड़के राहुल महाजन के स्वयंवर का प्रपंच रचा गया। राहुल की अपनी कोई अलग पहचान भी नहीं थी। शो के जरिए राहुल महाजन ने परदे पर डिंपी गांगुली से शादी भी की, पर ये शादी ज्यादा दिन नहीं चली। कुछ समय बाद ही राहुल और डिंपी ने तलाक ले लिया। 'बिग बॉस' के सीजन-4 में सारा खान और अली मर्चेंट की शादी करवाई गई। 'बिग बॉस' के घर में ही निकाह कराया गया था। इस एपिसोड ने टीआरपी भी बटोरी, लेकिन शो से बाहर आने के कुछ समय बाद ही दोनों अलग हो गए। गाने वाले शो 'इंडियन आइडल' में नेहा कक्कड़ और आदित्य नारायण की फर्जी शादी का नाटक किया गया। कई सप्ताह तक इन दोनों की शादी का माहौल बना, पर ऐसा कुछ नहीं होना था और न हुआ!   
  ऐसे कारनामे सिर्फ भारत में ही नहीं होते! पाकिस्तान टीवी भी ऐसे रियलिटी शो दिखाता रहता है। 2003 में पाकिस्तान के जिओ टीवी ने पहली बार ऐसा ही एक रियलिटी शो 'शादी ऑनलाइन' शुरू किया था। इसमें शादी के लिए योग्य लड़के-लड़कियों को आपस में मिलाकर शादियाँ करवाईं जाती थीं। इस शो में भी भारतीय टीवी कार्यक्रम की तरह ही प्रतियोगियों से उनकी पसंद, नापसंद, पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पूछताछ की गई। उनसे ये भी पूछा जाता था कि वे अपने परिवार की मर्जी से हटकर पूरी दुनिया के सामने इस तरह से शादी क्यों करना चाहते हैं? आश्चर्य की बात ये कि पाकिस्तान जैसे दकियानूसी समाज में इस रियलिटी शो ने लोकप्रियता के रिकॉर्ड बनाए थे।  
  इस शो की लोकप्रियता का कारण ये था कि पाकिस्तानी समाज में इस तरह की ये पहली घटना थी। भाग लेने आए लोगों में से कुछ का कहना था कि इससे हमारे पास जीवन साथी चुनने के विकल्प बढ़ जाते हैं। अच्छी बात ये है कि वहां के समाज ने भी इसे सकारात्मक नजरिए से लिया। वे लोग अपने ही परिवारों, जाति और जनजातियों में शादी करने की सदियों से चलती आ रही परंपरा को तोड़कर बाहर निकलें। पाकिस्तानी समाज में इस तरह के कार्यक्रमों में खुलकर भाग लेने में एक हिचकिचाहट तो दिखाई दी थी! लेकिन, ये भी सच है कि इस तरह के बदलाव से वहाँ का युवा वर्ग खुश हुआ। इस तरह के कार्यक्रमों की सफलता से वहाँ सामाजिक बदलाव की छटपटाहट ज़रूर दिखाई दी, पर हमारे यहाँ इसे मनोरंजन और मजाक में ही लिया गया। 
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