Friday, March 31, 2017

मध्यप्रदेश में तीसरे मोर्चे के लिए 'मिशन-2018' का मतलब!

- हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश 'मिशन-2018' को लेकर सभी पार्टियों ने कमर कस ली है। भाजपा ने तो सरकार को ही मोर्चे पर लगा दिया। घोषणाओं की रेवड़ियां बंटना शुरू हो गई है। कांग्रेस में भी बदलाव की सुगबुगाहट है। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का तदर्थवाद खत्म हो गया! अब प्रदेश अध्यक्ष को बदले जाने की हलचल है। इस सबके बीच इस बार अन्य पार्टियां भी सक्रिय होती दिखाई दे रही है। सबसे ज्यादा ऊर्जा आम आदमी पार्टी (आप) में दिखाई दी। मध्यप्रदेश देश के उन राज्यों में से है, जहाँ बरसों से दो दलीय व्यवस्था कायम है। यहाँ क्षेत्रीय पार्टियों की पकड़ नहीं है! प्रदेश की राजनीति में तीसरे मोर्चे जैसे विकल्प के लिए अभी तक कोई गुंजाइश नहीं बनी! यहाँ कांग्रेस और भाजपा जड़ें इतनी गहरी है कि 20 सालों में कोई भी ग़ैर-कांग्रेसी या ग़ैर-भाजपा पार्टियां मिलकर भी 20 से ज़्यादा सीटें नहीं ला सकी। प्रदेश में किसी क्षेत्रीय पार्टी के नहीं पनपने के कई कारण हैं। भौगोलिक स्थिति के साथ यहाँ के जातिगत समीकरण भी इसकी इजाजत नहीं देते। यहाँ 1967 में संविद सरकार जैसा प्रयोग असफल हो चुका है।

   मध्यप्रदेश में अगले साल के अंत में विधानसभा के चुनाव होना है। भाजपा सत्ता में है, इसलिए उसका आत्मविश्वास चरम पर है। संगठन भी उत्साह में कुंचाले भर रहा है। उत्तरप्रदेश की जीत ने भाजपा को कुछ ज्यादा ही राजनीतिक मुगालते में ला दिया! उसे यहाँ भी अपनी जीत थाली में परसी दिखाई दे रही है। जबकि, उत्तरप्रदेश से मध्यप्रदेश की तुलना संभव नहीं है। पडौसी होते हुए भी दोनों प्रदेशों की राजनीतिक विचारधारा में कोई साम्य नहीं! फिर उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार एंटीइनकंबेसी का शिकार हुई है। मध्यप्रदेश में इस बात से सीख लेते हुए, यहाँ की सरकार को भी सचेत हो जाना चाहिए। क्योंकि, जनता के मानस को भांपना आसान नहीं होता। बड़े राजनीतिक उलटफेर इसके उदाहरण रहे हैं। जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो ये पार्टी अभी अपने आंतरिक संघर्ष से ही उबर नहीं सकी। पार्टी को मुकाबले में उतरने के लिए जिस ऊर्जा की जरूरत है, वो सब आपसी गुटबाजी और पैंतरेबाजी में ही खर्च हो रही! पार्टी के नए संभावित मुखिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को मुकाबले के लिए मोर्चे पर लगाने के साथ सेनापतियों सही जिम्मेदारी देना भी होगा! ये आसान काम नहीं है। ऐसे में तीसरे मोर्चे के लिए कितनी गुंजाइश बचती है, इसका अभी आकलन नहीं किया जा सकता! लेकिन, कांग्रेस का कमजोर होना और वर्तमान सरकार प्रति नाराजी किसी तीसरी पार्टी को ताकत दे सकती है। लेकिन, ये ताकत इतनी नहीं होगी कि वो सरकार बना सके! 
   अभी तक मध्यप्रदेश में कोई तीसरी पार्टी अपनी जगह क्यों नहीं बना सकी? इसे कई तरह से देखा और समझा जा सकता है। लेकिन, सबसे सटीक कारण ये समझ आता है कि जब भी कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी तीसरी पार्टी ने अपनी पहचान बनाने की कोशिश की, उस पार्टी की कमान किसी अनजान नेता के हाथ में थी। इन नेताओं की प्रदेश स्तर पर कोई अलग पहचान नहीं थी! ऐसे कई क्षेत्रीय नेता या तो भाजपा से निकले थे या कांग्रेस से! बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की कमान जिसे दी गई, उन्हें अपने इलाके से बाहर कोई पहचानता भी नहीं था! उमा भारती जरूर अकेली ऐसी नेता थी, जिसने 'जनशक्ति पार्टी' अपने दम पर खड़ी की थी, लेकिन उसके पीछे भाजपा को नुकसान पहुँचाना पहला मकसद था, न कि तीसरी ताकत बनने की कोई मंशा थी! फिलहाल प्रदेश में 'आप' अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है, पर इसकी कमान भी गैर-राजनीतिक लोगों के हाथ में है, इसलिए 'आप' कोई चमत्कार कर सकेगी, इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती!
  इस प्रदेश में सत्ता हमेशा कांग्रेस और भाजपा के कब्जे में रही! सत्तर के दशक से पहले एक बार संविद सरकार बनी, पर जल्दी ही बिखर गई! ये प्रदेश में तीसरे मोर्चे का लिटमस टेस्ट ही था! कांग्रेस के हाथ से भी आपातकाल के बाद 1977 में सत्ता फिसली! जनता पार्टी के झंडे तले प्रदेश में सरकार बनाई गई। लेकिन, ये जोड़तोड़ वाला प्रयोग भी नहीं चला! 2003 से पहले तक प्रदेश में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं तो, पर कोई भी पांच साल पूरा नहीं कर पाई! 2003 में सत्ता में आई भाजपा ने न केवल पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, बल्कि लगातार दूसरी और तीसरी बार सत्ता में भी आई! प्रदेश में 1993 तक भाजपा के साथ गैर-कांग्रेसी दलों में जनता पार्टी व जनता दल का प्रभाव रहा है। उसके बाद भाजपा को छोड़कर बाकी गैर-कांग्रेसी दलों खासकर समाजवादी विचारधारा के दलों में ज्यादा ही टूट हुई! इसलिए कि समाजवादियों ने सत्ता का सुख पाने के लिए कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा का दामन थाम लिया। 
  प्रदेश में समाजवादी विचारधारा के अलावा दलित वर्ग का भी वोट बैंक है! बसपा ने मध्यप्रदेश में भी उत्तरप्रदेश की तर्ज पर जातीय समीकरणों की 'सामाजिक समरसता' की मुहिम चलाई थी। उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे इलाकों बघेलखंड, बुंदेलखंड और चंबल इलाके में मायावती का असर भी रहा! इन इलाकों के अगड़े तबकों के नेता लंबे समय तक मायावती की चौखट पर हाजिरी बजाते रहे हैं। लेकिन, कभी लगा नहीं कि मायावती की पार्टी मध्यप्रदेश में कोई राजनीतिक चमत्कार कर सकती है। प्रदेश में मायावती के जातीय समीकरण भले ही पूरी तरह सफल न हो पाए हों, पर उसका 'सर्व समाज' का नारा कभी न कभी असर दिखा सकता है! मुलायमसिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने भी एक बार 8 विधानसभा सीटें जीतकर सदन में तीसरे नंबर पर थी। लेकिन, जल्दी ही उसके चार विधायक पार्टी छोड़ गए हैं। समाजवादी पार्टी का यादव फार्मूला जो उत्तरप्रदेश में कामयाब रहा, वो मध्यप्रदेश में नहीं चल सकता! इसका कारण ये भी है की अभी मध्यप्रदेश में जातिवादी राजनीति का जहर लोगों के दिमाग तक नहीं चढ़ा है। आदिवासियों के नाम पर बनी 'गोंडवाना गणतंत्र पार्टी' भी कमाल नहीं कर सकी! जबकि, आरक्षण विरोध लेकर बनी 'समानता दल' भी अपने अस्तित्व के लिए असफल संघर्ष कर लिया।  
  2003 में भाजपा को आसमान फाड़ बहुमत से सत्ता में लाने वाली उमा भारती भी क्षेत्रीय पार्टी बनाकर अपनी जातिवादी ताकत दिखाने का प्रयोग कर चुकी है। उमा भारती ने 2008 में भारतीय जनशक्ति पार्टी (भाजश) बनाकर भाजपा को चुनौती दी थी! लोधी समाज की नेता होने के नाते उन्होंने असर भी दिखाया, पर वे भाजपा को अपनी जड़ों से हिलाने में सफल नहीं हो सकीं! प्रदेश की 89 सीटों पर लोधी समाज का असर है। उस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी रामकृष्ण कुसमारिया, जंयत मलैया, बृजेन्द्रसिंह, हरिशंकर खटीक, मुश्किल से अपनी सीट बचा सके थे। चंदला क्षेत्र से तो भाजपा के एक पूर्व मंत्री मात्र 958 मतों से जीते थे। इसी तरह टीकमगढ़, बड़ामलहरा और राजनगर में भाजपा प्रत्याशियों की जमानत जब्त होने का कारण भाजश प्रत्याशी ही थे। हालांकि, उमा भारती को भी टीकमगढ़ से हार का मुंह देखना पड़ा था।
   उमा की भाजश ने बड़ामलहरा, खरगापुर में जीत हांसिल की, वहीं टीकमगढ, जतारा, चंदला में उसके प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे। इसी तरह बंडा, महाराजपुर में भाजपा की हार का कारण भी भाजश को माना गया। सागर संभाग में भाजश को 12.37 प्रतिशत मत मिले थे, जिसमें छतरपुर जिले में 14.09, दमोह में 6.65, पन्ना में 18.24, सागर में 9.30 एवं टीकमगढ़ जिले में 16.66 प्रतिशत मिले थे। लोधी समाज की संख्या के आधार पर इनके चुनावी समीकरणों को उलटफेर करने के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो मध्यप्रदेश में 89 विधानसभा क्षेत्रों पर इस समाज का असर है। लोधी समाज के प्रदेश में करीब 80 लाख मतदाता हैं। बालाघाट में सर्वाधिक संख्या लेाधी समाज की है, जो चुनावी हार-जीत में महत्वपूर्ण होते हैं। बुंदेलखंड की अधिकांश सीटों पर भी इस समाज का खास असर है। समाज की इस ताकत के बावजूद उमा भारती की मध्यप्रदेश में क्षैत्रिय पार्टी बनाकर राज करने की रणनीति कामयाब नहीं हो पाई!
  आपातकाल के दौरान मध्यप्रदेश में समाजवादी विचारधारा के झंडाबरदार शरद यादव ने भी समाजवादियों को जोड़ने की मुहिम तेज की थी! लेकिन, उनकी कोशिश भी कामयाब नहीं हुई! क्योंकि, प्रदेश में समाजवादी तो है, किंतु उनके पास सक्षम नेतृत्व की कमी है! वहीं, कांग्रेस व भाजपा के अलावा अन्य किसी पार्टी के पास न तो असरदार संगठन है न मुखिया! प्रदेश में समाजवादियों की हालत पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने 320 विधानसभा सीटों (तब छत्तीसगढ़ अलग नहीं हुआ था) में से 230 पर कब्जा जमाया था! इनमें जीतने वाले लगभग 100 समाजवादी थे। उसके बाद 1980 व 1985 के चुनाव गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने अलग-अलग झंडे थामकर चुनाव लड़ा तथा सत्ता कांग्रेस के हाथ में पहुंच गई। फिर इन पार्टियों ने 1990 में मिलकर चुनाव लड़ा व सत्ता हांसिल कर ली। इस चुनाव में जनता दल ने 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन, ये सब इतिहास में दर्ज हो चुका है।  
  अपनी पहचान को आधार बनाकर क्षेत्रीय राजनीतिक ताकत बनने का जो काम दक्षिणी राज्यों हुआ है, ऐसा कहीं और नहीं! करूणानिधि, जयललिता, एमजी रामचंद्रन, चिरंजीवी जैसे नेताओं के पीछे अपनी फ़िल्मी इमेज थी! इन लोगों ने अपने चाहने वालों को वोटरों में बदलने का चमत्कार किया! उत्तरप्रदेश में यही काम मुलायमसिंह यादव और मायावती ने जातीय समीकरण बनाकर किया! ठाकुरों और ब्राह्मणों को अपना दम दिखाने के लिए मुलायमसिंह यादव ने ओबीसी और मायावती ने निचली जातियों को समेटकर सत्ता पर कब्ज़ा किया! जबकि, मध्यप्रदेश में ऐसे जातीय समीकरण नहीं है। इन सबसे अलग उड़ीसा अकेला ऐसा राज्य है, जहाँ पटनायक कुनबे की तूती बोलती है। पहले पिता और उसके बाद पुत्र ने अपने मतदाताओं पर ऐसा जादू चलाया कि यहाँ  तो कांग्रेस का सिक्का चलता है न भाजपा का! लेकिन, मध्यप्रदेश के संदर्भ में अभी ये दिवा स्वप्न ही है। 
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Tuesday, March 28, 2017

हिना से गले मिलने वाले थे भुलक्कड़ कृष्णा!

 - हेमंत पाल 

  मौकापरस्ती, स्वार्थ और धोखेबाजी को यदि एक शब्द में अभिव्यक्त करने को कहा जाए तो सबसे अच्छा शब्द होगा 'राजनीति।' जब तक किसी राजनीतिक दल का सिक्का चलता है, उसका ढोल बजाने वालों की कमी नहीं रहती! लेकिन, जब वही पार्टी मुसीबत में होती है, तो सबसे पहले वही भागते नजर आते हैं, जो अच्छे दिनों में मलाई खाते नजर आते हैं। इन दिनों कांग्रेस में भगदड़ जैसा माहौल बन रहा है। उत्तरप्रदेश चुनाव के समय रीता बहुगुणा समेत वहां के कुछ नेताओं ने कांग्रेस से पल्ला झटका था, अब बारी कर्नाटक की है। क्योंकि, वहाँ अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। 
   एसएम कृष्णा पहले कांग्रेसी नेता हैं, जिन्होंने मौके का फायदा उठाते हुए भाजपा का दामन थामा! जिनकी रगों में करीब साठ साल तक कांग्रेसी रक्त का संचार हुआ, उनको अब भाजपा की थाली में ज्यादा घी नजर आने लगा। खराब सेहत के नाम पर कांग्रेस छोड़कर आराम का बहाना करने वाले सोमनाहल्ली मल्लैया कृष्णा उर्फ एसएम कृष्णा ने सात हफ्ते बाद ही भाजपा का झंडा थाम लिया। दक्षिण में पैर फैलाने की कोशिश कर रही भाजपा ने कृष्णा को पार्टी में शामिल करके दांव खेला है। उन्होंने 29 जनवरी को जब कांग्रेस से इस्तीफे की घोषणा की थी, तब कहा था कि पार्टी इस बारे में भ्रम की स्थिति में है कि उसे नेताओं की जरूरत है या नहीं? लेकिन, भाजपा की सदस्यता के समय कृष्णा बोले कि वे ऐसी पार्टी में आकर अपने आपको सम्मानित महसूस कर रहे हैं, जिसमें देश को ऊंचाई पर ले जाने वाले नरेंद्र मोदी जैसे नेता हैं।  
  कृष्णा सार्वजनिक कार्यक्रमों में सो जाने के लिए चर्चित रहे हैं। संसद में दूसरों के भाषण सुनते-सुनते में सो जाने की भी उनकी आदत रही है। एक बार संसद में कृष्णा से अजमेर की जेल में बंद एक पाकिस्तानी कैदी के बारे में सवाल पूछा गया था! साथ बैठे किसी मंत्री ने उन्हें उठाया तो जवाब था 'पाकिस्तान में बंद भारतीय कैदी की जानकारी दे दी गई थी।' वे नींद में सवाल ही नहीं समझ पाए कि किस देश के कैदी के बारे पूछा गया है! जब भुल्लकड़ मंत्री के जवाब पर हंगामा मचा तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मोर्चा संभाला और सरकार को सदन में बेइज्जत होने से बचाया। बाद में राज्यसभा के सभापति ने इसे रिकार्ड में इस जवाब को न दर्ज करने का आदेश दे दिया। लेकिन, मंत्री के रूप में उनकी सजगता और गंभीरता सबके सामने जरूर आ गई! ऊम्र के जिस पड़ाव पर कृष्णा हैं, उसे देखकर समझा गया था कि राजनीति से उनका मोहभंग हो गया है। इसलिए उन्होंने कांग्रेस छोड़कर राजनीति को अलविदा कह दिया। क्योंकि, वे अब न तो पार्टी को वोट दिलवाने की हैसियत रखते हैं और न वोट कटवाने की! उनकी ये दोनों क्षमताएं चुक गई है। लेकिन, भाजपा में उनके जाने के कदम ने सबको चौंका दिया! 
   कर्नाटक के इस नेता को याद करने के लिए उनकी खासियतों पर नजर दौड़ाने की जरुरत नहीं पड़ती! उनके भुल्लकड़पन और खब्तियों जैसे जवाब ही उन्हें याद करने के लिए काफी हैं। ये वही कृष्णा हैं, जो बरसों तक मनमोहन सिंह सरकार में विदेश मंत्री रहे। वे जब विदेश जाते थे, तो ये तक भूल जाते थे कि वे किस देश में पहुँचे हैं और यहाँ क्या बात करना है। उनके साथ जाने वाले विदेश मंत्रालय के अफसरों को उन्हें बार-बार याद भी दिलाना पड़ता था। फरवरी 2011 में तो वे संयुक्त राष्ट्र में भारत का भाषण पढ़ने के बजाए पुर्तगाल का भाषण पढ़ आए थे! जब उन्हें इस गलती का अहसास कराया गया तो अफसोस जताने के बजाए  उनका कहना था कि क्या फर्क पड़ता है, संयुक्त राष्ट्र में सभी विदेश मंत्रियों के भाषण एक जैसे ही तो होते हैं। लेकिन, उनको केंद्र में मंत्री बनाए रखना कांग्रेस की मजबूरी था। 
  उनकी खराब याददाश्त के और भी बहुत से नमूने हैं। एक बार न्यूयॉर्क में एसएम कृष्णा की पाकिस्तान की तत्कालीन विदेश मंत्री हिना रब्बानी से मुलाकात तय थी। कूटनीतिक बातचीत के लिए मंत्रालय ने पूरी तैयारी कर दी। इस बातचीत में कृष्णा ने एक शेर को बहुत रटा!  लेकिन,फिर भी बातचीत के समय उसी शेर को गलत बोल गए। इससे बातचीत का अर्थ से अनर्थ हो गया। हिना नाराज होकर चली गई थी। भारत और पाकिस्तान के रिश्तों पर कृष्णा ने हिना से कहा था हालात कैसे भी क्यों न हो, बातचीत चलती रहनी चाहिए! जैसे किसी शायर ने कहा है कि भले ही दिल मिले न मिले, गले मिलते रहिए। कृष्णा का इतना कहना था कि हिना रब्बानी मुंह बिचकाते हुए चल दी। कृष्णा को जब मामला समझ में आया, तो उन्होंने हिना से अपनी शेर को लेकर समझ के बारे में बातचीत भी की! उम्र का लिहाज करते हुए, हिना ने बात ज्यादा नहीं बढ़ाई! 
   कांग्रेस और कृष्णा के बीच दूरी तभी से बढ़ गई थी, जब पिछले चुनाव में उन्हें कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाने से पार्टी हाईकमान ने इंकार कर दिया था। विदेश मंत्री के बाद सक्रिय राजनीति में उनकी एक और पारी खेलने की इच्छा थी! मगर, कांग्रेस ने इसे सही नहीं माना। जब कृष्णा की कोशिश बेकार गई, तो वे चुप बैठ गए। लेकिन, पार्टी हाईकमान और उनके बीच दूरी बढ़ती गई। अब जब कर्नाटक में विधानसभा चुनाव की निकटता देखते हुए उन्हें मौका मिला तो उन्होंने इसे भुनाने में देर नहीं की! लेकिन, जिस भाजपा ने 75 साल की ऊम्र से ऊपर के नेताओं को घर बैठने का फैसला कर लिया हो, वो 85 साल के कृष्णा को कब तक और क्यों झेलेंगे? लालकृष्ण आडवाणी आराम फरमा रहे हैं। मुरलीमनोहर जोशी भी बुढ़ापे में सुस्ता ही रहे हैं। नजमा हेपतुल्ला को मंत्रिमंडल से हटाकर राज्यपाल बना दिया गया। कलराज मिश्र भी जल्दी ही रिटायर कर दिए जाएंगे। जब भाजपा घर के बुजुर्गों को राजनीतिक विश्राम दे रही है, तो एसएम कृष्णा भाजपा के किस फॉमूर्ले में फिट होंगे?
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Monday, March 27, 2017

इतिहास को मनोरंजन बनाने का शगल


- हेमंत पाल 
  नए टीवी सीरियल 'शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह' को लेकर विवाद खड़ा हो गया। अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह ने इसमें इतिहास को तोड़ने का आरोप लगाया। कहा गया कि इसमें महाराजा रणजीत सिंह के जीवन आैर उनसे जुड़े तथ्यों को कथानक में सुविधा के मुताबिक बदला गया है। मामले की जांच के लिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी को जांच करने को कहा गया है। इस तरह का विवाद नया नहीं है। ऐसे विवाद अकसर उठते रहते हैं, पर इनका कोई हल नहीं निकलता। 'जोधा-अकबर' सीरियल को लेकर भी काफी विवाद हुआ था। किन्तु, सीरियल खत्म जाने तक हुआ कुछ नहीं! संजय लीला भंसाली को अपनी बन रही फिल्म 'पद्मावती' को लेकर जरूर मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पहले जयपुर और बाद में कोल्हापुर में उनकी फिल्म की शूटिंग को बाधित किया गया।
     इतिहास से जुडी फिल्मों और सीरियलों पर विवाद इसलिए उठते हैं क्योंकि निर्माता, निर्देशक इतिहास को दूषित और विकृत कर उसमें मनगढंत किस्से, कहानियां जोड़कर कथानक को प्रमाणित इतिहास बताने की कोशिश करते हैं। इतिहास को तोड़ने और मरोड़ने का जितना साहस पहले फिल्म और बाद में सीरियल लिखने वालों ने किया उतना और कोई नहीं कर सका! जोधा अकबर, महाराणा प्रताप, मीरा बाई, सम्राट अशोक जैसे सीरियल इसके प्रमाण हैं। बरसों पहले बनी फिल्म 'मुगले आजम' से ही इतिहास साथ खिलवाड़ करने का काम शुरू हो गया था। क्योंकि, ज्ञात इतिहास में अकबर की किसी पत्नी का नाम जोधा नहीं था। अकबर पर लिखे गए अकबरनामा के अलावा जहाँगीरनामा और अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने भी कहीं अकबर की किसी पत्नी का नाम जोधा नहीं लिखा। बाद में 'जोधा अकबर' पर बने सीरियल में भी यही दोहराया जाता रहा। जिस तरह चंदबरदाई के चारणी साहित्य 'पृथ्वीराज रासो' ने संयोगिता नाम का चरित्र गढ़कर जयचंद को गद्दार बना दिया। उसी तरह मुगले आजम, अनारकली, जोधा अकबर फिल्मों ने एक काल्पनिक पात्र जोधा बाई गढ़ दिया। अब ये लोगों के मानस से कभी निकल भी पाएगा, ये संभव नहीं लगता!    'मीरा बाई' पर बने सीरियल में भी यही खिलवाड़ हुआ। इस सीरियल में तो कई तथ्य ही बदल दिए गए। वृंदावन जा रही मीरा बाई के साथ मेड़ता शासक विरमदेव को जोधपुर के शासक मालदेव से छुपते दिखाया गया! मालदेव और वीरमदेव के बीच संघर्ष भी दर्शाया। घायल वीरमदेव मृत्यु से पहले मालदेव को मार देता है। जबकि, इतिहास बताता है कि मालदेव का निधन वीरमदेव की मौत के कई साल बाद हुआ था। वीरमदेव के बाद उसका बेटा जयमल सिंह मेड़ता का शासक बना था। उसने भी मालदेव से कई युद्ध किए। यदि मालदेव व वीरमदेव एक-दूसरे के हाथों मारे गए होते, तो मालदेव की जयमल के साथ लड़ाईयां कैसे होती? महाराणा प्रताप सीरियल के कथानक को दिलचस्प बनाने के लिए कई ऐतिहासिक तथ्य तोड़े-मरोड़े गए।
 ऐतिहासिक पात्रों के नाम और घटनाओं पर साम्य है, तो उसे मनोरंजन के लिए बदला जाना उचित नहीं है। डिस्क्लेमर लगाकर कोई निर्माता या निर्देशक इतिहास को दूषित करने के आरोप से बच नहीं सकता। अधिकांश दर्शक इतिहास को उनके सही रूप में नहीं जानते! ये संभव भी नहीं है। ऐसे में उन्हें वही सब सही लगता है जो फिल्म या टीवी परदे पर दिखाया जाता है। क्योंकि, टीवी सीरियल और फ़िल्में दर्शकों पर ख़ासा प्रभाव छोड़ते हैं। हर दर्शक इतिहास नहीं पढता! वह उन्हीं कहानियों को सच्चा इतिहास मानता है! जब कोई प्रमाणिक इतिहास बताता भी है, तो लोग उस पर भरोसा भी नहीं करते!
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Friday, March 24, 2017

कमलनाथ को 'कमल' से जोड़ने के पीछे क्या कोई साजिश!

- हेमंत पाल 

  उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों से कांग्रेस ने कुछ सीखा हो या नहीं, पर मध्यप्रदेश में कमलनाथ समर्थकों ने अपना काम जरूर कर दिया! उन्होंने मध्यप्रदेश में 'कमलनाथ लाओ, कांग्रेस बचाओ' और 'कमल नहीं, कमलनाथ चाहिए' का नारा जरूर उछाल दिया। शायद समर्थकों ने वक़्त की नजाकत को देखते हुए ही ये नारा गढ़ा है। अभी ये नारा सड़क पर तो नहीं, पर सोशल मीडिया में छाया हुआ है। प्रदेश की राजनीति में कमलनाथ समर्थकों ने जिस तरह मोर्चा संभाला है, वो गौर करने वाली बात है। क्योंकि, पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद मायूस हाईकमान प्रदेश के बारे में कुछ और सोचे, उससे पहले ही उनके सामने एक नाम चला दिया जाए! चल रहे दो नारों में से एक उनको प्रदेश में सक्रिय करने की मांग है! दूसरा नारा 'कमल नहीं, कमलनाथ चाहिए' भाजपा के सामने चेतावनी जैसा है। लेकिन, इसके साथ ही ये अफवाह भी तेज है कि कमलनाथ तो 'कमल' से नाता जोड़ रहे हैं! कुछ भाजपा नेताओं बयानों से भी इस बात का अंदाजा लगा! ये भी संभव है कि कमलनाथ को मध्यप्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने से रोकने के लिए पार्टी के किसी गुट ने ये चाल चली हो! कमलनाथ के 'कमल' छाप बनने में कितनी सच्चाई है, ये तो जल्दी सामने आ जाएगा। पर, इस कथित अफवाह के जरिए यदि कमलनाथ को बदनाम किया जा रहा है, तो ये कांग्रेस हाईकमान के लिए चिंता की बात है। जो ये समझ रहा है कि कमलनाथ को अध्यक्ष बना देने से पार्टी एकजुट हो जाएगी, तो ये भ्रम है।   

  मध्यप्रदेश में कांग्रेस की राजनीति में कमलनाथ को सबसे पुराने नेताओं में गिना जा सकता है। चार दशक पहले जब वे सक्रिय हुए, तब दिग्विजय सिंह का राजनीति में अंकुरण हुआ था और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो घुटने-घुटने ही चलना सीखा होगा! आपातकाल के दौर में संजय गाँधी के दोस्त होने के नाते वे राजनीति में आए। लेकिन, वे कभी प्रदेश की राजनीति में सक्रिय नहीं हुए! ये भी कहा जा सकता है कि एक चाल के तहत उन्हें अपने लोकसभा क्षेत्र छिंदवाड़ा और दिल्ली तक बांधे रखा गया। देश की राजनीति में इन चार दशकों में आए उतार-चढ़ाओ के बावजूद वे अब तक जमे हैं। जबकि, उन्हें कभी प्रदेश की तरफ मुँह उठाकर नहीं देखने दिया गया। लेकिन, आज 70 साल के होने पर भी उनका दम-ख़म बरक़रार है। राजनीति की तेज धूप में भी उनका राजनीतिक यौवन मुरझाया नहीं! फिर भी मध्यप्रदेश की कुर्सी संभालने की उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने कभी इतनी कुंचालें नहीं भरी कि वे किसी की आँख की किरकिरी बनें! इस वजह से वे पार्टी हाईकमान के भी लाडले बने रहे। पर, अब हालात बदलते लग रहे हैं। सारे प्रयोगों के बाद उनके नाम पर सहमति बनती नजर आ रही है! साथ ही उनसे जुडी अफवाहों ने भी जगह घेरना शुरू कर दिया।  
   अब, जबकि प्रदेश में कांग्रेस को संजीवनी देने की कोशिशें सार्थक होती दिखाई नहीं दे रही, कमलनाथ को एक उम्मीद की तरह देखा जा रहा है। दिग्विजय सिंह और सिंधिया के मुकाबले उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सबसे सशक्त आंका गया! ऐसे में पार्टी में उनके विरोधी और प्रतिद्वंदी दोनों ने मोर्चे संभाल लिए हैं। उनके प्रदेश अध्यक्ष बनने से रोकने के लिए राजनीति की बिसात पर हरसंभव चालें चली जा रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके भाजपा में जाने की अफवाह फैलाकर उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनने से रोका जा रहा है? उनके भाजपा में जाने की ख़बरों को इस नजरिए से भी देखा जा सकता! क्योंकि, राजनीति में कुछ भी हो सकता है। प्रतिद्वंदी के किसी भी हद तक जाने की आशंकाओं को नकारा नहीं जा सकता! आज के हालात में कौन नहीं चाहता कि कमलनाथ प्रदेश की कमान संभालें, ये बात किसी से छुपी नहीं है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने ये कहकर इस खबर की आंच को और तेज कर दिया कि यदि वे आते हैं तो हमे खुशी होगी। मोदी जी के साथ काम कर उनको संतुष्टि मिलेगी। नंदकुमार चौहान की जगह कोई और नेता होता तो ये बात वास्तव में गंभीर है। लेकिन, भाजपा अध्यक्ष के बयानों को राजनीतिक रूप से कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसलिए ये बात हवा में उड़ गई!
    कमलनाथ राजनीति के घाघ खिलाड़ी हैं। उन्हें भी पता होगा कि इस सबके पीछे किसका रिमोट काम कर रहा है। क्योंकि, राजनीति का खेल ही ऐसा है, यहाँ होता कुछ है और दिखाया कुछ और जाता है। वे जानते भी हैं कि मध्यप्रदेश का राजनीतिक परिदृष्य अब उनके लिए काँटों के ताज से कम नहीं। उनके ज्यादातर राजनीतिक दुश्मन पार्टी के अंदर ही बंकर बनाकर बैठे हैं। बाहर जो होगा, वो तो उनको पता है। पर, पीछे से वार करने वालों से कोई कैसे मुकाबला करे? ये बात भी सही है कि वे प्रदेश अध्यक्ष बनकर आते भी हैं तो उनका वैसा जोशीला स्वागत नहीं होगा, जैसी कल्पना की जा सकती है। दावेदारों की फ़ौज के बीच उनके अध्यक्ष पद पर काबिज होने का रास्ता भी सीधा और आसान नहीं है। ऊपर से मुख्यमंत्री के रूप में उनका प्रोजेक्शन उन्हें राजनीतिक कद के मामले में दस साल मुख्यमंत्री रह चुके दिग्विजय सिंह और तीन बार से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से भी छोटा बना देगा! प्रदेश में ऐसे नेताओं की बड़ी फ़ौज तैयार है, जो प्रदेश में सरकार बनने की स्थिति में कलफ लगी खादी पहनकर बैठी है! मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी के स्वाभाविक दावेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया, अजय सिंह, अरूण यादव, मुकेश नायक, जयवर्धन सिंह से लगाकर आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया तक हैं। ऐसे कई नाम हैं जो कमलनाथ को अपना नेता मान तो लेंगे, पर उनकी छतरी तले के नीचे काम करने में उन्हें परेशानी होगी।   भाजपा में जाने की चर्चाओं के बीच कमलनाथ खामोश हैं। लेकिन, उनकी इस खामोशी को भी संदेह की नजर से देखा जा रहा है। इस बात ने तब जोर पकड़ा जब एक अनौपचारिक चर्चा में कमलनाथ ने राहुल गाँधी के मुलाबले नरेंद्र मोदी को ज्यादा मेच्योर नेता बता दिया! उसकी इस बात के नए-नए अर्थ निकाले जाने लगे! इसे उनकी भावी योजना की तरह देखा और समझा गया। इधर, भाजपा नेता भी उनके नाम का संधि विग्रह करके उसे 'कमल' और 'नाथ' में बाँट दिया। उनका पार्टी में बाहें फैलाकर स्वागत करने तक की बात कही जाने लगी है। जबकि, अभी तक की चर्चा में कमलनाथ को मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव-2018 में कांग्रेस की जीत के लिए कमान सौंपने की बात हो रही थी। इस अनपेक्षित हालात से पार्टी और खुद कमलनाथ भी हतप्रभ होंगे! कांग्रेस छोड़कर पार्टी बदलने को लेकर उनकी रणनीति क्या है, ये सच सिर्फ वे ही जानते हैं। लेकिन, अपनी साढ़े चार दशकों की राजनीतिक प्रतिबद्धता को वे तात्कालिक लाभ के लिए गवां देंगे, इस बात की संभावना कम है। कमलनाथ कांग्रेस में ही बने रहे, तो वे अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रमुख नेता होंगे। शिवराज-सरकार से मुकाबला भी उनको ही करना होगा। ज्योतिरादित्य सिंधिया से दिग्विजय सिंह तक को उनके पीछे चलना होगा। इस नाते कांग्रेस के भीतर उनका ओहदा बढ़ जाएगा। लेकिन, यदि उन्होंने भाजपा में जाने की गलती की तो उनकी स्थिति भी उन नेताओं जैसी होगी, जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए हैं। सभी की किस्मत संजय पाठक जैसी तो नहीं होती। चौधरी राकेश सिंह इसका सबसे सटीक उदाहरण है।  
  थोड़ा पीछे पलटकर देखें तो प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में दिग्विजय सिंह के बाद कमलनाथ को वाजिब हैसियत नहीं मिली। प्रदेश राजनीति में वे अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, मोतीलाल वोरा, श्यामाचरण शुक्ल और माधवराव सिंधिया के मुकाबले कमजोर ही बने रहे। प्रदेश के मामलों में हाईकमान पहले इन नेताओं की पहले सुनता था, बाद में कमलनाथ की! पार्टी आलाकमान कमलनाथ को तवज्जो तो दी, उन्हें केंद्र की राजनीति से भी जोड़े रखा पर प्रदेश से दूर ही रहने दिया। इस सच को नाकारा नहीं जा सकता कि अभी तक बड़े नेताओं की कतार में कमलनाथ को पीछे ही रहना पड़ा। गाँधी परिवार से नजदीकी के बावजूद वे कभी मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं बन सके। अब, जबकि उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाने की बात चल पड़ी है, उन्हें रास्ते से हटाने के लिए साजिशें रची जाने लगी है। प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति में भाजपा का कितना दखल है, इस बात को कई बार गंभीरता से परखा जा चुका है। नेता प्रतिपक्ष के मामले में तो भाजपा की रणनीति करीब-करीब सफल होने भी लगी थी, पर एक वक़्त पर एनवक्त पर वो दरक गई! संभव है कमलनाथ को बदनाम करने के पीछे भी कोई ऐसी ही चाल हो!    
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Sunday, March 19, 2017

भूतों और आत्माओं का फ़िल्मी कनेक्शन

- हेमंत पाल 
  हमारे समाज में जन्म, मृत्यु, पुनर्जन्म, आत्मा और भूत को लेकर आस्थाएं काफी गहरी है। इसे लेकर कई तरह के किस्से-कहानियां भी प्रचलित हैं। इन भूतों और आत्माओं को दूर भगाने के अलग-अलग उपाय भी समाज ने अपने अनुरूप निकाले! यही कारण है कि इसका प्रभाव फिल्मों पर भी आया। ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने से फिल्मों में पुनर्जन्म और भूत दिखाए जाते रहे हैं। आज भी हमारी फ़िल्में उससे मुक्त नहीं हुई। फर्क इतना आया कि इसमें मनोरंजन का तड़का लगने लगा। 
  भूतों की कहानी को कभी इसे कॉमेडी की तरह लिया जाता, कभी बदले जैसी भावना से जोड़ा जाता! इस तरह कहानियां कभी पुरानी नहीं पड़ती! अब तो अनुष्का शर्मा जैसी नए जमाने की एक्ट्रेस ने 'फिल्लौरी' में न सिर्फ काम किया। बल्कि, फिल्म की निर्माता भी वे खुद हैं। अनुष्का ने खुद ही भूत का किरदार निभाया! फिल्म की कहानी एक मांगलिक लड़के की है जिसकी शादी होने वाली रहती है। उसकी होने वाली पत्नी को मंगल दोष से बचाने के लिए पहले उसकी शादी उस पेड़ से कर दी जाती है, जिसपर अनुष्का भूत बनकर रहती है। फिर क्या था, पेड़ पर रहने वाली भूतनी लड़के के पीछे लग जाती है और हास्यास्पद रोमांटिक हालात पैदा कर देती हैं।
  हिंदी फिल्मों में सबसे पहले इस तरह का कथानक 1949 में कमाल अमरोही 'महल' से लाए थे। अशोक कुमार और मधुबाला की इस फिल्म में नायिका भटकती आत्मा थी। लेकिन, क्लाइमेक्स में पता चलता है कि वो कोई आत्मा नहीं, सही में एक महिला ही थी। इसके बाद 1962 में आई 'बीस साल बाद' 1964 में 'वो कौन थी' और 1965 में 'भूत बंगला।' अधिकांश फिल्मों में भूत या भटकती आत्मा को असफल प्यार या बदले की भावना से जोड़ा जाता है। फिल्मों में भूतों की भूमिका दो तरह से दिखाई जाती रही है। एक बदला लेने वाले, दूसरे मदद करने वाले भूत! 80 और 90 के दशक में 'रामसे ब्रदर्स' ने जो फ़िल्में बनाई वो डरावनी शक्ल और खून में सने चेहरों वाले खूनी भूतों पर केंद्रित रही। बाद में इन भूतों का अंत त्रिशूल या क्रॉस से दिखाया गया। इस बीच मल्टीस्टारर फिल्म 'जॉनी दुश्मन' आई, जिसमें संजीव कुमार ऐसे भूत बने थे, जो दुल्हन का लाल जोड़ा देखकर खतरनाक भूत में बदल जाते हैं। 2007 में प्रियदर्शन ने भी 'भूल भुलैया' में आत्मा को दिखाया था। 
  फिल्मों के भूत सबका नुकसान ही करें, ऐसा नहीं है। फ़िल्मी कथानकों में ऐसे भी भूत आए हैं, जो सबकी मदद करते हैं। भूतनाथ, भूतनाथ रिटर्न और 'अरमान' में अमिताभ बच्चन ने ऐसे ही अच्छे भूत का किरदार निभाया है जो मददगार हैं। 'हैल्लो ब्रदर' में भूत बने सलमान खान अरबाज़ खान के शरीर में आकर मदद करते थे। 'चमत्कार' में नसीरुद्दीन शाह बदला लेने के लिए शाहरुख़ खान की मदद करता है। 'भूत अंकल' में जैकी श्रॉफ और 'वाह  लाइफ हो तो ऐसी' में शाहिद कपूर को यमराज बने संजय दत्त की मदद से भला करता दिखाया गया है। 'टार्ज़न द वंडर कार' में भी कुछ ऐसी ही कहानी थी। इंग्लिश फिल्म 'घोस्ट' से प्रेरित होकर 'प्यार का साया' और 'माँ' बनाई गई थी। दोनों फ़िल्में ऐसे भूतों की थी, जो बुरे नहीं थे। 
  विक्रम भट्ट जैसे बड़े फिल्मकार भी ऐसी फिल्म बनाने के मोह से बच नहीं सके! उन्होंने 'राज़' की सफलता के बाद तो इसके कई सीक्वल बना डाले। भट्ट ने 1920, 1920-ईविल रिटर्न, शापित और हॉन्टेड में आत्माओं के दीदार करवाए! 2003 में अनुराग बासु जैसे निर्देशक ने भी 'साया' जैसी फिल्म बनाई। रामगोपाल वर्मा जैसे प्रयोगधर्मी निर्देशक ने तो 'भूत' टाइटल से ही फिल्म बना दी। इसके बाद फूँक, फूँक-2, डरना मना है, डरना ज़रूरी है, वास्तुशास्त्र, भूत रिटर्न में भी हाथ आजमाए! अब देखना है कि भूत बनी अनुष्का 'फिल्लौरी' में दर्शकों को लुभाती है या डराती है! क्योंकि, अनुष्का का भूत किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता। लेकिन, निर्देशक अंशाई लाल के लिए ये भूत अच्छा है बुरा ये तो दर्शक ही तय करेंगे। 
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Friday, March 17, 2017

मध्यप्रदेश में कांग्रेस के कायाकल्प का वक़्त आ गया!

   मध्यप्रदेश में कांग्रेस पूरी तरह तीन-चार नेताओं की बपौती बन गई! जब भी पार्टी कोई फैसला करने उतरती है, उसके सामने दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा कोई और नाम नहीं होता! ये दावेदार भी होते हैं और सलाहकार भी! पिछले दो दशकों में इन नेताओं से हटकर पार्टी में कोई फैसला हुआ हो, ऐसा नहीं लगा! जहाँ ये नेता सामने दिखाई नहीं देते, वहाँ परदे के पीछे भी यही होते हैं। प्रदेश के सभी कांग्रेसी इन तीनों के खेमों में बंटे हैं। जो इस खेमे से बाहर हैं, वे इसलिए खामोश रहते हैं कि विघ्नसंतोषी न कहलाएं! पूर्व मंत्री और सांसद सज्जन वर्मा ने सोनिया गाँधी को हाल ही में एक चिट्ठी लिखकर उन्हें अपनी व्यथा बताई है। उन्होंने इस चिट्ठी में अपनी बात कही हो, पर ये हर कांग्रेसी की पीड़ा है। इसके बाद भी पार्टी हाईकमान का मन बदलेगा, इस बात के आसार कम ही हैं! नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर अजय सिंह का आना भी पार्टी का इसी तिकड़ी के प्रभाव में होने का संकेत है! जबकि, अब वो स्थिति आ गई, जब कांग्रेस को नए चेहरों पर दांव आजमाना होगा! अजय सिंह को फिर से नेता प्रतिपक्ष बना दिए जाने से पार्टी की प्रतिष्ठा और ताकत में कोई बहुत बड़ा इजाफा हो जाएगा, ऐसी कोई उम्मीद नजर नहीं आती! पहले भी जब वे इस पद पर थे, उन्होंने कोई प्रतिमान नहीं गढ़े! 


- हेमंत पाल 
   कांग्रेस में ये बात तेजी से चल पड़ी है कि अब पार्टी का कायाकल्प किया जाना बहुत जरुरी है। प्रदेश में तीन विधानसभा चुनाव हारने के बाद यदि पार्टी चौथा चुनाव भी हारना नहीं चाहती, तो उसे कुछ नया सोचना होगा। दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक प्रतिभा का जितना उपयोग किया जाना था, वो हो चुका! दो दशकों से मध्यप्रदेश में पार्टी जिन हाथों में पोषित हो रही है, वे अब पूरी तरह चुक चुके हैं! पार्टी के नीति नियंताओं को अब गंभीरता से इस दिशा में विचार करना चाहिए कि मध्यप्रदेश में पार्टी की सेकंड लाइन को आगे आने का मौका मिले! बरसों से प्रदेश की राजनीति कर रहे दिग्विजय सिंह के पास अब पार्टी को जिन्दा करने का कोई नया फार्मूला होगा, ऐसा नहीं लगता! कमलनाथ से भी बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती! उनकी राजनीति छिंदवाड़ा दायरे से कभी बाहर नहीं निकली है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को पिछले विधानसभा चुनाव में प्रचार प्रमुख बनाकर आजमाया जा चुका है। अपने दरबारियों से बाहर निकलकर शायद ही वे कुछ सोचें!
     पार्टी के पुराने नेता सज्जन वर्मा ने पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से व्यथित होकर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी को पत्र लिखा है। उनकी पीड़ा के पीछे मूल कारण गोआ में सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी कांग्रेस की सरकार न बन पाने को लेकर है। परदे के पीछे से उन्होंने दिग्विजय सिंह पर तीर चलाया है, जो गोआ के प्रभारी थे। सज्जन वर्मा ने बात भले ही प्रदेश से बाहर कि की हो, पर वो भी प्रदेश में पार्टी की हालत से कम दुखी नहीं हैं। उन्होंने इंदिरा गाँधी को याद करते हुए सोनिया गाँधी को चेताया है कि आप उन्हें भी साहसिक फैसले लेना होंगे। राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स को ख़त्म करके इंदौर गाँधी ने राजे-रजवाड़ों को उनकी हैसियत बता दी थी! सज्जन वर्मा के नजरिये से देखा जाए तो उन्होंने भी कांग्रेस की राजनीति पर कब्ज़ा जमकर बैठे राजा-महाराजाओं के राजनीतिक प्रिवीपर्स ख़त्म करने का सुझाव दिया है। इस पत्र में तो उन्होंने कांग्रेस को ख़त्म करने की सुपारी लेने जैसी बात लिखकर स्पष्ट कहा है कि ऐसे कांटेक्ट किलर नेताओं से पार्टी को बचाया जाए। इंदौर के एक पूर्व विधायक और मुखर नेता अश्विन जोशी ने भी पार्टी अध्यक्ष को चापलूसों 
  अब तो सार्वजनिक रूप से स्वीकारा जाने लगा है कि प्रदेश में कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है। चुनाव और उपचुनाव दोनों में तो भाजपा के हाथों कांग्रेस मात खा ही रही है, रणनीति में भी पार्टी पिछड़ने लगी है। कई बार तो ये अहसास होने लगता है कि क्या कांग्रेस के फैसलों में भी भाजपा का दखल है? नेता प्रतिपक्ष कौन बनेगा, ये सवाल दो महीने से लटकने के बाद जब पिटारी खुली तो वही नाम सामने आया जो तिकड़ी की लिस्ट में था! मुकेश नायक, बाला बच्चन और अजय सिंह में से किसी एक का बनना तय ही था! क्योंकि, तीनों के पीछे एक-एक क्षत्रप खड़ा था। अजय सिंह को ही फिर मौका दिया गया। इस घटनाक्रम के पीछे दिग्विजय सिंह की योजना बताई जाती है। अब ये सवाल खड़ा होता है कि तिकड़ी में आपसी खींचतान के बाद क्या अजय सिंह को पार्टी के नेताओं को साथ मिलेगा?  अजय सिंह को राजनीति विरासत में मिली है। लेकिन, भाजपा के सत्ता में आने के बाद वे अपने आक्रामकता से पार्टी में कभी जान नहीं फूंक पाए! वे अपनी ठकुराई और काकस से बाहर ही नहीं निकल सके हैं। सतना से लोकसभा चुनाव हारना भी उनकी ताकत  कमजोर करता है। पिछली बार जब वे नेता प्रतिपक्ष थे, पार्टी के उपनेता चौधरी राकेश सिंह से उनके मतभेद जगजाहिर थे। ये भी माना जाता है कि उनके कांग्रेस छोड़ने का कारण भी कहीं न कहीं ये तनातनी ही थी! 
    जबकि, अफवाहों मुताबिक भाजपा ने अपनी तरफ से चाल चली थी कि मुकेश नायक को नेता प्रतिपक्ष का पद मिले! क्योंकि, विधानसभा में सरकार अपनी मनमानी करने का मौका तभी मिलता है, जब नेता प्रतिपक्ष मिट्टी का माधो हो! मुकेश नायक को ये कुर्सी देने के लिए क्या कुछ हुआ, ये एक अलग कहानी है। राजनीति जानकार भी जानते हैं कि मुकेश नायक के पीछे कौनसी लॉबी काम कर रही थी! कार्यवाहक नेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन ने भी कमलनाथ जरिए आदिवासी कार्ड चलाने की कोशिश की! लेकिन, एकवक़्त पर उनका तुरुप का इक्का कमजोर पड़ गया! सत्यदेव कटारे के बीमार होने के बाद से ही करीब सालभर से विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी बाला बच्चन संभाल रहे थे। उन्हें इस पद का सशक्त दावेदार समझा भी जा रहा था। लेकिन, उनके तेवर सरकार को रास नहीं आ रहे थे। निमाड़ की एक सभा में तो उन्होंने मुख्यमंत्री की सभा में मंच पर हंगामा करके अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। 
    लब्बोलुआब यही है कि कांग्रेस हाईकमान को मध्यप्रदेश के संदर्भ में वही तीन-चार पत्ते फैंटने की आदत छोड़ना होगी। यदि वास्तव में पार्टी को प्रतिद्वंदी के सामने मुकाबले में खड़ा करने की स्थिति में लाना है तो नए प्रयोग करना होंगे! पार्टी के थके और चुके नेताओं को जब तक घर नहीं भेजा जाएगा, किसी चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी होगा! यहाँ मुद्दा किसी नेता की राजनीतिक योग्यता की कसौटी का नहीं है। सारा मसला पार्टी में पसरी उस गुटबाजी का है, जो प्रदेश में कांग्रेस को एक नहीं होने दे रही! इसका फ़ायदा भाजपा उठाती है और पार्टी में सेंध लगाने में सफल हो जाती है। पूरे देश में कांग्रेस के लगातार कमजोर होने से पार्टी हाईकमान के लिए इस तिकड़ी की बात मानना मज़बूरी बन जाता है। मामला पार्टी में बनते-बिगड़ते समीकरणों तक ही सीमित नहीं है। प्रदेश में आज की स्थिति में ये भी आकलन करना होगा कि आज मध्यप्रदेश में कांग्रेस जिस मुकाम पर है, क्या वो भाजपा और शिवराजसिंह के लिए चुनौती बन सकती हैं?
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... जब परदे पर होली से बदला कथानक

- हेमंत पाल
     होली और सिनेमा का रिश्ता बहुत गहरा है। ब्लैक एंड व्हाइट के जमाने से आज तक ऐसी कई फ़िल्में याद की जा सकती है, जिनके कथानक में होली एक महत्वपूर्ण कड़ी बनी! कभी होली ने प्यार के रिश्ते को मजबूत किया तो कभी होली की हुड़दंग फिल्म में दुश्मनी का कारण भी बनी! गौर करने वाली बात ये भी कि सिनेमा में जब भी होली के त्यौहार दिखाया गया कथानक में मोड़ जरूर आया! सिनेमा का इतिहास टटोला जाए तो संभवतः 1944 में पहली बार अमिय चक्रवर्ती ने दिलीप कुमार के साथ 'ज्वार भाटा' में होली दृश्य फिल्माया था। उसके बाद फिल्मों में होली दिखाने का चलन आया! किसी घटना को अंजाम देने के लिए भी होली को सहारा बनाया जाने लगा।
  फ़िल्म 'शोले' में रामगढ़ पर खूंखार डकैतों के हमले से अनजान गांव वाले होली पर पर झूमते नज़र आते हैं। यहीं डाकुओं का पहला सामना जय और वीरू से होता है! 'जख्मी' में सुनील दत्त होली पर डफ़ली बजाते हुए दुश्मनों को चुनौती देते हैं। बासु चटर्जी की फ़िल्म 'दिल्लगी' में धर्मेन्द्र होली गीत गाते हुए हेमा मालिनी को रिझाते हैं। राजेश खन्ना और स्मिता पाटिल 'आखिर क्यों' में होली का एक सीन रिश्तों में नई पैचीदगी खड़ी कर देता है।
   राजेश खन्ना और आशा पारेख की फ़िल्म 'कटी पतंग' में भी होली गीत के जरिए सामाजिक कुप्रथाओं पर चोट की गई थी! विधवा होने के कारण आशा पारेख होली नहीं खेलती, लेकिन राजेश खन्ना होली पर 'आज न छोड़ेंगे हमजोली' गाते हुए उसे रंग देते हैं। 'सिलसिला' में अमिताभ बच्चन और रेखा के बीच का रिश्ता होली के दिन ही सामने आता है। 'रंग बरसे ...' गाते हुए अमिताभ भांग के नशे में इतना मस्त हो जाते हैं कि संजीव कुमार और जया भादुड़ी की मौजूदगी को ही भुला देते हैं। इसके बाद तो फिल्म की कहानी ही बदल जाती है। मीनाक्षी शेषाद्रि और सनी देओल की फिल्म 'दामिनी' में तो होली के दिन की एक घटना ही फिल्म को आगे बढ़ाती है। होली के दिन मीनाक्षी की नौकरानी के साथ जो होते दिखाया गया है, वही फिल्म का केंद्र बिंदू था!
   बहुत सी ऐसी फिल्में हैं जिनमें या तो गीतों के सहारे या फिर किसी भी अच्छी-बुरी घटना को अंजाम देने के लिए होली के दृश्य दिखाए गए। फिल्म 'होली' में आमिर खान को कैंपस में राजनीति के माहौल में होली खेलते दिखाया गया। 'डर' में शाहरूख खान चैलेंज देकर जूही को होली के दिन रंग लगाने में कामयाब हो जाता है। 'मोहब्बतें' में होस्टल के सभी लड़के अपनी प्रेमिकाओं के साथ गुरूकुल से निकालकर होली मनाने में सफल होते है। इसके अलावा भी कई ऐसी फ़िल्में हैं जिसमें होली दृश्यों के बाद कथानक अचानक बदला! फागुन, मदर इंडिया, वक़्त, जख्मी, मशाल, कटी पतंग, बागबान, दीवाना, मंगल पांडे, आखिर क्यों, दिल्ली हाईट्स जिनमें होली सिर्फ त्यौहार के रूप में नहीं फिल्माया गया, बल्कि कथानक हिस्सा बनी!
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Friday, March 10, 2017

कुपोषित बच्चों की मौत और पकवालों से सजी प्लेट!

- हेमंत पाल
  एक पत्रकार मित्र ने सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली कि 'जसोदा की ये बेटी कुपोषण से मर गई, क्योंकि उसका आहार भ्रष्टाचार खा गया!' ये शिवपुरी जिले की पोहरी तहसील के जखनोद गाँव में पिछले साल हुई घटना है। यह बच्ची कुपोषण के कारण जन्म के बाद 20 दिन ही जीवित रही! उसकी माँ जसोदा तो उसे जन्म देते समय ही मर गई थी। मित्र ने ये घटना इस संदर्भ में लिखी कि 'महिला दिवस' पर प्रदेश की महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनीस ने करीब एक हज़ार आमंत्रितों को भोजन कराया! राजधानी के विधानसभा प्रांगण में हुए इस भोज में प्रति प्लेट कीमत थी 800 रुपए! जिस प्रदेश में पोषण आहार का बड़ा घोटाला हुआ हो! जिस प्रदेश पर एक लाख चालीस हज़ार करोड़ का क़र्ज़ हो। जहाँ पर कुपोषण के कारण सबसे ज्यादा बच्चे मरते हों, वहाँ ऐसे भोज-आयोजन के औचित्य पर सवाल उठाया गया! तय है कि मंत्री ने ये भोज अपनी जेब से नहीं करवाया होगा! ये संभव भी नहीं है! एक तरफ नेताओं की फिजूलखर्ची और दूसरी तरफ जसोदा की बेटी जैसे कई कुपोषित बच्चों की मौत?
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    सरकार अपनी सदाशयता का कितना भी ढिंढोरा पीटे, पर कुपोषण से बच्चों की मौत का जो काला टीका सरकार के माथे पर लगा है वो नहीं मिट सकता! क्योंकि, सरकार के पास अपनी नाकामी को छुपाने का कोई बहाना नहीं है। विधानसभा में भी सरकार ने स्वीकार किया कि पांच सालों में कुपोषण पर 2089 करोड़ रुपए खर्च किए गए! सवाल उठता है कि इतनी बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी प्रदेश में 42.5% बच्चे कुपोषित और 9.2% बच्चे गंभीर कुपोषित क्यों हैं। लेकिन, सरकार के पास अपना मुँह छुपाने के अलावा कोई चारा नहीं! विधानसभा में भी संबंधित मंत्री ने लालमटोल करके जवाब दिए! पर, सच पर परदा कब तक डाला जा सकेगा? जिस प्रदेश के 42.5% बच्चे कुपोषित हों और कुपोषण दूर करने के लिए बजट लगातार बढ़ रहा हो! वहां छुपाने के लिए क्या बचता है? इस पर भी यदि बिना किसी अफ़सोस के मंत्रियों के जश्न जारी हों, तो वहाँ टिप्पणी करने के लिए बचता ही क्या है? एक पुरानी कहावत है 'जब रोम जल रहा था, तो नीरो बंसी बजा रहा था!' इसी बात को फिर से दोहराने के अलावा कोई विकल्प भी तो नहीं है! कड़वा सच तो ये है कि कुपोषित बच्चों के लिए जो पैसा सरकारी खजाने से निकलता है, उससे 'किसी और' का पोषण हो रहा है। भूखे बच्चों से पोषित होने वाले कौन हैं, उनकी पहचान बताना जरुरी नहीं है! निश्चित रूप से वे लोग भी होंगे, जो अकारण लोगों को भोज देते रहते हैं!
   प्रदेश में हर साल 30 हजार से ज्यादा बच्चे सालभर में दुनिया से चले जाते हैं। ये वे बच्चे हैं, जो जन्म लेते ही कुपोषण के शिकार होते हैं। जन्म के बाद सही आहार की कमी के चलते उनकी मृत्यु हो जाती हैं। किसी भी सरकार के लिए ये अमिट कलंक है। मध्यप्रदेश देश के ऐसे राज्यों में है, जहाँ बाल मृत्युदर सर्वाधिक है। आंकड़ों के हिसाब से कहा जाए तो 70 बच्चे प्रति हजार! ये उन गरीब, पिछड़े और भुखमरी की कगार पर पहुँच चुके परिवारों के बच्चे होते हैं, जिनके घरवाले उन्हें ठीक से आहार नहीं दे पाते! करीब दस साल पहले प्रदेश में कुपोषण के कारण 29 हजार 274 बच्चों की मौत होने की पुष्टि सरकार ने विधानसभा में की थी। जबकि, देश में औसतन 6.4 प्रतिशत बच्चे ही गंभीर रूप से कुपोषित हैं। अब ये आंकड़ा उससे कहीं आगे निकल गया है।
  प्रदेश सरकार ने कभी बाल कुपोषण प्रबंधन को पारदर्शी बनाने की कोशिश नहीं की! आंकड़ों में भी बाजीगरी दिखाने की कोशिश ज्यादा की गई! पिछले साल बच्चों में कुपोषण को लेकर दो तरह के आंकड़े सामने आए थे। सरकार के जनवरी 2016 मासिक प्रतिवेदन में बताया गया था कि 17 प्रतिशत बच्चे सामान्य से कम वज़न के हैं! लेकिन, एक महीने बाद फ़रवरी में चौथे 'राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण' (एनएफएचएस-चार) का निष्कर्ष था कि प्रदेश में 42.8 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के हैं। जबकि, महिला एवं बाल विकास विभाग की रिपोर्ट ने कहा था कि जिन 71.90 लाख बच्चों का वज़न लिया उनमें से 12.23 लाख बच्चे ही सामान्य से कम वज़न के निकले! आंकड़ों में ये विरोधाभास सरकार की नीयत पर सवाल उठाता है। स्पष्ट है कि सरकार सच को छुपा रही है। वास्तव में बच्चों के सही विकास के लिए उनकी बढ़त (वज़न में बढ़ोतरी) को सुनिश्चित करना अनिवार्यता है। लेकिन, कुपोषण में कमी के दावे को सही साबित करने के लिए बच्चों की 'वृद्धि निगरानी' जैसे महत्वपूर्ण काम में भ्रष्टाचार किया गया। इसे 'निगरानी भ्रष्टाचार' भी कहा जा सकता हैं। क्योंकि, जब कुपोषित बच्चों के आंकड़े बड़े होंगे, तभी तो सरकारी खजाने से ज्यादा पैसा बाहर आएगा और उसकी बंदरबांट भी आसान होगी!  
  प्रदेश में कुपोषित बच्चों की 'वृद्धि निगरानी' की विश्वसनीयता पर कभी विश्वास नहीं किया जाता! क्योंकि, ये निगरानी पूरी तरह आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं पर टिकी होती है। जब भी सरकार कटघरे खड़ी होती है, यह कहकर बात को टाला जाता है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता इस तरह की निगरानी में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं, इस कारण कुपोषण की सही निगरानी नहीं हो पा रही! जबकि, सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। इन कार्यकर्ताओं को अफसर साफ़ कहते हैं कि कि आंगनवाड़ियों में कुपोषित बच्चों की सही संख्या सामने नहीं आना चाहिए! यदि दर्ज कुपोषित बच्चों में से किसी की मृत्यु हो गई तो इसके लिए वे ही जिम्मेदार होंगे! छोटी सी अस्थाई नौकरी में इतना बड़ा जोखिम लेने का साहस आखिर कौन करेगा! यही कारण है कि जब जिस तरह के आंकड़ों जरुरत होती है, उन्हें मैनेज कर लिया जाता है। वास्तव में ये भ्रष्टाचार ऐसा समंदर है, जहाँ कई छोटी, बड़ी मछलियां अपने-अपने हिस्से का शिकार करती रहती हैं। इसी हिस्से को कई बार भोज जश्न में तब्दील कर दिया जाता है।
   मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में कुपोषण की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है। झाबुआ, धार, आलीराजपुर, सीधी, मंडला, अनूपपुर और शहडोल जिलों में गंभीर कुपोषित बच्चों की संख्या औसतन 11% तक है। लेकिन, सरकार को इससे ज्यादा चिंता राजनीतिक यात्राओं, भाषणों और बेवजह के सेमिनारों की है। क्योंकि, ये उन गरीबों के बच्चे हैं, जो अपना पेट भरने के लिए भी दूसरे की जूठन और दया के मोहताज हैं! ये अमीरों बच्चे नहीं हैं, जिनकी मौत पर सरकार  माथे पर चिंता की लकीरें खिंचे! सरकारी अमले  तो कुपोषित बच्चों का वजन नापने के लिए पर्याप्त मशीनें भी नहीं हैं। जब सच जानने इंतजाम ही नहीं हैं, तो उन आंकड़ों पर भी कैसे भरोसा किया जाए, जो सरकार सामने लाती है?    
   जहाँ तक राजनीतिक इच्छा शक्ति की बात है, तो प्रदेश के दोनों ही प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा अपने चुनावी घोषणा पत्रों में कसम खा-खाकर प्रदेश को कुपोषण से मुक्त करने का वादा हर बार करते हैं। लेकिन, किसी से होता कुछ नहीं! इच्छा शक्ति की कमजोरी, भ्रष्ट प्रशासन और संवेदनहीनता के कारण अरबों रुपए खर्चने के बाद भी कुपोषण बरक़रार है। कुपोषित बच्चों के लिए दूध-दलिया वितरण और उससे पहले संयुक्त राष्ट्र की तरफ से पौष्टिक बिस्कुट-ब्रेड से शुरू हुआ पोषण आहार तंत्र आज अरबों की बंदरबांट चुका है। सरकार यदि गड़बड़ी करती दिख रही है, तो विपक्ष का दायित्व है कि उस पर पैनी नजर रखे और सच सामने लाए! लेकिन, इतनी ईमानदारी दोनों ही पार्टियों में नहीं है! सिक्कों की खनक में सारी ईमानदारी बेआवाज हो जाती है! आखिर गरीब बच्चों की मौत पर रोता कौन है? हर कुपोषित बच्चे की मौत बस एक आंकड़ा भर है!     
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Sunday, March 5, 2017

फ़िल्मी बोली में रंगों की दुनिया

- हेमंत पाल 
  जीवन में रंगों का अपना एक अलग ही महत्व है। रंगों के बिना जिंदगी बेरंग ही है। रंग की सिर्फ अपनी पहचान ही नहीं होती, वे उनका उपयोग उपमाएं देने के लिए भी किया जाता है। यदि बात फिल्मों की कि जाए तो नायिका की खूबसूरती का बखान करने के लिए रंगों से अच्छी शायद कोई जुबान नहीं होती! जब नायक प्रेमपाश में बांधकर नायिका की तारीफ करना शुरू करता है, तो नायिका का हर अंग रंगों में रंग जाता है। कत्थई आँखों वाली एक लड़की, ये काली-काली आँखें, नीला दुपट्टा पीला सूट, जैसे कई गीत रचे जा चुके हैं, जो रंगों की कूची से नायिका की खूबसूरती की रचना करते हैं। ये चलन सिर्फ फिल्मों तक ही सीमित नहीं है। पुराने ग्रंथों, नाटकों और कविताओं में भी रंग सदियों से छाए रहे हैं। 
  अब ज्यादातर लोकप्रिय लेखन फिल्मों के लिए होता है, इसलिए रंगों की दुनिया पूरी तरह फ़िल्मी गीतों में समा गई। अनिल कपूर ने '1942 ए लव स्टोरी' में 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' गाकर नायिका की खूबसूरती को चार दर्जन उपमाओं से सराहा तो शाहरुख़ खान ने 'डुप्लीकेट' में गाया 'कत्थई आँखों वाली एक लड़की।' 'बाजीगर' में फिर शाहरुख़ ने फिर कहा 'ये काली-काली आँखें, ये गोरे-गोरे गाल।' थोड़ा पीछे जाएँ तो राजेश खन्ना याद आते हैं, जिन्होंने 'द ट्रेन' में नंदा के लिए कहा था 'गुलाबी आँखे जो तेरी देखी शराबी ये दिल हो गया।' कई बार ऐसा भी हुआ कि नायिका ने खुद अपनी आँखों का रंग बताकर अपनी लाचारी प्रकट की। 'खुद्दार' फिल्म के गीत 'ये नीली-नीली आँखें मेरी मैं क्या करूँ' में करिश्मा कपूर की आँखों के रंग की लाचारी साफ़ नजर आती है।
   फ़िल्मी गीतों में बात सिर्फ नायिका की अंगों की व्याख्या तक ही नहीं रहती उससे आगे भी निकल जाती है। 'प्रेम नगर' में राजेश खन्ना अपनी शराब की आदत से परेशान होकर गया उठते हैं 'ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा।' कभी-कभी तो नायिका अपनी फरमाइश ही रंगों से जोड़कर करती है। 'आज का अर्जुन' में जयाप्रदा ने अमिताभ बच्चन से कहा भी था 'गोरी है कलाईयाँ तू ला दे मुझे हरी हरी चूड़ियां।' नायिका की ड्रेस के रंग भी गीतों में समाते रहे हैं। 'हमेशा' के इस गीत को याद कीजिए जिसमें सैफ अली काजोल को देखकर गाते हैं 'नीला दुपट्टा पीला सूट कहाँ चली तू दिल को लूट।' बॉबी देओल भी 'बादल' में रानी मुखर्जी को देखकर गाते हैं 'झूम-झूम के घूम-घूम के इसने सबको मारा ... ले ले सबकी जान, गरारा....लाल गरारा।' 
   रंगों का ये जादू यदि नायिका की सुंदरता ही नहीं दर्शाता, नायिका की छेड़खानी का बहाना भी बन जाता है। 'आई मिलन की रात' में काला सा काला, अरे काले हैं दिलवाले गोरियन दफा करो' याद कीजिए। 'देवदास' का भी एक गीत बहुत चर्चित है 'हमपे ये किसने हरा रंग डाला' तात्पर्य ये कि रंगों के बहाने कोई भी बात की है। लेकिन, दिल की व्यथा भी यही रंग बताते हैं। 'कोरा कागज' का गाना मेरा जीवन कोरा कागज़, कोरा ही रह गया' अपने आपमें मनःस्थिति और दिल की पीड़ा को उजागर कर देता है। लेकिन, 'आनंद' के मुकेश के गाए गाने 'मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने' में नायिका के प्रति नायक के समर्पण का पूरे भाव हैं। पर, अब ऐसे गीत कहाँ सुनाई देते हैं। 
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Friday, March 3, 2017

प्रदेश में महिला सुरक्षा के मामले में ढीला पड़ता तंत्र!

- हेमंत पाल 

   'एमपी अजब है, सबसे गज़ब है।' ये जुमला मध्यप्रदेश के विज्ञापनों में अकसर सुनाई देता है। वास्तव में एमपी अजब ही है। इस प्रदेश में बालिका जन्म को प्रोत्साहित करने से लगाकर महिला सशक्तिकरण के लिए लाडली लक्ष्मी, लाडो, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, मुख्यमंत्री साइकल योजनाएं चलाई जा रही है। युवतियों को स्वयं की सुरक्षा में सक्षम बनाने के लिए शौर्या-दल गठित किए जा रहे हैं! लेकिन, प्रदेश में महिला अपराधों को लेकर जो सच सामने आया हैं, उसने कई सवाल खड़े कर दिए! एक बार फिर मध्यप्रदेश महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित राज्यों में शामिल हो गया। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक महिलाओं के साथ दुष्कर्म के सर्वाधिक मामले मध्यप्रदेश में घटित हुए। ये लगातार दूसरा साल है जब महिलाओं के खिलाफ अपराधों में प्रदेश सबसे ऊँची पायदान पर गर्दन झुकाकर खड़ा है! इसे कानून व्यवस्था की कमजोरी समझा जाए या आधुनिक समाज का काला सच, जो भी है ये सरकार की गंभीर चिंता का विषय है। लोगों को ख़ुशी देने के लिए 'आनंद' के बहाने खोजने वाली सरकार को ये आंकड़े मुँह चिढ़ाते लग रहे हैं!   
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महिला की सुरक्षा और उनके उद्धार का दावा करने वाली मध्य प्रदेश सरकार की बात और सच्चाई में कितना फर्क है, ये सच्चाई उजागर हो गई! विधानसभा में कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत के एक सवाल के जवाब में गृहमंत्री भूपेंद्रसिंह ठाकुर का जवाब चौंकाने वाला था। गृहमंत्री के मुताबिक प्रदेश में फरवरी 2016 से जून तक 1868 महिलाएं दुष्कर्म और 108 महिलाएं सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हुई! इनमें 883 बालिग और 985 नाबालिग थीं। जुलाई 2016 से अब तक 2411 महिलाओं के साथ दुष्कर्म, 140 के साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ। इस अवधि में दुष्कर्म के 2400 और सामूहिक दुष्कर्म के 137 मामले दर्ज हुए। दुष्कर्म का शिकार बनीं महिलाओं में 611 अनुसूचित जाति की, 662 अनुसूचित जनजाति की, 750 अन्य पिछड़ा वर्ग की और 388 सामान्य की महिलाएं शामिल हैं। आश्चर्य की बात तो ये कि सरकार की तरफ से इसमें सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठाए जा रहे! ये लगातार दूसरा साल है, जब 'एनसीआरबी' की रिपोर्ट में महिला पर अपराधों  में प्रदेश सबसे ऊँची पायदान पर खड़ा है! पर ये सबसे ऊँची पायदान पीठ थपथपाने वाली नहीं, शर्म से गर्दन झुका लेने वाली बात है।   
   ये कहा जा सकता है कि महिला और बालिका हितैषी योजनाओं के कारण देश और दुनिया में पहचान बनाने वाले मध्य प्रदेश में बालिकाएं और महिलाएं देश में सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। 'एनसीआरबी' की 2015 की रिपोर्ट में भी मध्यप्रदेश में देश में सबसे ज्यादा 4391 महिलाएं दुष्कर्म का शिकार बनी थीं। तब भी सरकार ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया था! सरकार ने बचाव करते हुए कहा था कि राज्य में हर शिकायत पर रिपोर्ट दर्ज की जाती है, इसलिए संख्या ज्यादा है। प्रदेश की महिला बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनीस ने भी महिलाओं के साथ बढ़ी दुष्कर्म की घटनाओं पर चिंता जताई थी। कहा था कि प्रदेश में हर शिकायत पर प्रकरण दर्ज किया जाता है, इसलिए आंकड़े बढ़ जाते हैं। उन्होंने ये भी कहा था कि ऐसी घटनाओं में बड़ी संख्या में परिचितों व परिजनों के शामिल होने की बात भी सामने आई! इसलिए ऐसे मामले रोकने के लिए सरकार के साथ समाज को भी आगे आना होगा! लेकिन, सवाल उठता है कि इन बढ़ते आंकड़ों पर काबू पाने के लिए सरकार ने क्या कुछ किया है? यदि वास्तव में कुछ किया होता तो आंकड़े बढ़ने बजाए घटते, पर ऐसा हुआ नहीं!
   सच्चाई तो ये है कि दुष्कर्म की वारदातें घटने के बजाए बढ़ रही है! बल्कि, इसकी जघन्यता ही सामने आने लगी! अब तो छोटी बच्चियों के साथ स्कूलों में ही दुष्कर्म की वारदातें होने लगी! क्या सरकार कभी सामाजिक नजरिए से ये जानने की कोशिश की है कि महिलाओं, युवतियों और छोटी बच्चियों के साथ बढ़ते दुष्कर्म कारण क्या हैं? लोगों को नकली आनंद का अहसास कराने वाली सरकार ने कभी समाज शास्त्रियों से इसका कारण जानने की कोशिश की है? शायद नहीं की होगी, क्योंकि सरकार की नजर में ये आपराधिक प्रकरण हैं, न कि सामाजिक! स्कूलों में छेड़छाड़ और दुष्कर्म करने वालों में भी छात्र तो कम, शिक्षक ही ज्यादा हैं! बेहतर हो कि इस बीमारी का इलाज पुलिस के डंडे के बजाए समाज सुधार के तरीके से किया जाए! इसी साल फ़रवरी के महीने में भोपाल के कोलार इलाके में 3 साल की एक बच्ची के साथ स्कूल के डायरेक्टर ने दुष्कर्म किया! जबलपुर में 5 साल की एक बच्ची के साथ भी स्कूल के ही दो छात्रों ने दुष्कर्म किया। ग्वालियर में तो एसपी के रीडर पर ही एक महिला के साथ ज्यादती का आरोप लगा। बुरहानपुर जिले के एक गांव में तो चर्च के पादरी पर  ही आदिवासी महिला के साथ दुष्कर्म का मामला सामने आया। ये वो मामले हैं, जो दर्शाते हैं कि समाज किस तरफ जा रहा है और उसमें कितना और कैसा सुधार किया जाना चाहिए!
   नाबालिग बच्चियों के साथ यौन शोषण के मामले भी मध्यप्रदेश में लगातार बढ़ रहे हैं। 2015 में दर्ज हुए दुष्कर्म के 5,071 मामलों में से 605 में बाल यौन शोषण सरंक्षण अधिनियम यानी 'पोक्सो एक्ट' लगाया गया था। छोटी बच्चियों के साथ छेड़छाड़ और यौन शोषण के मामले भी प्रदेश की गलत तस्वीर पेश करते हैं। देशभर में 5 साल तक के बच्चों के साथ दुष्कर्म के 151% बढे हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक 2010 में बाल यौन शोषण के 5,484 मामले दर्ज किए गए थे, जो 2014 में बढ़कर 13,766 हो गए। इसके अलावा पोक्सो एक्ट के तहत देशभर में 8,904 मामले दर्ज किए गए! इसे कानून व्यवस्था कमजोरी का मामला माना जाए सामाजिक कुंठा का, जो भी है इसका हल तो सरकार को निकालना है!
    महिलाओं के शोषण के बढ़ते मामलों में विडंबना यह है कि जैसे-जैसे समाज के सोच में आधुनिकता आई, उसके साथ ही महिलाओं के प्रति संकीर्णता का भाव बढ़ा है। समाज की दृष्टि में महिलाएं आज भी सिर्फ औरत हैं। कथित सभ्य समाज उन्हें थोपी, गढ़ी और बुनी तथाकथित नैतिकता की परिधि से बाहर नहीं आने देना चाहता। इसी मानसिकता का नतीजा है कि महिलाओं के प्रति छेड़छाड़, बलात्कार, हिंसा, दहेज मृत्यु और यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों की संख्या में बढ़ रही है। ये स्थिति तब है, जब देश और प्रदेश में महिलाओं को अपराधों के विरुद्ध कानूनी संरक्षण प्राप्त है। भारतीय संस्कृति सृजन और संवेदना से जुडी है। इसका मूर्त रूप है औरत! कोई भी व्यक्ति, समाज या सरकार कितनी सुसंस्कृत है, इसका जवाब उसके संरक्षण में महिलाओं के साथ होने वाले व्यवहार में देखा जा सकता है। महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार हमारी सभ्यता और संस्कृति पर प्रश्नचिह्न लगाता है। नारी के प्रति अपराध, संस्कृति पर आघात है। मध्यप्रदेश में जिस तरह इन मामलों में बढ़ोतरी हो रही है, उससे हमारा साँस्कृतिक अस्तित्व ही संकट में आने लगा है। लेकिन, इसमें सुधार की दिशा कौन तय करेगा? सरकार या समाज ये सबसे अहम् सवाल है!
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ये है नए ज़माने का नया सिनेमा!

- हेमंत पाल 


  हिंदी सिनेमा ने हर दौर में रूढ़ियों को तोड़ने का काम किया है। ऐसा करने की समाज से प्रेरणा उसे समाज से मिली या सिर्फ फ़िल्मी कहानियों को आधार बनाकर परदे पर ये आभामंडल रचा गया? ये एक अलग विषय है! लेकिन, सिनेमा ने समय, काल और परिस्थितियों की नब्ज को पहचाना और अपने लिए नया दर्शक वर्ग जरूर तैयार किया है! हाल के महीनों में कुछ ऐसी फिल्में बनी, जिन्होंने समाज के पुराने ढर्रों को खंडित करके नए सोच की रचना की! फिल्मकारों की इस कोशिश में सिनेमा ने कथानक, पात्र और प्रस्तुति सभी कुछ बदलने की कोशिश में कमी नहीं की! तारीफ की बात ये कि नए ज़माने के दर्शकों ने भी सिनेमा के इस बदले स्वरुप को दिल से स्वीकार किया!
  जब ऐसी फ़िल्में बनती है तो सबसे ज्यादा ध्यान महिला केंद्रित फिल्मों की तरफ जाता है! ये सही भी है, क्योंकि फ़िल्मी कहानियों में महिलाएं ही वे पात्र होती हैं, जो समाज के सोच का प्रतीक बनकर सामने आती हैं। हाईवे, क्वीन, तनु वेड्स मनु, कहानी, अकीरा, सरबजीत, नीरजा, डीयर जिंदगी, साला खड़ूस और पिंक कुछ ऐसी ही फ़िल्में हैं, जिन्होंने परदे पर नए तरह के सिनेमा सौंदर्य को विकसित किया। इस धारणा को भी तोड़ा कि जिस तथाकथित सभ्य समाज में लड़कियों को तहजीब और सलीके की दुहाई दी जाती है, वो समाज अंदर से कितना खोखला है। वहाँ औरत को सजी-संवरी वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जाता है। नए ज़माने की फिल्मों में महिला पात्र को सिर्फ लापरवाह और मनमौजी ही नहीं दर्शाया जाता! ये सच भी सामने लाया गया कि उनमें अपने लिए कुछ करने की चाह और कूबत दोनों है।
  अब 'क्वीन' जैसी फ़िल्में भी बनने और पसंद की जाने लगी हैं। ये फिल्म औरत की आजादी और उसकी अस्मिता से जुड़े पहलुओं को समझाने की कोशिश करती है। 'क्वीन' एक सामान्य लड़की के कमजोर होने, बिखरने और फिर संभलने की कहानी है। कुछ ऐसी ही कहानी 'डियर जिंदगी' की कायरा की भी है। जो सिनेमेटोग्राफर है, पर अपने आपमें उलझी हुई! बचपन में माँ-बाप का साथ न मिलना उसे तोड़ देता है। प्यार की वो परवाह नहीं करती और संभलती भी है, तो अकेली ही! 'पिंक' की कहानी भी समाज के नए सोच का फ़िल्मी संकेत है। ये महिला प्रधान फिल्म नहीं है, बल्कि इससे कहीं आगे की बात करती है। यह सोच को अंदर तक चोट पहुंचाने के साथ मुखौटों को बेनकाब करने का काम भी करती है। 'पिंक' ने एक खास संदेश दिया है जिसे अभी तक सामने लाया नहीं गया! कोई लडकी क्या पहनती है, किस तरह से बात करती है! केवल इस आधार पर न तो किसी लडकी को न तो घूरा जा सकता है और कोई उसे या छेड़ने की इजाजत ही मिल जाती है। उसके पहनावे से ये मतलब नहीं निकाला जाए कि वो चरित्रहीन है। 'पिंक' ने एक संदेश यह भी दिया कि किसी महिला का 'ना' कहना अपने आपमें पूरा वाक्य है। ये सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि उस महिला की पूरी इच्छा दर्शाता है  ।
  दरअसल, नए सोच वाली इन फिल्मों ने स्त्री नायकत्व का कथानक रचा है। अच्छी बात ये कि पुरुष प्रधान दर्शकों ने इस बदलाव को सराहा! ऐसी फिल्मों ने कला सिनेमा की अवधारणा को ही लगभग ख़त्म कर दिया। अभी तक कला और मुख्यधारा के सिनेमा में स्पष्ट सीमा रेखा थी। अब वो कहीं नजर नहीं आती! प्रेम कहानियां हाशिये पर चली गईं और उनकी जगह सच सी लगने वाली कहानियों ने ले ली! कला फिल्मों को अभिजात्य वर्ग की फ़िल्में कहा जाता था। यदि आज के सिनेमा को मुख्यधारा का सिनेमा कहा जाता है तो वह अपने भीतर कला फिल्मों की सादगी और सौंदर्य को भी समेटे है। स्त्री पात्रों को नायक के रूप में प्रस्तुत करने वाली इन फिल्मों की स्त्रियां अपने शर्म और संकोच की कैद से निकलने लगी हैं। यही तो है, नए ज़माने का नया सिनेमा! वक़्त के साथ ये और समृद्ध होगा!
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