Monday, September 25, 2017

बॉलीवुड की बदनाम हीरोइनें

हेमंत पाल 
  परदे की दुनिया की एक अपनी कहानी है। इस दुनिया के कई सफल चरित्रों के पीछे की स्याह सच्चाई कुछ और है। ताजा मामला संजय दत्त का है, जो अंडरवर्ल्ड से दोस्ती की वजह से जेल की सजा भुगतने के बाद फिर परदे पर लौटे हैं। एक और मामला दाऊद इब्राहिम की बहन हसीना पारकर पर बनी फिल्म को लेकर भी है। इसके बारे में कहा जा रहा है कि ये फिल्म दाऊद के पैसे से बनी है। बॉलीवुड और अंडरवर्ल्ड के बीच रिश्ते नए नहीं हैं। बॉलीवुड के कई कलाकारों का अंडरवर्ल्ड से कनेक्शन रहा है। बॉलीवुड की कुछ नायिकाओं के नाम तो रोमांस की वजह से अंडरवर्ल्ड से जुड़े। कुछ नायिकाओं के रिश्ते तो अंडरवर्ल्ड के बदनाम लोगों से इस हद तक रहे कि उन्हें अपना कैरियर तक छोड़ना पड़ा। कुछ नायिकाएं तो आज भी गुमनामी में हैं। 
Mandakini with Daud
  इस लिस्ट में पहला नाम सोना का लिया जा सकता है। दूसरी या तीसरी श्रेणी की ये एक्ट्रेस को अपने ज़माने की खूबसूरत नायिका मधुबाला की हमशक्ल कहा जाता था। सोना ने मुंबई के अंडर वर्ल्ड डॉन हाजी मस्तान से शादी कर ली थी। कहा जाता है कि हाजी मस्तान ने सोना से सिर्फ इसलिए शादी की थी कि उसकी सूरत मधुबाला जैसी लगती थी। सोना पर एक फिल्म भी बनी थी। 
  दाऊद से कई लड़कियाँ के नाम जुड़े, पर सबसे ज़्यादा नाम सुर्खियों में रहा बॉलीवुड एक्ट्रेस मंदाकिनी का। 1984 में राज कपूर ने अपने छोटे बेटे राजीव कपूर को 'राम तेरी गंगा मैली' से लॉन्च किया था, तब उन्होंने इस नीली आंखों वाली यास्मीन को चुना था। राज कपूर ने ही यास्मीन जोज़ेफ़ को मंदाकिनी नाम दिया। मंदाकिनी की इंडस्ट्री में धमाकेदार एंट्री हुई। 1985 में रिलीज़ हुई 'राम तेरी गंगा मैली' ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए थे। हर फिल्मी मैगज़ीन पर मंदाकिनी और झरने वाल सीन का ही शोर था! कहते हैं कि दाऊद इब्राहीम ने भी सबसे पहले मंदाकिनी की तस्वीरें एक फिल्म मैगज़ीन में देखी थीं। फिर एक पार्टी में उसने मंदाकिनी को देखा था। दोनों के बीच दोस्ती हुई जो बढ़ती चली गई। कुछ फ्लॉप फिल्मों के बाद मंदाकिनी परदे से गायब हो गई! बाद में कई किस्से सामने आते रहे और इसी बीच मंदाकिनी के बेंगलौर में बसे होने की खबर भी सामने आई। दाऊद से उसका रिश्ता भी खत्म हो गया और अब मंदाकिनी फिल्मी दुनिया की चमक-दमक से दूर मुंबई में अपने पति के साथ रहती हैं और तिब्बती योग सिखाती हैं। 
Monika Bedi & Abu Salem
  ममता कुलकर्णी भी एक ऐसा ही नाम है जिसे बोल्ड एक्ट्रेस के रुप में पहचान मिली। लेकिन, उनकी फिल्में कोई कमाल नहीं कर पाई। दाऊद के दुश्मन माने जाने वाले डॉन छोटा राजन से रिश्तों की खबर ने जरूर सुर्खियां बटोरी। कहा जाता है कि राजन की वजह से उसे बड़ी फ़िल्में मिली थी। बाद में ममता ने माफिया विक्रम गोस्वामी से शादी कर ली। फिलहाल तस्करी के एक मामले ममता का भी नाम लिया जा रहा है। मोनिका बेदी और डॉन अबु सलेम की जोड़ी के भी कई किस्से मशहूर हैं। दोनों ने औपचारिक रूप से शादी तो नहीं की, पर लिव इन रिलेशनशिप में रहते थे। इन दोनों को गिरफ्तार भी किया गया था। मोनिका को अबु सलेम के दबाव से कई फिल्में भी मिली थी। 
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Saturday, September 23, 2017

मध्यप्रदेश के चुनावी दंगल में इस बार भी दो ही दल!

- हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश की राजनीति में बरसों से दो ही पार्टियों के बीच चुनावी मुकाबला होता रहा है। यहाँ कभी क्षैत्रीय पार्टी या तीसरे मोर्चा के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। पिछले करीब दो दशकों में कोई ग़ैर-कांग्रेसी या ग़ैर-भाजपा पार्टियां मिलकर भी कभी 20 से ज़्यादा सीटें नहीं ला पाई! जबकि, पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में कई ताकतवर क्षैत्रीय पार्टियों के कारण कई बार साझा सरकारें बन चुकी हैं! मध्यप्रदेश में कोई क्षेत्रीय पार्टी क्यों नहीं पनप सकी, इसका कारण यहाँ क्षेत्रीय पार्टियों की कमान किसी भरोसेमंद और अलग पहचान रखने वाले नेता के हाथ में न होना! इसके अलावा भौगोलिक स्थिति के साथ जातिगत समीकरणों को भी एक बड़ा कारण माना जा सकता है। जबकि, यहाँ 70 के दशक में संविद सरकार जैसा असफल प्रयोग हो चुका है। अभी भी ऐसे कोई आसार नजर नहीं आते, कि मध्यप्रदेश में किसी क्षैत्रीय पार्टी को अपना प्रभाव दिखाने और सरकार बनाने का मौका मिल सकता है! 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी लगता नहीं कि भाजपा और कांग्रेस के अलावा की और पार्टी अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराने में सफल होगी। 

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    मध्यप्रदेश में सत्ता की चाभी हमेशा ही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के इर्दगिर्द ही घूमती रही है। 1956 के बाद पहली बार सत्ता कांग्रेस के हाथ से आपातकाल के बाद 1977 में फिसली थी! 2003 से पहले तक राज्य में गैर-कांग्रेसी सरकारें तो बनीं, पर पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई! 2003 में सत्ता में आई भाजपा ने न केवल पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, बल्कि लगातार दूसरी बार सत्ता में भी आई! प्रदेश में 1993 तक भाजपा के साथ गैर-कांग्रेसी दलों में जनता पार्टी व जनता दल का प्रभाव रहा है। उसके बाद भाजपा को छोड़कर बाकी गैर-कांग्रेसी दलों खासकर समाजवादी विचारधारा के दलों में ज्यादा ही टूट हुई! इसलिए कि समाजवादियों ने सत्ता का सुख पाने के लिए कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा का दामन थाम लिया।
   प्रदेश में कोई तीसरी पार्टी मतदाताओं के दिल में अपनी पैठ क्यों नहीं बना सकी? इस सवाल का एक जवाब ये भी माना जा सकता है कि जब भी कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी क्षेत्रीय पार्टी ने अपनी पहचान बनाने की कोशिश की, पार्टी की कमान किसी ऐसे नेता के हाथ में रही जिसकी प्रदेश स्तर पर कोई अलग पहचान नहीं थी! बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की कमान जिसे भी दी गई, उन्हें अपने इलाके से बाहर कोई जानता भी नहीं था! उमा भारती जरूर अकेली ऐसी नेता थी, जिसने 'भारतीय जनशक्ति पार्टी' अपने दम पर खड़ी की थी। लेकिन, उसके पीछे भाजपा को नुकसान पहुँचाना पहला मकसद था, न कि तीसरी ताकत बनने की कोई मंशा थी! अपनी पहचान को आधार बनाकर क्षेत्रीय राजनीतिक ताकत बनने का जो काम दक्षिणी राज्यों हुआ है, ऐसा कहीं और नहीं! करूणानिधि, जयललिता, एमजी रामचंद्रन, चिरंजीवी जैसे नेताओं के पीछे अपनी फ़िल्मी इमेज थी! इन लोगों ने अपने फैन्स को वोटरों में बदल देने का चमत्कार किया! उत्तरप्रदेश में यही काम मुलायमसिंह यादव और मायावती ने जातीय नेता बनकर किया! ठाकुरों और ब्राह्मणों को अपना दम दिखाने के लिए मुलायमसिंह यादव ने ओबीसी और मायावती ने निचली जातियों को समेटकर सत्ता पर कब्ज़ा किया! जबकि, मध्यप्रदेश में कहीं कोई संभावना नजर नहीं आती!
    मध्यप्रदेश में समाजवादी विचारधारा के अलावा और दलित वर्ग का वोट बैंक भी है! इस बात को ध्यान में रखकर ही आपातकाल के दौरान मध्यप्रदेश में समाजवादी विचारधारा के झंडाबरदार और जबलपुर से सांसद रह चुके जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने समाजवादियों को जोड़ने की मुहिम तेज की थी! लेकिन, बाद में उनकी कोशिश भी कामयाब नहीं हुई! क्योंकि, प्रदेश में समाजवादी तो है, किंतु उनके पास सक्षम नेतृत्व की कमी है! वहीं, कांग्रेस व भाजपा के अलावा अन्य किसी पार्टी के पास न तो असरदार संगठन है न मुखिया! प्रदेश में समाजवादियों की हालत पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने 320 विधानसभा सीटों (तब छत्तीसगढ़ अलग नहीं हुआ था) में से 230 पर कब्जा जमाया था! इनमें जीतने वाले लगभग 100 समाजवादी थे। उसके बाद 1980 व 85 के चुनाव गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने अलग-अलग झंडे थामकर चुनाव लड़ा तथा सत्ता कांग्रेस के हाथ में पहुंच गई। फिर इन पार्टियों ने 1990 में मिलकर चुनाव लड़ा व सत्ता हांसिल कर ली। इस चुनाव में जनता दल ने 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
  उत्तर प्रदेश में अपने जातीय समीकरणों के कारण राजनीतिक ताकत बनकर उभरी 'बहुजन समाज पार्टी' ने मध्यप्रदेश में तीसरी ताकत के रूप में लोकसभा सीट जीतकर अपना खाता 1991 में एक सामान्य सीट से खोला! बसपा के भीम सिंह ने रीवा से कांग्रेस और भाजपा उम्मीदवारों को हराकर लोकसभा में दाख़िला लिया था। इस प्रदर्शन में इज़ाफ़ा करते हुए 1996 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने मध्यप्रदेश से दो सीटें जीत ली थीं। रीवा से बुद्धसेन पटेल ने चुनाव जीता, जबकि सतना से बसपा के सुखलाल कुशवाहा ने बाज़ी मारी। सुखलाल कुशवाहा के प्रदर्शन को इसलिए भी याद किया जाता है, क्योंकि हारने वालों में प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस के क़द्दावर नेता अर्जुन सिंह और भाजपा के वीरेंद्र कुमार सकलेचा शामिल थे। इसके बाद बसपा ने प्रदेश में जनाधार बढ़ाने की कोशिशें की! इस दौरान बसपा पर यह आरोप भी लगा कि उसने कांग्रेस और भाजपा दोनों से सौदेबाजी करके कई स्थानों पर उम्मीदवार तक नहीं लड़ाए। इसके बाद भी बसपा का असर कम नहीं हुआ!
   इसके बाद उम्मीद की जाने लगी थी कि भविष्य के चुनाव में बुंदेलखंड और विंध्य प्रदेश की कुछ सीटों पर बसपा उम्मीदवार अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहेंगे! दलित मतदाता तो पार्टी से तो प्रभावित थे, लेकिन असरदार प्रत्याशी न होने से बड़ा चमत्कार नहीं हो सका! 2008 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 14. 05 प्रतिशत वोट के साथ 7 सीटें जीती थी! मूलतः उत्तरप्रदेश से उभरी ये पार्टी मध्यप्रदेश के सीमावर्ती इलाके में अपना असर जरूर रखती है! लेकिन, पार्टी का ग्राफ अपने गृह प्रदेश में ही लगातार गिरता गया! उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी से हारने के बाद मायावती की इस पार्टी का आधार कमजोर हुआ है। पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा को 20% वोट तो मिले पर उसका एक भी उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब नहीं हुआ!
    बसपा ने मध्यप्रदेश में भी उत्तरप्रदेश की तर्ज पर जातीय समीकरणों की 'सामाजिक समरसता' की मुहिम चलाई थी। उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे इलाकों बघेलखंड, बुंदेलखंड और चंबल इलाके में मायावती का असर भी रहा है। इन इलाकों के अगड़े तबकों के नेता लंबे समय तक मायावती की चौखट पर हाजिरी बजाते रहे हैं। लेकिन, कभी लगा नहीं कि मायावती की बसपा मध्यप्रदेश में कोई राजनीतिक चमत्कार कर सकती है। मुलायमसिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने भी एक बार 8 विधानसभा सीटें जीतकर सदन में तीसरे नंबर पर थी। लेकिन, जल्दी ही उसके चार विधायक पार्टी छोड़ गए हैं। समाजवादी पार्टी का 'यादव फार्मूला' जो उत्तरप्रदेश में कामयाब रहा, वो मध्यप्रदेश में नहीं चल सकता! इसका कारण ये भी है की अभी मध्यप्रदेश में जातिवादी राजनीति का जहर लोगों के दिमाग तक नहीं चढ़ा है। आदिवासियों के नाम पर बनी 'गोंडवाना गणतंत्र पार्टी' भी कमाल नहीं कर सकी! जबकि, आरक्षण विरोध लेकर बनी 'समानता दल' भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करके गायब हो गई।
  2003 में भाजपा को आसमान फाड़ बहुमत से सत्ता में लाने वाली उमा भारती भी क्षैत्रीय पार्टी बनाकर अपनी जातिवादी ताकत दिखाने का एक असफल प्रयोग कर चुकी है। उमा भारती ने 2008 में भारतीय जनशक्ति पार्टी (भाजश) बनाकर भाजपा को चुनौती दी थी! लोधी समाज की नेता होने के नाते उन्होंने असर भी दिखाया, पर वे भाजपा को अपनी जड़ों से हिलाने में सफल नहीं हो सकीं! प्रदेश की 89 सीटों पर लोधी समाज का असर है। उस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी रामकृष्ण कुसमारिया, जंयत मलैया, बृजेन्द्रसिंह, हरिशंकर खटीक, मुश्किल से अपनी सीट बचा सके थे। चंदला क्षेत्र से तो भाजपा के एक पूर्व मंत्री मात्र 958 मतों से जीते थे। इसी तरह टीकमगढ़, बड़ामलहरा और राजनगर में भाजपा प्रत्याशियों की जमानत जब्त होने का कारण भाजश प्रत्याशी ही थे। हालांकि, उमा भारती को भी टीकमगढ़ से हार का मुंह देखना पड़ा था। उमा की भाजश ने बड़ामलहरा, खरगापुर में जीत हांसिल की, वहीं टीकमगढ, जतारा, चंदला में उसके प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे। इसी तरह बंडा, महाराजपुर में भाजपा की हार का कारण भी भाजश को माना गया। सागर संभाग में भाजश को 12.37 प्रतिशत मत मिले थे, जिसमें छतरपुर जिले में 14.09, दमोह में 6.65, पन्ना में 18.24, सागर में 9.30 एवं टीकमगढ़ जिले में 16.66 प्रतिशत मिले थे।
  लोधी समाज की संख्या के आधार पर इनके चुनावी समीकरणों को उलटफेर करने के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो मध्यप्रदेश में 89 विधानसभा क्षेत्रों पर इस समाज का असर है। लोधी समाज के प्रदेश में करीब 80 लाख मतदाता हैं। बालाघाट में सर्वाधिक संख्या लेाधी समाज की है, जो चुनावी हार-जीत में महत्वपूर्ण होते हैं। बुंदेलखंड की अधिकांश सीटों पर भी इस समाज का खास असर है। समाज की इस ताकत के बावजूद उमा भारती की मध्यप्रदेश में क्षैत्रीय पार्टी बनाकर राज करने की रणनीति कामयाब नहीं हो पाई! इस बार लगा था कि 'आम आदमी पार्टी' कुछ कमाल करेगी, पर ऐसा नहीं होता दिखाई देता। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी उत्तरप्रदेश में अपनी खस्ता हालत होने के बाद मध्यप्रदेश में कहीं जोरदार ढंग से दिखाई देंगी, ऐसी कोई उम्मीद नहीं है।  
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Tuesday, September 19, 2017

परदे पर तवायफों का भी एक दौर था!

- हेमंत पाल

   हाल के सालों में सिनेमा में जो बड़े बदलाव हुए हैं, उनमें एक है परदे से तवायफों का गायब होना। याद किया जाए तो बीते कई सालों में दर्शकों ने किसी फिल्म में तवायफ को नहीं देखा होगा। शायद इसलिए कि पिछले कुछ सालों से नवाबों और मध्यकालीन भारत से जुड़ी फिल्में नहीं बनी। संजय लीला भंसाली ने कुछ साल पहले 'देवदास' की कहानी को फिर दोहराकर तवायफ के किरदार को जरूर जिन्दा किया था। इसे 'पाकीजा' में तवायफ बनी मीना कुमारी और 'उमराव जान' में तवायफ का दर्द बयान करने वाली रेखा के बाद की एक कड़ी भी माना गया। 'देवदास' की तवायफ यानी चन्द्रमुखी बनी माधुरी दीक्षित के अभिनय व सौंदर्य को देखकर कहा जा सकता है कि सिनेमा की बहुचर्चित तवायफों के किरदार में मीना कुमारी और रेखा के बाद माधुरी दीक्षित का ही नाम लिया जाएगा। 

  सिनेमा में ब्लैक एंड व्हाइट के जमाने से तवायफों को एक ग्लैमरस किरदार के रूप में देखा जाता रहा है। हर दौर में तवायफों को अलग-अलग नजरिए से पेश किया जाता रहा। लेकिन, जिस संजीदगी से 'पाकीजा' और 'उमराव जान' में तवायफ की जिंदगी की परतें खोली गई, वह अपने आपमें मिसाल है। यही कारण है कि इन दोनों फिल्मों को सिनेमा इतिहास की अमर कृतियां माना जाता हैं। 'पाकीजा' में मां-बेटी के किरदार को निभाने वाली मीना कुमारी और 'उमराव जान' बनी रेखा के फिल्मी जीवन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म होने का सम्मान इन दोनों फिल्मों ने ही हांसिल किया। 
  ब्लैक एंड व्हाइट के समयकाल में कई तवायफों ने ही फिल्मों में अभिनेत्री की कमी पूरी की थी। इसलिए बाद के दौर की अभिनेत्रियों द्वारा पर्दे पर तवायफ की भूमिका साकार करना कोई अहम बात नहीं थी। लेकिन, आजादी के बाद जन्म हुआ एक नए सिनेमा का, जिसमें फिल्मों से जुड़े लोगों ने न सिर्फ शोहरत और लोकप्रियता का स्वाद चखना शुरू किया, बल्कि उनके अभिनय को सामाजिक तौर पर सम्मानित भी किया जाने लगा। लेकिन, समस्या यह थी कि कई अभिनेत्रियां परदे पर तवायफ की भूमिका निभाने से कतराती थीं। फिर भी नरगिस और मधुबाला जैसी सफल अभिनेत्रियों ने किसी भी भूमिका के साथ पक्षपात न करने की अच्छी मिसाल पेश की। 
  देखा जाए तो सही मायने में पाकीजा पहली ऐसी फिल्म थी जिसमें दर्शकों ने तवायफ के हुस्न के पीछे छुपी तड़प, प्रेम और समर्पण भाव से परिचित करवाया। इस फिल्म में निर्देशक कमाल अमरोही ने तवायफ का घृणित सामाजिक जीवन जीने को विवश औरतों की समस्याओं का समाधान खोजने का भी प्रयास किया था। फिल्म की सफलता में यदि निर्देशक की सही पकड़ , भव्य सैट और मधुर संगीत की अहम भूमिका रही तो इसमें कोई दो राय नहीं कि मीना के अभिनय का सम्मोहन भी दर्शकों को बार-बार सिनेमा घर तक खींच लाया। 
  इसके बाद उर्दू कथाकार रुसवा के उपन्यास 'उमराव जान' से प्रेरित होकर मुजफ्फर अली ने इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया। फिल्म में तवायफ की भूमिका निभाने वाली रेखा ने इसके अलावा मुकद्दर का सिकंदर, प्यार की जीत, उत्सव, दीदार-ए-यार और जाल जैसी फिल्मों में भी तवायफ की भूमिका निभाई। लेकिन, उमराव जान के किरदार में रेखा के अभिनय ने जो जौहर दिखाए उस करिश्मे के फिर दोहराने में रेखा भी सफल नहीं हो सकीय। इस फिल्म के लिए रेखा को सर्वश्रष्ठ अभिनेत्री के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। लेकिन, आज परदे की दुनिया से तवायफ हाशिए पर है। लगता नहीं कि अब कोई फिल्मकार संजय लीला भंसाली की तरह तवायफ की जिंदगी पर फिल्म बनाने का साहस कर पाएगा। 
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Friday, September 15, 2017

पकी उम्र में बुजुर्ग भाजपा नेताओं की बहारें फिर लौटेंगी?



हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश में भाजपा संगठन के सामने नई मुसीबत है 75 पार वाले नेताओं को चुनाव न लड़ने के लिए समझाना। क्योंकि, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने बुजुर्ग नेताओं को चुनाव से अयोग्य ठहराए जाने की संभावना इंकार किया है। इसके बाद बाबूलाल गौर ने तो खुला एलान कर दिया कि वे अगला विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। इसके अलावा सरताज सिंह और राघवजी के भी चुनाव मैदान में उतरने के संकेत हैं। राघवजी यौन शोषण के आरोपी होने के कारण भाजपा से निष्काषित हैं। ख़ास बात यह कि ये सभी अपने दम पर चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार हैं। गौर ने तो ये भी कहा कि सभी को टिकट देना पार्टी की मजबूरी है। लेकिन, अभी ये यक्ष प्रश्न है कि पार्टी का अंतिम फैसला क्या होगा! क्योंकि, भले 75 साल की उम्र वाले नेताओं को चुनाव लड़ने से पार्टी नहीं रोके, पर किसे टिकट देना है और किसे नहीं, ये तो पार्टी को ही तय करना है।   
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  भाजपा संगठन के बारे में कहा जाता है कि इनके नियम-कायदे सुविधाजनक स्थितियों को देखकर बनाए और बदले जाते हैं। ये फार्मूला केंद्र से राज्यों तक अपनाया जाता है। 75 पार के नेताओं को राजनीतिक वानप्रस्थ आश्रम भेजने का फार्मूला भी कुछ ऐसा ही है। केंद्र सरकार से पिछले साल दो बुजुर्ग नेताओं नजमा हेपतुल्ला और जीएम सिद्धेश्वरा को इसी फॉर्मूले के तहत  हटाया था। हेपतुल्ला के पास अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय का काम था और सिद्धेश्वरा भारी उद्योग मंत्रालय से जुड़े थे। जबकि, मध्यप्रदेश से बाबूलाल गौर और सरताज सिंह की छुट्टी हुई थी। एक महिला मंत्री कुसुम मेहदेले को भी जाना था, पर वे कुछ साल देर से जन्मी थीं, इसलिए बच गईं। तब से उन भाजपा नेताओं की गिनती की जाने लगी थी, जो अपनी उम्र की प्लैटिनम जुबली मनाने के नजदीक हैं। ये नेता जहाँ से जीतते आए हैं, वहां उनका विकल्प भी ढूंढा जाने लगा। लेकिन, अचानक हालात बदल गए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के एक बयान से पूरे मामले में नया पेंच आ गया। 
  अपनी भोपाल यात्रा के दौरान भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने स्पष्ट किया था कि पार्टी में 75 साल की उम्र पार करने वाले नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक नहीं है। पार्टी अध्यक्ष का ये बयान से सालभर पहले के फॉर्मूले के बिल्कुल उलट है। इस फॉर्मूले ने मध्यप्रदेश की सियासत में पिछले साल भारी हलचल मचाई थी। लेकिन, बदली परिस्थितियों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की मुसीबत बढ़ गई है। शिवराज सिंह मंत्रिमंडल से जून, 2016 में दो मंत्री बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को 75 साल की उम्र पूरी होने पर हटाए गए थे। उनसे कहा गया था कि ये पार्टी हाईकमान का निर्देश है। लेकिन, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के मुताबिक पार्टी ने न तो ऐसा नियम बनाया है और न ऐसी कोई परंपरा कि 75 की उम्र पार कर चुके नेताओं को चुनाव लड़ने से रोका जाएगा। आशय साफ़ है कि इस उम्र के बुजुर्ग नेता भी चुनाव मैदान में उतर सकते हैं। 
  अमित शाह के इस बयान के बाद से बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को हटाने के फैसले पर सवाल उठाने लगे हैं! कहा जा रहा है कि क्या इन दोनों से झूठ बोलकर इस्तीफ़ा लिया गया था? लेकिन, गौर के हाल के बयान ने चिंगारी को फिर भड़का दिया। उन्होंने खुद के अलावा सरताज सिंह के भी विधानसभा चुनाव लड़ने के संकेत दे दिए। पार्टी से निष्कासित राघवजी और लक्ष्मीकांत शर्मा को लेकर भी उनका बयान सरकार और पार्टी को परेशान करने वाला ही माना जाएगा। गौर ने फिर इस बात को दोहराया कि वे शारीरिक रूप से पूरी तरह फिट हैं। पार्टी अध्यक्ष ने भी साफ़ कर दिया कि 75 साल से ऊपर के लोगों के चुनाव न लड़ाने की कोई योजना नहीं है। सरताज सिंह ने भी कहा है कि शाह के बयान ने सारे भ्रम दूर कर दिए। अब इस सवाल का जवाब माँगा जा रहा है कि इन दोनों नेताओं से आखिर इस्तीफ़ा क्यों लिया गया? विवादस्पद बयानबाजी के विख्यात प्रदेश के पार्टी के अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने पल्ला झाड़ते हुए तत्काल कहा था कि जिसे जो कहना है, वह राष्ट्रीय अध्यक्ष के सामने बात रखें।
  प्रदेश भाजपाध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने पिछले साल कहा था कि अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी की उम्र को लेकर बनाई गई गाइड लाइन को सख्ती से लागू किया जाएगा। उनका ये बयान तब आया था जब बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को मंत्रिमंडल से हटाया गया था। उन्होंने ये भी कहा था कि पार्टी के ऐसे नेता, जिनकी उम्र 75 साल पूरी हो चुकी है, उन्हें टिकट नहीं मिल पाएगा। उनके इस बयान से लगने लगा था कि इस स्थिति में पार्टी के मौजूदा नेताओं में से आधा दर्जन से ज्यादा नेताओं को राजनीतिक वानप्रस्थ की और गमन करना पड़ेगा। लेकिन, जितनी तेजी से हालात बदले हैं चक्र उल्टा घूमता नजर आ रहा है। 
 पार्टी की रीति-नीति से इत्तफाक न रखने वाले भाजपा के कुछ नेता दबी जुबान से कहते कि पार्टी में कोई नैतिकता नहीं है। यहाँ नियम इसलिए गढ़े जाते हैं कि किसे साइड लाइन करना है और किसे लाइन में आगे लाना है। जब गौर और सरताज को मंत्रिमंडल से हटाना था तो 75 साल वाला फार्मूला ले आए। लेकिन, प्रदेश की राजनीति में बाबूलाल गौर और सरताज सिंह  कार्यकर्ताओं में सम्मान आज भी बरकरार है। उन्हें पद से जबरन हटाने का भी विरोध हुआ था। अब जबकि, दोनों चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं, उनके बयान का स्वागत भी हुआ! दोनों नेताओं ने जो सवाल किए उसके जवाब में उनसे संगठन ने कहा कि ये हाईकमान का फैसला है। अब, जबकि पार्टी अध्यक्ष के फैसले से स्थिति स्पष्ट हो गई इन दोनों नेताओं ने चुनाव के लिए कमर कस ली है। हो सकता है प्रदेश अध्यक्ष को इस सवाल का जवाब देना पड़े कि इन दोनों को किसके निर्देश पर हटाया गया था। 
   यदि वास्तव में 75 साल वाला फार्मूला गंभीरता से लागू होता तो कुसुम मेहदेले के अलावा कैलाश जोशी, रुस्तम सिंह को भी चुनावी राजनीति से बाहर होना पड़ेगा। मेहदेले इस चुनाव के दौरान 75 साल की उम्र पूरी कर लेंगी। बाबूलाल गौर और सरताज सिंह तो चुनाव लडऩे के लिए योग्य माने ही नहीं जाएंगे। कैलाश जोशी के लिए भी संभावनाएं लगभग खत्म ही हो जाएंगी। रुस्तम सिंह विधानसभा चुनाव के दौरान 73 वें साल में रहेंगे। यदि उन्हें चुनाव का टिकट मिलता भी है तो सरकार बनने और मंत्री बनने की स्थिति में उन्हें बीच कार्यकाल से हटाया जा सकता है। लेकिन, अमित शाह ने जो बयान दिया उससे लगता है कि पार्टी चुनाव जीतने के लिए पार्टी के अंदर कोई असंतोष पैदा होने देना नहीं चाहती। इसीलिए 75 पार वाले नेताओं को चुनाव से अयोग्य घोषित किए जाने के फॉर्मूले से पार्टी दो कदम पीछे हटी है। अब ये अनुमान लगाया जा सकता है कि अगले साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में बाबूलाल गौर समेत सभी पकी उम्र के नेता लाठी टेकते हुए वोट की अपील करते नजर आएंगे। यानी उन पेड़ों में फिर से हरियाली लौटेगी, जो सूखकर गिरने वाले थे!
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Sunday, September 10, 2017

बड़ी फिल्मों के लिए दुःखदाई साल!

- हेमंत पाल 

  जब साल शुरू होता है तो बॉलीवुड के फिल्मकार और कलाकार कामना करते हैं कि नया साल बहुत अच्छा बीते! उनकी जो भी फ़िल्में रिलीज हो वो अच्छा कारोबार करे। लेकिन, हर फिल्म तो हिट होती नहीं। सालभर में करीब साढ़े तीन सौ से चार सौ हिंदी फ़िल्में बनती है पर आधी तो परदे का मुँह भी नहीं देख पाती। साल के 8 महीने निकल गए। रिलीज हुई फिल्मों पर नजर दौड़ाएं, तो बहुत ज्यादा आशा नहीं बंधती! चंद फिल्मों को छोड़ दें, तो अधिकांश फ़िल्में दर्शकों को लुभा नहीं सकी। जो फ़िल्में चलीं तो उन्होंने कमाई के रिकॉर्ड ही तोड़ दिए। इस नजरिए से या तो फ़िल्में सुपर हिट रही या सुपर फ्लॉप!
  'बाहुबली-2' के अलावा भी कुछ ऐसी फ़िल्में हैं जिन्होंने कमाई करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! रितिक रोशन की फिल्म 'काबिल' को साल की बड़ी हिट में गिना जा सकता है। कलेक्शन में भले ही ये फिल्म शाहरूख खान की 'रईस' से पीछे हो, लेकिन मुनाफे के मामले में 'रईस' से काफी आगे निकली। अक्षय कुमार की 'जॉली एलएलबी-2' भी हिट फिल्मों में से एक है। लेकिन, इन सबके के बीच कुछ फ़िल्में ऐसी रही जिन्होंने दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया है। इनमें है इरफान खान की 'हिंदी मीडियम' भी है। फिल्म का विषय लोगों को कितना पसंद आया! मुनाफे के मामले में भी 'हिंदी मीडियम' 2017 की सुपरहिट फिल्मों में शामिल है। टॉयलेट एक प्रेमकथा, बरेली की बरफी, शुभ मंगल सावधान को भी उन फिल्मों में शामिल किया जा सकता है, जिन्हें दर्शकों ने सराहा।  
 इस साल को दरअसल बड़ी फिल्मों के फ्लॉप होने के लिए याद किया जा सकता है। साल के 8 महीने बीत चुके हैं, पर बड़ी फिल्मों के हिट होने का दौर ही नजर नहीं आया। रईस, काबिल और बाहुबली-2 जैसी गिनी चुनी फ़िल्में रही, जो बड़े बजट की होने के बावजूद हिट हुई! जबकि, रंगून, राब्ता, सरकार-3, मशीन, मेरी प्यारी बिंदू, हैरी मेट सेजल, जग्गा जासूस, मेरी प्यारी बिंदू और ट्यूबलाइट जैसी बड़े बजट की फिल्मों ने पानी तक नहीं माँगा! इस साल अब्बास मुस्तान की फिल्म 'मशीन' को भी बड़ी फ्लॉप में रही।
 फिल्मों के बिजनेस को परखने के लिए बॉलीवुड में सामान्य तौर पर छ: मापदंड हैं। एवरेज, हिट, सुपरहिट, ब्लॉकबस्टर, फ्लॉप और डिजास्टर यानी सुपर फ्लॉप। डिजास्टर से आशय है कि फिल्म के निर्माता-निर्देशक और जुड़े अन्य लोगों पर आपदा जैसा पहाड़ टूटता है। बीते वक़्त में राज कपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर', सतीश कौशिक के निर्देशन में बनी 'रूप की रानी चोरों का राजा', शाहरुख़ खान और करीना कपूर की फिल्म 'अशोका' के अलावा हाल ही में कबीर खान की फिल्म 'ट्यूबलाइट' को इसी श्रेणी में माना जाता है। इस साल की बात की जाए तो ईद पर हमेशा हिट देने वाले सलमान खान को बार इस बार दर्शकों ने 'ट्यूबलाइट' के लिए ईदी नकार दिया। शाहरुख़ खान भी 'हैरी मेट सेजल' में पिटा गए।
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Friday, September 8, 2017

मतभेदों शिखर पर डोलती इंदौर की राजनीति!

- हेमंत पाल

   राजनीति और मतभेद का चोली-दामन का साथ है। बिना मतभेद न कभी किसी की राजनीति चली है न चलेगी! इंदौर भी उससे अलहदा नहीं है। यहाँ भी कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में आंतरिक एकता और सामंजस्य का भारी अभाव है। ये स्थिति पार्टी तक सीमित रहती तो ठीक था, पर ये मतभेद धीरे-धीरे मनभेद की शक्ल में सड़क पर दिखाई देने लगते हैं। सत्ता में बैठी भाजपा के नेताओं में मतभेदों की अपनी मज़बूरी है, पर विपक्षी पार्टी कांग्रेस में एकता की बहुत जरुरत है। फिर भी इन नेताओं में न तो आपसी सामंजस्य है और न इस बात की कोई संभावना ही नजर आ रही! भाजपा के नेताओं में मतभेद होने का सबसे बड़ा कारण अपना वर्चस्व बनाए रखना है। जिस तरह कांग्रेस गुटबाजी का दर्द झेल रही है, वही पीड़ा भाजपा में भी है। फर्क सिर्फ इतना कि कांग्रेस के विवाद जल्दी सड़क पर आ जाते हैं, जबकि भाजपा नेताओं की तनातनी की ख़बरें देर से रिसकर बाहर आती है। इंदौर की राजनीति का असर दूरगामी होता है इसलिए इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।  
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    इंदौर में 'ताई' यानी सांसद सुमित्रा महाजन और 'भाई' यानी कैलाश विजयवर्गीय के बीच तनातनी के किस्से बहुत पुराने हैं। ऐसे कई प्रसंग हैं, जब इन दोनों के बीच राजनीतिक छापामारी की जंग चली। ये जंग अभी बंद नहीं हुई, जो चल रहा है उसे युद्धविराम माना जा सकता है। लेकिन, अब इंदौर की भाजपा राजनीति में गुटबाजी और मतभेदों की नई कथा का वाचन होने लगा। इस कथा के प्रमुख पात्र हैं सांसद सुमित्रा महाजन और महापौर मालिनी गौड़! राजनीतिक अनुभव में क्षेत्र क्रमांक 4 की विधायक और इंदौर नगर निगम की महापौर मालिनी गौड़ और सांसद सुमित्रा महाजन में कोई साम्य नहीं है। लगातार 8 बार की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष महाजन उस कुर्सी पर हैं, जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी उन्हें सम्मान देना पड़ता है। लेकिन, स्वच्छता के मामले में इंदौर के देश में नम्बर होने से महापौर के तौर पर मालिनी गौड़ का रुतबा बढ़ गया। दिल्ली में भी उनका सिक्का चलने लगा। उनके बढ़ते क़दमों की आहट से सबसे ज्यादा प्रभावित यदि कोई हुआ तो वो सांसद महाजन ही हैं। क्योंकि, मालिनी गौड़ को अगले लोकसभा चुनाव में सांसद की कुर्सी का प्रबल दावेदार माना जा रहा है। सुमित्रा महाजन ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ही घोषणा कर दी थी कि वे अगला चुनाव नहीं लड़ेंगी।
    इन दोनों के बीच दूरियां इसलिए भी बढ़ी कि महापौर को मुख्यमंत्री खेमे का नेता समझा जाता है। लेकिन, दोनों महिला नेत्रियों के बीच तलवारें तब निकली जब देश में 'स्वच्छ इंदौर' का तमगा पाने के बाद होने वाले एक कार्यक्रम को लेकर दोनों ने अड़ंगेबाजी की। महापौर ने मुख्यमंत्री को स्वच्छ इंदौर पर आयोजित कार्यक्रम 'प्रणाम इंदौर' के लिए 17 मई आमंत्रित किया था। लेकिन, कार्यक्रम सांसद सुमित्रा महाजन ने निरस्त करवा दिया। इस कार्यक्रम के जरिए मालिनी गौड़ ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने अपनी ताकत दिखाने की पूरी तैयारी कर ली थी। जबकि, सांसद सुमित्रा महाजन ने तत्कालीन केंद्रीय शहरी विकास मंत्री वैंकेया नायडू से बात करके उन्हें 5 जून को इंदौर आमंत्रित कर लिया था। सुमित्रा महाजन की योजना अपने इस कार्यक्रम में महापौर, निगम आयुक्त और उनकी पूरी टीम का सम्मान करना था। लेकिन, महापौर ने उनकी प्लानिंग बिगाड़ दी। स्थिति यहाँ तक आ गई कि मुख्यमंत्री को दखल देना पड़ा। अंततः नई तारीख तय की गई, लेकिन, जिस दिन कार्यक्रम होना तय हुआ था, उस दिन घनघोर बारिश हुई और कार्यक्रम नहीं हो पाया। यही कारण है कि इन सारे समीकरणों के बीच मालिनी गौड़ और सुमित्रा महाजन के बीच तालमेल गड़बड़ा गया।
   इसके अलावा मतभेदों की एक इबारत सालभर पहले महापौर मालिनी गौड़ और क्षेत्र क्रमांक 2 के विधायक रमेश मेंदोला के बीच भी लिखी जा चुकी है। अभी भी ये मसला सुलझा नहीं है और इस पुराण का पाठ जारी है। नगर निगम के एक उपायुक्त के साथ क्षेत्र क्रमांक 2 के एक पार्षद समर्थक की मारपीट के बाद ये विवाद शुरू हुआ था।  बाद में रमेश मेंदोला द्वारा महापौर को लिखे गए इस पत्र की वजह से यह विवाद और ज्यादा बढ़ा! इसमें ऐसा कुछ लिख दिया गया था, जो स्पष्ट करता था कि दोनों नेताओं के बीच किस तरह तलवारें खिंची हैं। पत्र पाने के बाद महापौर ने रमेश मेंदोला को जता भी दिया था कि शहर की जिम्मेदारी मुझ पर है, उन पर नहीं! यहाँ तक कहा था कि वे होते कौन हैं, ये सब बातें बोलने वाले। इसके अलावा क्षेत्र क्रमांक 1 के विधायक सुदर्शन गुप्ता और क्षेत्र क्रमांक 2 के नेताओं के बीच मतभेद जगजाहिर हैं और इसके पीछे प्रसंगों के कई अध्याय हैं।
    अब बात की जाए इंदौर में कांग्रेस की थकी और चुकी राजनीति की! शहर में आज कांग्रेस की राजनीति का कोई नामलेवा नहीं बचा, फिर भी नेताओं का अहम् और मतभेदों के अध्याय कम नहीं हुए। अब तो हालत ये हो गई कि इंदौर में सारे कार्यकर्ता नेता बन गए। कांग्रेस के किसी भी कार्यक्रम में लगी कुर्सियों का भरना तक मुश्किल हो गया है। इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि पीढ़ियां बदल जाने और एलईडी के ज़माने में भी पार्टी फ्यूज बल्बों से अपना घर रोशन करने की कोशिश कर रही है। यही कारण है कि दिमाग पर जोर डालने पर भी इंदौर की राजनीति में 5 ऐसे नेता याद नहीं आते जो नई पीढ़ी से उभरे हों! आज भी पार्टी ने तीन दशक पुराने नेताओं को ही कांग्रेस का कर्णधार बना रखा हैं। ये खुद तो कुछ कर नहीं पाते, नए नेताओं को भी उभरने नहीं देते!      
   कांग्रेस ने तो इंदौर में 'मिशन-2018' की जिम्मेदारी महेश जोशी को सौंपी है। उन्होंने भोपाल में संगठन कार्यालय पर अपना काम भी शुरू कर दिया है। महेश जोशी ने पिछले चुनाव के बाद सक्रिय राजनीति से अपने आपको मुक्त कर लिया था और पैतृक गांव कुशलगढ़ में जा बसे थे। उन्हें वापस बुलाकर पार्टी ने काम सौंपा है। वे इंदौर समेत प्रदेश स्तर पर कार्यकर्ताओं को जोडऩे का काम कर रहे हैं। लेकिन, वे ये काम ठीक से कर सकेंगे, इसमें शक है। क्योंकि, अब उनकी कोड़ा फटकार राजनीति का दौर नहीं रहा। वे जिस लहजे में बात करते हैं, वो आज की पीढ़ी के नेताओं को सुनने की आदत नहीं है। उनकी संगठन क्षमता पर किसी को शक नहीं है और पार्टी के सभी बड़े नेता उनके कायल रहे हैं। लेकिन, वे राजनीति की बदलती धारा के मुताबिक खुद को बदल नहीं सके! यही कारण है कि उनके सक्रिय होते ही उनके विरोध के मोर्चे भी उभर गए!
   कांग्रेस का एक भी नेता ऐसा नहीं है जो इंदौर में कांग्रेस को सक्रिय करने की कोशिश करता दिखाई देता हो! शहर कांग्रेस के अध्यक्ष का मसला भी उलझा हुआ है। कांग्रेस तभी दिखाई देती है, जब कोई बड़ा नेता इंदौर आता है। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष शोभा ओझा भी तभी अवतरित होती हैं, जब बड़ा मंच सजता है। राऊ के विधायक जीतू पटवारी ही अकेले नेता हैं, जो हर फटे में टांग अड़ाने माहिर माने जाते हैं। लेकिन, उनकी गतिविधियां सेल्फ प्रमोशनल एक्टिविटी ज्यादा लगती है। कई कांग्रेसी नेता तो भाजपा के आभामंडल से प्रभावित होकर अंदर से भाजपाई ही हो गए! इसके अलावा जिन्हें कांग्रेसी नेता कहा जाए वे सिर्फ बयानबाजी और नकली आंदोलन से खुद को जिंदा रखने की कोशिश तक सीमित हैं। ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला कर सकेगी! यदि कांग्रेस ऐसा सोचती है तो ये उसकी ग़लतफ़हमी से ज्यादा कुछ नहीं है।
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Sunday, September 3, 2017

सिनेमा की सार्थकता और बेचारा दर्शक!

- हेमंत पाल 

  किसी भी फिल्म को देखने से पहले जहन में एक सवाल उठता है कि इस फिल्म को क्यों देखा जाए? ऐसा क्या है इस फिल्म में जो पिछली किसी फिल्म में नहीं था! लेकिन, इस तरह के सवालों का कोई तार्किक जवाब शायद ही किसी दर्शक को कभी मिला हो! क्योंकि, आज फिल्म देखने के पीछे सिर्फ टाइम पास या हल्के-फुल्के मनोरंजन की धारणा ही बची है। आजादी से पहले या आजादी के बाद की स्थितियां भी नहीं बची, जब फिल्म देखने के पीछे कोई मकसद हुआ करता था। आज का सिनेमा न तो कोई राह दिखाता है न दिमाग में घुमड़ते किसी सवाल का जवाब ही देता है। जमाना जिस तेजी से बदल रहा है सामाजिक, राजनीतिक, घटनाओं और तनावों पर बन रही फिल्मों से भी कुछ सीखने को मिलता हो, ऐसा कभी नहीं लगा। 

   हर फिल्म का केंद्रीय पात्र उसका हीरो होता है, जिसके बारे में ये धारणा बन चुकी है कि वह हमेशा ही आदर्शवाद और सत्यवादिता का प्रतीक है! पर क्या वास्तव में ऐसा होता है? आज ऐसे कई फ़िल्मी नायक हैं, जिनका नायकत्व सिर्फ परदे तक ही सीमित है। असल जिंदगी में वे परदे के खलनायक से बदतर होते हैं। इसलिए फिल्म देखने का ये ठोस कारण भी नजर नहीं आता। मुख्यधारा के सिनेमा को जितना सार्थक और यथार्थपरक दिखाने की कोशिश की जाती है, वो दर्शक के मन मस्तिष्क में हलचल पैदा नहीं।  क्योंकि, आज की फिल्मों में गंभीर मुद्दों का सतहीकरण किया जाता है और सतही बात के प्रति गंभीरता दिखाई जाती है। इस बात से इंकार नहीं कि आज जटिल मसलों और राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर फिल्में नहीं बन रही! लेकिन, ये फ़िल्में अपने कंटेंट से लेकर ट्रीटमेंट तक दर्शकों को उस हद तक प्रभावित नहीं कर पाती, जो सोचकर उन्हें बनाया जाता है।
   फिलहाल जो फ़िल्में बन रही हैं वे कहानी के मूल विषय से जल्दी भटक जाती हैं। फिर उनके पास वही फॉर्मूले बचे रह जाते हैं, जिनसे मसालेदार सिनेमा बनता है। भ्रष्ट अफसर या नेता को पीटकर नायक अपनी दिव्यता से दर्शक की तालियां और नायिका को अभिभूत तो कर लेता है, पर ये सवाल जिंदा ही बचता है कोई नायक के विपरीत खलनायक बनने पर मजबूर क्यों हो जाता है? भ्रष्टता, साजिशें और चारित्रिक पतन किसी में जन्मजात नहीं होता, फिर खलनायक और नायक में विभेद कैसे होगा? क्या फिल्मकारों का  दायित्व नहीं कि वे फकत मनोरंजन से दो कदम आगे बढ़कर कुछ सवालों के जवाब ढूंढे और उसे अपनी फिल्म का विषय बनाएं?  
  कुछ फिल्मकार दर्शकों को बौद्धिकता का झांसा देकर किसी ज्वलंत मुद्दे को परदे पर दिखाने साहस तो करते हैं, पर जब भी जेनुइन सिनेमा की बात होती है तो वे कन्नी काट जाते हैं। तब उन्हें फिल्म का बिजनेस याद आता है और अपनी फिल्म को सौ करोड़ क्लब में शामिल कराने की ललक उनसे वो सब करवाने को मजबूर कर देती है, जो शायद वे दिल से न करना चाहते हों! विडंबना ही है कि अपनी फिल्मों की तुलना करने के लिए हम हॉलीवुड को कसौटी मानते हैं, पर हमारा ये भ्रम दूर नहीं होता कि दुनिया में कहीं और हमारे जैसा सिनेमा है ही नहीं!
  राजनीति और अपराध जगत की फिल्में ही हमारे यहाँ ज्यादा बनती और पसंद भी की जाती है। क्योंकि, वे किसी आपराधिक चरित्र का महिमा मंडन ज्यादा करती हैं। ये फ़िल्में कहीं भी अपराध पर वैचारिक चोट नहीं करती और न उसे चुनौती देती हैं। ऐसी स्थिति में 'नो वन किल्ड जेसिका' और 'नीरजा' जैसी सार्थक फ़िल्में असमंजस के चंगुल में फंसकर रह जाती है। फिल्मकार समझ नहीं पाता कि यदि उसे महिलाओं पर हिंसा की भयावहता दिखाने की जरुरत पड़े तो वो उसे किस रूप में दर्शकों के सामने पेश करना चाहिए? हमारा सिनेमा उनके लिए कोई सार्थक पहल कर रहा हो, ऐसा कहीं नजर नहीं आ रहा! आएगा भी नहीं, क्योंकि बॉक्स ऑफिस का सौ करोड़ क्लब का लालच बढ़ते क़दमों को रोक जो देता है। आखिर धंधे में कोई जोखिम क्यों उठाए?
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Friday, September 1, 2017

खंडित एकता से कैसे हांसिल होगी 'सांझी विरासत'

- हेमंत पाल 

   चुनाव की नजदीकी अकसर राजनीतिक पार्टियों को आत्मचिंतन या गठजोड़ बनाने के लिए मजबूर करती है। ऐसे समय में सभी पार्टियों के नेता कुछ हद तक अपना अहम् छोड़कर राजनीतिक फायदे और नुकसान का आकलन करने लगते हैं। कारण कि यदि उन्हें भी अपना वजूद कायम रखना है तो पार्टी का झंडा तो ऊँचा रखना ही पड़ेगा! समर्थकों के साथ कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटाकर ये भी दिखाना पड़ेगा कि वे बड़े नेता हैं और राजनीति की धुरी उनके आसपास ही घूमती है। इंदौर में 'सांझी विरासत सम्मेलन' के बहाने गैर-भाजपा पार्टियों का एक मंच पर आना कुछ इसी तरह की कोशिश थी। ये आयोजन कांग्रेस समेत ये उन छोटी-छोटी पार्टियों के नेताओं का जमघट था, जिन्हें भाजपा ने बड़ा नुकसान पहुँचाया है! लेकिन, एक मंच पर आकर भी अलग-अलग पार्टियों के नेताओं के दिल नहीं मिले! न तो कार्यकर्ताओं ने इसे स्वीकार किया न जनता ने, जिनके लिए ये कोशिश की गई थी। 

  गैर-भाजपा पार्टियों को अपनी राजनीतिक एकता दर्शाने के लिए 'सांझी विरासत' जैसा सम्मेलन करने की जरुरत क्यों पड़ी, सबसे बड़ा सवाल तो यही है! यदि बिहार में नीतिश कुमार पाला बदलकर भाजपा की ढपली नहीं बजाते, तो क्या शरद यादव इस तरह का कोई प्रयास करते? शरद यादव ने भले ही अपनी राजनीति छात्र नेता के रूप में की हो, पर राष्ट्रीय राजनीति में उन्हें सामंजस्य बैठाकर साथ चलने वाला नेता कभी नहीं माना गया! वे हद दर्जे के चिड़चिड़े और एकालाप वाले नेता रहे हैं। नीतिश कुमार के उनसे अलग होने का कारण भी इस सबसे अलग नहीं है। वे राजनीतिक परिस्थितियों को समझे बगैर अपनी मर्जी थोपने के लिए जाने जाते हैं। इंदौर में हुए 'सांझी विरासत सम्मेलन' के सूत्रधार वे ही थे। कहा जा रहा है कि अब इस तरह के सम्मेलन देशभर में होंगे। लेकिन, ये निष्कर्ष सामने नहीं आया कि एक मंच पर इकट्ठा हुए ये नेता क्या चुनाव में भी साथ में दिखाई देंगे या अलग-अलग राग अलापेंगे?  
  इस सम्मेलन को विपक्ष की एकता जैसा कोई प्रपंच समझना फिलहाल जल्दबाजी होगी! मंच पर भले ही कांग्रेस, जनता दल-यू, सीपीआई और एनसीपी समेत 9 पार्टियों के नेता थे, पर सबकी अपनी अलग विचारधारा, प्रतिबद्धताएं और दूरियां स्पष्ट नजर आई। मुद्दे की बात तो ये थी कि कांग्रेस ही मंच पर अधूरी दिखी! कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव तो मंच पर थे, पर कांग्रेस के दो गुटों ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ का प्रतिनिधित्व नदारद था। यदि कांग्रेस जैसी पार्टी ही अपने पूरे स्वरुप में मौजूद नहीं है, तो कैसे मान लें कि वो इस विपक्षी एकता के प्रति गंभीर है! इस सम्मेलन में सबसे ज्यादा कार्यकर्ता भी कांग्रेस के ही थे और दावे से कहा जा सकता है कि उनमें भी ज्यादातर दिग्विजय सिंह के समर्थक थे।  
  इस 'सांझी विरासत सम्मेलन' में सांझी बात सिर्फ ये थी कि ये सभी पार्टियाँ पिछले तीन सालों में कभी न कभी भाजपा से बुरी तरह आहत हुई हैं। कांग्रेस को जो नुकसान हुआ, वो किसी से छुपा नहीं है। जबकि, बिहार में पिछले दिनों जो घटा उसने जनता दल (यू) कमर तोड़ दी। इसके पीछे भी भाजपा ही रही। इसीलिए ये राजनीतिक फार्मूला भी शरद यादव ने ही निकाला, जो बिहार में महागठबंधन से नितीश कुमार के बाहर निकल जाने और भाजपा के साथ सरकार बनाने से प्रभावित हुए हैं। यही कारण है कि शरद यादव भाजपा के विरोध में सभी विपक्षी पार्टियों को एक मंच पर लाने की कोशिश में लगे हैं। प्रयास किया जा रहा है कि इंदौर के बाद ऐसे राजनीतिक जमावड़े और भी शहरों में हों।  
  इस पूरे आयोजन में विपक्ष को एक करने जैसी कोई पहल नजर नहीं आई! मंच पर मौजूद सभी नेताओं ने भाजपा को कोसने के अलावा कोई नया रास्ता बनाने की बात नहीं की! दिग्विजय सिंह ने भाजपा और संघ से निपटने के लिए विपक्ष को बचाने की जरुरत का बखान किया। उनका कहना था कि गांधीजी की हत्या करने वाली विचारधारा विविधता में एकता के सिद्धांत को खंडित कर रही है। उनका ये भी कहना था कि विपक्ष की एकता की ये सांझी विरासत अब रुकना नहीं चाहिए। शरद यादव ने भाजपा की धर्म आधारित राजनीति को कोसते हुए कहा कि देश में आस्था के नाम पर हत्याओं का दौर चल रहा है। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री मंच से इसका विरोध जरूर करते हैं, पर हिंसा तब भी नहीं रूकती! माकपा के सीताराम येचुरी चुनावी राजनीति से ज्यादा विपक्ष की सांझी विरासत को बचाने के पक्षधर दिखे।
  कहने को भले ही ये देश के सभी प्रमुख विपक्षी दलों का जमघट था, पर दिखावा कुछ ज्यादा ही था। मंच एक था, पर बंटा हुआ। इस आयोजन का एजेंडा संघ और भाजपा के खिलाफ एक साझा गठजोड़ बनाना था, पर ये महज भाषणों तक सीमित होकर रह गया। मंच से जो एक स्वर निकलना था वो भी नदारद ही रहा। ऐसे में दावे से नहीं कहा जा सकता कि इस 'सांझी विरासत' से विपक्ष कुछ हांसिल भी कर पाएगा! इसका सबसे बड़ा कारण नेताओं का अहंकार समझा जा सकता है। बॉडी लैंग्वेज के नजरिए से देखा जाए तो सभी नेताओं में जो सामंजस्य दिखाई देना था, उसका अभाव रहा। जो इस सम्मेलन के मूल मकसद से अलग था। आनंद शर्मा के भाषण के दौरान दिग्विजय सिंह का मोबाइल में व्यस्त होना और सम्मेलन के बीच से सीताराम येचुरी का उठकर चले जाना अच्छा संदेश नहीं माना जा सकता। जिस गर्मजोशी और भाजपा पर आक्रमण की उम्मीद की गई थी, वो किसी भी नेता के भाषण  नहीं आई! लगा कि सबकुछ बहुत औपचारिक सा था।
  राजनीतिक आयोजनों सफलता का सबसे बड़ा मापदंड वहां उमड़ने वाली भीड़  है। लेकिन, यहाँ आयोजन स्थल का बड़ा हिस्सा खाली ही रहा! इस सच्चाई को भी छुपाने की कोशिश करते हुए कहा गया कि वास्तव में ये वैचारिक चिंतन था कोई राजनीतिक रैली नहीं जिसमें भीड़ इकट्ठा करके अपना प्रभाव दिखाया जाए। लेकिन, लोग आज इतने जागरूक हैं कि वे इस तरह की भरमाने वाली बातों में नहीं आते! उन्हें पता है कि 9 पार्टियों के नेताओं के एक मंच पर आने के बाद भी कार्यकर्ताओं का अभाव क्या इशारा करता है। फिर यदि ये सिर्फ वैचारिक चिंतन ही था तो सार्वजनिक मंच की भी जरुरत क्यों पड़ी? किसी बंद कमरे में बैठकर भी चिंतन करके रणनीति बनाई जा सकती थी। तब शायद ये सभी नेता कोई गंभीर वैचारिक मंथन कर पाते जो विपक्ष की एकता को ज्यादा मजबूती देता। शरद यादव की ये कोशिश कितनी सफल हो पाती है, इस बारे में दावे से इसलिए नहीं कहा जा सकता कि जो खुद अपनी पार्टी को संवारकर नहीं रख सके वे विपक्ष को कैसे समेट सकेंगे! शरद यादव के लिए मेंढक तौलना शायद आसान हो, पर अलग-अलग सोच वाले इतने सारे नेताओं को एकसाथ रख पाना शायद मुमकिन नहीं होगा।
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