Friday, November 25, 2022

कोरोना काल ने बदली सिनेमा की चाल!

- हेमंत पाल 

     कोरोना के बाद हमारे आसपास का माहौल और समाज में बहुत कुछ बदला। यह बदलाव जीवन के हर क्षेत्र में आया। लोगों का रहन-सहन बदला, सेहत के प्रति जागरूकता बढ़ी, संयुक्त परिवार के प्रति नया दृष्टिकोण पनपा और साथ में सिनेमा में कुछ नया देखने का मोह भी बढ़ा। लोगों ने लॉकडाउन में ओटीटी पर बहुत कुछ देखा और पसंद किया। इसका असर ये हुआ कि सिनेमा के दर्शकों को मनोरंजन का नया विकल्प मिला। उन्हें लगा कि अब वे फिल्मकारों और कलाकारों की पसंद से बना सिनेमा क्यों देखें! वे वही देखेंगे जो उनकी पसंद का सिनेमा होगा। कोरोना काल से पहले और उसके बाद की फिल्मों पर नजर डाली जाए तो बात साफ़ हो जाएगी कि दर्शकों की पसंद कितनी बदली। कोरोना काल से पहले कुछ साल तक छोटे शहरों पर आधारित कहानियों का बोलबाला रहा। गली बॉय, अंधाधुंध, शुभ मंगल सावधान और अंग्रेजी मीडियम जैसी फिल्मों को पसंद किया जाता रहा! लेकिन, वो एक अलग दौर था। कोरोना काल के बाद दर्शकों ने उसे नकार दिया।
     ऐसी कई फिल्मों के नाम गिनाए जा सकते हैं, जिनकी कहानियां पारिवारिक थी, पर ये फ़िल्में नहीं चली! कोरोना काल के बाद जो फ़िल्में पसंद की गई, उनमें कुछ अलग था। गंगूबाई काठियावाड़ी, भूल भुलैया-2, कश्मीर फाइल्स, ब्रह्मास्त्र, दृश्यम-2 और 'ऊंचाई' जैसी फ़िल्में दर्शकों की पसंद में शामिल हुई। गौर किया जाए हर फिल्म की कहानी कुछ अलग रही और उनमें नयापन भी रहा। इसके अलावा जो ख़ास बात थी, वो था लार्जर देन लाइफ कथानक। इनमें कोई भी फिल्म न तो प्रेम कथा थी और न बदले की भावना वाली कहानी! दर्शकों की ये बदली हुई पसंद हिंदी फिल्मों का ऐसा ट्रेंड है, जो नया है। ऐसे माहौल में संजय लीला भंसाली की 'गंगूबाई काठियावाड़ी' पहली फिल्म थी, जिसने दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने का काम किया।         
      कोरोना काल के बाद जब सिनेमाघर खुले तो सबसे बड़ी समस्या थी, कि संक्रमण से घबराए दर्शकों को उसके अंदर कैसे लाया जाए! क्योंकि, सुरक्षा के इंतजामों के अलावा उन्हें नई तरह का मनोरंजन दिया जाना भी बड़ी चुनौती थी। सिनेमाघरों ने सुरक्षा की व्यवस्था तो कर दी, पर दर्शकों की पसंद को नहीं समझ सके कि करीब दो साल तक ओटीटी के मोहजाल में फंसे दर्शकों को क्या नया दिखाया जाए! क्योंकि, शुरुआती दौर में रनवे 34, हीरोपंती-2, अटैक-2, ऑपरेशन रोमियो, जर्सी, सम्राट पृथ्वीराज, रक्षाबंधन और 'रामसेतु' जैसी जितनी फिल्में रिलीज हुई उनमें और कोई नहीं चली। शाहिद कपूर, जॉन अब्राहम, अक्षय कुमार, आमिर खान, टाइगर श्रॉफ और जॉन अब्राहम जैसे कलाकारों की ये सभी फिल्में फ्लॉप हुई। कंगना रनौत की धाकड़, रणवीर सिंह की जयेश भाई जोरदार, आयुष्मान खुराना की अनेक, गणेश आचार्य की देहाती डिस्को, मेजर, जनहित में जारी और अनिल कपूर की 'थार' जैसी फिल्में भी नहीं चली। ऐसे में 'गंगूबाई काठियावाड़ी' के बाद कार्तिक आर्यन और तब्बू की 'भूल भूलैया-2' दूसरी ऐसी फिल्म थी जो दर्शकों की पसंद पर खरी उतरी। 
     रणबीर कपूर जैसे कलाकार की 'शमशेरा' भी कमाल नहीं दिखा सकी। सच्ची कहानी पर बनी फिल्म 'रॉकेट्री' भी उन फिल्मों में थी, जिसे दर्शकों ने कुछ हद तक पसंद किया। लेकिन, रणबीर की 'ब्रह्मास्त्र' हिट की तरफ बढ़ती गई। लगातार फ्लॉप फिल्मों के बाद कुछ फिल्मों का हिट होना इस बात का सबूत है कि दर्शकों को कुछ अलग तरह मसाला चाहिए। अभी तक फिल्मकार और कलाकार दर्शकों को मूर्ख समझने की जो भूल करते थे, उन्हें उसका सबक मिल गया। दर्शकों पर अपनी पसंद थोपने पर उन्हें मुंह की खानी पड़ती थी। 
      फिल्मी दुनिया में माउथ पब्लिसिटी किसी फिल्म के हिट होने का सबसे बड़ा जरिया है। इसका उदाहरण 'कश्मीर फाइल्स' की सफलता में देखा गया। जो फिल्म शुरू में 500 स्क्रीन पर प्रदर्शित हुई, वो एक हफ्ते में चार हजार स्क्रीन्स तक पहुंच गई। अगर कंटेंट अच्छा नहीं होगा, तो दर्शक सिनेमाघरों में फिल्में देखने नहीं जाएंगे। लेकिन, उन्हें वहां तक लाने के लिए थिएटर वाली फीलिंग दिलाना भी जरूरी है। कोरोना काल के बाद जो फ़िल्में हिट हुई, उनकी कहानी में नयापन था। फिर वो गंगूबाई काठियावाड़ी हो, आरआरआर हो, पुष्प या फिर 'ब्रह्मास्त्र!'
     कोरोना काल में फिल्मों पर ओटीटी के हमले के बाद बेदम हुई फ़िल्मी दुनिया के सामने दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने की जो चुनौती सामने थी, उसने फिल्म बनाने वालों को परेशानी में भी डाल दिया था। फिल्मकारों को इससे ये तो समझ में आ गया था कि हथेली में सिमट चुकी मनोरंजन की दुनिया से दर्शकों को बाहर निकालकर सिनेमाघरों तक पहुंचाना आसान नहीं होगा। इसके लिए कुछ नया जादू दिखाना होगा। वो जादू रहा भव्य सिनेमा। उसी से सिनेमाघर में दर्शक आ सकते थे। एसएस राजामौली ने 'आरआरआर' बनाकर ये साफ कर दिया कि अगर दर्शकों को सिनेमाघर तक लेकर आना है, तो उसके लिए भव्य सिनेमा बनाना ही होगा। बड़ा बजट, बड़े-बड़े कलाकार, कुछ अलग सा कथानक और भव्यता ही आज के समय की मांग हैं। फिर आई 'पुष्पा' उसके बाद ब्रह्मास्त्र जिसका केनवस बहुत बड़ा था। निर्माताओं को समझ आ गया जो दर्शक पांच या छह सौ रुपए टिकट पर खर्च करेगा उसे भव्यता का अनुभव कराने के साथ फुल एंटरटेनमेंट तो देना ही होगा। यदि वह नहीं दिया गया तो दर्शकों को ओटीटी के मायाजाल से बाहर निकालना आसान नहीं होगा!  
     ऐसा नहीं कि पहले भव्य सिनेमा नहीं बना! समय काल के दौर में भव्यता का पैमाना अलग-अलग रहा। इसकी शुरुआत 'मुगले आजम' से हुई थी और लंबे समय तक ये दौर चला। सत्तर और अस्सी के दशक में मल्टीस्टारर फिल्में खूब बनी और चली भी। लेकिन, 90 के दशक के बाद से इसमें कमी आई। फिर भी भव्य फ़िल्में तो उंगलियों पर गिनी जाने वाली ही बनाई गई। यश चोपड़ा, रामानंद सागर, करण जौहर, संजय लीला भंसाली और साजिद नाडियादवाला जैसे फ़िल्मकारों ने बड़े बजट और बड़े स्केल की फिल्में बनाकर दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचने का सिलसिला बनाए रखा। हाल के सालों में राजामौली की 'बाहुबली' और उसकी सीक्वल ऐसी फिल्म रही, जिसे दर्शकों ने थिएटर में देखना ही पसंद किया। एक समय था जब कहा जाने लगा था कि ओटीटी के जादू से बड़े परदे का चार्म खत्म हो जाएगा। लेकिन, कोरोना के बाद पुष्पा, गंगूबाई काठियावाड़ी, आरआरआर और कश्मीर फाइल्स, ऊंचाई और दृश्यम-2' जैसी फिल्मों की सफलता से लगता है कि बड़े पर्दे का जादू पूरी तरह खत्म नहीं होने वाला। क्योंकि, ओटीटी आपके घर में और आपकी जेब में है। आप कभी भी देख सकते हैं लेकिन भव्य फिल्मों का मज़ा बड़े पर्दे पर ही आता है। 
      सफल हुई फिल्मों से एक बेंचमार्क जरूर सेट हुआ है। अब आने वाली फिल्मों को भी उसी नजरिए से देखा जाएगा। इसलिए अब निर्माताओं को बड़ा मनोरंजन देना ही होगा! यही कारण है कि समलैंगिक संबंधों पर बनी सीरियस फिल्म बधाई दो, मिस्टर परफेक्ट यानी आमिर खान की लालसिंह चड्ढा, अक्षय कुमार की सम्राट पृथ्वीराज, बच्चन पांडे, रक्षा बंधन और 'रामसेतु' जैसी फ़िल्में लगातार फ्लॉप हुई। इससे ये ग़लतफ़हमी जरूर दूर हुई कि फ़िल्में सिर्फ स्टार वैल्यू से चलती हैं। यदि ऐसा होता तो आमिर, शाहरुख, अक्षय से लगाकर सलमान खान तक की फिल्में फ्लॉप क्यों होती!
    अब दर्शक वही फ़िल्में देखने थिएटर में जाएंगे जिसका मज़ा उन्हें ओटीटी या छोटी स्क्रीन पर नहीं आएगा। अब मेकर्स को लगने लगा है कि अगर फिल्म को एक इवेंट नहीं बनाएंगे, अगर वो लार्जर देन लाइफ वाली फीलिंग नहीं देंगे तो बात नहीं बनेगी। एक जमाना था जब मल्टीस्टारर फिल्में बनती थीं, लोग इंतजार करते थे, थिएटर में जाते थे और फिल्में हिट हो जाती थीं। साउथ तो पहले ही इस दिशा में आगे बढ़ चुका है। ऐसे में बॉलीवुड को कमर कसनी होगी। ये ट्रेंड कभी आउट ऑफ फैशन नहीं होगा। 90 के दशक से हमने ऐसी फिल्में बनानी बंद की थी, लेकिन अब उनकी वापसी होगी! 
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Thursday, November 17, 2022

चूड़ियों वाले हाथों में कई बार दिखा हंटर!


- हेमंत पाल

    हिंदी फिल्मों में एक्शन का काम नायक का होता है। खलनायक से लड़ना हो या पूरी सेना को चित करना हो, नायक ये काम बखूबी से करता रहा है। ऐसे काम के लिए कभी नायिका को लायक नहीं माना जाता। ऐसी फ़िल्में बहुत कम आई, जब नायिका ने हंटर फटकारा हो! लेकिन, जब भी ऐसी फिल्म आईं वो दर्शकों की पसंद पर खरी उतरी। याद किया जाए तो 1935 में रिलीज हुई 'हंटरवाली' पहली ऐसी फिल्म थी, जिसमें नायिका हंटर चलाती थी। होमी वाडिया की डायरेक्ट की हुई इस फिल्म में फीयरलेस नाडिया ने काम किया था। कहा जाता है कि सीक्वल फिल्मों का सिलसिला भी इसी फिल्म से शुरू हुआ। इस सीरीज की दूसरी फिल्म 1943 में 'हंटरवाली की बेटी' रिलीज हुई थी। 1930-1950 के बीच में डायमंड क्वीन, हंटरवाली, शेर दिल और 'तूफान क्वीन' में भी फियरलेस नाडिया को दिखाया गया। इन फिल्मों में नाडिया बेखौफ अंदाज में स्टंट करती नजर आईं थीं। ये वो दौर था जब परदे पर नायिका सिर्फ पति के प्रति समर्पित होकर त्याग की प्रतिमूर्ति होती थी। लेकिन, उस दौर में नाडिया ने ऐसी कई फिल्मों में काम किया, जिनमें एक तरफ उन्होंने जमींदारों के खिलाफ लड़ाई लड़ी तो दूसरी तरफ औरतों की शिक्षा और आजादी की बात की। 
   घुड़सवारी करते हुए करतब दिखाना हो, चलती ट्रेन से कूदना हो, झरने के ऊपर से छलांग लगाना या शेरों के साथ खेलना हो, 'हंटरवाली' के नाम से जाने जानी वाली नाडिया सारे स्टंट खुद किया करती थीं। यही कारण था कि उन्हें 'फियरलेस नाडिया' का नाम दिया गया, इसी नाम से उनकी पहचान भी बनी। 'मैरी' से कब उन्हें लोग फियरलेस नाडिया या निडर नाडिया कहने लगे, ये उन्हें भी पता नहीं चला। 1935 में बनी फिल्म 'हंटरवाली' में स्टंट्स दिखाने के बाद नाडिया हर तरह की फिल्में करने लगी थीं। लेकिन, उनके फैंस उन्हें बेखौफ अंदाज में ही देखना चाहते थे। नाडिया को फिल्मों में इस मुकाम तक पहुंचाने में उनके पति होमी का एक बहुत बड़ा हाथ रहा। दोनों ने कई फिल्मों में साथ काम किया। फिल्मों में साथ काम करते हुए दोनों के बीच प्यार हुआ और कुछ साल बाद उन्होंने इस प्यार को शादी में बदलने का फैसला किया। दोनों ने 1961 में शादी कर ली। नाडिया सर्कस में भी जाबांजी के करतब दिखा चुकी थीं। इसलिए फिल्मी पर्दे पर इन्हें दिखाना उनके बायें हाथ का खेल था। अपनी फिल्मों में वे ऊंचाई से छलांग लगाती, चलती ट्रेन के ऊपर फाइट करती और मर्दों से दो-दो हाथ होने में पीछे नहीं हटती। उस दौर में किसी महिला अभिनेत्री का ऐसा करना असाधारण काम था। 
     देखा गया कि किसी हीरो या हीरोइन से प्रभावित होकर उसके जैसा बनने के कई प्रयास हुए। लेकिन, किसी हीरोइन ने कभी नादिया से प्रभावित होकर खुद को उनकी तरह ढाला हो, ऐसा कभी नहीं लगा! इंडस्ट्री में कई ऐसी नायिकाएं हैं, जिन्होंने यदा-कदा ऐसी फिल्मों में काम जरूर किया। जब हीरोइनों ने प्रेमिका की भूमिका से किनारा किया, तो वे कठोर किरदार में सामने आईं। कुछ ऐसी फिल्में बनीं जिसमें लेडी डॉन, गैंगस्टर या डकैत की भूमिकाओं को भी सशक्त अंदाज में पेश किया। नाडिया की तरह ही उनसे मिलते-जुलते नाम वाली नादिरा ने अपनी पहली ही फिल्म 'आन' में हंटर थाम लिया था। यह बात अलग है कि उनका हंटर मजलूमों की हिफाजत के लिए नहीं चला, बल्कि एक मगरूर राजकुमारी की अकड़ दिखाने के लिए मजलूमों पर ही चला था। बाद में नायक दिलीप कुमार उसे सबक सिखाता है। 'धरमवीर' में जीनत ने भी इसी अंदाज में हंटर थामा था। मनमोहन देसाई ने जीनत का यह रूप राजकुमार फिल्म की मगरूर राजकुमारी साधना की स्टाइल में रचा था। क्योंकि, अपने सीधे-साधे गंवार पति को छोटे भाई के हंटरों से बचाने के लिए माला सिन्हा ने 'बहुरानी' में तो हेमामालिनी ने 'ज्योति' में हंटर थामा था। जालिम पति को सबक सिखाने के लिए रेखा भी खून भरी मांग में हंटर थाम चुकी हैं।
    प्रियंका चौपड़ा ने अपनी पहचान से अलग द्रोण, डॉन, डॉन-2, जय गंगाजल और 'मैरी कॉम' में एक्शन किया। दीपिका पादुकोण ने लफंगे परिंदे और 'बाजीराव मस्तानी' में एक्शन के साथ तलवारबाजी भी की। कंगना रनौत को हमेशा ऐसी फिल्मों में काम करने का शौक रहा जिसमें एक्शन हो। रंगून, रिवाल्वर रानी, मणिकर्णिका और धाकड़ ऐसी ही फ़िल्में रहीं। ऐश्वर्या राय जैसी सुंदरी ने भी जोश, खाकी, धूम-2 और 'जोधा अकबर' में तलवार चलाई। जबकि, कैटरीना कैफ ने एक था टाइगर, बैंग-बैंग और 'धूम-3' में नायक के साथ एक्शन किए! बिपाशा बसु ने अजनबी, धूम 2 और 'रेस' में कुछ ऐसे ही किरदार निभाए। शिल्पा शेट्टी जैसी हीरोइन ने भी 'दस' में सीक्रेट एजेंट का रोल किया था। अनुष्का शर्मा ने 'एनएच-10' और 'सुल्तान' में उनकी शुरुआती फिल्मों से अलग काम किया। माधुरी दीक्षित ने ज्यादातर फिल्मों में कमसिन नायिका की भूमिका की है, पर 'गुलाब गैंग' में उन्होंने भी डंडे चलाए। नई एक्ट्रेस तमन्ना भाटिया भी 'बाहुबली' में एक्शन अवतार में दिखाई दी।
      साल 1999 में आई फिल्म ‘गॉड मदर’ गुजरात के पोरबंदर में माफिया राज चलाने वाली डॉन से नेता बनी संतोकबेन जडेजा के जीवन से प्रेरित थी। फिल्म में यह भूमिका शबाना आजमी ने निभाई। 'गोलियों की रासलीला रामलीला' में सुप्रिया पाठक का किरदार दबंगता से भरा था। जबकि, 2022 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ में आलिया भट्ट ने भी कोठे की ऐसी मालकिन की भूमिका निभाई, जो किसी हंटरवाली से कम नहीं है। ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ फिल्म एस हुसैन जैदी की पुस्तक 'माफिया क्वींस ऑफ़ मुंबई' पर बनाई है। इसमें गंगूबाई हरजीवनदास उर्फ गंगूबाई कोठेवाली की कहानी है। 
      याद किया जाए तो हेमा मालिनी ने 'सीता और गीता' में डबल रोल निभाया था। एक सीधे किरदार के साथ दूसरा रोल हंटरवाली का था। श्रीदेवी का 'चालबाज' वाला किरदार भी इससे काम नहीं था। रिचा चड्ढा का फिल्म 'फुकरे' में भोली पंजाबन का किरदार निभाया था। नेहा धूपिया ने 2010 में आई फिल्म ‘फंस गए रे ओबामा’ में मुन्नी गैंगस्टर का किरदार निभाया था। श्रद्धा कपूर की फिल्म 'हसीना पारकर' अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम की बहन पर आधारित थी। फिल्म 'सुपारी' में नंदिता दास डॉन के किरदार में दिखाई दी थी। जबकि, शेखर कपूर निर्देशित फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में सीमा विश्वास ने डकैत फूलन देवी का किरदार निभाया। प्रतिमा काजमी ने 'वैसा भी होता है पार्ट 2' में गंगू ताई का किरदार निभाया था। ईशा कोपिकर ने फिल्म 'शबरी' में मुंबई की पहली क्राइम लेडी का किरदार निभाया था।
     सिनेमा में सशक्त महिला के किरदार को लेकर हर फिल्मकार का अपना अलग नजरिया होता है। लेकिन, ऐसी फिल्मों के कथानक की सबसे बड़ी ताकत होती है कमजोर समझी जाने वाली औरत को नए रूप में देखना। फिल्म 'आंधी' में सुचित्रा सेन को हंटर चलाते नहीं दिखा गया, पर उनका विल पावर स्ट्रांग होता है। पितृसत्तात्मक समाज में सत्ता में होते हुए भी वे अपने दम पर आगे बढ़ती हैं। लेकिन, उस ऊंचाई तक पहुंचने के लिए इस किरदार को बहुत सारे त्याग करने पड़ते हैं। जिस दायरे में ऐसी फिल्में बनी, उसमें दर्शकों ने कई महिला केंद्रित किरदार देखे! लेकिन, अब यह सामान्य बात हो गई। 
     सिर्फ हिंदी फिल्मों में ही नहीं, दूसरी भाषाओं की फिल्मों में भी नायिका को ऐसे किरदार निभाते देखा गया। भोजपुरी सिनेमा की सुपरस्टार कही जाने वाली अभिनेत्री पाखी हेगड़े ने भी 'हंटरवाली' में कुछ उस तरह का रोल किया जैसा 'शहंशाह' में अमिताभ ने किया था। इससे पहले पाखी ने 'औलाद' और 'दाग' में भी एक्शन रोल किए थे। फिल्मो के कथानक में जिस तरह से नए प्रयोग हो रहे और महिला सशक्तिकरण का दौर है, ऐसी फ़िल्में फिर बने तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए! नए ज़माने की नायिकाएं भले ही हंटर न चलाएं, पर यदि वे किसी को तमाचा भी मारेंगी तो हॉल में बैठे दर्शक तालियां बजाने से खुद को रोक नहीं पाएंगे!    
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Saturday, November 12, 2022

सिनेमा में कई बार बांची गई चिट्ठियां!

- हेमंत पाल

   ब न तो चिट्ठी लिखने वाले बचे और न चिट्ठियों का इंतजार करने वालों का समय रहा! संचार तकनीक ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया। आज पलक झपकते ही वो संदेशे दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच जाते हैं, जिसके लिए कभी दिनों और हफ़्तों इंतजार करना पड़ता था। लेकिन, वो भी अनोखा समय था, जब भावनाएं हर्फों की शक्ल में कागज़ पर उतरकर कई हाथों में पहुंचते हुए ठिकाने तक पहुंचती थी। चिट्ठी-पतरी का भी अपना अलग ही इतिहास रहा। ख़ुशी, गम, सूचना, संदेश, रिश्तेदारी और हर बात के लिए सिर्फ चिट्ठी ही विकल्प था! सरकार का एक पूरा विभाग इस काम में लगा था, जिसका सबसे अहम किरदार होता था 'डाकिया' जो चिट्ठी को घर के दरवाजे पर देकर आता था। इसी चिट्ठी की अहमियत को फिल्मों ने भी समझा और कई फिल्मों में इसे अलग-अलग रूपों में उपयोग किया गया। फिल्मों के नाम और कथानक का हिस्सा बनाने के अलावा कई फिल्मों के गीतों में भी चिट्ठी को शामिल किया गया। कई ऐसी भी फ़िल्में हैं, जिनमें चिट्ठी की वजह से कहानी में मोड़ आया।   
         जहां तक हिन्दी फिल्मों में चिट्ठी या खत पर आधारित शीर्षकों का सवाल है, तो राजेश खन्ना का करियर ही 'आखिरी खत' फिल्म से शुरू हुआ था। 1962 में शशि कपूर और साधना की फिल्म 'प्रेमपत्र' ने भले ही दर्शक ज्यादा नहीं बटोरे हों, लेकिन इसके शीर्षक ने काफी सुर्खियां बटोरी थी। 1985 में आई फिल्म 'एक चिट्ठी प्यार भरी' में राज बब्बर और रीना राय के बीच प्यार का सिलसिला चिट्ठियों से ही शुरू होता है। 1991 में आई विवेक मुशरान और मनीषा कोइराला की फिल्म 'फर्स्ट लव लेटर' ऐसी थी, जिसे पढ़ने कोई दर्शक नहीं पहुंचा। अनिल कपूर की फिल्म 'चमेली की शादी' में बच्चों के मार्फ़त चिट्ठी का आदान-प्रदान होता है। 
     संजय कपूर और प्रिया गिल अभिनीत रोमांटिक ड्रामा फिल्म 'सिर्फ तुम' (1999) में दीपक और आरती की लव स्टोरी भी इसी चिट्ठी से ही होती है। दोनों एक-दूसरे से अंजान होते हुए भी बेहद करीब आ जाते हैं। 1991 में आई ऋषि कपूर, अश्विनी भावे और जेबा बख्तियार की फिल्म 'हिना' में चिट्ठियों का विशेष महत्व दिखाया गया। इस फिल्म का गाना 'चिट्टियां दर्द फिराक वालिए' के जरिए एक प्रेमिका अपने जेल में बंद प्रेमी से बातचीत करती थीं। फिल्म 'लंच बॉक्स' दो अजनबियों की एक ऐसी अनोखी प्रेम कहानी है, जिसमें एक शादीशुदा महिला और रिटायरमेंट की  दहलीज पर खड़ा एक शख्स 'लंच बॉक्स' में छिपाकर भेजे जाने वाले 'चिट्ठियों' के जरिए एक दूसरे को जानते हैं और प्यार कर बैठते हैं।
     फिल्म 'कुछ कुछ होता है' में टीना (रानी मुखर्जी) की मौत के बाद उसकी बेटी अंजलि (सना सईद) को उसके हर जन्मदिन पर उसका एक खत मिलता है, जिसमें मां-बेटी के बीच की बहुत सारी बातें लिखी होती हैं। टीना ने वो खत नहीं लिखे होते तो क्या होता! क्या राहुल (शाहरुख खान) और अंजलि (काजोल) फिर कभी मिल पाते! राजश्री प्रोडक्शन के बैनर तले बनी फिल्म 'मैंने प्यार किया' में सलमान और भाग्यश्री के बीच कबूतर के जरिए बातचीत होती थी। कबूतर उनके बीच संदेशवाहक का काम करता है और प्रेम पत्र एक-दूसरे तक पहुंचाता है। इस फिल्म के जरिए संदेश के महत्व को बहुत ही अनोखे तरीके से समझाया गया था। आरके नारायण के टीवी शो 'मालगुडी डेज' में वैसे तो कई कहानियां थीं। लेकिन, शो के 29वें एपिसोड में चिट्ठियों के खास महत्व को दिखाया गया। 
    फिल्मों में चिट्ठियों पर आधारित सीक्वेंस जितने ज्यादा मशहूर हुए, इस पर आधारित गाने भी बहुत पसंद किए गए! कभी प्यार बरसाने तो कभी विरह के गीत रचने के लिए फिल्मकारों ने हमेशा चिट्ठियों का सहारा लिया! गीतकार शैलेंद्र का फिल्म 'तीसरी कसम' के लिए लिखा गीत 'सजनवा बैरी हो गई हमार' बेहद चर्चित हुआ था। 'संगम' का गीत जिसमें राजेंद्र कुमार वैजयंती माला के नाम खत लिखते है 'यह मेरा प्रेम पत्र पढकर' भी पसंद किया गया। बाद में यही पत्र आगे चलकर राज कपूर और वैजयंती माला के वैवाहिक जीवन में तूफान ले आता है। 
    खत के साथ सुगंध का सिलसिला काफी पुराना है। इसीलिए 'सरस्वतीचंद्र' में नूतन गाती है 'फूल तुम्हें भेजा है खत में' तो 'कन्यादान' में नायिका की याद में लिखा गया खत सितारों में तब्दील हो जाता है। इस पर तो नायक कह उठता है 'लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में!' आशा पारेख 'आए दिन बहार के' में 'खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू' की गुहार करती नजर आती है। 1974 में हेमा मालिनी और जितेंद्र की आई फिल्म 'दुल्हन' में भी चिट्ठियों के महत्व को रेखांकित किया गया। फिल्म में हेमा मालिनी पर एक गीत फिल्माया गया था 'आएगी जरूर चिट्ठी मेरे नाम की सब देखना!' 1977 में आई फिल्म 'पलकों की छांव' में जब राजेश खन्ना डाक विभाग की खाकी वर्दी पहने साइकिल पर सवार होकर 'डाकिया डाक लाया खुशी का प्याम कहीं, कहीं दर्द नाक लाया' गीत गाते हुए गांव में दाखिल होते हैं, तो बच्चे उनकी तरफ दौड़ पड़ते हैं। जगजीत सिंह की लोकप्रिय गजलों में से एक 'चिट्ठी न कोई संदेश जाने है वो कौन सा देश जहां तुम चले गए' में भी चिट्ठी की ही बात है!
     गीतकार नीरज ने भी खत की महिमा को बेहद खूबसूरती के साथ पेश किया था। उन्होंने 'प्रेम पुजारी' में 'फूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज पाती' के रूप में प्रेम पत्र को नया अंदाज दिया था। फिल्म 'खेल' का एक गीत है 'खत लिखना है पर सोचती हूं।' 'खुद्दार' में भी इसी से मिलता जुलता गीत है 'खत लिखना बाबू हमें खत लिखना' गोविंदा पर फिल्माया गया था। फिल्म 'हकीकत' का गीत 'होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा, 'नाम' का गीत 'चिट्ठी आई है आई है आई है चिट्ठी आई है' आज भी सुना जाता है। जेपी दत्ता की 1977 में आई फिल्म 'बॉर्डर' 1997 में रिलीज हुई थी। इस फिल्म का गीत 'संदेशे आते हैं हमें तड़पाते हैं, तो चिट्ठी आती है वो पूछे जाती है, के घर कब आओगे' काफी चर्चित हुआ था। 
फिल्म 'जिगर' (1992) में नायक अजय देवगन 'प्यार के कागज पर दिल की कलम से' गाकर प्रेमिका के नाम खत लिखते हैं। 'वेलकम टू सज्जनपुर' फिल्म में महादेव का पूरे गांव के लोगों के लिए चिट्ठी लिखने का काम है। मेरे प्राणनाथ! चार दिवाली बीत गई है तुम न आए साजन, मुुंबई में क्या जोड़ लिया है और किसी से बंधन। यहां चिट्ठी की मदद से कई बेपरवाह पतियों को रास्ते पर लाया गया तो मां-बाप को भूलकर दूर देश में बैठे बेटों को अपनी जिम्मेदारी का एहसास भी कराया गया। 1969 में आई फिल्म 'बालक' में कवि प्रदीप ने एक बच्चे की चिट्ठी के माध्यम से देश की दुर्दशा का जिक्र करते हुए लिखा था 'सुन ले बापू ये पैगाम मेरी चिट्ठी तेरे नाम।'
    सिनेमा में चिट्ठी का महत्व केवल शीर्षकों या गीतों तक ही नहीं रहा! फिल्म के उतार-चढाव में भी चिट्ठियों का उतना ही महत्व होता है। फिल्मों में अक्सर एक दृश्य ऐसा होता है, जब नायक या नायिका रूठकर घर छोड़कर चले जाते हैं, तो टेबल पर एक चिट्ठी जरूर मिलती है। कभी कोई नायक या नायिका अपनी बेबसी की कहानी चिट्ठी के रूप में लिखकर भेजते हैं जो पाने वाले को समय पर नहीं मिलती या किसी खल पात्र द्वारा उसे छिपा दिया जाता है। फिल्म के अंत में न केवल यह चिट्ठी मिलती है, बल्कि वो नायक और नायिका को भी मिला देती है।
    'दुल्हन एक रात की' फिल्म में भी नायिका अपने अपराधी होने की जानकारी नायक को देती है। लेकिन, यह चिट्ठी उसे नहीं मिलती! लेकिन, शादी के बाद जब नायक को नायिका के अपराधी होने की जानकारी मिलती है तो वह उसे छोड़कर चला जाता है। देवर में तो चिट्ठी पूरी कहानी ही बदल देती है। नायक अपने भाई के हाथों नायिका को चिट्ठी पहुंचाता है, तो उसका भाई ही नायिका को पसंद कर लेता है। सलमान और संजय दत्त की फिल्म 'साजन' मे भी कुछ ऐसा ही होता है, जब माधुरी दीक्षित संजय दत्त की चिट्ठियां को सलमान की चिट्ठी मानकर उसे दिल दे बैठती है।
      विजय आनंद ने अपनी फिल्मों में चिट्ठी का सुंदर सहारा लिया। फिल्म 'ब्लैकमेल' का गीत 'पल पल दिल के पास' इन्हीं चिट्ठियों के साथ फिल्माया गया था। 'तीसरी मंजिल' के गीत 'तुमने मुझे देखा' के पहले भी आशा पारेख के हाथ में नायक की एक चिट्ठी होती है, जो उसने नायिका की बहन को लिखी थी। दोनों फिल्मों में जो चिट्ठी दिखाई गई, उसकी लिखावट खुद विजय आनंद की थी। फिल्म 'ज्वेल थीफ' में भी विजय आनंद ने चिट्ठी के सहारे पुलिस तक संदेशा देने का चतुराई भरा दृश्य रचा था। कई फिल्मों में अपराधी या डाकू किस्म के लोग पत्थर में चिट्ठी रखकर खिडकी का शीशा तोड़कर गंतव्य पर पहुंचाते हैं। कोई सिरफिरा नायक अपने प्यार को प्रदर्शित करने के लिए अपनी हथेली काटकर खून से चिट्ठी लिखता है। कई फिल्मों में विलेन नायिका को इन्हीं चिट्ठियो के सहारे ब्लैकमेल करते है। तो कोई चिट्ठी खोए बेटे या बेटी को मिला देती है। गोया कि चिट्ठी कोई चिट्ठी न हुई, भानुमती का पिटारा हो गया जिस पर पूरे सोलह रील की फिल्म खींचती चली जाती है और दर्शक इन चिट्ठियों की लेखनी के साथ बहते हुए मजे लेकर फिल्में देखता रहता है।
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आखिर बदले-बदले से क्यों नजर आ रहे शिवराज!

- हेमंत पाल

   मुख्यमंत्री शिवराज सिंह इन दिनों एंग्रीमैन की भूमिका में हैं! उनकी तत्काल एक्शन लेने की नई शैली उनकी पहचान से अलग है। वे अब फैसले लेने में देर नहीं कर रहे। यहां तक कि मंच पर ही फैसले करते दिखाई दे रहे हैं। उनमें ये बदलाव उनकी सौम्य छवि से अलग है और लग रहा है और यह जरुरी भी है! कुछ महीनों से उनका बदला हुआ अंदाज किसी की समझ में नहीं आ रहा। कभी वे देर रात तक अफसरों से मीटिंग करते हैं, कभी अलसुबह उठकर उनकी क्लास लेते दिखाई देते हैं। उनकी इसी सख्त कार्यशैली ने कई अफसरों को 24 घंटो में अपनी कुर्सी से विदा कर दिया!
    मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कुछ महीनों से अलग मूड में नजर आ रहे हैं। वे देर रात तक मीटिंग करते हैं, तो अलसुबह उठकर अधिकारियों की क्लास भी लेते हैं। सरकारी योजनाओं की प्रगति की समीक्षा करना और अफसरों को खिंचाई करना उनकी दिनचर्या में शामिल हो गया है। सिर्फ उनका मूड ही नहीं बदला, उनके व्यवहार में भी बदलाव नजर आ गया। कुछ महीने के दौरान सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात रही, अफसरों के प्रति उनकी सख्ती! भाषा में भी और कार्रवाई में भी। वे अब लापरवाहियों को अनदेखी नहीं कर रहे, बल्कि उसके जिम्मेदारों को सामने लाने की कोशिश में है। लेकिन, इसका कारण खोजने की कोशिश नहीं हो रही! जबकि, जिस तरह शिवराज सिंह समस्याओं को इंगित कर रहे हैं, साफ़ लग रहा है कि अफसर घोर लापरवाही कर रहे!
     शिवराज सिंह चौहान इन दिनों ऐंग्री यंगमैन की भूमिका में आ गए। कभी वे मंत्रियों से सवाल जवाब रहे हैं, तो कभी अफसरों से डांट फटकार रहे हैं। ये उनकी नई पहचान बन गई! सौम्य, सहज और मिलनसार स्वभाव वाले शिवराज का ये नया चेहरा समझ से परे है। इस बार एक्शन वाले रोल में हैं। इसलिए सब कह रहे हैं कि सरकार बदली-बदली सी नज़र आ रही है। सत्ता के गलियारों में यही चर्चा है, कि 'साहेब' कड़क हो गए। उनके ऐसे मिजाज से सब हैरान भी हैं। आख़िर वे क्यों बदलते जा रहे हैं, फिलहाल ये यक्ष प्रश्न है?
    18 सालों में मात्र सवा साल वे सत्ता से दूर रहे! लेकिन, कभी किसी ने उन्हें ऐसे मूड में नहीं देखा! इस वजह से सबको लग रहा है कि कहीं तो कुछ ऐसा हो रहा, जो उन्हें रास नहीं आ रहा है। शिवराज खुद भी बार-बार कह रहे हैं कि वे ख़तरनाक मूड में हैं। एक मंच से बोलते हुए उन्होंने कहा था 'सुन लो माफिया, मध्य प्रदेश छोड़ दो, नहीं तो ज़मीन में दस फ़ीट गाड़ देंगे!' उनका यह भाषण भी खूब वायरल हुआ था। इसलिए कहा जा रहा है कि शिवराज चौहान के सिर्फ़ वचन ही नहीं बदले, उनकी छवि भी बदलाव के रास्ते पर है। 
   ये स्थिति आज या कल की नहीं है! साल भर से धीरे-धीरे उनमें बदलाव आ रहा है। पिछले साल उनका एक वीडियो खूब चर्चित हुआ था। मुख्यमंत्री ने मीटिंग के बीच में ही ग्वालियर नगर निगम के आईएएस कमिश्नर को फटकारा और कहा 'बहुत हो गया, अब इनकी छुट्टी कर दीजिए!' शाम होते होते-होते 2010 बैच के आईएएस संदीप माकिन को हटा दिया गया था। कुछ ऐसा ही अंदाज झाबुआ कलेक्टर और एसपी को हटाने के समय भी दिखाई दिया था। इसके बाद मंच से भी कार्रवाई होती दिखाई दी। लेकिन, इंदौर के IAS एडीएम पवन जैन को लेकर उनका रवैया अभी तक सबसे ज्यादा सख्त दिखाई दिया। एक विकलांग के साथ जनसुनवाई में बदसलूकी करने पर उन्हें तत्काल प्रभाव से इंदौर से हटा दिया गया। दरअसल, ये संकेत है कि यदि अफसरों ने अपनी शैली नहीं सुधारी तो नतीजा क्या होगा!
    शिवराज चौहान का अंदाज बहुत कुछ नरेंद्र मोदी की तरह है। भ्रष्टाचार की शिकायत मिलने पर शिवराज ने एक मंत्री के निजी सचिव को बर्खास्त कर दिया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने भी अपने मंत्रियों को लेकर ऐसा ही किया था। अब मुख्यमंत्री भी उसी फार्मूले पर चल रहे हैं। उन्होंने अपने मंत्रियों को दलालों से दूर रहने को कहा और सबको जनसेवा के नए-नए आयडियों पर काम करने की नसीहत दी। शिवराज ने यह भी कहा था कि वे जब भोपाल में रहेंगे, तो रोज किसी न किसी मंत्री के साथ चाय पर चर्चा करेंगे, उन्होंने यह किया भी और इसके नतीजे भी सामने आए!
    शिवराज सिंह के बदले हुए व्यवहार के कारण क्या है, इसे लेकर अलग-अलग कारण गिनाए जा रहे हैं। एक साल बाद विधानसभा चुनाव होना है और शिवराज सिंह नहीं चाहते कि उनकी सरकार की कोई भी खामी जनता की नाराजी का कारण बने और उससे चुनाव नतीजे प्रभावित हों! वे अपनी इमेज जनता के मुख्यमंत्री के रूप में बनाना चाहते हैं, जो केंद्र में नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की बनी है। भाजपा शासित राज्यों की सरकारें भी बेहद आक्रामक तरीके से काम कर रही हैं। शिवराज सिंह भी पीछे नहीं रहना चाहते, जिसके चलते उन्होंने अपनी विनम्र छवि को त्याग दिया। कुछ हद तक वे खुद को हिंदूवादी नेता के रूप में स्थापित करने की भी कोशिश कर रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसी उत्तर प्रदेश में योगी की है। 
   दो दिन पहले भोपाल की सड़कों को लेकर उन्हें नगर निगम और पीडब्लयूडी के अफसरों की नकेल कस दी। उन्होंने पूछ भी लिया कि इसका जिम्मेदार कौन है, उसे सामने लाया जाए! मुख्यमंत्री ने ग्वालियर की सड़कों की स्थिति पर भी नाखुशी जाहिर की। दरअसल, मुख्यमंत्री को इस स्थिति तक लाने के लिए वो हालात जिम्मेदार हैं, जो अफसरों ने पैदा किए हैं। जिस तरह की सख्ती शिवराज सिंह इन दिनों दिखा रहे हैं, उससे लगता है कि वे अफसरों की लापरवाहियों से बहुत ज्यादा परेशान हो गए। काफी हद तक ये सही भी है। यदि मुख्यमंत्री को राजधानी की सड़कों को लेकर बोलना पड़े, तो ये सही भी नहीं है। जनता की शिकायत पर मंच से अफसरों को सस्पेंड करने के निर्देश देना उन्हें फटकार लगाना, ये किसी मुख्यमंत्री के लिए आसान हालात नहीं है।
     शिवराज सिंह खुद भी कई बार अफसरों को हिदायत दे चुके हैं कि आजकल अपन अलग मूड में हैं। अभी तक मुख्यमंत्री की छवि विनम्र शासक की रही। वे बच्चों के लिए मामाजी के नाम से लोकप्रिय हैं और उनके पास आने वाली हर शिकायत पर निर्देश देने में देर नहीं करते! लेकिन, अफसरों के प्रति उनके बयानों से उनके तेवर अलग ही लग रहे हैं।  उनकी मॉर्निंग मीटिंग भी सामान्य नहीं होती! वे जिस जिले की समीक्षा करते हैं, पहले वहां की सारी चीरफाड़ कर चुके होते हैं। यही कारण है, कि इन वर्चुअल मीटिंग में कोई अफसर बच नहीं पाता और न झूठ बोलने की हिम्मत कर पाता है। कुछ दिनों पहले पन्ना जिले की समीक्षा में जब कलेक्टर संजय कुमार मिश्रा अपने जिले की सही जानकारी नहीं दे पाए, तो शिवराज सिंह ने नाराजगी जाहिर की। उन्होंने साफ़ कहा कि पन्ना कलेक्टर ये बताएं कि अगर 4 महीने तक जियो टैगिंग चलती रहेगी, तो कैसे काम चलेगा। आपके पास या तो जानकारी नहीं हैं या आप बता नहीं पा रहे हो, ये बात ठीक नहीं है।
   कई जिलों की समीक्षा के दौरान वे सरकारी योजनाओं की धीमी प्रगति से नाखुश हुए। उन्होंने अफसरों को जमकर फटकार लगाई। जल जीवन मिशन, सीएम हेल्पलाइन, बिजली आपूर्ति में गड़बड़ी और धीमी रफ्तार पर नाराजगी व्यक्त की। लेकिन, उनकी इस सख्ती से जनता खुश है। उसे अब लग रहा है कि कोई तो है, जो उनकी बात सुन और समझ रहा है। फिर इसके पीछे कारण कुछ भी हो, जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही का असर दिखाई दे रहा है! आने वाले दिनों में अफसरों पर और ज्यादा सख्ती दिखाई दे, तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए!
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दो तरह की मां होती है, ये 'शाह साहब' ने कैसे जाना!

- हेमंत पाल 

    यह शायद पहला प्रसंग है, जब किसी प्रमुख सचिव ने अपने ही विभाग के कार्यक्रम मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ मंच शेयर करते हुए ऐसी बात कही जिससे बवाल मच गया। उन्होंने महिलाओं को लेकर जो टिप्पणी की, वो इतनी आपत्तिजनक थी, कि भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों ने इसका विरोध किया। 'लाड़ली लक्ष्मी योजना' के दूसरे चरण की लॉन्चिंग में प्रमुख सचिव अशोक शाह ने माइक से बोलते हुए जो कहा वो बेटी विरोधी, माता विरोधी और मध्यप्रदेश की मातृशक्ति की छवि खराब करने वाला माना गया। 
     उन्होंने जो कहा उसका कोई तथ्यात्मक आधार भी शायद नहीं होगा! लेकिन, उन्होंने अपने भाषण में जिस तरह की बातें कही वो निश्चित रूप से किसी महिला की छवि को धूमिल करने के लिए काफी है। मुख्यमंत्री जो मंच पर मौजूद थे, उन्होंने भी अपनी सरकार के इस बड़े अधिकारी के 'उच्च विचार' सुने होंगे! लेकिन, उन्होंने बड़प्पन दिखाते हुए कहा कि मैंने हल्ला होने के कारण उनकी बातों को नहीं सुना! लेकिन, जब बाद में उन्हें बात पता चली होगी तो अच्छा नहीं लगा होगा!      
   अब जानिए कि उन्होंने ऐसा क्या कहा जो महिलाओं के लिए बेहद लज्जास्पद बात थी। उन्होंने महिलाओं को संबोधित करते हुए कहा 'कृपया आप परिवार में इस बात पर विशेष ध्यान दें कि हमारी बालिकाएं पीछे क्यों रह जाती हैं! इसका कारण यह कि 2005 में सिर्फ 15% माताएं बेटियों को दूध पिलाती थीं। थोड़ी खुशी की बात की यह है कि आज 42% माताएं अपनी बेटियों को दूध पिलाती हैं। अगर जन्म के 6 महीने तक बेटियों को मां का दूध नहीं मिलता, तो वे हर दृष्टिकोण में पीछे रह जाती हैं। आप आगे आओ सरकार आपके आर्थिक, सामाजिक सशक्तिकरण के लिए साथ खड़ी है। मैं ये नहीं कहता कि बेटों को दूध न पिलाओ, मैं ये कहता हूं कि बेटियों को भी पिलाना चाहिए, ये प्रण लेना पड़ेगा।'
   अब सवाल यह उठता है कि वे आखिर वे साबित क्या करना चाहते थे! उनके कहने का सीधा आशय तो यह हुआ कि समाज में मां अपनी बेटियों को स्तनपान नहीं करवाती सिर्फ बेटों ही करवाती है! उन्होंने एक आंकड़ा भी पेश किया कि 17 साल पहले सिर्फ 15% माताएं बच्चियों को स्तनपान करवाती थी, अब वो बढ़कर 42% हो गया। जबकि, किसी भी दृष्टि से देखा जाए, तो इस तरह की विचारधारा महिलाओं को अपमानित करती है।
    कोई अफसर मंच से महिलाओं का सामूहिक अपमान कैसे कर सकता है! जबकि, सब जानते हैं कि महिलाओं और बच्चियों के प्रति मुख्यमंत्री बेहद संवेदनशील हैं। जिस कार्यक्रम के मंच से उन्होंने ये बात कही वो भी 'लाड़ली लक्ष्मी योजना' का ही आयोजन था। आश्चर्य की बात है कि अशोक शाह को स्वयं महसूस क्यों नहीं हुआ कि वे कुछ गलत बयानी कर रहे हैं!    
     उनकी बात कितनी लज्जास्पद थी, इस बात का पता इससे चलता है, कि बीजेपी की पूर्व महिला मुख्यमंत्री उमा भारती ने भी अशोक शाह के बयान की घोर निंदा की। उन्होंने तो मुख्यमंत्री को भी इस मामले की शिकायत भी की! लेकिन, मुख्यमंत्री ने अपनी सरकार के अफसर को बचाने की गरज से बात को टाल दिया कि हो-हल्ले की वजह से मैं ठीक से सुन नहीं पाया! लेकिन, उमा भारती ने जो कहा वो सामाजिक दृष्टिकोण से सही भी है। उन्होंने यह भी कहा कि यह बात बेटी विरोधी, माता विरोधी और प्रदेश की मातृशक्ति की छवि खराब करने वाली बात है। 
    उन्होंने यह भी कहा अधिकारियों को ऐसे बयानों के प्रति सचेत और जिम्मेदार रहना चाहिए। अमीर हो या गरीब, बेटा हो या बेटी, बच्चे के जन्मते ही हर मां अपने बच्चे को दूध पिलाती ही है। लाखों में एक केस में कई कारणों से ऐसा नहीं होता होगा। आखिर सारी महिलाएं बेटियां ही हैं, वो जिंदा कैसे रह गईं! जबकि, कांग्रेस प्रवक्ता का कहना है कि एक अधिकारी महिलाओं के लिए इतना लज्जाजनक और अपमानजनक बयान कैसे दे रहे हैं। मुख्यमंत्री जी आपकी मौजूदगी में आपके विभाग के यह प्रमुख अधिकारी महिलाओं के लिए ऐसा बयान कैसे दे रहे हैं! जरा इनसे पूछिए कि यह जानने का विभाग के पास कौन सा पैमाना है, कि कौन सी मां बच्ची को स्तनपान कराती है और कौन सी नहीं! आंकड़ा ये कहां से लाए! 
   अशोक शाह 1990 बैच के आईएएस हैं और अगले साल जनवरी में रिटायर हो रहे हैं। लेकिन, नौकरी से जाने से तीन महीने पहले उन्होंने सरकार को एक नई मुसीबत में डाल दिया। अब सरकार को कई दिन तक उनके इस बयान पर लीपापोती करना पड़ेगी और उनके बयान का सकारात्मक पक्ष सामने लाना होगा कि उनके कहने का मतलब ये नहीं, ये था! क्योंकि, विभाग भी सरकार का है और अफसर भी! 
    सबसे बड़ी तो यह कि जिस तरह मुख्यमंत्री आजकल अधिकारियों को उनकी गलती की सजा दे रहे हैं, क्या अशोक शाह पर भी कार्रवाई होगी! इंदौर के एक आईएएस अफसर को सिर्फ एक विकलांग व्यक्ति के साथ असंवेदनशीलता दिखाने पर हटा दिया गया! ... तो क्या अशोक शाह का कथन उस श्रेणी का असंवेदनशील नहीं है! उन्होंने तो प्रदेश की उन सारी मांओं को कटघरे खड़ा कर दिया और उनको आंकड़ों में भी बांट दिया! क्या जिन मांओं पर उंगली उठाई गई, क्या उनकी मां ने उनको स्तनपान नहीं कराया था!    
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Thursday, November 10, 2022

सिनेमा में भी खूब बरसे हैं सिक्के और नोट!

हेमंत पाल

      ऐसा कोई काल नहीं जब रुपए पैसे की बात न होती हो। जहां पैसा होगा वहां बहस ही क्या झगडा तक संभव है। क्योंकि, पुराने समय से ही कहा गया है कि जर, जोरू और जमीन ही विवाद के मुख्य कारण होते हैं। हिन्दी फिल्मों के लिहाज से तो रुपए और पैसे का महत्व और भी बढ़ जाता है, इसलिए कि अमीरी-गरीबी, प्यार-तकरार और मारपीट, लूट और डकैती से लेकर सामाजिक सरोकार की जितनी भी फिल्में बनाई जाती हैं, उनकी जड़ में कहीं न कहीं रूपया और पैसा ही होता है। रुपए के अवमूल्यन से फिल्मों में भी इसका महत्व घटता बढ़ता रहा है। यदि आज का युवक कोई ऐसी पुरानी फिल्म देखे जिसमें नजीर हुसैन, राज मेहरा जैसा अमीर बाप किसी गरीब नायिका या नायक को यह कहते सुने कि मेरे बेटे या बेटी को छोड़ने का क्या लोगे! पांच हजार, दस हजार तो उसे आश्चर्य ही होगा! क्योंकि, तब पांच या दस हजार का भी बहुत मूल्य था। जॉनी मेरा  नाम में देश-विदेश के स्मगलरों की गाड़ियों का जमघट इकट्ठा होता है जहां प्रेमनाथ जवाहरातों की नुमाइश कर उसे स्मगलरों को बेचने के बाद देव आनंद और प्राण से कहता है मोती दस करोड, जॉनी दस करोड़ तो आज लगता है इतनी कम राशि के लिए इतना बड़ा जमघट।
    यह तो कुछ हजार की बात हुई। हिन्दी फिल्मों में सबसे कम रुपए को लेकर पूरी की पूरी फिल्में बन जाती थी और दर्शक सांस रोककर देखा करता था। शम्मी कपूर की 1963 की फिल्म फिल्म 'ब्लफ मास्टर' में नायक नायिका के लिए सौ रुपए कमाने के लिए तरह-तरह की जुगाड़ करता था। आखिर में जब दही-हांडी के ऊपर रखा सौ का नोट अपने दांतों से पकड़ता है तो दर्शकों की बांछे खिल जाती थी। शम्मी कपूर की दूसरी फिल्म थी 'उजाला' जिसमें वह अपराधी रहते हुए सुधरने के लिए एक आश्रम में जाता है। आश्रम का संचालक उसे सौ रूपए देकर साथियों को कहता है कि इसकी ईमानदारी की परीक्षा के लिए इसे पैसे दे रहा हूं। अब देखना है कि यह पैसा वापस लेकर आता है या पैसा लेकर भाग जाता है। फिल्म का खलनायक गुंडा राजकुमार उसके हाथ से सौ का नोट लेकर भाग जाता है। शम्मी कपूर उस नोट की खातिर अपनी जान तक लड़ा देता है। आखिर में जब राजकुमार उसे चाकू मारकर उसके हाथ में सौ का नोट देकर भाग जाता है तो दर्शक तालियां पिटने लगते है।
    संजय खान और बबीता की एक फिल्म आई थी जिसमें ओमप्रकाश की दस लाख की लॉटरी खुल जाती है। तब वह दस लाख में बंगला, गाडी सहित ढेर सारी चीजें खरीदने के बावजूद रईस बना रहता है। आज इतना सामर्थ्यवान बनने के लिए सौ करोड़ रुपए भी कम लगते हैं। फिल्म 'शोले' में अमिताभ और धर्मेन्द्र भी पांच, दस हजार रुपए कमाने के लिए जगदीप की मदद से खुद को पुलिस के हवाले करते हैं और जेल से छूटने के बाद अपना हिस्सा लेने आते हैं। गबन विषय पर चाहे साधु और शैतान, दीवार या 'गबन' जैसी चाहे जितनी फिल्मे बनी हो, उनमें गबन की राशि दो-चार हजार से ज्यादा नहीं होती थी। लेकिन, आज जमाना बदल गया है। फिल्मों में रईस मां-बाप के सुर भी अब करोड़ों से कम की बात नहीं करते। तब हॉलीवुड की फिल्म 'हाऊ टू स्टील ए मिलियन डॉलर' देखकर भारतीय दर्शक चकरा सा गया था कि क्या इतना पैसा भी होता है!  
    भारतीय करेंसी के अवमूल्यन के साथ ही फिल्मों के शीर्षक भी प्रभावित हुए है। पहले रुपए की तो छोड़िए पैसों की भी बहुत कीमत होती थी। तब फिल्मों के शीर्षक भी पैसों तक सीमित होते थे। उस दौर में बनी फिल्में पैसा, चार पैसे,  पैसा ही पैसा, पैसा बोलता है, ससुरा बड़ा पैसे वाला, पैसा वसूल, पैसा या प्यार और पैसा या पैसा यही कहानी कहता है। जब पैसे की कीमत घटी तो रूपए की बाते होने लगी तो आमदनी अट्ठनी खर्चा रुपैया, सबसे बड़ा रूपैया बना। रूपया कुछ और चढ़ा तो फिल्म 'दस लाख' बनी और देव आनंद ने 'सौ करोड़' बनाकर इसकी कीमत बढा दी। कुछ लोग जिन्हें पैसा बोलने में शर्म आती है उन्होंने 'मनी' के बाद 'मनी मनी' और 'अपना सपना मनी मनी' जैसी फ़िल्में बनाई। हिंदी सिनेमा के गीतकारों ने देश के इस धीमे-धीमे बदलते रिश्ते को पैसे के साथ अच्छी बुद्धि और अनुग्रह के साथ वर्षों से खोजा है। श्रोता रोहन सिप्पी के ब्लफ़ मास्टर (2005) के रीमिक्स के गीत को याद करेंगे। 'द होल थिंग इज देट के भैया सबसे बड़ा रुपैया' पैसे की ताकत की बात करता है। दुनिया में कोई अपने माता-पिता के कारण नहीं, बल्कि पैसे के लिए पैदा होता है। बसु-मनोहारी द्वारा रचित, इस गीत को महमूद के मुखर कौशल से जीवन मिलता है, जिसके ढुलमुल तौर-तरीके गीत की भावना को प्रभावित करते हैं।
     संगीतकार रवि को भी पैसे से बहुत प्यार था। राजेन्द्र कुमार गीता बाली अभिनीत उनकी फिल्म 'वचन' (1955) में प्रेम धवन ने 'एक पैसा दे दे ओ बाबू' गीत लिखा था जो गरीब होने की हताशा और अपमान को रेखांकित करता है। मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ सरल लेकिन प्रभावी गीतों में करुणा को बढ़ाती है तेरी जेब रहे ना खाली, तेरी रोज़ माने दीवाली दिवाली इस गीत में आशा भोंसले रफी के साथ भिखारी बच्चे की आवाज के रूप में शामिल होती हैं। 1960 में प्रदर्शित 'गर्ल फ्रेंड' के गीत पैसे की कहानी को जाने माने गीतकार साहिर लुधियानवी ने लिखा था। यह गीत पैसे की कहानी इस बात की उत्पत्ति को ट्रैक करती है कि पैसा कैसे अस्तित्व में आया और इसकी यात्रा का अनुसरण करता है। क्योंकि, इसने लोगों के बीच असमानता पैदा की और अंततः मानवता को ही भ्रष्ट कर दिया। इस गीत में एक के बाद एक दोहे हैं। संगीत के बिना, वे एक उपदेश की तरह पढ़ते हैं।
       'चार पैसे' (1955) का गीत 'छन छन बाजे रुपैया' एक मजेदार गीत है, जिसे किशोर कुमार ने पर यादगार बनाया गया है। सरताज रहमानी के बोल बताते हैं कि पैसे से आपको एक सूट, एक बंगला मिल जाता है और आप का बाबू बन जाते हैं। संगीत बरेंद्र देव बर्मन का है, जिसे फिल्म में बीडी बर्मन के रूप में श्रेय दिया जाता है। इसे सचिन देव या राहुल देव बर्मन के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए। देव आनंद को भी पैसों से खास दिलचस्पी थी। इसलिए 'अमरदीप' में वे गाते हैं लेने से इंकार नहीं, देने को तैयार नहीं, इस दुनिया में कौन है ऐसा जो पैसों का यार नहीं। 
     उनकी दूसरी फिल्म 'काला बाजार' का गीत 'तेरी धूम हर कहीं तुझ सा यार कोई नहीं हम को तो प्यारे तू सब से प्यारा लई लई लई लई तेरी धूम' दुनिया की गाड़ी का पहिया तू चोर तू ही सिपहिया' में पैसे की महिमा कही गई है। इसी नाम से बनी अनिल कपूर की फिल्म 'काला बाजार' में कादर खान गाते हैं 'पैसा बोलता है' एक व्यंग्यपूर्ण गीत है जो गायक नितिन मुकेश के मधुर स्वरों की बदौलत कानों पर हल्का है। राजेश खन्ना की फिल्म 'रोटी' में एक गाना था 'नाच मेरी बुलबुल की पैसा मिलेगा।' संजीव कुमार और लीना चंदावरकर की फिल्म ईमान का गीत पैसे को प्यार से ज्यादा जरूरी मानते हुए कहता है 'पैसे बिना प्यार फिजूल है।' 
    ज्वाला डाकू का गीत पैसा फेंक तमाशा देख भी पैसे के पावर की बात कहता है यह गीत 1968 की फिल्म 'रूप रुपैया' के गीत 'रुपैया जहां है वहां है रूप' है से मिलता जुलता है। ऐसे ही बोल राजेश खन्ना और मुमताज की फिल्म 'दुश्मन' के भी है जिसमें बाइस्कोप वाली मुमताज कहती है 'देखो देखो देखो .... पैसा फेंको तमाशा देखो!' ऐसा ही गीत 2006 की फिल्म 'कृष' और 'जॉनी गद्दार' में भी है।
     2002 की फिल्म 'वाह तेरा क्या कहना' में गोविंदा कहता है 'आई वांट मनी' भी धन के आकर्षण को बढाता है। 'कर्ज' में ऋषि कपूर 'पैसा हाय पैसा' कहते हुए उसे मुसीबत मानते हैं, तो चलती का नाम गाड़ी का गीत पांच रुपैया बारह आना भी रुपए आने का हिसाब मनोरंजक अंदाज में पेश करता है। अक्षय कुमार भी 'दे दना दन' में कैटरीना से कहते हैं 'क्यों पैसा पैसा करती है।' यानी समाज से लेकर राजनीति और सिनेमा सभी दूर पैसे का ही बोलबाला है। सिनेमा की टिकट दरों पर भी पैसे के उतार-चढ़ाव का असर साफ दिखाई देता है। हर घर में कोई न कोई बुजुर्ग जरूर मिल जाएगा, जो कहेगा कि हमने तो दो आने, तीस पैसे, साठ पैसे बारह आने में फिल्में देखी है। उसी घर में युवा पीढ़ी भी मिल जाएगी जो हजार रुपए देकर रिक्लाइनर पर पैर पसारकर मल्टीप्लेक्स में पॉपकॉर्न बनाते हुए आज फिल्में देखती हैं।
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Thursday, November 3, 2022

हिंदी फिल्मों की हिंदी में कई भाषाओं का तड़का!

 हेमंत पाल 

   ब हिंदी फिल्म की बात होती है, तो जहन में ऐसी फिल्म की कल्पना उभरती है जिसकी भाषा हिंदी हो! ये सही भी है, क्योंकि भाषा से ही फिल्म की पहचान बनती है। दक्षिण की फ़िल्में भी तमिल, तेलुगू और मलयालम में बनती है। भोजपुरी फ़िल्में वहां बोली जाने वाली भाषा की होती हैं। बांग्ला की फ़िल्में बांग्ला में और उड़िया फ़िल्में वहां भाषा में! लेकिन, हिंदी फ़िल्में पूरी तरह हिंदी में नहीं बनती! जिस तरह हिंदी कभी सीमाओं में कैद नहीं रही, वही स्थिति हिंदी फिल्मों की भी रही! इनमें पंजाबी, मराठी और गुजराती के अलावा संवाद कई बोलियां में भी होते हैं। फिल्म निर्माण के शुरूआती दौर में हिंदी के साथ उर्दू का तड़का भी लगता था! क्योंकि, शुरू से ही हिंदी के साथ उर्दू का तालमेल करके प्रभाव देने की कोशिश की गई।
     उर्दू तहजीब की भाषा है, उसका दायरा बहुत परिमार्जित है। हिंदी फिल्मों के कई गीतकार और संवाद लेखक उर्दू के साहित्यकार और शायरों रहे हैं। किंतु, समय के साथ-साथ इन दोनों भाषाओं का रिश्ता दरकने लगा! सिर्फ भाषा के इस्तेमाल में ही बदलाव नहीं आया, बोलने का लहजा भी बदल गया। सिनेमा को सबसे ज्यादा समाज प्रभावित करता है, पर भाषा ही वो घटक है, जो फ़िल्म का संस्कार दर्शाता है। सत्तर के दशक के आसपास हिंदी सिनेमा में एक टपोरियों जैसी भाषा भी विकसित हुई। ऐसी भाषा जो वास्तव में ठेठ मुंबई की बोली थी। ये भाषा 'रंगीला' और 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' में जमकर बोली गई। इन फिल्मों की भाषा ने सबसे बड़ा नुकसान फिल्मों का ही किया।       
      50 और 60 के दशक के मध्यकाल तक की फिल्मों में जुबान साफ़ और आसान थी। जबकि, आज की फिल्मों में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग के साथ स्थानीय बोली का भी घालमेल ज्यादा दिखाई देने लगा। अपराध की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'गैंग आफ वासेपुर' को भाषा के स्तर पर फिल्मों में आने वाले बदलाव का मोड़ कहा जा सकता है। इस फिल्म में भाषा का विकृत रूप सुनाई दिया था। अब तो स्थिति ये आ गई कि फिल्मों की भाषा को किरदार मुताबिक गढ़ा जाने लगा है! 'तनु वेड्स मनु' में कंगना रनौत अपना परिचय हरियाणवी में देती है। 'बाजीराव मस्तानी' में मराठा बना रणवीर सिंह मराठी बोलता नजर आता है! 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में भोजपुरी, 'उड़ता पंजाब' में पंजाबी, 'पानसिंह तोमर' में ब्रज भाषा का इस्तेमाल हुआ! वास्तव में तो फिल्मों की भाषा दर्शक की मनः स्थिति तक पहुँचने का जरिया होती है! यही कारण है कि ऐसी भाषा का इस्तेमाल होता है, जो लोगों में लोकप्रिय हो और आसानी से समझ आए। गुजराती और पंजाबी का ज्यादा इस्तेमाल होने का कारण यह भी है कि ओवरसीज में इस भाषा के लोग ज्यादा हैं।     
      हिंदी सिनेमा की हिंदी की बात की जाए, तो यह न तो व्याकरण सम्मत है न साहित्यिक! कहने को इन्हें हिंदी फ़िल्में कहा जाता हो, पर वास्तव में ये खरी हिंदी नहीं है, बल्कि कई भाषा और बोलियों का मिश्रण है! जबकि, देखा जाए तो मराठी, मलयालम, तमिल और यहाँ तक कि भोजपुरी और बांग्ला फिल्मों में भी वहाँ की अपनी भाषा होती है! पर, हिंदी फिल्मों में पूरी तरह हिंदी भाषा नहीं होती! फिल्म के संवादों में भाषा की इतनी मिलावट है, कि इसे पूरी तरह हिंदी फ़िल्में तो कहा ही नहीं जा सकता! 
     फिल्मों में भाषा का जो बदला स्वरूप सामने आया, वो काफी हद तक हमारे समाज और संस्कृति का मापदंड है। देखा जाए तो समय के साथ बोलचाल की भाषा में भी बदलाव आ रहा है। ऐसे में सबसे सही भाषा वही मानी गई है, जो अपनी बात कहने का जरिया बने! कहने को एक फिल्म 'हिंदी मीडियम' भी बनी, पर ये भी हिंदी के लिए नहीं थी! समय-समय पर हिंदी की कई नामी हस्तियों ने भी हिंदी सिनेमा में अपना योगदान दिया। नीरज ने देव आनंद के लिए कई गीत लिखे, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर फिल्म बनी और शरद जोशी ने फिल्मों के संवाद लिखे।     
   दादासाहेब फाल्के ने जब 1913 में पहली मूक फिल्म 'राजा हरिशचंद्र' बनाई, तब फिल्म की भाषा कोई विषय नहीं था! मूक फिल्मों के बाद जब फ़िल्में बोलने लगी और परदे पर पात्रों की संवाद अभिव्यक्ति होने लगी, तब भी भाषा संस्कार जैसी कोई बात नहीं थी। लेकिन, यहां से पटकथा और संवाद लेखन का काम जरूर शुरू हो गया। 1931 में जब पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' बनी, तो भाषा भी मुद्दा बन गया! लेकिन, तब हिंदी के साथ उर्दू की नफासत का पुट था, जो धीरे-धीरे लोप होता गया।
      1940 में महबूब ख़ान ने 'औरत' बनाई थी, जो एक महिला के संघर्ष की कहानी थी। इसके बाद महबूब ख़ान ने एक ग्रामीण महिला के संघर्ष को ग्रामीण परिवेश में दिखाते हुए 'मदर इंडिया' बनाई! इस फिल्म की भाषा भोजपुरी मिश्रित हिन्दी थी। ग्रामीण परिवेश की कहानी वाली फिल्मों में हिन्दी और भोजपुरी का ही ज्यादा प्रयोग होता था। क्योंकि, मुंबई तथा अन्य बड़े शहरों में बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से गए लोगों की संख्या ज्यादा थी, जो भोजपुरी बोलते थे। बिमल रॉय ने खेती छोड़कर मजदूरी करने आए मजदूर की जिंदगी पर 'दो बीघा ज़मीन' जैसी फिल्म बनाई। इसमें बलराज साहनी ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इस फिल्म की भाषा तो हिन्दी थी, पर कई गाने भोजपुरी पुट वाले थे।
   राज कपूर, बिमल रॉय जैसे फिल्मकार छठे दशक से अपनी एक पहचान कायम करने में सफल रहे थे। राज कपूर के पास फिल्म निर्माण का लम्बा तजुर्बा था। क्योंकि, पृथ्वीराज कपूर ने अपने बेटे को सितारे का बेटा बनाकर नहीं रखा, बल्कि उनको संघर्ष की आंच में तपाया। राज कपूर अपनी फिल्मों के कथानक के साथ उसके निर्माण से भी बेहद तादात्म्य बनाकर रखते थे। फिल्म के संगीत से लेकर भाषा तक के प्रति उनका गहरा समर्पण था। आह, आग, आवारा, श्री चार सौ बीस जैसी फिल्मों के संवादों में भाषा का बहुत ख्याल रखा गया था। 
     बिमल रॉय जैसे फिल्मकार ने बंगला संस्कृति में कई फ़िल्में बनाई, पर जब वे हिन्दी सिनेमा में आए, तो उसमें भी अपनी श्रेष्ठता दिखाई। नबेंदु घोष जैसे लेखक, पटकथाकार, हृषिकेश मुखर्जी जैसे सम्पादक जो आगे चलकर फिल्मकार भी बने, उन्होंने भी कई अच्छी फिल्में बनाई। उनकी बनाई फिल्में हमराही, बिराज बहू, दो बीघा जमीन, परिणीता, देवदास, सुजाता, बंदिनी थीं, जो आज मील का पत्थर हैं। हम यदि इन फिल्मों को याद करते हैं तो हमें दिलीप कुमार, बलराज साहनी, नूतन, सुचित्रा सेन, अशोक कुमार जैसे कलाकार ही याद नहीं आते, बल्कि दृश्य, संवाद और गीत भी मन-मस्तिष्क में ताजा हो जाते हैं।
       श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी ने जब कला फिल्मों के निर्माण में कदम रखा तो अपने सिनेमा में भाषा के साथ उच्चारण की स्पष्टता पर भी ध्यान दिया। इसका कारण यह था कि उनके साथ सत्यदेव दुबे जैसे रंगकर्मी थे, जो भाषा की शुद्धता के प्रबल समर्थक थे। वे भाषा की शुद्धता और उसके उच्चारण तक में अपनी बात मनवाते थे। यही वजह है कि मंडी, जुनून, निशांत, अंकुर और भूमिका जैसी फिल्में में भाषा का अलग ही अंदाज दिखाई दिया था। बाद में यही काम उनके समकालीनों में सुधीर मिश्रा, प्रकाश झा, केतन मेहता, सईद अख्तर मिर्जा ने भी किया। बीआर चोपड़ा की महाभारत के संवाद लेखन में डॉ राही मासूम रजा के योगदान को सभी याद करते हैं। इसी तरह रामानंद सागर ने भी रामायण सीरियल बनाते हुए उसके संवादों पर विशेष जोर दिया। 'भारत एक खोज' धारावाहिक भी भाषा के स्तर पर बेहद सशक्त था। तीसरी कसम, सद्गति, सारा आकाश जैसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर कालजयी निर्माण के रूप में जाने जाते हैं। 
    ये मुद्दा भी बहस का विषय रहा कि भाषाई संस्कार में आए बदलाव से हिंदी को नुकसान हुआ या कोई फायदा भी हुआ? इस मुद्दे पर सभी एकमत नहीं हो सकते! इसलिए कि सभी के तर्क अलग-अलग हो सकते हैं! कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों में क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव से हिंदी का स्तर गिरा नहीं है! बल्कि, इस रास्ते से हिंदी क्षेत्रीय भाषा एक बड़े समूह तक जरूर पहुंची! ये ज़रूर है कि आज बॉलीवुड में ज्यादातर फिल्मों में खिचड़ी भाषा का इस्तेमाल होने लगा है। इसमें अंग्रेजी और हिंगलिश सब कुछ होता है। ये भी कहा जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से हिंदी खराब नहीं हो रही, बल्कि समृद्ध हो रही है। साथ ही क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां भी संरक्षण पा रही है। लेकिन, फिर भी बॉलीवुड की फिल्मों को हिंदी फ़िल्में ही कहा जाता है और कहा जाता रहेगा। हिन्दी सिनेमा की भाषा को बचाने की कोशिश पहले नहीं की जाती थी। क्योंकि, सब कुछ अपने आप ही चला करता था। हिन्दी फिल्मों में हिंदी को कोई खतरा नहीं था। लेकिन, बाद में चीजें बदलना शुरू हुई। जो लोग इस बदलाव से जुड़े थे और इसका समर्थन कर रहे थे उनका मानना यही था कि नए जमाने के साथ सिनेमा को भी अपनी एक भाषा की जरूरत है।
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